मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं
मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों के बारे में आज की संगति बारहवें मद के बारे में है : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं। यह मद मसीह-विरोधियों के स्वभावों से भी संबंधित है और यह उनकी ठोस अभिव्यक्तियों में से एक है। सतही दृष्टिकोण से देखें तो यदि किसी मसीह-विरोधी के पास रुतबा नहीं होता और उसे आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं होती, तो वह पीछे हटना चाहेगा। एक बार जब वह इन दोनों चीजों को खो देता है, तो वह पीछे हटना चाहेगा। सतही अर्थ को समझना बहुत आसान लगता है—यह बहुत जटिल या अमूर्त नहीं लगता, लेकिन यहाँ विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? दूसरे शब्दों में, किस तरह की परिस्थितियों के कारण कोई मसीह-विरोधी अपने रुतबे या आशीष पाने की उम्मीद पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण पीछे हटना चाहता है? क्या यह कुछ ऐसी चीज है जो गहन संगति के लायक है? यदि तुम लोगों से इस पर संगति साझा करने के लिए कहा जाए, तो तुम लोग इसके विशिष्ट विवरणों और अभिव्यक्तियों के बारे में क्या कहोगे? कुछ लोग कह सकते हैं, “हमने इस पर कई बार संगति की है। मसीह-विरोधियों को रुतबा और शक्ति पसंद है, वे उच्च प्रतिष्ठा का आनंद लेते हैं और आस्था रखने के पीछे उनका लक्ष्य आशीष प्राप्त करना, ताज पहनाया जाना और पुरस्कृत होना होता है। यदि उनकी ये आशाएँ धराशायी हो जाती हैं और खो जाती हैं, तो परमेश्वर में विश्वास को लेकर उनकी रुचि खत्म हो जाएगी और वे आगे से आस्था नहीं रखना चाहेंगे।” क्या इस पर तुम लोगों की संगति इन चंद शब्दों जितनी ही सरल होगी? (हाँ।) अगर ऐसा होता, अगर यह संगति इन चंद कथनों के साथ समाप्त हो पाती, तो मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों का यह पहलू इस लायक न होता कि हम मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों पर अपनी संगति की इस कड़ी में इसे एक अलग खंड दें, न ही यह किसी विशेष प्रकृति सार को छूता। लेकिन चूँकि इस मद का संबंध मसीह-विरोधियों के सार और स्वभाव से होने के साथ ही उनके व्यक्तिगत अनुसरणों और अस्तित्व संबंधी दृष्टिकोणों से है, तो फिर यह अवश्य ही एक बहुआयामी विषय होना चाहिए। तो, इसमें ठीक-ठीक क्या शामिल है? यानी, मसीह-विरोधियों का सामना ऐसे किन मामलों से होता है जिनका संबंध उनके रुतबे और आशीष पाने की उनकी आशा से होता है? इन मामलों के प्रति उनके दृष्टिकोण, विचार और रवैये क्या होते हैं? बेशक, इन मामलों पर हमारी संगति और विभिन्न मुद्दों पर मसीह-विरोधियों के दृष्टिकोण को लेकर हमारी पिछली संगतियों में कुछ दोहराव देखने को मिलेगा लेकिन आज की संगति का केंद्र-बिंदु अलग है और यह इस मसले को एक अलग कोण से देखती है। आज हम विशेष रूप से उन अभिव्यक्तियों पर संगति करेंगे जो तब सामने आती हैं जब मसीह-विरोधी अपना रुतबा और आशीष पाने की उम्मीदें खो बैठते हैं, जिससे यह साबित हो सकता है कि मसीह-विरोधियों का अनुसरण के प्रति दृष्टिकोण सही नहीं होता और यह भी कि परमेश्वर में उनका विश्वास सच्चा नहीं है; ये अभिव्यक्तियाँ यह भी सत्यापित कर सकती हैं कि इन लोगों में वास्तव में एक मसीह-विरोधी का सार होता है।
I. मसीह-विरोधियों का काट-छाँट किए जाने के प्रति दृष्टिकोण
सबसे पहले हमें उन व्यवहारों पर एक नजर डालनी चाहिए जो मसीह-विरोधी तब प्रकट करते हैं जब उनकी काट-छाँट की जाती है, वे ऐसी स्थितियों से कैसे निपटते हैं, काट-छाँट के बारे में उनके रवैये, विचार और दृष्टिकोण क्या होते हैं, और विशेष रूप से वे क्या कहते और करते हैं—ये मामले हमारे गहन विश्लेषण और विश्लेषण के योग्य हैं। हमने काट-छाँट से जुड़े विषयों पर काफी हद तक संगति की है; यह एक सामान्य विषय है जिससे तुम सभी परिचित हो। कई बार काट-छाँट किए जाने के बाद ही अधिकांश लोग अपने में कुछ परिवर्तन का अनुभव करते हैं—वे सत्य खोज सकते हैं और अपना कर्तव्य निभाते समय सिद्धांतों के अनुसार मामलों को सँभाल सकते हैं, और केवल तभी उनकी आस्था नए सिरे से शुरू होती है और इसमें कुछ अच्छे बदलाव आते हैं। यह कहा जा सकता है कि कठोरता से काट-छाँट किए जाने का हर मामला हर व्यक्ति के दिल में अंकित हो जाता है; यह एक अमिट याद छोड़ता है। बेशक, कठोरता से काट-छाँट किए जाने का हर मामला मसीह-विरोधियों के लिए भी एक अमिट याद छोड़ता है, लेकिन इनमें अंतर कहाँ हैं? इस विषय में एक मसीह-विरोधी का दृष्टिकोण और विभिन्न अभिव्यक्तियाँ, साथ ही उनके खयाल, दृष्टिकोण, विचार, और इस स्थिति से उत्पन्न होने वाली अन्य बातें, सभी एक सामान्य व्यक्ति से भिन्न होती हैं। जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है, तो सबसे पहले वे उसका विरोध करते हैं और उसे दिल की गहराई से नकार देते हैं। वे उससे लड़ते हैं। और ऐसा क्यों करते हैं? ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार सत्य से विमुख और उससे घृणा करने वाला होता है और वे सत्य जरा-भी नहीं स्वीकारते। स्वाभाविक-सी बात है कि एक मसीह-विरोधी का सार और स्वभाव उन्हें अपनी गलतियों को मानने या अपने भ्रष्ट स्वभाव को स्वीकारने से रोकता है। इन दो तथ्यों के आधार पर, काट-छाँट किए जाने के प्रति एक मसीह-विरोधी का रवैया उसे पूरी तरह से नकारने और अवज्ञा करने का होता है। वे दिल की गहराइयों से इससे घृणा और इसका विरोध करते हैं, उनमें जरा-सा भी स्वीकृति या समर्पण का भाव नहीं होता, तो सच्चे आत्मचिंतन या पश्चात्ताप की तो बात ही दूर है। जब किसी मसीह-विरोधी की काट-छाँट की जाती है, तो यह किसने किया है, यह किससे संबंधित है, उस मामले के लिए वह किस हद तक जिम्मेदार है, उसकी भूल कितनी स्पष्ट है, उसने कितनी बुराई की है या कलीसिया के कार्य के लिए उसकी बुराई से क्या परिणाम पैदा होते हैं—मसीह-विरोधी इनमें से किसी बात पर कोई विचार नहीं करता। एक मसीह-विरोधी के लिए, उसकी काट-छाँट करने वाला बस उसी के पीछे पड़ा है या जानबूझकर उसका उत्पीड़न करने के लिए उसमें दोष ढूँढ़ रहा है। मसीह-विरोधी तो यह तक सोच सकता है कि उसे धमकाया और अपमानित किया जा रहा है, उसके साथ इंसान की तरह व्यवहार नहीं किया जा रहा, उसे नीचा दिखाकर उसका उपहास किया जा रहा है। मसीह-विरोधी काट-छाँट के बाद भी, इस बात पर कभी विचार नहीं करते कि उन्होंने आखिर क्या गलती की है, उन्होंने क्या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया, और क्या उन्होंने उन सिद्धांतों की खोज की है, जिसके अनुसार उन्हें चलना चाहिए, क्या उन्होंने सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया या उस मामले में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कीं, जिनमें उनकी काट-छाँट की गई। वे इनमें से किसी की भी न तो जाँच या आत्म-चिंतन करते हैं, न ही इन मुद्दों पर वे सोच-विचार या मंथन करते हैं। बल्कि, वे काट-छाँट से अपनी मनमर्जी और गुस्सैल दिमाग से पेश आते हैं। जब भी किसी मसीह-विरोधी की काट-छाँट की जाती है, तो वह क्रोध, अवज्ञा और असंतोष से भर जाता है और किसी की सलाह नहीं मानता। वह अपनी काट-छाँट को स्वीकार नहीं पाता, वह अपने बारे में जानने और आत्म-चिंतन करने, और अनमना या अपना कर्तव्य निरंकुशता से करने जैसी सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाली हरकतों का समाधान करने के लिए कभी परमेश्वर के सामने नहीं आता, न ही वह इस अवसर का उपयोग अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए करता है। इसके बजाय, वह अपना बचाव करने के लिए, खुद को निर्दोष साबित करने के लिए बहाने ढूँढ़ता है, यहाँ तक कि वह कलह पैदा करने वाली बातें कहकर लोगों को उकसाता है। संक्षेप में, जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है, तो उनकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ अवज्ञा, असंतोष, प्रतिरोध और अनादर की होती हैं, और उनके दिलों में कुछ शिकायतें उठती हैं : “मैंने इतनी बड़ी कीमत चुकाई और इतना ज्यादा काम किया। भले ही मैंने कुछ चीजों में सिद्धांतों का पालन नहीं किया या सत्य की तलाश नहीं की, मैंने यह सब अपने लिए नहीं किया! भले ही मेरे कारण कलीसिया के काम को कुछ नुकसान पहुँचा हो, लेकिन मैंने ऐसा जान-बूझकर नहीं किया! कौन गलतियाँ नहीं करता? तुम मेरी गलतियों को पकड़कर मेरी कमजोरियों पर विचार किए बिना और मेरी मनोदशा या आत्म-सम्मान की परवाह किए बिना अंतहीन रूप से मेरी काट-छाँट नहीं कर सकते। परमेश्वर के घर में लोगों के लिए कोई प्रेम नहीं है और यह बहुत अन्यायपूर्ण है! इसके अलावा, तुम इतनी छोटी-सी गलती के लिए मेरी काट-छाँट करते हो—क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम मुझे प्रतिकूल नजरों से देखते हो और मुझे हटाना चाहते हो?” जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है, तो उनके दिमाग में पहली बात यह नहीं आती कि वे अपनी गलती पर या उस भ्रष्ट स्वभाव पर आत्मचिंतन करें जो उन्होंने प्रकट किया है, बल्कि अटकलें लगाते हुए बहस करना, स्पष्टीकरण देना और खुद को सही ठहराना उनका ध्येय होता है। कैसी अटकलें? “मैंने परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने के लिए इतनी बड़ी कीमत इसलिए चुकाई है कि मेरी काट-छाँट की जाए। ऐसा लगता है कि मुझे आशीष मिलने की बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है। क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर लोगों को पुरस्कृत नहीं करना चाहता, इसलिए वह लोगों को बेनकाब करने और उन्हें हटाने के लिए इस तरीके का इस्तेमाल करता है? अगर आशीष मिलने की कोई उम्मीद ही नहीं है, तो मैं कोई प्रयास क्यों करूँ? मैं कष्ट क्यों सहूँ? चूँकि आशीष मिलने की कोई उम्मीद ही नहीं है, तो मुझे बिल्कुल भी विश्वास नहीं करना चाहिए! क्या परमेश्वर में विश्वास करने का उद्देश्य आशीष प्राप्त करना नहीं होता? अगर इसकी कोई उम्मीद नहीं है, तो मैं खुद को क्यों खपाऊँ? शायद मुझे बस विश्वास करना बंद कर देना चाहिए और बात खत्म कर देनी चाहिए? अगर मैं विश्वास नहीं करता, तो क्या तुम तब भी मेरी काट-छाँट कर सकते हो? अगर मैं विश्वास नहीं करता, तो तुम मेरी काट-छाँट नहीं कर सकते।” मसीह-विरोधी परमेश्वर की ओर से काट-छाँट किए जाने को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं कर पाते। वे उचित दृष्टिकोण और रवैये के जरिये स्वीकार और आज्ञापालन नहीं कर पाते। वे इसके माध्यम से आत्म-चिंतन नहीं कर पाते और अपने भ्रष्ट स्वभावों को नहीं समझ पाते ताकि उनके भ्रष्ट स्वभावों को शुद्ध किया जा सके। इसके बजाय, वे अपनी काट-छाँट के उद्देश्य को लेकर मतलबी और संकीर्ण मन से अटकलें लगाते और उसका अध्ययन करते रहते हैं। वे स्थिति के क्रमागत विकास को ध्यान से देखते रहते हैं, जब लोग बोलते हैं तो उनके लहजे को सुनते रहते हैं, जाँच-परख करते हैं कि उनके आस-पास के लोग उन्हें कैसे देखते हैं, वे उनसे कैसे बात करते हैं, और उनका रवैया कैसा है, और इन चीजों का उपयोग यह पुष्टि करने के लिए करते हैं कि क्या उन्हें आशीष मिलने की कोई उम्मीद है या वे वास्तव में बेनकाब करके हटाए गए हैं। काट-छाँट का एक साधारण-सा मामला मसीह-विरोधियों के दिलों में इतनी बड़ी उथल-पुथल और इतना चिंतन पैदा कर देता है। जब भी उनकी काट-छाँट की जाती है, तो उनकी पहली प्रतिक्रिया घृणा की होती है, और अपने दिलों में वे इससे विमुख महसूस करते हैं, वे इसे अस्वीकार करते हैं, और इससे लड़ते हैं, फिर लोगों की भाषा और हाव-भाव की जाँच करते हैं, उसके बाद अटकलें लगाने लगते हैं। वे स्थिति में क्रमिक विकास को देखने के लिए अपने दिमाग, अपने विचार और अपनी क्षुद्र चतुराई को झोंक देते हैं, जाँच-परख करते हैं कि उनके आस-पास के लोग उन्हें कैसे देखते हैं, और अपने प्रति वरिष्ठ अगुआओं के रवैये को ध्यान से देखते हैं। इन चीजों से वे यह अनुमान लगाते हैं कि उन्हें अभी भी आशीष मिलने की कितनी उम्मीद है, क्या उन्हें आशीष मिलने की रत्ती भर भी उम्मीद है, या क्या वे वास्तव में बेनकाब करके हटा दिए गए हैं। मुश्किल स्थिति में फँसने पर मसीह-विरोधी फिर से परमेश्वर के वचनों पर शोध करना शुरू कर देते हैं, परमेश्वर के वचनों में एक सटीक आधार, आशा की एक किरण और जीवन रेखा खोजने की कोशिश करने लगते हैं। अगर उनकी काट-छाँट किए जाने के बाद कोई उन्हें दिलासा देता है और उनका समर्थन करता है और प्रेमपूर्ण हृदय से उनकी मदद करता है, तो ये चीजें उन्हें ऐसा महसूस कराती हैं कि मानो उन्हें अभी भी परमेश्वर के घर का सदस्य माना जाता है, उन्हें लगता है कि उनके आशीष पाने की आशा अभी भी है, कि उनकी आशा अभी भी मजबूत है, और वे पीछे हटने के किसी भी विचार को दूर कर देंगे। लेकिन स्थिति पलटने पर जब वे देखते हैं कि आशीष मिलने की उनकी उम्मीदें धूमिल और गायब हो गई हैं तो उनकी पहली प्रतिक्रिया होती है : “अगर मैं आशीष प्राप्त नहीं कर पाया तो मैं अब परमेश्वर में और विश्वास नहीं करूँगा। जिस किसी को परमेश्वर में विश्वास करना पसंद है, वह उस पर विश्वास कर सकता है, लेकिन मैं तुम्हारी काट-छाँट किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करूँगा और मेरी काट-छाँट करते समय तुम जो कुछ भी कहते हो, वह गलत है। मैं यह नहीं सुनना चाहता, मैं इसे सुनने के लिए तैयार नहीं हूँ और मैं काट-छाँट किए जाने को तब भी स्वीकार नहीं करूँगा, जब तुम कहोगे कि यह किसी व्यक्ति के लिए सबसे अधिक लाभकारी चीज है!” जब वे देखते हैं कि आशीष पाने की उनकी उम्मीदें धूमिल हो गई हैं, जब वे देखते हैं कि जिस रुतबे के पीछे वे लंबे समय से भाग रहे थे और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के सपने लगभग समाप्त और नष्ट होने वाले हैं, तो वे अपने अनुसरण के तरीके को बदलने या अपने लक्ष्यों को बदलने के बारे में नहीं सोचते, बल्कि वे छोड़ने और पीछे हटने के बारे में सोचते हैं, वे अब और परमेश्वर पर विश्वास नहीं करना चाहते और उन्हें लगता है कि अब उन्हें परमेश्वर पर अपने विश्वास में आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं बची है। मसीह-विरोधियों ने पहली बार परमेश्वर में विश्वास शुरू करते समय पुरस्कार, आशीष और मुकुट पाने को लेकर जो फंतासियाँ और उम्मीदें पाली थीं, अगर वे खत्म हो जाती हैं, तो परमेश्वर में विश्वास करने की उनकी प्रेरणा गायब हो जाती है, साथ ही परमेश्वर के लिए खुद को खपाने और अपना कर्तव्य निभाने की उनकी प्रेरणा भी चली जाती है। जब उनकी प्रेरणा चली जाती है, तो वे अब कलीसिया में नहीं रहना चाहते, इस तरह से जैसे-तैसे आगे नहीं बढ़ना चाहते, और वे अपना कर्तव्य त्यागकर कलीसिया छोड़ देना चाहते हैं। जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है और उनका प्रकृति सार पूरी तरह से उजागर हो जाता है तो मसीह-विरोधी यही सोचते हैं। कुल मिलाकर, वे जो भी कहते हैं और जो भी करते हैं, दोनों में मसीह-विरोधी कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं करते। सत्य को स्वीकार न करने का स्वभाव क्या होता है? क्या यह सत्य से विमुख होना नहीं है? बिल्कुल यही होता है। काट-छाँट किए जाने का सरल कार्य, अपने आप में, स्वीकार करने में काफी आसान होता है। एक तो काट-छाँट करने वाले व्यक्ति के मन में कोई दुर्भावना नहीं होती; दूसरे, यह निश्चित है कि जिन मामलों में मसीह-विरोधियों की काट-छाँट होती है उन मामलों के आधार पर देखें तो वे अवश्य ही परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं और सत्य सिद्धांतों के विरुद्ध गए होंगे, उनके कार्य में कोई त्रुटि या चूक हुई होगी, जिसकी वजह से कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा पड़ी होगी। उनकी मानवीय इच्छा में मिलावट के कारण, उनके भ्रष्ट स्वभाव के कारण उनकी काट-छाँट की जाती है, क्योंकि सत्य सिद्धांतों की समझ के अभाव के कारण वे मनमाने ढंग से कार्य करते हैं। यह एक बहुत ही सामान्य बात है। पूरी दुनिया में किसी भी बड़े संगठन, किसी भी समूह या कंपनी के नियम-विनियम होते हैं और जो कोई भी इन नियमों और विनियमों का उल्लंघन करता है, उसे दंडित करना और नियंत्रण में रखना चाहिए। यह पूरी तरह से सामान्य है और पूरी तरह से उचित है। लेकिन एक मसीह-विरोधी नियमों और विनियमों का उल्लंघन करने के परिणामस्वरूप उचित रूप से नियंत्रण में रखे जाने को यह मानता है कि दूसरे लोग उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं, उसे अनुचित रूप से दंडित कर रहे हैं, उसमें दोष ढूँढ़ रहे हैं और उसके लिए परेशानी खड़ी कर रहे हैं। क्या यह सत्य को स्वीकार करने का रवैया है? बेशक नहीं है। सत्य स्वीकारने वाले रवैये के बिना क्या इस तरह के किसी व्यक्ति के लिए अपना कर्तव्य निभाते हुए गलतियाँ करने, गड़बड़ियाँ करने और बाधाएँ पैदा करने से बचना संभव है? निश्चित रूप से नहीं। क्या इस तरह का व्यक्ति कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त है? सही कहें तो वह उपयुक्त नहीं है। ऐसा होना मुश्किल है कि इस तरह का व्यक्ति किसी भी कार्य में सक्षम होगा।
कर्तव्य निभाना एक अवसर है जो परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों को इस प्रकार प्रदान करता है कि वे खुद को प्रशिक्षित कर सकें, लेकिन लोग इसे सँजोना नहीं जानते। इसके बजाय, जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे बेहद गुस्से में आ जाते हैं; वे इसे रोकने की जोरदार कोशिश करते हैं और इसके खिलाफ शोर मचाते हैं; वे उद्दंड और क्रुद्ध हो जाते हैं। मानो वे कोई संत हों जिन्होंने कभी गलती नहीं की है। भ्रष्ट मनुष्यों में ऐसा कौन है जो गलतियाँ नहीं करता? गलतियाँ करना बहुत ही सामान्य बात है। इसके लिए परमेश्वर का घर बस मौखिक रूप से तुम्हारी काट-छाँट करेगा, यह तुम्हें जिम्मेदार नहीं ठहराएगा या तुम्हारी निंदा नहीं करेगा, परमेश्वर का घर तुम्हें शाप तो बिल्कुल नहीं देगा। कभी-कभी यह बहुत कठोर हो सकता है, शब्द तीखे या अप्रिय लग सकते हैं और तुम्हारी भावनाओं को ठेस पहुँच सकती है। जिन लोगों ने परमेश्वर के घर के वित्तीय मामलों या उपकरणों को नुकसान पहुँचाया है, उन्हें परमेश्वर का घर जुर्माना लगाकर या मुआवजा माँगकर अनुशासित करेगा—क्या इसे कठोरता कहेंगे? या क्या इसे उचित माना जा सकता है? तुमसे दोगुना मुआवजा नहीं माँगा जाता, न ही जबरन पैसे लिए जाते हैं, तुम्हें बस उतनी ही राशि चुकानी होती है जितना नुकसान हुआ है। क्या यह काफी उचित नहीं है? दुनिया के कुछ देशों में दिए जाने वाले जुर्माने से यह बहुत हल्का है। कुछ शहरों में सिर्फ जमीन पर थूकने या कागज का टुकड़ा फेंकने पर तुमसे भारी जुर्माना ले लिया जाता है। क्या तुम इसकी अवज्ञा कर सकते हो या जुर्माना भरने से इनकार कर सकते हो? अगर तुमने इनकार किया तो तुम्हें संभवतः जेल भेज दिया जाएगा और इससे भी कठोर कानूनी दंड लगाए जाएँगे। ऐसी ही व्यवस्था है। कुछ लोग इसे नहीं समझते और सोचते हैं कि परमेश्वर के घर द्वारा इस तरह से लोगों की काट-छाँट करना बहुत कठोर बात है और लोगों को इस तरह से नियंत्रित रखना बहुत सख्ती है। अगर ऐसे लोगों की काट-छाँट थोड़े कठोर तरीके से की जाए तो उनके अभिमान को ठेस लगती है और उनकी शैतानी प्रकृति भड़क जाती है, उन्हें लगता है कि यह बरदाश्त से बाहर है और यह उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होती है। वे मानते हैं कि चूँकि यह परमेश्वर का घर है, इसलिए लोगों के साथ इस तरह का व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए, कि परमेश्वर के घर को हर मामले में सहनशीलता और धैर्य बरतना चाहिए, और लोगों को मनमाना व्यवहार और मनचाहा काम करने देना चाहिए। उन्हें लगता है कि लोग जो कुछ भी करते हैं वह अच्छा है और परमेश्वर को उसे याद रखना चाहिए। क्या यह उचित है? (नहीं।) लोगों में कौन-सा प्रकृति सार होता है? क्या वे वास्तव में मनुष्य हैं? इसे और अधिक सुरुचिपूर्ण ढंग से कहें तो वे शैतान और राक्षस हैं। इसे अधिक भद्दे ढंग से कहें तो वे जानवर हैं। लोग व्यवहार के नियम नहीं जानते, वे बहुत ही घटिया होने के साथ ही आलसी, आरामपरस्त होते हैं और कड़ी मेहनत से विमुख रहते हैं, और वे बुरे काम करते हुए अनियंत्रित हो जाना चाहते हैं। सबसे अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने वाले बहुत से लोग अपने साथ हमेशा सांसारिक दुनिया के सांसारिक आचरण के फलसफे, तरीके और बुरी प्रवृत्तियाँ लाना चाहते हैं। वे इन चीजों पर शोध करने, इन्हें सीखने और इनका अनुकरण करने में अपनी ऊर्जा भी लगाते हैं, और परिणामस्वरूप परमेश्वर के घर के कुछ कार्यों में अराजकता और उथल-पुथल तक पैदा कर देते हैं। यह सभी के लिए असहनीय होता है, और यहाँ तक कि आस्था में नए कुछ भाई-बहन कह देते हैं कि ये लोग पवित्र नहीं हैं, कि उनके कार्य-कलाप सांसारिक प्रवृत्तियों वाले हैं, और एक ईसाई के कार्य-कलापों की तरह कुछ भी नहीं हैं—ये नए विश्वासी भी इन लोगों के कार्य-कलापों को स्वीकार नहीं कर पाते। ये लोग थोड़ी कीमत चुकाते हैं, उनमें थोड़ा उत्साह होता है, और थोड़ी सी प्रेरणा और सद्भावना होती है, और जो कुछ भी बकवास उन्होंने सीखी होती है वे उसे परमेश्वर के घर में ले आते हैं, और इसे अपने कर्तव्य और काम में लागू कर देते हैं, और परिणामस्वरूप वे कलीसिया के काम में विघ्न-बाधाएँ पैदा कर देते हैं और अंत में काट-छाँट का सामना करते हैं। कुछ लोग इसे नहीं समझते : “क्या परमेश्वर यह नहीं कहता कि वह लोगों के अच्छे कर्मों का स्मरण करेगा? तो फिर अपना कर्तव्य निभाने के लिए मुझे क्यों काट-छाँट का सामना करना पड़ रहा है? मैं इसे क्यों नहीं समझ सकता? परमेश्वर के वचन कैसे पूरे किए जा रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये सभी सिर्फ खोखले, आडंबरपूर्ण वचन हों?” तो फिर तुम इस बात पर आत्म-चिंतन क्यों नहीं करते कि क्या तुम्हारे कार्य-कलाप अच्छे कर्म हैं जो स्मरण रखे जाने योग्य हों? परमेश्वर ने तुमसे क्या अपेक्षा की है? तुमने जो कर्तव्य निभाया, जो कार्य किया और जो विचार और सुझाव दिए, क्या वे संतों की मर्यादा के अनुरूप हैं? क्या वे परमेश्वर के घर के आवश्यक मानकों के अनुसार हैं? क्या तुमने परमेश्वर की गवाही और परमेश्वर के नाम के बारे में सोचा है? क्या तुमने परमेश्वर के घर की प्रतिष्ठा का खयाल किया है? क्या तुमने संतों की मर्यादा का खयाल किया है? क्या तुम मानते हो कि तुम एक ईसाई हो? तुमने इनमें से किसी भी बात का खयाल नहीं किया है, तो फिर तुमने वास्तव में किया क्या है? क्या तुम्हारे कार्य-कलाप स्मरणयोग्य हैं? तुमने कलीसिया के कार्य को खराब कर दिया और परमेश्वर के घर ने कर्तव्य निभाने की तुम्हारी पात्रता को रद्द किए बिना केवल तुम्हारी काट-छाँट की है। यही सबसे बड़ा प्रेम है, सबसे सच्चा प्रेम है। और फिर भी तुम नाराज होते हो। क्या तुम्हारे पास नाराज होने का कोई कारण है? तुम बेहद विवेकहीन हो!
