देहधारण का रहस्य (1)

अनुग्रह के युग में यूहन्ना ने यीशु का मार्ग प्रशस्त किया। यूहन्ना स्वयं परमेश्वर का कार्य नहीं कर सकता था और उसने मात्र मनुष्य का कर्तव्य पूरा किया था। यद्यपि यूहन्ना प्रभु का अग्रदूत था, फिर भी वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ था; वह पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किया गया मात्र एक मनुष्य था। यीशु के बपतिस्मा लेने के बाद पवित्र आत्मा कबूतर के समान उस पर उतरा। तब यीशु ने अपना काम शुरू किया, अर्थात् उसने मसीह की सेवकाई करनी प्रारंभ की। इसीलिए उसने परमेश्वर की पहचान अपनाई, क्योंकि वह परमेश्वर से ही आया था। भले ही इससे पहले उसका विश्वास कैसा भी रहा हो—वह कई बार दुर्बल रहा होगा, या कई बार मज़बूत रहा होगा—यह सब अपनी सेवकाई करने से पहले के उसके सामान्य मानव-जीवन से संबंधित था। उसका बपतिस्मा (अभिषेक) होने के पश्चात्, उसके पास तुरंत ही परमेश्वर का सामर्थ्य और महिमा आ गई, और इस प्रकार उसने अपनी सेवकाई करनी आरंभ की। वह चिह्नों का प्रदर्शन और अद्भुत काम कर सकता था, चमत्कार कर सकता था, और उसके पास सामर्थ्य और अधिकार था, क्योंकि वह सीधे स्वयं परमेश्वर की ओर से काम कर रहा था; वह पवित्रात्मा के स्थान पर उसका काम कर रहा था और पवित्रात्मा की आवाज़ व्यक्त कर रहा था। इसलिए, वह स्वयं परमेश्वर था; यह निर्विवाद है। यूहन्ना वह व्यक्ति था, जिसका पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किया गया था। वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था, न ही परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करना उसके लिए संभव था। यदि वह ऐसा करना चाहता, तो पवित्र आत्मा ने इसकी अनुमति नहीं दी होती, क्योंकि वह उस काम को करने में असमर्थ था, जिसे स्वयं परमेश्वर संपन्न करने का इरादा रखता था। कदाचित् उसमें बहुत-कुछ ऐसा था, जो मनुष्य की इच्छा का था, या कुछ ऐसा, जो विचलन भरा था; वह किसी भी परिस्थिति में प्रत्यक्ष रूप से परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था। उसकी ग़लतियाँ और बेतुकापन केवल उसका ही प्रतिनिधित्व करती थीं, किंतु उसका काम पवित्र आत्मा का प्रतिनिधि था। फिर भी, तुम यह नहीं कह सकते कि उसका सब-कुछ परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता था। क्या उसका विचलन और त्रुटिपूर्णता भी परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकते थे? मनुष्य का प्रतिनिधित्व करने में गलत होना सामान्य है, परंतु यदि कोई परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने में विचलित होता है, तो क्या यह परमेश्वर के प्रति अनादर नहीं होगा? क्या यह पवित्र आत्मा के विरुद्ध ईशनिंदा नहीं होगी? पवित्र आत्मा मनुष्य को आसानी से परमेश्वर के स्थान पर खड़े होने की अनुमति नहीं देता, भले ही दूसरों के द्वारा उसे ऊँचा स्थान दिया गया हो। यदि वह परमेश्वर नहीं है, तो वह अंत में खड़े रहने में असमर्थ होगा। पवित्र आत्मा मनुष्य को, जैसे मनुष्य चाहे वैसे, परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने की अनुमति नहीं देता! उदाहरण के लिए, पवित्र आत्मा ने ही यूहन्ना की गवाही दी और उसी ने उसे यीशु के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाले व्यक्ति के रूप में भी प्रकट किया, परंतु पवित्र आत्मा द्वारा उस पर किया गया कार्य अच्छी तरह से मापा हुआ था। यूहन्ना से कुल इतना कहा गया था कि वह यीशु के लिए मार्ग तैयार करने वाला बने, उसके लिए मार्ग तैयार करे। कहने का अभिप्राय यह है कि पवित्र आत्मा ने केवल मार्ग बनाने में उसके कार्य का समर्थन किया और उसे केवल इसी प्रकार का कार्य करने की अनुमति दी—उसे कोई अन्य कार्य करने की अनुमति नहीं दी गई थी। यूहन्ना ने एलिय्याह का प्रतिनिधित्व किया था, और वह उस नबी का प्रतिनिधित्व करता था, जिसने मार्ग तैयार किया था। पवित्र आत्मा ने इसमें उसका समर्थन किया था; जब तक उसका कार्य मार्ग तैयार करना था, तब तक पवित्र आत्मा ने उसका समर्थन किया। किंतु यदि उसने दावा किया होता कि वह स्वयं परमेश्वर है और यह कहा होता कि वह छुटकारे का कार्य पूरा करने के लिए आया है, तो पवित्र आत्मा को उसे अनुशासित करना पड़ता। यूहन्ना का काम चाहे जितना भी बड़ा रहा हो, और चाहे पवित्र आत्मा ने उसे समर्थन दिया हो, फिर भी उसका काम असीम नहीं था। माना कि पवित्र आत्मा द्वारा उसके कार्य का समर्थन किया गया था, परंतु उस समय उसे दिया गया सामर्थ्य केवल उसके द्वारा मार्ग तैयार किए जाने तक ही सीमित था। वह कोई अन्य काम बिलकुल नहीं कर सकता था, क्योंकि वह सिर्फ यूहन्ना था जिसने मार्ग तैयार किया था, वह यीशु नहीं था। इसलिए, पवित्र आत्मा की गवाही महत्वपूर्ण है, किंतु पवित्र आत्मा जो कार्य मनुष्य को करने की अनुमति देता है, वह और भी अधिक महत्वपूर्ण है। क्या यूहन्ना ने उस समय ज़बरदस्त गवाही प्राप्त नहीं की थी? क्या उसका काम भी महान नहीं था? किंतु जो काम उसने किया, वह यीशु के काम से बढ़कर नहीं हो सका, क्योंकि वह पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए व्यक्ति से अधिक नहीं था और वह सीधे परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था, और इसलिए उसने जो काम किया, वह सीमित था। जब उसने मार्ग तैयार करने का काम समाप्त कर लिया, पवित्र आत्मा ने उसके बाद उसकी गवाही बरक़रार नहीं रखी, कोई नया काम उसके पीछे नहीं आया, और स्वयं परमेश्वर का काम शुरू होते ही वह चला गया।

