कार्य और प्रवेश (10)
मानवता का इतनी दूरी तक प्रगति कर लेना एक ऐसी स्थिति है जिसका कोई पूर्व उदाहरण नहीं है। परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का प्रवेश कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ते हैं, और इस प्रकार परमेश्वर का कार्य भी एक शानदार घटना है जो बेमिसाल है। मनुष्य का आज तक का प्रवेश एक ऐसा आश्चर्य है जिसकी मनुष्य ने पहले कभी कल्पना नहीं की थी। परमेश्वर का कार्य अपने शिखर पर पहुँच गया है—और, इसके बाद, मनुष्य का “प्रवेश”[1] भी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया है। परमेश्वर ने अपने-आपको इतना नीचे उतारा है जितना कि वह संभवतः उतार सकता था, और कभी भी उसने मानवजाति या ब्रह्मांड और समस्त चीजों के सामने विरोध नहीं किया है। इस बीच, मनुष्य परमेश्वर के सिर पर खड़ा है, और उसके द्वारा परमेश्वर का दमन अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है; सब कुछ अपनी चोटी पर पहुँच गया है, और धार्मिकता के प्रकट होने के दिन का समय आ गया है। क्यों उदासी को धरती पर छाने देते रहें, और अंधेरे को सभी लोगों को अपने आवरण में लेने देते रहें? परमेश्वर हजारों वर्षों तक—बल्कि दस हजारों वर्षों तक—देखता रहा हैऔर उसकी सहिष्णुता बहुत समय पहले अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच चुकी है। वह मानवजाति की प्रत्येक हरकत को देखता रहा है, वह यह देखता रहा है कि मनुष्य की अधार्मिकता कितनी देर तक आतंक मचाएगी, और फिर भी मनुष्य, जो लंबे समय से सुन्न हो चुका है, कुछ भी महसूस नहीं करता। और किसने कभी परमेश्वर के कर्मों को देखा है? किसने कभी अपनी नजरों को उठाया है और दूर तक देखा है? किसने कभी ध्यान से सुना है? कौन कभी सर्वशक्तिमान के हाथों में रहा है? सभी लोग काल्पनिक भय से ग्रस्त[2] हैं। घास-फूस के एक ढेर का क्या उपयोग है? केवल एक ही चीज़ है जो वे कर सकते हैं, वह है देहधारी परमेश्वर को मृत्यु पर्यंत यातना देना। यद्यपि वे घास और फूस के ढेर हैं, फिर भी एक काम है जो वे “सबसे अच्छा”[3] करते हैं : परमेश्वर को मृत्यु तक यातना देना और फिर यह चिल्लाना कि “यह लोगों के दिल को खुश करता है”। झींगा-सैनिकों और केकड़ा-सेनाध्यक्षों का यह कैसा झुंड है! उल्लेखनीय रूप से, लोगों के एक उमड़ते रेले के बीच, वे परमेश्वर पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, एक अभेद्य नाकाबंदी के साथ उसे घेरते हुए। उनका जोश अधिकाधिक तीव्रता से दग्ध[4] होता जाता है, वे परमेश्वर को जत्थों में घेरे हुए हैं, ताकि वह एक इंच भी हिल न सके। उनके हाथों में सभी प्रकार के हथियार हैं, और वे परमेश्वर की तरफ क्रोध भरी आँखों से देखते हैं जैसे किसी दुश्मन की ओर देख रहे हों; वे “परमेश्वर के टुकड़े-टुकड़े” कर देने को बेताब हैं। कैसी हतप्रभ करने वाली बात है! मनुष्य और परमेश्वर इतने कट्टर दुश्मन क्यों बन गए हैं? क्या यह हो सकता है कि अत्यंत प्यारे परमेश्वर और मनुष्य के बीच वैमनस्य हो? क्या यह हो सकता है कि परमेश्वर के कार्यों का मनुष्य के लिए कोई लाभ न हो? क्या वे मनुष्य को नुकसान पहुँचाते हैं? मनुष्य परमेश्वर पर एक अविचल ताक जमाये हुए है, बेहद डरते हुए कि वह मनुष्यों की नाकाबंदी को तोड़ डालेगा, तीसरे स्वर्ग में वापस लौट जाएगा, और एक बार फिर मनुष्यों को कालकोठरी में डाल देगा। मनुष्य परमेश्वर से खबरदार है, वह बहुत घबराया हुआ है, और दूर जमीन पर छटपटाता है, लोगों के बीच मौजूद परमेश्वर पर “मशीन गन” तानते हुए। ऐसा लगता है कि, परमेश्वर की थोड़ी-सी भी हलचल होते ही, मनुष्य उसका सब कुछ—उसका पूरा शरीर और वह जो कुछ भी पहने हुए है—मिटा देगा, कुछ भी बाकी नहीं छोड़ेगा। परमेश्वर और मनुष्य के बीच का यह संबंध सुधार से परे है। परमेश्वर मनुष्य की समझ से परे है; मनुष्य, इस बीच, जानबूझकर अपनी आँखें बंद कर लेता है और मस्ती में समय गंवाता है, मेरे अस्तित्व को देखने के लिए पूरी तरह से अनिच्छुक, और मेरे न्याय के प्रति निर्मम। अतः, जब मनुष्य