4. अंतिम दिनों में अपने न्याय के कार्य को करने के लिए परमेश्वर मनुष्य का उपयोग क्यों नहीं करता, इसके बजाय उसे देहधारण कर, स्वयं इसे क्यों करना पड़ता है?
संदर्भ के लिए बाइबल के पद :
"पिता किसी का न्याय नहीं करता, परन्तु न्याय करने का सब काम पुत्र को सौंप दिया है...। वरन् उसे न्याय करने का भी अधिकार दिया है, इसलिये कि वह मनुष्य का पुत्र है" (यूहन्ना 5:22-27)।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :
न्याय का कार्य परमेश्वर का अपना कार्य है, इसलिए स्वाभाविक रूप से इसे परमेश्वर द्वारा ही किया जाना चाहिए; उसकी जगह इसे मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता। चूँकि न्याय सत्य के माध्यम से मानवजाति को जीतना है, इसलिए परमेश्वर निःसंदेह अभी भी मनुष्यों के बीच इस कार्य को करने के लिए देहधारी छवि के रूप में प्रकट होगा। अर्थात्, अंत के दिनों का मसीह दुनिया भर के लोगों को सिखाने के लिए और उन्हें सभी सच्चाइयों का ज्ञान कराने के लिए सत्य का उपयोग करेगा। यह परमेश्वर के न्याय का कार्य है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है
अंत के दिनों का मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन तमाम विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है
आज मैं तुम्हारी मलिनता के कारण ही तुम्हारा न्याय कर रहा हूँ, और तुम्हारी भ्रष्टता और विद्रोहशीलता के कारण ही तुम्हें ताड़ना दे रहा हूँ। मैं तुम लोगों के सामने अपने सामर्थ्य की अकड़ नहीं दिखा रहा या जानबूझकर तुम लोगों का दमन नहीं कर रहा; मैं ऐसा इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि इस मलिन धरती पर पैदा हुए तुम लोग मलिनता से बुरी तरह दूषित हो गए हो। तुम लोगों ने अपनी निष्ठा और मानवीयता खो दी है और तुम दुनिया की सबसे मलिन जगह पर पैदा हुए सूअर की तरह बन गए हो, और यही वजह है कि मैं तुम लोगों का न्याय करता हूँ और तुम लोगों पर अपना क्रोध बरसाता हूँ। ठीक इसी न्याय की वजह से तुम लोग यह देख पाए हो कि परमेश्वर धार्मिक परमेश्वर है, और कि परमेश्वर पवित्र परमेश्वर है; ठीक अपनी पवित्रता और धार्मिकता की वजह से ही वह तुम लोगों का न्याय करता है और तुम लोगों पर अपना क्रोध बरसाता है। चूँकि वह मनुष्य की विद्रोहशीलता देखकर अपना धार्मिक स्वभाव प्रकट कर सकता है, और चूँकि मनुष्य की मलिनता देखकर वह अपनी पवित्रता प्रकट कर सकता है, अत: यह यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि वह स्वयं परमेश्वर है, जो पवित्र और प्राचीन है, और फिर भी मलिनता की धरती पर रहता है। यदि कोई व्यक्ति दूसरों के साथ कीचड़ में लोट-पोट करता है, और उसके बारे में कुछ भी पवित्र नहीं है, और उसके पास कोई धार्मिक स्वभाव नहीं है, तो वह मनुष्य के अधर्म का न्याय करने के लिए योग्य नहीं है, और न ही वह मनुष्य के न्याय को कार्यान्वित करने के योग्य है। अगर एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का न्याय करता, तो क्या यह उनका स्वयं को थप्पड़ मारने जैसा नहीं होता? एक-जैसे मलिन व्यक्ति एक-दूसरे का न्याय करने के हकदार कैसे हो सकते हैं? केवल स्वयं पवित्र परमेश्वर ही पूरी मलिन मानव-जाति का न्याय करने में सक्षम है। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के पापों का न्याय कैसे कर सकता है? एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के पाप कैसे देख सकता है, और वह इन पापों की निंदा करने का पात्र कैसे हो सकता है? अगर परमेश्वर मनुष्य के पापों का न्याय करने का पात्र न होता, तो वह स्वयं धार्मिक परमेश्वर कैसे हो सकता था? जब लोगों के भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होते हैं, तो लोगों का न्याय करने के लिए परमेश्वर बोलता है, और केवल तभी लोग देखते हैं कि वह पवित्र है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विजय-कार्य के दूसरे चरण के प्रभावों को कैसे प्राप्त किया जाता है
