परमेश्वर को जानना 5
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 166
क्या तुम लोग जानते हो कि परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को समझने के लिए कौन-सा ज्ञान महत्त्वपूर्ण है? इस विषय पर अनुभव से बहुत-कुछ कहा जा सकता है, लेकिन पहले कुछ मुख्य बिंदु मुझे तुम लोगों को बताने चाहिए। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को समझने के लिए व्यक्ति को पहले परमेश्वर की भावनाओं को समझना होगा : वह किससे घृणा करता है, किसे नापसंद करता है और किससे प्यार करता है; वह किसे बरदाश्त करता है, किसके प्रति दयालु है, और किस प्रकार के व्यक्ति पर वह दया करता है। यह एक महत्त्वपूर्ण बिंदु है। व्यक्ति को यह भी समझना होगा कि परमेश्वर कितना भी स्नेही क्यों न हो, उसमें लोगों के लिए कितनी भी दया एवं प्रेम क्यों न हो, परमेश्वर अपनी हैसियत और स्थिति को ठेस पहुँचाने वाले किसी भी व्यक्ति को बरदाश्त नहीं करता, न ही वह यह बरदाश्त करता है कि कोई उसकी गरिमा को ठेस पहुँचाए। यद्यपि परमेश्वर लोगों से प्यार करता है, फिर भी वह उन्हें लाड़-प्यार से बिगाड़ता नहीं। वह लोगों को अपना प्यार, अपनी दया एवं अपनी सहनशीलता देता है, लेकिन वह कभी उनसे लाड़ नहीं करता; परमेश्वर के अपने सिद्धांत और सीमाएँ हैं। भले ही तुमने परमेश्वर के प्रेम को कितना भी महसूस किया हो, वह प्रेम कितना भी गहरा क्यों न हो, तुम्हें कभी भी परमेश्वर से ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, जैसा तुम किसी अन्य व्यक्ति से करते हो। यह सच है कि परमेश्वर लोगों से बहुत आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करता है, फिर भी यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर को मात्र किसी अन्य व्यक्ति के रूप में देखता है, मानो वह मात्र कोई अन्य सृजित प्राणी हो, जैसे कोई मित्र या आराधना की कोई वस्तु, तो परमेश्वर उससे अपना चेहरा छिपा लेगा और उसे त्याग देगा। यह उसका स्वभाव है और लोगों को इस मुद्दे को बिना सोचे-समझे नहीं लेना चाहिए। अतः, हम अकसर परमेश्वर द्वारा अपने स्वभाव के बारे में कहे गए ऐसे वचन देखते हैं : चाहे तुमने कितने भी मार्गों पर यात्रा की हो, तुमने कितना भी अधिक काम किया हो या तुमने कितना भी अधिक कष्ट सहन किया हो, जैसे ही तुम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को ठेस पहुँचाते हो, वह तुम्हारे कृत्य के आधार पर तुममें से प्रत्येक को उसका प्रतिफल देगा। इसका अर्थ यह है कि हालाँकि परमेश्वर लोगों के साथ बहुत आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करता है, फिर भी लोगों को परमेश्वर से किसी मित्र या रिश्तेदार की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए। परमेश्वर को अपना "यार" मत कहो। चाहे तुमने उससे कितना ही प्रेम क्यों न प्राप्त किया हो, चाहे उसने तुम्हें कितनी ही सहनशीलता क्यों न दी हो, तुम्हें कभी भी परमेश्वर से अपने मित्र के रूप में व्यवहार नहीं करना चाहिए। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है। क्या तुम समझे? क्या मुझे इस बारे में और अधिक कहने की ज़रूरत है? क्या तुम्हें इस मामले की पहले से कोई समझ है? सामान्य रूप से कहें, तो यह एक ऐसी गलती है, जिसे लोग सबसे आसानी से इस बात की परवाह किए बगैर करते हैं कि क्या वे सिद्धांतों को समझते हैं या फिर उन्होंने इसके विषय में पहले कभी नहीं सोचा। जब लोग परमेश्वर को ठेस पहुँचाते हैं, तो हो सकता है, ऐसा किसी एक घटना या किसी एक बात की वजह से न होकर उनके रवैये और उस स्थिति के कारण हो, जिसमें वे हैं। यह एक बहुत ही भयावह बात है। कुछ लोगों का मानना है कि उन्हें परमेश्वर की समझ है, कि उन्हें उसका कुछ ज्ञान है, और वे शायद कुछ ऐसी चीज़ें भी कर सकते हैं, जो परमेश्वर को संतुष्ट करेंगी। वे परमेश्वर के बराबर महसूस करना शुरू कर देते हैं और यह भी कि वे चतुराई से परमेश्वर के मित्र हो गए हैं। इस प्रकार की भावनाएँ भयावह रूप से गलत हैं। यदि तुम्हें इसकी गहरी समझ नहीं है—यदि तुम इसे स्पष्ट रूप से नहीं समझते—तो तुम बहुत आसानी से परमेश्वर और उसके स्वभाव को ठेस पहुँचा दोगे और उसके धार्मिक स्वभाव की अवमानना कर दोगे। अब तुम इसे समझ गए न? क्या परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव अद्वितीय नहीं है? क्या यह कभी किसी मनुष्य के चरित्र या नैतिक दृष्टिकोण के बराबर हो सकता है? ऐसा कभी नहीं हो सकता। अतः, तुम्हें नहीं भूलना चाहिए कि चाहे परमेश्वर लोगों से कैसा भी व्यवहार करे, चाहे वह लोगों के बारे में किसी भी प्रकार सोचता हो, परमेश्वर की स्थिति, अधिकार और हैसियत कभी नहीं बदलती। मानव-जाति के लिए परमेश्वर हमेशा सभी चीज़ों का प्रभु और सृष्टिकर्ता है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VII' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 167
कहानी 1. एक बीज, धरती, एक पेड़, धूप, चिड़ियाँ और मनुष्य
छोटा-सा बीज धरती पर गिरा। भारी बारिश हुई और उस बीज से एक कोमल अंकुर फूटा, जबकि उसकी जड़ें धीरे-धीरे नीचे मिट्टी में विलीन हो गईं। समय के साथ वह प्रचंड हवाओं और कठोर बारिश का सामना करते हुए चंद्रमा के बढ़ने और घटने के साथ ऋतुओं के परिवर्तन को देखते हुए लंबा हो गया। गर्मियों में धरती पानी का उपहार लेकर आई, ताकि अंकुर मौसम की चिलचिलाती गर्मी सहन कर सके। और धरती के कारण अंकुर गर्मी से विह्वल नहीं हुआ, और इस प्रकार गर्मियों की सबसे खराब तपन बीत गई। जब जाड़ा आया, तो धरती ने उस अंकुर को अपने गर्म आगोश में लपेट लिया और धरती और अंकुर ने एक-दूसरे को कसकर जकड़े रखा। धरती ने अंकुर को गर्माहट दी, और इस प्रकार वह मौसम की सबसे कड़कड़ाती ठंड से जीवित बच गया, और उसे शीतकालीन आँधियों और बर्फीले तूफानों से कोई नुकसान नहीं हुआ। धरती का आश्रय पाकर अंकुर बहादुरी और ख़ुशी से बढ़ा। धरती का निःस्वार्थ पोषण पाकर वह स्वस्थ और सशक्त बना। बारिश में गाते हुए और हवा में नाचते-झूमते हुए वह आनंद से बढ़ा। अंकुर एवं धरती एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं ...
कई साल बीत गए, और वह अंकुर एक विशाल पेड़ में बदल गया। अनगिनत पत्तों वाली मोटी शाखाओं के साथ वह धरती पर मज़बूती से खड़ा था। उसकी जड़ें पहले की तरह धरती में धँसी थीं और अब मिट्टी में और गहरे चली गई थीं। धरती, जिसने कभी नन्हे अंकुर की सुरक्षा की थी, अब एक शक्तिशाली पेड़ की आधारशिला थी।
पेड़ पर सूरज की रोशनी की एक किरण चमक उठी। पेड़ ने अपने शरीर को लहराया, बाँहें बाहर की ओर तानकर फैलाईं और सूरज की रोशनी से भरी हवा में गहरी साँस ली। नीचे ज़मीन ने भी पेड़ के साथ साँस ली, और धरती ने महसूस किया जैसे वह फिर से नई हो गई हो। तभी शाखाओं के बीच से एक ताज़ी हवा का झोंका आया, और पेड़ ऊर्जा से लहराते हुए खुशी से सिहर उठा। पेड़ और सूरज की रोशनी एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं ...
लोग पेड़ की ठंडी छांव में बैठकर स्फूर्तिदायक एवं सुगंधित हवा का आनंद लेने लगे। उस हवा ने उनके दिलों एवं फेफड़ों को साफ़ किया, और इससे उनके भीतर का खून साफ़ हो गया, और उनके शरीर अब सुस्त और बेबस नहीं रहे। लोग और पेड़ एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं ...
चहकती नन्ही चिड़ियों का एक समूह पेड़ की शाखाओं पर उतरा। शायद वे किसी शत्रु से बचने के लिए या प्रजनन अथवा अपने बच्चों का पालन-पोषण करने के लिए वहाँ उतरे थे, या शायद वे सिर्फ थोड़ा आराम कर रहे थे। चिड़ियाँ और पेड़ एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं ...
पेड़ की मुड़ी और उलझी हुई जड़ें धरती में गहरी धँस गईं। अपने तने से उसने हवा और वर्षा से धरती को आश्रय दिया, और अपने पैरों के नीचे धरती की रक्षा करने के लिए उसने अपने विशाल अंग फैला लिए। पेड़ ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि धरती उसकी माँ है। वे एक-दूसरे को मजबूत करते हैं और एक-दूसरे पर भरोसा करते हैं, और वे कभी अलग नहीं होंगे ...
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मैंने अभी जिन चीज़ों की बात की, उन्हें तुम लोग पहले देख चुके हो। जैसे बीज—वे उगकर पेड़ बन जाते हैं, और भले ही तुम इसकी प्रक्रिया का हर विवरण देखने में सक्षम न हो पाओ, फिर भी तुम जानते हो कि ऐसा होता है, है ना? तुम धरती एवं सूरज की रोशनी के बारे में भी जानते हो? पेड़ पर बैठे पक्षियों की तसवीर हर किसी ने देखी है, है ना? और पेड़ की छाया में खुद को ठंडक पहुँचाते लोगों की तसवीर—इसे भी तुम सबने देखा है, है ना? (हाँ, देखा है।) तो, ये सभी चीज़ें एक ही तसवीर में होने पर वह तसवीर किस चीज़ का एहसास देती है? (सामंजस्य का।) क्या उस छवि की प्रत्येक चीज़ परमेश्वर से आती है? (हाँ।) चूँकि वे परमेश्वर से आती हैं, इसलिए परमेश्वर इन सब विभिन्न चीज़ों के सांसारिक अस्तित्व का मूल्य एवं महत्व जानता है। जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों की सृष्टि की थी, जब उसने हर चीज़ की योजना बनाई और उसकी सृष्टि की, तो उसने इरादे के साथ ऐसा किया; और जब उसने उन चीज़ों को बनाया, तो हर चीज़ में प्राण डाले। जो परिवेश उसने मानव-जाति के अस्तित्व के लिए बनाया, जिसका वर्णन अभी हमारी कहानी में हुआ, वह ऐसा है, जिसमें बीज और धरती एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं, जिसमें धरती बीजों का पोषण कर सकती है और बीज धरती से बँधे हैं। यह संबंध परमेश्वर ने एकदम शुरू में ही निर्धारित कर दिया था। पेड़, सूरज की रोशनी, चिड़ियों और मनुष्यों का दृश्य परमेश्वर द्वारा मानव-जाति के लिए बनाए गए जीवंत वातावरण का चित्रण है। पहली बात, पेड़ धरती को नहीं छोड़ सकते, न वे सूरज की रोशनी के बिना रह सकते हैं। तो पेड़ को बनाने में परमेश्वर का क्या मकसद था? क्या हम कह सकते हैं कि यह सिर्फ़ धरती के लिए है? क्या हम कह सकते हैं कि यह सिर्फ़ चिड़ियों के लिए है? क्या हम कह सकते हैं कि यह सिर्फ़ लोगों के लिए है? (नहीं।) उनके बीच क्या संबंध है? उनके बीच पारस्परिक सुदृढ़ीकरण, अन्योन्याश्रय और अविभाज्यता का संबंध है। दूसरे वचनों में, धरती, पेड़, सूरज की रोशनी, चिड़ियाँ और मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए एक-दूसरे पर निर्भर हैं और एक-दूसरे का पोषण करते हैं। पेड़ धरती की रक्षा करता है और धरती पेड़ का पोषण करती है; सूरज की रोशनी पेड़ के लिए आपूर्ति करती है, जबकि पेड़ सूरज की रोशनी से ताजी हवा प्राप्त करता है और धरती पर चिलचिलाती धूप की तपन कम करता है। अंत में इससे कौन लाभान्वित होता है? मानव-जाति, है कि नहीं? परमेश्वर द्वारा निर्मित जिस परिवेश में मानव-जाति रहती है, यह उसके अंतर्निहित सिद्धांतों में से एक है; यह दर्शाता है कि परमेश्वर का शुरू से क्या इरादा रहा था। हालाँकि यह एक साधारण-सी तसवीर है, फिर भी हम इसमें परमेश्वर की बुद्धि और उसके इरादे को देख सकते हैं। मनुष्य धरती या पेड़ों के बिना नहीं रह सकता, चिड़ियों एवं सूर्य के प्रकाश के बिना तो बिलकुल भी नहीं रह सकता। ठीक है ना? हालाँकि यह सिर्फ एक कहानी है, फिर भी यह परमेश्वर द्वारा स्वर्ग, धरती और सभी चीज़ों की रचना और परिवेश के उसके उपहार, जिसमें मनुष्य रह सकता है, के सूक्ष्म दर्शन का चित्रण करती है।
परमेश्वर ने मानव-जाति के लिए स्वर्ग एवं धरती और सभी चीज़ों की सृष्टि की, और साथ ही रहने के लिए परिवेश का भी निर्माण किया। पहली बात, हमारी कहानी का मुख्य बिंदु है सभी चीज़ों का पारस्परिक सुदृढ़ीकरण, अन्योन्याश्र और सह-अस्तित्व। इस सिद्धांत के अंतर्गत मानव-जाति के अस्तित्व का परिवेश सुरक्षित किया गया है; वह अस्तित्व में रह सकता है और निरंतर बना रह सकता है। इसके कारण मानव-जाति फल-फूल सकती है और प्रजनन कर सकती है। हमने जो तसवीर देखी थी, उसमें एक पेड़, धरती, सूरज की रोशनी, चिड़ियाँ और लोग एक-साथ थे। क्या उस तसवीर में परमेश्वर था? किसी ने उसे नहीं देखा, है ना? पर उसने दृश्य में चीज़ों के बीच पारस्परिक सुदृढ़ीकरण और अन्योन्याश्रय का नियम अवश्य देखा; इस नियम में व्यक्ति परमेश्वर के अस्तित्व और संप्रभुता को देख सकता है। परमेश्वर सभी चीज़ों का जीवन और अस्तित्व बनाए रखने के लिए ऐसे सिद्धांत और ऐसे नियम का उपयोग करता है। इस तरह से वह सभी चीज़ों और मानव-जाति को पोषण प्रदान करता है। क्या यह कहानी हमारे मुख्य विषय से जुड़ी है? ऊपरी तौर पर ऐसा नहीं लगता, पर वास्तव में, वह नियम, जिसके द्वारा परमेश्वर ने सभी चीजों को बनाया, और उन पर उसकी प्रभुता उसके सभी चीज़ों के लिए जीवन का स्रोत होने से घनिष्ठता से जुड़े हैं। ये तथ्य अविभाज्य हैं। अब तुम लोग कुछ सीखने लगे हो!
परमेश्वर उन नियमों का स्वामी है, जो सभी चीज़ों के संचालन को नियंत्रित करते हैं; वह उन नियमों का स्वामी है, जो सभी प्राणियों के अस्तित्व को नियंत्रित करते हैं; वह सभी चीज़ों को नियंत्रित करता है और उन्हें इस तरह रखता है कि वे एक-दूसरे को मजबूत भी करें और परस्पर निर्भर भी बनाएँ, ताकि वे नष्ट या विलुप्त न हों। केवल इसी तरह मनुष्य जीवित रह सकते हैं; केवल इसी तरह वे परमेश्वर के मार्गदर्शन में ऐसे परिवेश में रह सकते हैं। परमेश्वर संचालन के इन नियमों का स्वामी है, और कोई भी इनमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता, न कोई इन्हें बदल ही सकता है। केवल स्वयं परमेश्वर ही इन नियमों को जानता है और केवल वही इनका प्रबंध करता है। पेड़ कब अंकुरित होंगे; बारिश कब होगी; धरती कितना जल एवं कितने पोषक तत्त्व पौधों को देगी; किस मौसम में पत्ते गिरेंगे; किस मौसम में पेड़ों पर फल लगेंगे; कितने पोषक तत्त्व सूर्य का प्रकाश पेड़ों को देगा; सूर्य के प्रकाश द्वारा पोषित किए जाने के बाद पेड़ उच्छ्वास के रूप में क्या छोड़ेंगे—इन सभी चीज़ों को परमेश्वर ने पहले ही तब निश्चित कर दिया था, जब उसने सभी चीज़ों को बनाया था, उन नियमों के रूप में जिन्हें कोई नहीं तोड़ सकता। परमेश्वर द्वारा बनाई हुई चीज़ें—चाहे वे जीवित हों या मनुष्य की दृष्टि में निर्जीव, उसके हाथ में रहती हैं, जहाँ वह उन्हें नियंत्रित करता है और उन पर शासन करता है। इन नियमों को कोई बदल या तोड़ नहीं सकता। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों का निर्माण किया था, तब उसने पूर्वनिर्धारित किया कि धरती के बिना पेड़ अपनी जड़ें नीचे नहीं फैला सकता, अंकुरित नहीं हो सकता और बढ़ नहीं सकता; कि यदि धरती पर कोई पेड़ न होता, तो वह सूख जाती; कि पेड़ को चिड़ियों का आशियाना भी होना चाहिए, और एक ऐसी जगह, जहाँ वे हवाओं से बचने के लिए आश्रय ले सकें। क्या कोई पेड़ सूरज की रोशनी के बिना जी सकता है? (नहीं।) न ही वह केवल धरती के साथ रह सकता है। ये सब चीज़ें मानव-जाति के लिए, उसके अस्तित्व के लिए हैं। पेड़ से मनुष्य ताजी हवा प्राप्त करता है, और वह धरती पर रहता है, जिसकी पेड़ों द्वारा रक्षा की जाती है। मनुष्य सूर्य की रोशनी और विभिन्न प्राणियों के बिना नहीं रह सकता। हालाँकि ये संबंध जटिल हैं, फिर भी तुम्हें यह याद रखना चाहिए कि परमेश्वर ने उन नियमों को बनाया है, जो सभी चीज़ों का नियंत्रण करते हैं, ताकि वे एक-दूसरे को मजबूत करें, एक-दूसरे पर निर्भर रहें, और एक-साथ मौजूद रहें। दूसरे शब्दों में, उसके द्वारा बनाई गई हर-एक चीज़ का मूल्य और महत्व है। यदि परमेश्वर ने कोई चीज़ बिना किसी महत्व के बनाई होती, तो परमेश्वर उसे लुप्त होने देता। यह उन तरीकों में से एक है, जिसे परमेश्वर सभी चीज़ों को पोषण प्रदान करने में इस्तेमाल करता है। इस कहानी में "पोषण प्रदान करता है" शब्द क्या बताते हैं? क्या परमेश्वर प्रतिदिन पेड़ को पानी देता है? क्या पेड़ को साँस लेने के लिए परमेश्वर की मदद की आवश्यकता पड़ती है? (नहीं।) यहाँ "पोषण प्रदान करता है" से तात्पर्य परमेश्वर द्वारा सभी चीज़ों के निर्माण के बाद उनके प्रबंधन से है; उनका नियंत्रण करने वाले नियम स्थापित करने के बाद परमेश्वर द्वारा उनका प्रबंधन करना पर्याप्त है। धरती में बोए जाने के बाद बीज अपने आप उगता है। उसके उगने की सभी स्थितियाँ परमेश्वर द्वारा रची गई थीं। परमेश्वर ने धूप, जल, मिट्टी, हवा और आसपास का परिवेश बनाया; उसने वायु, ठंड, बर्फ, वर्षा एवं चार ऋतुओं को बनाया। ये वे स्थितियाँ हैं, जो पेड़ के उगने के लिए आवश्यक हैं और उन्हें परमेश्वर ने तैयार किया। तो, क्या परमेश्वर इस जीवनदायी परिवेश का स्रोत है? (हाँ।) क्या परमेश्वर को प्रतिदिन पेड़ों के हर एक पत्ते को गिनना पड़ता है? नहीं! न परमेश्वर को साँस लेने में पेड़ की मदद करने या यह कहकर सूर्य की रोशनी को जगाने की ज़रूरत पड़ती है कि "यह पेड़ों पर चमकने का समय है।" उसे ऐसा करने की ज़रूरत नहीं है। नियमानुसार चमकने का समय होने पर सूर्य की रोशनी अपने आप चमकती है; वह पेड़ पर प्रकट होकर चमकने लगती है और पेड़ को जब ज़रूरत होती है, वह उसे सोख लेता है, और जब आवश्यकता नहीं होती, तो भी वह नियमों के अंतर्गत जीता है। शायद तुम लोग इस घटना का स्पष्ट रूप से वर्णन न कर पाओ, लेकिन फिर भी यह एक तथ्य है, जिसे हर कोई देख सकता है और स्वीकार कर सकता है। तुम्हें बस यह पहचानना है कि हर चीज़ के अस्तित्व को नियंत्रित करने वाले नियम परमेश्वर से आते हैं, और यह जानना है कि उनकी वृद्धि और उनका जीवन परमेश्वर के प्रभुत्व में है।
अब, क्या इस कहानी में उस चीज़ का इस्तेमाल किया गया है, जिसे लोग "रूपक" कहते हैं? क्या यह मानवीकरण है? (नहीं।) मैंने एक सच्ची कहानी सुनाई है। हर तरह की जीवित चीज़, हर चीज़ जिसमें जीवन है, परमेश्वर द्वारा शासित है; निर्माण के समय हर चीज़ में परमेश्वर द्वारा प्राण डाले गए थे; हर जीवित चीज़ का जीवन परमेश्वर से आता है और वह उस क्रम और व्यवस्थाओं का अनुसरण करता है, जो उसे निर्देशित करती हैं। मनुष्य को इसे बदलने की ज़रूरत नहीं, न इसे मनुष्य की मदद की ज़रूरत है; यह उन तरीकों में से एक है, जिससे परमेश्वर सभी चीज़ों को पोषण प्रदान करता है। तुम लोग समझे, या नहीं? क्या तुम्हें लगता है कि लोगों को इसे पहचानना ज़रूरी है? (हाँ।) तो, क्या इस कहानी का जीवविज्ञान से कुछ लेना-देना है? क्या यह किसी रूप में ज्ञान के किसी क्षेत्र या ज्ञानार्जन की किसी शाखा से संबंधित है? हम जीवविज्ञान पर चर्चा नहीं कर रहे हैं, और हम निश्चित रूप से जैविक अनुसंधान नहीं कर रहे हैं। हमारी बात का मुख्य विचार क्या है? (परमेश्वर सभी चीज़ों के लिए जीवन का स्रोत है।) तुम लोगों ने सृष्टि के भीतर क्या देखा है? क्या तुमने पेड़ देखे हैं? क्या तुमने धरती देखी है? (हाँ।) तुम लोगों ने सूर्य की रोशनी देखी है, है न? क्या तुमने पेड़ों पर बैठी चिड़ियाँ देखी हैं? (देखी हैं।) क्या मानव-जाति ऐसे परिवेश में रहते हुए प्रसन्न है? (प्रसन्न है।) कहने का तात्पर्य यह है कि परमेश्वर मनुष्यों के घर, उनके जीवन के परिवेश की रक्षा करने के लिए सभी चीज़ों का—स्वयं द्वारा रचित चीज़ों का—इस्तेमाल करता है। इस तरह से परमेश्वर मनुष्य और सभी चीज़ों को पोषण प्रदान करता है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VII' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 168
कहानी 2. एक बड़ा पर्वत, एक छोटी जलधारा, एक प्रचंड हवा और एक विशाल लहर
एक छोटी जलधारा थी, जो यहाँ-वहाँ घूमती हुई बहती थी और अंततः एक बड़े पर्वत के निचले सिरे पर पहुँचती थी। पर्वत उस छोटी जलधारा के मार्ग को रोक रहा था, अतः उस जलधारा ने अपनी कमज़ोर एवं धीमी आवाज़ में पर्वत से कहा, "कृपया मुझे गुज़रने दो। तुम मेरे मार्ग में खड़े हो और मेरा आगे का मार्ग रोक रहे हो।" पर्वत ने पूछा, "तुम कहाँ जा रही हो?" जलधारा ने जवाब दिया, "मैं अपना घर ढूँढ़ रही हूँ।" पर्वत ने कहा, "ठीक है, आगे बढ़ो और सीधे मेरे ऊपर से बहकर निकल जाओ!" परंतु वह नन्ही जलधारा बहुत ही कमज़ोर और छोटी थी, अत: उसके लिए उस विशाल पर्वत के ऊपर से बहना संभव नहीं था। वह केवल पर्वत के निचले सिरे पर ही बहती रह सकती थी ...
एक प्रचंड हवा रेत और कंकड़ लेकर वहाँ आई, जहाँ पहाड़ खड़ा था। हवा पर्वत के ऊपर जोर से चीखी, "मुझे जाने दो!" पर्वत ने पूछा, "तुम कहाँ जा रही हो?" जवाब में हवा चिल्लाई, "मैं पर्वत के उस पार जाना चाहती हूँ।" पर्वत ने कहा, "ठीक है, अगर तुम मेरे सीने को चीर सकती हो, तो तुम जा सकती हो!" प्रचंड हवा ज़ोर-ज़ोर से गरजने लगी, लेकिन प्रचंडता से बहने के बावजूद वह पर्वत के सीने को चीरकर नहीं निकल सकी। हवा थक गई और आराम करने के लिए रुक गई—और पर्वत के दूसरी ओर एक मंद हवा बहने लगी, जिससे वहाँ के लोग प्रसन्न हो गए। यह लोगों को पर्वत का अभिवादन था ...
समुद्र के तट पर सागर की फुहार चट्टान के किनारे आहिस्ता-आहिस्ता लुढ़कने लगी। अचानक एक विशाल लहर ऊपर आई और गरजती हुई पर्वत की ओर अपना मार्ग बनाने लगी। "हट जाओ!" विशाल लहर चिल्लाई। पर्वत ने पूछा, "तुम कहाँ जा रही हो?" अपना वेग रोकने में असमर्थ लहर गरजी, "मैं अपने क्षेत्र का विस्तार कर रही हूँ! मैं अपनी बाँहें फैलाना चाहती हूँ।" पर्वत ने कहा, "ठीक है, यदि तुम मेरी चोटी से गुज़र सकती हो, तो मैं तुम्हें रास्ता दे दूँगा।" विशाल लहर थोड़ा पीछे हटी, और फिर से पर्वत की ओर उमड़ने लगी। लेकिन पूरी कोशिश करके भी वह पर्वत के ऊपर से नहीं जा सकी। लहर धीरे-धीरे वापस समुद्र में ही लौट सकती थी ...
हजारों साल तक छोटी जलधारा आहिस्ता-आहिस्ता पर्वत के निचले सिरे के चारों ओर रिसती रही। पर्वत के निर्देशों का पालन करते हुए अपना रास्ता बनाकर छोटी जलधारा वापस अपने घर पहुँच गई, जहाँ जाकर वह एक नदी में मिल गई, और नदी समुद्र में। पर्वत की देखरेख में छोटी जलधारा ने कभी अपना रास्ता नहीं खोया। जलधारा और पर्वत ने एक-दूसरे को पुष्ट किया और एक-दूसरे पर निर्भर रहे; उन्होंने एक-दूसरे को मजबूत बनाया, एक-दूसरे के साथ प्रतिक्रिया की और एक-दूसरे के साथ मौजूद रहे।
हजारों साल तक प्रचंड हवा गरजती रही, जैसी कि उसकी आदत थी। वह फिर भी हवा के झोंकों के साथ रेत के बड़े-बड़े बगूले उड़ाती हुई अकसर पर्वत से "मिलने" आती। वह पर्वत को डराती, लेकिन उसके सीने को कभी नहीं चीर पाई। हवा और पर्वत एक-दूसरे को पुष्ट करते रहे और एक-दूसरे पर निर्भर रहे; उन्होंने एक-दूसरे को मजबूत बनाया, एक-दूसरे के साथ प्रतिक्रिया की और एक-दूसरे के साथ मौजूद रहे।
हजारों साल तक विशाल लहर कभी आराम करने के लिए नहीं रुकी, और लगातार अपने क्षेत्र का विस्तार करते हुए वह निर्ममता से आगे बढ़ी। वह बार-बार पर्वत की ओर गरजती और उमड़ती, लेकिन पर्वत कभी एक इंच भी नहीं हिला। पर्वत ने समुद्र की निगरानी की, और इस तरह से, समुद्री जीव कई गुना बढ़े और फले-फूले। लहर और पर्वत एक-दूसरे को पुष्ट करते रहे और एक-दूसरे पर निर्भर रहे; उन्होंने एक-दूसरे को मजबूत बनाया, एक-दूसरे के साथ प्रतिक्रिया की और एक-दूसरे के साथ मौजूद रहे।
तो हमारी कहानी समाप्त होती है। पहले, मुझे बताओ, कहानी किस बारे में थी? शुरू करने के लिए, एक बड़ा पर्वत, एक छोटी जलधारा, एक प्रचंड हवा और एक विशाल लहर थी। पहले अंश में छोटी जलधारा और बड़े पर्वत के साथ क्या हुआ? मैंने एक जलधारा और एक पर्वत के बारे में बात करना क्यों चुना? (पर्वत की देखरेख में जलधारा ने कभी अपना रास्ता नहीं खोया। वे एक-दूसरे पर भरोसा करते थे।) तुम क्या कहोगे, पर्वत ने छोटी जलधारा की सुरक्षा की या उसे बाधित किया? (उसकी सुरक्षा की।) पर क्या उसने उसे बाधित नहीं किया? उसने और जलधारा ने एक-दूसरे का ध्यान रखा; पर्वत ने जलधारा की सुरक्षा की और उसे बाधित भी किया। जलधारा जब नदी में मिल गई, तो पर्वत ने उसकी सुरक्षा की, लेकिन साथ ही उसे उन जगहों पर बहने से भी रोका, जहाँ वह बह सकती थी और बाढ़ लाकर लोगों के लिए विनाशकारी हो सकती थी। क्या पहले अंश में यही सब नहीं था? जलधारा की सुरक्षा करके और उसे रोककर पर्वत ने लोगों के घरों की हिफ़ाज़त की। फिर छोटी जलधारा पर्वत के निचले सिरे पर नदी में मिल गई और बहकर समुद्र में चली गई। क्या यह जलधारा के अस्तित्व को नियंत्रित करने वाला नियम नहीं है? जलधारा को नदी और समुद्र में मिलने योग्य किसने बनाया? क्या वह पर्वत नहीं था? जलधारा ने पर्वत की सुरक्षा और बाधा पर भरोसा किया। तो क्या यह मुख्य बिंदु नहीं है? क्या तुम इसमें जल के लिए पर्वतों के महत्व को देखते हो? क्या छोटे-बड़े हर पर्वत को बनाने में परमेश्वर का कोई उद्देश्य था? (हाँ।) यह छोटा-सा अंश, जिसमें सिर्फ एक छोटी जलधारा और एक बड़ा पर्वत है, हमें परमेश्वर द्वारा उन दो चीज़ों के सृजन का मूल्य और महत्व दिखाता है; यह हमें उन पर उसके शासन की बुद्धिमत्ता और प्रयोजन भी दिखाता है। क्या ऐसा नहीं है?
कहानी का दूसरा अंश किस बारे में था? (एक प्रचंड हवा और एक बड़े पर्वत के बारे में।) क्या हवा एक अच्छी चीज़ है? (हाँ।) यह ज़रूरी नहीं है—कभी-कभी हवा बहुत तेज होती है और आपदा का कारण बन जाती है। यदि तुम्हें प्रचंड हवा में खड़ा कर दिया जाए, तो तुम्हें कैसा लगेगा? यह उसकी ताकत पर निर्भर करता है, नहीं? अगर तीसरे या चौथे स्तर की ताकत वाली हवा होगी, तो यह सहनीय होगी। अधिक से अधिक व्यक्ति को अपनी आँखें खुली रखने में तकलीफ होगी। लेकिन अगर हवा प्रचंड हो जाए और बवंडर बन जाए, तो क्या तुम उसे झेल पाओगे? तुम नहीं झेल पाओगे। अतः लोगों का यह कहना गलत है कि हवा हमेशा अच्छी होती है, या यह कि वह हमेशा खराब होती है, क्योंकि यह उसकी ताकत पर निर्भर करता है। अब, यहाँ पर्वत का क्या काम है? क्या उसका काम हवा को शुद्ध करना नहीं है? पर्वत प्रचंड हवा को घटाकर किसमें बदल देता है? (हवा के हलके झोंके में।) अब जिस परिवेश में लोग रहते हैं, उसमें ज्यादातर लोग प्रचंड हवा महसूस करते हैं या हवा का हलका झोंका? (हवा का हलका झोंका।) क्या यह परमेश्वर के प्रयोजनों में से एक नहीं था, पहाड़ बनाने के उसके इरादों में से एक नहीं था? लोगों के लिए ऐसे परिवेश में रहना कैसा होगा, जहाँ रेत हवा में बेतरतीब ढंग से उड़ती हो, बेरोकटोक और बिना छने? क्या ऐसा हो सकता है कि जहाँ चारों तरफ रेत और पत्थर उड़ते हों, वह भूमि लोगों के रहने लायक न रह जाए? पत्थरों से लोगों को चोट लग सकती है और रेत उन्हें अंधा कर सकती है। हवा लोगों के पैर उखाड़ सकती है या उन्हें आसमान में उड़ाकर ले जा सकती है। घर तबाह हो सकते हैं और हर तरह की आपदाएँ आ सकती हैं। फिर भी क्या प्रचंड हवा के अस्तित्व का कोई मूल्य है? मैंने कहा यह बुरी है, तो किसी को लग सकता है कि इसका कोई मूल्य नहीं है, लेकिन क्या ऐसा ही है? हवा के हलके झोंके में बदलने के बाद क्या उसका कोई मूल्य नहीं है? जब मौसम नम या उमस से भरा होता है, तो लोगों को सबसे अधिक किस चीज़ की आवश्यकता होती है? उन्हें हवा के हलके झोंके की जरूरत होती है, जो उन पर धीरे से बहे, उन्हें तरोताजा कर दे और उनका दिमाग साफ़ कर दे, उनकी सोच तेज कर दे और उनकी मनोदशा सुधार दे। अब, उदाहरण के लिए, तुम लोग एक कमरे में बैठे हुए हो, जहाँ बहुत सारे लोग हैं और हवा घुटन भरी है—तुम्हें सबसे अधिक किस चीज़ की आवश्यकता होगी? (हवा के हलके झोंके की।) ऐसी जगह जाना, जहाँ हवा गंदी और धूल से भरी हो, आदमी की सोच धीमी कर सकता है, उसका रक्त-प्रवाह कम कर सकता है, और उसके मस्तिष्क की स्पष्टता घटा सकता है। लेकिन, थोड़ी-सी हलचल और संचरण हवा को तरोताजा कर देता है, और लोग ताजी हवा में अलग तरह से महसूस करते हैं। हालाँकि छोटी जलधारा आपदा बन सकती है, हालाँकि प्रचंड हवा आपदा बन सकती है, लेकिन जब तक पर्वत है, वह उस खतरे को लोगों को फायदा पहुँचाने वाली ताकत में बदल देगा। क्या ऐसा नहीं है?
कहानी का तीसरा अंश किसके बारे में था? (बड़े पर्वत और विशाल लहर के बारे में।) यह अंश पर्वत के निचले हिस्से में समुद्र-तट पर स्थित है। हम पर्वत, समुद्री फुहार और एक विशाल लहर देखते हैं। इस उदाहरण में पर्वत लहर के लिए क्या है? (एक रक्षक और एक अवरोधक।) वह एक रक्षक और अवरोधक दोनों है। एक रक्षक के रूप में वह समुद्र को अदृश्य होने से बचाता है, ताकि उसमें रहने वाले प्राणी कई गुना बढ़ सकें और फल-फूल सकें। एक अवरोधक के रूप में पर्वत समुद्री जल को उमड़कर बहने और आपदा उत्पन्न करने, लोगों के घरों को नुकसान पहुँचाने और उन्हें नष्ट करने से रोकता है। अतः हम कह सकते हैं कि पर्वत रक्षक और अवरोधक दोनों है।
यह बड़े पर्वत और छोटी जलधारा, बड़े पर्वत और प्रचंड हवा, और बड़े पर्वत और विशाल लहर के बीच अंतर्संबंध का महत्व है; यह उनके द्वारा एक-दूसरे को मजबूत बनाने, एक-दूसरे के साथ प्रतिक्रिया करने और उनके सह-अस्तित्व का महत्व है। परमेश्वर द्वारा बनाई गई ये चीज़ें अपने अस्तित्व में एक नियम और व्यवस्था द्वारा नियंत्रित होती हैं। तो, इस कहानी में तुमने परमेश्वर के कौन-से कार्य देखे? क्या परमेश्वर सभी चीज़ों को बनाने के बाद से उन्हें अनदेखा करता आ रहा है? क्या उसने सभी चीज़ों के कार्य करने के नियम और प्रारूप केवल बाद में उनकी उपेक्षा करने के लिए बनाए? क्या ऐसा हुआ है? (नहीं।) तो फिर क्या हुआ? परमेश्वर अभी भी नियंत्रण करता है। वह जल, हवा और लहरों का नियंत्रण करता है। वह उन्हें उच्छृंखल रूप से नहीं चलने देता और न वह उन्हें उन घरों को नुकसान पहुँचाने या उन्हें बरबाद करने देता है, जिनमें लोग रहते हैं। इस कारण से लोग धरती पर रह सकते हैं, कई गुना बढ़ सकते हैं और फल-फूल सकते हैं। इसका मतलब है कि जब परमेश्वर ने सभी चीजें बनाईं, तो उसने उनके अस्तित्व के लिए नियमों की योजना पहले ही बना ली थी। जब परमेश्वर ने प्रत्येक चीज़ बनाई, तो उसने सुनिश्चित किया कि वह मनुष्य को लाभ पहुँचाएगी, और उसने उस पर नियंत्रण कर लिया, ताकि वह मानव-जाति को परेशान न करे या उसे संकट में न डाले। यदि परमेश्वर का प्रबंधन न होता, तो क्या जल अनियंत्रित रूप से न बह रहा होता? क्या हवा बिना किसी नियंत्रण के न बह रही होती? क्या पानी और हवा किसी नियम का पालन करते हैं? यदि परमेश्वर ने उनका प्रबंधन न किया होता, तो कोई नियम उन्हें नियंत्रित न करता, हवा गरजा करती और जल निरंकुश होता तथा बाढ़ का कारण बनता। यदि लहर पर्वत से अधिक ऊँची होती, तो क्या समुद्र का अस्तित्व रह पाता? नहीं रह पाता। यदि पर्वत लहर के समान ही ऊँचा नहीं होता, तो समुद्र का अस्तित्व न रहता और पर्वत अपना मूल्य एवं महत्व खो देता।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VII' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 169
परमेश्वर ने वह सब-कुछ बनाया जिसका अस्तित्व है, और वह हर उस चीज का संप्रभु है जो मौजूद है; वह इन सबका प्रबंधन करता है और इन सबको पोषण प्रदान करता है, और सभी चीजों के भीतर, वह हर मौजूद चीज के हर वचन और कार्रवाई को देखता और जाँचता है। इसी तरह परमेश्वर मानव-जीवन के हर कोने को भी देखता और जाँचता है। अतः परमेश्वर अपनी सृष्टि के अंतर्गत मौजूद हर चीज़ का हर विवरण अंतरंग रूप से जानता है; हर चीज़ की कार्यप्रणाली, उसकी प्रकृति और उसके जीवित रहने के नियमों से लेकर उसके जीवन के महत्त्व और उसके अस्तित्व के मूल्य तक, परमेश्वर को यह सब समग्र रूप से ज्ञात है। परमेश्वर ने सब चीज़ों को बनाया—तुम लोग क्या सोचते हो कि उसे उन नियमों का अध्ययन करने की ज़रूरत है, जो उन्हें नियंत्रित करते हैं? क्या उनके बारे में जानने-समझने के लिए परमेश्वर को मानवीय ज्ञान या विज्ञान को पढ़ने की ज़रूरत है? (नहीं।) क्या मनुष्यों में कोई ऐसा है, जिसके पास सभी चीज़ों को समझने की वैसी विद्वत्ता और ज्ञान है, जैसा परमेश्वर के पास है? नहीं है ना? क्या कोई खगोलशास्त्री या जीव-विज्ञानी है, जो वास्तव में उन नियमों को समझता है, जिनके द्वारा सभी चीज़ें जीवित रहती और बढ़ती हैं? क्या वे वास्तव में हर चीज़ के अस्तित्व के मूल्य को समझ सकते हैं? (नहीं, वे नहीं समझ सकते।) ऐसा इसलिए है, क्योंकि सभी चीज़ों को परमेश्वर द्वारा बनाया गया था, और मनुष्य चाहे जितना भी ज्यादा और जितनी भी गहराई से इस ज्ञान का अध्ययन कर लें, या जितने भी लंबे समय तक वे इसे जानने का प्रयास कर लें, वे कभी भी परमेश्वर के द्वारा बनाई गई सभी चीज़ों के रहस्य या उद्देश्य की थाह नहीं ले पाएँगे। क्या यह सही नहीं है? अब, हमारी अब तक की चर्चा से क्या तुम लोगों को लगता है कि तुमने "परमेश्वर सभी चीज़ों के लिए जीवन का स्रोत है" उक्ति के सही अर्थ की आंशिक समझ हासिल कर ली है? (हाँ।) मैं जानता था कि जब मैं इस विषय—परमेश्वर सभी चीज़ों के लिए जीवन का स्रोत है—की चर्चा करूँगा, अनेक लोग तुरंत इस दूसरी उक्ति के बारे में सोचने लगेंगे, "परमेश्वर सत्य है, और परमेश्वर अपने वचन का प्रयोग हमें पोषण प्रदान करने के लिए करता है," लेकिन वे इस विषय के अर्थ के इस स्तर से परे कुछ नहीं सोचेंगे। कुछ लोगों को तो यह भी लग सकता है कि परमेश्वर द्वारा मनुष्य के जीवन, दैनिक खान-पान और तमाम दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति मनुष्य के लिए उसके पोषण के रूप में नहीं गिनी जाती। क्या कुछ लोग ऐसे नहीं हैं, जो इस तरह से महसूस करते हैं? फिर भी, क्या परमेश्वर के सृजन में उसका अभिप्राय स्पष्ट नहीं है—कि मानव-जाति का अस्तित्व बना रहे और वह सामान्य रूप से जीवित रहे? परमेश्वर उस परिवेश को बनाए रखता है, जिसमें लोग रहते हैं और वह उनके अस्तित्व के लिए आवश्यक सभी चीज़ों की आपूर्ति करता है। इसके अतिरिक्त, वह सभी चीज़ों का प्रबंधन करता है और उनके ऊपर प्रभुत्व रखता है। इस सबसे मानव-जाति सामान्य रूप से जीवित रह पाती है, फल-फूल पाती है और बढ़ पाती है; इस तरह परमेश्वर अपनी बनाई सभी चीज़ों और मानव-जाति का पोषण करता है। क्या यह सच नहीं है कि लोगों को इन चीज़ों को पहचानने एवं समझने की आवश्यकता है? शायद कुछ लोग कह सकते हैं, "यह विषय स्वयं सच्चे परमेश्वर के बारे में हमारे ज्ञान से बहुत दूर है, और हम इसे नहीं जानना चाहते, क्योंकि हम केवल रोटी के सहारे नहीं जीते, बल्कि परमेश्वर के वचन के सहारे जीते हैं।" क्या यह समझ सही है? (नहीं।) यह गलत क्यों है? यदि तुम्हें केवल परमेश्वर की कही हुई बातों का ही ज्ञान है, तो क्या तुम लोगों को परमेश्वर की पूर्ण समझ हो सकती है? यदि तुम केवल परमेश्वर के कार्य एवं उसके न्याय और ताड़ना को ही स्वीकार करते हो, तो क्या तुम्हें परमेश्वर की पूर्ण समझ हो सकती है? यदि तुम लोग परमेश्वर के स्वभाव एवं परमेश्वर के अधिकार के एक छोटे-से भाग को ही जानते हो; तो क्या तुम इसे परमेश्वर की समझ हासिल करने के लिए काफी समझोगे? (नहीं।) परमेश्वर के कार्य उसके द्वारा सभी चीजों के सृजन के साथ शुरू हुए और वे आज तक जारी हैं—परमेश्वर के कार्य हर समय और हर क्षण प्रकट हैं। अगर कोई यह विश्वास करता है कि परमेश्वर सिर्फ इसलिए अस्तित्व में है, क्योंकि उसने लोगों के एक समूह को बचाने और उस पर अपना कार्य करने के लिए चुना है, और कि किसी अन्य चीज़ का परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है, और न ही उसके अधिकार, उसकी हैसियत, और उसके क्रियाकलापों से कोई लेना-देना है, तो क्या यह समझा जा सकता है कि उसे परमेश्वर का सच्चा ज्ञान है? जिन लोगों को यह तथाकथित "परमेश्वर का ज्ञान" है, उन्हें केवल एकतरफा समझ है, जिसके अनुसार वे परमेश्वर के कर्मों को लोगों के एक समूह तक सीमित कर देते हैं। क्या यह परमेश्वर का सच्चा ज्ञान है? क्या इस तरह का ज्ञान रखने वाले लोग परमेश्वर द्वारा सभी चीज़ों की सृष्टि और उनके ऊपर उसके प्रभुत्व को नकारते नहीं हैं? कुछ लोग इस पर ध्यान नहीं देना चाहते, इसके बजाय वे सोचते हैं : "मैंने सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर का प्रभुत्व नहीं देखा है। इसका मुझसे कोई वास्ता नहीं और मैं इसे समझने की परवाह भी नहीं करता। परमेश्वर जो कुछ चाहता है वह करता है, और इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। मैं केवल परमेश्वर की अगुआई और उसके वचन को स्वीकार करता हूँ, ताकि मुझे परमेश्वर द्वारा बचाया और परिपूर्ण बनाया जा सके। मेरे लिए और कुछ मायने नहीं रखता। जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों की सृष्टि की थी, तब जो भी नियम उसने बनाए या सभी चीज़ों एवं मानव-जाति को पोषण प्रदान करने के लिए जो कुछ वह करता है, उसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है।" यह कैसी बात है? क्या यह विद्रोह का कार्य नहीं है? क्या तुम लोगों में इस तरह की समझ रखने वाला कोई है? मैं जानता हूँ कि तुममें बहुत लोग ऐसे हैं, भले ही तुम लोग ऐसा न कहो। ऐसे लकीर के फकीर लोग हर चीज़ अपने ही "आध्यात्मिक" दृष्टिकोण से देखते हैं। वे परमेश्वर को बाइबल तक सीमित कर देना चाहते हैं, उसके द्वारा कहे गए वचनों तक सीमित कर देना चाहते हैं, अक्षरश: लिखित वचन से निकाले गए अर्थ तक सीमित कर देना चाहते हैं। वे परमेश्वर को और अधिक जानने की इच्छा नहीं करते और वे नहीं चाहते कि परमेश्वर अन्य कार्य करने पर ध्यान दे। इस प्रकार की सोच बचकानी है और हद से ज्यादा धार्मिक भी है। क्या इस तरह के विचार रखने वाले लोग परमेश्वर को जान सकते हैं? उनके लिए परमेश्वर को जानना बहुत कठिन होगा। आज मैंने दो कहानियाँ सुनाई हैं, जिनमें से प्रत्येक कहानी दो भिन्न पहलुओं की ओर ध्यान खींचती है। इनके संपर्क में अभी-अभी आने पर, तुम लोगों को लग सकता है कि ये गहन या कुछ अमूर्त हैं और इन्हें जानना-समझना कठिन है। इन्हें परमेश्वर के कार्यों और स्वयं परमेश्वर से जोड़ना कठिन हो सकता है। फिर भी, परमेश्वर के सभी कार्य और वह सब, जो उसने सभी चीज़ों और संपूर्ण मानव-जाति के मध्य किया है, प्रत्येक व्यक्ति को, हर उस व्यक्ति को जो परमेश्वर को जानना चाहता है, स्पष्ट एवं सटीक रूप से जानना चाहिए। यह ज्ञान तुम्हें परमेश्वर के सच्चे अस्तित्व में तुम्हारे विश्वास को निश्चितता प्रदान करेगा। यह तुम्हें परमेश्वर की बुद्धि, उसके सामर्थ्य, और उसके द्वारा सभी चीज़ों का पोषण करने के तरीके का सटीक ज्ञान भी देगा। इससे तुम लोग परमेश्वर के सच्चे अस्तित्व को स्पष्ट रूप से समझ पाओगे और यह देख सकोगे कि उसका अस्तित्व काल्पनिक नहीं है, मिथक नहीं है, अस्पष्ट नहीं है, सिद्धांत नहीं है, और निश्चित रूप से एक तरह की आध्यात्मिक सांत्वना नहीं है, बल्कि एक वास्तविक अस्तित्व है। इसके अतिरिक्त, इससे लोग यह जान पाएँगे कि परमेश्वर ने हमेशा समस्त सृष्टि और मानव-जाति को पोषण प्रदान किया है; परमेश्वर इसे अपने तरीके से और अपनी लय के अनुसार करता है। तो, ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर ने सभी चीज़ें बनाईं और उन्हें नियम दिए कि वे सभी, उसके पूर्व-निर्धारण के अनुसार, अपने आवंटित कार्य करने, अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी करने, और अपनी भूमिका निभाने में सक्षम हैं; उसके पूर्व-निर्धारण में हर चीज़ का मानव-जाति की सेवा में और मनुष्य के रहने के स्थान और परिवेश में अपना उपयोग है। यदि परमेश्वर ऐसा न करता और मानव-जाति के पास अपने रहने के लिए परिवेश न होता, तो उसके लिए परमेश्वर में विश्वास करना या उसका अनुसरण करना असंभव होता; यह महज एक खोखली बात होती। क्या ऐसा नहीं है?