को इसकी उम्मीद नहीं होती, मैं चुपचाप निकल जाता हूँ, और अब मैं और तुलना नहीं करूँगा कि मनुष्य के मुक़ाबले कौन ऊँचा या नीचा है। मानव सबसे निम्न स्तर का “जानवर” है एवं मैं अब उसकी ओर ध्यान देना नहीं चाहता। बहुत समय पहले मैं अपने अनुग्रह की समग्रता को पूरी तरह से उस स्थान पर वापस ले जा चुका हूँ जहाँ मैं शांतिपूर्वक रहता हूँ; चूँकि मनुष्य इतना विद्रोही है, उसके पास क्या वजह है कि वह मेरी अनमोल कृपा का और आनंद ले? मैं उन ताकतों पर अपनी कृपा को व्यर्थ करने के लिए तैयार नहीं हूँ जो मेरे प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। मैं कनान के उन किसानों को अपने अनमोल फल प्रदान करूँगा जो उत्साही हैं, और सच्चे मन से मेरी वापसी का स्वागत करते हैं। मैं केवल इतना चाहता हूँ कि स्वर्ग अनंत काल तक रहे, और इससे भी अधिक, मनुष्य कभी बूढ़ा न हो, स्वर्ग और मनुष्य सदैव चैन से रहें, और वे सदाबहार “देवदार और साइप्रस” हमेशा परमेश्वर के साथ रहें, और आदर्श युग में एक साथ प्रवेश करने के लिए हमेशा स्वर्ग के साथ रहें।
मैंने मनुष्य के साथ कई दिन-रात बिताए हैं, मैं दुनिया में मनुष्य के साथ रह चुका हूँ, और मैंने कभी भी मनुष्य से कोई और अपेक्षाएँ नहीं की हैं; मैं केवल मनुष्य का निरंतर आगे बढ़ने में मार्गदर्शन करता हूँ, मैं मनुष्य का मार्गदर्शन करने के अलावा और कुछ भी नहीं करता हूँ, और मानवजाति की नियति की खातिर, मैं निरंतर प्रबंधन का कार्य करता हूँ। स्वर्ग के पिता की इच्छा को कभी किसने समझा है? किसने स्वर्ग और पृथ्वी के बीच यात्रा की है? मैं अब मनुष्य के “बुढ़ापे” के साथ और समय बिताना नहीं चाहता, क्योंकि मनुष्य बहुत पुराने ढंग का है, वह कुछ भी नहीं समझता है, एक ही चीज़ जो वह जानता है, वह है उस दावत को छक कर खाना जो मैंने सजा रखी है, अन्य सभी चीजों से विरक्त—किसी भी अन्य मामले पर ध्यान न देते हुए। मानव जाति बहुत कृपण है, मनुष्यों के बीच शोरगुल, हताशा और खतरा बहुत अधिक है, और इसलिए मैं अंत के दिनों के दौरान हासिल की गई जीत के बहुमूल्य फलों को साझा करना नहीं चाहता हूँ। मनुष्य को उन प्रचुर आशीर्वादों का आनंद उठाने दो जो उसने खुद निर्मित किए हैं, क्योंकि मनुष्य मेरा स्वागत नहीं करता है—मैं मनुष्य को मुस्कुराहट का स्वांग करने के लिए क्यों मजबूर करूँ? दुनिया के हर कोने में गर्मजोशी का अभाव है, पूरे विश्व के परिदृश्य में वसंत का कोई नामो-निशान नहीं है, क्योंकि जल में निवास करते एक जीव की तरह, उसमें थोड़ी-सी भी गर्माहट नहीं है, वह एक लाश की तरह है, और यहाँ तक कि वह रक्त भी जो उसकी नसों में दौड़ता है, एक जमी हुए बर्फ की तरह है जो दिल को ठिठुरा देती है। गर्माहट कहाँ है? बिना किसी कारण के मनुष्य ने परमेश्वर को सूली पर जड़ दिया, और बाद में उसने थोड़ी-सी भी शंका महसूस नहीं की। किसी को भी कभी अफसोस नहीं हुआ है, और ये क्रूर आततायी अब भी मनुष्य के पुत्र को एक बार फिर “जीवित पकड़ना”[5] चाहते हैं और एक गोली चलाने वाले दस्ते के सामने उसे ले आने की योजना बना रहे हैं, ताकि वे अपने दिल की नफरत को खत्म कर सकें। इस खतरनाक भूमि में और रहने का मुझे क्या लाभ है? यदि मैं रह जाता हूँ, तो केवल एक ही चीज जो मैं मनुष्य के लिए लाऊंगा, वह संघर्ष और हिंसा है, और संकट का कोई अंत न होगा, क्योंकि मैं कभी भी मनुष्य के लिए शांति नहीं, केवल युद्ध लाया हूँ। मानव जाति के आखिरी दिन युद्ध से भरे होने चाहिए, और हिंसा और संघर्ष के बीच मनुष्य के गंतव्य को ध्वस्त हो जाना चाहिए। मैं युद्ध की “प्रसन्नता” में “हिस्सा” लेने के लिए तैयार नहीं हूँ, मैं मनुष्य के रक्तपात और बलिदान का साथ नहीं दूँगा, क्योंकि मनुष्य की अस्वीकृति मुझे “निराशा” की ओर ले गई है और मुझमें मनुष्य के युद्धों को देखने का दिल नहीं है—मनुष्य को जी भरकर लड़ने दो, मैं आराम करना चाहता हूँ, मैं सोना चाहता हूँ, मानवजाति के अंतिम दिनों के दौरान राक्षसों को उनके साथी बनने दो! मेरे इरादों को कौन जानता है? चूँकि मनुष्य ने मेरा