परमेश्वर के प्रति मनुष्य का जो रवैया होना चाहिए
यह देखने के लिए कि क्या कोई परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हुए विश्वास करता है, सबसे महत्वपूर्ण चीज है परमेश्वर के प्रति उसके रवैये को देखना। यदि वह परमेश्वर से भय और समर्पण वाले हृदय के साथ पेश आता है, तो उसकी परमेश्वर में सच्ची आस्था होती है। परंतु यदि उसमें परमेश्वर के प्रति कोई भय या समर्पण न हो, तो उसमें सच्ची आस्था नहीं होती। लोगों को परमेश्वर के प्रति कैसा रवैया रखना चाहिए? उन्हें उसका भय मानना चाहिए और उसके आगे समर्पण करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर का भय मानते हैं वे सत्य खोजने और स्वीकारने में सक्षम होते हैं। जो लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं, वे परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखाने में सक्षम होते हैं; वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें परमेश्वर को संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं। जो कोई भी सत्य का अनुसरण करता है उसमें ये दो गुण होते हैं। जिनके हृदय में परमेश्वर के प्रति भय या समर्पण नहीं है, वे निश्चित रूप से सत्य के अनुयायी नहीं हैं।
सत्य के अनुसरण का अभ्यास कैसे किया जाना चाहिए? क्या तुम लोग अपने कर्तव्य के दैनिक निष्पादन में परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हो? क्या तुमने समस्याओं का सामना करते समय परमेश्वर से प्रार्थना की है, और क्या तुम सत्य की खोज करके उनका समाधान कर सकते हो? यह जीवन प्रवेश के मुद्दे से संबंधित है। जब तुम लोग अपना कर्तव्य निभाते समय अपनी भ्रष्टता को प्रकट करते हो, तो क्या तुम आत्म-चिंतन करने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को हल करने में सक्षम होते हो? यदि तुम इस तरह से अभ्यास और अनुभव नहीं कर सकते हो, तो इसका परमेश्वर में विश्वास करने से कोई लेना-देना नहीं है। चाहे तुम जिस भी कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो या जो भी काम कर रहे हो, तुम्हें परमेश्वर के वचनों के संबंधित पहलुओं, साथ ही अपने विचारों, मतों या गलत मंशाओं की भी थाह लेनी चाहिए, जो सभी व्यक्ति की अवस्था के हिस्से होते हैं। व्यक्ति की अवस्था में क्या शामिल होता है? इसमें लोगों की नजरिए, रवैये, मंशाएँ, दृष्टिकोण, और साथ ही कुछ फलसफे, तर्क और ज्ञान शामिल होते हैं—और संक्षेप में ये सारी चीजें लोगों की सामान्य कार्यशैलियों और विधियों तथा दूसरों के प्रति उनके व्यवहार से जुड़ी होती हैं। किसी स्थिति का सामना होने पर पहले उन्हें यह जाँच करनी चाहिए कि उनका दृष्टिकोण क्या है—यह पहला कदम है। दूसरा कदम यह जाँच करना है कि क्या वह दृष्टिकोण सही है। तो किसी को यह कैसे निर्धारित करना चाहिए कि उनका दृष्टिकोण सही है या नहीं? यह एक ओर परमेश्वर के वचनों से और दूसरी ओर संबंधित स्थिति के सिद्धांतों के आधार पर निर्धारित किया जाता है : उदाहरण के लिए, परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाएँ, हित और नियम, साथ ही परमेश्वर के स्पष्ट वचन—इन चीजों का उपयोग यह निर्धारित करने के लिए करते हैं कि कोई दृष्टिकोण सही है या नहीं। वे माप की कसौटियां हैं। क्या तुम लोग किसी स्थिति का सामना होने पर अपने दृष्टिकोणों की जाँच करते हो? भले ही तुम वास्तव में उन्हें पहचान सको या नहीं, पहला कदम यह होता है कि तुम्हें इस तरह से अभ्यास करना चाहिए। लोग चाहे जो भी करते हों, उन सभी का इसके बारे में एक निश्चित दृष्टिकोण होता है। यह दृष्टिकोण कैसे बनता है? यह इस तरह बनता है कि तुम स्थिति को कैसे देखते हो, तुम्हारा परिप्रेक्ष्य किस पर आधारित है, इसे सँभालने की तुम्हारी क्या योजना है, और इसे सँभालने के तुम्हारे तरीके का आधार क्या है। ये सब तुम्हारे दृष्टिकोण का हिस्सा हैं। उदाहरण के लिए, तुम मानव जाति के भ्रष्टाचार के बारे में क्या सोचते हो? तुम्हारा परिप्रेक्ष्य किस पर आधारित है? तुम इस मुद्दे को कैसे देखते हो? ये सभी चीजें किसी मामले पर व्यक्ति के विचारों को छूती हैं। किसी मामले पर व्यक्ति के दृष्टिकोण के बारे में भी यह बात सच है; स्थिति चाहे जो भी हो, अपने रवैये और हर मामले को सँभालने के तरीके के पीछे हर किसी का एक दृष्टिकोण होता है। यह दृष्टिकोण उनके कार्य के तरीके का मार्गदर्शन करता और उसे नियंत्रित करता है। और यह इस दृष्टिकोण का मूल ही है जो यह निर्धारित करता है कि यह सही है या गलत। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा दृष्टिकोण शैतानी फलसफे और तर्क पर आधारित है, और भाषण के पीछे तुम्हारा इरादा प्रसिद्धि पाना और गौरव हासिल करना है, ताकि अधिक लोग तुम्हें जानें और समझें, तुम्हें याद रखें और तुम्हारा अनुमोदन करें, तो कार्रवाई करने के लिए यह तुम्हारा प्रारंभिक बिंदु है। यदि तुम्हारी ऐसी कोई गलत मंशा है, तो उससे उत्पन्न होने वाले दृष्टिकोण और तरीके भी निश्चित रूप से गलत होंगे और निश्चित रूप से सत्य के अनुरूप नहीं होंगे। जब तुम गलत दृष्टिकोण, रवैये और तरीके उत्पन्न करते हो, तो क्या तुम उन्हें पहचान सकते हो? यदि तुम उनके सही या गलत होने का मूल्यांकन कर सकते हो, तो तुम परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने की एक बुनियादी शर्त को पूरा करते हो; लेकिन यह परम स्थिति नहीं है। परम स्थिति क्या होती है? यह मूल्यांकन कर लेने के बाद कि तुम्हारे दृष्टिकोण गलत हैं, तुम्हारे इरादे और व्यक्तिगत योजनाएँ और इच्छाएँ गलत हैं, तुम इन गलत दृष्टिकोणों के अनुसार कार्य न करने के लिए क्या कर सकते हो? इसके लिए तुम्हें अपने गलत इरादों और दृष्टिकोणों को छोड़ना होगा, और साथ ही सत्य को खोजना होगा। यह अच्छी तरह से जानते हुए कि तुम्हारे दृष्टिकोण गलत हैं, कि वे न तो सत्य के अनुरूप हैं और न ही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हैं, कि परमेश्वर उनसे घृणा करता है, इसलिए तुम्हें उनके खिलाफ विद्रोह करना चाहिए। देह की इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह करने का उद्देश्य क्या है? यह परमेश्वर के इरादों के अनुसार कार्य करना है, ऐसे कार्य करना है जो सत्य के अनुरूप हैं, और इस प्रकार सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होना है। लेकिन यदि तुम अपने गलत दृष्टिकोणों के खिलाफ विद्रोह करने में असमर्थ हो, तो तुम सत्य को अभ्यास में नहीं ला सकते या सत्य वास्तविकता को नहीं जी सकते; इसका मतलब यह है कि तुम जो समझते हो वह केवल धर्म-सिद्धांत है। तुम जिन चीजों के बारे में बात करते हो, वे तुम्हारे व्यवहार को सीमित नहीं कर सकतीं, तुम्हारे कार्यों का मार्गदर्शन नहीं कर सकतीं, या तुम्हारे गलत दृष्टिकोणों को सही नहीं कर सकतीं, जो और साबित करता है कि यह महज धर्म-सिद्धांत है। इसलिए पहला कदम अपने दृष्टिकोणों की जाँच करना है। दूसरा कदम उन दृष्टिकोणों की सत्यता का आकलन करना है : गलत दृष्टिकोणों के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए और उन्हें त्याग देना चाहिए; सही दृष्टिकोणों का पालन कर उस पर बने रहना चाहिए। अब तुम लोगों के लिए कठिनाई कहाँ है? एक ओर तुम बहुत कम ही स्वयं की जाँच करते हो, यह तुम्हारी आदत नहीं है। दूसरी ओर, जब तुम स्वयं की जाँच करते भी हो, तब भी तुम नहीं जानते कि तुम्हारे इरादे और दृष्टिकोण सही हैं या नहीं। वे तुम्हें सही और गलत दोनों प्रतीत होते हैं, तो अंत में तुम चकरा जाते हो और भ्रमित महसूस करते हो, और चीजों को अपने तरीके से करते हो—यह एक प्रकार की स्थिति है। अन्य कौन-सी स्थितियाँ हैं? (कभी-कभी मैं अपने स्वयं के इरादों और दृष्टिकोणों को पहचानता हूँ, और मैं उनके खिलाफ विद्रोह करना चाहता हूँ, लेकिन मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव पर काबू नहीं कर पाता। इसलिए मैं समझौता कर लेता हूँ, खुद को ठीक बताने के लिए तर्क देता और बहाने बनाता हूँ। मैं तब अभ्यास करने में विफल रहता हूँ, और बाद में मुझे पछतावा होता है।) यह सत्य के प्रति समर्पित होने और सत्य से प्रेम करने वाले हृदय की कमी होना है। यदि किसी के दिल में सत्य के लिए बहुत प्यार है, तो वे अक्सर अपने कुछ गलत इरादों और दृष्टिकोणों पर काबू पाने में सक्षम होंगे, और उनके खिलाफ विद्रोह कर पाएँगे। निःसंदेह कुछ विशेष परिस्थितियाँ होती हैं जिनसे उबरना अधिकांश लोगों के लिए कठिन होता है। यदि तुम भी इससे उबर नहीं पाए हो तो यह सामान्य बात है। लेकिन अगर अधिकांश औसत लोग इससे उबर सकते हैं, लेकिन तुम्हें यह बहुत कठिन लगता है, तो इससे क्या साबित होता है? यह दर्शाता है कि सत्य के प्रति तुम्हारा प्रेम बड़ा नहीं है, और सत्य का अभ्यास करना तुम्हारे लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं है। तुम्हारे लिए क्या महत्वपूर्ण है? अपने दृष्टिकोणों पर कायम रहना, अपने मन को शांत रखना, अपनी इच्छाएँ संतुष्ट करना—ये तुम्हारे लिए मायने रखते हैं। परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करना, सत्य का अभ्यास करना, परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करना, और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना—इनमें से कुछ भी तुम्हारे दिल में महत्वपूर्ण नहीं है। इससे तुम्हारे आंतरिक इरादों और तुम्हारे द्वारा अपनाए जाने वाले दृष्टिकोणों का खुलासा होता है।
किसी व्यक्ति की अवस्था मुख्य रूप से किससे बनी होती है? (उनके इरादों, नजरियों और दृष्टिकोणों से।) उनकी अवस्था में मुख्य रूप से ये चीजें शामिल होती हैं। लोगों की अवस्थाओं में सबसे आम क्या है? यह अक्सर लोगों के दिलों में तब प्रकट होती है जब उनका किसी चीज से सामना होता है, और यह कुछ ऐसी चीज है जिसे वे सचेत रूप से अपने विचारों में पहचान पाते हैं—तुम लोग क्या कहोगे कि यह क्या है? (उनके इरादे।) बिल्कुल सही। इरादे लोगों की अवस्था का एक स्पष्ट और सबसे आम हिस्सों में से एक हैं; ज्यादातर मामलों में, लोगों के अपने विचार और इरादे होते हैं। जब इस तरह के विचार और इरादे आते हैं, तो लोग उन्हें जायज समझते हैं, लेकिन अधिकांश समय वे उनके लिए, उनके अभिमान और हितों के लिए, या फिर कुछ छिपाने के लिए, या किसी तरह से उन्हें संतुष्ट करने के लिए होती हैं। ऐसे समय, तुम्हें यह जाँचना चाहिए कि तुम्हारा इरादा कैसे उत्पन्न हुआ, क्यों उत्पन्न हुआ। उदाहरण के लिए, परमेश्वर का घर तुमसे कलीसिया की सफाई का काम करने के लिए कहता है, और एक व्यक्ति है जो हमेशा अपने कर्तव्य में अनमना रहा है, हमेशा सुस्त रहने के फेर में रहता है। सिद्धांत के अनुसार, इस व्यक्ति को दूर कर दिया जाना चाहिए, लेकिन उसके साथ तुम्हारे अच्छे संबंध हैं। तो तुम्हारे भीतर किस तरह के विचार और इरादे उत्पन्न होंगे? तुम अभ्यास कैसे करोगे? (अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करने की।) और ये प्राथमिकताएँ किससे उत्पन्न होती हैं? चूँकि इस इंसान का व्यवहार तुम्हारे प्रति अच्छा रहा है या इसने तुम्हारे लिए कुछ किया है, इसलिए तुम्हारे मन में उसकी अच्छी छवि है, और इसलिए इस समय तुम उसकी रक्षा करना चाहते हो, उसका बचाव करना चाहते हो। क्या यह भावनाओं का प्रभाव नहीं है? तुम उसके प्रति भावुक महसूस करते हो, और इसलिए “जबकि उच्च अधिकारियों की नीतियाँ होती हैं, वहीं मुहल्लों के अपने जवाबी-उपाय होते हैं” का दृष्टिकोण अपनाते हो। तुम दुरंगी चाल चल रहे हो। एक ओर तुम उससे कहते हो, “जब तुम कुछ करते हो तो तुम्हें थोड़ा अधिक प्रयास करना चाहिए। अनमना होना बंद करो, तुम्हें थोड़ी कठिनाई झेलनी ही पड़ेगी; यह हमारा कर्तव्य है।” दूसरी ओर, तुम ऊपरवाले को यह कहते हुए उत्तर देते हो, “वह पहले से सुधर गया है, अपना कर्तव्य निभाते हुए वह अब और अधिक प्रभावी हो गया है।” लेकिन तुम अपने दिमाग में वास्तव में यह सोच रहे होते हो, “ऐसा इसलिए है, क्योंकि मैंने उस पर काम किया है। अगर मैं न करता, तो वह अभी भी वैसा ही होता जैसा वह था।” अपने दिमाग में तुम हमेशा सोचते रहते हो, “मेरे साथ उसका व्यवहार अच्छा है, उन्हें हटाया नहीं जा सकता!” जब ऐसी बातें तुम्हारे इरादे में हों, तो यह कौन सी अवस्था होती है? यह व्यक्तिगत भावनात्मक संबंधों की रक्षा करके कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाना है। क्या इस प्रकार कार्य करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या तुम्हारे ऐसा करने में समर्पण है? (नहीं।) कोई समर्पण नहीं है; तुम्हारे हृदय में प्रतिरोध है। तुम्हारे साथ जो चीजें होती हैं और जो काम तुम्हें करना चाहिए, उसमें तुम्हारे अपने विचारों में व्यक्तिपरक निर्णय शामिल होते हैं, और यहाँ भावनात्मक कारक मिश्रित होते हैं। तुम भावनाओं के आधार पर चीजें कर रहे होते हो, फिर भी यह मानते हो कि तुम निष्पक्षता से कार्य कर रहे हो, लोगों को पश्चात्ताप करने का मौका दे रहे हो, और उन्हें प्रेमपूर्ण सहायता दे रहे हो; इस प्रकार तुम जैसा चाहते हो वैसा ही करते हो, न कि वैसा, जैसा परमेश्वर कहता है। इस तरह कार्य करना, कार्य की गुणवत्ता को कम करता है, यह प्रभावशीलता घटाता है और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाता है—जो कि सब भावनाओं के अनुसार कार्य करने का परिणाम है। अगर तुम स्वयं की जाँच नहीं करते, तो क्या तुम यहाँ समस्या की पहचान कर पाओगे? तुम कभी नहीं कर पाओगे। शायद तुम्हें पता हो कि इस तरह से कार्य करना गलत है, कि यह समर्पण की कमी है, लेकिन तुम इस बारे में सोचते हो और खुद से कहते हो, “मुझे प्रेम से उनकी मदद करनी चाहिए, और मदद के बाद जब वे बेहतर हो जाएँगे, तो उन्हें हटाने की आवश्यकता नहीं होगी। क्या परमेश्वर लोगों को पश्चात्ताप करने का मौका नहीं देता? परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है, इसलिए मुझे भी प्रेम से उनकी मदद करनी चाहिए, और मुझे जैसा परमेश्वर कहता है वैसा ही करना चाहिए।” ये बातें सोचने के बाद, तुम चीजों को अपने तरीके से करते हो। बाद में, तुम्हारा दिल सुकून महसूस करता है; तुम्हें लगता है कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। इस प्रक्रिया के दौरान, तुमने सत्य के अनुसार अभ्यास किया, या अपनी प्राथमिकताओं और इरादों के अनुसार कार्य किया? तुम्हारे कार्य पूरी तरह से तुम्हारी प्राथमिकताओं और इरादों के अनुसार थे। पूरी प्रक्रिया के दौरान तुमने चीजों को सुचारू बनाने के लिए अपनी तथाकथित दयालुता और प्रेम, और साथ ही भावनाओं और फलसफों का इस्तेमाल किया, और तुमने ढुलमुल रहने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि तुम इस इंसान की प्रेम से मदद कर रहे थे, लेकिन अपने दिल में तुम वास्तव में भावनाओं से बाधित थे—और, इस डर से कि ऊपरवाले को पता चल जाएगा, तुमने समझौता करके उसे जीतने की कोशिश की, ताकि कोई नाराज न हो और काम हो जाए—जो ठीक उसी तरह है, जैसे गैर-विश्वासी तटस्थ रहने की कोशिश करते हैं। वास्तव में परमेश्वर इस स्थिति का मूल्यांकन कैसे करता है? वह तुम्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में वर्गीकृत करेगा जो सत्य के प्रति समर्पण नहीं करता, जो अक्सर सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति पड़ताल करने वाला, विश्लेषणात्मक रवैया अपनाता है। जब तुम इस तरीके का उपयोग करके सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं से पेश आते हो, और जब तुम इस दृष्टिकोण के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हो, तो तुम्हारे इरादे की क्या भूमिका होती है? यह परमेश्वर की माँगों की परवाह किए बिना, तुम्हारे स्वयं के कर्तव्यों या कलीसिया के काम पर कोई सकारात्मक प्रभाव डाले बिना तुम्हारे स्वयं के हितों, तुम्हारे गौरव और तुम्हारे पारस्परिक संबंधों की रक्षा करने का कार्य करता है। ऐसा व्यक्ति पूरी तरह से सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जी रहा होता है। ऐसे लोग जो कुछ भी कहते और करते हैं वह अपने गौरव, भावनाओं और पारस्परिक संबंधों की रक्षा के लिए होता है, फिर भी उनमें सत्य और परमेश्वर के प्रति कोई सच्चा समर्पण नहीं होता, न ही वे इन समस्याओं को घोषित करने या स्वीकार करने का कोई प्रयास करते हैं। वे जरा भी आत्मभर्त्सना नहीं महसूस करते और वे समस्याओं की प्रकृति के प्रति पूरी तरह अनभिज्ञ रहते हैं। अगर लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है, और अगर उनके हृदयों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, तो वे चाहे जिन भी कर्तव्यों का पालन क्यों न कर रहे हों, या कितनी भी समस्याओं से क्यों न निपट रहे हों, वे कभी भी सिद्धान्त के अनुरूप आचरण नहीं कर सकते। अपने प्रयोजनों और स्वार्थपूर्ण आकांक्षाओं के भीतर जीवन जी रहे लोग सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में अक्षम होते हैं। इस कारण, अगर कभी उनका सामना किसी समस्या से होता है और वे अपने इरादों की जाँच नहीं करते और इस बात को पहचान नहीं पाते कि उनके प्रयोजनों में कहाँ पर खोट है, बल्कि अपने पक्ष में झूठ और बहाने गढ़ने के लिए तमाम तरह के औचित्यों का इस्तेमाल करते हैं, तो अंत में क्या होता है? वे अपने हितों, गौरव, और अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों की रक्षा के लिए काफी अच्छा उद्यम करते हैं, लेकिन उन्होंने परमेश्वर के साथ अपना सामान्य संबंध खो दिया होता है। कुछ लोग लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हैं, लेकिन जब उनसे उनके कुछ व्यक्तिगत अनुभवों पर संगति करने के लिए कहा जाता है, तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता, वे अपने स्वभावगत बदलाव को लेकर कोई अनुभवजन्य गवाही साझा नहीं कर पाते। इसका कारण क्या है? वे बहुत ही कम स्वयं की जाँच करते हैं, और वे बहुत ही कम सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करते हैं। इसके बजाय वे भ्रष्ट स्वभाव में रहते हुए अपने ही रास्ते पर चलना पसंद करते हैं, उनके कार्य उनके स्वयं के इरादों, दृष्टिकोणों, इच्छाओं और योजनाओं द्वारा निर्देशित होते हैं, और इस