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VII' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 170
हमने इस वाक्यांश "परमेश्वर सभी चीज़ों के लिए जीवन का स्रोत है" के सम्बन्ध में बहुत से विषयों और विषयवस्तु पर बातचीत की है, किन्तु क्या तुम लोग अपने हृदय के भीतर जानते हो कि परमेश्वर तुम लोगों को अपने वचन की आपूर्ति करने और तुम लोगों पर अपनी ताड़ना एवं अपने न्याय के कार्य को क्रियान्वित करने के अलावा मनुष्यजाति को कौन सी चीज़ें प्रदान करता है? कुछ लोग कह सकते हैं, "परमेश्वर मुझ पर अनुग्रह और आशीष प्रदान करता है; वह मुझे अनुशासन और राहत देता है, वह मुझे हर संभावित तरीके से देखरेख और सुरक्षा देता है।" अन्य लोग कहेंगे, "परमेश्वर मुझे प्रतिदिन भोजन और पेय प्रदान करता है," जबकि कुछ अन्य लोग यहाँ तक कहेंगे कि, "परमेश्वर मुझे सब कुछ देता है।" इन चीज़ों के बारे में जिनके सम्पर्क में लोग अपने दैनिक जीवन के दौरान आ सकते हैं, तुम सभी लोगों के पास कुछ उत्तर हो सकते हैं जो तुम लोगों के स्वयं के भौतिक जीवन अनुभव से सम्बन्धित हैं। परमेश्वर हर एक इंसान को बहुत सी चीज़ें देता है, यद्यपि जिसकी हम यहाँ पर चर्चा कर रहे हैं वह सिर्फ लोगों की दैनिक आवश्यकताओं के दायरे तक सीमित नहीं है, बल्कि यह प्रत्येक व्यक्ति के देखने के क्षेत्र को बढ़ाने और तुम लोगों को चीज़ों को एक बृहत् परिप्रेक्ष्य से देखने देने के आशय से है। चूँकि परमेश्वर सभी चीज़ों के लिए जीवन का स्रोत है, तो वह कैसे सभी चीज़ों के जीवन को बनाए रखता है? ताकि सभी चीज़ें लगातार अस्तित्व में बनी रह सकें, तो उनके अस्तित्व को बनाए रखने और उनके अस्तित्व की व्यवस्थाओं को बनाए रखने के लिए परमेश्वर सभी चीज़ों के लिए क्या लाता है? यही वह मुख्य बिन्दु है जिसके बारे में हम आज चर्चा कर रहे हैं। ... मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग उस विषय को और उन चीज़ों को जिनके बारे में मैं बात करने जा रहा हूँ परमेश्वर के कर्मों से जोड़ सकते हो, और उन्हें किसी ज्ञान के साथ जोड़ या किसी मानवीय संस्कृति या अनुसन्धान से बाँध नहीं सकते हो। मैं सिर्फ परमेश्वर और स्वयं परमेश्वर के बारे में बात कर रहा हूँ। तुम लोगों के लिए यही मेरा सुझाव है। तुम लोग समझे?
परमेश्वर ने मानवजाति को बहुत सी चीज़ें प्रदान की हैं। लोग जो कुछ देख सकते हैं, अर्थात्, जो वे महसूस कर सकते हैं, उसके बारे में बात करके मैं शुरूआत करने जा रहा हूँ। ये ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें लोग अपने भीतर समझ सकते हैं और स्वीकार कर सकते हैं। अतः परमेश्वर ने मनुष्यजाति को क्या आपूर्ति किया है इस पर चर्चा करने के लिए आओ हम पहले भौतिक जगत के साथ शुरूआत करें।
1. वायु
सबसे पहले, परमेश्वर ने वायु को बनाया ताकि मनुष्य साँस ले सके। "वायु" एक पदार्थ है जिसके साथ मनुष्यगण रोज संपर्क कर सकते हैं और यह एक ऐसी चीज़ है जिसके ऊपर मनुष्य हर पल निर्भर रहते हैं, यहाँ तक कि उस समय भी जब वह सोता है? वह वायु जिसका परमेश्वर ने सृजन किया है वह मनुष्यजाति के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैः यह उनकी प्रत्येक श्वास एवं स्वयं उनके जीवन के लिए अति आवश्यक तत्व है। यह सार, जिसे केवल महसूस किया जा सकता है किन्तु देखा नहीं जा सकता है, सभी चीज़ों के लिए परमेश्वर की प्रथम भेंट थी। वायु का सृजन करने के बाद, क्या परमेश्वर ने बस दुकान बन्द कर दी थी? वायु का सृजन करने के बाद, क्या परमेश्वर ने वायु के घनत्व पर विचार किया? क्या परमेश्वर ने वायु के तत्वों का विचार किया? (हाँ।) जब परमेश्वर ने वायु को बनाया तो वह क्या सोच रहा था? परमेश्वर ने वायु को क्यों बनाया, और उसका तर्क क्या था? मनुष्यों को वायु की आवश्यकता होती है, और उन्हें श्वास लेने की आवश्यकता होती है। सबसे पहले, वायु का घनत्व मनुष्यों के फेफड़ों के लिए माकूल होना चाहिए। क्या कोई वायु के घनत्व को जानता है? यह कुछ ऐसा नहीं है जिसे लोगों को जानने की आवश्यकता है; इसे जानने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमें वायु के घनत्व के सम्बन्ध में किसी सटीक संख्या की आवश्यकता नहीं है और एक साधारण अंदाजा होना ही अच्छा है। परमेश्वर ने ऐसे घनत्व के साथ वायु को बनाया जो साँस लेने हेतु मानवीय फेफड़ों के लिए बिल्कुल उपयुक्त होगी, अर्थात्, मनुष्य जब साँस अन्दर लें, तो वे सहज महसूस करें यह उनके शरीर को नुकसान नहीं पहुँचाएगी। वायु के घनत्व के पीछे यही अवधारणा है। तब हम वायु के तत्वों के बारे में बात करेंगे। पहली बात, वायु के तत्व मनुष्यों को नुकसान पहुँचाने वाले विषैले नहीं होते हैं और उससे फेफड़े और शरीर को नुकसान नहीं पहुँचेगा। परमेश्वर को इस सब के बारे में विचार करना था। परमेश्वर को विचार करना था कि वह वायु जो मनुष्य साँस से ले रहा है वह आसानी से भीतर और बाहर आनी-जानी चाहिए, और यह कि, भीतर श्वास लेने के बाद, वायु का तत्व और मात्रा ऐसी होनी चाहिए जिससे रक्त और साथ ही फेफड़ों और शरीर की बेकार हवा सही ढंग से चयापचय हो जाए, और साथ ही यह भी कि उस हवा में कोई ज़हरीले अवयव नहीं होने चाहिए। इन दो मानकों के सम्बन्ध में, मैं तुम लोगों में ज्ञान का ढेर नहीं भरना चाहता हूँ, बल्कि इसके बजाए बस तुम लोगों को यह जानने देना चाहता हूँ कि परमेश्वर के मस्तिष्क में एक विशेष वैचारिक प्रक्रिया थी जब उसने हर एक चीज़ को बनाया था—सर्वश्रेष्ठ। इसके अलावा, जहाँ तक वायु में धूल की मात्रा, पृथ्वी पर धूल, रेत एवं मिट्टी की मात्रा, और साथ ही वह धूल जो आकाश से नीचे आती है उसकी मात्रा की बात है—परमेश्वर के पास इन चीज़ों का प्रबंधन करने के लिए भी परमेश्वर के तरीके हैं, उन्हें दूर करने या उन्हें विघटित करने के तरीके। जबकि धूल की कुछ मात्रा है, किन्तु परमेश्वर ने इसे ऐसा बनाया कि धूल मनुष्य के शरीर एवं श्वसन को नुकसान नहीं पहुँचाए, और कि धूल के कण ऐसे आकार के हों जो शरीर के लिए नुकसानदेह न हों। क्या परमेश्वर का वायु की रचना करना रहस्यमयी नहीं है? क्या यह उसके मुँह से हवा फूँकने के समान ही सरल था? (नहीं।) यहाँ तक कि उसके सरल चीज़ों के सृजन में भी, परमेश्वर का रहस्य, उसका मन, उसके विचार और उसकी बुद्धि सब कुछ स्पष्ट हैं। क्या परमेश्वर यथार्थवादी नहीं है? (हाँ, वह यथार्थवादी है।) अर्थात्, यहाँ तक कि किसी सरल चीज़ का सृजन करने में भी, परमेश्वर मनुष्यजाति के बारे में सोच रहा था। पहली बात, वह वायु जिसे मनुष्य साँस के साथ अंदर लेते हैं वह साफ है, उसके तत्व मनुष्य के श्वास लेने के लिए उपयुक्त हैं और, वे विषैले नहीं हैं और मनुष्य को कोई नुकसान नहीं पहुँचाते हैं, और उसका घनत्व मनुष्य के श्वास लेने के लिए उपयुक्त है। यह वायु, जिसे मनुष्य श्वास के साथ अन्दर एवं बाहर लेते-निकालते हैं, उनके शरीर और उनकी देह के लिए जरूरी है। अतः मनुष्य मुक्त रूप से बिना किसी रूकावट या चिंता के साँस ले सकते हैं। वे सामान्य रूप से साँस ले सकते हैं। वायु वह है जिसका परमेश्वर ने आदि में सृजन किया था और जो मनुष्य के श्वास लेने के लिए अपरिहार्य है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 171
2. तापमान
दूसरी चीज़ है तापमान। हर कोई जानता है कि तापमान क्या होता है। तापमान एक ऐसी चीज़ हैं जिससे मनुष्य के जीवित रहने के लिए उपयुक्त वातावरण को अवश्य सुसज्जित होना चाहिए। यदि तापमान बहुत ही अधिक है, मान लीजिए यदि तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर है, तो क्या मनुष्यों के लिए बहुत क्षीण करने वाला नहीं होगा? क्या उनके जीने के लिए ये बेहद थकाऊ नहीं होगा? क्या होगा यदि तापमान बहुत नीचे है, और शून्य से 40 डिग्री सेल्सियस कम हो जाता है? मनुष्य तब भी इसे सहन नहीं कर पाएँगे। इसलिए, परमेश्वर ने तापमान के इस क्रम को निर्धारित करने में वास्तव में विशेष रूप से ध्यान दिया था। तापमान की जो सीमा मनुष्य शरीर के अनुकूल है वह मूल रूप से -30 डिग्री सेल्सियस से 40 डिग्री सेल्सियस तक है। यह उत्तर से दक्षिण तक तापमान की बुनियादी सीमा है। ठण्डे प्रदेशों में, तापमान संभवतः -50 से -60 डिग्री सेल्सियस तक गिर सकता है। ऐसा प्रदेश एक ऐसा स्थान नहीं हैं जहाँ रहने के लिए परमेश्वर मनुष्य को अनुमति देता है। ऐसे ठण्डे प्रदेश क्यों हैं? इसके बीच परमेश्वर की बुद्धि और उसके इरादे निहित हैं। वह तुम्हें उन स्थानों के निकट जाने की अनुमति नहीं देता है। परमेश्वर उन स्थानों को सुरक्षित रखता है जो बहुत अधिक गर्म और बहुत अधिक ठण्डे हैं, अर्थात् वह मनुष्य को वहाँ रहने की अनुमति देने को तैयार नहीं है। ये मनुष्यजाति के लिए नहीं है। वह पृथ्वी पर ऐसे स्थानों का अस्तित्व क्यों रहने देता है? यदि परमेश्वर मनुष्यजाति को वहाँ रहने या वहाँ अस्तित्व में बने रहने की अनुमति नहीं देता है, तो परमेश्वर उन्हें क्यों बनाता है? इसमें परमेश्वर की बुद्धि निहित है। अर्थात्, मनुष्यों के जीवित रहने के लिए वातावरण के बुनियादी तापमान को भी परमेश्वर के द्वारा न्यायसंगत रूप से समायोजित किया गया है। इसमें भी एक नियम है। परमेश्वर ने इस तापमान को बनाए रखने में सहायता करने, इस तापमान को नियन्त्रित करने के लिए कुछ चीज़ों को बनाया है। इस तापमान को बनाए रखने में कौन सी चीज़ों का उपयोग किया जाता है? सर्वप्रथम, सूर्य लोगों के लिए गर्माहट ला सकता है, किन्तु यदि यह बहुत अधिक गर्म हो तो क्या लोग इसे ले पाएँगे। क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो सूर्य के निकट जाने का साहस करता है? क्या पृथ्वी पर कोई उपकरण है जो सूर्य के करीब जा सकता है? (नहीं।) क्यों नहीं? यह अत्यधिक गर्म है। यह सूर्य के पास जाने से पिघल जाएगा। इसलिए, परमेश्वर ने मनुष्यजाति से सूर्य की दूरी के विशिष्ट उपाय को कार्यान्वित किया है; उसने विशेष कार्य किया है। परमेश्वर के पास इस दूरी के लिए एक मानक है। साथ ही पृथ्वी में उत्तरी ध्रुव एवं दक्षिणी ध्रुव भी हैं। वहाँ पूरी की पूरी हिमनद हैं। क्या मानवजाति हिमनदों पर रह सकती है? क्या यह मनुष्यों के रहने के लिए उपयुक्त है? (नहीं।) नहीं, अतः लोग वहाँ नहीं जायेंगे। चूँकि लोग उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव पर नहीं जाते, इसलिए हिमनद सुरक्षित रहेंगे, और वे अपनी भूमिका निभाने में समर्थ होंगे, जो तापमान को नियन्त्रित करने के लिए है। समझे? यदि उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव न हों और सूर्य हमेशा पृथ्वी पर चमकता रहे, तो पृथ्वी के सभी लोग गर्मी से मर जाएँगे। क्या परमेश्वर मनुष्यों के जीवित बचे रहने हेतु उपयुक्त तापमान को नियन्त्रित करने के लिए मात्र इन दो चीज़ों का ही उपयोग करता है? नहीं, सभी किस्म की जीवित चीज़ें भी हैं, जैसे मैदानों पर घास, जंगलों में विभिन्न प्रकार के वृक्ष और सब प्रकार के पौधे जो सूर्य की गर्मी को सोख लेते हैं और ऐसा करने में, सूर्य की ताप ऊर्जा को इस तरह से तटस्थ कर देते हैं जो उस पर्यावरण के तापमान को विनियमित कर देता है जिसमें मनुष्यजाति रहती है। जल के स्रोत भी हैं, जैसे नदियाँ एवं झीलें। नदियों एवं झीलों की सतह का क्षेत्रफल कुछ ऐसा नहीं है जिसे किसी के द्वारा निर्धारित किया जा सकता है। पृथ्वी पर कितना जल है, कहाँ जल प्रवाहित होता है, जिस दिशा में यह प्रवाहित होता है, जल की मात्रा या प्रवाह की गति को कोई नियन्त्रित नहीं कर सकता है? केवल परमेश्वर ही जानता है। जल के ये विभिन्न स्रोत, जिसमें भूमिगत जल और भूमि के ऊपर की नदियाँ और झीलें शामिल हैं जिन्हें लोग देख सकते हैं, भी उस तापमान को नियन्त्रित कर सकते हैं जिसमें मनुष्य रहते हैं। इसके सबसे ऊपर, हर प्रकार की भौगोलिक संरचनाएँ हैं, जैसे पहाड़, मैदान, घाटियाँ और आर्द्र भूमियाँ है; ये विभिन्न भौगोलिक संरचनाएँ और उनके सतही क्षेत्रफल और आकार सभी तापमान को नियन्त्रित करने में भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, यदि इस पर्वत की परिधि 100 किलोमीटर है, तो इन 100 किलोमीटर का 100-किलोमीटर का प्रभाव होगा। जहाँ तक केवल इसकी बात है कि परमेश्वर ने इस पृथ्वी पर कितनी पर्वत मालाएँ और घाटियाँ बनायी हैं, तो यह ऐसा कुछ है जिसके विषय में परमेश्वर ने पूर्ण रूप से विचार किया है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के द्वारा रचना की गई प्रत्येक चीज़ के अस्तित्व के पीछे एक कहानी है, और ये परमेश्वर की बुद्धि एवं योजनाएँ से युक्त हैं। उदाहरण के लिए, वनों और सभी प्रकार की विभिन्न वनस्पतियों पर विचार करो—जिस विस्तार-क्षेत्र और सीमा-क्षेत्र में वे मौजूद हैं और उगते हैं, वह किसी भी मनुष्य के नियंत्रण से परे है, और इन चीज़ों पर किसी का भी प्रभाव नहीं है। इसी प्रकार, किसी मनुष्य का इस पर भी नियंत्रण नहीं है कि वे कितना जल सोखते हैं, न इस पर कि वे सूर्य से कितनी ताप-ऊर्जा सोखते हैं। ये सभी चीज़ें उस योजना के दायरे के भीतर आती हैं, जिसे परमेश्वर ने तब बनाया था, जब उसने सभी चीज़ों का सृजन किया था।
यह केवल परमेश्वर की सावधानीपूर्वक योजना, विचार और सभी पहलुओं में व्यवस्थाओं के कारण है कि मनुष्य एक वातावरण में एक ऐसे उपयुक्त तापमान के साथ रह सकता है। इसलिए, हर एक चीज़ जिसे मनुष्य अपनी आँखों से देखता है, जैसे कि सूर्य, उत्तरी ध्रुव एवं दक्षिणी ध्रुव जिनके बारे में लोग अक्सर सुनते हैं, और साथ ही भूमि के ऊपर और नीचे तथा जल के विभिन्न जीवित प्राणी, और जंगलों का सतही क्षेत्रफल एवं अन्य प्रकार की वनस्पतियाँ, और जल के स्रोत, विभिन्न जलाशय, कितना समुद्री जल एवं मीठा पानी है, और विभिन्न भौगोलिक वातावरण—परमेश्वर मनुष्य के जीवित बचे रहने के लिए सामान्य तापमान को बरकरार रखने हेतु इन चीज़ों का उपयोग करता है। यह परम सिद्धांत है। यह केवल इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के पास ऐसे विचार हैं जिससे मनुष्य एक वातावरण में ऐसे उपयुक्त तापमान के साथ रहने में समर्थ होता है। यह न तो बहुत अधिक ठण्डा हो सकता है और न ही बहुत अधिक गर्म हो सकता हैः जो स्थान बहुत अधिक गर्म होते हैं और जहाँ तापमान उस सीमा से अधिक होता है जिसे मानव शरीर अनुकूलित कर सकता है वे निश्चित रूप से परमेश्वर के द्वारा तुम्हारे लिए नहीं बनाए गए हैं। जो स्थान बहुत अधिक ठण्डे हैं और जहाँ तापमान बहुत कम हैं; ऐसे स्थान जो, जैसे ही मनुष्य पहुँचेंगे, उन्हें कुछ ही मिनट में इतना जमा देंगे कि वे बोलने के काबिल भी नहीं रहेंगे, उनके दिमाग़ जम जाएँगे, वे सोचने के काबिल नहीं रहेंगे, और बहुत ही जल्द उनका दम घुट जाएगा—ऐसे स्थानों को भी परमेश्वर के द्वारा मनुष्यजाति के लिए नहीं बनाया जाता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य किस प्रकार का अनुसन्धान करना चाहते हैं, या चाहे वे नई खोज करना चाहते हैं या ऐसी सीमाओं को तोड़ना चाहते हैं—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि लोग क्या सोचते हैं, वे कभी भी उन सीमाओं से पार जाने में समर्थ नहीं होंगे जो मानव शरीर अनुकूलित कर सकता है। वे कभी भी परमेश्वर के द्वारा मनुष्यजाति के लिए बनाई गई सीमाओं से छुटकारा पाने में समर्थ नहीं होंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया है, परमेश्वर बहुत अच्छी तरह से जानता है कि किस तापमान तक मानव शरीर अनुकूलित कर सकता है। लेकिन मनुष्य स्वयं नहीं जानते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि मनुष्य नहीं जानते हैं? मनुष्यों ने किस प्रकार की मूर्खता भरी चीज़ें की हैं? क्या कुछ ऐसे लोग नहीं हैं जो हमेशा उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों को चुनौती देना चाहते हैं? वे उस भूमि पर कब्ज़ा करने के लिए हमेशा वहाँ जाना चाहते हैं, ताकि वे वहाँ जड़ जमा सकें और उसका विकास कर सकें। यह एक बेतुकेपन का कृत्य होगा। भले ही तुमने पूरी तरह से ध्रुवों का अुनसन्धान कर लिया हो, तो क्या? भले ही तुम ऐसे तापमानों पर स्वयं को अनुकूलित कर सकते हो, तुम वहाँ रह सकते हो, और तुम उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों के सजीव वातावरण को "सुधार" देते हो, तब भी क्या इससे मानवजाति को किसी तरह का लाभ पहुँच सकता है? मनुष्यजाति के पास एक ऐसा वातावरण है जिसमें वे जीवित रह सकते हैं, परन्तु वे बस शांतिपूर्ण ढंग से और विनम्रता से यहाँ नहीं रह सकते हैं, और उन्हें वहाँ जाना है जहाँ वे जीवित बचे नहीं रह सकते हैं। ऐसा मामला क्यों है? वे इस उपयुक्त तापमान में रहते हुए उकता गए हैं। उन्होंने बहुत से आशीषों का आनन्द उठाया है। इसके अतिरिक्त, इस सामान्य जीवित रहने के वातावरण को मानवजाति के द्वारा काफी हद तक नष्ट कर दिया गया है, इसलिए वे थोड़ा और नुकसान करने या किसी "मनोरथ" में संलग्न होने के लिए उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव पर भी जा सकते हैं, ताकि वे एक प्रकार के "प्रवर्तक" बन सकें। क्या यह मूर्खता नहीं है? अर्थात्, अपने पूर्वज शैतान की अगुवाई में, यह मनुष्यजाति, बेधड़क और निर्दयतापूर्वक उस सुन्दर आवास को नष्ट करते हुए जिसे परमेश्वर ने मानवजाति के लिए बनाया था, लगातार एक के बाद एक बेतुकी चीज़ें करती है। शैतान ने यही किया था। इसके अलावा, यह देखते हुए कि पृथ्वी पर मनुष्यजाति का जीवन थोड़ा खतरे में है, बहुत से लोग चाँद पर जा कर बसने के तरीके ढूँढ़ते हैं, वे बच निकलने के लिए एक मार्ग खोजने के लिए यह देखते हैं कि वे वहाँ रह सकते हैं या नहीं। अंत में, चाँद पर ऑक्सीजन नहीं है। क्या मानवजाति ऑक्सीजन के बिना जीवित बची रह सकती है? चूँकि चाँद में ऑक्सीजन का अभाव है, तो यह ऐसी जगह नहीं है जिस पर मनुष्य ठहर सकता है, और फिर भी मनुष्य वहाँ जाने की लगातार इच्छा बनाए रखता है। यह क्या है? यह आत्म-विनाश है, है ना? यह ऐसा स्थान है जो वायु विहीन है, और तापमान मनुष्य के जीवित बचे रहने के लिए उपयुक्त नहीं है, इसलिए परमेश्वर के द्वारा इसे मनुष्य के लिए नहीं बनाया गया है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 172
3. आवाज़
तीसरी चीज़ क्या है? यह कुछ ऐसी भी चीज़ है जिसे मानवजाति के लिए एक सामान्य जीवित रहने के वातावरण में अवश्य होना चाहिए। यह कुछ ऐसी चीज़ भी है जिसके साथ परमेश्वर को निपटना पड़ता था जब उसने सभी चीज़ों की रचना की थी। यह कुछ ऐसा है जो परमेश्वर के लिए और हर एक के लिए भी अति महत्वपूर्ण है। यदि परमेश्वर ने इसे सँभाला न होता, तो यह मानवजाति के जीवित बचे रहने के लिए एक बहुत बड़ी बाधा बन जाता। कहने का अर्थ है कि इसका मनुष्य के शरीर और जीवन पर बहुत महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता, इस हद तक कि मनुष्यजाति ऐसे वातावरण में जीवित रहने में समर्थ नहीं होती। ऐसा भी कहा जा सकता है कि सभी जीवित प्राणी ऐसे वातावरण में जीवित बचे नहीं रह सकते हैं। तो यह चीज़ क्या है? यह आवाज़ है। परमेश्वर ने हर एक चीज़ को बनाया, और हर चीज़ परमेश्वर के हाथों में जीवित रहती है। परमेश्वर की नज़रों में, सभी चीज़ें गतिमान और जीवित हैं। दूसरे शब्दों में परमेश्वर द्वारा सृजित प्रत्येक चीज़ के अस्तित्व का मूल्य एवं अर्थ है। अर्थात्, उन सभी के अस्तित्व के पीछे उन सभी की एक आवश्यकता है। परमेश्वर की नज़रों में हर चीज़ का एक जीवन है; प्रत्येक चीज़ के पास एक जीवन है; चूँकि वे सभी जीवित हैं, इसलिए वे आवाज़ उत्पन्न करेंगे। उदाहरण के लिए, पृथ्वी लगातार घूम रही है, सूर्य लगातार घूम रहा है, और चाँद भी लगातार घूम रहा है। सभी चीज़ों के बढ़ने और विकास और गति में निरन्तर आवाज़ उत्पन्न हो रही है। पृथ्वी की चीज़ें निरन्तर बढ़ रही हैं, विकसित हो रही हैं और गतिमान हैं। उदाहरण के लिए, पहाड़ों के आधार गतिमान हैं और स्थानांतरित हो रहे हैं, जबकि समुद्र की गहराईयों में सभी जीवित चीज़ें गतिमान हैं और तैर रही हैं। इसका अर्थ है कि ये जीवित चीज़ें और परमेश्वर की नज़रों में सभी चीज़ें, लगातार, सामान्य रूप से, और नियमित रूप से गतिमान हैं। तो इन चीज़ों की गुप्त बढ़ोतरी और विकास और गति क्या लाती है? शक्तिशाली आवाज़ें। पृथ्वी के अलावा, सभी प्रकार के ग्रह भी लगातार गतिमान हैं, और इन ग्रहों की जीवित चीज़ें और इनके जीवधारी निरन्तर बढ़ रहे हैं, और विकसित हो रहे हैं और गतिमान हैं। अर्थात्, सभी चीज़ें जिनमें जीवन है और जिनमें जीवन नहीं है परमेश्वर की निगाहों में वे निरन्तर आगे बढ़ रही हैं, और साथ ही वे आवाज़ भी उत्पन्न कर रही हैं। परमेश्वर भी इन आवाज़ों से निपटा है। तुम लोगों को यह कारण पता होना कि चाहिए कि क्यों इन आवाज़ों से निपटा जाता है, है न? जब तुम किसी हवाई जहाज़ के करीब जाते हो, तो हवाई जहाज़ की गरज़ती हुई आवाज़ तुम्हारे साथ क्या करती है? तुम्हारे कान समय के साथ बहरे हो जायेंगे। क्या तुम्हारा हृदय उसे सह पाएगा? कुछ कमज़ोर हृदय वाले लोग उसे सहन नहीं कर पाएँगे। वास्तव में, यहाँ तक कि जिनके हृदय मज़बूत है वे भी इसे सहन नहीं कर पाएँगे यदि यह लंबे समय तक चलती है। अर्थात्, मनुष्य के शरीर पर आवाज़ का असर, चाहे यह कानों पर हो या हृदय पर, हर एक व्यक्ति के लिए बहुत अधिक महत्वपूर्ण होता है, और ऐसी आवाजें जो बहुत ही ऊँची होती हैं वे लोगों को नुकसान पहुँचाएँगी। इसलिए, जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों की रचना की और उसके बाद जब उन्होंने सामान्य ढंग से कार्य करना शुरू कर दिया, तो परमेश्वर ने इन आवाज़ों को—सभी गतिमान चीज़ों की आवाज़ों को—उचित उपचार के जरिए स्थापित कर दिया। यह भी आवश्यक विचारों में से एक है जो परमेश्वर के पास तब था जब वह मनुष्यजाति के लिए एक वातावरण का सृजन कर रहा था।
सबसे पहले, पृथ्वी की सतह से वायुमण्डल की ऊँचाई आवाज़ों को प्रभावित करेगी। साथ ही, भूमि के बीच खालीपन का आकार भी आवाज़ में हेरफेर करेगा और उसे प्रभावित करेगा। फिर विभिन्न भौगोलिक पर्यावरणों का संगम है, वह भी आवाज़ को प्रभावित करेगा। अर्थात्, परमेश्वर कुछ आवाज़ों से छुटकारा पाने के लिए कुछ निश्चित पद्धतियों का उपयोग करता है, ताकि मनुष्य एक ऐसे वातावरण में ज़िन्दा रह सकें जिसे उनके कान और हृदय सह सकें। अन्यथा आवाज़ें मनुष्यजाति के जीवित रहने में एक बड़ी रूकावट लाएँगी; ये उनके जीवन में एक बड़ी परेशानी पैदा करेंगी। यह उनके लिए एक बड़ी समस्या होगी। अर्थात्, परमेश्वर ने भूमि, वायुमण्डल और विभिन्न प्रकार के भौगोलिक वातावरण को बनाते समय विशेष ध्यान रखा था। इन सभी चीज़ों में परमेश्वर की बुद्धि निहित है। इसके विषय में मनुष्यजाति की समझ को बहुत अधिक विस्तृत होने की आवश्यकता नहीं है। उनको बस यह जानने की आवश्यकता है कि इसमें परमेश्वर का कार्य निहित है। अब तुम लोग मुझे बताओ, परमेश्वर ने जो कार्य किया क्या वो जरूरी था? जो कार्य परमेश्वर ने किया अर्थात, मनुष्यजाति के रहने के वातावरण और उसके सामान्य जीवन को बनाए रखने के लिए बहुत सटीकता से आवाज़ को हेरफेर करना, क्या ये जरूरी था? (हाँ।) यदि यह कार्य आवश्यक था, तो इस दृष्टिकोण से, क्या ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर ने सभी चीज़ों की आपूर्ति के लिए ऐसी पद्धति का उपयोग किया था। परमेश्वर ने मानवजाति को ऐसा शांत वातावरण प्रदान किया था और उसके लिए ऐसा शांत वातावरण सृजित किया, ताकि मानव शरीर ऐसे वातावरण में बिना किसी व्यवधान के बहुत सामान्य तरह से रह सके, और ताकि वह अस्तित्व में बना रहने और सामान्य रूप से जीवन बिताने में समर्थ हो सके। क्या यह एक तरीका है जिससे परमेश्वर मनुष्यजाति के लिए आपूर्ति करता है? क्या यह कार्य जो परमेश्वर ने किया अति महत्वपूर्ण था? (हाँ।) यह बहुत आवश्यक था। तो कैसे तुम लोग इसकी सराहना करते हो? भले ही तुम लोग महसूस नहीं कर सकते हो कि यह परमेश्वर का कार्य था, और न ही तुम लोग जानते हो कि उस समय परमेश्वर ने इसे कैसे किया, तब भी क्या तुम लोग परमेश्वर के द्वारा इस कार्य को करने की आवश्यकता को महसूस कर सकते हो? क्या तुम लोग परमेश्वर की बुद्धि या उस देखरेख और उस विचार को महसूस कर सकते हो जिसे उसने इसमें डाला है? (हाँ।) बस उसे महसूस करने में समर्थ होना ही काफी है। यह पर्याप्त है। बहुत सी ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें परमेश्वर ने सभी चीज़ों के बीच किया है जिन्हें लोग महसूस नहीं कर सकते हैं। मेरा इसका यहाँ उल्लेख करने का उद्देश्य बस तुम लोगों को परमेश्वर के कार्यों के बारे में जानकारी देना है और यह इसलिए है ताकि तुम लोग परमेश्वर को जान सको। ये संकेत तुम लोगों को परमेश्वर को बेहतर ढंग से जानने एवं समझने दे सकते हैं।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 173
4. प्रकाश
चौथी चीज़ लोगों की आँखों से संबंध रखती है : प्रकाश। यह भी बहुत महत्वपूर्ण है। जब तुम चमकता हुआ प्रकाश देखते हो, और उसकी यह चमक एक निश्चित क्षमता तक पहुँचती है, तो वह मनुष्य की आँखों को अंधा कर सकती है। आखिरकार, मनुष्य की आँखें देह की आँखें हैं। वे जलन को नहीं सह सकती हैं। क्या कोई सूर्य को सीधे घूरकर देखने की हिम्मत करता है? कुछ लोगों ने इसकी कोशिश की है, और अगर वे धूप का चश्मा पहने हों, तो वह ठीक काम करता है—लेकिन उसके लिए एक उपकरण के इस्तेमाल की आवश्यकता होती है। बिना उपकरणों के, मनुष्य की नंगी आँखों में सूर्य का सामना करने और उसे सीधे घूरकर देखने का सामर्थ्य नहीं है। हालाँकि, परमेश्वर ने मानवजाति तक प्रकाश पहुँचाने के लिए ही सूर्य को सृजित किया, पर इस प्रकाश का भी उसने ध्यान रखा। सूर्य को सृजित करने के बाद परमेश्वर ने उसे ऐसे ही कहीं रखकर उपेक्षित नहीं छोड़ दिया; परमेश्वर ऐसे काम नहीं करता। वह अपनी क्रियाओं में बहुत सावधान रहता है और उनके बारे में गहराई से विचार करता है। परमेश्वर ने मनुष्यों के लिए आँखें सृजित कीं, ताकि वे देख सकें, और उसने अग्रिम रूप से प्रकाश के पैमाने भी तय कर दिए, जिनसे वे चीज़ों को देख सकते हैं। यदि पर्याप्त प्रकाश नहीं है तो यह काम नहीं करेंगी। यदि इतना अंधकार है कि लोग अपने सामने अपने हाथ को नहीं देख सकते हैं, तो उनकी आँखें अपनी कार्य प्रणाली को गँवा देंगी और किसी काम की नहीं होंगी। अत्यधिक चमक वाली कोई जगह मानवीय आँखों के लिए असहनीय होगी और वे कुछ भी देखने में समर्थ नहीं होंगे। अतः उस वातावरण में जहाँ मनुष्यजाति रहती है, परमेश्वर ने उन्हें प्रकाश की वह मात्रा दी है जो मानवीय आँखों के लिए उचित है। यह प्रकाश लोगों की आँखों को घायल नहीं करेगा या क्षति नहीं पहुँचाएगा। इसके अतिरिक्त, इसमें लोगों की आँखें काम करना बन्द नहीं करेगी। इसीलिए परमेश्वर ने पृथ्वी और सूर्य के चारों ओर बादलों को फैला दिया, और हवा का घनत्व भी सामान्य रूप से उस प्रकाश को छानने में समर्थ है जो लोगों की आँखों या त्वचा को घायल कर सकता है। यह आपस में जुड़ा हुआ है। इसके अतिरिक्त, परमेश्वर के द्वारा सृजित पृथ्वी का रंग भी सूर्य की रोशनी और हर प्रकार की रोशनी को परावर्तित करता है और प्रकाश की चमक के उस भाग से छुटकारा दिलाता है जो मनुष्य की आँखों को असहज कर देता है। उस तरह से, लोगों को बाहर घूमने और अपने जीवन को बिताने में समर्थ होने के लिए हमेशा अत्यंत काले धूप के चश्मे पहनने की आवश्यकता नहीं है। सामान्य परिस्थितियों के अन्तर्गत, मनुष्य की आँखें अपनी दृष्टि के दायरे के भीतर चीज़ों को देख सकती हैं और प्रकाश के द्वारा विघ्न नहीं डाला जाएगा। अर्थात्, यह प्रकाश न तो बहुत अधिक चुभने वाला और न ही बहुत अधिक धुँधला हो सकता हैः अगर यह बहुत धुँधला होगा, तो लोगों की आँखों को क्षति पहुँचेगी और थोड़े-से इस्तेमाल के बाद वे नष्ट हो जाएँगी; अगर यह बहुत चमकीला होगा, तो लोगों की आँखें उसे झेल नहीं पाएँगी। यह प्रकाश जो लोगों को मिलता हैं मनुष्य की आँखों के देखने के लिए उपयुक्त अवश्य होना चाहिए, और परमेश्वर ने विभिन्न तरीकों से प्रकाश से मनुष्य की आँखों को होने वाली क्षति को न्यूनतम कर दिया गया है; और हालाँकि यह प्रकाश मनुष्य की आँखों को लाभ या हानि पहुँचा सकता है, फिर भी यह लोगों को अपनी आँखों का इस्तेमाल जारी रखते हुए उन्हें उनके जीवन के अंत तक पहुँचने देने देने के लिए पर्याप्त है। क्या परमेश्वर ने पूरी तरह से इस पर विचार नहीं किया था? फिर भी दुष्ट शैतान अपने मन में हमेशा ऐसे विचारों को लाए बिना काम करता है। शैतान के साथ प्रकाश हमेशा या तो बहुत चमकीला होता है या बहुत धुँधला। शैतान ऐसे ही काम करता है।
परमेश्वर ने मनुष्यजाति के जीवित रहने की अनुकूलता को बढ़ाने के लिए मानव शरीर के सभी पहलुओं के लिए इन चीज़ों को किया—देखना, सुनना, चखना, साँस लेना, महसूस करना ... ताकि वे सामान्य रूप से जी सकें और निरन्तर ऐसा करते रहे। अर्थात्, परमेश्वर के द्वारा बनाया गया ऐसा मौजूदा रहने का पर्यावरण ही वह रहने का पर्यावरण है जो मनुष्यजाति के जीवित बचे रहने के लिए सबसे अधिक उपयुक्त और हितकारी है। कुछ लोग सोच सकते हैं कि यह बहुत ज़्यादा नहीं है और यह सब कुछ बहुत ही सामान्य है। आवाज़, प्रकाश और वायु ऐसी चीज़ें हैं जिनके बारे में लोग सोचते हैं कि वे उनके साथ पैदा हुए हैं, ऐसी चीज़ें हैं जिनका आनन्द वे पैदा होने के क्षण से ही उठा सकते हैं। परन्तु इन चीजों के तुम्हारे आनंद के पीछे जो कुछ परमेश्वर ने किया वह कुछ ऐसा है जिसे जानने एवं समझने की उन्हें आवश्यकता है। इस बात की परवाह किए बिना कि तुम्हें यह महसूस होता है या नहीं कि इन चीज़ों को समझने या जानने की कोई आवश्यकता है, संक्षेप में, जब परमेश्वर ने इन चीज़ों की रचना की, तब उसने बहुत सोच विचार किया था, उसकी एक योजना थी, उसकी कुछ अवधारणाएँ थीं। उसने ऐसे ही, अकस्मात, या बिना सोचे-विचारे मनुष्यजाति को ऐसे रहने के वातावरण में नहीं रखा। तुम लोग सोच सकते हो कि मैंने इनमें से प्रत्येक चीज़ के बारे में बहुत भव्य रूप से बोला है, किन्तु मेरे दृष्टिकोण से, प्रत्येक चीज़ जो परमेश्वर ने मनुष्यजाति को प्रदान की है वह मानवजाति के ज़िन्दा रहने के लिए आवश्यक है। इसमें परमेश्वर का कार्य है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 174
