परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है

पहले हम परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुनेंगे : “परमेश्वर के वचनों का पालन करो तो तुम कभी राह से नहीं भटकोगे।”

1  परमेश्वर उम्मीद करता है कि तुम लोग स्वतंत्र रूप से खा और पी सको, तुम हमेशा परमेश्वर की उपस्थिति की रोशनी में रह सको, तुम अपने जीवन में कभी भी परमेश्वर के वचनों से दूर नहीं होगे; तभी तुम परमेश्वर के वचनों से संतृप्त किये जा सकते हो। तुम्हारे प्रत्येक वचन और कर्म में, परमेश्वर के वचन निश्चित रूप से तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे। अगर तुम सच्चे दिल से इस स्तर तक परमेश्वर के करीब जाते हो, और निरंतर परमेश्वर के साथ संगति कर सकते हो, तो तुम्हारा कोई भी काम उलझन में नहीं ख़त्म होगा या तुम्हें दिशाहीन नहीं छोड़ेगा। तुम निश्चित रूप से परमेश्वर को अपनी ओर पाओगे, तुम हमेशा परमेश्वर के वचन के अनुसार कार्य करने में सक्षम होगे।

2  किसी भी व्यक्ति, घटना और चीज़ का सामना होने पर, परमेश्वर के वचन किसी भी समय तुम्हारे सामने प्रकट होंगे, उसकी इच्छा के अनुरूप कार्य करने के लिए तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे और तुम जो भी करते हो, उसमें उसके वचनों का पालन करो। परमेश्वर तुम्हारे हर कार्य में तुम्हारी अगुआई करेगा; तुम कभी भी रास्ते से नहीं भटकोगे और तुम एक नई रोशनी में रहने के काबिल होगे, तुम्हें कहीं अधिक और नया प्रबोधन मिलेगा। क्या करना है, इस पर विचार करने के लिये तुम इंसानी धारणाओं का इस्तेमाल नहीं कर सकते; तुम्हें परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के लिये समर्पित होना चाहिये, एक स्वच्छ हृदय रखना चाहिये, परमेश्वर के सामने शांत रहना चाहिए और गहराई से विचार करना चाहिये। जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो।

3  विश्वास करो कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है! तुम्हारे पास परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं होनी चाहिये, तुम्हें शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए तत्परता से खोज करनी चाहिये। निराश मत हो। कमज़ोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतज़ार करो। परमेश्वर के साथ सक्रिय सहयोग करो और अपनी आंतरिक बाधाओं से छुटकारा पाओ।

—परमेश्वर की संगति

तुमने अभी-अभी “परमेश्वर के वचनों का पालन करो तो तुम कभी राह से नहीं भटकोगे” भजन बजाया है। इस भजन को सुनकर क्या तुम लोगों को कोई रोशनी मिली या अभ्यास का मार्ग प्राप्त हुआ? तुम्हें किन वचनों से प्रेरणा और रोशनी मिली? “परमेश्वर के वचनों का पालन करो तो तुम कभी राह से नहीं भटकोगे”—क्या ये वचन सही हैं? क्या ये सत्य हैं? (हाँ।) इस भजन की कौन-सी पंक्तियाँ तुम्हें वास्तविक जीवन में अपने अनुभव के लिए विशेष रूप से सहायक लगती हैं? “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो,” इस पंक्ति से पढ़ना शुरू करो। (“जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो। विश्वास करो कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है! तुम्हारे पास परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं होनी चाहिये, तुम्हें शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए तत्परता से खोज करनी चाहिये। निराश मत हो। कमज़ोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतज़ार करो। परमेश्वर के साथ सक्रिय सहयोग करो और अपनी आंतरिक बाधाओं से छुटकारा पाओ।”) इस उद्धरण की कौन-सी पंक्तियाँ अभ्यास का मार्ग प्रदान करती हैं? इनमें से कौन-सी पंक्तियाँ वास्तविक जीवन की परिस्थितियों से निपटने के ऐसे अभ्यास के सिद्धांत हैं जो परमेश्वर ने मनुष्य को बताए हैं? क्या तुम लोग उन्हें ढूँढ़ सकते हो? लोग जो समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ और विभिन्न पुस्तकें पढ़ते हैं, उन सबमें कुछ ऐसे भाग होते हैं जिन्हें वे ध्यान देने योग्य समझते हैं। वे कौन-से भाग होते हैं? वे भाग जिनकी लोग परवाह करते हैं, वे भाग जो लोगों को सबसे महत्वपूर्ण लगते हैं और वे भाग जो वह महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं जिसे लोगों को अपने दैनिक जीवन में जानना आवश्यक है। तो परमेश्वर के वचनों के इस अंश के कौन-से भाग ध्यान देने योग्य हैं? कौन-से भाग परमेश्वर की लोगों से अपेक्षाएँ निर्धारित करते हैं? परमेश्वर ने दैनिक जीवन में परिस्थितियों का सामना करते समय अभ्यास और पालन करने के लिए लोगों को जो सिद्धांत बताए हैं वे किस भाग में हैं? क्या तुम लोग देख सकते हो कि वे कौन-से भाग हैं? (बहुत अच्छी तरह नहीं।) इसे दोबारा पढ़ो। (“जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो। विश्वास करो कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है! तुम्हारे पास परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं होनी चाहिये, तुम्हें शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए तत्परता से खोज करनी चाहिये। निराश मत हो। कमज़ोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतज़ार करो। परमेश्वर के साथ सक्रिय सहयोग करो और अपनी आंतरिक बाधाओं से छुटकारा पाओ।”) क्या तुम लोग इस अंश की हर पंक्ति का अर्थ समझते हो? (हाँ।) यह अंश सरल शब्दों में लिखा गया है, जिन्हें समझना आसान है। यह गूढ़ नहीं है। इन वचनों का शाब्दिक अर्थ समझना आसान है, तो इनमें कौन-सा सिद्धांत निहित है? क्या तुम लोग इन वचनों को पढ़ते समय उसे ढूँढ़ सकते हो? सिद्धांत क्या होता है? अधिक मोटे तौर पर कहें तो परमेश्वर के वचन और सत्य ही सिद्धांत होते हैं। लेकिन इसे इस तरह से बताना काफी खोखला और थोड़ा गूढ़ भी लगता है। अधिक विशिष्ट रूप से कहें तो सिद्धांत अभ्यास का वह मार्ग और मानदंड होता है जो कार्य करते समय व्यक्ति के पास होना चाहिए। इसे ही हम सिद्धांत कहते हैं। तो अब इस अंश में क्या सिद्धांत है? सटीक रूप से कहें तो इस अंश में अभ्यास का एक मार्ग शामिल है। परमेश्वर लोगों को पहले ही बता चुका है कि जब उन पर मुसीबतें आएँ तो उन्हें कैसे अभ्यास करना है और कैसे कार्य करना है। इस अंश को दोबारा पढ़ो और शब्दों को ध्यान से सुनो। (“जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो। विश्वास करो कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है! तुम्हारे पास परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं होनी चाहिये, तुम्हें शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए तत्परता से खोज करनी चाहिये। निराश मत हो। कमज़ोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतज़ार करो। परमेश्वर के साथ सक्रिय सहयोग करो और अपनी आंतरिक बाधाओं से छुटकारा पाओ।”) तुम सभी इस अंश को तीन बार पढ़ चुके हो। क्या इसने तुम लोगों पर कुछ प्रभाव डाला है? इसे तीन बार पढ़ने के बाद क्या तुम लोग इस गीत को ज्यादा ध्यान दिए बिना सुनने से, जैसा कि तुम सामान्यतः करते हो, कुछ अलग महसूस करते हो? (हाँ।) इस अंश में तुम लोग अभ्यास के कौन-से सिद्धांत ढूँढ़ और समझ सकते हो? परमेश्वर यहाँ सत्य का कौन-सा पहलू सामने रखता है? सत्य का वह पहलू अभ्यास के एक सिद्धांत से संबंधित है लेकिन यहाँ सिद्धांत वास्तव में क्या है? वह किस तरह के वास्तविक मुद्दों को छूता है? पहली पंक्ति एक वास्तविक मुद्दे को छूती है—यह उन चीजों के बारे में बात करती है जिन्हें तुम नहीं समझते। इन चीजों में, जिन्हें तुम नहीं समझते, सत्य से संबंधित मुद्दे, तुम्हारा अभ्यास, स्वभावगत बदलाव, तुम्हारे कार्य-क्षेत्र से संबंधित समस्याएँ और अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारे द्वारा अनुभव की जाने वाली व्यक्तिगत दशाएँ, और साथ ही यह मुद्दा शामिल है कि लोगों के सार को कैसे समझा जाए, इत्यादि। ऐसी चीजें वास्तव में तुम्हारे आस-पास होती हैं और तुमने उन्हें देखा और सुना है। लेकिन तुम उन मुद्दों के सार को या उन सत्यों को नहीं समझते जिन्हें वे छूते हैं, और तुम उनमें शामिल अभ्यास के मार्ग और सिद्धांतों को तो बिल्कुल भी नहीं जानते। स्वाभाविक रूप से तुम इस मामले में परमेश्वर की इच्छा और ऐसी अन्य चीजें भी नहीं जानते। जब व्यक्ति इन चीजों को नहीं समझता, जानता या भाँप पाता, तो ये उसकी सबसे बड़ी कठिनाइयाँ बन जाती हैं और इन्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर हल किया जाना चाहिए—“जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ।” ऐसी कई चीजें हैं जिन्हें तुम नहीं समझते, इनमें बाहरी दुनिया और परमेश्वर के घर दोनों की चीजें शामिल हैं। चूँकि तुम इन चीजों को नहीं समझते, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? पहले तुम्हें सत्य खोजना चाहिए और देखना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों में क्या कहा गया है और इनमें कौन-से सत्य सिद्धांत मिल सकते हैं। तुम्हें परमेश्वर के वचन कई बार पढ़ते हुए सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए। पहले सत्य की वास्तविकता का पता लगाओ और फिर समझो कि परमेश्वर तुमसे क्या चाहता है, इसके बाद सत्य का अभ्यास करने के लिए सिद्धांत निर्धारित करो—इस ढंग से तुम्हारे लिए सत्य को समझना आसान हो जाएगा। सत्य खोजने के लिए परमेश्वर के वचन पढ़ने की प्रक्रिया यही है। क्या तुम मेरी बात समझ पा रहे हो? (बिल्कुल।) परमेश्वर ने तुम्हारे परिवेश और तुम्हारे आस-पास के लोगों, घटनाओं और चीजों की व्यवस्था की है। तो इसके प्रति परमेश्वर का क्या रवैया है? तुम इसे परमेश्वर के वचनों में देख सकते हो। परमेश्वर तुमसे कहता है कि जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो, चीजों को परिभाषित करने, फैसला सुनाने या कोई निर्णय लेने में जल्दबाजी न करो। वह किसलिए? वो इसलिए कि तुम अभी तक उस घटना को समझ नहीं पाए हो जिसकी व्यवस्था परमेश्वर ने तुम्हारे लिए की है। जब परमेश्वर तुमसे कहता है कि जल्दबाजी न करो तो इसका क्या मतलब होता है? इसका मतलब है कि यह घटना घटित हुई है, कि परमेश्वर ने इसे तुम्हारे सोच-विचार के लिए सामने रखा है और तुम्हें इस परिवेश में रखा है और परमेश्वर का रवैया बहुत-ही स्पष्ट है। परमेश्वर तुमसे कहता है, “मुझे इस बात की कोई जल्दी नहीं है कि तुम पूरी तरह से यह समझ लो कि इस स्थिति में क्या हो रहा है। मुझे इस बात की कोई जल्दी नहीं है कि तुम तुरंत कोई फैसला सुनाओ, अपना निष्कर्ष दो या इसके लिए किसी तरह का समाधान प्रस्तावित करो।” यह मामला तुम्हारे लिए अनजाना है और तुम इसे नहीं समझते, यह ऐसी चीज है जिसका तुमने पहले कभी सामना नहीं किया है, और यह एक सबक है जिसे तुमने अभी तक नहीं सीखा है, इसके अलावा, तुम्हारे पास इसके संबंध में कोई अनुभवात्मक ज्ञान या निर्देश नहीं है और तुमने इसे पहले बिल्कुल भी अनुभव नहीं किया है, इसलिए परमेश्वर को इस बात की कोई जल्दी नहीं है कि तुम इसका उत्तर दो। कुछ लोग पूछते हैं : “जब परमेश्वर ने इस परिवेश की व्यवस्था की है, तो उसे इसके नतीजे देखने की जल्दी क्यों नहीं है?” इसमें भी परमेश्वर की इच्छा निहित है। परिवेशों की व्यवस्था करने में परमेश्वर का उद्देश्य यह नहीं है कि तुम उनके बारे में जल्दी से कोई सैद्धांतिक निर्णय ले लो या निष्कर्ष निकाल लो। परमेश्वर चाहता है कि तुम ऐसे परिवेश और घटना का अनुभव करो, और वह चाहता है कि तुम उसमें शामिल लोगों, घटनाओं और चीजों को समझो, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित होने का सबक सीख सको। जब तुम ऐसी समझ और व्यक्तिगत अनुभव प्राप्त कर लेते हो, तो यह घटना तुम्हारे लिए सार्थक होगी और यह तुम्हारे लिए बहुत महत्व और मूल्य रखेगी। अंत में इस चीज का अनुभव करने के बाद तुम जो हासिल करोगे वह न तो कोई सिद्धांत होगा, न ही कोई धारणा, न ही कोई कल्पना, न ही कोई निर्णय, न ही अनुभवात्मक ज्ञान या मनुष्य द्वारा सारांशित कोई सबक, बल्कि यह एक व्यक्तिगत, प्रत्यक्ष अनुभव और इसका सच्चा ज्ञान होगा। यह ज्ञान सत्य के निकट या सत्य के अनुरूप होगा। ऐसी चीजों का अनुभव करके तुम यह देख पाओगे कि मनुष्य के प्रति परमेश्वर का रवैया बहुत स्पष्ट है और इसे इस तरह से व्यक्त किया गया है जिसे समझना आसान है। जैसा कि परमेश्वर इसे देखता है, उसे इस बात की कोई जल्दी नहीं कि तुम जल्दी से अपना उत्तर दो या अपनी प्रतिक्रिया सौंपो। परमेश्वर चाहता है कि तुम इस परिवेश का अनुभव करो। यही उसका रवैया है। और चूँकि यह परमेश्वर का रवैया है, इसलिए मनुष्य से उसकी एक अपेक्षा और एक मानक है। यह मानक एक सिद्धांत है, जिसका लोगों को अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास का सिद्धांत क्या है? यह वह नजरिया, तरीका और साधन है जिसे तुम तब काम में लाते हो जब तुम किसी विशिष्ट घटना का सामना करते हो। जब तुम किसी घटना के संबंध में परमेश्वर की इच्छा और रवैया समझ लेते हो तो तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाएँ अभ्यास में लानी चाहिए। और परमेश्वर तुमसे क्या अपेक्षा करता है? परमेश्वर ने कहा, “उस बात के लिये नाराज़ मत हो।” इस “उस बात के लिये नाराज़ मत हो” की एक पृष्ठभूमि है। तो परमेश्वर मनुष्य से ऐसी अपेक्षा और मानक क्यों रखता है? क्या तुम इस बिंदु पर स्पष्ट हो? ऐसा इसलिए है कि तुम एक साधारण व्यक्ति हो। तुम कोई अतिमानव नहीं हो, तुम्हारी सोच एक सामान्य व्यक्ति की है। तुम एक मामूली आदमी हो। चाहे तुम चालीस, पचास या अस्सी साल तक जीवित रहो, तुम हमेशा बढ़ते रहोगे। तुम हमेशा वैसे नहीं रहते, जैसे तुम पैदा हुए थे। तुम्हारे वर्तमान अनुभव, अनुभवात्मक ज्ञान, समझ, वे चीजें जो तुम देखते-सुनते हो, तुम्हारे जीवन-अनुभव, इत्यादि—यह सब—और साथ ही वे सभी चीजें जो तुम अपने दिलो-दिमाग में जानते-समझते हो, ये सभी वर्षों के परिष्कार के संचयी नतीजे हैं। इसे कहते हैं सामान्य मानवता। यह परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए निर्धारित सामान्य मानव-विकास की प्रक्रिया है और यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है। इसलिए जब तुम्हारा सामना किसी ऐसी चीज से होता है जिसे तुम नहीं समझते, ऐसी चीज जो तुम्हारे लिए अनजानी है, तो परमेश्वर तुमसे यह अपेक्षा नहीं करता कि तुम उसका तुरंत उत्तर दो और बहुत तेजी से उत्तर दो, मानो तुम एक रोबोट हो। चूँकि रोबोट सारी जानकारी फौरन अपनी स्मृति में डाल लेता है, इसलिए जब तुम उससे किसी चीज का जवाब माँगते हो, तो वह एक ही झटके में खोज के बाद जवाब दे देता है—बशर्ते वह जवाब उसकी स्मृति में उपलब्ध हो। सामान्य लोगों के साथ ऐसा नहीं है। भले ही उन्होंने पहले कुछ अनुभव किया हो, फिर भी जरूरी नहीं कि वह उनकी स्मृति में संगृहीत हो। जब लोगों की बात आती है तो ये सिर्फ सामान्य मानवता से संबंधित चीजें ही हैं, जैसे अनुभवात्मक ज्ञान, अनुभव, जीवन-अनुभव और सच्चा प्रत्यक्ष ज्ञान, जो उन्हें अतिमानव, रोबोट और विशेष शक्तियों वाले मनुष्यों से अलग करता है।

सामान्य मानवता वाले लोगों को जो चाहिए और जो उनके पास होना चाहिए, इसी आधार पर परमेश्वर ने लोगों के लिए अपेक्षाएँ और मानक निर्धारित किए हैं और उसने अभ्यास का एक मार्ग बताया है। अभ्यास का वह मार्ग क्या है? जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो। यह तुम्हें बताता है कि तुम्हारा समाधान ढूँढ़ने में जल्दबाजी करना बेकार है। ऐसा क्यों है? क्योंकि तुम बस एक साधारण व्यक्ति हो। भले ही तुम्हारे पास अपने पिछले अनुभवों से थोड़ा अनुभवात्मक ज्ञान और समझ हो, लेकिन अगर भविष्य में वही चीज फिर से घटित हो तो जरूरी नहीं कि तुम परमेश्वर की इच्छा पूरी तरह से समझने में सक्षम रहो, पूर्णतः सत्य के अनुरूप अभ्यास करो या सौ-फीसदी सफल रहो। इसकी संभावना तब तो बिल्कुल भी नहीं होती, जब बात उन चीजों की आती है जिन्हें तुम नहीं समझते, इसलिए उन परिस्थितियों में तो तुम्हें समाधान खोजने में बिल्कुल भी जल्दी नहीं करनी चाहिए। समाधानों के लिए क्षुब्ध न होने का निर्देश लोगों को क्या बताता है? इसका उद्देश्य लोगों को सामान्य मानवता समझाना है। सामान्य मानवता कोई अपवाद स्वरूप, असाधारण या विशेष नहीं होती। लोगों की समझ, अनुभवात्मक ज्ञान, पहचान और विभिन्न चीजों की समझ, और साथ ही तमाम तरह के लोगों के सार पर उनके विचार, ये सब विभिन्न परिवेशों, लोगों, घटनाओं और चीजों के उनके अनुभव के माध्यम से हासिल किए जाते हैं। यह सामान्य मानवता है। इसमें कुछ भी इंद्रियातीत नहीं है और यह एक ऐसी बाधा है जिसे कोई भी व्यक्ति लाँघ नहीं सकता। अगर तुम परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए बनाए गए इन कानूनों से परे जाना चाहते हो, तो यह सामान्य नहीं होगा। एक ओर, यह सिर्फ यह दिखाएगा कि तुम नहीं जानते कि सामान्य मानवता क्या है। दूसरी ओर, यह तुम्हारा अत्यधिक अहंकार और तुम्हारी अव्यावहारिकता प्रकट करेगा। परमेश्वर ने लोगों से कहा है कि जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो। चूँकि तुम एक सामान्य व्यक्ति हो, इसलिए तुम्हें इस बात की आवश्यकता है कि परमेश्वर तुम्हारे लिए अधिक परिवेशों की व्यवस्था करे, ताकि तुम उनमें दिखने वाली मनुष्य की भ्रष्टता अनुभव कर सको, उसे समझ और पहचान सको, और इन लोगों, घटनाओं और चीजों के जरिये परमेश्वर की इच्छा भी समझ सको। सामान्य मानवता वाले लोगों को यही करना चाहिए। तो अब, “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो” में अभ्यास का कौन-सा मार्ग खोजा जा सकता है? (उस बात के लिये नाराज़ मत हो।) जब व्यक्ति किसी स्थिति का सामना करता है और उसकी असलियत नहीं जान या समझ पाता, जब उसने पहले कभी इसका सामना नहीं किया होता या इसके बारे में सोचा नहीं होता, और जब उसके लिए यह कल्पना करना तक असंभव होता है कि इंसानी धारणाओं पर निर्भर रहकर इस मामले को कैसे हल किया जाए, तो उसे क्या करना चाहिए? वह कौन-सा सिद्धांत है, जिसकी परमेश्वर माँग करता है? (उस बात के लिये नाराज़ मत हो।) परमेश्वर ने तुमसे इसकी माँग की है, तो तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? तुम्हें ऐसी चीजों को किस रवैये से देखना चाहिए? जब सामान्य मानवता वाले लोग ऐसी चीजों का सामना करते हैं जिन्हें वे जान नहीं सकते, समझ नहीं सकते और जिनका उन्हें कोई अनुभव नहीं होता, या ऐसी परिस्थितियों का भी, जिनमें वे पूरी तरह से असहाय होते हैं, तो उन्हें पहले एक उचित रवैया अपनाकर कहना चाहिए, “मुझे इस तरह की चीज समझ में नहीं आती है, मैं इसकी असलियत नहीं समझता और मुझे इसका कोई अनुभव नहीं है, न ही मैं यह जानता हूँ कि क्या करना है। मैं बस एक साधारण व्यक्ति हूँ, इसलिए मैं जो हासिल कर सकता हूँ, उसकी सीमाएँ हैं। कुछ चीजों की असलियत जानने या इन्हें समझने में असमर्थ होने में कोई शर्म की बात नहीं है और उनके अनुभव की कमी होने में निश्चित रूप से कोई शर्म की बात नहीं है।” जब तुम्हें यह एहसास हो जाता है कि यह शर्मनाक नहीं है तो क्या मामला यहीं खत्म हो जाता है? क्या समस्या का समाधान हो जाता है? शर्मिंदा होने की चिंता न करना तो सिर्फ एक समझ और एक रवैया है जिसे लोग ऐसी चीजों के प्रति अपना सकते हैं। यह परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करने जैसा नहीं है। तो फिर व्यक्ति परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कैसे अभ्यास कर सकता है? मान लो, तुम मन-ही-मन सोचते हो, “मैंने पहले कभी इस तरह की चीज का अनुभव नहीं किया है और मैं इसकी असलियत नहीं जानता। मैं नहीं जानता कि परमेश्वर द्वारा ऐसे परिवेश की व्यवस्था का क्या अर्थ है या इससे क्या परिणाम प्राप्त होना है। मैं परमेश्वर का रवैया भी नहीं जानता। इसलिए मुझे इसके बारे में परेशान होने की कोई जरूरत नहीं दिखती। मैं बस इसे स्वाभाविक रूप से होने दूँगा और इसे नजरअंदाज कर दूँगा”—ऐसे रवैये के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या यह सत्य खोजने का रवैया है? क्या यह परमेश्वर की इच्छा के अनुसार अभ्यास करने का रवैया है? क्या यह परमेश्वर के वचनों का पालन करने का रवैया है? (नहीं।) अन्य लोग ऐसी स्थिति का सामना करने पर मन-ही-मन सोचते हैं, “मैं इस मामले की असलियत नहीं जानता या इसे समझ नहीं सकता, और मैंने पहले कभी इसका अनुभव नहीं किया है। यह मेरी विश्वविद्यालयी कक्षाओं में कभी शामिल नहीं था। मेरे पास स्नातकोत्तर डिग्री, पीएच.डी. है और मैंने एक प्रोफेसर के रूप में भी काम किया है—अगर मैं इसे नहीं समझ सकता तो फिर कौन समझ सकता है? क्या हर किसी को यह बताना बहुत शर्मनाक नहीं होगा कि मैं इसकी असलियत नहीं जानता और मुझे इसका कोई अनुभव नहीं है? क्या वे सब मेरा तिरस्कार नहीं करेंगे? नहीं, मैं यह नहीं कह सकता कि यह कोई ऐसी चीज है जिसकी असलियत मैं नहीं जानता। मुझे कहना चाहिए, ‘इस तरह के मामलों में परमेश्वर के वचनों पर ध्यान दो, खोजो और तुम्हें उत्तर मिल जाएगा।’ मैं यह स्वीकार करने के बजाय मरना पसंद करूँगा कि मैं इस मामले की असलियत नहीं जानता या इसे समझ नहीं सकता।” तुम इस रवैये के बारे में क्या सोचते हो? (यह अच्छा नहीं है।) यह व्यक्ति खुद को क्या समझता है? वह समझता है कि वह एक संत है, एक पूर्ण व्यक्ति है। वह सोचता है, “क्या वास्तव में ऐसी चीजें हो सकती हैं, जिन्हें मैं, एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय-छात्र, एक नामी विद्वान, स्नातकोत्तर और पीएच.डी. डिग्री-धारी, एक महान और प्रसिद्ध हस्ती, नहीं समझ सकता या इसकी असलियत नहीं जान सकता? असंभव हैं! और अगर हैं भी, तो भी वे ऐसी चीजें होंगी जिन्हें तुममें से कोई नहीं समझ सकता, इसलिए यह कोई समस्या नहीं है। अगर मैं इसकी असलियत नहीं भी जान सका तो भी मैं निश्चित रूप से तुम लोगों को इसका पता नहीं चलने दूँगा। ‘मैं इसकी असलियत नहीं जान सकता,’ ‘मैं इसे नहीं समझता,’ ‘मैं नहीं कर सकता,’ ऐसे शब्द मेरे मुँह से कभी नहीं निकलने चाहिए!” यह किस तरह का व्यक्ति है? (एक अहंकारी व्यक्ति।) यह एक अहंकारी और दंभी व्यक्ति है, जिसमें विवेक की कमी है। अगर इस तरह का व्यक्ति “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो” वचन पढ़ता है तो क्या उसे अभ्यास का मार्ग प्राप्त होगा? क्या उसे प्रेरणा की कोई चिंगारी मिलेगी? अगर नहीं, तो उसका ये वचन पढ़ना व्यर्थ हो जाएगा। ये वचन सरल ढंग से लिखे गए हैं और समझने में आसान हैं, तो वह इन्हें समझ क्यों नहीं सकता? तुमने वचन पढ़ने और सीखने में जो तमाम साल बिताए, वे बेकार गए। अगर तुम इन सरल और स्पष्ट वचनों को समझ तक नहीं सकते तो फिर तुम सच में बेकार हो!

