परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार

अपने पहले देहधारण में परमेश्वर पृथ्वी पर साढ़े तैंतीस साल रहा, उसने उन सालों में से केवल साढ़े तीन साल ही अपनी सेवकाई की। कार्य करने के दौरान और कार्य आरम्भ करने से पहले, इन दोनों अवधियों में, उसके पास सामान्य मानवता थी; वह साढ़े तैंतीस साल तक अपनी सामान्य मानवता में रहा। अंत के पूरे साढ़े तीन साल तक उसने अपने आपको देहधारी परमेश्वर के रूप में प्रकट किया। अपनी सेवकाई का कार्य प्रारंभ करने से पहले, वह साधारण और सामान्य मानवता के साथ ही प्रकट हुआ, उसने अपनी दिव्यता का कोई भी चिन्ह प्रकट नहीं किया। जब उसने औपचारिक रूप से अपनी सेवकाई प्रारंभ की, तभी उसकी दिव्यता अभिव्यक्त हुई। पहले उनतीस साल तक का उसका जीवन और कार्य दर्शाता है कि वह एक सच्चा मानव, मनुष्य का पुत्र और एक देह था; क्योंकि सही तौर पर उसकी सेवकाई उनतीस साल की उम्र के बाद ही आरंभ हुई थी। “देहधारण” परमेश्वर का देह में प्रकट होना है; परमेश्वर सृष्टि के मनुष्यों के मध्य देह की छवि में कार्य करता है। चूँकि परमेश्वर देहधारी है, तो उसे सबसे पहले देह बनना होगा, सामान्य मानवता वाला देह; यह सबसे मौलिक आवश्यकता है। वास्तव में, परमेश्वर के देहधारण का निहितार्थ यह है कि परमेश्वर देह में रह कर कार्य करता है, परमेश्वर अपने सार में देहधारी बन जाता है, वह मनुष्य बन जाता है। उसके देहधारी जीवन और कार्य को दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है। पहला वह जीवन है जो वह सेवकाई प्रारम्भ करने से पहले जीता है। वह एकदम सामान्य मानवता में रहता है, सामान्य मानवीय परिवार में रहकर, जीवन की सामान्य नैतिकताओं और व्यवस्थाओं का पालन करता है, उसकी सामान्य मानवीय आवश्यकताएँ होती हैं, (भोजन, कपड़ा, आवास, निद्रा), उसमें सामान्य मानवीय कमज़ोरियाँ और सामान्य मानवीय भावनाएँ होती हैं। दूसरे शब्दों में, इस पहले चरण में वह सभी मानवीय क्रियाकलापों में शामिल होते हुए, बिना दिव्यता के, पूरी तरह से सामान्य मानवता में रहता है। दूसरा चरण वह जीवन है जो वह अपनी सेवकाई को आरंभ करने के बाद जीता है। वह इस अवधि में भी, सामान्य मानव-आवरण के साथ, सामान्य मानवता में रहता है, और किसी तरह की अलौकिकता का कोई संकेत नहीं देता। फिर भी वह पूरी तरह से अपनी सेवकाई के लिए ही जीता है, और इस दौरान उसकी सामान्य मानवता पूरी तरह से उसकी दिव्यता के सामान्य कार्य को करने में लगी रहती है, क्योंकि तब तक उसकी सामान्य मानवता उसकी सेवकाई के कार्य को करने में सक्षम होने की स्थिति तक परिपक्व हो चुकी होती है। तो उसके जीवन का दूसरा चरण सामान्य मानवता में अपनी सेवकाई को करना है, जब यह सामान्य मानवता और पूर्ण दिव्यता दोनों का जीवन होता है। अपने जीवन के प्रथम चरण में वह पूरी तरह से साधारण मानवता का जीवन क्यों जीता है, उसका कारण यह है कि उसकी मानवता अभी तक दिव्य कार्य की समग्रता को संभालने लायक नहीं हो पायी है, अभी तक वह परिपक्व नहीं हुई है; जब उसकी मानवता परिपक्व हो जाती है, उसकी सेवकाई को सहारा प्रदान करने के योग्य बन जाती है, तभी वह जो सेवकाई उसे करनी चाहिए, उसकी शुरूआत कर सकता है। चूँकि उसे देह के रूप में विकसित होकर परिपक्व होने की आवश्यकता होती है, इसलिए उसके जीवन का पहला चरण सामान्य मानवता का जीवन होता है, जबकि दूसरे चरण में, क्योंकि उसकी मानवता उसके कार्य का दायित्व लेने और उसकी सेवकाई को करने में सक्षम होती है, अपनी सेवकाई के दौरान देहधारी परमेश्वर जिस जीवन को जीता है वह मानवता और पूर्ण दिव्यता दोनों का जीवन होता है। यदि अपने जन्म के समय से ही देहधारी परमेश्वर, अलौकिक संकेतों और चमत्कारों को दिखाते हुए, गंभीरता से अपनी सेवकाई आरंभ कर देता, तो उसमें कोई भी दैहिक सार नहीं होता। इसलिए, उसकी मानवता उसके दैहिक सार के लिए अस्तित्व में है; मानवता के बिना कोई देह नहीं हो सकता, और मानवता के बिना कोई व्यक्ति मानव नहीं होता। इस तरह, परमेश्वर के देह की मानवता, परमेश्वर के देहधारण का अंतर्भूत गुण है। ऐसा कहना कि “जब परमेश्वर देहधारण करता है तो वह पूरी तरह से दिव्य होता है, उसमें मानवीयता नहीं होती,” ईशनिंदा है, क्योंकि इस वक्तव्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है, और यह देहधारण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। अपनी सेवकाई आरंभ करने के बाद भी, अपना कार्य करते हुए वह बाह्य मानवीय आवरण के साथ ही अपनी दिव्यता में रहता है; बात सिर्फ़ इतनी ही है कि उस समय, उसकी मानवता उसकी दिव्यता को सामान्य देह में कार्य करने देने के एकमात्र प्रयोजन को पूरा करती है। इसलिए कार्य की अभिकर्ता उसकी मानवता में रहने वाली दिव्यता है। कार्य उसकी दिव्यता करती है, न कि उसकी मानवता, मगर यह दिव्यता उसकी मानवता में छिपी रहती है; सार रूप में, उसका कार्य उसकी संपूर्ण दिव्यता