5. वायु का प्रवाह
पाँचवीं चीज़ क्या है? यह चीज़ प्रत्येक मनुष्य के दैनिक जीवन से बहुत ज़्यादा जुड़ी हुई है, और यह संबंध मज़बूत है। यह कुछ ऐसा है जिसके बिना मानव शरीर इस भौतिक जगत में जीवित नहीं रह सकता है। यह चीज़ वायु का प्रवाह है। "वायु का प्रवाह" ऐसा शब्द है जिसे शायद सभी लोग समझते हैं। तो वायु का प्रवाह क्या है? तुम ऐसा कह सकते हो कि हवा के बहने को "वायु का प्रवाह" कहते हैं। वायु का प्रवाह वह हवा है जिसे मानवीय आँखें नहीं देख सकती हैं। यह एक ऐसा तरीका भी है जिससे गैस बहती है। किन्तु वायु का प्रवाह क्या है जिसके बारे में हम यहाँ बात कर रहे हैं? जैसे ही मैं कहूँगा तुम लोग समझ जाओगे। पृथ्वी घूमती हुई पहाड़ों, महासागरों और सभी चीज़ों को उठाए रहती है, और जब यह घूमती है तो उसमें गति होती है। यद्यपि तुम किसी घूर्णन को महसूस नहीं कर सकते हो, फिर भी उसका घूर्णन वास्तव में विद्यमान है। उसका घूर्णन क्या लाता है? जब तुम दौड़ते हो तो तुम्हारे कानों के आस पास हवा होती है? यदि जब तुम दौड़ते हो तो हवा पैदा हो सकती है, तो जब पृथ्वी घूर्णन करती है हवा की शक्ति क्यों नहीं हो सकती है? जब पृथ्वी घूर्णन करती है, तब सभी चीज़ें गतिमान होती हैं। यह गतिवान होती है और एक निश्चित गति से घूर्णन करती है, जबकि पृथ्वी पर सभी चीज़ें निरन्तर आगे बढ़ रही और विकसित हो रही होती हैं। इसलिए, एक निश्चित गति से गतिमान होने से स्वाभाविक रूप से वायु का प्रवाह उत्पन्न होगा। वायु का प्रवाह ऐसा ही है। क्या यह वायु का प्रवाह कुछ निश्चित हद तक मानव शरीर को प्रभावित करेगा? सामान्य तूफ़ान उतने प्रबल नहीं होते हैं, किन्तु जब वे टकराते हैं, तो लोग स्थिर खड़े नहीं रह सकते हैं और उन्हें हवा में चलने में कठिनाई होती है। यहाँ तक कि एक कदम लेना भी कठिन होता है। यह इतना प्रबल होता है, कि कुछ लोगों को हवा के द्वारा किसी चीज़ के विरुद्ध धकेल दिया जाता है और वे हिल नहीं सकते हैं। यह एक तरीका है जिससे वायु का प्रवाह मानवजाति को प्रभावित कर सकता है। यदि सारी पृथ्वी मैदान से भरी होती, तो मानव शरीर के लिए वायु के उस प्रवाह के सामने टिकना अत्यंत कठिन होता जो पृथ्वी के घूर्णन और सभी चीज़ों के एक निश्चित गति से चलने के द्वारा उत्पन्न होता इसे सँभालना बहुत कठिन होता। यदि मामला ऐसा होता, तो वायु का यह प्रवाह न केवल मानवजाति के लिए क्षति लेकर आता, बल्कि विध्वंस भी लेकर आता। ऐसे पर्यावरण में कोई भी ज़िन्दा बचने में समर्थ नहीं होता। यही कारण है कि विभिन्न पर्यावरणों में ऐसे वायु के प्रवाहों का समाधान करने के लिए परमेश्वर विभिन्न भौगोलिक पर्यावरणों का उपयोग करता है, वायु के प्रवाह कमज़ोर पड़ जाते हैं, अपनी दिशाएँ बदल लेते हैं, अपनी गति बदल लेते हैं, और अपने बल को बदल लेते हैं। इसीलिए लोग पहाड़ों, पर्वत मालाओं, मैदानों, पहाड़ियों, घाटियों, तराईयों, पठारों एवं नदियों जैसे विभिन्न भौगोलिक पर्यावरणों को देख सकते हैं। परमेश्वर वायु के प्रवाह की गति, दिशा और बल को परिवर्तित करने के लिए इन विभिन्न भौगोलिक पर्यावरणों का उपयोग करता है, उसे एक उचित वायु गति, वायु दिशा और वायु बल में घटाने और हेरफेर करने के लिए वह ऐसी पद्धतियों का उपयोग करता है, ताकि मनुष्य के पास एक सामान्य रहने का वातावरण हो सके। क्या ऐसा करना आवश्यक है? (हाँ।) इस तरह का कुछ करना मनुष्य के लिए कठिन प्रतीत होता है, किन्तु यह परमेश्वर के लिए आसान है क्योंकि वह सभी चीज़ों का अवलोकन करता है। उसके लिए मनुष्यजाति के लिए उपयुक्त वायु के प्रवाह वाला एक पर्यावरण बनाना बहुत सरल है, बहुत आसान है। इसलिए, परमेश्वर के द्वारा बनाए गए एक ऐसे पर्यावरण में, सभी चीज़ों के बीच हर एक चीज़ अपरिहार्य है। उन सभी के अस्तित्व का महत्व और आवश्यकता है। हालाँकि, यह दर्शन शैतान और भ्रष्ट कर दी गयी मनुष्यजाति की समझ में नहीं आता है। वे पहाड़ों को समतल भूमि बनाने, घाटियों को भरने, और कंक्रीट के जंगल बनाने के लिए समतल भूमि पर गगनचुम्बी इमारतें बनाने के व्यर्थ स्वप्न देखते हुए, लगातार ढहाते और निर्माण करते रहते हैं। यह परमेश्वर की आशा है कि मनुष्यजाति प्रसन्नता से रह सके, प्रसन्नता से प्रगति कर सके, और प्रत्येक दिन को उस उपयुक्त वातावरण में प्रसन्नता से बिता सके जिसे उसने उनके लिए बनाया है। इसीलिए जब मनुष्यजाति के रहने के लिए वातावरण से निपटने की बात आती है तो परमेश्वर कभी भी असावधान नहीं रहा है। तापमान से लेकर वायु तक, आवाज़ से लेकर प्रकाश तक, परमेश्वर ने जटिल योजनाएँ बनाई हैं और जटिल व्यवस्थाएँ की हैं, ताकि मनुष्यजाति के शरीर और उनके रहने का पर्यावरण प्राकृतिक स्थितियों से किसी व्यवधान के अधीन नहीं होगा, और उसके बजाए मनुष्यजाति जीवित रहने और बहुगुणित होने और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में सभी चीज़ों के साथ सामान्य रूप से जीने में समर्थ होगी। यह सब परमेश्वर के द्वारा सभी चीज़ों और मनुष्यजाति को प्रदान किया जाता है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 175
क्या अब तुम लोगों को परमेश्वर ओर मनुष्यजाति के बीच के बड़े अन्तर का आभास होता है? बस सभी चीज़ों का स्वामी कौन है? क्या मनुष्य है? (नहीं।) तो जिस प्रकार परमेश्वर और मनुष्य सभी चीज़ों के साथ निपटते हैं उसके बीच क्या अन्तर है? (परमेश्वर सभी चीज़ों के ऊपर शासन करता है और उनकी व्यवस्था करता है, जबकि मनुष्य उन सबका आनन्द लेता है।) क्या तुम लोग उन वचनों से सहमत हो? परमेश्वर और मनुष्यजाति के बीच में सबसे बड़ा अन्तर है कि परमेश्वर सभी चीज़ों के ऊपर शासन करता है और सभी चीज़ों की आपूर्ति करता है। परमेश्वर प्रत्येक चीज़ का स्रोत है, और मनुष्यजाति सभी चीज़ों का आनन्द लेती है जबकि परमेश्वर उनकी आपूर्ति करता है। अर्थात्, मनुष्य तब सभी चीज़ों का आनन्द उठाता है जब वह उस जीवन को स्वीकार कर लेता है जिसे परमेश्वर सभी चीज़ों को प्रदान करता है। मनुष्यजाति परमेश्वर के द्वारा सभी चीज़ों के सृजन के परिणामों का आनन्द उठाती है, जबकि परमेश्वर स्वामी है। तो सभी चीज़ों के दृष्टिकोण से, परमेश्वर और मनुष्यजाति के बीच क्या अन्तर है? परमेश्वर सभी चीज़ों के विकास के तरीके को साफ-साफ देख सकता है, और सभी चीज़ों के विकास के तरीके को नियन्त्रित करता है और उस पर वर्चस्व रखता है। अर्थात्, सभी चीज़ें परमेश्वर की दृष्टि में हैं और उसके निरीक्षण के दायरे के भीतर हैं। क्या मनुष्यजाति सभी चीज़ों को देख सकती है? मनुष्यजाति जो देखती है वह सीमित है, ये केवल वही हैं जिन्हें वे अपनी आँखों के सामने देखते हैं। यदि तुम इस पर्वत पर चढ़ते हो, तो जो तुम देखते हो वह यह पर्वत है। पर्वत के उस पार क्या है तुम उसे नहीं देख सकते हो। यदि तुम समुद्र तट पर जाते हो, तो तुम महासागर के इस भाग को देखते हो, परन्तु तुम नहीं जानते हो कि महासागर का दूसरा भाग किसके समान है। यदि तुम इस जंगल में आते हो, तो तुम उन पेड़ पौधों को देख सकते हो जो तुम्हारी आँखों के सामने और तुम्हारे चारों ओर हैं, किन्तु जो कुछ और आगे है उसे तुम नहीं देख सकते हो। मनुष्य उन स्थानों को नहीं देख सकते हैं जो अधिक ऊँचे, अधिक दूर और अधिक गहरे हैं। वे उस सब को ही देख सकते हैं जो उनकी आँखों के सामने हैं और उनकी दृष्टि के क्षेत्र के भीतर है। भले ही मनुष्य एक वर्ष की चार ऋतुओं के तरीके और सभी चीज़ों के विकास के तरीके को जानते हों, फिर भी वे सभी चीज़ों को प्रबंधित करने या उन पर वर्चस्व रखने में असमर्थ हैं। दूसरी ओर, जिस तरह से परमेश्वर सभी चीज़ों को देखता है वह ऐसा है जैसे परमेश्वर किसी मशीन को देखता है जिसे उसने व्यक्तिगत रूप से बनाया है। वह हर एक अवयव को बहुत ही अच्छी तरह से जानेगा। इसके सिद्धांत क्या हैं, इसके तरीके क्या हैं, और इसका उद्देश्य क्या है—परमेश्वर इन सभी चीज़ों को सीधे-सीधे और स्पष्टता से जानता है। इसलिए परमेश्वर परमेश्वर है, और मनुष्य मनुष्य है! भले ही मनुष्य विज्ञान और सभी चीज़ों के नियमों पर अनुसन्धान करता रहे, फिर भी यह एक सीमित दायरे में होता है, जबकि परमेश्वर सभी चीज़ों को नियन्त्रित करता है। मनुष्य के लिए, यह असीमित है। यदि मनुष्य किसी छोटी सी चीज़ पर अनुसन्धान करते हैं जिसे परमेश्वर ने किया था, तो वे उस पर अनुसन्धान करते हुए बिना किसी सच्चे परिणाम को हासिल किए अपना पूरा जीवन बिता सकते हैं। इसीलिए यदि ज्ञान का और परमेश्वर का अध्ययन करने के लिए जो कुछ भी तुमने सीखा है उसका उपयोग करते हो, तो तुम कभी भी परमेश्वर को जानने या समझने में समर्थ नहीं होगे। किन्तु यदि तुम सत्य को खोजने और परमेश्वर को खोजने के मार्ग का उपयोग करते हो, और परमेश्वर को जानने के दृष्टिकोण से परमेश्वर की ओर देखते हो, तो एक दिन तुम स्वीकार करोगे कि परमेश्वर के कार्य और उसकी बुद्धि हर जगह है, और तुम यह भी जान जाओगे कि बस क्यों परमेश्वर को सभी चीज़ों का स्वामी और सभी चीज़ों के लिए जीवन का स्रोत कहा जाता है। तुम्हारे पास जितना अधिक ऐसा ज्ञान होगा, तुम उतना ही अधिक समझोगे कि क्यों परमेश्वर को सभी चीज़ों का स्वामी कहा जाता है। सभी चीज़ें और प्रत्येक चीज़, जिसमें तुम भी शामिल हो, निरन्तर परमेश्वर की आपूर्ति के नियमित प्रवाह को प्राप्त कर रही हैं। तुम भी स्पष्ट रूप से आभास करने में समर्थ हो जाओगे कि इस संसार में, और इस मनुष्यजाति के बीच, परमेश्वर के पृथक और कोई नहीं है जिसके पास सभी चीज़ों के ऊपर शासन करने, उनका प्रबन्धन करने, और उन्हें अस्तित्व में बनाए रखने की ऐसी सामर्थ्य और ऐसा सार हो सकता है। जब तुम ऐसी समझ प्राप्त कर लोगे, तब तुम सच में स्वीकार करोगे कि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है। जब तुम इस स्थिति तक पहुँच जाते हो, तब तुमने सचमुच में परमेश्वर को स्वीकार कर लिया है और तुमने उसे अपना परमेश्वर एवं अपना स्वामी बनने दिया है। जब तुम्हारे पास ऐसी समझ होगी और तुम्हारा जीवन ऐसी स्थिति पर पहुँच जाएगा, तो परमेश्वर अब और तुम्हारी परीक्षा नहीं लेगा और तुम्हारा न्याय नहीं करेगा, और न ही वह तुमसे कोई माँग करेगा, क्योंकि तुम परमेश्वर को समझते हो, उसके हृदय को जानते हो, और तुमने परमेश्वर को सच में अपने हृदय में स्वीकार कर लिया है। सभी चीज़ों पर परमेश्वर के वर्चस्व और प्रबंधन के बारे में इन विषयों पर बातचीत करने के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है। यह लोगों को और अधिक ज्ञान एवं समझ देने के लिए है; मात्र तुमसे स्वीकार करवाने के लिए नहीं, बल्कि तुम्हें परमेश्वर के कार्यकलापों का और अधिक व्यावहारिक ज्ञान एवं समझ देने के लिए है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 176
अनाज, फल और सब्जियाँ, सभी प्रकार के मेवे सभी शाकाहारी खाद्य पदार्थ हैं। भले ही वे शाकाहारी खाद्य पदार्थ हैं, फिर भी उनमें मानव शरीर की आवश्यकताओं को तृप्त करने के लिए पर्याप्त पोषक तत्व हैं। हालाँकि, परमेश्वर ने नहीं कहाः "मनुष्यजाति को इन चीज़ों को देना पर्याप्त है। मनुष्यजाति बस इन चीज़ों को ही खा सकती है।" परमेश्वर यहीं नहीं रूका और इसके बजाए उसने ऐसी चीज़ें तैयार की जो मनुष्यजाति को और भी अधिक स्वादिष्ट लगीं। ये चीज़ें कौन सी हैं? ये विभिन्न किस्मों के माँस और मछलियाँ हैं जिन्हें तुम लोग देख और खा सकते हो। अनेक किस्मों के माँस और मछलियाँ हैं जिन्हें परमेश्वर ने मनुष्यजाति के लिए तैयार किया है। सारी मछलियाँ जल में रहती हैं; उनके मांस का स्वाद उस मांस से भिन्न है जिन्हें भूमि पर उपजाया जाता है और वे मनुष्यजाति को भिन्न-भिन्न पोषक तत्व प्रदान कर सकती हैं। मछलियों के गुण मानव शरीर की ठण्डक एवं गर्मी के साथ भी समायोजित हो सकते हैं, इसलिए वे मनुष्यजाति के लिए अत्यंत लाभदायक हैं। परन्तु जो स्वादिष्ट लगता है उसका अतिभोग नहीं किया जा सकता है। अभी भी वही कहावत हैः परमेश्वर मानवजाति को सही समय पर सही मात्रा देता है, ताकि लोग मौसम एवं समय के अनुरूप सामान्य और उचित तरीके से इन चीज़ों का आनन्द उठा सकें। मुर्गी पालन में क्या शामिल है? मुर्गी, बटेर, कबूतर, इत्यादि। बहुत से लोग बत्तख और कलहंस भी खाते हैं। यद्यपि परमेश्वर ने इस प्रकार के मांस बनाये लेकिन, परमेश्वर की अपने चुने हुए लोगों के लिए, कुछ अपेक्षाएँ थी और उसने अनुग्रह के युग के दौरान उनके आहार पर विशिष्ट सीमाएँ लगा दी। अब यह सीमा व्यक्तिगत स्वाद और व्यक्तिगत समझ पर आधारित है। ये विभिन्न किस्मों के मांस मनुष्य के शरीर को भिन्न-भिन्न पोषक तत्व प्रदान करते हैं, जो प्रोटीन एवं लौह की पुनः-पूर्ति कर सकते हैं, रक्त को समृद्ध कर सकते हैं, मांसपेशियों एवं हड्डियों को मज़बूत कर सकते हैं और अधिक ऊर्जा प्रदान कर सकते हैं। इस बात की परवाह किए बिना कि लोग उन्हें पकाने और खाने के लिए लोग कौन सी विधियों का उपयोग करते हैं, संक्षेप में, एक ओर ये चीज़ें स्वाद और भूख को सुधारने में लोगों की सहायता कर सकती हैं, और दूसरी ओर उनके पेट को तृप्त कर सकती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे मानव शरीरों की पोषण संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं। ये ही वे विचार हैं जो परमेश्वर के पास थे जब उसने मनुष्यजाति के लिए भोजन बनाया था। शाकाहारी भोजन और साथ ही मांस है—क्या यह समृद्ध और भरपूर नहीं है? किन्तु लोगों को समझना चाहिए कि परमेश्वर के मूल इरादे क्या थे जब उसने मनुष्यजाति के लिए सभी खाद्य पदार्थों को बनाया था। क्या यह मनुष्यजाति को इन खाद्य पदार्थों का अतिभोग करने देने के लिए था? क्या होगा यदि लोग अपने आप को इस भौतिक सन्तुष्टि में लिप्त करते हैं? क्या वे अतिपोषित नहीं हो जाते हैं? क्या अतिपोषण मानव शरीर में सभी प्रकार की बीमारियाँ नहीं लाता? (हाँ।) इसीलिए परमेश्वर सही समय पर सही मात्रा को विभाजित करता है और विभिन्न अवधियों और मौसम के अनुसार लोगों को भिन्न-भिन्न खाद्य पदार्थों का आनन्द लेने देता है। उदाहरण के लिए, बहुत गर्म ग्रीष्म ऋतु में रहने के बाद, लोग अपने शरीरों में काफ़ी गर्मी, रोगजनक शुष्कता या नमी जमाकर लेंगे। जब शरद ऋतु आएगी, तो बहुत किस्मों के फल पक जाएँगे, और जब लोग कुछ फलों को खाएँगे तो उनकी नमी हट जाएगी। साथ ही साथ, पशु एवं भेड़ें हृष्ट पुष्ठ हो जाएँगे, तो लोगों को पोषण के लिए कुछ मांस खाना चाहिए। विभिन्न किस्मों के मांस खाने के बाद, लोगों के शरीर में शीत ऋतु की ठण्ड का सामना करने में सहायता करने के लिए ऊर्जा और गर्मी होगी, और उसके परिणामस्वरूपः वे शीत ऋतु को शांतिपूर्वक गुज़ार पाएँगे। मनुष्यजाति के लिए किस समय पर कौन सी चीज़ तैयार करनी है, और किस समय पर कौन सी चीज़ें उगने देनी हैं, कौन से फल लगने देने हैं और पकने देने हैं—इन सबको परमेश्वर के द्वारा बहुत सोचसमझ कर नियन्त्रित और पूरा किया जाता है। यह इस बारे में विषय है कि "परमेश्वर ने किस प्रकार मनुष्यजाति के दैनिक जीवन के लिए आवश्यक भोजन तैयार किया था।" हर प्रकार के भोजन के अलावा, परमेश्वर मनुष्यजाति को जल के स्रोतों की आपूर्ति भी करता है। भोजन के बाद लोगों को कुछ जल पीना पड़ता है। क्या मात्र फल खाना पर्याप्त है? लोग केवल फल खा कर ही खड़े होने में समर्थ नहीं होंगे, और इसके अतिरिक्त, कुछ मौसमों में कोई फल नहीं होते हैं। तो मनुष्यजाति की पानी की समस्या का समाधान कैसे किया जा सकता है? परमेश्वर के द्वारा झीलों, नदियों और सोतों सहित भूमि के ऊपर और भूमि के नीचे जल के अनेक स्रोतों को तैयार करने के द्वारा। जल के इन स्रोतों से ऐसी स्थितियों में पानी पीया जा सकता है जहाँ कोई संदूषण, या मानव प्रसंस्करण या क्षति नहीं हो। अर्थात्, मनुष्यजाति के भौतिक शरीरों के जीवन के लिए खाद्य पदार्थ के स्रोतों के सम्बन्ध में, परमेश्वर ने बिल्कुल सटीक, बिल्कुल परिशुद्ध और बिल्कुल उपयुक्त सामग्रियाँ बनायी हैं, ताकि लोगों के जीवन समृद्ध और भरपूर हो जाएँ और किसी चीज़ का अभाव न हो। यह कुछ ऐसा है जिसे लोग महसूस कर सकते हैं और देख सकते हैं।
इसके अतिरिक्त, सभी चीज़ों में, जो परमेश्वर ने कुछ पौधों, पशुओं और विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियों को बनाया जो विशेष रूप से मानव देह में होने वाली चोटों या बिमारियों को चंगा करने के लिए हैं। उदाहरण के लिए, यदि तुम जल जाते हो या दुर्घटनावश तुम गर्म पानी से झुलस जाते हो, तो तुम क्या करोगे? क्या तुम इसे पानी से साफ़ कर सकते हो? क्या तुम बस कहीं से कपड़े का एक टुकड़ा पा सकते हो और इसे लपेट सकते हो? हो सकता है कि उस तरह से यह मवाद से भर जाए या संक्रमित हो जाए। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हें बुखार हो जाता है, सर्दी लग जाती है, किसी शारीरिक काम से कोई चोट लग जाती है, ग़लत चीज़ खाने से पेट की कोई बीमारी हो जाती है, या रहने की आदतों या भावनात्मक मामलों के कारण कुछ बीमारियाँ पनप जाती हैं, जैसे कि वाहिका सम्बन्धी बीमारियाँ, मनोवैज्ञानिक स्थितियाँ या अन्दरूनी अंगों की बीमारियाँ—इन सब का उपचार करने के लिए उनके अनुरूप कुछ पौधे हैं। ऐसे पौधे हैं जो रूकावट को दूर कर रक्त के संचार को सुधारते हैं, दर्द को दूर करते हैं, रक्तस्राव को रोकते हैं, संज्ञाहीनता प्रदान करते हैं, सामान्य त्वचा पुनः-प्राप्त करने में लोगों की सहायता करते हैं, शरीर में रक्त की गतिहीनता को दूर करते हैं, और शरीर के विषों को निकालते हैं। संक्षेप में, इन सभी को दैनिक जीवन में उपयोग किया जा सकता है। वे लोगों के लिए उपयोगी हैं और उन्हें परमेश्वर के द्वारा मानव शरीर हेतु आवश्यकता होने की स्थिति में बनाया गया है। इनमें से कुछ को मनुष्य के द्वारा अनजाने में खोज लिए जाने की परमेश्वर के द्वारा अनुमति दी गयी है, जबकि जबकि अन्यों को उन लोगों द्वारा जिन्हें परमेश्वर ने ऐसा करने के लिए चुना था, या उस विशेष घटना के परिणामस्वरूप जो परमेश्वर ने आयोजित की थी, खोजा गया था। उनकी खोज के बाद, मनुष्यजाति उन्हें आनेवाली पीढ़ियों को सोंपेगी, और बहुत से लोग उनके बारे में जानेंगे। इस तरह, इन पौधों के परमेश्वर के सृजन का मूल्य और अर्थ है। संक्षेप में, ये सभी चीज़ें परमेश्वर की ओर से हैं और इन्हें उस समय तैयार किया गया और रोपा गया था जब उसने मनुष्यजाति के लिए एक रहने का पर्यावरण बनाया था। ये सभी चीज़ें अत्यंत आवश्यक हैं। क्या मनुष्यजाति की तुलना में परमेश्वर के विचार बेहतर तरीके से सोचे गए थे? जब तुम वह सब देखते हो जो परमेश्वर ने बनाया है, तो क्या तुम परमेश्वर के व्यावहारिक पक्ष को महसूस कर पाते हो? परमेश्वर ने गुप्तरूप से कार्य किया था। जब मनुष्य अभी तक इस पृथ्वी पर नहीं आया था, तब इस मनुष्यजाति के सम्पर्क में आने से पहले, परमेश्वर ने इन सभी को पहले से ही बना लिया था। जो कुछ भी उसने किया था वह मनुष्यजाति के वास्ते था, उनके जीवित बचे रहने के वास्ते था और मनुष्यजाति के अस्तित्व के विचार के वास्ते था, ताकि मनुष्यजाति इस समृद्ध और भरपूर भौतिक संसार में खुशी से रह सके जिसे परमेश्वर ने उनके लिए बनाया है, उन्हें भोजन एवं वस्त्रों की चिन्ता नहीं करनी पड़े, और उन्हें किसी चीज़ का अभाव न हो। मनुष्यजाति ऐसे पर्यावरण में निरन्तर सन्तान उत्पन्न करती और जीवित बची रहती है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 177
शुरूआत में, हमने मनुष्यजाति के रहने के पर्यावरण के बारे में और जो कुछ परमेश्वर ने किया, तैयार किया, और इस पर्यावरण के लिए वह निपटा उस बारे में, और साथ ही परमेश्वर के द्वारा मनुष्यजाति के लिए तैयार की गई सभी चीज़ों के बीच सम्बन्धों के बारे में और कैसे सभी चीज़ों के द्वारा मनुष्यजाति को नुकसान पहँचाने से रोकने के लिए परमेश्वर इन सम्बन्धों से निपटा उस बारे में बात की थी। परमेश्वर ने मनुष्यजाति के पर्यावरण पर उन विभिन्न तत्वों द्वारा उत्पन्न किए गए नकारात्मक प्रभावों का भी समाधान किया जो सभी चीज़ों के द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं, उसने सभी चीज़ों को उनकी कार्यशीलता को अधिकतम करने दिया, और मनुष्यजाति के लिए एक अनुकूल पर्यावरण, और सभी लाभदायक तत्व लाया ताकि वह ऐसे पर्यावरण के अनुरूप बनने तथा प्रजनन चक्र को और जीवन को सामान्य तरीके से निरंतर जारी रखने में सक्षम बन सके। अगली चीज़ मानव शरीर के लिए आवश्यक भोजन थी—दैनिक खाद्य और पेय पदार्थ। मनुष्यजाति के जीवित बचे रहने के लिए यह भी एक आवश्यक शर्त है। अर्थात्, मानव शरीर मात्र साँस ले कर, बस धूप या वायु के साथ, या मात्र उपयुक्त तापमानों के साथ ही जीवित नहीं रह सकता है। उन्हें अपना पेट भरने की भी आवश्यकता होती है। उनके पेट को भरने के लिए इन चीज़ों को भी पूरी तरह परमेश्वर के द्वारा मनुष्यजाति के लिए तैयार किया गया था—यह मनुष्यजाति के भोजन का स्रोत है। इन समृद्ध और भरपूर पैदावार—मनुष्यजाति के खाद्य एवं पेय पदार्थ के स्रोत—को देखने के पश्चात्, क्या तुम कह सकते हो कि परमेश्वर ही मनुष्यजाति और सभी चीज़ों के लिए आपूर्ति का स्रोत है? यदि जब उसने सभी चीज़ों का सृजन किया था तब परमेश्वर ने केवल पेड़ों एवं घास को या सिर्फ विभिन्न जीवित प्राणियों को ही बनाया होता, यदि उन विभिन्न जीवित प्राणी और पौधों में सभी पशुओं और भेड़ों के खाने के लिए होते, या ज़ेब्रा, हिरन एवं विभिन्न प्रकार के पशु होते, उदाहरण के लिए, सिंह, ज़िराफ़ तथा हिरन जैसी चीज़ों को खाते हैं, बाघ मेम्नों एंव सुअरों जैसी चीज़ों को खाते हैं—किन्तु मनुष्य के खाने के लिए एक भी उपयुक्त चीज़ नहीं होती, तो क्या उससे काम चलता? उससे काम नहीं चलता। मनुष्यजाति निरन्तर जीवित बचे रहने में समर्थ नहीं होती। क्या होता यदि मनुष्य केवल पेड़ों के पत्ते ही खाते? क्या उससे काम चलता? क्या मनुष्य उस घास को खा सकते थे जिसे भेड़ों के लिए बनाया गया है? यदि वे थोड़ी सी खाने की कोशिश करते तो ठीक रहता, किन्तु यदि वे लम्बे समय तक इसे खाते रहते, तो वे ज़्यादा समय तक ज़िन्दा नहीं रहते। और यहाँ कुछ चीज़ें भी हैं जो पशुओं के द्वारा खायी जा सकती हैं, परन्तु यदि मनुष्य उन्हें खाएँगे तो वे विषाक्त हो जाएँगी। ऐसी कुछ विषैली चीज़ें हैं जिन्हें पशु बिना प्रभावित हुए खा सकते हैं, परन्तु मनुष्य ऐसा नहीं कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर ने मनुष्यों का सृजन किया, इसलिए परमेश्वर मानव शरीर के सिद्धांतों और संरचना को और मनुष्यों को किस चीज़ की आवश्यकता है इस बात को बहुत अच्छी तरह से जानता है। परमेश्वर इसकी बनावट और इसके तत्वों के बारे में, और इसे किस चीज़ की आवश्यकता है, और साथ ही मानव शरीर के भीतरी अंग किस प्रकार कार्य करते हैं, वे कैसे अवशोषित करते है, निकालते हैं और चयापचय करते हैं, इस बारे में पूर्णतः स्पष्ट है। लोग इस पर स्पष्ट नहीं हैं और कई बार आँख बंदकर खाते और अनुपूरक लेते हैं। वे अत्यधिक अनूपूरक लेते हैं और अंत में असन्तुलन उत्पन्न करते हैं। यदि तुम सामान्य रूप से इन चीज़ों को खाते और इनका आनंद लेते हो जिन्हें परमेश्वर ने तुम्हारे लिए तैयार किया है, तो तुम्हारे साथ कुछ ग़लत नहीं होगा। भले ही कभी-कभी तुम ख़राब मनोदशा में होते हो और तुम्हें रक्त की गतिहीनता होती है, फिर भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। तुम्हें बस एक खास प्रकार के पौधे को खाने की आवश्यकता है और रक्त की गतिहीनता ठीक हो जाएगी। परमेश्वर ने इन सभी चीज़ों को तैयार किया है। इसलिए, परमेश्वर की नज़रों में, मनुष्यजाति किसी भी अन्य जीवधारी से कहीं ऊँची है। परमेश्वर ने सभी प्रकार के पौधों के लिए जीवित रहने के पर्यावरण तैयार किए हैं और सभी प्रकार के पशुओं के लिए भोजन एवं जीवित रहने के पर्यावरण तैयार किए हैं, किन्तु केवल मनुष्यजाति की अपेक्षाएँ ही उनके स्वयं के रहने के पर्यावरण के प्रति बहुत अधिक कठोर हैं और उपेक्षा किए जाने में सबसे अधिक असहनीय हैं। अन्यथा, मनुष्यजाति निरन्तर विकसित होने और प्रजनन करने और सामान्य रूप से जीने में समर्थ नहीं होती। परमेश्वर अपने हृदय में इसे अच्छी तरह से जानता है। जब परमेश्वर ने इस चीज़ को किया, तब उसने किसी भी अन्य चीज़ की अपेक्षा इस पर अधिक ध्यान दिया था। शायद तुम अपने जीवन में कुछ मामूली चीज़ों के, जिन्हें तुम देख सकते हो और उनका आनंद उठा सकते हो, महत्व को महसूस नहीं कर पा रहे, या कोई ऐसी चीज़, जिसे तुम अपने जीवन में देख सकते हो और जिसका आनंद उठा सकते हो और जो तुम्हारे पास जन्म से है, लेकिन परमेश्वर ने बहुत पहले से या गुप्त रूप से तुम्हारे लिए तैयारी कर रखी है। परमेश्वर ने उन सभी नकारात्मक कारकों को अधिकतम संभव सीमा तक हटा दिया है और उनका समाधान कर दिया है जो मनुष्यजाति के लिए प्रतिकूल हैं और मानव शरीर को नुकसान पहुँचा सकते हैं। इससे क्या स्पष्ट होता है? क्या इससे मनुष्यजाति के प्रति परमेश्वर का रवैया स्पष्ट होता है जब उसने इस बार उनका सृजन किया था? यह रवैया क्या था? परमेश्वर का रवैया सख़्त और गम्भीर था, और उसने परमेश्वर के अलावा किन्हीं भी कारकों या स्थितियों या शत्रुओं के बल के किसी हस्तक्षेप को सहन नहीं किया था। इससे, तुम जब उसने मनुष्यजाति का सृजन किया था तब और इस बार मनुष्यजाति के उसके प्रबन्धन में परमेश्वर के रवैये को देख सकते हो। परमेश्वर का रवैया क्या है? रहने और जीवित बचे रहने के पर्यावरण से जिसका मनुष्यजाति आनन्द उठाती है और साथ ही उनके दैनिक खाद्य और पेय पदार्थ और दैनिक आवश्यकताओं के माध्यम से, हम मनुष्यजाति के प्रति उत्तरदायित्व की परमेश्वर के रवैये को जो उसके पास तब से है जबसे उसने उनका सृजन किया था, और साथ ही इस बार मनुष्यजाति को बचाने के परमेश्वर के दृढ़ निश्चय को देख सकते हैं। क्या हम इन चीज़ों के माध्यम से परमेश्वर की प्रमाणिकता को देख सकते हैं? क्या हम परमेश्वर की अद्भुतता को देख सकते हैं? क्या हम परमेश्वर की अगाधता को देख सकते हैं? क्या हम परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को देख सकते हैं? परमेश्वर संपूर्ण, मनुष्यजाति को आपूर्ति करने के लिए, और साथ ही सभी चीज़ों की आपूर्ति करने के लिए केवल अपने सर्वशक्तिमान और विवेकी मार्गों का उपयोग करता है। जिसके बारे में बोलते हुए, मेरे इतना कुछ कहने के बाद, क्या तुम लोग यह कह सकते हो कि परमेश्वर सभी चीज़ों के लिए जीवन का स्रोत है? (हाँ।) यह निश्चित है। क्या तुम्हें कोई संदेह हैं? (नहीं।) परमेश्वर के द्वारा सभी चीज़ों की आपूर्ति यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि वह सभी चीज़ों के लिए जीवन का स्रोत है, क्योंकि वह उस आपूर्ति का स्रोत है, जिसने सभी चीज़ों को अस्तित्व में बने रहने, जीवित रहने, प्रजनन करने और जारी रहने में सक्षम किया है, और स्वयं परमेश्वर के अलावा और कोई स्रोत नहीं है। परमेश्वर सभी चीज़ों की सभी आवश्यकताओं की और मनुष्यजाति की भी सभी आवश्यकताओं की आपूर्ति करता है, चाहे वे लोगों की सर्वाधिक बुनियादी पर्यावरणीय आवश्यकताएँ हों, उनके दैनिक जीवन की आवश्यकताएँ हों, या सत्य संबंधी आवश्यकताएँ हों, जिसकी वह लोगों की आत्माओं के लिए आपूर्ति करता है। सभी दृष्टिकोणों से, जब परमेश्वर की पहचान और मनुष्यजाति के लिए उसकी हैसियत की बात आती है, तो केवल स्वयं परमेश्वर ही सभी चीज़ों के लिए जीवन का स्रोत है। क्या यह सही है? (हाँ।) अर्थात, परमेश्वर इस भौतिक संसार का शासक, स्वामी और आपूर्तिकर्ता है जिसे लोग अपनी आँखों से देख सकते हैं और महसूस कर सकते हैं। मनुष्यजाति के लिए, क्या यह परमेश्वर की पहचान नहीं है? यह पूरी तरह सत्य है। इसलिए जब तुम आकाश में पक्षियों को उड़ते हुए देखते हो, तो तुम्हें जानना चाहिए कि परमेश्वर ने उन चीज़ों को बनाया जो उड़ सकती हैं। परन्तु ऐसी जीवित चीज़ें हैं जो पानी में तैर सकती हैं, और वे भिन्न-भिन्न तरीकों से भी जीवित रह कर बची रहती हैं। पेड़ और पौधे जो मिट्टी में रहते हैं वे बसंत ऋतु में अंकुरित होते हैं और उनमें फल लगते हैं और शरद ऋतु में पत्ते झाड़ देते हैं, और पतझड़ की ऋतु में अपनी पत्तियों को छोड़ देते हैं, और शीत ऋतु तक सभी पत्तियाँ गिर जाती हैं और वे शीत ऋतु से गुज़रते हैं। यह उनके जीवित बचे रहने का तरीका है। परमेश्वर ने सभी चीज़ों का सृजन किया, जिनमें से हर एक विभिन्न रूपों और विभिन्न तरीकों के माध्यम से जीता है और अपनी सामर्थ्य और जीवन के रूप को प्रदर्शित करने के लिए विभिन्न पद्धतियों का उपयोग करता है। चाहे कोई सी भी पद्धति क्यों न हो, यह सब परमेश्वर के शासन के अधीन है। जीवन के सभी रूपों और जीवित प्राणियों के ऊपर परमेश्वर के शासन का क्या उद्देश्य है? क्या यह मनुष्यजाति के जीवित बचे रहने के वास्ते है? (हाँ।) वह मनुष्यजाति के जीवित बचे रहने के वास्ते जीवन की सभी व्यवस्थाओं को नियन्त्रित करता है। यह दिखाता है कि परमेश्वर के लिए बस मनुष्यजाति का जीवित बचे रहना कितना महत्वपूर्ण है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 178