कुछ ऐसे लोग हैं, जो दुष्टात्माओं से ग्रस्त हैं और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते रहते हैं, “मैं परमेश्‍वर हूँ!” लेकिन अंत में, उनका भेद खुल जाता है, क्योंकि वे गलत चीज़ का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शैतान का प्रतिनिधित्व करते हैं, और पवित्र आत्मा उन पर कोई ध्यान नहीं देता। तुम अपने आपको कितना भी बड़ा ठहराओ या तुम कितना भी जोर से चिल्लाओ, तुम फिर भी एक सृजित प्राणी ही रहते हो और एक ऐसा प्राणी, जो शैतान से संबंधित है। मैं कभी नहीं चिल्लाता, “मैं परमेश्वर हूँ, मैं परमेश्वर का प्रिय पुत्र हूँ!” परंतु जो कार्य मैं करता हूँ, वह परमेश्वर का कार्य है। क्या मुझे चिल्लाने की आवश्यकता है? मुझे ऊँचा उठाए जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर अपना काम स्वयं करता है और वह नहीं चाहता कि मनुष्य उसे हैसियत या सम्मानजनक उपाधि प्रदान करे : उसका काम उसकी पहचान और हैसियत का प्रतिनिधित्व करता है। अपने बपतिस्मा से पहले क्या यीशु स्वयं परमेश्वर नहीं था? क्या वह परमेश्वर द्वारा धारित देह नहीं था? निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि केवल गवाही मिलने के पश्चात् ही वह परमेश्वर का इकलौता पुत्र बना। क्या उसके द्वारा काम शुरू करने से बहुत पहले ही यीशु नाम का कोई व्यक्ति नहीं था? तुम नए मार्ग लाने या पवित्रात्मा का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ हो। तुम पवित्र आत्मा के कार्य को या उसके द्वारा बोले जाने वाले वचनों को व्यक्त नहीं कर सकते। तुम स्वयं परमेश्वर का या पवित्रात्मा का कार्य करने में असमर्थ हो। परमेश्वर की बुद्धि, चमत्कार और अगाधता, और उसके स्वभाव की समग्रता, जिसके द्वारा परमेश्वर मनुष्य को ताड़ना देता है—इन सबको व्यक्त करना तुम्हारी क्षमता के बाहर है। इसलिए परमेश्वर होने का दावा करने की कोशिश करना व्यर्थ होगा; तुम्हारे पास सिर्फ़ नाम होगा और कोई सार नहीं होगा। स्वयं परमेश्वर आ गया है, किंतु कोई उसे नहीं पहचानता, फिर भी वह अपना काम जारी रखता है और ऐसा वह पवित्रात्मा के प्रतिनिधित्व में करता है। चाहे तुम उसे मनुष्य कहो या परमेश्वर, प्रभु कहो या मसीह, या उसे बहन कहो, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। परंतु जो कार्य वह करता है, वह पवित्रात्मा का है और वह स्वयं परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है। वह इस बात की परवाह नहीं करता कि मनुष्य उसे किस नाम से पुकारता है। क्या वह नाम उसके काम का निर्धारण कर सकता है? चाहे तुम उसे कुछ भी कहकर पुकारो, जहाँ तक परमेश्वर का संबंध है, वह परमेश्वर के आत्मा का देहधारी स्वरूप है; वह पवित्रात्मा का प्रतिनिधित्व करता है और उसके द्वारा अनुमोदित है। यदि तुम एक नए युग के लिए मार्ग नहीं बना सकते, या पुराने युग का समापन नहीं कर सकते, या एक नए युग का सूत्रपात या नया कार्य नहीं कर सकते, तो तुम्हें परमेश्वर नहीं कहा जा सकता!

यहाँ तक कि जिस मनुष्य का पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किया जाता है, वह भी स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। इतना ही नहीं कि ऐसा व्यक्ति परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, बल्कि उसके द्वारा किया जाने वाला काम भी सीधे तौर पर परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में, मनुष्य के अनुभव को सीधे तौर पर परमेश्वर के प्रबंधन के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता, और वह परमेश्वर के प्रबंधन का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। वह समस्त कार्य, जिसे स्वयं परमेश्वर करता है, ऐसा कार्य है, जिसे वह अपनी स्वयं की प्रबंधन योजना में करने का इरादा करता है और वह बड़े प्रबंधन से संबंध रखता है। मनुष्य द्वारा किए गए कार्य में उसके व्यक्तिगत अनुभव की आपूर्ति शामिल रहती है। उसमें उस मार्ग से भिन्न, जिस पर पहले के लोग चले थे, अनुभव के एक नए मार्ग की खोज, और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में अपने भाइयों और बहनों का मार्गदर्शन करना शामिल रहता है। इस तरह के लोग अपने व्यक्तिगत अनुभव या आध्यात्मिक मनुष्यों के आध्यात्मिक लेखन की ही आपूर्ति करते हैं। यद्यपि इन लोगों का पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किया जाता है, फिर भी वे जो कार्य करते हैं, वह छह-हज़ार-वर्षीय योजना के बड़े प्रबंधन-कार्य से संबंध नहीं रखता। वे सिर्फ ऐसे लोग हैं, जिन्हें पवित्र आत्मा द्वारा विभिन्न अवधियों में उभारा गया, ताकि वे तब तक पवित्र आत्मा की धारा में लोगों की अगुआई करें, जब तक कि वे जो कार्य कर सकते हैं, वे पूरे न हो जाएँ या उनके जीवन का अंत न हो जाए। जो कार्य वे करते हैं, वह केवल स्वयं परमेश्वर के लिए एक उचित मार्ग तैयार करना है या पृथ्वी पर स्वयं परमेश्वर की प्रबंधन-योजना का एक निश्चित पहलू जारी रखना है। अपने आप में ये लोग उसके प्रबंधन का महान कार्य करने में सक्षम नहीं होते, न ही वे नए मार्गों की शुरुआत कर सकते हैं, उनमें से कोई पिछले युग के परमेश्वर के समस्त कार्य का समापन तो बिलकुल भी नहीं कर सकता। इसलिए, जो कार्य वे करते हैं, वह केवल अपने कार्य संपन्न करने वाले एक सृजित प्राणी का प्रतिनिधित्व करता है, वह अपनी सेवकाई संपन्न करने वाले स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि जो कार्य वे करते हैं, वह स्वयं परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य के समान नहीं है। एक नए युग की शुरुआत करने का कार्य ऐसा नहीं है, जो परमेश्वर के स्थान पर मनुष्य द्वारा किया जा सकता हो। इसे स्वयं परमेश्वर के अलावा किसी अन्य के द्वारा नहीं किया जा सकता। मनुष्य के द्वारा किया जाने वाला समस्त कार्य एक सृजित प्राणी के रूप में उसके कर्तव्य का निर्वहन है और वह तब किया जाता है, जब पवित्र आत्मा द्वारा उसे प्रेरित या प्रबुद्ध किया जाता है। इन लोगों द्वारा प्रदान किया जाने वाला मार्गदर्शन मनुष्य को बस दैनिक जीवन में अभ्यास का मार्ग दिखाना और यह बताना होता है कि उसे किस प्रकार परमेश्वर की इच्छा के साथ समरसता में कार्य करना चाहिए। मनुष्य के कार्य में न तो परमेश्वर की प्रबंधन योजना सम्मिलित है और न ही वह पवित्रात्मा के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है। उदाहरण