द्वारा ही किया जाता है, न कि उसकी मानवता द्वारा। परन्तु कार्य को करने वाला उसका देह है। कह सकते हैं कि वह मनुष्य भी है और परमेश्वर भी, क्योंकि परमेश्वर, मानवीय आवरण और मानवीय सार के साथ, देह में रहने वाला परमेश्वर बन जाता है, लेकिन उसमें परमेश्वर का सार भी होता है। चूँकि वह परमेश्वर के सार वाला मनुष्य है इसलिए वह सभी सृजित मानवों से ऊपर है, ऐसे किसी भी मनुष्य से ऊपर है जो परमेश्वर का कार्य कर सकता है। तो, उसके समान मानवीय आवरण वाले सभी लोगों में, सभी मानवता धारियों में, एकमात्र वही देहधारी स्वयं परमेश्वर है—अन्य सभी सृजित मानव हैं। यद्यपि उन सभी में मानवता है, किन्तु सृजित मानव में केवल मानवता ही है, जबकि देहधारी परमेश्वर भिन्न है : उसके देह में न केवल मानवता है, बल्कि अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उसमें दिव्यता भी है। उसकी मानवता उसके देह के बाहरी रूप-रंग में और उसके दिन-प्रतिदिन के जीवन में देखी जा सकती है, किन्तु उसकी दिव्यता को देख पाना मुश्किल है। क्योंकि उसकी दिव्यता केवल तभी व्यक्त होती है जब उसमें मानवता होती है, और यह वैसी अलौकिक नहीं होती जैसी लोग कल्पना करते हैं, इसलिए लोगों के लिए इसे देख पाना बहुत कठिन होता है। आज भी, लोगों के लिए देहधारी परमेश्वर के सच्चे सार की थाह पाना बहुत कठिन है। इसके बारे में इतने विस्तार से बताने के बाद भी, मुझे लगता है कि तुम लोगों में से अधिकांश के लिए यह एक रहस्य ही है। वास्तव में, यह मामला बहुत सरल है : चूँकि परमेश्वर देहधारी बन जाता है, उसका सार मानवता और दिव्यता का संयोजन है। यह संयोजन स्वयं परमेश्वर, पृथ्वी पर स्वयं परमेश्वर कहलाता है।

पृथ्वी पर यीशु ने जो जीवन जिया वह देह में एक सामान्य जीवन था। उसने अपने देह का सामान्य जीवन जिया। अपना कार्य करना, वचन बोलना, या बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना, ऐसे असाधारण कार्य करने के उसके अधिकार ने स्वयं को तब तक प्रकट नहीं किया जब तक कि उसने अपनी सेवकाई आरंभ नहीं की। उनतीस वर्ष की उम्र से पहले, अपनी सेवकाई आरंभ करने से पहले उसका जीवन, इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि वह बस एक सामान्य देह था। इस कारण से और क्योंकि उसने अभी तक अपनी सेवकाई आरंभ नहीं की थी, लोगों को उसमें कुछ भी दिव्य नहीं दिखाई दिया, एक सामान्य मानव, एक सामान्य मनुष्य से अधिक कुछ नहीं दिखाई दिया—ठीक जैसे कि उस समय कुछ लोग उसे यूसुफ का पुत्र ही मानते थे। लोगों को लगता था कि वह एक सामान्य मनुष्य का पुत्र है, उनके पास यह बताने का कोई तरीका नहीं था कि वह देहधारी परमेश्वर का देह है; यहाँ तक कि जब, अपनी सेवकाई करने के दौरान, उसने कई चमत्कार किए, तब भी अधिकांश लोगों ने यही कहा कि वह यूसुफ का पुत्र है, क्योंकि वह सामान्य मानवता के बाह्य आवरण वाला मसीह था। उसकी सामान्य मानवता और कार्य दोनों पहले देहधारण की महत्ता को पूर्ण करने के लिए थे, यह सिद्ध करने के लिए थे कि परमेश्वर पूरी तरह से देह में आकर एक अत्यंत साधारण मनुष्य बन गया है। अपना कार्य शुरु करने के पहले की उसकी सामान्य मानवता इस बात का प्रमाण थी कि वह एक साधारण देह था; और बाद में उसने कार्य किया इससे भी यह प्रमाणित हो गया कि वह एक साधारण देह था, क्योंकि उसने सामान्य मानवता द्वारा संकेत और चमत्कार किए, बीमार को चंगा किया और दुष्टात्माओं को देह से बाहर निकाला। वह इसलिए चमत्कार कर सका क्योंकि उसका देह परमेश्वर से अधिकार के युक्त था, परमेश्वर के आत्मा ने उसके देह को धारण किया था। उसके पास यह अधिकार परमेश्वर के आत्मा के कारण था, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि वह देह नहीं था। उसे अपनी सेवकाई में बीमार को चंगा करने और दुष्टात्माओं को निकालने का कार्य करना था, यह उसकी मानवता में छिपी दिव्यता की अभिव्यक्ति थी, भले ही उसने कोई भी संकेत दिखाए हों या अपने अधिकार को कैसे भी प्रदर्शित किया हो, लेकिन तब भी वह सामान्य मानवता में रहने वाला सामान्य देह ही था। सलीब पर जान देने से लेकर पुनर्जीवित होने तक, वह सामान्य देह में ही रहा। अनुग्रह प्रदान करना, बीमार को चंगा करना, और दुष्टात्माओं को निकालना, ये सब उसकी सेवकाई का हिस्सा थे, ये सारे कार्य उसके सामान्य देह में किए गए थे। चाहे वह कोई भी कार्य कर रहा हो, लेकिन क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले, वह कभी भी अपने सामान्य मानव देह से अलग नहीं हुआ। वह स्वयं परमेश्वर था, परमेश्वर का अपना कार्य कर रहा था, लेकिन चूँकि वह देहधारी परमेश्वर था, इसलिए वह खाना भी खाता था, कपड़े भी पहनता था, उसकी आवश्यकताएँ सामान्य इंसानों जैसी थीं, उसमें सामान्य मानवीय तर्क-शक्ति और सामान्य मानवीय मन था। यह सब इस बात का प्रमाण है कि वह एक सामान्य मनुष्य था, इससे सिद्ध होता है कि देहधारी परमेश्वर का देह सामान्य