परमेश्वर मात्र उसके चुने हुए लोगों का ही परमेश्वर नहीं है। तुम वर्तमान में परमेश्वर का अनुसरण करते हो, और वह तुम्हारा परमेश्वर है, किन्तु परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोगों से बाहर के लोगों के लिए, क्या परमेश्वर उनका परमेश्वर है? क्या परमेश्वर अपने अनुयाइयों को छोड़ अन्य लोगों का भी परमेश्वर है? क्या परमेश्वर सभी चीज़ों का परमेश्वर है? (हाँ।) तो क्या परमेश्वर केवल उन्हीं लोगों पर अपना कार्य और अपने क्रियाकलापों को करता है जो उसका अनुसरण करते हैं? (नहीं।) उसका उद्देश्य क्या है? लघुतम स्तर पर, उसके कार्य का दायरा पूरी मनुष्यजाति और सभी चीज़ों को घेरता है। उच्चतम स्तर पर, यह समस्त ब्रह्माण्ड को घेरता है जिसे लोग नहीं देख सकते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि परमेश्वर सम्पूर्ण मनुष्यजाति के बीच में अपना कार्य करता है और अपनी कार्यकलापों को कार्यान्वित करता है। यह लोगों को स्वयं परमेश्वर के बारे में जानने देने के लिए पर्याप्त है। यदि तुम परमेश्वर को जानना चाहते हो और सचमुच में उसे जानते और समझते हो, तो परमेश्वर के कार्य की केवल तीन अवस्थाओं तक ही सीमित मत रहो, और मात्र उस कार्य की कहानियों तक ही सीमित मत रहो जिसे परमेश्वर ने एक बार किया था। यदि तुम उसे उस तरह से जानने की कोशिश करते हो, तो तुम परमेश्वर को एक निश्चित सीमा तक सीमित कर रहे हो। तुम परमेश्वर को अत्यंत महत्वहीन के रूप में देख रहे हो। ऐसा करना लोगों को कैसे प्रभावित करता है? तुम कभी भी परमेश्वर की अद्भुतता और उसकी सर्वोच्चता को नहीं जान पाओगे, और तुम कभी भी परमेश्वर की सामर्थ्य और सर्वशक्तिमत्ता और उसके अधिकार के दायरे को नहीं जान पाओगे। ऐसी समझ इस सत्य को स्वीकार करने की तुम्हारी योग्यता को कि परमेश्वर सभी चीज़ों का शासक है, और साथ ही परमेश्वर की सच्ची पहचान एवं हैसियत के बारे में तुम्हारे ज्ञान को प्रभावित करेगी। दूसरे शब्दों में, यदि परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ का दायरा सीमित है, तो जो तुम प्राप्त कर सकते हो वह भी सीमित होता है। इसीलिए तुम्हें अवश्य दायरे को बढ़ाना और अपने क्षितिज़ को खोलना चाहिए। चाहे यह परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के प्रबन्धन और परमेश्वर के शासन का, या परमेश्वर के द्वारा शासित और प्रबंधित सभी चीज़ों का दायरा हो, तुम्हें इसे पूरी तरह जानना चाहिए और उसमें परमेश्वर के कार्यकलापों को जानना चाहिए। समझ के ऐसे मार्ग के माध्यम से, तुम अचेतन रूप में महसूस करोगे कि परमेश्वर उनके बीच सभी चीज़ों पर शासन कर रहा है, उनका प्रबन्धन कर रहा है और उनकी आपूर्ति कर रहा है। इसके साथ-साथ, तुम सच में महसूस करोगे कि तुम सभी चीज़ों के एक भाग हो और सभी चीज़ों के एक सदस्य हो। चूँकि परमेश्वर सभी चीज़ों की आपूर्ति करता है, इसलिए तुम भी परमेश्वर के शासन और आपूर्ति को स्वीकार करते हो। यह एक तथ्य है जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता है। सभी चीज़ें अपने स्वयं के नियमों के अधीन हैं, जो परमेश्वर के शासन के अधीन है, और सभी चीज़ों के पास जीवित बचे रहने के अपने स्वयं के नियम हैं, जो परमेश्वर के शासन के भी अधीन है, जबकि मनुष्यजाति का भाग्य और जो उनकी आवश्यकता है वे भी परमेश्वर के शासन और उसकी आपूर्ति से नज़दीकी से संबंधित हैं। इसीलिए, परमेश्वर के प्रभुत्व और शासन के अधीन, मनुष्यजाति और सभी चीज़ें परस्पर संबंधित हैं, एक दूसरे पर निर्भर हैं, और परस्पर गुंथे हुए हैं। यह सभी चीज़ों के सृजन का परमेश्वर का प्रयोजन और मूल्य है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 179
जब से परमेश्वर ने सभी चीज़ों को बनाया है, वे व्यवस्थित रूप से उसके बनाए नियमों के अनुसार संचालित और निरन्तर विकसित हो रही हैं। उसकी निगाहों और शासन के अधीन, मानवजाति का अस्तित्व बरकरार है और सभी चीज़ें नियमित रूप से विकसित हो रही हैं। कोई भी चीज़ इन नियमों को बदलने या नष्ट करने में सक्षम नहीं है। परमेश्वर के शासन के कारण ही सभी प्राणी वंश-वृद्धि कर सकते हैं, और उसके शासन और प्रबंधन के कारण सभी प्राणी जीवित रह सकते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि परमेश्वर के शासन के अधीन, सभी प्राणी जन्म लेते हैं, फलते-फूलते हैं, गायब हो जाते हैं, और एक सुव्यवस्थित विधि से पुनः शरीर धारण करते हैं। जब बसंत का आगमन होता है, हल्की-हल्की बारिश ताज़े मौसम का एहसास लेकर आती है और पृथ्वी को नम कर देती है। ज़मीन नर्म पड़ने लगती है, मिट्टी के भीतर से घास निकल आती है और अंकुरित होना शुरू करती है, और वृक्ष धीरे-धीरे हरे हो जाते हैं। ये सभी जीवित चीज़ें पृथ्वी पर नई जीवन-शक्ति लेकर आती हैं। यही सभी प्राणियों के अस्तित्व में आने और फलने-फूलने का दृश्य है। सभी प्रकार के पशु बसंत की गर्माहट को महसूस करने के लिए अपनी मांदों से बाहर निकल आते हैं और एक नए वर्ष की शुरुआत करते हैं। सभी प्राणी गर्मियों की धूप सेंकते हैं और मौसम के द्वारा लाई गई गर्माहट का आनंद लेते हैं। वे तीव्रता से बढ़ते हैं। पेड़, घास, और सभी प्रकार के पौधे खिलने और फल धारण करने तक बहुत तेजी से बढ़ते हैं। ग्रीष्म ऋतु के दौरान मनुष्य समेत सभी प्राणी बहुत व्यस्त रहते हैं। पतझड़ में, बारिश शरद ऋतु की ठंडक लेकर आती है, और सभी प्रकार के जीव फसलों की कटाई के मौसम के आगमन को महसूस करने लगते हैं। सभी जीव फल उत्पन्न करते हैं, और मनुष्य शीत ऋतु की तैयारी में भोजन की व्यवस्था करने के लिए विभिन्न प्रकार के फल इकट्ठा करना शुरू कर देते हैं। शीत ऋतु में ठंड के आने के साथ सभी जीव धीरे-धीरे आराम करना एवं शांत होना प्रारंभ कर देते हैं, और साथ ही लोग भी इस मौसम के दौरान विराम ले लेते हैं। बसंत का ग्रीष्म में, ग्रीष्म का शरद, फिर शरद का शीत में बदलना—ऋतुओं के ये सभी परिवर्तन परमेश्वर द्वारा स्थापित नियमों के अनुसार होते हैं। वह इन नियमों का उपयोग करके सभी चीज़ों और मानवजाति की अगुवाई करता है और उसने मानवजाति के लिए एक समृद्ध और खुशनुमा जीवन-शैली निर्मित की है, जीवित रहने के लिए एक ऐसा वातावरण तैयार किया है जिसमें अलग-अलग तापमान और ऋतुएँ हैं। जीवित रहने हेतु इन सुव्यवस्थित वातावरण के अंतर्गत, मनुष्य भी सुव्यवस्थित तरीके से जीवित रह सकता है और वंश-वृद्धि कर सकता है। मनुष्य इन नियमों को नहीं बदल सकता और न ही कोई व्यक्ति या प्राणी इन्हें तोड़ सकता है। यद्यपि असंख्य परिवर्तन हो चुके हैं—समुद्र खेत बन गए हैं, जबकि खेत समुद्र बन गए हैं—फिर भी ये नियम लगातार अस्तित्व में बने हुए हैं। ये अस्तित्व में हैं क्योंकि परमेश्वर अस्तित्व में है। यह परमेश्वर के शासन और उसके प्रबंधन की वजह से है। इस प्रकार के सुव्यवस्थित, एवं बड़े पैमाने के वातावरण के साथ, इन नियमों और विधियों के अंतर्गत लोगों की ज़िन्दगी आगे बढ़ती है। इन नियमों के अंतर्गत पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोग विकसित हुए, और लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन नियमों के भीतर जीवित रहे हैं। लोगों ने जीवित बचे रहने के लिए इस सुव्यवस्थित वातावरण का और साथ ही परमेश्वर के द्वारा सृजित बहुत सारी चीज़ों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी आनन्द लिया है। भले ही लोगों को महसूस होता है कि इस प्रकार के नियम स्वाभाविक हैं, और वे उनका सम्मान न करते हुए उनका मोल नहीं समझते हैं, और भले ही उन्हें महसूस न हो कि परमेश्वर इन नियमों का आयोजन कर रहा है, इन पर शासन कर रहा है, फिर भी हर परिस्थिति में, परमेश्वर इस अपरिवर्तनीय कार्य में हमेशा से लगा हुआ है। इस अपरिवर्तनीय कार्य में उसका उद्देश्य मानवजाति को अस्तित्व में बनाए रखना है, ताकि वह निरन्तर जीवित रहे।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 180
तो, पहले भाग से शुरु करते हैं। जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों का सृजन किया, तो उसने पहाड़ों, मैदानों, रेगिस्तानों, पहाड़ियों, नदियों और झीलों के लिए सीमाएँ खींचीं। पृथ्वी पर पर्वत, मैदान, मरूस्थल, और पहाड़ियों के साथ ही जल के विभिन्न स्रोत हैं। क्या ये विभिन्न प्रकार के भूभाग नहीं हैं? परमेश्वर ने विभिन्न प्रकार के इन भूभागों के बीच सीमाएँ खींची थी। जब हम सीमाओं के निर्माण की बात करते हैं, तो इसका अर्थ है कि पर्वतों की अपनी सीमा-रेखाएँ हैं, मैदानों की अपनी स्वयं की सीमा-रेखाएँ हैं, मरुस्थलों की कुछ सीमाएँ हैं, पहाड़ों का अपना एक निश्चित क्षेत्र है। साथ ही जल के स्रोतों, जैसे नदियों और झीलों की भी एक निश्चित संख्या है। अर्थात्, जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों की सृष्टि की तब उसने हर चीज़ को पूरी स्पष्टता से विभाजित किया। परमेश्वर ने पहले ही निर्धारित कर दिया है कि एक पहाड़ की त्रिज्या कितने किलोमीटर की होनी चाहिए, इसका दायरा क्या है। साथ ही उसने यह भी निर्धारित कर दिया कि एक मैदान की त्रिज्या कितने किलोमीटर की होनी चाहिए, और इसका दायरा क्या है। सभी चीज़ों की रचना करते समय उसने मरुस्थल के दायरे और साथ ही पहाड़ियों के विस्तार और उनके परिमाण और वे किनके द्वारा घिरे हुए हैं, उन सारी चीजों को निर्धारित कर दिया था। उसने नदियों और झीलों के दायरे को निर्धारित कर दिया था जब वह उनकी रचना कर रहा था—उन सभी की अपनी सीमाएँ हैं। जब हम "सीमाओं" की बात करते हैं तो इसका क्या अर्थ है? हमने अभी इस बारे में बात की थी कि कैसे सभी चीज़ों के लिए व्यवस्था स्थापित कर परमेश्वर उनपर शासन करता है। यानी, पहाड़ों के विस्तार और दायरे पृथ्वी की परिक्रमा या समय के गुज़रने के कारण बढ़ेंगे या घटेंगे नहीं। वे स्थिर और अपरिवर्तनीय हैं और उनकी यह अपरिवर्तनीयता परमेश्वर द्वारा निर्धारित है। जहाँ तक मैदानी क्षेत्रों की बात है, उनका दायरा कितना है, वे किन चीजों से सीमाबद्ध हैं—इसे परमेश्वर द्वारा तय किया गया है। उनकी अपनी सीमाएँ हैं, और मैदान के बीचोंबीच अचानक किसी पहाड़ी का उभर आना संभव नहीं है। मैदान अचानक पर्वत में परिवर्तित नहीं होगा—ऐसा होना असंभव है। जिन नियमों और सीमाओं की अभी हम बात कर रहे थे, उनका अर्थ यही है। जहाँ तक मरुस्थल की बात है, हम यहाँ मरुस्थल या किसी अन्य भूभाग या भौगोलिक स्थिति की विशिष्ट भूमिकाओं का जिक्र नहीं करेंगे, केवल उनकी सीमाओं की चर्चा करेंगे। परमेश्वर के शासन के अधीन, मरुस्थल का भी दायरा नहीं बढ़ेगा। क्योंकि परमेश्वर ने इसे इसका नियम और दायरा दिया हुआ है। इसका क्षेत्रफल कितना बड़ा है और इसकी भूमिका क्या है, वह किन चीजों से घिरा हुआ है, और इसकी जगह—इसे पहले से ही परमेश्वर द्वारा तय कर दिया गया है। वह अपने दायरे से आगे नहीं बढ़ेगा, न अपनी जगह बदलेगा, और न ही मनमाने ढंग से अपना क्षेत्रफल बढ़ाएगा। हालांकि, सभी नदियों और झीलों के प्रवाह सुव्यवस्थित और निरन्तर बने हुए हैं, वे कभी अपने दायरे या अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करेंगे। वे सभी एक सुव्यवस्थित तरीके से अपनी एक स्वाभाविक निर्धारित दिशा में बहती हैं। अतः परमेश्वर के शासन के नियमों के अंतर्गत, कोई भी नदी या झील अपने से सूख नहीं जाएगी, या अपनी दिशा या अपने बहाव की मात्रा को पृथ्वी की परिक्रमा या समय के गुज़रने के साथ बदल नहीं देगी । यह सब परमेश्वर के नियंत्रण में है। कहने का तात्पर्य है कि, परमेश्वर द्वारा मानवजाति के मध्य सृजित सभी चीज़ों के अपने निर्धारित स्थान, क्षेत्र और दायरे हैं। अर्थात्, जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों की रचना की, तब उनकी सीमाओं को तय कर दिया गया था और उन्हें स्वेच्छा से पलटा, नवीनीकृत किया, या बदला नहीं जा सकता। "स्वेच्छा से" का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि वे मौसम, तापमान, या पृथ्वी के घूमने के कारण बेतरतीब ढंग से अपना स्थान नहीं बदलेंगे, अपना विस्तार नहीं करेंगे, या अपने मूल स्वरूप में परिवर्तन नहीं लाएँगे। उदाहरण के लिए, किसी पर्वत की एक निश्चित ऊँचाई है, इसके आधार का एक निश्चित क्षेत्रफल है, समुद्रतल से इसकी ऊँचाई निश्चित है, और यहाँ निश्चित मात्रा में वनस्पतियाँ हैं। इस सब की योजना और गणना परमेश्वर द्वारा की गई है और इसे मनमाने ढंग से बदला नहीं जाएगा। जहाँ तक मैदानों की बात है, अधिकांश मनुष्य मैदानों में निवास करते हैं, और मौसम में हुआ कोई परिवर्तन उनके क्षेत्र या उनके अस्तित्व की मूल्यवत्ता को प्रभावित नहीं करेगा। यहाँ तक कि इन विभिन्न भूभागों और भौगोलिक वातावरण में समाविष्ट हर चीज़ जिसे परमेश्वर द्वारा रचा गया था, उसे भी स्वेच्छा से बदला नहीं जाएगा। उदाहरण के लिए, मरुस्थल की संरचना, भूमिगत खनिज सम्पदाओं के प्रकार, मरुस्थल में पाई जाने वाली रेत की मात्रा, उसका रंग, उसकी मोटाई—ये स्वेच्छा से नहीं बदलेंगे। ऐसा क्यों है कि वे स्वेच्छा से नहीं बदलेंगे? यह परमेश्वर के शासन और उसके प्रबंधन के कारण है। परमेश्वर अपने द्वारा सृजित इन सभी विभिन्न भूभागों और भौगोलिक वातावरण के भीतर, सारी चीजों का प्रबंधन, एक योजनाबद्ध और सुव्यवस्थित तरीके से कर रहा है। अतः परमेश्वर द्वारा सृजे जाने के पश्चात कई हज़ार वर्षों से, दसियों हज़ार वर्षों से ये सभी भौगोलिक पर्यावरण अभी भी अस्तित्व में हैं और अपनी भूमिकाएँ निभा रहे हैं। हालांकि ऐसे समय आते हैं जब ज्वालामुखी फटते हैं, भूकंप आते हैं, और बड़े पैमाने पर भूमि की जगह बदल जाती है, फिर भी परमेश्वर किसी भी प्रकार के भू-भाग को अपने मूल कार्य को छोड़ने की अनुमति बिलकुल नहीं देगा। केवल परमेश्वर के इस प्रबंधन, उसके शासन और इन नियमों पर उसके नियंत्रण के कारण ये सारी चीजें—जिन्हें मानवजाति देखती और जिनका आनन्द लेती है—सुव्यवस्थित तरीके से पृथ्वी पर बरकरार रहने में सक्षम हैं। अतः परमेश्वर पृथ्वी पर मौजूद इन सभी अलग-अलग भूभागों का प्रबंधन इस तरह क्यों करता है? उसका उद्देश्य है कि विभिन्न भौगोलिक वातावरणों में जो प्राणी रहते हैं उन सभी के पास एक स्थायी वातावरण हो, और वे उस स्थायी वातावरण में निरन्तर जीवित रहने और वंश की वृद्धि करने में सक्षम हों। ये सभी चीज़ें—चल या अचल, वे जो अपने नथुनों से सांस लेते हैं और वे जो सांस नहीं लेते—मानवजाति के जीवित रहने के लिए एक अद्वितीय वातावरण का निर्माण करती हैं। केवल इस प्रकार का वातावरण ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी मनुष्यों का पालन-पोषण करने में सक्षम है, और केवल इस प्रकार का वातावरण ही मनुष्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी निरंतर शांतिपूर्वक जीवित रहने की अनुमति दे सकता है।
मैंने जिस विषय पर अभी-अभी बात की है वह काफी बड़ा है, तो यह शायद तुम्हारे जीवन से थोड़ा अलग-थलग लग सकता है, लेकिन मुझे विश्वास है कि तुम सब इसे समझ सकते हो, है न? कहने का तात्पर्य यह है कि सभी चीज़ों पर परमेश्वर के प्रभुत्व के नियम बहुत महत्वपूर्ण हैं—सचमुच बहुत महत्वपूर्ण! इन नियमों के अंतर्गत सभी प्राणियों के विकास की पूर्वशर्त क्या है? यह परमेश्वर के नियम के कारण है। यह उसके नियम के कारण है कि सभी चीज़ें उसके नियम के अंतर्गत अपने कार्यों को अंजाम देती हैं। उदाहरण के लिए, पहाड़ जंगलों का पोषण करते हैं, फिर जंगल उसके बदले में अपने भीतर रहने वाले विभिन्न पक्षियों और पशुओं का पोषण और संरक्षण करते हैं। मैदान एक समतल भूमि है जिसे मनुष्यों के लिए फ़सल उगाने के लिए और साथ ही विभिन्न पशु-पक्षियों के लिए तैयार किया गया है। वे मानवजाति के अधिकांश लोगों को समतल भूमि पर रहने की अनुमति देते हैं और लोगों के जीवन को सहूलियत प्रदान करते हैं। और मैदानों में घास के मैदान भी शामिल हैं—घास के मैदान की विशाल पट्टियाँ। घास के मैदान पृथ्वी की सतह को ढकने वाली वनस्पतियाँ हैं। वे मिट्टी का संरक्षण करते हैं और मैदानों में रहने वाले मवेशी, भेड़ और घोड़ों का पालन-पोषण करते हैं। मरुस्थल भी अपना कार्य करता है। यह मनुष्यों के रहने की जगह नहीं है; इसकी भूमिका नम जलवायु को शुष्क बनाना है। नदियों और झीलों का बहाव लोगों को सरल ढंग से पेयजल उपलब्ध कराता है। जहाँ कहीं वे बहेंगी, वहाँ लोगों के पास पीने के लिए जल होगा, और सभी चीज़ों की पानी की आवश्यकताएँ सरलता से पूरी होंगी। ये वे सीमाएँ हैं जिन्हें परमेश्वर के द्वारा विभिन्न भूभागों के लिए बनाया गया है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 181
परमेश्वर द्वारा निर्मित इन सीमाओं के कारण, विभिन्न भूभागों ने जीवित रहने के लिए अलग-अलग वातावरण उत्पन्न किए हैं, और जीवित रहने के लिए ये वातावरण विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों के लिए सुविधाजनक रहे हैं, साथ ही ये जीवित रहने के लिए उन्हें एक स्थान भी उपलब्ध कराते हैं। इस तरह विभिन्न जीवों के जीवित रहने के लिए वातावरण की सीमाओं को विकसित किया गया है। यह दूसरा भाग है जिस पर हम आगे बात करने जा रहे हैं। सर्वप्रथम, पशु-पक्षी और कीड़े-मकोड़े कहाँ रहते हैं? क्या वे वन-उपवन में रहते हैं? ये उनके निवास-स्थान हैं। इसलिए, विभिन्न भौगोलिक वातावरण के लिए सीमाएँ स्थापित करने के अलावा, परमेश्वर ने विभिन्न पशु-पक्षियों, मछलियों, कीड़े-मकोड़ों, और सभी पेड़-पौधों के लिए सीमाएँ खींचीं। उसने नियम भी स्थापित किये। विभिन्न भौगोलिक वातावरण के मध्य भिन्नताओं के कारण और विभिन्न भौगोलिक वातावरण की मौजूदगी के कारण, विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों, मछलियों, कीड़े-मकोड़ों, और पेड़-पौधों के पास जीवित रहने के लिए अलग-अलग वातावरण हैं। पशु-पक्षी और कीड़े-मकोड़े विभिन्न पेड़-पौधों के बीच रहते हैं, मछलियां पानी में रहती हैं, और पेड़-पौधे भूमि पर उगते हैं। भूमि में विभिन्न क्षेत्र जैसे पर्वत, मैदान और पहाड़ियां शामिल हैं। एक बार पशु-पक्षियों के पास उनके अपने नियत घर हो जाएँ, तो वे इधर-उधर नहीं भटकेंगे। उनके निवास-स्थान जंगल और पहाड़ हैं। अगर कभी उनके निवास-स्थान नष्ट हो जाएँ, तो यह सारी व्यवस्था अराजकता में बदल जाएगी। इस व्यवस्था के अराजक होने के परिणाम क्या होंगे? सबसे पहले किसे नुकसान पहुँचेगा? (मानवजाति को।) मानवजाति को! परमेश्वर द्वारा स्थापित इन नियमों और सीमाओं के अंतर्गत, क्या तुम लोगों ने कोई अजीब-सी घटना देखी है? उदाहरण के लिए, हाथी का मरुस्थल में घूमना। क्या तुम लोगों ने ऐसा कुछ देखा है? यदि ऐसा हुआ, तो यह एक बहुत ही अजीब-सी घटना होगी, क्योंकि हाथी जंगल में रहते हैं, और परमेश्वर ने उनके जीने के लिए यही वातावरण बनाया है। जीने के लिए उनके पास अपना वातावरण है, अपना स्थायी घर है, तो वे इधर-उधर क्यों भागते फिरेंगे? क्या किसी ने शेरों या बाघों को महासागर के तट पर टहलते हुए देखा है? नहीं, तुमने नहीं देखा है। शेरों और बाघों का निवास-स्थान जंगल और पर्वत हैं। क्या किसी ने महासागर की व्हेल या शार्क मछलियों को मरुस्थल में तैरते हुए देखा है? नहीं, तुमने नहीं देखा है। व्हेल और शार्क मछलियां अपना घर महासागर में बनाती हैं। मनुष्य के जीने के वातावरण में, क्या ऐसे लोग हैं जो भूरे भालुओं के साथ रहते हैं? क्या ऐसे लोग हैं जो अपने घरों के भीतर और बाहर हमेशा मोर, या अन्य पक्षियों से घिरे रहते हैं? क्या किसी ने चीलों और जंगली कलहंसों को बन्दरों के साथ खेलते देखा है? (नहीं।) ये सब बहुत ही अजीब घटनाएँ होंगी। तुम लोगों की नज़रों में इन अजीब घटनाओं के विषय में मेरी बात करने की वजह यही है कि मैं तुम लोगों को समझाना चाहता हूँ कि परमेश्वर के द्वारा रची गयी सभी चीज़ों के जीवित रहने के लिए अपने नियम हैं—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे एक ही स्थान में स्थायी रूप से रहते हैं या वे अपने नथुनों से साँस ले सकते हैं या नहीं। परमेश्वर ने इन प्राणियों को सृजित करने के बहुत पहले ही उनके लिये निवास-स्थान, और जीवित रहने के लिए उनके अनुकूल वातावरण बना दिया था। इन प्राणियों के पास जीवित रहने के लिए उनका अपना स्थायी वातावरण, अपना भोजन, अपना निवास-स्थान था और उनके जीवित रहने के लिए उपयुक्त तापमानों से युक्त निर्धारित जगहें थीं। इस तरह वे इधर-उधर भटकते नहीं थे या मानवजाति के जीवन को कमज़ोर या प्रभावित नहीं करते थे। परमेश्वर सभी चीज़ों का प्रबंधन इसी तरह से करता है। वह मानवजाति के जीवित रहने हेतु उत्तम वातावरण प्रदान करता है। सभी चीज़ों के अंतर्गत जीवित प्राणियों में से प्रत्येक के पास जीवित रहने हेतु वातावरण के भीतर जीवन को बनाए रखने वाला भोजन है। उस भोजन के साथ, वे जीवित रहने के लिए अपने पैदाइशी वातावरण से जुड़े रहते हैं; उस प्रकार के वातावरण में, वे परमेश्वर द्वारा स्थापित नियमों के अनुसार निरंतर जीवन-यापन कर रहे हैं, वंश-वृद्धि कर रहे हैं और आगे बढ़ रहे हैं। इस प्रकार के नियमों के कारण, और परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण के कारण, सभी चीज़ें मनुष्यजाति के साथ सामंजस्य में रहती हैं और मनुष्यजाति सभी चीज़ों के साथ परस्पर निर्भरता और सह-अस्तित्व में एक साथ रहती है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 182
परमेश्वर ने सभी चीज़ों की रचना की और उनके लिए सीमाएँ निर्धारित कीं; उनके मध्य उसने सभी प्रकार के जीवित प्राणियों का पालन-पोषण किया। इसी दौरान उसने मनुष्यों के जीवित रहने के लिए विभिन्न साधन भी तैयार किए, अतः तुम देख सकते हो कि मनुष्यों के पास जीवित रहने के लिये बस एक तरीका नहीं है, न ही उनके पास जीवित रहने के लिए एक ही प्रकार का वातावरण है। हमने पहले परमेश्वर के द्वारा मनुष्यों के लिए विभिन्न प्रकार के आहार और जल स्रोतों को तैयार करने के विषय में बात की थी, ये चीज़ें मानवजाति के जीवन के लिए अति महत्वपूर्ण हैं। बहरहाल, इस मानवजाति के सभी लोग अनाज पर ही नहीं जीते। भौगोलिक वातावरण और भूभागों की भिन्नताओं के कारण लोगों के पास ज़िन्दा रहने के लिए अलग-अलग साधन हैं। ज़िन्दा रहने के इन सभी साधनों को परमेश्वर ने तैयार किया है। अतः सभी मनुष्य मुख्य तौर पर खेती में नहीं लगे हुए हैं। अर्थात्, सभी लोग फसल पैदा कर अपना भोजन प्राप्त नहीं करते हैं। यह तीसरा भाग है जिसके बारे में हम बात करने जा रहे हैं : मानवजाति की विभिन्न जीवनशैलियों के कारण सीमाएँ विकसित हुई हैं। तो मनुष्यों के पास और कौन-कौन से प्रकार की जीवनशैलियां हैं? भोजन के विभिन्न स्रोतों के आधार पर और कौन से प्रकार के लोग हैं? कई प्राथमिक प्रकार हैं।
पहला है शिकारी जीवनशैली। इसके बारे में हर कोई जानता है। जो लोग शिकार करके ज़िन्दा रहते हैं वे क्या खाते हैं? (गेम।) वे जंगल के पशु-पक्षियों को खाते हैं। "गेम" या शिकार एक आधुनिक शब्द है। शिकारी इसे शिकार के रूप में नहीं देखते; वे इसे भोजन के रूप में, और अपने दैनिक जीवन आहार के रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए, मानो उन्हें एक हिरण मिल जाता है। उनके लिये हिरण का मिलना बिलकुल वैसा ही है जैसे किसी किसान को मिट्टी से फसलें मिल जाती हैं। एक किसान मिट्टी से फसल प्राप्त करता है, और जब वह अपनी फसल को देखता है, तो वह खुश होता है और सुकून महसूस करता है। खाने के लिए अनाज के होने से परिवार भूखा नहीं होगा। उसका हृदय सुकून और सन्तुष्टि महसूस करता है। एक शिकारी भी अपनी पकड़ में आए शिकार को देखकर सुकून और संतुष्टि का एहसास करता है, क्योंकि उसे भोजन के विषय में अब कोई चिन्ता नहीं करनी है। अगली बार के भोजन के लिए कुछ तो है, भूखे रहने की ज़रूरत नहीं है। यह ऐसा व्यक्ति है जो जीवन-यापन के लिए शिकार करता है। शिकार पर निर्भर रहने वाले अधिकांश लोग पहाड़ी जंगलों में रहते हैं। वे खेती नहीं करते। वहाँ कृषि योग्य भूमि पाना आसान नहीं है, अतः वे विभिन्न प्रकार के जीवों और शिकार पर ज़िन्दा रहते हैं। यह पहली प्रकार की जीवनशैली है जो सामान्य लोगों से अलग है।
दूसरे प्रकार की जीवनशैली चरवाही है। जो लोग जीविका के लिए मवेशी चराते हैं, क्या वे खेती भी करते हैं? (नहीं।) तो वे क्या करते हैं? वे कैसे जीते हैं? (अधिकांशतः, वे जीवन-यापन के लिए मवेशियों और भेड़ों के झुण्ड चराते हैं, और शीत ऋतु में वे अपने पालतू पशुओं को मारकर खाते हैं। उनका प्रमुख भोजन गाय और भेड़ का मांस होता है, और वे दूध की चाय पीते हैं। यद्यपि चरवाहे, चारों ऋतुओं में व्यस्त रहते हैं, वे अच्छी तरह खाते हैं। उनके पास प्रचुर मात्रा में दूध, दुग्ध-उत्पाद और मांस होता है।) जो लोग जीवन-यापन के लिए पशु चराते हैं वे मुख्य रूप से बीफ और मटन खाते हैं, भेड़ और गाय का दूध पीते हैं, और हवा में लहराते बालों और धूप में चमचमाते चेहरों के साथ खेतों में अपने पशुओं को चराते हुए गाय-बैलों और घोड़ों की सवारी करते हैं। उनके जीवन में आधुनिक जीवन का कोई तनाव नहीं होता। पूरे दिन वे नीले आसमान और घास के मैदानों के व्यापक विस्तार को निहारते हैं। मवेशी चराने वाले लोग घास के मैदानों में रहते हैं और वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी खानाबदोश जीवनशैली को बरकरार रख पाये हैं। हालांकि घास के मैदानों पर जीवन थोड़ा एकाकी होता है, फिर भी यह एक बहुत खुशहाल जीवन है। यह कोई बुरी जीवनशैली नहीं है!
तीसरे प्रकार की जीवनशैली मछली पकड़ने की है। मनुष्यों का एक छोटा-सा समूह ऐसा भी है जो महासागर के समीप या छोटे द्वीपों पर रहता है। वे चारों ओर पानी से घिरे हुए हैं, समुद्र के सामने हैं। ये लोग आजीविका के लिए मछली पकड़ते हैं। जो लोग जीविका के लिए मछली पकड़ते हैं, उनके भोजन का स्रोत क्या है? उनके भोजन के स्रोतों में सब प्रकार की मछलियाँ, समुद्री भोजन, और समुद्र के अन्य उत्पाद शामिल हैं। जो लोग जीविका के लिए मछली पकड़ते हैं वे जमीन में खेती-बाड़ी नहीं करते, बल्कि इसके बजाय हर दिन मछली पकड़ने में बिताते हैं। उनके प्रमुख भोजन में विभिन्न प्रकार की मछलियां और समुद्र के उत्पाद शामिल हैं। वे कभी-कभार चावल, आटा और दैनिक ज़रूरतों के लिए इन चीज़ों का व्यापार करते हैं। यह उन लोगों की एक अलग प्रकार की जीवनशैली है, जो पानी के समीप रहते हैं। जो लोग पानी के समीप रहते हैं वे अपने आहार के लिये पानी पर निर्भर रहते हैं और मछली उनकी जीविका होती है। मछली पकड़ना उनके भोजन का स्रोत ही नहीं, बल्कि उनकी जीविका का भी स्रोत है।
जीविका के लिए खेती-बाड़ी के अलावा, मानवजाति मुख्य रूप से तीन अलग-अलग जीवनशैलियों पर निर्भर है, जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है। मवेशी चराने, मछली पकड़ने, और शिकार से जीवन निर्वाह करने वाले केवल कुछ समूहों को छोड़कर, अधिकतर लोग जीविका के लिए खेती-बाड़ी करते हैं। और ऐसे लोग जो जीविका के लिए खेती-बाड़ी करते हैं, उन्हें किस चीज की आवश्यकता है? उन्हें खेत की आवश्यकता है। ऐसे लोग जीविका के लिये पीढ़ियों से फसल उगाते रहे हैं। चाहे वे सब्ज़ियाँ, फल या अनाज उगाएँ, किन्तु वे सभी पृथ्वी से भोजन और अपनी दैनिक ज़रुरतों को प्राप्त करते हैं।
इन अलग-अलग मानवीय जीवनशैलियों से जुड़ी मूल शर्तें क्या हैं? जिस वातावरण ने उनका जीवित रहना संभव बनाया है, क्या उसे मूलभूत रूप से संरक्षित करने की आवश्यकता नहीं है? अर्थात, यदि शिकार के भरोसे रहने वालों को पहाड़ी जंगलों या पशु-पक्षियों को खोना पड़े, तो उनकी जीविका का स्रोत ख़त्म हो जाएगा। इस जाति और प्रकार के लोग किस दिशा में जाएँगे, यह अनिश्चित हो जाएगा और वे लुप्त भी हो सकते हैं। और ऐसे लोग जो अपनी जीविका के लिए मवेशी चराते हैं, वे किस चीज पर आश्रित हैं? वास्तव में वे जिस पर निर्भर हैं वह उनके पालतू पशुओं का झुण्ड नहीं है, बल्कि वह वातावरण है, जिसमें उनके पालतू पशुओं का झुण्ड जीवित रहता है—घास के मैदान। यदि कहीं कोई घास के मैदान नहीं होते, तो वे अपने पालतू पशुओं के झुण्ड को कहाँ चराते? मवेशी और भेड़ क्या खाते? पालतू पशुओं के झुण्ड के बिना, इन खानाबदोश लोगों के पास कोई जीविका नहीं होती। अपनी जीविका के स्रोत के बिना, ऐसे लोग कहाँ जाते? उनके लिए ज़िन्दा रहना बहुत ही कठिन हो जाता; उनके पास कोई भविष्य नहीं होता। अगर पानी के स्रोत नहीं होते, और नदियां और झीलें सूख जातीं, तो क्या वे सभी मछलियां, जो अपनी जिंदगी के लिए पानी पर निर्भर हैं, तब भी जीवित रहतीं? वे मछलियां जीवित नहीं रहतीं। वे लोग जो अपनी जीविका के लिए उस जल और उन मछलियों पर आश्रित हैं, क्या वे जीवित रह पाते? यदि उनके पास भोजन नही होता, यदि उनके पास अपनी जीविका का स्रोत नहीं होता, तो क्या वे लोग जीवित रह पाते? यदि उनकी जीविका या उनके जीवित रहने में कोई समस्या आती है, तो वे जातियाँ आगे अपना वंश नहीं चला पातीं। वे लुप्त हो सकती थीं, पृथ्वी से मिट गई होतीं। और जो लोग अपनी जीविका के लिए खेती-बाड़ी करते हैं यदि वे अपनी भूमि खो देते, फसलें नहीं उगा पाते, और विभिन्न पेड़-पौधों से अपना भोजन प्राप्त नहीं कर पाते तो इसका परिणाम क्या होता? भोजन के बिना, क्या लोग भूख से मर नहीं जाते? यदि लोग भूख से मर रहे हों, तो क्या मानवजाति की उस नस्ल का सफाया नहीं हो जाएगा? अतः विभिन्न वातावरण को बनाए रखने के पीछे यही परमेश्वर का उद्देश्य है। विभिन्न वातावरण और पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने, और प्रत्येक वातावरण के अंतर्गत विभिन्न जीवित प्राणियों को बनाए रखने में परमेश्वर का सिर्फ एक ही उद्देश्य है—और वह है हर तरह के लोगों का पालन-पोषण करना, विभिन्न भौगोलिक वातावरण में जीने वाले लोगों का पालन-पोषण करना।
यदि सृष्टि की सभी चीज़ें अपने नियमों को गँवा दें, तो उनका अस्तित्व न रहे; यदि सभी चीज़ों के नियम लुप्त हो जाएँ, तो सभी चीज़ों के बीच जीवित प्राणी क़ायम नहीं रह पाएँगे। मनुष्यजाति अपने उस वातावरण को भी गँवा देगी जिस पर वह जीवित रहने के लिए निर्भर है। यदि मनुष्य वह सब कुछ गँवा देता, तो वह आगे जीवित नहीं रह पाएगा और पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंश-वृद्धि नहीं कर पाएगा। मनुष्य आज तक ज़िन्दा बचा हुआ है तो उसका कारण है कि परमेश्वर ने मनुष्य का पोषण करने और, विभिन्न तरीकों से मानवजाति का पोषण करने के लिए उन्हें सृष्टि की सभी चीज़ें प्रदान की हैं। चूँकि परमेश्वर विभिन्न तरीकों से मानवजाति का पालन-पोषण करता है, इसीलिये वह आज तक, जीवित बची हुई है। जीवित रहने के ऐसे अनुकूल और स्वाभाविक नियमों से सुव्यवस्थित वातावरण के साथ में पृथ्वी पर सभी प्रकार के लोग, और सभी प्रकार की नस्लें अपने निर्दिष्ट दायरों के भीतर जीवित रह सकती हैं। कोई भी इन दायरों या इन सीमाओं से बाहर नहीं जा सकता है क्योंकि परमेश्वर ने सबकी सीमा-रेखाएँ खींच दी हैं। परमेश्वर ने सीमा-रेखाओं को इस तरह क्यों खींचा? यह सचमुच पूरी मानवजाति के लिए बेहद महत्वपूर्ण है—सचमुच बेहद महत्वपूर्ण!
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 183
चौथा, परमेश्वर ने विभिन्न नस्लों के बीच सीमाएँ खींची। पृथ्वी पर गोरे लोग, काले लोग, भूरे लोग, और पीले लोग हैं। ये लोगों के विभिन्न प्रकार हैं। साथ ही परमेश्वर ने इन विभिन्न प्रकार के लोगों की ज़िन्दगियों के लिए दायरा भी तय किया है। लोग इससे अनजान रहते हुए, परमेश्वर के प्रबंधन के अधीन जीवित रहने के लिए अपने अनुकूल वातावरण के भीतर रहते हैं। कोई भी इसके बाहर कदम नहीं रख सकता। उदाहरण के लिए, गोरे लोगों की बात करते हैं। इनमें से अधिकांश लोग किस भौगोलिक इलाके में रहते हैं? वे अधिकांशतः यूरोप और अमेरिका में रहते हैं। काले लोग मुख्यतः जिस भौगोलिक सीमा में रहते हैं, वह अफ्रीका है। भूरे लोग मुख्य रूप से दक्षिणी-पूर्वी एशिया और दक्षिणी एशिया में, थाइलैण्ड, भारत, म्यांमार, वियतनाम और लाओस जैसे देशों में रहते हैं। पीले लोग मुख्य रूप से एशिया में, अर्थात् चीन, जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देशों में रहते हैं। परमेश्वर ने इन अलग-अलग प्रकार की सभी नस्लों को उचित रूप से विभाजित किया है ताकि ये अलग-अलग नस्लें संसार के विभिन्न भागों में वितरित हो जाएँ। संसार के इन अलग-अलग भागों में, परमेश्वर ने बहुत पहले से ही मनुष्यों की प्रत्येक नस्ल के जीवित रहने के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार किया है। जीवित रहने के लिए इस प्रकार के वातावरण के अंतर्गत, परमेश्वर ने उनके लिए मिट्टी के विविध रंग और तत्वों की रचना की। दूसरे शब्दों में, गोरे लोगों के शरीर के तत्व और काले लोगों के शरीर के तत्व समान नहीं हैं, और साथ ही वे अन्य नस्ल के लोगों के शरीर के तत्वों से भी भिन्न हैं। जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों की रचना की, तब उसने पहले से ही उस नस्ल के अस्तित्व के लिए एक वातावरण तैयार कर लिया था। ऐसा करने का उसका उद्देश्य यह था कि जब उस प्रकार के लोग अपने वंश की वृद्धि शुरू करें, जब उनकी संख्या बढ़ने लगे, तो उन्हें एक दायरे के भीतर सीमित किया जा सके। मनुष्य की रचना करने से पहले ही परमेश्वर ने इन सारी बातों पर विचार कर लिया था—वह गोरे लोगों को विकसित होने और जीवित रहने के लिये यूरोप और अमेरिका देगा। अतः जब परमेश्वर पृथ्वी की सृष्टि कर रहा था तब उसके पास पहले से ही एक योजना थी, भूमि के एक हिस्से में वह जो कुछ रख रहा था, वहाँ जिसका पालन-पोषण कर रहा था, इन सबके पीछे उसका एक लक्ष्य और उद्देश्य था। उदाहरण के लिए, परमेश्वर ने बहुत पहले से ही तैयारी कर ली थी कि उस भूमि पर कौन-से पर्वत, कितने मैदान, कितने जल-स्रोत, किस प्रकार के पशु-पक्षी, कौन-सी मछलियाँ, और कौन-से पेड़-पौधे होंगे। किसी एक प्रकार के मानव, एक नस्ल के जीवित रहने के लिए वातावरण तैयार करते समय, परमेश्वर ने अनेक मुद्दों पर हर दृष्टिकोण से विचार किया था : भौगोलिक वातावरण, मिट्टी के तत्व, पशु-पक्षी की विभिन्न प्रजातियां, विभिन्न प्रकार की मछलियों के आकार, मछलियों के तत्व, पानी की गुणवत्ता में असमानताएँ, साथ ही विभिन्न प्रकार के सभी पेड़-पौधे...। परमेश्वर ने इन सारी चीजों को बहुत पहले ही तैयार कर लिया था। उस प्रकार का वातावरण जीवित बचे रहने के लिए एक ऐसा वातावरण है जिसे परमेश्वर ने गोरे लोगों के लिए सृजित और तैयार किया और जो प्राकृतिक रूप से उनका है। क्या तुम लोगों ने देखा है कि जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों की रचना की, तो उसने उसमें बहुत ज़्यादा सोच-विचार किया और एक योजना के तहत कार्य किया? (हाँ, हमने देखा है कि विभिन्न प्रकार के लोगों के प्रति परमेश्वर बहुत ही विचारशील था। विभिन्न प्रकार के मनुष्यों के जीवित रहने के लिए जो वातावरण उसने निर्मित किया उसमें किस प्रकार के पशु-पक्षी और किस प्रकार की मछलियां रहेंगी, वहाँ कितने सारे पर्वत और मैदान होंगे—इन सभी पर उसने बहुत सूक्ष्मता से सोच-समझ कर विचार किया था।) उदाहरण के लिए, गोरे लोग मुख्य रूप से कौन-सा आहार खाते हैं? जो आहार गोरे लोग खाते हैं वह उन आहारों से बिलकुल अलग है जो एशिया के लोग खाते हैं। जो खाद्य पदार्थ गोरे लोग खाते हैं वे मुख्यतः मांस, अण्डे, दूध और मुर्गीपालन के पदार्थ हैं। अनाज जैसे रोटी और चावल सामान्यतः मुख्य आहार नहीं हैं, उन्हें थाली पर किनारे रखा जाता है। सलाद में भी कुछ भुना हुआ माँस या चिकन डालते हैं। गेहूँ पर आधारित आहार में भी वे चीज़, अण्डे, और मांस डाल देते हैं। यानी, उनके मुख्य भोज्य पदार्थ गेहूँ पर आधारित आहार या चावल नहीं हैं; वे लोग माँस और चीज़ बहुत खाते हैं। वे प्रायः बर्फीला पानी पीते हैं क्योंकि वे लोग उच्च कैलोरी युक्त आहार खाते हैं। अतः गोरे लोग असाधारण रूप से तगड़े होते हैं। ये उनकी आजीविका के स्रोत हैं, जीने के लिए उनके वातावरण हैं जिन्हें परमेश्वर ने उनके लिए तैयार किया था, ताकि वे उस तरह की जीवनशैली में रह सकें। यह जीवनशैली अन्य नस्लों के लोगों की जीवनशैलियों से अलग है। इस जीवनशैली में कुछ सही या ग़लत नहीं है—यह जन्मजात, परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित और परमेश्वर के शासन और उसकी व्यवस्था के कारण है। इस प्रकार की नस्ल के पास इस तरह की जीवनशैली और आजीविका के ऐसे साधन, उनकी नस्ल के कारण हैं, और साथ ही जीवित रहने के लिए उस वातावरण के कारण हैं जिसे परमेश्वर द्वारा उनके लिए तैयार किया गया था। तुम कह सकते हो कि जीवित रहने के लिए जो वातावरण परमेश्वर ने गोरे लोगों के लिए तैयार किया और जो दैनिक आहार वे उस वातावरण से प्राप्त करते हैं, वह समृद्ध और प्रचुर है।
परमेश्वर ने दूसरी नस्लों के जीवित रहने के लिए भी आवश्यक वातावरण तैयार किया। काले लोग भी हैं—काले लोग किस जगह अवस्थित हैं? वे मुख्य रूप से मध्य और दक्षिणी अफ्रीका में अवस्थित हैं। उस प्रकार के वातावरण में जीने के लिए परमेश्वर ने उनके लिए क्या तैयार किया? उष्णकटिबन्धीय वर्षा वन, सभी प्रकार के पशु-पक्षी, साथ ही मरुस्थल, और सभी प्रकार के पेड़-पौधे जो उनके आस-पास रहते हैं। उनके पास जल के स्रोत, अपनी आजीविका, और भोजन हैं। परमेश्वर उनके प्रति पक्षपातपूर्ण नहीं था। चाहे उन्होंने हमेशा से जो भी किया हो, उनका ज़िन्दा रहना कभी कोई मुद्दा नहीं रहा है। वे भी संसार के एक निश्चित स्थान और क्षेत्र में बसे हुए हैं।
अब हम पीले लोगों के बारे में कुछ बात करते हैं। पीले लोग मुख्य रूप से पूर्व में अवस्थित हैं। पूरब और पश्चिम के वातावरण और भौगोलिक स्थितियों के बीच क्या भिन्नताएँ हैं? पूरब में अधिकांश भूमि उपजाऊ है, और यह पदार्थों और खनिज भण्डारों से समृद्ध है। अर्थात्, भूमि के ऊपर और भूमि के नीचे की सब प्रकार की संपदाएँ बहुतायत में उपलब्ध हैं। और इस समूह के लोगों के लिए, अर्थात् इस नस्ल के लिए, परमेश्वर ने अनुकूल मिट्टी, जलवायु, और विभिन्न भौगोलिक वातावरण को भी तैयार किया जो उनके लिए उपयुक्त हैं। हालांकि यहाँ के भौगोलिक वातावरण और पश्चिम के वातावरण के बीच बहुत भिन्नताएँ हैं, फिर भी लोगों के लिए आवश्यक भोजन, उनकी जीविका, और जीवित रहने के लिए उनके साधन परमेश्वर द्वारा तैयार किए गए। पश्चिम में गोरे लोगों के पास जो वातावरण है, उसकी तुलना में यह बस एक अलग वातावरण है। लेकिन वह कौन-सी एक चीज़ है, जिसे मुझे तुम लोगों को बताने की आवश्यकता है? पूर्वी नस्ल के लोगों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है, इसलिए परमेश्वर ने बहुत सारे ऐसे तत्वों को पृथ्वी के उस हिस्से में जोड़ दिया जो पश्चिम से भिन्न हैं। उस भाग में, उसने बहुत सारे अलग अलग भूदृश्यों और सब प्रकार की भरपूर सामग्रियों को जोड़ दिया। वहाँ प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं; साथ ही भूभाग भी विभिन्न एवं विविध प्रकार के हैं, जो पूर्वी नस्ल के लोगों की विशाल संख्या का पालन-पोषण करने के लिए पर्याप्त हैं। जो चीज़ पूर्व को पश्चिम से अलग करती है वह है—दक्षिण से उत्तर तक, और पूर्व से पश्चिम तक—जलवायु पश्चिम से बेहतर है। चारों ऋतु स्पष्ट रूप से भिन्न हैं, तापमान अनुकूल हैं, प्राकृतिक संपदाएँ प्रचुर मात्रा में हैं, और प्राकृतिक दृश्य और भूभाग के प्रकार पश्चिम से बहुत बेहतर हैं। परमेश्वर ने ऐसा क्यों किया? परमेश्वर ने गोरे और पीले लोगों के बीच एक बहुत ही तर्कसंगत सन्तुलन बनाया था। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि गोरे लोगों के खान-पान के हर पहलू, उनके उपयोग में आने वाली हर चीज, और मनोरंजन के लिये उन्हें उपलब्ध कराए गए साधन—ये सारी चीजें पीले लोगों को उपलब्ध सुविधाओं से कहीं बेहतर हैं। फिर भी, परमेश्वर किसी भी नस्ल के प्रति पक्षपातपूर्ण नहीं है। परमेश्वर ने जीवित रहने के लिए पीले लोगों को कहीं अधिक ख़ूबसूरत और बेहतर वातावरण दिया। यही संतुलन है।
परमेश्वर ने पूर्व-नियत कर दिया है कि किस प्रकार के लोग दुनिया के किस भाग में रहने चाहिए; क्या मनुष्य इन सीमाओं के बाहर जा सकते हैं? (नहीं, वे नहीं जा सकते।) यह कितनी अद्भुत चीज़ है! यदि विभिन्न युगों या विशेष समय के दौरान युद्ध या अतिक्रमण हुए हों, तो भी ये युद्ध, और ये अतिक्रमण जीवित रहने के लिए उन वातावरणों को बिल्कुल नष्ट नहीं कर सकते जिन्हें परमेश्वर ने प्रत्येक नस्ल के लिए पूर्वनिर्धारित किया हुआ है। अर्थात्, परमेश्वर ने संसार के एक निश्चित भाग में किसी एक प्रकार के लोगों को बसाया है और वे उस दायरे के बाहर नहीं जा सकते। भले ही लोगों में अपने सीमा-क्षेत्रों को बदलने या फैलाने की किसी प्रकार की महत्वाकांक्षा हो, फिर भी परमेश्वर की अनुमति के बिना, इसे हासिल कर पाना बहुत मुश्किल होगा। उनके लिए इसमें सफलता प्राप्त करना बहुत ही कठिन होगा। उदाहरण के लिए, गोरे लोग अपने सीमा-क्षेत्र का विस्तार करना चाहते थे और उन्होंने अन्य देशों में उपनिवेश बनाए। जर्मनी ने कुछ देशों पर आक्रमण किया, और इंग्लैण्ड ने कभी भारत पर कब्ज़ा कर लिया था। परिणाम क्या हुआ? अंत में वे विफल हो गए। हम उनकी इस असफलता में क्या देखते हैं? जो कुछ परमेश्वर ने पूर्व-निर्धारित कर रखा है उसे नष्ट करने की अनुमति नहीं दी गई है। अतः, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह गति कितनी तेज थी जो शायद तुमने ब्रिटेन के विस्तार में देखी होगी, अंततः उन्हें तब भी भारत की भूमि को छोड़ कर, पीछे लौटना पड़ा। वे लोग जो उस भूमि में रहते हैं अभी भी भारतीय हैं, अंग्रेज़ नहीं, क्योंकि परमेश्वर ऐसा करने नहीं देगा। इतिहास या राजनीति पर शोध करने वालों में से कुछ लोगों ने इस विषय पर शोध-प्रबंध प्रस्तुत किए हैं। वे इंगलैंड की असफलता के कारण बताते हुए यह कहते हैं कि हो सकता है कि किसी जातीय समूह विशेष पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती हो, या इसका कोई अन्य मानवीय कारण हो सकता है...। ये वास्तविक कारण नहीं हैं। वास्तविक कारण है परमेश्वर—वह इसकी अनुमति नहीं देता! परमेश्वर किसी जातीय समूह को एक निश्चित भूभाग में रहने की अनुमति देता है और वह उन्हें वहाँ बसाता है और यदि परमेश्वर उन्हें स्थान बदलने की अनुमति न दे तो वे कभी भी स्थान नहीं बदल पाएँगे। यदि परमेश्वर उनके लिए एक दायरा निर्धारित करता है, तो वे उस दायरे के भीतर ही रहेंगे। मानवजाति इन दायरों को तोड़ कर मुक्त नहीं हो सकती या इन निर्धारित दायरों को तोड़ कर बाहर नहीं जा सकती है। यह निश्चित है। आक्रमणकारियों की ताकत कितनी भी ज़्यादा क्यों न हो या जिन पर आक्रमण किया जा रहा है वे कितने भी कमज़ोर क्यों न हों, आक्रमणकारियों की सफलता का निर्णय अंततः परमेश्वर पर ही निर्भर है। उसने पहले से ही इसे पूर्वनिर्धारित कर दिया है और कोई भी इसे बदल नहीं सकता।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 184
सभी चीज़ों के विकास के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित नियमों के दृष्टिकोण से देखने पर, क्या संपूर्ण मानवजाति, अपनी तमाम भिन्नताओं में, परमेश्वर द्वारा प्रदत्त जीविका और उसके भरण-पोषण के अंतर्गत नहीं जी रही है? यदि ये नियम नष्ट हो गए होते या यदि परमेश्वर मानवजाति के लिए इस प्रकार के नियम निर्धारित नहीं करता, तो उसके भविष्य की संभावनाएँ क्या होतीं? मनुष्य यदि जीवित रहने के लिए अपने मूल वातावरण को खो देते, तो क्या उनके पास भोजन का कोई स्रोत होता? संभव है कि भोजन के स्रोत एक समस्या बन जाते। यदि लोगों ने अपने भोजन के स्रोत को खो दिया होता, अर्थात्, उन्हें खाने के लिए कुछ नहीं मिलता, तो वे कितने दिनों तक जीवित रह पाते? संभवतः वे एक माह भी नहीं जी पाते और उनका जीवित बचे रहना एक समस्या बन जाता। अतः हर एक चीज़ जिसे परमेश्वर लोगों के जीवित रहने के लिए, उनके लगातार अस्तित्व में बने रहने के लिए और बहुगुणित होने और उनके जीवन निर्वाह के लिए करता है वह अति महत्वपूर्ण है। हर एक चीज़ जिसे परमेश्वर अपने सभी सृजित चीज़ों के मध्य करता है उसका लोगों के जीवित रहने से क़रीबी और अभिन्न संबंध है। यदि मानवजाति का जीवित रहना एक समस्या बन जाता, तो क्या परमेश्वर का प्रबंधन जारी रह पाता? क्या परमेश्वर का प्रबंधन तब भी अस्तित्व में बना रहता? परमेश्वर के प्रबंधन का सह-अस्तित्व उस सम्पूर्ण मानवजाति के जीवन के साथ है जिसका वह पालन-पोषण करता है, और जो भी तैयारियाँ परमेश्वर सभी चीज़ों के लिए करता है और जो कुछ वह मनुष्यों के लिए करता है, वह सब परमेश्वर के लिए जरूरी है, और मानवजाति के अस्तित्व में बने रहने के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। यदि परमेश्वर द्वारा सभी चीज़ों के लिए निर्धारित नियमों का उल्लंघन किया जाता, उन्हें तोड़ा या बाधित किया जाता तो कोई भी चीज़ अस्तित्व में नहीं रह पाती, जीवित रहने के लिए मानवजाति का वातावरण समाप्त हो जाता, और न ही उनका दैनिक जीवन आधार, और न ही वे स्वयं अस्तित्व में बने रहते। इस कारण से, मानवजाति के उद्धार हेतु परमेश्वर का प्रबंधन भी अस्तित्व में नहीं रहता।
हर चीज़ जिसकी हमने चर्चा की, हर एक चीज़, और हर एक वस्तु प्रत्येक व्यक्ति के जीवित रहने से घनिष्टता से जुड़ी हुई है। तुम लोग कह सकते हो, "तुम जो बात कह रहे हो वह बहुत ही बड़ी है, हम इसे नहीं देख पाते," और कदाचित् ऐसे लोग हैं जो कहेंगे "जो कुछ तुम कह रहे हो उसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है।" फिर भी, यह न भूलो कि तुम लोग सभी चीज़ों के मात्र एक हिस्से के रूप में जी रहे हो; तुम परमेश्वर के शासन के अंतर्गत सभी सृजित चीज़ों के बीच एक सदस्य हो। परमेश्वर द्वारा सृजित सभी चीज़ों को उसके शासन से अलग नहीं किया जा सकता, और न ही कोई व्यक्ति स्वयं को उसके शासन से अलग कर सकता है। उसके नियम को खोने और उसके संपोषण को खोने का अर्थ होगा कि लोगों का जीवन, लोगों का दैहिक जीवन लुप्त हो जाएगा। यह मानवजाति के जीवित रहने के लिए परमेश्वर द्वारा स्थापित विभिन्न वातावरण का महत्व है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस नस्ल के हो या किस भूभाग पर रहते हो, चाहे पश्चिम में हो या पूर्व में—तुम जीवित रहने के लिए उस वातावरण से अपने आपको अलग नहीं कर सकते जिसे परमेश्वर ने मानवजाति के लिए स्थापित किया है, और तुम जीवित रहने के लिए उस वातावरण के संपोषण और प्रयोजनों से अपने आपको अलग नहीं कर सकते जिसे उसने मनुष्यों के लिए स्थापित किया है। चाहे तुम्हारी आजीविका कुछ भी हो, तुम जीने के लिए जिन चीजों पर भी आश्रित हो, और अपने दैहिक जीवन को बनाए रखने के लिए तुम जिन चीजों पर भी निर्भर हो, परंतु तुम स्वयं को परमेश्वर के शासन और प्रबंधन से अलग नहीं कर सकते। कुछ लोग कहते हैं: "मैं तो किसान नहीं हूं, मैं जीने के लिए फसल नहीं उगाता हूँ। मैं अपने भोजन के लिए आसमानों पर आश्रित नहीं हूँ, अतः मैं जीवित रहने के लिए परमेश्वर के द्वारा स्थापित उस वातावरण में नहीं जी रहा हूँ। उस प्रकार के वातावरण ने मुझे कुछ नहीं दिया है।" क्या यह सही है? तुम कहते हो कि तुम अपने जीने के लिए फसल नहीं उगाते, लेकिन क्या तुम अनाज नहीं खाते हो? क्या तुम मांस और अण्डे नहीं खाते हो? क्या तुम सब्ज़ियां और फल नहीं खाते हो? हर चीज़ जो तुम खाते हो, वे सभी चीज़ें जिनकी तुम्हें ज़रूरत है, वे जीवित रहने के लिए उस वातावरण से अविभाज्य हैं जिसे परमेश्वर के द्वारा मानवजाति के लिए स्थापित किया गया था। मानवजाति की आवश्यकताओं से जुड़ी सारी चीजों के स्रोत को परमेश्वर द्वारा सृजित सभी चीज़ों से अलग नहीं किया जा सकता। ये सारी चीजें अपनी संपूर्णता में तुम्हारे जीवन के लिए जरूरी वातावरण का निर्माण करती हैं। वह जल जो तुम पीते हो, वे कपड़े जो तुम पहनते हो, और वे सभी चीज़ें जिन्हें तुम इस्तेमाल करते हो—इनमें से ऐसी कौन-सी चीज़ है जो परमेश्वर द्वारा सृजित चीज़ों से प्राप्त नहीं होती? कुछ लोग कहते हैं: "कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो इनसे प्राप्त नहीं होतीं। देखो, प्लास्टिक उन वस्तुओं में से एक है। यह एक रासायनिक चीज़ है, यह मानव-निर्मित चीज़ है।" क्या यह सही है? प्लास्टिक बिल्कुल मानव-निर्मित है, यह एक रासायनिक चीज़ है, किन्तु प्लास्टिक के मूल तत्व कहाँ से आए? मूल-तत्वों को परमेश्वर द्वारा सृजित सामग्री से प्राप्त किया गया। वे चीज़ें जिन्हें तुम देखते और जिनका तुम आनन्द उठाते हो, हर एक चीज़ जिसका तुम उपयोग करते हो, उन सब को परमेश्वर द्वारा सृजित चीज़ों से प्राप्त किया जाता है। दूसरे शब्दों में, कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी व्यक्ति की नस्ल क्या है, उसकी जीविका क्या है, या वे किस प्रकार के वातावरण में रहते हैं, वे अपने आपको परमेश्वर द्वारा प्रदत्त चीज़ों से अलग नहीं कर सकते।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 185
लोगों के हृदय में परमेश्वर की समझ जितनी अधिक होती है, उतनी ही उनके हृदय में उसके लिए जगह होती है। उनके हृदय में परमेश्वर का ज्ञान जितना विशाल होता है उनके हृदय में परमेश्वर की हैसियत उतनी ही बड़ी होती है। यदि जिस परमेश्वर को तुम जानते हो वह खोखला और अस्पष्ट है, तो जिस परमेश्वर में तुम विश्वास करते हो वह भी खोखला और अस्पष्ट होगा। जिस परमेश्वर को तुम जानते हो वह तुम्हारी स्वयं की व्यक्तिगत ज़िंदगी के दायरे तक ही सीमित है, और उसका सच्चे परमेश्वर स्वयं से कुछ लेना-देना नहीं है। इस तरह, परमेश्वर के व्यावहारिक कार्यों को जानना, परमेश्वर की वास्तविकता और उसकी सर्वशक्तिमत्ता को जानना, परमेश्वर स्वयं की सच्ची पहचान को जानना, जो उसके पास है और जो वह है उसे जानना, सभी सृजित चीज़ों के बीच प्रदर्शित उसके कार्य-कलाप को जानना—ये चीजें हर उस व्यक्ति के लिए अति महत्वपूर्ण हैं जो परमेश्वर को जानने की कोशिश में लगा है। इनका सीधा संबंध इस बात से है कि लोग सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं या नहीं। यदि तुम परमेश्वर के विषय में अपनी समझ को केवल शब्दों तक ही सीमित रखते हो, यदि तुम इसे अपने छोटे-छोटे अनुभवों, परमेश्वर के अनुग्रह के बारे में अपनी समझ तक, या परमेश्वर के लिए अपनी छोटी-छोटी गवाहियों तक ही सीमित रखते हो, तब मैं कहता हूँ कि जिस परमेश्वर पर तुम विश्वास करते हो वह सच्चा परमेश्वर स्वयं बिलकुल नहीं है। इतना ही नहीं, यह भी कहा जा सकता है कि जिस परमेश्वर पर तुम विश्वास करते हो वह एक काल्पनिक परमेश्वर है, न कि सच्चा परमेश्वर। क्योंकि सच्चा परमेश्वर हर चीज़ पर शासन करता है, जो हर चीज़ के मध्य चलता है, और हर चीज़ का प्रबंध करता है। सारी मानवजाति और सारी चीजों की नियति उसकी मुट्ठी में है। जिस परमेश्वर के बारे में मैं बात कर रहा हूँ उसके कार्य और कृत्य, मात्र लोगों के एक छोटे से भाग तक ही सीमित नहीं हैं। अर्थात्, वे केवल उन लोगों तक ही सीमित नहीं हैं जो वर्तमान में उसका अनुसरण करते हैं। उसके कर्म सभी चीज़ों में, सभी चीज़ों के अस्तित्व में, और सभी वस्तुओं के परिवर्तन के नियमों में नज़र आते हैं।
यदि तुम परमेश्वर द्वारा रची गयी सभी चीज़ों में परमेश्वर के किसी भी कर्म की पहचान नहीं कर सकते, तो तुम उसके किसी भी कर्म की गवाही नहीं दे सकते। यदि तुम परमेश्वर के लिए कोई गवाही नहीं दे सकते, यदि तुम निरन्तर उस छोटे तथाकथित परमेश्वर की बात करते रहे जिसे तुम जानते हो, वह परमेश्वर जो तुम्हारे स्वयं के विचारों तक ही सीमित है, और तुम्हारे मस्तिष्क के संकीर्ण दायरे में रहता है, यदि तुम उसी किस्म के परमेश्वर के बारे में बोलते रहे, तो परमेश्वर कभी तुम्हारी आस्था की प्रशंसा नहीं करेगा। जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, और यदि तुम ऐसा सिर्फ इस संदर्भ में करते हो कि तुम परमेश्वर के अनुग्रह का कितना आनन्द लेते हो, परमेश्वर के अनुशासन और उसकी ताड़ना को कैसे स्वीकार करते हो, और उसके लिए अपनी गवाही में उसके आशीषों का आनन्द कैसे लेते हो, तो यह बिलकुल ही अपर्याप्त है, और यह उसको कतई संतुष्ट नहीं कर सकता। यदि तुम परमेश्वर के लिए इस तरह गवाही देना चाहते हो जो उसकी इच्छा के अनुरूप हो, और सच्चे परमेश्वर स्वयं के लिए गवाही देना चाहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के कार्यों से उसके स्वरूप को समझना होगा। हर चीज़ पर उसके नियंत्रण से तुम्हें उसका अधिकार देखना चाहिये, और उस सत्य को देखना चाहिये कि कैसे वह समस्त मानवजाति का पालन-पोषण करता है। यदि तुम केवल यह स्वीकार करते हो कि तुम्हारा दैनिक भोजन और पेय और जीवन की तुम्हारी ज़रूरत की चीज़ें परमेश्वर से आती हैं, लेकिन तुम उस सत्य को नहीं देख पाते कि परमेश्वर अपनी रचना की सभी चीज़ों के माध्यम से संपूर्ण मानवजाति का संपोषण करता है, कि सभी चीज़ों पर अपने शासन के माध्यम से, वह संपूर्ण मानवजाति की अगुवाई करता है, तो तुम परमेश्वर के लिए गवाही देने में कभी भी सक्षम नहीं होगे। यह सब कहने का मेरा क्या उद्देश्य है? उद्देश्य यह है कि तुम सब इसे हल्के में न लो, कि तुम ऐसा न समझो कि ये विषय जिनके बारे में मैंने बात की है, वे जीवन में तुम लोगों के व्यक्तिगत प्रवेश से असंबद्ध हैं, कि तुम लोग इन विषयों को मात्र एक प्रकार के ज्ञान या सिद्धांत के रूप में न लो। यदि मैं जो कह रहा हूँ उसे तुम उस तरह के रवैये से सुनते हो, तो तुम्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। तुम लोग परमेश्वर को जानने के इस महान अवसर को खो दोगे।
इन सब चीज़ों के बारे में बात करने के पीछे मेरा लक्ष्य क्या है? मेरा लक्ष्य है कि लोग परमेश्वर को जानें, और लोग परमेश्वर के व्यावहारिक कार्यों को समझें। जब एक बार तुम परमेश्वर को समझ जाते हो और उसके कार्यों को जान जाते हो, केवल तभी तुम्हारे पास उसे जानने का अवसर या संभावना होती है। उदाहरण के लिए, यदि तुम किसी व्यक्ति को समझना चाहते हो, तो तुम उसे कैसे समझोगे? क्या उसके बाहरी रूप को देखकर उसे समझोगे? क्या वह जो पहनता है और जैसे तैयार होता है, यह देखकर उसे समझोगे? या उसके चलने के ढंग से समझोगे? क्या यह उसके ज्ञान के दायरे को देखकर समझोगे? (नहीं।) तो तुम किसी व्यक्ति को कैसे समझते हो? तुम उस व्यक्ति का आकलन उसकी बातचीत उसके व्यवहार, उसके विचार, वह स्वयं के बारे में जो कुछ व्यक्त और प्रकट करता है, उसके आधार पर करते हो। इस तरह से तुम किसी व्यक्ति को जानते हो, समझते हो। उसी प्रकार, यदि तुम लोग परमेश्वर को जानना चाहते हो, यदि तुम उसके व्यावहारिक पक्ष, उसके सच्चे पक्ष को समझना चाहते हो, तो तुम्हें उसे, उसके कर्मों से और उसके हर एक व्यावहारिक कृत्य के माध्यम से जानना होगा। यह सबसे अच्छा तरीका है, और यही एकमात्र तरीका है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 186
जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों की सृष्टि की, तब उसने उन्हें संतुलित करने के लिए, पहाड़ों और झीलों के वास की स्थितियों को संतुलित करने के लिए, पौधों और सभी प्रकार के पशुओं, पक्षियों, कीड़ों-मकोड़ों के वास की स्थितियों को संतुलित करने के लिए सभी प्रकार की पद्धतियों और तरीकों का उपयोग किया। उसका लक्ष्य था कि सभी प्रकार के प्राणियों को उन नियमों के अंतर्गत जीने और बहुगुणित होने की अनुमति दे जिन्हें उसने स्थापित किया था। सृष्टि की कोई भी चीज़ इन नियमों के बाहर नहीं जा सकती है, और उन्हें तोड़ा नहीं जा सकता है। केवल इस प्रकार के आधारभूत वातावरण के अंतर्गत ही मनुष्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी सकुशल जीवित रह सकते हैं और वंश-वृद्धि कर सकते हैं। यदि कोई प्राणी परमेश्वर के द्वारा स्थापित मात्रा या दायरे से बाहर चला जाता है, या वह उसके शासन के अधीन उस वृद्धि दर, प्रजनन आवृत्ति, या संख्या से अधिक बढ़ जाता है, तो जीवित रहने के लिए मानवजाति का वातावरण विनाश की भिन्न-भिन्न मात्राओं को सहेगा। और साथ ही, मानवजाति का जीवित रहना भी खतरे में पड़ जाएगा। यदि एक प्रकार का प्राणी संख्या में बहुत अधिक है, तो यह लोगों के भोजन को छीन लेगा, लोगों के जल-स्रोत को नष्ट कर देगा, और उनके निवासस्थान को बर्बाद कर देगा। उस तरह से, मनुष्य का प्रजनन या जीवित रहने की स्थिति तुरन्त प्रभावित होगी। उदाहरण के लिए, पानी सभी चीज़ों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यदि बहुत सारे चूहे, चींटियाँ, टिड्डियाँ और मेंढक या दूसरी तरह के बहुत से जानवर हों, तो वे बहुत सारा पानी पी जाएँगे। वे जो जल पीते हैं उसकी मात्रा बढ़ती जाती है, तो लोगों के पीने का पानी और पेयजल के स्त्रोतों के निश्चित दायरे में जल-स्रोत कम हो जाएँगे, जलीय क्षेत्र कम हो जाएँगे और उन्हें जल की कमी होगी। यदि लोगों के पीने का पानी नष्ट, दूषित, या खत्म हो जाता है क्योंकि सभी प्रकार के जानवर संख्या में बढ़ गए हैं, तो जीवित रहने के लिए उस प्रकार के कठोर वातावरण के अधीन, मानवजाति का जीवित रहना गंभीर रूप से खतरे में पड़ जाएगा। यदि एक प्रकार के या अनेक प्रकार के प्राणी अपनी उपयुक्त संख्या से आगे बढ़ जाते हैं, तो हवा, तापमान, आर्द्रता, और यहाँ तक कि मानवजाति के जीवित रहने के स्थान के भीतर की हवा के तत्व भी भिन्न-भिन्न मात्रा में ज़हरीले और नष्ट हो जाएँगे। इन परिस्थितियों के अधीन, मनुष्य का जीवित रहना और उसकी नियति भी उस प्रकार के वातावरण के खतरे में होगी। अतः, यदि ये संतुलन बिगड़ जाते हैं, तो वह हवा जिसमें लोग सांस लेते हैं, ख़राब हो जाएगी, वह जल जो वे पीते हैं, दूषित हो जाएगा, और वह तापमान जिसकी उन्हें ज़रुरत है वह भी बदल जाएगा, और भिन्न-भिन्न मात्रा से प्रभावित होगा। यदि ऐसा होता है, तो जीवित बचे रहने के लिए वातावरण जो स्वाभाविक रूप से मनुष्यजाति के हैं, बहुत बड़े प्रभावों और चुनौतियों के अधीन हो जाएँगे। इस परिस्थिति में जहाँ जीवित रहने के लिए मनुष्यों के आधारभूत वातावरण को नष्ट कर दिया गया है, मानवजाति की नियति और भविष्य की संभावनाएँ क्या होंगी? यह एक बहुत गंभीर समस्या है! क्योंकि परमेश्वर जानता है कि किस कारण से सृष्टि की प्रत्येक चीज़ मनुष्यजाति के वास्ते मौज़ूद है, हर एक प्रकार की चीज़ जिसे उसने बनाया है, उसकी भूमिका क्या है, इसका लोगों पर कैसा प्रभाव होता है, और यह मानवजाति के लिए कितना लाभ पहुँचाता है, परमेश्वर के हृदय में इन सब के लिए एक योजना है और वह सभी चीज़ों के हर एक पहलू का प्रबन्ध करता है जिसका उसने सृजन किया है, अतः हर एक कार्य जो वह करता है, मनुष्यों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण और ज़रूरी है। तो अब से जब तुम सभी परमेश्वर द्वारा सृजी गयी चीज़ों के मध्य कोई पारिस्थितिक घटना या प्राकृतिक नियम देखोगे, तो परमेश्वर द्वारा रची गयी किसी चीज़ की अनिवार्यता के विषय में फ़िर कभी संदेह नहीं रखोगे। तुम सभी चीज़ों के विषय में परमेश्वर की व्यवस्थाओं पर और मानवजाति की आपूर्ति करने के लिए उसके विभिन्न तरीकों पर मनमाने ढंग से फैसले लेने के लिए अज्ञानता भरे शब्दों का उपयोग नहीं करोगे। साथ ही तुम परमेश्वर की सृष्टि की सभी चीज़ों के लिए उसके नियमों पर मनमाने ढंग से निष्कर्ष नहीं निकालोगे।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 187
भौतिक संसार के विषय में, जब भी कुछ बातें या घटनाएँ लोगों की समझ में नहीं आती हैं, तो वे प्रासंगिक जानकारी को खोज सकते हैं, या उनके मूल और पृष्ठभूमि का पता लगाने के लिए विभिन्न माध्यमों का उपयोग कर सकते हैं। परन्तु जब दूसरे संसार की बात आती है जिसके बारे में हम आज बात कर रहे हैं—आध्यात्मिक संसार, जिसका अस्तित्व भौतिक संसार के बाहर है—तो लोगों के पास ऐसा भी कोई साधन या माध्यम बिलकुल नहीं है जिसके द्वारा इसके बारे में कुछ भी जाना जा सके। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? मैं ऐसा कहता हूँ क्योंकि, मानवजाति की दुनिया में, भौतिक संसार की हर चीज़ मनुष्य के भौतिक अस्तित्व से अवियोज्य है, और क्योंकि लोगों को ऐसा महसूस होता है कि भौतिक संसार की हर चीज़ उनकी भौतिक जीवन शैली और भौतिक जीवन से अवियोज्य है, इसलिए अधिकांश लोग केवल उन भौतिक चीज़ों से ही अवगत हैं, या उन्हें ही देखते हैं, जो उनकी आँखों के सामने होती हैं, जो चीज़ें उन्हें दिखाई पड़ती हैं। फिर भी, जब आध्यात्मिक दुनिया की बात आती है—कहने का तात्पर्य है कि हर चीज़ जो दूसरी दुनिया की है—तो यह कहना उचित होगा कि अधिकांश लोग विश्वास नहीं करते हैं। चूँकि लोग इसे देख नहीं सकते हैं, और वे मानते हैं कि इसे समझने की, या इसके बारे में कुछ भी जानने की आवश्यकता नहीं है, साथ ही आध्यात्मिक दुनिया भौतिक संसार से पूरी तरह से भिन्न है, और, परमेश्वर के दृष्टिकोण से तो यह खुली है—लेकिन मनुष्यों के लिए, यह रहस्य और गुप्त है—इसलिए लोगों को एक ऐसा मार्ग खोजने में अत्यंत कठिनाई होती है जिसके माध्यम से वे इस दुनिया के विभिन्न पहलुओं को समझ सकें। आध्यात्मिक दुनिया के विभिन्न पहलुओं, जिनके बारे में मैं बोलने जा रहा हूँ, उनका संबंध केवल परमेश्वर के प्रशासन और उसकी संप्रभुता से है: मैं किन्हीं रहस्यों का प्रकाशन नहीं कर रहा हूँ, न ही मैं तुम लोगों को उन रहस्यों में से कोई भी बता रहा हूँ, जिन्हें तुम लोग जानना चाहते हो। चूँकि यह परमेश्वर की संप्रभुता, परमेश्वर के प्रशासन, और परमेश्वर के भरण-पोषण से संबंधित है, इसलिए मैं केवल उस अंश के बारे में बोलूँगा जिसे जानना तुम लोगों के लिए आवश्यक है।
सबसे पहले, मैं तुम लोगों से एक प्रश्न पूछता हूँ : तुम लोगों के मन में आध्यात्मिक दुनिया क्या है? मोटे तौर पर बोला जाए, तो यह वह दुनिया है जो भौतिक संसार से बाहर की है, एक ऐसी दुनिया जो लोगों के लिए अदृश्य और अमूर्त दोनों है। फिर भी, तुम्हारी कल्पना में, आध्यात्मिक दुनिया को किस प्रकार का होना चाहिए? इसे न देख पाने के परिणामस्वरूप, शायद तुम लोग इसके बारे में सोच पाने में सक्षम नहीं हो। फिर भी, जब तुम लोग कुछ दन्तकथाएँ सुनते हो, तब तुम लोग इसके बारे में सोच रहे होते हो, और इसके बारे में सोचने से स्वयं को रोक नहीं पाते हो। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? कुछ ऐसी बात है जो बहुत से लोगों के साथ तब होती है जब वे छोटे होते हैं : जब कोई उन्हें कोई डरावनी कहानी—भूतों या आत्माओं के बारे में—सुनाता है तो वे अत्यंत भयभीत हो जाते हैं। आखिर वे क्यों भयभीत हो जाते हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि वे उन चीज़ों की कल्पना कर रहे होते हैं; यद्यपि वे उन्हें नहीं देख सकते हैं, उन्हें महसूस होता है कि वे उनके कमरों में चारों ओर हैं, किसी छिपे हुए या अंधेरे कोने में, और वे इतने डर जाते हैं कि उनकी सोने की हिम्मत नहीं होती है। विशेष रूप से, रात के समय वे अपने कमरे में अकेले रहने या अपने आँगन में अकेले जाने की हिम्मत नहीं करते हैं। यह तुम्हारी कल्पना की आध्यात्मिक दुनिया है, और लोगों को लगता है कि यह एक भयावह दुनिया है। सच्चाई तो यह है कि हर कोई इसके बारे में कुछ हद तक कल्पना करता है, और हर कोई इसे थोड़ा बहुत अनुभव कर सकता है।
आध्यात्मिक दुनिया क्या है? मैं तुम्हें एक छोटा-सा और सरल स्पष्टीकरण देता हूँ : आध्यात्मिक दुनिया एक महत्वपूर्ण स्थान है, एक ऐसा स्थान जो भौतिक संसार से भिन्न है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह महत्वपूर्ण है? हम इसके बारे में विस्तार से बात करने जा रहे हैं। आध्यात्मिक दुनिया का अस्तित्व मानवजाति के भौतिक संसार से अभिन्न रूप से जुड़ा है। सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर के प्रभुत्व में यह मानव के जीवन और मृत्यु के चक्र में एक बड़ी भूमिका निभाता है; यह इसकी भूमिका है, और यह उन कारणों में से एक है जिनकी वजह से इसका अस्तित्व महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह एक ऐसा स्थान है जो पाँच इंद्रियों के लिये अगोचर है, इसलिए कोई भी इस बात का सही-सही अनुमान नहीं लगा सकता कि इसका अस्तित्व है अथवा नहीं। इसके विभिन्न गत्यत्मक पहलू मानवीय अस्तित्व के साथ अंतरंगता से जुड़े हुए हैं, जिसके परिणामस्वरूप मानवजाति के जीवन की व्यवस्था भी आध्यात्मिक दुनिया से बेहद प्रभावित होती है। इसमें परमेश्वर की संप्रभुता शामिल है या फिर नहीं? शामिल है। जब मैं ऐसा कहता हूँ, तो तुम लोग समझ जाते हो कि क्यों मैं इस विषय पर चर्चा कर रहा हूँ : ऐसा इसलिए है क्योंकि यह परमेश्वर की संप्रभुता से और साथ ही उसके प्रशासन से संबंधित है। इस तरह के एक संसार में—जो लोगों के लिए अदृश्य है—इसकी हर स्वर्गिक आज्ञा, आदेश और प्रशासनिक प्रणाली भौतिक संसार के किसी भी देश की व्यवस्थाओं और प्रणालियों से बहुत उच्च है, और इस संसार में रहने वाला कोई भी प्राणी उनकी अवहेलना या उल्लंघन करने का साहस नहीं करेगा। क्या यह परमेश्वर की संप्रभुता और प्रशासन से संबंधित है? आध्यात्मिक संसार में, स्पष्ट प्रशासनिक आदेश, स्पष्ट स्वर्गिक आज्ञाएँ और स्पष्ट विधान हैं। विभिन्न स्तरों पर और विभिन्न क्षेत्रों में, सेवक सख्ती से अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हैं, और नियमों और विनियमों का पालन करते है, क्योंकि वे जानते हैं कि स्वर्गिक आज्ञा के उल्लंघन का परिणाम क्या होता है; वे स्पष्ट रूप से अवगत हैं कि किस प्रकार परमेश्वर दुष्टों को दण्ड और भले लोगों को इनाम देता है, और वह किस प्रकार सभी चीज़ों को चलाता है, और उन पर शासन करता है। इसके अतिरिक्त, वे स्पष्ट रूप से देखते हैं कि किस प्रकार परमेश्वर अपने स्वर्गिक आदेशों और विधानों को कार्यान्वित करता है। क्या ये उस भौतिक संसार से भिन्न हैं, जिसमें मानवजाति रहती है? वे दरअसल व्यापक रूप से भिन्न हैं। आध्यात्मिक संसार एक ऐसा संसार है जो भौतिक संसार से पूर्णतया भिन्न है। चूँकि यहाँ स्वर्गिक आदेश और विधान हैं, इसलिए यह परमेश्वर की संप्रभुता, प्रशासन, और इसके अतिरिक्त, परमेश्वर के स्वभाव तथा साथ ही उसके स्वरूप से संबंधित है। इसे सुनने के पश्चात्, क्या तुम लोगों को यह महसूस नहीं होता है कि इस विषय पर बोलना मेरे लिये अति आवश्यक है? क्या तुम लोग इसमें अंतर्निहित रहस्यों को जानना नहीं चाहते हो? (हाँ, हम चाहते हैं।) आध्यात्मिक दुनिया की अवधारणा ऐसी है। यद्यपि यह भौतिक संसार के साथ सहअस्तित्व में है, और साथ-साथ परमेश्वर के प्रशासन और उसकी संप्रभुता के अधीन है, फिर भी इस दुनिया का परमेश्वर का प्रशासन और उसकी संप्रभुता भौतिक संसार की अपेक्षा बहुत सख्त है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 188