के लिए, गवाह ली और वॉचमैन नी का कार्य मार्ग की अगुआई करना था। मार्ग चाहे नया हो या पुराना, कार्य बाइबल के सिद्धांतों के भीतर ही बने रहने के आधार पर किया गया था। चाहे स्थानीय कलीसियाओं को पुनर्स्थापित करना हो या स्थानीय कलीसियाओं को बनाना हो, उनका कार्य कलीसियाओं की स्थापना से संबंधित था। उनके द्वारा किए गए कार्य ने उस कार्य को आगे बढ़ाया, जिसे यीशु और उसके प्रेरितों ने समाप्त नहीं किया था या अनुग्रह के युग में आगे विकसित नहीं किया था। उन्होंने अपने कार्य में उस चीज़ को बहाल किया जिसे यीशु ने अपने समय के कार्य में, अपने बाद आने वाली पीढ़ियों से करने को कहा था, जैसे कि अपना सिर ढककर रखना, बपतिस्मा लेना, रोटी साझा करना या दाखरस पीना। यह कहा जा सकता है कि उनका कार्य बाइबल का पालन करना था और बाइबल के भीतर ही मार्ग तलाशना था। उन्होंने किसी तरह के कोई नए प्रयास नहीं किए। इसलिए, कोई उनके कार्य में केवल बाइबल के भीतर ही नए मार्गों की खोज और साथ ही बेहतर और अधिक यथार्थवादी अभ्यास ही देख सकता है। किंतु कोई उनके कार्य में परमेश्वर की वर्तमान इच्छा नहीं खोज सकता, और उस कार्य को तो बिलकुल नहीं खोज सकता, जिसे अंत के दिनों में करने की परमेश्वर की योजना है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि जिस मार्ग पर वे चले, वह फिर भी पुराना ही था—उसमें कोई नवीनीकरण और नवीनता नहीं थी। उन्होंने यीशु को सलीब पर चढ़ाए जाने के तथ्य को पकड़े रखना, लोगों को पश्चात्ताप करने और अपने पाप स्वीकार करने के लिए कहने के अभ्यास का पालन करना, और इस तरह की उक्तियों का पालन जारी रखा, जैसे कि, जो अंत तक सहन करता है उसे बचा लिया जाएगा, और कि पुरुष स्त्री का सिर है और स्त्री को अपने पति की आज्ञा का पालन करना चाहिए, यहाँ तक कि उन्होंने इस परंपरागत धारणा को भी बनाए रखा कि बहनें उपदेश नहीं दे सकतीं, वे केवल आज्ञापालन कर सकती हैं। यदि इस तरह की अगुआई जारी रही होती, तो पवित्र आत्मा कभी भी नया कार्य करने, मनुष्यों को नियमों से मुक्त करने, या उन्हें स्वतंत्रता और सुंदरता के राज्य में ले जाने में समर्थ नहीं होता। इसलिए, युग का परिवर्तन करने वाले कार्य के इस चरण को आवश्यकता है कि स्वयं परमेश्वर कार्य करे और बोले; अन्यथा कोई व्यक्ति उसके स्थान पर ऐसा नहीं कर सकता। अभी तक, इस धारा के बाहर पवित्र आत्मा का समस्त कार्य एकदम रुक गया है, और जिन्हें पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किया गया था, वे दिग्भ्रमित हो गए हैं। इसलिए, चूँकि पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों का कार्य स्वयं परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य से भिन्न है, इसलिए उनकी पहचान और जिन व्यक्तियों की ओर से वे कार्य करते हैं, वे भी उसी तरह से भिन्न हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि पवित्र आत्मा जिस कार्य को करने का इरादा करता है, वह भिन्न है, और इसलिए समान रूप से कार्य करने वालों को अलग-अलग पहचान और हैसियत प्रदान की जाती है। पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए जाने वाले लोग कुछ नया कार्य भी कर सकते हैं और वे पूर्व युग में किए गए किसी कार्य को हटा भी सकते हैं, किंतु उनके द्वारा किया गया कार्य नए युग में परमेश्वर के स्वभाव और उसकी इच्छा को व्यक्त नहीं कर सकता। वे केवल पूर्व युग के कार्य को हटाने के लिए कार्य करते हैं, और सीधे तौर पर स्वयं परमेश्वर के स्वभाव और उसकी इच्छा का प्रतिनिधित्व करने के उद्देश्य से कोई नया कार्य करने के लिए कुछ नहीं करते। इस प्रकार, चाहे वे पुराने पड़ चुके कितने भी अभ्यासों का उन्मूलन कर दें या वे कितने भी नए अभ्यास आरंभ कर दें, वे फिर भी मनुष्य और सृजित प्राणियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। किंतु जब स्वयं परमेश्वर कार्य करता है, तो वह खुलकर प्राचीन युग के अभ्यासों के उन्मूलन की घोषणा नहीं करता या सीधे तौर पर नए युग की शुरुआत की घोषणा नहीं करता। वह अपने कार्य में स्पष्ट और ईमानदार है। वह उस कार्य को करने में बेबाक है, जिसे करने का वह इरादा रखता है; अर्थात्, वह उस कार्य को सीधे तौर पर व्यक्त करता है जिसे उसने किया है, वह अपने अस्तित्व और स्वभाव को व्यक्त करते हुए अपने मूल इरादे के अनुसार सीधे तौर पर अपना कार्य करता है। जैसा कि मनुष्य देखता है, उसका स्वभाव और कार्य भी पिछले युगों से भिन्न हैं। किंतु स्वयं परमेश्वर के दृष्टिकोण से, यह मात्र उसके कार्य की निरंतरता और आगे का विकास है। जब स्वयं परमेश्वर कार्य करता है, तो वह अपने वचन व्यक्त करता है और सीधे नया कार्य लाता है। इसके विपरीत, जब मनुष्य काम करता है, तो वह विचार-विमर्श एवं अध्ययन के माध्यम से होता है, या वह दूसरों के कार्य की बुनियाद पर निर्मित ज्ञान का विस्तार और अभ्यास का व्यवस्थापन है। कहने का अर्थ है कि मनुष्य द्वारा किए गए कार्य का सार किसी स्थापित व्यवस्था का अनुसरण करना और “नए जूतों से पुराने मार्ग पर चलना” है। इसका अर्थ है कि पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों द्वारा अपनाया गया मार्ग भी स्वयं परमेश्वर द्वारा शुरू किए गए मार्ग पर ही बना है। इसलिए, कुल मिलाकर मनुष्य फिर भी मनुष्य है, और परमेश्वर फिर भी परमेश्वर है।