मानवता से युक्त देह था, न कि कोई अलौकिक देह। उसका कार्य परमेश्वर के पहले देहधारण के कार्य को पूरा करना था, उस सेवकाई को पूरा करना था जो पहले देहधारण को पूरी करनी चाहिए। देहधारण की महत्ता यह है कि एक साधारण, सामान्य मनुष्य स्वयं परमेश्वर का कार्य करता है; अर्थात्, परमेश्वर मानव देह में अपना दिव्य कार्य करके शैतान को परास्त करता है। देहधारण का अर्थ है कि परमेश्वर का आत्मा देह बन जाता है, अर्थात्, परमेश्वर देह बन जाता है; देह के द्वारा किया जाने वाला कार्य पवित्रात्मा का कार्य है, जो देह में साकार होता है, देह द्वारा अभिव्यक्त होता है। परमेश्वर के देह को छोड़कर अन्य कोई भी देहधारी परमेश्वर की सेवकाई को पूरा नहीं कर सकता; अर्थात्, केवल परमेश्वर का देहधारी देह, यह सामान्य मानवता—अन्य कोई नहीं—दिव्य कार्य को व्यक्त कर सकता है। यदि, परमेश्वर के पहले आगमन के दौरान, उनतीस वर्ष की उम्र से पहले उसमें सामान्य मानवता नहीं होती—यदि जन्म लेते ही वह चमत्कार करने लगता, बोलना आरंभ करते ही वह स्वर्ग की भाषा बोलने लगता, यदि पृथ्वी पर कदम रखते ही सभी सांसारिक मामलों को समझने लगता, हर व्यक्ति के विचारों और इरादों को समझने लगता—तो ऐसे इंसान को सामान्य मनुष्य नहीं कहा जा सकता था, और ऐसे देह को मानवीय देह नहीं कहा जा सकता था। यदि मसीह के साथ ऐसा ही होता, तो परमेश्वर के देहधारण का कोई अर्थ और सार ही नहीं रह जाता। उसका सामान्य मानवता से युक्त होना इस बात को सिद्ध करता है कि वह शरीर में देहधारी हुआ परमेश्वर है; उसका सामान्य मानव विकास प्रक्रिया से गुज़रना दिखाता है कि वह एक सामान्य देह है; इसके अलावा, उसका कार्य इस बात का पर्याप्त सबूत है कि वह परमेश्वर का वचन है, परमेश्वर का आत्मा है जिसने देहधारण किया है। अपने कार्य की आवश्यकताओं की वजह से परमेश्वर देहधारी बनता है; दूसरे शब्दों में, कार्य का यह चरण देह में पूरा किया जाना चाहिए, सामान्य मानवता में पूरा किया जाना चाहिए। यही “वचन के देह बनने” के लिए, “वचन के देह में प्रकट होने” के लिए पहली शर्त है, और यही परमेश्वर के दो देहधारणों के पीछे की सच्ची कहानी है। हो सकता है लोग यह मानते हों कि यीशु ने जीवनभर चमत्कार किए, पृथ्वी पर अपने कार्य की समाप्ति तक उसने मानवता का कोई चिह्न प्रकट नहीं किया, उसकी आवश्यकताएँ सामान्य मानव जैसी नहीं थीं, या उसमें मानवीय कमज़ोरियाँ या मानवीय भावनाएँ नहीं थीं, उसे जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं की ज़रूरत नहीं थी या उसे सामान्य मानवीय विचारों पर चिंतन करने की ज़रूरत नहीं थी। वे यही कल्पना करते हैं कि उसका मन अतिमानवीय है, उसके पास श्रेष्ठ मानवता है। वे मानते हैं कि चूँकि वह परमेश्वर है, इसलिए उसे उस तरह से रहना और सोचना नहीं चाहिए जैसे सामान्य मानव रहते और सोचते हैं, कोई सामान्य व्यक्ति, एक वास्तविक इंसान, ही सामान्य मानवीय सोच-विचार रख सकता और एक सामान्य मानवीय जीवन जी सकता है। ये सभी मनुष्य के विचार, और मनुष्य की धारणाएँ हैं, और ये धारणाएँ परमेश्वर के कार्य के वास्तविक इरादों के प्रतिकूल हैं। सामान्य मानव सोच, सामान्य मानव सूझ-बूझ और साधारण मानवता को बनाए रखती है; सामान्य मानवता देह के सामान्य कार्यों को बनाए रखती है; और देह के सामान्य कार्य, देह के सामान्य जीवन को उसकी समग्रता में बनाए रखते हैं। ऐसे देह में कार्य करके ही परमेश्वर अपने देहधारण के उद्देश्य को पूरा कर सकता है। यदि देहधारी परमेश्वर केवल देह के बाहरी आवरण को ही धारण किए रहता, लेकिन उसमें सामान्य मानवीय विचार न आते, तो उसके देह में मानवीय सूझ-बूझ न होती, वास्तविक मानवता तो बिल्कुल न होती। ऐसा मानवता रहित देह, उस सेवकाई को कैसे पूरा कर सकता है जिसे देहधारी परमेश्वर को करना चाहिए? सामान्य मन मानव जीवन के सभी पहलुओं को बनाए रखता है; बिना सामान्य मन के, कोई व्यक्ति मानव नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में, कोई व्यक्ति जो सामान्य ढंग से सोच-विचार नहीं करता, वह मानसिक रूप से बीमार है, और एक मसीह जिसमें मानवता न होकर केवल दिव्यता हो, उसे परमेश्वर का देहधारी शरीर नहीं कहा जा सकता। इसलिए, ऐसा कैसे हो सकता है कि परमेश्वर के देहधारी शरीर में कोई सामान्य मानवता न हो? क्या ऐसा कहना ईशनिंदा नहीं होगी कि मसीह में कोई मानवता नहीं है? ऐसे सभी क्रियाकलाप जिनमें सामान्य मानव शामिल होते हैं एक सामान्य मानव मन की कार्यशीलता के भरोसे होते हैं। इसके बिना, मानव पथभ्रष्ट की तरह व्यवहार करते; यहाँ तक कि वे सफेद और काले, अच्छे और बुरे में अंतर भी न कर पाते; उनमें कोई भी मानवीय आचरण न होता, और नैतिक सिद्धांत न होते। इसी प्रकार से, यदि देहधारी परमेश्वर एक सामान्य मानव की तरह न सोचता, तो वह एक प्रामाणिक देह, एक सामान्य देह न होता। सोच-विचार न करने वाला ऐसा देह दिव्य कार्य न कर पाता। वह सामान्य