कुछ लोग ऐसे हैं जो सिर्फ दो-तीन साल से परमेश्वर पर विश्वास कर रहे हैं और उनके कार्य, उनके बात करने और हँसने का तरीका, और उनके द्वारा प्रकट दृष्टिकोण, और यहाँ तक कि दूसरों से बात करते समय उनके चेहरे की भाव-भंगिमाएँ भी अप्रिय होती हैं, और इससे दिखता है कि वे पूरी तरह से अविश्वासी और छद्म-विश्वासी हैं। इन लोगों को नियंत्रण में रखा जाना चाहिए, उनकी काट-छाँट की जानी चाहिए और उनके लिए नियम बनाए जाने चाहिए, ताकि वे जान सकें कि सामान्य मानवता क्या है, संतों जैसी मर्यादा क्या होती है, और एक ईसाई को कैसा होना चाहिए, और ताकि वे सीखें कि इंसान कैसे बनें, और मानव के समान कैसे रहें। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो आठ या दस साल या उससे भी ज्यादा समय से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं, लेकिन उनके विचारों और दृष्टिकोणों, कथनी-करनी, चीजों को संभालने के तरीके और चीजों का सामना होने पर उत्पन्न होने वाले उनके विचारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे पूरी तरह से अविश्वासी और छद्म-विश्वासी हैं। ये लोग काफी उपदेश सुन चुके होते हैं, और उनके पास कुछ अनुभव और अंतर्दृष्टि होती है; वे अपने भाई-बहनों के साथ काफी बातचीत कर चुके होते हैं और उनकी अपनी रोजमर्रा की भाषा होनी चाहिए, फिर भी उनमें से अधिकांश लोग गवाही नहीं दे पाते और जब वे बात करते हैं और अपने विचार व्यक्त करते हैं, तो उनकी भाषा अत्यंत तुच्छ होती है और वे कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं समझा पाते हैं। वे वास्तव में दरिद्र, दयनीय और अंधे होते हैं—उनके हाव-भाव स्पष्ट रूप से बहुत दयनीय होते हैं। जब ऐसा व्यक्ति कोई कर्तव्य निभाता है और थोड़ी-सी जिम्मेदारी लेता है, तो उसकी हमेशा काट-छाँट की जाती है। यह अपरिहार्य है। ऐसे लोगों की काट-छाँट क्यों की जाएगी? ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके कार्य सत्य सिद्धांतों का बहुत अधिक उल्लंघन करते हैं; वे सामान्य लोगों जैसा जमीर और विवेक भी हासिल नहीं कर पाते, और वे अविश्वासियों की तरह बोलते और कार्य करते हैं, मानो किसी अविश्वासी को परमेश्वर के घर का कार्य करने के लिए रख लिया गया है। तो अपने कर्तव्य निर्वहन में इन लोगों के कार्य की गुणवत्ता कैसी होती है? इसका मूल्य क्या होता है? क्या उनका कोई हिस्सा समर्पित होता है? क्या उनके पास बहुत अधिक समस्याएँ नहीं हैं और वे केवल गड़बड़ करते और बाधाएँ ही डालते हैं? (बिल्कुल।) तो क्या इन लोगों की काट-छाँट नहीं होनी चाहिए? (होनी चाहिए।) कुछ लोग एक ईसाई के जीवन के बारे में पटकथाएँ लिखते हैं, कि कैसे नायक उत्पीड़न, कष्टों और विभिन्न स्थितियों से गुजरता है, और कैसे वह परमेश्वर के वचनों को सराहता और अनुभव करता है। लेकिन पूरी कहानी के दौरान नायक शायद ही कभी प्रार्थना करता है और कभी-कभी जब किसी चीज का सामना होता है, तो वह यह भी नहीं जानता कि प्रार्थना में क्या कहना है। पहले कुछ लोग प्रार्थना के लिए एक ही घिसी-पिटी बात लिखते जाते थे; जब नायक किसी चीज का सामना करता था तो यही प्रार्थना करता था : “हे परमेश्वर, मैं अभी बहुत परेशान हूँ! मैं बहुत दुखी हूँ, बिल्कुल दुखी हूँ! कृपया मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे प्रबुद्ध करो।” वे बस कुछ इसी तरह के मामूली-से शब्द लिखते थे, लेकिन किसी अलग घटना, किसी अलग स्थिति और किसी अलग मनोदशा के दौरान नायक को पता नहीं होता था कि वह कैसे प्रार्थना करे और उसके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता था। इससे मुझे आश्चर्य होता है, अगर ये लोग अपने नायकों को समस्याओं में पड़ने पर प्रार्थना करते हुए नहीं दिखाते, तो क्या उन्हें खुद प्रार्थना करने की आदत होगी? यदि वे किसी समस्या का सामना करने पर प्रार्थना नहीं करते, तो भला वे अपने दैनिक जीवन और अपने कर्तव्य के पालन में किस पर भरोसा करते होंगे? वे किस बारे में सोच रहे होते हैं? क्या उनके दिल में परमेश्वर होता है? (उनके दिल में परमेश्वर नहीं होता है। वे जो कुछ भी करते हैं उसमें अपनी सोच और खूबियों पर भरोसा करते हैं।) इसका नतीजा यह होता है कि उनकी काट-छाँट की जाती है। तुम लोगों को क्या लगता है कि मुझे इस मामले का मूल्यांकन कैसे करना चाहिए? ऐसे लोगों की काट-छाँट की जानी चाहिए। ये लोग जो प्रगति नहीं करते, जिनके पास दिमाग तो है लेकिन दिल नहीं है, वे वर्षों से विश्वासी हैं, फिर भी उन्हें नहीं पता कि किसी समस्या का सामना करने पर प्रार्थना में क्या कहना है; उनके पास परमेश्वर से कहने के लिए कुछ नहीं है, न ही वे परमेश्वर पर भरोसा करने का तरीका जानते हैं और वे परमेश्वर के साथ दिल की बात नहीं करते। परमेश्वर ही वह है जो तुम्हारे सबसे करीब है, वही है जो तुम्हारे भरोसे और निर्भरता के सबसे योग्य है, फिर भी तुम्हारे पास उससे कहने के लिए एक भी बात नहीं है—तो फिर तुम अपने अंतरतम विचार किसके लिए बचाकर रख रहे हो? ये विचार चाहे जिसके लिए रखे हों, अगर तुम्हारे पास परमेश्वर से कहने के लिए कुछ नहीं है तो तुम किस तरह के इंसान हो? क्या तुम एक ऐसे इंसान नहीं हो जो इंसानियत से सबसे अधिक रहित है? यदि पटकथा यह नहीं बताती कि नायक की मानवता कैसी है, विश्वासी के रूप में उसका जीवन कैसा है और वह किस तरह परमेश्वर के वचनों को अनुभव करता है और उनकी सराहना करता है, इत्यादि, यदि यह पटकथा केवल एक खोखला आवरण है तो फिर तुम इस फिल्म को बनाकर लोगों को क्या दिखाना चाहते हो? तुम जो पटकथा लिख रहे हो, उसका क्या उपयोग है? तुम परमेश्वर की गवाही दे रहे हो या अपने पास मौजूद थोड़े-से ज्ञान और शिक्षा की गवाही दे रहे हो? परमेश्वर की गवाही के लिए सबसे अच्छा ठोस सबूत यह है कि कोई व्यक्ति कैसे प्रार्थना करता है और कैसे खोजता है, और जब उसके साथ कुछ घटित होता है या जब वह कठिनाइयों में पड़ता है तो उसके विचार, रवैया, दृष्टिकोण और परमेश्वर के बारे में उसके विचार कैसे बदलते हैं। दुर्भाग्य से, कुछ लोगों को इसके बारे में कोई समझ ही नहीं है। वे कई वर्षों की आस्था के बाद भी प्रार्थना करना नहीं जानते—इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि उन्होंने अभी भी प्रगति नहीं की है। उनके पेशेवर कौशल में सुधार नहीं हुआ है और उन्होंने अपने जीवन प्रवेश में कोई प्रगति नहीं की है। क्या ऐसे लोगों की काट-छाँट नहीं की जानी चाहिए? और इसीलिए लोगों की काट-छाँट करने का एक कारण होता है। यदि तुम लोग काट-छाँट स्वीकार करने से इनकार करते हो, या यदि तुम्हारी काट-छाँट नहीं की जाती, तो इसका नतीजा और तुम्हारा परिणाम खतरनाक होगा। तुम भाग्यशाली हो कि अब तुम्हारे पास काट-छाँट और अनुशासित करने वाले लोग हैं। यह ऐसी अद्भुत, लाभकारी चीज है जिसे मसीह-विरोधी स्वीकार नहीं कर पाते। उन्हें लगता है कि जब उनकी काट-छाँट होती है, तो इसका मतलब है कि उनका काम तमाम हो गया है, कि अब उनके पास कोई उम्मीद नहीं बची है, कि वे देख सकते हैं कि उनका परिणाम क्या होगा। उन्हें लगता है कि काट-छाँट किया जाना बताता है कि अब उनका कोई महत्व नहीं है, और अब वे ऊपरवाले के पसंदीदा नहीं रहे और संभावना है कि उन्हें हटा दिया जाएगा। फिर वे अपनी आस्था में प्रेरणा खो देते हैं और दुनिया में जाकर बहुत सारा पैसा कमाने, सांसारिक प्रवृत्तियों को अपनाने, खाने-पीने और मौज करने की योजनाएँ बनाने लगते हैं, और उनकी योजनाएँ सामने आने लगती हैं। इससे वे खतरे में पड़ जाते हैं और उनका अगला कदम उन्हें दहलीज लाँघने और परमेश्वर के घर से दूर जाने के लिए अग्रसर करेगा।
जब किसी मसीह-विरोधी के पास परमेश्वर के घर में रुतबा और शक्ति होती है, जब वह हर मोड़ पर फायदा उठाकर लाभ ले सकता है, जब लोग उसका सम्मान और उसकी चापलूसी करते हैं और जब उसे आशीष और पुरस्कार और एक सुंदर गंतव्य सभी अपनी पहुँच में दिखते हैं, तो ऊपरी तौर पर लगता है कि वह परमेश्वर में, परमेश्वर के वचनों में और मानवजाति से उसके वादों में और परमेश्वर के घर के कार्य और संभावनाओं में आस्था से लबालब है। लेकिन जैसे ही उसकी काट-छाँट की जाती है, जब आशीष की उसकी इच्छा खतरे में पड़ जाती है, तो वह परमेश्वर के प्रति संदेह और गलतफहमी विकसित कर लेता है। पलक झपकते ही उसकी तथाकथित प्रचुर आस्था गायब हो जाती है, और फिर कहीं नहीं दिखती। वह चलने या बात करने के लिए भी मुश्किल से ही ऊर्जा जुटा पाता है, वह अपना कर्तव्य निभाने में रुचि खो देता है और वह सारा उत्साह, प्रेम और आस्था खो बैठता है। उसमें जो थोड़ी-बहुत सद्भावना थी वह उसे भी खो देता है और वह उन लोगों पर ध्यान नहीं देता जो उससे बात करते हैं। वह एक पल में ही पूरी तरह से अलग व्यक्ति बन जाता है। वह बेनकाब हो जाता है, है न? जब ऐसा व्यक्ति आशीष पाने की अपनी उम्मीदों पर टिका रहता है, तो ऐसा लगता है कि उसके पास असीम ऊर्जा है, वह परमेश्वर के प्रति वफादार है। वह सुबह जल्दी उठ सकता है और देर रात तक काम कर सकता है, और कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम है। लेकिन जब वह आशीष पाने की उम्मीद खो देता है, तो वह एक पिचके हुए गुब्बारे की तरह निराश हो जाता है। वह अपनी योजनाएँ बदलना चाहता है, दूसरा रास्ता ढूँढ़ना चाहता है और परमेश्वर में अपनी आस्था त्याग देना चाहता है। वह परमेश्वर से हतोत्साहित और निराश हो जाता है, और शिकायतों से भर जाता है। क्या यह किसी ऐसे व्यक्ति की अभिव्यक्ति है जो सत्य का अनुसरण और उससे प्रेम करता है, किसी ऐसे व्यक्ति की जिसमें मानवता और सत्यनिष्ठा है? (नहीं।) वह खतरे में है। जब तुम लोग इस तरह के व्यक्ति से मिलते हो, अगर वह सेवा करने में सक्षम है, तो उसकी काट-छाँट करते समय भले बने रहो और उनकी प्रशंसा करने के लिए कुछ अच्छे लगने वाले शब्द ढूँढ़ो। उसकी चापलूसी करो और उसे गुब्बारे की तरह फुलाओ और फिर उसके कदमों में स्फूर्ति आ जाएगी। तुम कुछ इस तरह की बातें कह सकते हो, “तुम बहुत धन्य हो, तुम्हारी आँखों में चमक है और मैं देख सकता हूँ कि तुम्हारे भीतर असीम ऊर्जा है, और तुम निश्चित रूप से परमेश्वर के घर में एक मुख्य आधार रहोगे। परमेश्वर का राज्य तुम्हारे बिना कभी नहीं हो सकता, और तुम्हारे बिना परमेश्वर के घर के कार्य का नुकसान होगा। लेकिन तुममें बस एक छोटी-सी खामी है। तुम थोड़े प्रयास से इसे दूर कर सकते हो और एक बार जब यह ठीक हो जाएगा तो सब कुछ ठीक हो जाएगा, फिर सबसे बड़ा ताज निश्चित रूप से तुम्हारा होगा।” जब ऐसा कोई व्यक्ति कुछ गलत करता है, तो तुम उसके सामने ही उसकी काट-छाँट कर सकते हो। तुम्हें ऐसा कैसे करना चाहिए? बस यह कहो, “तुम बहुत होशियार हो। तुम इतनी बुनियादी गलती कैसे कर सकते हो? ऐसा नहीं होना चाहिए था! तुममें सबसे अच्छी काबिलियत है और तुम हमारी टीम में सबसे शिक्षित हो, और तुम हमारे बीच सबसे अधिक प्रतिष्ठित हो। तुम्हें ऐसी गलती नहीं करनी चाहिए थी—कितनी शर्मनाक बात है! इस बात का ध्यान रखो कि तुम ऐसी गलती दोबारा न करो, नहीं तो यह निश्चित रूप से परमेश्वर को ठेस पहुँचाएगी। अगर तुम दोबारा ऐसा करोगे, तो इससे तुम्हारी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचेगा। मैं यह सबके सामने तुमसे नहीं कहूँगा—मैं तुम्हें इसके बारे में गुप्त रूप से बता रहा हूँ ताकि भाई-बहनों को तुम्हारे बारे में इसकी हवा न लगे। मैं बस यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहा हूँ कि तुम्हारी बेइज्जती न हो और तुम्हारी भावनाओं की कद्र हो, है न? देख लो, क्या परमेश्वर का घर प्रेमपूर्ण नहीं है?” फिर वे कहते हैं, “हाँ।” “तो फिर आगे क्या है?” और वे जवाब देंगे, “अच्छा काम करते रहो!” तुम्हारा उनके साथ इस तरह का व्यवहार करने के बारे में क्या खयाल है? उस तरह का व्यक्ति केवल मेहनत करके आशीष प्राप्त करना चाहता है, वह कभी भी अपने शब्दों या कार्यों में सत्य सिद्धांतों की तलाश नहीं करता, और वह सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता। वह कभी इस बारे में नहीं सोचता कि वह जो कहता है वह कहना चाहिए या नहीं, जो करता है वह करना चाहिए या नहीं, न ही वह जो करता है उसके दुष्परिणामों पर विचार करता है, न ही वह प्रार्थना, सोच-विचार, खोज या संगति करता है। वह बस अपने विचारों के अनुसार काम करता है, वह जो चाहता है वह करता है। जब कोई व्यक्ति अपनी किसी बात या कार्य से उसके अभिमान या हितों को नुकसान पहुँचाता है, उसकी खामियों या समस्याओं को उजागर करता है, या उसे कोई उचित सुझाव देता है, तो वह क्रोध से भर जाता है, द्वेष रखने लगता है और बदला लेना चाहता है, और अधिक गंभीर मामलों में वह अपनी आस्था त्याग कर कलीसिया के बारे में बड़े लाल अजगर को रिपोर्ट करना चाहता है। हमारे पास इस तरह के व्यक्ति से निपटने का एक तरीका है, यानी उनकी काट-छाँट से बचना चाहिए और इसके बजाय उनसे लाड़-प्यार से पेश आना चाहिए।
हमने अभी इस बारे में संगति की है कि कैसे जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है, तो वे इसे हमेशा आशीष पाने की अपनी आशाओं से जोड़कर देखते हैं। यह रवैया और नजरिया गलत है, यह खतरनाक है। जब कोई मसीह-विरोधियों की खामियों या समस्याओं की ओर इशारा करता है, तो उन्हें लगता है कि आशीष पाने की उनकी आशा खो गई है; और जब उनकी काट-छाँट की जाती है, या उन्हें अनुशासित किया जाता है या निंदा की जाती है, तो भी उन्हें यह लगता है कि आशीष पाने की उनकी आशा खो गई है। जैसे ही कोई चीज उनके मन-मुताबिक या उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होती, जैसे ही उन्हें उजागर कर उनकी काट-छाँट की जाती है, तो यह महसूस करते हुए कि उनके आत्मसम्मान को झटका लगा है, उनके विचार फौरन इस दिशा में चले जाते हैं कि आशीष पाने की उनकी उम्मीद अब बची है या नहीं। क्या यह उनका अत्यधिक संवेदनशील होना नहीं है? क्या वे आशीष पाने के लिए बहुत ज्यादा इच्छुक नहीं होते? मुझे बताओ, क्या ऐसे लोग दयनीय नहीं हैं? (हैं।) वे वास्तव में दयनीय हैं! और वे किस प्रकार दयनीय हैं? क्या किसी का आशीष पा सकना, उनकी काट-छाँट किए जाने से संबंधित है? (नहीं।) यह उससे संबंधित नहीं है। तो फिर, जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है, तो वे यह क्यों महसूस करते हैं कि आशीष पाने की उनकी आशा खो गई है? क्या इसका उनकी खोज से कोई लेना-देना नहीं है? वे क्या खोजते हैं? (आशीष पाना।) वे आशीष पाने की अपनी इच्छा और इरादा कभी नहीं छोड़ते। परमेश्वर पर अपने विश्वास की शुरुआत से ही उनका आशीष पाने का इरादा रहा है, और हालाँकि उन्होंने बहुत सारे उपदेश सुने हैं, पर उन्होंने सत्य कभी नहीं स्वीकारा। उन्होंने आशीष पाने की अपनी इच्छा और इरादा कभी नहीं छोड़ा है। उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास के बारे में अपने विचार नहीं सुधारे या बदले, और अपना कर्तव्य करने में उनका इरादा शुद्ध नहीं हुआ है। वे हमेशा आशीष पाने की अपनी आशा और इरादा बनाए रखकर ही सब-कुछ करते हैं, और अंत में, जब आशीष पाने की उनकी आशाएँ चूर-चूर होने वाली होती हैं, तो वे क्रोध से भड़क उठते हैं, कटु शिकायत करते हैं, और अंत में परमेश्वर पर संदेह करने और सत्य को नकारने की घिनौनी दशा प्रकट कर देते हैं। क्या वे मौत को बुलावा नहीं दे रहे? मसीह-विरोधियों द्वारा सत्य को जरा भी न स्वीकारने, काट-छाँट को न स्वीकारने का यह अपरिहार्य परिणाम है। परमेश्वर के कार्य के अपने अनुभव में, परमेश्वर के सभी चुने हुए लोग जान सकते हैं कि परमेश्वर का न्याय और ताड़ना, और उसकी काट-छाँट उसका प्रेम और आशीष हैं—लेकिन मसीह-विरोधी मानते हैं कि यह केवल लोगों की लफ्फाजी है, वे विश्वास नहीं करते कि यह सत्य है। इसलिए, वे काट-छाँट को सीखे जाने वाले सबक नहीं मानते, न ही वे सत्य की तलाश या आत्मचिंतन करते हैं। इसके विपरीत, उनका मानना होता है कि काट-छाँट इंसानी इच्छा से उपजती है, कि यह जानबूझकर किया जाने वाला, इंसानी इरादों से भरा उत्पीड़न और यंत्रणा है, और निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा नहीं किया जाता। वे इन चीजों का विरोध और उनकी अवहेलना करने का चुनाव करते हैं, यहाँ तक कि वे यह अध्ययन भी करते हैं कि कोई उनके साथ ऐसा बरताव क्यों करेगा। वे बिल्कुल भी समर्पण नहीं करते। वे अपने कर्तव्य के निर्वहन में होने वाली हर घटना को आशीष और पुरस्कार पाने से जोड़ते हैं, और वे आशीष पाने को अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण खोज के साथ-साथ परमेश्वर पर अपने विश्वास का अंतिम और परम लक्ष्य मानते हैं। वे जीवन भर आशीष पाने के अपने इरादे से चिपके रहते हैं, फिर चाहे परमेश्वर का परिवार सत्य के बारे में कैसी भी संगति क्यों न करे, वे यह सोचकर उसे नहीं छोड़ते कि अगर परमेश्वर पर विश्वास आशीष पाने के लिए नहीं है, तो वह पागलपन और मूर्खता है, बहुत बड़ा नुकसान है। उन्हें लगता है कि जो कोई भी आशीष पाने का इरादा छोड़ता है, उसे धोखा दिया गया है, कोई मूर्ख ही आशीष पाने की आशा छोड़ेगा, और काट-छाँट स्वीकारना मूर्खता और अक्षमता का प्रदर्शन है, कोई चतुर इंसान ऐसा नहीं करेगा। यह किसी मसीह-विरोधी की सोच और तर्क होता है। इसलिए, जब किसी मसीह-विरोधी की काट-छाँट की जाती है, तो वह दिल से बहुत प्रतिरोधी हो जाता है, कपट और ढोंग में माहिर हो जाता है; वह सत्य जरा भी नहीं स्वीकारता, न ही वह समर्पण करता है। इसके बजाय, वह अवज्ञा और हठधर्मिता से भर जाता है। यह परमेश्वर का विरोध करने, परमेश्वर की आलोचना करने, परमेश्वर के विरुद्ध लड़ने, और अंत में, बेनकाब कर हटाए जाने की ओर ले जा सकता है।
II. मसीह-विरोधियों का अपने कर्तव्य में फेरबदल के प्रति दृष्टिकोण
जब आशीष प्राप्त करने की बात आती है तो मसीह-विरोधियों का रवैया बेहद जिद्दी होता है। वे अपने प्रिय जीवन के लिए आशीष प्राप्त करने के इरादे से चिपके रहते हैं और जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो उनमें प्रतिरोध की भावना आ जाती है और वे पूरी ताकत से इस पर तकरार करने और अपना बचाव करने की कोशिश करते हैं। इससे हम यह निर्धारित कर सकते हैं कि मसीह-विरोधी लोग सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते। जब उन्हें बरखास्त कर दिया जाता है या उनके कर्तव्यों में समायोजन किया जाता है तो वे आशीष प्राप्त करने के मामले को लेकर बहुत आहत महसूस करते हैं। वे इसे लेकर आहत महसूस क्यों करते हैं? क्योंकि ऐसे लोगों के दिल आशीष प्राप्त करने की इच्छा और महत्वाकांक्षा से भरे होते हैं। वे हर चीज आशीष प्राप्त करने के लिए करते हैं, किसी और चीज के लिए नहीं। जीवन में उनकी सबसे बड़ी इच्छा आशीष प्राप्त करना है। यही कारण है कि जब उन्हें बरखास्त कर दिया जाता है या उनके कर्तव्यों में समायोजन किया जाता है तो उन्हें लगता है कि आशीष प्राप्त करने की उनकी आशा खत्म हो गई है, और वे स्वाभाविक रूप से समर्पण करने से इनकार कर अपनी ओर से बहस करते रहते हैं। वे केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं, और परमेश्वर के घर के कार्य के बारे में नहीं सोचते। उदाहरण के लिए, कुछ लोग खुद को लिखा-पढ़ी में कुशल मानते हैं, इसलिए वे उससे संबंधित कर्तव्य निभाने की जोरदार माँग करते हैं। बेशक, परमेश्वर का घर उन्हें हतोत्साहित नहीं करेगा, परमेश्वर का घर प्रतिभाशाली व्यक्तियों को सँजोता है, और लोगों के पास जो भी गुण या खूबियाँ हों, परमेश्वर का घर उन्हें उनका उपयोग करने का अवसर देगा, और इसलिए कलीसिया उनके लिए कोई पाठ-आधारित कार्य करने की व्यवस्था करती है। लेकिन कुछ समय गुजरने के बाद पता चलता है कि उनमें वास्तव में यह कौशल नहीं है और वे इस कर्तव्य को ठीक से निभाने में असमर्थ हैं; वे पूरी तरह से बेअसर हैं। उनकी प्रतिभा और काबिलियत इस काम के लिए पूरी तरह से अक्षम है। तो ऐसी परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिए? क्या यह संभव है कि उन्हें बस बरदाश्त किया जाए और कहा जाए, “तुममें जुनून है, और भले ही तुम्हारे पास अधिक प्रतिभा नहीं है और तुम्हारी काबिलियत औसत है, फिर भीअगर तुम इच्छुक हो और कड़ी मेहनत करने से नहीं कतराते तो परमेश्वर का घर तुम्हें बरदाश्त करेगा और तुम्हें यह कर्तव्य निभाते रहने देगा। अगर तुम इसे अच्छी तरह से नहीं करते तो भी कोई बात नहीं। परमेश्वर का घर आँखें मूँद लेगा और तुम्हें बदले जाने की कोई आवश्यकता नहीं है”? क्या इसी सिद्धांत के जरिये परमेश्वर का घर मामले सँभालता है? स्पष्टतः नहीं। ऐसी परिस्थितियों में आम तौर पर उनके लिए उनकी काबिलियत और खूबियों के आधार पर उपयुक्त कर्तव्यों की व्यवस्था की जाती है; यह इसका एक पक्ष है। लेकिन केवल इसी पर निर्भर रहना काफी नहीं है, क्योंकि कई मामलों में लोग खुद भी नहीं जानते कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त हैं, और भले ही उन्हें लगता हो कि वे इसमें अच्छे हैं, जरूरी नहीं कि यह सही हो, और इसलिए उन्हें आजमाना होगा और कुछ समय के लिए प्रशिक्षित होना होगा; इस आधार पर निर्णय लेना कि वे प्रभावी हैं या नहीं, सही है। अगर उन्हें कुछ अवधि तक प्रशिक्षित किया जाता है और कोई नतीजा नहीं मिलता या कोई प्रगति नहीं होती, तो यह पुष्टि हो जाती है कि वे तराशे जाने लायक नहीं हैं, तो उनके कर्तव्य में थोड़ा बदलाव किया जाना चाहिए और उनके लिए किसी उपयुक्त कर्तव्य की फिर से व्यवस्था की जानी चाहिए। लोगों के कर्तव्य इस तरह से पुनर्व्यवस्थित और समायोजित करना उचित बात है और यह सिद्धांत के अनुरूप भी है। लेकिन कुछ लोग परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन करने में असमर्थ होते हैं और इसके बजाय वे अपने कर्तव्य निर्वहन में हमेशा अपनी देह की प्राथमिकताओं के अनुसार चलते हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि कोई कहता है, “मेरा सबसे बड़ा सपना साहित्यकार या पत्रकार बनना था, लेकिन अपनी पारिवारिक परिस्थितियों और अन्य कारणों से मैं इसे पूरा नहीं कर पाया। लेकिन अब मैं परमेश्वर के घर में लिखने-पढ़ने का कार्य करता हूँ। मुझे आखिरकार वह मिल गया जो मैं चाहता था!” लेकिन सत्य की उसकी समझ बिल्कुल पर्याप्त नहीं है, उसके पास बहुत अधिक आध्यात्मिक समझ नहीं है और वह लिखने-पढ़ने का कार्य करने में सक्षम नहीं है, इसलिए कुछ समय तक अपना कर्तव्य निभाने के बाद उसे दूसरे कार्य में लगा दिया जाता है। वह शिकायत करता है : “मैं वास्तव में वही कार्य क्यों नहीं कर सकता जो मैं करना चाहता हूँ? मुझे कोई भी दूसरे प्रकार का कार्य पसंद नहीं है!” यहाँ समस्या क्या है? परमेश्वर के घर ने सिद्धांतों के अनुसार उसके कर्तव्य को समायोजित कर दिया, तो वह परिवर्तन को स्वीकार क्यों नहीं कर सकता? क्या यह उसकी मानवता के साथ समस्या नहीं है? वह सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता और परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करता—यह केवल सूझ-बूझ की कमी है। वह अपना कर्तव्य हमेशा अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के आधार पर निभाता है और हमेशा अपनी ही पसंद के विकल्प चुनना चाहता है। क्या यह एक भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? तुम्हें कोई कार्य करने में आनंद आता है, क्या यह इस बात की गारंटी है कि तुम इसे अच्छी तरह से कर सकते हो? तुम्हें कोई खास कर्तव्य निभाने में आनंद आता है, क्या इसका मतलब यह है कि तुम इसे समुचित रूप से निभा सकते हो? सिर्फ इसलिए कि तुम्हें कोई कार्य करने में आनंद आता है, इसका मतलब यह नहीं है कि तुम उसके लिए उपयुक्त हो, और यह भी हो सकता है कि तुम्हें यह असलियत न पता हो कि तुम किस कार्य के लिए उपयुक्त हो। इसलिए, तुम्हें सूझ-बूझ रखने और आज्ञापालन सीखने की जरूरत है। इसलिए जब तुम्हारा कर्तव्य समायोजित किया जाता है तो तुम्हें आज्ञापालन का अभ्यास कैसे करना चाहिए? एक लिहाज से तुम्हें यह विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर के घर ने तुम्हारे कर्तव्य को सत्य सिद्धांतों के आधार पर समायोजित किया है, न कि तुम्हारी प्राथमिकताओं या किसी अगुआ या कार्यकर्ता के पूर्वाग्रहों के आधार पर। तुम्हें भरोसा करना चाहिए कि तुम्हारे कर्तव्य का समायोजन तुम्हारे गुणों, खूबियों और अन्य वास्तविक परिस्थितियों के आधार पर तय किया गया था, और यह किसी एक व्यक्ति के विचारों से नहीं उपजा था। जब तुम्हारे कर्तव्य को समायोजित किया जाता है, तो तुम्हें आज्ञापालन करना सीखना चाहिए। जब तुम अपने नए कर्तव्य में कुछ समय प्रशिक्षण ले लेते हो और इसे निभाने में नतीजे प्राप्त कर लेते हो, तो तुम पाओगे कि तुम इस कर्तव्य को निभाने के लिए अधिक उपयुक्त हो और तुम्हें यह एहसास होगा कि अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर कर्तव्यों का चयन करना एक गलती है। क्या इससे समस्या हल नहीं हो जाती है? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर का घर लोगों के लिए कुछ कर्तव्य निभाने की व्यवस्था उनकी प्राथमिकताओं के आधार पर नहीं करता है, बल्कि कार्य की जरूरतों और इस पर आधार कर करता है कि किसी व्यक्ति के उस कर्तव्य को निभाने से नतीजे मिल सकते हैं या नहीं। क्या तुम लोग यह कहते हो कि परमेश्वर के घर को व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के आधार पर कर्तव्यों की व्यवस्था करनी चाहिए? क्या उसे लोगों का उपयोग उनकी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को संतुष्ट करने की शर्त के आधार पर करना चाहिए? (नहीं।) इनमें से कौन-सा आधार लोगों का उपयोग करने संबंधी परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुरूप है? कौन-सा सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? यही कि लोगों का चयन परमेश्वर के घर में कार्य की जरूरतों और उनके कर्तव्य निर्वहन के नतीजे के अनुसार करना। तुम्हारे अपने कुछ झुकाव और रुचियाँ हैं और तुममें अपने कर्तव्य निभाने की थोड़ी-सी इच्छा है, लेकिन क्या तुम्हारी इच्छाओं, रुचियों और झुकावों को परमेश्वर के घर के कार्य पर प्राथमिकता दी जानी चाहिए? यदि तुम हठपूर्वक आग्रह कर यह कहते हो, “मुझे यह कार्य अवश्य करना चाहिए; यदि मुझे इसे न करने दिया तो मैं जीना नहीं चाहता, मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहता। यदि मुझे यह कार्य न करने दिया तो मुझमें कुछ और करने के लिए उत्साह नहीं होगा, न ही मैं इसमें अपना पूरा प्रयास करूँगा” तो क्या यह कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारे रवैये में ही कोई समस्या नहीं दर्शाता है? क्या यह अंतरात्मा और विवेक की पूरी तरह से कमी नहीं है? अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं, रुचियों और झुकावों को संतुष्ट करने के लिए तुम कलीसिया के कार्य को प्रभावित करने और विलंबित करने में संकोच नहीं करते। क्या यह सत्य के अनुरूप है? किसी को उन चीजों से कैसे निपटना चाहिए जो सत्य के अनुरूप नहीं हैं? कुछ लोग कहते हैं : “व्यक्ति को सामूहिक हितों के लिए व्यक्तिगत हितों का बलिदान कर देना चाहिए।” क्या यह सही है? क्या यह सत्य है? (नहीं।) यह किस तरह का कथन है? (यह एक शैतानी भ्रांति है।) यह एक भ्रामक, गुमराह करने वाला और छिपा हुआ कथन है। यदि तुम अपने कर्तव्यों के पालन के संदर्भ में “व्यक्ति को सामूहिक हितों के लिए व्यक्तिगत हितों का बलिदान कर देना चाहिए” वाक्यांश को लागू करते हो तो तुम परमेश्वर का विरोध और ईशनिंदा कर रहे हो। यह परमेश्वर की ईशनिंदा क्यों है? क्योंकि तुम अपनी इच्छा परमेश्वर पर थोप रहे हो, और यह ईशनिंदा है! तुम परमेश्वर से पूर्णता और आशीष पाने के बदले अपने व्यक्तिगत हितों के बलिदान के लेन-देन की कोशिश कर रहे हो; तुम्हारा इरादा परमेश्वर के साथ सौदा करना है। परमेश्वर को तुमसे कुछ भी बलिदान कराने की आवश्यकता नहीं है; परमेश्वर की यही माँग है कि लोग सत्य का अभ्यास करें और देह के खिलाफ विद्रोह करें। यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते तो तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध कर रहे हो। तुमने अपना कर्तव्य खराब तरीके से निभाया क्योंकि तुम्हारे इरादे गलत थे, चीजों को लेकर तुम्हारे विचार सही नहीं थे और तुम्हारे कथन पूरी तरह से सत्य का खंडन करते थे। लेकिन परमेश्वर के घर ने तुमसे कर्तव्य निभाने का अधिकार नहीं छीना है; बस इतनी-सी बात है कि तुम्हारे कर्तव्यों को समायोजित किया गया था क्योंकि तुम पिछले वाले के लिए उपयुक्त नहीं थे और तुम्हें एक ऐसा कर्तव्य सौंप दिया गया जो तुम्हारे लिए उपयुक्त है। यह बहुत सामान्य और समझने में आसान बात है। तुम्हें इस मामले को सही तरीके से लेना चाहिए। इस मामले को सँभालने का सही तरीका क्या है? जब ऐसा होता है तो तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हारे बारे में किए गए मूल्यांकन को स्वीकार करना चाहिए। भले ही व्यक्तिपरक रूप से तुम्हें अपना कर्तव्य पसंद हो सकता है, लेकिन तुम वास्तव में इसके लिए उपयुक्त नहीं हो और न ही इसमें कुशल हो, इसलिए तुम वह कार्य नहीं कर सकते। इसका मतलब है कि तुम्हारे कर्तव्य को समायोजित करने की आवश्यकता है। तुम्हें आज्ञापालन कर अपना नया कर्तव्य स्वीकार करना चाहिए। पहले कुछ समय के लिए इसका अभ्यास करो—अगर तुम्हें अभी भी लगता है कि तुम पर्याप्त अच्छे नहीं हो और इसके लिए तुम्हारी काबिलियत कम है, तो तुम्हें कलीसिया से कहना चाहिए : “मैं इस कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। अगर यह जारी रहा तो काम में बाधा पड़ेगी।” यह कार्य करने का एक बहुत ही उचित तरीका है! तुम जो भी करो, उस कर्तव्य से चिपके रहने की कोशिश न करो। ऐसा करने से काम में बाधा उत्पन्न होगी। यदि तुम इस मुद्दे को पहले ही उठा देते हो, तो कलीसिया तुम्हारी स्थिति के आधार पर तुम्हारे लिए उपयुक्त कर्तव्य की व्यवस्था कर देगा। परमेश्वर का घर लोगों को कर्तव्य निभाने के लिए बाध्य नहीं करता। क्या अपने कर्तव्य में समायोजन का अनुभव करना तुम्हारे लिए अच्छी बात नहीं है? सबसे पहले, यह तुम्हें अपनी प्राथमिकताओं और इच्छाओं को तर्कसंगत ढंग से देखने में सक्षम बना सकता है। हो सकता है कि अतीत में उसके लिए तुम्हारा झुकाव रहा हो और तुम्हें साहित्य और लेखन पसंद हो, लेकिन पाठ-आधारित कार्य के लिए आध्यात्मिक समझ की भी आवश्यकता होती है। कम से कम तुम्हें आध्यात्मिक शब्दावली को समझने की आवश्यकता है। यदि तुममें सत्य की थोड़ी-सी भी समझ नहीं है, तो केवल लेखन का थोड़ा-सा कौशल होना पर्याप्त नहीं होगा। तुम्हें आध्यात्मिक समझ हासिल करने, आध्यात्मिक शब्दावली को समझने और अनुभव के दौर से गुजरकर आध्यात्मिक जीवन की भाषा को जानने की जरूरत होगी। केवल तभी तुम परमेश्वर के घर में पाठ-आधारित कार्य करने में सक्षम होगे। अनुभव के दौर और चीजों से गुजरने के बाद तुम पाओगे कि तुम्हारे पास जीवन अनुभव की भाषा की कमी है, तुम अपनी चौंका देने वाली अपर्याप्तता देखोगे, तुम अपने असली आध्यात्मिक कद को जानोगे, और तुम परमेश्वर के घर और अपने भाई-बहनों को अपनी काबिलियत और आध्यात्मिक कद को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम बनाओगे। यह तुम्हारे लिए अच्छी बात है। कम से कम, यह तुम्हें दिखाएगा कि तुम्हारी काबिलियत कितनी ऊँची या नीची है, और तुम्हें अपने आप से सही तरीके से पेश आने में सक्षम बनाएगा। अब तुम्हारे भीतर अपनी खुद की काबिलियत और झुकाव के बारे में कल्पनाएँ नहीं रहेंगी। तुम अपने असली आध्यात्मिक कद को जानोगे, तुम अधिक सटीक और स्पष्ट रूप से देखोगे कि तुम क्या हो और किसके लिए उपयुक्त नहीं हो, और तुम अपने कर्तव्य को निभाते समय अधिक दृढ़ और व्यावहारिक होगे। यह इसका एक पहलू है। दूसरा, जो सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, वह यह है कि चाहे तुम किसी भी दर्जे की समझ हासिल कर लो या तुम इन चीजों को समझ पाओ या नहीं, जब परमेश्वर का घर तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है, तो तुम्हें कम से कम पहले आज्ञाकारिता का रवैया अपनाना चाहिए, न कि नकचढ़ा या मीन-मेख निकालने वाला या अपनी खुद की योजनाएँ और चुनाव करने वाला रवैया होना चाहिए। तुम्हारे पास यही विवेक सबसे ज्यादा होना चाहिए। यदि तुम अपने कर्तव्य निर्वहन में दूषित पदार्थों पर विचार करने में सक्षम नहीं हो, तो कोई बात नहीं। केवल इतना ही मायने रखता है कि तुम्हारे दिल में समर्पण हो और तुम सत्य को स्वीकार कर सको, अपने कर्तव्य को गंभीरता से ले सको और अपनी निष्ठा दिखा सको, और जब समस्याएँ आएँ या जब तुम भ्रष्टता प्रकट करो, तो तुम खुद पर विचार कर सको, अपनी कमियों और कमजोरियों को समझ सको, और अपनी समस्याओं या भ्रष्टता के खुलासों को हल करने के लिए सत्य खोज सको। इस तरह तुम्हें इसका एहसास भी नहीं होगा और जैसे-जैसे तुम अपना कर्तव्य निभाओगे, तुम्हारा जीवन और आध्यात्मिक कद धीरे-धीरे बढ़ता जाएगा और तुम अपने कर्तव्य को समुचित रूप से निभा पाओगे। अगर तुम ईमानदारी से परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते रहते हो और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए अपनी समस्याओं को हल करने के लिए सत्य खोजना बंद नहीं करते तो तुम्हें उसका आशीष प्राप्त होगा और वह तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार नहीं करेगा।
जब लोगों के कर्तव्यों का समायोजन किया जाता है, तब अगर निर्णय कलीसिया ने लिया है तो लोगों को इसे स्वीकार कर आज्ञा का पालन करना चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए और समस्या के सार और अपनी कमजोरियों को समझना चाहिए। यह लोगों के लिए बहुत फायदेमंद है और यह ऐसी चीज है जिसका अभ्यास किया जाना चाहिए। यह इतनी सरल चीज है कि साधारण लोग इसे समझ सकते हैं और बहुत अधिक कठिनाइयों या किसी दुर्गम बाधा का सामना किए बिना इससे सही तरीके से व्यवहार कर सकते हैं। जब लोगों के कर्तव्यों में समायोजन किया जाता है तो कम-से-कम उन्हें समर्पण करना चाहिए, आत्मचिंतन से लाभ उठाना चाहिए और साथ ही इस बात का सटीक आकलन करना चाहिए कि उनके कर्तव्यों का निर्वहन समुचित है या नहीं। लेकिन मसीह-विरोधियों के साथ ऐसा नहीं है। जो वे अभिव्यक्त करते हैं वह सामान्य लोगों से अलग होता है, चाहे उन्हें कुछ भी हो जाए। यह अंतर कहाँ होता है? वे आज्ञापालन नहीं करते, सक्रिय रूप से सहयोग नहीं करते, न ही वे सत्य की जरा-सी भी खोज करते हैं। इसके बजाय, वे इसके समायोजन के प्रति वैर-भाव महसूस करते हैं, और वे इसका विरोध और विश्लेषण करते हैं, इस पर चिंतन करते हैं, और दिमाग के घोड़े दौड़ाकर अटकलें लगाते हैं : “मुझे यह कर्तव्य क्यों नहीं निभाने दिया जा रहा है? मुझे ऐसा कर्तव्य क्यों सौंपा जा रहा है जो महत्वपूर्ण नहीं है? क्या यह मुझे बेनकाब करके हटाने का तरीका है?” वे इस घटना को अपने दिमाग में उलटते-पलटते रहते हैं, उसका अंतहीन विश्लेषण करते हैं और उस पर चिंतन करते हैं। जब कुछ नहीं होता तो वे बिल्कुल ठीक होते हैं, लेकिन जब कुछ हो जाता है तो उनके दिलों में तूफानी लहरों जैसा मंथन शुरू हो जाता है, और उनका मस्तिष्क सवालों से भर जाता है। देखने पर ऐसा लग सकता है कि मुद्दों पर विचार करने में वे दूसरों से बेहतर हैं, लेकिन वास्तव में, मसीह-विरोधी सामान्य लोगों की तुलना में अधिक दुष्ट होते हैं। यह दुष्टता कैसे अभिव्यक्त होती है? उनके विचार चरम, जटिल और गुप्त होते हैं। जो चीजें किसी सामान्य व्यक्ति, किसी अंतःकरण और विवेक वाले व्यक्ति के साथ नहीं होतीं, मसीह-विरोधी के लिए वे आम बात हैं। जब लोगों के कर्तव्य में कोई साधारण समायोजन किया जाता है, तो उन्हें आज्ञाकारिता भरे रवैये के साथ उत्तर देना चाहिए, जैसा परमेश्वर का घर उनसे कहे वैसा करना चाहिए, जो वे कर सकते हैं वह करना चाहिए, और वे चाहे जो भी करें, उसे जितना उनके सामर्थ्य में है, उतना अच्छा करना चाहिए और अपने पूरे दिल से और अपनी पूरी ताकत से करना चाहिए। परमेश्वर ने जो किया है, वह गलती से नहीं किया है। लोग इस तरह के सरल सत्य का अभ्यास थोड़ी अंतरात्मा और विवेक के साथ कर सकते हैं, लेकिन यह मसीह-विरोधियों की क्षमताओं से परे है। जब कर्तव्यों के समायोजन की बात आती है, तो मसीह-विरोधी तुरंत बहस, कुतर्क और अवज्ञा करेंगे, और दिल की गहराई में वे इसे स्वीकारने से मना कर देते हैं। उनके दिल में भला क्या होता है? संशय और संदेह, फिर वे तमाम तरीके इस्तेमाल करके दूसरों की जाँच करते हैं। वे अपने शब्दों और कार्यों से प्रतिक्रिया जानने की कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि अनैतिक तरीके अपनाकर लोगों को सच बताने और ईमानदारी से बोलने के लिए मजबूर करते और फुसलाते तक हैं। वे इसे हल करने की कोशिश करते हैं : उनका तबादला क्यों किया गया? उन्हें अपना काम क्यों नहीं करने दिया गया? आखिर डोर किसके हाथ में थी? उनके लिए मुश्किलें खड़ी करने की कोशिश कौन कर रहा था? वे मन ही मन पूछते रहते हैं कि ऐसा क्यों हुआ, वे यह पता लगाने की कोशिश करते रहते हैं कि वास्तव में चल क्या रहा है, ताकि वे यह जान सकें कि किसके साथ बहस करनी है या हिसाब चुकता करना है। वे आत्मचिंतन करने के लिए परमेश्वर के सामने आना, अपने भीतर की समस्या को देखना, और अपने भीतर ही कारण खोजना नहीं जानते, वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते और आत्मचिंतन करके यह नहीं कहते, “मैंने जिस ढंग से काम किया, उसमें क्या समस्या थी? क्या ऐसा था कि मैं अनमना और सिद्धांतहीन था? क्या इसका कोई भी असर पड़ा?” अपने आप से ये प्रश्न पूछने के बजाय, वे लगातार परमेश्वर पर सवाल उठाते रहते हैं : “मेरा कर्तव्य क्यों समायोजित किया गया? मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया जा रहा है? वे इतने विचारहीन क्यों हो रहे हैं? वे मेरे साथ अन्याय क्यों कर रहे हैं? वे मेरी इज्जत के बारे में क्यों नहीं सोचते? वे मुझ पर आक्रमण कर मुझे अलग-थलग क्यों करते हैं?” ये सभी “क्यों” मसीह-विरोधी के भ्रष्ट स्वभाव और चरित्र का एक स्पष्ट प्रकाशन हैं। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि मसीह-विरोधी अपने कर्तव्यों में बदलाव जैसे छोटे मामले को लेकर इतना उपद्रव करेंगे, ऐसा हंगामा खड़ा करेंगे, और इतना बड़ा तूफान खड़ा करने के लिए हर उपलब्ध तरीका आजमाएँगे। वे एक साधारण-सी चीज को इतना जटिल क्यों बना देते हैं? इसका केवल एक ही कारण है : मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते, और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि, फायदे और रुतबे को अपनी आशीषों की प्राप्त करने की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ जोड़ते हैं, मानो अगर उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत खो गई, तो उन्हें आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी, और यह उन्हें अपना जीवन खोने जैसा लगता है। वे सोचते हैं, “मुझे सावधान रहना है, मुझे लापरवाह नहीं होना चाहिए! परमेश्वर के घर, भाई-बहनों, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। मैं उनमें से किसी पर भरोसा नहीं कर सकता। जिस व्यक्ति पर तुम सबसे ज्यादा भरोसा कर सकते हो और जो सबसे ज्यादा विश्वसनीय है, वह तुम खुद हो। अगर तुम अपने लिए योजनाएँ नहीं बना रहे, तो तुम्हारी परवाह कौन करेगा? तुम्हारे भविष्य पर कौन विचार करेगा? कौन इस पर विचार करेगा कि तुम्हें आशीष मिलेंगे या नहीं? इसलिए, मुझे अपने लिए सावधानीपूर्वक योजनाएँ बनानी होंगी और गणनाएँ करनी होंगी। मैं गलती नहीं कर सकता या थोड़ा भी लापरवाह नहीं हो सकता, वरना अगर कोई मेरा फायदा उठाने की कोशिश करेगा तो मैं क्या करूँगा?” इसलिए, वे परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से सतर्क रहते हैं, और डरते हैं कि कोई उन्हें पहचान लेगा या उनकी असलियत जान लेगा, और फिर उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा और आशीष पाने का उनका सपना नष्ट हो जाएगा। वे सोचते हैं कि आशीष प्राप्त करने की आशा रखने के लिए उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बरकरार रखना चाहिए। मसीह-विरोधी आशीष प्राप्ति को स्वर्ग से भी अधिक बड़ा, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो मुश्किल से ही उल्लेखनीय हैं या टिप्पणी के योग्य हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे आशीष प्राप्ति होने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का मार्ग रखते हैं। इसलिए जब उनका कर्तव्य समायोजित किया जाता है, अगर यह पदोन्नति हो, तो मसीह-विरोधी सोचेगा कि उन्हें धन्य होने की आशा है। अगर यह पदावनति हो, टीम-अगुआ से सहायक टीम-अगुआ के रूप में, या सहायक टीम-अगुआ से नियमित समूह-सदस्य के रूप में, तो वे इसके एक बड़ी समस्या होने की भविष्यवाणी करते हैं और उन्हें आशीष पाने की अपनी आशा दुर्बल लगती है। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? क्या यह उचित दृष्टिकोण है? बिल्कुल नहीं। यह दृष्टिकोण बेतुका है! कोई व्यक्ति परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करता है या नहीं, यह इस बात पर आधारित नहीं है कि वह क्या कर्तव्य करता है, बल्कि इस बात पर निर्भर करता है कि क्या उसमें सत्य है, क्या वह सचमुच परमेश्वर को समर्पित होता है, क्या वह निष्ठावान है। ये बातें बेहद महत्वपूर्ण हैं। परमेश्वर द्वारा लोगों के उद्धार के दौरान, लोगों को कई परीक्षणों से गुजरना होता है। विशेष रूप से अपने कर्तव्य निर्वहन में, उन्हें अनेक असफलताएँ और आघात सहने पड़ते हैं, लेकिन अंततः, यदि वे सत्य समझते हैं और परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण रखते हैं, तो उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है। कार्य-संबंधी स्थानांतरण के मामले में यह देखा जा सकता है कि मसीह-विरोधी सत्य नहीं समझते, उनमें समझने की क्षमता बिल्कुल नहीं होती।