स्वागत नहीं किया गया है, और उसने कभी मेरी प्रतीक्षा नहीं की है, मैं केवल उसे विदाई दे सकता हूँ, और मैं मानवता के गंतव्य को उसे सौंपता हूँ, मैं अपनी सारी धन-संपत्ति मनुष्य के लिए छोड़ता हूँ, अपने जीवन को मनुष्यों के बीच बोता हूँ, अपने जीवन के बीज को मनुष्य के ह्रदय के खेत में बोता हूँ, उसके लिए अमर स्मृतियाँ छोड़ता हूँ, मानव जाति के लिए अपना सारा प्रेम छोडता हूँ, और मुझमें जो कुछ भी मनुष्य को प्रिय है वह सब उसे देता हूँ, उस प्रेम के उपहार के रूप में जिसके साथ हम एक-दूसरे को चाहते हैं। मेरी हसरत है कि हम हमेशा के लिए एक दूसरे से प्यार करते रहें, कि हमारा बीता हुआ कल एक अच्छी चीज हो जो हम एक दूसरे को दें, क्योंकि मैंने मानवजाति को पहले से ही अपनी समग्रता दे दी है—मनुष्य को क्या शिकायतें हो सकती हैं? मैंने पूरी तरह से अपने जीवन की समग्रता को मनुष्य के लिए छोड़ दिया है, और बिना एक भी शब्द कहे, मानवजाति के लिए प्रेम की सुंदर भूमि पर हल जोतने की कड़ी मेहनत की है; मैंने कभी मनुष्यों से न्यायसंगत मांगें भी नहीं की हैं, और सिर्फ मनुष्य की व्यवस्था का पालन करने और मानवता के लिए एक अधिक सुंदर आने वाला कल बनाने के अलावा और कुछ भी नहीं किया है।
यद्यपि परमेश्वर का कार्य समृद्ध और प्रचुर है, मनुष्य के प्रवेश में बहुत ज्यादा कमियाँ हैं। मनुष्य और परमेश्वर के बीच संयुक्त “उद्यम” का लगभग समूचा हिस्सा ही परमेश्वर का कार्य है; जहाँ तक मनुष्य के प्रवेश का प्रश्न है, उसके पास इसे दिखाने के लिए लगभग कुछ भी नहीं है। मनुष्य, जो इतना शक्तिहीन और अँधा है, आज के परमेश्वर के सामने अपनी ताकत को अपने हाथों के “प्राचीन हथियारों” से मापता है। ये “आदिम वानर” मुश्किल से सीधे चल पाते हैं, और अपने “नग्न” शरीरों पर उन्हें कोई शर्म नहीं आती। परमेश्वर के कार्य का मूल्यांकन करने की उनकी पात्रता क्या है? इन चार हाथ-पैरों वाले वानरों में से कई की आँखें क्रोध से भर आती हैं, और अपने हाथों में पत्थर के प्राचीन हथियारों के साथ वे परमेश्वर का मुकाबला करते हैं, वन-मानुषों की एक ऐसी प्रतियोगिता शुरू करने की कोशिश करते हुए जिसकी मिसाल दुनिया ने पहले कभी नहीं देखी थी, वन-मानुषों और परमेश्वर के बीच अंत के दिनों की एक ऐसी प्रतियोगिता जो पूरी धरती पर प्रसिद्ध हो जाएगी। इसके अलावा, इन आधे सीधे प्राचीन वन-मानुषों में से कई आत्म-संतुष्टि से छलक रहे हैं। उनके चेहरे को ढँकते बाल परस्पर उलझे हुए हैं, जानलेवा इरादे से भरे हुए वे अपने आगे के पैर उठाते हैं। वे अभी भी आधुनिक मानव के रूप में पूरी तरह से विकसित नहीं हुए हैं, इसलिए कभी तो वे सीधे खड़े होते हैं, और कभी वे रेंगते हैं, ओस की एकत्रित बूंदों के तरह पसीने के मनके उनके माथे को ढंके हुए हैं, उनकी तत्परता स्वयं प्रकट होती है। विशुद्ध, प्राचीन वन-मानुष को निहारते हुए, उनके साथी, चार अंगों पर खड़े हुए, उनके चार हाथ-पैर भारी और मंद, मुश्किल से खुद पर होते प्रहार को रोकने में सक्षम और पलटकर लड़ने की शक्ति के बगैर, वे कठिनाई से खुद को संभाल पाते हैं। पलक झपकते ही—इससे पहले कि क्या हुआ यह देखने का समय मिले—अखाड़े का “नायक” जमीन पर उल्टा लुढ़क जाता है, हाथ-पैरों को हवा में ऊपर उठाए हुए। वे अंग जो गलत मुद्रा में इतने वर्षों से जमीन पर रखे हुए थे, अचानक उलट-पुलट हो गए हैं, और वन-मानुष में अब विरोध करने की कोई इच्छा नहीं बची है। तब से, प्राचीन वन-मानुष का पृथ्वी से सफाया हो गया है—यह वास्तव में “गंभीर” बात है। इस प्राचीन वन-मानुष का ऐसा आकस्मिक अंत हुआ। उसे मनुष्य की इस अद्भुत दुनिया से इतनी जल्दी कूच क्यों करना पड़ा? इसने अपने साथियों के साथ रणनीति के अगले चरण पर चर्चा क्यों नहीं की? परमेश्वर के खिलाफ अपनी ताकत को मापने के रहस्य को बताए बिना उसने दुनिया से विदा ले ली, यह कैसी दयनीय बात है! इस तरह के बूढ़े वन-मानुष का यूं एक फुसफुसाहट के बिना ही मर जाना कितना विचारशून्य था, अपने वंशजों के लिए इस “प्राचीन संस्कृति और कला” को विरासत