केवल अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने से ही सच्चा बदलाव आ सकता है
अभी तुम सब लोग अपना कर्तव्य काफी उत्साहपूर्वक निभा रहे हो और थोड़ा-बहुत कष्ट सहने में भी सक्षम हो; इसलिए जब जीवन-प्रवेश का प्रश्न उठता है तो क्या तुम्हारे पास आगे बढ़ने का कोई रास्ता है? क्या तुम कोई नया प्रबोधन हासिल कर पाते हो या नई रोशनी देखते हो? परमेश्वर पर विश्वास करने वालों के लिए अपना कर्तव्य निभाने की तरह जीवन-प्रवेश भी अति महत्वपूर्ण मामला है; लेकिन तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा सको, स्वीकार्य मानक तक पहुँच सको, अपना कर्तव्य वफादारी से निभा सको—इन चीजों को हासिल करने का मार्ग क्या है? (सत्य का अनुसरण करना।) बिल्कुल सही, तुम्हें सत्य का अनुसरण करना होगा। सत्य के अनुसरण का तरीका क्या है? तुम्हें परमेश्वर के वचन और अधिक पढ़ने होंगे; केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाना होगा और सत्य हासिल करने के लिए अक्सर उनका अनुभव करना होगा, तभी तुम सत्य को समझ सकते हो। तो क्या सत्य समझने के लिए तुम्हें परमेश्वर के वचनों पर अमल के लिए पुरजोर प्रयास नहीं करना होगा? कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर पर विश्वास के इतने वर्षों में, मैंने परमेश्वर के अनेक वचन पढ़े हैं और वास्तव में कुछ सत्य समझा भी है, लेकिन जब मेरे साथ असामान्य चीजें घटती हैं तो मुझे रास्ता नहीं सूझता और मैं सत्य का अभ्यास करना नहीं जानता; मैं जिन चीजों को समझता हूँ और जिनके बारे में बात करता हूँ, उनका उपयोग क्यों नहीं कर पाता हूँ? इस समय मुझे एहसास होता है कि मैं तो बस शब्द और धर्म-सिद्धांत जानता हूँ और जब मेरे साथ कुछ घटित होता है तो मैं नहीं जानता कि सत्य का अभ्यास कैसे करूँ। मैं कितना दीन-हीन और लाचार हूँ।” कुछ लोग आम तौर पर संगति करते समय अनवरत शब्दों की झड़ी लगा देते हैं, यहाँ तक कि वे परमेश्वर के कुछ रटे-रटाए वचन सुना सकते हैं, इसलिए उन्हें लगता है कि वे सत्य समझते हैं, आध्यात्मिक हैं और उनके पास कुछ सत्य वास्तविकता है; लेकिन जब किसी दिन उनके साथ उनकी इच्छा के उलट कुछ घटित होता है तो वे परमेश्वर के बारे में धारणाएँ पालने लगते हैं। हो सकता है, समय-समय पर वे उसके बारे में शिकायतें भी करने लगें। उनके भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होने लगेंगे और वे चाहे जैसे भी प्रार्थना करें, अपनी समस्याएँ हल नहीं कर पाएँगे। जब दूसरे लोग उनके साथ सत्य पर संगति करते हैं तो वे कहते हैं : “मैं इस सिद्धांत को तुमसे बेहतर समझता हूँ। सत्य को समझने के मामले में मैं तुमसे आगे हूँ; सिद्धांत का प्रचार करने हुए तुमसे बेहतर बोलता हूँ; उपदेश मैंने तुमसे ज्यादा सुने हैं; मेहनत करने में तुमसे आगे हूँ; परमेश्वर पर विश्वास की बात हो तो मैं तुमसे भी पहले से विश्वास करता आ रहा हूँ। मुझे सिखाने की कोशिश मत करो; मैं सब कुछ समझता हूँ।” उन्हें लगता है कि वे सब कुछ समझते हैं लेकिन जब उनकी आकांक्षाएँ और कामनाएँ जोर मारने लगती हैं और वे अपने भ्रष्ट स्वभावों से नियंत्रित होने लगते हैं तो वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। वे आम तौर पर जिन आध्यात्मिक सिद्धांतों की शेखी बघारते हैं, उनसे उनकी परेशानियाँ हल नहीं हो पातीं। असल में इनका आध्यात्मिक कद बड़ा है या छोटा? उन्हें लगता है कि वे सत्य समझते हैं, तो फिर वे अपनी वर्तमान परेशानियाँ सुलझा क्यों नहीं पाते हैं? यह क्या मामला है? क्या तुम लोग अक्सर इसी प्रकार की समस्याओं से नहीं घिर जाते हो? यह एक ऐसी आम परेशानी है जिसमें विश्वासी जीवन-प्रवेश करते समय पड़ जाते हैं, और यह इंसान की सबसे बड़ी परेशानी है। अपने साथ कुछ घटित होने से पूर्व तुम्हें लग सकता है कि तुम्हें पहले ही परमेश्वर में विश्वास करते थोड़ा समय हो चुका है, तुम्हारे पास एक निश्चित आध्यात्मिक कद और आधार है, और जब दूसरे लोगों के साथ चीजें होती हैं तो तुम उनकी असलियत थोड़ी समझ लेते हो। जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो तो तुम काफी कष्ट भी सह सकते हो, बड़ी कीमत चुका सकते हो, और शारीरिक बीमारियों, खामियों और कमियों जैसी अपनी कई कठिनाइयों को दूर करने में सक्षम रहते हो; लेकिन सबसे कठिन मामला तो उन विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों को दूर करना है जिन्हें लोग अक्सर प्रकट करते हैं। “भ्रष्ट स्वभाव” ऐसा शब्द है जिससे लोग परिचित हैं, लेकिन हर कोई यह स्पष्ट रूप से नहीं जानता है कि वास्तव में भ्रष्ट स्वभाव क्या है, कौन-से खुलासे भ्रष्ट स्वभाव का हिस्सा होते हैं और कौन-कौन से विचार और कार्य भ्रष्ट स्वभाव की उपज होते हैं। अगर लोग यह नहीं समझते-बूझते कि भ्रष्ट स्वभाव क्या है या कौन-से कार्यकलाप भ्रष्ट स्वभाव के खुलासे हैं, तो क्या वे यह नहीं सोचते होंगे कि भले ही वे भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जी रहे हों, लेकिन जब तक वे पाप नहीं कर रहे हैं तब तक वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं? क्या तुम लोगों की ऐसी दशा है? (हाँ है।) यदि तुम बिल्कुल भी यह नहीं समझते-बूझते कि भ्रष्ट स्वभाव क्या है तो क्या तुम खुद को जान सकते हो? क्या तुम अपने ही भ्रष्ट स्वभाव को समझ सकते हो? बिल्कुल भी नहीं। यदि तुम यह नहीं जानते कि भ्रष्ट स्वभाव क्या होता है, तो क्या यह जान सकोगे कि सत्य को अभ्यास में लाने के लिए कार्य कैसे करना है, कौन-से कार्य सही हैं और कौन-से गलत? बिल्कुल भी नहीं। इसलिए जो लोग खुद को ही नहीं जानते, उन्हें तो जीवन-प्रवेश मिलने से रहा।
जीवन-प्रवेश का मार्ग कई दशाओं को स्पर्श करता है। तुम सभी लोग शायद इस शब्द “दशा” को जानते हो लेकिन इसका तात्पर्य क्या है? तुम इसे किस प्रकार समझते हो? (दशा ऐसे दृष्टिकोण और विचार हैं जो किसी व्यक्ति से तब छलकते हैं जब उसके साथ चीजें घटित होती हैं; यह उसकी वाणी, व्यवहार और पसंद-नापसंद को प्रभावित और नियंत्रित कर सकती है। ये सभी चीजें दशा होती हैं।) तुमने काफी हद तक ठीक कहा। कोई और है जो कुछ कहना चाहता है? (दशा का अर्थ है कि व्यक्ति किसी नकारात्मक और बिल्कुल असामान्य स्थिति में जी रहा है क्योंकि किसी विशेष अवधि में या विशेष मामले में उस पर किसी तरह का भ्रष्ट स्वभाव हावी है—जैसे, जब उसकी सख्ती से काट-छाँट की जाती है या जब वह किसी परेशानी से दो-चार होता है।) (हाल ही में अपना कर्तव्य निभाने के दौरान कुछ सफलता मिलने पर मैं एक तरह की आत्म-संतुष्ट और लापरवाह दशा में चला गया। मुझे लगता था कि मैं बदल चुका हूँ, मुझे सत्य वास्तविकता मिल चुकी है और मुझे यकीनन परमेश्वर स्वीकृति देगा; लेकिन हकीकत में, मैं अब भी परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत दूर था। अब जाकर मेरी समझ में आया कि यह तो अहंकार और दंभ की दशा थी।) तुम लोगों ने जिन दशाओं पर चर्चा की, वे सभी नकारात्मक हैं, तो क्या इसी तरह सही और सकारात्मक दशाएँ भी होती हैं? (बिल्कुल। जैसे, जब मैं पूरी जी-जान लगाकर परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहता हूँ तो मैं अपने दैहिक सुखों से विद्रोह और सत्य का अभ्यास करने में समर्थ रहता हूँ : ऐसी दशा सकारात्मक होती है।) अभी तक तुम लोगों ने कुछ दशाओं का वर्णन भर किया है लेकिन दशा को सचमुच परिभाषित नहीं किया है। इसलिए तुम लोगों ने जो कुछ कहा है, उसके आधार पर आओ अब हम यह निचोड़ निकालें कि कोई भी दशा वास्तव में क्या होती है। “दशा” का वास्तविक तात्पर्य क्या है? यह एक प्रकार का दृष्टिकोण या ऐसी स्थिति है जो कुछ घटित होने पर लोगों में उत्पन्न होती है, साथ ही इसमें ऐसे विचार, मनोदशाएँ और नजरिए भी शामिल हैं जो इस स्थिति से उपजते हैं। जैसे, कर्तव्य निभाने के दौरान जब तुम्हारी काट-छाँट होती है तो तुम उदास होकर नकारात्मक दशा में चले जाओगे। उस समय तुमसे प्रकट होने वाले दृष्टिकोण, रवैये और नजरिए—ये तुम्हारी दशा से जुड़े कुछ विवरण होते हैं। क्या यह उन चीजों को स्पर्श नहीं करता जिन्हें तुम आम तौर पर अनुभव करते हो? (करता है।) यह लोगों के जीवन से जुड़ा है; कुछ ऐसा जिससे हर कोई खुद को जोड़कर देख सकता है—जिसे वह महसूस और अनुभव कर सकता है और जिसके संपर्क में अपने जीवन में हर दिन आ सकता है। तो तुम लोगों को क्या लगता है : नकारात्मक दशा में, किसी व्यक्ति से क्या चीजें छलकती हैं? (गलतफहमी, टालमटोल, खुद के बारे में फैसला सुनाना और कोई भी झटका लगने के बाद पूरी तरह हथियार डाल देना; अगर मामला गंभीर हो तो कोई पूरी तरह अपनी जिम्मेदारियों से भाग भी सकता है।) जब बात गंभीर हो और वे अपनी जिम्मेदारियों से भागना चाहें तो इसे रवैया कहते हैं या दृष्टिकोण? या फिर कुछ और? (यह एक तरह की हालत और मनःस्थिति है।) यह मुख्य रूप से हालत और मनःस्थिति है। ऐसे समय में, कर्तव्य निभाते हुए किसी व्यक्ति का रवैया क्या होता है? (वे नकारात्मक और कमजोर पड़ जाते हैं, उनमें कोई प्रेरणा नहीं होती और वे आधे-अधूरे मन से काम करते हैं।) यह सच्ची वस्तुस्थिति को स्पर्श करता है। “उनमें कोई प्रेरणा नहीं है” यह निरर्थक कथन है; तुम्हें वास्तविक स्थिति के बारे में बात करनी चाहिए। जब लोग किसी प्रेरणा के बिना अपना कर्तव्य निभाते हैं तो उनके दिल में क्या विचार आते हैं? इस समय वे कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं? (वे अनमने होकर कर्तव्य निभाते हैं; आधे-अधूरे मन से कार्य करते हैं।) लेकिन यह स्वभाव नहीं बल्कि परिभाषा है जो तुम पर तब लागू होती है जब तुम कार्य कर चुके होते हो; यह तो कार्य करने का तरीका है। लेकिन तुम किस वजह से अनमने होकर कार्य करने को बाध्य हुए, यह जानने के लिए क्या तुम्हें और गहराई में नहीं जाना होगा? काफी गहराई में उतरकर ही तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव से पर्दा हटा पाओगे। अनमने होकर काम करना भ्रष्ट स्वभाव का ही प्रकटावा है। तुम अपने दिल में जिस ढंग से सोचते हो वह तुम्हें अपना कर्तव्य अनमने होकर निभाने की राह पर ले जा सकता है और तुम्हें पहले से कम उत्साही बना सकता है। तुम्हारा वह विचार भ्रष्ट स्वभाव है और जो चीज तुम्हें इस विचार की ओर ले गई वह तुम्हारी प्रकृति है। कुछ लोगों को अपना कर्तव्य निभाते हुए काट-छाँट का सामना करना पड़ता है तो वे कहते हैं : “अपनी सीमित क्षमताओं के साथ मैं आखिर कर ही कितना पाऊँगा? मैं ज्यादा कुछ नहीं समझता हूँ, इसलिए अगर मैं यह काम ठीक से करना चाहता हूँ तो क्या आगे मुझे सीखते रहना नहीं पड़ेगा? मेरे लिए क्या यह आसान होगा? परमेश्वर लोगों को बिल्कुल भी नहीं समझता है; क्या यह आसमान से तारे तोड़कर लाने को कहने जैसा नहीं है? जो मुझसे ज्यादा जानता है, उसे यह काम करने देना चाहिए। मैं तो इसे सिर्फ इसी तरह कर सकता हूँ—इससे ज्यादा नहीं कर सकता।” लोग लगातार ऐसी चीजें कहते और सोचते हैं, है ना? (बिल्कुल।) हर कोई इसे स्वीकार सकता है। कोई भी इंसान पूर्ण नहीं है, कोई भी फरिश्ता नहीं होता है; लोग शून्य में नहीं रहते हैं। हर किसी के ऐसे विचार और भ्रष्ट खुलासे होते हैं। हर कोई ऐसी चीजें प्रकट करने और अक्सर ऐसी दशाओं में रहने में सक्षम है और वे ऐसा अपनी इच्छा से नहीं करते; वे इस तरह सोचने से खुद को रोक नहीं पाते। अपने साथ कुछ घटित होने से पहले लोग काफी सामान्य दशा