पूरे समय वे कोई पश्चात्ताप नहीं करते। यह परमेश्वर है जिस पर वे विश्वास करते हैं, और परमेश्वर के वचन हैं जिन्हें वे सुनते हैं; यह वह सत्य है जिसे वे प्राप्त करते हैं, और वह सत्य भी है जिस पर वे संगति करते और उपदेश देते हैं—लेकिन वह वास्तव में क्या है जिसका वे अभ्यास करते हैं? वे केवल अपने इरादों और कल्पनाओं के अनुसार अभ्यास करते हैं, परमेश्वर की माँगों के अनुसार नहीं। तो परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया क्या होता है? वे परमेश्वर की अपेक्षाओं से कैसे पेश आते हैं? परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के किस पहलू में लोगों को सबसे अधिक कर्तव्यनिष्ठ होना चाहिए? उन्हें परमेश्वर के वचनों का अनुभव कैसे करना चाहिए और सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए—यह सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है। यदि कोई परमेश्वर के वचनों को सुनने और धर्मोपदेश सुनने के बाद उन्हें अभ्यास में नहीं लाता, तो क्या वह वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करता है? क्या वे सचमुच उसके कार्य का अनुभव कर रहे हैं? वे कर्तव्यनिष्ठ क्यों नहीं होते जहाँ उन्हें होना चाहिए? जब उन्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए तो वे परमेश्वर पर संदेह और उसके वचनों पर संदेह क्यों करते हैं? “परमेश्वर की ये माँगें क्यों हैं? क्या वे उसके वचनों से मेल खाती हैं? यदि परमेश्वर इस प्रकार की माँगें करता है तो क्या तब भी वह प्रेम ही है? ऐसा नहीं लगता कि वह ऐसी कोई माँग करेगा, है न? मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता। परमेश्वर की माँगें थोड़ा भी लिहाज नहीं करतीं, वे मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के बहुत विरुद्ध हैं।” मुझे बताओ कि क्या इस तरह मामलों को तोलने वाला व्यक्ति सत्य को स्वीकार करने में सक्षम हो सकता है? (नहीं।) यह सत्य को स्वीकार करने का रवैया नहीं है। इस रवैये और इन इरादों के साथ परमेश्वर की माँगों को मापना और उनसे पेश आना—यह किसी के हृदय को परमेश्वर के प्रति खोलना है या उसे बंद करना है? (बंद करना है।) यह स्वीकृति का नहीं, बल्कि प्रतिरोध का रवैया है। परमेश्वर की माँगों के संबंध में ऐसे लोग पहले तो पड़ताल करते हैं और उनमें से कुछ तो व्यंग्य भी करते हैं : “परमेश्वर ने कलीसिया के भाई-बहनों के साथ अधिक बातचीत नहीं की है; उसे कलीसिया के मामले नहीं पता। क्या परमेश्वर का घर चीजों को कुछ ज्यादा ही हठधर्मिता से नहीं सँभाल रहा है? हम इस तरह काम नहीं करते। हम भाई-बहनों के हालात के आधार पर काम करते हैं, उन्हें अवसर देते हैं। और इसके अलावा देहधारी परमेश्वर को मानवीय कमजोरियों की समझ होनी चाहिए! यदि वह विचारशील नहीं होगा, तो हम होंगे। ऐसी कुछ चीजें हैं जिन पर परमेश्वर विचार नहीं करता, लेकिन हम करेंगे।” वे किस तरह का रवैया अपना रहे हैं? यह एक ऐसा रवैया है जो विरोध करता है, आलोचना करता है और निंदा करता है। वे मामलों की पड़ताल करते हैं और फिर अपना निर्णय सुनाते हैं। और वे कैसे निर्णय सुनाते हैं? वे कहते हैं : “चाहे जो हो, परमेश्वर धार्मिक है, और वह परमेश्वर है जिस पर मैं विश्वास करता हूँ, किसी इंसान पर नहीं करता। परमेश्वर लोगों के अंतरतम हृदयों की जाँच करता है।” इसका अर्थ क्या है? (वे देहधारी परमेश्वर को नकारते हैं।) सही है। अपने हृदयों में वे मसीह को नकारते हैं, जिसका अर्थ है कि जरूरी नहीं कि मसीह के वचन परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करें। जहाँ भी मसीह के कार्य और वचन उनके स्वयं के हितों, इरादों और दृष्टिकोणों के विपरीत जाते हैं या उनका उल्लंघन करते हैं, वे परमेश्वर को अस्वीकार कर देते हैं। “वैसे भी यह वह परमेश्वर है जिस पर मैं विश्वास करता हूँ, और परमेश्वर धार्मिक है। वह लोगों के अंतरतम हृदयों की पड़ताल करता है।” ये बयान क्या हैं? क्या ये निर्णय सुनाना है? इन कथनों की प्रकृति क्या है? (ईशनिंदा।) पीठ पीछे लोगों के बारे में बात करना आलोचनात्मक होता है। परमेश्वर की पीठ पीछे उसके बारे में बात करना केवल आलोचनात्मक नहीं है; यह ईशनिंदा है। क्या जो लोग परमेश्वर की निंदा करने में सक्षम हैं वे सच्चे विश्वासी हो सकते हैं? क्या वे विवेक और समझ वाले लोग हैं? क्या ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाएगा? ये लोग पूरी तरह से शैतान के अनुचर हैं, वे बुरे लोग हैं, और उन्हें ठुकराकर हटा दिया जाना चाहिए।
कलीसियाओं में क्या परमेश्वर के बारे में टिप्पणी करने और उसके कार्य का मूल्यांकन करने की अभिव्यक्तियाँ होती हैं? वे प्रचलित तौर पर नहीं होतीं, लेकिन वे निश्चित रूप से होती हैं, क्योंकि हर कलीसिया में कुछ छद्म-विश्वासी और बुरे लोग होते ही हैं। अब विशिष्ट परिस्थितियों में क्या इस प्रकार की स्थिति उन लोगों के दिलों में उत्पन्न हो सकती है जो सच्चाई से परमेश्वर में विश्वास करते हैं? यदि तुम्हारे भीतर आलोचना, प्रतिरोध और ईशनिंदा जैसी चीजें उत्पन्न होती हैं, तो तुम लोगों की आंतरिक प्रतिक्रिया क्या होती है? क्या तुम समस्या की गंभीर प्रकृति को समझने में सक्षम होते हो? उदाहरण के लिए, मान लो कि तुमने कभी शादी नहीं की है, लेकिन तुम एक उपयुक्त माहौल में हो और तुम्हें एक अच्छा संभावित साथी मिलता है जिसके साथ तुम डेट पर जाना चाहते हो। हालाँकि तुमने पहले परमेश्वर से वादा किया है कि तुम अपना पूरा जीवन उसे समर्पित कर दोगे और किसी साथी की तलाश नहीं करोगे, फिर भी तुम्हारे दिल में इस व्यक्ति को लेकर अच्छी भावना है, इसलिए तुम उसके साथ डेट पर जाने का फैसला करते हो। लेकिन डेटिंग के बाद तुम्हें पता चलता है कि कई बाधाएँ हैं, और तुम्हें एहसास होता है कि उनके साथ डेटिंग करना उचित नहीं है, परमेश्वर इसकी अनुमति नहीं देता। तुम उन्हें छोड़ना चाहते हो, लेकिन छोड़ नहीं पाते, इसलिए तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो और कोसते हो और अपने खिलाफ विद्रोह करते हो, और अंत में तुम दोनों अलग हो जाते हो। अलग होने के बाद तुम बेहद मानसिक पीड़ा में होते हो। यह सामान्य है। यह मानवता की सामान्य कमजोरी होती है। लेकिन तुम्हें परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए। क्या अधिकांश लोग इस अनुभव से गुजरकर परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करने में सक्षम हो सकेंगे? अधिकांश ऐसा नहीं कर सकते, और यह सत्य और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये को दर्शाता है। ऐसी स्थिति में किसी के मन में ऐसे कौन-से गलत विचार होते हैं जो वह परमेश्वर के बारे में शिकायत करता है? (अगर मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं करता, तो मैं साथी ढूँढ़ सकता था।) क्या इस तरह का विचार कोई बड़ी समस्या है? वे कुछ हद तक परमेश्वर में विश्वास नहीं करना चाहते, वे हार मान लेना चाहते हैं। वे सोचते हैं : “मुझे परमेश्वर में विश्वास का मार्ग क्यों चुनना पड़ा? परमेश्वर में विश्वास न करना बहुत अच्छा होगा, मैं जो चाहूँ वह कर सकता हूँ। कोई उपयुक्त साथी ढूँढ़ना आसान नहीं है; अगर मैं उन्हें अभी छोड़ दूँ, तो मैं जल्द ही इतना बूढ़ा हो जाऊँगा कि कोई भी मुझे नहीं चाहेगा। क्या मुझे फिर कभी किसी को खोजने की कोशिश नहीं करनी चाहिए? क्या मैं अपना शेष जीवन इसी तरह बिताऊँगा?” नकारात्मक, खेदजनक विचार उनके मन में चलते रहते हैं, यहाँ तक कि वे उस बिंदु तक पहुँच जाते हैं जहाँ वह अब और विश्वास नहीं करना चाहते। ये परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने और उसे धोखा देने की अभिव्यक्तियाँ हैं। लेकिन यह सबसे गंभीर बात नहीं है। कौन-से विचार इससे अधिक गंभीर हैं? क्या तुम लोगों ने इस तरह का अनुभव किया है? (नहीं।) इसका अनुभव न होना वास्तव में काफी खतरनाक होता है। जिन लोगों ने ऐसी चीजों का अनुभव किया है वे उनके कुछ पहलुओं को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम हैं; वे अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित हैं, हालाँकि यह पूरी तरह गारंटी नहीं है। ऐसे अनुभवों से रहित लोग जिन प्रलोभनों का सामना करते हैं, वे मामूली नहीं होते। उन्हें सतर्क रहना चाहिए, सतर्कता में कोई भी चूक हुई और वे प्रलोभन का शिकार हो जाएँगे! कुछ लोग सोचते हैं : “अंतिम दिनों में जन्म लेना और परमेश्वर द्वारा चुना जाना अच्छा है। इसके अलावा मैं युवा हूँ, मेरी कोई पारिवारिक उलझन नहीं है, इस कारण मैं अपने कर्तव्यों को करने के लिए स्वतंत्र हूँ—यह परमेश्वर का अनुग्रह है। बहुत बुरी बात यह है कि इसका केवल एक नकारात्मक पक्ष है, वह यह कि अगर मुझे कोई उपयुक्त साथी मिल भी जाता है, तो भी मैं उसके साथ नहीं जा सकता या शादी नहीं कर सकता। लेकिन मैं कोई साथी ढूँढ़ क्यों नहीं सकता? क्या विवाह पाप है? क्या ऐसे कई भाई-बहन नहीं हैं जिनके जीवनसाथी और बच्चे हैं? और क्या वे परमेश्वर में भी विश्वास नहीं करते? ऐसा क्यों है कि मुझे साथी ढूँढ़ने की अनुमति नहीं है? परमेश्वर धार्मिक नहीं है!” परमेश्वर के प्रति उनकी आलोचना और उसके प्रति असंतोष उभरकर सामने आता है। वे अपना मन बना लेते हैं कि यह सब परमेश्वर का किया-धरा है, कि यह सब परमेश्वर की ओर से आता है, इसलिए वे उससे नाराज होते हैं और अपनी शिकायतें निकालते हैं : “परमेश्वर मेरे प्रति बहुत अन्यायी है! वह कितना विचारशून्य है! दूसरे लोग शादी कर सकते हैं, मैं क्यों नहीं? अन्य लोगों के बच्चे हो सकते हैं, मेरे क्यों नहीं? परमेश्वर अन्य लोगों को यह अवसर देता है, मुझे क्यों नहीं देता?” शिकायतें और आलोचनाएँ सामने आती हैं। यह कौन-सी स्थिति है? (एक प्रतिरोधी, विरोधी स्थिति।) प्रतिरोधी, असंतुष्ट, अनिच्छुक। परमेश्वर जो कर रहा है उसे स्वीकार करने या उसके प्रति समर्पित होने का उनका जरा भी इरादा नहीं है; वे बस यही चाहते हैं कि वह ऐसा नहीं करता। फिर भी वे अभी भी शादी करने के अनिच्छुक होते हैं, उन्हें डर होता है कि अगर उन्होंने शादी कर ली और उलझ गए, तो वे उतने स्वतंत्र नहीं रह पाएँगे और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा पाएँगे, इस प्रकार उन्हें बाद में बचाया नहीं जा सकेगा और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं मिलेगा। फिर वे इतने पछतावे के साथ क्या करेंगे? दरअसल यह वह रास्ता है जिसे तुम स्वयं चुनते हो। परमेश्वर मनुष्य को स्वतंत्र इच्छा प्रदान करता है। तुम चुन सकते हो कि तुम साथी ढूँढ़कर शादी करना चाहते हो या सत्य और उद्धार का अनुसरण करना चाहते हो। यह पूरी तरह से एक व्यक्तिगत चुनाव है; तुमने सही चुनाव किया है या नहीं, इसका परमेश्वर से कोई संबंध नहीं होता, तो फिर तुम उससे शिकायत क्यों करते हो? तुम यह शिकायत क्यों करते हो कि वह धार्मिक नहीं है? तुम्हारी इतनी शिकायतें क्यों होती हैं? (क्योंकि मेरे अपने हित संतुष्ट नहीं हुए।) जब यह तुम्हारे अपने हितों को छूता है, तो तुम अंदर से असंतुष्ट हो जाते हो। तुम्हें लगता है कि तुम्हें नुकसान हुआ है, तो तुम परमेश्वर को दोष देते हो और यहाँ तक कि भड़ास निकालने के लिए कारणों की तलाश भी करते हो। यह किस प्रकार का स्वभाव है? (एक दुर्भावनापूर्ण स्वभाव है।) यह दुर्भावना है। जब भी किसी का अपना हित संतुष्ट नहीं होता, तो वह परमेश्वर को दोष देता है, शिकायत करता है कि वह धार्मिक नहीं है, और यह शिकायत करता है कि उसकी व्यवस्थाएँ अनुपयुक्त हैं—यह एक ऐसा स्वभाव है जो दुर्भावनापूर्ण और हठी है, और सत्य से प्रेम करने वाला नहीं है। ये अवस्थाएँ और विचार लोगों में कैसे उत्पन्न होते हैं? यदि ये हालात न होते, तो क्या ये चीजें अभी भी उठती और प्रकट होतीं? (नहीं।) जब तुम ऐसे हालात का सामना नहीं कर रहे हो, तो तुम्हारे प्रासंगिक हित परमेश्वर की माँगों से नहीं टकराएँगे और तुम्हारे हितों से किसी भी तरह से समझौता नहीं होगा, इसलिए तुम सोचते हो कि तुम्हारा प्यार और परमेश्वर का अनुसरण बाकी सभी की तुलना में बेहतर और मजबूत हैं। मगर जब तुम इस स्थिति का सामना करते हो और तुम्हारे हित इसमें शामिल हो जाते हैं, तो तुम अपने हितों को नहीं छोड़ पाते, तो तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हो। इस मुद्दे से क्या देखा जा सकता है? ऐसा क्या है जिसके कारण लोग अक्सर परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं और उसकी आलोचना करते हैं? (जब उनके स्वयं के हित संतुष्ट नहीं होते।) जब उनके स्वयं के हितों की बात आती है, जब उनके स्वयं के इरादे, इच्छाएँ और योजनाएँ पूरी नहीं हो पातीं, तो लोग विरोध करते हैं, आलोचना करते हैं और परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं, और यहाँ तक कि ईशनिंदा भी कर सकते हैं। वास्तव में आलोचना स्वयं एक प्रकार की प्रतिरोधी अवस्था है; ईशनिंदा और भी गंभीर बात है। जब उनके हितों को नुकसान पहुँचता है, तो वे जितना अधिक इसके बारे में सोचते हैं, उतना ही क्रोधित होते हैं, उतने ही अधिक वे असंतुष्ट हो जाते हैं, और उतना ही अधिक वे महसूस करते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है। वे विरोध करना शुरू कर देते हैं, और मन में ये विचार आते ही उनके होठों से शिकायतें फूटने लगती हैं और वे आलोचना करने लगते हैं। यह परमेश्वर के विरोध का संकेत है।
परमेश्वर के प्रति किसी व्यक्ति के प्रतिरोध की कुछ ठोस अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? (अपने कर्तव्य को लगन से न करना; अपने कर्तव्य में अनमना होना।) यह एक पहलू है। पहले यह व्यक्ति अपनी ऊर्जा का 70 प्रतिशत या 80 प्रतिशत अपना कर्तव्य निभाने में लगा सकता था, और अपने हर कार्य में स्वयं को अर्पित कर सकता था, लेकिन अब उसके मन में परमेश्वर के बारे में विचार हैं, और वह महसूस करता है कि अपना कर्तव्य निभाने के बावजूद उसे परमेश्वर का आशीष या अनुग्रह नहीं मिला है। परमेश्वर को अधार्मिक मानने के अलावा, उसके हृदय में अनिच्छा भी होती है, तो वह अपना कर्तव्य निभाते समय अपने प्रयास का केवल 10 या 20 प्रतिशत ही लगाता है, और पूरी तरह से अनमना होकर कार्य करता है। यह एक प्रकार का प्रतिरोधी व्यवहार है जो विद्रोही अवस्था द्वारा उत्पन्न होता है। और इसमें क्या है? (लापरवाह ढंग से परित्याग कर देना।) यह कैसे अभिव्यक्त होता है? उदाहरण के लिए, मान लो कि कोई व्यक्ति समूह अगुआ के रूप में कार्य करते समय सुबह 8 बजे की सभा के लिए सुबह 5 बजे उठा करता था ताकि वह प्रार्थना, आध्यात्मिक भक्ति और तैयारी कर सके। फिर वह सभा में संगति करने के लिए सामग्री का रिकॉर्ड बनाता था। कर्तव्य पालन के प्रति उसका रवैया गंभीर था, वह उसके प्रति स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर देता था। हालाँकि एक बार काट-छाँट किए जाने के बाद, वह सोचने लगा : “जल्दी उठने का क्या मतलब है? परमेश्वर इसे नहीं देखता, और कोई भी इसके लिए मेरी प्रशंसा नहीं करता। एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो कहता हो कि मैं अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक करता हूँ। इसके अलावा कड़ी मेहनत के बावजूद हमेशा मेरी काट-छाँट की जाती है। और मुझे परमेश्वर की स्वीकृति भी नहीं मिली है; ऐसा लगता है कि अब भविष्य के पुरस्कार भी खतरे में हैं।” इसलिए अगली सभा में वह पहले से तैयारी नहीं करता या उत्साहपूर्वक संगति नहीं करता, और रिकॉर्ड रखना बंद कर देता है। ये कैसा रवैया है? (एक गैर-जिम्मेदाराना रवैया है।) वह गैर-जिम्मेदार और अनमना है, और अब अपना पूरा दिल और ताकत नहीं लगाना चाहता। वह ऐसा क्यों हैं? उसके अंदर कुछ ऐसा है जो परेशानी पैदा कर रहा है। वह परमेश्वर का विरोध और उससे बहस करता है, सोचता है : “तुम्हारी काट-छाँट ने मुझे असहज कर दिया है, इसलिए मैं तुम्हारे साथ इसी तरह व्यवहार करूंगा। मैं अपना पूरा दिल और दिमाग अर्पित किया करता था, लेकिन परमेश्वर ने मुझे स्वीकृति नहीं दी। परमेश्वर लोगों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार करता है, इसलिए मैं अब अपना कर्तव्य निभाने की पूरी कोशिश नहीं करूँगा!” यह कौन-सा स्वभाव है? उनकी पशुता दिख रही है; अपने हृदय में वे परमेश्वर की धार्मिकता को नकारते हैं, इस बात से इनकार करते हैं कि परमेश्वर मनुष्य के अंतरतम हृदय की पड़ताल करता है, इस बात से इनकार करते हैं कि परमेश्वर सचमुच मनुष्य से प्रेम करता है, वे परमेश्वर के सार को नकारते हैं, और केवल अपनी धारणाओं के आधार पर परमेश्वर से व्यवहार करते हैं। परमेश्वर के साथ इस तरह व्यवहार करने से कौन से व्यवहार उत्पन्न होते हैं? असावधानी, लापरवाह ढंग से परित्याग और गैरजिम्मेदारी, साथ ही शिकायतें और गलतफहमियाँ। वे दूसरों को भड़काते हुए अपनी धारणाएँ भी फैलाएँगे : “परमेश्वर में विश्वास करने से यह सुनिश्चित नहीं होता कि तुम्हें आशीष मिलेगा। और तब भी कौन-से आशीष मिलेंगे? क्या किसी ने उन्हें देखा है? हम सभी पौलुस के रास्ते पर चल रहे हैं; हममें से कितने लोग पतरस के समान हो सकते हैं? परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के लिए शुभकामनाएँ।” वे क्या फैला रहे हैं? परमेश्वर के बारे में अपनी राय और धारणाएँ, साथ ही उसके प्रति अपना असंतोष। इस व्यवहार की प्रकृति क्या है? क्या यह झगड़ालू है? (हाँ।) वे इतने झगड़ालू क्यों हो पाते हैं? क्योंकि उनके जो दृष्टिकोण हैं वे सही नहीं हैं। वे लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये, उनके लिए उसकी अपेक्षाओं और उनके प्रति उसके दृष्टिकोण को गलत समझते हैं—उनके पास इन चीजों की समझ का अभाव है। जब परमेश्वर उनमें कार्य करता है, तो वे स्वीकार और समर्पण नहीं कर पाते, न ही वे सत्य की खोज कर पाते हैं। आखिर ऐसा क्या है जो इसकी वजह से उत्पन्न होता है? प्रतिरोध, आलोचना, निंदा और ईशनिंदा। भ्रष्ट स्वभाव वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वाभाविक रूप से इन्हें प्रदर्शित करेगा; फर्क सिर्फ इतना है कि किस हद तक। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि केवल बुरे लोग ही इस तरह का व्यवहार करते हैं। क्या तुम लोग सहमत हो? (हाँ। हर कोई जो सत्य का अनुसरण नहीं करता, वह इसी तरह व्यवहार करता है।) यह सही है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और जो लोग विषैली मानवता रखते हैं, वे सभी अलग-अलग हद तक इन लक्षणों को प्रदर्शित और प्रकट करते हैं। जो लोग अधिक मेहनत से सत्य का अनुसरण करने वाले होते हैं, उनके साथ कुछ अवांछनीय घटित होने पर उनमें भी असामान्य अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं, लेकिन वे प्रार्थना करके, परमेश्वर के वचनों को सामने रखकर स्वयं की जाँच करके और सत्य की खोज करके स्वयं को बदल सकते हैं। स्वयं को बदलने के बाद वे पश्चात्ताप करेंगे, जो उन्हें परमेश्वर को गलत समझने से रोकने देगा और कुछ समर्पण विकसित होने देगा। हालाँकि इस समर्पण में कभी-कभी कुछ अशुद्धियाँ होती हैं, कुछ हद तक जबरन किया जाता है, या मानक से कुछ हद तक कम होता है, लेकिन अगर वे समर्पण करने के इच्छुक हैं और थोड़ा-सा भी सत्य अभ्यास में ला सकते हैं, तो वे धीरे-धीरे सत्य के सभी पहलुओं के बारे में स्पष्टता प्राप्त कर लेंगे। लेकिन यदि तुममें समर्पण करने की कोई इच्छा नहीं है, और स्वयं की जाँच करने और इस समस्या को समझने के बाद भी तुम सत्य की तलाश नहीं करते या सत्य को स्वीकार नहीं करते—जिस तरह परमेश्वर तुम्हारे साथ व्यवहार करता है उसे तो बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते—तो परेशानी होगी। इसके क्या परिणाम होंगे? तुम शिकायतें जताओगे, लापरवाही से आलोचना करोगे, और निरंकुश होकर बोलोगे, तुममें परमेश्वर का भय मानने वाले दिल का नामोनिशान तक नहीं होगा। छोटे-मोटे मामलों में तुम घर पर ही शिकायत करोगे और अपना गुस्सा निकालने के लिए मेज का सामान तोड़ दोगे। तुम परमेश्वर से अलग हो जाओगे, और उसके सामने आने और प्रार्थना करने को तैयार नहीं होगे। अधिक गंभीर मामलों में तुम भाई-बहनों से मिलते समय अपनी नकारात्मकता और धारणाएँ फैलाओगे, जिससे गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा होंगी। यदि तुम फिर भी पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम संभवतः उनका आक्रोश भड़का दोगे, और तुम्हें कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाएगा या निष्कासित कर दिया जाएगा।