अब, आओ इस बात पर एक और नजर डालते हैं कि “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो” पंक्ति में अभ्यास का कौन-सा मार्ग निहित है। सबसे पहले, तुम्हें समाधानों के लिए चिंतित न होने का रवैया अपनाना चाहिए और उसके बजाय, पहले यह पहचानो कि तुम्हारी आंतरिक क्षमताएँ क्या हासिल कर सकती हैं, पहचानो कि सामान्य मानवता क्या होती है, और समझो कि जब परमेश्वर सामान्य मानवता की बात करता है तो उसका क्या मतलब होता है। तुम्हें यह समझना चाहिए कि परमेश्वर का वास्तव में यह कहने का क्या मतलब है कि वह नहीं चाहता कि लोग अतिमानव या उत्कृष्ट, असाधारण व्यक्ति बनें, और कि वह चाहता है कि वे बस आम आदमी बनें। तुम्हें पहले ये चीजें समझनी चाहिए। जो चीजें तुम नहीं समझते, उन्हें जानने का दिखावा करना बेकार है। चाहे तुम अन्यथा कितना भी दिखावा करो, तुम फिर भी उन्हें नहीं जान पाओगे। भले ही तुम अन्य सभी को मूर्ख बना लो लेकिन परमेश्वर को गुमराह नहीं कर पाओगे। जब ऐसी चीजें तुम पर आन पड़ती हैं और तुम उन्हें नहीं समझते तो बस यह कहो कि तुम उन्हें नहीं समझते। तुम्हारा रवैया ईमानदार और हृदय पवित्र होना चाहिए और तुम्हें अपने आस-पास के लोगों को यह देखने देना चाहिए कि ऐसी चीजें हैं, जिन्हें तुम नहीं जानते और जिनकी असलियत नहीं समझ सकते, ऐसी चीजें जिनका तुमने पहले अनुभव नहीं किया है, और कि तुम सिर्फ एक साधारण व्यक्ति हो, किसी दूसरे से अलग नहीं हो। इसमें शर्म की कोई बात नहीं। यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है और तुम्हें यह तथ्य स्वीकारना चाहिए। तुम्हें इस तथ्य को स्वीकार लेने के बाद फिर क्या करना चाहिए? यह कहते हुए इसे सबको बताओ, “मैंने पहले इस चीज का कभी अनुभव नहीं किया है, मैं इसकी असलियत नहीं समझ सकता और मुझे नहीं पता कि क्या करना है। मैं तुम लोगों जैसा ही हूँ, हालाँकि संभव है कि मैं एक क्षेत्र में तुम लोगों से आगे रहूँ : मैंने रोशनी देख ली है और परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग पा लिया है, मुझे आशा मिल चुकी है और मैं जानता हूँ कि अभ्यास कैसे करना है।” यह आशा कहाँ निहित है? यह परमेश्वर के इन वचनों में निहित है : “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो।” इसका मतलब है मामले पर गंभीरता से विचार करना और इस पर खोज करने के लिए समय-समय पर इसे परमेश्वर के सामने लाना। तुम्हें इस मामले पर गंभीरता से विचार करना चाहिए, इसमें सत्य और परमेश्वर की इच्छा समझने के लिए इसे एक तरह के दायित्व में बदलना चाहिए, और इसे अपनी जिम्मेदारी में और अपनी खोज की दिशा और लक्ष्य में बदलना चाहिए। अगर तुम इस तरह से अभ्यास करते हो तो तुम परमेश्वर के सामने आओगे, अपनी समस्या का समाधान कर पाओगे और इन वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके होगे। तुम्हें विशेष रूप से इसका अभ्यास कैसे करना चाहिए? तुम्हें प्रार्थना करने और खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आना चाहिए और सभाओं में संगति करते समय इस मामले को साझा करने और इस पर सबके साथ संवाद और चिंतन करने के अवसर भी ढूँढ़ने चाहिए। “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो।” तुम्हारा हृदय ईमानदार और सच्चा होना चाहिए। तुम्हें बस बेमन से या लापरवाही से कार्य नहीं करना चाहिए और तुम जो कहते हो उसमें ईमानदारी होनी चाहिए। तुम्हें यह बीड़ा उठाना चाहिए और अपने सीने में ऐसा दिल रखना चाहिए जिसमें धार्मिकता के लिए भूख और प्यास हो, जो इस मामले में परमेश्वर की इच्छा और इस मामले का सार समझना चाहता हो और साथ ही इस मामले का सामना करने पर लोगों को जिन समस्याओं और भ्रम का सामना करना पड़ता है, उनका और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव या विभिन्न असामान्य दशाओं जैसी समस्याओं का भी समाधान करना चाहता हो। “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो।” यह अभ्यास का एक संपूर्ण मार्ग है जो परमेश्वर ने मनुष्य को बताया है। तुम इस पंक्ति में क्या देखते हो? यही न कि मनुष्य के लिए परिवेशों की व्यवस्था करने में परमेश्वर का उद्देश्य एक ओर लोगों को अनेक तरीकों से विभिन्न चीजों का अनुभव करने, उनसे सबक सीखने, परमेश्वर के वचनों में निहित विभिन्न सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने देना, लोगों के अनुभव समृद्ध करना और उन्हें परमेश्वर की, अपनी, अपने परिवेशों और मानव-जाति की अधिक व्यापक और बहुआयामी समझ हासिल करने में मदद करना है। दूसरी ओर, परमेश्वर लोगों के लिए कुछ विशेष परिवेश तैयार करके और उनके लिए कुछ विशेष सबकों की व्यवस्था करके यह चाहता है कि वे उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाए रखें। इस ढंग से लोग बार-बार उसके सामने आते हैं, बजाय इसके कि वे परमेश्वरविहीन स्थिति में रहें और यह कहें कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं पर कार्य उस तरह से करते हों जिसका परमेश्वर या सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, जिससे परेशानी होगी। इसलिए परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेशों में लोग वास्तव में स्वयं परमेश्वर द्वारा उनकी अनिच्छा से और निष्क्रिय रूप से परमेश्वर के सामने लाए जाते हैं। यह परमेश्वर के अच्छे इरादे दर्शाता है। जितनी अधिक तुममें किसी मामले में समझ की कमी हो, उतना ही अधिक तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला और पवित्र हृदय होना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर की इच्छा और सत्य का पता लगाने के लिए बार-बार परमेश्वर के सामने आना चाहिए। जब तुम चीजों को नहीं समझते, तो तुम्हें परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। जब तुम्हारे सामने ऐसी चीजें आती हैं जिन्हें तुम नहीं समझते, तो तुम्हें परमेश्वर से यह कहने की आवश्यकता होती है कि वह तुम पर अधिक कार्य करे। ये परमेश्वर के अच्छे इरादे हैं। जितना अधिक तुम परमेश्वर के सामने आते हो, उतना ही अधिक तुम्हारा दिल परमेश्वर के करीब होगा। और क्या यह सच नहीं कि तुम्हारा दिल परमेश्वर के जितना करीब होता है, उतना ही अधिक परमेश्वर उसके भीतर रहेगा? जितना अधिक परमेश्वर व्यक्ति के दिल में रहता है, उतना ही बेहतर उसका अनुसरण, उसके चलने का मार्ग और उसके हृदय की अवस्था बनती है। परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता जितना घनिष्ठ होगा, उतना ही तुम्हारे लिए अक्सर परमेश्वर के सामने आकर अपना सच्चा हृदय अर्पित करना आसान होगा और परमेश्वर में तुम्हारी आस्था उतनी ही अधिक वास्तविक हो जाएगी। साथ ही, तुम्हारा जीवन, तुम्हारे कार्य और तुम्हारा आचरण संयमित हो जाएगा। ऐसा संयम कैसे उत्पन्न होता है? यह तब उत्पन्न होता है, जब लोग अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, सत्य खोजते हैं और परमेश्वर के हाथों अपनी जाँच स्वीकारते हैं। यही सबसे महत्वपूर्ण बात है। तो किस संदर्भ और किन स्थितियों में व्यक्ति परमेश्वर के हाथों अपनी जाँच स्वीकार सकता है? (जब उसका परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता हो।) सही कहा, जब उसका परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता हो। अगर तुम्हारा परमेश्वर के साथ सामान्य रिश्ता है तो क्या इसका यह मतलब नहीं होगा कि परमेश्वर तुम्हारे हृदय में है और तुम उसके बहुत करीब हो? इसका यह मतलब होगा कि तुम्हारे हृदय में हमेशा परमेश्वर का एक स्थान है और परमेश्वर तुम्हारे हृदय में एक बहुत ही प्रमुख स्थान रखता है। नतीजतन, तुम हमेशा परमेश्वर के बारे में सोचोगे, परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचोगे, परमेश्वर की पहचान और सार के बारे में सोचोगे, परमेश्वर की संप्रभुता के बारे में सोचोगे और परमेश्वर की हर चीज के बारे में सोचोगे। ठेठ मुहावरे में कहें तो तुम्हारा हृदय परमेश्वर से लबालब भर जाएगा और तुम्हारे हृदय में परमेश्वर का बहुत ऊँचा स्थान होगा। अगर तुम्हारा हृदय परमेश्वर से भरा है, तो तुम्हारा परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता होगा, तुम परमेश्वर के हाथों अपनी जाँच स्वीकार पाओगे, और साथ ही तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय भी होगा। तभी तुम संयम से काम ले पाओगे। “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ” एक सरल वाक्य है, लेकिन इसमें अर्थ की कई परतें हैं। इसमें मानवजाति के लिए परमेश्वर के इरादे और वह रवैया शामिल है, जिसके साथ परमेश्वर लोगों से कार्य करने की अपेक्षा करता है, साथ ही यह वाक्य मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ भी बताता है। तो मानवजाति से परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं? यही कि तुम हार मत मानो, भागो नहीं या अपने ऊपर पड़ने वाली चीजों के प्रति उदासीन रवैया मत अपनाओ। अगर तुम्हारा सामना किसी ऐसी चीज से होता है जिसे तुम नहीं समझते और जिसकी असलियत नहीं जान पाते या जिस पर तुम काबू नहीं पा सकते या जो तुम्हें कमजोर तक बना देती है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो। परमेश्वर लोगों से उनकी क्षमताओं से परे अपेक्षा नहीं रखता। परमेश्वर कभी लोगों से ऐसी चीजें करने की अपेक्षा नहीं करता, जो इंसानी क्षमताओं के दायरे से परे हों। परमेश्वर तुमसे जो करवाना चाहता है और जो चीजें वह तुमसे चाहता है, वे सभी वे चीजें हैं जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोगों द्वारा हासिल, प्राप्त और पूरा किया जा सकता है। इसलिए मनुष्य के लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक जरा भी खोखले या अस्पष्ट नहीं हैं। मनुष्य के लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ उस मानक से अधिक कुछ नहीं हैं, जिसमें वह दायरा शामिल है जिसे सामान्य मानवता वाले लोग हासिल कर सकते हैं। अगर तुम हमेशा अपनी कल्पनाओं का अनुसरण करते हो और दूसरों से बेहतर, श्रेष्ठ और अधिक सक्षम बनना चाहते हो, अगर तुम हमेशा दूसरों से बेहतर प्रदर्शन करना चाहते हो तो फिर तुमने परमेश्वर का अर्थ गलत समझा है। अहंकारी और आत्मतुष्ट लोग अक्सर ऐसे ही होते हैं। परमेश्वर कहता है कि जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो, वह कहता है कि सत्य खोजो और सिद्धांतों के साथ कार्य करो, लेकिन अहंकारी और आत्मतुष्ट लोग परमेश्वर की इन अपेक्षाओं पर ध्यानपूर्वक विचार नहीं करते। इसके बजाय, वे चीजों को ताकत और ऊर्जा के विस्फोट के साथ पूरा करने, चीजों को साफ-सुथरे और सुंदर तरीके से करने और पलक झपकते ही बाकी सबसे आगे निकलने की कोशिश करने पर जोर देते हैं। वे अतिमानव बनना चाहते हैं और साधारण इंसान बनने से इनकार करते हैं। क्या यह प्रकृति के उन नियमों के विरुद्ध नहीं है जो परमेश्वर ने मनुष्य के लिए बनाए हैं? (बिल्कुल।) जाहिर है, वे सामान्य लोग नहीं हैं। उनमें सामान्य मानवता का अभाव है और वे बहुत अहंकारी हैं। वे उन अपेक्षाओं की उपेक्षा करते हैं, जो सामान्य मानवता के दायरे में आती हैं और जिन्हें परमेश्वर ने मानवजाति के लिए सामने रखा है। वे उन मानकों की उपेक्षा करते हैं जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोग प्राप्त कर सकते हैं और जिन्हें परमेश्वर ने मानवजाति के लिए निर्धारित किया है। इसलिए वे परमेश्वर की अपेक्षाओं का तिरस्कार कर सोचते हैं, “परमेश्वर की अपेक्षाएँ बहुत कम हैं। परमेश्वर के विश्वासी सामान्य लोग कैसे हो सकते हैं? वे असाधारण लोग होने चाहिए, ऐसे व्यक्ति जो आम लोगों से श्रेष्ठ होते हैं और उनसे आगे निकल जाते हैं। वे महान और प्रसिद्ध व्यक्ति होने चाहिए।” वे यह सोचते हुए परमेश्वर के वचनों की उपेक्षा करते हैं कि भले ही परमेश्वर के वचन सही और सत्य हैं, फिर भी वे बहुत सामान्य और साधारण हैं, इसलिए वे उसके वचनों को नजरअंदाज कर उन्हें तुच्छ समझते हैं। लेकिन ठीक इन्हीं सामान्य और साधारण वचनों में, जो उन तथाकथित महामानवों और महान हस्तियों द्वारा इतने तिरस्कृत हैं, परमेश्वर वे सिद्धांत और मार्ग इंगित करता है, जिनका लोगों को पालन और अभ्यास करना चाहिए। परमेश्वर के वचन बहुत ईमानदार, वस्तुनिष्ठ और व्यावहारिक हैं। वे लोगों से ऊँची माँग बिल्कुल नहीं करते। वे सब वे चीजें हैं, जिन्हें लोग हासिल कर सकते हैं और जो उन्हें हासिल करनी चाहिए। अगर लोगों में थोड़ा-सा भी सामान्य विवेक है तो उन्हें हवा में उड़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, इसके बजाय उन्हें अपने पैर जमीन पर मजबूती से टिकाकर परमेश्वर के वचनों और सत्य को स्वीकारना चाहिए, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने चाहिए, परमेश्वर के सामने जीना चाहिए और सत्य को अपने आचरण और कार्यों का सिद्धांत मानना चाहिए। उन्हें अति महत्वाकांक्षी नहीं होना चाहिए। “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ” पंक्ति में लोगों को और भी अधिक समझना चाहिए कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और सत्य वे सिद्धांत हैं जिनका लोगों को अभ्यास करना चाहिए। यहाँ “लोगों” का तात्पर्य किससे है? यह सामान्य लोगों को संदर्भित करता है, जिनमें सामान्य तार्किकता और सामान्य विवेक होता है, जो सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, और जो समझते हैं कि क्या वस्तुनिष्ठ है, क्या व्यावहारिक है, क्या सामान्य है और क्या साधारण है। “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ” वचनों का स्वाद लेने के लिए समय निकालो। भले ही ये सीधे-सादे, साधारण वचन हैं लेकिन ये ऐसी चीज का वर्णन करते हैं जिसे सामान्य मानवता का विवेक रखने वाले लोगों को करने में सक्षम होना चाहिए और ये ऐसे सत्य सिद्धांत भी हैं जिनका सामान्य मानवता वाले व्यक्ति को अपने वास्तविक जीवन में कठिनाइयों का सामना करने पर सबसे अधिक अभ्यास करना चाहिए। ये वे सत्य हैं जिनकी उन लोगों को सबसे अधिक आवश्यकता होती है, जिनमें सामान्य मानवता का विवेक है। ये खोखले वचन बिल्कुल नहीं हैं। इन साधारण वचनों को तुम लोग कई बार गा और सुन चुके हो लेकिन तुममें से किसी ने भी इन वचनों को सावधानीपूर्वक विचार करने और ध्यान से संगति करने के लिए सत्य नहीं माना। इस तरह तुमने इन अनमोल वचनों को अपने हाथों से फिसल जाने दिया है। असल में इन वचनों में परमेश्वर की इच्छा, लोगों के लिए परमेश्वर के अनुस्मारक और चेतावनियाँ और लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ शामिल हैं। इनमें इतना कुछ है। लोग हृदयहीन और विवेकहीन हैं और वे इन वचनों को साधारण वचन मानते हैं; वे इन्हें सँजोकर नहीं रखते, इन पर विचार या इनका अभ्यास नहीं करते, तो फिर अंत में इसके कारण कष्ट सहने और नुकसान उठाने वाले कौन होंगे? खुद लोग होंगे। क्या यह एक सबक नहीं है?

परमेश्वर ने इस अंश में जो अपेक्षाएँ तय की हैं, उनका अभ्यास सामान्य लोगों के लिए बहुत आसान है। इस अभ्यास में कुछ भी कठिन या थकाऊ नहीं है और यह प्रभावी है। अंततः यह तुम्हें आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ने और प्रगति करने में सक्षम बना सकता है। निस्संदेह, तुम्हारे द्वारा “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो” का सिद्धांत अभ्यास में लाए जाने के बाद तुम सत्य, स्वभावगत परिवर्तन, विभिन्न परिवेशों का अनुभव करने से प्राप्त समझ आदि के संदर्भ में प्रगति करोगे। ये वचन कितने अद्भुत हैं! अगर लोगों में विवेक है और वे इन वचनों को अभ्यास में लाते हैं, तो परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और निर्देशन के तहत उन्हें पता चल जाएगा कि जब परमेश्वर विभिन्न परिवेशों की व्यवस्था करता है तो उसकी इच्छा क्या होती है। कुछ समय के बाद वे अंततः उन परिवेशों में मिलने वाले लाभ बटोरने, अनुभव प्राप्त करने और सत्य को समझने में सक्षम होंगे। जब तुम ऐसे लाभ बटोरते हो तो तुम्हें पता चल जाता है कि परमेश्वर ने इन परिवेशों की व्यवस्था क्यों की है, परमेश्वर की इच्छा क्या है और परमेश्वर लोगों को उनसे क्या हासिल करवाना चाहता है। इसके अलावा, लोग जिन चक्करदार मार्गों पर भटकते हैं, वे जो असफलताएँ अनुभव करते हैं, वे जो विकृत समझ रखते हैं, उनके जो अयथार्थपरक विचार होते हैं, उनके भीतर परमेश्वर के प्रति जो धारणाएँ और प्रतिरोध पैदा हुआ होता है, इत्यादि, वे सब इन परिवेशों का अनुभव करने पर धीरे-धीरे उजागर और प्रकट हो जाएँगे। ये चीजें चाहे सकारात्मक हों या नकारात्मक, इन परिवेशों के माध्यम से जो उजागर और प्रकट होता है, उसे स्पष्ट रूप से देखने और समझने के लिए अनुभव की अवधि लगती है। इस तरह, परमेश्वर के वचनों “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो” का वास्तविक अर्थ पूरा हो जाता है। अर्थात जब परमेश्वर किसी ऐसी चीज की व्यवस्था करता है जिसकी तुम असलियत नहीं जान सकते या जिसेसमझ नहीं पाते और जिसका तुमने पहले अनुभव नहीं किया होता, तो उस स्थिति से जो चीजें परमेश्वर चाहता है कि तुम समझो, प्राप्त करो और व्यक्तिगत रूप से अनुभव करो, उन्हें महज चंद दिनों में प्राप्त नहीं किया जा सकता। कुछ समय लगने पर ही और हर कदम पर परमेश्वर के निर्देशन, प्रबोधन और मार्गदर्शन के साथ ही तुम धीरे-धीरे समझ हासिल करोगे और नतीजे प्राप्त करोगे। यह वैसा नहीं है जैसा लोग कल्पना करते हैं, तुम प्रबुद्धता के एक विस्फोट में अचानक सब-कुछ नहीं समझ जाते या अचानक प्रेरणा कौंधने से यह नहीं जान जाते कि परमेश्वर का क्या मतलब है। परमेश्वर अलौकिक ढंग से ऐसी चीजें नहीं करता, परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता। जिस तरीके से परमेश्वर कार्य करता है वह इस प्रकार है। परमेश्वर तुम्हें किसी स्थिति के कारणों और परिणामों का अनुभव करने देता है और तुम धीरे-धीरे यह जान जाते हो : “तो ऐसे व्यक्ति का सार ऐसा है, और ऐसी चीज की वास्तविकता और सार ऐसा है, और यह परमेश्वर के वचनों की अमुक पंक्ति पूरी करता है। आखिरकार मैं समझ गया हूँ कि जब परमेश्वर ने ऐसा कहा, तो उसका क्या मतलब था। आखिरकार मैं समझ गया हूँ कि परमेश्वर ने ऐसे मामलों और ऐसे लोगों के बारे में ऐसी चीजें क्यों कहीं।” परमेश्वर तुम्हें अपने अनुभवों के माध्यम से ऐसी अनुभूतियाँ प्राप्त करने देता है। क्या इन चीजों को समझने में कुछ समय नहीं लगता? (हाँ, लगता है।) अनुभव की एक अवधि के माध्यम से तुम जो ज्ञान प्राप्त करते हो और जो सत्य समझते हो, वे सिद्धांत या सैद्धांतिक चीजें नहीं हैं, बल्कि तुम्हारे व्यक्तिगत अनुभव और सच्चा ज्ञान हैं। यही वह सत्य वास्तविकता है जिसमें तुम प्रवेश करते हो। इसी में परमेश्वर के इन वचनों “उस बात के लिये नाराज़ मत हो” का कारण और स्रोत निहित है। जब परमेश्वर तुम्हें अपनी अनुभव की गई घटनाओं से लाभ बटोरने की अनुमति देता है तो वह नहीं चाहता कि तुम सिर्फ एक प्रक्रिया से गुजरो या एक सिद्धांत सीखो, बल्कि यह चाहता है कि तुम एक समझ, कुछ ज्ञान, एक सकारात्मक दृष्टिकोण और अभ्यास का एक सही तरीका प्राप्त करो। भले ही इस अंश में सिर्फ कुछ पंक्तियाँ हैं और इसमें बहुत अधिक विषयवस्तु नहीं है, फिर भी इस अंश में परमेश्वर ने जो अपेक्षाएँ रखी हैं और इसके माध्यम से वह लोगों को अभ्यास के जो सिद्धांत देता है, वे बहुत महत्वपूर्ण हैं। लोगों को परमेश्वर के वचनों को उसी रवैये के साथ नहीं लेना चाहिए, जो रवैया वे इंसानी ज्ञान और सिद्धांतों के प्रति अपनाते हैं। परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने के लिए तुम्हारे पास सिद्धांत होने चाहिए। इसका मतलब यह है कि जब तुम एक निश्चित तरह की स्थिति का सामना करते हो, तो तुम्हारे पास अभ्यास में लाने के लिए एक सिद्धांत, एक तरीका होना चाहिए। सत्य का अभ्यास करने का यही अर्थ है। इसे ही हम सिद्धांत कहते हैं। इसलिए ये कुछ सरल शब्द भर नहीं हैं। भले ही इन्हें जिस तरह से व्यक्त और प्रस्तुत किया गया है, वह सरल और सुगम है, और ये वचन बहुत सीधे लगते हैं, और ये सुंदर, लच्छेदार भाषा या सजीले शब्दों या परिष्कृत लेखन-शैली से सुशोभित नहीं हैं, और ये निश्चित रूप से दूसरों को नीचा जताने वाले स्वर में नहीं बोले जाते, बल्कि ये आमने-सामने और आत्मीय ढंग से कही गई सिर्फ ईमानदार चेतावनियाँ और अपेक्षाएँ हैं, फिर भी ये वास्तव में लोगों को अभ्यास के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत और मार्ग बताते हैं।

बहुत-से लोग परमेश्वर के कहे सबसे साधारण वचनों को कभी गंभीरता से नहीं लेते। वे परमेश्वर के गहन और रहस्यमय वचनों को ही उसके वचन मानते हैं। क्या यह विकृत समझ का प्रकटीकरण नहीं है? परमेश्वर के वचनों का हर वाक्य सत्य है। चाहे वे साधारण वचन हों या गहन वचन, परमेश्वर के सभी वचनों में सत्य और रहस्य हैं जिन्हें समझने और जानने के लिए वर्षों का अनुभव और एक निश्चित आध्यात्मिक कद चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे तुम लोगों के अभी-अभी गाए भजन में परमेश्वर के अच्छे और महत्वपूर्ण वचन शामिल हैं—कोई भी उन वचनों को गंभीरता से नहीं लेता। भले ही वे संगीत पर आधारित हैं और सभी उन्हें वर्षों से गा रहे हैं, फिर भी किसी ने भी अभ्यास का वह सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत नहीं पाया है जो उनमें निहित है। भले ही कुछ लोगों को अपनी चेतना में यह एहसास हो कि परमेश्वर के वचन उनसे यह कहते प्रतीत होते हैं, “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो,” और भले ही वे यह महसूस करें कि ये वे अपेक्षाएँ हैं जो परमेश्वर ने लोगों से की हैं, फिर भी किसने कभी अपने वास्तविक जीवन में परमेश्वर के इन वचनों का सच में अभ्यास, कार्यान्वयन और इनकी वास्तविकता में प्रवेश किया है। क्या किसी ने ऐसा किया है? (नहीं।) किसी ने ऐसा नहीं किया है। परमेश्वर के ये वचन बहुत सरल हैं लेकिन कोई भी इनका अनुसरण नहीं कर पाता। क्या इसमें कोई अनिवार्य समस्या निहित नहीं है? (हाँ, इससे पता चलता है कि लोग सत्य से विमुख हैं।) और कुछ? (परमेश्वर ने हमें ये जो वचन सुनाए हैं, ये बहुत व्यावहारिक हैं। ये सब सिद्धांत के वचन हैं। लेकिन हमने परमेश्वर के वचनों को गंभीरता से नहीं लिया है, हमने उन पर ध्यान नहीं दिया है और हम उन्हें अभ्यास में नहीं लाए हैं।) तो तुम लोग आम तौर पर परमेश्वर के वचन कैसे पढ़ते हो? (हम परमेश्वर के वचनों को आम तौर पर सरसरी तौर पर पढ़ते हैं। इन वचनों का शाब्दिक अर्थ समझने के बाद हम आगे बढ़ जाते हैं। हम यह नहीं समझते कि इन वचनों में परमेश्वर की इच्छा क्या है या हमें सत्य के किन सिद्धांतों का अभ्यास करना चाहिए। हमने इन पर इस तरह ध्यान से विचार नहीं किया है।) तुम लोगों ने कुछ सैद्धांतिक विचारों के साथ उत्तर दिया है और तुम जो कहते हो, वह सही लगता है, लेकिन तुम लोग इसका मूल कारण अच्छी तरह नहीं समझे, जो यह है कि लोग परमेश्वर के वचन सँजोकर नहीं रखते। अगर तुम परमेश्वर के वचन सँजोकर रखोगे तो तुम उनमें मौजूद खजाना, सोना और हीरे खोज पाओगे और जीवनभर इन चीजों का आनंद ले सकोगे। अगर तुम परमेश्वर के वचन सँजोकर नहीं रखते तो तुम यह खजाना प्राप्त नहीं कर पाओगे। परमेश्वर के वचन सँजोकर न रखने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम्हें परमेश्वर के वचन अच्छे नहीं लगते। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के बहुत सारे वचन हैं और वे सभी सत्य हैं, और तुम नहीं जानते कि उनमें से किसे सँजोकर रखना है। तुम्हें लगता है कि वे सब साधारण हैं, और इसका मतलब है परेशानी। परमेश्वर के वचन सँजोकर रखने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम जानते हो कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं और ये सत्य लोगों के जीवन और उनके जीने के लिए सबसे उपयोगी और अनमोल खजाना हैं। इसका मतलब है कि तुम परमेश्वर के वचनों को खजाना समझते हो जो तुम्हें इतना अधिक पसंद है कि तुम इसे छोड़ नहीं सकते। परमेश्वर के वचनों के प्रति इस रवैये को सँजोना कहा जाता है। परमेश्वर के वचन सँजोने का मतलब है कि तुम्हें पता चल गया है कि परमेश्वर के सभी वचन सबसे मूल्यवान खजाना हैं, कि वे किसी भी प्रसिद्ध या महान हस्ती के जीवनादर्शों की तुलना में सैकड़ों-हजारों गुना अधिक मूल्यवान हैं। इसका मतलब है कि तुमने परमेश्वर के वचनों का सत्य प्राप्त कर लिया है और तुमने जीवन का सबसे बड़ा और सबसे मूल्यवान खजाना खोज लिया है। यह खजाना पाकर तुम्हें अपना महत्व बढ़ाने और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने में मदद मिल सकती है। इसी कारण तुम ये सत्य खास तौर से सँजोते हो। मैं इसका वास्तविक जीवन से एक उदाहरण देता हूँ। मान लो, एक महिला एक सुंदर पोशाक खरीदती है और जब वह घर लौटती है तो उसे दर्पण में देखकर पहनती है। दाएँ-बाएँ देखते हुए वह सोचती है : “यह पोशाक बहुत सुंदर है, इसका कपड़ा उत्कृष्ट है, इसकी कारीगरी अत्युत्तम है, और यह पहनने में आरामदेह और मुलायम है। मैं कितनी भाग्यशाली हूँ कि इतने अच्छे कपड़े खरीद सकी। यह मेरा पसंदीदा परिधान है लेकिन मैं इसे हर समय नहीं पहन सकती। मैं इसे तब पहनूँगी, जब मैं उच्च तबके के कार्यक्रमों में भाग लूँगी और सबसे प्रतिष्ठित लोगों से मिलूँगी।” जब उसके पास कुछ खाली समय होता है तो वह अक्सर पोशाक निकालकर उसकी प्रशंसा करते हुए उसे पहनती है। छह महीने बाद भी वह पोशाक को लेकर उतनी ही उत्साहित रहती है और उससे अलग होना बरदाश्त नहीं कर पाती। किसी चीज को सँजोकर रखने का यही मतलब है। क्या परमेश्वर के वचनों के प्रति तुम लोगों का रवैया इस स्तर तक पहुँचा है? (नहीं।) यह कितनी दयनीय बात है कि तुम लोग अभी तक परमेश्वर के वचनों को उतना नहीं सँजोते, जितना एक महिला अपनी पसंदीदा पोशाक सँजोती है! इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि तुम लोगों ने परमेश्वर के अनेक वचन पढ़े हैं लेकिन तुम बहुत-से सत्य खोजने में विफल रहे हो और वास्तविकता में कभी प्रवेश नहीं कर पाए हो। तुम लोग हमेशा कहते हो कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, लेकिन ये सिर्फ सैद्धांतिक और मौखिक दावे हैं। अगर परमेश्वर के वचनों का सरलतम और प्रथम व्यक्त अंश सामने लाया जाए, और तुम लोगों से पूछा जाए कि उन वचनों में क्या सत्य हैं, परमेश्वर की इच्छा क्या है या परमेश्वर मनुष्य को क्या अपेक्षाएँ और मानक देता है, तो तुम लोग निःशब्द हो जाओगे और जवाब में एक भी शब्द नहीं बोल पाओगे। तुम लोगों ने परमेश्वर के वचन बहुत पढ़े और सुने हैं तो फिर तुम्हें उनकी सच्ची समझ क्यों नहीं है? समस्या की जड़ कहाँ है? दरअसल, बात यह है कि लोग परमेश्वर के वचनों को पर्याप्त नहीं सँजोते। जिस वर्तमान मात्रा में तुम लोग परमेश्वर के वचन सँजोते हो, उसमें तुम परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजने से बहुत दूर हो और वे अपेक्षाएँ, सिद्धांत और अभ्यास के मार्ग खोजने से बहुत दूर हो, जो परमेश्वर उनके माध्यम से मनुष्य को प्रदान करता है। यही कारण है कि जब तुम लोगों पर चीजें आन पड़ती हैं तो तुम हमेशा भ्रमित रहते हो और सिद्धांत कभी नहीं ढूँढ़ पाते। यही कारण है कि तुम कई चीजों का अनुभव करते हो, लेकिन परमेश्वर की इच्छा कभी नहीं जानते या बहुत अधिक नहीं बढ़ते या बदलते या थोड़ा-सा ही लाभ ले पाते हो। क्या ऐसे लोग बहुत दयनीय नहीं हैं?