जो लोग देह में जीवन बिताते हैं उन सभी के लिए, अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के लिए ऐसे लक्ष्यों की आवश्यकता होती है जिनका अनुसरण किया जा सके, और परमेश्वर को जानने के लिए आवश्यक है परमेश्वर के वास्तविक कर्मों एवं वास्तविक चेहरे को देखना। दोनों को सिर्फ परमेश्वर के देहधारी रूप से ही प्राप्त किया जा सकता है, दोनों को सिर्फ साधारण और वास्तविक देह से ही पूरा किया जा सकता है। इसीलिए देहधारण ज़रूरी है, और इसीलिए पूरी तरह से भ्रष्ट मनुष्यजाति को इसकी आवश्यकता है। चूँकि लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे परमेश्वर को जानें, इसलिए अस्पष्ट और अलौकिक परमेश्वरों की छवि को उनके हृदय से दूर हटाया जाना चाहिए, और चूँकि उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करें, इसलिए उन्हें पहले अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानना चाहिए। यदि लोगों के हृदय से अस्पष्ट परमेश्वरों की छवि को हटाने का कार्य केवल मनुष्य करे, तो वह उपयुक्त प्रभाव प्राप्त करने में असफल हो जाएगा। लोगों के हृदय से अस्पष्ट परमेश्वर की छवि को केवल वचनों से उजागर, दूर या पूरी तरह से निकाला नहीं जा सकता। ऐसा करने से, अंततः इन गहरी समाई चीज़ों को लोगों से हटाना तब भी संभव नहीं होगा। केवल इन अस्पष्ट और अलौकिक चीज़ों की जगह व्यावहारिक परमेश्वर और परमेश्वर की सच्ची छवि को रख कर, और लोगों को धीरे-धीरे इन्हें ज्ञात करवा कर ही उचित प्रभाव प्राप्त किया जा सकता है। मनुष्य को एहसास होता है कि जिस परमेश्वर को वह पहले से खोजता रहा है वह अस्पष्ट और अलौकिक है। पवित्रात्मा की प्रत्यक्ष अगुवाई इस प्रभाव को प्राप्त नहीं कर सकती, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं बल्कि देहधारी परमेश्वर की शिक्षाएँ ऐसा कर सकती हैं। मनुष्य की धारणाएँ तब उजागर होती हैं जब देहधारी परमेश्वर आधिकारिक रूप से अपना कार्य करता है, क्योंकि देहधारी परमेश्वर की सामान्यता और वास्तविकता मनुष्य की कल्पना के अस्पष्ट एवं अलौकिक परमेश्वर से विपरीत हैं। मनुष्य की मूल धारणाएँ तो तभी उजागर हो सकती हैं जब उनकी देहधारी परमेश्वर से तुलना की जाये। देहधारी परमेश्वर से तुलना के बिना, मनुष्य की धारणाओं को उजागर नहीं किया जा सकता; दूसरे शब्दों में, वास्तविकता की विषमता के बिना अस्पष्ट चीज़ों को उजागर नहीं किया जा सकता। इस कार्य को करने के लिए कोई भी वचनों का उपयोग करने में सक्षम नहीं है, और कोई भी वचनों का उपयोग करके इस कार्य को स्पष्टता से व्यक्त करने में सक्षम नहीं है। केवल स्वयं परमेश्वर ही अपना कार्य कर सकता है, अन्य कोई उसकी ओर से इस कार्य को नहीं कर सकता। मनुष्य की भाषा कितनी भी समृद्ध क्यों न हो, वह परमेश्वर की वास्तविकता और सामान्यता को स्पष्टता से व्यक्त करने में असमर्थ है। यदि परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से मनुष्य के बीच कार्य करे और अपनी छवि और अपने स्वरूप को पूरी तरह से प्रकट करे, तभी मनुष्य अधिक व्यावहारिकता से परमेश्वर को जान सकता है और अधिक स्पष्टता से देख सकता है। इस प्रभाव को कोई हाड़-माँस का इंसान प्राप्त नहीं कर सकता।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है