रूप से सामान्य देह की गतिविधियों में शामिल न हो पाता, पृथ्वी पर मनुष्यों के साथ रहने की तो बात ही छोड़ दो। और इस तरह, परमेश्वर के देहधारण की महत्ता, परमेश्वर का देह में आने का वास्तविक सार ही खो गया होता। देहधारी परमेश्वर की मानवता देह में सामान्य दिव्य कार्य को बनाए रखने के लिए मौजूद रहती है; उसकी सामान्य मानवीय सोच उसकी सामान्य मानवता को और उसकी समस्त सामान्य दैहिक गतिविधियों को बनाए रखती है। ऐसा कहा जा सकता है कि उसकी सामान्य मानवीय सोच देह में परमेश्वर के समस्त कार्य को बनाए रखने के उद्देश्य से विद्यमान रहती है। यदि इस देह में सामान्य मानवीय मन न होता, तो परमेश्वर देह में कार्य न कर पाता और जो उसे देह में करना था, वह कभी न कर पाता। यद्यपि देहधारी परमेश्वर में एक सामान्य मानवीय मन होता है, किन्तु उसके कार्य में मानवीय विचारों की मिलावट नहीं होती; वह सामान्य मन के साथ मानवता में कार्य करता है जिसमें मन-युक्त मानवता के होने की पूर्वशर्त रहती है, न कि सामान्य मानवीय विचारों को प्रयोग में लाने की। उसके देह के विचार कितने भी उत्कृष्ट क्यों न हों, लेकिन उसका कार्य तर्क या सोच से कलंकित नहीं होता। दूसरे शब्दों में, उसके कार्य की कल्पना उसके देह के मन के द्वारा नहीं की जाती, बल्कि वह उसकी मानवता में दिव्य कार्य की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। उसका समस्त कार्य उसकी वह सेवकाई है जिसे उसे पूरा करना है, उसमें से कुछ भी उसके मस्तिष्क की कल्पना नहीं होता। उदाहरण के लिए, बीमार को चंगा करना, दुष्टात्माओं को निकालना, और क्रूसीकरण उसके मानवीय मन की उपज नहीं थे, उन्हें किसी भी मानवीय मन वाले मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता था। उसी तरह, आज का विजय-कार्य ऐसी सेवकाई है जिसे देहधारी परमेश्वर द्वारा किया जाना चाहिए, किन्तु यह किसी मानवीय इच्छा का कार्य नहीं है, यह ऐसा कार्य है जो उसकी दिव्यता को करना चाहिए, ऐसा कार्य जिसे करने में कोई भी दैहिक मानव सक्षम नहीं है। इसलिए देहधारी परमेश्वर में सामान्य मानव मन होना चाहिए, सामान्य मानवता से संपन्न होना चाहिए, क्योंकि उसे एक सामान्य मन के साथ मानवता में कार्य करना चाहिए। यही देहधारी परमेश्वर के कार्य का सार है, देहधारी परमेश्वर का वास्तविक सार है।

कार्य आरंभ करने से पहले, यीशु सामान्य मानवता में रहता था। कोई नहीं कह सकता था कि वह परमेश्वर है, किसी को भी पता नहीं चला कि वह देहधारी परमेश्वर है; लोग उसे पूरी तरह से एक साधारण व्यक्ति ही समझते थे। उसकी सर्वथा सामान्य, साधारण मानवता इस बात का प्रमाण थी कि परमेश्वर ने देहधारण किया है, और अनुग्रह का युग देहधारी परमेश्वर के कार्य का युग है, न कि पवित्रात्मा के कार्य का युग। यह इस बात का प्रमाण था कि परमेश्वर का आत्मा पूरी तरह से देह में साकार हुआ है और परमेश्वर के देहधारण के युग में उसका देह पवित्रात्मा का समस्त कार्य करेगा। सामान्य मानवता वाला मसीह ऐसा देह है जिसमें आत्मा साकार हुआ है, जिसमें सामान्य मानवता है, सामान्य बोध है और मानवीय विचार हैं। “साकार होने” का अर्थ है परमेश्वर का मानव बनना, आत्मा का देह बनना; इसे और स्पष्ट रूप से कहें, तो यह तब होता है जब स्वयं परमेश्वर सामान्य मानवता वाले देह में वास करके उसके माध्यम से अपने दिव्य कार्य को व्यक्त करता है—यही साकार होने या देहधारी होने का अर्थ है। अपने पहले देहधारण के दौरान, परमेश्वर के लिए बीमारों को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना आवश्यक था, क्योंकि उसका कार्य छुटकारा दिलाना था। पूरी मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए, उसका दयालु और क्षमाशील होना आवश्यक था। सलीब पर चढ़ाए जाने से पहले उसने बीमार को चंगा करने और दुष्टात्माओं को निकालने का कार्य किया, जो उसके द्वारा मनुष्य के पाप और मलिनता से उद्धार के पूर्वलक्षण थे। चूँकि वह अनुग्रह का युग था, इसलिए बीमारों को चंगा करके संकेत और चमत्कार दिखाना परमेश्वर के लिए आवश्यक था, जो उस युग में अनुग्रह के प्रतिनिधि थे—क्योंकि अनुग्रह का युग अनुग्रह प्रदान करने के आस-पास केन्द्रित था, जिसका प्रतीक शान्ति, आनंद और भौतिक आशीष थे, जो कि सभी यीशु में लोगों के विश्वास की निशानियाँ थीं। अर्थात् बीमार को चंगा करना, दुष्टात्माओं को निकालना, और अनुग्रह प्रदान करना, अनुग्रह के युग में यीशु के देह की सहज क्षमताएँ थीं, ये देह में साकार हुए पवित्रात्मा के कार्य थे। किन्तु जब वह ऐसे कार्य कर रहा था, तब वह देह में रह रहा था, देह से परे नहीं गया था। उसने चंगाई का चाहे कैसा भी कार्य क्यों न किया हो, तब भी उसमें सामान्य मानवता ही थी, तब भी वह एक सामान्य मानव जीवन ही जी रहा था। परमेश्वर के देहधारण के युग में देह ने पवित्रात्मा के सभी कार्य किए, मेरा ऐसा कहने का कारण यह है कि चाहे उसने कोई