जब लोगों के साथ अलग-अलग चीजें होती हैं तो उनमें तरह-तरह की अभिव्यक्तियाँ दिखाई देती हैं, जिनसे अच्छी मानवता और बुरी मानवता के फर्क का पता चलता है। तो मानवता को मापने का पैमाना क्या है? यह कैसे मापा जाए कि कोई किस तरह का व्यक्ति है, और उसे बचाया जा सकता है या नहीं? यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं और वे सत्य को स्वीकार करने और उसका अभ्यास करने में सक्षम हैं या नहीं। सभी लोगों के भीतर धारणाएँ और विद्रोहीपन होता है, सभी में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, इसलिए उनके सामने ऐसे वक्त आएंगे जब परमेश्वर की माँगें उनके हितों के खिलाफ होंगी, और उन्हें चुनाव करना होगा—ये ऐसी चीजें हैं जिनसे सभी का अक्सर वास्ता पड़ता रहेगा, कोई भी इससे नहीं बच सकता। हरेक के सामने ऐसा वक्त भी आएगा जब वे परमेश्वर की गलत व्याख्या करेंगे और उसके बारे में धारणाएँ पाल लेंगे, या जब वे उसकी शिकायत करेंगे, और उसका प्रतिरोध या उसके प्रति विद्रोही हो जाएँगे—पर क्योंकि सत्य के बारे में लोगों का अलग-अलग रवैया होता है, इसलिए इसके प्रति उनका नजरिया भी अलग होगा। कुछ लोग अपनी धारणाओं के बारे में कभी भी बात नहीं करते, बल्कि सत्य को खोजकर खुद ही उनका समाधान करते हैं। वे उनके बारे में क्यों नहीं बोलते? (उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है।) सही कहा : उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है। उन्हें यह डर होता है कि कुछ कहने से नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इसलिए किसी दूसरे को प्रभावित किए बिना वे बस दिल-ही-दिल में इसका समाधान करने की कोशिश करते हैं। जब वे दूसरों को ऐसी अवस्था में देखते हैं तो अपने अनुभवों से उनकी मदद करते हैं। यह उदारहृदयता है। उदारहृदय लोग दूसरों से स्नेह करते हैं, वे दूसरों की समस्याएँ सुलझाने में उनकी मदद करने के लिए तैयार रहते हैं। जब वे कोई काम करते हैं या दूसरों की मदद करते हैं तो इसके पीछे कुछ सिद्धांत होते हैं, वे समस्याएँ सुलझाने में दूसरों की मदद करते हैं ताकि उनका भला हो सके, वे ऐसा कुछ भी नहीं कहते जिससे उनका भला न हो। यह प्रेम है। इनके पास परमेश्वर से भय मानने वाला दिल होता है, और उनके कृत्य सिद्धांतों के अनुसार और बुद्धिमत्तापूर्ण होते हैं। यह वह पैमाना है जिससे मापा जा सकता है कि लोगों की मानवता अच्छी है या बुरी। वे जानते हैं कि नकारात्मक चीजें किसी को भी लाभ नहीं पहुंचातीं, और अगर वे इन्हें अपने मुख से प्रकट करेंगे तो दूसरों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। इसलिए वे मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और सत्य को खोजकर इनका समाधान करते हैं। उनकी धारणाएँ चाहे किसी भी तरह की हों, वे परमेश्वर के प्रति एक समर्पित हृदय के साथ उनसे निपटते और उनका समाधान करते हैं, और फिर सत्य की समझ हासिल करते हैं, और परमेश्वर के लिए पूरी तरह समर्पण करने में सक्षम होते हैं; इस तरह, उनकी धारणाएँ कम-से-कम होती जाएंगी। पर कुछ लोगों में समझ होती ही नहीं है। उनमें धारणाएँ होती हैं तो वे हर किसी के साथ उन पर संगति करने लगते हैं। पर इससे समस्या हल नहीं होती, बल्कि दूसरों में भी धारणाएँ आ जाती हैं—क्या इससे उनका नुकसान नहीं होता? कुछ लोग धारणाएँ होने पर भाई-बहनों को उनके बारे में नहीं बताते, उन्हें यह डर होता है कि इससे दूसरे बता पाएंगे कि उनके मन में धारणाएँ हैं और उनके खिलाफ इसका इस्तेमाल करेंगे। पर घर पर वे बिना मलाल के बोलते हैं, जो मन में आता है कह देते हैं, और परिवार के गैर-विश्वासी सदस्यों को कलीसिया के भाई-बहनों की तरह देखते हैं। वे यह नहीं सोचते कि इसका नतीजा क्या होगा। क्या यह सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना है? उदाहरण के लिए, उनके संबंधियों में ऐसे लोग हो सकते हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हों, और जो विश्वास न करते हों, या जो आधा विश्वास करते हों और आधा शक करते हों; जब उनमें धारणाएँ होती हैं तो वे इन्हें परिवार के सदस्यों में फैला देते हैं, जिसका नतीजा यह होता है कि वे अपने साथ दूसरे सदस्यों को भी नीचे खींच लेते हैं और वे भी परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ पालने लगते हैं। धारणाएँ और गलतफहमियाँ सहज रूप से घातक होती हैं, और एक बार वे फैल जाएँ तो जो लोग उनकी असलियत नहीं जान पाते उन्हें नुकसान पहुँच सकता है। खासतौर से भ्रमित लोग तो उन्हें सुनने के बाद और भी उलझन में पड़ सकते हैं। सिर्फ वही लोग जो सत्य को समझते हैं और इन भ्रांतियों को पहचानने में सक्षम हैं, ऐसी हानिकर चीजों को—ऐसी धारणाओं, नकारात्मकता और गलतफहमियों को—नकार सकते हैं और परमेश्वर द्वारा बचाए जा सकते हैं। अधिकांश लोगों में ऐसी आध्यात्मिक कद-काठी नहीं होती। कुछ लोग यह भाँप सकते हैं कि ये गलत हैं—जो अपने-आपमें बड़ी प्रभावकारी बात है—पर वे यह नहीं बता सकते कि इनकी असलियत क्या है। इसलिए, जब अक्सर धारणाएँ और नकारात्मकता फैलाते रहने वाले लोग होंगे तो अधिकांश लोग इन हानिकर चीजों से परेशान हो जाएंगे और कमजोर और नकारात्मक महसूस करेंगे। यह निश्चित है। इन नकारात्मक, हानिकर चीजों में नए विश्वासियों को गुमराह करने और नुकसान पहुंचाने की अपार शक्ति होती है। जिनके पास पहले से ही एक आधार होता है, उन पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता; कुछ समय बाद, जब ऐसे लोग सत्य को समझ जाते हैं तो वे खुद को सही रास्ते पर ले आते हैं। पर किसी आधार से वंचित नए विश्वासी एक बार ऐसी हानिकर बातें सुन लेते हैं तो वे आसानी से नकारात्मकता और दुर्बलता के शिकार हो जाते हैं; जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते वे तो पीछे हटकर परमेश्वर में विश्वास करना ही छोड़ देते हैं; यहाँ तक कि वे बुरे लोग धारणाएँ फैलाकर कलीसिया के काम में भी विघ्न डाल सकते हैं। वे किस किस्म के लोग होते हैं जो किसी पछतावे के बिना नकारात्मकता और धारणाएँ फैलाते हैं? ये सब बुरे लोग होते हैं, राक्षस होते हैं, और इन सभी का खुलासा करके उन्हें हटा दिया जाएगा। कुछ लोग कहते हैं : “मैं ये बातें अजनबियों में नहीं फैलाता; मैं बस घर पर उनके बारे में बात करता हूँ।” चाहे तुम उनके बारे में बाहर बात करो या घर पर, मामले की प्रकृति एक ही होती है। तुम्हारे घर पर उनके बारे में बात कर पाने का मतलब है कि तुम्हारे मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ हैं। इन बातों को जोर से कहने में सक्षम होना साबित करता है कि तुम सत्य की तलाश या उससे प्रेम नहीं करते। तुमने इन धारणाओं को दूर करने में मदद पाने के लिए सत्य की तलाश नहीं की है, न ही उन्हें छोड़ने की तुम्हारी कोई योजना है, इसलिए चाहे तुम जिससे भी बात करो, तुम्हारे भाषण की प्रकृति वही रहती है। और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो जहाँ भी जाते हैं, जिससे भी मिलते हैं, वहाँ अपनी धारणाएँ फैलाते हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि किसी को इसलिए घर भेज दिया जाता है क्योंकि उसने अपना कर्तव्य निभाते समय गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा कीं। जब उनसे पूछा जाता है कि उन्हें घर जाने के लिए मजबूर क्यों किया गया, तो वे जवाब देते हैं : “मैं स्वाभाविक रूप से स्पष्टवादी हूँ। मैं वही कहता हूँ जो मेरे मन में है। मेरी जबान फिसल गई और मैं उन कुछ बुरे कामों के बारे में बात करने लगा जो मैं किया करता था; जब अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इसके बारे में पता चला, तो उन्होंने मुझे एक बुरा व्यक्ति करार दिया और घर भेज दिया। तुम सभी लोगों को मेरे अनुभव से सीखना चाहिए; तुम परमेश्वर के घर में लापरवाही से नहीं बोल सकते। परमेश्वर कहता है कि ईमानदार रहो, लेकिन तुम्हें अपने श्रोताओं का ख्याल रखना पड़ेगा। अपने परिवार के प्रति ईमानदार रहना ठीक है, लेकिन बाहरी लोगों के साथ ईमानदार रहने का प्रयास करोगे तो तुम्हें नुकसान उठाना पड़ेगा। क्या इसके कारण अभी-अभी मुझे हानि नहीं उठानी पड़ी? इसे एक सबक के तौर पर लो।” कुछ लोग यह सुनने के बाद इस पर विचार करेंगे : “परमेश्वर के घर में इस तरह की चीजें होती हैं? मुझे लगता है कि अब से बेहतर होगा कि हम अपने शब्दों को लेकर सावधान रहें!” क्या ये लोग भ्रमित नहीं हैं? परमेश्वर ने बहुत कुछ कहा है, फिर भी एक दशक से अधिक समय तक सुनने के बाद भी उन्हें एक भी वाक्य याद नहीं है—लेकिन एक बुरा व्यक्ति एक बात कहता है और वे इसे दृढ़ता से याद रखते हैं, इसे अपने दिल में बिठा लेते हैं, और उसके बाद अपने भाषण और कार्यों में सावधान हो जाते हैं। उन्हें गुमराह कर विषाक्त कर दिया गया है। ऐसा क्यों है कि उन्हें विषाक्त किया जा सकता है? एक अर्थ में उनकी काबिलियत खराब है, और वे बहुत उलझे हुए हैं, वे दूसरे लोगों की बोली और व्यवहार को समझने में असमर्थ हैं, और उनके पास खुद अपना कोई रुख नहीं है। वे सत्य नहीं समझते और उसे कायम रखने में असमर्थ हैं। दूसरे अर्थ में उनकी परमेश्वर में कोई आस्था नहीं है और वे मूल रूप से यह नहीं समझते कि परमेश्वर लोगों के साथ कैसे पेश आता है। इन सबके कारण वे दूसरों के द्वारा गुमराह किए जा सकते हैं। वे भी निश्चित रूप से अच्छे लोग नहीं हैं, जो दानव की बातों को अपनाने में सक्षम हैं। धारणाएँ फैलाते समय दानव के क्या इरादे और लक्ष्य होते हैं? वे चाहते हैं कि हर कोई उनके प्रति सहानुभूति रखे। यदि हर कोई परमेश्वर के बारे में शिकायत कर रहा होगा तो उन्हें बहुत खुशी होगी। क्या यह ऐसा व्यक्ति नहीं है जो गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करता है? क्या वे आँख मूँदकर समस्याएँ पैदा नहीं कर रहे हैं? ऐसे लोगों से कैसे निपटना चाहिए? क्या इसे कहने की भी जरूरत है? उन्हें तुरंत कलीसिया से दूर कर दो; उन्हें एक और दिन भी न रहने दो। उनके जैसे बुरे लोगों के परमेश्वर के घर में रहने से केवल विपत्ति ही आएगी; वे एक छिपा हुआ खतरा, टिक-टिक करता हुआ टाइम बम हैं। सबसे अच्छा काम होगा उन्हें दूर कर देना है। कलीसिया के बाहर वे जिस तरह भी विश्वास करना चाहते हैं, विश्वास करने दो—इसका परमेश्वर के घर से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे लोग सबसे अधिक कपटी होते हैं और छुटकारे से परे होते हैं। मुझे बताओ कि परमेश्वर के घर में ऐसा कौन है जिसे जुबान की क्षणिक फिसलन के कारण कभी बाहर भेजा गया हो? एक ईमानदार व्यक्ति होने और खुले तौर पर खुद को पहचानने के कारण किसे कभी जाने के लिए मजबूर किया गया है? परमेश्वर का घर हमेशा कलीसिया को स्वच्छ करने का कार्य कर रहा है, और वे कौन हैं जिन्हें सफाई कर हटा दिया जाता है? ये वे सभी बुरे लोग, मसीह-विरोधी और छद्म-विश्वासी हैं, जो लगातार अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से नहीं निभाते, और जो बुराई करते हैं और बाधाएँ डालते हैं। किसी भी व्यक्ति को क्षणिक अपराध या भ्रष्टता के क्षणिक खुलासे के कारण कभी भी नहीं हटाया गया है, और ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए सत्य का अभ्यास करने वाले किसी भी व्यक्ति को दूर नहीं किया गया है। यह स्वीकृत तथ्य है। कुछ लोग कहते हैं : “जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे कलीसिया में अल्पसंख्यक हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते वे बहुसंख्यक हैं। यदि ज़्यादातर लोगों को निकाल दिया गया गया, तो श्रम कौन करेगा? यदि बहुसंख्यकों को बाहर निकाल दिया गया, तो कितने लोगों को बचाया जा सकेगा?” यह सोचने का सही तरीका नहीं है। जैसा कि बहुत पहले कहा गया था, “बुलाए बहुत जाते हैं, पर चुने कुछ ही जाते हैं।” चूँकि मानवजाति इतनी गहराई तक भ्रष्ट है इसीलिए सत्य से प्रेम करने वाले लोग बहुत कम हैं। परमेश्वर बड़ी संख्या में लोगों को नहीं चाहता, बल्कि वह उत्कृष्ट लोगों को चाहता है। जो लोग परमेश्वर के घर में रहते हैं, वे वो हैं जो सुन सकते हैं और समर्पण कर सकते हैं, जो परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा कर सकते हैं; उनमें से अधिकतर लोग सत्य स्वीकार सकते हैं। कुछ लोगों की काबिलियत कमजोर होती है और हो सकता है कि वे सत्य न समझ पाएँ, लेकिन वे सुनने, समर्पण करने और गलत काम करने से बचने में सक्षम होते हैं, तो ऐसे लोगों को श्रम करने के लिए रखा जा सकता है। जो लोग श्रमिकों के बीच रह पाने में सक्षम होते हैं वे सभी वफादार होते हैं। वे चाहे कितना भी कठिन श्रम क्यों न करें, शिकायत नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो सुनते हैं और समर्पण करते हैं। जो लोग नहीं सुनते या समर्पण नहीं करते, यदि वे बने रहते हैं तो क्या वे बाधाएँ पैदा नहीं करेंगे? भले ही वे थोड़ा-सा श्रम करें, उन्हें हमेशा पर्यवेक्षण की आवश्यकता होती है; जिस क्षण उन पर नजर नहीं रखी जाएगी, वे गलत काम कर सकते हैं और समस्याएँ पैदा कर सकते हैं। ऐसे लोगों का श्रम फायदे से ज्यादा नुकसान करता है। इस तरह के श्रमिकों को बाहर निकाल देना चाहिए, अन्यथा परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ-साथ कलीसियाई जीवन भी बाधित हो जाएगा। यदि बुरे लोगों को कलीसिया से बाहर नहीं निकाला जाता, तो सचमुच परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान होगा और वे बर्बाद हो जाएँगे। इस प्रकार परमेश्वर के चुने हुए लोग कलीसियाई जीवन का अनुभव बिना किसी बाधा के कर सकें, इसकी गारंटी देने का एकमात्र तरीका बुरे लोगों को बाहर निकालना है; यह सुनिश्चित करने का एकमात्र तरीका है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर में विश्वास करने और उद्धार प्राप्त करने के सही रास्ते पर प्रवेश करें। बुरे लोगों को बाहर निकालना पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है।