परमेश्वर की संपूर्ण प्रबंधन योजना का कार्य व्यक्तिगत रूप से स्वयं परमेश्वर द्वारा किया जाता है। प्रथम चरण—संसार का सृजन—परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया गया था, और यदि ऐसा न किया जाता, तो कोई भी मनुष्य का सृजन कर पाने में सक्षम न हुआ होता; दूसरा चरण संपूर्ण मानव-जाति के छुटकारे का था, और उसे भी देहधारी परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से कार्यान्वित किया गया था; तीसरा चरण स्वत: स्पष्ट है : परमेश्वर के संपूर्ण कार्य के अंत को स्वयं परमेश्वर द्वारा किए जाने की और भी अधिक आवश्यकता है। संपूर्ण मानव-जाति के छुटकारे, उस पर विजय पाने, उसे प्राप्त करने, और उसे पूर्ण बनाने का समस्त कार्य स्वयं परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया जाता है। यदि वह व्यक्तिगत रूप से इस कार्य को न करता, तो मनुष्य द्वारा उसकी पहचान नहीं दर्शाई जा सकती थी, न ही उसका कार्य मनुष्य द्वारा किया जा सकता था। शैतान को हराने, मानव-जाति को प्राप्त करने, और मनुष्य को पृथ्वी पर एक सामान्य जीवन प्रदान करने के लिए वह व्यक्तिगत रूप से मनुष्य की अगुआई करता है और व्यक्तिगत रूप से मनुष्यों के बीच कार्य करता है; अपनी संपूर्ण प्रबधंन योजना के वास्ते और अपने संपूर्ण कार्य के लिए उसे व्यक्तिगत रूप से इस कार्य को करना चाहिए। यदि मनुष्य केवल यह विश्वास करता है कि परमेश्वर इसलिए आया था कि मनुष्य उसे देख सके, या वह मनुष्य को खुश करने के लिए आया था, तो ऐसे विश्वास का कोई मूल्य, कोई महत्व नहीं है। मनुष्य की समझ बहुत ही सतही है! केवल इसे स्वयं कार्यान्वित करके ही परमेश्वर इस कार्य को अच्छी तरह से और पूरी तरह से कर सकता है। मनुष्य इसे परमेश्वर की ओर से करने में असमर्थ है। चूँकि उसके पास परमेश्वर की पहचान या उसका सार नहीं है, इसलिए वह पमेश्वर का कार्य करने में असमर्थ है, और यदि मनुष्य इसे करता भी, तो इसका कोई प्रभाव नहीं होता। पहली बार जब परमेश्वर ने देहधारण किया था, तो वह छुटकारे के वास्ते था, संपूर्ण मानव-जाति को पाप से छुटकारा देने के लिए था, मनुष्य को शुद्ध किए जाने और उसे उसके पापों से क्षमा किए जाने में सक्षम बनाने के लिए था। विजय का कार्य भी परमेश्वर द्वारा मनुष्यों के बीच व्यक्तिगत रूप से किया जाता है। इस चरण के दौरान यदि परमेश्वर को केवल भविष्यवाणी ही करनी होती, तो किसी भविष्यवक्ता या किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति को उसका स्थान लेने के लिए ढूँढ़ा जा सकता था; यदि केवल भविष्यवाणी ही कहनी होती, तो मनुष्य परमेश्वर की जगह ले सकता था। किंतु यदि मनुष्य व्यक्तिगत रूप से स्वयं परमेश्वर का कार्य करने की कोशिश करता और मनुष्य के जीवन का कार्य करने का प्रयास करता, तो उसके लिए इस कार्य को करना असंभव होता। इसे व्यक्तिगत रूप से स्वयं परमेश्वर द्वारा ही किया जाना चाहिए : इस कार्य को करने के लिए परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से देह बनना चाहिए। वचन के युग में, यदि केवल भविष्यवाणी ही कही जाती, तो इस कार्य को करने के लिए नबी यशायाह या एलिय्याह को ढूँढ़ा जा सकता था, और इसे व्यक्तिगत रूप से करने के लिए स्वयं परमेश्वर की कोई आवश्यकता न होती। चूँकि इस चरण में किया जाने वाला कार्य मात्र भविष्यवाणी कहना नहीं है, और चूँकि इस बात का अत्यधिक महत्व है कि वचनों के कार्य का उपयोग मनुष्य पर विजय पाने और शैतान को पराजित करने के लिए किया जाता है, इसलिए इस कार्य को मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता, और इसे स्वयं परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया जाना चाहिए। व्यवस्था के युग में यहोवा ने अपने कार्य का एक भाग किया था, जिसके पश्चात् उसने कुछ वचन कहे और नबियों के जरिये कुछ कार्य किया। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य यहोवा के कार्य में उसका स्थान ले सकता था, और भविष्यद्रष्टा उसकी ओर से चीज़ों की भविष्यवाणी और कुछ स्वप्नों की व्याख्या कर सकते थे। आरंभ में किया गया कार्य सीधे-सीधे मनुष्य के स्वभाव को परिवर्तित करने का कार्य नहीं था, और वह मनुष्य के पाप से संबंध नहीं रखता था, और मनुष्य से केवल व्यवस्था का पालन करने की अपेक्षा की गई थी। अतः यहोवा देह नहीं बना और उसने स्वयं को मनुष्य पर प्रकट नहीं किया; इसके बजाय उसने मूसा और अन्य लोगों से सीधे बातचीत की, उनसे बुलवाया और अपने स्थान पर कार्य करवाया, और उनसे मानव-जाति के बीच सीधे तौर पर कार्य करवाया। परमेश्वर के कार्य का पहला चरण मनुष्य की अगुआई का था। यह शैतान के विरुद्ध युद्ध का आरंभ था, किंतु यह युद्ध आधिकारिक रूप से शुरू होना बाक़ी था। शैतान के विरुद्ध आधिकारिक युद्ध परमेश्वर के प्रथम देहधारण के साथ आरंभ हुआ, और यह आज तक जारी है। इस युद्ध की पहली लड़ाई तब हुई, जब देहधारी परमेश्वर को सलीब पर चढ़ाया गया। देहधारी परमेश्वर के सलीब पर चढ़ाए जाने ने शैतान को पराजित कर दिया, और यह युद्ध में प्रथम सफल चरण था। जब देहधारी परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन में सीधे कार्य करना आरंभ किया, तो यह मनुष्य को पुनः प्राप्त करने के कार्य की आधिकारिक शुरुआत थी, और चूँकि यह मनुष्य के पुराने स्वभाव को परिवर्तित करने का कार्य था, इसलिए यह शैतान के साथ युद्ध करने का कार्य था। आरंभ में यहोवा द्वारा किए गए कार्य का चरण पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन की अगुआई मात्र था। यह परमेश्वर के कार्य का आरंभ था, और हालाँकि इसमें अभी कोई युद्ध या कोई बड़ा कार्य शामिल नहीं हुआ था, फिर भी इसने आने वाले युद्ध के कार्य की नींव डाली थी। बाद में, अनुग्रह के युग के दौरान दूसरे चरण के कार्य में मनुष्य के पुराने स्वभाव को परिवर्तित करना शामिल था, जिसका अर्थ है कि स्वयं परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन को गढ़ा था। इसे परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया जाना था : इसमें अपेक्षित था कि परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से देह बन जाए। यदि वह देह न बनता, तो कार्य के इस चरण में कोई अन्य उसका स्थान नहीं ले सकता था, क्योंकि यह शैतान के विरुद्ध सीधी लड़ाई के कार्य को दर्शाता था। यदि परमेश्वर की ओर से मनुष्य ने यह कार्य किया होता, तो जब मनुष्य शैतान के सामने खड़ा होता, तो शैतान ने समर्पण न किया होता और उसे हराना असंभव हो गया होता। देहधारी परमेश्वर को ही उसे हराने के लिए आना था, क्योंकि देहधारी परमेश्वर का सार फिर भी परमेश्वर है, वह फिर भी मनुष्य का जीवन है, और वह फिर भी सृजनकर्ता है; कुछ भी हो, उसकी पहचान और सार नहीं बदलेगा। और इसलिए, उसने देहधारण किया और शैतान से संपूर्ण समर्पण करवाने के लिए कार्य किया। अंत के दिनों के कार्य के चरण के दौरान, यदि मनुष्य को यह कार्य करना होता और उससे सीधे तौर पर वचनों को बुलवाया जाता, तो वह उन्हें बोलने में असमर्थ होता, और यदि