यह अंश दोबारा पढ़ो। (“जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो। विश्वास करो कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है! तुम्हारे पास परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं होनी चाहिये, तुम्हें शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए तत्परता से खोज करनी चाहिये। निराश मत हो। कमज़ोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतज़ार करो। परमेश्वर के साथ सक्रिय सहयोग करो और अपनी आंतरिक बाधाओं से छुटकारा पाओ।”) आओ, मैं तुम्हारा ध्यान इसके महत्वपूर्ण बिंदुओं की ओर आकर्षित करता हूँ और तुम्हें परमेश्वर के वचन पढ़ने के सिद्धांत और उनमें अभ्यास का मार्ग खोजने का तरीका समझाता हूँ। यह अंश पंक्ति-दर-पंक्ति दोबारा पढ़ो। (“जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो।”) इस पंक्ति में एक सिद्धांत है, जिसे लोगों को समझना चाहिए। वह सिद्धांत यह है : जल्दबाजी मत करो, घबराओ मत, नतीजे देखने की उतावली मत करो। यह एक रवैया है। इस पहली पंक्ति में वह सही रवैया है जो लोगों को चीजों के प्रति अपनाना चाहिए। यह सही रवैया सामान्य मानवता के विवेक के दायरे में निहित है; यह सामान्य मानवता वाले लोगों के विवेक और क्षमताओं के दायरे में आता है। अब, दूसरी पंक्ति पढ़ो। (“ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो।”) इसका क्या मतलब है? (यह अभ्यास का वह मार्ग है जो परमेश्वर मनुष्य को देता है।) ठीक है, यह सीधी-सरल बात है। यह अभ्यास का मार्ग है। यहाँ “अक्सर” का अर्थ है कि इसे ऐसे नहीं करना चाहिए कि जब तुम्हारा मन हुआ तब कर लिया, और छठे-छमासे तो निश्चित रूप से नहीं करना चाहिए; इसका मतलब यह है कि जैसे ही ये मामले तुम्हारे दिमाग में आएँ, तुम्हें प्रार्थना करने और खोजने के लिए उन्हें परमेश्वर के सामने लाना चाहिए। अगर तुम इन मामलों में दायित्व उठाते हो, अगर तुम्हारे दिल में धार्मिकता के लिए भूख-प्यास है, अगर तुम इन मामलों में परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर की अपेक्षाएँ और साथ ही उन समस्याओं का सार समझने के लिए उत्सुक हो जिनकी तुम असलियत जानना चाहते हो, तो तुम्हें अक्सर परमेश्वर के सामने आना चाहिए, जिसका अर्थ है बहुत ज्यादा बार। तुम जिस परिवेश में हो, उसके अनुसार, जब तुम व्यस्त हो, तो इन मामलों पर विचार करने के लिए फुरसत का पल निकालो, मानो तुम उनके बारे में सोच रहे हो या उनके बारे में परमेश्वर से प्रार्थना और खोज कर रहे हो। क्या अभ्यास का यह तरीका बहुत स्पष्ट नहीं है? (है।) उदाहरण के लिए, जब तुम भोजन करने के बाद विश्राम करते हो तो यह कहते हुए चिंतन और प्रार्थना करो, “हे परमेश्वर, मैंने अमुक परिवेश का अनुभव किया है। मैं तुम्हारी इच्छा नहीं समझता, और मैं यह भी अच्छी तरह नहीं समझ पा रहा कि मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ है। इस व्यक्ति की मंशा वास्तव में क्या है? मुझे इस तरह की समस्या का समाधान कैसे करना चाहिए? तुम मुझे इस मामले में क्या समझाना चाहते हो?” इन कुछ सरल शब्दों में तुम उन मामलों में, जिनके बारे में तुम खोजना चाहते हो और उन समस्याओं के बारे में, जिनका सार तुम समझना चाहते हो, परमेश्वर से प्रार्थना करते और खोजते हो। इस तरह प्रार्थना करने का क्या उद्देश्य है? तुम परमेश्वर के सामने सिर्फ समस्या नहीं रख रहे हो, तुम परमेश्वर से सत्य माँग रहे हो, तुम कोशिश कर रहे हो कि परमेश्वर तुम्हारे लिए कोई मार्ग खोल दे और तुम्हें यह बता दे कि इस मामले में क्या करना है, और तुम कह रहे हो कि परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध कर दे और तुम्हारा मार्गदर्शन कर दे। तुम्हारे ऐसा करने में सक्षम होने के लिए क्या आवश्यक शर्तें हैं? (जिसे मैं नहीं समझ पाता, उस बात के लिए मुझे नाराज़ नहीं होना चाहिए।) समझ में न आने वाली बातों के लिए नाराज़ न होना सिर्फ एक रवैया है—ऐसा नहीं है कि तुम समझ में न आने वाली बातों के लिए नाराज़ नहीं हो रहे, बल्कि समझ में न आने वाली बातों के लिए नाराज़ न होने की बड़ी पूर्व-शर्त के तहत, तुम्हारे पास ऐसा दिल है जिसमें धार्मिकता के लिए भूख-प्यास है और इस मामले में तुम दायित्व उठाते हो। दूसरे शब्दों में कहें तो यह मामला तुम पर एक तरह के दबाव की तरह काम करता है और वह दबाव तुम्हारे कंधों पर एक दायित्व डालता है, जिससे तुम्हारे सामने एक समस्या खड़ी हो जाती है जिसे तुम समझना और हल करना चाहते हो। यह तुम्हारा अभ्यास का मार्ग है। अपने खाली समय में, नियमित भक्ति के दौरान या अपने भाई-बहनों के साथ बातचीत करते समय तुम अपनी व्यावहारिक कठिनाइयाँ और समस्याएँ सामने ला सकते हो और अपने भाई-बहनों के साथ संगति करके खोज सकते हो। अगर तुम अभी भी समस्याओं का समाधान न कर पाओ तो प्रार्थना करने और सत्य खोजने के लिए उन्हें परमेश्वर के सामने लाओ। जब तुम ऐसा करो, तो कहो, “हे परमेश्वर, मैं अभी भी नहीं जानता कि मुझे उस परिवेश का अनुभव कैसे करना चाहिए जिसकी व्यवस्था तुमने मेरे लिए की है। मुझे अभी भी इसकी कोई समझ नहीं है और मैं नहीं जानता कि कहाँ से शुरू करूँ या कैसे अभ्यास करूँ। मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है और मैं कई सत्य नहीं समझता। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो। मैं नहीं जानता कि तुम मुझे इस परिवेश से क्या हासिल कराना या समझाना चाहते हो, या तुम इस परिवेश के माध्यम से मेरे बारे में क्या प्रकट करना चाहते हो। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो और अपनी इच्छा समझने दो।” यह वह अभ्यास का मार्ग है, जो इस पंक्ति में पाया जाता है : “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ।” इस तरह अभ्यास करो, कभी-कभी अपने दिल में सोचते हुए, कभी-कभी चुपचाप और कभी-कभी जोर से परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए, और कभी-कभी अपने भाई-बहनों के साथ संगति करते हुए। अगर तुममें ये अभिव्यक्तियाँ हैं, तो यह साबित करता है कि तुम पहले से ही परमेश्वर के सामने जी रहे हो। अगर तुम अक्सर अपने दिल में इस तरह से परमेश्वर के साथ संवाद करते हो, तो तुम्हारा परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता है। ऐसे कई वर्षों के अनुभव के बाद तुम स्वाभाविक रूप से सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लोगे। क्या इस अभ्यास के संबंध में कोई कठिनाइयाँ हैं? (नहीं।) यह अच्छा है। उदाहरण के लिए, कभी-कभी जब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ते हो तो जितना अधिक तुम पढ़ोगे, तुम्हारा दिल उतना ही उज्ज्वल महसूस करेगा—इसका मतलब है कि तुमने वे वचन पढ़े हैं जिनका तुम्हारे पास अनुभव है, और तुम्हारी पिछली धारणाएँ और कल्पनाएँ एक ही बार में सुलझ जाएँगी। इस समय तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहना चाहिए, “हे परमेश्वर, यह अंश पढ़ने से मेरा दिल उज्ज्वल हो गया है। जो समस्याएँ मुझमें पहले थीं, वे अब अचानक मेरे सामने स्पष्ट हो गई हैं। मैं जानता हूँ कि यह तुम्हारा प्रबोधन है और मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूँ कि तुमने अपने वचनों का यह अंश मुझे समझने दिया।” क्या यह फिर से परमेश्वर के सामने आना और प्रार्थना करना नहीं है? (बिल्कुल, है।) क्या ऐसा करना कठिन है? क्या तुम इसके लिए समय निकाल सकते हो? (बिल्कुल।) अपनी खोज की शुरुआत से लेकर इस प्रार्थना तक, क्या तुम लगातार परमेश्वर के वचनों के इस सिद्धांत का अभ्यास नहीं कर रहे होगे : “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ”? जब तुम लगातार इन वचनों के अभ्यास का पालन करते हो और हमेशा उनमें निहित अभ्यास के सिद्धांत से चिपके रहते हो और हमेशा इस तरह की वास्तविकता में रहते हो तो इसे अभ्यास के सिद्धांत का पालन करना कहा जाता है। क्या यह मुश्किल है? (यह मुश्किल नहीं है।) इसके लिए तुम्हें सिर्फ अपने दिल का उपयोग करना होगा, अपना मुँह हिलाना होगा, कुछ समय निकालना होगा और थोड़ा विचार करना होगा, समय-समय पर परमेश्वर के साथ बातचीत करने और अपने दिल की बातें बताने और साझा करने के लिए समय निकालना होगा। यह अक्सर परमेश्वर के समक्ष आना है। यह बहुत सरल, सहज और इतना आसान है। इसमें कुछ भी कठिन नहीं है। तुम ऐसी चीज वहन करते हो, जिसे तुम अपने दिल में बहुत महत्वपूर्ण मानते हो, और तुम उसे एक दायित्व समझते हो, और उसे कभी भूलते या छोड़ते नहीं—ऐसी चीज है तुम्हारे दिल में, और तुम समय-समय पर प्रार्थना करने और इसके बारे में बोलने और बात करने के लिए परमेश्वर के सामने आते हो। जब तुम परमेश्वर से बात करते हो तो तुम्हारा दिल किस तरह का होना चाहिए? (एक सच्चा दिल।) सही कहा, तुम्हारे पास एक सच्चा दिल होना चाहिए। अगर तुम दायित्व उठाते हो, तो तुम्हारा दिल सच्चा होगा। जब दूसरे लोग गपशप में लगे रहते हैं, तब तुम अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना और उसके साथ संगति करोगे। कभी-कभी जब तुम काम से थके होते हो और अवकाश लेते हो, तो तुम्हें यह मामला याद आएगा और तुम कहोगे, “यह बुरी बात है, यह मामला मुझे अभी भी समझ नहीं आया है। मुझे अभी भी इस बारे में परमेश्वर से बातचीत करनी है।” जब भी तुम्हारे पास समय होगा, तो तुम्हें यह बात क्यों याद आएगी? क्योंकि तुम इसे अपने दिल में बहुत गंभीरता से लेते हो, तुम इसे अपना दायित्व और एक तरह की जिम्मेदारी मानते हो, और तुम इसे समझना और हल करना चाहते हो। जब तुम परमेश्वर के सामने आते हो और उससे अंतरंगता से बोलते-बतियाते हो तो तुम्हारा दिल स्वाभाविक रूप से ईमानदार हो जाएगा। जब तुम इस संदर्भ में और इस मानसिकता के साथ परमेश्वर के साथ संगति करते हो, तो तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता अब उतना रूखा और दूर का नहीं है जितना पहले था, इसके बजाय तुम महसूस करोगे कि तुम उसके करीब आ रहे हो। परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दिए गए अभ्यास के मार्ग लोगों पर इतने प्रभावी हैं। तुम क्या सोचते हो, क्या इस तरह परमेश्वर से जुड़ना मुश्किल है? तुम किसी मामले को दिल से लेते हो, कभी-कभी उसके बारे में परमेश्वर से बात करते हो, समय-समय पर परमेश्वर के सामने आते और उसका अभिवादन करते हो, तुम परमेश्वर से अपने दिल की और अपनी कठिनाइयों की बात करते हो, तुम उन चीजों के बारे में बात करते हो जिन्हें तुम समझना चाहते हो, जिनके बारे में तुम सोचते हो, अपने संदेहों, अपनी कठिनाइयों और अपनी ज़िम्मेदारियों के बारे में बात करते हो—अगर तुम इन सभी चीजों के बारे में परमेश्वर से बात करते हो तो क्या तुम इस तरह से अभ्यास करके परमेश्वर के सामने नहीं जी रहे हो? यह परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना है। अगर तुम कुछ समय तक इस तरह अभ्यास करते हो तो क्या तुम बहुत जल्दी नतीजे पाकरलाभ नहीं बटोर पाओगे? (बिल्कुल।) लेकिन यह इतना आसान नहीं है, यह एक प्रक्रिया है। अगर तुम कुछ समय तक इस तरह से अभ्यास करते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता ज्यादा से ज्यादा घनिष्ठ हो जाएगा, तुम्हारी मानसिकता में सुधार होगा, तुम्हारी अवस्था उत्तरोत्तर सामान्य होती जाएगी, और परमेश्वर के वचनों और सत्य में तुम्हारी रुचि अधिकाधिक बढ़ती जाएगी। इसे परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता होना कहते हैं। अगर तुम कुछ सत्य समझ सकते हो और उन्हें अभ्यास में ला सकते हो तो तुम परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना शुरू कर दोगे। लेकिन इसे कम समय में हासिल नहीं किया जा सकता। स्पष्ट नतीजे देखने में तुम्हें छह महीने, एक साल या दो-तीन साल भी लग सकते हैं। क्या इस दौरान लोग भ्रष्टता और विद्रोहीपन से मुक्त हो जाएँगे? नहीं। भले ही तुमने अनगिनत बार परमेश्वर से प्रार्थना की हो और इस तरह से अभ्यास किया हो, क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें निश्चित रूप से नतीजा मिलेगा? क्या परमेश्वर को तुम्हें कोई नतीजा दिखाना चाहिए? क्या उसे तुम्हें उत्तर देना चाहिए? जरूरी नहीं कि ऐसा हो ही। कुछ लोग कहते हैं : “अगर यह अनिश्चित है कि मुझे नतीजे मिलेंगे या नहीं और अगर नतीजों की गारंटी नहीं है तो परमेश्वर फिर भी इस तरह से कार्य क्यों करता है? वह लोगों से इस तरह अभ्यास क्यों करवाता है?” चिंता मत करो, इस तरह से अभ्यास करना निश्चित रूप से निष्फल नहीं जाएगा। अगर तुम एक-दो साल तक इस तरह से अभ्यास करते हो और तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें तत्काल या अल्पावधि में कोई नतीजा मिला है, तो हो सकता है कि पाँच-दस साल बाद जब परमेश्वर तुम्हारे लिए फिर से ऐसे ही परिवेश की व्यवस्था करेगा, तब तुम्हें जल्दी ही सत्य के उस पहलू का एहसास हो आएगा जिसे तुम पहले नहीं जान पाए थे। लेकिन इस सत्य को पाँच-दस साल बाद जानने-समझने के लिए भी तुम्हारे पास अपने वर्तमान अनुभवों, ज्ञान और समझ से बनी नींव होनी आवश्यक है। यह परवर्ती एहसास इसी बुनियाद पर आधारित होना चाहिए। क्या तुम्हें लगता है कि लोगों के लिए सत्य का कोई पहलू समझना आसान है? (यह आसान नहीं है।) सत्य का अभ्यास करने के लिए कीमत चुकाने का यही महत्व और मूल्य है। यह दूसरी पंक्ति में निहित अभ्यास का सिद्धांत है। “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो”—यह पंक्ति सरल और सुगम भाषा में लिखी गई है और इसे समझना बहुत आसान है। इसका मतलब है कि तुम्हें अधिक प्रार्थना करनी चाहिए और सच्चा दिल रखना चाहिए क्योंकि सच्चे दिल से चीजें फलीभूत होती हैं। यह इतनी सरल बात है। लेकिन ये वचन वास्तव में एक सत्य वास्तविकता हैं जिसमें हर व्यक्ति को प्रवेश करना चाहिए और यही वह एकमात्र मार्ग है जिससे वे परमेश्वर के सामने आकर अंततः उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। यह पंक्ति सीधे-सरल शब्दों में कही गई है, लेकिन सभी को इसी तरह से अनुभव और प्रवेश करना होगा। यह ठीक वैसा ही है, जैसे किसी इमारत का निर्माण करना। चाहे उसमें 30 मंजिलें हों या 50 मंजिलें, या लगभग सौ मंजिलें ही क्यों न हों, उसकी एक नींव अवश्य होनी चाहिए। अगर इमारत की नींव मजबूत नहीं होगी तो इमारत चाहे कितनी भी ऊँची क्यों न हो, वह ज्यादा देर तक खड़ी नहीं रह पाएगी, कुछ ही सालों में ढह जाएगी। इसका मतलब यह है कि इस दुनिया में रहते हुए लोगों के पास उनकी नींव के रूप में सत्य होना चाहिए। उनके लिए दृढ़ रहने और परमेश्वर की स्वीकृति अर्जित करने का यही एकमात्र तरीका है। अगर लोग अधिक गहन और उच्च सत्य समझना चाहते हैं, तो उनके पास सबसे बुनियादी चीजें होनी चाहिए—यानी वे चीजें, जो नींव बनाती हैं। अस्थिर बुनियाद का होना सबसे खतरनाक बात है। इन सबसे बुनियादी सत्यों, इन सबसे बुनियादी सिद्धांतों और अभ्यास के मार्गों को तुच्छ मत समझो। अगर ये सत्य हैं तो ये ऐसी चीजें हैं जो लोगों के पास होनी चाहिए और जिनका उन्हें अभ्यास करना चाहिए। ये चाहे बड़ी हों या छोटी, ऊँची हों या नीची, कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हें बुनियादी चीजों से शुरुआत करनी चाहिए। ठोस नींव रखने का यही एकमात्र तरीका है।

अब तीसरी पंक्ति पढ़ो। (“विश्वास करो कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है।”) “विश्वास करो कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है” किसके बारे में बताता है? यह आस्था और विजन के बारे में बताता है। जब यह विजन तुम्हारा समर्थन और मार्गदर्शन करता है, तो तुम्हारे सामने एक मार्ग होता है। क्या इस तरह अभ्यास करने का असर होगा? कुछ लोग कहते हैं, “मैं इस तमाम अभ्यास से ऊब गया हूँ, और परमेश्वर ने अभी भी मुझे प्रबुद्ध नहीं किया है, न ही मुझे कुछ बताया है। मैं परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं कर पाता। क्या वास्तव में कोई परमेश्वर है?” तुम इस तरह नहीं सोच सकते। परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, चाहे वह तुमसे बात करे या नहीं। जब परमेश्वर तुमसे बात करना चाहता है और तुमसे बात करता है तो वह सर्वशक्तिमान है। जब परमेश्वर तुमसे बात नहीं करना चाहता और तुमसे बात नहीं करता, तब भी वह सर्वशक्तिमान है। परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, चाहे वह तुम्हें चीजें समझने दे या नहीं। परमेश्वर का सार और पहचान अपरिवर्तनीय हैं। यह वह विजन है, जिसे लोगों को समझना चाहिए। यह तीसरी पंक्ति है, यह बहुत सरल है। भले ही यह सरल है, फिर भी लोगों को वास्तव में इसका अनुभव करना चाहिए। जब लोग ऐसा करेंगे तो इससे उन्हें पुष्टि हो जाएगी कि ये वचन वास्तव में सत्य हैं और वे फिर कभी किसी भी तरह से इन पर संदेह करने का साहस नहीं करेंगे।

अब चौथी पंक्ति पढ़ो। (“तुम्हारे पास परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं होनी चाहिये।”) “तुम्हारे पास परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं होनी चाहिये,” परमेश्वर मनुष्य से यही अपेक्षा करता है। लोगों को यह समझने की जरूरत है कि “काफ़ी” का क्या मतलब है। क्या “काफ़ी” का मतलब इतराना और दिखावा करना, महत्वाकांक्षा से भरा दिल होना, अहंकारी और आत्मतुष्ट होना, दबंग और तानाशाह होना और किसी के प्रति आज्ञाकारी न होना है? “परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं” पंक्ति कैसे समझी जानी चाहिए? तुम “परमेश्वर के लिये महत्वाकांक्षाएं” कैसे रखते हो? जैसा कि पिछली पंक्ति में कहा गया है, “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो”—तुममें सत्य की समझ हासिल करने और उद्धार पाने की इच्छा और आकांक्षा होनी चाहिए, और तुममें परमेश्वर की संप्रभुता और परमेश्वर के आयोजन स्वीकारने, परमेश्वर की इच्छा की समझ प्राप्त करने और परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पित होने की भी इच्छा होनी चाहिए। इसे परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं कहा जाता है। हालाँकि परमेश्वर इस मामले का स्पष्ट रूप से वर्णन करने के लिए इंसानी भाषा का उपयोग करता है, फिर भी लोगों को इसका अर्थ शुद्ध रूप में समझना-बूझना चाहिए और इसकी अत्यधिक व्याख्या नहीं करनी चाहिए। यहाँ “काफ़ी” शब्द का तात्पर्य कार्यों को उतावलेपन से करने के लिए कृत्रिम रूप से अत्यधिक मात्रा में पाशविक बल का उपयोग करना नहीं है। इसमें हिंसा शामिल नहीं है, अज्ञानता या लापरवाही तो दूर की बात है। “काफ़ी” मुख्य रूप से व्यक्ति की आकांक्षा को संदर्भित करता है। यह वैसा ही है, जैसा तब होता है जब व्यक्ति किसी चीज को इस हद तक सँजोता है कि वह उसके पास होनी ही चाहिए और उसे हासिल करने के लिए कृतसंकल्प हो जाता है और जब तक उसे हासिल नहीं कर लेता, तब तक हार नहीं मानता। यह “परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं” एक पूरी तरह से सकारात्मक चीज है और सिर्फ सकारात्मक नतीजे ही हासिल कर सकती है। तो “परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं” का सटीक अर्थ क्या है? (इसका अर्थ है परमेश्वर के सामने अधिक बार आना और सत्य को समझने और जिन चीजों का व्यक्ति सामना करता है उनमें परमेश्वर की इच्छा समझने की चाह और आकांक्षा रखना।) सही कहा, यह इतनी सीधी-सरल बात है। इसका मतलब सिर्फ अपने दैहिक हित और सुख त्यागना है, और अपना निजी फुरसत का समय त्यागना और उस समय का उपयोग सकारात्मक चीजों के लिए करना भी है, जैसे कि परमेश्वर से माँगना, परमेश्वर से प्रार्थना करना, परमेश्वर के सामने आना और परमेश्वर की संप्रभुता समझने की कोशिश करना। यह किसी चीज के लिए तर्कसंगत ढंग से प्रार्थना करना और सत्य के किसी पहलू को समझने के लिए खोजना, अपना समय और ऊर्जा खर्च करना और एक निश्चित कीमत चुकाना है। इसे परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं कहा जाता है। क्या इसका वर्णन करने का यह एक सटीक तरीका है? क्या यह सामान्य मानवता के विवेक के अनुरूप है? क्या इन वचनों को समझना आसान है? (बिल्कुल।) तो, क्या इन अभिव्यक्तियों में यह शामिल है कि व्यक्ति जो चाहता है, उसे दाँत और पंजे दिखाकर हिंसक रूप से झपट ले? क्या यह अशिष्टता, उतावलेपन और बुद्धि की कमी में अभिव्यक्त होता है? (नहीं।) तो फिर “काफ़ी” का क्या मतलब है? मैंने अभी-अभी जो तुम लोगों से कहा, उसे दोहराओ। (इसका अर्थ है अक्सर परमेश्वर के सामने आने में सक्षम होना, सत्य को समझने की आकांक्षा रखना, कुछ दैहिक सुख त्यागने में सक्षम होना, सत्य खोजने में अधिक समय और ऊर्जा खर्च करना और इसके लिए ऊर्जा खर्च करने और कीमत चुकाने में सक्षम होना।) तो इसे ठोस रूप से कैसे अभ्यास में लाया जाता है? मैं एक उदाहरण देता हूँ। कभी-कभी तुम्हें अचानक एहसास होगा कि अपने पसंदीदा अभिनेता को देखे हुए काफी समय हो गया है और तुम सोचोगे कि वह किन-किन फिल्मों में है। तुम कंप्यूटर पर उसके बारे में समाचार खोजना चाहोगे, लेकिन फिर तुम चिंतन कर सोचोगे, “यह सही नहीं है, जिन फिल्मों में वह अभिनय करता है, उनका मुझसे क्या लेना-देना है? हर समय फिल्में देखना अपने उचित कार्य की उपेक्षा करना कहलाता है। मुझे परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करनी होगी।” तब तुम परमेश्वर की उपस्थिति में शांत हो जाओगे और उस समस्या को याद करोगे, जिसका उत्तर तुम पहले ढूँढ़ रहे थे। तुम्हें अभी भी उस मामले की कोई समझ नहीं है और तुम उसे बिल्कुल नहीं समझते, इसलिए तुम बस परमेश्वर के सामने अपने दिल को शांत करोगे और उससे प्रार्थना करोगे। “हे परमेश्वर, मैं अपना दिल तुम्हारे सामने रखने को तैयार हूँ। हाल ही में मैं जिस परिवेश का अनुभव कर रहा हूँ, उसने मुझ पर बहुत प्रभाव डाला है। फिर भी मैं अभी भी समर्पण नहीं कर पाता और मैं अभी भी स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता कि यह तुम्हारी संप्रभुता है। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो, मेरा मार्गदर्शन करो, और उन परिवेशों में मेरी भ्रष्टता और विद्रोहीपन प्रकट करो जो तुमने मेरे लिए व्यवस्थित किए हैं, ताकि मैं तुम्हारी इच्छा समझकर समर्पण कर सकूँ।” प्रार्थना करने के बाद तुम चिंतन कर सोचोगे, “नहीं, मेरी समस्या अभी भी हल नहीं हुई है। समाधान खोजने के लिए मुझे परमेश्वर के और वचन पढ़ने की जरूरत है।” फिर तुम तुरंत कुछ समय के लिए परमेश्वर के वचन पढ़ने लगोगे। समय देखकर तुम कहोगे, “ओह, आधा घंटा पहले ही बीत चुका है! परमेश्वर के वचन वास्तव में अच्छे हैं, लेकिन जो अंश मैंने पढ़ा वह मेरी समस्या से बिल्कुल भी संबंधित नहीं है, इसलिए मेरी समस्या अभी भी हल नहीं हुई है। मैं नहीं जानता कि परमेश्वर मेरे लिए इस परिवेश की व्यवस्था करके मुझे क्या समझाना चाहता है और मैं उसकी इच्छा भी नहीं जानता। मुझे अपना कर्तव्य निभाते हुए जल्दी से काम पर लग जाना चाहिए और महत्वपूर्ण मामले टालने नहीं चाहिए। शायद किसी दिन मैं परमेश्वर के उचित वचन पढ़ लूँगा और अपनी समस्या हल कर लूँगा।” क्या यह समय और ऊर्जा खर्च करना है? (बिल्कुल।) यह बिल्कुल इतना ही सरल है। अपनी प्राथमिकताओं से विद्रोह करने और अपने मनोरंजन और अवकाश का समय त्यागने से तुम ईमानदारी की एक नन्ही-सी बूँद प्राप्त करोगे और थोड़ी-सी परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाओं का अभ्यास करोगे। अपने दिल में तुम बेहद सहजता और शांति महसूस करोगे। अपने जीवन में पहली बार तुम व्यक्तिगत रूप से दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने और अपनी देह का आनंद छोड़ने की महान शांति और पोषण अनुभव करोगे। तुम व्यक्तिगत रूप से इस बात का भी स्वाद लोगे कि परमेश्वर के सामने खुद को शांत करने, उसके वचन पढ़ने, परमेश्वर के सामने अपना दिल खोलने और उससे अपने दिल की बात कहने से तुम्हें कितनी शांति और संतुष्टि मिलती है—जो रुझानों और सामाजिक मामलों की परवाह करने से नहीं मिल सकती—और तुम इससे कुछ हासिल भी कर सकते हो, सत्य को समझ सकते हो और कई चीजों की असलियत जान सकते हो। नतीजतन, तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर के वचन वास्तव में अच्छे हैं, कि परमेश्वर वास्तव में अच्छा है और सत्य प्राप्त करना वास्तव में खजाना प्राप्त करना है। न केवल तुम बिना किसी भ्रम के कई चीजें समझने में सक्षम होगे, बल्कि तुम परमेश्वर के सामने रहने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में भी सक्षम होगे। ये वे प्रभाव हैं जो परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं हासिल कर सकती हैं। इस तरह से अभ्यास करना, अपना समय और ऊर्जा लगाना और अपनी देह का आनंद छोड़ना—यह परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाओं की अभिव्यक्तियों में से एक है। तो, तुम लोग क्या कहते हो? क्या यह अभिव्यक्ति खोखली है? (यह खोखली नहीं है।) क्या इसे हासिल करना आसान है? (बिल्कुल।) इसे हासिल करना बहुत आसान है। यह ऐसी चीज है जिसे सामान्य मानवता वाले लोग हासिल कर सकते हैं।

जब लोगों के पास विचार होते हैं, तो उनके पास विकल्प होते हैं। अगर उनके साथ कुछ हो जाता है और वे गलत विकल्प चुन लेते हैं, तो उन्हें वापस मुड़ना चाहिए और सही विकल्प चुनना चाहिए; उन्हें अपनी गलती पर अड़े नहीं रहना चाहिए। ऐसे लोग चतुर होते हैं। लेकिन अगर वे जानते हैं कि उन्होंने गलत विकल्प चुना है और फिर भी वापस नहीं मुड़ते, तो फिर वे ऐसे इंसान हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते, और ऐसा इंसान वास्तव में परमेश्वर को नहीं चाहता। उदाहरण के लिए मान लो, अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम अनमने रहना चाहते हो। तुम ढिलाई बरतने और परमेश्वर की जाँच से बचने की कोशिश करते हो। ऐसे समय में, प्रार्थना करने के लिए जल्दी से परमेश्वर के सामने जाओ, और विचार करो कि क्या यह कार्य करने का सही तरीका है। फिर इस बारे में सोचो : “मैं परमेश्वर में विश्वास क्यों करता हूँ? इस तरह का अनमनापन भले ही लोगों की नजर से बच जाए, लेकिन क्या परमेश्वर की नजर से बचेगा? इसके अलावा, परमेश्वर में मेरा विश्वास ढीला होने के लिए नहीं है—यह बचाए जाने के लिए है। मेरा इस तरह काम करना सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति नहीं है, न ही यह परमेश्वर को प्रिय है। नहीं, मैं बाहरी दुनिया में ढिलाई बरतकर जैसा चाहूँ वैसा कर सकता हूँ, लेकिन अब मैं परमेश्वर के घर में हूँ, मैं परमेश्वर की संप्रभुता में हूँ, परमेश्वर की आँखों की जाँच के अधीन हूँ। मैं एक इंसान हूँ, मुझे अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना चाहिए, मैं जैसा चाहूँ वैसा नहीं कर सकता। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करना चाहिए, मुझे अनमना नहीं होना चाहिए, मैं सुस्त नहीं हो सकता। तो सुस्त और अनमना न होने के लिए मुझे कैसे काम करना चाहिए? मुझे कुछ प्रयास करना चाहिए। अभी मुझे लगा कि इसे इस तरह करना बहुत अधिक कष्टप्रद था, मैं कठिनाई से बचना चाहता था, लेकिन अब मैं समझता हूँ : ऐसा करने में बहुत परेशानी हो सकती है, लेकिन यह कारगर है, और इसलिए इसे ऐसे ही किया जाना चाहिए।” जब तुम काम कर रहे होते हो और फिर भी कठिनाई से डरते हो, तो ऐसे समय तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर! मैं आलसी और मक्कार हूँ, मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे अनुशासित करो, मुझे फटकारो, ताकि मेरा अंतःकरण कुछ महसूस करे और मुझे शर्म आए। मैं अनमना नहीं होना चाहता। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे मेरी विद्रोहशीलता और कुरूपता दिखाने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे प्रबुद्ध करो।” जब तुम इस प्रकार प्रार्थना करते हो, चिंतन कर खुद को जानने का प्रयास करते हो, तो यह खेद की भावना उत्पन्न करेगा, और तुम अपनी कुरूपता से घृणा करने में सक्षम होगे, और तुम्हारी गलत दशा बदलने लगेगी, और तुम इस पर विचार करने और अपने आप से यह कहने में सक्षम होगे, “मैं अनमना क्यों हूँ? मैं हमेशा ढिलाई बरतने की कोशिश क्यों करता हूँ? ऐसा कार्य करना अंतःकरण या विवेक से रहित होना है—क्या मैं अब भी ऐसा इंसान हूँ जो परमेश्वर में विश्वास करता है? मैं चीजों को गंभीरता से क्यों नहीं लेता? क्या मुझे थोड़ा और समय और प्रयास लगाने की जरूरत नहीं? यह कोई बड़ा बोझ नहीं है। मुझे यही करना चाहिए; अगर मैं यह भी नहीं कर सकता, तो क्या मैं इंसान कहलाने के लायक हूँ?” नतीजतन, तुम एक संकल्प करोगे और शपथ लोगे : “हे परमेश्वर! मैंने तुम्हें नीचा दिखाया है, मैं वास्तव में बहुत गहराई तक भ्रष्ट हूँ, मैं अंतःकरण या विवेक से रहित हूँ, मुझमें मानवता नहीं है, मैं पश्चात्ताप करना चाहता हूँ। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे माफ कर दो, मैं निश्चित रूप से बदल जाऊँगा। अगर मैं पश्चात्ताप नहीं करता, तो मैं चाहूँगा कि तुम मुझे दंड दो।” बाद में तुम्हारी मानसिकता पूरी तरह बदल जाएगी और तुम बदलने लगोगे। तुम कम अनमने होकर कार्य करोगे, कर्तव्यनिष्ठा से अपने कर्तव्य निभाओगे और कष्ट उठाने और कीमत चुकाने में सक्षम होगे। तुम महसूस करोगे कि इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना अद्भुत है, और तुम्हारे हृदय में शांति और आनंद होगा। जब लोग परमेश्वर की जाँच स्वीकार पाते हैं, जब वे उससे प्रार्थना कर पाते हैं और उस पर भरोसा कर पाते हैं, तो उनकी अवस्थाएँ जल्दी ही बदल जाएँगी। जब तुम्हारे दिल की नकारात्मक अवस्था बदल चुकी होती है, और तुम अपने इरादों और देह की स्वार्थपरक इच्छाओं से विद्रोह कर चुके होते हो, जब तुम दैहिक सुख और आनंद छोड़ने में सक्षम रहते हो और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करते हो, और अब मनमाने या लापरवाह नहीं रहते, तो तुम्हारे दिल में शांति होगी और तुम्हारा अंतःकरण तुम्हें धिक्कारेगा नहीं। क्या इस तरह से देह-सुख से विद्रोह करना और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना आसान है? अगर लोगों में परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं हैं, तो वे देह-सुख से विद्रोह कर सत्य का अभ्यास कर सकते हैं। और अगर तुम इस तरह से अभ्यास करने में सक्षम रहते हो, तो अनजाने ही तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहे होगे। यह बिल्कुल भी मुश्किल नहीं होगा। निस्संदेह, सत्य का अभ्यास करते समय तुम्हें संघर्ष की प्रक्रिया और अपनी सोच बदलने की प्रक्रिया से गुजरना होगा, और इन्हें सत्य खोजकर हल किया जाना चाहिए। अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम नहीं करता तो तुम्हारे लिए अपनी नकारात्मक अवस्था हल करना कठिन होगा और तुम सत्य को समझने और उसका अभ्यास करने में सक्षम नहीं होगे। अपनी सोच बदलने की प्रक्रिया में व्यक्ति कितनी कठिनाई का सामना करता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह सत्य स्वीकार सकता है या नहीं। अगर वह सत्य नहीं स्वीकार सकता तो उसके लिए अपनी सोच बदलना बहुत कठिन होगा। दूसरी ओर, जो लोग सत्य स्वीकार सकते हैं, उन्हें यह बिल्कुल भी कठिन नहीं लगेगा। वे स्वाभाविक रूप से सत्य का अभ्यास करने और उसके प्रति समर्पित होने में सक्षम होंगे। जो लोग वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं, वे किसी भी स्तर की कठिनाइयों पर काबू पाने के लिए परमेश्वर पर भरोसा कर सकते हैं। इस तरह उनके पास अनुभवात्मक गवाही होगी, और यह एक ऐसा हृदय है जिसमें परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं हैं। चूँकि तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं हैं, तो क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें भ्रष्टता और विद्रोहीपन नहीं रखने दिया जाता? नहीं। इसका मतलब यह है कि चूँकि तुम्हारे पास परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं रखने वाला दिल है, इसलिए तुम कम से कम अपने अंतःकरण और विवेक के अनुसार कार्य कर सत्य खोज सकते हो। इस तरह तुम किसी भी स्थिति में सही विकल्प चुन सकते हो और सही दिशा में अभ्यास और प्रवेश कर सकते हो। इसे कहते हैं परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं रखने वाला हृदय। क्या ये अभिव्यक्तियाँ खोखली हैं? (ये खोखली नहीं हैं।) ये खोखली या अस्पष्ट नहीं हैं, ये बहुत व्यावहारिक और ठोस हैं और बिल्कुल भी अमूर्त नहीं हैं। कुछ लोग कहते हैं : “ओह, मैंने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, लेकिन जब भी सत्य का अभ्यास करने का समय आता है तो मुझे हमेशा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। मैं इतना चिंतित हो जाता हूँ कि पसीने से लथपथ हो जाता हूँ, फिर भी मेरे पास कोई मार्ग नहीं होता। मैं हमेशा बिना कोई शारीरिक कष्ट उठाए या बिना अपने हितों को कोई नुकसान पहुँचाए सत्य का अभ्यास करना चाहता हूँ, और नतीजतन मुझे कोई मार्ग नहीं मिल पाता। अब जाकर मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं रखने वाला दिल रखना कितना सरल है। काश, मुझे यह पहले पता होता और मैं इन वचनों को पहले अभ्यास में ला पाता!” परमेश्वर के वचनों का अभ्यास न करने के लिए तुम किसे दोष दोगे? किसने तुम्हें इन तमाम वर्षों में परमेश्वर के वचनों को सँजोने के बजाय आँख मूँदकर इधर-उधर छटपटाने के लिए मजबूर किया? अब, हम एक वाक्य में सारांश निकाल सकते हैं : जब तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो तो तुम्हें सत्य को समझने के लिए परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करना चाहिए; सिर्फ उस बिंदु पर पहुँचकर ही तुम परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त कर सकते हो जहाँ तुम मामले सत्य सिद्धांतों के अनुसार सँभालते हो। तुम्हें चीजें अपनी इच्छा के अनुसार बिल्कुल नहीं करनी चाहिए, न ही प्रसिद्धि और लाभ का अनुसरण करना चाहिए, और तुम्हें कलीसिया में गुट नहीं बनाने चाहिए, न ही समर्थक तलाशने चाहिए। ऐसा करने वालों का कोई अच्छा अंत नहीं होगा। जो लोग अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, जो हमेशा दूसरे लोगों का मुँह जोहते हैं और उनके भरोसे रहते हैं, और जो बेमतलब हंगामा करने में झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों का अनुसरण करना पसंद करते हैं, वे सब इधर-उधर छटपटाकर अपना विनाश कर लेते हैं और उद्धार का मौका गँवा देते हैं। इससे वे हक्के-बक्के रह जाएँगे। अगर तुम खुद को अपनी मनमानी करने से रोकना चाहते हो तो तुम्हें परमेश्वर के सामने ज्यादा आना चाहिए और उससे प्रार्थना कर हर चीज में सत्य खोजना चाहिए। इस तरह से तुम सत्य को समझने का नतीजा प्राप्त कर सकते हो, सत्य का अभ्यास करने के मार्ग पर चल सकते हो और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो। यहाँ मुख्य बात यह है कि तुम्हें कभी एक दिन किसी एक व्यक्ति को महान समझकर उसका अनुसरण करते हुए तो कभी दूसरे दिन किसी और को सही समझकर उसका अनुसरण करते हुए दूसरे लोगों का अनुसरण नहीं करना चाहिए या उनके साथ नहीं जाना चाहिए और सत्य प्राप्त किए बिना इधर-उधर भटकने पर इतना ज्यादा समय खर्च नहीं करना चाहिए। चाहे तुम किसी भी समस्या का सामना क्यों न करो, तुम्हें सत्य खोजकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार उसका समाधान करना चाहिए। अगर तुम आँख मूँदकर अन्य लोगों का अनुसरण करते हो, जो भी अच्छा बोलता है और आडंबरपूर्ण शब्दों का उपयोग करता है उसका अनुसरण करते हो तो तुम्हारे धोखा खाने की संभावना है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें सिर्फ यह विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, उन्हें सिर्फ परमेश्वर के वचन सुनने चाहिए और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। ऐसा करने से तुम दूसरे लोगों का अनुसरण करने और उनके साथ गलत रास्ते पर जाने से बच जाओगे।