भी कार्य किया हो, उसने वह कार्य देह में रहकर ही किया था। किन्तु उसके कार्य की वजह से, लोगों ने उसके देह को पूरी तरह से दैहिक सार धारण करने वाला नहीं माना, क्योंकि वह देह चमत्कार कर सकता था, और किसी विशेष समय में ऐसे कार्य कर सकता था जो देह से परे के होते थे। बेशक, ये सारी घटनाएँ उसकी सेवकाई आरंभ करने के बाद हुईं, जैसे कि चालीस दिनों तक उसकी परीक्षा लिया जाना या पहाड़ पर रूपान्तरित होना। तो यीशु के साथ, परमेश्वर के देहधारण का अर्थ पूर्ण नहीं हुआ था, बल्कि केवल आंशिक तौर पर पूर्ण हुआ था। अपना कार्य आरंभ करने से पहले उसने देह में जो जीवन जिया वह हर तरह से एकदम सामान्य था। कार्य आरंभ करने के बाद, उसने केवल अपने देह के बाहरी आवरण को बनाए रखा। क्योंकि उसका कार्य दिव्यता की अभिव्यक्ति था, इसलिए यह देह के सामान्य कार्यों से बढ़कर था। आख़िरकार, परमेश्वर का देहधारी देह मांस-और-रक्त वाले मानव से भिन्न था। बेशक, अपने दैनिक जीवन में, उसे भोजन, कपड़ों, नींद और आश्रय की आवश्यकता पड़ती थी, उसे सभी आम ज़रूरत की चीज़ों की आवश्यकता होती थी, उसमें सामान्य मानवीय बोध था, और वह एक आम इंसान की तरह ही सोचता था। उसके अलौकिक कार्य को छोड़कर, लोग अभी भी उसे एक सामान्य मनुष्य ही मान रहे थे। वास्तव में, प्रत्येक कार्य करते हुए वह एक साधारण और सामान्य मानवता में ही जी रहा था और जहाँ तक उसने जो कार्य किया, उसकी बात है, उसकी समझ विशेष रूप से सामान्य थी, उसके विचार, किसी भी अन्य सामान्य मनुष्य की अपेक्षा, विशेष रूप से अधिक सुस्पष्ट थे। इस प्रकार की सोच और समझ एक देहधारी परमेश्वर के लिए आवश्यक थी, क्योंकि दिव्य कार्य को ऐसे देह के द्वारा व्यक्त किए जाने की आवश्यकता थी जिसकी समझ बहुत ही सामान्य हो और विचार बहुत ही सुस्पष्ट हों—केवल इसी प्रकार से उसका देह दिव्य कार्य को व्यक्त कर सकता था। यीशु ने इस पृथ्वी पर अपने पूरे साढ़े तैतीस साल के वास में, अपनी सामान्य मानवता बनाए रखी, किन्तु उसकी इन साढ़े तैतीस साल की सेवकाई के दौरान, लोगों ने सोचा कि वह सर्वश्रेष्ठ है, पहले की अपेक्षा बहुत ही अलौकिक है। जबकि असलियत में, यीशु की सामान्य मानवता सेवकाई आरंभ करने से पहले और बाद में अपरिवर्तित रही; पूरे समय उसकी मानवता एक-सी थी, किन्तु जब उसने अपनी सेवकाई आरंभ की उससे पहले और उसके बाद के अंतर के कारण, उसके देह को लेकर, दो भिन्न-भिन्न मत उभरे। लोगों की राय कुछ भी रही हो, लेकिन देहधारी परमेश्वर ने पूरी अवधि में, अपनी सामान्य मानवता बनाए रखी, क्योंकि जबसे परमेश्वर देहधारी हुआ था, तब से वह देह में ही रहा, ऐसे देह में जिसमें सामान्य मानवता थी। चाहे वह अपनी सेवकाई कर रहा हो या न कर रहा हो, उसके देह की सामान्य मानवता को मिटाया नहीं जा सकता था, क्योंकि मानवता देह का मूल सार है। अपनी सेवकाई से पहले, सभी सामान्य मानवीय क्रियाकलापों में संलग्न रहते हुए यीशु का देह पूरी तरह से सामान्य रहा; वह जरा-सा भी अलौकिक नज़र नहीं आया, उसने कोई भी चमत्कारी संकेत नहीं दिखाए। उस समय, वह केवल एक आम इंसान था जो परमेश्वर की आराधना करता था, भले ही उसका लक्ष्य अधिक ईमानदार था, किसी भी व्यक्ति से अधिक निष्ठापूर्ण था। इस प्रकार उसकी सर्वथा सामान्य मानवता ने स्वयं को अभिव्यक्त किया। चूँकि सेवकाई का कार्य शुरू करने से पहले, उसने कोई कार्य नहीं किया था, इसलिए कोई उसे पहचानता नहीं था, कोई नहीं कह सकता था कि उसका देह बाकी लोगों से अलग है, क्योंकि उसने एक भी चमत्कार नहीं किया था, स्वयं परमेश्वर का ज़रा-सा भी कार्य नहीं किया था। लेकिन, सेवकाई का कार्य प्रारंभ करने के बाद, उसने सामान्य मानवता का बाहरी आवरण बनाए रखा और तब भी सामान्य मानवीय सूझबूझ के साथ ही जीता रहा, लेकिन क्योंकि उसने स्वयं परमेश्वर का कार्य करना, मसीह की सेवकाई अपनाना और उन कार्यों को करना आरंभ कर दिया था जिन्हें करने में नश्वर प्राणी, मांस-और-रक्त से बने प्राणी अक्षम थे, इसलिए लोगों ने मान लिया कि उसकी सामान्य मानवता नहीं है, उसका देह पूरी तरह से सामान्य नहीं है बल्कि अपूर्ण देह है। उसके द्वारा किए गए कार्य की वजह से, लोगों ने कहा कि वह देह में परमेश्वर है जिसके पास सामान्य मानवता नहीं है। ऐसी समझ भ्रामक है, क्योंकि लोगों ने देहधारी परमेश्वर की महत्ता को नहीं समझा। यह भ्रामक समझ इस तथ्य से पैदा हुई थी कि परमेश्वर द्वारा देह में व्यक्त कार्य दिव्य कार्य है, जो ऐसे देह में व्यक्त किया जाता है जिसकी एक सामान्य मानवता है। परमेश्वर देह के आवरण में था, उसका वास देह में था, परमेश्वर की मानवता में उसके कार्य ने उसकी मानवता की सामान्यता को धुँधला कर दिया था। इसी कारण से लोगों ने विश्वास कर लिया कि परमेश्वर में मानवता नहीं है केवल दिव्यता है।