कर्तव्य निभाने वाले लोगों में हमेशा कुछ ऐसे लोग होंगे जो कुछ भी ठीक से नहीं करते। वे लेख लिखने में अच्छे नहीं होते, क्योंकि वे सत्य को नहीं समझते, और उन्हें तो उस आध्यात्मिक शब्दावली और उस भाषा की भी समझ नहीं होती जिसे ईसाई अक्सर इस्तेमाल करते हैं। हो सकता है उनमें लेखन कौशल हो और वे कुछ शिक्षित हों लेकिन वे काम के लिए उपयुक्त नहीं होते। यदि तुम उनसे दस्तावेजों का प्रूफ पढ़वाते हो, तो थोड़ी देर बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि वे उसमें भी अच्छे नहीं हैं। उनमें काबिलियत की कमी होती है और वे हमेशा कुछ चीजें भूल जाते हैं, इसलिए तुम उन्हें फिर से स्थानांतरित कर देते हो। फिर वे कहते हैं कि उनके पास कंप्यूटर कौशल है, लेकिन कुछ समय तक उस क्षेत्र में काम करने के बाद वे उसमें भी अच्छे नहीं होते। ऐसा लगता है कि वे अच्छे रसोइये हैं, इसलिए तुम उन्हें भाई-बहनों के लिए खाना बनाने के लिए कहते हो। तब पता चलता है कि हर किसी को उनका बनाया खाना बहुत ज्यादा नमकीन या बहुत फीका होने की शिकायत होती है और वे खाना या तो बहुत ज्यादा बना देते हैं या बहुत कम बनाते हैं। यह देखते हुए कि वे खाना पकाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं, तुम उनके लिए सुसमाचार साझा करने की व्यवस्था करते हो, लेकिन जिस क्षण वे सुनते हैं कि वे सुसमाचार टीम में शामिल होने जा रहे हैं, वे हतोत्साहित महसूस करने लगते हैं और सोचते हैं, “बस हो गया। मुझे हाशिये पर धकेला जा रहा है और आशीष मिलने की कोई उम्मीद नहीं है। रोने के अलावा कुछ नहीं बचा है।” फिर, एक नकारात्मक और उदास मनोदशा के साथ वे हतोत्साहित और पतित हो जाते हैं और अपना ध्यान सुसमाचार साझा करने और परमेश्वर के नए कार्य की गवाही देने पर नहीं लगा पाते। इसके बजाय वे लगातार सोचते रहते हैं, “मैं लिखने-पढ़ने के कर्तव्य पर कब लौट सकता हूँ? मैं कब फिर से अपना सिर उठाकर चल पाऊँगा? मैं कब फिर से ऊपरवाले से बात कर पाऊँगा या उच्च-स्तरीय निर्णय प्रक्रिया में भाग ले पाऊँगा? कब सभी को पता चलेगा कि मैं फिर से एक अगुआ हूँ?” वे कुछ साल तक अपनी बहाली का प्रतीक्षा करते हैं, फिर यह सोचने लगते हैं : “परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है। मैं भी उन्हीं लोगों की तरह हूँ जो दुनिया में अधिकारी बनने की राह पर बहुत-सी असफलताओं का सामना करते हैं, है न?” उन सारी असफलताओं के बारे में सोचकर वे और भी निराश और पूरी तरह हतोत्साहित हो जाते हैं। वे कहते हैं, “इतने साल विश्वासी रहने के बावजूद मैं एक बार भी प्रमुख अगुआ नहीं बन पाया। आखिरकार टीम अगुआ के रूप में सेवा करने के बाद मुझे बरखास्त कर दिया गया और मैंने अन्य कर्तव्यों में भी अच्छा काम नहीं किया। मेरी किस्मत वाकई बहुत खराब है—कुछ भी मेरे हिसाब से नहीं होता। यह ठीक वैसा ही है जैसे अधिकारी बनने की राह पर ढेर सारी असफलताओं से जूझना। परमेश्वर का घर मुझे पदोन्नत क्यों नहीं करता? मेरा रुतबा और प्रतिष्ठा वाकई रसातल को छूने लगे हैं। किसी को भी यह याद नहीं कि मैं कौन हूँ और ऊपरवाला कभी मेरा जिक्र नहीं करता। मेरी महिमा के दिन खत्म हो चुके हैं। अपनी असफलता के बारे में मैं क्या करूँ? मैं परमेश्वर से बहुत प्यार करता हूँ और मैं कलीसिया और परमेश्वर के घर से वाकई प्यार करता हूँ, तो फिर मैं सफलता का आनंद क्यों नहीं ले पाया? परमेश्वर पर विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है। मैं वास्तव में यहाँ परमेश्वर के घर में अपनी महान योजनाओं को साकार करना चाहता था, अपनी ऊर्जा और क्षमताओं का उपयोग करना चाहता था, लेकिन परमेश्वर मुझे बस महत्वपूर्ण पदों पर ही नहीं रखता या मुझे नहीं देखता। कोई मतलब नहीं है।” उनके लगातार यह शिकायत करने का क्या अर्थ है कि कोई मतलब नहीं है? उनका मतलब है कि अपना कर्तव्य करने, स्वभावगत परिवर्तन का अनुसरण करने, सत्य को सुनने और धर्मोपदेश सुनने, परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और सत्य सिद्धांतों की खोज करने का कोई मतलब नहीं है। तो फिर उनके लिए कौन-सी चीज करने का कोई मतलब है? एक आधिकारिक पद होना, आशीष प्राप्त करना, आशीष के लिए अपनी इच्छा और महत्वाकांक्षा का पूरा होना, हर मोड़ पर दिखावा करना, प्रशंसा पाना और प्रतिष्ठा प्राप्त करना। उनके लिए किसी और चीज का कोई मतलब नहीं होता। जब उन्हें लगता है कि किसी चीज का कोई मतलब नहीं है, जब वे निरुत्साहित हो जाते हैं, तो वे पाते हैं कि उनके पैर अपने आप ही उनके चाहे दरवाजे की ओर बढ़ रहे हैं। वे परमेश्वर के घर को छोड़ना चाहते हैं, पीछे हटना चाहते हैं। इसका मतलब है कि वे खतरे में हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कोई कर्तव्य निभाते हैं, खास तौर पर वे जो कोई ऐसा साधारण-सा काम करते हैं जो उन्हें अक्सर अविश्वासियों के संपर्क में लाता है, और इस समूह के कुछ सदस्यों का एक पैर अंदर तो दूसरा बाहर की ओर होता है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि ये लोग किसी भी समय पीछे हट सकते हैं, और अगर उनकी आखिरी रक्षा पँक्ति ढह जाती है तो उनका दूसरा पैर निर्णायक कदम उठाएगा, और वे परमेश्वर के घर से पूरी तरह अलग हो जाएँगे और पूरी तरह से कलीसिया को छोड़ देंगे। जब उनके कर्तव्यों को समायोजित करने की बात आती है, जब यह बात आती है कि उन्हें कहाँ स्थानांतरित किया जाए, वे कौन सा कर्तव्य निभाएँ, क्या वह कर्तव्य उनकी व्यक्तिगत इच्छाओं को संतुष्ट करेगा, क्या यह उन्हें सम्मान दिलाने में सक्षम होगा और उनके नए कर्तव्य की स्थिति और पद क्या होगा तो ये सभी चीजें इन लोगों के आशीष प्राप्त करने की मंशा और इच्छा से जुड़ी होती हैं। मसीह-विरोधी अपने कर्तव्यों के समायोजन के प्रति जो रवैया और दृष्टिकोण पालते हैं, उस आधार पर उनकी समस्या कहाँ स्थित होती है? क्या यह एक बड़ी समस्या है या नहीं? (हाँ, यह है।) समस्या क्या है? (वे अपने कर्तव्यों के सामान्य समायोजन को कलीसिया में अपनी स्थिति और इस बात से जोड़ते हैं कि वे आशीष प्राप्त कर सकते हैं या नहीं। जब उनके कर्तव्यों को समायोजित किया जाता है, तो परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं को स्वीकार करने और उनका पालन करने के बजाय वे सोचने लगते हैं कि वे अपना रुतबा खो रहे हैं और वे अब आशीष प्राप्त नहीं कर सकते, और फिर उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं रहा और वे परमेश्वर के घर को छोड़ना चाहते हैं।) यहाँ उनकी सबसे बड़ी गलती अपने कर्तव्यों के समायोजन को आशीष प्राप्त करने के साथ जोड़ना है। यह बिल्कुल आखिरी चीज थी जो उन्हें करनी चाहिए थी। वास्तव में दोनों के बीच कोई संबंध नहीं है, लेकिन चूँकि मसीह-विरोधियों के दिल आशीष प्राप्त करने की इच्छा से भरे हुए हैं, इसलिए वे चाहे जो भी कर्तव्य निभाएँ, वे इसे इस बात से जोड़ देंगे कि वे आशीष प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, जिसका अर्थ है कि उनके लिए कर्तव्य अच्छी तरह निभाना असंभव हो जाता है, और उन्हें केवल बेनकाब कर हटाया जा सकता है। यह बस खुद अपने लिए समस्याएँ पैदा करना और खुद को बरबादी के रास्ते पर डालना है।
तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन के मामले के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? तुम्हारा रवैया सही होना चाहिए, जो तुम्हारे कर्तव्य को अच्छी तरह निभाने की आवश्यक शर्त है। तुम्हारे लिए कौन-सा कर्तव्य उचित है, यह तुम्हारी खूबियों पर आधारित होना चाहिए। अगर कभी कलीसिया द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित कर्तव्य ऐसा न हो, जिसे तुम अच्छे से कर सकते हो या ऐसा हो, जिसे तुम करना नहीं चाहते, तो तुम इस मुद्दे को उठा सकते हो और बातचीत के माध्यम से इसे हल कर सकते हो। लेकिन अगर तुम वह कर्तव्य निभा सकते हो, और वह ऐसा कर्तव्य है जिसे तुम्हें निभाना चाहिए, और तुम उसे सिर्फ इसलिए नहीं निभाना चाहते कि तुम कष्ट उठाने से डरते हो, तो तुम्हारे साथ समस्या है। अगर तुम आज्ञा मानने को तैयार हो और देह के खिलाफ विद्रोह कर सकते हो, तो तुम्हें तुलनात्मक रूप से उचित कहा जा सकता है। लेकिन अगर तुम हमेशा इसका हिसाब लगाने की कोशिश करते हो कि कौन-से कर्तव्य अधिक प्रतिष्ठित हैं, और यह मानते हो कि कुछ कर्तव्य निभाने से दूसरे तुम्हें हेय समझेंगे, तो यह साबित करता है कि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है। तुम अपने कर्तव्यों की समझ में इतने पूर्वाग्रही क्यों हो? क्या ऐसा हो सकता है कि तुम वह कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो, जिसे तुम अपने विचारों के आधार पर चुनते हो? जरूरी नहीं कि यह सच हो। यहाँ जो चीज सबसे ज्यादा मायने रखती है, वह यह है कि तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करो, और अगर तुम ऐसा नहीं करते, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा पाओगे, भले ही उससे तुम्हें आनंद मिलता हो। कुछ लोग सिद्धांतों के बिना अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हैं, और उनके कर्तव्य का प्रदर्शन हमेशा उनकी प्राथमिकताओं पर आधारित होता है, इसलिए वे कभी भी कठिनाइयाँ हल करने में सक्षम नहीं होते, वे हमेशा अपना हर कर्तव्य मुश्किल से निभा पाते हैं, और अंततः उन्हें हटा दिया जाता है। क्या ऐसे लोग बचाए जा सकते हैं? तुम्हें अपने लिए उपयुक्त कर्तव्य चुनना चाहिए, इसे अच्छी तरह से निभाना चाहिए और अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए सत्य खोजने में सक्षम होना चाहिए। तभी तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम हो पाओगे। यदि तुम हमेशा दैहिक सुख-सुविधाओं का पीछा करते हो और अपने कर्तव्य में अच्छा दिखने की कोशिश करते हो तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा पाओगे। यदि तुम कोई भी कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा पाते तो तुम्हें हटाना पड़ेगा। कुछ लोग चाहे जो भी कर्तव्य निभा रहे हों, वे असंतुष्ट ही रहते हैं, वे हमेशा अपने कर्तव्यों को अस्थायी मानते हैं, वे अनमने होते हैं और वे अपने द्वारा प्रकट भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए सत्य नहीं खोजते हैं। लिहाजा वे जीवन प्रवेश प्राप्त किए बिना बरसों तक अपने कर्तव्य निभाते रहते हैं। वे मजदूर बन जाते हैं और उन्हें हटा दिया जाता है। क्या यह उनका खुद का किया-धरा नहीं है? बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों का अपने कर्तव्यों में कभी भी सही रवैया नहीं होता। जब उनका तबादला किया जाता है, तो वे क्या सोचते हैं? “क्या तुम्हें लगता है कि मैं सिर्फ एक सेवाकर्ता हूँ? जब तुम मेरा इस्तेमाल करते हो, तुम मुझे अपनी सेवा देने के लिए कहते हो, और जब तुम्हारा काम पूरा हो जाता है, तो तुम मुझे दूर भेज देते हो। खैर, मैं इस तरह से सेवा नहीं करूँगा! मैं अगुआ या कार्यकर्ता बनना चाहता हूँ, क्योंकि यहाँ वही एकमात्र सम्मानजनक काम है। अगर तुम मुझे अगुआ या कार्यकर्ता नहीं बनने दोगे और फिर भी मेहनत कराना चाहते हो, तो भूल जाओ!” यह किस तरह का रवैया है? क्या वे समर्पण कर रहे हैं? किस आधार पर वे अपने कर्तव्य में तबादला किए जाने को लेते हैं? अपनी उग्रता, विचारों और भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर, है न? और उसे इस तरह लेने के क्या नतीजे होते हैं? पहली बात, क्या वे अपने अगले कर्तव्य के प्रति निष्ठावान और ईमानदार हो पाएँगे? नहीं, वे नहीं हो पाएँगे। क्या उनका रवैया सकारात्मक होगा? वे किस तरह की स्थिति में होंगे? (मायूसी की स्थिति में।) मायूसी का सार क्या है? प्रतिरोध। और एक प्रतिरोधी और मायूस मनःस्थिति का आखिरी नतीजा क्या होता है? क्या ऐसा महसूस करने वाला इंसान अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? (नहीं।) अगर कोई हमेशा नकारात्मक और प्रतिरोधी रहता है, तो क्या वह कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त होता है? चाहे वह कोई भी कर्तव्य करे, वह उसे अच्छी तरह से नहीं कर सकता। यह एक दुष्चक्र है, और इसका अंत अच्छा नहीं होगा। ऐसा क्यों? ऐसे लोग अच्छे रास्ते पर नहीं होते; वे सत्य की खोज नहीं करते, वे समर्पित नहीं होते, और वे अपने प्रति परमेश्वर के घर का रवैया और नजरिया ठीक से नहीं समझ सकते। यह परेशानी है, है न? यह कर्तव्य में पूरी तरह से उचित बदलाव है, लेकिन मसीह-विरोधी कहते हैं कि यह उन्हें तंग करने के लिए किया जा रहा है, उनके साथ इंसान की तरह व्यवहार नहीं किया जा रहा, परमेश्वर के घर में प्यार की कमी है, उन्हें मशीन समझा जा रहा है, जब जरूरत हुई, बुला लिया, जब जरूरत नहीं रही, लात मारकर एक तरफ कर दिया। क्या यह बात को तोड़ना-मरोड़ना नहीं है? क्या इस तरह की बात कहने वाले इंसान के पास अंतःकरण या तर्क-शक्ति है? उसमें इंसानियत नहीं है! वह पूरी तरह से उचित मामले को विकृत कर देता है; वह पूरी तरह से उपयुक्त अभ्यास को नकारात्मक चीज में बदल देता है—क्या यह मसीह-विरोधी की दुष्टता नहीं है? क्या इतना दुष्ट इंसान सत्य समझ सकता है? बिल्कुल नहीं। यह मसीह-विरोधियों की समस्या है; उनके साथ जो कुछ भी होता है, वे उसके बारे में विकृत तरीके से सोचेंगे। वे विकृत तरीके से क्यों सोचते हैं? क्योंकि उनका प्रकृति सार इतना दुष्ट होता है। एक मसीह-विरोधी का प्रकृति सार मुख्य रूप से दुष्ट होता है, जिसके बाद उसकी दुष्टता आती है, ये उसकी मुख्य विशेषताएँ हैं। मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति उन्हें किसी भी चीज को सही ढंग से समझने से रोकती है, इसके बजाय वे हर चीज को विकृत करते हैं, वे चरम सीमाओं पर चले जाते हैं, वे बाल की खाल निकालते हैं, और वे चीजों को ठीक से नहीं सँभाल पाते या सत्य की खोज नहीं कर पाते। इसके बाद, वे सक्रिय रूप से लड़ते हैं, बदला लेने की कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि धारणाएँ फैलाते और नकारात्मकता को बाहर निकालते हैं, कलीसिया के काम को बाधित करने के लिए दूसरों को उकसाते और मनाते हैं। वे गुप्त रूप से कुछ शिकायतें फैलाते हैं, इसका आकलन करते हैं कि परमेश्वर के घर में लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है, उसके कुछ प्रशासनिक नियमों, कुछ अगुआ कैसे काम करते हैं, और इन अगुआओं की निंदा करते हैं। यह कैसा स्वभाव है? यह शातिर स्वभाव है। मसीह-विरोधी न सिर्फ प्रतिरोधी और अवज्ञाकारी होते हैं, बल्कि वे अपने साथ और भी लोगों को अवज्ञाकारी होने, अपना साथ देने और उत्साह बढ़ाने के लिए उकसाते हैं। किसी मसीह-विरोधी का प्रकृति सार ऐसा ही होता है। वे अपने कर्तव्य के सरल से समायोजन को भी सही तरीके से नहीं ले पाते या इसे तर्कसंगत रूप से स्वीकार कर इसके प्रति समर्पित नहीं हो पाते। इसके बजाय, वे बात का बतंगड़ बनाते हैं और अपने लिए कई बहाने बनाते हैं, जिनमें से कुछ अनुचित होते हैं और दूसरों में घृणा और नफरत पैदा करते हैं। कुछ भ्रांतियाँ और पाखंड फैलाने के बाद मसीह-विरोधी अपनी स्थिति सँभालने और दूसरों का विश्वास जीतने की कोशिश करते हैं। यदि ये उपाय सफल नहीं होते, तो क्या मसीह-विरोधी पीछे मुड़ पाएँगे? यदि वे इस मार्ग पर आगे नहीं बढ़ सकते, तो क्या वे सत्य खोज पाएँगे? क्या उनमें पश्चात्ताप करने की कोई इच्छा होगी? बिल्कुल नहीं। वे कहेंगे, “यदि तुम मुझे आशीष प्राप्त करने से रोकते हो तो मैं तुम सभी लोगों को इसे प्राप्त करने से रोक दूँगा! यदि मैं आशीष नहीं प्राप्त कर सकता, तो मैं विश्वास करना बंद कर दूँगा!” अतीत में मैंने इस बारे में बात की है कि कैसे मसीह-विरोधी पूरी तरह से विवेकहीन होते हैं; इस विवेकहीनता के पीछे का प्रकृति सार यह है कि ये लोग बेहद दुष्ट और शातिर होते हैं। जिस विषय पर हम अभी संगति कर रहे हैं, वह इस प्रकृति सार को पूरी तरह प्रदर्शित करने वाली अभिव्यक्तियाँ और प्रकाशन हैं और यह इस प्रकृति सार का सबसे विश्वसनीय प्रमाण है। इनमें से कुछ लोग अपने कर्तव्यों में एक बार भी समायोजन किए जाने पर क्रोधित हो जाते हैं, और उनमें से कुछ कई बार स्थानांतरित किए जाने और एक कर्तव्य से दूसरे कर्तव्य पर भेजे जाने के बाद, उनमें से किसी को भी अच्छी तरह से करने में सक्षम नहीं होते, और अंततः सोचने लगते हैं कि उन्हें आशीष प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं है, और वे पीछे हटना चाहते हैं। संक्षेप में कहें तो चाहे उनके कर्तव्यों में कोई भी समायोजन क्यों न किया जाए, यदि कोई समायोजन होता है, तो ये लोग अपने दिलों में उसका विश्लेषण, आलोचना और उस पर विचार करेंगे, और केवल तभी आश्वस्त होंगे जब उन्हें पता चलेगा कि समायोजन का आशीष प्राप्त करने से कोई संबंध नहीं है। जैसे ही उन्हें पता चलेगा कि समायोजन का आशीष प्राप्त करने से थोड़ा-सा भी संबंध है या वह आशीष प्राप्त करने की उनकी आशा को प्रभावित करता है, वे तुरंत अवज्ञा में उठ खड़े होकर अपने प्रकृति सार को उजागर कर देंगे। यदि वे इस अवज्ञा में विफल हो जाते हैं और उजागर करके अस्वीकार कर दिए जाते हैं, तो वे अपने लिए आकस्मिक योजनाएँ तैयार करेंगे, और बिना किसी हिचकिचाहट के दृढ़ता से परमेश्वर के घर को छोड़ देंगे, अब इस पर और विश्वास नहीं करेंगे कि परमेश्वर है, और इसे अब और स्वीकार नहीं करेंगे कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। उनका दिन-प्रतिदिन का जीवन तुरंत बदल जाएगा और परमेश्वर में विश्वास करने वाले की सारी समानता उनमें से गायब हो जाएगी। वे तुरंत फिर से शराब पीना, धूम्रपान करना, असामान्य कपड़े पहनना और भारी मेकअप करना और बहुत बढ़िया कपड़े पहनना शुरू कर देंगे। चूँकि वे परमेश्वर में विश्वासी के रूप में इन चीजों का लुत्फ नहीं उठा पाते थे, इसलिए वे इस बीते हुए समय की भरपाई करने के लिए जल्दी मचाएँगे। जब वे पीछे हटने के बारे में सोचेंगे, तो वे तुरंत अपने अगले कदम के बारे में सोचेंगे, कि वे कैसे आगे बढ़ने के लिए दुनिया में कड़ी मेहनत कर सकते हैं, अपने लिए जगह पा सकते हैं, और एक अच्छा जीवन जी सकते हैं, साथ ही साथ उनका रास्ता कहाँ है। वे शीघ्र ही अपने लिए रास्ता खोज लेंगे, इन बुरी प्रवृत्तियों के बीच और इस बुरी दुनिया में अपने लिए एक स्थान खोज लेंगे और तय करेंगे कि वे क्या करने वाले हैं, चाहे फिर वह व्यवसाय हो, राजनीति हो या कोई अन्य प्रकार का उपक्रम हो, जो उन्हें दूसरों की तुलना में बेहतर जीवन जीने देगा, पृथ्वी पर उनके शेष समय में उन्हें खुशी और आनंद प्रदान करेगा, उनकी देह के लिए और अधिक आराम जुटाएगा, उन्हें जीवन का पूरी तरह से आनंद लेने देगा और मनोरंजन और फुरसत का मजा लेने देगा।
जब किसी मसीह-विरोधी की काट-छाँट की जाती है और जब उसके कर्तव्य को समायोजित किया जाता है, तो वह उन आशीषों को प्राप्त करने के बारे में सोचता है जो उससे बहुत निकटता से संबंधित हैं। जब उसे लगता है कि उसके पास इसके लिए कोई उम्मीद नहीं बची है, तो वह पीछे हटना चाहेगा, परमेश्वर के घर से दूर चला जाना चाहेगा और एक अविश्वासी के जीवन में वापस लौटना चाहेगा। इसके आधार पर यह स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति का प्रकृति सार अत्यंत महत्वपूर्ण होता है, इसलिए क्या उसके अनुसरण और चयन भी बहुत महत्वपूर्ण नहीं होते? यह केवल एक विचार का अंतर है : एक सही निर्णय लोगे तो तुम परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करना जारी रख सकते हो, जबकि एक गलत चुनाव तुम्हें पलक झपकते ही एक अविश्वासी में बदल सकता है, एक ऐसे व्यक्ति में बदल सकता है जिसका परमेश्वर के घर, परमेश्वर के कार्य या अपने कर्तव्य से कोई लेना-देना नहीं है। बस एक विचार का सवाल है, एक पल या एक छोटी-सी बात किसी के भाग्य को पूरी तरह से बदल सकती है। एक आकस्मिक चयन की बात है, एक आकस्मिक छोटा-सा विचार या एक सरल-सा दृष्टिकोण किसी व्यक्ति की नियति बदल सकता है और यह निर्धारित कर सकता है कि वह अगले पल कहाँ पहुँचेगा। जब लोगों ने किसी भी तरह की समस्या का सामना नहीं किया होता है, जब उन्होंने किसी निर्णय का सामना नहीं किया होता है, तो उन्हें लगता है कि वे कई सत्य समझते हैं, उनमें आध्यात्मिक कद है और वे दृढ़ बने रह सकते हैं। लेकिन जब तुम किसी निर्णय, किसी प्रमुख सिद्धांत या किसी बड़े मुद्दे का सामना करते हो तो तुम वास्तव में क्या चुनते हो, परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया क्या होता है, और मामले के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण और रवैया क्या होता है, इससे तुम्हारी नियति निर्धारित होगी और यह तय होगा कि तुम रहोगे या जाओगे। मसीह-विरोधियों की चुनाव करने की प्रवृत्ति और उनके दिलों के भीतर गहरी व्यक्तिपरक इच्छाएँ, ये सभी सत्य के विपरीत होती हैं; इन चीजों के भीतर कोई समर्पण नहीं होता, केवल विरोध होता है, कोई सत्य या मानवता नहीं होती, केवल मानवीय भ्रष्ट स्वभाव और मानवीय भ्रांतियाँ और पाखंड होते हैं। ये चीजें अक्सर परमेश्वर के घर को छोड़ने और खुद को बुरी प्रवृत्तियों में डुबोने जैसे विचारों को जन्म देती हैं और किसी भी बिंदु पर उन्हें यह सोचने पर मजबूर कर सकती हैं, “अगर मुझे आशीष मिलने की कोई उम्मीद नहीं है तो क्यों न परमेश्वर के घर को छोड़ दूँ? अगर ऐसी बात है तो मैं विश्वास करना या अपना कर्तव्य निभाना जारी नहीं रखूँगा। अगर परमेश्वर का घर मेरे साथ ऐसा ही व्यवहार करता है तो मैं अब परमेश्वर को स्वीकार नहीं करूँगा।” इस तरह की बेहद विद्रोही सोच, ये पाखंड और भ्रांतियाँ, ये दुष्ट विचार, अक्सर मसीह-विरोधी के दिल में मौजूद होते हैं और बने रहते हैं। यही कारण है कि भले ही वे परमेश्वर का अनुसरण करने के अपने मार्ग में आधे रास्ते में पीछे न हटें, उनके लिए अंत तक मार्ग पर चलना बहुत मुश्किल होता है, और उनमें से अधिकांश को उनके द्वारा किए गए बहुत से बुरे कामों और उनके द्वारा पैदा की गई विघ्न-बाधा के कारण कलीसिया से बहिष्कृत और निष्कासित कर दिया जाएगा। भले ही वे अंत तक खुद को बनाए रखने के लिए मजबूर कर लें, वास्तव में हम मसीह-विरोधी के प्रकृति सार से देख सकते हैं कि यह अपरिहार्य है कि वे कलीसिया से पीछे हट जाएँगे। वे शायद गहराई से यह भी सोचें, “मैं परमेश्वर के घर को बिल्कुल नहीं छोड़ सकता। भले ही मेरे मन में ऐसे विचार हों, मैं नहीं छोड़ सकता। मैं अपनी मृत्यु तक यहाँ रहूँगा। मैं परमेश्वर के घर से जुड़ा रहूँगा; मैं अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करूँगा।” भले ही उनकी व्यक्तिपरक इच्छा उन्हें परमेश्वर के घर को न छोड़ने के लिए कैसे भी मजबूर करे, और वे कैसे भी जोर दें कि उन्हें अपनी व्यक्तिपरक इच्छा के अनुसार रहना चाहिए, अंततः उन्हें परमेश्वर द्वारा ठुकराया जाना और उनका अपनी इच्छा से परमेश्वर के घर को छोड़ना तय है, क्योंकि वे सत्य से विमुख हैं और मूल रूप से दुष्ट हैं।
III. मसीह-विरोधियों का खुद को बरखास्त किए जाने के प्रति दृष्टिकोण