यूहन्ना प्रतिज्ञा द्वारा जन्मा था, बहुत-कुछ वैसे ही, जैसे अब्राहम के यहाँ इसहाक पैदा हुआ था। उसने यीशु के लिए मार्ग तैयार किया और बहुत कार्य किया, किंतु वह परमेश्वर नहीं था। बल्कि, वह नबियों में से एक था, क्योंकि उसने केवल यीशु के लिए मार्ग प्रशस्त किया था। उसका कार्य भी महान था, और केवल उसके द्वारा मार्ग तैयार किए जाने के बाद ही यीशु ने आधिकारिक रूप से अपना कार्य शुरू किया। संक्षेप में, उसने केवल यीशु के लिए श्रम किया, और उसके द्वारा किया गया कार्य यीशु के कार्य की सेवा में था। उसके द्वारा मार्ग प्रशस्त किए जाने के बाद यीशु ने अपना कार्य शुरू किया, कार्य जो नया, अधिक ठोस और अधिक विस्तृत था। यूहन्ना ने कार्य का केवल शुरुआती अंश किया; नए कार्य का ज्यादा बड़ा भाग यीशु द्वारा किया गया था। यूहन्ना ने भी नया कार्य किया, किंतु उसने नए युग का सूत्रपात नहीं किया था। यूहन्ना प्रतिज्ञा द्वारा जन्मा था, और उसका नाम स्वर्गदूत द्वारा दिया गया था। उस समय, कुछ लोग उसका नाम उसके पिता जकरयाह के नाम पर रखना चाहते थे, परंतु उसकी माँ ने कहा, “इस बालक को उस नाम से नहीं पुकारा जा सकता। उसे यूहन्ना के नाम से पुकारा जाना चाहिए।” यह सब पवित्र आत्मा के आदेश से हुआ था। यीशु का नाम भी पवित्र आत्मा के आदेश से रखा गया था, उसका जन्म पवित्र आत्मा से हुआ था, और पवित्र आत्मा द्वारा उसकी प्रतिज्ञा की गई थी। यीशु परमेश्वर, मसीह और मनुष्य का पुत्र था। किंतु, यूहन्ना का कार्य भी महान होने के बावजूद उसे परमेश्वर क्यों नहीं कहा गया? यीशु द्वारा किए गए कार्य और यूहन्ना द्वारा किए गए कार्य में ठीक-ठीक क्या अंतर था? क्या सिर्फ यही एक कारण था कि यूहन्ना वह व्यक्ति था, जिसने यीशु के लिए मार्ग तैयार किया था? या इसलिए, क्योंकि इसे परमेश्वर द्वारा पहले से ही नियत कर दिया गया था? यद्यपि यूहन्ना ने भी कहा था, “मन फिराओ, क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है,” और उसने स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार का भी उपदेश दिया था, किंतु उसका कार्य आगे नहीं बढ़ा और उसने मात्र शुरुआत की। इसके विपरीत, यीशु ने एक नए युग का सूत्रपात करने के साथ-साथ पुराने युग का अंत भी किया, किंतु उसने पुराने विधान की व्यवस्था भी पूरी की। उसके द्वारा किया गया कार्य यूहन्ना के कार्य से अधिक महान था, और इतना ही नहीं, वह समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए आया—उसने कार्य के इस चरण को पूरा किया। जबकि यूहन्ना ने बस मार्ग तैयार किया। यद्यपि उसका कार्य महान था, उसके वचन बहुत थे, और उसका अनुसरण करने वाले चेले भी बहुत थे, फिर भी उसके कार्य ने लोगों के लिए एक नई शुरुआत लेकर आने से बढ़कर कुछ नहीं किया। मनुष्य ने उससे कभी जीवन, मार्ग या गहरे सत्य प्राप्त नहीं किए, न ही मनुष्य ने उसके जरिये परमेश्वर की इच्छा की समझ प्राप्त की। यूहन्ना एक बहुत बड़ा नबी (एलिय्याह) था, जिसने यीशु के कार्य के लिए नई ज़मीन खोली और चुने हुओं को तैयार किया; वह अनुग्रह के युग का अग्रदूत था। ऐसे मामले केवल उनके सामान्य मानवीय स्वरूप देखकर नहीं पहचाने जा सकते। यह इसलिए भी उचित है, क्योंकि यूहन्ना ने भी काफ़ी उल्लेखनीय काम किया; और इतना ही नहीं, पवित्र आत्मा द्वारा उसकी प्रतिज्ञा की गई थी, और उसके कार्य को पवित्र आत्मा द्वारा समर्थन दिया गया था। ऐसा होने के कारण, केवल उनके द्वारा किए जाने वाले कार्य के माध्यम से व्यक्ति उनकी पहचान के बीच अंतर कर सकता है, क्योंकि किसी मनुष्य के बाहरी स्वरूप से उसके सार के बारे में बताने का कोई उपाय नहीं है, न ही कोई ऐसा तरीका है जिससे मनुष्य यह सुनिश्चित कर सके कि पवित्र आत्मा की गवाही क्या है। यूहन्ना द्वारा किया गया कार्य और यीशु द्वारा किया गया कार्य भिन्न प्रकृतियों के थे। इसी से व्यक्ति यह निर्धारित कर सकता है कि यूहन्ना परमेश्वर था या नहीं। यीशु का कार्य शुरू करना, जारी रखना, समापन करना और सफल बनाना था। उसने इनमें से प्रत्येक चरण पूरा किया था, जबकि यूहन्ना का कार्य शुरुआत से अधिक और कुछ नहीं था। आरंभ में, यीशु ने सुसमाचार फैलाया और पश्चात्ताप के मार्ग का उपदेश दिया, और फिर वह मनुष्य को बपतिस्मा देने लगा, बीमारों को चंगा करने लगा, और दुष्टात्माओं को निकालने लगा। अंत में, उसने मानवजाति को पाप से छुटकारा दिलाया और संपूर्ण युग के अपने कार्य को पूरा किया। उसने लगभग हर स्थान पर जाकर मनुष्य को उपदेश दिया और स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाया। इस दृष्टि से यीशु और यूहन्ना समान थे, अंतर यह था कि यीशु ने एक नए युग का सूत्रपात किया और वह मनुष्य के लिए अनुग्रह का युग लाया। उसके मुँह से वह वचन निकला जिसका मनुष्य को अभ्यास करना चाहिए, और वह मार्ग निकला जिसका मनुष्य को अनुग्रह के युग में अनुसरण करना चाहिए, और अंत में उसने छुटकारे का कार्य पूरा किया। यूहन्ना यह कार्य कभी नहीं कर सकता था। और इसलिए, वह यीशु ही था जिसने स्वयं परमेश्वर का कार्य किया, और वही है जो स्वयं परमेश्वर है और सीधे परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है। मनुष्य की धारणाएँ कहती हैं कि वे सभी जो प्रतिज्ञा द्वारा जन्मे थे, पवित्र आत्मा से जन्मे थे, जिनका पवित्र आत्मा ने समर्थन किया था, और जिन्होंने नए मार्ग खोले, वे परमेश्वर हैं। इस तर्क के अनुसार, यूहन्ना भी परमेश्वर होगा, और मूसा, अब्राहम और दाऊद ..., ये सब भी परमेश्वर होंगे। क्या यह निरा मज़ाक नहीं है?

अपनी सेवकाई करने से पहले, यीशु भी केवल एक सामान्य व्यक्ति था, जिसने पवित्र आत्मा के हरेक कार्य के अनुसार कार्य किया। भले ही उस समय वह अपनी पहचान के बारे में जितना भी जानता हो, उसने उस सबका पालन किया, जो परमेश्वर से आया। पवित्र आत्मा ने उसकी सेवकाई शुरू होने से पहले कभी उसकी पहचान प्रकट नहीं की। यह उसकी सेवकाई शुरू करने के बाद था कि उसने उन नियमों और उन व्यवस्थाओं को समाप्त कर दिया, और उसके द्वारा आधिकारिक रूप से अपनी सेवकाई शुरू करने के उपरांत ही उसके वचनों में अधिकार और शक्ति व्याप्त हुए। उसके द्वारा अपनी सेवकाई शुरू करने के बाद ही एक नए युग को लाने का उसका कार्य शुरू हुआ। इससे पहले, पवित्र आत्मा 29 वर्षों तक उसके भीतर छिपा रहा, जिस समय के दौरान उसने केवल एक मनुष्य का प्रतिनिधित्व किया और वह परमेश्वर की पहचान के बिना रहा। उसके कार्य करने और अपनी सेवकाई शुरू करने के साथ ही परमेश्वर का कार्य शुरू हुआ, उसने इस बात की परवाह किए बिना कि मनुष्य उसे कितना जानता है, अपनी आंतरिक योजना के अनुसार