में होते हैं, लेकिन उनके साथ कुछ घटित होने पर चीजें बदल जाती हैं—उनसे स्वाभाविक रूप से नकारात्मक दशा बड़ी आसानी से प्रकट हो जाती है, बिना किसी बाधा या रोक-टोक के, बिना दूसरों के बहकावे या उकसावे में आए हुए; उनके सामने आने वाली चीजें अगर उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं होती हैं, तो ये भ्रष्ट स्वभाव हर घड़ी और हर जगह प्रकट होते रहते हैं। वे हर घड़ी और हर जगह क्यों प्रकट हो पाते हैं? इससे सिद्ध होता है कि इस प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट प्रकृति लोगों के अंदर होती है। लोगों के भ्रष्ट स्वभाव उन पर दूसरों द्वारा नहीं थोपे जाते, न ही दूसरे लोग इसे उनके अंदर बैठाते हैं, न ही दूसरों द्वारा सिखाए, भड़काए या उकसाए जाते हैं; बल्कि लोग खुद इसे धारण करते हैं। अगर लोग इन भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं करते, तो वे सही और सकारात्मक दशाओं में नहीं जी सकते हैं। ये भ्रष्ट स्वभाव अक्सर क्यों प्रकट हो जाते हैं? दरअसल तुम सभी लोग पहले से जानते हो कि ये दशाएँ गलत और असामान्य हैं, इन्हें बदलने की जरूरत है; अब तक, तुम लोगों ने इन भ्रष्ट स्वभावों को नहीं त्यागा या इन गलत विचारों और दृष्टिकोणों को नहीं छोड़ा, और तुम्हारी दशाओं में अभी तक कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं हुआ है। दस-बीस साल बाद भी तुममें अभी तक कोई बदलाव नहीं आया है, और तुम उसी पहले वाली दशा में हो जिसमें तुमने भ्रष्टता दिखाई थी, जिसमें कोई खास कमी नहीं आई है, तो समस्या क्या है? इससे क्या साबित होता है? इतने साल बाद भी तुममें से अधिकतर लोगों में कोई विकास नहीं हुआ है; तुम लोग केवल कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत समझते हो लेकिन सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते और अनुभवजन्य गवाही नहीं दे पाते हो; इसका कारण यह है कि इन सारे सालों में तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव में महत्वपूर्ण बदलाव नहीं हुआ है। इससे साबित होता है कि तुम लोगों का जीवन अनुभव बहुत ही उथला है, उसमें कोई गहराई नहीं है; यकीन के साथ कहा जा सकता है कि तुम्हारा वर्तमान आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और तुम्हारे पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं है। मैंने जो कहा, क्या तुम लोग उसे स्वीकार करने में सक्षम हो? जिनके पास थोड़ा-सा भी व्यावहारिक अनुभव है, उन्हें मेरे वचन समझ में आ जाने चाहिए, लेकिन जो सत्य नहीं समझते और अभी यह भी नहीं जानते कि जीवन-प्रवेश क्या है, वे शायद इन वचनों का अर्थ नहीं समझ सकते हैं। मैंने तुम लोगों से यह क्यों पूछा कि दशा क्या होती है? अगर तुम लोग यह नहीं समझते कि दशा क्या है, तो तुम बिल्कुल नहीं समझ पाओगे कि मैं क्या कह रहा हूँ; तुम केवल वचन सुनते रहोगे और उन्हें सही मानते रहोगे। अगर तुम्हारा यही दृष्टिकोण है तो इससे साबित होता है कि तुम्हारे पास कोई अनुभव नहीं है और तुम परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते हो। अगर लोग सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहते हैं, सच्चा जीवन-प्रवेश करना चाहते हैं तो उन्हें कुछ दशाओं को समझना ही होगा; उन्हें अपनी समस्याओं की समझना होगा और इन पर नियंत्रण रखना होगा, और जानना होगा कि वे अपने वास्तविक जीवन में किस प्रकार की दशा में हैं, क्या यह दशा सही है या गलत है, जब लोग गलत दशा में होते हैं तो वे किस प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं और इस भ्रष्ट स्वभाव का सार क्या है—उन्हें ये सारी चीजें समझनी चाहिए। अगर तुम इन चीजों को नहीं समझ-बूझ पाते तो एक बात तो यह रही कि तुम्हें यह नहीं पता कि अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने, खुद को बदलने की शुरुआत कहाँ से करें; दूसरी बात यह हुई कि तुम नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने या सत्य में प्रवेश करने के लिए शुरुआत के लिए कहाँ से करें। क्या तुम लोगों को अक्सर निम्नलिखित दशा का सामना करना पड़ता है? किसी चीज के बारे में मुझे सुनने के बाद तुम केवल उस चीज के बारे में जानते हो लेकिन यह नहीं जानते कि इसका संदर्भ किस दशा से है, और तुम इसे अपने ऊपर लागू भी नहीं कर पाते हो? (हम इसका सामना करते हैं।) इससे पता चलता है कि तुम्हारा अनुभव अभी उस मुकाम तक नहीं पहुँचा है। मैं जिस बारे में बात करता हूँ अगर उसका तुम लोगों से वास्ता है, और तुम्हारे जीवन से करीबी संबंध है—जैसे, कर्तव्य निभाते हुए रोज संपर्क में आने वाली चीजों या ऐसे भ्रष्ट स्वभावों की बात जो कर्तव्य निभाते समय लोगों से प्रकट होते हैं या लोगों के इरादों को छूनी वाली चीजें, अहंकारी स्वभाव, उनका अनमना होना या कर्तव्य निभाने के दौरान के उनके रवैये की बात—जब तुम इन्हें सुनते हो तो इन्हें शायद खुद पर लागू कर पाते हो। अगर मैं इस बारे में अधिक गहराई से बात करूँ तो ऐसी भी चीजें होती हैं जिन्हें तुम लोग शायद खुद पर लागू न कर सको। क्या कभी-कभी ऐसा होता है? (होता है।) जिन चीजों को तुम खुद पर लागू नहीं कर सकते, क्या तुम उन्हें मात्र सिद्धांत मानकर सुनते हो, उन्हें एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकलने देते हो? तो फिर तुम जिन चीजों को अपने पर लागू कर सकते हो, उन्हें कैसे समझना चाहिए? (आत्म-चिंतन करके खुद को जानना और अपनी भ्रष्टता दूर करने के लिए सत्य खोजना।) अनुभव करने का यही सही तरीका है।
यह कहना कि अपने भ्रष्ट स्वभाव पर आत्म-चिंतन करना और इसे जानना महत्वपूर्ण है, यह एक व्यापक कथन है। तुम्हें किस तरह वास्तव में आत्म-चिंतन कर खुद को जानना चाहिए? इसका मार्ग यह है : जब तुम्हारे साथ कुछ घटित हो तो तुम्हें यह देखना चाहिए कि तुम्हारा दृष्टिकोण और रवैया क्या है, तुम्हारे विचार क्या हैं और तुम किस नजरिए से इस समस्या को देखते, निपटाते और हल करते हो। इन चरणों के जरिए तुम आत्म-चिंतन कर अपने भ्रष्ट स्वभाव को जान सकते हो। इस प्रकार के चिंतन और आत्म-ज्ञान का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य अपनी भ्रष्ट दशा को बेहतर ढंग से समझना और फिर अपनी समस्याएँ दूर करने और स्वभाव बदलने के लिए सत्य की खोज करना है। तो तुम सब लोग अभी किस दशा में हो? तुम खुद को कितना अधिक और कितनी गहराई तक जानते हो? तुम इस बारे में कितना समझते हो कि तुम अलग-अलग समय में या जब तुम्हारे साथ विभिन्न चीजें घटती हैं तो किस दशा में होते हो? क्या तुमने इस बारे में कोई मेहनत या तैयारी की है? क्या तुमने किसी जीवन-प्रवेश का अनुभव किया है? (जब मेरे साथ अधिक स्पष्ट चीजें या बड़ी घटनाएँ घटती हैं तो मैं छोटे-छोटे मसलों को आसानी से भुलाकर अपने कुछ प्रकटावों को समझ सकता हूँ। कभी-कभी मैं नहीं जानता कि मैं गलत दशा में हूँ।) जब तुम अनभिज्ञ होते हो तो यह किस तरह की दशा है? तुम किस तरह की स्थिति में अनभिज्ञ रहोगे? (परमेश्वर के वचनों में मौजूद सत्य की दिशा में प्रयास किए बिना, अपना कर्तव्य ऐसे करना जैसे कोई आम काम हो, इसलिए अगर कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो भी जाए तो मुझे पता नहीं चलेगा।) अपने कर्तव्य को सिर्फ काम करने के तौर पर निभाना, इसे एक प्रकार की नौकरी, कार्य या जिम्मेदारी जैसा मानना, इसे जीवन-प्रवेश से जोड़े बगैर जड़वत होकर करते रहना एक बहुत सामान्य दशा है; यह अपने कर्तव्य को जीवन-प्रवेश का मार्ग या तरीका मानने के बजाय केवल एक ऐसा मामला मानना है जिसे केवल निपटाना भर है। यह बिल्कुल काम पर जाने जैसा है : कुछ लोग अपने काम को एक पेशे के रूप में लेते हैं, इसे अपने जीवन में शामिल कर अपने हितों और शौक से, साथ ही अपने जीवन के आदर्शों और लक्ष्यों से जोड़ते हैं। जबकि कुछ अन्य लोग अपने काम पर जाने को एक जिम्मेदारी के रूप में लेते हैं—वे काम पर जाए बिना नहीं रह सकते। वे रोजाना तय समय पर काम पर पहुँचते हैं ताकि अपने परिवार को पालने के लिए कुछ पैसा कमा सकें लेकिन उनके कोई जीवन लक्ष्य या आदर्श नहीं होते हैं। इस समय, क्या तुममें से अधिकतर लोग इसी दशा में नहीं हो? तुम्हारा कर्तव्य परमेश्वर के वचनों या सत्य से कटा हुआ है। भले ही तुम अपनी त्रुटियों को पहचान लो, तुम कोई वास्तविक बदलाव हासिल नहीं करते हो; तुम फिर से जीवन-प्रवेश के मामलों पर तभी सोचते हो जब तुम्हारे दिल में थोड़ी-सी ग्लानि होती है। बाकी समय तुम जो चाहते हो, अमूमन वही करते हो। जब तुम खुश होते हो या तुम्हारा मिजाज बहुत अच्छा होता है तो थोड़ा बेहतर काम कर लेते हो, लेकिन अगर किसी दिन तुम्हारी इच्छा के विपरीत कुछ हो जाए या कोई दुःस्वप्न तुम्हारा मिजाज बिगाड़ दे तो इससे तुम्हारी मनःस्थिति कई-कई दिनों तक प्रभावित हो सकती है, साथ ही इससे तुम्हारे कर्तव्य के परिणाम भी प्रभावित हो सकते हैं। फिर भी, तुम्हारे दिल में इसे लेकर कोई सजगता नहीं है; तुम उलझे हुए हो और उन दस-पंद्रह दिनों तक चीजों को रोके रखते हो, बस काम चलाने के लिए अनमने होकर काम निपटाते रहते हो। जब कोई ऐसी दशा में होता है तो क्या उसके जीवन-प्रवेश में ठहराव नहीं आ जाता? अगर जीवन-प्रवेश रुक जाता है तो क्या लोगों के कार्यकलाप और उनके द्वारा निभाया जा रहा कर्तव्य परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं? (नहीं।) क्यों नहीं? इस मामले में, उनके कार्यकलापों और कर्तव्य का सत्य से कोई वास्ता नहीं होता और ये परमेश्वर की गवाही देने के बराबर नहीं होते, इसलिए उनका इस तरह से कर्तव्य निभाना परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकता है। संभव है कि तुम कुछ समय तक अपने कर्तव्य पालन में कोई गलती न करो, इसलिए तुम सोचते हो कि इस तरह अपना कर्तव्य निभाते रहना पूरी तरह उचित है; जब तक तुम अपना काम छोड़े बिना और दूसरी चीजों पर विचार किए बिना अपने कर्तव्य में हमेशा व्यस्त रहते हो, तब तक तुम्हें लगता है कि इस तरह अपना कर्तव्य निभाते जाना ठीक है। क्या ऐसा रवैया अनमने होने का उदाहरण नहीं है? अगर तुम सत्य सिद्धांतों से कटे रहकर कार्य मात्र से संतुष्ट हो तो क्या अपने कर्तव्य निर्वहन में सफलता पा सकते हो? जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा तो तुम उसे अपना हिसाब कैसे दोगे? अगर तुम अपना कर्तव्य निभाते समय जिम्मेदारी नहीं लेते, सत्य की खोज नहीं करते और सिद्धांतों के अनुसार मामलों को नहीं संभालते हो तो क्या यह स्वीकार्य मानक के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना है? क्या इसे परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी? अगर तुम अचानक किसी परीक्षण का सामना करते हो या तुम्हारी काट-छाँट होती है, और तब जाकर तुम्हें यह बोध हो कि न्याय और ताड़ना का कारण यह है कि तुमने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया है, जिससे तुम अचानक सपने से जागकर अंततः कुछ दिन के लिए अपने में सुधार ले आओ, तो क्या यह जीवन-प्रवेश के लिए एक सामान्य दशा है? (नहीं।) काट-छाँट के बाद तुममें दिखने वाला बदलाव कोड़े पड़ने के दर्द के समान है। तुम्हें अपना बहुत कम ज्ञान है। बाहर से लग सकता है कि तुम लोग थोड़े परिपक्व हो गए हो और काट-छाँट, न्याय और ताड़ना से कुछ समझ प्राप्त कर चुके हो। लेकिन व्यक्तिपरक रूप से कहें तो अगर लोग अपने ही भ्रष्ट स्वभावों और अपनी विभिन्न भ्रष्ट दशाओं को बिल्कुल नहीं समझ-बूझ पाते हैं और अगर उन्होंने इन चीजों की न तो कभी सावधानी से जाँच की है, न कभी इन समस्याओं का समाधान किया है तो क्या वे जीवन-प्रवेश के लिए सामान्य दशा पा सकते हैं? क्या वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? मुझे नहीं लगता कि उनके लिए यह हासिल करना आसान है। कुछ लोग कहते हैं : “मैं अपना कर्तव्य निभाने के मामलों में सिद्धांतों को समझने में सक्षम हूँ; क्या यह सत्य को समझना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना नहीं है?” नियमों का पालन आसान है और बाहरी कार्यकलाप करते रहना आसान है, लेकिन यह न तो सत्य का अभ्यास करने के बराबर है, न ही सिद्धांतों के अनुसार मामलों को संभालने के समतुल्य है। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हें रोज सुबह पाँच बजे जागना और रात दस बजे सोना है; क्या तुम अपने दैनिक जीवन में इस सिद्धांत का पालन कर पाओगे? (नहीं।) पाँच से दस बजे की दिनचर्या बहुत अच्छी है; यह लोगों की प्राकृतिक लय के अनुरूप है और उनके शरीर के लिए भी अच्छी है, लेकिन इसे स्वीकार करना उनके लिए मुश्किल क्यों है? यहाँ एक परेशानी है। इसका यह आशय नहीं है कि लोग इस तर्क को नहीं जानते या वे इस सहज ज्ञान से परिचित नहीं हैं—वे इसे बखूबी जानते हैं—तो वे इसे स्वीकार क्यों नहीं कर पाते हैं? लोग इस समय सारिणी का पालन क्यों नहीं करना चाहते, वे इस जीवन पद्धति और दिनचर्या के अनुसार जीने के अनिच्छुक क्यों हैं? यह लोगों की शारीरिक अभिरुचि से जुड़ा है। क्या जल्दी उठने की इच्छा न करना ज्यादा सोने की चाह जैसा ही नहीं है, अपनी शारीरिक पसंद-नापसंद और शारीरिक भावनाओं को मानने की इच्छा के समान नहीं है? जल्दी उठना लोगों के शारीरिक आराम में खलल डालता है, इसलिए वे इसके लिए तैयार नहीं होते और इससे उन्हें दिक्कत होती है। तो क्या लोग इस तथ्य को स्वीकार कर सकते हैं कि “जल्दी उठना शरीर के लिए अच्छा है”? वे नहीं स्वीकार सकते। लोग अपने हित का इतना लेशमात्र अंश भी नहीं छोड़ पाते हैं, लेकिन उन्हें तब भी अपने शरीर को अनुशासित करना होगा, प्रार्थना करनी होगी और अपने विचारों पर काम करना होगा। उन्हें उनके माहौल के जरिए भी प्रभावित करना होगा : वे तभी उठते हैं जब वे दूसरे लोगों को जागा हुआ देखते हैं और अपनी नींद की चाहत से शर्मिंदा होते हैं। वे रोज जल्दी उठने को मजबूर होते हैं और इससे खास तौर पर कुढ़ते हैं। ऐसे विचार और दशाएँ उत्पन्न होने का कारण क्या? लोग शारीरिक ऐशोआराम के लिए लालायित रहते हैं, वे जैसा चाहते हैं वैसा करना चाहते हैं, और वे आलस्य और आसक्ति के विचार पालते हैं। पहली बात, वे अपने शरीर की नियमित चर्या को नहीं मानते हैं और दूसरी बात, वे जो कर्तव्य निभा रहे हैं, उसके बारे में नहीं सोचते; बल्कि वे पहले अपनी शारीरिक चाहतों को तुष्ट करने पर ध्यान देते हैं। निचोड़ यह है कि मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में कुछ ऐसा होता है जिसके कारण वे हमेशा शारीरिक सुखों में रमना और असंयमित रहना चाहते हैं। अगर उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे तर्क-वितर्क की कोशिश करते हैं, हमेशा अपना बचाव करते हैं, जो थोड़ा अनुचित है। जल्दी उठना छोटा-सा मामला है जिसका लोगों के नफे-नुकसान से कोई मतलब नहीं है—अगर तुम ज्यादा देर तक सोने की अपनी इच्छा को वश में कर सकते हो तो इसे हासिल कर सकते हो—लेकिन थोड़ी देर और आराम फरमाने का छोटा-सा शारीरिक लाभ छोड़ना लोगों के लिए बहुत मुश्किल है। जब तुम्हारी ज्यादा सोने की चाहत तुम्हारे काम पर असर डालने लगती है तो तुम जान जाते हो कि यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है; फिर भी आत्म-चिंतन करना तो दूर रहा, तुम्हारे दिल में शिकायतें भी घर कर लेती हैं और तुम दुःखी होकर हमेशा यही सोचते रहते हो : “ऐसा क्यों है कि मैं कभी थोड़ा-सा भी मजा नहीं ले सकता, या थोड़ी-सी देर के लिए जो चाहूँ वो नहीं कर सकता?” कुछ लोगों के मन में अक्सर ऐसे विचार आते हैं। तो इस दशा को कैसे दूर करना चाहिए? तुम्हें प्रार्थना करनी होगी, अपनी शारीरिक परेशानियों को वश में करने लायक बनना होगा, परिपक्व होने का प्रयास करना होगा, आराम की लालसा छोड़नी होगी, तुम्हें कष्ट सहने लायक होना चाहिए, अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान रहना चाहिए, जो मन में आए वह नहीं करना चाहिए और आत्म-संयम सीखना चाहिए। क्या खुद को संयमित करना सरल है? (नहीं।) क्यों नहीं है? (क्योंकि लोग संयमित नहीं होना चाहते, वे नहीं चाहते कोई उन्हें संचालित करे और दैहिक सुखों में रमना चाहते हैं।) जो लोग आत्म-संयम को नहीं समझ सकते, जो खुद को संयमित नहीं कर पाते, जिनका आत्म-संयम क्षीण है और जो हमेशा स्वेच्छाचारी होकर काम करते हैं और फंतासी में ही रमे रहते हैं, उनमें अपरिपक्व मानवता होती है, भले ही उनकी उम्र कुछ भी हो। जब यह छोटा-सा मामला लोगों के हितों को छेड़ता है तो उनका भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो जाता है। जब ऐसा होता है तो उन्हें इसके समाधान के लिए सत्य खोजने की जरूरत है; उन्हें अपनी भ्रष्टता की समस्या को दूर करने के लिए खुद को जानने और सत्य को समझने की जरूरत है। जब लोगों का भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध कर दिया जाता है, तो वे अनजाने में ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लेते हैं, उनका जीवन संवृद्धि कर परिपक्व हो जाता है और उनका जीवन-स्वभाव बदल जाता है।
मैंने अभी-अभी एक सरल उदाहरण दिया कि दैनिक दिनचर्या जैसी छोटी-सी चीज किस तरह लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के साथ ही यह भी प्रकट कर सकती है कि उनके दिमाग में असल में क्या चल रहा है; यह सब अब उजागर किया जा चुका है। इन भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करने से तुम्हें पता चला गया है कि शैतान वास्तव में तुम्हें बुरी तरह भ्रष्ट कर चुका है। यद्यपि तुमने बरसों से परमेश्वर में विश्वास किया है और थोड़ा-सा सिद्धांत भी समझते हो, फिर भी तुमने अभी तक अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं छोड़ा है। तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभाते हो, तुम इसे स्वीकार्य मानक के अनुसार नहीं कर पाते; तुम चाहे जो भी मामले संभालते हो, तुम इन्हें सिद्धांतों के अनुरूप नहीं कर पाते; तुम अभी परमेश्वर के समक्ष सच्चा समर्पण करने वाले नहीं बने हो। तो लोगों की वर्तमान दशाओं के आधार पर प्रश्न उठता है कि क्या वे परमेश्वर द्वारा वास्तव में बचा लिए गए हैं? अभी तक नहीं, क्योंकि उन्होंने अभी तक अपने भ्रष्ट स्वभाव नहीं छोड़े हैं, उनके सत्य का अभ्यास अभी बहुत सीमित है और वे परमेश्वर के सामने सच्चा समर्पण करने से बहुत दूर हैं; कुछ लोग तो शैतान या इंसान का अनुसरण तक कर सकते हैं। ये तथ्य यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि लोगों का आध्यात्मिक कद वास्तव में अभी तक उन्हें बचा लिए जाने के स्तर तक नहीं पहुँचा है। हरेक को अपनी सच्ची दशा के आधार पर खुद को श्रेणीबद्ध करना चाहिए और यह तय करना चाहिए कि वह किस प्रकार का इंसान है। अपने भ्रष्ट स्वभावों के बारे में आत्म-चिंतन करने से कुछ लोगों को अपनी विभिन्न आंतरिक दशाओं का ज्ञान हो जाता है, साथ ही वे अपने साथ घटित होने वाली विभिन्न चीजों से उपजने वाले विचारों, दृष्टिकोणों और रवैयों को भी जान लेते हैं। कुछ लोग देखते हैं कि वे अहंकारी और दंभी हैं, उन्हें दिखावा करना और अहंकार के रथ पर सवार होकर खुद को दूसरों से श्रेष्ठ आँकना पसंद है। कुछ लोग देखते हैं कि वे कुटिल और धोखेबाज हैं, हर तरह के गुप्त हथकंडे अपनाते हैं और दुर्भावना से भरे हैं। कुछ अन्य लोग देखते हैं कि वे अपने लाभ को सर्वोपरि रखते हैं, दूसरों का फायदा उठाना पसंद करते हैं और स्वार्थी और अधम हैं। कुछ लोगों को थोड़ी देर आत्म-चिंतन कर एहसास होता है कि वे पाखंडी हैं। अन्य लोग सोचा करते थे कि वे प्रतिभाशाली और काबिल हैं, उनकी अपने पेशे पर अच्छी पकड़ है, लेकिन कुछ देर आत्म-चिंतन करके उन्हें एहसास होता है कि उनमें एक भी सकारात्मक गुण नहीं है; वे प्रतिभाहीन तो हैं ही, अपने कार्यों में मूर्ख और सिद्धांतहीन भी हैं। कुछ लोग कुछ देर आत्म-चिंतन कर यह एहसास कर लेते हैं कि वे तुच्छ, बाल की खाल निकालने वाले लोग हैं; दूसरे लोगों को ऐसी कोई भी बात अस्वीकार्य है जो उनके हितों को छेड़ती हो, और वे सहनशीलता के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं। क्या आत्म-चिंतन के जरिए इस तरह ज्ञान प्राप्त करके तुम्हें जीवन-प्रवेश में मदद मिलेगी? (मिलेगी।) इससे कैसे मदद मिलेगी? (इससे हमारा हृदय सत्य खोजने वाला बन सकेगा। अगर हम इन समस्याओं को नहीं जानेंगे तो हमें यह पता नहीं चलेगा कि हम अक्सर भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं, अपनी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोज सकने की तो बात ही छोड़ो।) (अगर हम इनके बारे में नहीं जानेंगे तो हमें यह पता नहीं चलेगा कि हम दयनीय स्थिति में हैं। इन्हें जान लेने के बाद हम अपनी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजना चाहेंगे। हम अपने भ्रष्ट स्वभाव की बाध्यताओं को उखाड़ फेंकने को तैयार होंगे और परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण करने के लिए सत्य खोजना चाहेंगे।) मान लो किसी व्यक्ति को लगता है कि वह काफी अच्छा, तीव्र न्याय-भावना वाला, उदार, प्रतिभाशाली, सहनशील, दयावान, ईमानदार और खासकर दूसरों के प्रति समर्पित है, और यह भी है कि उसके भ्रष्ट स्वभाव में सामान्य लोगों के समान ही अहंकार, आत्म-तुष्टता, ईर्ष्या और द्वेष जैसे छोटे-मोटे नुक्स हैं, लेकिन वह यह भी सोचता है कि इन छोटे-मोटे दोषों को छोड़ दें तो वह पूर्ण है और दूसरों की अपेक्षा अधिक सम्माननीय, श्रेष्ठ और स्नेही है—अगर कोई हमेशा ऐसी दशा में रहता है तो क्या तुम्हें लगता है कि वह परमेश्वर के सामने आकर सच्चे मन से पश्चात्ताप कर सकता है? (नहीं।) किस परिस्थिति में कोई व्यक्ति खुद को जानने के लिए सचमुच परमेश्वर के सामने आ सकता है, उसके सामने सच्चे मन से दंडवत कर कह सकता है, “हे परमेश्वर, मुझे शैतान बहुत भ्रष्ट कर चुका है। मैं अपने हितों से जुड़ी कोई भी चीज छोड़ने को तैयार नहीं हूँ। मैं ऐसा स्वार्थी और अधम हूँ, जिसमें एक भी सकारात्मक गुण नहीं है। मैं सच्चा पश्चात्ताप करने और एक वास्तविक इंसान की तरह जीने को तैयार हूँ—मैं चाहता हूँ कि परमेश्वर मुझे बचा ले”? किसी व्यक्ति में सच्चा पश्चात्ताप करने की इच्छा जाग्रत होना अच्छी बात है; तब उसके लिए परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग पर प्रवेश कर उद्धार पाना सरल हो जाता है।