मानवजाति में, मैं सभी लोगों को तीन प्रकारों में वर्गीकृत करता हूँ। पहले प्रकार के लोग अविश्वासी हैं, ये वे हैं जो धार्मिक विश्वासों से रहित हैं। ये अविश्वासी कहलाते हैं। अविश्वासियों की बहुत बड़ी संख्या केवल धन में विश्वास रखती है; वे केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं, वे भौतिकवादी हैं और केवल भौतिक संसार में विश्वास करते है—वे जीवन और मृत्यु के चक्र में और देवताओं और प्रेतों के बारे में कही गई बातों में विश्वास नहीं रखते हैं। मैं इन लोगों को अविश्वासियों के रूप में वर्गीकृत करता हूँ, और ये पहले प्रकार के हैं। दूसरा प्रकार अविश्वासियों से अलग विभिन्न मतों को मानने वाले लोगों का है। मानवजाति में, मैं इन मतों के लोगों को अनेक मुख्य समूहों में विभाजित करता हूँ : पहले यहूदी हैं, दूसरे कैथोलिक हैं, तीसरे ईसाई हैं, चौथे मुस्लिम और पाँचवें बौद्ध हैं; ये पाँच प्रकार हैं। ये विभिन्न प्रकार के मतों वाले लोग हैं। तीसरा प्रकार उन लोगों का है जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और इसमें तुम लोग शामिल हो। ऐसे विश्वासी वे लोग हैं जो आज परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। इन लोगों को दो प्रकारों में विभाजित किया जाता है : परमेश्वर के चुने हुए लोग और सेवाकर्ता। इन प्रमुख प्रकारों को स्पष्ट रूप से विभेदित किया गया है। तो अब, अपने मन में तुम लोग मनुष्यों के प्रकारों और क्रमों को स्पष्ट रूप से विभेदित करने में सक्षम हो, हो न? पहला प्रकार अविश्वासियों का है और मैं कह चुका हूँ कि अविश्वासी कौन हैं। क्या वे लोग जो आकाश में वृद्ध मनुष्य में विश्वास करते हैं, अविश्वासी हैं? कई अविश्वासी केवल आकाश में वृद्ध मनुष्य में विश्वास करते हैं; वे मानते हैं कि वायु, वर्षा, आकाशीय बिजली इत्यादि आकाश में इस वृद्ध मनुष्य द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं, जिस पर वे फसल बोने और काटने के लिए निर्भर रहते हैं—फिर भी जब परमेश्वर पर विश्वास करने का उल्लेख किया जाता है, तब वे उसमें विश्वास करने के अनिच्छुक हो जाते हैं। क्या इसे परमेश्वर में विश्वास कहा जा सकता है? ऐसे लोगों को अविश्वासियों में सम्मिलित किया जाता है। तुम इसे समझ गए, है न? इन श्रेणियों को समझने में ग़लती मत करना। दूसरे प्रकार में आस्था वाले लोग हैं और तीसरा प्रकार वे लोग हैं जो इस समय परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हैं। क्यों मैंने सभी मनुष्यों को इन प्रकारों में विभाजित किया है? (क्योंकि विभिन्न प्रकार के लोगों के अंत और गंतव्य भिन्न-भिन्न हैं।) यह इसका एक पहलू है। जब इन विभिन्न प्रजातियों और प्रकारों के लोग आध्यात्मिक दुनिया में लौटते हैं, तो उनमें से प्रत्येक का जाने का भिन्न स्थान होगा और वे जीवन और मृत्यु के चक्र की भिन्न—भिन्न व्यवस्थाओं के अधीन किए जाएँगे, और यही कारण है कि क्यों मैंने मनुष्यों को इन मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत किया है।
अविश्वासियों का जीवन और मृत्यु चक्र
आओ, हम अविश्वासियों के जीवन और मृत्यु के चक्र से आरम्भ करें। मृत्यु के पश्चात् किसी व्यक्ति को आध्यात्मिक दुनिया के एक नाज़िर द्वारा ले जाया जाता है। किसी व्यक्ति का ठीक-ठीक कौन—सा भाग ले जाया जाता है? उसकी देह नहीं, बल्कि उसकी आत्मा। जब उसकी आत्मा ले जायी जाती है, तब वह एक ऐसे स्थान पर पहुंचता है जो आध्यात्मिक दुनिया का एक अभिकरण है, एक ऐसा स्थान जो विशेष रूप से अभी-अभी मरे हुए लोगों की आत्मा को ग्रहण करता है। (ध्यान दें: किसी के भी मरने के बाद पहला स्थान जहाँ वे जाते हैं, आत्मा के लिए अजनबी होता है।) जब उन्हें इस स्थान पर ले जाया जाता है, तो एक अधिकारी पहली जाँचें करता है, उनका नाम, पता, आयु और उनके समस्त अनुभव की पुष्टि करता है। जब वे जीवित थे तो उन्होंने जो भी किया वह एक पुस्तक में लिखा जाता है और सटीकता के लिए उसका सत्यापन किया जाता है। इस सब की जाँच हो जाने के पश्चात्, उन मनुष्यों के पूरे जीवन के व्यवहार और कार्यकलापों का उपयोग यह निर्धारित करने के लिए किया जाता है कि उन्हें दण्ड दिया जाएगा या वे फिर से मनुष्य के रूप में जन्म लेना जारी रखेंगे, जो कि पहला चरण है। क्या यह पहला चरण भयावह है? यह अत्यधिक भयावह नहीं है, क्योंकि इसमें केवल इतना ही हुआ है कि मनुष्य एक अन्धकारमय और अपरिचित स्थान में पहुँचा है।
दूसरे चरण में, यदि इस मनुष्य ने जीवनभर बहुत से बुरे कार्य किये हैं और अनेक कुकर्म किये हैं, तब उससे निपटने के लिए उसे दण्ड के स्थान पर ले जाया जाएगा। यह वह स्थान होगा जो स्पष्ट रूप से लोगों के दण्ड के लिए उपयोग किया जाता है। उन्हें किस प्रकार के दण्ड दिया जाता है इसका वर्णन उनके द्वारा किये गए पापों पर, और इस बात पर निर्भर करता है कि मृत्यु से पूर्व उन्होंने कितने दुष्टतापूर्ण कार्य किए—यह इस द्वितीय चरण में होने वाली पहली स्थिति है। उनकी मृत्यु से पूर्व उनके द्वारा किये गये बुरे कार्यों और उनकी दुष्टताओं की वजह से, दण्ड के पश्चात् जब वे पुनः जन्म लेते हैं—जब वे एक बार फिर से भौतिक संसार में जन्म लेते हैं—तो कुछ लोग मनुष्य बनते रहेंगे, और कुछ पशु बन जाएँगे। कहने का अर्थ है कि, आध्यात्मिक दुनिया में किसी व्यक्ति के लौटने के पश्चात् उनके द्वारा किए गए दुष्टता के कार्यों की वजह से उन्हें दण्डित किया जाता है; इसके अतिरिक्त, उनके द्वारा किए गए दुष्टता के कार्य की वजह से, अपने अगले जन्म में वे सम्भवत: मनुष्य नहीं, बल्कि पशु बनकर लौटेंगे। जो पशु वे बन सकते हैं उनमें गाय, घोड़े, सूअर, और कुत्ते शामिल हैं। कुछ लोग पक्षी या बत्तख या कलहंस के रूप में पुनर्जन्म ले सकते हैं... पशुओं के रूप में पुनर्जन्म लेने के बाद, जब वे फिर से मरेंगे तो आध्यात्मिक दुनिया में लौट जाएँगे। वहाँ जैसा कि पहले हुआ, मरने से पहले उनके व्यवहार के आधार पर, आध्यात्मिक दुनिया तय करेगी कि वे मनुष्य के रुप में पुनर्जन्म लेंगे या नहीं। अधिकांश लोग बहुत अधिक दुष्टता करते हैं, और उनके पाप अत्यन्त गंभीर होते हैं, इसलिए उन्हें सात से बारह बार तक पशु के रूप में पुनर्जन्म लेना पड़ता है। सात से बारह बार—क्या यह भयावह है? (यह भयावह है।) तुम लोगों को क्या डराता है? किसी मनुष्य का पशु बनना—यह भयावह है। और एक मनुष्य के लिए, एक पशु बनने में सर्वाधिक पीड़ादायक बातें क्या हैं? किसी भाषा का न होना, केवल कुछ साधारण विचार होना, केवल उन्हीं चीज़ों को कर पाना जो पशु करते हैं और पशुओं वाला भोजन ही खा पाना, पशु के समान साधारण मानसिकता और हाव-भाव होना, सीधे खड़े हो कर चलने में समर्थ न होना, मनुष्यों के साथ संवाद न कर पाना, और यह तथ्य की मनुष्यों के किसी भी व्यवहार और गतिविधियों का पशुओं से कोई सम्बन्ध न होना। कहने का आशय है कि, सब चीज़ों के बीच, पशु होना सभी जीवित प्राणियों में तुम्हें निम्नतम कोटि का बना देता है, और यह मनुष्य होने से कहीं अत्यधिक दुःखदायी है। यह उन लोगों के लिए आध्यात्मिक दुनिया के दण्ड का एक पहलू है जिन्होंने बहुत अधिक दुष्टता के कार्य और बड़े पाप किए हैं। जब उनके दण्ड की प्रचण्डता की बात आती है, तो इसका निर्णय इस आधार पर लिया जाता है कि वे किस प्रकार के पशु बनते हैं। उदाहरण के लिए, क्या एक कुत्ता बनने की तुलना में एक सूअर बनना अधिक अच्छा है? कुत्ते की तुलना में सूअर अधिक अच्छा जीवन जीता है या बुरा? बदतर, है न? यदि लोग गाय या घोड़ा बनते हैं, तो वे एक सूअर की तुलना में अधिक बेहतर जीवन जिएंगे या बदतर? (बेहतर।) यदि कोई व्यक्ति बिल्ली के रूप में पुनर्जन्म लेता है तो क्या यह अधिक आरामदायक होगा? वह बिल्कुल वैसा ही पशु होगा, और एक बिल्ली होना एक गाय या घोड़ा होने की तुलना में अधिक आसान है क्योंकि बिल्लियाँ अपना अधिकांश समय नींद की सुस्ती में गुज़ारती हैं। गाय या घोड़ा बनना अधिक मेहनत वाला काम है। इसलिए यदि कोई व्यक्ति गाय या घोड़े के रुप में पुनर्जन्म लेता है, तो उन्हें कठिन परिश्रम करना पड़ता है जो एक कष्टप्रद दण्ड के समान है। गाय या घोड़ा बनने की तुलना में कुत्ता बनना कुछ अधिक बेहतर होगा, क्योंकि कुत्ते का अपने स्वामी के साथ निकट संबंध होता है। कुछ कुत्ते, कई वर्षों तक पालतू होने के बाद, अपने मालिक की कही हुई कई बातें समझने में समर्थ हो जाते हैं। कभी-कभी, कोई कुत्ता अपने मालिक की मनःस्थिति और अपेक्षाओं के अनुरूप बन सकता है और मालिक कुत्ते के साथ ज्यादा अच्छा व्यवहार करता है, और कुत्ता ज्यादा अच्छा खाता और पीता है, और जब वह पीड़ा में होता है तो इसकी अधिक देखभाल की जाती है। तो क्या कुत्ता एक अधिक सुखी जीवन व्यतीत नहीं करता है? इसलिये एक गाय या घोड़ा होने की तुलना में कुत्ता होना बेहतर है। इसमें, किसी व्यक्ति के दण्ड की प्रचण्डता यह निर्धारित करती है कि वह कितनी बार, और साथ ही किस प्रकार के पशु के रूप में जन्म लेता है।
चूँकि अपने जीवित रहने के समय उन्होनें बहुत से पाप किये थे, इसलिए कुछ लोगों को सात से बारह जन्म पशु के रूप में पुनर्जन्म लेने का दण्ड दिया जाता है। पर्याप्त बार दण्डित होने के पश्चात्, आध्यात्मिक दुनिया में लौटने पर उन्हें अन्यत्र ले जाया जाता है—एक ऐसे स्थान पर जहाँ विभिन्न आत्माएँ पहले ही दण्ड पा चुकी होती हैं, और उस प्रकार की होती हैं जो मनुष्य के रूप में जन्म लेने के लिये तैयार हो रही होती हैं। यह स्थान प्रत्येक आत्मा को उस प्रकार के परिवार जिसमें वे उत्पन्न होंगे, एक बार पुनर्जन्म लेने के बाद उनकी क्या भूमिका होगी, आदि के अनुसार श्रेणीबद्ध करता है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जब इस संसार में आएँगे तो गायक बनेंगे, इसलिए उन्हें गायकों के बीच रखा जाता है; कुछ लोग इस संसार में आएँगे तो व्यापारी बनेंगे और इसलिए उन्हें व्यापारी लोगों के बीच रखा जाता है; और यदि किसी को मनुष्य रूप में आने के बाद विज्ञान अनुसंधानकर्ता बनना है तो उसे अनुसंधानकर्ताओं के बीच रखा जाता है। उन्हें वर्गीकृत कर दिए जाने के पश्चात्, प्रत्येक को एक भिन्न समय और नियत तिथि के अनुसार भेजा जाता है, ठीक वैसे ही जैसे कि आजकल लोग ई-मेल भेजते हैं। इसमें जीवन और मृत्यु का एक चक्र पूरा हो जाएगा। जब कोई व्यक्ति आध्यात्मिक दुनिया में पहुँचता है उस दिन से ले कर जब तक उसका दण्ड समाप्त नहीं हो जाता है तब तक, या जब तक उसका एक पशु के रुप में अनेक बार पुनर्जन्म नहीं हो जाता है तथा वह मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेने की तैयारी कर रहा होता है तब यह प्रक्रिया पूर्ण होती है।
जहाँ तक उनकी बात है जिन्होंने दण्ड भोग लिया है और जो अब पशु के रूप में जन्म नहीं लेंगे, क्या उन्हें मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेने के लिए भौतिक संसार में तुरंत भेजा जाएगा? या उन्हें मनुष्यों के बीच आने से पहले कितना समय लगेगा? वह आवृत्ति क्या है जिसके साथ यह हो सकता है? इसके कुछ लौकिक प्रतिबंध हैं। आध्यात्मिक दुनिया में होने वाली हर चीज़ कुछ उचित लौकिक प्रतिबंधों और नियमों के अधीन है—जिसे, यदि मैं संख्याओं के साथ समझाऊँ, तो तुम लोग समझ जाओगे। उनके लिये जो अल्पावधि में पुनर्जन्म लेते हैं, जब वे मरते हैं तो मनुष्य के रूप में उनके पुनर्जन्म की तैयारियाँ पहले ही की जा चुकी होंगी। यह हो सकने का अल्पतम समय तीन दिन है। कुछ लोगों के लिए, इसमें तीन माह लगते हैं, कुछ के लिए इसमें तीन वर्ष लगते हैं, कुछ के लिए इसमें तीस वर्ष लगते हैं, कुछ के लिए इसमें तीन सौ वर्ष लगते हैं, इत्यादि। तो इन लौकिक नियमों के बारे में क्या कहा जा सकता है, और उनकी विशिष्टताएँ क्या हैं? यह भौतिक संसार—मनुष्यों के संसार—किसी आत्मा से क्या चाहता है, इस पर और उस भूमिका पर आधारित होता है जिसे इस आत्मा को इस संसार में निभाना है। जब लोग साधारण व्यक्ति के रूप में पुनर्जन्म लेते हैं, तो उनमें से अधिकांश अतिशीघ्र पुनर्जन्म लेते हैं, क्योंकि मनुष्य के संसार को ऐसे साधारण लोगों की महती आवश्यकता होती है और इसलिए तीन दिन के पश्चात् वे एक ऐसे परिवार में भेज दिए जाते हैं जो उनके मरने से पहले के परिवार से सर्वथा भिन्न होता है। परन्तु कुछ ऐसे होते हैं जो इस संसार में विशेष भूमिका निभाते हैं। "विशेष" का अर्थ है कि मनुष्यों के संसार में उनकी कोई बड़ी माँग नहीं होती है; न ही ऐसी भूमिका के लिये अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता होती है, इसलिए इसमें तीन सौ वर्ष लग सकते हैं। दूसरे शब्दों में, यह आत्मा हर तीन सौ वर्ष में एक बार अथवा यहाँ तक कि तीन हजार वर्ष में भी एक केवल बार आएगी। ऐसा क्यों है? ऐसा इस तथ्य के कारण है कि तीन सौ वर्ष या तीन हज़ार वर्ष तक संसार में ऐसी भूमिका की आवश्यकता नहीं है, इसलिए उन्हें आध्यात्मिक दुनिया में कहीं पर रखा जाता है। उदाहरण के लिए, कनफ्यूशियस को लें, पारंपरिक चीनी संस्कृति पर उसका गहरा प्रभाव था और उसके आगमन ने उस समय की संस्कृति, ज्ञान, परम्परा और उस समय के लोगों की विचारधारा पर गहरा प्रभाव डाला था। परन्तु इस तरह के मनुष्य की हर एक युग में आवश्यकता नहीं होती है, इसलिए उसे पुनर्जन्म लेने से पहले, तीन सौ या तीन हजार वर्ष तक प्रतीक्षा करते हुए, आध्यात्मिक दुनिया में ही रहना पड़ा था। क्योंकि मनुष्यों के संसार को ऐसे किसी व्यक्ति की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए उसे निष्क्रिय रुप से प्रतीक्षा करनी पड़ी, क्योंकि इस तरह की बहुत कम भूमिकाएँ थी, उसके करने के लिए बहुत कम था, इसलिए उसे, निष्क्रिय, और मनुष्य के संसार में उसकी आवश्यकता पड़ने पर भेजे जाने के लिए, अधिकांश समय आध्यात्मिक दुनिया में कहीं पर रखना पड़ा था। जिस बारम्बारता के साथ अधिकतर लोग पुनर्जन्म लेते हैं उसके लिए इस प्रकार के आध्यात्मिक दुनिया के लौकिक नियम हैं। लोग चाहे कोई साधारण या विशेष हों, आध्यात्मिक दुनिया में लोगों के पुनर्जन्म लेने की प्रक्रिया के लिये उचित नियम और सही अभ्यास हैं, और ये नियम और अभ्यास परमेश्वर द्वारा भेजे जाते हैं, उनका निर्णय या नियन्त्रण आध्यात्मिक दुनिया के किसी नाज़िर या प्राणी के द्वारा नहीं किया जाता है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 189
किसी आत्मा के लिए उसका पुनर्जन्म, इस जीवन में उसकी भूमिका क्या है, किस परिवार में वह जन्म लेती है और उसका जीवन किस प्रकार का होता है, इन सबका उस आत्मा के पिछले जीवन से गहरा संबंध होता है। मनुष्य के संसार में हर प्रकार के लोग आते हैं, और उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिकाएँ भिन्न—भिन्न होती हैं, उसी तरह से उनके द्वारा किए जाने वाले कार्य भिन्न-भिन्न होते हैं। ये कौन से कार्य हैं? कुछ लोग अपना कर्ज़ चुकाने आते हैं: यदि उन्होंने पिछली ज़िंदगी में किसी से बहुत सा पैसा उधार लिया था, तो वे इस ज़िंदगी में उस कर्ज़ को चुकाने के लिए आते हैं। कुछ लोग, इस बीच, अपना ऋण उगाहने के लिए आए हैं: विगत जीवन में उनके साथ बहुत सी चीज़ों में, और अत्यधिक पैसों का घोटाला किया गया था, और इसलिए उनके आध्यात्मिक दुनिया में आने के बाद, आध्यात्मिक दुनिया उन्हें न्याय देगी और उन्हें इस जीवन में अपना कर्ज़ा उगाहने देगी। कुछ लोग एहसान का कर्ज़ चुकाने के लिए आते हैं: उनके पिछले जीवन के दौरान—यानि उनके पिछले पुनर्जन्म में—कोई उनके प्रति दयावान था, और इस जीवन में उन्हें पुनर्जन्म लेने के लिए एक बड़ा अवसर प्रदान किया गया है और इसलिए वे उस कृतज्ञता का बदला चुकाने के लिए पुनर्जन्म लेते हैं। इस बीच, दूसरे किसी का जीवन लेने के लिए इस जीवन में पैदा हुए हैं। और वे किसका जीवन लेते हैं? उन व्यक्तियों का जिन्होंने पिछले जन्मों में उनके प्राण लिये थे। सारांश में, प्रत्येक व्यक्ति का वर्तमान जीवन अपने विगत जीवनों के साथ प्रगाढ़ रुप से संबंध रखता है, यह संबंध तोड़ा नहीं जा सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति का वर्तमान जीवन उसके पिछले जीवन से बहुत अधिक प्रभावित होता है। उदाहरण के लिए, हम कहते हैं कि झांग ने अपनी मृत्यु से पहले ली को एक बड़ी मात्रा में पैसों का धोखा दिया था। तो क्या झांग ली का ऋणी बन गया? वह ऋणी है, तो क्या यह स्वाभाविक है कि ली को झांग से अपना ऋण वसूल करना चाहिए? नतीजतन, उनकी मृत्यु के उपरान्त, उनके बीच एक ऋण है जिसका निपटान अवश्य ही किया जाना चाहिए। जब वे पुनर्जन्म लेते हैं और झांग मनुष्य बनता है, तो किस प्रकार से ली उससे अपना ऋण वसूल करता है? एक तरीका है झांग के पुत्र के रुप में पुनर्जन्म लेकर; झांग खूब धन अर्जित करता है जिसे ली द्वारा उड़ा दिया जाता है। चाहे झांग कितना ही धन क्यों न कमाये, उसका पुत्र ली, उसे लुटा देता है। चाहे झांग कितना ही धन क्यों न अर्जित करे, वह कभी पर्याप्त नहीं होता है; और इस बीच उसका पुत्र किसी न किसी कारण से पिता के धन को विभिन्न तरीकों से उड़ा देता है। झांग हैरान रह जाता है, वह सोचता है, "मेरा यह पुत्र हमेशा अपशकुन ही क्यों लाता है? ऐसा क्यों है कि दूसरों के पुत्र इतने शिष्ट हैं? क्यों मेरा ही पुत्र महत्वकांक्षी नहीं है, वह इतना निकम्मा और धन अर्जित करने के अयोग्य क्यों है, और क्यों मुझे सदा उसकी सहायता करनी पड़ती है? चूँकि मुझे उसे सहारा देना है तो मैं सहारा दूँगा—किन्तु ऐसा क्यों है कि चाहे मैं कितना ही धन उसे क्यों न दूँ, वह सदा और अधिक चाहता है? क्यों वह दिनभर में कोई ईमानदारी का काम करने के योग्य नहीं है, और उसके बजाय बाकी सब चीजों जैसे कि आवारागर्दी, खान-पीना, वेश्यावृत्ति और जुएबाजी करने में ही लगा रहता है? आखिर ये हो क्या रहा है?" फिर झांग कुछ समय तक विचार करता है: "ऐसा हो सकता है कि विगत जीवन में मैं उसका ऋणी रहा हूँ? तो ठीक है, मैं वह कर्ज उतार दूँगा! जब तक मैं पूरा चुकता नहीं कर दूँगा, यह मामला समाप्त नहीं होगा!" वह दिन आ सकता है जब ली अपना ऋण वसूल कर लेता है, और जब वह चालीस या पचास के दशक में चल रहा होता है, तो हो सकता है कि एक दिन अचानक उसे चेतना आए और वह महसूस करे कि, "अपने जीवन के पूरे पूर्वार्द्ध में मैंने एक भी भला काम नहीं किया है! मैंने अपने पिता के कमाये हुए सारे धन को उड़ा दिया, इसलिए मुझे एक अच्छा इन्सान बनने की शुरुआत करनी चाहिए! मैं स्वयं को मज़बूत बनाऊँगा; मैं एक ऐसा व्यक्ति बनूँगा जो ईमानदार हो, और उचित रूप से जीवन जीता हो, और मैं अपने पिता को फिर कभी दुःख नहीं पहुँचाऊँगा!" वह ऐसा क्यों सोचता है? वह अचानक अच्छे में कैसे बदल गया? क्या इसका कोई कारण है? क्या कारण है? (ऐसा इसलिए है क्योंकि ली ने अपना ऋण वसूल कर लिया है, झांग ने अपना कर्ज़ चुका दिया है।) इसमें, कार्य-कारण है। कहानी बहुत-बहूत पहले आरम्भ हुई थी, उनके मौजूदा जीवन से पहले, उनके विगत जीवन की यह कहानी उनके वर्तमान जीवन तक लायी गई है, और दोनों में से कोई भी अन्य को दोष नहीं दे सकता है। चाहे झांग ने अपने पुत्र को कुछ भी क्यों न सिखाया हो, उसके पुत्र ने कभी नहीं सुना, और न ही एक दिन भी ईमानदारी से कार्य किया। परन्तु जिस दिन कर्ज चुका दिया गया, उसके पुत्र को सिखाने की कोई आवश्यकता नहीं रही—वह स्वाभाविक रुप से समझ गया। यह एक साधारण सा उदाहरण है। क्या ऐसे अनेक उदाहरण हैं? (हाँ, हैं।) यह लोगों को क्या बताता है? (कि उन्हें अच्छा बनना चाहिए और दुष्टता नहीं करनी चाहिए।) उन्हें कोई दुष्टता नहीं करनी चाहिए, और उनके कुकर्मों का प्रतिफल मिलेगा! अधिकांश अविश्वासी बहुत दुष्टता करते हैं, और उन्हें उनके कुकर्मों का प्रतिफल मिलता है, ठीक है ना? परन्तु क्या यह प्रतिफल मनमाना है? हर कार्य कि पृष्ठभूमि होती है और उसके प्रतिफल का एक कारण होता है। क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारे किसी के साथ पैसे की धोखाधड़ी करने के बाद तुम्हें कुछ नहीं होगा? क्या तुम्हें लगता है कि उस पैसे की ठगी करने के पश्चात्, तुम्हें कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ेगा? यह तो असंभव होगा; और निश्चित रूप से इसके परिणाम होंगे! इस बात की परवाह किए बिना कि वे कौन हैं, या वे यह विश्वास करते हैं अथवा नहीं कि परमेश्वर है, सभी व्यक्तियों को अपने व्यवहार का उत्तरदायित्व लेना होगा और अपनी करतूतों के परिणामों को भुगतना होगा। इस साधारण से उदाहरण के संबंध में—झांग को दण्डित किया जाना और ली का ऋण चुकाया जाना—क्या यह उचित नहीं है? जब लोग इस प्रकार के कार्य करते हैं तो इसी प्रकार का परिणाम होता है। यह आध्यात्मिक दुनिया के प्रशासन से अवियोज्य है। अविश्वासी होने के बावजूद, जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, उनका अस्तित्व ऐसी स्वर्गिक आज्ञाओं और आदेशों के अधीन होता है, इससे कोई बच कर नहीं भाग सकता है और इस सच्चाई से कोई नहीं बच सकता है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 190
वे लोग जिन्हें परमेश्वर में विश्वास नहीं है, वे प्रायः मानते हैं कि मनुष्य को दृश्यमान प्रत्येक चीज़ अस्तित्व में है, जबकि प्रत्येक चीज जिसे देखा नहीं जा सकता, या जो लोगों से बहुत दूर है, वह अस्तित्व में नहीं है। वे यह मानना पंसद करते हैं कि "जीवन और मृत्यु का चक्र" नहीं होता है, और कोई "दण्ड" नहीं होता है; इसलिए, वे बिना किसी मलाल के पाप और दुष्टता करते हैं। बाद में वे दण्डित किये जाते हैं, या पशु के रूप में पुनर्जन्म लेते हैं। अविश्वासियों में से अधिकतर प्रकार के लोग इस दुष्चक्र में फँस जाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि आध्यात्मिक दुनिया समस्त जीवित प्राणियों के अपने प्रशासन में सख्त है। चाहे तुम विश्वास करो अथवा नहीं, वह तथ्य अस्तित्व में रहता है, क्योंकि एक भी व्यक्ति या वस्तु उस दायरे से बच नहीं सकती है जो परमेश्वर अपनी आँखों से देखता है, और एक भी व्यक्ति या वस्तु उसकी स्वर्गिक आज्ञाओं और आदेशों के नियमों और उनकी सीमाओं से बच नहीं सकती है। इस प्रकार, यह साधारण सा उदाहरण हर एक को बताता है कि इस बात की परवाह किए बिना कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो अथवा नहीं, पाप करना और दुष्टता करना अस्वीकार्य है और हर कार्य के परिणाम होते हैं। जब कोई, जिसने किसी को धन का धोखा दिया है, इस प्रकार से दण्डित किया जाता है, तो ऐसा दण्ड उचित है। इस तरह के आम तौर पर देखे जाने वाले व्यवहार को आध्यात्मिक दुनिया में दण्डित किया जाता है और ऐसा दण्ड परमेश्वर के आदेशों और स्वर्गिक आज्ञाओं द्वारा दिया जाता है। इसलिए गंभीर आपराधिक और दुष्टतापूर्ण व्यवहार—बलात्कार और लूटपाट, धोखाधड़ी और कपट, चोरी और डकैती, हत्या और आगजनी, इत्यादि—और भी अधिक भिन्न-भिन्न उग्रता वाले दण्ड की श्रृंखला के अधीन किए जाते हैं। और इन भिन्न-भिन्न उग्रता वाले दंडों की श्रृंखला में क्या शामिल हैं? उनमें से कुछ उग्रता के स्तर का निर्धारण करने के लिये समय का प्रयोग करते हैं, जबकि कुछ विभिन्न तरीकों का उपयोग करके ऐसा करते हैं; और अन्य इस निर्धारण के माध्यम से करते हैं कि लोग पुनर्जन्म के बाद कहाँ जाते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग गालियाँ बकने वाले होते हैं। "गालियाँ बकने वाले" किसे संदर्भित करता है? इसका अर्थ होता है प्रायः दूसरों को गाली देना और द्वेषपूर्ण भाषा का, ऐसी भाषा का उपयोग करना जो दूसरों को कोसती है। द्वेषपूर्ण भाषा क्या प्रकट करती है? यह प्रकट करती है कि उस व्यक्ति का हृदय कलुषित है। द्वेषपूर्ण भाषा जो लोगों को कोसती है, प्रायः ऐसे ही लोगों के मुख से निकलती है, और ऐसी द्वेषपूर्ण भाषा कठोर परिणाम लाती है। इन लोगों के मरने और उचित दण्ड भोग लेने के पश्चात्, उनका गूंगे के रूप में पुनर्जन्म हो सकता है। कुछ लोग, जब वे जीवित रहते हैं, तो बडे चौकस रहते हैं, वे प्रायः दूसरों का लाभ उठाते हैं, उनकी छोटी-छोटी योजनाएँ विशेषरूप से सुनियोजित होती हैं, और वे लोगों को बहुत नुकसान पहुँचती हैं। जब उनका पुनर्जन्म होता है, तो वे मूर्ख या मानसिक रूप से विकलांग हो सकते हैं। कुछ लोग दूसरों के निजी जीवन में अक्सर ताक-झाँक करते हैं; उनकी आँखें बहुत सा वह भी देखती हैं जिसकी जानकारी उन्हें नहीं होना चाहिए, और वे ऐसा बहुत कुछ जान लेते हैं जो उन्हें नहीं जानना चाहिए। नतीजतन, जब उनका पुनर्जन्म होता है, तो वे अन्धे हो सकते हैं। कुछ लोग जब जीवित होते हैं तो बहुत फुर्तीले होते हैं, वे प्रायः झगड़ते हैं और बहुत दुष्टता करते हैं। इसलिए वे विकलांग, लंगड़े, एक बाँह विहीन के रूप में पुनर्जन्म ले सकते हैं; या वे कुबड़े, या टेढ़ी गर्दन वाले, लचक कर चलने वाले के रूप में पुनर्जन्म ले सकते हैं या उनका एक पैर दूसरे की अपेक्षा छोटा हो सकता है, इत्यादि। इसमें, उन्हें अपने जीवित रहने के दौरान की गई दुष्टता के स्तर के आधार पर विभिन्न दण्डों के अधीन किया गया है। तुम लोगों को क्या लगता है कि कुछ लोग भेंगे क्यों होते हैं? क्या ऐसे काफी लोग हैं? आजकल ऐसे बहुत से लोग हैं। कुछ लोग इसलिए भेंगे होते हैं क्योंकि अपने विगत जीवन में उन्होंने अपनी आँखों का बहुत अधिक उपयोग किया था और बहुत से बुरे कार्य किए थे, और इसलिए इस जीवन में उनका जन्म भेंगे के रूप में होता है और गंभीर मामलों में वे अन्धे भी जन्मे हैं। यह प्रतिफल है! कुछ लोग अपनी मृत्यु से पूर्व दूसरों के साथ बहुत अच्छी तरह से निभाते हैं; वे अपने रिश्तेदारों, दोस्तों, साथियों, या उनसे जुड़ें लोगों के लिए कई अच्छे कार्य करते हैं। वे दूसरों को दान देते हैं और उनकी सहायता करते हैं, या आर्थिक रुप से उनकी सहायता करते हैं, लोग उनके बारे में बहुत अच्छी राय रखते हैं। जब ऐसे लोग आध्यात्मिक दुनिया में वापस आते है तब उन्हें दंडित नहीं किया जाता है। किसी अविश्वासी को किसी भी प्रकार से दण्डित नहीं किए जाने का अर्थ है कि वह बहुत अच्छा इन्सान था। परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करने के बजाय, वे केवल आकाश में वृद्ध व्यक्ति पर विश्वास करते हैं। ऐसा व्यक्ति केवल इतना ही विश्वास करता है कि उससे ऊपर कोई आत्मा है जो हर उस चीज़ को देखती है जो वह करता है—बस यही है जिसमें यह व्यक्ति विश्वास रखता है। इसका परिणाम होता है कि यह व्यक्ति कहीं बेहतर व्यवहार वाला होता। ये लोग दयालु और परोपकारी होते हैं और जब अन्ततः वे आध्यात्मिक दुनिया में लौटते हैं, तो वह उनके साथ बहुत अच्छा व्यवहार करेगी और शीघ्र ही उनका पुनर्जन्म होगा। जब वे पुनः पैदा होंगे, तो वे किस प्रकार के परिवारों में आएँगे? यद्यपि वे परिवार धनी नहीं होंगे, किन्तु वे किसी नुकसान से मुक्त होंगी, इसके सदस्यों के बीच समरसता होगी; पुनर्जन्म पाए ये लोग अपने दिन सुरक्षा, खुशहाली में गुज़रेंगे और हर कोई आनंदमय होगा, और अच्छा जीवन जिएगा। जब ये लोग प्रौढ़ावस्था में पहुँचेंगे, तो उनके बड़े, भरे-पूरे परिवार होंगे, उनकी संतानें बुद्धिमान होंगी और सफलता का आनंद लेंगी, और उनके परिवार सौभाग्य का आनन्द लेंगे—और इस तरह का परिणाम बहुत हद तक इन लोगों के विगत जीवन से जुड़ा होता है। कहने का आशय है कि, कोई व्यक्ति मरने के बाद कहाँ जाता है और कहाँ उसका पुनर्जन्म होता है, वह पुरुष होगा अथवा स्त्री, उसका ध्येय क्या है, जीवन में वह किन परिस्थितियों से गुज़रेगा, उसे कौनसी असफलताएँ मिलेंगी, वह किन आशीषों का सुख भोगेगा, वह किनसे मिलेगा और उसके साथ क्या होगा—कोई भी इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता है, इससे बच नहीं सकता है, या इससे छुप नहीं सकता है। कहने का अर्थ है कि, तुम्हारा जीवन निश्चित कर दिए जाने के पश्चात्, तुम्हारे साथ जो भी होता है उसमें—तुम इससे बचने का कैसा भी, किसी भी साधन से प्रयास करो—आध्यात्मिक दुनिया में परमेश्वर ने तुम्हारे लिये जो जीवन पथ निर्धारित कर दिया है उसके उल्लंघन का तुम्हारे पास कोई उपाय नहीं है। क्योंकि जब तुम पुनर्जन्म लेते हो, तो तुम्हारे जीवन का भाग्य पहले ही निश्चित किया जा चुका होता है। चाहे वह अच्छा हो अथवा बुरा, प्रत्येक को इसका सामना करना चाहिए, और आगे बढते रहना चाहिए। यह एक ऐसा मुद्दा है जिससे इस संसार में रहने वाला कोई भी बच नहीं सकता है, और कोई भी मुद्दा इससे अधिक वास्तविक नहीं है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 191
क्या अब तुम लोगों ने देखा कि परमेश्वर के पास अविश्वासियों के जीवन और मृत्यु के चक्र के लिए बिल्कुल सटीक और कठोर जाँच और व्यवस्था है? सबसे पहले, उसने आध्यात्मिक राज्य में विभिन्न स्वर्गिक आज्ञाएँ, आदेश और प्रणालियाँ स्थापित की हैं, और एक बार इनकी घोषणा हो जाने के बाद, आध्यात्मिक दुनिया के विभिन्न आधिकारिक पदों के प्राणियों के द्वारा, परमेश्वर के द्वारा निर्धारित किए गए अनुसार, उन्हें बहुत कड़ाई से कार्यान्वित किया जाता है, और कोई भी उनका उल्लंघन करने का साहस नहीं करता है। और इसलिए, मनुष्य के संसार में मानवजाति के जीवन और मृत्यु के चक्र में, चाहे कोई पशु के रूप में पुनर्जन्म ले या इंसान के रूप में, दोनों के लिए नियम हैं। क्योंकि ये नियम परमेश्वर की ओर से आते हैं, इसलिए उन्हें तोड़ने का कोई साहस नहीं करता है, न ही कोई उन्हें तोडने में समर्थ है। यह केवल परमेश्वर की इस संप्रभुता की वजह से है, और चूंकि ऐसे नियम अस्तित्व में हैं, इसलिए यह भौतिक संसार, जिसे लोग देखते हैं नियमित और व्यवस्थित है; यह केवल परमेश्वर की इस संप्रभुता के कारण ही है कि मनुष्य उस दूसरे संसार के साथ शान्ति से रहने में समर्थ है जो मानवजाति के लिए पूर्णरूप से अदृश्य है और इसके साथ समरसता से रहने में सक्षम है—जो पूर्ण रूप से परमेश्वर की संप्रभुता से अभिन्न है। व्यक्ति के दैहिक जीवन की मृत्यु के पश्चात्, आत्मा में अभी भी जीवन रहता है, और इसलिए यदि वह परमेश्वर के प्रशासन के अधीन नहीं होती तो क्या होता? आत्मा हर स्थान पर भटकती रहती, हर स्थान में हस्तक्षेप करती, और यहाँ तक कि मनुष्य के संसार में जीवित प्राणियों को भी हानि पहुँचाती। ऐसी हानि केवल मानवजाति को ही नहीं पहुँचाई जाती, बल्कि वनस्पति और पशुओं की ओर भी पहुँचाई जा सकती थी—लेकिन सबसे पहले हानि लोगों को पहुँचती। यदि ऐसा होता—यदि ऐसी आत्मा प्रशासनरहित होती, वाकई लोगों को हानि पहुँचाती, और वाकई दुष्टता के कार्य करती—तो ऐसी आत्मा का भी आध्यात्मिक दुनिया में ठीक से निपटान किया जाता: यदि चीज़ें गंभीर होती तो शीघ्र ही आत्मा का अस्तित्व समाप्त हो जाता और उसे नष्ट कर दिया जाता। यदि संभव हुआ तो, उसे कहीं रख दिया जाएगा और फिर उसका पुनर्जन्म होगा। कहने का आशय है कि, आध्यात्मिक दुनिया में विभिन्न आत्माओं का प्रशासन व्यवस्थित होता है, और उसे चरणबद्ध तरीके से तथा नियमों के अनुसार किया जाता है। यह केवल ऐसे प्रशासन के कारण ही है कि मनुष्य का भौतिक संसार अराजकता में नहीं पड़ा है, कि भौतिक संसार के मनुष्य एक सामान्य मानसिकता, साधारण तर्कशक्ति और एक व्यवस्थित दैहिक जीवन धारण करते हैं। मानवजाति के केवल ऐसे सामान्य जीवन के बाद ही वे जो देह में रहते हैं, वे पनपते रहना और पीढ़ी-दर-पीढ़ी संतान उत्पन्न करना जारी रखने में समर्थ हो सकते हैं।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 192
जब अविश्वासियों की बात आती है, तो क्या परमेश्वर की कार्रवाइयों के पीछे अच्छों को पुरस्कृत करने और दुष्टों को दण्ड देने का सिद्धांत है? क्या कोई अपवाद हैं? (नहीं।) क्या तुम लोग देखते हो कि परमेश्वर की कार्यवाइयों के पीछे एक सिद्धांत है? अविश्वासी वास्तव में परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, न ही वे परमेश्वर के आयोजनों का पालन करते हैं। इसके अलावा वे उसकी संप्रभुता से अनभिज्ञ हैं, उसे स्वीकार तो बिल्कुल नहीं करते हैं। अधिक गंभीर बात यह है कि वे परमेश्वर की निन्दा करते हैं और उसे कोसते हैं, और उन लोगों के प्रति शत्रुतापूर्ण होते हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं। परमेश्वर के प्रति उनके ऐसे रवैये के बावजूद, उनके प्रति परमेश्वर का प्रशासन अपने सिद्धांतो से विचलित नहीं होता है; वह अपने सिद्धांतों और अपने स्वभाव के अनुसार व्यवस्थित रूप से उन्हें प्रशासित करता है। उनकी शत्रुता को वह किस प्रकार लेता है? अज्ञानता के रूप में! नतीजतन, उसने इन लोगों का—अविश्वासियों में से अधिकतर का—अतीत में एक बार पशु के रूप में पुनर्जन्म करवाया है। तो परमेश्वर की नज़रों में अविश्वासी सही मायने में हैं क्या? वे सब जंगली जानवर हैं। परमेश्वर जंगली जानवरों और साथ ही मानवजाति को प्रशासित करता है, और इस प्रकार के लोगों के लिए उसके सिद्धांत एक समान हैं। यहाँ तक कि इन लोगों के उसके प्रशासन में उसके स्वभाव को अभी भी देखा जा सकता है, जैसा कि सभी चीज़ों पर उसके प्रभुत्व के पीछे उसकी व्यवस्थाओं को देखा जा सकता है। और इसलिए, क्या तुम उन सिद्धांतों में परमेश्वर की संप्रभुता को देखते हो जिनके द्वारा वह उन अविश्वासियों को प्रशासित करता है जिसका मैंने अभी-अभी उल्लेख किया है? क्या तुम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देखते हो? (हम देखते हैं।) दूसरे शब्दों में, चाहे वह किसी भी चीज़ से क्यों न निपटे, परमेश्वर अपने सिद्धांतों और स्वभाव के अनुसार कार्य करता है। यही परमेश्वर का सार है; वह उन आदेशों या स्वर्गिक आज्ञाओं को यूँ ही कभी नहीं तोड़ेगा जो उसने स्थापित किए हैं सिर्फ इसलिए कि वह ऐसे लोगों को जंगली जानवर मानता है। परमेश्वर ज़रा भी लापरवाही के बिना, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है और उसकी कार्रवाइयाँ किसी भी कारक से अप्रभावित रहती हैं। वह जो भी करता है, वह सब उसके स्वयं के सिद्धांतों के अनुपालन में होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के पास स्वयं परमेश्वर का सार है; यह उसके सार का एक पहलू है, जो किसी सृजित किए गए प्राणी के पास नहीं होता है। परमेश्वर हर वस्तु, हर व्यक्ति, और सभी जीवित चीज़ों के बीच जो उसने सृजित की हैं, अपनी सँभाल में, उनके प्रति अपने दृष्टिकोण में, प्रबंधन में, प्रशासन में, और उन पर शासन में न्यायपरायण और उत्तरदायी है, और इसमें वह कभी भी लापरवाह नहीं रहा है। जो अच्छे हैं, वह उनके प्रति कृपापूर्ण और दयावान है; जो दुष्ट हैं, उन्हें वह निर्दयता से दंड देता है; और विभिन्न जीवित प्राणियों के लिए, वह समयबद्ध और नियमित तरीके से, विभिन्न समयों पर मनुष्य संसार की विभिन्न आवश्यकताओं के अनुसार उचित व्यवस्थाएँ करता है, इस तरह से कि ये विभिन्न जीवित प्राणी उन भूमिकाओं के अनुसार जो वे निभाते हैं व्यवस्थित रूप से जन्म लेते रहें, और एक विधिवत तरीके से भौतिक जगत और आध्यात्मिक दुनिया के बीच चलते रहें।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 193
एक जीवित प्राणी की मृत्यु—दैहिक जीवन का अंत—यह दर्शाता है कि एक जीवित प्राणी भौतिक संसार से आध्यात्मिक दुनिया में चला गया है, जबकि एक नए दैहिक जीवन का जन्म यह दर्शाता है कि एक जीवित प्राणी आध्यात्मिक दुनिया से भौतिक संसार में आया है और उसने अपनी भूमिका ग्रहण करना और उसे निभाना आरम्भ कर दिया है। चाहे एक जीवित प्राणी का प्रस्थान हो या आगमन, दोनों आध्यात्मिक दुनिया के कार्य से अवियोज्य हैं। जब तक कोई व्यक्ति भौतिक संसार में आता है, तब तक परमेश्वर द्वारा आध्यात्मिक दुनिया में उस परिवार, जिसमें वह जाता है, उस युग में जिसमें उसे आना है, उस समय जब उसे आना है, और उस भूमिका की, जो उसे निभानी है, की उचित व्यवस्थाएँ और विशेषताएँ पहले ही तैयार की जा चुकी होती हैं। इसलिए इस व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन—जो काम वह करता है, और जो मार्ग वह चुनता है—जरा से भी विचलन के बिना, आध्यात्मिक दुनिया में की गई व्यवस्थाओं के अनुसार चलेगा। इसके अतिरिक्त, जिस समय दैहिक जीवन समाप्त होता है और जिस तरह और जिस स्थान पर यह समाप्त होता है, आध्यात्मिक दुनिया के सामने वह स्पष्ट और प्रत्यक्ष होता है। परमेश्वर भौतिक संसार पर शासन करता है, और वह आध्यात्मिक दुनिया पर भी शासन करता है, और वह किसी आत्मा के जीवन और मृत्यु के साधारण चक्र को विलंबित नहीं करेगा, न ही वह किसी आत्मा के जीवन और मृत्यु के चक्र के प्रबंधन में कभी भी कोई त्रुटि कर सकता है। आध्यात्मिक दुनिया के आधिकारिक पदों के सभी नाज़िर अपने व्यक्तिगत कार्यों को कार्यान्वित करते हैं, और परमेश्वर के निर्देशों और नियमों के अनुसार वह करते हैं जो उन्हें करना चाहिए। इस प्रकार, मानवजाति के संसार में, मनुष्य द्वारा देखी गई कोई भी भौतिक घटना व्यवस्थित होती है, और उसमें कोई अराजकता नहीं होती है। यह सब कुछ सभी चीज़ों पर परमेश्वर के व्यवस्थित शासन की वजह से है, और साथ ही इस तथ्य के कारण है कि उसका अधिकार प्रत्येक वस्तु पर शासन करता है। उसके प्रभुत्व में वह भौतिक संसार जिसमें मनुष्य रहता है, और, इसके अलावा, मनुष्य के पीछे की वह अदृश्य आध्यात्मिक दुनिया शामिल है। इसलिए, यदि मनुष्य अच्छा जीवन चाहते हैं, और अच्छे परिवेश में रहने की आशा रखते हैं, तो सम्पूर्ण दृश्य भौतिक जगत प्रदान किए जाने के अलावा, मनुष्य को वह आध्यात्मिक दुनिया भी अवश्य प्रदान की जानी चाहिए, जिसे कोई देख नहीं सकता है, जो मानवजाति की ओर से प्रत्येक जीवित प्राणी को संचालित करती है और जो व्यवस्थित है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 194