में छोड़े बिना ही। उसके पास इतना समय ही नहीं था कि अपने निकटतम साथियों को अपने पास बुलाकर उन्हें अपने प्रेम के बारे में बता सके, उसने किसी शिला-लेख पर कोई संदेश नहीं छोड़ा, उसने स्वर्ग के सूर्य को नहीं पहचाना, और अपनी अकथनीय कठिनाइयों के बारे में कुछ भी नहीं कहा। अपनी आखिरी सांस लेते समय, अपनी आँखें बंद होने के पहले, अपने चार अकड़े-से हाथ-पैर हमेशा के लिए वृक्ष की शाखाओं की तरह आकाश की ओर उठाकर रखते हुए, उसने अपने वंशजों को अपने मरणासन्न शरीर के पास नहीं बुलाया, उन्हें यह बताने के लिए कि “परमेश्वर को चुनौती देने के लिए अखाड़े में नहीं उतरना”। ऐसा प्रतीत होगा कि उसकी पीड़ाजनक मृत्यु हुई...। अचानक, अखाड़े के नीचे से एक गरजती हँसी उभरती है; एक आधा सीधा वन-मानुष अपने आपे से बाहर है; हिरण या अन्य जंगली प्राणियों का शिकार करने में इस्तेमाल होने वाली एक “पत्थर की लाठी” पकड़े हुए जो आदिम वन-मानुष के मुकाबले अधिक उन्नत है, वह अखाड़े में कूद पड़ता है, क्रोध से आग-बबूला होते हुए, और अपने मन में एक सुनिश्चित योजना लेकर।[6] ऐसा लगता है मानो उसने कुछ सराहनीय काम किया है। अपनी पत्थर की लाठी की “ताकत” के सहारे वह “तीन मिनट” के लिए सीधे खड़े हो पाता है। इस तीसरे “पैर” की “शक्ति” कितनी प्रबल है! इसने तीन मिनट तक उस बड़े, अनाड़ी, बेवकूफ आधे सीधे वन-मानुष को खड़ा करके रखा—कोई आश्चर्य नहीं कि यह आदरणीय[7] वृद्ध वन-मानुष इतना दबंग है। यकीनन, यह प्राचीन पत्थर का औजार “अपनी प्रतिष्ठा पर खरा उतरता है”: चाकू की एक मूठ है, धार है, और नोक है, एकमात्र दोष यह है कि धार पर चमक की कमी है—यह कितना शोकास्पद है। प्राचीन काल के इस “लघु नायक” को फिर से देखो, अखाड़े में खड़े होकर नीचे खड़े लोगों पर एक तिरस्कारपूर्ण दृष्टि डालते हुए, जैसेकि वे नपुंसक व हीन हों, और वह स्वयं वीर नायक हो। वह अपने दिल में, जो मंच के सामने हैं उनसे छिपे तौर पर घृणा करता है। “देश कठिनाई में है और हममें से प्रत्येक जिम्मेदार है, तुम लोग पीछे क्यों हट रहे हो? क्या यह हो सकता है कि तुम सब देश को आपदा का सामना करते देखो, लेकिन खूनी लड़ाई में शामिल न होना चाहो? देश तबाही की कगार पर है—तुम लोग सबसे पहले चिंतित होने वाले और सबसे अंत में सुख भोगने वाले क्यों नहीं हो? तुम सभी देश को नाकामयाब होते और इसकी जनता को बर्बाद होते कैसे देख सकते हो? क्या तुम लोग राष्ट्रीय पराधीनता की शर्म को सहन करने के लिए तैयार हो? निकम्मों का यह कैसा झुंड है?” जैसे ही वह इस तरह सोचता है, मंच के सामने लड़ाई-झगड़े होने लगते हैं और उसकी आँखें और भी अधिक कुपित हो जाती हैं, जैसेकि बस अभी उनसे ज्वालाएँ बरसने[8] वाली हों। वह लड़ाई से पहले ही परमेश्वर को विफल कर देने के लिए उतावला है, लोगों को खुश करने की खातिर परमेश्वर को मौत के घाट उतारने के लिए बेताब। उसे नहीं पता कि, भले ही उसका पत्थर का औजार ख्याति का योग्य पात्र हो, यह परमेश्वर से कभी भी वैर नहीं कर सकता। इससे पहले कि उसे खुद के बचाव का समय मिले, इससे पहले कि उसे लेट जाने और अपने पैरों पर उठ खड़े होने का समय मिले, वह आगे-पीछे झूलने लगता है, दोनों आँखों की दृष्टि खोकर। वह अपने पुराने पूर्वज के पास नीचे लुढ़क पड़ता है और फिर नहीं उठता; बूढ़े वन-मानुष को कसकर पकड़े हुए वह अब और नहीं चीखता, और अपनी हीनता को स्वीकार कर लेता है, विरोध करने की और इच्छा के बगैर। वे बेचारे दो वन-मानुष अखाड़े के सामने प्राण त्याग देते हैं। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि मानव जाति के ये पूर्वज, जो आज तक बचे हुए हैं, उस दिन अज्ञान में मारे गए, जो धार्मिकता के सूर्य के प्रकट होने का दिन था! कितना मूर्खतापूर्ण है यह कि उन्होंने इतने महान आशीर्वाद को यूँ ही हाथ से निकल जाने दिया—कि अपने आशीर्वाद के दिन, हजारों सालों से इंतजार करने वाले ये वन-मानुष दुष्टों के राजा के साथ “आनंद” भोगने के लिए इन आशीषों को रसातल में ले गए हैं! क्यों न इन आशीषों को वे जीवितों की दुनिया में अपने बेटों और बेटियों के साथ आनंद लेने के लिए रखें? वे सिर्फ मुसीबतों को न्यौता दे रहे हैं! यह कैसी बर्बादी है कि थोड़ी-सी हैसियत, थोड़ी-सी प्रतिष्ठा और दंभ के लिए, उन्हें मारे जाने के दुर्भाग्य का सामना करना पड़ता है, नरक के द्वार सबसे पहले खोलने और वहीं के पुत्र बन जाने के लिए हाथ-पाँव मारते हुए। ऐसी कीमत चुकाना कितना अनावश्यक है। यह कितना दयनीय है कि ऐसे पुराने पूर्वज, जो “राष्ट्रीय भावना से इतने परिपूर्ण” थे, “स्वयं पर इतने सख्त लेकिन दूसरों के प्रति इतने सहिष्णु” हो सकते थे, खुद को नरक में बंद कर उन नपुंसक और हीन जीवों को बाहर रखते हुए। ऐसे “जनता के प्रतिनिधि” कहाँ मिल सकते हैं? “अपनी संतानों के कल्याण” और “भविष्य की पीढ़ियों के शांतिपूर्ण जीवन” के लिए, वे परमेश्वर को विघ्न डालने की अनुमति नहीं देते हैं, और इसलिए वे अपने जीवन की कोई परवाह नहीं करते हैं। बिना कोई संयम बरते, वे खुद को “राष्ट्रीय हित” के लिए समर्पित कर देते हैं, बिना किसी शब्द के रसातल में प्रवेश करते हुए। ऐसा राष्ट्रवाद कहाँ मिल सकता है? परमेश्वर के साथ लड़ाई करते हुए, उन्हें मौत का डर नहीं, न ही खून बहाने का, और कल के बारे में तो वे न के बराबर चिंता करते हैं। वे बस सीधे युद्ध के मैदान में चले जाते हैं। यह कितनी दयनीय बात है कि अपनी “भक्ति की भावना” के लिए वे जो प्राप्त करते हैं, वह सिर्फ अनंत अफसोस और नरक की सदा सुलगती आग की लपटों में भस्म हो जाने के अलावा और कुछ नहीं होता!
यह कितना विचित्र है! क्यों परमेश्वर का देहधारण लोगों द्वारा हमेशा अस्वीकृत और तिरस्कृत होता रहा है? लोगों को परमेश्वर के देहधारण के बारे में कभी भी कोई समझ क्यों नहीं रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि परमेश्वर गलत समय पर आ गया है? क्या यह हो सकता है कि परमेश्वर गलत जगह पर आ गया हो? क्या यह संभव है कि ऐसा इसलिए होता है कि परमेश्वर ने अकेले ही यह काम किया है, मनुष्य की “स्वीकृति के हस्ताक्षर” लिए बिना? कहीं ऐसा इसलिए तो नहीं कि परमेश्वर ने मनुष्य की अनुमति के बिना ही फैसला कर लिया? तथ्य यह है कि परमेश्वर ने पूर्व सूचना दी थी। परमेश्वर ने देहधारण करके कोई भूल नहीं की—क्या इसके लिए मनुष्य की सहमति लेनी ज़रूरी है? और फिर, परमेश्वर ने मनुष्य को बहुत पहले याद दिलाया था, शायद लोग भूल गए हैं। मनुष्य दोष का पात्र नहीं हैं, क्योंकि वह लंबे समय से शैतान द्वारा इतना भ्रष्ट कर दिया गया है कि वह स्वर्ग के नीचे जो कुछ भी होता है उसे समझ नहीं पाता है, आध्यात्मिक जगत की घटनाओं के बारे में तो क्या कहें! यह बहुत शर्म की बात है कि मनुष्य के पूर्वज, उन वन-मानुषों की, अखाड़े में मृत्यु हो गई, लेकिन यह आश्चर्य की बात नहीं है : स्वर्ग और पृथ्वी आपस में कभी भी संगत नहीं थे, और कैसे ये वन-मानुष, जिनके दिमाग पत्थरों के बने हुए हैं, कल्पना भी कर सकते हैं कि परमेश्वर फिर से देहधारण करेगा? यह कितने अफ़सोस की बात है कि इस तरह का एक बूढा आदमी जो “अपने साठवें वर्ष” में है, परमेश्वर के प्रकट होने के दिन मर गया। क्या यह एक आश्चर्य नहीं है कि यह इस तरह के एक महान आशीष के आगमन पर आशीषित हुए बिना ही दुनिया को छोड़ कर चला गया? परमेश्वर के देह-धारण ने सभी धर्मों और दायरों को चकित कर दिया है, इसने धार्मिक दायरों की मूल व्यवस्था को “उलट-पुलट कर दिया” है, और इसने उन सभी लोगों के दिलों को झकझोर दिया है जो परमेश्वर की उपस्थिति की कामना करते हैं। कौन है जो उसे चाहता नहीं है? कौन परमेश्वर को देखने का अभिलाषी नहीं है? परमेश्वर कई सालों से मनुष्यों के बीच व्यक्तिगत रूप से रहा है, फिर भी मनुष्य ने कभी इसका अनुभव नहीं किया है। आज, परमेश्वर खुद प्रकट हुआ है, और उसने जनता के सामने अपनी पहचान प्रकट की है—यह कैसे मनुष्य के दिल को प्रसन्न नहीं कर सकता था? परमेश्वर ने एक बार मनुष्य के साथ सुख और दुख साझा किए थे, और आज वह मानवजाति के साथ फिर से जुड़ गया है, और वह उसके साथ बीते समय के किस्से साझा करता