मान लो कि कोई व्यक्ति एक पेंटिंग बनाता है—उसे यह हर दृष्टि से उत्तम लगती है और वह संतुष्ट है, लेकिन एक दिन कोई और व्यक्ति कह देता है कि उसकी पेंटिंग में कई कमियाँ हैं। वह व्यक्ति इसका ब्योरा दे, उससे पहले ही चित्रकार को लगता है कि यह तो उस पर हमला है। वह तिलमिलाकर तुरंत जवाब देता है : “तुम कहते हो कि मुझे ठीक से पेंटिंग बनानी नहीं आती है। तुम तो मुझसे भी बुरे चित्रकार हो और तुम्हारे चित्रों में कहीं ज्यादा नुक्स हैं। कोई उन्हें देखना तक नहीं चाहता!” वह ऐसी बात जुबान पर कैसे ला पाता है? वह ऐसी कौन-सी दशा में है जिससे ऐसी बात कह लेता है? ऐसी छोटी-सी बात उसे इतना आग बबूला कर उसमें प्रतिशोध वाली आक्रामक मानसिकता कैसे उत्पन्न कर सकती है? इसका कारण क्या है? (वह सोचता है कि उसकी पेंटिंग हर लिहाज से उत्तम है और किसी के यह कहने से कि इसमें खामियाँ हैं, वह कुपित हो जाता है।) यानी कि तुम उसकी उत्तम छवि को खराब नहीं कर सकते। अगर उसे लगता कि कोई चीज अच्छी है तो बेहतर यही है कि तुम उसमें कोई दोष न निकालो या कोई शंका न जताओ। तुम्हें कहना होगा : “तुमने कमाल की पेंटिंग बनाई है। इसे मास्टरपीस कह सकते हैं। मुझे नहीं लगता कि बड़े से बड़े चित्रकार भी तुमसे टक्कर ले सकते हैं। अगर तुम इस पेंटिंग का लोकार्पण करते हो तो यह कला जगत में यकीनन तहलका मचा देगी और कई पीढ़ियों के लिए बेशकीमती धरोहर बन जाएगी।” तब वह खुश हो जाएगा। ये खुशी और रोष एक ही व्यक्ति की अभिव्यक्तियाँ हैं, तो फिर ऐसा क्यों है कि वह दो भिन्न खुलासे व्यक्त करता है? इनमें से कौन-सा उसका भ्रष्ट स्वभाव है? (दोनों ही।) इनमें से कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव ज्यादा गंभीर है? (दूसरा वाला।) दूसरा स्वभाव उसके पाखंड, अज्ञान और मूर्खता को प्रकट करता है। जब कोई यह कहता है कि तुम खराब चित्र बनाते हो तो तुम्हें इतना बुरा क्यों लगता है कि तुममें नफरत, आक्रामकता, प्रतिशोध की मनोवृत्ति घर कर लेती है? जब कोई तुम्हारे लिए चंद चिकनी-चुपड़ी बातें कहता है तो तुम इतने मुदित क्यों हो जाते हो? तुम इस कदर आत्म-संतुष्ट क्यों हो? क्या ऐसे लोग निपट निर्लज्ज नहीं होते? उनमें शर्म नाम की चीज नहीं होती; वे मूर्ख भी होते हैं और दयनीय भी। हालाँकि ये शब्द सुनने में बहुत अच्छे नहीं लगते, फिर भी बात तो यही है। लोगों में अज्ञानता, मूर्खता और कुरूप हाव-भाव कहाँ से आते हैं? ये लोगों के भ्रष्ट स्वभाव से आते हैं। अगर इस तरह की चीजें घटित होने पर किसी का ऐसा रवैया होता है तो उनके ये खुलासे ऐसे तर्क और विवेक नहीं हैं जो किसी सामान्य मानवता वाले व्यक्ति में होने चाहिए, न ही ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें सामान्य मानवता वाले किसी व्यक्ति को जीना चाहिए। तो ऐसे मामलों से कैसे निपटा जाना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं : “मेरे पास तरीका है। जब कोई मेरे बारे में यह दावा करता है कि मैं अच्छा हूँ तो मैं चुप रहता हूँ; जब कोई कहता है कि मैं खराब हूँ तो भी मैं चुप रहता हूँ। मैं हर चीज के प्रति उदासीनता से पेश आता हूँ। इसमें न तो सही या गलत होना निहित है, न ही यह भ्रष्ट स्वभाव का प्रकटावा है। क्या यह अच्छा नहीं है?” यह दृष्टिकोण कैसा है? क्या इसका यह अर्थ है कि इन लोगों का स्वभाव भ्रष्ट नहीं है? कोई चाहे कितना ही अच्छा दिखावा कर लेता हो, वह भले ही कुछ समय तक ऐसा कर ले, लेकिन जीवन भर ऐसा करते रहना आसान नहीं है। तुम दिखावा करने में चाहे जितने बड़े उस्ताद हो, या चीजों को चाहे जितना ही कसकर छिपा लेते हो, तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को लुका-छिपा नहीं सकते। हो सकता है तुम अपने मन की बात को लेकर लोगों को धोखे में रख लो, लेकिन तुम न तो परमेश्वर को धोखा दे सकते हो, न ही खुद को। चाहे यह बात प्रकट हो या न हो, अंततः कोई व्यक्ति क्या सोचता है और उसके मन में क्या उठता है, चाहे वह गहन भाव हो या न हो, चाहे स्पष्ट हो या नहीं, यही उसके भ्रष्ट स्वभाव का परिचायक है। तो क्या ये भ्रष्ट स्वभाव कहीं भी और कभी भी अपने आप प्रकट नहीं हो जाते हैं? कुछ लोगों को लगता है कि कभी-कभी जब वे सजग नहीं होते तो कोई ऐसी टिप्पणी कर बैठते हैं जो उनके अंतरतम के विचारों को प्रकट कर देती है, और उन्हें इसका खेद होता है। वे सोचते हैं, “अगली बार मैं कुछ नहीं बोलूँगा; जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है। अगर मैं चुप रहूँगा तो मेरा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट नहीं होगा, है ना?” लेकिन आखिरकार जब वे कार्य करते हैं तो उनका भ्रष्ट स्वभाव फिर से प्रकट हो जाता है और उनके इरादे फिर उजागर हो जाते हैं, ऐसा कहीं भी और कभी भी संभव है और इनसे बचना असंभव है। इसलिए अगर तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं हुआ है तो उसका नियमित रूप से प्रकट होना सामान्य है। इसका केवल एक ही समाधान है, और वह यह है कि तुम्हें सत्य खोजना चाहिए और तब तक प्रयास करते रहना चाहिए जब तक कि वास्तव में सत्य को समझ न लो और अपने भ्रष्ट स्वभाव के सार को समझने में सक्षम न हो जाओ; तभी तुम शैतान से और अपनी दैहिक इच्छाओं से नफरत कर सकोगे, और इस तरह तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास करना आसान हो जाएगा। जब तुम सत्य को अभ्यास में लाने के योग्य हो जाते हो, तब तुमसे भ्रष्ट स्वभाव नहीं बल्कि विवेक, तर्क और सामान्य मानवता प्रकट होगी। इसलिए सिर्फ सत्य खोजकर ही तुम भ्रष्ट स्वभाव की समस्या दूर कर सकते हो; आत्म-नियंत्रण, संयम और आत्म-अनुशासन पर निर्भर रहना अच्छा तरीका नहीं है और इससे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान बिल्कुल नहीं हो सकता है।
तो भ्रष्ट स्वभाव कैसे दूर किया जा सकता है? सबसे पहले तो तुम्हें भ्रष्ट स्वभाव के मूल को पहचानकर उसका विश्लेषण करना होगा और फिर उसके अनुरूप अभ्यास का तरीका ढूँढ़ना होगा। मैंने अभी-अभी जो उदाहरण दिया, उसे ही ले लो। यह व्यक्ति सोचता है कि उसकी पेंटिंग हर लिहाज से उत्तम है, लेकिन जब चित्रकला की समझ रखने वाला कोई व्यक्ति कहता है कि इसमें कई खामियाँ हैं, तो वह खुश नहीं होता और उसके आत्म-सम्मान को ठेस लगती है। जब तुम्हारा आत्म-सम्मान आहत हो और भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो जाए तो क्या करना चाहिए? दूसरे लोग अलग-अलग विचार और नजरिए देते हैं और अगर तुम उन्हें स्वीकार न कर सको तो क्या करना चाहिए? कुछ लोग इसे सही ढंग से संभालने में अक्षम होते हैं। जब उनके साथ कुछ घटित होता है तो वे सबसे पहले यह विश्लेषण करते हैं : “उनका कहने का क्या मतलब है? क्या वे मुझे निशाना बना रहे हैं? क्या इसका कारण यह है कि मैंने कल उन्हें चिढ़कर देखा था, इसलिए आज वे मुझसे बदला लेना चाहते हैं? यदि वे मुझे निशाना बना रहे हैं तो मैं यूँ ही नहीं जाने दूँगा : दाँत के बदले दाँत, आँख के बदले आँख। यदि वे मेरे साथ दया नहीं दिखाएंगे तो मैं भी उनके साथ सही बर्ताव नहीं करूँगा। मुझे भी प्रतिशोध लेना ही चाहिए!” यह कैसा प्रकटावा है? यह भी भ्रष्ट स्वभाव का प्रकटावा है। व्यावहारिक रूप से, भ्रष्ट स्वभाव का ऐसा प्रकटावा प्रतिशोध की प्रवृत्ति और मंशा को दिखाता है। सार रूप में इस कार्यकलाप का चरित्र क्या है? क्या यह दुर्भावनापूर्ण नहीं है? इसमें दुर्भावना की प्रकृति है। अगर लोगों की दुर्भावनापूर्ण प्रकृति न हो तो क्या वे प्रतिशोध लेंगे? वे इस बारे में नहीं सोचेंगे। बदला लेने के बारे में सोचने पर ही उनके मुँह से ऐसी भाषा निकलती है : “तुम कहते हो कि मैं अच्छी पेंटिंग नहीं बनाता? तुम तो मुझसे भी बुरी पेंटिंग बनाते हो और तुम्हारे चित्रों में कहीं ज्यादा नुक्स हैं! कोई भी उनकी ओर देखना तक नहीं चाहता है!” ऐसी बोली का लक्षण क्या है? यह एक तरह का हमला है। तुम इस तरह के कार्यकलाप के बारे में क्या सोचते हो? हमला और प्रतिशोध सकारात्मक हैं या नकारात्मक? ये प्रशंसात्मक हैं या अपमानजनक? ये स्पष्ट रूप से नकारात्मक और अपमानजनक हैं। हमला और प्रतिशोध एक प्रकार का क्रियाकलाप और प्रकटावा है जो एक दुर्भावनापूर्ण शैतानी प्रकृति से आता है। यह एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव भी है। लोग इस प्रकार सोचते हैं : “अगर तुम मेरे प्रति निष्ठुर रहोगे तो मैं तुम्हारा बुरा करूँगा! अगर तुम मेरे साथ इज्जत से पेश नहीं आओगे तो भाल तुम्हारे साथ मैं इज्जत से क्यों पेश आऊँगा?” यह कैसी सोच है? क्या यह प्रतिशोध लेने की सोच नहीं है? किसी साधारण व्यक्ति के विचार में क्या यह उचित नजरिया नहीं है? क्या इस बात में दम नहीं है? “मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता; यदि मुझ पर हमला किया जाता है, तो मैं निश्चित रूप से जवाबी हमला करूँगा” और “अपनी ही दवा का स्वाद चखो”—अविश्वासी अक्सर आपस में ऐसी बातें कहते हैं, ये सभी तर्क दमदार और पूरी तरह इंसानी धारणाओं के अनुरूप हैं। फिर भी, जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्हें इन वचनों को कैसे देखना चाहिए? क्या ये विचार सही हैं? (नहीं।) ये सही क्यों नहीं हैं? इन्हें किस तरह पहचानना चाहिए? ये चीजें कहाँ से उत्पन्न होती हैं? (शैतान से।) ये शैतान से उत्पन्न होती हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। ये शैतान के किस स्वभाव से आती हैं? ये शैतान की दुर्भावनापूर्ण प्रकृति से आती हैं; इनमें विष होता है, और इनमें शैतान का असली चेहरा अपनी पूर्ण दुर्भावना तथा कुरूपता के साथ होता है। इनमें इस तरह का प्रकृति सार होता है। इस प्रकार की प्रकृति सार वाले नजरियों, विचारों, प्रकटावों, कथनी-करनियों का चरित्र क्या होता है? बेशक, यह मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है—यह शैतान का स्वभाव है। क्या ये शैतानी चीजें परमेश्वर के वचनों के अनुरूप हैं? क्या ये सत्य के अनुरूप हैं? क्या इनका परमेश्वर के वचनों में कोई आधार है? (नहीं।) क्या ये ऐसे कार्य हैं, जो परमेश्वर के अनुयायियों को करने चाहिए, और क्या उनके ऐसे विचार और दृष्टिकोण होने चाहिए? क्या ये विचार और कार्यकलाप सत्य के अनुरूप हैं? (नहीं।) माना कि ये चीजें सत्य के अनुरूप नहीं हैं, तो क्या ये सामान्य मानवता के विवेक और तर्क के अनुरूप हैं? (नहीं।) अब तुम स्पष्ट रूप से समझ सकते हो कि ये चीजें सत्य या सामान्य मानवता के अनुरूप नहीं हैं। क्या तुम लोग पहले सोचते थे कि ये कार्यकलाप और विचार उचित, आकर्षक और आधार युक्त हैं? (हाँ, ऐसा सोचते थे।) ये शैतानी विचार और सिद्धांत लोगों के दिलों में प्रभुत्व जमाकर उनके विचारों, दृष्टिकोणों, आचार-व्यवहार और कार्यकलापों के साथ ही उनकी विभिन्न दशाओं को संचालित करते हैं; तो क्या लोग सत्य समझ सकते हैं? बिल्कुल भी नहीं। इसके उलट—क्या लोग जिन चीजों को सही समझते हैं, उनका अभ्यास कर उन्हें इस तरह पकड़े नहीं रखते कि मानो वे सत्य हों? अगर ये बातें सत्य हैं तो इन पर टिके रहने से तुम्हारी व्यावहारिक समस्याएँ हल क्यों नहीं होतीं? इन पर टिके रहने से तुममें सच्चा परिवर्तन क्यों नहीं आता जबकि तुम वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हो? तुम शैतान से आने वाले इन फलसफों को पहचानने के लिए परमेश्वर के वचनों का प्रयोग क्यों नहीं कर पाते? क्या तुम अभी भी इन शैतानी फलसफों को इस तरह पकड़े हुए हो कि मानो ये सत्य हैं? अगर तुममें सचमुच विवेक है तो क्या तुम्हें समस्याओं का मूल नहीं मिला? क्योंकि तुम जिन चीजों को लेकर बैठे थे वे कभी सत्य नहीं थीं—बल्कि ये शैतानी भ्रांतियाँ और फलसफे थे—समस्या यहीं है। तुम सब लोगों को अपनी जाँच-पड़ताल करने के लिए इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए; देखो कि तुम्हारे भीतर ऐसी कौन-सी चीजें हैं जो तुम्हें आधार युक्त लगती हैं, जो सामान्य समझ और सांसारिक बुद्धि के अनुरूप हैं, जिन्हें तुम चर्चा की मेज पर रखने लायक समझते हो—गलत विचार, दृष्टिकोण, कार्यकलाप और वे आधार जिन्हें तुम तहेदिल से सत्य मानते आए हो और जिन्हें भ्रष्ट स्वभाव नहीं मानते हो। इन चीजों को खोजते रहो; ऐसी और भी चीजें हैं। अगर तुम इन सभी भ्रष्ट और नकारात्मक चीजों का पता लगा लो, उनका तब तक विश्लेषण करते रहो जब तक कि उन्हें पहचान न लो, और उन्हें त्यागने में सक्षम न हो जाओ, तो फिर तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव आसानी से दूर हो जाएगा और तुम स्वच्छ बनाए जा सकोगे।