अपना कार्य किया, और उसका कार्य स्वयं परमेश्वर का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व था। उस समय, यीशु ने अपने आस-पास के लोगों से पूछा, “तुम मुझे क्या कहते हो?” उन्होंने उत्तर दिया, “तुम महानतम नबी और हमारे अच्छे चिकित्सक हो।” और कुछ ने उत्तर दिया, “तुम हमारे महायाजक हो,” आदि-आदि। विभिन्न प्रकार के उत्तर दिए गए थे; कुछ ने यहाँ तक कहा कि वह यूहन्ना था, कि वह एलिय्याह था, फिर यीशु ने शमौन पतरस की ओर मुड़कर पूछा, “परंतु तुम मुझे क्या कहते हो?” पतरस ने उत्तर दिया, “तू जीवते परमेश्‍वर का पुत्र मसीह है।” तब से लोगों को पता चला कि वह परमेश्वर है। जब उसकी पहचान ज्ञात करवा दी गई, तो यह पतरस था जिसे सबसे पहले इसका ज्ञान हुआ और उसके मुँह से ऐसा कहा गया। फिर यीशु ने कहा, “तुमने जो कहा वह मांस और लहू ने नहीं, परंतु मेरे पिता ने प्रकट किया है।” उसके बपतिस्मा के बाद, चाहे यह दूसरों को ज्ञात हुआ हो या नहीं, उसका कार्य परमेश्वर की ओर से था। वह अपना कार्य करने के लिए आया था, अपनी पहचान प्रकट करने के लिए नहीं। पतरस के यह कहने के बाद ही उसकी पहचान खुलकर सामने आई। चाहे तुम्हें पता रहा हो या नहीं कि वह स्वयं परमेश्वर था, जब समय आया, तब उसने अपना कार्य शुरू कर दिया। और चाहे तुम्हें इसका पता रहा हो या नहीं, उसने अपना कार्य पहले की तरह जारी रखा। यहाँ तक कि यदि तुमने इनकार भी किया होता, तब भी वह समय आने पर अपना कार्य करता और उसे क्रियान्वित करता। वह अपना कार्य करने और अपनी सेवकाई करने के लिए आया था, इसलिए नहीं कि मनुष्य उसके देह को जान सके, बल्कि इसलिए कि मनुष्य उसके कार्य को प्राप्त कर सके। यदि तुम यह पहचानने में विफल रहे कि आज के कार्य का चरण स्वयं परमेश्वर का कार्य है, तो यह इसलिए है क्योंकि तुम्हारे पास दृष्टि का अभाव है। फिर भी, तुम कार्य के इस चरण से इनकार नहीं कर सकते; इसे पहचानने में तुम्हारी असफलता यह साबित नहीं करती कि पवित्र आत्मा कार्य नहीं कर रहा या उसका कार्य ग़लत है। ऐसे लोग भी हैं, जो वर्तमान समय के काम को बाइबल में उल्लिखित यीशु के काम से जाँचते हैं, और कार्य के इस चरण को नकारने के लिए किन्हीं भी विसंगतियों का उपयोग करते हैं। क्या यह किसी अंधे व्यक्ति का काम नहीं है? बाइबिल में दर्ज की गई चीज़ें सीमित हैं; वे परमेश्वर के संपूर्ण कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकतीं। सुसमाचार की चारों पुस्तकों में कुल मिलाकर एक सौ से भी कम अध्याय हैं, जिनमें एक सीमित संख्या में घटनाएँ लिखी हैं, जैसे यीशु का अंजीर के वृक्ष को शाप देना, पतरस का तीन बार प्रभु को नकारना, सलीब पर चढ़ाए जाने और पुनरुत्थान के बाद यीशु का चेलों को दर्शन देना, उपवास के बारे में शिक्षा, प्रार्थना के बारे में शिक्षा, तलाक के बारे में शिक्षा, यीशु का जन्म और वंशावली, यीशु द्वारा चेलों की नियुक्ति, इत्यादि। फिर भी मनुष्य इन्हें ख़ज़ाने जैसा महत्व देता है, यहाँ तक कि उनसे आज के काम की जाँच तक करता है। यहाँ तक कि वे यह भी विश्वास करते हैं कि यीशु ने अपने जीवनकाल में सिर्फ इतना ही कार्य किया, मानो परमेश्वर केवल इतना ही कर सकता है, इससे अधिक नहीं। क्या यह बेतुका नहीं है?

यीशु के पास पृथ्वी पर साढ़े तेंतीस वर्ष का समय था, अर्थात् वह साढ़े तेंतीस वर्ष पृथ्वी पर रहा। इसमें से केवल साढ़े तीन वर्ष का समय ही उसने अपनी सेवकाई करने में बिताया था; शेष समय में उसने सिर्फ एक सामान्य मनुष्य का जीवन जीया था। आरंभ में, उसने आराधना-स्थल की सेवाओं में भाग लिया और वहाँ याजकों द्वारा धर्म-ग्रंथों की व्याख्या और अन्य लोगों के उपदेश सुने। उसने बाइबल का बहुत ज्ञान प्राप्त किया : वह ऐसे ज्ञान के साथ नहीं जन्मा था, और उसने केवल पढ़-सुनकर इसे प्राप्त किया। यह बाइबिल में स्पष्ट रूप से दर्ज है कि उसने बारह वर्ष की आयु में आराधना-स्थल में रब्बियों से प्रश्न पूछे : प्राचीन नबियों की क्या भविष्यवाणियाँ थीं? मूसा की क्या व्यवस्थाएँ हैं? पुराना नियम क्या है? और मंदिर में याजकीय लबादे में परमेश्वर की सेवा करने वाला मनुष्य कौन है? ... उसने कई प्रश्न पूछे, क्योंकि उसमें न तो ज्ञान था और न ही समझ थी। यद्यपि वह पवित्र आत्मा द्वारा गर्भ में आया था, किंतु वह एक पूरी तरह से सामान्य व्यक्ति के रूप में जन्मा था; अपने में कुछ विशेष लक्षण होने के बावजूद, वह अभी भी एक सामान्य मनुष्य था। उसका ज्ञान उसकी कद-काठी और उम्र के अनुसार लगातार बढ़ता रहा, और वह साधारण मनुष्य के जीवन की अवस्थाओं से होकर गुज़रा था। मनुष्य की कल्पना में, यीशु ने न तो बचपन और न ही किशोरावस्था का अनुभव किया; उसने जन्मते ही एक तीस-वर्षीय मनुष्य का जीवन जीना शुरू कर दिया, और उसका कार्य पूरा हो जाने पर उसे सलीब पर चढ़ा दिया गया। वह शायद एक सामान्य व्यक्ति के जीवन के चरणों से होकर नहीं गुजरा; उसने न तो खाया और न ही वह दूसरे लोगों के साथ जुड़ा, और लोगों के लिए उसकी झलक देख पाना आसान नहीं था। शायद वह एक असामान्य व्यक्ति था, जो उन्हें डरा देता था जो उसे देखते थे, क्योंकि वह परमेश्वर था। लोग मानते हैं कि देह में आने वाला परमेश्वर निश्चित रूप से सामान्य मनुष्य की तरह नहीं जीता; वे मानते हैं कि वह दंत-मंजन किए बिना या अपना चेहरा धोए बिना ही स्वच्छ रहता है, क्योंकि वह एक पवित्र व्यक्ति है। क्या ये सब विशुद्ध रूप से मनुष्य की धारणाएँ नहीं हैं? बाइबल एक मनुष्य के रूप में यीशु का जीवन दर्ज नहीं करती, केवल उसके कार्य को दर्ज करती है, किंतु इससे यह साबित नहीं होता कि उसके पास एक सामान्य मानवता नहीं थी या 30 वर्ष की आयु से पहले उसने सामान्य मानव-जीवन नहीं जीया था। उसने आधिकारिक रूप से 29 वर्ष की आयु में अपना कार्य आरंभ किया, किंतु उस आयु से पहले तुम मनुष्य के रूप में उसका संपूर्ण जीवन बट्टे खाते नहीं डाल सकते। बाइबल ने बस उस अवधि को अपने अभिलेखों में शामिल नहीं किया; क्योंकि वह एक साधारण मनुष्य के