हमने अभी-अभी मसीह-विरोधियों की दो अभिव्यक्तियों पर संगति की है, एक वह जब उन्हें काट-छाँट का सामना करना पड़ता है और दूसरी वह जब उनके कर्तव्य में समायोजन किए जाते हैं। हमारी संगति का केंद्र-बिंदु इस बात पर रहा है कि जब मसीह-विरोधियों के साथ ऐसी चीजें घटित होती हैं तो उनका रवैया क्या होता है और वे क्या निर्णय लेते हैं। बेशक, काट-छाँट या कर्तव्यों में समायोजन होने पर मसीह-विरोधियों का दृष्टिकोण और रवैया चाहे जो हो, वे इन चीजों को हमेशा इस बात से जोड़ते हैं कि उन्हें आशीष मिलेगा या नहीं। अगर उन्हें यकीन होता है कि उन्हें आशीष नहीं मिलेगा, कि उनके लिए इसकी कोई उम्मीद नहीं है तो वे स्वाभाविक रूप से पीछे हट जाएँगे। एक सामान्य व्यक्ति के लिए, जिसकी कोई महत्वाकांक्षा या इच्छा नहीं है, उसके लिए न तो काट-छाँट होना और न ही उसके कर्तव्य में समायोजन होना वास्तव में कोई बड़ी बात है। दोनों का उस पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ेगा। उससे कर्तव्य करने का अधिकार नहीं छीना गया है, न ही बचाए जाने की उसकी उम्मीद छीनी गई है, इसलिए एक सामान्य व्यक्ति को अति प्रतिक्रिया देने, भयभीत होने या आहत होने या आकस्मिक योजनाएँ बनाने की कोई आवश्यकता नहीं होती। लेकिन मसीह-विरोधी के साथ ऐसा नहीं होता। वह इसे बहुत गंभीर मामला मानता है, क्योंकि वह इसे आशीष से जोड़ता है और यह उसके अंदर तमाम तरह के विद्रोही विचारों और व्यवहारों को जन्म देता है, जो बदले में पीछे हटने, परमेश्वर को छोड़ने वाले विचारों और योजनाओं को जन्म देते हैं। मसीह-विरोधी तो पीछे हटने के विचार को तब भी जन्म दे सकते हैं जब उनके साथ ऐसी बहुत ही साधारण चीजें घटित होती हैं। तो किसी रुतबेदार और परमेश्वर के घर में महत्वपूर्ण कार्य के लिए जिम्मेदार व्यक्ति को जब बरखास्तगी का सामना करना पड़ता है तो उसका रवैया कैसा होगा? वह इसे कैसे सँभालेगा और कैसे फैसले करेगा? ऐसी चीजें और भी अधिक मिसाल पेश करने वाली होती हैं। मसीह-विरोधी के लिए रुतबा, सत्ता और प्रतिष्ठा सबसे महत्वपूर्ण प्रकार के हित होते हैं और ये वे चीजें हैं जिन्हें वे अपने जीवन के बराबर मानते हैं। यही कारण है कि जब किसी मसीह-विरोधी को बरखास्त किया जाता है, जब वह अपना “अगुआ” का खिताब खोता है और जब उसका कोई रुतबा नहीं रह जाता तो इसका अर्थ है कि उसने अपनी सत्ता और प्रतिष्ठा खो दी है, कि उसके साथ अब सम्मानित होने, समर्थन और आदर पाने का विशेष सत्कार नहीं होगा, और रुतबे और सत्ता को ही जीवन मानने वाले एक मसीह-विरोधी के रूप में वह इस स्थिति को बिल्कुल अस्वीकार्य पाता है। जब किसी मसीह-विरोधी को बरखास्त किया जाता है तो उसकी पहली प्रतिक्रिया ऐसी होती है जैसे उस पर बिजली गिर गई हो, मानो आसमान टूट पड़ा हो और उनकी दुनिया ही ढह गई हो। जिस चीज पर वह अपनी उम्मीदें टिकाए हुए था, वह जा चुकी होती है और रुतबे के तमाम फायदों के साथ जीने का मौका भी हाथ से निकल जाता है, साथ ही वह इच्छा भी मिट जाती है जो उसे अंधाधुंध ढंग से बुरे काम करने को प्रेरित करती है। यह उसके लिए सबसे अस्वीकार्य होता है। उसका पहला विचार यह होता है, “अब जब मेरा रुतबा नहीं रहा तो लोग मुझे कैसे देखेंगे? मेरे गृहनगर के भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मुझे जानने वाले सभी लोग मुझे कैसे देखेंगे? क्या वे अब भी मेरी चापलूसी करेंगे? क्या वे मेरे साथ इतने ही दोस्ताना रहेंगे? क्या वे हर मोड़ पर मेरा समर्थन करते रहेंगे? क्या वे अब भी मेरे आगे-पीछे घूमेंगे? क्या वे अब भी मेरे जीवन में मेरी सभी जरूरतों का ख्याल रखेंगे? जब मैं उनसे बात करता हूँ तो क्या वे अब भी विनम्र बने रहेंगे और मुस्कराहट के साथ मेरा स्वागत करेंगे? रुतबे के बिना मेरा गुजारा कैसे होगा? मैं आगे मार्ग पर कैसे चलूँगा? मैं दूसरे लोगों के बीच अपने पैर कैसे जमा सकता हूँ? अब जब मैंने अपना रुतबा खो दिया है तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि मुझे आशीष मिलने की उम्मीद कम है? क्या मैं बड़े आशीष प्राप्त कर पाऊँगा? क्या मुझे कोई बड़ा पुरस्कार या कोई बड़ा मुकुट मिलेगा?” जब वे सोचते हैं कि आशीष पाने की उनकी उम्मीदें नष्ट हो गई हैं या बहुत ही कम हो गई हैं, तो उन्हें ऐसा लगता है जैसे उनका सिर फटने वाला है, ऐसा लगता है जैसे उनके दिल पर हथौड़े से प्रहार किया जा रहा है और उन्हें यह चाकू से काटे जाने जैसा दर्दनाक लगता है। जब वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का आशीष खोने वाले होते हैं जिसके लिए वे दिन-रात इतने लालायित रहते हैं, तो उन्हें यह एक अकस्मात आ टपके भयानक समाचार की तरह लगता है। मसीह-विरोधी की नजर में अपना कोई रुतबा न होना आशीष पाने की कोई उम्मीद न होने के समान होता है और वे एक चलती-फिरती लाश की तरह हो जाते हैं, उनका शरीर एक खोल बनकर रह जाता है, जिसमें आत्मा नहीं होती, जिसमें उनके जीवन को दिशा देने के लिए कुछ नहीं होता। उनके पास कोई उम्मीद नहीं बचती और आगे के लिए कुछ भी नहीं होता। जब कोई मसीह-विरोधी उजागर और बरखास्त होने का सामना करता है तो उसके मन में सबसे पहले यही आता है कि उसने आशीष पाने की हर उम्मीद खो दी है। तो इस बिंदु पर क्या वे बस हार मान लेंगे? क्या वे समर्पण करने के लिए तैयार होंगे? क्या वे इस अवसर का उपयोग अपनी आशीष की इच्छा छोड़ने, रुतबे को त्यागने, स्वेच्छा से नियमित अनुयायी बनने और खुशी-खुशी परमेश्वर के लिए काम करने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए करेंगे? (नहीं।) क्या यह उनके लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ हो सकता है? क्या यह महत्वपूर्ण मोड़ उन्हें अच्छी दिशा में और सकारात्मक तरीके से विकसित करेगा या यह उन्हें एक बदतर दिशा और नकारात्मक तरीके से विकसित करेगा? किसी मसीह-विरोधी के प्रकृति सार के आधार पर यह स्पष्ट है कि उसकी बरखास्तगी उसके आशीष की इच्छा छोड़ने या सत्य को प्रेम करने और खोजने की शुरुआत बिल्कुल नहीं होती। इसके बजाय वह आशीष पाने के अवसर और आशा के लिए लड़ने को और भी अधिक मेहनत करेगा; वह किसी भी ऐसे अवसर को झपट लेगा जो उसे आशीष दिला सकता है जो उसे वापसी करने में मदद कर अपना रुतबा वापस पाने में सक्षम बना सकता है। इसीलिए बरखास्तगी का सामना करते समय मसीह-विरोधी परेशान, निराश और विरोधी तो होगा ही, वह बरखास्त किए जाने के खिलाफ भी जी-जान से लड़ेगा और स्थिति को पलटने और बदलने का प्रयास करेगा। वह आशीष पाने की अपनी आशा कायम रखने और अपने रुतबे, प्रतिष्ठा और सत्ता को बरकरार रखने के लिए पुरजोर संघर्ष करेगा। वह कैसे संघर्ष करता है? वह खुद को सही साबित करने की कोशिश करके, औचित्य साबित करके, बहाने बनाकर और यह बताकर संघर्ष करता है कि उसने जो किया वह कैसे किया, किस वजह से उससे गलती हुई, कैसे वह दूसरों की मदद करने और उनके साथ संगति करने के लिए पूरी रात जागता रहा और किस वजह से उससे इस मामले में लापरवाही हुई। वह इस मामले के हर पहलू को पूरी तरह स्पष्ट करेगा ताकि वह स्थिति को सँभाल सके और बरखास्त होने के दुर्भाग्य से बच सके।
किन संदर्भों और मामलों में इस बात की सर्वाधिक संभावना होती है कि मसीह-विरोधी अपनी शैतानी प्रकृति बेनकाब और प्रकट कर देंगे? यह तब होता है जब उन्हें उजागर कर बरखास्त किया जाता है, यानी जब वे अपना रुतबा खो देते हैं। मसीह-विरोधी जो प्राथमिक अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते हैं, वह यह है कि वे खुद को सही साबित करने और कुतर्क करने का हर संभव प्रयास करते हैं। चाहे तुम उनके साथ सत्य पर कैसे भी संगति करो, वे प्रतिरोधी होते हैं और तुम जो कहते हो उसे स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं। जब उनका सामना परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा उनके कुकर्मों के सभी तथ्यों को उजागर करने से होता है, तो वे इन बातों को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, उन्हें डर होता है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो वे आरोपों के अनुसार दोषी पाए जाएँगे और उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाएगा। अपने खिलाफ लगाए गए आरोपों को स्वीकार करने से इनकार करते हुए वे अपनी गलतियों और जिम्मेदारियों को दूसरे लोगों के कंधों पर भी डाल देते हैं। यह तथ्य पर्याप्त रूप से दर्शाता है कि मसीह-विरोधी कभी सत्य को स्वीकार नहीं करते, अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं करते या सचमुच खुद को नहीं जानते, और यह और भी अधिक साबित करता है कि उनकी प्रकृति अहंकारी और आत्मतुष्ट होती है, कि यह सत्य से विमुख होती है, सत्य से घृणा करती है और सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करती, और इसलिए उन्हें बचाया नहीं जा सकता। जिनके पास नाम-मात्र की भी मानवता और कुछ विवेक होता है, वे अपनी गलतियों को मानकर स्वीकार कर सकते हैं, तथ्यों का सामना करने पर अपना सिर झुका सकते हैं और अपने द्वारा किए गए बुरे कामों के लिए पछतावा महसूस कर सकते हैं; लेकिन मसीह-विरोधी इन चीजों में असमर्थ होते हैं। यह दर्शाता है कि मसीह-विरोधियों के पास बिल्कुल भी अंतरात्मा या विवेक नहीं होता और वे पूरी तरह मानवता से रहित होते हैं। अपने दिलों में मसीह-विरोधी हमेशा यह तोलते रहते हैं कि उनका रुतबा कितना ऊँचा या नीचा है और उनके आशीष कितने बड़े या छोटे होंगे। चाहे यह परमेश्वर के घर की बात हो या किसी अन्य समूह की, उनके दृष्टिकोण से लोगों के रुतबे और वर्ग के साथ ही उनके अंतिम परिणाम भी स्पष्ट रूप से निर्धारित होते हैं; इस जीवन में परमेश्वर के घर में किसी व्यक्ति का रुतबा कितना ऊँचा है और उसके पास कितनी सत्ता है, यह आने वाले संसार में उसे मिलने वाले आशीष, पुरस्कार और मुकुट के परिमाण के बराबर होगा—ये चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं। क्या इस दृष्टिकोण में दम है? परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा, न ही उसने कभी ऐसा कुछ वादा किया है, लेकिन यह ऐसी सोच है जो एक मसीह-विरोधी के भीतर पैदा होती है। फिलहाल हम इन कारणों की तह में नहीं जाएँगे कि मसीह-विरोधी ऐसे विचार क्यों रखते हैं। लेकिन उनके प्रकृति सार के संदर्भ में बात करें तो वे रुतबे के लिए प्रेम के साथ पैदा हुए हैं और वे इस जीवन में शानदार रुतबा और उच्च प्रतिष्ठा पाने, सत्ता का उपयोग करने की भी उम्मीद करते हैं और आने वाली दुनिया में इन सबका आनंद लेते रहना चाहते हैं। तो वे यह सब कैसे हासिल करेंगे? मसीह-विरोधियों के मन में, वे कुछ ऐसी चीजें करके इसे हासिल करेंगे जो वे करने में सक्षम हैं और जो चीजें वे तब करना चाहते हैं और करना पसंद करते हैं जब उनके पास इस जीवन में रुतबा, सत्ता और प्रतिष्ठा होते हैं, और फिर इन चीजों को वे भविष्य के आशीष, मुकुट और पुरस्कारों से बदलते हैं। मसीह-विरोधियों का सांसारिक आचरण का फलसफा यही है और यही वह तरीका है जिससे वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और परमेश्वर में अपने विश्वास में वे यही दृष्टिकोण रखते हैं। उनके विचार, दृष्टिकोण और परमेश्वर में विश्वास रखने के तरीके का परमेश्वर के वचनों और वादों से कोई लेना-देना नहीं होता—ये आपस में पूरी तरह से असंबंधित होते हैं। मुझे बताओ, क्या ये मसीह-विरोधी दिमाग से थोड़े गलत नहीं हैं? क्या वे अत्यंत दुष्ट नहीं हैं? वे परमेश्वर के वचनों में कही गई किसी भी बात की अनदेखी करते हैं और उसे स्वीकार करने से इनकार करते हैं, वे मानते हैं कि जिस तरह वे सोचते हैं और जिस तरह वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वही सही है, और उन्हें इसमें आनंद मिलता है, वे खुद इसमें रस लेते हैं और अपनी प्रशंसा करते हैं। वे यह जानने के लिए न कभी सत्य खोजते हैं, न ही परमेश्वर के वचनों की जाँच करते हैं कि क्या वे ऐसी बातें कहते हैं या ऐसे वादे करते हैं। मसीह-विरोधी यह मानकर चलते हैं कि वे जन्मजात अन्य लोगों की तुलना में अधिक चतुर हैं, जन्मजात बुद्धिमान, प्रतिभाशाली और अत्यधिक गुणवान हैं; उन्हें लगता है कि उन्हें अन्य लोगों के बीच सबसे अलग दिखना चाहिए, कि उन्हें बॉस होना चाहिए, कि उन्हें दूसरों की नजर में आदर मिलना चाहिए, कि उन्हें सत्ता का प्रयोग करना चाहिए, कि उन्हें दूसरों पर शासन करना चाहिए, मानो परमेश्वर के सभी विश्वासियों को उनके द्वारा शासित होना चाहिए और हर कोई उनकी अगुआई में रहना चाहिए। ये वो सारी चीजें हैं जो वे इस जीवन में प्राप्त करना चाहते हैं। वे ऐसे आशीष भी प्राप्त करना चाहते हैं जो अन्य लोग आने वाली दुनिया में नहीं पा सकते और वे इसे एक स्वाभाविक बात मानते हैं। मसीह-विरोधियों के ऐसे विचार और दृष्टिकोण क्या उन्हें पूरी तरह से बेशर्म नहीं बनाते? क्या वे कुछ हद तक अड़ियल नहीं हैं? तुम किस आधार पर ऐसा सोचते हो? तुम किस आधार पर दूसरों से उच्च सम्मान प्राप्त करना चाहते हो? तुम किस आधार पर दूसरों पर शासन करना चाहते हो? किस आधार पर तुम्हें सत्ता चाहिए और मनुष्यों के बीच उच्च स्थान प्राप्त करना है? क्या परमेश्वर ने इन चीजों को पूर्वनिर्धारित किया है या क्या तुममें सत्य और मानवता है? क्या तुम सिर्फ इसलिए अपना रुतबा जताने और दूसरों की अगुआई करने योग्य हो क्योंकि तुम्हारे पास कुछ शिक्षा और ज्ञान है, और क्योंकि तुम थोड़े लंबे हो और सुंदर दिखते हो? क्या इससे तुम आदेश जारी करने के योग्य बन जाते हो? क्या यह तुम्हें अन्य लोगों को नियंत्रित करने के योग्य बनाता है? परमेश्वर अपने वचनों में यह कहाँ कहता है, “तुम आकर्षक हो, तुम्हारे पास ताकत और गुण हैं, इसलिए तुम्हें अन्य लोगों की अगुआई करनी चाहिए और स्थायी रुतबा प्राप्त करना चाहिए”? क्या परमेश्वर ने तुम्हें यह सामर्थ्य दी है? क्या परमेश्वर ने इसे पूर्वनिर्धारित किया है? नहीं। जब भाई-बहन तुम्हें अगुआ या कार्यकर्ता चुनते हैं तो क्या वे तुम्हें रुतबा दे रहे होते हैं? क्या यह एक आशीष है जिसके तुम इस जीवन में हकदार हो? कुछ लोग इन चीजों का आनंद लेने की व्याख्या इस जीवन में सौ गुना प्राप्त करने के रूप में करते हैं, और सोचते हैं कि जब तक उनके पास रुतबा और सत्ता है, और वे आदेश जारी कर सकते हैं और बहुत से लोगों पर शासन कर सकते हैं, तब तक उन्हें अपने आसपास अनुयायियों के समूह से घिरा होना चाहिए, और जहाँ भी वे जाएँ, वहाँ हमेशा लोग उनकी सेवा करते रहें और उनके इर्द-गिर्द घूमते रहें। किस आधार पर तुम इन चीजों का आनंद लेना चाहते हो? भाई-बहन तुम्हें अगुआ इसलिए चुनते हैं कि तुम यह कर्तव्य निभा सको; इसलिए नहीं कि तुम लोगों को गुमराह कर सको, तुम भाई-बहनों से उच्च सम्मान और प्रशंसा पाओ, और इसलिए तो बिल्कुल नहीं कि तुम सत्ता का उपयोग कर रुतबे के लाभों का आनंद ले सको, बल्कि इसलिए कि तुम कार्य व्यवस्थाओं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभा सको। इसके अलावा, परमेश्वर ने यह पूर्वनिर्धारित नहीं किया है कि भाई-बहनों ने जिसे अगुआ चुना उसे बरखास्त नहीं किया जा सकता। क्या तुम्हें लगता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसका उपयोग पवित्र आत्मा द्वारा किया जा रहा है? क्या तुम्हें लगता है कि कोई भी तुम्हें बरखास्त नहीं कर सकता? तो तुम्हें बरखास्त करने में गलत क्या है? यदि तुम्हें निष्कासित नहीं किया गया है तो इसका कारण यह है कि तुम पर दया की जा रही है और तुम्हें पश्चात्ताप करने का मौका दिया जा रहा है, लेकिन तुम अभी भी संतुष्ट नहीं हो। तुम किस बात पर बहस कर रहे हो? यदि तुम पीछे हटना चाहते हो और अब परमेश्वर पर विश्वास नहीं करना चाहते क्योंकि तुम्हें आशीष पाने की उम्मीदें धराशायी हो गई हैं, तो ऐसा कर लो और पीछे हट जाओ! क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर का घर तुम्हारे बिना नहीं चल सकता? कि तुम्हारे बिना दुनिया घूमना बंद कर देगी? कि तुम्हारे बिना परमेश्वर के घर का काम पूरा नहीं हो सकता? खैर, तुमने गलत सोचा! किसी भी व्यक्ति के न होने से दुनिया का घूमना या सूरज का उगना नहीं रुकेगा—केवल परमेश्वर अपरिहार्य है, कोई भी इंसान नहीं—कलीसिया का काम हमेशा की तरह चलता रहेगा। अगर कोई सोचता है कि उसके बिना कलीसिया नहीं चल सकती और परमेश्वर का घर उसके बिना नहीं चल सकता तो क्या वह मसीह-विरोधी नहीं है? तुम रुतबे के फायदे उठाने के आदी हो, है न? तुम दूसरों से प्रशंसा और उच्च सम्मान पाने और चापलूसी सुनने का आनंद लेने के आदी हो, है न? तुम दूसरों से प्रशंसा पाने का आनंद लेने के लिए योग्य कैसे हो? तुम दूसरों से मुस्कराहट के साथ अभिवादन किए जाने के योग्य कैसे हो? क्या तुम यह भी चाहते हो कि लोग तुम्हारे सामने झुकें और तुम्हारी आराधना करें? यदि ऐसा है तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम पूरी तरह से बेशर्म हो? जब कुछ लोगों को उनके कर्तव्य से बरखास्त कर दिया जाता है तो वे इतने अधिक परेशान और दुखी हो जाते हैं, जितना परिवार के किसी सदस्य के मरने पर भी नहीं होते। वे सब कुछ खोज निकालते हैं और परमेश्वर के घर के साथ यूँ बहस करते हैं मानो शायद कोई और कलीसिया की अगुआई नहीं कर सकता, मानो अब तक कलीसिया के कार्य का समर्थन करने वाले वे एकमात्र व्यक्ति रहे हों—यह एक बहुत बड़ी गलती है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों का परमेश्वर को न छोड़ना परमेश्वर के वचनों से प्राप्त एक प्रभाव है और वे सभाओं में भाग लेते हैं और कलीसिया का जीवन जीते हैं क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हैं। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग इसलिए दृढ़ रहकर सामान्य रूप से सभाओं में भाग लेते हैं कि इन्होंने सत्य को समझ लिया है और इनका अच्छी तरह से सिंचन किया गया है। कलीसिया के अगुआओं को बार-बार बदल दिया जाता है, कई झूठे अगुआओं और झूठे कार्यकर्ताओं को बरखास्त कर दिया जाता है और परमेश्वर के चुने हुए लोग सामान्य रूप से सभाओं में भाग लेते हैं और परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हैं—इसका इन झूठे अगुआओं और झूठे कार्यकर्ताओं से कोई लेना-देना नहीं होता। ये दलीलें देने का क्या मतलब है? क्या तुम सिर्फ बेतुकी और उलझी हुई दलीलें नहीं दे रहे हो? अगर तुममें सच में सत्य वास्तविकता है और तुमने परमेश्वर के चुने हुए लोगों की जीवन प्रवेश से जुड़ी कई समस्याओं को सुलझाया है, तो परमेश्वर के चुने हुए लोग अपने दिल में यह बात जान लेंगे; अगर तुममें सत्य वास्तविकता नहीं है और तुम समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य पर संगति नहीं कर सकते, तो फिर कलीसिया के कार्य के सामान्य विकास का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। बहुत सारे झूठे अगुआ और झूठे कार्यकर्ता हैं, जो एक बार बरखास्त होने के बाद बहाने बनाते रहते हैं, मानो उन्होंने कलीसिया में बहुत योगदान दिया हो, जबकि वास्तव में उन्होंने कोई वास्तविक कार्य नहीं किया, और उनके रखरखाव के माध्यम से कलीसिया के जीवन की सामान्य व्यवस्था संरक्षित नहीं हुई; उनके बिना परमेश्वर के चुने हुए लोग सामान्य रूप से सभाओं में भाग लेते रहते हैं और हमेशा की तरह अपने कर्तव्यों का पालन करते रहते हैं। अगर तुममें सत्य वास्तविकता नहीं है और तुम कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकते, तो तुम्हें कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश दोनों को प्रभावित करने और विलंबित करने से रोकने के लिए बरखास्त कर दिया जाना चाहिए। परमेश्वर का घर तुम झूठे अगुआओं और झूठे कार्यकर्ताओं का उपयोग नहीं करेगा—क्या तुम्हें यह लगता था कि परमेश्वर के घर में तुम्हें बरखास्त करने की शक्ति नहीं है? तुम लोगों ने अपने काम को इतना खराब कर दिया है, तुमने कलीसिया के काम में इतनी परेशानी खड़ी की है और इतना बड़ा नुकसान पहुँचाया है, तुमने ऊपरवाले को इतना चिंतित कर दिया है, तुम्हारा उपयोग करना इतना परेशानी भरा है, और इससे लोगों को इतनी घृणा, विरक्ति और नफरत होती है। तुम इतने मूर्ख, अज्ञानी और जिद्दी हो, और यहाँ तक कि काट-छाँट के भी लायक नहीं हो, इसलिए परमेश्वर का घर तुम्हें बाहर निकालना चाहता है, तुम्हें तुरंत हटाना चाहता है और इस मामले को खत्म कर देना चाहता है। और फिर भी तुम चाहते हो कि ऊपरवाला तुम्हें अगुआ बने रहने का एक और मौका दे? यह तो भूल जाओ! जब ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों की बात आती है जो अंतरात्मा और विवेक विहीन होते हैं और जो बुराई करते हैं और गड़बड़ी पैदा करते हैं तो एक बार हटा दिए जाने पर वे हमेशा के लिए हटा दिए जाते हैं। यदि तुम वास्तविक कार्य कर सकते हो, तो तुम्हारा उपयोग किया जाएगा; यदि तुम वास्तविक कार्य नहीं कर सकते और तुम बुराई भी करते हो और गड़बड़ी पैदा करते हो, तो तुम्हें तुरंत हटा दिया जाएगा—यह लोगों का उपयोग करने के लिए परमेश्वर के घर का सिद्धांत है। कुछ मसीह-विरोधी झुकते नहीं और कहते हैं, “तुम मुझे वास्तविक कार्य न करने के लिए बरखास्त कर रहे हो—तुम मुझे पश्चात्ताप करने का एक मौका क्यों नहीं देते?” क्या यह विकृत तर्क नहीं है? तुम्हें इसलिए बरखास्त किया जा रहा है क्योंकि तुमने बहुत सारी बुराइयाँ की हैं, और तुम्हें इतनी बार काट-छाँट के बाद ही बरखास्त किया जा रहा है और फिर भी तुम पश्चात्ताप करने से पूरी तरह से इनकार कर रहे हो, तो तुम और क्या तर्क दे सकते हो? तुम प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे दौड़ते रहे और वास्तविक कार्य नहीं किया, तुमने कलीसिया के काम को ठप कर दिया, और इतनी सारी समस्याओं का ढेर लगा हुआ था और तुमने उन्हें नहीं सँभाला—तुम्हारे कारण ऊपरवाले को कितनी चिंता करनी पड़ी होगी? जब ऊपरवाला तुम्हारा समर्थन कर रहा था और तुम्हारे काम में तुम्हारी मदद कर रहा था, तब तुम लोग छिपकर काम कर रहे थे, तुम बहुत से ऐसे काम कर रहे थे जो सिद्धांतों के विरुद्ध हैं, ऐसी चीजें जो देखे जाने लायक नहीं हैं, ऊपरवाले के पीठ पीछे, मनमाने ढंग से परमेश्वर की भेंटों को ऐसी बहुत सी चीजें खरीदने में खर्च कर रहे थे जो तुम्हें नहीं खरीदनी चाहिए, परमेश्वर के घर के हितों को इतना नुकसान पहुँचा रहे थे और कलीसिया के कार्य पर इतनी बड़ी आपदा ला रहे थे! तुम इन बुरे कर्मों के बारे में कभी क्यों नहीं बोलते? जब परमेश्वर का घर तुम्हें बरखास्त करना चाहता है तो तुम पूरी बेशर्मी से कहते हो, “क्या तुम मुझे एक और मौका दे सकते हो?” क्या परमेश्वर के घर को तुम्हें एक और मौका देना चाहिए ताकि तुम अंधाधुंध ढंग से बुरे काम करते रहो? क्या तुममें परमेश्वर के घर से एक और मौका माँगने में कोई शर्म नहीं आती? क्या तुम्हें एक और मौका दिया जा सकता है जब तुम अपनी प्रकृति को बिल्कुल नहीं जानते और तुम्हारे दिल में पश्चात्ताप तो बिल्कुल भी नहीं है? इस तरह के लोगों को कोई शर्म नहीं होती, वे शर्म नाम की चीज को नहीं जानते और वे बुरे लोग और मसीह-विरोधी हैं!
कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कतई कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकते और ऊपरवाले से कुछ समय तक मार्गदर्शन और मदद मिलने के बाद भी वे ऐसा कोई कार्य नहीं कर पाते। वे तो सामान्य मामलों के कार्य को भी अच्छी तरह नहीं सँभाल पाते और यह दर्शाता है कि उनमें काबिलियत की बहुत कमी है। ऊपरवाला कार्य के सभी पहलुओं की नियमित पूछताछ और निरीक्षण भी करेगा और भाई-बहनों से किसी भी समस्या की तुरंत रिपोर्ट करने के लिए कहेगा; ऊपरवाले को कार्य के सभी पहलुओं से जुड़े सिद्धांतों बारे में जाँच करने, मार्गदर्शन देने और संगति करने की भी जरूरत होती है। जब ऊपरवालासिद्धांतों पर संगति समाप्त कर देता है, तब भी कुछ लोग नहीं जानते कि चीजें कैसे की जाएँ और वे इन्हें खराब तरीके से करते हैं और कुछ तो अंधाधुंध बुरे काम करते जाते हैं; चाहे वे जो भी काम कर रहे हों, वे कभी ऊपरवाले से नहीं खोजते, वे कभी ऊपरवाले को कोई समस्या नहीं बताते, इसके बजाय वे बस छिपकर काम करते रहते हैं—यह कैसी समस्या है? इन लोगों की प्रकृति क्या है? क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं? क्या वे विकसित करने योग्य हैं? क्या वे अभी भी अगुआ और कार्यकर्ता होने के योग्य हैं? सबसे पहले, वे कुछ करने से पहले खोजते नहीं हैं; दूसरे, वे ऐसा करते समय कोई रिपोर्ट नहीं बनाते; और तीसरे, वे ऐसा करने के बाद कोई फीडबैक नहीं देते। वे इतने शर्मनाक तरीके से काम करने के बावजूद बरखास्त नहीं होना चाहते और बरखास्त होने के बाद भी वे झुकते नहीं हैं—क्या ये लोग सुधार से परे नहीं हैं? मुझे बताओ, क्या सुधरने से परे ज्यादातर लोग निपट बेशर्म और अड़ियल नहीं हैं? वे कोई भी काम अच्छी तरह से नहीं करते, और वे आलसी और आरामतलब होते हैं; कोई भी काम करते समय वे बस आदेश देने के लिए अपनी जुबान हिलाते हैं, और एक बार बोल देने के बाद वे कुछ और नहीं करते। वे कभी भी काम की निगरानी, निरीक्षण या अनुवर्ती कार्रवाई नहीं करते, और वे ऐसे किसी भी व्यक्ति के प्रति द्वेष और आक्रोश महसूस करते हैं जो यह काम करता है, और उस व्यक्ति को पीड़ा देना चाहते हैं—क्या ये ठेठ मसीह-विरोधी नहीं हैं? यह मसीह-विरोधियों की शर्मनाक स्थिति है; वे नहीं जानते कि वे क्या हैं, वे बहुत ही शर्मनाक तरीके से काम करते हैं और फिर भी आशीष पाना चाहते हैं, वे फिर भी परमेश्वर के घर और ऊपरवाले से श्रेष्ठता के लिए होड़ करना चाहते हैं, और फिर भी बहस करना चाहते हैं—क्या ऐसा करके वे मौत को दावत नहीं दे रहे हैं? जब ऐसे गए-गुजरे लोगों को बरखास्त कर दिया जाता है तो वे बहुत रुष्ट और हठी हो जाते हैं। वास्तव में उनमें कोई शर्म और यहाँ तक कि रत्तीभर समझ-बूझ नहीं होती! अपना कर्तव्य निभाते समय वे अंधाधुंध बुरे काम करते हैं और कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा डालते हैं, और जब उन्हें बरखास्त कर दिया जाता है तो वे न केवल अपनी गलतियाँ मानने से इनकार कर देते हैं, बल्कि वे इसकी जिम्मेदारी दूसरों के कंधों पर भी डालते हैं और अपनी जगह किसी और को दोषी ठहराते हैं, यह कहते हुए कि, “यह काम उन्होंने किया और उस अन्य काम को करने के लिए अकेले मैं जिम्मेदार नहीं हूँ। सभी ने मिलकर उस मामले पर चर्चा की थी और मैं ही अगुआई नहीं कर रहा था।” वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेते, मानो जिम्मेदारी लेने से उनकी निंदा की जाएगी और उन्हें हटा दिया जाएगा और वे आशीष पाने की पूरी उम्मीद खो देंगे। इसलिए वे मर जाएँगे पर अपनी गलतियाँ और खुद को सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं मानेंगे, बल्कि दूसरों के कंधों पर जिम्मेदारी डालने पर जोर देते हैं। उनकी मानसिकता का आकलन करें तो वे अंत तक परमेश्वर से लड़ेंगे! क्या ये ऐसे लोग हैं जो सत्य को स्वीकार करते हैं? क्या ये ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करते हैं? इस तरह से परमेश्वर के घर से लड़ने में सक्षम होना दर्शाता है कि उनके स्वभाव में गंभीर रूप से कुछ गड़बड़ है। जब यह बात आती है कि वे अपनी गलतियों से कैसे निपटते हैं तो सबसे पहले वे सत्य नहीं खोजते, और दूसरे, वे आत्म-चिंतन नहीं करते; वे अपना दोष दूसरों पर भी डालते हैं और जब परमेश्वर का घर उन्हें एक निश्चित तरीके से परिभाषित कर उन्हें उनके कर्तव्य से हटा देता है तो वे परमेश्वर के घर से लड़ने लगते हैं, और वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सहानुभूति जीतने की कोशिश करते हुए जहाँ भी जाते हैं अपनी शिकायतें और नकारात्मकता फैलाते रहते हैं। वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी उसका विरोध करते हैं—क्या वे मृत्यु को आमंत्रित नहीं कर रहे हैं? ये लोग वास्तव में अड़ियल हैं! तो अगर उन्हें उनके कर्तव्य से बरखास्त कर दिया गया और उनका रुतबा चला गया, तो क्या हुआ? उन्हें निष्कासित नहीं किया गया है और उनके जीने के अधिकार को छीना नहीं गया है; वे पश्चात्ताप कर सकते हैं, नए सिरे से शुरुआत कर सकते हैं और जहाँ भी वे असफल हुए और गिरे, वहाँ फिर से उठकर खड़े हो सकते हैं। मसीह-विरोधी इतनी सरल-सी बात भी स्वीकार नहीं कर पाते—ये लोग वास्तव में बचाए जाने से परे हैं! बेशक, जब कुछ मसीह-विरोधी बरखास्त किए जाते हैं तो वे ऊपरी तौर पर अनिच्छा से आज्ञापालन करते हैं और बहुत मायूस नहीं होते या कोई विरोध नहीं दिखाते, लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि वे सत्य को स्वीकार कर परमेश्वर के प्रति समर्पण कर रहे हैं? नहीं, ऐसा नहीं होता। किसी मसीह-विरोधी में मसीह-विरोधी का ही स्वभाव और सार होता है और यही चीज उसे सामान्य व्यक्ति से अलग करती है। हालाँकि बरखास्त किए जाने के बाद वह बाहरी तौर पर कुछ नहीं कहता, लेकिन अपने दिल में वह विरोध करना जारी रखता है। वह अपनी गलतियाँ नहीं स्वीकारता और चाहे जितना समय बीत जाए, वह वास्तव में खुद को जानने में कभी सक्षम नहीं होगा। यह बहुत पहले ही सिद्ध हो चुका है। मसीह-विरोधी के बारे में कुछ और भी है जो कभी नहीं बदलता : वह चाहे कहीं भी काम कर रहा हो, वह अलग होना चाहता है, दूसरों से अपना आदर और सम्मान करवाना चाहता है; भले ही उसके पास कलीसिया-अगुआ या टीम-अगुआ का वैध पद और खिताब न हो, फिर भी वह अहमियत के मामले में दूसरों से कहीं बेहतर होना चाहता है। चाहे वह काम कर पाए या न कर पाए, उसमें कैसी भी मानवता या उसके पास कैसा भी जीवन-अनुभव हो, वह दिखावा करने, लोगों को अपने पक्ष में करने, लोगों का मन जीतने और लोगों को लुभाने और गुमराह करने और उनका सम्मान पाने के लिए हर तरह के साधन खोजता है और किसी भी हद तक जाने को तैयार रहता है। मसीह-विरोधी किस बारे में लोगों से अपनी सराहना कराना चाहता है? भले ही उसे बरखास्त कर दिया गया हो, वह सोचता है कि “कमजोर भालू भी एक हिरण से ताकतवर होता है” और वह चूजों के ऊपर उड़ने वाला बाज बने रहना चाहता है। क्या यह मसीह-विरोधी का अहंकार और आत्मतुष्टता नहीं है, और उसके बारे में क्या अलग होता है? वह बिना रुतबे के, एक आम विश्वासी और एक साधारण व्यक्ति बने रहकर, पाँव जमीन पर टिकाए रखकर अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाते हुए, अपनी जगह रहते हुए, या बस एक अच्छा काम करते, अपनी निष्ठा दिखाते हुए और जो काम उन पर पड़ा है, उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ करते हुए खुद को तैयार नहीं कर पाता। उसे इन चीजों से जरा-सी भी संतुष्टि नहीं मिलती। वह इस तरह का व्यक्ति बनने या इस तरह की चीजें करने के लिए तैयार नहीं होता। उसकी “भव्य आकांक्षा” क्या होती है? वह है आदर और सम्मान पाना और सत्ता हासिल करना। इसलिए, भले ही मसीह-विरोधी के नाम में कोई विशेष खिताब न जुड़ा हो, फिर भी वह अपने लिए प्रयास करता है, अपने लिए बोलता है और खुद का प्रदर्शन करने के लिए हरसंभव प्रयास करता है, उसे डर होता है कि कोई उसकी ओर नहीं देखेगा या कोई भी उस पर ध्यान नहीं देगा। वह ज्यादा प्रसिद्ध होने, अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने, अधिक से अधिक लोगों को अपनी खूबियाँ और क्षमताएँ दिखाने और स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ दिखाने का कोई मौका नहीं चूकता। जब वह ये चीजें कर रहा होता है, मसीह-विरोधी अपनी शान बघारने और आत्म-स्तुति करने के लिए, और सभी को यह एहसास कराने के लिए हर कीमत चुकाने को तैयार रहता है कि भले ही वह अगुआ नहीं है और उसके पास रुतबा नहीं है, फिर भी वह साधारण लोगों से श्रेष्ठ है। तब, मसीह-विरोधी अपना लक्ष्य हासिल कर चुका होगा। वह एक सामान्य व्यक्ति, एक साधारण व्यक्ति बनने के लिए तैयार नहीं होता; वह सत्ता और प्रतिष्ठा चाहता है और दूसरों से आगे रहना चाहता है। कुछ लोग कहते हैं, “यह अकल्पनीय है। रुतबा, प्रतिष्ठा और सत्ता होने का क्या फायदा है?” समझ-बूझ वाले व्यक्ति के लिए सत्ता और रुतबा बेकार होते हैं और ये ऐसी चीजें नहीं हैं जिनके पीछे उसे भागना चाहिए। लेकिन महत्वाकांक्षा की आग से सुलग रहे मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा, सत्ता और प्रतिष्ठा अहम होते हैं; उनके दृष्टिकोण को कोई नहीं बदल सकता, कोई भी उनके जीने के तरीके और अस्तित्व के लक्ष्यों को नहीं बदल सकता—यही मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार है। इसलिए यदि तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो बढ़-चढ़कर अपना कर्तव्य निभाता है और अपने पास रुतबा होने पर उसकी रक्षा करता है, और जब रुतबा नहीं होता तो तब भी अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए यथासंभव सब कुछ करना चाहता है—तो इस तरह के व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता और वह पूरी तरह से मसीह-विरोधी होता है।
मसीह-विरोधी को बरखास्त किए जाने से पहले और उसके बाद, जब वह कई प्रयासों के बावजूद मनचाहा रुतबा, सत्ता और प्रतिष्ठा प्राप्त करने में विफल रहता है तो भी वह आशीष की अपनी इच्छा और रुतबा नहीं छोड़ेगा। वह इन चीजों को दरकिनार कर सत्य का अनुसरण करने के लिए खुद का कायापलट नहीं करेगा या अपने कर्तव्य को सरल और अच्छे व्यवहार के साथ ठीक से नहीं निभाएगा। उसने जो कुछ भी गलत किया है, उसके लिए वह कभी भी वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करेगा, बल्कि बार-बार यह आकलन करेगा कि “क्या मुझे भविष्य में रुतबा पाने की कोई उम्मीद होगी? रुतबे के बिना क्या मुझे आशीष पाने की कोई उम्मीद है? क्या आशीष पाने की मेरी इच्छा पूरी होगी? मैं परमेश्वर के घर में, कलीसिया में किस पद पर हूँ? पदानुक्रम में मैं कहाँ पर हूँ?” जब वे यह निष्कर्ष निकालते हैं कि कलीसिया में उनकी कोई बड़ी प्रतिष्ठा नहीं है, कि अधिकतर लोग उन्हें अनुकूल दृष्टि से नहीं देखते और कई लोग तो उन्हें नकारात्मक शिक्षण के उदाहरण के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं, तो उन्हें लगता है कि कलीसिया के भीतर उनकी प्रतिष्ठा पूरी तरह मिट्टी में मिल चुकी है, कि उन्हें अधिकतर लोगों का समर्थन हासिल नहीं है, संभवतः अधिकतर लोग उन्हें फिर से स्वीकार नहीं कर सकते और यह भी कि आशीष पाने की उनकी आशा लगभग न के बराबर है। जब वे यह सब देखते हैं, जब वे अपने आकलन में इन निष्कर्षों पर पहुँचते हैं, तब भी उनका विचार और रवैया अपने इरादों और इच्छाओं को त्यागकर परमेश्वर के सामने वास्तव में पश्चात्ताप करने या परमेश्वर के लिए श्रम करने के लिए खुद को पूरी तरह से समर्पित करने और अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक करने का नहीं होगा। उनके दिमाग में यह नहीं है—तो क्या है? “चूँकि परमेश्वर के घर, कलीसिया में मैं अपनी आकांक्षाएँ पूरी करने वाला नहीं हूँ या कोई रुतबा नहीं पाने वाला हूँ, तो मैं इस गतिरोध वाले मार्ग पर क्यों चलता रहूँ? लोगों को स्थान परिवर्तन से लाभ हो सकता है। अगर मैं कहीं और चला जाऊँ तो वास्तव में मेरे लिए चीजें बेहतर हो सकती हैं। मुझे इस जगह से क्यों नहीं चले जाना चाहिए जिसने मेरा दिल तोड़ा? इस जगह को क्यों न छोड़ दूँ जहाँ मैं अपनी आकांक्षाएँ पूरी नहीं कर सकता, जहाँ मेरा अपनी आकांक्षाओं को पूरा करना मुश्किल है?” जब एक मसीह-विरोधी इन चीजों के बारे में सोचता है तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि वह कलीसिया छोड़ने वाला है? क्या तुम लोग चाहोगे कि कोई ऐसा व्यक्ति चला जाए या रहे? क्या उसे रहने के लिए मनाया जाना चाहिए? (उसे नहीं मनाया जाना चाहिए और अगर लोग उसे मनाने की कोशिश भी करें तो भी वह नहीं रुकेगा।) कोई भी उसे रहने के लिए मजबूर नहीं कर सकता—यह सच है। इसका कारण क्या है? सब कुछ के बाद भी मसीह-विरोधी सत्य से प्रेम नहीं करते, इसलिए परमेश्वर के घर में रहने से उन्हें केवल पीड़ा ही पहुँचेगी। यह किसी वेश्या, एक बदचलन औरत को अपने पति की सहायता कर अपने बच्चों को शिक्षित करने, एक सदाचारी महिला और नेक पत्नी और दयालु माँ बनने के लिए कहने जैसा होगा। क्या वह ये चीजें कर सकती है? (नहीं।) यह व्यक्ति की प्रकृति का सवाल है। इसलिए यदि तुम देखते हो कि कोई मसीह-विरोधी पीछे हटना चाहता है, तो तुम चाहे जो भी करो, उसे कुछ और समझाने की कोशिश न करो, जब तक कि किसी खास स्थिति में वह खुद यह न कहे, “भले ही मैं मसीह-विरोधी हूँ, मैं परमेश्वर के घर के लिए मजदूरी करना चाहता हूँ। मैं खुद को कोई बुराई न करने के लिए मजबूर करूँगा और शैतान के खिलाफ विद्रोह करूँगा।” इस तरह के मामले में क्या उसे मक्खी की तरह निकाल दिया जाना चाहिए? (नहीं।) ऐसे किसी मामले में हम चीजों को स्वाभाविक तरीके से चलने दे सकते हैं, लेकिन एक प्रक्रिया लागू की जानी चाहिए : अधिक लोगों को उस मसीह-विरोधी की निगरानी करनी चाहिए और परेशानी के पहले संकेत पर ही, जैसे बुराई करने की उसकी इच्छा पर, उसे तुरंत दूर कर देना चाहिए। यदि वह यह सह नहीं सकता कि दूसरे उसकी निगरानी करें और उस पर नजर रखें, उसे यह अपने साथ दुर्व्यवहार लगता है और वह मजदूरी करने का इच्छुक नहीं है तो ऐसे व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए? तुम्हें उसे उसकी राह दिखाने में मदद कर कहना चाहिए, “तुम प्रतिभाशाली हो और तुम्हें अविश्वासियों की दुनिया में जाकर अपनी महान योजनाओं को साकार करना चाहिए। कलीसिया तुम्हारे अनुकूल नहीं है, यह तुम्हारे लिए बहुत छोटी जगह है। तुम यहाँ अपने पंख नहीं फैला सकते; यह काम तुम्हारी प्रतिभा के लायक नहीं है। अगर तुम दुनिया में वापस लौटे, तो शायद तुम्हें पदोन्नति मिल जाएगी, तुम बहुत सारा पैसा कमाओगे और अमीर बन जाओगे। शायद तुम सेलिब्रिटी बन जाओगे!” उन्हें जल्दी से चले जाने के लिए प्रोत्साहित करो। अगर वे धन और रुतबे के पीछे भागते हैं और रुतबे के फायदों के लिए ललचाते हैं, तो उन्हें काम करने और पैसा कमाने के लिए दुनिया में लौटने दो, ताकि तब वे अधिकारी बनें और अपने दैहिक जीवन का आनंद लें। कुछ लोग शायद पूछें कि क्या उनके साथ इस तरह का व्यवहार करना उनके साथ प्रेमपूर्ण हृदय के बिना व्यवहार करना है। असल में, भले ही तुम उनसे ऐसी बातें न कहो, मसीह-विरोधी अपने दिल में सोचेंगे, “एक दिन पदोन्नत और फिर अगले दिन बरखास्त। मुझे रुतबा दिया गया है और फिर भी मुझ पर नजर रखी जाती है, निगरानी की जाती है और मेरी काट-छाँट की जाती है—यह कितना दर्दनाक है! इस तरह का रुतबा पाना मेरे लिए कठिन नहीं है, और अगर मैं परमेश्वर में विश्वास न करता तो मैं अमीर होता और अब तक दुनिया में सामाजिक पायदान पर ऊपर चढ़ चुका होता, कम से कम मैं शहर स्तर का काडर तो होता ही। मैं एक अधिकारी बनने के लिए पैदा हुआ हूँ। मैं दुनिया में जो भी करता हूँ वह उत्कृष्ट होता है, मैं सब कुछ अच्छा करता हूँ, मैं किसी भी उद्योग में नाम कमा सकता हूँ और मैं उद्यमशील हूँ।” भले ही तुम उनसे ऐसी बातें न कहो, वे ऐसी बातें कहेंगे और इसीलिए तुम्हें जल्दी से कुछ ऐसे सुखद लगने वाले शब्द बोल देने चाहिए जो वे सुनना चाहते हैं और उन्हें जल्दी से कलीसिया छोड़ने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए—इससे सबको लाभ होगा। मसीह-विरोधी रुतबे, सत्ता और प्रतिष्ठा के पीछे भागते हैं; वे साधारण लोग नहीं होना चाहते हैं, बल्कि हमेशा दूसरों से आगे रहना चाहते हैं, जब तक कि वे आखिर में अपनी प्रतिष्ठा और पदवी को मटियामेट कर परमेश्वर द्वारा शापित नहीं हो जाते। तो क्या तुम साधारण लोग बनने के लिए तैयार हो? (हाँ।) साधारण लोग होना वास्तव में सार्थक है। प्रसिद्धि और लाभ का पीछा न करना, बल्कि वास्तविक जीवन में खुश करना, शांति और आनंद के साथ रहना, हर परिस्थिति में अडिग रहना—यही जीवन में सही मार्ग है। अगर कोई हमेशा दूसरों से श्रेष्ठ और आगे रहना चाहता है तो यह उसके लिए खुद को आग पर भूनने और खुद को माँस की चक्की में डालने के बराबर है—वह मुसीबत को आमंत्रित कर रहा है। उनके मन में ऐसी भावनाएँ क्यों आती हैं? क्या दूसरों से बेहतर होना अच्छी बात है? (नहीं, यह अच्छी बात नहीं है।) यह अच्छी बात नहीं है। फिर भी मसीह-विरोधी इस मार्ग को चुनने पर अड़े रहते हैं। तुम लोग चाहे जो भी करो, इस मार्ग पर मत चलो!