एक इस प्रकार का व्यक्ति होता है जो सभी के प्रति प्रेमपूर्ण और सहनशील होता है, और किसी की भी मदद करने को तैयार रहता है। एकमात्र चीज जिसमें उसकी रुचि नहीं होती, वह है सत्य। वह हमेशा परमेश्वर का विरोधी होता है और उससे उसका कोई मेल नहीं होता। वह परमेश्वर का कट्टर शत्रु है। यह कैसा व्यक्ति है? वह छद्म-विश्वासी और शैतान है। शैतान वह है जो सत्य से सबसे अधिक विमुख होता है और सत्य से सबसे अधिक नफरत करता है। अगर किसी चीज में सत्य, या जो परमेश्वर कहता है या मांग करता है, वो शामिल हो तो वह न केवल इसे स्वीकार नहीं करता बल्कि इस पर संदेह करता है, वह इसके लिए प्रतिरोधी होता है, और वह इसके बारे में अपनी धारणाएँ फैलाता है। वह कई ऐसे काम भी करता है जो कलीसिया के काम के लिए हानिकारक होते हैं, यहाँ तक कि जब उसके निजी हितों को ठेस पहुँचती है तो वह सार्वजनिक रूप से परमेश्वर के खिलाफ चिल्लाता भी है। ऐसे लोग शैतान होते हैं; ये वे लोग हैं जो सत्य से नफरत करते हैं और परमेश्वर से नफरत करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति में एक स्वभाव होता है जो सत्य से नफरत करता है; इसलिए हर किसी में एक सार होता है जो परमेश्वर से नफरत करता है। एकमात्र अंतर इस नफरत की सीमा का होता है, कि वह बहुत थोड़ी है या ज्यादा। कुछ लोग परमेश्वर का विरोध करने के लिए बुराई करने में सक्षम होते हैं, जबकि अन्य केवल भ्रष्ट स्वभाव या नकारात्मक भावनाओं को प्रकट करते हैं। तो फिर कुछ लोग परमेश्वर से नफरत करने में सक्षम क्यों होते हैं? वे क्या भूमिका निभाते हैं? वे परमेश्वर से नफरत करने में सक्षम होते हैं क्योंकि उनका स्वभाव ऐसा होता है जो सत्य से नफरत करता है। इस स्वभाव के होने का अर्थ है कि वे दानव हैं और परमेश्वर के शत्रु हैं। दानव क्या होता है? दानव वे सभी होते हैं जो सत्य से नफरत करते हैं और परमेश्वर से नफरत करते हैं। क्या दानवों को बचाया जा सकता है? कदापि नहीं। जब परमेश्वर मानवजाति को बचाता है, बहुत-से लोग उठ खड़े होते हैं और उसका विरोध करते हैं और परमेश्वर के घर के काम में बाधा डालते हैं। ऐसे लोग दानव होते हैं। इन्हें जीवित राक्षस भी कहा जा सकता है। हर जगह की कलीसियाओं में जो कोई भी कलीसिया के काम में बाधा डालता है वह दानव और जीवित राक्षस होता है। और जो कोई कलीसिया पर अत्याचार करता है और सत्य को लेशमात्र भी स्वीकार नहीं करता वह एक जीवित राक्षस होता है। इसलिए यदि तुम लोग सही ढंग से पहचान लेते हो कि कौन से लोग जीवित राक्षस हैं, तो तुम्हें उन्हें दूर करने के लिए शीघ्रता से कार्य करना चाहिए। यदि कुछ लोग ऐसे हैं जिनका व्यवहार आमतौर पर बहुत अच्छा होता है, लेकिन कभी-कभी उनकी स्थिति खराब हो जाती है, या उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और वे सत्य को नहीं समझते, और वे कुछ ऐसा करते हैं जिससे गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा होती हैं लेकिन यह उनकी आदत नहीं है और वे प्रकृति से इस प्रकार के व्यक्ति नहीं हैं, तो वे रह सकते हैं। कुछ लोगों की मानवता बहुत अच्छी नहीं होती; यदि कोई उन्हें ठेस पहुँचाता है, तो वे उसे कभी नहीं छोड़ते। वे उस व्यक्ति के साथ अंतहीन बहस करेंगे, जब उन्हें लगेगा कि वे सही हैं तो वे कोई दया नहीं दिखाएँगे। फिर भी इन लोगों में एक गुण होता है, वह यह है कि वे श्रम करने और कठिनाई सहने को तैयार होते हैं। ऐसे लोग फिलहाल बने रह सकते हैं। यदि ये लोग अक्सर बुराई करते हैं और कलीसिया के काम में बाधा डालते हैं, तो वे दानव और शैतान हैं, और उन्हें बिल्कुल भी नहीं बचाया जा सकता। यह सौ प्रतिशत निश्चित है। इस प्रकार के लोगों को कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए; उन्हें बिल्कुल भी रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती। उन्हें क्यों निकाला जाना चाहिए? उन्हें किस आधार पर निकाला जाता है? कुछ को पश्चात्ताप का मौका देने, सबक सिखाने के लिए निकाला जाता है; दूसरों को इसलिए निकाला जाता है क्योंकि उनकी प्रकृति पता चल गई हैं कि वे क्या हैं, और उन्हें बचाया नहीं जा सकता। तो तुमने देखा कि लोग बस एक दूसरे से भिन्न होते हैं। कुछ लोग जिन्हें निकाला गया है, उनकी अत्यधिक नकारात्मकता और अंधकारमय मन के बावजूद उन्होंने अपना कर्तव्य नहीं छोड़ा है, और इसे निभाना जारी रखा है—वे उन लोगों के जैसी स्थिति में नहीं हैं जो निकाले जाने के बाद अपना कर्तव्य बिल्कुल नहीं करते, और वे जो रास्ते अपनाते हैं वे एक जैसे नहीं होते। जो लोग निकाले जाने के बाद भी अपना कर्तव्य निभाते रहते हैं उनकी आंतरिक स्थिति क्या होती है? वे किसका अनुसरण करते हैं? यह उन लोगों से भिन्न है जो अपना कर्तव्य नहीं निभाते। यदि तुम लोग इसे नहीं समझ सकते, तो इसका मतलब है कि तुम्हारी काबिलियत खराब है, तुम में आध्यात्मिक समझ की कमी है, और तुम कलीसिया का काम नहीं कर सकते। यदि तुम अंतर देख सकते हो, तो तुम उनके साथ अलग तरह से व्यवहार करोगे। इन दोनों प्रकार के लोगों के बीच अंतर कहाँ होता है? वे जिन रास्तों पर चलते हैं, उनमें क्या अंतर होता है? कर्तव्य पालन के प्रति उनके रवैये में क्या अंतर होता है? क्या तुम लोग इन चीजों को समझ सकते हो? (कुछ लोग निकाले जाने के बाद भी कुछ कर्तव्यों का पालन करना जारी रख पाते हैं, जो दर्शाता है कि उनमें अभी भी कुछ जमीर है। शायद उन्हें भी लगता है कि उन्हें अब बचाया नहीं जा सकता, लेकिन वे सोचते हैं : “मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ। मुझे यकीन है कि यह परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। भले ही कलीसिया ने मुझे निकाल दिया है, फिर भी मुझे परमेश्वर पर विश्वास करना चाहिए। मैं अभी भी एक सृजित प्राणी हूँ, और मैं अपने सृष्टिकर्ता को स्वीकार करता हूँ।” उनके भीतर अभी भी जमीर का यह अंश काम कर रहा होता है। अगर वे निकाले जाने के बाद अपना काम भी नहीं करते और अब परमेश्वर में भी विश्वास नहीं करते, वे दिखा देते हैं कि वे एक छद्म-विश्वासी हैं।) आगे कौन बोलना चाहेगा? (शायद कुछ लोग निकाले जाने के बाद भी अपना कर्तव्य निभाना जारी रख पाते हैं क्योंकि उनके दिल में उन्हें पहले से ही एहसास होता है कि उन्होंने पहले जो कुछ भी किया उसके लिए वे परमेश्वर के ऋणी हैं, और सुधार करना चाहते हैं। लेकिन अगर कोई निकाले जाने के बाद अपना कर्तव्य करना बंद कर देता है, तो यह दर्शाता है कि वह परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य नहीं निभा रहा था, बल्कि आशीष प्राप्त करने की आशा में परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश कर रहा था। और यह निर्धारित करने के बाद कि उन्हें कोई आशीष नहीं मिलेगा, उन्होंने कर्तव्य निभाते रहने की आवश्यकता नहीं समझी, इसलिए उन्होंने श्रम करना बंद कर दिया।) इन दो प्रकार के लोगों में से किसमें कुछ जमीर है? (उन लोगों में जो निकाले जाने के बाद भी अपना कर्तव्य निभाते हैं।) उस प्रकार का व्यक्ति जो अपना कर्तव्य जारी रखता है, उसके पास अभी भी कुछ जमीर और एक व्यक्ति होने की आधार रेखा होती है। भले ही परमेश्वर उनके साथ कैसा भी व्यवहार करे और परमेश्वर उन्हें चाहे या न चाहे, एक इंसान के नाते वे अभी भी परमेश्वर के सृजित प्राणी ही हैं। वे परमेश्वर की पहुँच से बच नहीं सकते; वे जहाँ भी जाते हैं, वे एक सृजित प्राणी ही होते हैं, इसलिए उन्हें अभी भी अपना कर्तव्य करना चाहिए। इससे पता चलता है कि उनके पास एक व्यक्ति का जमीर और आधारभूत चीजें है। इसके अलावा चाहे वे कहीं भी जाएँ, कम से कम वे यह स्वीकार कर सकते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और परमेश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। यह उनके हृदय की आस्था ही है जो उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करने में सक्षम बनाती है। इस प्रकार के व्यक्ति में वास्तव में कुछ आस्था होती है, और वह पश्चात्ताप करने में सक्षम हो सकता है। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो निकाले जाने के बाद अपने कर्तव्यों का पालन करना बंद कर देते हैं, वे सोच रहे होते हैं, “यदि परमेश्वर मुझे नहीं चाहता, तो मैं अब परमेश्वर में विश्वास नहीं करूँगा। मेरा विश्वास वैसे भी बेकार है।” वे विश्वास करना बंद कर देते हैं और परमेश्वर के अस्तित्व को नकार देते हैं, और यहाँ तक कि एक व्यक्ति होने की अपनी आधार रेखा को भी त्याग देते हैं, जो कुछ भी उन्होंने पहले किया था उसे नकार देते हैं। ऐसे लोगों में जमीर और समझ की कमी होती है, और यहीं इन दोनों प्रकार के लोगों के बीच अंतर होता है। मुझे बताओ, क्या परमेश्वर यह जानता है? वह यह सब बहुत अच्छी तरह से जानता है। उसने सभी चीजों की रचना की, वह सभी चीजों की पड़ताल कर सकता है और उन सभी पर संप्रभु शासन कर सकता है। जिन छद्म-विश्वासियों में जमीर की कमी होती है, वे सोचते हैं, “परमेश्वर कहाँ है? मैंने उसे कैसे नहीं देखा? अगर कलीसिया ने मुझे निकाल भी दिया तो क्या फर्क पड़ता है? मैं जहाँ भी जाऊँ, वैसे ही रह सकता हूँ। क्या तुम्हें लगता है कि मैं सिर्फ इसलिए जीवित नहीं रह सकता क्योंकि मैंने तुम्हें छोड़ दिया है? अपने कर्तव्यों का पालन न करने से मेरे पास और भी अधिक आजादी है!” यह उनका रवैया है, जो उन्हें छद्म-विश्वासी के रूप में प्रकट करता है, और यह साबित करता है कि उन्हें निकालना सही था। इस तरह के छद्म-विश्वासियों को निकाल देना चाहिए—उनसे तो छुटकारा पा लेना अच्छा। जो लोग परमेश्वर में आस्था रखते हैं, अगर उन्हें बाहर निकाल दिया जाए तो उनकी प्रतिक्रिया अलग होती है। उदाहरण के लिए बाहर निकालने के बाद कुछ लोग कह सकते हैं, “मैं अपना कर्तव्य निभाए बिना नहीं रह सकता। मैं परमेश्वर पर विश्वास किए बिना नहीं जी सकता। मैं परमेश्वर के बिना आगे नहीं बढ़ सकता। चाहे मैं कहीं भी जाऊँ मैं परमेश्वर के हाथों में ही रहूँगा।” इसलिए वे अपना कर्तव्य निभाते रहते हैं। यह अंधविश्वास या मूर्खता नहीं है जो उन्हें इस चुनाव की ओर ले जाती है; ऐसा इसलिए है क्योंकि वे इन विचारों से संचालित होते हैं इसलिए वे इस तरह अपना कर्तव्य निभा सकते हैं। उनके पास भी उलाहने और धारणाएँ हैं, और कुछ शिकायतें हैं, लेकिन ऐसा क्यों होता है कि वे अभी भी अपना कर्तव्य निभा पाते हैं? क्योंकि उनकी मानवता के भीतर अभी भी कुछ जमीर काम कर रहा है। जमीर के कार्य के बिना लोग अपना कर्तव्य नहीं करते और परमेश्वर में विश्वास करने से दूर रह सकते हैं। यही अंतर है। लोग एक दूसरे से भिन्न होते हैं; सबके बीच अंतर होते हैं। निर्णायक क्षणों में किसी के पास जमीर और समझ है या नहीं, इससे बहुत-सी चीजें निर्धारित और प्रभावित हो सकती हैं।
अभी-अभी मैंने व्यक्ति की अवस्था के इरादों को लेकर संगति की। आगे मैं नजरिये और रवैये को लेकर संगति करूँगा। चाहे यह शब्दावली का पहलू हो या सत्य का कोई पहलू, इसमें कई विवरण शामिल होते हैं; यह सतही तौर पर बोले गए शब्दों या वाक्यों जितना सरल नहीं होता। यदि तुम अपनी समझ को किसी शब्द, अवधारणा या कुछ वाक्यों के शाब्दिक अर्थ तक सीमित कर लोगे, तो यह केवल एक प्रकार का धर्म-सिद्धांत ही बन पाएगा। हालाँकि यदि तुम इन शाब्दिक वाक्यांशों या वाक्यों को वास्तविक अवस्थाओं और उन विचारों, दृष्टिकोणों या तरीकों के साथ एकीकृत करते और तुलना करते हो जो लोग अपने वास्तविक जीवन में प्रकट करते हैं, तो तुम अपनी कई समस्याओं का पता लगाने में सक्षम होगे। कुछ समस्याएँ सत्य के प्रतिकूल होती हैं। अन्य समस्याएँ धर्म-सिद्धांत के अनुरूप लगती हैं, वे नियमों और मानवीय विचारों और तरीकों के अनुरूप प्रतीत होती हैं, लेकिन वास्तव में वे सत्य या परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं होतीं। उदाहरण के लिए, लोगों के कुछ दृष्टिकोण और नजरिये केवल मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप होते हैं, सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं। यदि उन्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार मापा और परखा नहीं जाता तो लोग उन्हें सही मानकर स्वीकार कर लेंगे। लेकिन एक बार परमेश्वर के वचनों के साथ रखकर जाँचा जाए तो मानवीय विचार और दृष्टिकोण भ्रामक चीजें बन जाते हैं, वे नकारात्मक चीजें बन जाते हैं। तुम लोगों ने अन्य कौन-सी समस्याएँ खोजी हैं? (हे परमेश्वर, मैं पारंपरिक संस्कृति के विचारों और दृष्टिकोणों के बारे में सोच रहा हूँ, जैसे “अपने माता-पिता के लिए संतानोचित होना” और “एक अच्छी पत्नी और प्रेमपूर्ण माँ होना,” जिन्हें लोग सही और उचित मानते हैं, लेकिन जो एक सत्य के नजरिये से सत्य के अनुरूप नहीं हैं।) वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं। इसका मतलब है कि वे परमेश्वर की आकांक्षाओं के विरुद्ध हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित भक्ति दिखा सकते हैं या अच्छी पत्नी और प्रेमपूर्ण माँ बन सकते हैं—उनके व्यवहार और प्रदर्शन को लेकर यहाँ कोई समस्या नहीं लगती; लेकिन क्या वे परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं? क्या वे सत्य स्वीकार कर सकते हैं? केवल ये दो बाहरी व्यवहार प्रदर्शित करना कोई समस्या नहीं है; लेकिन जहाँ तक उनके प्रकृति सार के मूल्यांकन की बात है, तो वे परमेश्वर के साथ जिस तरह से व्यवहार करते हैं, क्या उसमें कोई समर्पण होता है? क्या वे सत्य स्वीकार करने में सक्षम हैं? यदि इन दोनों पहलुओं में समस्या है तो क्या उन्हें उद्धार मिल पाएगा? उन्हें निश्चित रूप से नहीं मिलेगा। इसलिए भले ही ये दो व्यवहार गुण के रूप में दिखाई दें, वे किसी व्यक्ति के सार का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। चाहे सतही तौर पर कोई कितना भी संतानोचित हो, अच्छी पत्नी और प्रेमपूर्ण माँ हो, इसका मतलब यह नहीं है कि वह वही व्यक्ति है जो परमेश्वर को समर्पण करता है, इसका मतलब यह तो बिल्कुल भी नहीं है कि यह वही व्यक्ति है जो शैतान के प्रभाव से मुक्त हो गया है। उनकी इन दोनों खूबियों और सत्य के बीच कोई संबंध नहीं है। इसलिए जिस व्यक्ति के पास ये दो खूबियाँ होती हैं, वह निश्चित रूप से ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसे परमेश्वर स्वीकार करता है, और वह एक धार्मिक व्यक्ति के मानक से बहुत नीचे रह जाता है। भ्रष्ट मनुष्यों के हृदय शैतान के फलसफों से भरे हुए हैं। उन सभी को दूसरों की प्रशंसा और अनुमोदन पाना पसंद आता है। उन सभी को अपनी सुरक्षा के लिए पारस्परिक संबंध बनाए रखना पसंद है। वे सभी दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए दूसरों से अलग दिखना और दिखावा करना पसंद करते हैं। इन शैतानी फलसफों पर आधारित जीवन एक निश्चित उद्गम बिंदु से शुरू होता है। इस शुरुआती बिंदु का लक्ष्य क्या हासिल करना होता है? (ताकि लोग उनकी अच्छे व्यक्ति के रूप में प्रशंसा करें और कहें कि वे प्यार करने वाले और विचारशील हैं, ताकि लोग उनका समर्थन करें और उन्हें स्वीकार करें।) शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हुए लोग एक प्रकार की धारणा और कल्पना को प्रश्रय देते हैं : “अच्छे लोगों को पुरस्कृत किया जाता है” और “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” फिर भी कोई भी स्पष्ट रूप से यह नहीं कह सकता कि “अच्छे लोगों को पुरस्कृत किया जाता है” और “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है” का मतलब आखिर क्या है। इसके विपरीत यह देखते हुए कि अच्छे लोग लंबे समय तक जीवित नहीं रहते जबकि बुरे लोग रहते हैं, कोई भी वास्तव में इस स्थिति का मूल कारण नहीं समझ पाता। लेकिन लोगों के बीच एक आम तौर पर स्वीकृत नियम है जो स्थिर रहता है : “भलाई के बदले भलाई और बुराई के बदला बुराई मिलती है।” परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्मों के आधार पर प्रतिफल देता है। यह परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है, और इसे कोई भी नहीं बदल सकता, फिर भी बहुत-से लोग इसे नहीं पहचानते हैं। तो जब लोग शैतानी फलसफों के अनुसार जी रहे होते हैं तो क्या उनके लिए बदलना आसान होता है? (नहीं।) क्यों नहीं? (ये फलसफे उनके अस्तित्व का नियम बन जाते हैं। सत्य की खोज किए बिना और इन धारणाओं को समझने में सक्षम हुए बिना इन्हें बदलना मुश्किल होता है।) यह इतना आसान नहीं होता। दरअसल इन इरादों और कार्यों के साथ स्थितियों का सामना करते समय यदि तुम कहते हो कि तुम्हें कुछ भी महसूस नहीं होता, तो यह सही नहीं है। गैर-विश्वासियों के लिए कुछ भी महसूस न करना सामान्य बात होती है क्योंकि वे पूरी तरह से शैतानी फलसफों और कानूनों के अनुसार जीते हैं। वे इन चीजों को मूल्यवान मानते हैं और यह नहीं मानते कि वे गलत हैं। अब तुम लोगों ने इतने लंबे समय तक परमेश्वर में विश्वास किया है और इतने सारे धर्मोपदेश सुने हैं; मन की गहराई में तुम्हें इन चीजों का मूल्यांकन करना चाहिए। क्या ये सही हैं या गलत? तुम्हें यह पहचानने में सक्षम होना चाहिए कि ये चीजें गलत हैं; उनके प्रति तुम्हारा रवैया विरोध करने वाला होना चाहिए, स्वीकार करने वाला नहीं। तो यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि वे गलत हैं, तुम उन्हें जाने क्यों नहीं दे पाते? समस्या कहाँ आती है? (हम बहुत स्वार्थी और घृणित लोग हैं, और देह की इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करने के लिए तैयार नहीं होते। जब किसी चीज से सामना होता है, तो हम परमेश्वर को संतुष्ट करने के बारे में नहीं सोचते और परमेश्वर के घर के हितों पर बहुत कम विचार करते हैं, इसके बजाय केवल अपने हितों पर विचार करते हैं। हम अपने आंतरिक इरादों के विरुद्ध विद्रोह नहीं कर पाते।) देह की इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह करने को तैयार न होना—यह एक पहलू है। जब प्रमुख हितों की बात आती है, तो तुम व्यथित और पीड़ित महसूस करते हो, और उन्हें छोड़ नहीं पाते। तो तुम्हारे दैनिक जीवन की आपसी लेन-देन में जिसमें प्रमुख हित शामिल नहीं होते, क्या तुमने कभी इन शैतानी फलसफों और कानूनों की जाँच की है? क्या तुमने उन्हें हल करने के लिए सत्य की खोज की है? क्या तुम बिल्कुल भी बदले हो? (कुछ चीजें मैं जाँचता हूँ, और जिसे मैं पहचान लेता हूँ, उसे बदलने की कोशिश करता हूँ। लेकिन अक्सर मैं इसे गंभीर मामला नहीं मानता और इसकी जाँच नहीं करता।) फिर इसे बदलना आसान नहीं है। तुम्हारी हर हरकत, हर शब्द और कार्य, यहाँ तक कि तुम्हारी सरसरी नजरें भी भ्रष्ट स्वभाव के खुलासे हैं, सब कुछ भ्रष्ट स्वभाव द्वारा संचालित है। यदि तुम अभी भी इन मुद्दों को हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, तो उद्धार प्राप्त करना बहुत कठिन होगा। यदि तुम सोचते हो कि देह की इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए जबरदस्त प्रयास और ऊर्जा चाहिए, जैसे इसके लिए तुम्हें अपने व्यक्तित्व को दो भागों में बाँटना पड़े, तो तुम परेशानी में हो; इसे बदलना आसान नहीं होगा। यदि तुम स्वयं की जाँच कर सको और सत्य की तलाश कर सको—रोजमर्रा की जिंदगी से शुरू करके, अपने हर शब्द और कर्म से, और विशेष रूप से उन मामलों में जो प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत से जुड़े हैं—और यदि तुम अपनी देह की इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह कर सको, तो तुम कुछ बदलाव करने में सक्षम होगे। अब तुम लोगों को शैतान के इन फलसफों और कानूनों को त्यागना मुश्किल लगता है; तो फिर तुम लोगों के दैनिक जीवन में क्या इन दृष्टिकोणों या व्यवहारों और कार्यों में कोई सच्चा परिवर्तन हुआ है जो सत्य के अनुरूप नहीं है? (कभी-कभी जब मैं बोलता हूँ या कार्य करता हूँ, तो मुझे एहसास होता है कि मेरे इरादे गलत हैं और मैं उन्हें ठीक करना चाहता हूँ। प्रार्थना करने के बाद मैं परमेश्वर के इरादों को समझता हूँ और उन्हें अभ्यास में ला पाता हूँ, लेकिन ऐसा करने के बाद मुझे पता चलता है कि मेरे कार्यों के