रूप में उसका जीवन था और वह उसके दिव्य कार्य की अवधि नहीं थी, इसलिए उसे लिखे जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि यीशु के बपतिस्मा से पहले पवित्र आत्मा ने सीधे अपना कार्य नहीं किया, बल्कि उसने मात्र एक साधारण मनुष्य के रूप में उसके जीवन को उस दिन तक बनाए रखा, जबसे यीशु को अपनी सेवकाई शुरू करनी थी। यद्यपि वह देहधारी परमेश्वर था, फिर भी वह परिपक्व होने की प्रक्रिया से वैसे ही गुज़रा, जैसे एक सामान्य मानव गुज़रता है। परिपक्व होने की इस प्रक्रिया को बाइबल में शामिल नहीं किया गया। उसे इसलिए शामिल नहीं किया गया, क्योंकि वह मनुष्य के जीवन की उन्नति में कोई बड़ी सहायता प्रदान नहीं कर सकती थी। उसके बपतिस्मा से पहले की अवधि एक छिपी हुई अवधि थी, ऐसी अवधि, जिसमें उसने कोई चिह्न या चमत्कार नहीं दिखाए। केवल अपने बपतिस्मा के बाद ही यीशु ने मानवजाति के छुटकारे का समस्त कार्य आरंभ किया, ऐसा कार्य, जो विपुल है और अनुग्रह, सत्य, प्रेम और करुणा से भरा है। इस कार्य का आरंभ ठीक अनुग्रह के युग का आरंभ भी था; इसी कारण से इसे लिखा गया और वर्तमान तक पहुँचाया गया। यह अनुग्रह के युग के सभी लोगों के लिए एक मार्ग खोलने और उन्हें सफल बनाने के लिए था, ताकि वे अनुग्रह के युग के मार्ग पर और सलीब के मार्ग पर चल सकें। यद्यपि यह मनुष्य द्वारा लिखे गए अभिलेखों से आता है, फिर भी यह सब तथ्य है, केवल यहाँ-वहाँ कुछ मामूली त्रुटियाँ पाई जाती हैं। फिर भी, ये अभिलेख असत्य नहीं कहे जा सकते। दर्ज किए गए ये मामले पूरी तरह से तथ्यात्मक हैं, केवल उन्हें लिखते समय लोगों ने कुछ गलतियाँ कर दी हैं। कुछ लोग हैं, जो कहेंगे कि यदि यीशु एक सामान्य और साधारण मनुष्य था, तो ऐसा कैसे हो सकता है कि वह चिह्न और चमत्कार दिखाने में सक्षम था? चालीस दिनों का वह प्रलोभन, जिससे यीशु गुज़रा, एक चमत्कारी चिह्न था, जिसे प्राप्त करने में कोई सामान्य व्यक्ति अक्षम रहा होता। उसका चालीस दिनों का प्रलोभन पवित्र आत्मा के कार्य करने की प्रकृति में था; तो फिर कोई ऐसा कैसे कह सकता है कि उसमें लेश मात्र भी अलौकिकता नहीं थी? चिह्न और चमत्कार दिखाने की उसकी क्षमता यह साबित नहीं करती वह एक सर्वोत्कृष्ट व्यक्ति था और कोई सामान्य व्यक्ति नहीं था; बात यह है कि पवित्र आत्मा ने उस जैसे एक सामान्य व्यक्ति में कार्य किया, और इस प्रकार उसके लिए चमत्कार करना, बल्कि और अधिक बड़ा कार्य करना संभव बनाया। यीशु के अपनी सेवकाई करने से पहले, या जैसा कि बाइबल में कहा गया है, उसके ऊपर पवित्र आत्मा के उतरने से पहले, यीशु सिर्फ एक सामान्य मनुष्य था और किसी भी तरह से अलौकिक नहीं था। जब पवित्र आत्मा उस पर उतरा, अर्थात्, जब उसने अपनी सेवकाई करनी आरंभ की, तब उसमें अलौकिकता व्याप्त हो गई। इस तरह, लोग यह मानने लगे कि परमेश्वर द्वारा धारण किए गए देह में कोई सामान्य मानवता नहीं होती; और तो और, वे ग़लत ढंग से यह सोचते हैं कि देहधारी परमेश्वर के पास केवल दिव्यता होती है, मानवता नहीं। निश्चित रूप से, जब परमेश्वर धरती पर अपना कार्य करने आता है, तो मनुष्य जो देखता है, वे सब अलौकिक घटनाएँ होती हैं। लोग अपनी आँखों से जो कुछ देखते हैं और अपने कानों से जो कुछ सुनते हैं, वह सब अलौकिक होता है, क्योंकि उसके कार्य और उसके वचन उनके लिए अबोधगम्य और अप्राप्य होते हैं। यदि स्वर्ग की किसी चीज़ को पृथ्वी पर लाया जाता है, तो वह अलौकिक होने के सिवाय कोई अन्य चीज़ कैसे हो सकती है? जब स्वर्ग के राज्य के रहस्यों को पृथ्वी पर लाया जाता है, ऐसे रहस्य, जो मनुष्य के लिए अबोधगम्य और अगाध हैं, और जो बहुत चमत्कारी और बुद्धिमत्तापूर्ण हैं—क्या वे सब अलौकिक नहीं हैं? लेकिन, तुम्हें पता होना चाहिए कि कोई चीज़ कितनी भी अलौकिक हो, वह उसकी सामान्य मानवता के भीतर ही की जाती है। परमेश्वर द्वारा धारण किए गए देह में मानवता व्याप्त है, अन्यथा वह परमेश्वर द्वारा धारण किया गया देह न होता। यीशु ने अपने समय में बहुत चमत्कार किए। उस समय के इस्राएलियों ने जो देखा, वह अलौकिक चीजों से भरा था; उन्होंने फरिश्ते और दूत देखे, और उन्होंने यहोवा की आवाज़ सुनी। क्या ये सभी अलौकिक नहीं थे? निश्चित रूप से, आज कुछ दुष्ट आत्माएँ हैं, जो मनुष्य को अलौकिक चीजों के माध्यम से धोखा देती हैं; जो उनके द्वारा नक़ल किए जाने के अलावा और कुछ नहीं है, जो ऐसे कार्य के द्वारा मनुष्य को धोखा देने के लिए की जाती है, जो वर्तमान में पवित्र आत्मा द्वारा नहीं किया जाता। कई लोग चमत्कार करते हैं, बीमारों को चंगा करते हैं और दुष्टात्माओं को निकालते हैं; वे बुरी आत्माओं के कार्य के अलावा और कुछ नहीं हैं, क्योंकि पवित्र आत्मा वर्तमान में ऐसा कार्य नहीं करता, और जिन्होंने उस समय के बाद से पवित्र आत्मा के कार्य की नकल की है, वे निस्संदेह बुरी आत्माएँ हैं। उस समय इस्राएल में किया गया समस्त कार्य अलौकिक प्रकृति का था, लेकिन पवित्र आत्मा अब इस तरीके से कार्य नहीं करता, और अब ऐसा हर कार्य शैतान द्वारा की गई नकल और उसका भेस है और उसके द्वारा की जाने वाली गड़बड़ी है। लेकिन तुम यह नहीं कह सकते कि जो कुछ भी अलौकिक है, वह बुरी आत्माओं से आता है—यह परमेश्वर के कार्य के युग पर निर्भर करता है। देहधारी परमेश्वर द्वारा वर्तमान में किए जाने वाले कार्य को लो : इसका कौन-सा पहलू अलौकिक नहीं है? उसके वचन तुम्हारे लिए अबोधगम्य और अप्राप्य हैं, और उसके द्वारा किया जाने वाला कार्य किसी भी व्यक्ति के द्वारा नहीं किया जा सकता। जो वो समझता है, वह मनुष्य द्वारा किसी भी तरह से नहीं समझा जा सकता, और जहाँ तक उसके ज्ञान की बात है, मनुष्य नहीं जानता कि वह कहाँ से आता है। कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, “मैं भी तुम्हारे जैसा ही सामान्य हूँ, तो ऐसा कैसे है कि मैं वह नहीं जानता, जो तुम जानते हो? मैं अनुभव में बड़ा और समृद्ध हूँ, फिर भी तुम वह कैसे जान सकते हो, जो मैं नहीं