जब एक साधारण भ्रष्ट व्यक्ति के पास परमेश्वर में अपने विश्वास का आधार नहीं होता, जब उसने परमेश्वर में सच्ची आस्था विकसित नहीं की होती है, तो उसके पास बहुत कम आस्था या आध्यात्मिक कद होता है। जब ऐसा व्यक्ति किसी पराजय का सामना करता है, तो वह खुद के बारे में खराब राय रखता है, और सोचता है कि परमेश्वर उससे प्रेम नहीं करता, उससे घृणा करता है। खुद को आगे बढ़ने में नाकाम होते और हर मोड़ पर असफल होते और परमेश्वर को संतुष्ट करने में असमर्थ होते देखकर वह हतोत्साहित महसूस करता है; वह कुछ कमजोरी और निराशा का भी अनुभव करेगा, और कभी-कभी उसके मन में कलीसिया छोड़ने के विचार भी आएँगे। लेकिन यह अवज्ञाकारी होने जैसा नहीं है। यह उस तरह का विचार है जो किसी व्यक्ति के मन में तब आता है जब वह मायूस और हताश होता है, और यह एक मसीह-विरोधी के पीछे हटने से पूरी तरह से अलग बात है। जब कोई मसीह-विरोधी पीछे हटना चाहता है, तो वह पश्चात्ताप करने के बजाय मरना पसंद करता है, लेकिन जब कोई साधारण भ्रष्ट व्यक्ति हतोत्साहित होकर कलीसिया छोड़ने के बारे में सोचता है तो वह दूसरों की मदद और संगति के साथ ही साथ अपने सक्रिय सहयोग, प्रार्थना, खोज के साथ और परमेश्वर के वचन पढ़कर उसे परमेश्वर के वचन धीरे-धीरे प्रभावित कर सकते हैं, बदल सकते हैं और उसके निर्णय और मन के साथ यह स्थिति भी बदल सकते हैं कि वह रहेगा या जाएगा। साथ ही परमेश्वर के वचन उसे धीरे-धीरे पश्चात्ताप करने, एक सकारात्मक दृष्टिकोण और दृढ़ रहने की इच्छा विकसित करने में भी मदद कर सकते हैं, जिससे वह धीरे-धीरे मजबूत बन जाता है। यह एक सामान्य व्यक्ति के लिए जीवन प्रवेश की प्रक्रिया की अभिव्यक्ति है। दूसरी ओर, एक मसीह-विरोधी अंत तक लड़ेगा। वह कभी पश्चात्ताप नहीं करेगा और मर जाना पसंद करेगा पर अपनी गलती नहीं मानेगा, खुद को नहीं जानेगा, आशीष पाने की अपनी इच्छा नहीं छोड़ेगा। उसके पास रत्तीभर भी जीवन प्रवेश नहीं होता। तो जो भी व्यक्ति मेहनत करने को तैयार नहीं है या जो अच्छे से काम नहीं करता है, उसे बस कलीसिया छोड़ने की सलाह दे दो। यह एक बुद्धिमानी भरा निर्णय है और ऐसे मामले को सँभालने का सबसे बुद्धिमानी भरा तरीका है। अगर तुम उसे ऐसा करने की सलाह न भी दो तो क्या उसे रुकने के लिए राजी कर पाओगे? क्या तुम उसके अनुसरण के तरीके या उसके दृष्टिकोण को बदल पाओगे? तुम इन चीजों को कभी नहीं बदल पाओगे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें परमेश्वर का घर रुकने के लिए कहता है और उनकी मदद करता है और सहारा देता है, क्योंकि उनकी नकारात्मकता, कमजोरी और उनके द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव सभी साधारण भ्रष्ट लोगों में आम होते हैं और सामान्यता के दायरे में आते हैं। परमेश्वर के वचनों पर संगति करके, दूसरों की मदद और सहारा लेकर वे धीरे-धीरे मजबूत बन सकते हैं, आध्यात्मिक कद प्राप्त कर सकते हैं, परमेश्वर में आस्था विकसित कर सकते हैं और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति ईमानदार हो सकते हैं। हमें ऐसे ही व्यक्ति की सहायता कर उससे रुकने का आग्रह करना चाहिए। लेकिन जो मसीह-विरोधी मेहनत नहीं करना चाहते या अच्छी तरह से मेहनत नहीं करते, उन्हें चले जाने के लिए प्रोत्साहित करो क्योंकि तुम्हारी सलाह देने से बहुत पहले ही वे छोड़ने का मन बना चुके हैं या किसी भी समय छोड़कर चले जाने के कगार पर हैं। ये विभिन्न अभिव्यक्तियाँ और विचार मसीह-विरोधियों को तब आते हैं जब उन्हें बरखास्तगी का सामना करना पड़ता है और वे पीछे हटना चाहते हैं।
IV. पदोन्नत न किए जाने पर मसीह-विरोधियों का व्यवहार
एक और प्रकार के लोग भी होते हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते। चूँकि इस प्रकार के लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, इसलिए वे महत्वपूर्ण कर्तव्य नहीं निभाते और परिणामस्वरूप वे शायद ही कभी परमेश्वर के घर में काट-छाँट का अनुभव करते हैं, उन्होंने कभी भी अपने कर्तव्यों से बरखास्त किए जाने का अनुभव नहीं किया है और जाहिर है कि उन्हें मुश्किल से ही कभी किसी दूसरे कर्तव्य के लिए पुनः नियुक्त किया जाता है। लेकिन जब कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी उन्हें पदोन्नति नहीं मिलती, तो वे अक्सर यह आकलन करना शुरू कर देते हैं कि उन्हें आशीष मिलने की उम्मीद कितनी है। खासकर जब वे परमेश्वर के इन वचनों को देखते हैं, “जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते,” तो उन्हें लगता है कि उनके आशीष मिलने की उम्मीद बहुत कम है, और वे पीछे हटने के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं। इनमें से कुछ लोग जो कभी भी सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनके पास कुछ ज्ञान और खूबियाँ होती हैं, और चूँकि उन्हें पदोन्नत नहीं किया गया है, वे असंतुष्ट महसूस कर शिकायत करना शुरू कर देते हैं; वे पीछे हटना चाहते हैं लेकिन उन्हें डर होता है कि वे आशीष पाने का मौका खो देंगे, लेकिन अगर वे पीछे नहीं हटते हैं, तो भी उन्हें पदोन्नति नहीं मिलेगी—वे खुद को दो पाटों के बीच फँसा हुआ महसूस करते हैं। इस मामले में तुम लोग क्या सोचते हो? हालाँकि ये लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, लेकिन उनमें से कुछ अपेक्षाकृत अध्ययनशील और प्रेरित होते हैं; चाहे वे कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे हमेशा प्रासंगिक पेशेवर ज्ञान हासिल करने के लिए तैयार रहते हैं, वे हमेशा परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत होना चाहते हैं, और वे उस दिन का इंतजार करते हैं जब वे खुद को अलग पहचान दे सकें और इस तरह अपना मनचाहा रुतबा और विभिन्न लाभ प्राप्त कर सकें। इस तरह के लोग जब दूसरों के इर्द-गिर्द होते हैं तो ऊपरी तौर पर शांत, मामूली और मेहनती और कर्तव्यनिष्ठ दिखाई देते हैं, फिर भी उनके दिल महत्वाकांक्षा और इच्छा से भरे होते हैं। उनका आदर्श वाक्य क्या होता है? अवसर उनके पास आता है जो उसके लिए तैयार होते हैं। ऊपर से वे पूरी तरह से मामूली बने रहते हैं और खुद का दिखावा नहीं करते, वे चीजों को लेकर प्रतिस्पर्धा या छीनाझपटी नहीं करते, फिर भी उनके दिल में एक “महान आकांक्षा” होती है। इसलिए जब वे किसी को पदोन्नत होते और कलीसिया में अगुआ या कार्यकर्ता बनते देखते हैं, तो वे थोड़ा अधिक विचलित और निराश महसूस करते हैं। भले ही वह कोई भी हो जिसे पदोन्नत किया जाता है, विकसित किया जाता है, या कोई महत्वपूर्ण भूमिका दी जाती है, उनके लिए यह हमेशा एक झटके की तरह होता है। यहाँ तक कि जब किसी को उच्च सम्मान दिया जाता है, उसकी प्रशंसा की जाती है और भाई-बहन उसका समर्थन करते हैं, तब भी वे अपने दिल में ईर्ष्या और दुख महसूस करते हैं और उनमें से कुछ तो अकेले में आँसू भी बहाते हैं, अक्सर खुद से पूछते हैं, “मुझे कब उच्च सम्मान मिलेगा और मैं नामांकित किया जाऊँगा? मुझे ऊपरवाला कब जानेगा? कोई अगुआ कब मेरी खूबियों, मेरी योग्यताओं, मेरे गुणों और प्रतिभाओं को देखेगा? मुझे कब पदोन्नत और विकसित किया जाएगा?” वे व्यथित और नकारात्मक महसूस करते हैं, लेकिन वे इसी तरह नहीं चलते रहना चाहते, इसलिए वे नकारात्मक न होने, दृढ़ बने रहने की इच्छाशक्ति रखने, असफलताओं से न घबराने और कभी हार न मानने के लिए खुद को चुपचाप प्रोत्साहित करते रहते हैं। वे अक्सर खुद को चेतावनी देते हैं : “मैं महान आकांक्षा वाला व्यक्ति हूँ। मुझे साधारण, नियमित व्यक्ति बनने के लिए तैयार नहीं होना चाहिए, मुझे एक व्यस्त, औसत दर्जे के जीवन से संतुष्ट होने को तैयार नहीं होना चाहिए। परमेश्वर में मेरी आस्था उत्कृष्ट होनी चाहिए और इससे महान उपलब्धियाँ हासिल होनी चाहिए। अगर मैं इसी तरह का शांत और औसत जीवन जीता रहूँ, तो यह तो बहुत कायरतापूर्ण और दमघोंटू है! मैं उस तरह का व्यक्ति नहीं हो सकता। मैं दोगुनी मेहनत करूँगा, हर पल का सदुपयोग करूँगा, परमेश्वर के वचन और अधिक पढ़ूँगा और सुनाऊँगा, ज्ञान प्राप्त करूँगा और इस पेशे का और अधिक अध्ययन करूँगा। मुझे वह सब हासिल करना चाहिए जो दूसरे लोग कर सकते हैं, और मुझे उन चीजों पर संगति करने में सक्षम होना चाहिए जिन पर दूसरे लोग संगति कर सकते हैं।” कुछ समय तक कड़ी मेहनत करने के बाद कलीसिया का चुनाव आता है लेकिन उन्हें फिर भी नहीं चुना जाता। हर बार जब भी कलीसिया किसी को विकसित करने, पदोन्नत करने और महत्वपूर्ण भूमिका देने के लिए खोज रही होती है तो उन्हें नहीं चुना जाता; हर बार जब उन्हें लगता है कि उन्हें पदोन्नति मिलने की उम्मीद है तो वे अंततः निराश हो जाते हैं और हर निराशा उन्हें उदास और नकारात्मक महसूस कराती है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर में उनकी आस्था में आशीष मिलना उनसे बहुत दूर है, इसलिए उनके मन में पीछे हटने का विचार आता है। लेकिन वे पीछे हटने के लिए तैयार नहीं होते, बल्कि एक बार फिर से कड़ी मेहनत और संघर्ष करना चाहते हैं। जितना अधिक वे इस तरह से कड़ी मेहनत और संघर्ष करते हैं, उतनी ही अधिक उन्हें यह लालसा होती है कि कोई पदोन्नत करने के लिए उनकी सिफारिश करे। उनकी यह लालसा बढ़ती जाती है और अंत में उन्हें इसके बदले अब भी निराशा ही हाथ लगती है, और इसी तरह उनका घमंड और आशीष पाने की इच्छा उन्हें सताती है। हर निराशा उन्हें आग में जलने और तपने जैसा महसूस कराती है। जो वे चाहते हैं वह उन्हें नहीं मिल पाता; वे पीछे हटना चाहते हैं लेकिन उन्हें लगता है कि वे पीछे हट नहीं सकते; वे जो समझना चाहते हैं, उसे समझ नहीं पाते और उनके पास केवल निराशा, हताशा और अंतहीन प्रतीक्षा ही बचती है। वे पीछे हटना चाहते हैं लेकिन उन्हें महान आशीष खोने का डर होता है और जितना अधिक वे आशीष पाने की बेताबी से कोशिश करते हैं, उतना ही कम उनके हाथ लग पाता है। नतीजतन वे ऐसी दशा में आ जाते हैं जहाँ वे आशीष पाने की अपनी आशा और निराशा की पीड़ा के बीच लगातार संघर्ष करते रहते हैं और इससे उनके दिल को बड़ी पीड़ा होती है। लेकिन क्या वे इस मामले के बारे में परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे? नहीं, वे नहीं करेंगे। वे सोचते हैं : “प्रार्थना करने से क्या फायदा होगा? भाई-बहन मेरी प्रशंसा नहीं करते और अगुआ मेरे बारे में उच्च विचार नहीं रखते, तो क्या परमेश्वर अपवाद मानकर मुझे कोई महत्वपूर्ण भूमिका दे सकता है?” वे जानते हैं कि अपनी आशाएँ दूसरों पर टिकाने से उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी और यह भी कि आशीष पाने की अपनी आशाएँ परमेश्वर पर टिकाना सुरक्षित नहीं है। क्योंकि उन्होंने परमेश्वर के ये वचन देखे हैं कि “जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते,” इसलिए वे हताश और निराश महसूस करने लगते हैं। कलीसिया में कोई भी उन पर ध्यान नहीं देता और उन्हें कोई आशा नजर नहीं आती। जब वे अपने चेहरों पर नजर डालते हैं, तो भी उन्हें आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं दिखती और वे सोचने लगते हैं, “क्या मुझे पीछे हट जाना चाहिए या यहीं रहना चाहिए? क्या मुझे वास्तव में आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं है?” इस तरह झिझकते हुए और इन बातों पर बार-बार विचार करते हुए कई साल बीत जाते हैं और फिर भी उन्हें पदोन्नति नहीं मिल पाती या उन्हें कोई महत्वपूर्ण पद नहीं मिल पाता। वे रुतबा पाने के लिए होड़ करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें लगता है कि ऐसा करना बहुत तर्कसंगत या उचित बात नहीं है, उन्हें ऐसा करने में शर्मिंदगी महसूस होती है, लेकिन अगर वे रुतबा पाने के लिए होड़ नहीं करेंगे, तो उन्हें कब पदोन्नति और कोई महत्वपूर्ण भूमिका मिलेगी? वे उन लोगों के बारे में सोचते हैं जो उनके साथ-साथ परमेश्वर में विश्वास करते हैं, जो सभाओं में जाते हैं और उनके साथ मिलकर कर्तव्य निभाते हैं। उनमें से बहुतों को पदोन्नत किया जा चुका है और महत्वपूर्ण भूमिकाएँ दी गई हैं, जबकि वे खुद चाहे कितनी भी कोशिश कर लें, उन्हें कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं मिल पाती और वे भ्रमित महसूस करते हैं और आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं खोज पाते। वे कभी भी अपने विचारों, अपनी दशाओं, अपनी सोच और दृष्टिकोणों, अपने विचलनों और कमियों के बारे में किसी से संगति नहीं करते या किसी से खुलकर बात नहीं करते—वे खुद को पूरी तरह अलग-थलग कर देते हैं। वे काफी समझदारी से बोलते हुए दिखाई देते हैं और कुछ हद तक तार्किक ढंग से कार्य करते हुए दिखाई देते हैं, फिर भी उनकी आंतरिक महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ बहुत तीव्र होती हैं। वे अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत और संघर्ष करते हैं, कष्ट सहते हैं और कीमत चुकाते हैं, और वे आशीष पाने की अपनी आशाओं के लिए सब कुछ खपा सकते हैं। लेकिन जब वे मनचाहा नतीजा नहीं देख पाते हैं, तो वे परमेश्वर, परमेश्वर के घर और यहाँ तक कि कलीसिया में हर व्यक्ति के प्रति शत्रुता और क्रोध से भर जाते हैं। वे सभी से इसलिए घृणा करते हैं क्योंकि वे नहीं देखते कि वे कितनी कड़ी मेहनत करते हैं, वे उनकी क्षमताएँ और उनके अच्छे गुणों को नहीं देखते, और वे परमेश्वर से भी घृणा करते हैं, क्योंकि उसने उन्हें अवसर नहीं दिए, उन्हें पदोन्नत नहीं किया या उन्हें कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं दी। अपने दिलों में इतनी जबरदस्त ईर्ष्या और नफरत पैदा होने के कारण क्या वे अपने भाई-बहनों से प्रेम कर सकते हैं? क्या वे परमेश्वर की स्तुति कर सकते हैं? क्या वे सत्य को स्वीकार करने, जमीन पर मजबूती से पैर जमाकर अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने और एक साधारण व्यक्ति बनने के लिए अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ त्याग सकते हैं? क्या वे इस तरह का संकल्प ले सकते हैं? (नहीं।) न केवल उनके पास यह संकल्प नहीं होता, बल्कि उनमें पश्चात्ताप करने की इच्छा भी नहीं होती। इतने सालों तक खुद को इसी तरह छिपाए रखकर परमेश्वर के घर, भाई-बहनों और यहाँ तक कि परमेश्वर के प्रति उनकी नफरत और भी बढ़ जाती है। उनकी नफरत कितनी बढ़ जाती है? वे उम्मीद करने लगते हैं कि उनके भाई-बहन अपने कर्तव्यों को ठीक से नहीं निभा पाएँगे, उन्हें उम्मीद होती है कि परमेश्वर के घर का काम थम जाएगा और परमेश्वर की प्रबंधन योजना बेकार हो जाएगी और वे यह भी उम्मीद करते हैं कि उनके भाई-बहन बड़े लाल अजगर की गिरफ्त में आ जाएँगे। वे अपने भाई-बहनों से नफरत करते हैं और वे परमेश्वर से भी नफरत करते हैं। उन्हें यह शिकायत होती है कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है, उद्धारकर्ता की कमी के लिए वे दुनिया को कोसते हैं और उनका राक्षसी चेहरा पूरी तरह से उजागर हो जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति आमतौर पर गहरे छिपे हुए होते हैं और वे ऊपर से दिखावा करने में बहुत अच्छे होते हैं, वे विनम्र, सौम्य और प्रेमपूर्ण होने का दिखावा करते हैं, जबकि वास्तव में वे भेड़ की खाल में भेड़िये होते हैं। वे कभी भी अपने गुप्त दुर्भावनापूर्ण इरादे प्रकट नहीं करते, कोई भी उनकी असलियत नहीं जान पाता और कोई भी नहीं जानता कि वे वास्तव में कैसे हैं या वे क्या सोच रहे हैं। जो लोग कुछ समय के लिए उनके साथ जुड़ते हैं, वे देख लेते हैं कि वे बहुत ईर्ष्यालु लोग हैं, कि वे हमेशा दूसरों से प्रतिस्पर्धा कर खुद को सुर्खियों में लाने की कोशिश करते हैं, कि वे दूसरों से आगे निकलने को बहुत बेचैन रहते हैं और वे वास्तव में अपने हर काम में अव्वल आना चाहते हैं। बाहर से वे ऐसे ही दिखते हैं, लेकिन क्या वे वास्तव में ऐसे ही होते हैं? वास्तव में, आशीष पाने की उनकी इच्छा और भी प्रबल होती है; उन्हें उम्मीद होती है कि जब वे चुपचाप कड़ी मेहनत कर रहे होते हैं, खुद को खपा रहे होते हैं और कीमत चुका रहे होते हैं तो दूसरे लोग उनकी अच्छाइयों और उनकी कार्य क्षमताओं को देख पाएँ और इस प्रकार उन्हें परमेश्वर के घर में महत्वपूर्ण भूमिका दी जा सकती है। और खुद को महत्वपूर्ण भूमिका दिए जाने से वे क्या नतीजा हासिल करना चाहते हैं? यही कि वे सबसे अत्यधिक सम्मान पा सकते हैं और अंततः अपनी महान आकांक्षा साकार कर सकते हैं; वे दूसरों के बीच उत्कृष्ट व्यक्ति हो सकते हैं, ऐसे व्यक्ति जिन्हें हर कोई बहुत सम्मान देता है और आदर करता है, और उनका वर्षों कड़ी मेहनत करना, कीमत चुकाना और प्रयास करना लाभदायक रहेगा—ये वे महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ हैं जो ये लोग अपने अंतरतम में रखते हैं।
इस प्रकार के लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, फिर भी वे परमेश्वर के घर में हमेशा पदोन्नति और महत्वपूर्ण भूमिका पाना चाहते हैं। अपने दिलों में वे मानते हैं कि किसी व्यक्ति में जितनी अधिक कार्य क्षमता होती है, उसे उतने ही अधिक महत्वपूर्ण पद प्राप्त होते हैं, जितना अधिक उन्हें परमेश्वर के घर में पदोन्नति और सम्मान मिलता है, आशीष, मुकुट और पुरस्कार प्राप्त करने की उनकी संभावना उतनी ही अधिक हो जाती है। वे मानते हैं कि यदि कोई व्यक्ति अपने काम में विशेष रूप से सक्षम नहीं है या उसके पास कोई खास विशेषता नहीं है, तो वह आशीष पाने के योग्य नहीं है। वे सोचते हैं कि किसी व्यक्ति की खूबियाँ, खास विशेषताएँ, योग्यताएँ, कौशल, शिक्षा का स्तर, कार्य क्षमता, और यहाँ तक कि उसकी मानवता के भीतर तथाकथित ताकत और गुण जो दुनिया में मूल्यवान होते हैं जैसे कि दूसरों से आगे निकलने का उसका संकल्प और अदम्य रवैया, आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने के लिए पूँजी के रूप में काम कर सकते हैं। यह किस प्रकार का मानक है? क्या यह ऐसा मानक है जो सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) यह सत्य के मानकों के अनुरूप नहीं है। तो, क्या यह शैतान का तर्क नहीं है? क्या यह दुष्ट युग और दुष्ट सांसारिक प्रवृत्तियों का तर्क नहीं है? (है।) इस तरह के लोगों द्वारा चीजों का मूल्यांकन करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तर्क, तरीकों और मानदंडों के साथ-साथ इन चीजों के प्रति उनके रवैये और दृष्टिकोण को देखें तो ऐसा लगेगा जैसे उन्होंने परमेश्वर के वचनों को कभी सुना या पढ़ा ही नहीं, कि वे उनके बारे में पूरी तरह से अनभिज्ञ थे। लेकिन, वास्तव में वे हर दिन परमेश्वर के वचनों को सुन रहे हैं, पढ़ रहे हैं और इनका प्रार्थना-पाठ कर रहे हैं। तो उनका दृष्टिकोण कभी क्यों नहीं बदलता? एक बात तो तय है—चाहे वे परमेश्वर के वचनों को कितना भी सुन या पढ़ लें, वे अपने दिलों में कभी भी इस बारे में निश्चित नहीं होंगे कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और हर चीज को मापने का मानदंड हैं; वे दिल से इस तथ्य को नहीं समझेंगे या स्वीकार नहीं करेंगे। इसीलिए उनका दृष्टिकोण चाहे कितना भी बेतुका और पूर्वाग्रही क्यों न हो, वे हमेशा उससे चिपके रहेंगे और परमेश्वर के वचन चाहे कितने भी सही क्यों न हों, वे इन्हें अस्वीकार कर इनकी निंदा करते रहेंगे। यह मसीह-विरोधियों की शातिर प्रकृति होती है। जैसे ही वे कोई महत्वपूर्ण भूमिका पाने में विफल होते हैं और उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पूरी नहीं हो पाती, उनका शैतानी चरित्र प्रकट हो जाता है, उनकी शातिर प्रकृति दिखने लगती है और वे परमेश्वर के अस्तित्व को नकारना चाहते हैं। वास्तव में, परमेश्वर के अस्तित्व को नकारने से पहले ही वे इस बात को नकार देते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य होते हैं। यह ठीक इसलिए है क्योंकि उनका प्रकृति सार सत्य को नकारता है, और इस बात को नकारता है कि परमेश्वर के वचन ही वे मानदंड हैं जिनके जरिए सब कुछ मापा जाता है, कि वे परमेश्वर को इस तरह से शत्रुता से देखने में सक्षम होते हैं, परमेश्वर को नकारने, धोखा देने और अस्वीकार करने, और परमेश्वर के घर को छोड़ने के बारे में सोचते हैं, जब उन्हें उनकी सारी गणना, साजिश और कड़ी मेहनत के बाद भी किसी महत्वपूर्ण पद पर नहीं रखा जाता। भले ही वे सत्ता और लाभ के लिए अन्य लोगों के साथ लड़ते हुए या अपने तरीके से चलते हुए या खुले तौर पर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करते हुए या अपने रुतबे का प्रबंधन करते हुए नहीं दिखते, फिर भी हम उनके प्रकृति सार से देख सकते हैं कि वे पूरी तरह से मसीह-विरोधी हैं। उन्हें लगता है कि उनका हर अनुसरण सही है और परमेश्वर के वचन चाहे कुछ भी कहें, उनके लिए ये वचन उल्लेख करने लायक या सुनने लायक नहीं हैं, और ये निश्चित रूप से उपयोग करने लायक तो नहीं ही हैं। इस तरह के लोग किस तरह का कचरा हैं? परमेश्वर के वचनों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता; वे उन्हें प्रेरित नहीं करते, न ही वे उनके दिलों को छूते हैं या उन्हें आकर्षित करते हैं। तो वे किस चीज को अहमियत देते हैं? लोगों के गुण, प्रतिभाएँ, योग्यताएँ, ज्ञान और रणनीतियाँ, साथ ही उनकी महत्वाकांक्षाएँ और उनकी भव्य योजनाएँ और उपक्रम। ये वे चीजें हैं जिन्हें वे महत्व देते हैं। ये सारी चीजें क्या हैं? क्या ये वे चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर महत्व देता है? नहीं। ये वे चीजें हैं जिनका भ्रष्ट मनुष्य आदर और सम्मान करते हैं, और ये वे चीजें भी हैं जिनको शैतान सम्मान देता है और जिनकी आराधना करता है। वे परमेश्वर के मार्ग, उसके वचनों और उन लोगों से उसकी अपेक्षाओं के ठीक विपरीत चलते हैं जिन्हें वह बचाता है। लेकिन इस तरह के लोगों ने कभी नहीं सोचा कि ये चीजें शैतान की होती हैं, कि ये दुष्ट होती हैं और सत्य के विरुद्ध हैं। बल्कि वे इन सभी चीजों को सँजोकर रखते हैं, वे इनसे कसकर और दृढ़ता से चिपके रहते हैं, इन्हें बाकी सभी चीजों से ऊपर मानते हैं और सत्य का अनुसरण करने और उसे स्वीकार करने के स्थान पर इनका उपयोग करते हैं। क्या यह घोर विद्रोहीपन नहीं है? और अंत में उनके घोर विद्रोहीपन, उनके इतने अविवेकी होने का एकमात्र परिणाम क्या होगा? यही कि ये लोग उद्धार से परे हो जाएँगे और कोई भी उन्हें बदलने में सक्षम नहीं होगा। उनकी किस्मत में इस तरह का परिणाम बदा होता है। मुझे बताओ, क्या ये लोग वे नहीं हैं जो बस गुप्त रूप से अपनी ताकत बढ़ा रहे हैं और सही अवसर का इंतजार कर रहे हैं? वे जिस सिद्धांत का पालन करते हैं वह यह है कि सोना देर-सबेर जरूर चमकेगा, कि उन्हें गुप्त रूप से अपनी ताकत बढ़ाने, अपने समय का इंतजार करना और सही अवसर की प्रतीक्षा करना सीखना चाहिए और इस बीच तैयारियाँ करनी चाहिए और अपने भविष्य और अपनी इच्छाओं और सपनों के लिए योजना बनानी चाहिए। अगर हम इस आधार पर उनका आकलन करें कि वे किन सिद्धांतों का पालन करते हैं, उनके जीवित रहने के सिद्धांत क्या हैं, उनके अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्य क्या हैं और वे अपने आंतरिक सार में किन चीजों के लिए लालायित रहते हैं तो तो ये लोग पूरी तरह से मसीह-विरोधी होते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “लेकिन क्या मसीह-विरोधी अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित नहीं करते और रुतबे के लिए संघर्ष नहीं करते?” अच्छा, क्या इस तरह के लोग सत्ता प्राप्त करने के बाद स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में सक्षम होते हैं? क्या वे लोगों को सताने में सक्षम हैं? (हाँ।) एक बार जब वे सत्ता पा जाते हैं तो क्या वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम होंगे? क्या वे सत्य का अनुसरण करने में सक्षम होंगे? क्या वे लोगों को परमेश्वर के सामने लाने में सक्षम होंगे? (नहीं।) यदि इस तरह के लोगों को कोई महत्वपूर्ण पद दे दिया गया तो क्या होगा? वे ऐसे लोगों को बढ़ावा देंगे जो गुणवान, मुखर और जानकार हैं, भले ही वे लोग काम कर सकें या नहीं; वे ऐसे लोगों को बढ़ावा देंगे जो उनके जैसे हैं, जबकि उन सभी सही लोगों को दबाएँगे जिनके पास आध्यात्मिक समझ है, जो सत्य का अनुसरण करते हैं और ईमानदार हैं। जब ऐसी स्थिति आती है तो क्या इस तरह के लोगों का मसीह-विरोधी सार उजागर नहीं हो जाता है? क्या यह बहुत स्पष्ट नहीं हो जाता? जब मैंने पहले यह कहा था कि जो लोग महत्वपूर्ण भूमिका न मिलने और आशीष मिलने की कोई उम्मीद न होने पर पीछे हटना चाहते हैं वे सभी मसीह-विरोधी होते हैं तो कुछ लोग वास्तव में यह बात नहीं समझ पाए थे। लेकिन क्या तुम अब यह समझ सकते हो कि वे मसीह-विरोधी हैं? (हाँ।)