आगे बढ़ो और अगली पंक्ति पढ़ो। (“तुम्हें शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए तत्परता से खोज करनी चाहिये।”) यह भी अभ्यास के बारे में है। “तत्परता से खोज” का अर्थ है सत्य का अभ्यास करने की चाह रखना लेकिन मार्ग न होना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने की चाह रखना लेकिन यह न जानना कि अभ्यास कैसे करें—जब तुम इस तरह से तत्पर होते हो, तो तुम खोज और प्रार्थना करोगे। लगातार यह महसूस करना कि तुममें बहुत कमी है, विशेष रूप से, अपने साथ कुछ घटित होने पर मार्ग का अभाव महसूस करना, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए क्या करना चाहिए यह न जानना, हमेशा विद्रोह करना और बेचैन दिल से चीजों को वैसे करना जैसे तुम करना चाहते हो, सत्य का अभ्यास करने की चाह रखना लेकिन यह न जानना कि उसे कैसे करें—यह तत्पर होने की भावना है। अगर तुम तत्पर हो तो तुम्हें अवश्य खोजना चाहिए। अगर तुम खोजोगे नहीं तो तुम्हारे पास कोई मार्ग नहीं होगा। अगर तुम खोजोगे नहीं तो अंधकार में घिर जाओगे। अगर तुम कभी नहीं खोजोगे तो खत्म हो जाओगे। तुम नास्तिक होगे। “शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए तत्परता से खोज करने” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि जब लोग स्थितियों का सामना करते हैं, तो उनकी हमेशा अपनी इच्छा होती है, वे हमेशा अपने दैहिक हितों के बारे में सोचते हैं, और वे हमेशा देह-सुख के लिए कोई मार्ग तलाशते हैं। ऐसे समय में तुम्हारा अंतःकरण तुम्हें धिक्कारेगा, तुम्हें सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के लिए प्रेरित करेगा। ऐसी स्थितियों में तुम्हारे हृदय में संघर्ष होगा, और तुम्हें शैतान के बहानों और देह के विभिन्न तर्कों को अस्वीकार करना चाहिए। “अस्वीकार करने” का अर्थ है सत्य का अभ्यास न करने के लिए लोगों के उन विभिन्न बहानों और कारणों को जानने-समझने में सक्षम होना जो शैतान के इरादे और चालें हैं, और फिर इनसे विद्रोह करना। यही अस्वीकार की प्रक्रिया है। कभी-कभी लोगों में कुछ भ्रष्ट विचार, इरादे और उद्देश्य, और साथ ही कुछ इंसानी ज्ञान, फलसफे, सिद्धांत, और दूसरों से बातचीत करने के तरीके, साधन, तरकीबें और योजनाएँ आदि उत्पन्न हो जाती हैं। जब ऐसा होता है तो लोगों को तुरंत पता चल जाना चाहिए कि ये भ्रष्ट चीजें उनसे प्रकट हो रही हैं, और उन्हें उनको पकड़ना चाहिए, सत्य खोजना चाहिए, उनका पूरी तरह से गहन-विश्लेषण करना चाहिए, उनकी वास्तविकता स्पष्ट रूप से देखनी चाहिए, और उन्हें शुरुआत में ही पूरी तरह से अस्वीकार कर उनसे विद्रोह कर देना चाहिए। चाहे जब भी हो, अगर व्यक्ति में भ्रष्ट मत, विचार, इरादे या धारणाएँ पैदा होती हैं तो उन्हें उन चीजों को तुरंत पकड़ना चाहिए, उन्हें जानना-समझना चाहिए, उनसे विद्रोह कर देना चाहिए और फिर खुद को बदलना चाहिए। प्रक्रिया ऐसी ही है। शैतान को अस्वीकार करने और देह-सुख से विद्रोह का अभ्यास इसी तरह करना है। क्या यह बहुत आसान नहीं है? असल में इस प्रक्रिया के बारे में अभी दिए गए दो उदाहरणों में पहले ही बात की जा चुकी है। यह उन अनुचित दशाओं से निपटने के लिए अभ्यास का एक सिद्धांत है, जो लोगों में तब उत्पन्न होती हैं, जब उन पर चीजें आकर पड़ती है।

पढ़ते रहो। (“निराश मत हो। कमज़ोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतज़ार करो।”) इसका मतलब है अपने पूरे दिल और दिमाग से खोजना और इंतजार करना। इन चार सरल वाक्यांशों “निराश मत हो। कमज़ोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतज़ार करो” के दो अर्थ हैं। वे दो अर्थ क्या हैं? (पहला है कि निराश मत हो और कमज़ोर मत बनो। यानी कठिनाइयों का सामना करने या अपनी खोज की प्रक्रिया में क्षण भर के लिए चीजें न समझ पाने पर हिम्मत न हारो या हतोत्साहित न हो। दूसरा यह है कि तुम्हें पूरे दिल से खोजना और इंतजार करना चाहिए। यानी तुम्हें अपनी खोज की प्रक्रिया में दृढ़ता रखनी चाहिए, जब समझ न आए तो खोजते और प्रार्थना करते रहना चाहिए, और परमेश्वर की इच्छा प्रकट होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। यह दूसरा अर्थ है।) “निराश मत हो। कमज़ोर मत बनो” का अर्थ है कि लोगों को परमेश्वर में सच्ची आस्था बनाए रखनी चाहिए, विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, और कि परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध कर सत्य समझने में सक्षम बना सकता है। तो तुम सत्य को अभी क्यों नहीं समझ सकते? परमेश्वर तुम्हें अभी प्रबुद्ध क्यों नहीं करता? इसका कोई कारण होना चाहिए। इसका एक मूल कारण क्या है? बस यही कि परमेश्वर का समय नहीं आया है। परमेश्वर तुम्हारी आस्था का परीक्षण कर रहा है और साथ ही वह तुम्हारी आस्था मजबूत करने के लिए इस पद्धति का उपयोग करना चाहता है। यह बुनियादी चीज है जिसे लोगों को समझना और जानना चाहिए। मान लो, तुमने परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया है, तुमने प्रार्थना की है, तुमने खोज की है, तुम्हारे पास परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा रखने वाला दिल है, तुमने परमेश्वर के वचन सँजोने शुरू कर दिए हैं, तुम परमेश्वर के वचनों में रुचि रखते हो, और तुम अक्सर परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने, परमेश्वर के सामने आने, उससे न भटकने और चीजें करते समय खोजने की खुद को याद दिलाते हो। लेकिन तुम मन-ही-मन सोचते हो, “मुझे नहीं लगता कि मैंने स्पष्ट रूप से महसूस किया है कि परमेश्वर ने मुझे कोई विशेष प्रबुद्धता, रोशनी या मार्गदर्शन दिया है, यहाँ तक कि मुझे इस बात का स्पष्ट एहसास भी नहीं है कि मैं जो कर्तव्य निभाता हूँ, उसके लिए परमेश्वर ने मुझे कोई विशेष गुण, प्रतिभा या विशेष योग्यताएँ दी हैं। इसके बजाय मुझे लगता है कि जो लोग मेरे बराबर नहीं हैं, वे मुझसे ज्यादा समझते हैं, अपने कर्तव्य बेहतर ढंग से निभाते हैं, और सुसमाचार फैलाने में अधिक कुशल हैं। मैं दूसरे लोगों जितना अच्छा क्यों नहीं हूँ? मैं क्यों अभी भी उसी स्थान पर खड़े रहकर कम प्रगति कर रहा हूँ?” इसके दो कारण हैं : एक तो यह कि लोगों के पास खुद कई समस्याएँ हैं, जैसे कि खोजने में उनके व्यक्तिगत तरीके, इरादे और उद्देश्य, और साथ ही परमेश्वर से प्रार्थना और अनुरोध करने में उनके इरादे और उद्देश्य, इत्यादि। इन सभी चीजों में तुम्हें चिंतन करने, ज्ञान प्राप्त करने, अपने भीतर की समस्याओं का पता लगाने और तुरंत अपना ढर्रा बदलने की आवश्यकता है। इसके बारे में विस्तार से जाने की जरूरत नहीं। दूसरा कारण यह है कि जब यह बात आती है कि परमेश्वर विभिन्न लोगों को कितना देता है और कैसे प्रदान करता है तो परमेश्वर का अपना तरीका होता है। परमेश्वर ने ये वचन कहे हैं : “मैं जिस पर अनुग्रह करना चाहूँ उसी पर अनुग्रह करूँगा, और जिस पर दया करना चाहूँ उसी पर दया करूँगा” (निर्गमन 33:19)। हो सकता है कि तुम परमेश्वर के अनुग्रह के पात्र हो, हो सकता है कि तुम उसकी दया के पात्र हो या शायद तुम उन दो तरह के लोगों में से कोई न हो जिनके बारे में परमेश्वर ने बात की है। हो सकता है, परमेश्वर सोचता हो कि तुम दूसरे लोगों की तुलना में ज्यादा मजबूत हो या तुम्हें अपने परीक्षण और संयम के लिए दूसरों की तुलना में अधिक समय की आवश्यकता है। कई कारण हैं लेकिन चाहे कोई भी कारण हो, परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह सही होता है। लोगों को परमेश्वर से कोई असंयत माँग नहीं करनी चाहिए। सिर्फ एक चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है दिल की गहराइयों से खोज करो और पूरी लगन से इंतज़ार करो। इससे पहले कि परमेश्वर तुम्हें समझने दे और तुम्हें उत्तर दे, सिर्फ एक चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है खोजना और साथ ही उस समय का इंतजार करना जब परमेश्वर तुम्हें कुछ देगा, उस समय का जब परमेश्वर तुम पर अनुग्रह करेगा, और उस समय का जब परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा और तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। इंसानी धारणाओं के विपरीत, परमेश्वर लोगों को चीजें समान रूप से वितरित नहीं करता, इसलिए तुम परमेश्वर से माँग करने के लिए “समान” शब्द का उपयोग नहीं कर सकते। जब परमेश्वर तुम्हें कुछ देता है तो यह वह समय होता है जब तुम्हें उसे प्राप्त करना चाहिए। जब परमेश्वर तुम्हें कुछ नहीं देता तो स्पष्ट रूप से वह समय परमेश्वर की नजर में उपयुक्त या सही नहीं है, इसलिए तुम्हें उस समय उसे प्राप्त नहीं करना चाहिए। जब परमेश्वर कहता है कि तुम्हें को चीज नहीं मिलनी चाहिए और परमेश्वर उसे तुम्हें देना नहीं चाहता तो तुम्हें क्या करना चाहिए? विवेकवान व्यक्ति कहेगा, “अगर परमेश्वर मुझे यह नहीं देता तो मैं समर्पित होकर प्रतीक्षा करूँगा। फिलहाल मैं इसे प्राप्त करने के योग्य नहीं हूँ, शायद इसलिए कि मेरा आध्यात्मिक कद इसे सँभाल नहीं सकता, लेकिन मेरा दिल बिना किसी शिकायत या शंका के, और निश्चित रूप से बिना किसी संदेह के परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकता है।” इस समय लोगों को अपना विवेक नहीं खोना चाहिए। परमेश्वर तुम्हारे साथ चाहे कैसा भी व्यवहार करे, तुम्हें विवेक के साथ परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चुनना चाहिए। सृजित प्राणियों का परमेश्वर के प्रति एक ही रवैया होना चाहिए—सुनना और समर्पण करना, कोई अन्य विकल्प नहीं है। लेकिन परमेश्वर के तुम्हारे प्रति विभिन्न रवैये हो सकते हैं। इसका एक आधार है। परमेश्वर की अपनी इच्छा है। जब ये चीजें करने और प्रत्येक व्यक्ति के प्रति रवैया अपनाने की बात आती है, तो वह अपने विकल्प खुद चुनता है और उसके अपने तरीके होते हैं। बेशक, इन विकल्पों और तरीकों के पीछे परमेश्वर के इरादे होते हैं। इससे पहले कि लोगों को परमेश्वर के इरादों की समझ हो, सिर्फ एक चीज जो उन्हें करनी चाहिए और जो वे कर सकते हैं, वह है परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने के लिए कुछ भी करने से बचते हुए खोज और इंतजार करना। लोगों को ऐसे समय—यानी जब उन्हें परमेश्वर की प्रबुद्धता, मार्गदर्शन, अनुग्रह और दया महसूस न हो—जो चीज नहीं करनी चाहिए, वह है परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन महसूस न कर पाने पर परमेश्वर से भटक जाना और कहना कि वह धार्मिक नहीं है, या परमेश्वर पर चिल्लाना, या उसे नकार तक देना। यह वह चीज है जिसे परमेश्वर सबसे कम देखना चाहता है। निस्संदेह, अगर तुम वास्तव में परमेश्वर को नकारने, उसकी धार्मिकता को नकारने, उसकी पहचान और उसके सार को नकारने और परमेश्वर पर चिल्लाने के बिंदु पर पहुँच जाते हो, तो यह पुष्टि करेगा कि परमेश्वर ने शुरुआत में ही तुम पर ध्यान न देने का रवैया अपनाकर सही किया था। अगर तुम इस छोटे-से परीक्षण और परीक्षा का भी सामना नहीं कर सकते, तो तुम्हारी परमेश्वर में थोड़ी-सी भी आस्था नहीं है और तुम्हारा विश्वास बहुत खोखला है। जब व्यक्ति परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन महसूस नहीं करता, तो उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज पूरे दिल से खोजना और इंतजार करना है। खोजना और इंतजार करना मनुष्य की जिम्मेदारियाँ हैं, और ये वो विवेक, रवैया और अभ्यास का सिद्धांत भी हैं जो लोगों को परमेश्वर के प्रति अपनाना चाहिए। खोजते और इंतजार करते समय संयोग पर आधारित मानसिकता मत पालो। हमेशा यह मत सोचो, “शायद अगर मैं इंतजार करूँ तो परमेश्वर मुझे स्पष्ट वचन प्रदान करेगा। मुझे बस थोड़ा और ईमानदार होने और यह देखने की जरूरत है कि परमेश्वर मुझे प्रबुद्ध करता है या नहीं। शायद वह मुझे प्रबुद्ध कर देगा। अगर वह ऐसा नहीं करता तो मैं कोई और तरीका सोचूँगा।” संयोग पर आधारित इस तरह की मानसिकता न पालो। परमेश्वर लोगों के इस तरह के रवैये से घृणा करता है। यह कैसा रवैया है? यह संयोग का रवैया है, इसमें प्रलोभन है। यही वह चीज है जिससे परमेश्वर सबसे अधिक घृणा करता है। अगर तुम इंतजार करने जा रहे हो तो ईमानदारी से करो। परमेश्वर से प्रार्थना करते और सत्य खोजते हुए, अपनी व्यावहारिक समस्याओं का समाधान करते हुए और प्रबुद्धता और मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर से विनती करते हुए धार्मिकता के लिए भूख-प्यास रखने की मानसिकता अपनाओ। परमेश्वर तुम्हारे साथ चाहे कैसा भी व्यवहार करे या वह अंततः तुम्हें पूरी समझ प्राप्त करने दे या नहीं, तुम्हें बिना किसी विचलन के समर्पण के सिद्धांत का पालन करना चाहिए। इस तरह तुम उस रुतबे और कर्तव्य को दृढ़ता से पकड़े रहोगे जो एक सृजित प्राणी के पास होना चाहिए। चाहे परमेश्वर अंततः अपना चेहरा तुमसे छिपा ले, चाहे वह तुम्हें सिर्फ अपनी पीठ दिखाए, या चाहे वह तुम्हारे सामने प्रकट हो जाए, अगर तुम अपने कर्तव्य और एक सृजित प्राणी के रूप में अपने मूल स्थान पर अडिग रहते हो तो तुमने गवाही दे दे होगी और तुम विजेता हो जाओगे। “निराश मत हो। कमज़ोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतज़ार करो।” ये चार लघु कथन बहुत महत्वपूर्ण हैं। इनमें वह विवेक है जो मनुष्य के पास होना चाहिए, वह मूल स्थान है जिस पर मनुष्य को खड़ा होना चाहिए और अभ्यास का वह मार्ग शामिल है जिसे मनुष्य को अपनाना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “हम सब अपने पूरे दिलो-दिमाग से खोजते और इंतजार करते हैं तो फिर परमेश्वर हमें प्रबुद्ध क्यों नहीं करता? वह मुझे कोई प्रेरणा क्यों नहीं देता?” परमेश्वर की अपनी इच्छा है। परमेश्वर से माँग मत करो। यह सामान्य मानवता का विवेक है; यह वह विवेक है जो सृजित प्राणियों में सबसे अधिक होना चाहिए। मनुष्य के मन, विचारों और धारणाओं के अनुसार, बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें लोग नहीं समझते, और परमेश्वर को ये चीजें लोगों को बतानी ही चाहिए। लेकिन परमेश्वर कहता है, “तुम्हें ये चीजें बताना मेरी जिम्मेदारी या दायित्व नहीं है। अगर मैं चाहता हूँ कि तुम कुछ जानो तो तुम थोड़ा जान लोगे, और यह मैं तुम पर कृपा करूँगा। जब मैं नहीं चाहता कि तुम कुछ जानो, तो मैं उसके बारे में एक शब्द भी नहीं कहूँगा, और यह भी नहीं सोचूँगा कि तब तुम उसे समझ पाओगे!” कुछ लोग कहते हैं : “हे परमेश्वर, तुम इसमें खुद को हमारे खिलाफ खड़ा क्यों कर रहे हो?” परमेश्वर खुद को तुम्हारे खिलाफ खड़ा नहीं कर रहा। सृष्टिकर्ता सदैव सृष्टिकर्ता रहेगा, और उसके काम करने के अपने ढंग और तरीके हैं। हालाँकि उसके ढंग और तरीके मनुष्य की रुचियों या विचारों और धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, और मनुष्य की पारंपरिक संस्कृति के अनुरूप निश्चित रूप से नहीं हैं, फिर भी चाहे वे मनुष्य के जिन भी पहलुओं के अनुरूप न हों, सरल शब्दों में कहें तो, इस तथ्य के बावजूद कि वे मनुष्य की अपेक्षाओं और मानकों के साथ मेल नहीं खाते—चाहे सृष्टिकर्ता कुछ भी करे, और चाहे लोग उसे समझ पाएँ या नहीं, सृष्टिकर्ता की पहचान और सार कभी नहीं बदलेगा। लोगों को सृष्टिकर्ता को मापने के लिए कभी इंसानी भाषा, इंसानी धारणाओं या किसी इंसानी तरीके का उपयोग नहीं करना चाहिए। लोगों में यह विवेक होना चाहिए। अगर तुममें इतना-सा भी विवेक नहीं है, तो मैं ईमानदारी से कहूँगा—तुम एक सृजित प्राणी की तरह कार्य करने में सक्षम नहीं हो। किसी दिन, देर-सबेर, तुम्हारे साथ कुछ बुरा घटित होगा। अगर तुममें इतना-सा भी विवेक नहीं है, तो किसी दिन, देर-सबेर, तुम्हारा शैतानी स्वभाव फूटकर बाहर आ जाएगा। उस समय, तुम परमेश्वर पर संदेह करोगे, परमेश्वर को गाली दोगे, परमेश्वर को नकारोगे और परमेश्वर को धोखा दोगे। तब तुम पूरी तरह से समाप्त हो जाओगे, और तुम्हें त्याग दिया जाना चाहिए। इसलिए सृजित प्राणियों में जो विवेक होना चाहिए, वह बहुत महत्वपूर्ण है। “निराश मत हो। कमज़ोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतज़ार करो।” ये चार कथन वह विवेक और वे सिद्धांत हैं जो सृजित प्राणियों में उन विभिन्न परिवेशों से निपटने के लिए, जिनका लोग अक्सर अपने वास्तविक जीवन में सामना करते हैं, और परमेश्वर के साथ अपना रिश्ता बेहतर बनाने के लिए होने चाहिए।

इस अंश के पहले भाग में कहा गया है, “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो,” और आखिरी से पहली पंक्ति में कहा गया है, “दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतज़ार करो।” कुछ लोग कहते हैं : “क्या ‘उस बात के लिये नाराज़ मत हो’ वचनों का अनकहा अर्थ यह है कि अंतिम परिणाम निश्चित है? अगर हम दिल की गहराइयों से खोजते और इंतजार करते हैं, दिल से परमेश्वर के अत्यधिक आकांक्षी हैं और परमेश्वर के वचनों के लिए लालायित रहते हैं, तो क्या यह आवश्यक हो जाता है कि परमेश्वर हमें उत्तर दे और मामले का सत्य समझने दे?” मेरा उत्तर यह है : यह अनिश्चित है और जरूरी नहीं कि ऐसा हो। इस अंश में प्रत्येक वचन एक अपेक्षा है जिसे परमेश्वर मनुष्य के लिए प्रस्तावित करता है, अभ्यास का एक सिद्धांत जिसका सृजित प्राणियों को पालन करना चाहिए। परमेश्वर मनुष्य को अभ्यास का एक मार्ग देता है, वे सिद्धांत देता है जिनका लोगों को उन स्थितियों में अभ्यास करके पालन करना चाहिए, जिनमें वे खुद को दैनिक जीवन में पाते हैं। लेकिन परमेश्वर ने लोगों से यह नहीं कहा, “चाहे तुम इन वचनों को जिस भी सीमा तक समझो, अगर तुम इन सिद्धांतों का पालन करते हो तो अंत में मुझे तुम लोगों को तथ्य बताने ही होंगे, मुझे तुम लोगों को उत्तर देना ही होगा, और मुझे तुम लोगों को स्पष्टीकरण देना ही होगा।” परमेश्वर की यह जिम्मेदारी नहीं है। उसके पास ऐसा कोई “होगा” नहीं है। लोगों को परमेश्वर से ऐसी अनुचित माँगें नहीं करनी चाहिए। यह ऐसी चीज है, जिसे तुम लोगों में से प्रत्येक को अवश्य समझना चाहिए। यह “जरूरी नहीं कि ऐसा हो” लोगों को एक तथ्य बताता है : इंसान अपनी इंसानी धारणाओं, इंसानी फलसफों और इंसानी अनुभव और सबकों के अनुसार खेल के जो नियम निर्धारित करते हैं, परमेश्वर उनका पालन कभी नहीं करेगा, न ही वह इंसानी कानून का पालन करेगा। बल्कि, इंसानों को परमेश्वर की अपेक्षाओं के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और परमेश्वर द्वारा प्रस्तुत प्रत्येक सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए। क्या तुम्हें यह समझ आया? (हाँ।) इस अंश में लोगों द्वारा पालन किए जाने वाले सिद्धांत स्पष्ट रूप से समझाए गए हैं। पहली पंक्ति से प्रारंभ करो। (“जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो।”) यह एक ऐसा सिद्धांत है, जिसे अभ्यास में लाना और समझना आसान है। इसे अभ्यास में लाने से तुम पर कोई दायित्व या दबाव नहीं पड़ता। यह बेहद आसान है। और दूसरी पंक्ति? (“ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो।”) तुम दुनिया में रहने वाले एक सामान्य व्यक्ति हो। तुम्हें बस इतना ही हासिल करने की जरूरत है कि “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो।” अगर तुम हृदयहीन नहीं हो, तो तुम यह कर सकते हो। तुम्हारे पास एक दिन में चौबीस घंटे हैं। अपने सामान्य कार्य, आराम के समय, भोजन और व्यक्तिगत आध्यात्मिक भक्ति के अलावा, क्या “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो” आसान है? (ऐसा करना आसान है।) इसे चलते हुए, बातचीत करते हुए या आराम करते हुए किया जा सकता है, यह तुम्हारे सामान्य कामकाज, तुम्हारे कर्तव्य निभाने या हाथ में लिया हुआ काम करने में हस्तक्षेप नहीं करेगा। यह सचमुच एक सरल चीज है! व्यक्ति की क्षमता चाहे जो भी हो, अगर वह उसे सच्चा दिल अर्पित करता है और सत्य के लिए प्रयास करता है, तो वह धीरे-धीरे सत्य को समझने लगेगा और इस वास्तविकता में आसानी से प्रवेश कर लेगा।

अगली पंक्ति क्या है? (“विश्वास करो कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है।”) अब, मैं इसे उलटकर तुम सब लोगों से पूछता हूँ, क्या तुम लोग विश्वास करते हो कि “परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है”? तुमने इस पर कब विश्वास करना शुरू किया? किन मामलों में तुम्हें इस पर विश्वास हुआ? क्या तुमने इसकी गवाही दी है? क्या तुम्हें यह अनुभव हुआ है? अगर कोई तुमसे पूछे, “क्या तुम विश्वास करते हो कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है?”, तो तुम्हारा जवाब क्या होगा? शायद, सैद्धांतिक रूप से, तुम बिना किसी हिचकिचाहट के कहोगे, “परमेश्वर मेरा सर्वशक्तिमान है! परमेश्वर सर्वशक्तिमान मेरा कैसे नहीं हो सकता?” क्या होगा अगर वह तुमसे दोबारा पूछे, “क्या परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है? किन मामलों में तुमने परमेश्वर पर भरोसा किया है और परमेश्वर के कर्म देखे हैं? परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता तुममें व्यक्तिगत रूप से किस हद तक प्रकट हुई है? तुम्हें कब पता चला कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है? किन मामलों में तुम्हें लगता है कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है? अगर तुम स्वीकारते हो कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और वह साथ हो तो कुछ भी असंभव नहीं है, तो ऐसा क्यों है कि तुम कभी-कभी बहुत कमजोर हो जाते हो? तुम अभी भी नकारात्मक क्यों हो? जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है, तो तुम देह-सुख से विद्रोह कर सत्य का अभ्यास क्यों नहीं कर पाते? तुम दूसरों के साथ अपने व्यवहार में हमेशा शैतानी फलसफे के अनुसार क्यों जीते हो? तुम अभी भी परमेश्वर की फटकार महसूस किए बिना अक्सर झूठ क्यों बोलते हो? क्या परमेश्वर वास्तव में तुम्हारा सर्वशक्तिमान है? तुम वास्तव में क्या सोचते हो कि परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता किसे संदर्भित करती है? क्या यह परमेश्वर के सार के अनुरूप है?” अगर तुमसे ये प्रश्न पूछे जाएँ, तो क्या तुम फिर भी इतनी ही निश्चितता के साथ उत्तर देने का साहस करोगे? जब मैं इस तरह पूछता हूँ, तो लोग निःशब्द हो जाते हैं। तुम्हें ऐसा कोई अनुभव नहीं है, तुमने इस स्तर पर परमेश्वर के साथ कोई रिश्ता कायम नहीं किया है। परमेश्वर में विश्वास के इन तमाम वर्षों में तुमने कभी परमेश्वर की संप्रभुता का अनुभव प्राप्त नहीं किया है, कभी परमेश्वर का हाथ नहीं देखा है, कभी लोगों, घटनाओं और चीजों पर परमेश्वर के सर्वशक्तिमान हाथ द्वारा प्रयुक्त संप्रभुता नहीं देखी है। यह तुमने कभी नहीं देखा है, कभी नहीं सुना है, अनुभव या व्यक्तिगत रूप से महसूस तो बिल्कुल नहीं किया है। इसलिए, “क्या परमेश्वर मेरा सर्वशक्तिमान है?” प्रश्न के बारे में तुम नहीं जानते और बोलने की हिम्मत नहीं करते। इससे साबित होता है कि तुममें ऐसी आस्था की कमी है। तुम्हारे लिए यह पंक्ति तुम्हारा दर्शन बन जाना चाहिए। यह सबसे सशक्त प्रमाण होना चाहिए कि तुम परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण करते हो। यह उस दर्शन का एक पहलू भी है, जो आगे बढ़ते जाने पर तुम्हारा समर्थन करता जाता है। फिर भी तुम निश्चितता के साथ उत्तर देने का साहस नहीं करते। क्यों? क्योंकि परमेश्वर में तुम्हारी आस्था सिर्फ एक विश्वास है कि परमेश्वर का अस्तित्व है। अभी तक तुमने सच में परमेश्वर का अनुसरण नहीं किया है, तुमने परमेश्वर के साथ सच में कोई रिश्ता कायम नहीं किया है, तुमने अभी तक परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तुमने अभी तक परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पित होने का अनुभव नहीं किया है और तुमने अभी तक सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य का प्रत्यक्ष एहसास नहीं किया है। तुमने इन चीजों को देखा या अनुभव नहीं किया है और तुम इन्हें समझते तो बिल्कुल भी नहीं हो। अगर तुमसे बस इतना ही पूछा जाए, “क्या परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है?” तो तुम निश्चित रूप से उत्तर दोगे “हाँ”। अगर फिर तुमसे यह पूछा जाए कि तुमने इसे कैसे अनुभव किया और तुमने यह समझ कैसे प्राप्त की, तो तुम निश्चित रूप से निःशब्द होकर अपना सिर झुका लोगे और उत्तर देने का साहस नहीं कर पाओगे। इस तथ्य का क्या कारण है? (हमें इस संबंध में कोई अनुभव नहीं है।) तुम सैद्धांतिक दृष्टिकोण से बोल रहे हो। सच तो यह है कि तुम मौखिक रूप से खुद को परमेश्वर का अनुयायी और एक सृजित प्राणी घोषित करते हो। लेकिन जिस दिन से तुमने परमेश्वर का अनुसरण करना शुरू किया है, उस दिन से तुमने कभी सृजित प्राणी की जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई है। परमेश्वर के वचनों को अपने अस्तित्व की नींव के रूप में स्वीकारना, परमेश्वर के वचनों को अपना कर्तव्य निभाने के लिए अभ्यास के सिद्धांत और मार्ग के रूप में लेना और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना : यह तुम्हारी जिम्मेदारी है। अगर तुमने अभी तक इन सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं किया है, तो इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि, भले ही तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, भले ही तुमने परिवार, काम और करियर त्याग दिया है और तुम आज तक परमेश्वर का अनुसरण करने में सक्षम हो, फिर भी तुम्हारे दिल ने वह सत्य और जीवन नहीं स्वीकारा है, जो परमेश्वर मानवजाति को प्रदान करता है, बल्कि इसके बजाय तुम उन चीजों के पीछे जाते हो, जिन्हें तुम पसंद करते हो और जिन्हें तुमने कभी छोड़ा नहीं है। क्या इसे परमेश्वर का अनुसरण करना और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होना माना जाता है? अगर, अपने दिल में, तुम जीवन और जीने के वे लक्ष्य, दिशाएँ और मानदंड नहीं स्वीकारते, जो परमेश्वर ने मनुष्य के लिए निर्धारित किए हैं, बल्कि सिर्फ उन्हीं शब्दों की तोतारटंत करते हो जिन्हें तुम सुनते हो और कुछ सिद्धांत बताते हो, तो क्या इसे सत्य स्वीकारना माना जाएगा? हालाँकि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो और बाहरी तौर पर अपना कर्तव्य निभा सकते हो, फिर भी तुम्हारे दिल ने सत्य नहीं स्वीकारा है। हालाँकि तुम लोगों ने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, फिर भी जिन सिद्धांतों के अनुसार तुम जीते हो, तुम्हारे तरीके और वह मार्ग जिस पर तुम्हारा जीवन चलता है, अभी भी शैतान का है। तुम अभी भी वही पुराने व्यक्ति हो जो तुम हमेशा थे, तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव और भ्रष्ट मनुष्य के तरीके के अनुसार जीते हो, और तुमने परमेश्वर से आने वाली अपेक्षाएँ और सिद्धांत नहीं स्वीकारे हैं। इस अनिवार्य परिप्रेक्ष्य से, तुम जो कर रहे हो वह सच में परमेश्वर का अनुसरण नहीं है। तुम बस स्वीकार रहे हो कि तुम एक सृजित प्राणी हो और सृष्टिकर्ता तुम्हारा परमेश्वर है। इस सैद्धांतिक आधार पर, तुम परमेश्वर के लिए कुछ करते हो और उसे कुछ छोटी-छोटी भेंटें देते हो। इस प्रस्तावना को देखते हुए, अनिच्छा से तुम स्वीकारते हो कि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है और तुम उसके अनुयायी हो, लेकिन तुमने दिल से कभी परमेश्वर को अपना जीवन, अपना प्रभु और अपना परमेश्वर नहीं स्वीकारा है। यह हमें वापस उस प्रश्न पर लाता है, जो मैंने अभी पूछा था, “क्या परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है?” उपर्युक्त कारणों से तुम निश्चितता के साथ उत्तर देने का साहस नहीं करते। सभी चीजों के लिए और संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, लेकिन तुम्हारे लिए, सिद्धांत के तौर पर तुम यह स्वीकार सकते हो कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, लेकिन वास्तव में तुमने इसका अनुभव नहीं किया है या इसे देखा नहीं है। परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता की बात पर तुम्हारे हृदय में एक प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है। लोग कब वास्तव में “परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है” वचनों की पुष्टि कर इस दर्शन को अपनी आस्था की नींव बना पाएँगे? जब लोग अपने हृदय में परमेश्वर की पहचान, परमेश्वर का सार और परमेश्वर की हैसियत स्वीकारते हैं, परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करते हैं और परमेश्वर के वचनों को अपने अस्तित्व की नींव में बदलते हैं, सिर्फ तभी वे सच में स्वीकार सकते हैं कि “परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है।” ये वचन हासिल करना वास्तव में सबसे कठिन है, लेकिन परमेश्वर ने इन्हें प्रस्तुत किया है, जिससे पता चलता है कि ये मनुष्य के लिए कितना महत्व रखते हैं। जो कोई इन वचनों का अनुभव और एहसास करना चाहता है, उसे ऐसा करने में पूरा जीवन व्यतीत करना होगा। इन वचनों द्वारा पूछे गए प्रश्न का अपने दिल की गहराइयों से सच्चा और निश्चित उत्तर देने के लिए उसे अपने और परमेश्वर के बीच एक सामान्य रिश्ता यानी एक सृजित प्राणी का सृष्टिकर्ता के साथ रिश्ता कायम करने के लिए पूरा जीवन बिताने की जरूरत है। यह सब “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो” सिद्धांत को अभ्यास में लाने के आधार पर प्राप्त किया जा सकता है। इसे अभ्यास में लाना वास्तव में काफी सरल है, लेकिन परमेश्वर द्वारा अपेक्षित लक्ष्य वास्तव में प्राप्त करना आसान नहीं है। व्यक्ति को इसके लिए समय और श्रम लगाना होगा और कीमत चुकानी होगी।