पीछे के इरादे वास्तव में हल नहीं हुए हैं, केवल मेरे बाहरी तरीके ही बदले हैं। उदाहरण के लिए, यदि मैं अपने हितों की रक्षा के लिए झूठ बोलता हूँ, तो यह एहसास होने के बाद मैं तुरंत देह की इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह कर दूँगा और दूसरों के सामने खुल कर खुद को उजागर कर दूँगा और कहूँगा, “अभी मेरे बोलने का इरादा सही नहीं था। मैं कपट कर रहा था।” लेकिन अगली बार ऐसी ही स्थिति का सामना होने पर भी उस इरादे का मुझ पर नियंत्रण रहेगा और मैं अपने हितों की रक्षा करना चाहूँगा और झूठ बोलूँगा। ऐसा लगता है वह इरादा मेरे दिल में गहराई से जड़ जमाए है; वह मेरे दिल में बार-बार उभरता रहता है।) तो तुम्हारे अपने हितों को संतुष्ट करने का यह इरादा आता कहाँ से है? यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का उत्पाद है। विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों द्वारा उत्पन्न इरादे प्रकृति में भिन्न-भिन्न होते हैं; कुछ दुष्ट प्रकृति के होते हैं, कुछ क्रूर होते हैं, कुछ बेतुके होते हैं, कुछ हास्यास्पद होते हैं, और कुछ दुराग्रही होते हैं। हरेक की अपनी-अपनी प्रकृति होती है। इस प्रकार अलग-अलग परिस्थितियों में एक ही इरादे का उत्पन्न होना बहुत सामान्य होता है, क्योंकि तुम्हारे अंदर का भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदलता। यदि यह एक स्वभाव अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग इरादे पैदा कर सकता है, तो इससे लोगों को बहुत परेशानी होगी और उनके दिमाग में अराजकता फैल जाएगी! यहाँ तक कि केवल एक प्रकार के इरादे को भी हल करना कठिन हो सकता है, इसके लिए लंबी अवधि तक परिवर्तन की आवश्यकता होती है; यदि एक स्वभाव कई प्रकार के इरादे उत्पन्न करता है, तो उसे बदलना तो और भी कठिन होगा। तुम्हें एक ही प्रकार के इरादे पर लगातार काम करने, विभिन्न स्थितियों और परिस्थितियों में और विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के बीच इसे सँभालना और हल करना चाहिए। यह भ्रष्ट स्वभाव के एक पहलू के साथ लड़ाई लड़ना है। कुछ लोग चिंतित हो जाते हैं और कुछ लड़ाइयाँ हारने के बाद यह निष्कर्ष भी निकाल लेते हैं कि वे बदलाव कर पाने में असमर्थ हैं। चिंतित होने से कोई फायदा नहीं है; भ्रष्ट स्वभाव को पल भर में नहीं बदला जा सकता। तुम सोचोगे कि एक-दो बार देह की इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करने पर कुछ बदलाव आ जाने चाहिए, लेकिन बाद में तुम्हें पता चलता है कि तुम अभी भी हमेशा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, और तुम समझ नहीं पाते कि ऐसा क्यों है। यह इंगित करता है कि तुममें स्वभावगत परिवर्तन की प्रक्रिया की समझ का अभाव है। स्वभाव बदलना कोई साधारण बात नहीं होती। यदि सत्य को लेकर तुम्हारी समझ बहुत उथली है तो इतना काफी नहीं होगा। जब तुम वास्तव में अपने भ्रष्ट स्वभाव के सार को पहचान लेते हो, तो तुम इसके खिलाफ पूरी तरह से विद्रोह कर सकते हो। जिस तरह से तुम अभी अभ्यास कर रहे हो, हालाँकि परिस्थितियों से सामना होने पर तुम अभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करोगे, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि तुम पहले ही बदल चुके हो। कम से कम तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव खुद को कम प्रकट करता है, और तुम्हारे इरादे और मिलावटें बहुत कम हो गई हैं। अब तुम उतने पाखंड और बेईमानी से बात नहीं करते; इसके बजाय तुम अक्सर अपने दिल से बोलते हो और सच कहते हो। यह इंगित करता है कि तुम पहले ही बदल चुके हो। लेकिन तुम सोच सकते हो, “केवल मेरे अभ्यास और तरीकों में बदलाव आया है। मेरे इरादे अभी भी नहीं बदले हैं, इसलिए मैं वास्तव में बिल्कुल भी नहीं बदला हूँ, है न? क्या इसका मतलब यह है कि मैं उद्धार से परे हूँ?” क्या ये विचार सही हैं? (नहीं।) ये विकृत विचार हैं। अपने स्वभाव को बदलने के लिए कई प्रक्रियाओं का अनुभव करना होता है; यह सही है कि सबसे पहले तुम्हारा अभ्यास और तरीके बदल जाते हैं। जहाँ तक लोगों के आंतरिक इरादों की बात है, उन्हें केवल सत्य की तलाश करके ही बदला जा सकता है। अभ्यास और तरीके के संबंध में बदलाव कर पाने में सक्षम होना यह साबित करता है कि किसी में बदलाव आना शुरू हो गया है। यदि तुम अपने मानवीय इरादों और मिलावटों को हल करने के लिए सत्य की खोज में लगे रहते हो, तो तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव कम से कम प्रकट होगा। यदि तुमने परमेश्वर को जान लिया है, तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है और तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हो, तो यह साबित करता है कि तुम्हारे जीवन स्वभाव में पहले ही बदलाव आ चुका है। चीजों को देखने का यही सही तरीका है। यदि तुम्हारा अभ्यास करने का तरीका सही है, और तुम सत्य का अभ्यास करने और किसी सिद्धांत के साथ कार्य करने में सक्षम हो, तो इसका मतलब है कि तुम पहले ही बदल चुके हो। सिर्फ इसलिए कि तुम कभी-कभी अभी भी अपनी भ्रष्टता प्रकट करते हो, यह विश्वास करना गलत है कि तुम बिल्कुल भी नहीं बदले हो। तुम कह सकते हो, “फिर भ्रष्टता उजागर करने की मेरी पुरानी समस्या अभी भी क्यों उभरती है? इससे साबित होता है कि मैं नहीं बदला हूँ।” यह चीजों को देखने का गलत तरीका है। केवल कुछ वर्षों के अनुभव के बाद भ्रष्टता उजागर करने की समस्या को पूरी तरह से हल नहीं किया जा सकता। इसे पूरी तरह से हल करने के लिए सत्य का अभ्यास करने में लंबे समय तक डटे रहने की जरूरत है। तुम्हारी भ्रष्टता के खुलासों में कमी यह साबित करने के लिए काफी है कि तुममें बदलाव आ चुका है; यह कहना कि बिल्कुल भी कोई बदलाव नहीं हुआ है, वास्तविक स्थिति से मेल नहीं खाता। तुम लोगों को अपने हृदय में इसके बारे में स्पष्ट होना चाहिए, तुम्हारी समझ विकृत नहीं हो सकती। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करके उद्धार प्राप्त करना एक दीर्घकालिक प्रयास है जिसे केवल कुछ ही वर्षों में प्राप्त नहीं किया जा सकता। तुम्हें यह जरूर पता होना चाहिए।
अभी हमने नजरियों, इरादों और रवैयों को लेकर संगति की। नजरिये से रवैये निर्धारित करते हैं, है न? वास्तव में नजरिये और दृष्टिकोण लोगों के रवैये को निर्धारित करते हैं। इसी तरह जब तुम किसी हालात का या स्थिति का सामना करते हो तो तुम्हारा दृष्टिकोण इस बात पर निर्भर करता है कि तुम कहाँ खड़े हो। यदि तुम परमेश्वर के साथ नहीं बल्कि मनुष्य के पक्ष में खड़े हो, अपने पारस्परिक संबंधों को बनाए रखने की कोशिश कर रहे हो, तो तुम्हारे दृष्टिकोण और तरीके निश्चित रूप से तुम्हारे हितों और गौरव की रक्षा और सुरक्षा की खातिर, और तुम्हारे लिए बच निकलने का रास्ता रख छोड़ने की खातिर होंगे। परंतु यदि तुम्हारा नजरिया परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना और अपनी वफादारी काम में लाना है, तो तुम्हारा रवैया हर स्थिति में सत्य के अनुसार अभ्यास करना, अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निभाना, अपनी वफादारी को काम में लाना, और परमेश्वर के आदेश को पूरा करना होगा—ये सभी तत्व सुसंगत हैं। जब तुम लोग एक साथ संगति करते हो, मगर उन धर्म-सिद्धांतों को लेकर जिनके बारे में तुमने सुना है या जो तुम्हें स्मरण हैं, या उन आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में जिन्हें तुमने समझा है, उन पर संगति नहीं करते, बल्कि अपनी वर्तमान अवस्थाओं के बारे में संगति करते हो, उन तरीकों के बारे में संगति करते हो जिनसे किसी घटना पर तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों में बदलाव आया है और जिन पर तुम्हें नई खोजों और नई समझ ने जानकारियाँ उपलब्ध कराई हैं, अपनी उन चीजों के बारे में संगति करते हो जो परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य के प्रतिकूल हैं, तो उस समय जब तुम लोग इन चीजों के बारे में संगति कर पाते हो, तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद होगा। यदि तुम लोगों ने कभी अपने विचारों, दृष्टिकोणों, मंशाओं और सोच के सभी आयामों की जाँच नहीं की है, या उनकी जाँच करने के बाद तुम यह बताने में असमर्थ हो कि वे सही हैं या गलत, और उनके बारे में तुम्हारा आकलन संभ्रमित है, तो अगर तुम लोग कलीसिया की अगुआई कर रहे होते, तो तुम लोग दूसरों को क्या सिंचित करते? (वचन व धर्म-सिद्धांत बताते।) मुझे ऐसा लगता है कि तुम उन्हें केवल वचनों और धर्म-सिद्धांतों, आध्यात्मिक मतों और आध्यात्मिक ज्ञान से ही सिंचित न करते, बल्कि शायद अपने बेतुके विचारों और परमेश्वर के बारे में अपनी व्यक्तिगत धारणाओं और आलोचनाओं और इससे भी बढ़कर तुम लोग परमेश्वर के प्रति अपने एकांगी नजरियों और समझ से भी सिंचित करते, जो परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं से बिलकुल असंगत है। और उन सभी लोगों का क्या होता है, जो ऐसी अगुआई में पलते-बढ़ते हैं? वे केवल वचनों और धर्म-सिद्धांतों पर बोलने में सक्षम हो जाते हैं। यदि परमेश्वर उनमें कुछ परीक्षण और शुद्धिकरण का कार्य करना चाहता, तो उनके द्वारा इसका प्रतिरोध न किया जाना एक संतोषप्रद परिणाम होता; वे इससे सही प्रकार से व्यवहार करने में बिलकुल अक्षम होते, सच्चाई के साथ उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। यह क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि तुम लोग जो कुछ दूसरों के मन में बिठाते हो, वे धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। यदि तुम लोगों के सिंचन और अगुआई से दूसरों ने परमेश्वर के बारे में अपनी समझ नहीं बढ़ाई है और उसके प्रति अपनी गलतफहमियाँ कम नहीं की हैं, तो तुम लोगों द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसा रहा है? तुमने उसे यथेष्ट रूप से किया है या यथेष्ट रूप से नहीं किया? (यथेष्ट रूप से नहीं किया।) क्या तुम लोग अब यह निर्धारित करने में सक्षम हो कि तुम्हारे कार्य के कौन से हिस्से और तुम्हारी संगति के कौन से सत्य दूसरों के लिए सचमुच सहायक और लाभदायक हैं, जिन्होंने न केवल परमेश्वर के प्रति उनकी नकारात्मकता, उनकी धारणाएँ और गलतफहमियाँ दूर की हों, बल्कि उन्हें परमेश्वर की सच्ची समझ प्रदान की हो और उसके साथ सामान्य संबंध स्थापित करने में मदद की हो। अगर तुम लोग अपने कार्य में ये परिणाम हासिल कर सकते हो, तो तुम लोग व्यावहारिक कार्य करने और अपने कर्तव्य का यथेष्ट रूप से निर्वहन करने में सक्षम हो। यदि तुम लोग यह कार्य करने में असमर्थ हो, तो फिर तुम लोग कलीसिया के भीतर आखिर कर क्या रहे हो? क्या तुम लोग यह अनुमान लगाने में सक्षम हो कि तुम लोगों ने काम के कौन-से हिस्से कर लिए हैं और तुम्हारे द्वारा बोले गए कौन-से शब्द वास्तव में परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए फायदेमंद और शिक्षाप्रद रहे हैं? क्या तुम लोग जो काम करते हो और जो शब्द तुम कहते हो, वे पौलुस के शब्दों के समान हैं—केवल आध्यात्मिक सिद्धांत के बारे में बोलना, खुद की गवाही देना और दिखावा करना—या वे शायद पौलुस द्वारा कही गई बातों से भी ज्यादा खुले और आपत्तिजनक हैं? क्या तुम लोग इसे माप सकते हो? यदि तुम वास्तव में इसे माप सकते हो, तो तुम लोगों ने सचमुच प्रगति की है। उदाहरण के लिए, केवल एक या दो वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखने वाले व्यक्ति के मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ हो जाती हैं जो उसके कर्तव्य के प्रदर्शन को प्रभावित करती हैं, इसलिए तुम उन्हें लगातार बताते रहो, “तुमको परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए। तुम परमेश्वर-प्रेमी हृदय के बिना नहीं हो सकते। तुम्हें यह सीखना होगा कि परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करें, तुम्हारी कोई व्यक्तिगत मांगें और इच्छाएँ नहीं हो सकतीं।” लेकिन उनके साथ समस्या यहाँ नहीं है; वास्तव में समस्या यहाँ है कि कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने वाले को निष्कासित कर दिया गया था, और नए विश्वासी को इस व्यक्ति का सार नहीं समझ आया, इसलिए उसके मन में इस बात को लेकर आशंकाएँ पैदा हो गईं कि परमेश्वर के घर ने इस मामले को कैसे सँभाला। उसके मन में शंकाएँ हैं, इसलिए तुम्हें इन शंकाओं का समाधान करना होगा। ऐसा नहीं है कि वह अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहता, या कि वह ढिलाई बरतना चाहता है या कठिनाई सहन नहीं कर सकता, और फिर भी तुम हमेशा उससे कहते हो, “युवा लोगों को कठिनाई सहन करने में सक्षम होना चाहिए और मेहनती और अटलता होनी चाहिए।” ये शब्द सही हैं, लेकिन वे इस व्यक्ति की स्थिति पर सही नहीं बैठते, इसलिए सुनने के बाद भी वह प्रेरणाहीन बना रहता है। परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों का समाधान केवल कुछ धर्म-सिद्धांत बोलकर नहीं किया जा सकता; तुम्हें तथ्यों को समझना होगा और मूल कारण स्पष्ट करना होगा। इसे ही मामले की तह तक जाना कहते हैं। केवल यह पता लगाने से कि वास्तव में क्या चल रहा है, और मामले को सुलझाने के लिए सत्य की खोज करने से ही समस्या वास्तव में हल हो सकती है। तुम उसकी पड़ताल कर सकते हो : “तुम कैसे गलत समझ रहे हो? तुम्हें क्या गलतफहमियाँ हैं? परमेश्वर तुम्हारे प्रति कितना अच्छा है और उसे तुम्हारी कितनी परवाह है, और फिर भी तुम उसे गलत समझते हो; तुममें अंतरात्मा नहीं है!” लेकिन इससे समस्या का समाधान नहीं हो सकता; यह उपदेश और व्याख्यान है, सत्य पर संगति करना नहीं है। तो फिर वास्तव में सत्य पर संगति करने के लिए क्या कहा जाना चाहिए? (उसे यह विश्वास करने में मदद करो कि परमेश्वर धार्मिक है। कहो : “भले ही तुम उस व्यक्ति की असलियत नहीं जानते जिसे निष्कासित किया गया है, तुम्हें एक समर्पित दिल बनाए रखना चाहिए। जब तुम सत्य समझोगे, तो तुम स्वाभाविक रूप से उस व्यक्ति की असलियत जान जाओगे।”) यह काफी अच्छा तरीका है, यह सबसे सरल तरीका है; भले ही इससे सब कुछ स्पष्ट न हो, यह कुछ समस्याओं का समाधान कर सकता है। मुझे बताओ कि जब लोगों में गलतफहमियाँ पैदा होती हैं तो वे आम तौर पर क्या सोचते हैं? इससे उन्हें बुरा क्यों लगा? क्योंकि यह उनके अपने हितों से जुड़ा था; उन्होंने स्वयं को दूसरे व्यक्ति के स्थान पर रखकर सोचा कि इसका उन पर क्या प्रभाव पड़ सकता है : “इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी उन्हें निष्कासित कर दिया गया। मैंने उनके जितने लंबे समय तक परमेश्वर में विश्वास नहीं किया है; क्या परमेश्वर मुझे भी नहीं चाहेगा?” उनमें यह गलतफहमी पैदा हो जाती है। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और उसके लोगों से व्यवहार करने के तरीके के बारे में गलतफहमी है। परमेश्वर के बारे में इन दो गलतफहमियों का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? जब कोई परमेश्वर के बारे में गलतफहमी विकसित कर लेता है, तो इस गलतफहमी की प्रकृति क्या होती है? क्या यह परमेश्वर के कार्य की पुष्टि होती है, या उस पर प्रश्नचिह्न लगाना होता है? (प्रश्नचिह्न लगाना होता है।) क्या यह प्रश्नचिह्न लगाना सही है या गलत? सबसे पहले तो यह गलत है। तो क्या तुम्हारी तर्क-शक्ति तुम्हें यह पहचानने में सक्षम करेगी कि तुमने परमेश्वर के बारे में गलतफहमी विकसित कर ली है, और तुम्हारा इस प्रकार का व्यवहार, रवैया या तुम्हारी स्थिति सही नहीं है? यदि तुम में यह तर्क-शक्ति है, तो तुम स्पष्ट रूप से महसूस कर पाओगे कि तुम गलत हो और परमेश्वर निश्चित रूप से सही है। इस आधार के साथ आगे जिस भी सत्य पर संगति होगी तुम उसे आसानी से स्वीकार करने में सक्षम होगे। लेकिन अगर तुम अवचेतन रूप से सोचते हो, “परमेश्वर जो भी करता है वह जरूरी नहीं कि सही हो। परमेश्वर में भी ऐसी चीजें हैं जहाँ लोग दोष ढूँढ़ सकते हैं। परमेश्वर भी गलतियाँ करता है और लोगों के साथ अनुचित व्यवहार करता है; लोगों के प्रति उसकी असावधानी अनुचित है”—यदि ये विचार तुम्हारे भीतर उठ सकते हैं, तो क्या इसका मतलब यह है कि तुम अवचेतन रूप से परमेश्वर जो करता है उसकी पुष्टि करते हो या उससे इनकार करते हो? (इनकार करते हैं।) परमेश्वर जो करता है उससे तुम इनकार करते हो। तो क्या तुम अवचेतन रूप से विश्वास करते हो कि परमेश्वर के बारे में तुम्हारी गलतफहमी सही है या गलत? यदि तुम अवचेतन रूप से विश्वास करते हो कि तुम सही हो, तो यह एक समस्या है, जिसे सत्य के किसी भी पहलू पर किसी भी संगति से संबोधित नहीं किया जा सकता। इन दो प्रकार के दृष्टिकोणों में से, इन दो प्रकार की अवचेतन मानसिकताओं में से, कौन-सा प्रकार स्वयं को एक सृजित प्राणी की स्थिति में रखता है, वह जो स्वीकार करता है कि सृष्टिकर्ता ही सृष्टिकर्ता है, मनुष्य मनुष्य है, और परमेश्वर परमेश्वर है? (पहला प्रकार।) और दूसरा प्रकार? क्या इस दूसरे प्रकार के दृष्टिकोण वाला कोई व्यक्ति इस तथ्य को स्वीकार कर सकता है कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है? (नहीं।) यह कैसे दिखता है? इसका पता कैसे चलता है? वे परमेश्वर के प्रति विश्वास, समर्पण और स्वीकृति का रवैया नहीं रखते; इसके बजाय वे एक ऐसा रवैया अपनाते हैं जो हमेशा निगरानी रखने, पड़ताल करने, विश्लेषण करने और गहन विश्लेषण करने की होती है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसे वे ऐसे देखते हैं मानो वे उसके समकक्ष हों। इसलिए जब उन्हें अचानक पता चलता है कि परमेश्वर ने कुछ ऐसा किया है जो उनकी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से मेल नहीं खाता, तो वे परमेश्वर के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए कुछ ढूंढ़ने, और परमेश्वर की आलोचना करने और परमेश्वर की निंदा करने का प्रयास करने का साहस करते हैं। वे परमेश्वर से परमेश्वर की तरह नहीं, बल्कि एक इंसान की तरह पेश आते हैं, क्या ऐसा नहीं है? वे परमेश्वर के विरुद्ध इस्तेमाल करने के लिए कुछ खोजने की कोशिश करते हैं, उसकी गलतियाँ खोजने