चलो पिछले उदाहरण पर लौटते हैं। जब चित्रकार अपनी पेंटिंग के बारे में दूसरों की अच्छी-बुरी, दोनों तरह की राय सुनता है तो उसकी कौन-सी प्रतिक्रिया सही है, जिसमें व्यवहार और उद्गार के लिहाज से मानवता और तार्किकता दोनों हों? मैंने अभी-अभी यही कहा कि लोगों के अंदरूनी विचार, चाहे वे उन्हें सही मानते हों या गलत, सभी शैतान से आते हैं, उनके भ्रष्ट स्वभाव से उपजते हैं; वे गलत होते हैं और सत्य नहीं हैं। तुम चाहे कितना भी सही सोचो, या कितना भी सोचो कि दूसरे लोग तुम्हारे विचारों को सही मानते हैं, ये सत्य से नहीं आते हैं; ये न तो सत्य वास्तविकता के खुलासे हैं, न ही इसे जीते हैं, और ये परमेश्वर के इरादों के अनुरूप भी नहीं हैं। तो फिर तुम्हें इस मामले में वास्तव में तार्किकता और मानवता के अनुसार कैसे पेश आना चाहिए? सबसे पहले दूसरों से अपनी तारीफ को लेकर आत्मसंतुष्टि का भाव मत पालो; यह एक प्रकार की दशा है। इसके अलावा, तुम दूसरों से अपने बारे में जो भी खराब बातें सुनो, उनसे न तो मुँह फेरो, न ही नफरत करो, द्वेष या प्रतिशोध की मानसिकता तो बिल्कुल भी मत रखो। वे चाहे तुम्हारी प्रशंसा करें या न करें, या तुम्हारे बारे में बुरी बातें कहें, तुम्हें दिल से सही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। किस प्रकार का दृष्टिकोण? सबसे पहले, तुम खुद को शांत रखो और फिर उनसे कहो : “पेंटिंग मेरे लिए सिर्फ शौकिया चीज है। मैं अपने हुनर का दर्जा जानता हूँ। तुम चाहे जो भी कहो, मैं तुमसे ठीक से पेश आऊँगा। चलो, पेंटिंग पर चर्चा नहीं करते; मेरी इसमें रुचि है भी नहीं। अगर तुम बता सको तो मेरी रुचि यह जानने में है कि मेरा भ्रष्ट स्वभाव कहाँ प्रकट होता है जिसका मुझे अभी तक भान नहीं है, जिससे मैं बेखबर हूँ। चलो संगति करके इन मामलों की जाँच करते हैं। क्यों न हम दोनों ही अपने जीवन-प्रवेश में संवृद्धि का अनुभव करें, और कुछ और गहराई में प्रवेश करें—यह कितना अच्छा रहेगा! बाहरी मामलों पर बहस करने का क्या फायदा? इससे किसी व्यक्ति को ठीक से अपना कर्तव्य निभाने में मदद नहीं मिलने वाली। तुम चाहे मेरी पेंटिंग को अच्छी कहो या खराब, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर तुम मेरी पेंटिंग की प्रशंसा करते हो तो क्या यह नहीं हो सकता कि उसमें तुम्हारा कोई छिपा हुआ अभिप्राय हो? शायद तुम मुझे अपने किसी काम के लिए इस्तेमाल करना चाहते हो? अगर तुम यह चाहते हो कि मैं तुम्हारे किसी काम आ सकूँ तो मैं हरसंभव मदद करूँगा और वो भी बिल्कुल मुफ्त; अगर मैं मदद न कर सका तो तुम्हें कुछ सुझाव तो दे ही सकता हूँ। मेरे साथ इस तरह पेश आने की कोई जरूरत नहीं है। यह पाखंड युक्त है जिससे मुझे घिन और मिचली आती है। अगर तुम यह कहते हो कि मेरी पेंटिंग खराब है तो कहीं तुम चुग्गा डालकर मुझे जाल में तो नहीं फँसाना चाहते हो? क्या तुम चाहते हो कि मैं कुपित होकर बुरे जवाब दूँ और तुम पर प्रहार करूँ? मैं ऐसा करने से रहा; मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ। मैं शैतान की चालबाजी में फँसने से रहा।” तुम्हें यह रवैया कैसा लगा? (अच्छा है।) यह कार्यकलाप क्या कहलाता है? इसे कहते हैं शैतान पर पलटवार। कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और उनके पास कोई काम नहीं है, तो वे हर तरह की अनर्गल बातें करते हैं : “अरे, तुम्हारे पुराने पेशे में कितना पैसा था, इससे तो किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है!” “अरे वाह! तुम कितनी सुंदर हो! तुम्हारा चेहरा तो साक्षात सौभाग्य का प्रतीक है!” वे ऐसे लोगों की तलाश में रहते हैं जो शक्तिशाली हैं, जो सुंदर हैं या किसी काम आ सकते हैं, और फिर उनसे सटते जाते हैं, उनकी चापलूसी और तारीफ करते हैं और उनकी मिन्नतों में लगे रहते हैं। वे अपने तुच्छ इरादों और इच्छाओं को पूरा करने के लिए हर किस्म के घिनौने और शर्मनाक तरीके अपनाते हैं। क्या यह घिनौना काम नहीं है? (है।) तो जब ऐसे लोग तुमसे टकरा जाएँ तो उनसे कैसे पेश आना चाहिए? क्या दाँत के बदले दाँत, आँख के बदले आँख का तरीका सही है? (नहीं।) अगर तुम्हारे पास समय नहीं है तो बस कुछ कड़े शब्दों से पलटवार कर उन्हें शर्मसार कर दो। तुम कह सकते हो : “तुम इतनी उबाऊ बातें कैसे कर सकते हो? क्या तुम्हारे पास अभी कोई काम नहीं है? ऐसी चीजों के बारे में गपशप करने का क्या फायदा?” अगर तुम्हें लगता है कि उनकी खुशामदी बातें निहायत सतही और जी मिचलाने वाली हैं, तुम इन्हें सुन नहीं सकते और तुम्हारे पास लंबी बात करने की फुर्सत नहीं है तो फिर तुम उक्त चंद वाक्यों में जवाब देकर बात खत्म कर सकते हो। अगर तुम्हारे पास समय है तो फिर उनके साथ संगति करो। संगति की बात करें तो, यहाँ, कोई भ्रष्ट स्वभाव न दिखे, कोई क्रोध या आवेग न दिखे, कोई हमला या प्रतिशोध नहीं हो, कोई घृणा न हो और ऐसी कोई चीज न हो जिससे लोग घृणा करते हैं—तुम जो भी चीजें प्रकट करो, वे सामान्य मानवता के अनुरूप होनी चाहिए, विवेक और तर्क के अनुरूप होनी चाहिए, उनमें सत्य वास्तविकता होनी चाहिए, वे दूसरों की मदद कर सकें और वे रचनात्मक और दूसरों के लिए फायदेमंद होनी चाहिए। ये सारी चीजें सकारात्मक खुलासे हैं। तो फिर कुछ नकारात्मक खुलासे क्या हैं? उन्हें संक्षेप में बताने की कोशिश करो। (प्रतिशोध, हमला और दाँत का बदला दाँत से लेना।) प्रतिशोध, हमला, दाँत का बदला दाँत से, आँख का बदला आँख से लेना, और ऐसे ख्याल जिन्हें लोग पारंपरिक रूप से सही मानते हैं : “अपनी ही दवा का स्वाद चखो,” और “मैं एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहता हूँ, मैं घिनौना या पाखंडी इंसान नहीं होना चाहता हूँ।” क्या ये सारी चीजें जिन्हें लोग सही समझते हैं, सत्य के अनुरूप हैं? (नहीं।) इन चीजों की जाँच की जानी चाहिए। जो चीजें सरल, स्पष्ट होती हैं और आसानी से एक ही नजर में दिख जाती हैं, उन्हें पहचानना थोड़ा-सा आसान है। जहाँ तक उन चीजों की बात है जिन्हें अधिकतर लोग देख नहीं सकते, जिन्हें अनेक लोग अच्छा और सही मानते हैं—लोग उन्हें पहचान नहीं पाते, इसलिए इन चीजों को सत्य मानकर इनका पालन करना लोगों के लिए आसान रहता है। इनका पालनकर लोगों को लगता है कि वे सत्य वास्तविकता और सामान्य मानवता को जी रहे हैं; वे सोचते हैं कि वे कितने पूर्ण, कितने अच्छे, कितने न्यायी और सम्माननीय, कितने उदार और ईमानदार हैं। सत्य की जगह ऐसी चीजों को रखकर जीना जो क्रोधपूर्ण, आवेशपूर्ण, शारीरिक, नैतिक और सदाचारयुक्त हैं, मानो कि ये ही सत्य की वास्तविकता हैं, एक ऐसी गलती है जिसके फेर में अधिकतर लोग पड़ सकते हैं, यहाँ तक कि जो लोग बरसों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं वे भी इसे पहचान नहीं पाते; परमेश्वर में विश्वास करने वाले लगभग हर व्यक्ति को इस चरण से जरूर गुजरना होगा और सत्य का अनुसरण करने वाले लोग ही इस भ्रामक विचार से बच सकते हैं। इसलिए लोगों को क्रोध और आवेग से उपजने वाली इन चीजों को पहचानकर इनकी गहरी जाँच-परख करनी चाहिए। यदि तुम इन चीजों की असलियत जानकर इन्हें हल कर सको तो आम तौर पर तुमसे प्रकट होने कुछ चीजें सत्य वास्तविकता के अनुरूप होंगी। सत्य का अभ्यास सामान्य मानवता के साथ किया जा सकता है; सत्य का अभ्यास ही एकमात्र मानक है जो किसी के पास विवेक और तर्क होना साबित करता है। फर्क नहीं पड़ता कि वे सत्य का कितना अभ्यास करते हैं, यह सारा सकारात्मक है; यह भ्रष्ट स्वभाव बिल्कुल नहीं है, उग्र होकर पेश आना तो बिल्कुल नहीं है। यदि किसी ने पहले कभी तुम्हें आहत किया और तुम भी उसके साथ वैसे ही पेश आते हो तो क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? चूँकि उसने तुम्हें आहत किया है—बहुत बुरी तरह आहत किया है—इसलिए अगर तुम उससे प्रतिशोध लेने और उसे दंडित करने के लिए कोई भी उचित या अनुचित तरीका अपनाते हो, तो गैर-विश्वासियों के अनुसार यह उचित और तर्कसंगत है, और इसमें कुछ भी बुरा नहीं है; लेकिन यह किस प्रकार का कार्यकलाप है? यह क्रोध है। वह तुम्हें आहत करता है तो यह भ्रष्ट शैतानी प्रकृति का प्रकटावा है, लेकिन अगर तुम उससे प्रतिशोध लेते हो तो क्या तुम जो कर रहे हो वह भी उसी की तरह नहीं है? तुम्हारे प्रतिशोध के पीछे की मानसिकता, प्रारंभिक बिंदु और स्रोत उसके समान ही हैं; दोनों में कोई अंतर नहीं है। तो तुम्हारे कार्यों का चरित्र निश्चित रूप से क्रोधपूर्ण, आवेगपूर्ण और शैतानी है। इसके शैतानी और क्रोधपूर्ण होने के मद्देनजर क्या तुम्हें अपने कार्यकलाप नहीं बदलने चाहिए? क्या तुम्हारे कार्यकलापों के पीछे का स्रोत, इरादे और प्रेरणाएँ बदलनी चाहिए? (हाँ।) तुम इन्हें कैसे बदलते हो? अगर तुम्हारे साथ घटित होने वाली चीज छोटी-मोटी है लेकिन यह तुम्हें असहज करती है तो जब तक यह तुम्हारे हितों को छेड़ती नहीं है या तुम्हें बुरी तरह आहत नहीं करती, या तुम्हें नफरत करने के लिए नहीं उकसाती, या प्रतिशोध लेने के लिए तुम्हारे जीवन को जोखिम में नहीं डालती, तो तुम क्रोध का सहारा लिए बिना अपनी नफरत को त्याग सकते हो; बल्कि, तुम इस मामले को ठीक से और शांत होकर संभालने के लिए अपनी तार्किकता और मानवता पर भरोसा कर सकते हो। तुम सामने वाले को यह मामला स्पष्टता और ईमानदारी से समझा सकते हो और अपनी नफरत का समाधान कर सकते हो। लेकिन, अगर नफरत इतनी भारी है कि तुम बदला लेने की सोचने लगो और भयंकर नफरत महसूस करने लगो तो क्या तुम तब भी धैर्य रख सकते हो? जब तुम अपने क्रोध पर निर्भर नहीं रहते और शांत होकर कह सकते हो, “मुझे तर्कसंगत व्यवहार करना चाहिए। मुझे अपने विवेक और तर्क के अनुसार जीना चाहिए, सत्य सिद्धांतों के अनुसार जीना चाहिए। मैं बुराई का जवाब बुराई से नहीं दे सकता, मुझे अपनी गवाही में दृढ़ रहकर शैतान को शर्मिंदा करना चाहिए,” तो क्या यह एक अलग दशा नहीं है? (है।) अतीत में तुम्हारी किस प्रकार की दशाएँ थीं? अगर कोई व्यक्ति तुम्हारी कोई चीज चुरा ले या तुम्हारी कोई चीज खा ले, तो यह किसी बड़ी, गहरी नफरत के तुल्य नहीं है, इसलिए तुम उसके साथ तब तक बहस करना जरूरी नहीं समझोगे जब तक कि इस कारण तुम गुस्सा न हो जाओ—यह तुम्हारे योग्य नहीं है और बिल्कुल फिजूल है। ऐसी स्थिति में तुम इस मामले को तर्कसंगत ढंग से संभाल सकते हो। क्या मामले को तर्कसंगत ढंग से संभालने में सक्षम होना सत्य का अभ्यास करने के समतुल्य है? क्या यह इस मामले में सत्य वास्तविकता होने के समतुल्य है? बिल्कुल भी नहीं। तर्कसंगत होना और सत्य का अभ्यास करना दो अलग चीजें हैं। अगर तुम्हारा सामना किसी ऐसी चीज से हो जो तुम्हें खास तौर पर आग बबूला कर दे, लेकिन तुम अपना क्रोध या भ्रष्टता प्रकट किए बिना तर्कसंगत रूप से और शांत रहकर इससे निपट सकते हो, तो इसके लिए तुम्हें सत्य सिद्धांतों को समझने और इससे निपटने के लिए बुद्धि पर भरोसा करने की आवश्यकता है। ऐसी स्थिति में अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना या सत्य की खोज नहीं करते तो तुममें आसानी से क्रोध घर कर लेगा—यहाँ तक कि हिंसा भी। अगर तुम सत्य नहीं खोजते, केवल इंसानी तरीके अपनाते हो और अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार मामले से निपटते हो तो तुम इसे थोड़ा-सा सिद्धांत बघारकर या बैठकर अपना दिल खोलकर बात करने भर से नहीं सुलझा सकते। यह इतना सरल नहीं है।
अभी हम जिन बातों पर संगति कर रहे हैं, उनका संबंध लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट प्रकृति की समस्या से है। कुछ लोग पैदाइशी सीधे-सरल मिजाज के होते हैं; जब दूसरे लोग उनके हितों को चोट पहुँचाते हैं या उन्हें कुछ अप्रिय बात कहते हैं तो वे इसे हँसी में उड़ाकर जाने देते हैं। कुछ लोग निकृष्ट होते हैं, वे इसे भूल नहीं पाते और जीवन भर के लिए द्वेष पाल लेते हैं। इन दो प्रकार के लोगों में भ्रष्ट स्वभाव वाले कौन-से हैं? दरअसल, वे दोनों ही ऐसे हैं, बस उनका कुदरती मिजाज अलग है। मिजाज किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव को प्रभावित नहीं कर सकता है, न यह उसके भ्रष्ट स्वभाव की गहराई को तय करता है। लोगों की परवरिश, पढ़ाई और पारिवारिक परिस्थिति उनके भ्रष्ट स्वभाव की गहराई को तय नहीं करती है। तो क्या इसका संबंध उन चीजों से है जिनका लोग अध्ययन करते हैं? कुछ लोग कहते हैं : “मैंने साहित्य का अध्ययन किया है और कई किताबें पढ़ी हैं; मैं सुरुचि संपन्न और सुसंस्कृत हूँ, इसलिए मेरा आत्म-संयम दूसरों से ज्यादा कड़ा है, लोगों के बारे में मेरी समझ दूसरों से अधिक है और मेरी सोच दूसरों से ज्यादा खुली हुई है। जब मैं चीजों का सामना करता हूँ तो मेरे पास उन्हें हल करने का उपाय होता है, इसलिए मेरा भ्रष्ट स्वभाव शायद उतना गहरा न हो।” कुछ लोग कहते हैं : “मैंने संगीत का अध्ययन किया है, इसलिए मैं विशेष प्रतिभा हूँ। संगीत लोगों की आत्मा को उन्नत और परिमार्जित करता है। चूँकि संगीत का हर सुर व्यक्ति की आत्मा को प्रभावित करता है, इसलिए उसकी आत्मा परिमार्जित और परिवर्तित हो जाती है। अलग-अलग संगीत सुनने से लोगों के मन की दशाएँ बदलती हैं और उनकी मनःस्थितियों में भी फर्क आता रहता है। जब मैं निराश होता हूँ तो संगीत सुनकर मनःस्थिति ठीक कर लेता हूँ, इसलिए संगीत सुनकर मेरा भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे क्षीण होने लगता है। जैसे-जैसे संगीत में मेरी योग्यता बढ़ती है, मेरी भ्रष्ट प्रकृति भी धीरे-धीरे सुधरने लगती है।” गाने वाले कुछ लोग कहते हैं : “सुरीले गीत लोगों की आत्मा को तर कर सकते हैं। मैं जितना अधिक गाता हूँ, मेरा सुर उतना ही अद्भुत सजने लगता है, मेरी गायन क्षमता उतनी ही निखरती है, मैं और पेशेवर बन जाता हूँ जिससे मेरी दशा भी सुधरती है। जैसे-जैसे मेरी दशा सुधरती जाएगी, तो क्या मेरा भ्रष्ट स्वभाव गौण नहीं होता जाएगा?” क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसा ही होता है? (नहीं।) तो, भ्रष्ट स्वभाव के अपने ज्ञान और समझ को लेकर अनेक लोगों के विचार भ्रामक होते हैं; थोड़ी-सी शिक्षा प्राप्त करते ही वे सोचते हैं कि उनका भ्रष्ट स्वभाव कम हो गया है। कुछ उम्रदराज लोग तो यह भी सोचते हैं : “जवानी में मैंने बहुत कष्ट सहे और बहुत सादगी से जीवन जिया; मैंने फालतू खर्च करने की जगह बचत पर ध्यान दिया। मैंने जो भी काम किया, बहुत पाक-साफ रहकर किया और बातचीत में शिष्टता बरती। मैं खुलकर बोलता था और निश्छल था। इसलिए, मेरे उतने भ्रष्ट स्वभाव नहीं हैं। कुछ युवा लोग अपने सामाजिक माहौल से प्रभावित होते हैं : वे नशीली दवाइयों का सेवन करते हैं और बुरे चाल-चलन में पड़ जाते हैं। वे बुरी तरह सामाजिक माहौल की चपेट में आकर गहराई तक भ्रष्ट हो जाते हैं!” भ्रष्ट स्वभावों की इस भ्रामक समझ और जानकारी के कारण लोगों में अपने भ्रष्ट सार और शैतानी प्रकृति के बारे में अलग-अलग मनोभाव और पूर्वाग्रह होते हैं। यही मनोभाव और पूर्वाग्रह अधिकतर लोगों को यह एहसास कराते हैं कि भले ही उनमें भ्रष्ट स्वभाव है, भले ही वे अहंकारी, आत्म-तुष्ट और विद्रोही हैं, लेकिन उनका अधिकांश व्यवहार अच्छा है। विशेष रूप से, जब लोग नियमों का पालन कर सकते हैं, सामान्य और नियमित आध्यात्मिक जीवन जी रहे हैं और कुछ आध्यात्मिक सिद्धांत भी सुना सकते हैं, तब तो वे इस बात को लेकर और भी अधिक आश्वस्त होते हैं कि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास की राह में उपलब्धियाँ हासिल की हैं और उनका भ्रष्ट स्वभाव काफी हद तक दूर हो चुका है। ऐसे भी लोग हैं जो बहुत बुरी दशा में न होने पर, अपना कर्तव्य निभाते हुए सफलता हासिल करने पर, या कुछ उपलब्धि हासिल करने पर यह सोचते हैं कि वे पहले से आध्यात्मिक हैं, कि वे पहले ही पूर्ण और परिमार्जित किए जा चुके पवित्र लोग हैं और अब उनमें भ्रष्ट स्वभाव नहीं बचा है। क्या लोगों के इस प्रकार के विचार, ऐसी विभिन्न भ्रांतियाँ नहीं हैं जो अपने भ्रष्ट और शैतानी स्वभावों का सच्चा ज्ञान न होने की परिस्थिति में उत्पन्न होती हैं? (ये ऐसी ही भ्रांतियाँ हैं।) क्या लोगों की ये भ्रांतियाँ, अपने भ्रष्ट स्वभावों और कठिनाइयों को दूर करने की राह में उनकी सबसे बड़ी बाधा नहीं है? यही सबसे बड़ी बाधा है, वह चीज है जिसके कारण लोगों से निपटना सबसे मुश्किल हो जाता है।
क्या आज की संगति का विषय तुम लोगों की समझ में आ रहा है? क्या तुमने मुख्य तत्व समझ लिए हैं? अगर लोगों का भ्रष्ट स्वभाव दूर नहीं हुआ तो वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते हैं। अगर वे यही नहीं जान पाए कि उनमें कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं या उनका अपना ही शैतानी प्रकृति सार क्या है, तो क्या वे सचमुच यह स्वीकार कर सकेंगे कि वे स्वयं भ्रष्ट मनुष्य हैं? (नहीं।) अगर लोग सच्चाई से यह स्वीकार नहीं कर पाएँगे कि वे शैतानी स्वभाव के हैं, कि वे भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं, तो क्या वे सचमुच पश्चात्ताप कर सकते हैं? (नहीं।) अगर वे सचमुच पश्चात्ताप नहीं कर सकते तो क्या वे अक्सर यह नहीं सोचेंगे कि वे उतने बुरे नहीं हैं, बल्कि मान-सम्मान और पद-प्रतिष्ठा वाले हैं? क्या अक्सर उनके ऐसे विचार और ऐसी दशाएँ नहीं होंगी? (होंगी।) तो फिर ये दशाएँ क्यों उत्पन्न होती हैं? सारी बात एक ही जगह पहुँचती है : अगर लोगों के भ्रष्ट स्वभाव दूर नहीं होते हैं तो उनका मन हमेशा उद्वेलित रहता है और उनके लिए सामान्य दशा प्राप्त करना मुश्किल है। अर्थात्, अगर किसी भी दृष्टि से तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का कोई समाधान नहीं होता तो तुम्हारे लिए नकारात्मक दशा के प्रभाव से मुक्त होना बहुत ही मुश्किल है, और तुम्हारे लिए उस नकारात्मक दशा से बाहर निकलना बहुत ही मुश्किल है, इतना ज्यादा कि तुम शायद यह भी सोचने लगो कि तुम्हारी यह दशा सही, उचित और सत्य के अनुरूप है। तुम इसे थामे रहोगे, इस पर टिके रहोगे और स्वाभाविक रूप से इसमें फँस जाओगे, इसलिए इससे बाहर निकलना बहुत मुश्किल होगा। फिर एक दिन, जब तुम सत्य को समझ लोगे, तो तुम्हें एहसास होगा कि इस प्रकार की स्थिति तुम्हें परमेश्वर को गलत समझने और उसका विरोध करने की राह पर ले जाती है, तुम्हें परमेश्वर के विरोध और आलोचना की ओर ले जाती है, इस हद तक कि तुम्हें परमेश्वर के वचनों के सत्य होने पर संदेह होने लगे, परमेश्वर के कार्य पर संदेह होने लगे, परमेश्वर के सभी पर संप्रभु होने को लेकर संदेह होने लगे, और इस बात पर भी संदेह होने लगे कि परमेश्वर ही सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता और इनका मूल है। तुम देखोगे कि तुम्हारी दशा अत्यधिक खतरनाक है। इस दुष्परिणाम का कारण यह है कि तुम्हें वास्तव में इन शैतानी फलसफों, विचारों और सिद्धांतों का ज्ञान नहीं था। अब जाकर तुम देख सकोगे कि शैतान कितना भयावह और दुर्भावनापूर्ण है; शैतान लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करने में बिल्कुल सक्षम है जिसके कारण वे परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसे धोखा देने के रास्ते पर चलते हैं। अगर भ्रष्ट स्वभाव दूर न किए जाएँ, तो इसके गंभीर दुष्परिणाम होते हैं। अगर तुम यह जान सकते हो, इसका एहसास कर सकते हो तो यह पूरी तरह तुम्हारी सत्य की समझ और परमेश्वर के वचनों के तुम्हें प्रबुद्ध और रोशन करने का फल है। जो लोग सत्य को नहीं समझते हैं, वे यह नहीं समझ सकते कि शैतान लोगों को कैसे भ्रष्ट करता है, कैसे गुमराह करता है और उन्हें परमेश्वर विरोधी बनाता है; यह दुष्परिणाम खास तौर पर खतरनाक है। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए अगर लोग यह नहीं जानते कि आत्म-चिंतन कैसे करना है, नकारात्मक चीजों या शैतानी फलसफों को कैसे पहचानना है तो उनके पास शैतान के बहकावे और भ्रष्टता से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं रहता है। परमेश्वर क्यों चाहता है कि लोग उसके ज्यादा से ज्यादा वचन पढ़ें? ऐसा इसलिए है ताकि लोग सत्य को समझ सकें, खुद को समझ सकें, स्पष्ट रूप से यह जान सकें कि उनकी भ्रष्ट दशाएँ किस कारण उत्पन्न होती हैं, और यह भी समझें कि उनके विचार, दृष्टिकोण, और बोलने, व्यवहार करने और मामलों से निपटने के तरीके कहाँ से आते हैं। जब तुम यह जान जाते हो कि तुम जिन दृष्टिकोणों से चिपके हुए हो, वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं, वे उस सब के विरुद्ध हैं जो परमेश्वर ने कहा है, और वे वह नहीं हैं जिसकी वह अपेक्षा करता है; जब परमेश्वर तुमसे अपेक्षाएँ रखता है, जब उसके वचन तुम पर प्रकट होते हैं, और जब तुम्हारी दशा और मानसिकता तुम्हें न तो परमेश्वर के प्रति समर्पण करने देती है, न उसके द्वारा आयोजित परिस्थिति के प्रति समर्पण करने देती है, न ही तुम्हें परमेश्वर की उपस्थिति में स्वतंत्र और मुक्त होकर जीने और उसे संतुष्ट करने देती है—यह सब साबित करता है कि तुम जिस दशा को जकड़े बैठे हो, वह गलत है। क्या तुम लोग इस प्रकार की स्थिति में पहले भी रह चुके हो : तुम उन चीजों के अनुसार जीते हो जिन्हें तुम सकारात्मक और अपने लिए सबसे उपयोगी मानते हो; लेकिन जब अचानक तुम्हारे साथ चीजें घटित होती हैं तो तुम जिन चीजों को सबसे सही मानते हो, उनका अक्सर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है—इसके उलट वे तुम्हारे मन में परमेश्वर के प्रति संदेह जगाती हैं, तुम्हें निरुपाय कर देती हैं, परमेश्वर को लेकर तुममें गलतफहमियाँ पैदा करती हैं और परमेश्वर के प्रति विरोध को जन्म देती हैं—क्या तुम इस दौर से गुजरे हो? (हाँ।) बेशक, तुम उन चीजों को थामे नहीं रहोगे जिन्हें तुम गलत समझते हो; तुम केवल उन्हीं चीजों को थामे रहोगे और उन पर कायम रहोगे जिन्हें सही समझते हो, और सदा ऐसी ही दशा में जीते रहोगे। जब एक दिन तुम सत्य समझ लेते हो, केवल तभी तुम्हें यह एहसास होता है कि तुम जिन चीजों को थामे बैठे हो वे सकारात्मक नहीं हैं—वे बिल्कुल गलत हैं, ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोग सही समझते हैं