अपने पहले देहधारण में परमेश्वर ने देहधारण के कार्य को पूरा नहीं किया; उसने उस कार्य के पहले चरण को ही पूरा किया जिसे परमेश्वर के लिए देह में रहकर करना आवश्यक था। इसलिए, देहधारण के कार्य को समाप्त करने के लिए, परमेश्वर एक बार फिर देह में वापस आया है, और देह की समस्त सामान्यता और व्यावहारिकता को जी रहा है, अर्थात्, एकदम सामान्य और साधारण देह में परमेश्वर के वचन को प्रकट कर रहा है, इस प्रकार उस कार्य का समापन कर रहा है जिसे उसने देह में अधूरा छोड़ दिया था। दूसरा देहधारण सार रूप में पहले के ही समान है, लेकिन यह अधिक व्यावहारिक और पहले से भी अधिक सामान्य है। परिणामस्वरूप, दूसरा देहधारी देह पहले देहधारण से भी अधिक पीड़ा सहता है, किन्तु यह पीड़ा देह में उसकी सेवकाई का परिणाम है, जो कि एक भ्रष्ट मानव की पीड़ा से भिन्न है। यह भी उसके देह की सामान्यता और व्यावहारिकता से उत्पन्न होती है। क्योंकि वह अपनी सेवकाई का कार्य सर्वथा सामान्य और व्यावहारिक देह में करता है, इसलिए उसकी देह को अत्यधिक कठिनाई सहनी होगी। उसकी देह जितनी अधिक सामान्य और व्यावहारिक होगी, उतना ही अधिक वह अपनी सेवकाई में कष्ट उठाएगा। परमेश्वर का कार्य एक बहुत ही आम देह में अभिव्यक्त होता है, ऐसा देह जो कि बिल्कुल भी अलौकिक नहीं है। चूँकि उसकी देह सामान्य है और उसे मनुष्य को बचाने के कार्य का दायित्व भी लेना है, इसलिए वह अलौकिक देह की अपेक्षा और भी अधिक पीड़ा भुगतता है—और ये सारी पीड़ा उसकी देह की व्यावहारिकता और सामान्यता से उत्पन्न होती है। सेवकाई का कार्य करते समय जिस पीड़ा से दोनों देहधारी देह गुज़रे हैं, उससे देहधारी देह के सार को देखा जा सकता है। देह जितनी अधिक सामान्य होगी, उसे कार्य करते समय उतनी ही अधिक कठिनाई सहनी होगी; कार्य करने वाली देह जितनी अधिक व्यावहारिक होती है, लोगों की धारणाएँ भी उतनी ही अधिक कठोर होती हैं, और उस पर आने वाले ख़तरों की आशंका उतनी ही अधिक होती है। फिर भी, देह जितनी अधिक व्यावहारिक होती है, और उसमें सामान्य मानव की जितनी अधिक आवश्यकताएँ और पूर्ण बोध होता है, वह उतना ही अधिक परमेश्वर के कार्य को देह में कर पाने में सक्षम होता है। यीशु की देह को सलीब पर चढ़ाया गया था, उसी ने पापबलि के रूप में अपनी देह को दिया था; उसने सामान्य मानवता वाली देह से ही शैतान को हराकर सलीब से मनुष्य को पूरी तरह से बचाया था। और पूरी तरह से देह के रूप में ही परमेश्वर अपने दूसरे देहधारण में विजय का कार्य करता है और शैतान को हराता है। केवल ऐसी देह जो पूरी तरह से सामान्य और व्यावहारिक है, अपनी समग्रता में विजय का कार्य करके एक सशक्त गवाही दे सकती है। अर्थात्, देह में परमेश्वर की व्यावहारिकता और सामान्यता के माध्यम से ही मानव पर विजय को प्रभावी बनाया जाता है, न कि अलौकिक चमत्कारों और प्रकटनों के माध्यम से। इस देहधारी परमेश्वर की सेवकाई बोलना, मनुष्य को जीतना और उसे पूर्ण बनाना है; दूसरे शब्दों में, देह में साकार हुए पवित्रात्मा का कार्य, देह का कर्तव्य, बोलकर मनुष्य को पूरी तरह से जीतना, उजागर करना, पूर्ण बनाना और त्यागना है। इसलिए, विजय के कार्य में ही देह में परमेश्वर का कार्य पूरी तरह से सम्पन्न होगा। आरंभिक छुटकारे का कार्य देहधारण के कार्य का आरंभ मात्र था; विजय का कार्य करने वाला देह देहधारण के समस्त कार्य को पूरा करेगा। लिंग रूप में, एक पुरुष है और दूसरा महिला; यह परमेश्वर के देहधारण की महत्ता को पूर्णता देकर, परमेश्वर के बारे में मनुष्य की धारणाओं को दूर करता है : परमेश्वर पुरुष और महिला दोनों बन सकता है, सार रूप में देहधारी परमेश्वर स्त्रीलिंग या पुल्लिंग नहीं है। उसने पुरुष और महिला दोनों को बनाया है, और उसके लिए कोई लिंगभेद नहीं है। कार्य के इस चरण में, परमेश्वर संकेत और चमत्कार नहीं दिखाता, ताकि कार्य वचनों के माध्यम से अपने परिणाम प्राप्त करे। क्योंकि देहधारी परमेश्वर का इस बार का कार्य बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना नहीं है, बल्कि बोलकर मनुष्य को जीतना है, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर के इस देहधारण का सहज गुण वचन बोलना और मनुष्य को जीतना है, न कि बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना। सामान्य मानवता में उसका कार्य चमत्कार करना नहीं है, बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना नहीं है, बल्कि बोलना है, और इसलिए दूसरा देहधारी देह लोगों को पहले वाले की तुलना में अधिक सामान्य लगता है। लोग देखते हैं कि परमेश्वर का देहधारण मिथ्या नहीं है; बल्कि यह देहधारी परमेश्वर यीशु के देहधारण से भिन्न है, हालाँकि दोनों ही परमेश्वर के देहधारण हैं, फिर भी वे पूरी तरह से एक नहीं हैं। यीशु में सामान्य और साधारण मानवता थी, लेकिन उसमें अनेक संकेत और चमत्कार दिखाने की शक्ति थी। जबकि इस देहधारी परमेश्वर में, मानवीय आँखों को न तो कोई संकेत दिखाई देगा, और न कोई चमत्कार, न तो बीमार चंगे होते हुए दिखाई