है। उसके यहूदिया से बाहर चले जाने के बाद, लोगों को उसका कुछ भी पता नहीं लग पाया। वे एक बार फिर परमेश्वर से मिलना चाहते हैं, यह न जानते हुए कि वे आज फिर से उसे मिल चुके हैं, और उसके साथ फिर से एक हो गए हैं। यह बात बीते कल के ख्यालों को कैसे नहीं जगाएगी? दो हजार साल पहले इस दिन, यहूदियों के वंशज शमोन बरयोना ने उद्धारकर्ता यीशु को देखा, उसके साथ एक ही मेज पर भोजन किया, और कई वर्षों तक उसका अनुसरण करने के बाद उसके लिए एक गहरा लगाव महसूस किया : उसने तहेदिल से उससे प्रेम किया, उसने प्रभु यीशु से गहराई से प्यार किया। यहूदी लोगों को कुछ भी अंदाजा नहीं था कि यह सुनहरे बालों वाला बच्चा, जो एक सर्द नांद में पैदा हुआ था, परमेश्वर के देहधारण की पहली छवि था। उन सभी ने यही सोचा था कि यीशु उनके जैसा ही था, किसी ने भी उसे अपने से अलग नहीं समझा था—लोग इस आम और साधारण यीशु को कैसे पहचान सकते थे? यहूदी लोगों ने उसे उस समय के एक यहूदी पुत्र के रूप में ही जाना। किसी ने भी उसे एक सुंदर परमेश्वर के रूप में नहीं देखा, और आंख मूंदकर उससे ये मांगें करने के अलावा कि वह उन्हें प्रचुर और भरपूर आशीषें, शांति और सुख प्रदान करे, लोगों ने और कुछ भी नहीं किया। उन्हें सिर्फ यह पता था कि, एक करोड़पति की तरह, उसके पास वह सब कुछ था जिसकी कोई कभी भी इच्छा कर सकता था। फिर भी लोग कभी भी उसके साथ ऐसे पेश नहीं आए कि वह उनको प्रिय था; उस समय के लोगों ने उससे प्रेम नहीं किया, और केवल उसका विरोध किया, और उससे अनुचित मांगें की, पर उसने कभी प्रतिरोध नहीं किया, वह लगातार मनुष्य को आशीषें देते रहा, भले ही मनुष्य उसे जान नहीं पाए थे। मनुष्यों को चुपचाप आत्मीयता, प्रेम और दया प्रदान करने, और इससे भी ज्यादा, मनुष्यों को व्यवहार के ऐसे नए तरीके देने के अलावा जिससे वे नियमों के बंधन से बाहर निकल सकें, उसने और कुछ भी नहीं किया। मनुष्य ने उसे प्यार नहीं किया, केवल उससे ईर्ष्या की और उसकी असाधारण प्रतिभा को पहचाना। अंधी मानवजाति कैसे जान सकती थी कि जब प्रिय उद्धारक यीशु उनके बीच आया, तो उसे कितना बड़ा अपमान सहन करना पड़ा था? किसी ने भी उसके दुख को नहीं समझा, किसी ने भी पिता परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम के बारे में नहीं जाना, और न ही किसी ने उसके अकेलेपन के बारे में जाना; भले ही मेरी उसकी जन्मदात्री थी, फिर भी वह दयालु प्रभु यीशु के दिल में रहे विचारों को कैसे जान सकती थी? मनुष्य के पुत्र द्वारा सही गई अकथनीय पीड़ा को किसने जाना? उससे मांगें करने के बाद, उस समय के लोगों ने रुखाई से उसे अपने दिमाग के पीछे धकेल दिया, और उसे बाहर निकाल फेंका। इसलिए, वह सड़कों पर घूमता रहा, दिन-ब-दिन, साल-दर-साल, कई सालों तक यूँ ही घूमता रहा, जब तक उसने तैंतीस कठोर सालों का जीवन नहीं जी लिया, वे साल जो लंबे और संक्षिप्त दोनों ही थे। जब लोगों को उसकी जरूरत होती थी, तो वे उसे अपने घरों में मुस्कुराते हुए चेहरों के साथ आमंत्रित करते थे, उससे मांगें करने की कोशिश करते हुए—और जैसे ही उसने उन्हें अपना योगदान दिया, वे तुरंत उसे दरवाजे से बाहर कर देते थे। जो कुछ उसने अपने मुंह से मुहैया कराया, लोगों ने उसे खाया, उन्होंने उसका रक्त पीया, उन्होंने उन कृपाओं का आनंद लिया जो उसने उन पर कीं, फिर भी उन्होंने उसका विरोध भी किया, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था कि उनके जीवन उन्हें किसने दिए थे। आखिरकार, उन्होंने उसे क्रूस पर जड़ दिया, फिर भी उसने कोई आवाज नहीं की। आज भी, वह चुप रहता है। लोग उसके शरीर को खाते हैं, वे उसका रक्त पीते हैं, वे वह खाना खाते हैं जो वह उनके लिए बनाता है, और वे उस रास्ते पर चलते हैं जो उसने उनके लिए खोला है, फिर भी वे उसे अस्वीकार करने का इरादा रखते हैं; वास्तव में जिस परमेश्वर ने उन्हें जीवन दिया है उसके साथ वे शत्रु जैसा व्यवहार करते हैं, और इसके बदले उन दासों को जो उनके जैसे हैं, स्वर्ग के पिता की तरह मानते हैं। ऐसा करते हुए, क्या