लेकिन जो सत्य नहीं हैं। कितनी बार ऐसा होता है कि तुम लोग यह एहसास करते और इससे अवगत होते हो कि तुम जिन चीजों को लेकर बैठे हो वे गलत हैं? अगर तुम अवगत हो कि ये अधिकांश समय गलत होती हैं, फिर भी तुम चिंतन नहीं करते, तुम्हारे मन में प्रतिरोध रहता है, तुम सत्य को स्वीकार नहीं पाते हो, इन चीजों का सही तरह सामना नहीं कर पाते हो और तुम अपने बचाव में तर्क-वितर्क करते हो—अगर इस प्रकार की गलत दशा को पूरी तरह बदला न जाए तो यह बहुत खतरनाक होती है। हमेशा इस प्रकार की चीजों को थामे रहने के कारण तुम आसानी से दुःखी होते रहते हो, आसानी से ठोकरें खाते और नाकाम होते रहते हो, यही नहीं, तुम सत्य वास्तविकता में भी प्रवेश नहीं कर पाओगे। जब लोग अपने बचाव में हमेशा तर्क-वितर्क करते रहते हैं तो यह विद्रोह है; इसका अर्थ है कि उनमें कोई विवेक नहीं है। भले ही वे कोई चीज जोर-शोर से न कहें, अगर वे इन्हें दिल में भी रखते हैं, तो इसका मतलब है कि मूल समस्या अभी भी हल नहीं हुई है। तो फिर तुम परमेश्वर का विरोध न करने में कब सक्षम होगे? तुम्हें अपनी दशा को पूरी तरह बदलना होगा और इस संबंध में अपनी समस्याओं का समूल समाधान करना होगा; तुम्हें स्पष्ट जानना होगा कि तुम्हारे दृष्टिकोण में गलती कहाँ है; तुम्हें इसकी छानबीन करनी होगी और इसके निराकरण के लिए सत्य खोजना होगा। केवल तभी तुम सही दशा में जी सकते हो। जब तुम सही दशा में रहते हो, तो परमेश्वर के प्रति तुम्हारे मन में कोई गलतफहमी नहीं होगी, तुम उसका विरोध नहीं करोगे, तुममें धारणाएँ उत्पन्न होने की संभावना तो और भी कम रहेगी। तब इस संबंध में तुम्हारा विद्रोही स्वभाव खत्म हो जाएगा। जब यह खत्म हो जाएगा और तुम परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कार्य करना जान लोगे, तो उस समय क्या तुम्हारे कार्यकलाप परमेश्वर के अनुरूप नहीं हो जाएँगे? अगर तुम इस मामले में परमेश्वर के अनुरूप हो जाते हो तो फिर तुम्हारे सारे कार्य क्या उसके इरादों के अनुरूप नहीं हो जाएँगे? कार्य और अभ्यास के जो तरीके परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होते हैं, क्या वे सत्य के अनुरूप नहीं होते? जब तुम इस मामले में अडिग रहते हो तो तुम सही दशा में जीने लगते हो। जब तुम सही दशा में जीने लगते हो तो फिर तुम जिसे प्रकट करते और जीते हो, वह भ्रष्ट स्वभाव नहीं होता है; तुम सामान्य मानवता को जीने में सक्षम होते हो, तुम्हारे लिए सत्य को अभ्यास में लाना आसान रहता है, और तुम वास्तव में आज्ञाकारी बन जाते हो। अभी, तुममें से ज्यादातर लोगों का अनुभव इस मुकाम तक नहीं पहुँचा है, इसलिए शायद तुम परमेश्वर के वचनों को बहुत अच्छे से नहीं समझते हो, और इनके बारे में तुम्हारी समझ स्पष्ट नहीं है। तुम उन्हें सिद्धांत रूप में तो स्वीकार कर सकते हो और ऐसा लगता है कि तुम उन्हें समझते तो हो लेकिन नहीं भी समझते हो। तुम जिस हिस्से को समझते हो वह सिद्धांत है, और जिस हिस्से को नहीं समझते हो वह दशाओं और वास्तविकता से संबंधित है। जैसे-जैसे तुम्हारा अनुभव बढ़ता जाएगा, तुम इन वचनों को समझने लगोगे और तुम उन्हें अभ्यास में लाने का तरीका जान जाओगे। अभी तुम्हारा अनुभव कितना भी गहरा हो, तुम्हारे साथ जो भी विभिन्न चीजें घटती हैं उन्हें लेकर तुम्हारी कठिनाइयाँ यकीनन कम नहीं हैं, तो तुम इन कठिनाइयों का समाधान कैसे कर सकते हो? सबसे पहले तुम्हें जिन भ्रष्ट दशाओं की छानबीन करनी चाहिए, उन पर चिंतन करना होगा : इनके अलग-अलग पहलू क्या हैं? इनका वर्णन करने की कोशिश कौन करना चाहेगा? (इसमें ऐसे पाँच पहलू शामिल हैं : विचार, दृष्टिकोण, स्थितियाँ, मनोदशाएँ और नजरिए।) जब तुम सिद्धांत समझ लेते हो तो फिर जब तुम्हारे साथ चीजें घटित होती हैं तो तुम्हें किस प्रकार अभ्यास और अनुभव करना चाहिए? (जब कुछ घटित होता है तो हमें यह जाँच करनी चाहिए कि हमसे प्रकट होने वाले रवैये और विचार, किस प्रकार के स्वभाव और प्रकृति से संबंधित हैं, इन मनोवृत्तियों, विचारों और दृष्टिकोणों को जानना चाहिए, और फिर यहाँ से उनका समाधान शुरू करना चाहिए।) बिल्कुल सही। अगर तुम अपनी ही दशाओं, रवैयों, विचारों और दृष्टिकोणों को भली-भाँति जानते हो, तो इस समस्या का आधा समाधान पहले ही हो चुका है, और फिर सत्य खोजकर और इसे अभ्यास में लाते ही कठिनाई छूमंतर हो जाएगी।
तुम लोगों में कई नौजवान हैं, साथ ही ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने अभी अपना घर नहीं बसाया है। तुम सभी लोगों ने अपना कर्तव्य निभाने के लिए कई वर्षों से अपना घर-बार छोड़ रखा है, तो क्या तुम्हें अपने घर की याद आती है? क्या तुम्हें अपने माता-पिता की याद सताती है? क्या तुम अक्सर अपने माता-पिता को याद करने वाली दशा में जीते हो? चलो, तुमसे अपने माता-पिता की कमी खलने वाली दशा के बारे में सुनते हैं—यह एक वास्तविक अनुभव है। (जब मैं विदेश आया ही था तो मुझे खास कर अपनी माँ और बहन की याद सताती थी; मैं हमेशा उन पर निर्भर रहा करता था, इसलिए जब मैं अकेला चला आया तो मुझे लगातार उनकी कमी खलती थी। लेकिन विदेश के इतने अनुभव के बाद, अब मुझे लगता है कि अगर अब कोई एक ऐसा है जिसे मैं पीछे नहीं छोड़ सकता तो वह परमेश्वर ही है; जब कुछ भी होता है तो मैं उससे प्रार्थना करता हूँ, और मुझे अपने परिवार की कमी नहीं खलती।) ये दो भिन्न दशाएँ हैं। पहली दशा क्या है? हमेशा घर की याद आना, अपनी माँ और बहन की कमी खलना। इस प्रकार की दशा की विशिष्टता क्या है? वह यह है कि जब कुछ होता है तो तुम नहीं जानते कि अमुक काम कैसे करने हैं, इसलिए तुम खुद को असहाय महसूस करते हो; तुम अपने प्रियजनों के बिना नहीं रह सकते हो, और ऐसा कोई नहीं है जिस पर तुम भरोसा कर सको। सुबह जागते ही तुम्हें उनकी याद सालने लगती है, और रात में सोते समय तुम उन्हीं के बारे में सोचते हो; तुम अपने प्रियजनों की कमी खलने वाली इस प्रकार की दशा में फँसे रहते हो। तो फिर तुम्हें उनकी इतनी याद क्यों सताती है? यह इसलिए कि तुम्हारी परिस्थिति बदल चुकी है और तुम उन्हें पीछे छोड़ आए हो। तुम्हें उनकी चिंता लगी रहती है, यही नहीं, तुम्हें उन पर निर्भर रहकर पलने-बढ़ने, जीने और गुजर-बसर करने की आदत पड़ी हुई थी। तुम जीवन के कई मामलों में पहले ही एक दूसरे से अटूट रूप से जुड़े रहे हो, इसलिए तुम्हें उनकी बहुत याद सताती है; तुम्हारी यही दशा है। तो फिर अब जबकि तुम्हें उनकी याद नहीं सताती है तो तुम किस प्रकार की दशा में हो? (मुझे लगता है कि घर-बार छोड़कर अपना कर्तव्य निभाना परमेश्वर का प्रेम है, उसका उद्धार है, जिसने मुझे यह सीखने लायक बना दिया कि परमेश्वर पर कैसे भरोसा करना है। मेरा भ्रष्ट स्वभाव कुछ हद तक बदल चुका है और मेरी आत्मा दिलासा पाती है; इसके अलावा, परमेश्वर की संप्रभुता पहचानकर मैं जान चुका हूँ कि सभी की नियति उसी के हाथ में है। मेरी माँ और बहन का अपना ध्येय है, और मेरा अपना ध्येय है, इसलिए मुझे अब उनकी कमी नहीं खलती है।) क्या समस्या हल हो चुकी है? (मुझे लगता है कि हल हो चुकी है।) क्या सभी लोग ऐसा सोचते हैं कि समस्या हल हो चुकी है? (यह फौरी तौर पर हल हुई है।) यह फौरी तौर पर हल हो चुकी है। अगर तुम एक दिन किसी ऐसी बहन से टकरा जाओ जिसकी शक्ल-सूरत, बोलने का लहजा, तुमसे पेश आने का तरीका तुम्हारी माँ या बहन की तरह हो तो तुम कैसा महसूस करोगे? (मुझे फिर से उनकी कमी खलने लगेगी।) तुम एक बार फिर उन्हीं की यादों में डूबने की दशा में चले जाओगे, इसलिए समस्या का हल तो हुआ नहीं। तो फिर यह समस्या जड़ से कैसे दूर होगी? जब तुम्हें अपने प्रियजनों की याद सालती है तो क्या याद आता है? आम तौर पर जब तुम्हें किसी की याद आती है, किसी प्रियजन या घर की कमी खलती है, तो तुम बेशक उन चीजों को याद नहीं करते जिन्होंने तुम्हें दुःख पहुँचाया है; तुम उन चीजों को याद करते हो जिन्होंने तुम्हें सुख दिया, तुम्हें खुशियाँ दीं और अच्छा महसूस कराया, जिनका तुमने आनंद लिया, जैसे तुम्हारी माँ किस प्रकार तुम्हारा ख्याल रखा करती थी, तुम्हें लाड़-प्यार और दुलार करती थी, या किस प्रकार तुम्हारे पिता तुम्हें अच्छी चीजें खरीदकर दिया करते थे। तुम्हें इन सारी अच्छी चीजों की कमी खलती है, इसलिए तुम अपने प्रियजनों को याद किए बिना रह नहीं पाते। तुम अपने प्रियजनों के बारे में जितना ज्यादा सोचते हो, उन्हें छोड़ना और आत्म-संयम रखना उतना ही मुश्किल होता है। कुछ लोग कहते हैं : “इतने वर्षों में मैं अपनी माँ से पहले कभी अलग नहीं हुआ हूँ। वह जहाँ भी जाती है, मैं पीछे-पीछे जाता हूँ, मैं उसकी आँख का तारा हूँ। उसे मिले बिना इतना समय हो चुका है तो फिर उसकी कमी क्यों नहीं खलेगी?” उनकी कमी खलना स्वाभाविक है; लोगों की दैहिक भावनाएँ ऐसी ही होती हैं। भ्रष्ट मनुष्य अपनी भावनाओं में जीते हैं। वे सोचते हैं : “केवल इसी तरह जीना मनुष्य की तरह जीना है। अगर मुझे अपने प्रियजनों की याद भी न आए, मैं उनके बारे में न सोचूँ या उनका सहारा न खोजूँ, तो क्या मैं मनुष्य हूँ भी? तो क्या मैं किसी जानवर जैसा ही नहीं हो जाऊँगा?” क्या लोग इसी तरह नहीं सोचते हैं? अगर उनमें कोई स्नेह या दोस्ती नहीं है, और वे दूसरों के बारे में नहीं सोचते हैं, तो उनके बारे में दूसरे लोगों को लगता है कि उनमें कोई मानवता नहीं है और वे इस तरह नहीं जी पाएँगे। क्या यह सही दृष्टिकोण है? (नहीं।) दरअसल, तुम अपने माता-पिता को याद करते हो या नहीं, यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। उन्हें याद करना गलत नहीं है, न उन्हें याद न करना ही गलत है। कुछ लोग बहुत स्वतंत्र होते हैं, तो कुछ लोग अपने माता-पिता से चिपके रहते हैं, लेकिन तुम सभी अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपने घर-बार और माता-पिता को छोड़ने में समर्थ रहे हो। पहली बात, तुम अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक तो हो, तुममें अपना कर्तव्य निभाने की इच्छा तो है, परमेश्वर के लिए खुद को खपाने और चीजों को त्यागने की इच्छा तो है; लेकिन तुम्हारी कठिनाइयाँ एक बार के प्रयास से हल नहीं होने वाली हैं, न तुम सत्कर्मों और सदाचार के एक बार के प्रयास से अपने भ्रष्ट स्वभाव को हल कर सकते हो। तुम इस सिद्धांत को समझते हो, है ना? तो फिर तुम अपने माता-पिता की कमी खलने के मामले को समूल कैसे सुलझाओगे? कुछ लोग अपना घर-बार छोड़कर दो-तीन साल से स्वतंत्र रूप से रह रहे हैं; वे पहले ही वयस्क हो चुके हैं और उन्हें अपने माता-पिता की कमी उतनी ज्यादा नहीं खलती है। क्या इस प्रकार समस्या हल हो चुकी है? नहीं। अगर तुम उनसे पूछो कि वे किसके सबसे निकट हैं तो वे बिल्कुल आदर्श जवाब देंगे : “मैं परमेश्वर के सबसे निकट हूँ, परमेश्वर मुझे सबसे प्रिय है!” लेकिन दिल ही दिल में वे सोचते हैं : “परमेश्वर मेरे साथ नहीं है, न वह मेरी देखभाल करने में सक्षम है। मैं अब भी अपनी माँ के सबसे निकट हूँ। मैं उसी की देह का अंश हूँ, वह मुझ पर सबसे ज्यादा लाड़-प्यार लुटाती है और मुझे सबसे ज्यादा समझती-बूझती है। जब चीजें सबसे मुश्किल और अप्रिय होती हैं तो मेरी माँ हमेशा मुझे दिलासा देने, मेरी मदद करने और मेरा ख्याल रखने के लिए मौजूद रहती है। अब जबकि मैं घर छोड़ चुका हूँ तो बीमार पड़ने पर मेरी माँ की तरह मेरा ख्याल रखने वाला कोई नहीं है। तुम कहते हो परमेश्वर अच्छा है, लेकिन