और आलोचना करने की कोशिश करते हैं—क्या यह सृजित प्राणी की स्थिति से बोलना है? (नहीं।) जब किसी को परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ हों, तो उसे समझना चाहिए कि परमेश्वर जो चीजें करता है वे अथाह हैं। एक सृजित प्राणी के रूप में मनुष्य के पास परमेश्वर में दोष निकालने और उसकी आलोचना करने का कोई औचित्य या योग्यता नहीं है। जब ऐसा होता है, तो तुम लोगों को ऐसे व्यक्ति के साथ संगति कैसे करनी चाहिए? तुम्हें यह कहना होगा : “तुम्हें परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ हैं, जो अपने आप में ही गलत है। भले ही परमेश्वर ने ऐसा कुछ किया हो जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं है, तुम्हारे पास परमेश्वर से भय मानने वाला दिल होना चाहिए। यदि तुम कोई बात नहीं समझ पाते, तो आँख मूँद कर आलोचना और निंदा न करो; तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य की खोज करनी चाहिए। चूँकि हम लोग हैं, भ्रष्ट इंसान हैं, और हम कभी भी परमेश्वर नहीं बन सकते। अगर हमने परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए हर सत्य को प्राप्त कर उसे समझ भी लिया हो, तब भी हम केवल भ्रष्ट इंसान ही रहेंगे, और परमेश्वर हमेशा परमेश्वर ही रहेगा। भले ही हम सत्य प्राप्त कर लें और परमेश्वर द्वारा पूर्ण बना दिए जाएँ, यदि परमेश्वर हमें पसंद नहीं करता और हमें नष्ट करना चाहता है, तब भी हमें शिकायतें नहीं करनी चाहिए—एक सृजित प्राणी को ऐसा समर्पण करना चाहिए। यदि इतनी छोटी-सी बात के कारण भी हम परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बनाते और उसकी आलोचना करते हैं, तो यह साबित करता है कि हम मनुष्य कितने भ्रष्ट, अहंकारी, दुष्ट और नासमझ हैं। सबसे पहले हमने कभी भी अपने आप को एक सृजित प्राणी की स्थिति में नहीं रखा है और फिर सृष्टिकर्ता के साथ वैसा व्यवहार नहीं किया; यह पहली गलती थी। दूसरी गलती यह है कि हम हमेशा परमेश्वर पर नजर रखते हैं, उसके विरुद्ध इस्तेमाल करने के लिए कुछ खोजने के तरीकों के बारे में सोचते हैं, और फिर अवलोकन, पड़ताल और विश्लेषण करते हैं—यह और भी गलत है। न केवल हम परमेश्वर में विश्वास नहीं करते और सत्य को स्वीकार नहीं करते या उसके प्रति समर्पित नहीं होते; हम शैतान के पक्ष में खड़े होते हैं और उसके सहयोगी के रूप में कार्य करते हैं, उसके साथ मिलकर परमेश्वर के विरुद्ध चिल्लाते हैं, परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करते हैं और उससे बहस करते हैं—यह वह नहीं है जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए। परमेश्वर अब क्या कर रहा है, लोग चाहे इसे सही मानें या गलत, चाहे यह सत्य के किसी भी पहलू के अनुरूप हो, और चाहे यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव से जैसे भी मेल खाता हो, इसका हमसे कोई लेना-देना नहीं है। हम सृजित प्राणी हैं; हमारी जिम्मेदारियाँ, दायित्व और कर्तव्य क्या होने चाहिए? बिना शर्त समर्पण करना और स्वीकार करना। यदि हम मानते हैं कि हम सृजित प्राणी हैं, कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है, और यदि हमें इसे स्वीकार करना चाहिए, भले ही हमें लगे कि इससे हमें लाभ होता है, हानि होती है, नुकसान होता है, या चोट पहुँचती है, तो इसे समर्पण कहा जाता है, इसे परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होना कहा जाता है। एक सच्चे सृजित प्राणी को ऐसा ही होना चाहिए। हम अब्राहम, अय्यूब, पतरस की तुलना में कहाँ खड़े हैं? हम उनसे बहुत पीछे हैं। यदि हम योग्यताओं के बारे में बात करें, तो हमारे पास परमेश्वर से बात करने की कोई योग्यता नहीं है, परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ रखने की कोई योग्यता नहीं है, और परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसका मूल्यांकन या आलोचना करने की भी कोई योग्यता नहीं है।” निःसंदेह लोगों को यह सुनकर आनंद नहीं आएगा कि उनके पास इनमें से कोई भी योग्यता नहीं है, पर तुम्हें भ्रष्ट मनुष्यों से यही कहना चाहिए क्योंकि उनके साथ तर्क नहीं किया जा सकता। सृष्टिकर्ता के साथ योग्यताओं और औचित्यों के बारे में बात करने का साहस करना—क्या यह अहंकार और आत्म-तुष्टता, और तर्क से परे होना नहीं है? इसलिए ऐसी दो टूक बात कहने से ही वे समझ सकते हैं; इस तरह की संगति से कुछ समस्याएँ हल हो सकती हैं।
जो लोग सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं और सचमुच सत्य स्वीकार करते हैं, उन्हें परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ नहीं पालनी चाहिए, न ही उन्हें परमेश्वर के किसी भी कार्य से अपने मूल्यांकन या आलोचना को जोड़ना चाहिए। व्यवस्था के युग में परमेश्वर ने कहा कि वह अब्राहमको एक पुत्र देगा। अब्राहम ने उस पर क्या कहा? उसने कुछ नहीं कहा—परमेश्वर ने जो कहा उस पर उसे विश्वास था। यह अब्राहम का रवैया था। क्या उसने कोई आलोचना की? क्या उसने उपहास उड़ाया? क्या उसने कोई गुप्त कार्य किया? उसने ऐसा नहीं किया और न ही कोई तुच्छ चालबाजी की। इसे समर्पण कहते हैं; इसे अपने स्थान और अपने कर्त्तव्य पर बने रहना कहते हैं। जहाँ तक उसकी पत्नी सारा का प्रश्न है—क्या वह अब्राहम से भिन्न नहीं थी? परमेश्वर के प्रति उसका रवैया क्या था? उसने सवाल किया, उपहास किया, अविश्वास किया—और उसने आलोचना की, और वह क्षुद्र चालबाजी में लगी रही, अब्राहम को उपपत्नी के रूप में अपनी दासी देने का बेतुका काम किया। यह मनुष्य की इच्छा से आया। सारा अपने स्थान पर बनी नहीं रही; उसने परमेश्वर के वचनों पर संदेह किया और उसकी सर्वशक्तिमत्ता पर भरोसा नहीं किया। उसके अविश्वास का कारण क्या था? इसके दो कारण और संदर्भ थे। एक तो यह कि अब्राहम तब तक काफी बूढ़ा हो चुका था। दूसरी बात यह थी कि वह स्वयं भी काफी वृद्ध थी और बच्चे पैदा करने में असमर्थ थी, इसलिए उसने सोचा, “यह असंभव है। परमेश्वर इसे कैसे पूरा करेगा? क्या यह बेतुकी बात नहीं है? क्या यह एक बच्चे के साथ छल करने की कोशिश करने जैसा नहीं है?” परमेश्वर ने जो कहा उसने उसे सत्य नहीं माना या उस पर विश्वास नहीं किया, बल्कि इसे मजाक के रूप में लिया, यह सोचकर कि परमेश्वर लोगों के साथ मजाक कर रहा है। क्या यह सही रवैया है? (नहीं।) क्या सृष्टिकर्ता के साथ इसी रवैये के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए? (नहीं।) तो क्या वह अपने स्थान पर बनी रही? (नहीं।) वह नहीं बनी रही। क्योंकि उसने परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में नहीं बल्कि मजाक में लिया था, और चूँकि उसे विश्वास नहीं था कि परमेश्वर ने क्या कहा या वह क्या करने जा रहा था, उसने बेतुका काम किया, जिससे कई परिणाम हुए, जो सभी मनुष्य की इच्छा से आए थे। सार रूप में वह कह रही थी : “क्या परमेश्वर यह काम कर सकता है? यदि वह नहीं कर सकता, तो मुझे परमेश्वर के इन वचनों को पूरा करने में मदद करने के लिए कार्रवाई करनी चाहिए।” उसके भीतर गलतफहमियाँ, आलोचनाएँ, अटकलें और प्रश्न थे, ये सभी एक भ्रष्ट स्वभाव वाले व्यक्ति की ओर से परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह थे। क्या अब्राहम ने ये काम किए थे? उसने ऐसा नहीं किया था, और इसलिए यह आशीष उसे मिला। परमेश्वर ने अपने प्रति अब्राहम का रवैया, उसका परमेश्वर से भय मानने वाला हृदय, उसकी वफादारी और उसका सच्चा समर्पण देखा था, और परमेश्वर उसे एक पुत्र देगा जिससे वह कई राष्ट्रों का पिता बनेगा। अब्राहम से यही वादा किया गया था और सारा को इससे अप्रत्याशित लाभ हुआ। इसलिए समर्पण बहुत महत्वपूर्ण चीज है। क्या समर्पण के भीतर प्रश्न होते हैं? (नहीं।) यदि हों तो क्या उसे सच्चा समर्पण माना जा सकता है? (नहीं माना जा सकता।) यदि इसके भीतर विश्लेषण और आलोचना हो, तब क्या यह मायने रखता है? (नहीं।) और यदि कोई गलतियाँ खोजने की कोशिश करता है? तब तो यह और भी कम मायने रखता है। तो फिर समर्पण के भीतर क्या अभिव्यक्त होता है और किसका खुलासा होता है—और वह व्यवहार क्या होता है—जो इसे पूरी तरह से सच साबित करता है? (वह विश्वास होता है।) सच्चा विश्वास एक चीज है। व्यक्ति को परमेश्वर जो कहता और करता है उसे सही ढंग से समझना चाहिए, और पुष्टि करनी चाहिए कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही और सत्य है; इस पर सवाल उठाने की कोई जरूरत नहीं है, न ही इसके बारे में दूसरों से पूछने की जरूरत है, और इसे अपने दिल में तौलने या इसका विश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं है। यह समर्पण की विषयवस्तु का एक पहलू है, यह विश्वास करना कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है। जब कोई व्यक्ति कुछ करता है, तो यह देखा जा सकता है कि यह किस व्यक्ति ने किया है, उसकी पृष्ठभूमि क्या है, क्या उसने कोई बुरे कर्म किए हैं, और उसका चरित्र कैसा है। इन बातों का विश्लेषण आवश्यक होता है। दूसरी ओर यदि कुछ परमेश्वर से आता है और उसके द्वारा किया जाता है, तो तुम्हें तुरंत अपना मुँह बंद कर लेना चाहिए और कोई संदेह नहीं करना चाहिए—इस पर सवाल न उठाओ और प्रश्न न पूछो, बल्कि इसे पूरी तरह से स्वीकार करो। और आगे क्या करना है? यहाँ कुछ सत्य शामिल हैं जिन्हें लोग नहीं समझते, और वे परमेश्वर को नहीं जानते। हालाँकि उनका मानना है कि यह परमेश्वर का कार्य है और वे समर्पण करने में सक्षम हैं, लेकिन वे सचमुच सत्य नहीं समझते। वे जो समझते हैं वह अभी भी कुछ हद तक धर्म-सैद्धांतिक प्रकृति का होता है, और वे दिल से अस्थिर होते हैं। ऐसे समय में उन्हें अवश्य ही खोजना चाहिए और यह पूछना चाहिए, “इसमें क्या सत्य है? मेरी सोच में गलती कहाँ है? मैं परमेश्वर से दूर कैसे हो गया? मेरे कौन-से दृष्टिकोण परमेश्वर की कही बातों के विरोध में हैं?” इसके बाद उन्हें इन चीजों की तलाश करनी चाहिए। यह समर्पण का रवैया और अभ्यास है। ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि वे समर्पित हैं, लेकिन जब बाद में उन पर कोई मुसीबत आती है, तो वे सोचते हैं, “कौन जानता है कि परमेश्वर क्या करता है? हम सृजित प्राणी हस्तक्षेप नहीं कर सकते। परमेश्वर जो चाहे वह करे!” क्या यह समर्पण है? (नहीं।) यह किस प्रकार का रवैया है? यह जिम्मेदारी लेने से विमुख होना है; यह परमेश्वर जो करता है उसके प्रति बेपरवाह और उदासीन होना है। अब्राहम समर्पण करने में सक्षम था क्योंकि उसने सिद्धांतों का पालन किया था, और वह अपने विश्वास में दृढ़ था कि परमेश्वर ने जो कहा है उसे किया जाना आवश्यक है और पूरा किया जाना आवश्यक है—वह इन दो “आवश्यकताओं” के बारे में 100 प्रतिशत निश्चित था। इसलिए उसने कोई सवाल नहीं उठाया, उसने कोई मूल्यांकन नहीं किया, न ही वह किसी तुच्छ चालबाजी में शामिल हुआ। इसी तरह अब्राहम ने अपने समर्पण में व्यवहार किया।
यह एक आशीष था जो अब्राहम ने परमेश्वर से प्राप्त किया था। उसने कोई संदेह नहीं किया था, और जो कुछ भी उसने किया उसमें मानवीय इच्छा को नहीं मिलाया था। हालाँकि अय्यूब को जिस स्थिति का सामना करना पड़ा, वह अब्राहम की स्थिति से स्पष्ट रूप से भिन्न थी। इसमें अलग क्या था? अब्राहम ने जिसका सामना किया वह एक आशीष था, यह एक अच्छी बात थी; लगभग 100 वर्ष की उम्र में वह निःसंतान था और एक बच्चे की उम्मीद कर रहा था, तब परमेश्वर ने उसे एक बेटा देने का वादा किया था। वह खुश क्यों नहीं होता? वह निश्चित रूप से समर्पण के लिए तैयार था। परन्तु अय्यूब ने जिस चीज का सामना किया, वह था दुर्भाग्य; वह अभी भी समर्पण करने में सक्षम क्यों था? (उसे अपने दिल में विश्वास था कि सब कुछ परमेश्वर कर रहा था।) यह एक पहलू है। एक और बात है, कई बार लोग तब समर्पण कर पाते हैं जब उन्हें बहुत अधिक पीड़ा का सामना नहीं करना पड़ता, और वे तब समर्पण कर सकते हैं जब परमेश्वर आशीष देता है; परंतु जब परमेश्वर उसे छीन लेता है, तो उनके लिए समर्पण करना आसान नहीं रहता। जहाँ तक अय्यूब की बात है, उसके पास किस प्रकार का दृष्टिकोण था, उसके पास किस प्रकार की तर्कशक्ति थी, उसने कौन-से सत्य समझे, या उसके पास परमेश्वर की समझ का कौन-सा पहलू था जिससे वह उस दुर्भाग्य को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पित होने में सक्षम हो सका? (उसका मानना था कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह अच्छा होता है। उसे अपने दिल में विश्वास था कि उसके पास जो कुछ भी था वह परमेश्वर का दिया हुआ था, उसने उन्हें अपने श्रम से अर्जित नहीं किया था—परमेश्वर का इसे छीनना भी उसका अधिकार है। उसके पास इस तरह की तर्क-शक्ति थी, इसलिए वह स्वीकार करने और समर्पण करने में सक्षम था।) अगर लोग मानें कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह अच्छा होता है, तो उनके लिए समर्पण करना आसान हो जाता है। लेकिन क्या तब भी समर्पण करना आसान होता है, जब ऐसा लगता है कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह लोगों के लिए दुर्भाग्य लाता है? कौन सच्चे समर्पण को ज्यादा दर्शाता है? (तब भी समर्पण करने में सक्षम होना जब ऐसा लगता है कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह लोगों के लिए दुर्भाग्य लाता है।) तो अय्यूब के पास किस प्रकार की तर्क-शक्ति और सत्य था जो वह उस दुर्भाग्य को स्वीकार करने में सक्षम हो सका? (अय्यूब वास्तव में परमेश्वर को परमेश्वर मानता था। वह समझ गया था कि परमेश्वर केवल वह नहीं है जो आशीष और अनुग्रह देता है—जब वह उन्हें ले लेता है, तब भी वह परमेश्वर होता है; उसने यह भी समझा कि यदि कोई विपत्तियों का सामना करता है, तो इसलिए क्योंकि परमेश्वर इसकी अनुमति देता है। भले ही परमेश्वर कुछ भी करे, वह परमेश्वर ही रहता है, और मनुष्यों को हमेशा उसकी आराधना करनी चाहिए।) मुख्य बात यह है कि अय्यूब को परमेश्वर की कुछ समझ थी, और उसने अपनी स्थिति को अच्छे से स्वीकार किया था। वह जानता था कि परमेश्वर का सार बाहरी लोगों, घटनाओं और चीजों के बदलने पर नहीं बदलेगा; परमेश्वर का सार हमेशा और हमेशा के लिए परमेश्वर का सार रहता है, वह नहीं बदलता। ऐसा नहीं है कि यदि परमेश्वर लोगों को आशीष देता है, तो वह परमेश्वर है, और यदि वह जो वह लोगों पर विपत्ति लाता है, उन्हें कष्ट और दंड देता है, या उन्हें नष्ट करता है, तो उसका सार बदल जाता है और वह परमेश्वर नहीं रह जाता। परमेश्वर का सार कभी नहीं बदलता। मनुष्य का सार भी नहीं बदलता; इसका मतलब एक सृजित प्राणी के रूप में मनुष्य का दर्जा और सार कभी नहीं बदलेगा। भले ही तुम परमेश्वर का भय मानकर उसे जान सकते हो, फिर भी तुम एक सृजित प्राणी हो; तुम्हारा सार नहीं बदलता। परमेश्वर ने अय्यूब को इतने बड़े परीक्षणों से गुजारा, फिर भी अय्यूब समर्पण करने में सक्षम रहा और उसने शिकायत नहीं की। परमेश्वर के बारे में कुछ ज्ञान होने के अलावा उसकी सबसे बड़ी ताकत क्या थी जिसने उसे समर्पण करने और शिकायत करने से दूर रहने में सक्षम बनाया? वह यह था कि वह जानता था कि मनुष्य सदैव मनुष्य ही रहेगा; परमेश्वर उनके साथ जो भी व्यवहार करता है वह पूरी तरह से सही है। इसे स्पष्ट रूप से कहें तो परमेश्वर तुम्हारे साथ जैसा भी व्यवहार करता है, वैसा ही व्यवहार तुम्हारे साथ किया जाना चाहिए। क्या इससे चीजें स्पष्ट नहीं होतीं? यह मांग न करो कि परमेश्वर को तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, उसे तुम्हें क्या आशीष देना चाहिए, या वह तुम्हें किन परीक्षणों से गुजारे और उसके कार्य का तुम पर क्या महत्व होना चाहिए। तुम इन चीजों की मांग नहीं कर सकते, ये मांग रखना अनुचित है। कुछ लोग शांति और सुरक्षा के समय में कहते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह अच्छा है, लेकिन वे इसे तब स्वीकार नहीं कर पाते जब कुछ ऐसा होता है जो उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होता। इसका समाधान सत्य के साथ होना चाहिए। यह सत्य क्या है? यह अपनी स्थिति पर दृढ़ रहना है; परमेश्वर तुम्हारे साथ जो भी व्यवहार करता है तुम उसी के लायक हो और यह त्रुटि रहित होता है। भले ही परमेश्वर तुम्हारे साथ कैसा भी व्यवहार करे, वह फिर भी परमेश्वर है; लोगों को उससे मांगें नहीं रखनी चाहिए। परमेश्वर के सही होने का मूल्यांकन न करो, और उसके क्रियाकलापों के कारणों, लक्ष्यों या महत्व का मूल्यांकन न करो। इन चीजों को तुम्हारे मूल्यांकन की जरूरत नहीं है। तुम्हारी जिम्मेदारी और कर्तव्य एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी स्थिति पर दृढ़ रहना है और परमेश्वर को अपनी इच्छानुसार आयोजन करने देना है। यही सही तरीका है। यह कहना आसान है लेकिन व्यवहार में लाना कठिन होता है; और फिर भी लोगों को इस सत्य को समझना चाहिए। केवल सत्य को समझकर ही तुम उस समय सच्चा समर्पण कर सकते हो जब तुम पर कोई मुसीबत आती है।