अगली पंक्ति क्या है? (“तुम्हारे पास परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं होनी चाहिये, तुम्हें तत्परता से खोज करना चाहिये।”) ये सभी वे अपेक्षाएँ हैं, जो परमेश्वर मनुष्य से करता है। अगर लोग सत्य समझना और बचाए जाना चाहते हैं, तो उनके दिलों को इसके लिए लालायित होना चाहिए, उनमें इसका अनुसरण करने की इच्छा होनी चाहिए और उनमें वास्तविक लालसा होनी चाहिए। फिर, उन्हें परमेश्वर द्वारा निर्धारित अभ्यास के मार्ग के अनुसार अभ्यास और प्रवेश करना चाहिए। धीरे-धीरे परमेश्वर इन लोगों को सत्य वास्तविकता और एक सही और सामान्य अवस्था में लाएगा। ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों के अधिकाधिक सत्य अधिकाधिक व्यावहारिक तरीके से समझेंगे। अंत में, इन लोगों की कई असामान्य अवस्थाएँ, उनमें प्रकट होने वाली भ्रष्टता और उनका विद्रोह, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित कई विविध परिवेशों में उसके कार्य के विभिन्न तरीकों से धीरे-धीरे हल हो जाएगा। तो फिर, वह क्या चीज है, जो तुम लोगों को समझनी चाहिए? वह यह है : जो चीजें लोगों को करनी चाहिए, जो चीजें उन्हें अभ्यास में लानी चाहिए, वे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार पूरी की जानी चाहिए। जब लोग परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास और कार्य करते हैं, तो वे उस सही मार्ग पर चलेंगे जो परमेश्वर ने उनके लिए बताया है। जब लोग इस सही मार्ग पर चलते हैं, तो परमेश्वर, अपने तरीके से और अपनी अपेक्षाओं और सिद्धांतों के अनुसार, उचित समय पर उन्हें उचित हिस्सा प्रदान करेगा। यहाँ लोगों को क्या समझना चाहिए? लोगों का सहयोग, उनके द्वारा चुकाई जाने वाली कीमत और उनके व्यय अपरिहार्य हैं। लोगों को परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य और अभ्यास करना चाहिए। उन्हें इंसानी इच्छाओं के अनुसार या इंसानी कल्पनाओं और धारणाओं के आधार पर कार्य नहीं करना चाहिए। अंतिम परिणाम क्या प्राप्त होता है, कोई कितना बदल सकता है, कोई कितना हासिल कर सकता है : क्या ये चीजें व्यक्ति की इच्छाओं से निर्धारित होती हैं? नहीं, यह परमेश्वर का काम है और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। अंत में, परमेश्वर तुम्हें क्या और कितना देता है, कब देता है, तुम्हें जो दिया जाता है वह तुम्हें किस उम्र में प्राप्त होता है : यह परमेश्वर का काम है और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। इससे मेरा क्या तात्पर्य है? तात्पर्य यह है कि तुम्हें सिर्फ सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करने, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए मार्ग के अनुसार प्रवेश करने, एक सृजित प्राणी के लिए जो उचित है वह करने, और तुम्हें जो सहयोग देना चाहिए वह प्रदान करने की जरूरत है। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि तुम्हें क्या और कितना मिलेगा, कब मिलेगा और परमेश्वर इन मामलों का निपटान कैसे करेगा, तो यह परमेश्वर का काम है और परमेश्वर के समय में होगा। कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं इसे अभ्यास में लाऊँ, तो क्या अंत में मुझे बचाया जाएगा?” मुझे बताओ, क्या तुम्हें लगता है कि उन्हें बचाया जा सकता है? ये वचन और सत्य जो परमेश्वर ने मनुष्य को दिए और प्रदान किए हैं, ये मनुष्य के लिए उद्धार का मार्ग हैं। अगर तुम परमेश्वर के इन वचनों और सत्यों के अनुसार अभ्यास करते हो और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करते हो, तो क्या तुम्हें अभी भी चिंता करने की जरूरत है कि शायद तुम बचाए न जाओ? क्या तुम अभी भी इस डर से हर दिन चिंता और परेशानी में बिताते हो कि परमेश्वर तुम्हें त्याग देगा? क्या यह बहुत कम आस्था और परमेश्वर की इच्छा समझने में विफलता के कारण नहीं है? अगर तुम वास्तव में सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हो, अगर तुम्हारे दिल में शांति और खुशी है, अगर तुम वास्तविक अनुभवजन्य गवाही दे सकते हो और अपने दिल में परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता रख सकते हो, तो क्या तुम अब भी इसकी चिंता करोगे कि तुम बचाए नहीं जाओगे? चिंता मत करो, यह तुम्हारा काम नहीं है। तुम्हें बस अभ्यास करना और परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों में एक पंक्ति भी महत्वहीन नहीं है। परमेश्वर के संपूर्ण वचन सत्य हैं और सत्य वह जीवन है, जो मनुष्य के पास होना चाहिए। उद्धार प्राप्त करने के लिए लोगों को परमेश्वर के संपूर्ण वचनों की आवश्यकता है और वे उनके पास होने चाहिए। अगर तुम अभ्यास में परमेश्वर के इन वचनों का पालन करते हो, लेकिन फिर भी चिंतित रहते हो कि तुम बचाए नहीं जाओगे, तो क्या तुम मूर्ख और अज्ञानी हो? क्या तुम्हारी शिराएँ अतिसंवेदनशील हैं? अगर तुम ऐसे बेकार विचारों पर ध्यान देने के बजाय परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशीलता दिखाओ, तो तुम्हें अधिक आनंद मिलेगा। अगर तुम सही मार्ग पर चल रहे हो, तो तुम जिस अंतिम गंतव्य पर पहुँचोगे, वह निश्चित रूप से सही होगा—वह गंतव्य, जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए निर्दिष्ट किया है। तुम गलत नहीं होगे। इसलिए, अगर तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं का अभ्यास कर उनमें प्रवेश करते हो, तो तुम्हें इस बात पर चिंता करने की जरूरत नहीं है कि तुम्हें बचाया जा सकता है या नहीं। बस परमेश्वर द्वारा बताए गए उद्धार के मार्ग का अभ्यास कर उसका अनुसरण करो, यही सही तरीका है। कुछ लोग कहते हैं : “उद्धार प्राप्त करना कैसा लगेगा? क्या हमें ऐसा लगेगा, जैसे हम हवा में तैर रहे हों? क्या हम उससे अलग महसूस करेंगे, जैसा अभी महसूस करते हैं?” यह प्रश्न थोड़ा असामयिक है। यह ऐसी चीज नहीं है, जिसे तुम्हें अभी जानने की जरूरत है। तुम्हें तब पता चल जाएगा, जब तुम वास्तव में बचाए जाओगे। कुछ लोग कहते हैं : “जब मैं बचाया जाऊँगा, तो क्या परमेश्वर मेरे सामने वैसे ही प्रकट होगा, जैसे वह अय्यूब के सामने प्रकट हुआ था?” क्या यह उचित अनुरोध है? इसकी माँग मत करो। तुम अभी यह भी नहीं जानते कि तुम्हें बचाया जा सकता है या नहीं, तो यह अनुरोध करने का क्या फायदा? कोई फायदा नहीं। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम वर्तमान में प्राथमिक विद्यालय में हो। तुम्हें अपनी सभी कक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन करने और अपने शिक्षक की अपेक्षाएँ पूरी करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। हमेशा यह मत सोचते रहो कि “मैं भविष्य में किस विश्वविद्यालय में जाऊँगा? जीवन में बाद में मुझे किस तरह की नौकरी मिलेगी?” इन चीजों के बारे में सोचना बेकार है। यह बहुत दूर की और अवास्तविक बात है। अगर तुम अभ्यास करते हो और सही तरीकों और मार्गों में प्रवेश करते हो, तो तुम निश्चित रूप से अंतिम लक्ष्य प्राप्त करने में सक्षम होगे। इसके अलावा, परमेश्वर का मार्गदर्शन साथ हो तो, तुम लोग अभी भी किस बात से डरते हो? क्या तुम विश्वास करते हो कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है? (मैं विश्वास करता हूँ।) परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, तो क्या परमेश्वर के लिए तुम जैसे छोटे व्यक्ति को बचाना मुश्किल है? परमेश्वर के लिए पूरी दुनिया तुम्हें दे देना भी कोई मुश्किल काम नहीं होगा, तो एक छोटे-से भ्रष्ट इंसान को बचाना कैसे मुश्किल हो सकता है? तो क्या तुम्हें फिर भी चिंतित होने की जरूरत है? इस बात की चिंता मत करो कि परमेश्वर तुम्हें बचा सकता है या नहीं, इस बात की चिंता मत करो कि परमेश्वर के वचन तुम्हें बचा सकते हैं या नहीं। बल्कि, तुम्हें इस बात की चिंता करनी चाहिए कि तुम परमेश्वर के वचनों को समझ सकते हो या नहीं और परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग पा सकते हो या नहीं। तुम्हें इस बात की चिंता करनी चाहिए कि अब तुम परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हो या नहीं और अपने कार्यों में उस मार्ग पर चल रहे हो या नहीं, जो परमेश्वर ने बताया है। यह ज्यादा बेहतर है। इन चीजों के बारे में सोचना व्यावहारिक और यथार्थपरक है। किसी और चीज के बारे में चिंता करना बेकार है।

अगली पंक्ति क्या है? (“शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए।”) हमने अभी-अभी इस पंक्ति पर संगति की है, इसलिए इस समस्या को हल करना आसान होना चाहिए। मनुष्य को सिर्फ यह समझने की आवश्यकता है कि अधिकांश समय “शैतान के बहाने, इरादे और चालें” मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव द्वारा उत्पन्न विभिन्न कारणों, बहानों, इरादों और चालों के साथ-साथ उन विभिन्न दुष्ट व्यक्तियों और गैर-विश्वासियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले तरीकों से उत्पन्न होते हैं, जिनके तुम संपर्क में आते हो। जहाँ तक इस बात का सवाल है कि तुम ऐसी चीजों को कैसे पहचानकर अस्वीकार सकते हो और तुम्हें क्या विकल्प चुनने चाहिए, तो यह तुम्हारा व्यक्तिगत अनुसरण है। अगली पंक्ति पढ़ो। (“निराश मत हो। कमज़ोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतज़ार करो।”) हमने अभी-अभी इस पंक्ति पर भी विस्तार से संगति की है। मनुष्य के लिए प्रत्येक पंक्ति एक चेतावनी और अनुस्मारक है, और साथ ही, एक तरह का समर्थन, सहायता और प्रावधान भी है। निस्संदेह, इन वचनों में मानवजाति के लिए परमेश्वर की इच्छा निहित है और ये मानवजाति के लिए परमेश्वर की प्रचुर आशा वहन करते हैं। जब लोग कमजोरी और कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो परमेश्वर उन्हें आशा खोते, आस्था खोते, सत्य और उद्धार का अनुसरण करने की आकांक्षा खोते और सत्य प्राप्त करने और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने का अवसर खोते हुए नहीं देखना चाहता। परमेश्वर नहीं चाहता कि लोग कायर बनें। इसके बजाय, चाहे उन्हें कितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़े, चाहे वे कितने भी कमजोर हों और चाहे उनकी भ्रष्टता कितनी भी प्रकट हो जाए, परमेश्वर आशा करता है कि लोग कभी हार नहीं मानेंगे, इन सबमें दृढ़ रहेंगे, सत्य का अनुसरण करते रहेंगे, अपने अनुसरण में अभ्यास के उन मार्गों का पालन करेंगे जो परमेश्वर ने उनके लिए लिए बताए हैं, और फिर भी दिल से परमेश्वर के अत्यधिक आकांक्षी होंगे। परमेश्वर में लोगों की आस्था, अनुभव और परमेश्वर के वचनों की समझ के साथ और अधिक बढ़नी चाहिए और कमजोरी का सामना होने पर उन्हें सिकुड़ना नहीं चाहिए, कठिनाइयों का सामना होने पर नकारात्मक नहीं होना चाहिए, थोड़ी-सी भ्रष्टता प्रकट होने पर सुबकना नहीं चाहिए और आगे बढ़ने के बजाय पीछे नहीं हटना चाहिए। परमेश्वर ऐसे प्रदर्शन नहीं देखना चाहता। परमेश्वर आशा करता है कि लोग पूरे हृदय से खुद को परमेश्वर की ओर निर्देशित करेंगे और इसे समय, परिवेश, भौतिक स्थान या किसी भी हो सकने वाली स्थिति के कारण कभी नहीं बदलेंगे। अगर परमेश्वर को खोजने की तुम्हारी इच्छा नहीं बदलती और परमेश्वर को खोजने का तुम्हारा संकल्प ढीला नहीं पड़ता, तो परमेश्वर तुम्हारे सच्चे हृदय को देखेगा और जानेगा। अंत में, परमेश्वर तुम्हें जो प्रदान करेगा, वह निश्चित रूप से तुम्हारी इच्छा से कहीं अधिक होगा। उन दशकों के दौरान, जब अय्यूब ने परमेश्वर की संप्रभुता का अनुभव किया, उसने कभी यह कल्पना करने की हिम्मत नहीं की कि परमेश्वर उससे बात करेगा या व्यक्तिगत रूप से उसके सामने प्रकट होगा। उसने कभी इसकी कल्पना करने की हिम्मत नहीं की, लेकिन उसके अंतिम परीक्षण के बाद परमेश्वर उसके सामने प्रकट हुआ और एक बवंडर से उससे व्यक्तिगत रूप से बात की। क्या यह मनुष्य की किसी भी माँग से बढ़कर नहीं है? (हाँ, है।) यह व्यक्ति द्वारा माँगी जा सकने वाली किसी भी चीज से बढ़कर है और कोई भी ऐसा सोचने तक का साहस नहीं करता। परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, मनुष्य को अपने उचित स्थान पर खड़ा होना चाहिए, वे चीजें करनी चाहिए जो उसे करनी चाहिए, उस मार्ग पर चलना चाहिए जिस पर उसे चलना चाहिए, उससे जो कहा जाए उससे परे जाए बिना खुद को दिए गए कर्तव्य निभाने चाहिए, और वे चीजें करने से बचना चाहिए जिनसे परमेश्वर तिरस्कार करता है। जब भी तुम्हें लगे कि तुम परमेश्वर से बहुत अधिक माँग कर रहे हो, कि तुम्हारे अनुरोध महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होने और विवेक की कमी के नतीजे हैं, तो तुम्हें तुरंत परमेश्वर के सामने आना चाहिए, उसके सामने दंडवत होना चाहिए और अपने पाप स्वीकारने चाहिए। तुम्हें सचमुच पश्चात्ताप करना चाहिए और अपने हृदय की गहराइयों से खुद को बदलना चाहिए। परमेश्वर मानवजाति से यही अपेक्षा और उन सभी के लिए यही आशा करता है जो उसका अनुसरण और सत्य से प्रेम करते हैं।

यहाँ हम इस अंश पर अपनी संगति समाप्त करते हैं। इतनी संगति के बाद मैंने वह आदेश दे दिया है जो दिया जाना चाहिए और तुम्हें वह समझा दिया है जो मनुष्य के लिए समझना उचित है। इस तरह की संगति का उद्देश्य एक तो तुम लोगों को यह बताना है कि परमेश्वर के वचनों को कैसे बूझा जाए, दूसरा, तुम लोगों को परमेश्वर के वचन पढ़ने का तरीका सिखाना और सभी को यह जताना भी है कि परमेश्वर के वचनों का कोई भी अंश व्यर्थ नहीं बोला गया है। वे सभी परमेश्वर की इच्छा से परिपूर्ण हैं और परमेश्वर की आशा के वाहक हैं। इस नजरिये से देखें तो परमेश्वर के सभी वचन, चाहे वे गहन हों या सरल, ऐसी चीजें हैं जो मनुष्य के पास होनी चाहिए और जिनका उसे पालन करना चाहिए। महज कुछ सरल वचनों में ही अभ्यास के वे सिद्धांत समाए हैं जिनका मनुष्य को सबसे ज्यादा पालन करना चाहिए, फिर भी इनका पालन कोई नहीं करता। परमेश्वर के इन चंद वचनों को कोई महत्व नहीं देता और कोई भी उनके प्रति सम्मान नहीं रखता। तुम्हीं बताओ, मनुष्य कितना सुन्न है? वास्तव में, सुन्न तो इसे कहने का एक अच्छा तरीका है। दरअसल, यह तो मनुष्य का असीम अहंकार है जिसके कारण वे सभी इन वचनों का तिरस्कार करते हैं और इन्हें देखना या पढ़ना नहीं चाहते। वे क्या पढ़ना चाहते हैं? वे गहरे, ऊँचे, दार्शनिक और व्यवस्थित वचन पढ़ना चाहते हैं। उन ऊँचे और गहरे वचनों की बात मत करो, अगर लोग इन कुछ सरल वचनों को ही समझ सकें तो बहुत है। ये वचन सरल लग सकते हैं और इन्हें पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति इन्हें समझ सकता है लेकिन वास्तव में इन्हें अभ्यास में कौन लाता है? कौन वास्तव में अपने साथ घटित होने वाली चीजों को परमेश्वर के सामने ले जाकर प्रार्थना कर सकता है? कौन समाधानों की चिंता किए बिना परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करता है? कितने लोग इसका अभ्यास कर सकते हैं? अब तक, मुझे ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला जिसने परमेश्वर के इन वचनों का पालन और अभ्यास किया हो, न ही मुझे कोई ऐसा व्यक्ति मिला जो इन वचनों से आकर्षित हुआ हो, जिसने यह देखने के बाद कि परमेश्वर के वचन कितने हार्दिक, ईमानदार और अनमोल हैं, उन्हें सँजोया हो। अभी तुम लोगों को यह भजन बजाते सुनकर मैंने पूछा था कि तुमने परमेश्वर के वचनों के इस अंश को कैसे खाया-पीया। क्या किसी ने इन कुछ सरल, सीधे और स्पष्ट वचनों का प्रार्थना-पाठ करके इनसे परमेश्वर की इच्छा का पता लगाया है? क्या किसी ने अभ्यास का वह मार्ग ढूँढ़ने के लिए इनका प्रार्थना-पाठ किया है जिसे समझकर मनुष्य को उसमें प्रवेश करना चाहिए? क्या किसी ने उनसे कोई सत्य समझा है? मैं जो पूछ रहा हूँ, वह यह है कि क्या उनमें मौजूद सत्य अलग-अलग व्यक्तियों में साकार हुए हैं? क्या उनका असर हुआ है? हमारी संगति ने दिखाया है कि वास्तव में उनका असर नहीं हुआ है। तुम लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। ऐसा लगता है कि इन वर्षों में परमेश्वर द्वारा कहे गए अधिकांश वचनों ने अभी तक वास्तव में तुम लोगों के दिलों में जड़ें नहीं जमाई हैं। तुम लोगों ने वह स्तर प्राप्त नहीं किया है, जिस पर तुम उन्हें सत्य के रूप में सँजोओ। यह अच्छा शगुन नहीं है। यह अच्छा संकेत नहीं है। कुछ लोग कहते हैं : “हम रोज अपने कर्तव्य निभाने में बहुत व्यस्त रहते हैं। हमारे पास परमेश्वर के वचनों पर विचार करने का समय नहीं है।” वास्तव में ऐसा नहीं है कि उनके पास समय नहीं है, बात यह है कि वे प्रयास नहीं करते या ध्यान नहीं देते। कोई व्यक्ति चाहे जो भी कर्तव्य निभाए, क्या इससे इस बात पर असर पड़ सकता है कि वह अपने हृदय में परमेश्वर के वचनों पर कैसे विचार करता है? क्या वह भोजन और आराम करते समय परमेश्वर के वचनों पर विचार नहीं कर सकता? यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें इच्छा है या नहीं। लोग सोचते हैं कि इतने व्यस्त रहने का मतलब ही यह है कि व्यक्ति प्रसन्न और संतुष्ट होना है। दरअसल जब तुम्हारे पास सोचने के लिए खाली समय होगा तो तुम्हें एहसास होगा कि तुमने कभी अपने दिल में परमेश्वर के किसी वचन पर वास्तव में विचार नहीं किया है। तुमने उनमें से कुछ भी अपने पास नहीं रखा है और वे तुम्हारे जीवन के मार्गदर्शक और तुम्हारे अभ्यास के मानदंड नहीं बने हैं। जब तुम इस पर विचार करोगे तो तुम्हें शर्म आएगी। तुम्हारी व्यस्तता सिर्फ एक दृष्टि-भ्रम है जो तुम्हें धोखा देती है। वह तुम्हें महसूस कराती है कि परमेश्वर में तुम्हारी आस्था के कारण तुम्हारा जीवन खाली नहीं बल्कि भरा हुआ है, कि तुम दुनिया के लोगों से अलग हो, कि तुम दुनिया के रुझानों के पीछे नहीं दौड़ते। बल्कि तुम सबसे न्यायसंगत लोगों में से हो, तुम परमेश्वर के कार्य में सहयोग कर रहे हो, न्यायसंगत कर्म कर रहे हो। तुम्हें लगता है कि तुम पहले ही बचाए जा चुके हो या पहले ही उद्धार के रास्ते पर चल पड़े हो। कुछ लोग तो यहाँ तक सोचते हैं कि वे पहले से ही विजेता हैं। यह सब देखते हुए तुम लोग ऐसे सरल भजन और परमेश्वर के सबसे शुरुआती कुछ सरल वचनों के प्रति भी इसी तरह का रवैया अपनाते हो। किसी ने भी इन वचनों से कुछ भी हासिल नहीं किया या कोई प्रबोधन नहीं पाया या किसी भी तरह से इन पर अमल नहीं किया। मैं ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं देख पाता, जिसने अपने लिए कोई लाभ या नतीजा प्राप्त किया हो। यह अच्छी चीज है या बुरी? (यह बुरी चीज है।) इन वर्षों में तुम लोग अपने कर्तव्य व्यस्ततापूर्वक निभाते आ रहे हो और विशेष रूप से सुसमाचार के कार्य में व्यस्त रहे हो। तुमने कुछ सफलता हासिल की है और तुम सभी के दिल अद्भुत महसूस करते हैं। किसी न किसी तरह परमेश्वर के वचन और सुसमाचार का कार्य फैल गया है। परमेश्वर के वचन हर देश और क्षेत्र में लोगों तक पहुँचा दिए गए हैं और ज्यादा लोग परमेश्वर के वचन खा-पी रहे हैं। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि तुमने सफलता हासिल कर ली है लेकिन क्या तुम्हें जीवन के उस बड़े मामले, अपने उद्धार की कोई भनक है? परमेश्वर के वचनों के इस अंश के प्रति लोगों का रवैया देखें तो उन्हें इसकी कोई भनक नहीं है। एक स्थानीय अभिव्यक्ति का उपयोग करें तो कलम अभी चलाई ही नहीं गई है। तुम्हीं बताओ, तुम सब लोगों को ऐसा देखकर मुझे कैसा लग रहा है? ये सिर्फ कुछ सरल वचन हैं, पर मुझे अभी भी तुम लोगों के साथ इन पर विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता है। मेरे वचन बहुत व्यापक और अति-विस्तृत हैं। क्या तुम लोग सुनने को तैयार हो? तुम लोग यह तो नहीं कहोगे कि मैं बहुत ज्यादा परेशान करता हूँ? मैं भी इस तरह परेशान नहीं करना चाहता। तुम सभी ईमानदार लगते हो। तुम सबके पास थोड़ा-बहुत दिमाग और ज्ञान है, और तुममें से ज्यादातर के पास कौशल है। फिर भी, तुम इस भजन के छोटे-छोटे वचनों पर कोई ध्यान नहीं देते और तुमने उन्हें अपने दिल में बसाकर नहीं रखा है। अब तक एक भी व्यक्ति ने इन वचनों की वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है। यह सचमुच सिरदर्द और चिढ़ने वाली बात है! तो फिर, कलीसिया में तुम लोगों के तमाम कार्य करने का क्या मतलब है? क्या इसका वो लक्ष्य है जो पौलुस ने यह कहते हुए बताया था, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्‍वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है”? अगर वास्तव में यही लक्ष्य है तो तुम सभी लोग पौलुस हो और आगे जो होगा, वह अच्छा नहीं हो सकता! क्या ऐसा ही है? (हाँ।) अगर तुम परमेश्वर के वचन खाने-पीने में कड़ी मेहनत नहीं करते तो देर-सबेर तुम्हें त्याग दिया जाएगा और इससे तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा। जिस दिन तुम्हें त्याग दिया जाएगा, तुम कहोगे, “मुझे क्या मिला?” तुमने एक भी चीज हासिल नहीं की है, इसलिए तुम पूरी तरह से शर्मिंदा हो, यहाँ तक कि मर जाना चाहते हो। यह बहुत दयनीय स्थिति है। परमेश्वर के वचन समृद्ध और प्रचुर हैं जो सभी मामलों पर बात करते हैं। कितने अफसोस की बात है कि तुमने कभी उनके अनुसरण में अपना दिल नहीं लगाया, कि तुमने कभी परमेश्वर के वचन ईमानदारी से नहीं पढ़े। परमेश्वर के तमाम वचनों में से एक भी पंक्ति तुम्हारे हृदय में स्थान नहीं रखती। अगर तुम्हें नहीं त्यागा जाएगा तो फिर किसे त्यागा जा सकता है? क्या मौजूदास्थिति ऐसी ही है? (बिल्कुल।) परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना, परमेश्वर के वचनों को अपनी वास्तविकता बनाना : यह एक प्रमुख घटना है। यह किसी भी अन्य चीज से ज्यादा अहम है, अगली पीढ़ी को जन्म देने से भी ज्यादा अहम, अपना कर्तव्य निभाने से भी ज्यादा अहम, पेशेवर कौशल सीखने से भी ज्यादा अहम, सुसमाचार फैलाने का काम करने से भी ज्यादा अहम, बाकी सबसे ज्यादा अहम। अगर तुमने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो चाहे तुम कोई भी कर्तव्य निभाओ, चाहे तुम कितनी भी दूर तक दौड़ो, उसका कोई मूल्य नहीं होगा। अंत में, तुम्हें कोई नतीजा प्राप्त नहीं होगा और तुम जो कुछ भी करते हो, उसका कोई नतीजा नहीं निकलेगा। चाहे तुम अभी कितनी भी कठिन भाग-दौड़ कर रहे हो, चाहे तुम्हारा वर्तमान पद कुछ भी हो, चाहे तुम जो भी काम कर रहे हो, या तुमने जो भी शानदार उपलब्धियाँ हासिल की हों, वह सिर्फ धुएँ की एक लकीर है जो अंततः दृष्टि से ओझल हो जाएगी। जब व्यक्ति परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करता है, उनमें निहित सत्य प्राप्त करता है, और परमेश्वर के वचनों में सिद्धांत, मार्ग और अभ्यास के निर्देश पाता है, सिर्फ तभी कोई उससे ये चीजें नहीं ले सकता। जब वह इन सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश कर लेता है, तभी उसके कर्तव्यों के निर्वहन और हर चीज के लिए चुकाई गई कीमत का अर्थ और मूल्य होगा। तभी इसे परमेश्वर स्वीकारता है। जब तुम परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर लेते हो और अपने हर काम में परमेश्वर के वचनों द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों और मानकों का अभ्यास करते हो, तभी तुम्हारा कर्तव्य निभाना व्यर्थ नहीं जाता और उसका एक हिस्सा परमेश्वर को स्वीकार्य होता है। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) अगर तुम सिर्फ अपने आत्म-संयम, इंसानी दृढ़ता, मानव-मस्तिष्क और प्रतिभा, और कष्ट सहने और कीमत चुकाने के इंसानी उपायों और तरीकों पर भरोसा करते हो, तो तुम जो कुछ भी करते हो, उसका परमेश्वर के वचनों से कोई लेना-देना नहीं होता। अंतिम नतीजा क्या होगा, यह तुम्हें स्पष्ट होना चाहिए। बहुत-से लोग अपने आर्थिक खातों और लागत-लाभ खातों का मिलान कर सकते हैं, लेकिन इस खाते का मिलान करने वाला कोई नहीं है। तुम लोग बाहरी मामले सँभालने में काफी बुद्धिमान प्रतीत होते हो, तुम्हारे पास अपने साधन और तरीके हैं, और तुम काफी चतुर हो, लेकिन तुमने परमेश्वर और उद्धार के प्रति अपनी आस्था के मामले और परमेश्वर के वचनों को कैसे लें, इस मामले की उपेक्षा की है, इन चीजों पर कभी कोई ध्यान नहीं दिया है। क्या तुमने सोचा था कि ध्यान की कमी से तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित कानून से बच सकते हो? क्या तुमने सोचा था कि थोड़े-से प्रयास से तुम भाग्यशाली हो जाओगे और परमेश्वर के धार्मिक न्याय से बच जाओगे? खुद को धोखा मत दो! मनुष्य द्वारा बनाए गए सभी कानून इंसानी ज्ञान और अंतर्दृष्टियों के उत्पाद हैं। वे सब इंसानी चतुराई हैं। वे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव द्वारा निर्मित कानून नहीं हैं। जब तुम्हारे उद्धार की बात हो तो संयोग की मानसिकता मत अपनाओ। तुम सिर्फ खुद को धोखा दे सकते हो, परमेश्वर को नहीं।