जब कुछ लोगों को अगुआ के रूप में उनके पद से बरखास्त कर दिया जाता है और वे ऊपरवाले को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें फिर से विकसित या इस्तेमाल नहीं किया जाएगा तो वे अत्यंत दुखी हो जाते हैं और फूट-फूट कर रोते हैं, मानो उन्हें हटाया जा रहा हो—यह कैसी समस्या है? क्या उन्हें फिर से विकसित या उपयोग न किए जाने का यह मतलब है कि उन्हें हटाया जा रहा है? क्या इसका यह मतलब है कि वे तब उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते? क्या प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा उनके लिए वास्तव में इतने महत्वपूर्ण हैं? यदि वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हैं तो उन्हें अपनी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा खोने पर आत्म-चिंतन करना चाहिए और सच्चा पश्चात्ताप महसूस करना चाहिए; उन्हें सत्य का अनुसरण करने का मार्ग चुनना चाहिए, नया पृष्ठ खोलना चाहिए और इतना परेशान नहीं होना चाहिए या रोना-धोना नहीं चाहिए। यदि वे अपने दिलों में यह जानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के घर ने इसलिए बरखास्त किया है कि वे वास्तविक कार्य नहीं करते और सत्य का अनुसरण नहीं करते, और वे परमेश्वर के घर को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें फिर से पदोन्नत नहीं किया जाएगा, तो फिर उन्हें शर्मिंदा महसूस करना चाहिए, कि वे परमेश्वर के ऋणी हैं और उन्होंने परमेश्वर को निराश किया है; उन्हें पता होना चाहिए कि वे परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने योग्य नहीं हैं और इस तरह से उन्हें थोड़ा विवेकशील माना जा सकता है। लेकिन जब वे यह सुनते हैं कि परमेश्वर का घर उन्हें फिर से विकसित या इस्तेमाल नहीं करेगा तो वे निराश और परेशान हो जाते हैं, और यह दर्शाता है कि वे प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भाग रहे हैं और वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हैं। आशीष के लिए उनकी इच्छा इतनी प्रबल है और वे रुतबे को इतना अधिक सँजोते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें बरखास्त कर दिया जाना चाहिए और उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों पर आत्म-चिंतन कर इन्हें समझना चाहिए। उन्हें पता होना चाहिए कि वे जिस मार्ग पर चल रहे हैं वह गलत है, कि वे रुतबा, प्रसिद्धि और लाभ के पीछे भागकर किसी मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहे हैं, कि न केवल परमेश्वर उन्हें इसकी अनुमति नहीं देगा, बल्कि वे उसके स्वभाव को भी नाराज करेंगे, और यदि वे तमाम तरह की बुराई करते हैं तो उन्हें परमेश्वर दंडित भी करेगा। क्या तुम लोगों के साथ भी यह समस्या नहीं है? यदि मैं अब यह कहूँ कि तुम्हारे पास कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है तो क्या तुम लोग दुखी नहीं होगे? (हाँ।) जब कुछ लोग किसी उच्च-स्तर के अगुआ को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है तो उन्हें लगता है कि वे सत्य को समझने में सक्षम नहीं हैं, कि परमेश्वर यकीनन उन्हें नहीं चाहता है, कि उन्हें आशीष मिलने की कोई आशा नहीं है; लेकिन दुखी महसूस करने के बावजूद वे सामान्य रूप से अपना कर्तव्य करने में सक्षम होते हैं—ऐसे लोगों के पास थोड़ी समझ होती है। जब कुछ लोग किसी को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है, तो वे निराश हो जाते हैं और आगे अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हैं। वे सोचते हैं, “तुम कहते हो कि मुझे कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है—क्या इसका मतलब यह नहीं हुआ कि मुझे आशीष मिलने की कोई उम्मीद नहीं है? चूँकि मुझे भविष्य में कोई आशीष नहीं मिलेगा तो मैं अभी भी किस लिए विश्वास कर रहा हूँ? मैं सेवा करने के लिए मजबूर होना स्वीकार नहीं करूँगा। अगर बदले में कुछ नहीं मिलना है तो तुम्हारे लिए मेहनत कौन करेगा? मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ!” क्या ऐसे लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक होता है? वे परमेश्वर से इतना अनुग्रह प्राप्त करते हैं और फिर भी वे इसका बदला चुकाना नहीं जानते और वे सेवा करना भी नहीं चाहते। ऐसे लोग खत्म हो जाते हैं। वे अंत तक सेवा भी नहीं कर पाते और उन्हें परमेश्वर में कोई सच्ची आस्था नहीं होती है; वे छद्म-विश्वासी हैं। यदि उनके पास परमेश्वर के लिए एक ईमानदार दिल और परमेश्वर में सच्ची आस्था है, तो उनका मूल्यांकन चाहे कैसे भी किया जाए, यह उन्हें खुद को और अधिक सच्चे और सटीक रूप से जानने में सक्षम ही करेगा—उन्हें इस मामले को सही तरीके से देखना चाहिए और इसका असर परमेश्वर का अनुसरण करने या अपना कर्तव्य निभाने पर नहीं पड़ने देना चाहिए। अगर वे आशीष प्राप्त न भी कर पाएँ, तो भी उन्हें अंत तक परमेश्वर के लिए सेवा करने को तैयार रहना चाहिए, और बिना किसी शिकायत के ऐसा करने में खुश होना चाहिए और हर चीज में परमेश्वर को उन्हें आयोजित करने देना चाहिए—केवल तभी वे अंतरात्मा और विवेक वाले व्यक्ति होंगे। किसी व्यक्ति को आशीष मिलता है या वह विपत्ति झेलता है, यह परमेश्वर के हाथ में है, परमेश्वर इस पर संप्रभु है और वही इसकी व्यवस्था करता है, और यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे लोग माँग सकें या जिसे हासिल करने के लिए प्रयास कर सकें। बल्कि यह इस बात पर निर्भर है कि वह व्यक्ति परमेश्वर के वचनों का आज्ञापालन कर सकता है या नहीं, सत्य को स्वीकार कर सकता है या नहीं और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है या नहीं—परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार प्रतिफल देगा। यदि किसी में इतनी-सी भी ईमानदारी है और वह अपने वांछित कर्तव्य में अपनी पूरी शक्ति जुटाकर लगा देता है तो यह पर्याप्त है, और वह परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष अर्जित करेगा। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य पर्याप्त रूप से नहीं निभाता और हर प्रकार की बुराई भी करता है, फिर भी परमेश्वर से आशीष प्राप्त करना चाहता है तो क्या उसका इस तरह पेश आना समझ-बूझ की बेहद कमी नहीं है? यदि तुम्हें लगता है कि तुमने पर्याप्त रूप से अच्छा कार्य नहीं किया है, कि तुमने बहुत प्रयास किया है किंतु अभी भी तुम मामलों को सिद्धांतों के साथ नहीं सँभाल पाए हो और तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर के ऋणी हो, फिर भी वह तुम्हें आशीष देता है और तुम पर अनुग्रह दिखाता है, तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि परमेश्वर तुम पर कृपा कर रहा है? यदि परमेश्वर तुम्हें आशीष देना चाहता है, तो यह ऐसी चीज है जिसे कोई नहीं छीन सकता। तुम्हें यह लग सकता है कि तुमने बहुत अच्छा नहीं किया है लेकिन परमेश्वर का मूल्यांकन कहता है कि तुम ईमानदार हो और तुमने अपना सब कुछ दिया है और वह तुम पर अनुग्रह करना और तुम्हें आशीष देना चाहता है। परमेश्वर कुछ भी गलत नहीं करता और तुम्हें उसकी धार्मिकता की प्रशंसा करनी चाहिए। परमेश्वर चाहे जो कुछ करे, यह हमेशा सही होता है, और भले ही तुम यह मानकर परमेश्वर के कार्यों के बारे में धारणाएँ पाल लो कि उसका कार्य मानवीय भावनाओं के प्रति विचारशील नहीं होता है, कि यह तुम्हें पसंद नहीं है, फिर भी तुम्हें परमेश्वर की प्रशंसा करनी चाहिए। तुम्हें ऐसा क्यों करना चाहिए? तुम लोग इसका कारण नहीं जानते, है न? इसे समझाना वास्तव में बहुत आसान है : इसका कारण यह है कि परमेश्वर परमेश्वर है और तुम मनुष्य हो; वह सृष्टिकर्ता है, तुम एक सृजित प्राणी हो। तुम यह माँग करने के योग्य नहीं हो कि परमेश्वर एक निश्चित ढंग से कार्य करे या वह तुम्हारे साथ एक निश्चित ढंग से व्यवहार करे, जबकि परमेश्वर तुमसे माँग करने के योग्य है। आशीष, अनुग्रह, पुरस्कार, मुकुट—ये सभी चीजें कैसे और किसे दी जाती हैं, यह परमेश्वर पर निर्भर करता है। यह परमेश्वर पर क्यों निर्भर करता है? ये चीजें परमेश्वर की हैं; ये मनुष्य और परमेश्वर के साझे स्वामित्व वाली ऐसी संपत्तियाँ नहीं हैं कि इन्हें उनमें समान रूप से बाँटा जा सके। ये परमेश्वर की हैं और परमेश्वर जिन लोगों को इन्हें देने का वादा करता है, उन्हें ही ये चीजें देता है। यदि परमेश्वर ये चीजें तुम्हें देने का वादा नहीं करता तो भी तुम्हें उसके प्रति समर्पण करना चाहिए। यदि तुम इस कारण परमेश्वर पर विश्वास करना बंद कर देते हो तो इससे कौन-सी समस्याएँ हल होंगी? क्या तुम एक सृजित प्राणी होना बंद कर दोगे? क्या तुम परमेश्वर की संप्रभुता से बच सकते हो? परमेश्वर अभी भी सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है और यह एक अपरिवर्तनीय तथ्य है। परमेश्वर की पहचान, स्थिति और सार को कभी भी मनुष्य की पहचान, स्थिति और सार के बराबर नहीं माना जा सकता, न ही इन चीजों में कभी कोई बदलाव होगा—परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा और मनुष्य हमेशा मनुष्य रहेगा। यदि कोई व्यक्ति इसे समझने में सक्षम है तो फिर उसे क्या करना चाहिए? उसे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए—यह चीजों को करने का सबसे तर्कसंगत तरीका है, और इसके अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं है जिसे चुना जा सकता हो। यदि तुम समर्पण नहीं करते तो तुम विद्रोही हो और यदि तुम अवज्ञाकारी हो और बहस करते हो, तो तुम घोर विद्रोही बन रहे हो और तुम्हें नष्ट कर दिया जाना चाहिए। परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर पाना दर्शाता है कि तुम्हारे पास समझ-बूझ है; यही रवैया लोगों के पास होना चाहिए और केवल यही रवैया सृजित प्राणियों के पास होना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे पास एक छोटी बिल्ली या कुत्ता है—क्या वह बिल्ली या कुत्ता यह माँग करने के योग्य है कि तुम उसके लिए विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट भोजन या मजेदार खिलौने खरीदो? क्या बिल्ली या कुत्ते इतने नासमझ होते हैं कि अपने मालिकों से माँग करें? (नहीं।) और क्या कोई कुत्ता यह देखकर अपने मालिक के साथ नहीं रहना चाहेगा कि किसी दूसरे घर के कुत्ते का जीवन उससे बेहतर है? (नहीं।) उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति यह सोचना होता है, “मेरा मालिक मुझे भोजन और रहने के लिए जगह देता है, इसलिए मुझे अपने मालिक के घर की रखवाली करनी चाहिए। भले ही मेरा मालिक मुझे खाना न दे या बहुत अच्छा खाना न दे, तो भी मुझे उसके घर की रखवाली करनी है।” कुत्ते के मन में अपने स्थान से परे जाने के कोई अन्य अनुचित विचार नहीं होते। उसका मालिक उसके साथ अच्छा व्यवहार करे या न करे, जब भी मालिक घर आता है, कुत्ता बहुत खुश होता है, वह जितना खुश हो सकता है उतनी खुशी से लगातार दुम हिलाता रहता है। चाहे उसका मालिक उसे पसंद करे या न करे, चाहे उसका मालिक उसके लिए स्वादिष्ट चीजें खरीदे या न खरीदे, फिर भी उसका अपने मालिक के प्रति हमेशा एक जैसा व्यवहार होता है और वह उसके घर की रखवाली करता है। इस आधार पर आकलन करें तो क्या लोग कुत्तों से भी बदतर नहीं हैं? (हाँ।) लोग हमेशा परमेश्वर से माँग करते रहते हैं और हमेशा उससे विद्रोह करते रहते हैं। इस समस्या की जड़ क्या है? इसकी जड़ यही है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, वे सृजित प्राणियों के स्थान पर नहीं रह सकते और इसलिए वे अपनी सहज प्रवृत्ति खोकर शैतान बन जाते हैं; उनकी सहज प्रवृत्तियाँ परमेश्वर का विरोध करने, सत्य को अस्वीकार करने, बुराई करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण न करने की शैतानी प्रवृत्ति में बदल जाती हैं। उनकी मानवीय प्रवृत्तियों को कैसे बहाल किया जा सकता है? उन्हें अंतरात्मा और विवेक जगाने के लिए तैयार किया जाना चाहिए, उन्हें ऐसी चीजें करने के लिए तैयार किया जाना चाहिए जो एक व्यक्ति को करनी चाहिए, वे कर्तव्य निभाने चाहिए जो उन्हें करने चाहिए। यह वैसा ही है जैसे एक कुत्ता घर की रखवाली करता है और एक बिल्ली चूहे पकड़ती है—उनका मालिक उनके साथ चाहे कैसा भी व्यवहार करे, वे इन काम करने में अपनी सारी ताकत लगा देते हैं, वे खुद को इन कामों में झोंक देते हैं और वे अपने स्थान पर बने रहते हैं और अपनी सहज प्रवृत्ति का पूरा उपयोग करते हैं और इसीलिए उनका मालिक उन्हें पसंद करता है। अगर लोग ऐसा करने में कामयाब हो जाएँ तो परमेश्वर को ये सारे वचन कहने या ये सारे सत्य बोलने की जरूरत नहीं होगी। मनुष्य बहुत गहराई तक भ्रष्ट हैं, वे विवेक और अंतरात्मा से रहित हैं और उनमें ईमानदारी कम है; उनके भ्रष्ट स्वभाव हमेशा परेशानी पैदा करते हैं, उनमें प्रकट होते रहते हैं, उनके विकल्प-चयन और सोच को प्रभावित करते रहते हैं, उन्हें परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोही बनाते हैं और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में असमर्थ बनाते हैं, और ऐसी स्थिति बनाते हैं कि उनके पास हमेशा अपनी व्यक्तिपरक इच्छाएँ, विचार और प्राथमिकताएँ होती हैं और ऐसे में सत्य कभी भी उनके भीतर हावी नहीं हो पाता और उनका जीवन नहीं बन पाता। इन सब कारणों से ही परमेश्वर को उनका न्याय करना चाहिए, उन्हें परखना चाहिए और अपने वचनों से उनका शोधन करना चाहिए—ताकि उन्हें बचाया जा सके। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी हमेशा लोगों के बीच नकारात्मक भूमिका निभाते हैं। वे पूरी तरह से राक्षस और शैतान होते हैं; वे न केवल सत्य को स्वीकार नहीं करते, बल्कि वे यह भी स्वीकार नहीं करते कि उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं, वे प्रचंड लालची भी होते हैं और परमेश्वर से आशीष, मुकुट और पुरस्कार प्राप्त करना चाहते हैं। वे अपनी जद्दोजहद में किस हद तक चले जाते हैं? निहायत बेशर्म और घोर विवेकहीन होने की हद तक। यदि तमाम तरह की बुरी चीजें करने के बाद वे बेनकाब हो जाते हैं और हटा दिए जाते हैं तो वे अपने दिलों में द्वेष पालेंगे। वे परमेश्वर को कोसेंगे, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कोसेंगे और कलीसिया और सभी सच्चे विश्वासियों से घृणा करेंगे। यह तमाम बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों के बदसूरत चेहरे को पूरी तरह उघाड़ देता है।
मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों में से बारहवाँ मद है : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं। हम सरल शब्दों में बात करेंगे कि पीछे हटने का क्या मतलब है। पीछे हटने का शाब्दिक अर्थ है, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना—इसे “पीछे हटना” कहते हैं। परमेश्वर के घर में सत्य से प्रेम न करने वाले कुछ ऐसे लोग हमेशा होते हैं जो स्वेच्छा से कलीसिया और भाई-बहनों को छोड़ देते हैं क्योंकि वे सभाओं में भाग लेने और धर्मोपदेश सुनने से विमुख होते हैं और वे अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार नहीं होते—इसे पीछे हटना कहते हैं। यह इस शब्द के शाब्दिक अर्थ में पीछे हटना है। हालाँकि जब किसी को वाकई परमेश्वर की नजर में पीछे हटने वाला व्यक्ति माना जाता है, तो यह असल में केवल उसके परमेश्वर का घर छोड़ने, उसके अब दिखाई न देने या उसे कलीसिया की सूची से निकाले जाने का मामला नहीं होता। तथ्य यह है कि यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ता, तो उसकी आस्था चाहे कितनी भी अधिक क्यों न हो, चाहे वह स्वयं को परमेश्वर का विश्वासी मानता हो या न मानता हो, यह साबित करता है कि वह अपने हृदय में यह स्वीकार नहीं करता कि परमेश्वर का अस्तित्व है और न ही यह स्वीकार करता है कि उसके वचन सत्य हैं। परमेश्वर की दृष्टि में वह व्यक्ति पहले ही पीछे हट चुका है और अब वह उसके घर का सदस्य नहीं माना जाता है। जो लोग परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते वे ऐसे किस्म के ही लोग हैं जो पीछे हट गए हैं। दूसरे प्रकार के लोग वे हैं जो कभी भी कलीसियाई जीवन में भाग नहीं लेते और जो कभी भी कलीसियाई जीवन से संबंधित गतिविधियों में भाग नहीं लेते, जैसे कि जब भाई-बहन भजन गाते हैं, परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ करते हैं और एक साथ अपने व्यक्तिगत अनुभवों और समझ पर संगति करते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को पहले से ही पीछे हटा हुआ मानता है। एक और किस्म है : वे जो अपने कर्तव्य निभाने से इनकार करते हैं। परमेश्वर का घर उनसे चाहे जो अनुरोध करे, उनसे जिस भी तरह का काम करने को कहे, कोई भी कर्तव्य निभाने को कहे, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, यहाँ तक कि कभी-कभार कोई संदेश पहुँचाने वाला सरल-सा काम ही क्यों न हो—वे उस काम को नहीं करना चाहते। वे, परमेश्वर के स्व-घोषित विश्वासी, ऐसे कार्य भी नहीं कर सकते जिनमें एक अविश्वासी तक की मदद ली जा सकती है; यह सत्य स्वीकारने और कर्तव्य निभाने से इनकार करना है। भाई-बहन उन्हें चाहे कैसे भी प्रोत्साहित करें, वे इससे इनकार कर इसे स्वीकार नहीं करते; जब कलीसिया उनके लिए कोई कर्तव्य निभाने की व्यवस्था करती है, तो वे उसे अनदेखा कर देते हैं और उससे इनकार करने के लिए ढेरों बहाने बनाते हैं। ये ऐसे लोग होते हैं जो कर्तव्य निभाने से इनकार करते हैं। परमेश्वर की दृष्टि में ऐसे लोग पहले ही पीछे हट चुके होते हैं। उनके पीछे हटने का संबंध इस बात से नहीं है कि परमेश्वर के घर ने उन्हें बाहर निकाल दिया है या उन्हें अपनी सूची से हटा दिया है; बल्कि इसका संबंध इस बात से है कि अब खुद उन्हीं में सच्ची आस्था नहीं रह गई है—वे खुद को परमेश्वर का विश्वासी नहीं मानते। जो भी व्यक्ति इन तीन श्रेणियों में से किसी एक में उपयुक्त बैठता है, वह ऐसा व्यक्ति है जो पहले ही पीछे हट चुका है। क्या यह एक सटीक परिभाषा है? (हाँ।) यदि तुम परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते तो क्या तुम परमेश्वर में विश्वासी माने जाते हो? यदि तुम कलीसियाई जीवन नहीं जीते, यदि तुम अपने भाई-बहनों के साथ बातचीत नहीं करते या घुलमिल नहीं हो तो क्या तुम विश्वासी हो? और भी कम। यही नहीं, यदि तुम अपना कर्तव्य निभाने से इनकार कर देते हो और एक सृजित प्राणी के रूप में अपने दायित्व भी पूरा नहीं करते तो यह और भी गंभीर है। ये तीन प्रकार के लोग ऐसे होते हैं जिन्हें परमेश्वर पहले ही पीछे हटते देख रहा होता है। ऐसा नहीं है कि उन्हें परमेश्वर के घर से बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया गया है; बल्कि वे अपनी इच्छा से पीछे हट गए हैं और उन्होंने अपनी इच्छा से त्याग कर दिया है। उनके व्यवहार से पूरी तरह से पता चलता है कि वे सत्य से प्रेम या इसे स्वीकार नहीं करते और वे ऐसे लोगों के ठेठ उदाहरण हैं जो बस अपने हिस्से के निवाले खाने और आशीष पाने की ताक में रहते हैं।
17 अक्तूबर 2020