जानता?” जहाँ तक मनुष्य की बात है, यह सब उसके लिए अप्राप्य है। फिर कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो कहते हैं, “इस्राएल में किए गए कार्य को कोई नहीं जानता; यहाँ तक कि बाइबल के प्रतिपादक भी कोई स्पष्टीकरण नहीं दे पाते; तुम उसे कैसे जानते हो?” क्या ये सभी अलौकिक मामले नहीं हैं? उसे चमत्कारों का कोई अनुभव नहीं है, फिर भी वह सब जानता है; वह अत्यधिक सहजता से सत्य बोलता और व्यक्त करता है। क्या यह अलौकिक नहीं है? उसका कार्य उससे बढ़कर है, जो देह प्राप्त कर सकता है। इसके बारे में मनुष्य सोच भी नहीं सकता और उसके मस्तिष्क के लिए यह पूरी तरह से अकल्पनीय है। यद्यपि उसने कभी बाइबल नहीं पढ़ी, फिर भी वह इस्राएल में किए गए परमेश्वर के कार्य को समझता है। और यद्यपि जब वह बोलता है तो वह पृथ्वी पर खड़ा होता है, किंतु वह तीसरे स्वर्ग के रहस्यों की बात करता है। जब मनुष्य इन वचनों को पढ़ता है, तो यह भावना उसे वशीभूत कर लेती है : “क्या यह तीसरे स्वर्ग की भाषा नहीं है?” क्या ये सभी ऐसे मामले नहीं हैं, जो सामान्य व्यक्ति की पहुँच से बाहर हैं? जब यीशु चालीस दिनों के उपवास से गुज़रा, तो क्या वह अलौकिक नहीं था? यदि तुम कहते हो कि चालीस दिनों का उपवास पूरी तरह से अलौकिक और दुष्ट आत्माओं का कार्य है, तो क्या तुमने यीशु की निंदा नहीं की है? अपनी सेवकाई प्रारंभ करने से पहले यीशु एक सामान्य मनुष्य की तरह ही था। वह भी विद्यालय गया; अन्यथा वह पढ़ना और लिखना कैसे सीख सकता था? जब परमेश्वर देह बना, तो पवित्रात्मा देह के भीतर छिपा हुआ था। फिर भी, एक सामान्य मनुष्य होने के नाते उसके लिए विकास और परिपक्वता की प्रक्रिया से गुज़रना आवश्यक था, और जब तक उसकी संज्ञानात्मक क्षमता परिपक्व नहीं हो गई, और वह चीजों को समझने में सक्षम नहीं हो गया, तब तक वह एक सामान्य व्यक्ति माना जा सकता था। केवल अपनी मानवता परिपक्व हो जाने के बाद ही वह अपनी सेवकाई का निष्पादन कर सकता था। जब तक उसकी सामान्य मानवता अपरिपक्व और विवेक-बुद्धि अपुष्ट थी, तब तक वह अपनी सेवकाई का निष्पादन कैसे कर सकता था? निश्चित रूप से उससे छह या सात वर्ष की उम्र में सेवकाई का निष्पादन करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी! पहली बार देह धारण करने पर परमेश्वर ने स्वयं को खुलकर अभिव्यक्त क्यों नहीं किया? ऐसा इसलिए था, क्योंकि उसके देह की मानवता अभी तक अपरिपक्व थी; उसके देह की संज्ञानात्मक प्रक्रियाएँ, और साथ ही उसके देह की सामान्य मानवता पूरी तरह से उसके वश में नहीं थीं। इस कारण से, उसे सामान्य मानवता और एक सामान्य व्यक्ति का सामान्य बोध प्राप्त करने की अत्यंत आवश्यकता थी—उस बिंदु तक, जहाँ वह देह में अपना कार्य करने के लिए पर्याप्त रूप से सुसज्जित न हो जाता—उसके बाद ही वह अपना कार्य शुरू कर सकता था। यदि वह कार्य करने योग्य न होता, तो उसके लिए विकसित और परिपक्व होते रहना आवश्यक होता। यदि यीशु ने सात-आठ वर्ष की आयु में अपना कार्य शुरू कर दिया होता, तो क्या मनुष्य ने उसे विलक्षण न मान लिया होता? क्या सभी लोग उसे बच्चा न समझते? कौन उसे विश्वसनीय समझता? सात-आठ वर्ष का बच्चा, जो उस पीठिका से ऊँचा नहीं है, जिसके पीछे वह खड़ा है—क्या वह उपदेश देने के योग्य होता? अपनी सामान्य मानवता के परिपक्व होने से पहले वह कार्य के लिए उपयुक्त नहीं था। जहाँ तक उसकी मानवता का संबंध है, जो अभी तक अपरिपक्व थी, कार्य का अधिकांश भाग उसके द्वारा पूरा किया ही नहीं जा सकता था। देह में परमेश्वर के आत्मा का कार्य भी अपने सिद्धांतों द्वारा नियंत्रित होता है। सामान्य मानवता से सुसज्जित होने पर ही वह परमपिता का कार्य पूरा कर सकता है और उसका कार्यभार ग्रहण कर सकता है। केवल तभी वह अपना कार्य प्रारंभ कर सकता है। अपने बचपन में यीशु प्राचीन समय में घटित घटनाओं को बहुत ज़्यादा नहीं समझ पाता था, और केवल आराधना-स्थलों में रब्बियों से पूछकर ही उन्हें समझ पाया था। यदि पहली बार बोलना सीखते ही उसने अपना कार्य आरंभ कर दिया होता, तो यह कैसे संभव था कि वह कोई ग़लती न करता? परमेश्वर भूल-चूक कैसे कर सकता है? इसलिए, कार्य करने में सक्षम होने के पश्चात् ही उसने अपना कार्य आरंभ किया; उसने तब तक कोई कार्य नहीं किया, जब तक वह उसे करने में पूरी तरह से सक्षम नहीं हो गया। 29 वर्ष की आयु में यीशु पहले ही काफी परिपक्व हो चुका था और उसकी मानवता उस कार्य को करने के लिए पर्याप्त सक्षम हो चुकी थी, जो उसे करना था। केवल तभी परमेश्वर के आत्मा ने आधिकारिक रूप से उसमें कार्य करना आरंभ किया। उस समय यूहन्ना उसके लिए मार्ग खोलने हेतु सात वर्ष की तैयारी कर चुका था, और अपने कार्य के समापन पर उसे बंदीगृह में डाल दिया गया था। तब पूरा बोझ यीशु पर आ गया। यदि उसने इस कार्य को 21 या 22 वर्ष की आयु में प्रारंभ किया होता, जिस समय उसकी मानवता में अभी भी कमी थी, जब उसने युवावस्था में प्रवेश किया ही था, और अभी भी कई चीज़ें ऐसी थीं जिन्हें वह नहीं समझता था, तो वह नियंत्रण अपने हाथों में ले पाने में असमर्थ होता। उस समय, यीशु के कार्य आरंभ करने से कुछ समय पूर्व ही यूहन्ना अपना कार्य कर चुका था, और उस समय तक वह मध्य आयु में प्रवेश कर चुका था। उस आयु में उसकी सामान्य मानवता उस कार्य को आरंभ करने के लिए पर्याप्त थी, जो उसे करना था। आज देहधारी परमेश्वर में भी सामान्य मानवता है और, यद्यपि वह तुम लोगों के बीच मौजूद बड़े-बूढ़ों जितनी परिवक्व नहीं है, फिर भी अपना कार्य आरंभ करने के लिए पर्याप्त है। आज के कार्य की परिस्थितियाँ पूरी तरह से वैसी नहीं हैं, जैसी वे यीशु के समय थीं। यीशु ने बारह प्रेरितों को क्यों चुना? यह सब उसके कार्य में सहायता के लिए और उसके सामंजस्य में था। एक ओर यह उस समय उसके कार्य की नींव रखने के लिए था, तो दूसरी ओर यह आने वाले दिनों में उसके कार्य की नींव रखने के लिए भी था। उस समय के कार्य के अनुसार, बारह प्रेरितों का चयन