वे जानबूझकर उसका विरोध नहीं कर रहे? यीशु सलीब पर चढ़कर क्यों मरा? क्या तुम लोग जानते हो? क्या यहूदा ने जो उसके सबसे निकट था और जिसने उसे खाया था, उसे पीया था और उसका आनंद लिया था, उसके साथ विश्वासघात नहीं किया? क्या यहूदा ने यीशु के साथ इसलिए विश्वासघात नहीं किया था क्योंकि यीशु उसके लिए एक महत्वहीन सामान्य शिक्षक से ज्यादा कुछ नहीं था? यदि लोगों ने सचमुच यह देखा होता कि यीशु असाधारण था, और एक ऐसा मनुष्य था जो स्वर्ग से आया था, तो वे कैसे उसे चौबीस घंटे तक क्रूस पर जीवित जड़ सकते थे, जब तक कि उसके शरीर में कोई सांस नहीं बची? परमेश्वर को कौन जान सकता है? लोग अतृप्य लालच के साथ परमेश्वर का आनंद लेने के अलावा और कुछ नहीं करते हैं, परंतु उन्होंने उसे कभी जाना नहीं है। उन्हें एक इंच दिया गया था और उन्होंने एक मील ले लिया है, और वे “यीशु” को अपनी आज्ञाओं और अपने आदेशों का पूरी तरह से आज्ञाकारी बना लेते हैं। किसने कभी मनुष्य के इस पुत्र के लिए दया जैसी कोई चीज दिखाई है, जिसके पास सिर धरने की भी जगह नहीं है? किसने कभी पिता परमेश्वर के आदेश को पूरा करने के लिए उसका साथ देने का विचार किया है? किसने कभी उसके लिए थोड़ा-भी विचार किया है? किसने कभी उसकी कठिनाइयों के बारे में सोचा है? थोड़े-से भी प्यार के बिना, मनुष्य उसे आगे-पीछे घुमाता है; मनुष्य को पता नहीं है कि उसका प्रकाश और जीवन कहाँ से आया था, और वह दो हजार साल पहले के “यीशु” को, जिसने मनुष्य के बीच दर्द का अनुभव किया है, एक बार फिर क्रूस पर चढ़ाने की गुपचुप योजना बनाने के अलावा वह और कुछ नहीं करता है। क्या “यीशु” सचमुच ऐसी नफरत को जगाता है? क्या वह सब कुछ जो उसने किया, लंबे समय से भुला दिया गया है? वह नफरत जो हजारों सालों से इकट्ठी हो रही थी, अंततः बाहर फूट पड़ेगी। यहूदियों की श्रेणी के तुम लोग! “यीशु” ने कब तुम लोगों से शत्रुता की है जो तुम उससे इतनी घृणा करो? उसने बहुत कुछ किया है, और बहुत कुछ कहा है—क्या यह तुम सभी के हित में नहीं है? उसने तुम सबको अपना जीवन दे दिया है, बदले में कुछ भी माँगे बिना, उसने तुम्हें अपना सर्वस्व दे दिया है—क्या तुम लोग सचमुच अब भी उसे जिंदा खा जाना चाहते हो? उसने कुछ भी बचाकर रखे बिना अपना सब कुछ तुम लोगों को दे दिया है, बिना कभी सांसारिक महिमा का आनंद उठाए, बिना मनुष्य के बीच आत्मीयता, मनुष्य के बीच प्रेम, या मनुष्य के बीच आशीषों का सुख उठाए। लोग उसके प्रति अत्यंत नीच हैं, उसने धरती पर कभी भोग-वैभव का सुख नहीं लिया, उसने अपने नेक, भावुक दिल की संपूर्णता मनुष्य को समर्पित कर दी है, उसने अपना समग्र मानव जाति को समर्पित किया है—और किसने कभी उसे सौहार्द दिया है? किसने कभी उसे सुख दिया है? मनुष्य ने उस पर सारा दबाव लाद रखा है, सारा दुर्भाग्य उसे सौंप दिया है, मनुष्य के सबसे दुर्भाग्यपूर्ण अनुभव उस पर थोप रखे हैं, वह सभी अन्यायों के लिए उसे ही दोषी ठहराता है, और उसने इसे चुपचाप स्वीकार कर लिया है। क्या उसने कभी किसी से विरोध किया है? क्या उसने कभी किसी से थोडा भी हर्जाना माँगा है? किसी ने कभी उसके प्रति कोई सहानुभूति दिखाई है? सामान्य लोगों के रूप में, तुम लोगों में से किसका एक रूमानी बचपन नहीं था? किसका यौवन रंगीन नहीं रहा? प्रियजनों का अपनत्व किसे नहीं मिला है? कौन रिश्तेदारों और दोस्तों के प्यार से वंचित है? किसे दूसरों का सम्मान नहीं मिला है? एक स्नेही परिवार के बिना कौन है? अपने विश्वासपात्रों के स्नेह के बिना कौन है? और क्या उसने कभी इनमें से किसी का भी सुख पाया है? किसने उसे कभी थोड़ी-सी भी आत्मीयता दी है? किसने उसे कभी लेशमात्र भी ढांढस दिया है? किसने उसके प्रति कभी थोड़ी-सी भी मानवीय नैतिकता दिखाई है? कौन उसके प्रति कभी भी सहिष्णु रहा है? कठिनाई के दौर में कौन उसके साथ रहा है? किसने कभी उसके साथ एक कठिन जीवन बिताया है? मनुष्य ने अपनी अपेक्षाओं को कभी भी कम नहीं किया; वह बिना किसी हिचकिचाहट के केवल उससे माँगें करता है, मानो कि मनुष्य की दुनिया में आकर, उसे मनुष्य का बैल या घोड़ा, उसका कैदी बनना पड़ेगा, और उसे अपना सर्वस्व मनुष्यों को दे देना होगा; नहीं तो मनुष्य कभी उसे माफ नहीं करेगा, कभी उसके साथ सुगम नहीं होगा, उसे कभी परमेश्वर नहीं कहेगा, और कभी भी उसे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखेगा। मनुष्य परमेश्वर के प्रति अपने व्यवहार में बहुत सख्त है, जैसेकि वह परमेश्वर को मृत्यु पर्यंत सताने पर उतारू हो, जिसके बाद ही वह परमेश्वर से अपनी अपेक्षाओं को कम करेगा; अन्यथा मनुष्य कभी भी परमेश्वर से अपनी अपेक्षाओं के मानकों को कम नहीं करेगा। तो कैसे इस तरह के मनुष्य से परमेश्वर घृणा नहीं करेगा? क्या यह आज की त्रासदी नहीं है? मनुष्य की चेतना कहीं भी दिखाई नहीं देती। वह कहता रहता है कि वह परमेश्वर के प्रेम का ऋण चुकाएगा, परंतु वह परमेश्वर का विश्लेषण करता है और मृत्यु तक उसे यातना देता है। क्या यह परमेश्वर में विश्वास करने का एक “गुप्त नुस्खा” नहीं है जो उसे अपने पूर्वजों से विरासत में प्राप्त हुआ है? ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ “यहूदी” न हों; और आज भी वे वही करते हैं, वे अब भी परमेश्वर के विरोध का ही काम करते हैं, और फिर भी विश्वास करते हैं कि वे परमेश्वर को उच्च स्थान पर रखते हैं। कैसे मनुष्य की अपनी आँखें परमेश्वर को जान सकती हैं? कैसे मनुष्य जो देह में जीता है, आत्मा से आए देहधारी परमेश्वर को परमेश्वर के रूप में मान सकता है? मनुष्य के बीच कौन उसे जान सकता है? मनुष्य के बीच सच्चाई कहाँ है? सच्ची धार्मिकता कहाँ है? कौन परमेश्वर के स्वभाव को जानने में सक्षम है? कौन स्वर्ग के परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकता है? कोई आश्चर्य नहीं है कि जब वह मनुष्य के बीच आया है, तो कोई भी परमेश्वर को जान नहीं पाया है, और उसे अस्वीकार कर दिया गया है। मनुष्य कैसे परमेश्वर के अस्तित्व को सहन कर सकता है? कैसे वह प्रकाश को संसार के अंधेरे को बाहर निकालने की अनुमति दे सकता है? क्या यही सब मनुष्य की सम्माननीय भक्ति नहीं है? क्या यही मनुष्य का ईमानदार प्रवेश नहीं है? और क्या परमेश्वर का कार्य मनुष्य के प्रवेश के आसपास केंद्रित नहीं है? मेरी इच्छा है कि तुम लोग मनुष्य के प्रवेश के साथ परमेश्वर के कार्य को मिलाओ, और मनुष्य और परमेश्वर के बीच एक अच्छा संबंध स्थापित करो, और अपनी क्षमता की चरम सीमा तक उस कर्तव्य का पालन करो जो मनुष्य द्वारा किया जाना चाहिए। इस तरह, इसके बाद परमेश्वर के महिमा प्राप्त करने के साथ समाप्त हो जाएगा!
फुटनोट :
1. “मनुष्य का ‘प्रवेश’” यहाँ मनुष्य के विद्रोही व्यवहार को इंगित करता है। जीवन में लोगों के प्रवेश की बात करने के बजाय—जो सकारात्मक है—यह उनके नकारात्मक व्यवहार और कार्यों को दर्शाता है। यह मोटे तौर पर मनुष्य के उन सभी कर्मों के संदर्भ में है जो परमेश्वर के विरोध में हैं।
2. “काल्पनिक भय से ग्रस्त” का प्रयोग मनुष्यों के गुमराह जीवन का उपहास करने के लिए किया गया है। यह मानव जाति के जीवन की कुरूप स्थिति को संदर्भित करता है, जिसमें लोग राक्षसों के साथ रहते हैं।
3. “सबसे अच्छा” उपहास उड़ाने के अर्थ से कहा गया है।
4. “जोश अधिकाधिक तीव्रता से दग्ध” उपहास में कहा गया है, और यह मनुष्य की बदसूरत हालत को संदर्भित करता है।
5. “जीवित पकड़ना” मनुष्य के हिंसक और घृणित व्यवहार को दर्शाता है। मनुष्य क्रूर है और वह परमेश्वर की ओर थोड़ा-सा भी क्षमाशील नहीं है, और उससे बेतुकी माँगें करता है।
6. “मन में एक सुनिश्चित योजना लेकर” का प्रयोग उपहास में किया गया है, और यह दर्शाता है कि कैसे लोग खुद को ही नहीं जानते और अपने वास्तविक कद से अनजान हैं। यह अपमान करने के अर्थ से है।
7. “आदरणीय” उपहास में कहा गया है।
8. “ज्वालाएँ बरसने” लोगों की उस बदसूरत स्थिति को इंगित करता है, जो तब क्रोध से जल-भुन जाते हैं जब वे परमेश्वर द्वारा पराजित हो जाते हैं। यह परमेश्वर के प्रति उनके विरोध की हद के बारे में बताता है।