विभिन्न आस्था वाले लोगों का जीवन और मृत्यु का चक्र
हमने अभी-अभी पहली श्रेणी के लोगों, यानी अविश्वासियों के जीवन और मृत्यु के चक्र के बारे में चर्चा की। अब आओ हम द्वितीय श्रेणी के, यानी विभिन्न आस्था वाले लोगों के बारे में चर्चा करें। "विभिन्न आस्था वाले लोगों का जीवन और मृत्यु चक्र" एक अन्य महत्वपूर्ण विषय है, और यह अत्यंत आवश्यक है कि तुम लोग इस बारे में कुछ समझो। पहले, आओ हम इस बारे में बात करें कि "आस्था वाले लोगों" में "आस्था" यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, कैथोलिक धर्म, इस्लाम और बौद्ध धर्म, इन पाँच प्रमुख धर्मों को संदर्भित करती है। अविश्वासियों के अतिरिक्त, जो लोग इन पाँच धर्मों में विश्वास करते हैं, उनका विश्व की जनसंख्या में एक बड़ा अनुपात है। इन पाँच धर्मों के बीच, जिन्होंने अपने विश्वास से आजीविका बनाई है, वे बहुत थोड़े-से हैं, फिर भी इन धर्मों के बहुत अनुयायी हैं। जब वे मरते हैं, तो भिन्न स्थान पर जाते हैं। किससे "भिन्न"? अविश्वासियों से, यानी उन लोगों से, जिनकी कोई आस्था नहीं है, जिनके बारे में हम अभी-अभी बात कर रहे थे। मरने के बाद, इन पाँचों धर्मों के विश्वासी किसी अन्य स्थान पर जाते हैं, अविश्वासियों के स्थान से भिन्न किसी स्थान पर। किंतु प्रक्रिया एकसमान होती है; आध्यात्मिक दुनिया उनके बारे में उस सबके आधार पर निर्णय करेगी, जो उन्होंने मरने से पहले किया था, उसके पश्चात् तदनुसार उनकी प्रक्रिया की जाएगी। परंतु प्रक्रिया करने के लिए इन लोगों को किसी अन्य स्थान पर क्यों भेजा जाता है? इसका एक महत्वपूर्ण कारण है। क्या है वह कारण? मैं तुम लोगों को इसे एक उदाहरण से समझाऊँगा। किंतु इससे पहले कि मैं बताऊँ, तुम स्वयं सोच रहे होगे : "ऐसा शायद इसलिए होगा, क्योंकि परमेश्वर में उनका कम विश्वास होगा! वे पूर्ण विश्वासी नहीं होंगे।" किंतु यह कारण नहीं है। उन्हें दूसरों से अलग रखने का एक महत्वपूर्ण कारण है।
उदाहरण के लिए, बौद्ध धर्म को लो : मैं तुम्हें एक तथ्य बताता हूँ। एक बौद्ध, सबसे पहले, वह व्यक्ति है, जो बौद्ध धर्म में धर्मांतरित हो गया है, और वह ऐसा व्यक्ति है, जो जानता है कि उसका विश्वास क्या है। जब बौद्ध अपने बाल कटवाते हैं और भिक्षु या भिक्षुणी बनते हैं, तो इसका अर्थ है कि उन्होंने अपने आपको लौकिक संसार से पृथक कर लिया है और मानव-जगत के कोलाहल को बहुत पीछे छोड़ दिया है। प्रतिदिन वे सूत्रों का उच्चारण करते हैं और बुद्ध के नामों का जाप करते हैं, केवल शाकाहारी भोजन करते हैं, तपस्वी का जीवन व्यतीत करते हैं, और अपने दिन तेल के दीये की ठंडी, क्षीण रोशनी में गुजारते हैं। वे अपना सारा जीवन इसी प्रकार व्यतीत करते हैं। जब उनका भौतिक जीवन समाप्त होता है, वे अपने जीवन का सारांश बनाते हैं, परंतु अपने हृदय में उन्हें पता नहीं होता कि मरने के बाद वे कहाँ जाएँगे, किससे मिलेंगे, या उनका अंत क्या होगा—अपने हृदय की गहराई में उन्हें इन चीज़ों के बारे स्पष्ट ज्ञान नहीं होता। उन्होंने अपने पूरे जीवन में आँख मूँदकर एक प्रकार का विश्वास करने से अधिक कुछ नहीं किया होता, जिसके पश्चात् वे अपनी अंधी इच्छाओं और आदर्शों के साथ इस संसार से चले जाते हैं। ऐसा होता है एक बौद्ध के भौतिक जीवन का अंत, जब वह जीवित संसार को छोड़ता है; उसके बाद वह आध्यात्मिक दुनिया में अपने मूल स्थान पर वापस लौट जाता है। पृथ्वी पर वापस लौटने और अपनी स्व-साधना करते रहने के लिए इस व्यक्ति का पुनर्जन्म होगा या नहीं, यह मृत्यु से पहले के उसके आचरण और अभ्यास पर निर्भर करता है। यदि अपने जीवन-काल में उन्होंने कुछ ग़लत नहीं किया, तो शीघ्र ही उनका पुनर्जन्म हो जाएगा और उन्हें पृथ्वी पर वापस भेज दिया जाएगा, जहाँ वे एक बार फिर भिक्षु या भिक्षुणी बनेंगे। अर्थात्, वे स्वयं द्वारा अपने भौतिक जीवन में पहली बार की गई स्व-साधना के अनुरूप स्व-साधना का अभ्यास करते हैं, और अपने भौतिक जीवन की समाप्ति के बाद वे फिर आध्यात्मिक दुनिया में लौट जाते हैं, जहाँ उनकी जाँच की जाती है। इसके बाद यदि कोई समस्या नहीं पाई जाती, तो वे एक बार फिर मनुष्यों के संसार में लौट सकते हैं, और फिर से बौद्ध धर्म में धर्मांतरित हो सकते हैं और इस प्रकार अपना अभ्यास जारी रख सकते हैं। तीन से सात बार तक पुनर्जन्म लेने के बाद वे एक बार फिर से आध्यात्मिक दुनिया में लौटते हैं, जहाँ अपने भौतिक जीवन की समाप्ति पर वे हर बार जाते हैं। यदि मानव-जगत में उनकी विभिन्न योग्यताएँ और उनके व्यवहार आध्यात्मिक दुनिया की स्वर्गिक आज्ञाओं के मुताबिक होते हैं, तो इसके बाद वे वहीं रहेंगे; उनका फिर मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म नहीं होगा, न ही उन्हें पृथ्वी पर बुरे कार्यों के लिए दंडित किए जाने का कोई जोखिम होगा। उन्हें फिर कभी इस प्रक्रिया से नहीं गुजरना होगा। इसके बजाय, अपनी परिस्थितियों के अनुसार, वे आध्यात्मिक राज्य में कोई पद ग्रहण करेंगे। इसे ही बौद्ध लोग "बुद्धत्व की प्राप्ति" कहते हैं। बुद्धत्व की प्राप्ति का मुख्य रूप से अर्थ है आध्यात्मिक दुनिया के एक पदाधिकारी के रूप में कर्मफल प्राप्त करना, और उसके बाद पुनर्जन्म लेने या दंड भोगने का कोई जोखिम न होना। इसके अतिरिक्त, इसका अर्थ है कि पुनर्जन्म के बाद मनुष्य होने के कष्ट अब और न भोगना। तो क्या अभी भी उनका पशु के रूप में पुनर्जन्म होने की कोई संभावना है? (नहीं।) इसका मतलब है कि वे कोई भूमिका ग्रहण करने के लिए आध्यात्मिक दुनिया में ही बने रहेंगे और उनका पुनर्जन्म नहीं होगा। बौद्ध धर्म में बुद्धत्व के कर्मफल की प्राप्ति का यह एक उदाहरण है। जहाँ तक यह कर्मफल प्राप्त न करने वालों की बात है, आध्यात्मिक दुनिया में उनके लौटने पर वे संबंधित पदाधिकारी द्वारा जाँच और सत्यापन के भागी होते हैं, जो यह पता लगाता है कि जीवित रहते हुए उन्होंने परिश्रमपूर्वक स्व-साधना का अभ्यास नहीं किया था या ईमानदारी से बौद्ध धर्म द्वारा निर्धारित सूत्रों का पाठ और बुद्ध के नामों का जाप नहीं किया था; इसके बजाय, उन्होंने कई दुष्कर्म किए थे, और वे बहुत सारे दुष्ट आचरणों में संलग्न रहे थे। तब आध्यात्मिक दुनिया में उनके बुरे कार्यों के बारे में निर्णय लिया जाता है, जिसके बाद उन्हें दंडित किया जाना निश्चित होता है। इसमें कोई अपवाद नहीं होता। तो इस प्रकार का व्यक्ति कब कर्मफल प्राप्त कर सकता है? उस जीवन-काल में, जब वे कोई बुरा कार्य नहीं करते—जब आध्यात्मिक दुनिया में लौटने के पश्चात् यह देखा जाता है कि उन्होंने मृत्यु से पूर्व कुछ ग़लत नहीं किया था। तब वे पुनर्जन्म लेते रहते हैं, सूत्रों का पाठ और बुद्ध के नामों का जाप करते रहते हैं, अपने दिन तेल के दीये के ठंडे और क्षीण प्रकाश में गुज़ारते रहते हैं, किसी जीव की हत्या नहीं करते या मांस नहीं खाते। वे मनुष्य के संसार में हिस्सा नहीं लेते, उसकी समस्याओं को बहुत पीछे छोड़ देते हैं, और दूसरों के साथ कोई विवाद नहीं करते। इस प्रक्रिया में, यदि उन्होंने कोई बुरा कार्य नहीं किया होता, तो आध्यात्मिक दुनिया में उनके लौटकर आने और उनके समस्त क्रियाकलापों और व्यवहार की जाँच हो चुकने के बाद उन्हें तीन से सात बार तक चलने वाले जीवन-चक्र के लिए एक बार पुनः मनुष्य के संसार में भेजा जाता है। यदि इस दौरान कोई कदाचार नहीं किया गया होता, तो बुद्धत्व की उनकी प्राप्ति अप्रभावित रहेगी, और विलंबित नहीं होगी। यह समस्त आस्था वाले लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र का एक लक्षण है : वे "कर्मफल प्राप्त" करने और आध्यात्मिक संसार में कोई पद प्राप्त करने में समर्थ होते हैं; यही बात है, जो उन्हें अविश्वासियों से अलग बनाती है। पहली बात, जब वे अभी भी पृथ्वी पर जी रहे होते हैं, तो आध्यात्मिक दुनिया में पद ग्रहण करने में सक्षम रहने वाले लोग कैसा आचरण करते हैं? उन्हें निश्चित करना चाहिए कि वे कोई भी बुरा कार्य बिल्कुल न करें : उन्हें हत्या, आगजनी, बलात्कार या लूटपाट नहीं करनी चाहिए; यदि वे कपट, धोखाधड़ी, चोरी या डकैती में संलग्न होते हैं, तो वे कर्मफल प्राप्त नहीं कर सकते। कहने का अर्थ है कि, यदि कुकर्म से उनका कोई भी संबंध या संबद्धता है, तो वे आध्यात्मिक दुनिया द्वारा उन्हें दिए जाने वाले दंड से बच नहीं पाएँगे। आध्यात्मिक दुनिया उन बौद्धों के लिए उचित प्रबंध करती है, जो बुद्धत्व प्राप्त करते हैं : उन्हें उन लोगों को प्रशासित करने के लिए नियुक्त किया जा सकता है, जो बौद्ध धर्म में और आकाश के वृद्ध मनुष्य पर विश्वास करते प्रतीत होते हैं—उन्हें एक अधिकार-क्षेत्र आबंटित किया जा सकता है। वे केवल अविश्वासियों के प्रभारी भी हो सकते हैं, या बहुत गौण कर्तव्यों वाले पदों पर भी हो सकते हैं। ऐसा आबंटन उनकी आत्माओं की विभिन्न प्रकृतियों के अनुसार होता है। यह बौद्ध धर्म का एक उदाहरण है।
हमने जिन पाँच धर्मों की बात की है, उनमें ईसाई धर्म अपेक्षाकृत विशेष है। ईसाइयों को विशेष क्या बनाता है? ये वे लोग हैं, जो सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। जो लोग सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें यहाँ कैसे सूचीबद्ध किया जा सकता है? यह कहने पर कि ईसाइयत एक प्रकार की आस्था है, निःसंदेह यह केवल आस्था से करनी होगी; वह केवल एक प्रकार का अनुष्ठान, एक प्रकार का धर्म होगी, और उन लोगों की आस्था से बिलकुल अलग चीज़ होगी, जो ईमानदारी से परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। मेरे द्वारा ईसाइयत को पाँच प्रमुख "धर्मों" के बीच सूचीबद्ध किए जाने का कारण यह है, कि इसे भी यहूदी, बौद्ध और इस्लाम धर्मों के स्तर तक घटा दिया गया है। यहाँ अधिकतर लोग इस बात पर विश्वास नहीं करते कि कोई परमेश्वर है, या यह कि वह सभी चीज़ों पर शासन करता है, उसके अस्तित्व पर तो वे बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते। इसके बजाय, वे मात्र धर्मशास्त्र की चर्चा करने के लिए केवल धर्मग्रंथों का उपयोग करते हैं, और लोगों को दयालु बनना, कष्ट सहना और अच्छे कार्य करना सिखाने के लिए धर्मशास्त्र का उपयोग करते हैं। ईसाइयत इसी प्रकार का धर्म बन गया है : यह केवल धर्मशास्त्र संबंधी सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित करता है, मनुष्य का प्रबंधन करने या उसे बचाने के परमेश्वर के कार्य से इसका बिल्कुल भी कोई संबंध नहीं है। यह उन लोगों का धर्म बन गया है, जो परमेश्वर का अनुसरण तो करते हैं, पर जिन्हें वास्तव में परमेश्वर द्वारा अंगीकार नहीं किया जाता। ऐसे लोगों के प्रति अपने दृष्टिकोण में परमेश्वर के पास भी एक सिद्धांत है। वह उन्हें अपनी मर्जी से उसी तरह बेमन से नहीं सँभालता या उनसे उसी तरह बेमन से नहीं निपटता, जैसा कि वह अविश्वासियों के साथ करता है। वह उनके साथ वैसा ही व्यवहार करता है, जैसा कि वह बौद्धों के साथ करता है : यदि जीवित रहते हुए कोई ईसाई आत्मानुशासन का पालन कर पाता है, कठोरता से दस आज्ञाओं का पालन करता है और व्यवस्थाओं और आज्ञाओं के अनुसार परिश्रमपूर्वक व्यवहार करता है, और जीवन भर इन पर दृढ़ रह सकता है, तो उन्हें भी वास्तव में तथाकथित "स्वर्गारोहण" प्राप्त कर पाने से पहले उतना ही समय जीवन और मृत्यु के चक्र से गुज़ारना होगा। इस स्वर्गारोहण को प्राप्त करने के पश्चात्, वे आध्यात्मिक दुनिया में बने रहते हैं, जहाँ वे कोई पद लेते हैं और उसके एक पदाधिकारी बन जाते हैं। इसी प्रकार, यदि वे पृथ्वी पर बुराई करते हैं, यदि वे बहुत पापी हैं और बहुत पाप करते हैं, तब वे भिन्न-भिन्न तीव्रता से दंडित और अनुशासित किए जाएँगे। बौद्ध धर्म में कर्मफल की प्राप्ति का अर्थ है परमानंद की शुद्ध भूमि पर से गुज़रना, किंतु ईसाइयत में इसे क्या कहा जाता है? इसे "स्वर्ग में प्रवेश करना" और "स्वर्गारोहण करवाया जाना" कहते हैं। जिन्हें वास्तव में स्वर्गारोहण करवाया जाता है, वे भी जीवन और मृत्यु के चक्र से तीन से सात बार तक गुज़रते हैं, जिसके पश्चात्, मर जाने पर, वे आध्यात्मिक दुनिया में आते हैं, मानो वे सो गए थे। यदि वे मानक के अनुरूप होते हैं, तो वे कोई पद ग्रहण करने के लिए वहाँ बने रह सकते हैं, और पृथ्वी पर मौजूद लोगों के विपरीत, साधारण तरीके से, या परिपाटी के अनुसार, उनका पुनर्जन्म नहीं होगा।
इन सब धर्मों में, जिस अंत के बारे में लोग बात करते हैं और जिसके लिए वे प्रयास करते हैं, वह वैसा ही है जैसा कि बौद्ध धर्म में कर्मफल प्राप्त करना; फर्क सिर्फ यह है कि इसे भिन्न-भिन्न साधनों के द्वारा प्राप्त किया जाता है। वे सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। इन धर्मों के अनुयायियों के इस भाग के लिए, जो अपने आचरण में धार्मिक नियमों का कड़ाई से पालन करने में समर्थ होते हैं, परमेश्वर एक उचित गंतव्य, जाने के लिए एक उचित स्थान उपलब्ध कराता है, और उन्हें उचित प्रकार से सँभालता है। यह सब तर्कसंगत है, किंतु यह वैसा नहीं है, जैसा कि लोग कल्पना करते हैं, है न? अब, ईसाइयत में लोगों का क्या होता है, इस बारे में सुनने के बाद, तुम लोग कैसा अनुभव करते हो? क्या तुम्हें लगता है कि उनकी दुर्दशा उचित है? क्या तुम उनके साथ सहानुभूति रखते हो? (थोड़ी-सी।) उनके मामले में कुछ नहीं किया सकता; वे केवल स्वयं को ही दोष दे सकते हैं। मै ऐसा क्यों कहता हूँ? परमेश्वर का कार्य सच्चा है; वह जीवित और वास्तविक है, और उसका कार्य संपूर्ण मानवजाति और प्रत्येक व्यक्ति पर लक्षित है। तो फिर वे इसे स्वीकार क्यों नहीं करते? क्यों वे पागलों की तरह परमेश्वर का विरोध करते हैं और उसे यातना देते हैं? इस तरह का परिणाम पाकर भी उन्हें स्वयं को भाग्यशाली समझना चाहिए, तो तुम उनके लिए खेद क्यों महसूस करते हो? उन्हें इस प्रकार से सँभाला जाना बड़ी सहिष्णुता दर्शाता है। जिस हद तक वे परमेश्वर का विरोध करते हैं, उसके हिसाब से तो उन्हें नष्ट कर दिया जाना चाहिए, फिर भी परमेश्वर ऐसा नहीं करता, वह बस ईसाइयत को किसी साधारण धर्म की तरह ही सँभालता है। तो क्या अन्य धर्मों के बारे में विस्तार से जाने की कोई आवश्यकता है? इन सभी धर्मों की प्रकृति है कि लोग अधिक कठिनाइयाँ सहन करें, कोई बुराई न करें, अच्छे कर्म करें, दूसरों को गाली न दें, दूसरों के बारे में निर्णय न दें, विवादों से दूर रहें, और सज्जन बनें—अधिकांश धार्मिक शिक्षाएँ इसी प्रकार की हैं। और इसलिए, यदि ये आस्था वाले लोग—ये विभिन्न धर्मों और पंथों वाले लोग—यदि अपने धार्मिक नियमों का कडाई से पालन कर पाते हैं, तो वे पृथ्वी पर अपने समय के दौरान बड़ी त्रुटियाँ या पाप नहीं करेंगे, और तीन से सात बार तक पुनर्जन्म लेने के बाद, सामान्यत: ये लोग—जो धार्मिक नीतियों का कड़ाई से पालन करने में सक्षम रहते हैं—आम तौर पर, आध्यात्मिक दुनिया में कोई पद लेने के लिए बने रहेंगे। क्या ऐसे बहुत लोग हैं? (नहीं, अधिक नहीं हैं।) तुम्हारा उत्तर किस बात पर आधारित है? भलाई करना या धार्मिक नियमों और व्यवस्थाओं का पालन करना आसान नहीं है। बौद्ध धर्म लोगों को मांस खाने की अनुमति नहीं देता—क्या तुम ऐसा कर सकते हो? यदि तुम्हें भूरे वस्त्र पहनकर किसी बौद्ध मंदिर में पूरे दिन मंत्रों का उच्चारण और बुद्ध के नामों का जाप करना पड़े, तो क्या तुम ऐसा कर सकोगे? यह आसान नहीं होगा। ईसाइयत में दस आज्ञाएँ, आज्ञाएँ और व्यवस्थाएँ हैं, क्या उनका पालन करना आसान है? वह आसान नहीं है। उदाहरण के लिए, दूसरों को गाली न देने को लो : लोग इस नियम का पालन करने में एकदम अक्षम हैं। स्वयं को रोक पाने में असमर्थ होकर वे गाली देते हैं—और गाली देने के बाद वे उन शब्दों को वापस नहीं ले सकते, तो वे क्या करते हैं? रात्रि में वे अपने पाप स्वीकार करते हैं! कभी-कभी दूसरों को गाली देने के बाद भी वे अपने दिल में घृणा को आश्रय दिए रहते हैं, और वे इतना आगे बढ़ जाते हैं कि वे उन लोगों को किसी समय और ज्यादा नुकसान पहुँचाने की योजना बना लेते हैं। संक्षेप में, जो लोग इस जड़ धर्मांधता के बीच जीते हैं, उनके लिए पाप करने से बचना या बुराई करने से दूर रहना आसान नहीं है। इसलिए, हर धर्म में केवल कुछ लोग ही कर्मफल प्राप्त कर पाते हैं। तुम्हें लगता है कि चूँकि इतने अधिक लोग इन धर्मों का अनुसरण करते हैं, इसलिए उनका एक बड़ा भाग आध्यात्मिक राज्य में कोई भूमिका ग्रहण करने के लिए बने रहने में सक्षम रहता होगा। लेकिन ऐसे लोग उतने अधिक नहीं हैं; वास्तव में केवल कुछ ही इसे प्राप्त कर पाते हैं। आस्था वाले लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र में सामान्यतः ऐसा ही होता है। जो चीज उन्हें अलग करती है, वह यह है कि वे कर्मफल प्राप्त कर सकते हैं, और यही बात उन्हें अविश्वासियों से अलग करती है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 195
परमेश्वर के अनुयायियों का जीवन और मृत्यु चक्र
इसके बाद, आओ, अब हम उन लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र के बारे में बात करें जो परमेश्वर के अनुयायी हैं। इसका संबंध तुम लोगों से है, इसलिए ध्यान दो: सबसे पहले, इस बारे में विचार करो कि परमेश्वर के अनुयायियों को कैसे श्रेणीबद्ध किया जा सकता है। (परमेश्वर के चुने हुए लोग और सेवाकर्ता।) इसमें दरअसल दो हैं: परमेश्वर के चुने हुए लोग और सेवाकर्ता। आओ, पहले हम परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बारे में बात करते हैं, जिसमें बहुत कम लोग हैं। "परमेश्वर के चुने हुए लोग" किसे संदर्भित करता है? परमेश्वर ने जब सारी चीज़ों की रचना कर दी और मानवजाति अस्तित्व में आ गई, तो परमेश्वर ने उन लोगों के एक समूह को चुना जो उसका अनुसरण करते थे; बस इन्हें ही "परमेश्वर के चुने हुए लोग" के तौर पर संदर्भित किया जाता है। परमेश्वर द्वारा इन लोगों को चुनने का एक विशेष दायरा और महत्व था। वह दायरा इसलिए विशेष है क्योंकि वह कुछ चयनित लोगों तक ही सीमित था, जिन्हें तब आना ही होगा जब वह कोई महत्वपूर्ण कार्य करता है। और महत्व क्या है? चूँकि वह परमेश्वर द्वारा चयनित समूह था, इसका अत्यधिक महत्व है। कहने का तात्पर्य है कि, परमेश्वर इन लोगों को बनाना चाहता है और इन्हें पूर्ण करना चाहता है, और प्रबंधन का उसका कार्य पूर्ण हो जाने के पश्चात् वह इन लोगों को प्राप्त कर लेगा। क्या यह महत्व अत्यधिक नहीं है? इस प्रकार, ये चुने हुए लोग परमेश्वर के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर प्राप्त करने का इरादा रखता है। जहाँ तक सेवाकर्ताओं की बात है, अच्छा, आओ एक पल के लिए हम हम परमेश्वर के पूर्व-निर्धारण के विषय को छोडकर पहले उनके उद्गमों के बारे में बात करें। "सेवाकर्ता" का शाब्दिक अर्थ है वह जो सेवा करता है। वे जो सेवा करते हैं, वे अस्थायी हैं, वे लम्बे समय तक, या हमेशा के लिए ऐसा नहीं करते हैं, बल्कि उन्हें अस्थायी रुप से भाड़े पर लिया जाता है या नियुक्त किया जाता है। इनमें से अधिकांश का उद्गम यह है की इन्हें अविश्वासियों में से चुना गया था। जब यह आदेश दिया गया था कि वे परमेश्वर के कार्य में सेवाकर्ता की भूमिका ग्रहण करेंगे, तब वे पृथ्वी पर आए। हो सकता है कि वे अपने पिछले जीवन में पशु रहे हों, किन्तु वे अविश्वासी भी रह चुके होंगे। सेवाकर्ताओं के ये उद्गम हैं।
आओ, अब आगे हम परमेश्वर के चुने हुए लोगों की बात करें। जब वे मरते हैं, तो वे अविश्वासियों से और विभिन्न आस्थावान लोगों से बिल्कुल भिन्न किसी स्थान पर जाते हैं। यह वह स्थान है जहाँ उनके साथ स्वर्गदूत और परमेश्वर के दूत होते हैं; यह एक ऐसा स्थान है जिसका प्रशासन परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से करता है। यद्यपि, इस स्थान पर, परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर को अपनी आंखों से नहीं देख पाते हैं, यह आध्यात्मिक राज्य में किसी भी अन्य स्थान के असदृश होता है; यह एक अलग ही जगह है जहाँ इस हिस्से के लोग मरने के बाद जाते हैं। जब वे मरते हैं तो उन्हें भी परमेश्वर के दूतों की कड़ी छानबीन के अधीन किया जाता है। और क्या छानबीन की जाती है? परमेश्वर के दूत इन लोगों के द्वारा अपने संपूर्ण जीवन में परमेश्वर की आस्था में लिए गए मार्ग की छानबीन करते हैं, उस दौरान क्या कभी उन्होंने परमेश्वर का विरोध किया था या उसे कोसा था, और क्या उन्होंने कोई गंभीर पाप या दुष्टता की थी। यह छानबीन इस प्रश्न का निपटान करती है कि वह व्यक्ति विशेष वहाँ ठहरने की अनुमति पाएगा या उसे जाना ही होगा। "जाना" का क्या अर्थ है? और "ठहरना" का क्या अर्थ है? "जाना" का अर्थ है कि क्या, अपने व्यवहार के आधार पर, वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों की श्रेणी में रहेंगे; "ठहरने" की अनुमति मिलने का अर्थ है कि वे उन लोगों के बीच रह सकते हैं जिन्हें परमेश्वर द्वारा अंत के दिनों के दौरान पूर्ण बनाया जाएगा। जो ठहरते हैं, उनके लिए परमेश्वर के पास विशेष व्यवस्थाएँ है। अपने कार्य की प्रत्येक अवधि के दौरान, वह ऐसे लोगों को प्रेरितों के रूप में कार्य करने या कलीसियाओं को पुनर्जीवित करने, या उनकी देखभाल करने का कार्य करने के लिए भेजेगा। परन्तु जो लोग इस कार्य को करने में सक्षम हैं वे पृथ्वी पर बार-बार उस तरह से पुनर्जन्म नहीं लेते हैं जिस तरह से अविश्वासी जन्म लेते हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पुनर्जन्म लेते हैं; इसके बजाय, वे परमेश्वर के कार्य की आवश्यकताओं और चरणों के अनुसार पृथ्वी पर लौटाए जाते हैं और उन्हें बार-बार पुनर्जन्म नहीं दिया जाता है। तो क्या इस बारे में कोई नियम हैं कि उनका पुनर्जन्म कब होगा? क्या वे हर कुछ वर्षो में एक बार आते हैं? क्या वे ऐसी बारम्बारता में आते हैं? वे ऐसे नहीं आते हैं। यह सब परमेश्वर के कार्य पर, उसके कार्य के चरणों पर और उसकी आवश्यकताओं पर आधारित है, और इसके कोई तय नियम नहीं हैं। एकमात्र नियम यही है कि जब परमेश्वर अंत के दिनों में अपने कार्य के अन्तिम चरण को करता है, तो ये सभी चुने हुए लोग आएँगे और यह आगमन उनका अंतिम पुनर्जन्म होगा। और ऐसा क्यों है? यह परमेश्वर के कार्य के अन्तिम चरण के दौरान प्राप्त किये जाने वाले परिणामों पर आधारित होता है—क्योंकि कार्य के इस अंतिम चरण के दौरान, परमेश्वर इन चुने हुए लोगों को पूरी तरह से पूर्ण करेगा। इसका क्या अर्थ है? यदि, इस अन्तिम चरण के दौरान, इन लोगों को पूरा बनाया और पूर्ण किया जाता है, तब उनका पहले की तरह पुनर्जन्म नहीं होगा; उनके मनुष्य बनने की प्रक्रिया और इसी प्रकार पुनर्जन्म की प्रक्रिया भी पूर्णतया समाप्त हो जाएगी। यह उनसे संबंधित है जो ठहरेंगे। तो जो ठहर नहीं सकते, वे कहाँ जाते हैं? जिन्हें ठहरने की अनुमति नहीं मिलती है, उनका अपना उपयुक्त गंतव्य होता है। सबसे पहले, उनके दुष्ट कार्यों के, उन्होंने जो त्रुटियाँ की हैं, और जो पाप उन्होंने किए हैं, उनके परिणामस्वरूप वे भी दण्डित किए जाएँगे। दण्डित किये जाने के पश्चात, जैसा परिस्थितियों के अनुसार अनुकूल होगा, परमेश्वर उन्हें अविश्वासियों के बीच या विभिन्न आस्था वाले लोगों के बीच भेजने की व्यवस्था करेगा। दूसरे शब्दों में, उनके लिए दो सम्भावित परिणाम हो सकते हैं: एक है दण्डित होना और पुनर्जन्म के बाद शायद एक विशेष धर्म के लोगों के बीच रहना, और दूसरा है अविश्वासी बन जाना। यदि वे अविश्वासी बनते हैं, तो वे सारे अवसर गँवा देंगे; जबकि यदि वे आस्था वाला व्यक्ति बनते हैं—उदाहरण के लिए, यदि वे ईसाई बनते हैं—तो उनके पास अभी भी परमेश्वर के चुने हुए लोगों की श्रेणियों में लौटने का अवसर होगा; इसके बहुत जटिल संबंध हैं। संक्षेप में, यदि परमेश्वर का चुना हुआ कोई व्यक्ति कोई ऐसा काम करता है जो परमेश्वर के प्रति अपमानजनक हो, तो उसे अन्य किसी भी व्यक्ति के समान ही दण्ड दिया जाएगा। उदाहरण के लिये, पौलुस को लें, जिसके बारे में हमने पहले बात की थी। पौलुस एक ऐसे व्यक्ति का उदाहरण जिसे दण्ड दिया जा रहा है। क्या तुम लोगों को अंदाज़ा हो रहा है कि मैं किस बारे में बात कर रहा हूँ? क्या परमेश्वर के चुने हुए लोगों का दायरा निर्धारित है? (अधिकांशत: निर्धारित है।) इसमें से अधिकतर निर्धारित है, परन्तु उसका एक छोटा हिस्सा निर्धारित नहीं है। ऐसा क्यों है? यहाँ मैंने सबसे स्पष्ट कारण को संदर्भित किया है: दुष्टता करना। जब लोग दुष्टता करते हैं, तो परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, और जब परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, तो वह उन्हें विभिन्न जातियों और प्रकार के लोगों के बीच फेंक देता है। इससे वे निराश हो जाते हैं और उनके लिए वापस लौटना कठिन हो जाता है। यह सब परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन और मृत्यु चक्र से संबंधित है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 196
यह अगला विषय सेवाकर्ताओं के जीवन और मृत्यु के चक्र से संबन्धित है। हमने अभी-अभी सेवाकर्ताओं के उद्गम के बारे में बात की है; यानि यह तथ्य कि अपने पिछले जन्मों में अविश्वासी और पशु रहने के बाद उनका पुनर्जन्म हुआ। कार्य का अंतिम चरण आने के साथ ही, परमेश्वर ने अविश्वासियों में से ऐसे लोगों के एक समूह को चुना है और यह समूह बहुत खास है। इन लोगों को चुनने का परमेश्वर का उद्देश्य अपने कार्य के लिए उनकी सेवा लेना है। "सेवा" सुनने में कोई बहुत मनोहर शब्द नहीं है, न ही यह ऐसा कुछ है जिसे कोई चाहेगा, किन्तु हमें यह देखना चाहिए कि यह किसकी ओर लक्षित है। परमेश्वर के सेवाकर्ताओं के अस्तित्व का एक विशेष महत्व है। कोई अन्य उनकी भूमिका नहीं निभा सकता है, क्योंकि उन्हें परमेश्वर द्वारा चुना गया था। और इन सेवाकर्ताओं की भूमिका क्या है? यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सेवा करना है। मुख्य रूप से, उनकी भूमिका परमेश्वर के कार्य में अपनी सेवा प्रदान करना, उसमें सहयोग करना, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की पूर्णता में समायोजन करना है। इस बात की परवाह किए बिना कि वे मेहनत कर रहे हैं, कार्य के किसी पहलू पर काम कर रहे हैं, या कुछ कार्य कर रहे हैं, परमेश्वर की इन सेवाकर्ताओं से क्या अपेक्षा है? क्या वह इनसे बहुत अधिक की माँग कर रहा है? (नहीं, वह बस उनसे निष्ठावान रहने को कहता है।) है। सेवाकर्ताओं को भी निष्ठावान होना ही चाहिए। इस बात की परवाह किए बिना कि तुम्हारा उद्गम कहाँ से है, या परमेश्वर ने तुम्हें क्यों चुना, तुम्हें परमेश्वर के प्रति, परमेश्वर के तुम्हारे लिए आदेशों के प्रति, और साथ ही उस कार्य के प्रति जिसके लिए तुम उत्तरदायी हो और अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान अवश्य ही होना चाहिए। जो सेवाकर्ता निष्ठावान और परमेश्वर को संतुष्ट करने में समर्थ हैं, उनके लिए परिणाम क्या होगा? वे शेष रह पाएँगे। क्या ऐसा सेवाकर्ता होना जो शेष रह जाता है, एक आशीष है? शेष रहने का क्या अर्थ है? इस आशीष का क्या महत्व है? हैसियत में, वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के असदृश दिखाई देते हैं, वे भिन्न दिखाई देते हैं। लेकिन, वास्तव में, क्या इस जीवन में वे जिसका आनंद लेते हैं, क्या यह वही नहीं है जिसका आनंद परमेश्वर के चुने हुए लोग लेते हैं? कम से कम, इस जीवन में तो यह वैसा ही है। तुम लोग इससे इनकार नहीं करते, है ना? परमेश्वर के कथन, परमेश्वर का अनुग्रह, परमेश्वर द्वारा भरण-पोषण, परमेश्वर के आशीष—कौन इन चीज़ों का आनन्द नहीं उठाता है? हर कोई ऐसी बहुतायत का आनन्द उठाता है। एक सेवाकर्ता की पहचान है, वह जोकि सेवा करता है, किन्तु परमेश्वर के लिए, वह उन चीज़ों में से एक ही है जिनकी उसने रचना की है; यह मात्र इतना ही है कि उनकी भूमिका सेवाकर्ता की है। उन दोनों के ही परमेश्वर के प्राणी होने के नाते, क्या एक सेवाकर्ता और परमेश्वर के चुने हुए व्यक्ति के बीच कोई अन्तर है? वस्तुतः, अंतर नहीं है। नाममात्र के लिए कहें तो, एक अंतर है; सार का और उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के लिहाज से एक अंतर है—किन्तु परमेश्वर लोगों के इस समूह से कोई भेदभाव नहीं करता है। तो क्यों इन लोगों को सेवाकर्ता के रूप में परिभाषित किया जाता है? तुम लोगों को इस बात की कुछ समझ तो होनी ही चाहिए! सेवाकर्ता अविश्वासियों में से आते हैं। जैसे ही हम यह उल्लेख करते हैं कि वे अविश्वासियों में से आते हैं, यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका अतीत बुरा है: वे सब नास्तिक हैं और अतीत में भी ऐसे ही थे; वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते थे, और उसके, सत्य के, और सभी सकारात्मक चीजों के प्रति शत्रुतापूर्ण थे। वे परमेश्वर या उसके अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। तो क्या वे परमेश्वर के वचनों को समझने में सक्षम हैं? यह कहना उचित होगा कि, काफी हद तक, वे सक्षम नहीं हैं। ठीक जैसे कि पशु मनुष्य के शब्दों को समझने में सक्षम नहीं हैं, वैसे ही सेवाकर्ता भी यह नहीं समझ सकते कि परमेश्वर क्या कह रहा है, वह क्या चाहता है या वह ऐसी माँगें क्यों करता है। वे नहीं समझते; ये बातें उनकी समझ से बाहर हैं, और वे अप्रबुद्ध रहते हैं। इस कारण से, वे लोग उस जीवन को धारण नहीं करते हैं जिसके बारे में हमने बात की थी। बिना जीवन के, क्या लोग सत्य को समझ सकते हैं? क्या वे सत्य से सुसज्जित हैं? क्या उनके पास परमेश्वर के वचनों का अनुभव और ज्ञान है? (नहीं।) सेवाकर्ताओं के उद्गम ऐसे ही हैं। किन्तु, चूँकि परमेश्वर इन लोगों को सेवाकर्ता बनाता है, इसलिए उनसे उसकी अपेक्षाओं के भी मानक हैं; वह उन्हें तुच्छ दृष्टि से नहीं देखता है, न ही वह उनके प्रति बेपरवाह है। यद्यपि वे उसके वचनों को नहीं समझते हैं, और उनके पास जीवन नहीं है, फिर भी परमेश्वर उनके प्रति दयावान है, और तब भी उनसे उसकी अपेक्षाओं के मानक हैं। तुम लोगों ने अभी-अभी इन मानकों के बारे में बोला: परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना और वह करना जो वह कहता है। अपनी सेवा में तुम्हें अवश्य वहीं सेवा करनी चाहिए जहाँ आवश्यकता है, और बिल्कुल अंत तक सेवा करनी चाहिए। यदि तुम एक निष्ठावान सेवाकर्ता बन सकते हो, बिल्कुल अंत तक सेवा करने में सक्षम हो, और परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए सौंपे आदेश को पूर्ण कर सकते हो, तो तुम एक मूल्यों वाला जीवन जियोगे। यदि तुम इसे कर सकते हो, तो तुम शेष रह पाओगे। यदि तुम थोड़ा अधिक प्रयास करते हो, यदि तुम थोड़ा अधिक परिश्रम से प्रयास करते हो, परमेश्वर को जानने के अपने प्रयासों को दोगुना कर पाते हो, परमेश्वर को जानने को लेकर थोड़ा भी बोल पाते हो, उसकी गवाही दे सकते हो, और इसके अतिरिक्त, यदि तुम परमेश्वर की इच्छा में से कुछ समझ सकते हो, परमेश्वर के कार्य में सहयोग कर सकते हो, और परमेश्वर के इरादों के प्रति कुछ-कुछ सचेत हो सकते हो, तब एक सेवाकर्ता के तौर पर तुम अपने भाग्य में बदलाव महसूस करोगे। और भाग्य में यह परिवर्तन क्या होगा? अब तुम शेष नहीं रह पाओगे। तुम्हारे आचरण और तुम्हारी व्यक्तिगत आकांक्षाओं और खोज के आधार पर, परमेश्वर तुम्हें चुने हुओं में से एक बनाएगा। यह तुम्हारे भाग्य में परिवर्तन होगा। सेवाकर्ताओं के लिए इसमें सर्वोत्तम बात क्या है? वह यह है कि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक बन सकते हैं। यदि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक बन जाते हैं तो इसका अर्थ है कि उनका अब अविश्वासियों के समान पशु के रूप में पुनर्जन्म नहीं होगा। क्या यह अच्छा है? हाँ, है, और यह भी एक अच्छा समाचार है: इसका अर्थ है कि सेवाकर्ताओं को ढाला जा सकता है। ऐसी बात नहीं है कि सेवा करने वाले के लिए, जब परमेश्वर उसे सेवा के लिए पूर्वनिर्धारित करता है, तो वह हमेशा ऐसा ही करेगा; ऐसा होना आवश्यक नहीं है। परमेश्वर उसे उसके व्यक्तिगत आचरण के आधार पर सबसे उपयुक्त तरीके से संभालेगा और उसे उत्तर देगा।
परन्तु, ऐसे सेवाकर्ता भी हैं जो बिल्कुल अन्त तक सेवा नहीं कर पाते हैं; ऐसे भी हैं जो अपनी सेवा के दौरान, आधे रास्ते ही हार मान जाते हैं और परमेश्वर को त्याग देते हैं, साथ ही ऐसे लोग भी हैं जो अनेक बुरे कार्य करते हैं। यहाँ तक कि ऐसे भी हैं जो परमेश्वर के कार्य को बड़ा नुकसान करते हैं और बड़ी क्षति पहुँचाते हैं, और ऐसे सेवा करने वाले भी हैं जो परमेश्वर को कोसते हैं, इत्यादि। ये असाध्य परिणाम क्या संकेतित करते हैं? ऐसे किसी भी दुष्टता पूर्ण कार्यों का अर्थ उनकी सेवाओं की समाप्ति होगा। क्योंकि तुम्हारे सेवा काल के दौरान तुम्हारा आचरण बहुत ख़राब रहा है, और क्योंकि तुमने अपनी हदें पार की हैं, जब परमेश्वर देखता है कि तुम्हारी सेवा अपेक्षित स्तर तक नहीं है, वह तुम्हें सेवा करने की तुम्हारी पात्रता से वंचित कर देगा। वह तुम्हें और सेवा करने की अनुमति नहीं देगा; वह तुम्हें अपनी आँखों के सामने से, और परमेश्वर के घर से हटा देगा। कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम सेवा नहीं करना चाहते हो? क्या तुम हमेशा दुष्टता करना नहीं चाहते हो? क्या तुम लगातार विश्वासघाती नहीं रहे हो? तब ठीक है, एक सरल उपाय है: तुम्हें सेवा करने की तुम्हारी पात्रता से वंचित कर दिया जाएगा। परमेश्वर की दृष्टि में, किसी सेवाकर्ता को उसकी सेवा करने की पात्रता से वंचित करने का अर्थ है कि उस सेवाकर्ता के अन्त की घोषणा की जा चुकी है, और ऐसे लोग परमेश्वर की अब और सेवा करने पात्र नहीं होंगे। परमेश्वर को इस व्यक्ति की सेवा की अब और आवश्यकता नहीं है, और चाहे वह कितनी ही अच्छी बातें क्यों न करें, वे बातें व्यर्थ होंगी। जब हालात इस स्थिति तक पहुँच जाएँगे, तो यह परिस्थिति असाध्य बन गई होगी; इस तरह के सेवाकर्ताओं के पास लौटने का कोई मार्ग नहीं होगा। और परमेश्वर इस प्रकार के सेवाकर्ताओं के साथ किस प्रकार से निपटता है? क्या वह केवल उन्हें सेवा करने से रोक देता है? नहीं। क्या वह उन्हें केवल बने रहने से रोकता है? या वह उन्हें एक तरफ कर देता है, और उनके सुधरने की प्रतीक्षा करता है? वह ऐसा नहीं करता है। सचमुच, परमेश्वर सेवाकर्ताओं के प्रति इतना प्रेममय नहीं है। यदि परमेश्वर की सेवा के प्रति किसी व्यक्ति की इस प्रकार की प्रवृत्ति है, तो इस प्रवृत्ति के कारण, परमेश्वर उसे सेवा करने की उसकी पात्रता से वंचित कर देगा, और उसे एक बार फिर से अविश्वासियों के बीच फेंक देगा। और जिस सेवा करने वाले को अविश्वासियों में फेंक दिया गया हो, उसका क्या भाग्य होता है? वह अविश्वासियों के समान ही होता है: उन्हें एक पशु के रूप में पुनर्जन्म दिया जाएगा और आध्यात्मिक दुनिया में अविश्वासियों वाला दण्ड दिया जाएगा। इसके अलावा, इस व्यक्ति के दण्ड में परमेश्वर किसी तरह की व्यक्तिगत रुचि नहीं लेगा, क्योंकि परमेश्वर के कार्य से अब ऐसे व्यक्ति का कोई लेना-देना नहीं है। यह न केवल परमेश्वर में उनकी आस्था के जीवन का अन्त है, बल्कि उनके स्वयं के भाग्य का भी अन्त है, साथ ही यह उनके भाग्य की उद्घोषणा है। इस प्रकार, यदि सेवाकर्ता ख़राब ढंग से सेवा करते हैं, तो उन्हें स्वयं परिणाम भुगतने पड़ेंगे। यदि कोई सेवाकर्ता बिल्कुल अन्त तक सेवा करने में असमर्थ है, या उसे बीच में ही सेवा करने की उसकी पात्रता से वंचित कर दिया जाता है, तो उसे अविश्वासियों के बीच फेंक दिया जाएगा—और यदि ऐसा होता है तो उसके साथ मवेशियों के समान ही, उसी प्रकार से निपटा जाएगा जैसे कि अज्ञानियों और तर्कहीन व्यक्तियों के साथ निपटा जाता है। जब इसे मैं इस प्रकार से कहता हूँ, तो तुम्हारी समझ में आता है, है न?
परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के जीवन और मृत्यु चक्र को कैसे सँभालता है, यह ऊपर उल्लिखित है। यह सुनने के बाद तुम लोग कैसा महसूस करते हो? क्या मैंने पहले कभी इस विषय पर बोला है? क्या मैंने परमेश्वर के चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के विषय पर कभी बोला है? दरअसल मैंने बोला है, लेकिन तुम लोगों को याद नहीं। परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के प्रति धार्मिक है। हर तरह से, वह धार्मिक है। क्या मैंने सही कहा? क्या तुम इसमें कहीं दोष ढूँढ सकते हो? क्या ऐसे लोग नहीं हैं जो कहेंगे: "क्यों परमेश्वर चुने हुओं के प्रति इतना सहिष्णु है? और क्यों वह सेवाकर्ताओं के प्रति केवल थोड़ा सा ही सहिष्णु है?" क्या कोई सेवाकर्ताओं के लिये खड़े होने की इच्छा रखता है? "क्या परमेश्वर सेवाकर्ताओं को और समय दे सकता है, तथा उनके प्रति और अधिक धैर्यवान और सहिष्णु हो सकता है?" क्या ऐसा प्रश्न पूछना सही है? (नहीं, ये सही नहीं हैं।) और सही क्यों नहीं है? (क्योंकि हमें सेवाकर्ता बनाकर वास्तव में हम पर उपकार दर्शाया गया है।) सेवाकर्ताओं को केवल सेवा की अनुमति देकर ही उन पर उपकार दर्शाया गया है! "सेवाकर्ता" की पदवी के और उस कार्य के बिना जो वे करते हैं, ये सेवा करने वाले कहाँ होते? ये अविश्वासियों के बीच होते, मवेशियों के साथ जीते और मरते हुए। आज वे, परमेश्वर के सामने और परमेश्वर के घर में आने की अनुमति पाकर, कितने अनुग्रह का आनंद लेते हैं! यह एक ज़बरदस्त अनुग्रह है! यदि परमेश्वर ने तुम्हें सेवा करने का अवसर न दिया होता, तो तुम्हें कभी भी उसके सामने आने का अवसर न मिलता। और क्या कहें, यहाँ तक कि यदि तुम कोई ऐसे हो जो बौद्ध धर्म को मानता है और जिसने परिपक्वता को पा लिया है, तो ज़्यादा से ज़्यादा तुम आध्यात्मिक दुनिया में छोटा-मोटा प्रशासनिक कार्य करने वाले हो; तुम कभी भी परमेश्वर से नहीं मिलोगे, उसकी आवाज़ नहीं सुनोगे, उसके वचनों को नहीं सुनोगे, या उसके प्रेम और आशीषों को महसूस नहीं करोगे, और न ही तुम संभवतः कभी उसके आमने-सामने ही हो सकोगे। बौद्धों के सामने केवल साधारण काम होते हैं। वे संभवतः परमेश्वर को नहीं जान सकते हैं, और वे केवल अनुपालन और आज्ञापालन करते हैं, जबकि सेवाकर्ता कार्य के इस चरण में बहुत अधिक प्राप्त करते हैं! सर्वप्रथम, वे परमेश्वर के आमने-सामने आने, उसकी आवाज़ को सुनने, उसके वचनों को सुनने, और उन अनुग्रहों और आशीषों का अनुभव करने में समर्थ होते हैं जो वह लोगों को देता है। इसके अलावा, वे परमेश्वर के द्वारा दिये गए वचनों और सत्यों का आनंद उठा पाते हैं। सेवाकर्ताओं को वास्तव में बहुत ज्यादा प्राप्त होता है! इस प्रकार यदि एक सेवाकर्ता के रूप में, तुम सही प्रयत्न नहीं भी कर सकते हो, तो क्या परमेश्वर तब भी तुम्हें रखेगा? वह तुम्हें नहीं रख सकता है। वह तुमसे ज्यादा माँग नहीं करता है, बल्कि तुम वह कुछ भी सही ढंग से नहीं करते हो जो वह तुमसे चाहता है; तुम अपने कर्तव्य के मुताबिक नहीं चले हो। इसलिए, निस्संदेह, परमेश्वर तुम्हें नहीं रख सकता है। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव ऐसा ही है। परमेश्वर तुम्हारे नख़रे नहीं उठाता है, किन्तु वह तुम्हारे साथ किसी तरह का भेदभाव भी नहीं करता है। इन्हीं सिद्धांतों के अनुसार परमेश्वर कार्य करता है। सभी लोगों और प्राणियों के प्रति परमेश्वर इसी तरह से कार्य करता है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 197
अगर आध्यात्मिक दुनिया के विभिन्न जीव कुछ ग़लत करते हैं, या अपने कार्य को ठीक ढंग से नहीं करते हैं, तो परमेश्वर के पास उनसे निपटने के लिए उसी के अनुरूप स्वर्गिक अध्यादेश और निर्णय हैं; यह परम सिद्धांत है। इसलिए, परमेश्वर के कई-हजारों-वर्षों के प्रबंधन कार्य के दौरान, कुछ कर्तव्यपालकों जिन्होंने ग़लत कार्य किया था, उन्हें पूर्णतया विनष्ट कर दिया गया है, जबकि कुछ आज भी हिरासत में हैं और दंडित किए जा रहे हैं। आध्यात्मिक दुनिया में हर प्राणी को इसका सामना अवश्य करना पड़ता है। यदि वे कुछ ग़लत करते हैं या कोई दुष्टता करते हैं, तो वे दंडित किए जाते हैं—और यह वैसा ही है जैसा कि परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के साथ करता है। इस प्रकार, चाहे आध्यात्मिक दुनिया हो या भौतिक संसार, परमेश्वर जिन सिद्धांतों पर काम करता है, वे बदलते नहीं हैं। इस बात की परवाह किए बिना कि तुम परमेश्वर के कार्यकलापों को देख सकते हो या नहीं, उसके सिद्धांत नहीं बदलते हैं। हमेशा से ही, सभी चीजों के प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण और सभी चीज़ों को सँभालने के उसके सिद्धांत एक ही रहे हैं। यह अपरिवर्तनशील है। परमेश्वर अविश्वासियों में से उन लोगों के प्रति दयालु रहेगा जो अपेक्षाकृत सही तरीके से जीते हैं, और हर धर्म में से उन लोगों के लिये अवसर बचाकर रखेगा जो सद्व्यवहार करते हैं और दुष्टता नहीं करते हैं, उन्हें परमेश्वर द्वारा प्रबंधन की गई सभी चीज़ों में एक भूमिका निभाने देगा, और वह करने देगा जो उन्हें करना चाहिए। इसी प्रकार, उन लोगों के बीच जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, उन लोगों के बीच जो उसके चुने हुए हैं, परमेश्वर इन सिद्धांतों के अनुसार, किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं करता है। जो कोई भी ईमानदारी से उसका अनुसरण कर पाता है, वह उसके प्रति दयालु है, और उस हर एक को प्रेम करता है जो ईमानदारी से उसका अनुसरण करता है। केवल इतना ही है कि इन विभिन्न प्रकार के लोगों—अविश्वासियों, विभिन्न आस्थाओं वाले लोगों और परमेश्वर के चुने हुए लोगों—के लिए वह जो उन्हें प्रदान करता है, वह भिन्न होता है। उदाहरण के लिए अविश्वासियों को ही लो: यद्यपि वे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हैं, और परमेश्वर उन्हें जंगली जानवरों के रूप में देखता है, फिर भी सब बातों के बीच उनमें से हर एक के पास खाने के लिए भोजन होता है, उनका अपना एक स्थान होता है, और जीवन और मृत्यु का सामान्य चक्र होता है। जो दुष्टता करते हैं वे दण्ड पाते हैं और जो भला करते हैं वे आशीष पाते हैं और परमेश्वर की दया प्राप्त करते हैं। क्या ऐसा नहीं है? आस्थावान लोगों के लिए, यदि वे पुनर्जन्म-दर-पुनर्जन्म अपने धार्मिक नियमों का सख्ती से पालन कर पाते हैं, तो इन सभी पुनर्जन्मों के बाद परमेश्वर अंततः उनके लिए अपनी उद्घोषणा करेगा। इसी प्रकार, आज तुम लोगों के लिए, चाहे तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक हो या कोई सेवाकर्ता हो, परमेश्वर समान रूप से तुम्हें राह पर लाएगा और अपने द्वारा नियत किए गए विनियमों और प्रशासनिक आदेशों के अनुसार तुम लोगों का अंत निर्धारित करेगा। इस तरह के लोगों के बीच, विविध प्रकार की आस्था के लोगों के बीच – यानि जो विविध धर्मों से संबंधित हैं—क्या परमेश्वर ने उन्हें रहने का स्थान दिया है? यहूदी कहाँ हैं? क्या परमेश्वर ने उनकी आस्था में हस्तक्षेप किया है? उसने नहीं किया है, है न? और ईसाइयों का क्या? उसने उनमें में भी हस्तक्षेप नहीं किया है। वह उन्हें उनकी स्वयं की पद्धतियों का पालन करने देता है। वह उनसे बात नहीं करता है, या उन्हें कोई प्रबुद्धता नहीं देता है, और, इसके अलावा, वह उन पर कुछ भी प्रकट नहीं करता है। यदि तुम्हें लगता है कि यह सही है, तो इसी तरह से विश्वास करो। कैथोलिक मरियम पर विश्वास करते हैं, और इस पर कि यह मरियम के माध्यम से था कि समाचार यीशु तक पहुँचाया गया था; उनकी आस्था ऐसा ही रूप है। क्या कभी परमेश्वर ने उनके विश्वास को सुधारा है? परमेश्वर उन्हें स्वतंत्र छोड़ देता है; वह उन पर कोई ध्यान नहीं देता है, और उन्हें जीवित रहने के लिए एक निश्चित स्थान देता है। क्या मुसलमानों और बौद्धों के प्रति भी वह वैसा ही नहीं है? उसने उनके लिए भी सीमाएं तय कर दी हैं, और, उनकी संबंधित आस्थाओं में हस्तक्षेप किए बिना, उन्हें स्वयं का जीवित रहने का स्थान लेने देता है। सब कुछ सुव्यवस्थित है। और इस सब में तुम लोग क्या देखते हो? यही कि परमेश्वर अधिकार धारण करता है, किन्तु वह अपने अधिकार का दुरुपयोग नहीं करता है। परमेश्वर सभी चीजों को अचूक क्रम में व्यवस्थित करता है और रीतिबद्ध तरीके से ऐसा करता है, और इसमें उसकी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता निहित है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 198
स्वयं परमेश्वर की पहचान और प्रतिष्ठा
परमेश्वर ही एकमात्र है जो सभी चीज़ों पर शासन करता है, और सभी चीज़ों को चलाता है। जो कुछ है वह उसी ने रचा है, जो कुछ है वही उसे चलाता है, जो कुछ है उस सब पर वही शासन करता है और जो कुछ है उस सब का वही भरण-पोषण करता है। यह परमेश्वर की प्रतिष्ठा और यही उसकी पहचान है। सभी चीजों के लिए और जो कुछ भी है उस सब के लिए, परमेश्वर की असली पहचान, सृजनकर्ता, और सम्पूर्ण सृष्टि के शासक की है। परमेश्वर की ऐसी पहचान है और वह सभी चीज़ों में अद्वितीय है। परमेश्वर का कोई भी प्राणी—चाहे वह मनुष्य के बीच हो या आध्यात्मिक दुनिया में हो—परमेश्वर की पहचान और प्रतिष्ठा का का रूप लेने या उसका स्थान लेने के लिए किसी भी साधन या बहाने का उपयोग नहीं कर सकता है, क्योंकि सभी चीज़ों में वही एक है जो इस पहचान, सामर्थ्य, अधिकार, और सृष्टि पर शासन करने की क्षमता से सम्पन्न है: हमारा अद्वितीय परमेश्वर स्वयं। वह सभी चीज़ों के बीच रहता और चलता है; वह सभी चीज़ों से ऊपर, सर्वोच्च स्थान तक उठ सकता है। वह मनुष्य बनकर, जो मांस और लहू के हैं, उनमें से एक बन कर, लोगों के साथ आमने-सामने होकर और उनके सुख—दुःख बाँट कर, अपने आप को विनम्र बना सकता है, जबकि वहीं दूसरी तरफ, जो कुछ भी है वह सब को नियंत्रित करता है, और जो कुछ भी है उस का भाग्य और उसे किस दिशा में जाना है यह तय करता है। इसके अलावा, वह संपूर्ण मानवजाति के भाग्य और मानवजाति की दिशा का पथप्रदर्शन करता है। इस तरह के परमेश्वर की सभी जीवित प्राणियों के द्वारा आराधना की जानी चाहिए, उसका आज्ञापालन किया जाना चाहिए और उसे जानना चाहिए। इस प्रकार, इस बात की परवाह किए बिना कि तुम मानवजाति में से किस समूह या किस प्रकार सम्बन्धित हो, परमेश्वर में विश्वास करना, परमेश्वर का अनुसरण करना, परमेश्वर का आदर करना, उसके शासन को स्वीकार करना, और अपने भाग्य के लिए उसकी व्यवस्थाओं को स्वीकार करना ही किसी भी व्यक्ति के लिए, किसी जीवित प्राणी के लिए एकमात्र विकल्प—आवश्यक विकल्प—है। परमेश्वर की अद्वितीयता में, लोग देखते हैं कि उसका अधिकार, उसका धार्मिक स्वभाव, उसका सार, और वे साधन जिनके द्वारा वह सभी चीज़ों का भरण-पोषण करता है, सभी अद्वितीय हैं; यह अद्वितीयता, स्वयं परमेश्वर की असली पहचान को निर्धारित करती है, और यह उसकी प्रतिष्ठा को भी निर्धारित करती है। इसलिए, सभी प्राणियों के बीच, यदि आध्यात्मिक दुनिया में या मनुष्यों के बीच कोई जीवित प्राणी परमेश्वर की जगह खड़ा होने की इच्छा करता है, तो सफलता वैसे ही असंभव होगी, जैसे कि परमेश्वर का रूप धरने का कोई प्रयास। यह तथ्य है। इस तरह के सृजनकर्ता और शासक की, जो स्वयं परमेश्वर की पहचान, सामर्थ्य और प्रतिष्ठा को धारण करता है, मानवजाति के बारे में क्या अपेक्षाएँ हैं? यह हर एक को स्पष्ट हो जाना चाहिए, और हर एक द्वारा याद रखा जाना चाहिए; यह परमेश्वर और मनुष्य दोनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है!
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 199
परमेश्वर के प्रति मानवजाति की विभिन्न प्रवृत्तियाँ
लोग परमेश्वर के प्रति कैसा बर्ताव करते हैं यह उनका भविष्य निर्धारित करता है, और यह निर्धारित करता है कि कैसे परमेश्वर उनके साथ बर्ताव करेगा और उनसे निपटेगा। यहाँ पर मैं कुछ उदाहरण देने जा रहा हूँ कि कैसे लोग परमेश्वर के प्रति बर्ताव करते हैं। आओ, इस बारे में सुनते और देखते हैं कि उनका ढंग और रवैया, जिससे वे परमेश्वर के सामने आचरण करते हैं, सही है या नहीं। आओ, हम निम्नलिखित सात प्रकार के लोगों के आचरण पर विचार करें:
1) एक प्रकार के ऐसे लोग होते हैं जिनका व्यवहार परमेश्वर के प्रति विशेष रूप से बेतुका होता है। ये लोग सोचते हैं कि परमेश्वर एक बोधिसत्व या मानव बुद्धि वाला पवित्र प्राणी जैसा है, और चाहता है कि जब भी वे लोग आपस में मिलें तो मनुष्य तीन बार उसके सामने झुकें और हर बार के खाने के बाद अगरबत्ती जलाएँ। नतीजतन, जब भी वे उसके अनुग्रह के प्रति अत्यधिक कृतज्ञ होते हैं और उसके प्रति आभार महसूस करते हैं तो अक्सर उनके अंदर इस तरह का संवेग आता है। वे ऐसी कामना करते हैं कि जिस परमेश्वर में वे आज विश्वास करते हैं वह, उस पवित्र प्राणी की तरह जिसकी वे अपने मन में लालसा रखते हैं, अपने प्रति उनके उस व्यवहार को स्वीकार कर सके जिसमें वे मिलने पर तीन बार उसके सामने झुकते हैं हर बार के भोजन के बाद अगरबत्ती जलाते हैं।
2) कुछ लोग परमेश्वर को जीवित बुद्ध के रूप में देखते हैं जो सभी जीवितों के कष्टों को हटाने और उन्हें बचाने में सक्षम है; वे उसे जीवित बुद्ध के रूप में देखते हैं जो उन्हें दुःख के सागर से दूर ले जाने में सक्षम है। परमेश्वर में इन लोगों का विश्वास बुद्ध के रूप में उसकी आराधना करना है। यद्यपि वे अगरबत्ती नहीं जलाते हैं, दण्डवत् नहीं करते हैं, या अर्पण नहीं करते हैं, लेकिन हृदय की गहराई में यह महसूस करते हैं कि परमेश्वर केवल इस तरह का एक बुद्ध है जो केवल यह चाहता है कि वे बहुत दयालु और धर्मार्थ हों, कि वे किसी जीवित प्राणी को नहीं मारें, दूसरों को गाली देने से बचें, ऐसा जीवन जीएँ जो ईमानदार दिखायी दे, और कुछ बुरा नहीं करें। वे मानते हैं कि केवल यही बातें उसके द्वारा उनसे अपेक्षित हैं; उनके हृदय में यही परमेश्वर है।
3) कुछ लोग परमेश्वर की आराधना ऐसे करते हैं मानो कि वह कोई महान या प्रसिद्ध व्यक्ति हो। उदाहरण के लिए, यह महान व्यक्ति चाहे किसी भी माध्यम से बोलना पसंद करता हो, किसी भी लय में बोलता हो, वह जिन शब्दों और शब्दावली का उपयोग करता है, उसका लहजा, उसके हाथ के संकेत, उसरी राय और कार्यकलाप, उसका आचरण—वे उस सब की नक़ल करते हैं, और ये ऐसी चीज़ें हैं जो परमेश्वर में अपने विश्वास के दौरान उनमें पूरी तरह से अवश्य उत्पन्न होनी चाहिए।
4) कुछ लोग परमेश्वर को एक सम्राट के रूप में देखते हैं, वे महसूस हैं कि वह सबसे ऊपर है, और यह कि कोई भी उसका अपमान करने का साहस नहीं करता है—और यदि कोई ऐसा करता है, तो उस व्यक्ति को दण्डित किया जाएगा। वे ऐसे सम्राट की आराधना इसलिए करते हैं क्योंकि उनके हृदय में सम्राट के लिए एक खास जगह है। उनके विचार, तौर तरीके, अधिकार और स्वभाव—यहाँ तक कि उनकी रुचियाँ और व्यक्तिगत जीवन—यह सब कुछ ऐसा बन जाता है जिसे इन लोगों को अवश्य समझना चाहिए; वे ऐसे मुद्दे और मामले बन जाते हैं जिनके बारे में वे चिंतित होते हैं। परिणामस्वरूप, वे परमेश्वर की आराधना एक सम्राट के रूप में करते हैं। इस तरह का विश्वास हास्यास्पद है।
5) कुछ लोगों की परमेश्वर के अस्तित्व में एक विशेष आस्था होती है और यह आस्था गहन और अटल होती है। क्योंकि उनका परमेश्वर के बारे में ज्ञान बहुत उथला होता है और उन्हें उसके वचनों का ज्यादा अनुभव नहीं होता है, इसलिए वे उसकी आराधना एक प्रतिमा के रूप में करते हैं। यह प्रतिमा उनके हृदय में परमेश्वर है; यह कुछ ऐसा है जिससे उन्हें लगता है कि उन्हें अवश्य ही डरना चाहिए और उसके सामने झुकना चाहिए, और जिसका उन्हें अनुसरण और अनुकरण अवश्य करना चाहिए। वे परमेश्वर को एक ऐसी प्रतिमा के रूप में देखते हैं, जिसका उन्हें जीवनभर अनुसरण अवश्य करना चाहिए। वे उस लहज़े की नकल करते हैं जिसमें ईश्वर बोलता है, और बाहरी रूप में वे उनकी नक़ल करते हैं जिन्हें परमेश्वर पसंद करता है। वे अक्सर ऐसे काम करते हैं जो भोले-भाले, शुद्ध, और ईमानदार प्रतीत होते हैं, और यहाँ तक कि वे इस प्रतिमा का एक ऐसे सहभागी या साथी के रूप में अनुसरण करते हैं जिससे वे कभी अलग नहीं हो सकते हैं। यह उनके विश्वास का ऐसा ही रूप है।
6) एक प्रकार के लोग ऐसे भी हैं जो परमेश्वर के बहुत से वचनों को पढ़ने और बहुत से उपदेशों को सुनने के बावजूद, अपने हृदय की गहराई से यह महसूस करते हैं कि परमेश्वर के प्रति उनके व्यवहार के पीछे उनका एकमात्र सिद्धांत यह है कि उन्हें हमेशा चापलूस और खुशामदी होना चाहिए, या उस तरह से उसकी स्तुति और सराहना करनी चाहिए जो अवास्तविक हो। वे विश्वास करते हैं कि परमेश्वर ऐसा परमेश्वर है जो चाहता है कि वे इस तरह से व्यवहार करें। इसके अलावा, वे मानते हैं कि यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो वे किसी भी समय उसके क्रोध को भड़का सकते हैं, या गलती से उसके विरुद्ध पाप कर सकते हैं, और इस तरह पाप करने के परिणामस्वरुप परमेश्वर उन्हें दण्डित करेगा। उनके हृदय में इसी तरह का परमेश्वर है।
7) और फिर ऐसे लोगों की बहुतायत है जो परमेश्वर में आध्यात्मिक सहारा ढूँढते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे इस जगत में रहते हैं, वे शांति या आनंद से रहित हैं, और उन्हें कहीं आराम नहीं मिलता है; परमेश्वर को प्राप्त करने के बाद, उसके वचनों को देख और सुन लेने के बाद, वे अपने हृदयों में वे गुपचुप रूप से आनंदित और प्रफुल्लित होने लगते हैं। ऐसा इसलिये है क्योंकि उनका मानना है कि उन्होंने आख़िरकार एक ऐसी जगह खोज ली है जो उनकी आत्मा को आनंदित करेगी, और उन्होंने आख़िरकार ऐसा परमेश्वर प्राप्त कर लिया है जो उन्हें आध्यात्मिक सहारा देगा। उनके परमेश्वर को स्वीकार कर लेने और उसका अनुसरण शुरू करने के बाद, वे खुश हो जाते हैं, और उनके जीवन संतुष्ट हो जाते हैं। इसके बाद वे अविश्वासियों की तरह व्यवहार नहीं करते जो जीवन में जानवरों की तरह नींद में चलते हैं, और अब वे महसूस करते हैं कि उनके पास जीवन में आगे देखने के लिए कुछ है। इस प्रकार, उन्हें लगता है कि यह परमेश्वर उनकी आध्यात्मिक आवश्यकताओं को बहुत हद तक पूरा कर सकता है और उनके मन और आत्मा, दोनों में एक बड़ा आनंद ला सकता है। इसका अहसास किए बिना, वे इस परमेश्वर को छोड़ने में असमर्थ हो जाते हैं जो उन्हें ऐसा आध्यात्मिक सहारा देता है, और जो उनकी आत्मा और पूरे परिवार के लिए आनंद लाता है। वे मानते हैं कि ईश्वर में विश्वास को उनके जीवन में आध्यात्मिक सहारा लाने से ज्यादा कुछ और करने की ज़रूरत नहीं है।
क्या तुममें से किसी का परमेश्वर के प्रति ऊपर उल्लिखित इन विभिन्न रवैयों में से कोई है? (हाँ, हैं।) यदि, परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में, किसी व्यक्ति के हृदय में इस प्रकार का कोई भी रवैया हो, तो क्या वह सच में परमेश्वर के सम्मुख आने में समर्थ है? यदि किसी के हृदय में इसमें से कोई भी रवैया हो, तो क्या वह परमेश्वर में विश्वास करता है? क्या ऐसा व्यक्ति स्वयं अद्वितीय परमेश्वर में विश्वास करता है? (नहीं।) चूँकि तुम स्वयं अद्वितीय परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हो, तो तुम किसमें विश्वास करते हो? यदि तुम जिसमें विश्वास करते हो वह स्वयं अद्वितीय परमेश्वर नहीं है, तो यह संभव है कि तुम किसी प्रतिमा में, या किसी महान आदमी में, या किसी बोधिसत्व में विश्वास करते हो, या कि तुम अपने हृदय में स्थित बुद्ध की आराधना करते हो। इसके अलावा, यह भी संभव है कि तुम किसी साधारण व्यक्ति में विश्वास करते हो। संक्षेप में, परमेश्वर के प्रति लोगों के विभिन्न प्रकारों के विश्वास और प्रवृत्तियों की वजह से, लोग अपनी अनुभूति के परमेश्वर को अपने हृदयों में जगह देते हैं, वे परमेश्वर के ऊपर अपनी कल्पनाएँ थोप देते हैं, वे परमेश्वर के बारे में अपने रवैयों और कल्पनाओं को स्वयं अद्वितीय परमेश्वर के साथ-साथ रखते हैं, और इसके बाद वे प्रतिष्ठापित करने के लिए उन्हें पकड़कर रखते हैं। जब लोग परमेश्वर के प्रति इस प्रकार के अनुचित रवैये रखते हैं तो इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि उन्होंने स्वयं सच्चे परमेश्वर को अस्वीकार कर दिया है और एक झूठे ईश्वर की आराधना कर रहे हैं; यह संकेत देता है कि परमेश्वर में विश्वास करते हुए ही वे उसे अस्वीकार कर रहे हैं और उसका विरोध कर रहे हैं और यह कि वे सच्चे परमेश्वर के अस्तित्व से इनकार करते हैं। यदि लोग इस प्रकार के विश्वास बनाए रखेंगे, तो उन्हें किन परिणामों का सामना करना पड़ेगा? इस प्रकार के विश्वासों के साथ, क्या वे कभी परमेश्वर की अपेक्षा को पूरा करने के निकट आ पाएँगे? (नहीं, वे नहीं आ पाएँगे।) इसके विपरीत, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के कारण, ये लोग परमेश्वर के पथ से और भी दूर भटक जाएँगे, क्योंकि वे जिस दिशा की खोज करते हैं, वह उससे ठीक विपरीत है जिसकी परमेश्वर उनसे अपेक्षा करता है। क्या कभी तुम लोगों ने वह कहानी सुनी है कि "रथ को उत्तर की ओर चलाकर दक्षिण की ओर जाना?" यह ठीक उत्तर की ओर रथ चला कर दक्षिण की ओर जाने का मामला हो सकता है। यदि लोग परमेश्वर में इस बेढंगे तरीके से विश्वास करेंगे, तो तुम जितनी अधिक कोशिश करोगे, उतना ही परमेश्वर से अधिक दूर हो जाओगे। और इसलिए मैं तुम लोगों को यह चेतावनी देता हूँ: इससे पहले कि तुम आगे बढ़ो, तुम्हें पहले यह ज़रूर देखना चाहिए कि तुम सही दिशा में जा रहे हो या नहीं? अपने प्रयासों को लक्षित करो, और स्वयं से यह पूछना निश्चित करो, "क्या जिस परमेश्वर पर मैं विश्वास करता हूँ वह सभी चीज़ों का शासक है? क्या वह परमेश्वर जिस पर मैं विश्वास करता हूँ मात्र कोई ऐसा है जो मुझे आध्यात्मिक सहारा देता है? क्या वह मेरा आदर्श मात्र है? जिस परमेश्वर में मैं विश्वास करता हूँ, वह मुझसे क्या चाहता है? क्या परमेश्वर उस सब को अनुमोदित करता है जो मैं करता हूँ? क्या मेरे सभी कार्य और तलाशें परमेश्वर को जानने की खोज के क्रम में हैं? क्या यह मुझसे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुकूल है? क्या जिस पथ पर मैं चलता हूँ वह परमेश्वर के द्वारा मान्य और अनुमोदित है? क्या वह मेरी आस्था से संतुष्ट है?" तुम्हें अक्सर और बार-बार अपने आप से ये प्रश्न पूछने चाहिए। यदि तुम परमेश्वर के ज्ञान की खोज करना चाहते हो, तो इससे पहले कि तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने में सफल हो सको, तुम्हारे पास एक स्पष्ट चेतना और स्पष्ट उद्देश्य अवश्य होने चाहिए।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X' से उद्धृत
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 200
वह दृष्टिकोण जो परमेश्वर अपेक्षा करता है कि उसके प्रति मानवजाति का होना चाहिए
वास्तव में, परमेश्वर लोगों से ज्यादा अपेक्षा नहीं करता है—या कम से कम, वह उतनी अपेक्षा नहीं करता है जितनी लोग कल्पना करते हैं। अगर परमेश्वर ने किन्हीं वचनों को नहीं कहा होता, या यदि उसने अपने स्वभाव या किन्हीं कर्मों को व्यक्त नहीं किया होता तो परमेश्वर को जानना तुम लोगों के लिए बहुत कठिन होता, क्योंकि लोगों को उसके इरादों और उसकी इच्छा का अनुमान लगाना पड़ता; यह करना उनके लिए बहुत कठिन होता। किन्तु, उसके कार्य के अंतिम चरण में, परमेश्वर ने बहुत से वचन कहे हैं, बहुत सा कार्य किया है, और मनुष्य से बहुत सी अपेक्षाएँ की हैं। उसने अपने वचनों में, और अपने कार्य की विशाल मात्रा में लोगों को बता दिया है कि उसे क्या पसंद है, उसे किससे घृणा है, और उन्हें किस प्रकार का मनुष्य बनना चाहिए। इन बातों को समझने के बाद, लोगों के अपने हृदयों में परमेश्वर की अपेक्षाओं की सटीक परिभाषा होनी चाहिए, क्योंकि वे अस्पष्टता के बीच परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हैं, और अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, न ही वे अस्पष्टता और शून्यता के बीच परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। इसके बजाय, वे उसके कथनों को सुनने में समर्थ हैं, वे उसकी अपेक्षाओं के मानकों को समझने में, और उन्हें प्राप्त करने में समर्थ हैं, और परमेश्वर लोगों को वह सब बताने में मनुष्य की भाषा का उपयोग करता है जो उन्हें जानना और समझना चाहिए। आज, यदि लोग अभी भी नहीं जानते कि परमेश्वर क्या है और उसकी उनसे क्या अपेक्षाएँ हैं; अगर वे नहीं जानते कि परमेश्वर में विश्वास क्यों करना चाहिए न ही ये कि परमेश्वर में विश्वास या उससे व्यवहार कैसे करना चाहिए, तो फिर इसमें एक समस्या है। ... परमेश्वर की मनुष्य से, और जो उसका अनुसरण करते हैं उनसे, सही अपेक्षाएँ निम्नानुसार हैं। परमेश्वर की उनसे पाँच अपेक्षाएँ हैं जो उसका अनुसरण करते हैं: सच्चा विश्वास, निष्ठापूर्ण अनुकरण, पूर्ण समर्पण, सच्चा ज्ञान और हार्दिक आदर।
इन पाँच बातों में, परमेश्वर चाहता है कि लोग उससे अब और प्रश्न न करें, और न ही अपनी कल्पना या अस्पष्ट और अमूर्त दृष्टिकोण का उपयोग करके उसका अनुसरण करें; उन्हें किन्हीं भी कल्पनाओं या धारणाओं के साथ परमेश्वर का अनुसरण कतई नहीं करना चाहिए। परमेश्वर चाहता है कि जो उसका अनुसरण करते हैं, वे सभी ऐसा पूरी वफादारी से करें, आधे-अधूरे मन से या बिना किसी प्रतिबद्धता के नहीं करें। जब परमेश्वर तुमसे कोई अपेक्षा करता है, या तुम्हारा परीक्षण करता है, तुमसे निपटता या तुम्हें तराशता है, या तुम्हें अनुशासित करता और दंड देता है, तो तुम्हें पूर्ण रूप से उसके प्रति समर्पण कर देना चाहिए। तुम्हें कारण नहीं पूछना चाहिए, या शर्तें नहीं रखनी चाहिए, और तुम्हें तर्क तो बिल्कुल नहीं करना चाहिए। तुम्हारी आज्ञाकारिता चरम होनी चाहिए। परमेश्वर का ज्ञान एक ऐसा क्षेत्र है जिसका लोगों में सबसे ज़्यादा अभाव है। वे अक्सर परमेश्वर पर ऐसी कहावतों, कथनों, और वचनों को थोपते हैं जो उससे संबंधित नहीं होते, ऐसा विश्वास करते हैं कि ये वचन परमेश्वर के ज्ञान की सबसे सही परिभाषा हैं। उन्हें बहुत थोड़ा सा पता है कि ये कहावतें, जो लोगों की कल्पनाओं से आती हैं, उनके अपने तर्क, और अपने ज्ञान से आती हैं, उनका परमेश्वर के सार से ज़रा सा भी सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार, मैं तुम लोगों को बताना चाहता हूँ कि जब उस ज्ञान की बात आती है जो परमेश्वर चाहता है कि लोगों में हो, वह मात्र यह नहीं कहता कि तुम उसे और उसके वचनों को पहचानो, बल्कि यह कि परमेश्वर का तुम्हारा ज्ञान सही हो। भले ही तुम केवल एक वाक्य बोल सको, या केवल थोड़ा सा ही जानते हो, तो यह थोड़ा सा जानना सही और सच्चा हो, और स्वयं परमेश्वर के सार के अनुकूल हो। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर लोगों की अवास्तविक और अविवेकी स्तुति और सराहना से घृणा करता है। उससे भी अधिक, जब लोग उससे हवा की तरह बर्ताव करते हैं तो वह इससे घृणा करता है। जब परमेश्वर के बारे में विषयों की चर्चा के दौरान, लोग तथ्यों की परवाह न करते हुए बात करते हैं, जैसा चाहे वैसा और बेझिझक बोलते हैं, जैसा उन्हें ठीक लगे वैसा बोलते हैं तो वह इससे घृणा करता है; इसके अलावा, वह उनसे नफ़रत करता है जो यह मानते हैं कि वे परमेश्वर को जानते हैं, और उससे संबन्धित अपने ज्ञान के बारे में डींगे मारते हैं, उससे संबन्धित विषयों पर बिना किसी रुकावट या विचार किए चर्चा करते हैं। ऊपर उल्लिखित पाँच अपेक्षाओं में से अंतिम अपेक्षा हार्दिक आदर करना थी: यह परमेश्वर की उनसे परम अपेक्षा है जो उसका अनुसरण करते हैं। जब किसी को परमेश्वर का सही और सच्चा ज्ञान होता है, तो वह परमेश्वर का सच में आदर करने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होता है। यह आदर उसके हृदय की गहराई से आता है; यह आदर स्वैच्छिक दिया जाता है, और परमेश्वर द्वारा डाले गए दबाव के परिणामस्वरूप नहीं। परमेश्वर यह नहीं कहता कि तुम उसे किसी अच्छी प्रवृत्ति, या आचरण, या बाहरी व्यवहार का कोई उपहार दो; उसके बजाय, वह कहता है कि तुम अपने हृदय की गहराई से उसका आदर करो और उससे डरो। यह आदर तुम्हारे जीवन स्वभाव में बदलाव, परमेश्वर का ज्ञान और परमेश्वर के कर्मों की समझ प्राप्त करने, परमेश्वर का सार समझने और तुम्हारे द्वारा इस तथ्य को स्वीकार करने के परिणामस्वरूप आता है कि तुम परमेश्वर के प्राणियों में से एक हो। इसलिए, आदर को समझाने के लिए "हार्दिक" शब्द का उपयोग करने का मेरा लक्ष्य यह है कि मनुष्य समझे कि परमेश्वर के लिए उनका आदर उनके हृदय की गहराई से आना चाहिए।
अब उन पाँच अपेक्षाओं पर विचार करें: क्या तुम लोगों में ऐसे लोग हैं जो प्रथम तीन को प्राप्त करने में सक्षम हैं? इससे मैं सच्चे विश्वास, निष्ठापूर्ण अनुसरण, और पूर्ण समर्पण को संदर्भित कर रहा हूँ। क्या तुम लोगों में से कोई ऐसे हैं जो इन चीजों में सक्षम हैं? मैं जानता हूँ कि यदि मैंने सभी पाँच कहे होते, तो निश्चित रूप से तुम लोगों में से कोई नहीं होता जो सक्षम हो, किन्तु मैंने इस संख्या को तीन तक कर दिया है। इस बारे में सोचो कि तुम लोग इन चीजों को प्राप्त कर चुके हो या नहीं। क्या "सच्चा विश्वास" प्राप्त करना आसान है? (नहीं, आसान नहीं है।) यह आसान नहीं है, क्योंकि लोग प्रायः परमेश्वर पर प्रश्न उठाते हैं। और "निष्ठापूर्ण अनुसरण" के बारे में क्या? यह "निष्ठापूर्ण" किसे संदर्भित करता है? (आधे-अधूरे मन से नहीं बल्कि पूरे मन से होना।) आधे-अधूरे मन से नहीं, बल्कि पूरे मन से। एकदम सटीक बात कही! तो क्या तुम लोग इस अपेक्षा को पूरा करने में सक्षम हो? तुम्हें अधिक कड़ी मेहनत करनी होगी, है न? अभी तुम्हें इस अपेक्षा को पूरा पूरा करने में सफल होना बाकी है! "पूर्ण समर्पण" के बारे में क्या कहोगे—क्या तुमने इसे पा लिया है? (नहीं।) तुमने इसे भी नहीं पाया है। तुम बार-बार अवज्ञाकारी, विद्रोहशील हो जाते हो; तुम प्रायः नहीं सुनते हो, या आज्ञापान करना नहीं चाहते हो, या सुनना नहीं चाहते हो। ये तीन मूलभूत अपेक्षाएँ हैं जिन्हें जीवन में प्रवेश करने के बाद लोगों द्वारा पूरा किया जाता है लेकिन तुम लोगों को अभी उन्हें पूरा करना बाकी है। तो, इस वक्त, क्या तुममें बहुत अधिक क्षमता है? आज, मुझे इन वचनों को कहता हुआ सुनने के बाद, क्या तुम चिंतित महसूस करते हो? (हाँ!) यह सही है कि तुम्हें चिंतित महसूस करना चाहिए। चिंतित होने को मत टालो। तुम लोगों की ओर से मैं चिंतित महसूस करता हूँ! मैं अन्य दो अपेक्षाओं पर नहीं जाऊँगा; निस्संदेह, यहाँ कोई भी इन्हें पूरा करने में सक्षम नहीं है। तुम चिंतित हो। तो क्या तुम लोगों ने अपने लक्ष्य निर्धारित कर लिए हैं? तुम्हें कौन से लक्ष्यों के साथ, किस दिशा में खोज करनी चाहिए, और अपने प्रयासों को समर्पित करना चाहिए? क्या तुम्हारा कोई लक्ष्य है? मैं स्पष्ट रूप से कहता हूँ: जब तुम इन पाँच अपेक्षाओं को प्राप्त कर लोगे, तो तुमने परमेश्वर को संतुष्ट कर लिया होगा। उनमें से प्रत्येक एक संकेतक है, और साथ ही किसी व्यक्ति के जीवन में प्रवेश की परिपक्वता का अंतिम लक्ष्य भी। में पहुँचने के बाद लोगों का जीवन में प्रवेश का और इसके अंतिम लक्ष्य का संकेतक। भले ही मैं इन अपेक्षाओं में से एक के बारे में ही विस्तार से बोलना चुनूँ और तुमसे उसे पूरा करने की अपेक्षा करूँ, तब भी इसे प्राप्त करना आसान नहीं होगा; तुम्हें कुछ हद तक कठिनाई झेलनी होगी और विशेष प्रयास करने होंगे। तुम लोगों की मानसिकता कैसी होनी चाहिए? यह वैसी ही होनी चाहिए जैसी एक कैंसर के मरीज़ की होती है जो ऑपरेशन की टेबल पर जाने की प्रतीक्षा कर रहा होता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करना चाहते हो और यदि तुम परमेश्वर और उसकी संतुष्टि को प्राप्त करना चाहते हो, तो जब तक तुम कुछ हद तक कष्ट सहन नहीं करते हो और विशेष प्रयास नहीं करते हो, तुम इन चीज़ों को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होगे। तुम लोगों ने बहुत उपदेश सुन लिया है, किन्तु इसे सुन लेने मात्र का यह मतलब नहीं कि यह उपदेश तुम्हारा हो गया है; तुम्हें इसे अवश्य आत्मसात करना चाहिए और इसे किसी ऐसी वस्तु में रूपांतरित करना चाहिए जो तुमसे सम्बंधित हो। तुम्हें इसे अपने जीवन में आत्मसात कर लेना चाहिए, और इसे अपने अस्तित्व में ले आना चाहिए, इन वचनों और उपदेश को तुम्हारी जीवनशैली का मार्गदर्शन करने देना चाहिए, और तुम्हारे जीवन में अस्तित्व संबंधी मूल्य और अर्थ लाने देना चाहिए। जब ऐसा होगा, तब तुम्हारे लिए इन वचनों को सुनने का महत्व होगा। यदि मेरे द्वारा कहे जा रहे वचन तुम्हारे जीवन में कोई सुधार, या तुम्हारे अस्तित्व का मोल नहीं बढ़ाते हैं, तो तुम्हारा इन्हें सुनना कोई अर्थ नहीं रखता है। तुम लोग इसे समझते हो, है न? इसे समझने के बाद, आगे क्या होता है, यह तुम लोगों पर है। तुम लोगों को काम पर अवश्य लग जाना चाहिए! तुम्हें सभी बातों में ईमानदार अवश्य होना चाहिए! भ्रम में मत रहो; समय तेज़ी से गुज़र रहा है! तुम लोगों में से अधिकांश लोग पहले ही दस साल से भी ज्यादा समय से परमेश्वर में विश्वास करते आ रहे हैं। इन दस सालों को मुड़कर देखो: तुम लोगों ने कितना पाया है? इस जीवन के कितने दशक तुम्हारे पास शेष हैं? और इस जन्म में जीने के लिए तुम्हारे पास और कितने दशक बचे हैं? तुम्हारे पास बहुत समय नहीं बचा है। इस बारे में भूल जाओ कि परमेश्वर का कार्य तुम्हारी प्रतीक्षा करता है या नहीं, उसने तुम्हारे लिए कोई अवसर छोड़ा है या नहीं, या वह उसी कार्य को पुनः करेगा या नहीं—इन चीजों के बारे में बात मत करो। क्या तुम अपने जीवन के पिछले दस वर्षों को पलट सकते हो? हर गुज़रते हुए दिन और तुम्हारे उठाए हर कदम के साथ तुम्हारे पास एक दिन कम होता जाता है। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता है! तुम परमेश्वर में अपनी आस्था से केवल तभी प्राप्त करोगे, यदि तुम इसे अपने जीवन की सबसे बड़ी चीज, भोजन, कपडे, या किसी भी अन्य चीज की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण चीज़ के रूप में देखोगे! यदि तुम केवल तभी विश्वास करते हो जब तुम्हारे पास समय होता है, और अपनी आस्था के प्रति अपना पूरा ध्यान समर्पित करने में असमर्थ रहते हो, और यदि तुम हमेशा भ्रम में फँसे रहते हो, तो तुम कुछ भी प्राप्त नहीं करोगे।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X' से उद्धृत