करना यीशु की इच्छा थी, और साथ ही यह स्वयं परमेश्वर की इच्छा भी थी। उसका मानना था कि उसे बारह प्रेरितों को चुनना चाहिए और फिर उन्हें सभी जगहों पर उपदेश के लिए भेजना चाहिए। लेकिन आज तुम लोगों के बीच इसकी कोई आवश्यकता नहीं है! जब देहधारी परमेश्वर देह में कार्य करता है, तो बहुत-से सिद्धांत होते हैं, और कई मामले होते हैं जिन्हें मनुष्य सामान्यतः नहीं समझता; मनुष्य उसकी थाह लेने के लिए या परमेश्वर से बहुत अधिक माँग करने के लिए लगातार अपनी धारणाओं का उपयोग करता है। फिर भी, आज के दिन भी बहुत लोग ऐसे हैं, जिन्हें बिलकुल भी नहीं पता कि उनका ज्ञान उनकी धारणाओं से युक्त है। परमेश्वर चाहे किसी भी युग या स्थान में देहधारण करे, देह में उसके कार्य के सिद्धांत अपरिवर्तनीय बने रहते हैं। वह देह बनकर भी अपने कार्य में देह से परे नहीं जा सकता; और यह तो बिलकुल भी नहीं कर सकता कि देह बनकर भी देह की सामान्य मानवता के भीतर काम न करे। अन्यथा परमेश्वर के देहधारण का अर्थ घुलकर शून्य हो जाएगा, और वचन का देह बनना पूरी तरह से निरर्थक हो जाएगा। इसके अतिरिक्त, केवल स्वर्ग में परमपिता (पवित्रात्मा) ही परमेश्वर के देहधारण के बारे में जानता है, और दूसरा कोई नहीं, यहाँ तक कि स्वयं देह या स्वर्ग के दूत भी नहीं। ऐसा होने के कारण, देह में परमेश्वर का कार्य और भी अधिक सामान्य है और, और भी बेहतर ढंग से यह प्रदर्शित करने में सक्षम है कि निस्संदेह वचन देह बन गया है, और देह का अर्थ एक साधारण और सामान्य मनुष्य है।

कुछ लोग आश्चर्य कर सकते हैं, “युग का सूत्रपात स्वयं परमेश्वर द्वारा क्यों किया जाना चाहिए? क्या उसके स्थान पर कोई सृजित प्राणी नहीं खड़ा हो सकता?” तुम सब लोग जानते हो कि एक नए युग का सूत्रपात करने के खास उद्देश्य से ही परमेश्वर देह बनता है, और, निस्संदेह, जब वह नए युग का सूत्रपात करता है, तो उसी समय वह पूर्व युग का समापन भी कर देता है। परमेश्वर आदि और अंत है; स्वयं वही है, जो अपने कार्य को गति प्रदान करता है और इसलिए स्वयं उसी को पिछले युग का समापन करने वाला भी होना चाहिए। यही उसके द्वारा शैतान को पराजित करने और संसार को जीतने का प्रमाण है। हर बार जब स्वयं वह मनुष्य के बीच कार्य करता है, तो यह एक नए युद्ध की शुरुआत होती है। नए कार्य की शुरुआत के बिना स्वाभाविक रूप से पुराने कार्य का समापन नहीं होगा। और पुराने का समापन न होना इस बात का प्रमाण है कि शैतान के साथ युद्ध अभी तक समाप्त नहीं हुआ है। केवल स्वयं परमेश्वर के मनुष्यों के बीच आने और एक नया कार्य करने पर ही मनुष्य शैतान के अधिकार-क्षेत्र को तोड़कर पूरी तरह से स्वतंत्र हो सकता है और एक नया जीवन तथा एक नई शुरुआत प्राप्त कर सकता है। अन्यथा, मनुष्य सदैव पुराने युग में जीएगा और हमेशा शैतान के पुराने प्रभाव के अधीन रहेगा। परमेश्वर द्वारा लाए गए प्रत्येक युग के साथ मनुष्य के एक भाग को मुक्त किया जाता है, और इस प्रकार परमेश्वर के कार्य के साथ-साथ मनुष्य एक नए युग की ओर बढ़ता है। परमेश्वर की विजय का अर्थ उन सबकी विजय है, जो उसका अनुसरण करते हैं। यदि सृजित मानवजाति को युग के समापन का कार्यभार दिया जाता, तब चाहे यह मनुष्य के दृष्टिकोण से हो या शैतान के, यह परमेश्वर के विरोध या परमेश्वर के साथ विश्वासघात के कार्य से बढ़कर न होता, यह परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता का कार्य न होता, और मनुष्य का कार्य शैतान का साधन बन जाता। केवल जब मनुष्य स्वयं परमेश्वर द्वारा सूत्रपात किए गए युग में परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन और उसका अनुसरण करता है, तभी शैतान पूरी तरह से आश्वस्त हो सकता है, क्योंकि यह सृजित प्राणी का कर्तव्य है। इसलिए मैं कहता हूँ कि तुम लोगों को केवल अनुसरण और आज्ञापालन कंरने की आवश्यकता है, और इससे अधिक तुम लोगों से किसी बात की अपेक्षा नहीं की जाती। प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा अपने कर्तव्य का पालन करने और अपने कार्य को क्रियान्वित करने का यही अर्थ है। परमेश्वर अपना काम करता है और उसे कोई आवश्यकता नहीं है कि मनुष्य उसके स्थान पर काम करे, और न ही वह सृजित प्राणियों के काम में भाग लेता है। मनुष्य अपना कर्तव्य निभाता है और परमेश्वर के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता। केवल यही सच्ची आज्ञाकारिता और शैतान की पराजय का सबूत है। स्वयं परमेश्वर द्वारा नए युग के सूत्रपात का कार्य पूरा कर देने के पश्चात्, वह मानवों के बीच अब और कार्य करने नहीं आता। केवल तभी एक सृजित प्राणी के रूप में मनुष्य अपना कर्तव्य और ध्येय पूरा करने के लिए आधिकारिक रूप से नए युग में कदम रखता है। ये वे सिद्धांत हैं, जिनके द्वारा परमेश्वर कार्य करता है, जिनका उल्लंघन किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता। केवल इस तरह से कार्य करना ही विवेकपूर्ण और तर्कसंगत है। परमेश्वर का कार्य स्वयं परमेश्वर द्वारा किया जाना है। वही है, जो अपने कार्य को गति प्रदान करता है, और वही है, जो अपने कार्य का समापन करता है। वही है, जो कार्य की योजना बनाता है, और वही है, जो उसका प्रबंधन करता है, और इतना ही नहीं, वही है, जो उस कार्य को सफल बनाता है। जैसा कि बाइबल में कहा गया है, “मैं ही आदि और अंत हूँ; मैं ही बोनेवाला और काटनेवाला हूँ।” वह सब-कुछ, जो उसके प्रबंधन के कार्य से संबंधित है, स्वयं परमेश्वर द्वारा किया जाता है। वह छह-हज़ार-वर्षीय प्रबंधन योजना का शासक है; कोई भी उसके स्थान पर उसका काम नहीं कर सकता और कोई भी उसके कार्य का समापन नहीं कर सकता, क्योंकि वही है, जो सब-कुछ अपने हाथ में रखता है। संसार का सृजन करने के कारण वह संपूर्ण संसार को अपने प्रकाश में रखने के लिए उसकी अगुआई करेगा, और वह संपूर्ण युग का समापन भी करेगा और इस प्रकार अपनी संपूर्ण योजना को सफल बनाएगा!

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