अब तक परमेश्वर में विश्वास करने और धर्मोपदेश सुनने के बाद कुछ लोग सोचते हैं : “अय्यूब परमेश्वर द्वारा दिए गए परीक्षणों के प्रति समर्पित हो सका क्योंकि अय्यूब जानता था कि सब कुछ परमेश्वर के हाथ से आता है। चाहे कितने भी मवेशी और भेड़ें हों, या किसी के पास कितनी भी संपत्ति, समृद्धि और संतान हो, यह सब परमेश्वर का दिया हुआ है—यह लोगों पर निर्भर नहीं है। लोग परमेश्वर के सामने दासों की तरह हैं, वह उनके साथ जैसा भी व्यवहार करे, उन्हें सहना ही होगा।” वे परमेश्वर को जानने के लिए इस प्रकार के नकारात्मक रवैये का उपयोग करते हैं; क्या परमेश्वर को इस प्रकार जानना सही है? यह निश्चित रूप से सही नहीं है। तो फिर परमेश्वर को जानने का सटीक तरीका क्या होगा? (लोग सृजित प्राणी हैं, और परमेश्वर हमेशा के लिए परमेश्वर है। भले ही परमेश्वर जैसे भी कार्य करे, लोगों को परमेश्वर को उसकी इच्छानुसार उन्हें आयोजित करने देना चाहिए।) यह सही है। यह मांग न करो कि परमेश्वर को एक निश्चित तरीके से कार्य करना चाहिए। यह मांग न करो कि संगति में परमेश्वर तुम्हारे सामने सब कुछ स्पष्ट कर दे। यदि वह इसे स्पष्ट नहीं करता है, तो तुम्हें यह सोचकर परमेश्वर से विवाद नहीं करना चाहिए कि तुम्हारे पास कोई कारण है। यह गलत है। यह अत्यंत अहंकारी और आत्म-तुष्ट होना है, और इसमें जमीर और समझ का अत्यधिक अभाव है; यह वह नहीं है जो एक सृजित प्राणी को कहना चाहिए। यहाँ तक कि शैतान में भी परमेश्वर से इस तरह से उन्मादी तरीके से बात करने की हिम्मत नहीं है—तुम एक भ्रष्ट इंसान हो, तुम शैतान से भी अधिक अहंकारी कैसे हो सकते हो? परमेश्वर से बात करते समय लोगों को कौन-सी स्थिति में होना चाहिए? इस बात को कैसे समझना चाहिए? दरअसल अय्यूब के कथन, “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” से यह पहले ही स्पष्ट हो चुका है कि वह क्यों परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम था, और इसके भीतर तलाशने के लिए सत्य है। जब उसने यह बयान दिया था तो क्या उसने कोई शिकायत या उलाहना व्यक्त की थी? (नहीं।) क्या इसमें कोई अस्पष्टता या नकारात्मक बात छिपी थी? (नहीं।) बिलकुल नहीं। अय्यूब को अंततः अपने अनुभवों के माध्यम से एहसास हुआ था कि सृष्टिकर्ता लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, इसका निर्णय करना लोगों का काम नहीं है। यह थोड़ा अप्रिय लग सकता है, लेकिन यह तथ्य है। परमेश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति के पूरे जीवन के लिए उसके भाग्य की व्यवस्था की है; चाहे तुम इसे स्वीकार करो या न करो, यह एक तथ्य है। तुम अपनी नियति नहीं बदल सकते। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और तुम्हें उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना होगा। परमेश्वर जैसे भी कार्य करता है वह सही होता है क्योंकि वह सत्य है, और वह सभी चीजों पर संप्रभु है, और लोगों को उसके प्रति समर्पित होना चाहिए। इस “सभी चीजों” में तुम शामिल हो, और इसमें सभी सृजित प्राणी शामिल हैं। तो फिर यह किसकी गलती है कि तुम हमेशा विरोध करना चाहते हो? (यह हमारी अपनी गलती है।) यह तुम्हारी समस्या है। तुम हमेशा कारण बताना और गलतियाँ खोजना चाहते हो; क्या यह सही है? तुम हमेशा परमेश्वर से आशीष और लाभ पाना चाहते हो; क्या यह सही है? इसमें से कुछ भी सही नहीं है। ये विचार दर्शाते हैं कि परमेश्वर के बारे में तुम्हारा ज्ञान और समझ गलत है। ठीक इसलिए कि परमेश्वर में विश्वास को लेकर तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है, किसी स्थिति से सामना होने पर तुम अनिवार्य रूप से परमेश्वर से टकराओगे, उसके साथ लड़ोगे और उसका विरोध करोगे, हमेशा यही सोचोगे, “परमेश्वर का ऐसा करना गलत है; मुझे यह समझ नहीं आता। हर कोई उसके ऐसा करने का विरोध करेगा। ऐसा करना परमेश्वर के जैसा होना नहीं है!” लेकिन मामला यह नहीं है कि परमेश्वर कैसा है; परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, वह फिर भी परमेश्वर ही है। यदि तुममें इस तर्कशक्ति और समझ की कमी है कि जब भी हर दिन तुम्हारे साथ कोई घटना घटती है, तो तुम हमेशा पड़ताल करने लगते हो और निष्कर्ष निकालने लगते हो, तो इसका परिणाम यह होगा कि तुम हर जगह केवल परमेश्वर से लड़ोगे और उसका विरोध करोगे, और तुम इस दशा से बाहर निकलने में सक्षम नहीं होगे। लेकिन यदि तुममें यह समझ है और तुम एक सृजित प्राणी की जगह ले सकते हो, और जब तुम परिस्थितियों का सामना करते हो तो तुम स्वयं की तुलना सत्य के इस पहलू से करते हो और अभ्यास करते हो और उसमें प्रवेश करते हो, तो परमेश्वर को लेकर तुम्हारा आंतरिक भय समय के साथ बढ़ता जाएगा। अनजाने में तुम्हें यह महसूस होगा : “अब पता चला कि परमेश्वर जो करता है वह गलत नहीं होता; परमेश्वर जो करता है वह सब अच्छा होता है। लोगों को इसकी पड़ताल और विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है; बस अपने आपको परमेश्वर के आयोजन के हवाले कर देना है!” और जब तुम स्वयं को परमेश्वर के प्रति समर्पित होने या उसके आयोजनों को स्वीकार करने में असमर्थ पाते हो, तो तुम्हारा हृदय धिक्कार महसूस करेगा : “मैं एक अच्छा सृजित प्राणी नहीं हूँ। मैं बस समर्पण क्यों नहीं कर पाता? क्या यह सृष्टिकर्ता को दुःखी नहीं कर रहा है?” जितना अधिक तुम एक अच्छा सृजित प्राणी बनने की इच्छा रखते हो, उतनी ही ज्यादा सत्य के इस पहलू के बारे में तुम्हारी समझ और स्पष्टता बढ़ती है। लेकिन जितना अधिक तुम अपने आप को एक महत्वपूर्ण व्यक्ति मानते हो, यह मानते हो कि परमेश्वर को तुम्हारे साथ इस तरह से व्यवहार नहीं करना चाहिए, कि उसे तुम्हें उस तरह से झिड़कना नहीं चाहिए, कि उसे तुम्हारी काट-छाँट नहीं करनी चाहिए और तुम्हें वैसे आयोजित नहीं करना चाहिए तो तुम मुसीबत में हो। यदि तुम्हारे हृदय में परमेश्वर से बहुत सारी मांगें हैं, यदि तुम्हें लगता है कि ऐसी कई चीजें हैं जो परमेश्वर को नहीं करनी चाहिए थी, तो तुम गलत रास्ते पर जा रहे हो; धारणाएँ, आलोचनाएँ और ईशनिंदा उभरेंगी, और तुम बुराई करने से दूर नहीं होगे। जब सत्य से प्रेम न करने वाले लोग परमेश्वर के वचन सुनते हैं, तो वे विश्लेषण और पड़ताल करना शुरू कर देते हैं, जिससे धीरे-धीरे संदेह और उपहास पैदा होता जाता है। फिर वे आलोचना करना, इनकार करना और निंदा करना शुरू कर देते हैं—यही परिणाम होता है। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर के साथ इसी तरह से व्यवहार करते हैं, यह सब उनके भ्रष्ट स्वभाव के कारण होता है।
कुछ लोग हमेशा सोचते हैं, “मैं एक व्यक्ति हूँ। यह सच है कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, लेकिन उसे मेरा सम्मान करना चाहिए और समझना चाहिए, उसे मुझसे प्यार करना चाहिए और मेरी रक्षा करनी चाहिए।” क्या यह दृष्टिकोण सही है? वह लोगों से किस प्रकार प्रेम करता है, इसका अंतिम निर्णय परमेश्वर का होता है। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है; वह सृजित प्राणियों के साथ कैसा व्यवहार करता है यह उसे देखना है। परमेश्वर के अपने सिद्धांत और अपने स्वभाव हैं; लोगों का मांगें रखना बेकार है। इसके बजाय उन्हें यह सीखना चाहिए कि परमेश्वर को कैसे समझें और उसके प्रति समर्पण कैसे करें, यही वह समझ है जो लोगों के पास होनी चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर लोगों के प्रति बहुत कठोर है। इस तरह की चीजें करना लोगों से प्यार करना नहीं है। वह लोगों का सम्मान नहीं करता या वह उनसे ऐसे पेश नहीं आता जैसे वे इंसान हों!” कुछ लोग इंसान नहीं दानव होते हैं। उनके इलाज का कोई भी तरीका स्वीकार्य है; वे शापित होने के पात्र हैं और सम्मान के लायक नहीं हैं। ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं, “मैं एक काफी अच्छा इंसान हूँ; मैंने परमेश्वर का विरोध करने के लिए कुछ भी नहीं किया है, और मैंने उसके लिए बहुत कुछ सहा है। वह अब भी मेरी इतनी काट-छाँट क्यों करता है? वह सदैव मेरी उपेक्षा क्यों करता है? वह मुझे कभी स्वीकार क्यों नहीं करता या मुझे उन्नत क्यों नहीं करता?” फिर भी अन्य लोग कहते हैं, “मैं एक सरल और निष्कपट व्यक्ति हूँ; जब मैं गर्भ में थी तभी से मैं परमेश्वर में विश्वास करती थी और अब भी मैं उस पर विश्वास करती हूँ। मैं बहुत पवित्र हूँ! मैंने अपने परिवार को छोड़ दिया और खुद को परमेश्वर के लिए समर्पित करने के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी, और मैं सोचती थी कि परमेश्वर मुझसे कितना प्यार करता है। अब ऐसा लगता है कि परमेश्वर लोगों से इतना प्यार नहीं करता, और मुझे लगता है जैसे मुझे बाहर छोड़ दिया गया हो, मैं परमेश्वर से निराश और मायूस महसूस करती हूँ।” क्या यह परेशानी भरा नहीं है? ये लोग क्या गलत कर रहे हैं? वे अपने उचित स्थान पर नहीं हैं; वे नहीं जानते कि वे कौन हैं, और वे हमेशा सोचते हैं कि वे कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, जिनका परमेश्वर को सम्मान करके उन्हें ऊँचा उठाना चाहिए, या संजोना और दुलारना चाहिए। अगर लोगों के मन में हमेशा ऐसी गलतफहमियाँ, ऐसी विकृत और अनुचित मांगें बनी रहती हैं, तो यह बहुत खतरनाक होता है। कम से कम परमेश्वर उनसे घृणा और नफरत करेगा, और यदि वे पश्चात्ताप नहीं करते तो उन पर हटा दिए जाने का खतरा होगा। तो लोगों को क्या करना चाहिए, उन्हें खुद को कैसे जानना चाहिए, और उन्हें खुद से कैसे व्यवहार करना चाहिए ताकि वे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप रह सकें, इन कठिनाइयों को हल कर सकें, और परमेश्वर से अपनी मांगें छोड़ सकें? कुछ लोगों को परमेश्वर के घर द्वारा अगुआ बनाने की व्यवस्था की जाती है, और वे विशेष रूप से उत्साही होते हैं। कुछ समय तक काम करने के बाद यह पता चलता है कि वे कुछ बाहरी कार्यों को अच्छी तरह से कर सकते हैं, लेकिन समस्या-समाधान को नहीं संभाल पाते—वे मुद्दों को हल करने के लिए सत्य पर संगति नहीं कर पाते, इसलिए कलीसिया में उनकी अगुआई की भूमिका बदल दी जाती है। क्या यह बिल्कुल उचित नहीं है? लेकिन वे यह कहते हुए बहस करना और शिकायत करना शुरू कर देते हैं, “उन झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों ने अपना सौंपा हुआ काम अच्छी तरह से नहीं किया; उन्होंने बस गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा कीं। उन्हें वास्तव में बदल और हटा दिया जाना चाहिए। लेकिन मैंने कुछ भी बुरा नहीं किया है; मुझे भी क्यों बदला जा रहा है?” वे थोड़ा परेशान महसूस करते हैं। ऐसा क्यों होता है? उन्हें लगता है कि चूँकि उन्होंने कुछ भी बुरा नहीं किया है, तो उन्हें अभी भी अगुआ बने रहना चाहिए और उन्हें बदला नहीं जाना चाहिए। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर ने उनके साथ बहुत अन्याय किया है। उनका हृदय शिकायतों और प्रतिरोध से भरा होता है, और उनमें परमेश्वर के बारे में धारणाएँ उत्पन्न हो जाती हैं, जिससे आंतरिक असंतुलन पैदा होता है : “क्या यह नहीं कहा गया था कि अगुआओं को चुनने और हटाए जाने के सिद्धांत हैं? मुझे लगता है कि जो हुआ, उसमें कोई सिद्धांत नहीं है, परमेश्वर ने गलती की है!” संक्षेप में, जब तक परमेश्वर कुछ ऐसा करता है, जो उनके हितों को नुकसान और उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाता है, वे दोष निकालना शुरू कर देते हैं। क्या यह एक समस्या है? इस समस्या को कैसे हल किया जा सकता है? तुम्हें अपनी पहचान को जानना होगा, तुम्हें जानना होगा कि तुम कौन हो। चाहे तुममें कैसे भी गुण या खूबियाँ हों, या चाहे तुममें कितना भी कौशल या योग्यता हो, या चाहे तुमने परमेश्वर के घर में कितनी भी श्रेष्ठता अर्जित की हो, या चाहे तुमने कितनी भी भाग-दौड़ की हो या कितना भी धनार्जन किया हो, ये चीजें परमेश्वर के लिए कुछ नहीं हैं, और यदि ये चीजें तुम्हें अपनी जगह से महत्त्वपूर्ण लगती हैं, तो क्या तुम्हारे और परमेश्वर के बीच गलतफहमियाँ और अंतर्विरोध उत्पन्न नहीं हो गए हैं? इस समस्या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? यदि तुम अपने और परमेश्वर के बीच की दूरी को कम करना चाहते हो, और इन अंतर्विरोधों को दूर करना चाहते हो, तो यह कैसे किया जाना चाहिए? तुम्हें उन चीजों को नकारना चाहिए जिन्हें तुम सही समझते हो और जिनसे चिपके रहते हो। ऐसा करने से तुम्हारे और परमेश्वर के बीच दूरी नहीं रह जाएगी, और तुम अपनी जगह पर सही ढंग से खड़े रहोगे, तुम समर्पण करने में समर्थ होगे, यह समझने में समर्थ होगे कि परमेश्वर जो करता है वह सही होता है, तुम खुद को नकारने और त्यागने में समर्थ होगे। तुम स्वयं द्वारा अर्जित योग्यता को एक तरह की पूँजी नहीं समझोगे, न ही तुम अब परमेश्वर के समक्ष शर्तें या माँगें रखने करने की या उससे पुरस्कार माँगने की कोशिश करोगे। इस समय, तुम्हारे पास अब और कठिनाइयाँ नहीं होंगी। परमेश्वर के प्रति मनुष्य की समस्त गलतफहमियाँ क्यों पैदा होती हैं? वे इसलिए पैदा होती हैं, क्योंकि लोग अपनी ही क्षमताओं को नहीं आंक पाते; सटीक रूप से कहें तो वे नहीं जानते कि परमेश्वर की दृष्टि में वे किस तरह की चीजें हैं। वे स्वयं को बहुत अधिक आँकते हैं और परमेश्वर की दृष्टि में अपनी स्थिति बहुत ऊँची मानते हैं, और वे किसी व्यक्ति की कीमत और पूँजी को सत्य की तरह समझते हैं, उसे परमेश्वर के वे मापदंड मान लेते हैं जिनसे वह निर्धारित करता है कि वे बचाए जाएँगे या नहीं। यह गलत है। तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि परमेश्वर के हृदय में तुम्हारा स्थान कैसा है और परमेश्वर तुम्हारे साथ जो भी व्यवहार करता है वह उचित है। तुम्हें इस सिद्धांत को जानना चाहिए और फिर तुम सत्य समझोगे और तुम्हारे विचार परमेश्वर के विचारों के अनुरूप होगे। तुममें यह समझ होनी चाहिए और तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में सक्षम होना चाहिए; चाहे वह तुम्हारे साथ कैसा भी व्यवहार करे, तुम्हें समर्पण करना चाहिए। तब तुम्हारे और परमेश्वर के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं होंगे। और जब परमेश्वर फिर से तुम्हारे साथ अपने ढंग से व्यवहार करेगा, तो क्या तुम समर्पण करने में सक्षम नहीं होगे? क्या तुम अब भी परमेश्वर से संघर्ष करोगे और उसका विरोध करोगे? तुम नहीं करोगे। भले ही तुम्हें अपने दिल में कुछ असुविधा महसूस हो, या तुम्हें लगे कि तुम्हारे प्रति परमेश्वर का व्यवहार वैसा नहीं है जैसा तुम चाहते हो और तुम यह नहीं समझते कि वह तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार क्यों करता है, लेकिन तुम पहले से ही कुछ सत्य समझते हो और तुम्हारे पास कुछ वास्तविकताएँ हैं, और चूँकि तुम अपनी स्थिति में अडिग रहने में सक्षम हो, इसलिए तुम अब परमेश्वर के विरुद्ध नहीं लड़ोगे, जिसका अर्थ है कि तुम्हारे वे कार्य और व्यवहार जो तुम्हारे नष्ट होने का कारण बनते, वे अस्तित्वहीन हो जाएँगे। और क्या तब तुम सुरक्षित नहीं रहोगे? एक बार जब तुम सुरक्षित हो जाओगे, तो तुम जमीन से जुड़ा हुआ महसूस करोगे, जिसका मतलब है कि तुमने पतरस के रास्ते पर चलना शुरू कर दिया है। तुम देखो कि पतरस ने इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया, इतने वर्षों तक अपना रास्ता टटोला, और बहुत कष्ट सहे। केवल कई परीक्षणों का अनुभव करने के बाद ही अंततः उसे कुछ सत्य समझ में आए और कुछ सत्य वास्तविकताएँ प्राप्त हुईं। और जहाँ तक तुम सभी लोगों की बात है, तो मैंने बहुत कुछ बोला है, सब कुछ स्पष्ट रूप से समझाया है—यह चीजों को थाली में परोसने की तरह है, है न? तुमने बिना किसी रुकावट के बहुत कुछ हासिल कर लिया है; तुम सभी को काफी फायदे का सौदा मिला है। तो फिर तुम्हें अभी भी संतुष्टि क्यों नहीं है? तुम्हारी कोई अतिरिक्त मांग नहीं होनी चाहिए।
आज हमने मुख्य रूप से किस पर संगति की है? एक पहलू है, नियमित रूप से तुम्हारी दशा के विभिन्न पहलुओं की जाँच करने पर ध्यान देना, और फिर यह जानने के लिए उनका विश्लेषण करना कि क्या वे सही हैं। दूसरा पहलू तुममें परमेश्वर को लेकर उत्पन्न होने वाली विभिन्न गलतफहमियों का समाधान करना है। जब तुम्हें परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ होती हैं, तो तुम्हारे भीतर दुराग्रही, पूर्वाग्रही तत्व होते हैं जो तुम्हें सत्य की तलाश करने से रोकते हैं। यदि परमेश्वर के बारे में तुम्हारी गलतफहमियाँ दूर कर दी जाएँ, तो तुम सत्य की तलाश करने में समर्थ हो जाओगे; नहीं तो तुम्हारे हृदय में एक अलगाव की भावना होगी, और तुम लापरवाही से प्रार्थना करोगे; यह परमेश्वर को धोखा देना है, और वह तुम्हारी बिल्कुल नहीं सुनेगा। यदि तुम्हें परमेश्वर के प्रति गलतफहमियाँ होती हैं, जो तुम्हारे और उसके बीच दूरी और अलगाव की भावनाएँ पैदा करती हैं, और तुम्हारा हृदय उसके लिए बंद हो जाता है, तुम उसके वचनों को सुनना नहीं चाहते और न ही सत्य की तलाश करना चाहते हो। चाहे तुम कुछ भी करो, वह बस अनमने ढंग से, स्वांग रचते हुए, धोखा देते हुए ही होगा। जब परमेश्वर के प्रति व्यक्ति की गलतफहमियाँ दूर हो जाती हैं और वह इस अवरोध को पार कर लेता है, तो वह परमेश्वर के हर वचन और उसकी हर अपेक्षा पर ईमानदारी के साथ ध्यान देगा और उसके सामने सच्चे और ईमानदार हृदय के साथ प्रस्तुत होगा। यदि मनुष्य और परमेश्वर के बीच अंतर्विरोध, दूरी और गलतफहमी है, तो व्यक्ति किसकी भूमिका निभा रहा है? यह शैतान की भूमिका है, और यह परमेश्वर के विरोध में है। परमेश्वर के विरोध के क्या परिणाम होते हैं? क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है? क्या वह सत्य को स्वीकार कर सकता है? वह नहीं कर सकता। यदि वह इनमें से कोई काम नहीं कर सकता, तो उसका कुछ नहीं होगा, और उसके स्वभाव के बदलाव रुक जाएँगे। इसलिए जब कोई अपनी विभिन्न अवस्थाओं की जाँच करता है, तो एक ओर यह स्वयं को जानने के लिए किया जाता है, और दूसरी ओर यह व्यक्ति को परमेश्वर के प्रति अपनी गलतफहमियों की जाँच पर ध्यान केंद्रित करने को बाध्य करता है। इन गलतफहमियों में क्या-क्या शामिल होता है? धारणाएँ, कल्पनाएँ, परिसीमन, शंकाएँ, पड़ताल, और अटकलें-मुख्य रूप से ये चीजें होती हैं। जब किसी व्यक्ति में चीजें होती हैं, तो वह परमेश्वर को नहीं समझता। जब तुम इन स्थितियों की गिरफ्त में होते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध में एक समस्या उत्पन्न हो जाती है। इसे हल करने के लिए तुम्हें अविलंब सत्य की खोज करनी चाहिए—और तुम्हें इसे हल अवश्य करना चाहिए। कुछ लोग सोचते हैं, “मेरे अंदर परमेश्वर के प्रति गलतफहमी हो गई है, तो जब तक मैं इस मुद्दे को सुलझा नहीं लेता, तब तक अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर सकता।” क्या यह स्वीकार्य है? नहीं, यह स्वीकार्य नहीं है। अपने कर्तव्य पालन को स्थगित मत करो, बल्कि अपना कर्तव्य पालन और समस्या का समाधान साथ-साथ करो। कर्तव्य पालन करते हुए परमेश्वर के प्रति तुम्हारी गलतफहमी तुम्हारे जाने बिना ही दूर होनी शुरू हो जाएगी, और तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारी समस्या की शुरुआत कहाँ से हुई थी और वह कितनी गंभीर है। किसी दिन तुम लोग यह महसूस करने में समर्थ हो सकते हो, “व्यक्ति एक सृजित प्राणी है, और सृष्टिकर्ता सदैव मेरा प्रभु है; इसका यह सार नहीं बदलता, व्यक्ति की हैसियत नहीं बदलती और न ही परमेश्वर की हैसियत बदलती है। परमेश्वर चाहे जो भी करे, और भले ही पूरी मानव जाति उसके कार्य को गलत माने, मैं उसके किए हुए को नकार नहीं सकता, न ही मैं इस बात से इनकार कर सकता हूँ कि वह सत्य है। परमेश्वर सर्वोच्च सत्य है, शाश्वत रूप से दोष-रहित है। मनुष्य को अपनी उचित स्थिति पर अडिग रहना चाहिए; उसे परमेश्वर की पड़ताल नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसके आयोजनों और उसके सारे वचनों को स्वीकार करना चाहिए। परमेश्वर जो भी कहता और करता है, वह सही होता है। मनुष्य को परमेश्वर से विभिन्न मांगें नहीं करनी चाहिए—सृजित प्राणी ऐसा करने के अयोग्य हैं। भले ही परमेश्वर मुझे एक खिलौना समझे, तो भी मुझे समर्पण करना चाहिए, और अगर मैं ऐसा नहीं करता, तो यह मेरी समस्या है, परमेश्वर की नहीं।” जब तुम्हें सत्य के इस पहलू का अनुभव और ज्ञान होगा, तो तुम सच में परमेश्वर के प्रति समर्पण में प्रवेश करोगे, और तुम्हें अब कोई बड़ी कठिनाइयाँ नहीं होंगी, और चाहे तुम अपना कर्तव्य पालन कर रहे हो या सत्य के विभिन्न पहलुओं का अभ्यास, बहुत सारी कठिनाइयों का समाधान हो जाएगा। परमेश्वर के प्रति समर्पण सबसे बड़ा सत्य है, और सबसे गहरा सत्य है। कई बार जब लोगों के सामने विभिन्न समस्याएँ आती हैं, जब उनके सामने विभिन्न अड़चनें होती हैं, या जब वे ऐसी किसी चीज का सामना करते हैं जिसे वे स्वीकार नहीं कर सकते, तो क्या कारण होता है? (वे सही जगह पर खड़े नहीं होते।) वे गलत स्थिति में खड़े होते हैं। उन्हें परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ होती है; वे परमेश्वर की पड़ताल करना चाहते हैं और उसे परमेश्वर नहीं मानना चाहते; वे परमेश्वर के सही होने को नकारना चाहते हैं; और वे यह नकारना चाहते हैं कि परमेश्वर सत्य है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति एक सृजित प्राणी नहीं होना चाहता, बल्कि वह परमेश्वर की बराबरी करना चाहता है, उसमें त्रुटियाँ ढूँढ़ना चाहता है। इससे समस्या पैदा होगी। अगर तुम अपना कर्तव्य सही तरह से पूरा कर सकते हो और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर अडिग रह सकते हो, तो परमेश्वर जो करता है, उसके प्रति अनिवार्य रूप से तुम्हारे भीतर प्रतिरोध पैदा नहीं होगा। तुम्हें कुछ गलतफहमियाँ हो सकती हैं, और तुम्हारी कुछ धारणाएँ हो सकती हैं, लेकिन कम-से-कम तुम्हारा रवैया परमेश्वर के आयोजनों को स्वीकारने के इच्छुक रहने वाला होगा, और तुम इच्छुक होने के स्थान से परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के लिए आ रहे होगे, इसलिए तुम्हारे भीतर परमेश्वर के प्रति कोई प्रतिरोध पैदा नहीं होगा।
भले ही अय्यूब में आस्था थी, पर जब परमेश्वर के परीक्षण उस पर आए तो क्या उसे पहले-पहल पता था कि आखिर क्या हो रहा था? (नहीं।) मनुष्य के पास आध्यात्मिक क्षेत्र में सीधे देख पाने की क्षमता नहीं होती; अय्यूब को कुछ भी पता नहीं था कि वहाँ क्या हो रहा था—वह किसी भी चीज से पूरी तरह अनभिज्ञ था। इसलिए जब परमेश्वर के परीक्षण उस पर आए, तो वह निश्चित रूप से यह सोचकर चकित था, “ओह, क्या हो रहा है? सब कुछ इतना शांतिपूर्ण था, फिर अचानक ऐसा क्यों हुआ? मैंने अचानक अपना सारा पशुधन और संपत्ति क्यों खो दी?” सबसे पहले वह हतप्रभ था, लेकिन हैरानी परमेश्वर के बारे में गलतफहमी होना नहीं थी, हैरानी यह समझने में सक्षम न होना नहीं था कि परमेश्वर क्या कर रहा था। बात बस इतनी सी थी कि सब कुछ अचानक ही घटित हो गया था; अय्यूब को कोई पूर्वज्ञान नहीं था, न ही किसी ने उसे पूर्व सूचना दी थी—वह पूरी तरह से तैयार नहीं था। हालाँकि इसका मतलब यह नहीं है कि वह गलत चुनाव करता या गलत रास्ता अपनाता, या वह समर्पण नहीं कर पाता। तो अय्यूब ने फिर क्या किया? उसने निश्चित रूप से अपने दिल को शांत किया और अपने क्रियाकलापों पर गंभीरता से विचार किया, और उसने परमेश्वर से प्रार्थना की। कुछ दिनों की खोज के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा : “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। अय्यूब का यह कथन उसके दृष्टिकोण और उस मार्ग का प्रतिनिधित्व करता है जिस पर वह चला। हालाँकि जब अय्यूब पर परीक्षण आए तो वह शुरू में हतप्रभ रह गया था, वह जानता था कि यह परमेश्वर का कार्य था न कि मानवीय इच्छा का। परमेश्वर की अनुमति के बिना कोई भी उसे छू नहीं सकता जो परमेश्वर ने लोगों को दिया था, शैतान भी नहीं। सतही तौर पर ऐसा प्रतीत होता था कि अय्यूब को इस बात की कुछ गलतफहमी थी कि परमेश्वर क्या कर रहा था; वह नहीं जानता था कि उसके साथ ऐसा क्यों हो रहा है या परमेश्वर का इससे क्या मतलब है। वह पूरी तरह से समझ नहीं पा रहा था, लेकिन उसकी गलतफहमी इस बात से इनकार करना या यह परमेश्वर जो कर रहा था, उस पर सवाल खड़े करना नहीं थी; अय्यूब की गलतफहमी उस प्रकार की थी जिसे परमेश्वर स्वीकार्य मानता है। इसके बाद उसे तुरंत एहसास हुआ कि यहोवा परमेश्वर का इरादा उसके पास मौजूद हर चीज को छीन लेने का था, और परमेश्वर जो कर रहा था वह सही था; उसने तुरंत इसे स्वीकार कर घुटने टेक दिए। क्या साधारण लोग इस स्तर तक पहुँच सकते हैं? वे नहीं पहुँच सकते। तब अय्यूब चाहे कितना भी हतप्रभ हुआ हो, या उसे घुटने टेकने और जो कुछ भी उस पर आया था उसे स्वीकार करने में कितना समय लगा हो, उसका रवैया हमेशा एक सृजित प्राणी की स्थिति में खड़े रहने का रहा। इन घटनाओं का सामना करते हुए उसने यह नहीं कहा, “मैं अमीर हूँ और मेरे पास बहुत सारे नौकर-चाकर हैं, इन चीजों को ऐसे ही कैसे छीना जा सकता है? मुझे तुरंत अपने नौकरों को आदेश देना होगा कि वे उन्हें वापस ले आएँ।” क्या उसने ऐसा किया? उसने ऐसा नहीं किया। वह अपने हृदय में स्पष्ट था कि यह परमेश्वर का कार्य था, और मनुष्य इसके बारे में कुछ नहीं कर सकता था। इसमें शामिल होने का मतलब होता कि परमेश्वर ने जो किया है उसका विरोध करना और जो कुछ भी उस पर आया है उसका विरोध करना। उसने उस समय एक भी शिकायत मुँह से नहीं निकाली, न उसने आलोचना की कि क्या हो रहा था, न ही सब कुछ उलटने की कोशिश की। वह बस प्रतीक्षा करता रहा और चुपचाप देखता रहा कि चीजें कैसे घटित होंगी, यह देखते हुए कि परमेश्वर क्या करेगा। आरंभ से अंत तक अय्यूब ने जो किया वह अपने उचित स्थान पर अडिग रहना था, यानी वह एक सृजित प्राणी के स्थान पर अडिग रहा। यह उसका प्रदर्शन था। हालाँकि जब अय्यूब के साथ ये घटनाएँ हुईं तो वह कुछ हद तक हतप्रभ हो गया था, फिर भी वह यह खोजने और स्वीकार करने में सक्षम था कि सृष्टिकर्ता ने जो कुछ किया वह सही था, और फिर उसने समर्पण कर दिया। उसने इस मुद्दे को सुलझाने के लिए मानवीय तरीकों का सहारा नहीं लिया। जब डाकू आए तो जो कुछ वे ले जा सकते थे, उसने उन्हें ले जाने दिया; उसने उनसे लड़ने के लिए उतावलापन नहीं दिखाया। उसने अपने दिल में सोचा, “परमेश्वर की अनुमति के बिना वे कुछ भी छीन नहीं सकते। अब जब उन्होंने सब कुछ ले लिया है, तो यह स्पष्ट है कि परमेश्वर ने इसकी अनुमति दी थी। कोई भी मानवीय हस्तक्षेप बेकार होता। लोग अपने उतावलेपन से कार्य नहीं कर सकते, वे हस्तक्षेप नहीं कर सकते।” हस्तक्षेप न करने का मतलब यह नहीं है कि वह डाकुओं को सहन कर रहा था; यह कमजोरी या डाकुओं का डर होने का संकेत नहीं था। बल्कि यह था कि वह परमेश्वर के हाथ से डरता था और उसका हृदय परमेश्वर से भय मानने वाला था। उसने कहा, “उन्हें ले जाने दो। आखिर ये चीजें परमेश्वर ने ही दी थीं।” क्या यह वह नहीं है जो एक सृजित प्राणी को कहना चाहिए? (हाँ।) उसे कोई शिकायत नहीं थी। उसने किसी को लड़ने या अपनी चीजें वापस पाने या अपनी चीजों की रक्षा करने को नहीं भेजा। क्या यह परमेश्वर के प्रति समर्पण की सच्ची अभिव्यक्ति नहीं है? (हाँ।) वह ऐसा केवल इसलिए कर सका क्योंकि उसे परमेश्वर की संप्रभुता की सच्ची समझ थी। इस समझ के बिना उसने लड़ने और अपनी चीजों को फिर से प्राप्त करने के लिए मानवीय तरीकों का सहारा लिया होता, और परमेश्वर इसे कैसे देखता? यह परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण नहीं है। इसमें परमेश्वर के हाथ से किए गए कार्यों की समझ का अभाव है, और इतने वर्षों तक उस पर विश्वास करना व्यर्थ हो जाता। जब परमेश्वर देता है तो खुश होना लेकिन जब वह चीजें छीनता है तो नाराज होना, अनिच्छा महसूस करना और उन्हें बलपूर्वक वापस हड़पने की चाहत; परमेश्वर जो कर रहा है उससे संतुष्ट न होना, इन चीजों को खोना न चाहना; केवल परमेश्वर के पुरस्कारों को स्वीकार करना, उसके अभावों को नहीं; परमेश्वर के हाथ के आयोजनों के प्रति समर्पित न होना—क्या यह एक सृजित प्राणी की स्थिति से कार्य करना है? (नहीं।) यह विद्रोह है, यह विरोध है। क्या लोग अक्सर ये व्यवहार प्रदर्शित नहीं करते? (हाँ।) अय्यूब ने जो किया यह उसके बिल्कुल विपरीत है। अय्यूब ने कैसे व्यक्त किया कि वह सृजित प्राणी की स्थिति में यहोवा का भय मान सकता है, परमेश्वर के परीक्षणों के प्रति समर्पित हो सकता है और उन्हें स्वीकार कर सकता है, और परमेश्वर ने उसे जो दिया है उसे स्वीकार कर सकता है? क्या वह चिल्लाया? क्या उसने शिकायत की? क्या उसने सब कुछ वापस पाने के लिए सभी प्रकार के मानवीय साधनों और तरीकों का इस्तेमाल किया? नहीं—उसने परमेश्वर को स्वतंत्र रूप से ले लेने दिया। क्या यह आस्था होना नहीं है? उसमें सच्ची आस्था, सच्ची समझ और सच्चा समर्पण था। इनमें से एक भी चीज सरल नहीं है; इन सभी को अनुभव करने, खोजने और अपनाने के लिए निश्चित मात्रा में समय चाहिए। अय्यूब इन अभिव्यक्तियों को केवल तभी प्रदर्शित कर सका जब उसके पास सृष्टिकर्ता के बारे में एक निश्चित स्तर की समझ आ चुकी थी। आखिर में अय्यूब ने क्या कहा? (“यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)।) और वह क्या था जो अय्यूब की पत्नी ने कहा? “परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा” (अय्यूब 2:9)। उसका मतलब यह था, “विश्वास करना बंद करो। यदि तुम वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तो तुम विपत्ति का सामना क्यों कर रहे हैं? क्या यह प्रतिशोध नहीं है? तुमने कुछ भी गलत नहीं किया, तुम्हारे साथ ऐसा क्यों हो रहा है? हो सकता है कि तुम्हारी आस्था गलत है?” अय्यूब ने अपनी पत्नी को क्या जवाब दिया? उसने कहा : “तू एक मूढ़ स्त्री की सी बातें करती है” (अय्यूब 2:10)। अय्यूब ने कहा कि उसकी पत्नी मूर्ख है; कि उसे परमेश्वर में सच्ची आस्था और समझ नहीं थी, यही कारण था कि वह परमेश्वर के खिलाफ अवज्ञा के शब्द बोल पाई। अय्यूब की पत्नी परमेश्वर को नहीं जानती थी। जब इतनी बड़ी बात हुई जो स्पष्ट रूप से यह परमेश्वर ने किया था, तो वह आश्चर्यजनक रूप से इसे पहचान नहीं पाई, और यहाँ तक कि अय्यूब को सलाह देते हुए कहा, “तुमने गलत रास्ता अपनाया है। विश्वास करना बंद करो और अपने परमेश्वर को त्याग दो।” सुनने में कितनी क्रोधित करने वाली बात है! उसने अय्यूब से परमेश्वर को त्यागने का आग्रह क्यों किया? क्योंकि उसने अपनी संपत्ति खो दी थी और अब वह इसके उपयोग का आनंद नहीं ले सकती थी। वह एक अमीर महिला से एक गरीब महिला बन गई थी और उसके नाम पर कुछ भी नहीं रह गया था। वह परमेश्वर के दिए अभाव से असंतुष्ट थी, इसलिए उसने अय्यूब से विश्वास करना बंद करने के लिए कहा, जिसका निहितार्थ यह था : “मैं अब विश्वास नहीं करती, और न ही तुम्हें विश्वास करना चाहिए। एक पूरी तरह से अच्छी गृहस्थी छीन ली गई है, हमारे पास कुछ भी नहीं बचा है। पलक झपकते ही हमने सब कुछ गँवा दिया, हमारी अमीरी गरीबी में बदल गई। ऐसे परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है? विश्वास करना बंद करो!” क्या ये मूर्खतापूर्ण शब्द नहीं हैं? इस तरह उसने प्रदर्शन किया। क्या अय्यूब ने उसकी बात सुनी? उसने नहीं सुनी; वह उससे गुमराह या परेशान नहीं हुआ, न ही उसने उसके विचारों को स्वीकार किया। क्यों नहीं? क्योंकि अय्यूब एक कथन से जुड़ा रहा : “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” (अय्यूब 2:10)। उसने सोचा, “यह सब बेहद सामान्य है। परमेश्वर जो भी करता है सही होता है; लोगों को इसे बस स्वीकार लेना चाहिए। लोगों को केवल आशीष पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास नहीं करना चाहिए। मैंने इतने वर्षों तक परमेश्वर के लिए कुछ भी किए बिना परमेश्वर के आशीष का आनंद लिया है—अब उसकी गवाही देने का समय आ गया है। परमेश्वर जो छीन लेता है वह उसका ही है, वह जब चाहे ले सकता है। लोगों की मांगें नहीं होनी चाहिए, उन्हें बस स्वीकार करना चाहिए और समर्पण करना चाहिए।” तो क्या तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास करने से आशीष मिलना चाहिए? क्या ऐसा ही होना चाहिए? जब कोई इस बात को पूरी तरह से समझ जाएगा, तब उसमें आस्था होगी।
सृष्टिकर्ता जो कुछ भी करता है वह सही और सत्य होता है। चाहे वह कुछ भी करे, उसकी पहचान और दर्जा नहीं बदलता। सभी लोगों को उसकी आराधना करनी चाहिए। वह मानवता का शाश्वत प्रभु और शाश्वत परमेश्वर है। इस तथ्य को कभी बदला नहीं जा सकता। लोग ऐसा नहीं कर सकते कि जब वह उन्हें उपहार दे तो उसे परमेश्वर के रूप में स्वीकारें, या जब वह उनसे चीजें छीन ले तो उसे परमेश्वर के रूप में अस्वीकार कर दें। यह मनुष्य का गलत दृष्टिकोण है, परमेश्वर के कार्यकलापों में कोई गलती नहीं है। यदि लोग सत्य समझते हैं, तो वे इसे स्पष्ट रूप से देख पाएँगे, और यदि गहराई से वे यह स्वीकार करने में सक्षम होंगे कि यह सत्य है, तो परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता अधिक से अधिक सामान्य हो जाएगा। यदि तुम मानते हो कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, लेकिन जब कुछ होता है तो तुम उसे नहीं समझते, और यहाँ तक कि तुम उसे दोष देते हो और सचमुच उसके प्रति समर्पित नहीं होते, तो तुम्हारा यह कहना अर्थहीन होता है कि तुम मानते हो कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारा हृदय सत्य को स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए, और चाहे कुछ भी हो तुम्हें यह देखने में सक्षम होना चाहिए कि परमेश्वर के कार्यकलाप सही हैं, और वह धार्मिक है। इस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर को समझता है। ऐसे कई विश्वासी होते हैं जो केवल धर्म-सिद्धांत को समझने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वे आध्यात्मिक सिद्धांत को मानते हैं, लेकिन जब उन पर कोई मुसीबत आती है तो वे सत्य को स्वीकार नहीं करते, और वे समर्पण नहीं करते। ये पाखंडी लोग हैं। जो बातें तुम आमतौर पर कहते हो वे सभी सही होती हैं, लेकिन जब कुछ ऐसा होता है जो तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खाता तो तुम इसे स्वीकार करने में असमर्थ होते हो। तुम यह सोचकर परमेश्वर से बहस करते हो कि परमेश्वर को ऐसा या वैसा नहीं करना चाहिए था। तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित नहीं हो पाते, और सत्य की खोज नहीं करते या अपनी विद्रोहशीलता पर विचार नहीं करते। इसका मतलब है कि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं हो। तुम हमेशा परमेश्वर से बहस करना पसंद करते हो; तुम हमेशा सोचते हो कि तुम्हारी दलीलें सत्य से ऊपर हैं, यदि तुम उन्हें साझा करने के लिए मंच पर जा पाओ तो कई लोग तुम्हारा समर्थन करेंगे। लेकिन भले ही बहुत से लोग तुम्हारा समर्थन करें, वे सभी भ्रष्ट इंसान हैं। क्या समर्थक और समर्थित सभी भ्रष्ट इंसान नहीं हैं? क्या उन सभी में सत्य का अभाव नहीं है? भले ही समस्त मानव जाति भी तुम्हारा समर्थन करे और परमेश्वर का विरोध करे, फिर भी परमेश्वर सही होगा। अभी भी मानवता ही गलत होगी, जिसने परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह किया और उसका विरोध किया। क्या ये महज एक वाक्यांश है? नहीं, यह एक तथ्य है; यह सत्य है। लोगों को सत्य के इस पहलू पर बार-बार विचार करना और इसे अनुभव करना चाहिए। परमेश्वर ने अपना कार्य तीन चरणों में किया है, और प्रत्येक चरण में कई लोग थे जिन्होंने इसका विरोध किया था। जैसे जब प्रभु यीशु छुटकारे का अपना कार्य करने आया, तो पूरा इस्राएल उसके विरुद्ध उठ खड़ा हुआ। लेकिन अब मानवता में अरबों लोग हैं जो प्रभु यीशु को अपने उद्धारकर्ता के रूप में मानते हैं। उसके मानने वाले पूरी दुनिया में फैले हुए हैं। प्रभु यीशु ने पहले ही सारी मानवता को छुटकारा दिला दिया है। यह सच है। चाहे जिस देश के लोग इसे नकारना चाहें इसका कोई फायदा नहीं है। चाहे भ्रष्ट मनुष्य परमेश्वर के कार्य का कैसे भी मूल्यांकन करें, परमेश्वर का कार्य और परमेश्वर द्वारा बोले गए सत्य हमेशा ठीक और सही होते हैं। भले ही संपूर्ण मानवजाति में कितने भी लोग परमेश्वर के विरुद्ध उठ खड़े हों, यह व्यर्थ है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही होता है; वह छोटी-सी गलती भी नहीं करता। चूँकि भ्रष्ट मनुष्यों में कोई सत्य नहीं है और वे परमेश्वर के कार्य के महत्व और सार को स्पष्ट रूप से देखने में पूरी तरह से असमर्थ हैं, इसलिए वे जो कुछ भी कहते हैं वह सत्य के अनुरूप नहीं होता। यदि तुम मानवता के सभी सिद्धांतों का सारांश भी प्रस्तुत करो तो भी वे सत्य नहीं होंगे। वे परमेश्वर के किसी भी वचन, या सत्य के किसी भी वचन से अधिक महत्व नहीं रख सकते। यह तथ्य है। अगर लोग इसे नहीं समझते तो उन्हें धीरे-धीरे इसका अनुभव करना चाहिए। इस अनुभव की पूर्व शर्त क्या है? तुम्हें पहले यह स्वीकार करना होगा कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। फिर तुम्हें उनका अभ्यास और अनुभव करना चाहिए। कुछ ही समय में तुम्हें पता चल जाएगा कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं—यह बिल्कुल सही है। उस समय तुम परमेश्वर के वचनों को सँजोना शुरू कर दोगे, सत्य का अनुसरण करने को महत्व दोगे, और सत्य को अपने दिल में स्वीकार करने में सक्षम होगे, और उसे अपना जीवन बना लोगे।
10 सितंबर 2018