देंगे, न ही दुष्टात्माएँ बाहर निकाली जाती हुई दिखाई देंगी, न तो समुद्र पर चलना दिखाई देगा, न ही चालीस दिन तक उपवास रखना दिखाई देगा...। वह उसी कार्य को नहीं करता जो यीशु ने किया, इसलिए नहीं कि उसका देह सार रूप में यीशु से भिन्न है, बल्कि इसलिए कि बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना उसकी सेवकाई नहीं है। वह अपने ही कार्य को ध्वस्त नहीं करता, अपने ही कार्य में विघ्न नहीं डालता। चूँकि वह मनुष्य को अपने व्यावहारिक वचनों से जीतता है, इसलिए उसे चमत्कारों से वश में करने की आवश्यकता नहीं है, और इसलिए यह चरण देहधारण के कार्य को पूरा करने के लिए है। आज तुम जिस देहधारी परमेश्वर को देखते हो वह पूरी तरह से देह है, और उसमें कुछ भी अलौकिक नहीं है। वह दूसरों की तरह ही बीमार पड़ता है, उसी तरह उसे भोजन और कपड़ों की आवश्यकता होती है; वह पूरी तरह से देह है। यदि इस बार भी देहधारी परमेश्वर अलौकिक संकेत और चमत्कार दिखाता, बीमारों को चंगा करता, दुष्टात्माओं को निकालता, या एक वचन से मार सकता, तो विजय का कार्य कैसे हो पाता? कार्य को अन्यजाति राष्ट्रों में कैसे फैलाया जा सकता था? बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना अनुग्रह के युग का कार्य था, छुटकारे के कार्य का यह पहला चरण था, और अब जबकि परमेश्वर ने लोगों को सलीब से बचा लिया है, इसलिए अब वह उस कार्य को नहीं करता। यदि अंत के दिनों में यीशु के जैसा ही कोई “परमेश्वर” प्रकट हो जाता, जो बीमार को चंगा करता और दुष्टात्माओं को निकालता, और मनुष्य के लिए सलीब पर चढ़ाया जाता, तो वह “परमेश्वर”, बाइबल में वर्णित परमेश्वर के समरूप तो अवश्य होता और उसे मनुष्य के लिए स्वीकार करना भी आसान होता, लेकिन तब वह अपने सार रूप में, परमेश्वर के आत्मा द्वारा नहीं, बल्कि एक दुष्टात्मा द्वारा धारण किया गया देह होता। क्योंकि जो परमेश्वर ने पहले ही पूरा कर लिया है, उसे कभी नहीं दोहराना, यह परमेश्वर के कार्य का सिद्धांत है। इसलिए परमेश्वर के दूसरे देहधारण का कार्य पहले देहधारण के कार्य से भिन्न है। अंत के दिनों में, परमेश्वर विजय का कार्य एक सामान्य और साधारण देह में पूरा करता है; वह बीमार को चंगा नहीं करता, उसे मनुष्य के लिए सलीब पर नहीं चढ़ाया जाएगा, बल्कि वह केवल देह में वचन कहता है, देह में मानव को जीतता है। ऐसा देह ही देहधारी परमेश्वर का देह है; ऐसा देह ही देह में परमेश्वर के कार्य को पूर्ण कर सकता है।

इस चरण में देहधारी परमेश्वर चाहे कठिनाइयाँ सह रहा हो या सेवकाई कर रहा हो, वह ऐसा केवल देहधारण के अर्थ को पूरा करने के लिए करता है, क्योंकि यह परमेश्वर का अंतिम देहधारण है। परमेश्वर केवल दो बार देहधारण कर सकता है। ऐसा तीसरी बार नहीं हो सकता। पहला देहधारण पुरुष था; दूसरा स्त्री, तो मनुष्य के मन में परमेश्वर की देह की छवि पूरी हो चुकी है; इसके अलावा, दोनों देहधारण ने पहले ही परमेश्वर के कार्य को देह में समाप्त कर लिया है। पहली बार, देहधारण के अर्थ को पूरा करने के लिए परमेश्वर के देहधारण ने सामान्य मानवता धारण की। इस बार उसने सामान्य मानवता भी धारण की है, किन्तु इस देहधारण का अर्थ भिन्न है : यह अधिक गहरा है, और उसका कार्य अधिक गहन महत्ता का है। परमेश्वर के पुनः देहधारी होने का कारण देहधारण के अर्थ को पूरा करना है। जब परमेश्वर इस चरण के कार्य को पूरी तरह से समाप्त कर लेगा, तो देहधारण का संपूर्ण अर्थ, अर्थात्, देह में परमेश्वर का कार्य पूरा हो जाएगा, और फिर देह में करने के लिए और कार्य बाकी नहीं रह जाएगा। अर्थात्, अब से परमेश्वर अपना कार्य करने के लिए फिर कभी देहधारण नहीं करेगा। केवल मानवजाति को बचाने और पूर्ण करने के लिए ही परमेश्वर देहधारण करता है। दूसरे शब्दों में, कार्य के अलावा किसी और कारण से देह में आना परमेश्वर के लिए किसी भी तरह से सामान्य बात नहीं है। कार्य करने के लिए देह में आ कर, वह शैतान को दिखाता है कि परमेश्वर देह है, एक सामान्य, एक साधारण व्यक्ति है—और फिर भी वह संसार पर विजयी शासन कर सकता है, शैतान को परास्त कर सकता है, मानवजाति को छुटकारा दिला सकता है, मानवजाति को जीत सकता है! शैतान के कार्य का लक्ष्य मानवजाति को भ्रष्ट करना है, जबकि परमेश्वर का लक्ष्य मानवजाति को बचाना है। शैतान मनुष्य को अथाह कुंड में फँसाता है, जबकि परमेश्वर उसे इससे बचाता है। शैतान सभी लोगों से अपनी आराधना करवाता है, जबकि परमेश्वर उन्हें अपने प्रभुत्व के अधीन करता है, क्योंकि वह संपूर्ण सृष्टि का प्रभु है। यह समस्त कार्य परमेश्वर के दो देहधारणों द्वारा पूरा किया जाता है। उसका देह सार रूप में मानवता और दिव्यता का मिलाप है और उसमें सामान्य मानवता है। इसलिए देहधारी परमेश्वर के देह के बिना, परमेश्वर मानवजाति को नहीं बचा सकता, और देह की सामान्य मानवता के बिना, देह में उसका कार्य परिणाम हासिल नहीं कर सकता। परमेश्वर के देहधारण का सार यह है कि उसमें सामान्य मानवता होनी चाहिए; इसके इतर कुछ भी होने पर यह देहधारण करने के परमेश्वर के मूल आशय के विपरीत चला जाएगा।

मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि देहधारण का अर्थ यीशु के कार्य में पूर्ण नहीं हुआ था? क्योंकि वचन पूरी तरह से देह नहीं बना था। यीशु ने जो किया वह देह में परमेश्वर के कार्य का केवल एक अंश ही था; उसने केवल छुटकारे का कार्य किया और मनुष्य को पूरी तरह से प्राप्त करने का कार्य नहीं किया। इसी कारण से परमेश्वर एक बार पुनः अंत के दिनों में देह बना है। कार्य का यह चरण भी एक सामान्य देह में किया जाता है; यह एक सर्वथा सामान्य मानव द्वारा किया जाता है, जिसकी मानवता अंश मात्र भी सर्वोत्कृष्ट नहीं होती। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर पूरी तरह से इंसान बन गया है; और वह ऐसा व्यक्ति है जिसकी पहचान परमेश्वर की है, एक पूर्ण मानव, एक पूर्ण देह की, जो कार्य को कर रहा है। मानवीय आँखों के लिए, वह केवल एक देह है जो बिल्कुल भी सर्वोत्कृष्ट नहीं है, एक अति सामान्य व्यक्ति जो स्वर्ग की भाषा बोल सकता है, जो कोई भी अद्भुत संकेत और चमत्कार नहीं दिखाता है, वृहद सभाकक्षों में धर्म के बारे में आंतरिक सत्य को तो उजागर बिल्कुल नहीं करता। लोगों को दूसरे देहधारी देह का कार्य पहले वाले से एकदम अलग प्रतीत होता है, इतना अलग कि दोनों में कुछ भी समान नहीं दिखता, और इस बार पहले वाले के कार्य का थोड़ा-भी अंश नहीं देखा जा सकता। यद्यपि दूसरे देहधारण के देह का कार्य पहले वाले से भिन्न है, लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता कि उनका स्रोत एक ही नहीं है। उनका स्रोत एक ही है या नहीं, यह दोनों देह के द्वारा किए गए कार्य की प्रकृति पर निर्भर करता है, न कि उनके बाहरी आवरण पर। अपने कार्य के तीन चरणों के दौरान, परमेश्वर ने दो बार देहधारण किया है, और दोनों बार देहधारी परमेश्वर के कार्य ने एक नए युग का शुभारंभ किया है, एक नए कार्य का सूत्रपात किया है; दोनों देहधारण एक-दूसरे के पूरक हैं। मानवीय आँखों के लिए यह बताना असंभव है कि दोनों देह वास्तव में एक ही स्रोत से आते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह मानवीय आँखों या मानवीय मन की क्षमता से बाहर है। किन्तु अपने सार में वे एक ही हैं, क्योंकि उनका कार्य एक ही पवित्रात्मा से उत्पन्न होता है। दोनों देहधारी देह एक ही स्रोत से उत्पन्न होते हैं या नहीं, इस बात को उस युग और उस स्थान से जिसमें वे पैदा हुए थे, या ऐसे ही अन्य कारकों से नहीं, बल्कि उनके द्वारा किए गए दिव्य कार्य से तय किया जा सकता है। दूसरा देहधारी देह ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता जिसे यीशु कर चुका है, क्योंकि परमेश्वर का कार्य किसी परंपरा का पालन नहीं करता, बल्कि हर बार वह एक नया मार्ग खोलता है। दूसरे देहधारी देह का लक्ष्य, लोगों के मन पर पहले देह के प्रभाव को गहरा या दृढ़ करना नहीं है, बल्कि इसे पूरक करना और पूर्ण बनाना है, परमेश्वर के बारे में मनुष्य के ज्ञान को गहरा करना है, उन सभी नियमों को तोड़ना है जो लोगों के हृदय में विद्यमान हैं, और उनके हृदय से परमेश्वर की भ्रामक छवि को मिटाना है। ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर के अपने कार्य का कोई भी अकेला चरण मनुष्य को उसके बारे में पूरा ज्ञान नहीं दे सकता; प्रत्येक चरण केवल एक भाग का ज्ञान देता है, न कि संपूर्ण का। यद्यपि परमेश्वर ने अपने स्वभाव को पूरी तरह से व्यक्त कर दिया है, किन्तु मनुष्य की सीमित बोध क्षमता की वजह से, परमेश्वर के बारे में उसका ज्ञान अभी भी अपूर्ण है। मानव भाषा का उपयोग करके, परमेश्वर के स्वभाव की समग्रता को संप्रेषित करना असंभव है; इसके अलावा, परमेश्वर के कार्य का एक चरण परमेश्वर को पूरी तरह से कैसे व्यक्त कर सकता है? वह देह में अपनी सामान्य मानवता की आड़ में कार्य करता है, उसे केवल उसकी दिव्यता की अभिव्यक्तियों से ही जाना जा सकता है, न कि उसके दैहिक आवरण से। परमेश्वर मनुष्य को अपने विभिन्न कार्यों के माध्यम से स्वयं को जानने देने के लिए देह में आता है। उसके कार्य के कोई भी दो चरण एक जैसे नहीं होते। केवल इसी प्रकार से मनुष्य, एक अकेले पहलू तक सीमित न होकर, देह में परमेश्वर के कार्य का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकता है। यद्यपि दोनों देहधारण के कार्य भिन्न हैं, किन्तु देह का सार, और उनके कार्यों का स्रोत समान है; बात केवल इतनी ही है कि उनका अस्तित्व कार्य के दो विभिन्न चरणों को करने के लिए है, और वे दो अलग-अलग युग में आते हैं। कुछ भी हो, देहधारी परमेश्वर के देह एक ही सार और एक ही स्रोत को साझा करते हैं—यह एक ऐसा सत्य है जिसे कोई नकार नहीं सकता।

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