भविष्यवाणी कही जाती, तो यह भविष्यवाणी मनुष्य पर विजय पाने में असमर्थ होती। देहधारण करके परमेश्वर शैतान को हराने और उससे संपूर्ण समर्पण करवाने के लिए आता है। जब वह शैतान को पूरी तरह से पराजित कर लेगा, पूरी तरह से मनुष्य पर विजय पा लेगा और मनुष्य को पूरी तरह से प्राप्त कर लेगा, तो कार्य का यह चरण पूरा हो जाएगा और सफलता प्राप्त कर ली जाएगी। परमेश्वर के प्रबधंन में मनुष्य परमेश्वर का स्थान नहीं ले सकता। विशेष रूप से, युग की अगुआई करने और नया कार्य आरंभ करने का काम स्वयं परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से किए जाने की और भी अधिक आवश्यकता है। मनुष्य को प्रकाशन देना और उसे भविष्यवाणी प्रदान करना मनुष्य द्वारा किया जा सकता है, किंतु यदि यह ऐसा कार्य है जिसे व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर द्वारा किया जाना चाहिए, अर्थात् स्वयं परमेश्वर और शैतान के बीच युद्ध का कार्य, तो इस कार्य को मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता। कार्य के प्रथम चरण के दौरान, जब शैतान के साथ कोई युद्ध नहीं था, तब यहोवा ने नबियों द्वारा बोली गई भविष्यवाणियों का उपयोग करके व्यक्तिगत रूप से इस्राएल के लोगों की अगुआई की थी। उसके बाद, कार्य का दूसरा चरण शैतान के साथ युद्ध था, और स्वयं परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से देह बना और इस कार्य को करने के लिए देह में आया। जिस भी चीज़ में शैतान के साथ युद्ध शामिल होता है, उसमें परमेश्वर का देहधारण भी शामिल होता है, जिसका अर्थ है कि यह युद्ध मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता। यदि मनुष्य को युद्ध करना पड़ता, तो वह शैतान को पराजित करने में असमर्थ होता। उसके पास उसके विरुद्ध लड़ने की ताक़त कैसे हो सकती है, जबकि वह अभी भी उसके अधिकार-क्षेत्र के अधीन है? मनुष्य बीच में है : यदि तुम शैतान की ओर झुकते हो तो तुम शैतान से संबंधित हो, किंतु यदि तुम परमेश्वर को संतुष्ट करते हो, तो तुम परमेश्वर से संबंधित हो। यदि इस युद्ध के कार्य में मनुष्य को प्रयास करना होता और उसे परमेश्वर का स्थान लेना होता, तो क्या वह कर पाता? यदि वह युद्ध करता, तो क्या वह बहुत पहले ही नष्ट नहीं हो गया होता? क्या वह बहुत पहले ही नरक में नहीं समा गया होता? इसलिए, परमेश्वर के कार्य में मनुष्य उसका स्थान लेने में अक्षम है, जिसका तात्पर्य है कि मनुष्य के पास परमेश्वर का सार नहीं है, और यदि तुम शैतान के साथ युद्ध करते, तो तुम उसे पराजित करने में अक्षम होते। मनुष्य केवल कुछ कार्य ही कर सकता है; वह कुछ लोगों को जीत सकता है, किंतु वह स्वयं परमेश्वर के कार्य में परमेश्वर का स्थान नहीं ले सकता। मनुष्य शैतान के साथ युद्ध कैसे कर सकता है? तुम्हारे शुरुआत करने से पहले ही शैतान ने तुम्हें बंदी बना लिया होता। केवल जब स्वयं परमेश्वर ही शैतान के साथ युद्ध करता है और मनुष्य इस आधार पर परमेश्वर का अनुसरण और आज्ञापालन करता है, तभी परमेश्वर द्वारा मनुष्य को प्राप्त किया जा सकता है और वह शैतान के बंधनों से बच सकता है। मनुष्य द्वारा अपनी स्वयं की बुद्धि और योग्यताओं से प्राप्त की जा सकने वाली चीज़ें बहुत ही सीमित हैं; वह मनुष्य को पूर्ण बनाने, उसकी अगुआई करने, और, इसके अतिरिक्त, शैतान को हराने में असमर्थ है। मनुष्य की प्रतिभा और बुद्धि शैतान के षड्यंत्रों को नाकाम करने में असमर्थ हैं, इसलिए मनुष्य उसके साथ युद्ध कैसे कर सकता है?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना