सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है

अधिकांश लोग अपनी भविष्य की मंज़िल के लिए, या अल्पकालिक आनंद के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं। उन लोगों की बात करें जो किसी काट-छाँट से नहीं गुजरे हैं, तो वे स्वर्ग में प्रवेश करने के लिए, पुरस्कार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं। वे पूर्ण बनाए जाने के लिए या सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि अधिकांश लोग अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाने के लिए, या अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं। सार्थक जीवन जीने के लिए वे विरले ही कभी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, न ही ऐसे लोग हैं जो मानते हैं कि जब तक मनुष्य जीवित है, उसे परमेश्वर से इसलिए प्रेम करना चाहिए क्योंकि यह पूरी तरह स्वाभाविक है और ऐसा करना न्यायोचित है, और यह मनुष्य का स्वाभाविक उद्यम है। इस ढंग से, यद्यपि विभिन्न लोग अपने-अपने लक्ष्यों का अनुसरण करते हैं, फिर भी उनके अनुसरण का उद्देश्य और उसके पीछे की प्रेरणा सब समान होते हैं, और इतना ही नहीं, उनमें से अधिकांश लोगों के लिए उनकी आराधना के विषय बहुत कुछ समान हैं। पिछले कई हज़ार वर्षों के दौरान, बहुत-से विश्वासी मर चुके हैं, और बहुत-से मरकर पुनः जन्म ले चुके हैं। मात्र एक या दो लोग नहीं हैं जो परमेश्वर की खोज करते हैं, न ही एक या दो हज़ार लोग हैं, फिर भी इनमें से अधिकांश लोग भविष्य के लिए स्वयं अपनी संभावनाओं या अपनी उज्ज्वल आशाओं की ख़ातिर अनुसरण करते हैं। वे जो मसीह के प्रति समर्पित हैं, बिरले और बहुत कम हैं। अब भी अनेक समर्पित विश्वासी अपने ही बिछाए जालों में फँसकर मर चुके हैं, और यही नहीं, जो लोग विजेता रहे हैं उनकी संख्या महत्वहीन होने की हद तक कम है। आज भी, लोग अपनी विफलता के कारणों से, या अपनी विजय के रहस्यों से अनजान ही बने हुए हैं। उन लोगों ने जिन पर मसीह का अनुसरण खोजने की धुन सवार है अकस्मात अंतर्दृष्टि का अपना पल अब भी प्राप्त नहीं किया है, वे इन रहस्यों के तल तक नहीं पहुँचे हैं, क्योंकि वे कुछ जानते ही नहीं हैं। यद्यपि वे अपने अनुसरण में कष्टसाध्य प्रयास करते हैं, किंतु वे जिस पथ पर चलते हैं वह विफलता का वही पथ है जिस पर कभी उनके पूर्वज चले थे, और सफलता का पथ नहीं है। इस तरह, वे चाहे जैसे खोज करते हों, क्या वे उस पथ पर नहीं चलते हैं जो अंधकार की ओर ले जाता है? वे जो प्राप्त करते हैं क्या वह कड़वा फल नहीं है? यह पहले से बता पाना काफ़ी कठिन है कि वे लोग जो बीते हुए समयों में सफल रहे लोगों का अनुकरण करते हैं अंततः सौभाग्य पर पहुँचेंगे या दुर्भाग्य पर। ऐसे में, विफल लोगों के पदचिन्हों पर चलकर खोज करने वाले लोगों की कठिनाइयाँ और भी कितनी बदतर हैं? क्या उनकी विफलता की संभावना और भी अधिक नहीं है? उस पथ का भला क्या मूल्य है जिस पर वे चलते हैं? क्या वे अपना समय बर्बाद नहीं कर रहे हैं? संक्षेप में, लोग अपने अनुसरण में सफल हों या विफल, उनके ऐसा करने का एक कारण है, और बात यह नहीं है कि उनकी सफलता या विफलता उनके द्वारा किसी भी मनचाहे ढंग से की गई उनकी खोज से निर्धारित होती है।

परमेश्वर में मनुष्य के विश्वास की सबसे मूलभूत आवश्यकता यह है कि उसका हृदय ईमानदार हो और वह स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर सच्चे मन से समर्पण करे। मनुष्य के लिए सबसे कठिन है सच्चे विश्वास के बदले अपना संपूर्ण जीवन प्रदान करना, जिसके माध्यम से वह समूचा सत्य प्राप्त कर सकता है, और सृजित प्राणी होने के नाते अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकता है। यह वह है जो उन लोगों द्वारा अप्राप्य है जो विफल रहते हैं, और उन लोगों द्वारा तो और भी अधिक अप्राप्य है जो मसीह को पा नहीं सकते हैं। चूँकि मनुष्य परमेश्वर के प्रति स्वयं को पूर्णतः समर्पित करने में निपुण नहीं है; चूँकि मनुष्य सृष्टिकर्ता के प्रति अपना कर्तव्य निभाने का अनिच्छुक है, चूँकि मनुष्य ने सत्य देखा तो है किंतु उसे अनदेखा करता है और स्वयं अपने पथ पर चलता है, चूँकि मनुष्य हमेशा उन लोगों के पथ का अनुसरण करते हुए तलाश करता है जो विफल हो चुके हैं, चूँकि मनुष्य हमेशा स्वर्ग के खिलाफ विद्रोह करता है, इसलिए मनुष्य हमेशा विफल होता है, हमेशा शैतान के छल-कपट के झाँसे में आ जाता है, और स्वयं अपने जाल में फँस जाता है। चूँकि मनुष्य मसीह को नहीं जानता है, चूँकि मनुष्य सत्य को समझने और अनुभव करने में पारंगत नहीं है, चूँकि मनुष्य पौलुस की बहुत अधिक आराधना के भाव से और स्वर्ग की अत्यधिक लालसा से परिपूर्ण है, चूँकि मनुष्य हमेशा माँग करता रहता है कि मसीह उसकी आज्ञा माने और परमेश्वर को जहाँ-तहाँ आदेश देता रहता है, इसलिए वे महान हस्तियाँ और वे लोग जिन्होंने संसार के उतार-चढ़ावों का अनुभव किया है अब भी नश्वर हैं, और परमेश्वर की ताड़ना के बीच अब भी मरते हैं। ऐसे लोगों के विषय में मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि वे एक दुखद मौत मरते हैं, और उनका यह परिणाम—उनकी मृत्यु—औचित्य से रहित नहीं है। क्या उनकी विफलता स्वर्ग की व्यवस्था के लिए और भी अधिक असहनीय नहीं है? सत्य मनुष्य के संसार से आता है, किंतु मनुष्य के बीच सत्य मसीह द्वारा लाया जाता है। यह मसीह से, अर्थात् स्वयं परमेश्वर से उत्पन्न होता है, और यह कुछ ऐसा नहीं है जिसमें मनुष्य समर्थ हो। फिर भी मसीह सिर्फ़ सत्य प्रदान करता है; वह यह निर्णय लेने के लिए नहीं आता है कि मनुष्य सत्य के अपने अनुसरण में सफल होगा या नहीं। इस प्रकार इसका अर्थ है कि सत्य में सफलता या विफलता पूर्णतः मनुष्य के अनुसरण पर निर्भर करती है। सत्य में मनुष्य की सफलता या विफलता का मसीह के साथ कभी कोई लेना-देना नहीं रहा है, बल्कि इसके बजाय यह उसके अनुसरण से निर्धारित होती है। मनुष्य की मंज़िल और उसकी सफलता या विफलता परमेश्वर के मत्थे नहीं मढ़ी जा सकती, ताकि स्वयं परमेश्वर से ही इसका बोझ उठवाया जाए, क्योंकि यह स्वयं परमेश्वर का विषय नहीं है, बल्कि इसका सीधा संबंध उस कर्तव्य से है जो सृजित प्राणियों को निभाना चाहिए। अधिकांश लोगों को पौलुस और पतरस के अनुसरण और मंज़िल का थोड़ा-सा ज्ञान अवश्य है, फिर भी लोग पतरस और पौलुस के परिणामों से अधिक कुछ नहीं जानते हैं, और वे पतरस की सफलता के पीछे के रहस्य, और पौलुस को विफलता की ओर ले गई कमियों से अनजान हैं। और इसलिए, यदि तुम लोग उनके अनुसरण का सार अच्छी तरह समझ पाने में पूरी तरह असमर्थ हो, तो तुम लोगों में से अधिकांश का अनुसरण अब भी विफल हो जाएगा, और यदि तुममें से एक छोटी-सी संख्या सफल भी हो जाती है, तब भी वे पतरस के समकक्ष नहीं होंगे। यदि तुम्हारे अनुसरण का पथ सही पथ है, तो तुम्हारे पास सफलता की आशा है; सत्य का अनुसरण करते हुए तुमने जिस पथ पर क़दम रखा है यदि वह ग़लत पथ है, तो तुम सदा के लिए सफलता के अयोग्य होगे, और वही अंत प्राप्त करोगे जो पौलुस का हुआ था।

पतरस वह मनुष्य था जिसे पूर्ण बनाया गया था। ताड़ना और न्याय का अनुभव करने, और इस प्रकार विशुद्ध परमेश्वर-प्रेमी हृदय प्राप्त करने के बाद ही, उसे पूरी तरह पूर्ण बनाया गया था; वह जिस पथ चला वह पूर्ण किए जाने का पथ था। कहने का तात्पर्य यह है, बिल्कुल शुरुआत से ही, पतरस जिस पथ पर चला वह सही पथ था, और परमेश्वर में विश्वास करने के लिए उसकी प्रेरणा सही प्रेरणा थी, और इसलिए वह ऐसा व्यक्ति बना जिसे पूर्ण बनाया गया था और उसने एक नए पथ पर क़दम रखा जिस पर मनुष्य पहले कभी नहीं चला था। परंतु पौलुस शुरुआत से ही जिस पथ पर चला था वह मसीह के विरोध का पथ था, और केवल इसलिए कि पवित्र आत्मा अपने कार्य के लिए उसका उपयोग करना चाहता था, और उसकी सभी प्रतिभाओं और उसके सभी गुणों का लाभ उठाना चाहता था, उसने कई दशकों तक मसीह के लिए कार्य किया। वह मात्र ऐसा व्यक्ति था जिसका पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किया गया था, और उसका उपयोग इसलिए नही किया गया था कि यीशु उसकी मानवता को प्रशंसात्मक ढंग से देखता था, बल्कि उसकी प्रतिभाओं के कारण उसका उपयोग किया था। वह यीशु के लिए कार्य कर पाया तो इसलिए कि उसे विवश कर दिया गया था, इसलिए नहीं कि वह ऐसा करते हुए प्रसन्न था। वह ऐसा कार्य कर पाया तो पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन के कारण कर पाया था, और उसने जो कार्य किया वह किसी भी तरह उसके अनुसरण, या उसकी मानवता को नहीं दर्शाता था। पौलुस का कार्य एक सेवक का कार्य दर्शाता था, जिसका तात्पर्य है कि उसने एक प्रेरित का कार्य किया था। हालाँकि पतरस भिन्न था : उसने भी कुछ कार्य किया था, यह पौलुस के कार्य जितना बड़ा नहीं था, किंतु उसने स्वयं अपने प्रवेश का अनुसरण करते हुए कार्य किया था, और उसका कार्य पौलुस के कार्य से भिन्न था। पतरस का कार्य एक सृजित प्राणी के कर्तव्य का निर्वहन था। उसने प्रेरित की भूमिका में कार्य नहीं किया था, बल्कि परमेश्वर के प्रति प्रेम का अनुसरण करते हुए कार्य किया था। पौलुस के कार्य के क्रम में उसका व्यक्तिगत अनुसरण भी निहित था : उसका अनुसरण भविष्य की उसकी आशाओं, और एक अच्छी मंज़िल की उसकी इच्छा से अधिक किसी चीज के लिए नहीं था। उसने अपने कार्य के दौरान शुद्धिकरण स्वीकार नहीं किया था, न ही उसने काँट-छाँट स्वीकार की थी। वह मानता था कि उसने जो कार्य किया वह जब तक परमेश्वर की इच्छा पूरी करता था, और उसने जो कुछ किया वह सब जब तक परमेश्वर को प्रसन्न करता था, तब तक पुरस्कार अंततः उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। उसके कार्य में कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं थे—यह सब स्वयं उसके लिए था, और परिवर्तन के अनुसरण के बीच नहीं किया गया था। उसके कार्य में सब कुछ एक सौदा था, इसमें सृजित प्राणी का एक भी कर्तव्य या समर्पण निहित नहीं था। अपने कार्य के क्रम के दौरान, पौलुस के पुराने स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। उसका कार्य दूसरों की सेवा मात्र का था, और उसके स्वभाव में बदलाव लाने में असमर्थ था। पौलुस ने खुद को पूर्ण बनाए या अपनी काट-छाँट कराए बिना ही अपना कार्य सीधे किया था और वह पुरस्कार से प्रेरित था। पतरस भिन्न था : वह ऐसा व्यक्ति था जो काँट-छाँट और शुद्धिकरण से गुजरा था। पतरस के कार्य का लक्ष्य और प्रेरणा पौलुस से कार्य के लक्ष्य और प्रेरणा से मूलतः भिन्न थे। यद्यपि पतरस ने बडी मात्रा में काम नहीं किया था, किंतु उसका स्वभाव कई बदलावों से होकर गुजरा था, और उसने जिसकी खोज की, वह सत्य, और वास्तविक बदलाव था। उसका कार्य मात्र कार्य करने की ख़ातिर नहीं किया गया था। यद्यपि पौलुस ने बहुत कार्य किया था, किंतु वह सब पवित्र आत्मा का कार्य था, और यद्यपि पौलुस ने इस कार्य में सहयोग किया था, किंतु उसने इसका अनुभव नहीं किया था। पतरस ने बहुत कम कार्य किया तो केवल इसलिए कि पवित्र आत्मा ने उसके माध्यम से अधिक कार्य नहीं किया था। उनके कार्य की मात्रा ने यह निर्धारित नहीं किया कि उन्हें पूर्ण बनाया गया या नहीं बनाया गया; एक का अनुसरण पुरस्कार प्राप्त करने के लिए था, और दूसरे का अनुसरण परमेश्वर के प्रति सर्वोत्तम प्रेम प्राप्त करने के लिए, और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के लिए था, इस हद तक कि परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए वह प्यारी-सी छवि जी सका था। बाहर से वे भिन्न थे, और इसलिए उनके सार भी भिन्न-भिन्न थे। इस आधार पर कि उन्होंने कितना कार्य किया था, तुम यह निर्धारित नहीं कर सकते कि उनमें से किसे पूर्ण बनाया गया था। पतरस ने प्रयास किया कि वह ऐसे व्यक्ति की छवि जिए जो परमेश्वर से प्रेम करता है, ऐसा व्यक्ति बने जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता था, ऐसा व्यक्ति बने जो काँट-छाँट स्वीकार करता था, और ऐसा व्यक्ति बने जिसने सृजित प्राणी होने के नाते अपना कर्तव्य निभाया था। वह परमेश्वर के प्रति अपने को समर्पित करने, अपने को संपूर्णता में परमेश्वर के हाथों में सौंप देने और मृत्युपर्यंत उसके प्रति समर्पित करने में सक्षम था। यह वह था जो उसने करने का संकल्प लिया था, और इतना ही नहीं, यह वह था जिसे उसने प्राप्त किया था। यही वह मूलभूत कारण था जिससे उसका अंत पौलुस के अंत से अंततः भिन्न था। पवित्र आत्मा ने पतरस में जो कार्य किया था वह उसे पूर्ण बनाना था, और पवित्र आत्मा ने पौलुस में जो कार्य किया था वह उसका उपयोग करना था। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनकी प्रकृतियाँ और अनुसरण के प्रति उनके विचार एक समान नहीं थे। दोनों में पवित्र आत्मा का कार्य था। पतरस ने यह कार्य अपने पर लागू किया था, और इसे दूसरों को भी प्रदान किया था; जबकि पौलुस ने पवित्र आत्मा का समूचा कार्य दूसरों को प्रदान कर दिया था, और इसमें से कुछ भी स्वयं अपने लिए प्राप्त नहीं किया था। इस तरह, पवित्र आत्मा के कार्य का इतने अधिक वर्षों तक अनुभव कर चुकने के बाद भी, पौलुस में हुए बदलाव न के बराबर थे। वह अब भी लगभग अपनी प्राकृतिक अवस्था में ही था, और वह अब भी पहले का पौलुस ही था। बात बस इतनी थी कि कई वर्षों के कार्य की तक़लीफ सहने के बाद, उसने सीख लिया था कि कैसे “कार्य करना” है, और सहनशीलता सीख ली थी, किंतु उसकी पुरानी प्रकृति—उसकी अत्यधिक प्रतिस्पर्धात्मक और स्वार्थलोलुप प्रकृति—अब भी कायम थी। इतने वर्षों तक कार्य करने के बाद भी, वह अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं जानता था, न ही उसने स्वयं को अपने पुराने स्वभाव से मुक्त किया था, और यह उसके कार्य में अब भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता था। उसमें कार्य का अधिक अनुभव मुश्किल से ही था, किंतु इतना थोड़ा-सा अनुभव मात्र उसे बदलने में असमर्थ था और अस्तित्व या उसके अनुसरण के महत्व के बारे में उसके विचारों को नहीं बदल सकता था। हालाँकि उसने मसीह के लिए कई सालों तक कार्य किया था, और प्रभु यीशु को फिर कभी सताया नहीं था, लेकिन उसके हृदय में परमेश्वर के उसके ज्ञान में कोई परिवर्तन नहीं आया था। इसका अर्थ है कि उसने स्वयं को परमेश्वर के प्रति समर्पित करने के लिए कार्य नहीं किया, बल्कि इसके बजाय वह भविष्य की अपनी मंज़िल के ख़ातिर कार्य करने के लिए बाध्य था। क्योंकि, आरंभ में, उसने मसीह को सताया था, और मसीह के प्रति समर्पित नहीं हुआ था; वह सहज रूप से विद्रोही था जो जानबूझकर मसीह का विरोध करता था, और ऐसा व्यक्ति जिसे पवित्र आत्मा के कार्य का कोई ज्ञान नहीं था। जब उसका कार्य लगभग समाप्त हो गया था, तब भी वह पवित्र आत्मा का कार्य नहीं जानता था, और पवित्र आत्मा की इच्छा पर रत्ती भर भी ध्यान दिए बिना, स्वयं अपने चरित्र के अनुसार स्वयं अपनी इच्छा से काम करता था। और इसलिए उसकी प्रकृति मसीह के प्रति शत्रुतापूर्ण थी और सत्य के प्रति समर्पण नहीं करती थी। इस तरह का कोई व्यक्ति, जिसे पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा त्याग दिया गया था, जो पवित्र आत्मा का कार्य नहीं जानता था, और जो मसीह का विरोध भी करता था—ऐसे व्यक्ति को कैसे बचाया जा सकता था? मनुष्य को बचाया जा सकता है या नहीं, यह इस पर निर्भर नहीं करता है कि उसने कितना कार्य किया है, या वह कितना समर्पण करता है, बल्कि इसके बजाय इससे निर्धारित होता है कि वह पवित्र आत्मा के कार्य को जानता है या नहीं, वह सत्य को अभ्यास में ला सकता है या नहीं, और अनुसरण के प्रति उसके विचार सत्य की अनुरूपता में हैं या नहीं।

यद्यपि पतरस द्वारा यीशु का अनसुरण प्रारंभ करने के बाद प्राकृतिक प्रकाशन घटित हुए थे, किंतु प्रकृति से वह, बिल्कुल आरंभ से ही, ऐसा व्यक्ति था जो पवित्र आत्मा के प्रति समर्पित होने और मसीह के अनुसरण की तलाश करने का इच्छुक था। पवित्र आत्मा के प्रति उसका समर्पण शुद्ध था : उसने प्रसिद्धि और सौभाग्य की खोज नहीं की, बल्कि इसके बजाय वह सत्य के प्रति समर्पण से प्रेरित था। यद्यपि तीन बार ऐसा हुआ कि पतरस ने यीशु को जानने से इनकार कर दिया था, और यद्यपि उसने प्रभु यीशु को जाँचा-परखा था, किंतु ऐसी हल्की-सी मानवीय कमज़ोरी का उसकी प्रकृति से कोई संबंध नहीं था, इसने उसके भविष्य के अनुसरण को प्रभावित नहीं किया था, और यह समुचित रूप से सिद्ध नहीं कर सकता है कि उसकी जाँच-परख मसीह-विरोधी का कार्य था। सामान्य मानवीय कमज़ोरी कुछ ऐसी चीज़ है जो संसार के सभी लोगों द्वारा साझा की जाती है—क्या तुम पतरस के ज़रा भी भिन्न होने की अपेक्षा करते हो? क्या पतरस के बारे में लोगों के कुछ निश्चित विचार इसलिए नहीं हैं क्योंकि उसने अनेक मूर्खतापूर्ण ग़लतियाँ की थीं? और क्या लोग पौलुस द्वारा किए गए समस्त कार्य, और उसके द्वारा लिखी गई सभी पत्रियों के कारण उसकी अत्यधिक प्रशंसा नहीं करते हैं? मनुष्य के सार को अच्छी तरह समझने में भला मनुष्य कैसे सक्षम हो सकता है? निश्चय ही जिनमें सच्ची समझ है वे ऐसी कोई महत्वहीन चीज़ समझ सकते हैं? यद्यपि पतरस के दर्दनाक अनुभवों के कई वर्ष बाइबल में दर्ज़ नहीं किए गए हैं, किंतु इससे यह साबित नहीं होता है कि पतरस को वास्तविक अनुभव नहीं हुए थे, या पतरस को पूर्ण नहीं बनाया गया था। मनुष्य परमेश्वर के कार्य की पूरी थाह कैसे ले सकता है? बाइबल के अभिलेख यीशु द्वारा व्यक्तिगत रूप से नहीं चुने गए थे, बल्कि बाद की पीढ़ियों द्वारा संकलित किए गए थे। ऐसा होने से, क्या वह सब जो बाइबल में दर्ज़ किया गया था मनुष्य के विचारों के अनुसार नहीं चुना गया था? इतना ही नहीं, पतरस और पौलुस के अंत पत्रियों में स्पष्ट रूप से वर्णित नहीं हैं, अतः मनुष्य पतरस और पौलुस को स्वयं अपनी धारणाओं के अनुसार, और स्वयं अपनी वरीयताओं के अनुसार परखता है। और चूँकि पौलुस ने इतना अधिक कार्य किया था, चूँकि उसके “योगदान” इतने बड़े थे, इसलिए उसने जनसमुदाय का भरोसा जीत लिया था। क्या मनुष्य केवल उथली बातों पर ही ध्यान केंद्रित नहीं करता है? मनुष्य का सार अच्छी तरह समझने में भला मनुष्य कैसे सक्षम हो सकता है? इसके साथ ही, इस बात को देखते हुए कि पौलुस हज़ारों सालों से आराधना का विषय रहा है, भला कौन उसके कार्य को जल्दबाज़ी में नकारने की हिम्मत करेगा? पतरस मात्र एक मछुआरा था, तो उसका योगदान पौलुस के योगदान जितना बड़ा कैसे हो सकता था? उनके द्वारा दिए गए योगदान की दृष्टि से, पौलुस को पतरस से पहले पुरस्कृत किया जाना चाहिए था, और उसे वह व्यक्ति होना चाहिए था जो परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए बेहतर योग्य था। कौन यह कल्पना कर सकता था कि पौलुस के प्रति अपने बर्ताव में, परमेश्वर ने उससे मात्र उसकी प्रतिभाओं के माध्यम से कार्य करवाया था, जबकि परमेश्वर ने पतरस को पूर्ण बना दिया था। बात निश्चित रूप से यह नहीं है कि प्रभु यीशु ने, बिल्कुल शुरुआत से ही, पतरस और पौलुस के लिए योजनाएँ बना ली थीं : इसके बजाय उन्हें उनकी अंतर्निहित प्रकृतियों के अनुसार पूर्ण बनाया गया था या कार्य में लगाया गया था। और इसलिए, लोग जो देखते हैं वे मनुष्य के बाह्य योगदान मात्र हैं, जबकि परमेश्वर जो देखता है वह मनुष्य का सार है, साथ ही वह पथ है जिसका मनुष्य आरंभ से अनुसरण करता है, और मनुष्य के अनुसरण के पीछे निहित प्रेरणा है। लोग मनुष्य को अपनी धारणाओं के अनुसार, और स्वयं अपने पूर्वाग्रहों के अनुसार आँकते हैं, फिर भी मनुष्य का निर्णायक अंत उसकी बाहरी चीज़ों के अनुसार निर्धारित नहीं होता है। और इसलिए मैं कहता हूँ कि तुम शुरुआत से जो पथ लेते हो यदि वह सफलता का पथ है, और अनुसरण के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण शुरुआत से ही सही दृष्टिकोण है, तो तुम पतरस के समान हो; तुम जिस पथ पर क़दम रखते हो यदि वह विफलता का पथ है, तो तुम चाहे जो क़ीमत चुकाओ, तुम्हारा अंत भी वही होगा जो पौलुस का हुआ था। जो भी स्थिति हो, तुम्हारी मंज़िल, और तुम सफल होते हो या विफल होते हो, दोनों तुम्हारे समर्पण और तुम्हारे द्वारा चुकाई गई क़ीमत के बजाय, इससे निर्धारित होते हैं कि तुम जिस पथ की तलाश करते हो वह सही पथ है या नहीं। पतरस और पौलुस के सार, और वे लक्ष्य जिनका उन्होंने अनुसरण किया था, भिन्न-भिन्न थे; मनुष्य इन चीज़ों की खोज कर पाने में असमर्थ है, और केवल परमेश्वर ही इन्हें उनकी संपूर्णता में जान सकता है। क्योंकि परमेश्वर जो देखता है वह मनुष्य का सार है, जबकि मनुष्य स्वयं अपने सार के बारे में कुछ भी नहीं जानता है। मनुष्य, मनुष्य के भीतर के सार या उसकी वास्तविक कद-काठी को देख पाने में असमर्थ है, और इस प्रकार वह पौलुस और पतरस की विफलता और सफलता के कारणों की पहचान करने में असमर्थ है। अधिकांश लोग पौलुस की आराधना क्यों करते हैं और पतरस की क्यों नहीं, तो इसका कारण यह है कि पौलुस को सार्वजनिक कार्य के लिए उपयोग किया गया था, और मनुष्य इस कार्य का बोध कर पाता है, और इसलिए लोग पौलुस की “कार्यसिद्धियों” को स्वीकार करते हैं। इसी समय, पतरस के अनुभव मनुष्य के लिए अदृश्य हैं, और उसने जिसकी तलाश की थी वह मनुष्य के द्वारा अप्राप्य है, और इसलिए पतरस में मनुष्य की कोई रुचि नहीं है।

पतरस को काट-छाँट और शुद्धिकरण का अनुभव करने के माध्यम से पूर्ण बनाया गया था। उसने कहा था, “मुझे हर समय परमेश्वर की इच्छा पूरी करनी ही चाहिए। मैं जो भी करता हूँ उस सबमें मैं केवल परमेश्वर की इच्छा पूरी करने का प्रयास करता हूँ, और चाहे मुझे ताड़ना मिले, या मेरा न्याय किया जाए, तो भी मैं ऐसा करके प्रसन्न हूँ।” पतरस ने अपना सब कुछ परमेश्वर को दे दिया था, और उसका कार्य, वचन, और संपूर्ण जीवन सब परमेश्वर को प्रेम करने के लिए थे। वह ऐसा व्यक्ति था जो पवित्रता की खोज करता था, और जितना अधिक उसने अनुभव किया, उसके हृदय की गहराई के भीतर परमेश्वर के लिए उसका प्रेम उतना ही अधिक बढ़ता गया। इसी समय, पौलुस ने बस बाहरी कार्य ही किया था, और यद्यपि उसने भी कड़ी मेहनत की थी, किंतु उसका परिश्रम अपना कार्य उचित ढंग से करने और इस तरह पुरस्कार पाने के लिए था। अगर वह जानता कि उसे कोई पुरस्कार नहीं मिलेगा, तो उसने अपने काम छोड़ दिया होता। पतरस जिस चीज़ की परवाह करता था वह उसके हृदय के भीतर सच्चा प्रेम था, और वह था जो व्यावहारिक था और जिसे प्राप्त किया जा सकता था। उसने इसकी परवाह नहीं की कि उसे पुरस्कार मिलेगा या नहीं, बल्कि इसकी परवाह की कि उसके स्वभाव को बदला जा सकता है या नहीं। पौलुस ने और भी कड़ी मेहनत करने की परवाह की थी, उसने बाहरी कार्य और समर्पण की, और सामान्य लोगों द्वारा अनुभव नहीं किए गए सिद्धांतों की परवाह की थी। वह न तो अपने भीतर गहराई में बदलावों की और न ही परमेश्वर के प्रति सच्चे प्रेम की परवाह करता था। पतरस के अनुभव परमेश्वर का सच्चा प्रेम और सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए थे। उसके अनुभव परमेश्वर से निकटतर संबंध पाने के लिए, और व्यावहारिक जीवन यापन करने के लिए थे। पौलुस का कार्य इसलिए किया गया था क्योंकि यह यीशु के द्वारा उसे सौंपा गया था, और उन चीज़ों को पाने के लिए था जिनकी वह लालसा करता था, फिर भी ये स्वयं अपने और परमेश्वर के विषय में उसके ज्ञान से असंबद्ध थे। उसका कार्य केवल ताड़ना और न्याय से बचने के लिए था। पतरस ने जिसकी खोज की वह शुद्ध प्रेम था, और पौलुस ने जिसकी खोज की वह धार्मिकता का मुकुट था। पतरस ने पवित्र आत्मा के कार्य का कई वर्षों का अनुभव प्राप्त किया था, और उसे मसीह का व्यावहारिक ज्ञान, साथ ही स्वयं अपना अथाह ज्ञान भी था। और इसलिए, परमेश्वर के प्रति उसका प्रेम शुद्ध था। कई वर्षों के शुद्धिकरण ने यीशु और जीवन के उसके ज्ञान को उन्नत बना दिया था, और उसका प्रेम बिना शर्त प्रेम था, यह स्वतःस्फूर्त प्रेम था, और उसने बदले में कुछ नहीं माँगा, न ही उसने किसी लाभ की आशा की थी। पौलुस ने कई वर्ष काम किया, फिर भी उसने मसीह का अत्यधिक ज्ञान प्राप्त नहीं किया, और स्वयं अपने विषय में उसका ज्ञान भी दयनीय रूप से थोड़ा ही था। उसमें मसीह के प्रति कोई प्रेम ही नहीं था, और उसका कार्य और जिस राह पर वह चला निर्णायक कीर्ति पाने के लिए थे। उसने जिसकी खोज की वह श्रेष्ठतम मुकुट था, शुद्धतम प्रेम नहीं। उसने सक्रिय रूप से नहीं, बल्कि निष्क्रिय रूप से खोज की; वह अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर रहा था, बल्कि पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा पकड़ लिए जाने के बाद अपने अनुसरण में बाध्य था। और इसलिए, उसका अनुसरण यह साबित नहीं करता है कि वह गुणसंपन्न सृजित प्राणी था; यह पतरस था जो गुणसंपन्न सृजित प्राणी था जिसने अपना कर्तव्य निभाया था। मनुष्य सोचता है कि उन सभी को जो परमेश्वर के लिए कोई न कोई योगदान देते हैं पुरस्कार मिलना चाहिए, और योगदान जितना अधिक होता है, उतना ही अधिक यह मान लिया जाता है कि उन्हें परमेश्वर की कृपा प्राप्त होनी चाहिए। मनुष्य के दृष्टिकोण का सार लेन-देन से संबंधित है, और वह सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने की सक्रिय रूप से खोज नहीं करता है। परमेश्वर के लिए, लोग परमेश्वर के प्रति सच्चे प्रेम की और परमेश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण की जितनी अधिक कोशिश करते हैं, जिसका अर्थ सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने की कोशिश करना भी है, उतनी ही अधिक वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर पाते हैं। परमेश्वर का दृष्टिकोण यह माँग करना है कि मनुष्य अपना मूल कर्तव्य और हैसियत पुनः प्राप्त करे। मनुष्य सृजित प्राणी है और इसलिए मनुष्य को परमेश्वर से कोई भी माँग करके अपनी सीमा नहीं लाँघनी चाहिए और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने से अधिक कुछ नहीं करना चाहिए। पतरस और पौलुस की मंज़िलों को, उनके योगदान के आकार के अनुसार नहीं, बल्कि इस बात के अनुसार आँका गया था कि सृजित प्राणियों के रूप में वे अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकते थे या नहीं; उनकी मंजिलें उससे निर्धारित हुई थीं जिसकी उन्होंने शुरुआत से खोज की थी, इसके अनुसार नहीं कि उन्होंने कितना कार्य किया था, या उनके बारे में अन्य लोगों का आकलन क्या था। और इसलिए, सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य सक्रिय रूप से निभाना ही सफलता का पथ है; परमेश्वर के प्रति सच्चे प्रेम के पथ की खोज करना ही सबसे सही पथ है; अपने पुराने स्वभाव में बदलावों की खोज करना, और परमेश्वर के प्रति शुद्ध प्रेम की खोज करना ही सफलता का पथ है। सफलता का ऐसा ही पथ मूल कर्तव्य की पुनः प्राप्ति का और साथ ही सृजित प्राणी के मूल प्रकटन का पथ भी है। यह पुनः प्राप्ति का पथ है, और यह आरंभ से अंत तक परमेश्वर के समस्त कार्य का लक्ष्य भी है। यदि मनुष्य का अनुसरण व्यक्तिगत असंयमी माँगों और विवेकहीन लालसाओं से कलंकित है, तो प्राप्त किया गया प्रभाव मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन नहीं होगा। यह पुनः प्राप्ति के कार्य के विपरीत है। यह निस्संदेह पवित्र आत्मा द्वारा किया गया कार्य नहीं है, और इसलिए यह साबित करता है कि इस प्रकार का अनुसरण परमेश्वर द्वारा स्वीकृत नहीं है। उस अनुसरण का भला क्या महत्व है जो परमेश्वर द्वारा स्वीकृत नहीं है?

पौलुस द्वारा किया गया कार्य मनुष्य के सामने प्रदर्शित किया गया था, किंतु जहाँ तक यह बात है कि परमेश्वर के प्रति उसका प्रेम कितना शुद्ध था और अपने हृदय की गहराई में वह परमेश्वर से कितना प्रेम करता था—तो ये चीज़ें मनुष्य देख नहीं सकता है। मनुष्य केवल वह कार्य देख सकता है जो उसने किया था, जिससे मनुष्य जान जाता है कि उसका पवित्र आत्मा द्वारा निश्चिय ही उपयोग किया गया था, और इसलिए मनुष्य सोचता है कि पौलुस पतरस से बेहतर था, कि उसका कार्य अधिक बड़ा था, क्योंकि वह कलीसियाओं का पोषण कर पाता था। पतरस ने केवल अपने व्यक्तिगत अनुभवों पर ही निर्भर किया और अपने आकस्मिक कार्य के दौरान बस थोड़े-से लोग ही प्राप्त किए थे। उसकी बस कुछेक ही अल्पज्ञात पत्रियाँ हैं, किंतु कौन जानता है कि उसके हृदय के भीतर गहराई में परमेश्वर के प्रति उसका प्रेम कितना अधिक था? पौलुस दिन-रात लगातार परमेश्वर के लिए काम करता था : जब तक करने के लिए काम था, उसने वह किया। उसे लगा कि इस तरह वह मुकुट प्राप्त कर पाएगा, और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकेगा, तो भी उसने अपने कार्य के माध्यम से स्वयं को बदलने के तरीक़ों की खोज नहीं की। पतरस के जीवन की ऐसी कोई भी चीज जो परमेश्वर की इच्छा पूरी नहीं करती थी उसे असहज महसूस करवाती थी। यदि वह परमेश्वर की इच्छा पूरी नहीं करती, तो वह ग्लानि से भरा महसूस करता, और ऐसे उपयुक्त रास्ते की तलाश करता जिसके द्वारा वह परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करने के लिए पूरा ज़ोर लगा पाता। अपने जीवन के छोटे से छोटे और महत्वहीन पहलुओं में भी, वह अब भी परमेश्वर की इच्छा पूरी करने की स्वयं से अपेक्षा करता था। जब उसके पुराने स्वभाव की बात आती तब भी वह स्वयं से ज़रा भी कम अपेक्षा नहीं करता था, सत्य में अधिक गहराई तक आगे बढ़ने के लिए स्वयं से अपनी अपेक्षाओं में सदैव अत्यधिक कठोर होता था। पौलुस केवल सतही प्रतिष्ठा और रुतबे की खोज करता था। वह मनुष्य के सामने स्वयं का दिखावा करने की चेष्टा करता था, और जीवन प्रवेश में ज़रा भी अधिक गहरी प्रगति करने की तलाश नहीं करता था। वह जिसकी परवाह करता था, वह सिद्धांत था, वास्तविकता नहीं। कुछ लोग कहते हैं, “पौलुस ने परमेश्वर के लिए इतना अधिक कार्य किया था, तो उसे परमेश्वर द्वारा याद क्यों नहीं रखा गया? पतरस ने परमेश्वर के लिए बस थोड़ा-सा ही कार्य किया था, और कलीसिया के लिए कोई बड़ा योगदान नहीं दिया था, तो उसे पूर्ण क्यों बनाया गया?” पतरस एक निश्चित बिंदु तक, जिसकी परमेश्वर द्वारा अपेक्षा की जाती थी, परमेश्वर से प्रेम करता था; केवल इस जैसे लोगों की ही गवाही होती है। और पौलुस के विषय में क्या? पौलुस किस सीमा तक परमेश्वर से प्रेम करता था? क्या तुम जानते हो? पौलुस का कार्य किसके लिए किया गया था? और पतरस का कार्य किसके लिए किया गया था? पतरस ने अधिक कार्य नहीं किया था, लेकिन क्या तुम जानते हो कि उसके हृदय के भीतर गहराई में क्या था? पौलुस का कार्य कलीसियाओं के पोषण, और कलीसियाओं की सहायता से संबंधित था। पतरस ने जो अनुभव किया वे उसके जीवन स्वभाव में हुए परिवर्तन थे; उसने परमेश्वर के प्रति प्रेम अनुभव किया था। अब जब तुम उनके सार में अंतर जानते हो, तब तुम देख सकते हो कि अंततः कौन परमेश्वर में सचमुच विश्वास करता था, और कौन परमेश्वर में सचमुच विश्वास नहीं करता था। उनमें से एक परमेश्वर से सच्चे अर्थ में प्रेम करता था, और दूसरा परमेश्वर से सच्चे अर्थ में प्रेम नहीं करता था; एक अपने स्वभाव में परिवर्तनों से गुजरा था, और दूसरा नहीं गुज़रा था; एक ने विनम्रतापूर्वक सेवा की थी, और आसानी से लोगों के ध्यान में नहीं आता था, और दूसरे की लोगों द्वारा आराधना की जाती थी, और वह महान छवि वाला था; एक पवित्रता की खोज करता था, और दूसरा नहीं करता था, और यद्यपि वह अशुद्ध नहीं था, किंतु वह शुद्ध प्रेम से युक्त नहीं था; एक सच्ची मानवता से युक्त था, और दूसरा नहीं था; एक सृजित प्राणी के बोध से युक्त था, और दूसरा नहीं था। ऐसी हैं पतरस और पौलुस के सार की भिन्नताएँ। पतरस जिस पथ पर चला वह सफलता का पथ था, जो सामान्य मानवता की पुनः प्राप्ति और सृजित प्राणी के कर्तव्य की पुनः प्राप्ति पाने का पथ भी था। पतरस उन सभी का प्रतिनिधित्व करता है जो सफल हैं। पौलुस जिस पथ पर चला वह विफलता का पथ था, और वह उन सभी का प्रतिनिधित्व करता है जो केवल ऊपरी तौर पर स्वयं को समर्पित करते और खपाते हैं, और जिनके पास सच्चा परमेश्वर-प्रेमी हृदय नहीं होता। पौलुस उन सभी का प्रतिनिधित्व करता है जो सत्य से युक्त नहीं हैं। परमेश्वर में अपने विश्वास में, पतरस ने प्रत्येक चीज में परमेश्वर को संतुष्ट करने की चेष्टा की थी, और उस सबके प्रति समर्पण करने की चेष्टा की थी जो परमेश्वर से आया था। रत्ती भर शिकायत के बिना, वह ताड़ना और न्याय, साथ ही शुद्धिकरण, घोर पीड़ा और अपने जीवन की वंचनाओं को स्वीकार कर पाता था, जिनमें से कुछ भी उसके परमेश्वर-प्रेमी हृदय को बदल नहीं सका था। क्या यह परमेश्वर के प्रति सर्वोत्तम प्रेम नहीं था? क्या यह सृजित प्राणी के कर्तव्य की पूर्ति नहीं थी? चाहे ताड़ना में हो, न्याय में हो, या घोर पीड़ा में हो, तुम मृत्युपर्यंत समर्पण प्राप्त करने में सदैव सक्षम होते हो, और यह वह है जो सृजित प्राणी को प्राप्त करना चाहिए, यह परमेश्वर के प्रति प्रेम की शुद्धता है। यदि मनुष्य इतना प्राप्त कर सकता है, तो वह गुणसंपन्न सृजित प्राणी है, और ऐसा कुछ भी नहीं है जो सृष्टिकर्ता की इच्छा को इससे बेहतर ढंग से संतुष्ट कर सकता हो। कल्पना करो कि तुम परमेश्वर के लिए कार्य कर पाते हो, किंतु तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते हो और परमेश्वर से सच्चे अर्थ में प्रेम करने में असमर्थ हो। इस तरह, तुमने न केवल सृजित प्राणी के अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं किया होगा, बल्कि तुम्हें परमेश्वर द्वारा निंदित भी किया जाएगा, क्योंकि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से युक्त नहीं है, जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में असमर्थ है, और जो परमेश्वर से विद्रोह करता है। तुम केवल परमेश्वर के लिए कार्य करने की परवाह करते हो, और सत्य को अभ्यास में लाने, या स्वयं को जानने की परवाह नहीं करते हो। तुम सृष्टिकर्ता को समझते या जानते नहीं हो, और सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण या उससे प्रेम नहीं करते हो। तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के प्रति स्वाभाविक रूप से विद्रोही है, और इसलिए ऐसे लोग सृष्टिकर्ता के प्रिय नहीं हैं।

कुछ लोग कहते हैं, “पौलुस ने अत्यधिक मात्रा में कार्य किया था, और उसने कलीसियाओं के लिए बड़े बोझ अपने कंधों पर उठाए थे और उनके लिए इतना अधिक योगदान दिया था। पौलुस की तेरह पत्रियों ने 2,000 वर्षों के अनुग्रह के युग का समर्थन किया था, और उन्हें केवल चार सुसमाचार के पश्चात सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। कौन उसके साथ तुलना कर सकता है? कोई भी यूहन्ना के प्रकाशितवाक्य के गूढ़ अर्थ समझ नहीं सकता है, जबकि पौलुस की पत्रियाँ जीवन प्रदान करती हैं, और उसने जो कार्य किया था वह कलीसियाओं के लिए लाभकारी था। भला दूसरा कौन ऐसी चीज़ें प्राप्त कर सकता था? और पतरस ने क्या काम किया था?” जब मनुष्य दूसरों को आँकता है, तो वह उनके योगदान के अनुसार उन्हें आँकता है। जब परमेश्वर मनुष्य को आँकता है, तो वह मनुष्य की प्रकृति के अनुसार उन्हें आँकता है। उन लोगों में जो जीवन की तलाश करते हैं, पौलुस ऐसा व्यक्ति था जो स्वयं अपना सार नहीं जानता था। वह किसी भी तरह विनम्र या समर्पित नहीं था, न ही वह अपना सार जानता था, जो परमेश्वर के विरुद्ध था। और इसलिए, वह ऐसा व्यक्ति था जो विस्तृत अनुभवों से नहीं गुजरा था, और ऐसा व्यक्ति था जो सत्य को अभ्यास में नहीं लाया था। पतरस भिन्न था। वह सृजित प्राणी होने के नाते अपनी अपूर्णताएँ, कमजोरियाँ, और अपना भ्रष्ट स्वभाव जानता था, और इसलिए उसके पास अभ्यास का एक मार्ग था जिसके माध्यम से वह अपने स्वभाव को बदल सके; वह उन लोगों में से नहीं था जिनके पास केवल सिद्धांत था किंतु जो वास्तविकता से युक्त नहीं थे। वे लोग जो परिवर्तित होते हैं नए लोग हैं जिन्हें बचा लिया गया है, वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करने की योग्यता से संपन्न हैं। वे लोग जो नहीं बदलते हैं उन लोगों में आते हैं जो स्वाभाविक रूप से पुराने और बेकार हैं; ये वे लोग हैं जिन्हें बचाया नहीं गया है, अर्थात्, वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर तिरस्कृत कर चुका है। उनका कार्य चाहे जितना भी बड़ा हो, उन्हें परमेश्वर द्वारा याद नहीं रखा जाएगा। जब तुम इसकी तुलना स्वयं अपने अनुसरण से करते हो, तब यह स्वतः स्पष्ट हो जानना चाहिए कि तुम अंततः उसी प्रकार के व्यक्ति हो या नहीं जैसे पतरस या पौलुस थे। यदि तुम जो खोजते हो उसमें अब भी कोई सत्य नहीं है, और यदि तुम आज भी उतने ही अहंकारी और अभद्र हो जितना पौलुस था, और अब भी उतने ही बकवादी और शेखीबाज हो जितना वह था, तो तुम बिना किसी संदेह के पतित व्यक्ति हो जो विफल होता है। यदि तुम पतरस के समान खोज करते हो, यदि तुम अभ्यासों और सच्चे बदलावों की खोज करते हो, और अहंकारी या उद्दंड नहीं हो, बल्कि अपना कर्तव्य निभाने की तलाश करते हो, तो तुम सृजित प्राणी होगे जो विजय प्राप्त कर सकता है। पौलुस स्वयं अपना सार या भ्रष्टता नहीं जानता था, वह अपने विद्रोहीपन को तो और भी नहीं जानता था। उसने मसीह के प्रति अपनी कुत्सित अवज्ञा का कभी उल्लेख नहीं किया, न ही वह बहुत अधिक पछतावे से भरा था। उसने बस एक स्पष्टीकरण दिया, और, अपने हृदय की गहराई में, वह परमेश्वर के प्रति पूर्ण रूप से नहीं झुका था। यद्यपि वह दमिश्क के रास्ते पर गिर पड़ा था, फिर भी उसने अपने भीतर गहराई से झाँककर नहीं देखा था। वह मात्र काम करते रहने से ही संतुष्ट था, और वह स्वयं को जानने और अपना पुराना स्वभाव बदलने को सबसे महत्वपूर्ण विषय नहीं मानता था। वह तो बस सत्य बोलकर, स्वयं अपने अंतःकरण के लिए औषधि के रूप में दूसरों को पोषण देकर, और अपने अतीत के पापों के लिए अपने को सांत्वना देने और अपने को माफ करने की ख़ातिर यीशु के शिष्यों को अब और न सताकर ही संतुष्ट था। उसने जिस लक्ष्य का अनुसरण किया वह भविष्य के मुकुट और क्षणिक कार्य से अधिक कुछ नहीं था, उसने जिस लक्ष्य का अनुसरण किया वह भरपूर अनुग्रह था। उसने पर्याप्त सत्य की खोज नहीं की थी, न ही उसने उस सत्य की अधिक गहराई में जाने की खोज की थी जिसे उसने पहले नहीं समझा था। इसलिए स्वयं के विषय में उसके ज्ञान को झूठ कहा जा सकता है, और उसने ताड़ना और न्याय स्वीकार नहीं किया था। वह कार्य करने में सक्षम था इसका अर्थ यह नहीं है कि वह स्वयं अपनी प्रकृति या सार के ज्ञान से युक्त था; उसका ध्यान केवल बाहरी अभ्यासों पर था। यही नहीं, उसने जिसके लिए कठिन परिश्रम किया था वह बदलाव नहीं, बल्कि ज्ञान था। उसका कार्य पूरी तरह दमिश्क के मार्ग पर यीशु के प्रकटन का परिणाम था। यह कोई ऐसी चीज नहीं थी जिसे उसने मूल रूप से करने का संकल्प लिया था, न ही यह वह कार्य था जो उसके द्वारा अपने पुराने स्वभाव की काँट-छाँट स्वीकार करने के बाद हुआ था। उसने चाहे जिस प्रकार कार्य किया, उसका पुराना स्वभाव नहीं बदला था, और इसलिए उसके कार्य ने उसके अतीत के पापों का प्रायश्चित नहीं किया बल्कि उस समय की कलीसियाओं के मध्य एक निश्चित भूमिका मात्र निभाई थी। इस जैसे व्यक्ति के लिए, जिसका पुराना स्वभाव नहीं बदला था—कहने का तात्पर्य यह, जिसने उद्धार प्राप्त नहीं किया था, तथा सत्य से और भी अधिक रहित था—वह प्रभु यीशु द्वारा स्वीकार किए गए लोगों में से एक बनने में बिल्कुल असमर्थ था। वह कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जिसमें यीशु मसीह के लिए प्रेम और भय समाया था, न ही वह ऐसा व्यक्ति था जो सत्य की खोज करने में पारंगत था, वह ऐसा व्यक्ति तो और भी नहीं था जो देहधारण के रहस्य की खोज करता था। वह मात्र ऐसा व्यक्ति था जो मिथ्या वाद-विवाद में निपुण था, और जो किसी के भी आगे झुकता नहीं था जो उससे ऊपर थे या जो सत्य से युक्त थे। वह उन लोगों या सत्यों से ईर्ष्या करता था जो उसके विपरीत थे, या उसके प्रति शत्रुतापूर्ण थे, वह उन प्रतिभावान लोगों को प्रमुखता देता था जो बहुत अच्छी छवि प्रस्तुत करते थे और गहन ज्ञान से युक्त थे। वह उन गरीब लोगों से बातचीत करना पसंद नहीं करता था जो सच्चे मार्ग की खोज करते थे और सत्य के अलावा किसी भी चीज की परवाह नहीं करते थे, और इसके बजाय उसने धार्मिक संगठनों के वरिष्ठ व्यक्तियों से सरोकार रखा जो केवल सिद्धांतों की बात करते थे, और जो भरपूर ज्ञान से युक्त थे। उसमें पवित्र आत्मा के नए कार्य के प्रति कोई प्रेम नहीं था, और उसने पवित्र आत्मा के नए कार्य की हलचल की परवाह नहीं की। इसके बजाय, उसने उन नियमों और सिद्धांतों की तरफदारी की जो सामान्य सत्यों से कहीं अधिक ऊँचे थे। अपने जन्मजात सार और अपनी संपूर्ण खोज में, वह सत्य का अनुसरण करने वाला ईसाई कहलाने योग्य नहीं था, परमेश्वर के घर में वफादार सेवक कहलाने योग्य तो और भी नहीं था, क्योंकि उसका पाखंड बहुत अधिक था, और उसका विद्रोहीपन बहुत ज्यादा था। यद्यपि वह प्रभु यीशु के सेवक के रूप में जाना जाता है, किंतु वह स्वर्ग के राज्य के दरवाज़े में प्रवेश करने योग्य बिल्कुल नहीं था, क्योंकि आरंभ से अंत तक उसके कार्यकलापों को धार्मिक नहीं कहा जा सकता है। उसे बस ऐसे मनुष्य के रूप में देखा जा सकता है जो पांखडी था, जिसने अधार्मिकता की थी, किंतु जिसने मसीह के लिए कार्य किया था। यद्यपि उसे दुष्ट नहीं कहा जा सकता है, फिर भी उसे उपयुक्त रूप से ऐसा मनुष्य कहा जा सकता है जिसने अधार्मिकता की थी। उसने बहुत कार्य किया था, फिर भी उसे उसके द्वारा किए गए कार्य की मात्रा के आधार पर नहीं ही परखा जाना चाहिए, बल्कि केवल उसकी गुणवत्ता और सार के आधार पर ही परखा जाना चाहिए। केवल इसी ढंग से इस मामले की तह तक पहुँचना संभव है। वह हमेशा मानता था : “मैं कार्य करने में सक्षम हूँ, मैं अधिकांश लोगों से बेहतर हूँ; मैं प्रभु के बोझ का उतना ध्यान रखता हूँ जितना कोई और नहीं रखता है, और कोई भी उतनी गहराई से पश्चात्ताप नहीं करता है जितना मैं करता हूँ, क्योंकि बड़ी ज्योति मेरे ऊपर चमकी थी, और मैं बड़ी ज्योति देख चुका हूँ, और इसलिए मेरा पश्चात्ताप किसी भी अन्य की अपेक्षा अधिक गहरा है।” यही वह है जो उसने उस समय अपने हृदय के भीतर सोचा था। अपने कार्य के अंत में, पौलुस ने कहा : “मैं लड़ाई लड़ चुका हूँ, मैंने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, और मेरे लिए धर्म का मुकुट रखा हुआ है।” उसकी लड़ाई, कार्य और दौड़ पूरी तरह धार्मिकता के मुकुट के लिए थे, और वह सक्रिय रूप से तेज़ी से आगे नहीं निकला था। यद्यपि वह अपने कार्य में असावधान नहीं था, फिर भी यह कहा जा सकता है कि उसका कार्य बस उसकी ग़लतियों की भरपाई करने के लिए, और उसके अंतःकरण के आरोपों की क्षतिपूर्ति करने के लिए था। वह बस यथासंभव जल्दी से जल्दी अपना कार्य पूरा करने, अपनी दौड़ समाप्त करने, और अपनी लड़ाई लड़ने की आशा करता था, ताकि वह अपना इच्छित धार्मिकता का मुकुट जल्द से जल्द प्राप्त कर सके। वह जिस चीज के लिए लालायित था वह अपने अनुभवों और सच्चे ज्ञान के साथ प्रभु यीशु से मिलना नहीं था, बल्कि यथासंभव जल्द से जल्द अपना कार्य समाप्त करना था, ताकि प्रभु यीशु से मिलने पर वह वे पुरस्कार प्राप्त करेगा जो उसने अपने कार्य से कमाए थे। उसने अपने को आराम देने के लिए, और भविष्य के मुकुट के लिए बदले में एक सौदा करने के लिए अपने कार्य का उपयोग किया था। उसने जिसकी खोज की वह सत्य या परमेश्वर नहीं था, बल्कि केवल मुकुट था। ऐसा अनुसरण मानक स्तर का कैसे हो सकता है? उसकी प्रेरणा, उसका कार्य, उसने जो मूल्य चुकाया, और उसके समस्त प्रयास—उसकी अद्भुत स्वैर कल्पनाएँ उन सबमें व्याप्त थीं, और उसने पूरी तरह स्वयं अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य किया था। उसके कार्य की संपूर्णता में, वह मूल्य चुकाने की रत्ती भर इच्छा नहीं थी जो उसने चुकाया था; वह तो बस सौदा करने में लगा था। उसके प्रयास अपना कर्तव्य निभाने के लिए सहर्ष नहीं किए गए थे, बल्कि सौदे का उद्देश्य प्राप्त करने के लिए सहर्ष किए गए थे। क्या ऐसे प्रयासों का कोई मूल्य है? कौन ऐसे अशुद्ध प्रयासों की प्रशंसा करेगा? किसे ऐसे प्रयासों में रुचि है? उसका कार्य भविष्य के स्वप्नों से भरा था, अद्भुत योजनाओं से भरा था, और उसमें ऐसा कोई मार्ग नहीं था जिससे मानव स्वभाव को बदला जा सके। उसका बहुत कुछ परोपकार ढोंग था; उसका कार्य जीवन प्रदान नहीं करता था, बल्कि शिष्टता का ढकोसला था; यह सौदा करना था। इस जैसा कार्य मनुष्य को अपने मूल कर्तव्य की पुनः प्राप्ति के पथ पर कैसे ले जा सकता है?

पतरस ने जो भी प्रयास किए वे सब परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप थे। उसने परमेश्वर की इच्छा पूरी करने की कोशिश की थी, और पीड़ा तथा प्रतिकूल परिस्थितियों पर ध्यान दिए बिना वह परमेश्वर की इच्छा पूरी करने का इच्छुक था। परमेश्वर के किसी विश्वासी द्वारा इससे बड़ा कोई अनुसरण नहीं है। पौलुस ने जो खोज की थी, वह उसकी अपनी देह, अपनी अवधारणाओं, और उसकी अपनी योजनाओं तथा षडयंत्रों से कलंकित थी। वह किसी भी तरह गुणसंपन्न सृजित प्राणी नहीं था, ऐसा व्यक्ति नहीं था जिसने परमेश्वर की इच्छा पूरी करने की कोशिश की थी। परतस ने खुद को परमेश्वर के आयोजनों के हवाले करने का प्रयास किया था, और यद्यपि उसने जो कार्य किया वह बड़ा नहीं था, फिर भी उसके अनुसरण के पीछे की प्रेरणा और जिस पथ पर वह चला, सही थे; यद्यपि वह बहुत सारे लोगों को प्राप्त नहीं कर पाया, फिर भी वह सत्य के मार्ग का अनुसरण कर सका था। इसी कारण से कहा जा सकता है कि वह गुणसंपन्न सृजित प्राणी था। आज, यदि तुम कार्यकर्ता नहीं हो, तब भी तुम्हें सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने और सब कुछ परमेश्वर के आयोजनों के हवाले करने की कोशिश करने में सक्षम होना चाहिए। परमेश्वर जो भी कहता है तुम्हें उसके प्रति समर्पण कर पाना, और सभी प्रकार के क्लेशों और शुद्धिकरण का अनुभव कर पाना, और यद्यपि तुम कमज़ोर हो, फिर भी तुम्हें अपने हृदय में परमेश्वर से प्रेम कर पाना चाहिए। जो स्वयं अपने जीवन की ज़िम्मेदारी स्वीकार करते हैं वे सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के इच्छुक होते हैं, और अनुसरण के बारे में ऐसे लोगों का दृष्टिकोण सही होता है। यही वे लोग हैं जिनकी परमेश्वर को ज़रूरत है। यदि तुमने बहुत सारा कार्य किया है, और दूसरों ने तुम्हारी शिक्षाएँ प्राप्त की हैं, किंतु तुम स्वयं नहीं बदले हो, और कोई गवाही नहीं दी है, या कोई सच्चा अनुभव नहीं लिया है, यहाँ तक कि अपने जीवन के अंत में भी, तुमने जो कुछ किया उसमें से किसी कार्य ने भी गवाही नहीं दी है, तो क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो बदल चुका है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है? उस समय, पवित्र आत्मा ने तुम्हारा उपयोग किया था, किंतु जब उसने तुम्हारा उपयोग किया, तब उसने तुम्हारे उस भाग का उपयोग किया था जिसका कार्य के लिए उपयोग किया जा सकता था, और उसने तुम्हारे उस भाग का उपयोग नहीं किया जिसका उपयोग नहीं किया जा सकता था। यदि तुम बदलने की कोशिश करते, तो तुम्हें उपयोग करने की प्रक्रिया के दौरान धीरे-धीरे पूर्ण बनाया गया होता। परंतु पवित्र आत्मा इस बात की ज़िम्मेदारी नहीं लेता कि तुम्हें अंततः प्राप्त किया जाएगा या नहीं, और यह तुम्हारे अनुसरण के तरीक़े पर निर्भर करता है। यदि तुम्हारे व्यक्तिगत स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आए हैं, तो इसलिए क्योंकि अनुसरण के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण ग़लत है। यदि तुम्हें कोई पुरस्कार नहीं दिया गया है, तो यह तुम्हारी अपनी समस्या है, और इसका यह कारण है कि तुमने स्वयं सत्य का अभ्यास नहीं किया और तुम परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में असमर्थ हो। और इसलिए, तुम्हारे व्यक्तिगत अनुभवों से अधिक महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है, और तुम्हारे व्यक्तिगत प्रवेश से अधिक अत्यावश्यक कुछ भी नहीं है! कुछ लोग अंततः कहेंगे, “मैंने तुम्हारे लिए इतना अधिक कार्य किया है, और मैंने कोई प्रशंसनीय उपलब्धियाँ भले प्राप्त न की हों, फिर भी मैंने पूरी मेहनत से अपने प्रयास किए हैं। क्या तुम मुझे जीवन के फल खाने के लिए बस स्वर्ग में प्रवेश करने नहीं दे सकते?” तुम्हें जानना ही चाहिए कि मैं किस प्रकार के लोगों को चाहता हूँ; वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो! संसार की स्थापना से लेकर आज तक, मैंने अपने राज्य में उन्हें कभी आसान प्रवेश नहीं दिया जो मेरी चापलूसी करते हैं। यह स्वर्गिक नियम है, और कोई इसे तोड़ नहीं सकता है! तुम्हें जीवन की खोज करनी ही चाहिए। आज, जिन्हें पूर्ण बनाया जाएगा वे उसी प्रकार के हैं जैसा पतरस था : ये वे लोग हैं जो स्वयं अपने स्वभाव में बदलाव लाने का प्रयास करते हैं, और जो परमेश्वर के लिए गवाही देने, और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए तैयार रहते हैं। केवल ऐसे लोगों को ही पूर्ण बनाया जाएगा। यदि तुम केवल पुरस्कारों की प्रत्याशा करते हो, और स्वयं अपने जीवन स्वभाव को बदलने की कोशिश नहीं करते, तो तुम्हारे सारे प्रयास व्यर्थ होंगे—यह अटल सत्य है!

पतरस और पौलुस के सार में अंतर से तुम्हें समझना चाहिए कि वे सब जो जीवन का अनुसरण नहीं करते, व्यर्थ परिश्रम करते हैं! तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और परमेश्वर का अनुसरण करते हो, और इसलिए तुम्हारे पास परमेश्वर-प्रेमी हृदय होना चाहिए। तुम्हें अपना भ्रष्ट स्वभाव जरूर छोड़ देना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर की इच्छा पूरी करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए और तुम्हें सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे से निभाना ही चाहिए। चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण करते हो, तुम्हें अपना सर्वस्व उसे अर्पित कर देना चाहिए, और व्यक्तिगत चुनाव या माँगें नहीं करनी चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर की इच्छा पूरी करनी चाहिए। चूँकि तुम्हें सृजित किया गया था, इसलिए तुम्हें उस प्रभु के प्रति समर्पण करना चाहिए जिसने तुम्हें सृजित किया, क्योंकि तुम्हारा स्वयं अपने ऊपर कोई स्वाभाविक प्रभुत्व नहीं है, और तुममें स्वयं अपनी नियति को नियंत्रित करने की क्षमता नहीं है। चूँकि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर में विश्वास करता है, इसलिए तुम्हें पवित्रता और परिवर्तन की खोज करनी चाहिए। चूँकि तुम सृजित प्राणी हो, इसलिए तुम्हें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, और अपनी स्थिति के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए, और तुम्हें अपने कर्तव्य का अतिक्रमण कदापि नहीं करना चाहिए। यह तुम्हें सिद्धांत के माध्यम से बाध्य करने, या तुम्हें दबाने के लिए नहीं है, बल्कि इसके बजाय यह वह पथ है जिसके माध्यम से तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकते हो, और यह उन सभी के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है—और प्राप्त किया जाना चाहिए—जो धार्मिकता का पालन करते हैं। यदि तुम पतरस और पौलुस के सार की तुलना करो, तो तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हें खोज किस प्रकार करनी चाहिए। पतरस और पौलुस जिन पथों पर चले थे, उनमें से एक पूर्ण बनाए जाने का पथ है, और एक बाहर निकाले जाने का पथ है; पतरस और पौलुस दो भिन्न-भिन्न पथों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यद्यपि प्रत्येक ने पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त किया था, और प्रत्येक ने पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और प्रकाशन प्राप्त किया था, और प्रत्येक ने वह स्वीकार किया था जो प्रभु यीशु द्वारा उन्हें सौंपा गया था, किंतु प्रत्येक में उत्पन्न फल समान नहीं था : एक ने सचमुच फल उत्पन्न किया था, और दूसरे ने नहीं किया था। उनके सार से, उन्होंने जो कार्य किया उससे, उनके द्वारा बाह्य रूप में जो अभिव्यक्त किया गया उससे, और उनके निर्णायक अंत से, तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हें कौन-सा पथ अपनाना चाहिए, चलने के लिए तुम्हें कौन-सा पथ चुनना चाहिए। वे दो बिल्कुल भिन्न पथों पर चले थे। पौलुस और पतरस, वे प्रत्येक पथ के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण थे, और इसलिए बिल्कुल आरंभ से ही वे इन दो पथों का प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रदर्शित किए गए थे। पौलुस के अनुभवों के मुख्य बिंदु क्या हैं, और वह सफल क्यों नहीं हुआ? पतरस के अनुभवों के मुख्य बिंदु क्या हैं, और उसने पूर्ण बनाए जाने का अनुभव कैसे किया? यदि तुम उसकी तुलना करो जिसकी उनमें से प्रत्येक ने परवाह की थी, तो तुम्हें पता चलेगा कि परमेश्वर ठीक किस प्रकार का व्यक्ति चाहता है, परमेश्वर की इच्छा क्या है, परमेश्वर का स्वभाव क्या है, किस प्रकार के व्यक्ति को अंततः पूर्ण बनाया जाएगा, और यह भी कि किस प्रकार के व्यक्ति को पूर्ण नहीं बनाया जाएगा; तुम्हें पता चलेगा कि उन लोगों का स्वभाव कैसा है जिन्हें पूर्ण बनाया जाएगा, और उन लोगों का स्वभाव कैसा है जिन्हें पूर्ण नहीं बनाया जाएगा—सार के ये मुद्दे पतरस और पौलुस के अनुभवों में देखे जा सकते हैं। परमेश्वर ने सभी चीजों की सृष्टि की थी, और इसलिए वह समूची सृष्टि को अपने प्रभुत्व के अधीन लाता और अपने प्रभुत्व के प्रति समर्पित करवाता है; वह सभी चीजों पर अधिकार रखेगा, ताकि सभी चीजें उसके हाथों में हों। परमेश्वर की सारी सृष्टि, पशुओं, पेड़-पौधों, मानवजाति, पहाड़ तथा नदियों, और झीलों सहित—सभी को उसके प्रभुत्व के अधीन आना ही होगा। आकाश में और धरती पर सभी चीजों को उसके प्रभुत्व के अधीन आना ही होगा। उनके पास कोई विकल्प नहीं हो सकता है और सभी को उसके आयोजनों के समक्ष समर्पण करना ही होगा। इसकी आज्ञा परमेश्वर द्वारा दी गई थी, और यह परमेश्वर का अधिकार है। परमेश्वर सब कुछ पर अधिकार रखता है, और सभी चीज़ों का क्रम और उनकी श्रेणी निर्धारित करता है, जिसमें प्रत्येक को, परमेश्वर की इच्छानुसार, प्रकार के अनुरूप वर्गीकृत किया जाता है, और उनका अपना स्थान प्रदान किया जाता है। चाहे वह कितनी भी बड़ी क्यों न हो, कोई भी चीज़ परमेश्वर से बढ़कर नहीं हो सकती है, और सभी चीजें परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति की सेवा करती हैं, और कोई भी चीज परमेश्वर की अवज्ञा करने या परमेश्वर से कोई भी माँग करने की हिम्मत नहीं करती है। इसलिए मनुष्य को भी सृजित प्राणी होने के नाते मनुष्य का कर्तव्य अच्छे से निभाना ही चाहिए। वह सभी चीजों का चाहे प्रभु हो या देख-रेख करने वाला हो, सभी चीजों के बीच मनुष्य का कद चाहे जितना ऊँचा हो, तो भी वह परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन एक अदना मानव भर है, और महत्वहीन मानव, सृजित प्राणी से अधिक कुछ नहीं है, और वह कभी परमेश्वर से ऊपर नहीं होगा। सृजित प्राणी के रूप में मनुष्य को सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे से निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और दूसरे विकल्पों को छोड़कर परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। वे जो परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करते हैं, उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं ढूँढ़ने चाहिए या वह नहीं ढूँढ़ना चाहिए जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से लालायित हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है। यदि तुम जिसकी खोज करते हो वह सत्य है, तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह सत्य है, और यदि तुम जो प्राप्त करते हो वह तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन है, तो तुम जिस पथ पर क़दम रखते हो वह सही पथ है। यदि तुम जिसे खोजते हो वह देह के आशीष हैं, और तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह तुम्हारी अपनी अवधारणाओं का सत्य है, और यदि तुम्हारे स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं होता है, और तुम देहधारी परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी समर्पित नहीं हो, और तुम अभी भी अस्पष्टता में जीते हो, तो तुम जिसकी खोज कर रहे हो वह निश्चय ही तुम्हें नरक ले जाएगा, क्योंकि जिस पथ पर तुम चल रहे हो वह विफलता का पथ है। तुम्हें पूर्ण बनाया जाएगा या त्याग दिया जाएगा यह तुम्हारे अपने अनुसरण पर निर्भर करता है, जिसका तात्पर्य यह भी है कि सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है।

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