उद्धार के अनुसरण में तुम्हें पहली बड़ी चीज क्या करनी चाहिए? परमेश्वर के वचनों को खाओ-पीओ, ताकि तुम सत्य को समझकर वास्तविकता में प्रवेश कर पाओ। यह पहली बड़ी चीज है। अपना कर्तव्य निभाने में तुम चाहे कितने भी व्यस्त हो, चाहे तुम्हारे सामने कितना भी काम इकट्ठा हो गया हो, तुम्हें फिर भी परमेश्वर के वचन खाने-पीने, उनमें सभी चीजों में सत्य का अभ्यास करने के लिए सिद्धांत और मार्ग खोजने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए समय निकालना चाहिए। परमेश्वर में आस्था का यही एकमात्र उद्देश्य है। जब तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लेते हो और अभ्यास के सिद्धांत प्राप्त कर लेते हो, तब तुम जो कुछ भी करोगे वह तुम्हारे कर्तव्य का संतोषजनक प्रदर्शन होगा और वह मूल्यवान और सार्थक बन जाएगा। अन्यथा, तुम जो कुछ भी करते हो, वह सेवा करना है और तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे हो। न ही यह सेवा तुम्हें बचाने में मदद करेगी। अगर तुम परमेश्वर के वचन नहीं खाते-पीते, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव नहीं करते, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने को कोई गंभीर चीज नहीं मानते, और सिर्फ मेहनत करने और सत्य को अभ्यास में लाने की चिंता किए बिना चीजें करने भर से संतुष्ट रहते हो, तो क्या तुम मूर्ख नहीं होगे? सभी सोचते हैं कि वे अपने काम में होशियार और भरोसेमंद हैं। “अब जब मैं यहाँ हूँ तो यह काम अच्छी तरह से होना निश्चित है। जब मैं नजर रखने के लिए यहाँ हूँ तो कलीसिया के काम में कोई भी चीज बाधा नहीं पहुँचा पाएगी। अगर मैं निष्क्रिय न रहा, अगर मैं परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाता रहा तो मैं बचा रहूँगा।” खुद को मूर्ख मत बनाओ। परमेश्वर ने यह कभी नहीं कहा कि अगर कोई लगातार अपना कर्तव्य निभाता रहता है, तो उसे बचाया जाएगा। यह मनुष्य की अपनी कल्पना और खयाली पुलाव बनाने से उपजताहै। जो लोग ऐसा कहते हैं, वे खुद को बिल्कुल भी नहीं जानते, और वे इस बात का सार और सत्य नहीं समझते कि शैतान ने मनुष्य को अत्यंत गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है। यही कारण है कि वे ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें बोल सकते हैं। क्या परमेश्वर के तमाम अनुयायियों ने सभी युगों में अपना कर्तव्य नहीं निभाया? क्या उन्हें बचाया गया? नहीं। क्या वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के योग्य हैं? नहीं। अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य ने मनुष्य की भ्रष्टता का सत्य स्पष्ट रूप से उजागर कर दिया है। वह सभी को वास्तविक बदलावों से गुजरते हुए सत्य को समझने, ढर्रा बदलने और सत्य प्राप्त कर वास्तविकता में प्रवेश करने देता है। परमेश्वर मनुष्य से यही चाहता है। अगर तुम लगातार अपना कर्तव्य निभाने पर ही ध्यान केंद्रित करते हो तो क्या तुम वास्तविक बदलाव प्राप्त कर सकते हो? क्या तुम सत्य प्राप्त कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त कर सकते हो? कोई संभावना नहीं है। अहम बात यह है कि व्यक्ति को सत्य का अनुसरण करना चाहिए, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के प्रति समर्पित होना चाहिए और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होने के लिए सत्य प्राप्त करना चाहिए। ये वचन कहकर परमेश्वर मनुष्य के लिए अपने हृदय के रक्त की कीमत चुकाता है और अपना जीवन प्रदान करता है। अगर तुम उन्हें नहीं सँजोते, बल्कि हमेशा उन्हें अनदेखा करते और अपने दिल में उनका तिरस्कार करते हो, परमेश्वर के वचनों को कभी गंभीरता से नहीं लेते, तो क्या तुम्हें बचाया जा सकता है? तो क्या अंतिम नतीजा कदाचित अच्छा हो सकता है? तुम्हें इस बारे में सोचने की भी जरूरत नहीं है। जब तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो तो पहली बड़ी चीज क्या होती है? यही कि सत्य समझने के लिए परमेश्वर के वचन खाने-पीने हैं और इसके द्वारा अविलंब सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना है। अपने आस-पास घटित होने वाली चीजों से शुरू करो जिन्हें तुम देख और महसूस कर सकते हो। आत्मचिंतन करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करो, सत्य खोजकर सभी समस्याएँ हल करो और अपने में वास्तविक बदलाव लाओ। अगर तुम परमेश्वर के वचन नहीं खाते-पीते और उनकी वास्तविकता में प्रवेश नहीं करते तो तुम्हारे बचाए जाने की संभावना शून्य हो जाती है। तुमने उद्धार का हर मौका पूरी तरह से गँवा दिया है। जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा तो तुम कहोगे, “पहले परमेश्वर का सुसमाचार फैलाने के कार्य के दौरान मैंने अपनी भूमिका निभाई थी। सुसमाचार फैलाने के कार्य के दौरान मैंने कीमत चुकाई और अमुक-अमुक अहम कदम में अपना समय और प्रयास समर्पित किया।” लेकिन उस दिन तक भी तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया होगा, तुम सामान्य रूप से परमेश्वर के वचन नहीं खा-पी सकते होगे और सामान्य रूप से अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते होगे। मूलभूत रूप से तुम ऐसे व्यक्ति नहीं होगे जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है। सिर्फ तभी तुम्हें पता चलेगा कि तुम पहले ही उद्धार का अपना मौका गँवा चुके हो। क्या पहले ही बहुत देर हो चुकी है? तुम्हारे पास कोई मौका नहीं है, तुम पहले ही आपदा में पड़ चुके हो, इसलिए तुम्हारी मृत्यु निकट है। इसलिए उद्धार का यह मौका बहुत दुर्लभ है और तुम्हें हर दिन और हर पल को सँजोना चाहिए। पहले अपने आस-पास की छोटी चीजों से शुरू करो, फिर धीरे-धीरे ज्यादा चीजों और बड़ी चीजों की ओर बढ़ो। परमेश्वर के वचन और सत्य खोजो, और परमेश्वर के वचनों और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करो। तुम्हें अक्सर अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसके करीब आना चाहिए। अपने दिल पर कभी देह की इच्छाओं, दुनिया के रुझानों और ऐसी अन्य शैतानी चीजों का कब्जा मत होने हो। इसके बजाय परमेश्वर के वचनों और सत्य को अपने हृदय में प्रभाव जमाने दो और तुम्हारा हृदय परमेश्वर के वचन सँजोना शुरू कर देगा। अगर परमेश्वर के वचन और सत्य तुम्हारे हृदय में स्थान बनाए रखते हैं और तुम्हारे जीवन की अगुआई करते हैं तो तुम्हारे जीवन में एक लक्ष्य होगा और इसके मार्गदर्शन के लिए रोशनी होगी और तुम्हारा हृदय आनंद महसूस करेगा। अगर तुम परमेश्वर के तीन और फिर पाँच वचन, फिर दस वचन और फिर सौ वचन समझते हो तो ये वचन संचित होते जाएँगे और धीरे-धीरे परमेश्वर के वचन तुम पर ज्यादा से ज्यादा हावी होते जाएँगे, तुम्हारे विचारों की अगुआई करेंगे, तुम्हारे कार्यों की अगुआई करेंगे और तुम्हारे जीवन की अगुआई करेंगे। तुम परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में ज्यादा से ज्यादा प्रवेश करोगे और ज्यादा से ज्यादा सत्य सिद्धांत समझने लगोगे। तुम्हारे कार्यकलाप अब तुम्हारी इच्छा और व्यक्तिगत कामनाओं पर आधारित नहीं रहेंगे। अपना कर्तव्य निभाने में तुममें कम-से-कम अशुद्धियों की मिलावट होगी और तुम परमेश्वर के साथ ज्यादा-से-ज्यादा सच्चे हृदय से व्यवहार करते जाओगे। धीरे-धीरे तुम जो सिद्धांत समझते हो, वे सत्य वास्तविकता में बदलते जाएँगे। इस तरह तुम्हारे जीवन-स्वभाव में वास्तविक बदलाव आएगा। तुम्हारी उद्धार की आशा अब दुर्बल या अदृश्य नहीं रहेगी, बल्कि अधिकाधिक बोधगम्य और बड़ी होती जाएगी। जब तुम इस रोशनी को देख लेते हो तो वास्तव में यही वह समय होता है जब तुम परमेश्वर के वचनों में रुचि लेना शुरू करते हो और उद्धार के मामले में बड़ी आशा रखते हो। ऐसे समय परमेश्वर तुम्हें अपने वचनों को ज्यादा-से-ज्यादा समझने देगा, अपने वचनों में प्रवेश करने देगा, तुम्हें प्रलोभन में पड़ने से बचाएगा, शैतान के जाल और बुरे प्रभाव में फँसने से बचाएगा और अन्य चीजों के साथ-साथ उलझनों, झगड़ों, ईर्ष्या और विवादों से बचाएगा। इस तरह परमेश्वर तुम्हें रोशनी में और अपने वचनों के मार्गदर्शन में जीने देगा। यह खुशी, आनंद और शांति है। यह सब मिलने की शुरुआत परमेश्वर के वचन सँजोने और सत्य समझने के लिए परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने से होती है। असल में यह मुश्किल नहीं है। अगर तुम अक्सर उपदेश सुनते हो और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव कर सकते हो तो तुम धीरे-धीरे सत्य को समझने लगोगे। इस तरह धीरे-धीरे एक बार में थोड़ा-थोड़ा-सा बदलाव करते हुए और थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ते हुए तुम्हें यह मुश्किल नहीं लगेगा। मुख्य बात यही है कि व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं। अगर तुम सत्य से प्रेम करते हो तो परमेश्वर में आस्था के कारण तुम उचित मामलों पर ध्यान देने, सत्य के लिए प्रयास करने और परमेश्वर के वचन पढ़ने और उन पर विचार करने पर ध्यान केंद्रित करने में सक्षम होगे। परमेश्वर के वचनों पर विचार करना और उनका प्रार्थना-पाठ करना सीखो। तब तुम परमेश्वर के वचनों का अर्थ समझ पाओगे, तुम परमेश्वर के वचनों में अभ्यास के मार्ग खोज पाओगे, परमेश्वर की इच्छा समझ पाओगे और तुम सत्य को समझना शुरू कर दोगे। फिर सत्य की अपनी समझ के आधार पर अपने भ्रष्ट स्वभाव पर विचार कर उसे पहचानो, अपने भ्रष्ट स्वभाव के सार का गहन-विश्लेषण करो, और फिर उसे हल करने के लिए सत्य का उपयोग करो। अगर तुम इस तरह से अभ्यास और प्रवेश करते हो, तो तुम वास्तव में खुद को जानने में सक्षम होगे, और तुम्हारे लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ना आसान होगा। थोड़ा-थोड़ा करके ज्ञान प्राप्त करने से, थोड़ा-थोड़ा करके अनुभव प्राप्त करने से, थोड़ा-थोड़ा करके परमेश्वर की इच्छा समझने से, और थोड़ा-थोड़ा करके अपनी भ्रष्टता छोड़ने से लोग अनजाने ही बदलना शुरू कर देंगे। यह जीवन-अनुभव की प्रक्रिया है। सत्य को समझना सबसे अहम चीज है। जब व्यक्ति सत्य को समझ लेता है तो उसे उन मानकों का पता चल जाएगा जिनका अनुसरण परमेश्वर मनुष्य से करवाना चाहता है। वह यह भी जान जाएगा कि परमेश्वर ऐसा क्यों कहना चाहता है और वह क्या असर पैदाकरना चाहता है। उसे यह भी पता चल जाएगा कि परमेश्वर मनुष्य से जिन मानकों की अपेक्षा करता है, वे वास्तव में मनुष्य द्वारा प्राप्त किए जा सकते हैं। वे सब ऐसी चीजें हैं, जिन्हें मनुष्य का अंतःकरण और विवेक प्राप्त कर सकता है। ये सभी प्रक्रियाएँ जीवन प्रवेश करने का मामला हैं। जीवन प्रवेश करने के लिए तुम्हें अपने कर्तव्य पूरी लगन से निभाने, सत्य खोजने और उसका लगन से अभ्यास करने, और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने और उस पर भरोसा करने की आवश्यकता है। इस तरह के अनुभव और अभ्यास से तुम्हें बेहतर से बेहतर नतीजे मिलेंगे। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे ऐसी चीजों में रुचि नहीं दिखाएँगे। वे जीवन प्रवेश करने का दायित्व महसूस नहीं करते और ऐसा करने में कोई रुचि नहीं रखते। इसलिए भले ही वे कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं लेकिन वे अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में बात नहीं कर सकते। सत्य से प्रेम करने वाले लोग ऐसे नहीं होते। वे स्वयं द्वारा अनुभव की गई हर चीज की और अपने अनुभव की हर अवधि की गवाही लिख सकते हैं। वे अपने सभी अनुभवों से वास्तव में लाभ प्राप्त करते हैं और ये लाभ दिन-ब-दिन और महीना-दर-महीना संचित होते जाते हैं। दस-बीस वर्षों के बाद उनमें बड़े बदलाव आ चुके होंगे। उस समय वे अनायास ही अपनी अनुभवजन्य गवाहियाँ लिख सकते हैं, और उनके लिए सत्य पर संगति में शामिल होना कोई कठिन चीज नहीं होती। अपना कर्तव्य निभाते हुए वे हर काम ठीक से करते हैं।

क्या तुम सत्य से प्रेम करने वाले लोग हो? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर के लिए प्रबल इच्छा रखने वाला हृदय है? क्या तुम्हारे पास सच्चा दिल है? इसका उत्तर देना कठिन है, है न? वास्तव में तुम सभी लोग अपने दिल में इस मुद्दे पर स्पष्ट हो। जब तुम अपना कर्तव्य अनमने ढंग से निभाना चाहते हो, जब तुम धूर्त या सुस्त होना चाहते हो, जब तुम उद्दंड और असावधान होना चाहते हो, तो क्या तुम इसे पहचान सकते हो? क्या तुम देह-सुख से विद्रोह कर सकते हो? तुम क्या विकल्प चुनते हो? तुम सत्य का अभ्यास करना चुनते हो या देह की इच्छाएँ चुनते हो? तुम सकारात्मक को चुनते हो या नकारात्मक को? तुम सत्य प्राप्त करने के लिए कष्ट सहना और कीमत चुकाना चुनते हो या देह-सुख के पीछे दौड़ना? ये वे प्रश्न हैं जिनका उपयोग यह मापने के लिए किया जाएगा कि तुम्हारे पास वास्तव में परमेश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण करने वाला दिल है या नहीं और तुम ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हो या नहीं। अगर तुम्हारे पास परमेश्वर के प्रति सच्चा दिल नहीं है, तुम हठपूर्वक और लापरवाही से काम करना पसंद करते हो, संतुष्ट होने पर खुश रहते हो और संतुष्ट न होने पर गुस्सा होकर झल्लाते हो, और चीजें अपने अनुकूल न होने पर उनसे अलग चले जाते हो तो क्या यह सही मनःस्थिति है? क्या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाले हृदय का यही अर्थ है? क्या यह निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभाना है? तुम सत्य का अभ्यास क्यों नहीं करते? क्या ऐसा है कि तुम परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते? या फिर ऐसा है कि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते? कुछ लोग सोचते हैं, “परमेश्वर के वचन सरल हैं लेकिन उन्हें अभ्यास में लाना कठिन है। परमेश्वर का घर हमेशा लोगों से सत्य का अभ्यास करने की अपेक्षा करता है लेकिन ऐसा करना लोगों के लिए कठिन है और उनके लिए बहुत सारी समस्याएँ खड़ी करता है। अगर मेरा हृदय असहज होता है तो मैं सत्य का अभ्यास नहीं करता। अगर कलीसिया मुझे बाहर नहीं निकालती या त्याग नहीं देती तो मैं स्वतंत्र होना और आराम से रहना पसंद करूँगा और जो चाहूँगा वह करूँगा।” क्या यह ऐसा व्यक्ति है जो सचमुच परमेश्वर में विश्वास करता है? क्या यह नास्तिक नहीं है? नास्तिक लोग अपने कर्तव्य निभाते समय यही रवैया अपनाते हैं। क्योंकि वे सत्य नहीं स्वीकारते, वे स्वतंत्र और स्वच्छंद होना और अनमने रहना पसंद करते हैं। चाहे उनकी कैसे भी काट-छाँट कर ली जाए, कोई फायदा नहीं होता। सत्य पर संगति से उनके कानों में कुछ नहीं पड़ता। उन्हें हटाने और त्यागने के अलावा कुछ नहीं करना है। चूँकि वे सत्य नहीं स्वीकारते, बल्कि वे सत्य से विमुख रहने वाले लोग हैं, इसलिए वे अविश्वासी हैं और परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होने पर भी अपनी काट-छाँट किया जाना स्वीकार सकते हैं, सत्य खोज सकते हैं, आत्मचिंतन कर सकते हैं और खुद को जान सकते हैं, और वे पश्चात्ताप करना जान सकते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है। जब व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता तो उसके लिए सत्य स्वीकारना कठिन होता है। सत्य न स्वीकार पाने की इस असमर्थता का सबसे बड़ा खतरा क्या है? वह है परमेश्वर के साथ विश्वासघात। जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते, उनके परमेश्वर को धोखा देने की सबसे ज्यादा संभावना होती है, और वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। कोई मामूली चीज भी अपने अनुकूल न होने पर वे परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। वे परमेश्वर को इसलिए धोखा दे सकते हैं क्योंकि वे एक बार भी अपनी काट-छाँट नहीं स्वीकार सकते। किसी आपदा का सामना करने पर उनके शिकायत करने और परमेश्वर को धोखा देने की और भी ज्यादा संभावना होती है। जो भी हो, सत्य से प्रेम न करने या सत्य न स्वीकारने वाले लोग सबसे ज्यादा खतरे में हैं। व्यक्ति को बचाया जा सकता है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस हद तक सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है और इस पर भी कि वह सत्य को स्वीकारकर इसका अभ्यास कर सकता है या नहीं। अपना वास्तविक आध्यात्मिक कद मापने, खुद को पहचानने, अपनी भ्रष्टता का सत्य जानने और यह पहचानने के लिए कि वास्तव में तुम्हारी प्रकृति क्या है, सत्य की अपेक्षाओं का उपयोग करो। एक ओर, ऐसी पहचान खुद को जानने और सच्चा पश्चात्ताप हासिल कर पाने में तुम्हारी मदद करती है। दूसरी ओर, यह पहचान तुम्हें परमेश्वर को जानने और उसकी इच्छा समझने देती है। सत्य स्वीकारने में असमर्थता परमेश्वर के प्रति विद्रोह और प्रतिरोध की अभिव्यक्ति है। इस समस्या की स्पष्ट समझ तुम्हें उद्धार के मार्ग पर चलने में मदद करेगी। जब व्यक्ति वास्तव में सत्य से प्रेम करता है तो उसके पास परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा वाला हृदय, एक ईमानदार हृदय और सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की प्रेरणा हो सकती है। वास्तविक ताकत रखते हुए वे कीमत चुकाने, अपनी ऊर्जा और समय समर्पित करने, अपने व्यक्तिगत लाभ त्यागने और देह की सभी उलझनें छोड़ने में सक्षम होते हैं, जिससे वे परमेश्वर के वचनों के अभ्यास, सत्य के अभ्यास और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश के लिए रास्ता साफ कर लेते हैं। अगर परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए तुम अपनी धारणाएँ छोड़ सकते हो, अपने दैहिक हित, प्रतिष्ठा, रुतबा, प्रसिद्धि और दैहिक आनंद छोड़ सकते हो—अगर तुम ऐसी तमाम चीजें छोड़ सकते हो तो फिर तुम सत्य वास्तविकता में ज्यादा से ज्यादा प्रवेश करोगे। तुम्हें जो भी कठिनाइयाँ और परेशानियाँ हैं, वे अब समस्याएँ नहीं रहेंगी—वे आसानी से हल हो जाएँगी—और तुम आसानी से परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए एक ईमानदार दिल और परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा रखने वाला दिल दो अपरिहार्य शर्तें हैं। अगर तुम्हारे पास सिर्फ ईमानदार दिल है, लेकिन तुम हमेशा कायर रहते हो, परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा नहीं रखते और कठिनाइयों का सामना करने पर पीछे हट जाते हो तो ईमानदार दिल होना ही काफी नहीं है। अगर तुम्हारे हृदय में सिर्फ परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा है, और तुम थोड़े-से आवेगी हो, और तुम्हारी बस यही आकांक्षा है, लेकिन जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है, तो तुम्हारे पास ईमानदार दिल नहीं होता, और तुम पीछे हट जाते हो, और अपने ही हित चुनते हो तो परमेश्वर के लिए सिर्फ जबरदस्त इच्छा होना भी पर्याप्त नहीं है। तुम्हें एक ईमानदार दिल और परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा रखने वाले दिल दोनों की आवश्यकता है। तुम्हारे दिल की ईमानदारी के स्तर और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी जबरदस्त इच्छा की ताकत से सत्य का अभ्यास करने की तुम्हारी प्रेरणा शक्ति तय होती है। अगर तुम्हारे पास ईमानदार दिल नहीं है और तुम्हारे दिल में परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा नहीं है तो तुम परमेश्वर के वचनों को नहीं समझ पाओगे और तुममें सत्य का अभ्यास करने की प्रेरणा नहीं होगी। इस तरह तो तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाओगे और तुम्हारे लिए उद्धार पाना भी कठिन होगा।

कई लोग स्पष्ट रूप से नहीं जानते कि बचाए जाने का क्या अर्थ होता है। कुछ लोगों का मानना है कि अगर उन्होंने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, तो उनके बचाए जाने की संभावना है। कुछ लोग सोचते हैं कि अगर वे बहुत सारे आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हैं, तो उनके बचाए जाने की संभावना है, या कुछ लोग सोचते हैं कि अगुआ और कार्यकर्ता निश्चित रूप से बचाए जाएँगे। ये सभी मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों को समझना चाहिए कि उद्धार का क्या अर्थ होता है। मुख्य रूप से बचाए जाने का अर्थ है पाप से मुक्त होना, शैतान के प्रभाव से मुक्त होना, सही मायने में परमेश्वर की ओर मुड़ना और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना। पाप से और शैतान के प्रभाव से मुक्त होने के लिए तुम्हारे पास क्या होना चाहिए? सत्य होना चाहिए। अगर लोग सत्य प्राप्त करने की आशा रखते हैं, तो उन्हें परमेश्वर के कई वचनों से युक्त होना चाहिए, उन्हें उनका अनुभव और अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए, ताकि वे सत्य को समझकर वास्तविकता में प्रवेश कर सकें। तभी उन्हें बचाया जा सकता है। किसी को बचाया जा सकता है या नहीं, इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि उसने कितने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, उसके पास कितना ज्ञान है, उसमें गुण या खूबियाँ हैं या नहीं, या वह कितना कष्ट सहता है। एकमात्र चीज, जिसका उद्धार से सीधा संबंध है, यह है कि व्यक्ति सत्य प्राप्त कर सकता है या नहीं। तो आज, तुमने वास्तव में कितने सत्य समझे हैं? और परमेश्वर के कितने वचन तुम्हारा जीवन बन गए हैं? परमेश्वर की समस्त अपेक्षाओं में से तुमने किसमें प्रवेश किया है? परमेश्वर में अपने विश्वास के वर्षों के दौरान तुमने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में कितना प्रवेश किया है? अगर तुम नहीं जानते या तुमने परमेश्वर के किसी भी वचन की किसी वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो स्पष्ट रूप से, तुम्हारे उद्धार की कोई आशा नहीं है। तुम्हें बचाया नहीं जा सकता। यह कुछ महत्व नहीं रखता कि तुम्हारे पास उच्च स्तर का ज्ञान है या नहीं, या तुमने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है या नहीं, तुम्हारा रूप-रंग अच्छा है या नहीं, तुम अच्छा बोल सकते हो या नहीं, और तुम कई वर्षों तक अगुआ या कार्यकर्ता रहे हो या नहीं। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, और परमेश्वर के वचनों का ठीक से अभ्यास और अनुभव नहीं करते, और तुममें वास्तविक अनुभवजन्य गवाही की कमी है, तो तुम्हारे बचाए जाने की कोई आशा नहीं है। मुझे इसकी परवाह नहीं है कि तुम कैसे दिखते हो, तुम्हारे पास कितना वैज्ञानिक ज्ञान है, तुमने कितना कष्ट सहा है या तुमने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है। मैं तुमसे यह कहता हूँ : अगर तुम सत्य नहीं स्वीकारते और कभी परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश नहीं करते, तो तुम बचाए नहीं जा सकते। इसमें संदेह नहीं। अगर तुम मुझे बताओ कि तुमने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में कितना प्रवेश किया है, तो मैं तुम्हें बताऊँगा कि तुम्हारे उद्धार की कितनी आशा है। अब जबकि मैंने तुम लोगों को इसे मापने के मानदंड बता दिए हैं, तो तुम लोगों को इसे खुद मापने में सक्षम होना चाहिए। ये वचन तुम लोगों को क्या तथ्य बताते हैं? परमेश्वर ने संसार की रचना करने के लिए वचनों का उपयोग किया, उसने हर तरह का तथ्य पूरा करने के लिए, वे सभी तथ्य पूरे करने के लिए जिन्हें परमेश्वर करना चाहता था, वचनों का उपयोग किया, और परमेश्वर ने अपने कार्य के दो चरण कार्यान्वित करने के लिए वचनों का उपयोग किया। आज परमेश्वर अपने कार्य का तीसरा चरण कार्यान्वित कर रहा है, और कार्य के इस चरण में, परमेश्वर ने किसी भी अन्य चरण की तुलना में ज्यादा वचन बोले हैं। यह वह समय है, जब मानवजाति के पूरे इतिहास में परमेश्वर अपने कार्य में सबसे ज्यादा बोला है। परमेश्वर दुनिया को बनाने के लिए, सभी तथ्य पूरे करने के लिए, सभी तथ्यों को शून्य से अस्तित्व में और अस्तित्व को शून्य में लाने के लिए वचनों का उपयोग कर सकता है—यह परमेश्वर के वचनों का अधिकार है, और अंततः, परमेश्वर मानवजाति के उद्धार का तथ्य पूरा करने के लिए भी वचनों का ही उपयोग करेगा। आज तुम सभी लोग यह तथ्य देख सकते हो, अंत के दिनों के दौरान परमेश्वर ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया है जो उसके वचनों से न जुड़ा हो, मनुष्य का मार्गदर्शन करने के लिए वह शुरू से आज तक हर जगह बोला है, उसने शुरू से आज तक वचनों का उपयोग किया है। बेशक, बोलते समय, परमेश्वर ने उन लोगों के साथ अपना रिश्ता बनाए रखने के लिए भी वचनों का उपयोग किया है जो उसका अनुसरण करते हैं, उसने उनका मार्गदर्शन करने के लिए वचनों का उपयोग किया है, और ये वचन उन लोगों के लिए बेहद अहम हैं जो बचाए जाना चाहते हैं या जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है, परमेश्वर मानवजाति के उद्धार का तथ्य पूरा करने के लिए इन वचनों का उपयोग करेगा। प्रत्यक्षतः, चाहे उनकी विषयवस्तु के संदर्भ में देखा जाए या संख्या के, चाहे वे जिस भी तरह के वचन हों, और चाहे वे परमेश्वर के वचनों का कोई-सा भी हिस्सा हों, वे उन लोगों में से प्रत्येक के लिए बेहद अहम हैं, जो बचाए जाना चाहते हैं। परमेश्वर अपनी छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना का अंतिम प्रभाव प्राप्त करने के लिए इन वचनों का उपयोग कर रहा है। मानवजाति के लिए—चाहे आज की मानवजाति हो या भविष्य की—ये बेहद अहम हैं। ऐसा रवैया है परमेश्वर का, ऐसा उद्देश्य और महत्व है उसके वचनों का। तो मानवजाति को क्या करना चाहिए? मानवजाति को परमेश्वर के वचनों और कार्यों में सहयोग करना चाहिए, उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। लेकिन परमेश्वर में कुछ लोगों की आस्था का तरीका ऐसा नहीं है : परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे, ऐसा लगता है मानो उसके वचनों का उनसे कोई लेना-देना न हो। वे अभी भी उसी का अनुसरण करते हैं जिसका वे करना चाहते हैं, वही करते हैं जो वे करना चाहते हैं, और परमेश्वर के वचनों के आधार पर सत्य नहीं खोजते। यह परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना नहीं है। कुछ अन्य लोग हैं जो, परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे, उस पर ध्यान नहीं देते, जिनके दिल में सिर्फ एक ही दृढ़ निश्चय होता है : “मैं वही करूँगा जो परमेश्वर कहेगा, अगर परमेश्वर मुझसे पश्चिम की ओर जाने के लिए कहेगा तो मैं पश्चिम की ओर चला जाऊँगा, अगर वह मुझसे पूर्व की ओर जाने के लिए कहेगा तो मैं पूर्व की ओर चला जाऊँगा, अगर वह मुझसे मरने के लिए कहेगा, तो वह मुझे मरता हुआ देखेगा।” लेकिन बस एक ही चीज है : वे परमेश्वर के वचनों को ग्रहण नहीं करते। वे मन में सोचते हैं, “परमेश्वर के बहुत सारे वचन हैं, उन्हें थोड़ा और सरल होना चाहिए, और उन्हें मुझे बताना चाहिए कि ठीक-ठीक क्या करना है। मैं अपने हृदय में परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हूँ।” परमेश्वर चाहे कितने भी वचन बोले, ऐसे लोग अंततः सत्य समझने में असमर्थ रहते हैं, न ही वे अपने अनुभवों और ज्ञान के बारे में बात कर सकते हैं। वे एक साधारण व्यक्ति की तरह होते हैं जिसमें आध्यात्मिक समझ नहीं होती है। क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे लोग परमेश्वर के प्रिय हैं? क्या परमेश्वर ऐसे लोगों के प्रति दयालु होना चाहता है? (नहीं।) वह निश्चित रूप से नहीं होना चाहता। परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद नहीं करता। परमेश्वर कहता है, “मैंने हजारों अनकहे वचन कहे हैं। ऐसा कैसे है कि किसी अंधे-बहरे की तरह तुमने उन्हें न तो देखा है और न ही सुना है? आखिर तुम अपने दिल में क्या सोच रहे हो? मैं तुम्हें ऐसे व्यक्ति के अलावा कुछ नहीं समझता, जिसे आशीष और सुंदर गंतव्य के पीछे दौड़ने का जुनून है—तुम पौलुस जैसे लक्ष्यों के पीछे दौड़ रहे हो। अगर तुम मेरे वचन नहीं सुनना चाहते, अगर तुम मेरे मार्ग पर नहीं चलना चाहते, तो तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो? तुम उद्धार के पीछे नहीं, बल्कि सुंदर गंतव्य और आशीषों की इच्छा के पीछे दौड़ रहे हो। और चूँकि तुम यही साजिश रच रहे हो, इसलिए तुम्हारे लिए सबसे उपयुक्त चीज सेवाकर्ता बनना है।” वास्तव में वफादार सेवाकर्ता होना भी परमेश्वर के प्रति समर्पण की एक अभिव्यक्ति है, लेकिन यह न्यूनतम मानक है। एक वफादार सेवाकर्ता बने रहना किसी अविश्वासी की तरह तबाही और विनाश में डूबने से कहीं बेहतर है। विशेष रूप से, परमेश्वर के घर को सेवाकर्ताओं की जरूरत है, और परमेश्वर की सेवा करने में सक्षम होना भी आशीष ही माना जाता है। यह शैतान राजाओं के अनुचर होने से कहीं बेहतर—बहुत बेहतर—है। लेकिन परमेश्वर की सेवा करना परमेश्वर के हिसाब से पूरी तरह से संतोषजनक नहीं है, क्योंकि परमेश्वर का न्याय का कार्य लोगों को बचाने, शुद्ध और पूर्ण करने के लिए है। अगर लोग परमेश्वर की सेवा करने से ही संतुष्ट रहते हैं, तो यह वह उद्देश्य नहीं है जिसे परमेश्वर लोगों में कार्य करके हासिल करना चाहता है, न ही यह वह परिणाम है जिसे परमेश्वर देखना चाहता है। लेकिन लोग इच्छा की आग में जलते रहते हैं, वे मूर्ख और अंधे हैं : वे थोड़े-से लाभ से मोहित हो जाते हैं, भस्म हो जाते हैं, और परमेश्वर द्वारा कहे गए जीवन के अनमोल वचनों को नकार देते हैं। वे उन्हें गंभीरता से भी नहीं ले पाते, उन्हें प्रिय मानना तो दूर की बात है। परमेश्वर के वचन न पढ़ना या सत्य न सँजोना : यह चतुराई है या मूर्खता? क्या लोग इस तरह से उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? लोगों को यह सब समझना चाहिए। उनके उद्धार की आशा तभी होगी, जब वे अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ एक तरफ रख दें और सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करें।

कुछ लोग पूछते हैं : “परमेश्वर के वचन मनुष्य से एक सृजित प्राणी का रुख अपनाने और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने की अपेक्षा करते हैं। हमसे अतिमानव या महामानव बनने की अपेक्षा नहीं की जाती, लेकिन मैं हमेशा ऐसी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ महसूस करता हूँ। मैं एक साधारण व्यक्ति होने से संतुष्ट नहीं हूँ। तो मुझे क्या करना चाहिए?” यह समस्या बहुत साधारण है। तुम एक साधारण व्यक्ति बनने के इच्छुक क्यों नहीं हो? अगर तुम पहले इस प्रश्न की जड़ तक जाओगे, तो तुम्हारी समस्या आसानी से हल हो जाएगी। परमेश्वर चाहता है कि मनुष्य एक ईमानदार व्यक्ति बने। यह सबसे सार्थक चीज है। अगर तुम इसका सत्य समझते हो कि एक ईमानदार व्यक्ति होना क्या होता है, तो तुम जान जाओगे कि एक ईमानदार व्यक्ति होने का अर्थ सामान्य मानवता वाला व्यक्ति होना है, एक सच्चा व्यक्ति होना है। ईमानदार व्यक्ति के बाहरी लक्षण क्या होते हैं? एक ईमानदार व्यक्ति होना एक सामान्य व्यक्ति होना है। सामान्य लोगों की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ, विचार और विवेक क्या होता है? सामान्य लोगों की कथनी-करनी कैसी दिखती है? एक सामान्य व्यक्ति अपने दिल से बोल सकता है। वह बिना किसी छल-फरेब के वही कहेगा, जो उसके दिल में होगा। अगर वह अपने सामने आने वाले मामले को समझ पाता है, तो वह अपने जमीर और विवेक के अनुसार कार्य करेगा। अगर वह उसे स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाता, तो वह गलतियाँ करेगा और असफल होगा, वह गलतफहमियाँ, धारणाएँ और व्यक्तिगत कल्पनाएँ पालेगा, और अपने दृष्टि-भ्रमों से अंधा हो जाएगा। ये सामान्य मानवता के बाहरी लक्षण हैं। क्या सामान्य मानवता के ये बाहरी लक्षण परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करते हैं? नहीं। अगर लोगों में सत्य नहीं है, तो वे परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी नहीं कर सकते। सामान्य मानवता के ये बाहरी लक्षण एक साधारण, भ्रष्ट व्यक्ति की संपत्तियाँ हैं। ये वे चीजें हैं, जिनके साथ मनुष्य जन्म लेता है, उसकी जन्मजात चीजें। तुम्हें ये बाहरी लक्षण और खुलासे दिखने देने होंगे। ये बाहरी लक्षण और खुलासे दिखने देते हुए तुम्हें यह समझना चाहिए कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ, क्षमता और जन्मजात प्रकृति ऐसी ही है। यह समझ जाने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इस पर सही तरह से विचार करना चाहिए। लेकिन तुम इस सही विचार को अभ्यास में कैसे लाते हो? यह किया जाता है परमेश्वर के वचन और ज्यादा पढ़कर, सत्य से और ज्यादा लैस होकर, उन चीजों को परमेश्वर के सामने लाकर जिन्हें तुम नहीं समझते, जिनके बारे में तुम धारणाएँ पालते हो और जिनके बारे में तुम गलत निर्णय ले सकते हो, ताकि उन पर विचार कर सको और अपनी सभी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोज सको। अगर तुम कुछ समय के लिए ऐसा अनुभव करते हो, तो तुम्हारा कुछ बार असफल होना और लड़खड़ा जाना कुछ मायने नहीं रखता। सबसे अहम बात यह है कि तुम इन मामलों को परमेश्वर के वचनों में स्पष्ट रूप से देख सकते हो और जान सकते हो कि सिद्धांतों और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कैसे अभ्यास करना है। यह दर्शाता है कि तुमने सबक सीखा है। कई वर्षों तक असफल होने और लड़खड़ाने के बाद, अगर तुम भ्रष्ट मनुष्य का सार स्पष्ट रूप से समझते हो, दुनिया में अँधेरे और बुराई की जड़ देखते हो, और विभिन्न तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों को पहचानते हो तो तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम होगे। चूँकि तुम कोई अतिमानव नहीं हो, न ही कोई महामानव हो, इसलिए तुम सभी चीजें नहीं जान सकते और न ही उन्हें समझ सकते हो। तुम्हारे लिए दुनिया को एक नजर में समझना, मानवजाति को एक नजर में समझना और अपने आस-पास होने वाली हर चीज एक नजर में समझना असंभव है। तुम एक साधारण व्यक्ति हो। तुम्हें कई असफलताओं, भ्रम की कई अवधियों, निर्णय में कई त्रुटियों और कई भटकावों से गुजरना होगा। यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव, तुम्हारी कमजोरियाँ और कमियाँ, तुम्हारी अज्ञानता और मूर्खता पूरी तरह से प्रकट कर सकता है, जिससे तुम खुद को फिर से जाँच और जान सकते हो, और परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता, पूर्ण बुद्धिमत्ता और उसके स्वभाव का ज्ञान प्राप्त कर सकते हो। तुम उससे सकारात्मक चीजें प्राप्त करोगे और सत्य समझकर वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। तुम्हारे अनुभव के बीच बहुत-कुछ ऐसा होगा, जो तुम्हारी इच्छा के अनुरूप नहीं होगा, जिसके सामने तुम शक्तिहीन महसूस करोगे। ऐसा होने पर तुम्हें तलाश और प्रतीक्षा करनी चाहिए; प्रत्येक मामले का उत्तर परमेश्वर से प्राप्त करना चाहिए, और उसके वचनों से प्रत्येक मामले का अंतर्निहित सार और हर तरह के व्यक्ति का सार समझना चाहिए। एक साधारण, सामान्य व्यक्ति इसी तरह व्यवहार करता है। तुम्हें यह कहना सीखना चाहिए, “मैं नहीं कर सकता,” “यह मेरे वश में नहीं,” “मैं इसे नहीं समझ सकता,” “मैंने इसका अनुभव नहीं किया है,” “मैं कुछ भी नहीं जानता,” “मैं इतना कमजोर क्यों हूँ? मैं इतना बेकार क्यों हूँ?” “मैं इतना नाकाबिल हूँ,” “मैं इतना सुन्न और मंदबुद्धि हूँ,” “मैं इतना अज्ञानी हूँ कि मुझे इस चीज को समझने और सँभालने में कई दिन लग जाएँगे,” और “मुझे इस पर किसी से चर्चा करने की जरूरत है।” तुम्हें इस तरह से अभ्यास करना सीखना चाहिए। यह तुम्हारे एक सामान्य व्यक्ति होने और एक सामान्य व्यक्ति बने रहने की स्वीकारोक्ति का बाहरी लक्षण है। जो लोग खुद को महान और शक्तिशाली समझते हैं, जो सोचते हैं कि वे साधारण नहीं बल्कि श्रेष्ठ और अतिमानव हैं, वे कभी नहीं कहते, “मैं नहीं कर सकता,” “यह मेरे वश में नहीं,” “मैं इसे नहीं समझ सकता,” “मैं नहीं जानता, मुझे सीखना है, मुझे इसे देखना है, मुझे संगति के लिए लोगों को ढूँढ़ना है, मुझे ऊपरवाले से खोजना है।” वे कभी ऐसे शब्द नहीं कहते। विशेष रूप से रुतबा हासिल कर लेने के बाद ऐसा व्यक्ति नहीं चाहता कि लोग यह सोचें कि वह एक साधारण व्यक्ति है, और ऐसी चीजें भी हैं जिन्हें किसी दूसरे की तरह वह भी नहीं कर सकता, ऐसी चीजें हैं जिनकी वह असलियत नहीं जान सकता या इन्हें समझ नहीं सकता। इसके बजाय, वे हमेशा चाहते हैं कि लोग उन्हें अतिमानव मान लें। इसलिए, जब उनके साथ चीजें घटित होती हैं, तो वे ऐसे मामले बार-बार परमेश्वर के सामने लाने और उसे सच्चा हृदय अर्पित करने की जरूरत नहीं समझते। वे खोजने की जरूरत नहीं समझते। वे चंद मिनटों में अपने साथ होने वाली हर चीज को समझ-बूझकर उसकी असलियत जान लेते हैं। उनमें भ्रष्टता या कमजोरी जैसा कुछ नहीं होता। ऐसा कुछ नहीं जिसे वे समझ न सकें, ऐसा कुछ नहीं जिसका उन्होंने अनुभव न किया हो। अगर ऐसा कुछ हो भी, जिसका उन्होंने अभी तक अनुभव न किया हो, तो भी वे इसकी असलियत एक नजर में समझ लेंगे। वे बस पक्के अतिमानव होते हैं। क्या यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है? (नहीं।) तो फिर, क्या वे सामान्य व्यक्ति हैं? यकीनन नहीं। ऐसा व्यक्ति यह नहीं स्वीकारता कि वह एक साधारण व्यक्ति है, कि उसमें कमजोरियाँ, खामियाँ और भ्रष्ट स्वभाव है। तो क्या वह खोजने और प्रार्थना करने के लिए सच्चे दिल से बार-बार परमेश्वर के सामने आ सकता है? निश्चित रूप से नहीं। यह दर्शाता है कि उसमें अभी सामान्य मानवता के जमीर और विवेक का अभाव है, न ही वह सामान्य मानवता को जीता है।

मुझे बताओ, तुम साधारण और सामान्य इंसान कैसे बन सकते हो? कैसे तुम, जैसा कि परमेश्वर कहता है, एक सृजित प्राणी का उचित स्थान ग्रहण कर सकते हो—कैसे तुम अतिमानव या कोई महान हस्ती बनने की कोशिश नहीं कर सकते? एक साधारण और सामान्य इंसान बनने के लिए तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? यह कैसे किया जा सकता है? कौन जवाब देगा? (सबसे पहले, हमें यह स्वीकारना होगा कि हम साधारण लोग हैं, बहुत ही आम लोग। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें हम नहीं समझते, नहीं जानते, जिनकी असलियत नहीं जान पाते। हमें स्वीकारना चाहिए कि हम भ्रष्ट और दोषपूर्ण हैं। इसके बाद, हमें सच्चा दिल रखना होगा और खोजने के लिए बार-बार परमेश्वर के सामने आना होगा।) पहली बात, खुद को यह कहते हुए कोई उपाधि देकर उससे बँधे मत रहो, “मैं अगुआ हूँ, मैं टीम का मुखिया हूँ, मैं निरीक्षक हूँ, इस काम को मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता, मुझसे ज्यादा इन कौशलों को कोई नहीं समझता।” अपनी स्व-प्रदत्त उपाधि के फेर में मत पड़ो। जैसे ही तुम ऐसा करते हो, वह तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देगी, और तुम जो कहते और करते हो, वह प्रभावित होगा। तुम्हारी सामान्य सोच और निर्णय भी प्रभावित होंगे। तुम्हें इस रुतबे की बेबसी से खुद को आजाद करना होगा। पहली बात, खुद को इस आधिकारिक उपाधि और पद से नीचे ले आओ और एक आम इंसान की जगह खड़े हो जाओ। अगर तुम ऐसा करते हो, तो तुम्हारी मानसिकता कुछ हद तक सामान्य हो जाएगी। तुम्हें यह भी स्वीकार करना और कहना चाहिए, “मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मुझे वह भी समझ नहीं आया—मुझे कुछ शोध और अध्ययन करना होगा,” या “मैंने कभी इसका अनुभव नहीं किया है, इसलिए मुझे नहीं पता कि क्या करना है।” जब तुम वास्तव में जो सोचते हो, उसे कहने और ईमानदारी से बोलने में सक्षम होते हो, तो तुम सामान्य विवेक से युक्त हो जाओगे। दूसरों को तुम्हारा वास्तविक स्वरूप पता चल जाएगा, और इस प्रकार वे तुम्हारे बारे में एक सामान्य दृष्टिकोण रखेंगे, और तुम्हें कोई दिखावा नहीं करना पड़ेगा, न ही तुम पर कोई बड़ा दबाव होगा, इसलिए तुम लोगों के साथ सामान्य रूप से संवाद कर पाओगे। इस तरह जीना निर्बाध और आसान है; जिसे भी जीवन थका देने वाला लगता है, उसने उसे ऐसा खुद बनाया है। ढोंग या दिखावा मत करो। पहली बात, जो कुछ तुम अपने दिल में सोच रहे हो, उसे खुलकर बताओ, अपने सच्चे विचारों के बारे में खुलकर बात करो, ताकि हर कोई उन्हें जान और उन्हें समझ ले। नतीजतन, तुम्हारी चिंताएँ और तुम्हारे और दूसरों के बीच की बाधाएँ और संदेह समाप्त हो जाएँगे। तुम किसी और चीज से बाधित हो। तुम हमेशा खुद को टीम का मुखिया, अगुआ, कार्यकर्ता, या किसी पदवी, हैसियत और प्रतिष्ठा वाला इंसान मानते हो : अगर तुम कहते हो कि तुम कोई चीज नहीं समझते, या कोई काम नहीं कर सकते, तो क्या तुम खुद को बदनाम नहीं कर रहे? जब तुम अपने दिल की ये बेड़ियाँ हटा देते हो, जब तुम खुद को एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सोचना बंद कर देते हो, और जब तुम यह सोचना बंद कर देते हो कि तुम अन्य लोगों से बेहतर हो और महसूस करते हो कि तुम अन्य सभी के समान एक आम इंसान हो, और कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें तुम दूसरों से कमतर हो—जब तुम इस रवैये के साथ सत्य और काम से संबंधित मामलों में संगति करते हो, तो प्रभाव अलग होता है, और परिवेश भी अलग होता है। अगर तुम्हारे दिल में हमेशा शंकाएँ रहती हैं, अगर तुम हमेशा तनावग्रस्त और बाधित महसूस करते हो, और अगर तुम इन चीजों से छुटकारा पाना चाहते हो लेकिन नहीं पा सकते, तो तुम्हें परमेश्वर से गंभीरता से प्रार्थना करनी चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए, अपनी कमियाँ देखनी चाहिए और सत्य की दिशा में प्रयास करना चाहिए। अगर तुम सत्य को अमल में ला सकते हो, तो तुम्हें परिणाम मिलेंगे। चाहे जो करो, पर किसी विशेष पद से या किसी विशेष पदवी का उपयोग करके बात या काम न करो। पहली बात, यह सब एक तरफ कर दो, और खुद को एक आम इंसान के स्थान पर रखो। जब कोई व्यक्ति कहता है, “क्या तुम अगुआ नहीं हो? क्या तुम टीम के प्रभारी नहीं हो? तुम्हें यह समझना चाहिए।” जवाब में तुम कहते हो : “परमेश्वर के वचनों में यह कहाँ कहा गया है कि, अगर तुम एक अगुआ या टीम-अगुआ हो, तो तुम सब-कुछ समझ सकते हो? मैं इसे नहीं समझता। मुझे अपनी नजरों से मत आँको। तुम बहुत ज्यादा अपेक्षा करते हो। यह सच है कि मैं एक अगुआ हूँ, लेकिन सत्य के बारे में मेरी समझ अभी भी बहुत उथली है और मैं नहीं जानता कि क्या निर्णय लेना चाहिए, क्योंकि मैंने इस चीज का अनुभव नहीं किया है और मैं अभी भी इसे नहीं समझ पा रहा। मुझे प्रार्थना करने और खोजने की जरूरत है। परमेश्वर ने कहा है, जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो। तुम हमेशा चाहते हो कि मैं अभी समझ जाऊँ और अभी निर्णय ले लूँ। अगर मैंने गलत निर्णय ले लिया, तो क्या होगा? इसके लिए कौन जिम्मेदार होगा? क्या तुम जिम्मेदारी लेने में सक्षम हो? क्या तुम चाहते हो कि मैं गलती कर दूँ? ऐसा करने में, क्या तुम मेरे लिए जिम्मेदार हो? हमें मिलकर काम करना चाहिए, मिलकर प्रार्थना और खोज करनी चाहिए और इस मामले को अच्छी तरह से सँभालना चाहिए।” क्या तुम ऐसा कर सकते हो? क्या ऐसा करना आसान है? अगर तुम दूसरों से हार्दिकता से बात कर सकते हो, तो तुम कह सकते हो, “दरअसल, मेरा आध्यात्मिक कद भी बहुत छोटा है। अगर मैं खोज और प्रार्थना नहीं करता, तो मैं कभी भी गलती कर सकता हूँ। कभी-कभी मैं गलतियाँ किए बिना नहीं रह पाता। तुम्हें मेरा आध्यात्मिक कद कितना बड़ा लगा? तुम मेरे बारे में ज्यादा ऊँची राय रखते हो।” जब दूसरा व्यक्ति तुम्हारी बात सुनेगा, तो वह अपने दिल में यह महसूस करेगा कि तुम बहुत ईमानदार व्यक्ति हो, जो दिल से बात कर सकता है। फिर, वह तुमसे बहुत ज्यादा माँग नहीं करेगा, बल्कि तुम्हारे साथ काम करेगा। अगर तुम इसे अभ्यास में लाते हो, तो तुम अपने कामों में ज्यादा तर्कसंगत हो जाओगे, तुम प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत से नियंत्रित और बँधे नहीं रहोगे, और तुम्हारा दिल मुक्त हो जाएगा। तुम खुले दिल से बोल और कार्य कर पाओगे, और दूसरों के साथ सद्भावपूर्वक सहयोग और भाई-बहनों के साथ सही व्यवहार कर पाओगे। इस समय, तुम्हारी मनोदशा तेजी से सामान्य हो जाएगी और तुम्हारे कार्य तेजी से विवेकसंगत हो जाएँगे। इसे सभी देख पाएँगे और कह पाएँगे, “यह अगुआ सचमुच बदल गया है। इसमें अंतःकरण और विवेक है, और इसने सामान्य मानवता को जीया है। ऐसे व्यक्ति के हमारे अगुआ होने से हमें भी कई लाभ मिलते हैं!” इस बार, जब तुम फिर से काम में संलग्न होते हो, चाहे वह खोज और प्रार्थना करना हो या संगति के लिए दूसरों के पास जाना, तुम जो करते हो वह सही और उचित होता है, और तुम्हें कोई संदेह नहीं होगा। तुम जो भी करते हो, उसमें तुम ठोस और स्थिर रूप से आगे बढ़ते हो। तुम जिसे समझ नहीं पाते, उस बात के लिये नाराज नहीं होते, बल्कि चीजों को होने देते हो। तुम्हारा चाहे जिस चीज से सामना हो, तुम उसे परमेश्वर के समक्ष ला सकते हो और अपना सच्चा हृदय अर्पित कर सकते हो। यह ऐसा सिद्धांत है जिसका तुम सभी चीजों में अभ्यास कर सकते हो। सभी लोग, चाहे वे अगुआ और कार्यकर्ता हों या भाई-बहन, एक साधारण व्यक्ति हैं। उन सभी को इस सिद्धांत का पालन करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों के अभ्यास में सभी की हिस्सेदारी और जिम्मेदारी है। तुम कोई अगुआ, कार्यकर्ता, टीम के प्रमुख, प्रभारी व्यक्ति या समूह के बीच से कोई अत्यधिक सम्मानित व्यक्ति हो सकते हो। चाहे तुम कोई भी हो, तुम्हें इस तरह से अभ्यास करना सीखना चाहिए। तुम जो प्रभामंडल और उपाधि अपने सिर पर धारण करते हो, उसे उतार दो, दूसरों ने जो ताज तुम्हें पहनाए हैं, उन्हें उतार दो। तब, तुम्हारे लिए एक सामान्य व्यक्ति बनना आसान होगा और तुम आसानी से अंतःकरण और विवेक के आधार पर कार्य करोगे। बेशक, इसके बाद, सिर्फ यह स्वीकारना काफी नहीं है कि तुम समझते नहीं और जानते नहीं। यह समस्या हल करने वाला अंतिम समाधान नहीं है। अंतिम समाधान क्या है? प्रार्थना करने और खोजने के लिए मामले और कठिनाइयाँ परमेश्वर के सामने लाओ। एक व्यक्ति के लिए अकेले प्रार्थना करना पर्याप्त नहीं है। इसके बजाय, तुम्हें सभी के साथ मिलकर इस मामले के संबंध में प्रार्थनाएँ करनी चाहिए और यह जिम्मेदारी और दायित्व उठाना चाहिए। यह काम करने का एक शानदार तरीका है! तुम कोई महान हस्ती और अतिमानव बनने की कोशिश करने का मार्ग अपनाने से बचोगे। अगर तुम ऐसा कर सको, तो तुम अनजाने ही एक सृजित प्राणी का उचित स्थान ग्रहण कर लोगे और अतिमानव और महान हस्ती बनने की महत्वाकांक्षा और इच्छा के बंधनों से मुक्त कर लोगे।

एक सृजित प्राणी के उचित स्थान पर खड़ा होना और एक साधारण व्यक्ति बनना : क्या ऐसा करना आसान है? (यह आसान नहीं है।) इसमें कठिनाई क्या है? वह यह है : लोगों को हमेशा लगता है कि उनके सिर पर कई प्रभामंडल और उपाधियाँ जड़ी हैं। वे खुद को महान विभूतियों और अतिमानवों की पहचान और दर्जा भी देते हैं और तमाम दिखावटी और झूठी प्रथाओं और बाहरी प्रदर्शनों में संलग्न होते हैं। अगर तुम इन चीजों को नहीं छोड़ते, अगर तुम्हारी कथनी-करनी हमेशा इन चीजों से बाधित और नियंत्रित होती है तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना मुश्किल लगेगा। जिन चीजों को तुम नहीं समझते, उनके समाधानों के लिए परेशान होना बंद करना और ऐसे मामले बार-बार परमेश्वर के सामने लाना और उसे सच्चा दिल अर्पित करना मुश्किल होगा। तुम ऐसा नहीं कर पाओगे। वास्तव में इसका कारण यह है कि तुम्हारी हैसियत, तुम्हारी उपाधियाँ, तुम्हारी पहचान और ऐसी तमाम चीजें झूठी और असत्य हैं क्योंकि वे परमेश्वर के वचनों के खिलाफ जाकर उनका खंडन करती हैं, क्योंकि ये चीजें तुम्हें बाँधती हैं ताकि तुम परमेश्वर के सामने न आ सको। ये चीजें तुम्हारे लिए क्या बुराइयाँ लेकर आती हैं? ये तुम्हें खुद को छिपाने, समझने का दिखावा करने, होशियार होने का दिखावा करने, एक महान हस्ती होने का दिखावा करने, एक सेलिब्रिटी होने का दिखावा करने, सक्षम होने का दिखावा करने, बुद्धिमान होने का दिखावा करने, यहाँ तक कि सब-कुछ जानने, सभी चीजों में सक्षम होने और सब-कुछ करने में सक्षम होने का दिखावा करने में कुशल बनाती हैं। वह इसलिए ताकि दूसरे तुम्हारी पूजा करें और तुम्हें सराहें। वे अपनी तमाम समस्याओं के साथ तुम्हारे पास आएँगे, तुम पर भरोसा करेंगे और तुम्हारा आदर करेंगे। इस तरह, यह ऐसा है मानो तुमने खुद को भुनने के लिए किसी भट्टी में झोंक दिया हो। तुम्हीं बताओ, क्या आग में भुनना अच्छा लगता है? (नहीं।) तुम नहीं समझते, लेकिन तुम यह कहने का साहस नहीं करते कि तुम नहीं समझते। तुम असलियत नहीं समझते लेकिन तुम यह कहने का साहस नहीं करते कि तुम असलियत नहीं समझते। तुमने स्पष्ट रूप से गलती की है लेकिन तुम इसे स्वीकारने का साहस नहीं करते। तुम्हारा दिल व्यथित है लेकिन तुम यह कहने की हिम्मत नहीं करते, “इस बार यह वाकई मेरी गलती है, मैं परमेश्वर और अपने भाई-बहनों का ऋणी हूँ। मैंने परमेश्वर के घर को इतना बड़ा नुकसान पहुँचाया है, लेकिन मुझमें सबके सामने खड़े होकर इसे स्वीकारने की हिम्मत नहीं है।” तुम बोलने की हिम्मत क्यों नहीं करते? तुम मानते हो, “मुझे अपने भाई-बहनों द्वारा दिए गए प्रभामंडल और प्रतिष्ठा पर खरा उतरने की जरूरत है, मैं अपने प्रति उनके उच्च सम्मान और भरोसे को धोखा नहीं दे सकता, उन उत्कट अपेक्षाओं को तो बिल्कुल भी नहीं जो उन्होंने इतने सालों से मेरे प्रति रखी हैं। इसलिए मुझे दिखावा करते रहना होगा।” यह कैसा छद्मवेश है? तुमने खुद को सफलतापूर्वक एक महान हस्ती और अतिमानव बना लिया है। भाई-बहन अपने सामने आने वाली किसी भी समस्या के बारे में पूछने, सलाह लेने, यहाँ तक कि तुम्हारे परामर्श की विनती करने तुम्हारे पास आना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि वे तुम्हारे बिना जी नहीं सकते। लेकिन क्या तुम्हारा हृदय व्यथित नहीं होता? बेशक, कुछ लोग यह व्यथा महसूस नहीं करते। किसी मसीह-विरोधी को यह व्यथा महसूस नहीं होती। इसके बजाय, वह यह सोचकर इससे प्रसन्न होता है कि उसकी हैसियत बाकी सबसे ऊपर है। हालाँकि एक औसत, सामान्य व्यक्ति को आग में भुनने पर व्यथा महसूस होती है। उसे लगता है कि वह कुछ भी नहीं है, बिल्कुल एक साधारण व्यक्ति जैसा है। वह यह नहीं मानता कि वह दूसरों से ज्यादा मजबूत है। वह न सिर्फ यह सोचता है कि वह कोई व्यावहारिक कार्य नहीं कर सकता, बल्कि वह कलीसिया के काम में देरी भी कर देगा और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को भी देर करवा देगा, इसलिए वह दोष स्वीकारकर इस्तीफा दे देगा। यह एक विवेकवान व्यक्ति है। क्या यह समस्या हल करना आसान है? विवेकवान लोगों के लिए यह समस्या हल करना आसान है, लेकिन जिनके पास विवेक की कमी है, उनके लिए यह मुश्किल है। अगर, रुतबा हासिल करने के बाद तुम बेशर्मी से रुतबे के लाभ उठाते हो, जिसके परिणामस्वरूप वास्तविक कार्य करने में विफलता के कारण तुम्हें बेनकाब कर त्याग दिया जाता है तो इसे तुमने खुद न्योता दिया है और तुम जो पाते हो, उसी के हकदार हो! तुम रत्ती भर भी दया या करुणा के पात्र नहीं हो। मैं यह क्यों कह रहा हूँ? इसलिए कि तुम ऊँचे स्थान पर खड़े होने पर जोर देते हो। तुम भुनने के लिए खुद को आग में झोंकते हो। तुमने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारी है। अगर तुम आग में बैठकर भुनना नहीं चाहते तो तुम्हें ये सभी उपाधियाँ और प्रभामंडल त्याग देने चाहिए और अपने भाई-बहनों को अपने दिल की वास्तविक दशाएँ और विचार बताने चाहिए। इस तरह, भाई-बहन तुम्हारे साथ ठीक से पेश आ सकेंगे और तुम्हें भेष बदलने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अब जबकि तुम खुल गए हो और अपनी वास्तविक दशा पर प्रकाश डाल रहे हो, तो क्या तुम्हारा दिल ज्यादा सहजत, ज्यादा सुकून महसूस नहीं करता? अपनी पीठ पर इतना भारी बोझ लेकर क्यों चला जाए? अगर तुम अपनी वास्तविक दशा बता दोगे तो क्या भाई-बहन वास्तव में तुम्हें हेय दृष्टि से देखेंगे? क्या वे सचमुच तुम्हें त्याग देंगे? बिल्कुल नहीं। इसके विपरीत भाई-बहन तुम्हारा अनुमोदन करेंगे और अपने दिल की बात बताने का साहस करने के लिए तुम्हारी प्रशंसा करेंगे। वे कहेंगे कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो। इससे कलीसिया में तुम्हारे काम में कोई बाधा नहीं आएगी, न ही उस पर थोड़ा-सा भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। अगर भाई-बहन वास्तव में देखेंगे कि तुम्हें कठिनाइयाँ हैं तो वे स्वेच्छा से तुम्हारी मदद करेंगे और तुम्हारे साथ काम करेंगे। तुम लोग क्या कहते हो? क्या ऐसा ही नहीं होगा? (बिल्कुल, होगा।) ताकि दूसरे लोग तुम्हें आदर की दृष्टि से देखें, इसलिए हमेशा छद्मवेश धारण करना सबसे मूर्खतापूर्ण चीज है। सबसे अच्छा नजरिया है सामान्य दिल वाला एक साधारण व्यक्ति बनना, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामने शुद्ध और सरल तरीके से खुलने में सक्षम होना और अक्सर दिली बातचीत करना। जब लोग तुम्हारा आदर करें, तुम्हें सराहें, तुम्हारी अत्यधिक प्रशंसा करें या चापलूसी भरे शब्द बोलें, तो कभी स्वीकार न करो। इन सभी चीजों को खारिज कर देना चाहिए। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कह सकते हैं : “क्या तुम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नहीं हो? चूँकि तुम इतने ज्ञानी हो, इसलिए तुम्हें सत्य की बहुत अच्छी समझ होनी चाहिए।” उनसे कहो : “मैं कैसा विश्वविद्यालय का प्रोफेसर हूँ? ज्ञान कितना भी हो वह सत्य का स्थान नहीं ले सकता। इस ज्ञान ने मुझे बहुत कष्ट पहुँचाया है। यह बिल्कुल बेकार है। मेरे बारे में ऊँची राय मत रखो, मैं सिर्फ एक साधारण व्यक्ति हूँ।” निस्संदेह, कुछ लोगों को अपना रुतबा छोड़ने में कठिनाई होती है। वे साधारण, सामान्य लोग बनना और एक सृजित प्राणी के उचित स्थान पर खड़े होना नहीं चाहते। वे इस तरह कष्ट सहना नहीं चाहते, लेकिन सहे बिना रह भी नहीं पाते। वे हमेशा खुद को श्रेष्ठ जन समझते हैं और अपने ऊँचे मचान से नीचे नहीं उतर पाते। इसमें समस्या है। जब लोग उनके चक्कर लगाते हैं, उन्हें प्रशंसा भरी नजरों से देखते हैं, तो उन्हें अच्छा लगता है। उन्हें यह पसंद है कि लोग अपनी तमाम समस्याएँ लेकर उनके पास आएँ, उन पर भरोसा करें, उनकी बात सुनें और उनका आदर करें। उन्हें पसंद है कि लोग विश्वास करें कि वे हर चीज के विशेषज्ञ श्रेष्ठ जन हैं, कि वे सर्वज्ञ हैं, इसलिए ऐसा कुछ नहीं है जिसे वे न समझते हों और वे यहाँ तक सोचते हैं कि अगर लोग उनका विजेताओं के रूप में सम्मान करें तो कितना अच्छा और अद्भुत होगा। इसका कोई इलाज नहीं। कुछ लोग दूसरों से मिली प्रशंसा और मुकुट स्वीकारते हैं और कुछ समय के लिए अतिमानव और महान हस्ती की भूमिका निभाते हैं। लेकिन वे असहज होकर पीड़ा सहते हैं। उन्हें क्या करना चाहिए? जो भी व्यक्ति तुम्हारी चापलूसी करना चाहता है, वह वास्तव में तुम्हें आग में भुनने के लिए झोंक रहा होता है, और तुम्हें उससे दूर रहना चाहिए। या फिर, उन्हें अपनी भ्रष्टता का सत्य बताने का अवसर ढूँढ़ो, उनसे अपनी वास्तविक दशा के बारे में बात करो और अपनी खामियाँ और असफलताएँ उजागर करो। इस तरह, वे तुम्हारी आराधना या आदर नहीं करेंगे। क्या यह करना आसान है? वास्तव में, यह करना आसान है। अगर तुम वास्तव में ऐसा नहीं कर सकते तो इससे साबित होता है कि तुम बहुत अहंकारी और दंभी हो। तुम वाकई खुद को एक अतिमानव, एक महान हस्ती मानते हो और अपने दिल में इस तरह के स्वभाव से बिल्कुल भी नफरत और तिरस्कार नहीं करते। नतीजतन तुम सिर्फ उस चूक का इंतजार ही कर सकते हो जो तुम्हें दूसरों की नजरों में गिरा दे। अगर तुम वाकई विवेकवान व्यक्ति हो तो तुम उस भ्रष्ट स्वभाव से घृणा और तिरस्कार महसूस करोगे जो हमेशा अतिमानव और महान हस्ती की भूमिका निभाना चाहता है। कम-से-कम तुम्हें यह एहसास तो होना ही चाहिए। तभी तुम खुद से घृणा कर सकते हो और देह-सुख से विद्रोह कर सकते हो। तुम्हें एक औसत व्यक्ति, एक साधारण व्यक्ति, एक सामान्य व्यक्ति बनने का अभ्यास कैसे करना चाहिए? पहले तुम्हें उन चीजों को नकारकर त्याग देना चाहिए जिन्हें तुम बहुत अच्छी और मूल्यवान समझते हो, साथ ही उन सतही, सुंदर शब्दों को भी नकारकर त्याग देना चाहिए जिनसे दूसरे तुम्हें सराहते और तुम्हारी प्रशंसा करते हैं। अगर अपने दिल में तुम स्पष्ट हो कि तुम किस तरह के इंसान हो, तुम्हारा सार क्या है, तुम्हारी विफलताएँ क्या हैं, और तुम कौन-सी भ्रष्टता प्रकट करते हो, तो तुम्हें अन्य लोगों के साथ खुले तौर पर इसकी संगति करनी चाहिए, ताकि वे देख सकें कि तुम्हारी असली हालत क्या है, तुम्हारे विचार और मत क्या हैं, ताकि वे जान सकें कि तुम्हें ऐसी चीजों के बारे में क्या ज्ञान है। चाहे जो भी करो, ढोंग या दिखावा मत करो, दूसरों से अपनी भ्रष्टता और असफलताएँ मत छिपाओ जिससे कि किसी को उनके बारे में पता न चले। इस तरह का झूठा व्यवहार तुम्हारे दिल में एक बाधा है, और यह एक भ्रष्ट स्वभाव भी है और लोगों को पश्चात्ताप करने और बदलने से रोक सकता है। तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, और दूसरों के द्वारा तुम्हें दी जाने वाली प्रशंसा, उनके द्वारा तुम पर बरसाई जाने वाली महिमा और उनके द्वारा तुम्हें प्रदान किए जाने वाले मुकुटों जैसी झूठी चीजों पर रुककर विचार और विश्लेषण करना चाहिए। तुम्हें देखना चाहिए कि ये चीजें तुम्हें कितना नुकसान पहुँचाती हैं। ऐसा करने से तुम्हें अपना माप पता चल जाएगा, तुम आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लोगे, और फिर खुद को एक अतिमानव या कोई महान हस्ती नहीं समझोगे। जब तुम्हें इस तरह की आत्म-जागरूकता प्राप्त हो जाती है, तो तुम्हारे लिए दिल से सत्य को स्वीकार करना, परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करना और मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ स्वीकार करना, अपने लिए परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करना, दृढ़ता से एक आम इंसान, एक ईमानदार और भरोसेमंद इंसान बनना, और अपने—एक सृजित प्राणी और परमेश्वर—सृष्टिकर्ता के बीच सामान्य संबंध स्थापित करना आसान हो जाता है। परमेश्वर लोगों से ठीक यही अपेक्षा करता है, और यह उनके द्वारा पूरी तरह से प्राप्य है। परमेश्वर सिर्फ साधारण, सामान्य लोगों को ही अपने सामने आने देता है। वह नकली या झूठी हस्तियों, महान व्यक्तियों और अतिमानवों से आराधना स्वीकार नहीं करता। जब तुम ये झूठे प्रभामंडल छोड़ देते हो, स्वीकारते हो कि तुम एक साधारण, सामान्य व्यक्ति हो और सत्य खोजने और प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के पास आते हो तो उसके लिए तुम्हारे पास जो दिल होगा, वह और ज्यादा वास्तविक होगा और तुम बहुत ज्यादा सहज महसूस करोगे। ऐसे समय तुम महसूस करोगे कि तुम्हें समर्थन और सहायता के लिए परमेश्वर की आवश्यकता है, और तुम खोजने और परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए बारम्बार उसके सामने आ सकोगे। तुम्हीं बताओ, तुम लोगों को एक महान हस्ती, अतिमानव बनना आसान लगता है या एक साधारण व्यक्ति बनना? (एक साधारण व्यक्ति बनना।) सिद्धांत रूप में कहें तो एक साधारण व्यक्ति बनना आसान है जबकि एक महान व्यक्ति या अतिमानव बनना कठिन है, जिसके कारण हमेशा पीड़ा होती है। लेकिन जब लोग अपने विकल्प खुद चुनकर इन्हें अभ्यास में लाते हैं तो वे एक अतिमानव या महान हस्ती बनने की इच्छा किए बिना नहीं रह पाते। वे खुद को रोक नहीं पाते। यह उनके प्रकृति सार के कारण होता है। इसलिए मनुष्य को परमेश्वर से उद्धार की आवश्यकता है। भविष्य में जब कोई तुम लोगों से पूछे कि “व्यक्ति अतिमानव और महान हस्ती बनने की कोशिश करना कैसे बंद कर सकता है?” तो क्या तुम लोग इसका उत्तर दे पाओगे? तुम लोगों को बस मेरे बताए तरीके का अभ्यास करना है। एक साधारण व्यक्ति बनो, खुद को छिपाओ मत, परमेश्वर से प्रार्थना करो और सरल तरीके से खुलना और दूसरों के साथ दिल से बात करना सीखो। ऐसा अभ्यास स्वाभाविक रूप से फलीभूत होगा। धीरे-धीरे तुम एक सामान्य व्यक्ति बनना सीख जाओगे, फिर तुम जीवन से थकोगे नहीं, व्यथित नहीं रहोगे, पीड़ा में नहीं रहोगे। सभी लोग साधारण हैं। उनमें कोई अंतर नहीं है, सिवाय इसके कि उनके व्यक्तिगत गुण अलग-अलग हैं और उनकी काबिलियत कुछ हद तक भिन्न हो सकती है। अगर परमेश्वर का उद्धार और सुरक्षा न हो तो वे सभी बुराई करेंगे और सजा भुगतेंगे। अगर तुम यह स्वीकार सको कि तुम एक साधारण व्यक्ति हो, अगर तुम मानवीय कल्पनाओं और खोखले भ्रमों से बाहर निकल सको और एक ईमानदार व्यक्ति बनने और ईमानदार कर्म करने का प्रयास कर सको, अगर तुम निष्ठापूर्वक परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सको तो फिर तुम्हें कोई समस्या नहीं होगी और तुम पूरी तरह मानव के समान जियोगे। यह इतनी सीधी-सरल बात है तो कोई मार्ग क्यों नहीं है? अभी मैंने जो कहा है, वह बहुत सरल है। वास्तव में यह बदल नहीं सकता। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे इसे पूरी तरह से स्वीकार सकते हैं और वे यह भी कहेंगे, “वास्तव में परमेश्वर मनुष्य से बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं करता। उसकी सभी अपेक्षाएँ मानवीय अंतःकरण और विवेक से पूरी की जा सकती हैं। व्यक्ति के लिए अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना कठिन नहीं है। अगर व्यक्ति दिल से काम करे और उसमें इसे अभ्यास में लाने की इच्छा और आकांक्षा हो तो इसे हासिल करना आसान है।” लेकिन कुछ लोग इसे हासिल नहीं कर पाते। जिन लोगों में हमेशा महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं, जो हमेशा अतिमानव और महान शख्सियत बनना चाहते हैं, भले ही वे साधारण इंसान बनना चाहते हों, उनके लिए यह आसान नहीं है। उन्हें हमेशा लगता है कि वे दूसरों से श्रेष्ठ और बेहतर हैं, इसलिए उनका पूरा दिल और दिमाग एक अतिमानव या महान हस्ती बनने की इच्छा से भरा रहता है। वे न सिर्फ साधारण इंसान बनने और सृजित प्राणियों के रूप में अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए तैयार नहीं होते, बल्कि कसम भी खाते हैं कि वे अतिमानव और महान शख्सियत बनने का प्रयास कभी नहीं छोड़ेंगे। इसका कोई इलाज नहीं।

कुछ लोग चाहे किसी भी चीज का सामना करें, वे सत्य की खोज और परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते। वे सिर्फ अपनी इच्छाओं, गुणों और काबिलियत के आधार पर कार्य करते हैं। यहाँ तक कि वे परमेश्वर से प्रार्थना भी बेमन से ही करते हैं और अपने दिल में सोचते हैं, “परमेश्वर मुझे प्रबुद्ध करता है या नहीं, यह उसका काम है। मैं तो वैसे ही कार्य करूँगा, जैसा मुझे सर्वोत्तम लगेगा।” उन्हें लगता है कि वे इन मामलों को खुद सँभालने में पूरी तरह सक्षम हैं और वे जो काम करते हैं उसके लिए पूरी तरह दक्ष हैं। उनके लिए परमेश्वर से प्रार्थना सिर्फ बेमन से करने का मामला है। ऐसे लोग कैसे होते हैं? क्या वे स्वीकार सकते हैं कि वे साधारण, सामान्य लोग हैं? क्या वे परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? (बिल्कुल नहीं।) क्या ऐसे लोगों को लगता है कि वे कुछ भी कर सकते हैं? (बिल्कुल।) वे मानते हैं कि भले ही वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य न करें, फिर भी वे सब-कुछ सँभाल सकते हैं और परमेश्वर के वचन खोजे बिना ही, बिना किसी परेशानी या कठिनाई के काम पूरे करवा सकते हैं। ऐसे लोग किस मार्ग पर चल रहे हैं? क्या यह एक अतिमानव और महान हस्ती बनने की चाहत का मार्ग है? (बिल्कुल।) चाहे वे कितनी भी बड़ी गड़बड़ी करें या चाहे कितने भी अपराध करें, यह उनके लिए कुछ भी नहीं है। अगर उन्होंने कई चीजें की हैं, कुछ उपलब्धियाँ जुटाई हैं और कोई श्रेष्ठता की भावना महसूस की है, तो उन्हें लगता है कि उनके पास संसाधन और क्षमताएँ हैं। वे खुद को ऐसे लोग समझते हैं जिन्होंने परमेश्वर के घर के लिए कड़ी मेहनत की है और बहुत-कुछ हासिल किया है। उन्हें परमेश्वर के वचनों की आवश्यकता नहीं है। उन्हें परमेश्वर के कार्य की आवश्यकता नहीं है। वे खुद कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे लोग कभी परमेश्वर के सामने नहीं आएँगे। वे डींग मारते हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं है जो वे नहीं कर सकते। जब वे किसी चीज का सामना करते हैं तो वे कभी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, न सत्य सिद्धांत ही खोजते हैं, अपने भाई-बहनों के साथ संगति करना तो दूर की बात है। न ही वे कभी ऊपरवाले से खोजते हैं, परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजने की तो बात ही छोड़ दो। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के वचनों में कई चीजों का जिक्र नहीं किया गया है और उनका कोई ठोस स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है, इसलिए उनका ऐसी चीजें खुद ही हल कर लेना उत्तम है। अनजाने ही उन्होंने परमेश्वर को दरकिनार कर दिया है। अनजाने ही वे दूसरों का तिरस्कार करते हैं और सभी को पैरों तले कुचल देते हैं। जिस रास्ते पर वे चल रहे हैं, वह एक सेलिब्रिटी, एक महान हस्ती और एक अतिमानव बनने का रास्ता है। अंत में इस तरह का व्यक्ति दृढ़ नहीं रह सकता। अगर तुम उनसे यह स्वीकार करना सीखने के लिए कहो कि वे साधारण लोग हैं, कि वे गलतियाँ कर सकते हैं, अपराध कर सकते हैं और असफल हो सकते हैं, और उनमें कई दोष और खामियाँ हैं तो क्या वे ऐसा कर सकते हैं? (नहीं कर सकते।) अगर तुम उनसे कहो कि ये आभामंडल और मुकुट उतार दो, भाई-बहनों से मिलने वाला उच्च सम्मान त्याग दो और कलीसिया में अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा छोड़ दो तो क्या वे सहमत होंगे? (नहीं होंगे।) वे कहेंगे, “मैं अपनी कड़ी मेहनत से अर्जित प्रसिद्धि और मुकुट इस तरह संतोषपूर्वक कैसे छोड़ सकता हूँ? मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ!” वे उत्सुकता से चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोग उनके साथ अतिमानव और महान शख्सियतों जैसा व्यवहार करें। वे यह पसंद नहीं करते कि लोग उनकी कमियाँ और खामियाँ देखें और उनके साथ सामान्य लोगों जैसा व्यवहार करें। जब लोग उनकी गलतियाँ, असफलताएँ और आचरण उजागर करते हैं, तो इसे वे और भी ज्यादा नापसंद करते हैं। क्या ऐसे लोग प्रार्थना करने और सत्य खोजने के लिए अक्सर परमेश्वर के सामने आ सकते हैं? (नहीं आ सकते।) अगर वे प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आ भी जाएँ तो क्या उनके पास सच्चा दिल होगा? नहीं। वे जो कुछ भी कहते और करते हैं, वह अपने सिर के मुकुट और अपनी प्रतिष्ठा के लिए करते हैं। वे ऐसी चीजें करते हैं जिन्हें सभी देख सकें, लेकिन परमेश्वर की जाँच नहीं स्वीकारेंगे, वे परमेश्वर को सच्चा हृदय अर्पित नहीं कर सकते जो उनके पास होता नहीं है। वे किसी भी तरह परमेश्वर के वचनों में उसकी इच्छा नहीं समझ सकते और परमेश्वर की अपेक्षानुसार कार्य नहीं कर सकते। इसलिए इस तरह का व्यक्ति सत्य खोजना भी चाहे और एक सेलिब्रिटी या महान हस्ती बनने की इच्छा छोड़ना भी चाहे तो भी वह ईमानदार नहीं होता। वह देह-सुख से विद्रोह नहीं कर सकता, न ही सत्य का अभ्यास कर सकता है। आखिर वह किस तरह का व्यक्ति होता है? वह गैर-विश्वासी होता है। वह मसीह-विरोधी होता है। जब मसीह-विरोधियों को लोगों के बीच रुतबा, प्रभाव और थोड़ी प्रतिष्ठा मिल जाती है तो वे खुद को एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में झोंक देते हैं और ऐसे रास्ते पर चल पड़ते हैं जहाँ से वापस लौटना संभव नहीं होता। तुम उन्हें चाहे कितनी बार भी सत्य पर संगति करने में लगा लो या उनकी काट-छाँट कर लो, कोई फायदा नहीं होगा। परमेश्वर के घर में सत्य पर संगति करना, अनुभवजन्य गवाहियों के बारे में बात करना, परमेश्वर से प्रेम करने और परमेश्वर की गवाही देने की कोशिश करना और सत्य की शुद्ध समझ और सिद्धांतों पर संगति में लगे रहना—ये सकारात्मक चीजें सिर्फ उन लोगों के लिए कारगर होती हैं, जो सत्य से प्रेम करते हैं और परमेश्वर के लिए जबरदस्त आकांक्षा रखते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, जो सिर्फ आशीषों का अनुसरण करते हैं और जो अतिमानव और महान हस्ती की भूमिका निभाना पसंद करते हैं, उनके लिए उपरोक्त सकारात्मक चीजें बिल्कुल भी किसी काम की नहीं हैं। सभी सत्य, सही वचन और सकारात्मक चीजें उन लोगों के लिए हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं, परमेश्वर के वचनों से प्रेम करते हैं और परमेश्वर के लिए जबरदस्त आकांक्षा रखते हैं। जिन लोगों के पास ये योग्यताएँ नहीं हैं, वे सत्य सुनने के बाद यह भी कहेंगे कि सत्य सही है और सत्य अच्छा है, लेकिन वे इस पर विचार करेंगे और सोचेंगे, “मैं किस चीज के लिए जीता हूँ? मैं प्रतिष्ठा, रुतबे, मुकुटों, आभामंडलों और परमेश्वर के पुरस्कारों के लिए जीता हूँ। इनके बिना भी क्या मुझमें गरिमा है? मेरे जीवन का क्या अर्थ है? क्या परमेश्वर में आस्था पुरस्कारों और मुकुटों के पीछे दौड़ने का एक साधन भर नहीं है? अब जबकि मैंने अपने इतने दिल और खून से कीमत चुका दी है, और इतने लंबे इंतजार के बाद आखिरकार समय आ गया है कि परमेश्वर अच्छे लोगों को पुरस्कृत करे और दुष्टों को दंड दे। यही वह समय है जब मुझे मुकुट पहनाया जाना चाहिए और अपना पुरस्कार प्राप्त करना चाहिए। मैं इसे किसी और को कैसे दे सकता हूँ? एक सामान्य व्यक्ति, साधारण व्यक्ति, अन्य सभी सीधे-सादे लोगों जैसा, इस तरह जीने का क्या मतलब है? मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ!” क्या ऐसा व्यक्ति लाइलाज नहीं है? (बिल्कुल है।) ऐसे लोगों को मनाने की कोशिश मत करो। सत्य उनके लिए नहीं है, और वे जो चाहते हैं वह सत्य नहीं है। इस तरह का व्यक्ति सिर्फ आशीष और मुकुट चाहता है। उसकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ सामान्य लोगों के लिए आवश्यक सीमाओं से अधिक हैं। कुछ लोग कल्पना नहीं कर सकते कि ऐसा व्यक्ति रुतबे और सत्ता से क्यों चिपका रहता है और इन्हें छोड़ क्यों नहीं देता। यह ऐसे व्यक्ति का सार और जन्मजात प्रकृति है। तुम इसका पता नहीं लगा सकते क्योंकि तुम्हारा सार उनसे अलग है, और न ही वे तुम्हें समझ सकते हैं। वे नहीं जानते कि तुम इतने मूर्ख क्यों हो। तुम बने-बनाए मुकुट, आभामंडल और प्रतिष्ठा नहीं चाहते, बल्कि एक साधारण व्यक्ति होना चाहते हो। उन्हें तुम अबूझ लगते हो। इस तरह का व्यक्ति सोचता है, “तुम निष्ठापूर्वक सत्य का अनुसरण करते हो, परमेश्वर जो कहता है उसका अभ्यास करते हो, वही करते हो जो परमेश्वर तुमसे करने के लिए कहता है और जो कुछ भी परमेश्वर तुमसे करने के लिए कहता है उसके प्रति समर्पण करते हो। तुम इतने मूर्ख कैसे हो सकते हो?” उन्हें लगता है कि एक ईमानदार व्यक्ति होना और सत्य का अभ्यास करना मूर्ख, अज्ञानी और मंदबुद्धि होना है। वे मानते हैं कि ज्ञान का अनुसरण करने और एक श्रेष्ठ व्यक्ति की भूमिका निभाने के कारण वे चतुर हैं। यह सोचते हुए कि वे सब-कुछ समझते हैं, वे यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि “ऐसे व्यक्ति का जीवन ही बेकार है जिसके पास रुतबे और प्रतिष्ठा का अभाव है, जिसके सिर पर कोई मुकुट नहीं है, जिसका लोगों के बीच कोई मूल्य नहीं है और जिसके पास बोलने का अधिकार नहीं है। अगर व्यक्ति प्रसिद्धि के लिए नहीं जीता तो उसे लाभ के लिए जीना चाहिए। अगर वह लाभ के लिए नहीं जीता तो उसे प्रसिद्धि के लिए जीना चाहिए।” क्या यह शैतान का तर्क नहीं है? शैतान के तर्क से जीने पर उनका कोई इलाज नहीं है। वे कभी परमेश्वर का कोई वचन, कोई सकारात्मक चीज या सही सलाह नहीं स्वीकार सकते। अगर वे इसे नहीं स्वीकार सकते तो क्या किया जा सकता है? हम ये वचन उनके लिए नहीं बोलना चाहते। ये वचन सिर्फ सामान्य मानवता वाले लोगों के लिए, सिर्फ परमेश्वर के प्रति जबरदस्त आकांक्षा रखने वाले लोगों के लिए बोले जाते हैं। ये सिर्फ इन्हीं लोगों के लिए हैं। सिर्फ ये लोग ही ईमानदारी से परमेश्वर के वचन सुनकर उन पर विचार कर सकते हैं, सत्य की समझ प्राप्त कर सकते हैं, सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं, परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपने कर्तव्य निभा सकते हैं, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव कर सकते हैं और धीरे-धीरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो अपने हृदय में सकारात्मक चीजों और परमेश्वर के वचनों के प्रति अवमानना और शत्रुता रखते हैं, उन्हें एक साधारण और मामूली जीवन जीने, एक सामान्य व्यक्ति बनने, निष्ठापूर्वक परमेश्वर के सामने आने और जिन मामलों को वे नहीं समझते उनके संबंध में पूरे दिल से खोजने और प्रतीक्षा करने के लिए राजी नहीं किया जा सकता। वे ऐसा व्यक्ति बनने से संतुष्ट नहीं हैं। इसलिए ऐसे व्यक्ति को बचाया जाना असंभव है। स्वर्ग का राज्य इन लोगों के लिए नहीं बनाया गया था। क्या तुम समझ रहे हो? (हम समझ रहे हैं।) जो भी साधारण, सामान्य सृजित प्राणी बनने में सक्षम है जिसके बारे में परमेश्वर बोलता है, और एक सृजित प्राणी के उचित स्थान पर खड़ा होने में सक्षम है, जो भी ऐसा मूर्ख व्यक्ति बनने के लिए तैयार है जिसे दूसरे तुच्छ समझते हैं, और परमेश्वर के वचनों को स्वीकार कर उनके प्रति समर्पण कर सकता है चाहे वह कुछ भी कहे, अक्सर परमेश्वर के सामने आ सकता है, अक्सर खोज सकता है और सच्चा दिल रख सकता है, वह उन विजेताओं में से एक बन सकता है जिनके बारे में परमेश्वर बोलता है। जो भी उन विजेताओं में से एक बन जाता है जिसके बारे में परमेश्वर बोलता है, उसे अंततः वह प्राप्त होगा जिसका वादा परमेश्वर ने मानवजाति से किया है। यह तय है।

जब परमेश्वर यह आँकता है कि कोई व्यक्ति अच्छा है या बुरा, वह सत्य का अनुसरण करता है या नहीं, और वह परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकता है या नहीं तो वह अपने वचनों के बारे में उसकी समझ और अपने वचनों के प्रति उसके रवैये पर विचार करता है। वह यह विचार करता है कि क्या ऐसा व्यक्ति उन सत्यों का अभ्यास कर सकता है या नहीं जिन्हें वह समझता है। वह विचार करता है कि जब उसकी काट-छाँट की जाती है और जब वह परीक्षणों से गुजरता है तो वह सत्य स्वीकार सकता है या नहीं। वह विचार करता है कि वह सच्चे हृदय से परमेश्वर को चाहता और स्वीकारता है या नहीं। परमेश्वर यह आकलन नहीं करता कि उसकी शिक्षा का स्तर क्या है, उसकी काबिलियत क्या है, उसमें कितने गुण हैं, उसने कितनी दूर तक यात्रा की है या उसने कितना काम किया है। परमेश्वर इन चीजों पर विचार नहीं करता, न ही वह इन चीजों की इच्छा रखता है। मान लो, तुम हमेशा अपनी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ परमेश्वर के पास ले जाकर उनके बदले पुरस्कार और मुकुट लेना चाहते हो, लेकिन तुमने हमेशा परमेश्वर के वचनों को खारिज और नजरअंदाज किया है। भले ही परमेश्वर ने हजारों-लाखों वचन कहे हैं, फिर भी परमेश्वर का एक भी वचन तुम्हारे हृदय में नहीं रहता। परमेश्वर के उपदेशों, उसकी चेतावनियों या उसके अनुस्मारकों का, यहाँ तक कि उसके न्याय, ताड़नाओं या शिक्षाओं का भी एक भी वचन—इनमें से एक भी वचन तुम्हारे दिल में नहीं है। तुम परमेश्वर के कहे एक भी वचन को आदर्श वाक्य मानकर अपने हृदय में नहीं रखते। तुम्हारा हृदय परमेश्वर का एक भी वचन याद नहीं रखता और साथ ही तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने और उनमें प्रवेश करने के लिए कोई कीमत नहीं चुकाते। अगर यह सब सच है तो परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से तुम्हारा परिणाम और गंतव्य पहले ही तय हो चुका है। अगर परमेश्वर की उपस्थिति में, सृष्टिकर्ता की उपस्थिति में तुम एक साधारण या सामान्य व्यक्ति होना नहीं स्वीकारते; अगर सृष्टिकर्ता की उपस्थिति में तुम धृष्टतापूर्वक कार्य करने का साहस करते हो; अगर तुम हमेशा महान हस्ती, अतिमानव, असाधारण व्यक्ति की भूमिका निभाना चाहते हो और उस स्थान पर नहीं रहते जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है तो तुम फिर भी परमेश्वर से क्या प्राप्त करना चाहते हो? क्या परमेश्वर तुम्हें यह देगा? अगर लोग वह प्राप्त करना चाहते हैं जिसका परमेश्वर ने मनुष्य से वादा किया है तो पहले उन्हें परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना होगा। यह सामान्य नीति है। जहाँ तक विशिष्ट नीति की बात है, उन्हें परमेश्वर के वचन सुनकर उनका अभ्यास करना चाहिए। यह मार्ग उन्हें कभी गलत राह पर नहीं ले जाएगा। परमेश्वर के वचन सुनो और उनका अभ्यास करो, परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन की वास्तविकता में बदलो, तुम जो कहते हो, जैसा आचरण करते हो, जैसे चीजों को देखते हो और जैसे चीजें करते हो, उस सबका आधार, सिद्धांत, दिशा और लक्ष्य इन वचनों को बनाओ। कहने का तात्पर्य यह है कि तुम जो कहते हो और जो निर्णय लेते हो, उनका आधार परमेश्वर के वचन होने चाहिए। जब भी तुम एक तरह के व्यक्ति के साथ जुड़ने और दूसरी तरह के व्यक्ति से बचने या उसे नकारने का फैसला करते हो तो तब तुम्हारे पास परमेश्वर के वचनों का आधार होना चाहिए। भले ही तुम क्रोधित हो और दूसरों को कोस रहे हो, तुम्हारे कार्यों में सिद्धांत और संदर्भ होने चाहिए और वे मूल रूप से सत्य के अनुरूप होने चाहिए। इस तरह से तुम परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता को जियोगे और परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करोगे। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की कोशिश करना सत्य का अनुसरण करने और एक योग्य सृजित प्राणी बनने के लिए सामान्य मानवता को जीने की एक प्रक्रिया है। यह खुद को एक अतिमानव, एक असाधारण व्यक्ति और एक सेलिब्रिटी या महान हस्ती बनने की कोशिश से मुक्त करने की प्रक्रिया भी है। अगर तुम एक अतिमानव, एक सेलिब्रिटी और एक महान हस्ती बनने के प्रयास या इस तरह के अनुसरण के तरीके से बचना चाहते हो तो पहले तुम्हें अपनी अकड़ घटानी होगी, विनम्र बनना होगा, स्वीकारना होगा कि तुम एक व्यक्ति हो, एक मामूली व्यक्ति हो और एक ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना कुछ नहीं कर सकता—सिर्फ एक साधारण व्यक्ति। तुम्हें स्वीकारना होगा कि तुम परमेश्वर और उसके वचनों से अलग कुछ भी नहीं हो। तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और आयोजन स्वीकारने को तैयार हो। परमेश्वर ने तुम्हें जो साँस दी है उसके बिना—उसने तुम्हें जो कुछ दिया है उसके बिना—तुम एक लाश हो और किसी काम के नहीं हो। निस्संदेह इन चीजों को स्वीकारते समय तुम्हें परमेश्वर के सामने आना चाहिए और उसके द्वारा बोले गए जीवन के तमाम वचन स्वीकारने चाहिए। सबसे अहम बात यह है कि तुम्हें परमेश्वर के इन वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन में उतारना चाहिए, उन्हें अपने जीवन और अस्तित्व की नींव और आधार बनाना चाहिए और आजीवन उन्हें अपने अस्तित्व का एक स्रोत और सहारा बनाना चाहिए। यह परमेश्वर की इच्छा है और मनुष्य से उसकी सर्वोच्च अपेक्षा है।

आज हमारी संगति का मुख्य विषय यह रहा है कि परमेश्वर के वचनों के साथ कैसे पेश आया जाए, परमेश्वर के वचनों को कैसे खाया-पीया जाए, लोगों को परमेश्वर के वचनों को कैसे सँजोना चाहिए और उन्हें परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कैसे करना चाहिए ताकि वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर उद्धार प्राप्त कर सकें। हमने मुख्य रूप से परमेश्वर के वचनों के महत्व पर संगति की। ये ठीक वही चीजें हैं जिनकी तुम लोगों में कमी है और जो मनुष्य के पास होनी चाहिए। अगर मैं इस तरह संगति न करता तो तुम ऐसी चीजों को स्पष्ट रूप से समझ न पाते। ऐसा लगता है कि तुम्हारे पास कुछ अवचेतन-ज्ञान है लेकिन तुम जो जानते हो, उसे स्पष्ट रूप से बता नहीं सकते। यह एक लेख लिखने जैसी बात है जब रूपरेखा तो तैयार हो जाती है लेकिन तुम अभी भी विषयवस्तु स्पष्ट नहीं कर पाते। यह तुम लोगों की असली स्थिति है। इन चीजों पर आज की संगति तुम्हारे लिए एक अनुस्मारक और चेतावनी है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर के वचन सबसे अहम चीज हैं और सत्य का कोई विकल्प नहीं है। जब तुम यह बात समझ जाते हो तो तुम लोगों के पास अभ्यास करने का एक मार्ग होना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचन खाने-पीने और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने के लिए और ज्यादा प्रयास करना चाहिए ताकि तुम परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर सको। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, तुम्हारी समझने की क्षमता कम है और तुम परमेश्वर के गहरे वचनों में पैठ नहीं सकते या उन तक पहुँच नहीं सकते और उन्हें खुद पर लागू नहीं कर सकते तो तुम्हें क्या करना चाहिए? आसान वचन खाने-पीने से शुरुआत करो। अपने दिल में उन सरल, आसानी से समझ में आने वाले वचनों को याद करो, जिनका तुम खुद अभ्यास कर सकते हो, उन्हें अपने अभ्यास में अपनाए जाने वाले सिद्धांत बनाओ और परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करो। अगर परमेश्वर कहे कि पूर्व की ओर जाओ तो पूर्व की ओर जाओ। अगर परमेश्वर कहे कि पश्चिम की ओर जाओ तो पश्चिम की ओर जाओ। अगर परमेश्वर कहे कि ज्यादा प्रार्थना करो, तो ज्यादा प्रार्थना करो। परमेश्वर जो कहे सो करो। शैतान किसी व्यक्ति को होशियार और चतुर समझे, उससे बेहतर यह है दूसरे लोग उसे मूर्ख समझ लें। जो लोग परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने के एकमात्र उद्देश्य से सत्य का अभ्यास करने का फैसला करते हैं, वही वास्तव में बुद्धिमान और ज्ञानी होते हैं।

25 सितंबर 2021

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