मैं तो उसका मुँह देख नहीं पाता, तो फिर वह कहाँ है? यह व्यावहारिक नहीं है।” वे सोचते हैं कि परमेश्वर पर भरोसा करना व्यावहारिक नहीं है, और परमेश्वर के सबसे निकट होने के उनके शब्द थोड़े-से झूठे और थोड़े-से पाखंडपूर्ण हैं। दरअसल, अपने अंतरतम में तो वे यही मानते हैं कि उनकी माँ ही उनके सबसे निकट है। लेकिन क्यों? “मैं परमेश्वर में विश्वास उस सुसमाचार के कारण करता हूँ जो मेरी माँ ने ही मुझे सुनाया था; माँ के बिना मैं यहाँ होता भी नहीं।” क्या वे इसी तरह नहीं सोचते हैं? (सोचते हैं।) क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे लोग सत्य समझते हैं? (नहीं समझते हैं।) तुम्हारी माँ ने केवल तुम्हें जन्म दिया और बीसेक साल तुम्हारी देखभाल की। क्या वह तुम्हें सत्य प्रदान कर सकती है? क्या वह तुम्हें जीवन प्रदान कर सकती है? क्या वह तुम्हें शैतान के प्रभाव से बचा सकती है? क्या वह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को परिमार्जित कर सकती है? वह इनमें से कोई भी काम नहीं कर सकती है। इसीलिए माता-पिता का अनुग्रह और माता-पिता का प्रेम अत्यंत सीमित होता है। परमेश्वर तुम्हारे लिए क्या कर सकता है? परमेश्वर लोगों को सत्य प्रदान कर सकता है, उन्हें शैतान के प्रभाव और मृत्यु से बचा सकता है, और उन्हें शाश्वत जीवन प्रदान कर सकता है—क्या यह शानदार प्रेम नहीं है? यह प्रेम स्वर्ग जितना ऊँचा और पृथ्वी जितना गहरा है। यह अत्यंत शानदार है : माता-पिता के प्रेम से सौ गुना, नहीं, हजार गुना अधिक है। अगर लोग वाकई यह जान सकें कि परमेश्वर का प्रेम कितना शानदार है तो क्या वे तब भी अपने माता-पिता के प्रति इतना प्रेम महसूस करेंगे? क्या वे तब भी नव वर्ष और छुट्टियों के दौरान सारे-सारे दिन उनके बारे में सोचेंगे? अगर वे सत्य समझते हैं तो वे परमेश्वर के प्रेम के बारे में ज्यादा सोचेंगे। अगर कोई व्यक्ति बरसों से परमेश्वर में विश्वास करता आया है और अब भी ये सोचता है कि उसके माता-पिता का प्यार परमेश्वर के प्यार से ज्यादा महान है तो फिर वह व्यक्ति अंधा है और उसका परमेश्वर में कोई विश्वास नहीं है। अगर कोई परमेश्वर में विश्वास करता है, लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करता तो क्या वह अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर कर सकता है? क्या ऐसे लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते हैं। अगर तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं हुआ है और तुम्हारे आध्यात्मिक जीवन का विकास एक निश्चित कद तक नहीं हुआ है, तो फिर तुम भले ही कुछ नारे लगाओ लेकिन तुम उन पर अमल नहीं कर सकोगे क्योंकि तुम्हारा आध्यात्मिक कद नहीं है। तुम उतने ही महान कार्य कर सकते हो, जितनी तुममें शक्ति होगी। तुम उतने ही बड़े परीक्षणों से गुजर सकते हो, जितना बड़ा आध्यात्मिक कद उन्हें सहने के लिए तुम्हारे पास है। तुम उतनी ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो, जितनी तुम समझ सकते हो; यानी उतनी ही सत्य वास्तविकता को तुम जी सकते हो। तदनुसार, अपने भ्रष्ट स्वभाव के उतने ही प्रकटावों और अपनी उतनी ही कठिनाइयों का तुम समाधान कर सकते हो; इनमें परस्पर संबंध है।
एक दिन, जब तुम थोड़ा-बहुत सत्य समझ लोगे, तो तुम यह नहीं सोचोगे कि तुम्हारी माँ सबसे अच्छी इंसान है, या तुम्हारे माता-पिता सबसे अच्छे लोग हैं। तुम महसूस करोगे कि वे भी भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं, और उनके भ्रष्ट स्वभाव एक-जैसे हैं। उन्हें सिर्फ तुम्हारे साथ उनका शारीरिक रक्त-संबंध अलग करता है। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, तो वे भी गैर-विश्वासियों के ही समान हैं। तब तुम उन्हें परिवार के किसी सदस्य के नजरिये से नहीं, या अपने देह के संबंध के नजरिये से नहीं, बल्कि सत्य के दृष्टिकोण से देखोगे। तुम्हें किन मुख्य पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर में विश्वास के बारे में उनके विचार, दुनिया पर उनके विचार, मामले सँभालने के बारे में उनके विचार, और सबसे महत्वपूर्ण बात, परमेश्वर के प्रति उनके दृष्टिकोण देखने चाहिए। अगर तुम इन पहलुओं का सही ढंग से आकलन करते हो, तो तुम स्पष्ट रूप से देख पाओगे कि वे अच्छे लोग हैं या बुरे। किसी दिन तुम स्पष्ट रूप से देख पाओगे कि वे बिल्कुल तुम्हारे जैसे भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग हैं। यह भी और स्पष्ट हो सकता है कि वे ऐसे दयालु लोग नहीं हैं जो तुमसे वास्तविक प्रेम करते हैं, जैसा कि तुम उन्हें समझते हो, और न वे तुम्हें सत्य की ओर या जीवन में सही रास्ते पर ले जाने में बिल्कुल भी समर्थ हैं। तुम स्पष्ट रूप से देख सकते हो कि उन्होंने तुम्हारे लिए जो कुछ किया है, वह बहुत लाभदायक नहीं है, और यह जीवन में सही रास्ता अपनाने में तुम्हारे लिए किसी काम का नहीं हैं। तुम यह भी देख सकते हो कि उनके कई अभ्यास और मत सत्य के विपरीत हैं, कि वे दैहिक हैं, और इससे तुम्हें उनसे घृणा होती है, और तुम उनसे दूर हटते और विमुख होते हो। अगर तुम इन चीजों को भाँप सको तो फिर तुम उनके साथ सही ढंग से व्यवहार कर पाओगे, तब तुम उनकी कमी महसूस नहीं करोगे, उनके बारे में चिंता नहीं करोगे और उनसे अलग होने में कोई परेशानी महसूस नहीं करोगे। उन्होंने माता-पिता के रूप में अपना उद्देश्य पूरा कर लिया है, इसलिए अब तुम उन्हें अपने सबसे करीबी लोग नहीं समझोगे और न ही उन्हें अपना आदर्श मानोगे। बल्कि, तुम उन्हें साधारण इंसान मानोगे और तब भावनाओं के बंधन से पूरी तरह से मुक्त हो जाओगे और अपनी भावनाओं और पारिवारिक स्नेह से उबर जाओगे। एक बार तुम ऐसा कर लोगे तो तुम्हें एहसास हो जाएगा कि ये चीजें संजोने लायक नहीं हैं। उस समय तुम देखोगे कि रिश्तेदार, परिवार और देह के संबंध सत्य को समझने और खुद को भावनाओं से मुक्त करने की राह की बाधाएँ हैं। इसका कारण यह है कि उनके साथ तुम्हारे पारिवारिक संबंध हैं—वे देह के संबंध जो तुम्हें पंगु बना देते हैं, तुम्हें गुमराह करते हैं और यकीन दिलाते हैं कि वे तुमसे सर्वोत्तम व्यवहार करते हैं, तुम्हारे सबसे निकट हैं, तुम्हारी चिंता सबसे ज्यादा करते हैं, तुम्हें सर्वाधिक प्रेम करते हैं—इन सबके कारण तुम स्पष्ट रूप से यह नहीं पहचान पाते कि वे लोग अच्छे हैं या बुरे। एक बार जब तुम इन भावनाओं से सचमुच किनारा कर लेते हो, भले ही तुम समय-समय पर उनके बारे में सोचते रहो, क्या तुम तब भी तहेदिल से उनकी कमी महसूस करोगे, उनके बारे में ही सोचते रहोगे, और क्या तब भी तुम उनके लिए वैसे ही तड़पोगे जैसे अभी तड़पते हो? ऐसा नहीं होगा। तुम ऐसा नहीं कहोगे : “जिस व्यक्ति के बिना मैं वाकई रह नहीं सकता वह मेरी माँ है; वही मुझसे प्यार करती है, मेरी देखभाल करती है और मेरी सबसे ज्यादा फिक्र करती है।” जब तुम इतना समझने लगोगे तो क्या उन्हें याद करते हुए तुम अब भी विलाप करोगे? नहीं। यह समस्या हल हो जाएगी। इसलिए जो समस्याएँ या मामले तुम्हारे लिए कठिनाई पैदा कर रहे हैं, उनके संबंध में अगर तुमने सत्य के उस पहलू को हासिल नहीं किया है और सत्य वास्तविकता के उस पहलू में प्रवेश नहीं किया है तो तुम ऐसी कठिनाइयों या दशाओं में फँसे रहोगे और इनसे कभी नहीं निकल पाओगे। अगर तुम इस प्रकार की कठिनाइयों और समस्याओं को जीवन की मुख्य समस्याएँ मानोगे और फिर इन्हें हल करने के लिए सत्य खोजोगे तो फिर तुम सत्य वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश कर लोगे; तुम अनजाने में ही, इन कठिनाइयों और समस्याओं से सबक सीख लोगे। जब समस्याएँ हल हो जाएँगी तो तुम्हें एहसास होगा कि तुम अपने माता-पिता और परिजनों के उतने करीब नहीं हो, तुम उनके प्रकृति सार को अधिक स्पष्टता से समझ सकोगे, और तुम समझ जाओगे कि वे सचमुच किस प्रकार के लोग हैं। जब तुम अपने प्रियजनों को स्पष्ट रूप से जान जाओगे तो कहोगे : “मेरी माँ सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करती है; वास्तव में वह सत्य से विमुख होती है और घृणा करती है। अपने सार में, वह दुष्ट इंसान है, शैतान है। मेरे पिता खुशामदी इंसान हैं और मेरी माँ के साथ खड़े हैं। वह न तो सत्य को स्वीकार करते हैं और न इसका अभ्यास करते हैं; वह सत्य का अनुसरण करने वाले इंसान नहीं हैं। अपने व्यवहार के आधार पर मेरे माता-पिता छद्म-विश्वासी हैं; वे दोनों ही शैतान हैं। मुझे उनसे पूरी तरह विद्रोह करना होगा और उनके साथ स्पष्ट सीमारेखा खींचनी होंगी।” इस तरह तुम सत्य के पक्ष में खड़े हो सकोगे और उन्हें त्याग सकोगे। जब तुम यह पहचान लोगे कि वे कौन हैं, किस किस्म के लोग हैं, तो क्या तब भी तुम्हारे मन में उनके लिए भावनाएँ उमड़ेंगी? क्या तुम तब भी उनके प्रति स्नेह महसूस करोगे? क्या तुम तब भी उनके साथ संबंध रखोगे? तुम ऐसा नहीं करोगे। क्या तुम्हें तब भी अपनी भावनाओं को रोकने की जरूरत पड़ेगी? (नहीं।) तो इन कठिनाइयों को हल करने के लिए तुम असल में किस पर यकीन करते हो? तुम सत्य समझने, परमेश्वर पर निर्भर रहने और परमेश्वर की ओर देखने पर यकीन करते हो। अगर तुम्हारे मन में इन चीजों को लेकर स्पष्टता है तो क्या तब भी तुम्हें खुद को रोकने की जरूरत है? क्या तब भी तुम्हें लगता है कि तुम्हारे साथ गलत हुआ है? क्या तुम्हें तब भी इतनी अधिक पीड़ा सहने की जरूरत है? क्या तुम्हें अपने साथ संगति करने और विचारधारा का कार्य करने के लिए तब भी दूसरों की जरूरत है? तुम्हें ऐसी जरूरत नहीं है क्योंकि तुम पहले ही चीजों को खुद सुलझा चुके हो—यह बहुत आसान है। विषय पर लौटें तो तुम्हें यह मसला कैसे हल करना चाहिए ताकि तुम उनके बारे में न सोचो या तुम्हें उनकी कमी न खले? (सत्य को खोजकर।) ये भारी-भरकम शब्द हैं और सुनने में बहुत औपचारिक लगते हैं—थोड़ा और व्यावहारिक रूप से बताओ। (परमेश्वर के वचनों का प्रयोग कर उनके सार को स्पष्ट देखना; अर्थात, सार के आधार पर उनकी पहचान करना। तब हम अपने स्नेह और अपने दैहिक संबंधों को परे रखने में सक्षम रहेंगे।) बिल्कुल सही। तुम्हें लोगों के प्रकृति सार की पहचान परमेश्वर के वचनों के आधार पर करनी चाहिए। परमेश्वर के वचनों के अनुभव के बिना कोई भी व्यक्ति दूसरों के प्रकृति सार को स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकता है। परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर टिके रहकर ही दूसरे लोगों के प्रकृति सार को स्पष्ट समझा जा सकता है; केवल तभी मानवीय भावनाओं की समस्या का समूल समाधान किया जा सकता है। पहले अपने स्नेह और दैहिक संबंधों को छोड़कर शुरुआत करो; जिसके लिए भी तुम्हारी भावनाएँ सबसे तीव्र हों, सबसे पहले उसी का विश्लेषण कर पहचान करनी चाहिए। तुम्हें यह समाधान कैसा लगता है? (यह अच्छा है।) कुछ लोग कहते हैं : “जिन लोगों से मेरी भावनाएँ सबसे मजबूती से जुड़ी हैं, उन्हें पहचानना और उनका विश्लेषण करना—यह कितनी निष्ठुर बात है!” उन्हें पहचानने का अर्थ यह नहीं है कि तुम उनसे अपने संबंध तोड़ लो—इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम अपने माता-पिता से संतान का संबंध तोड़ लो, उन्हें पूरी तरह त्याग दो, कभी भी उनके साथ बातचीत न करो। तुम्हें अपने प्रियजनों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, लेकिन तुम उनके कारण किसी विवशता या उलझन के शिकार नहीं बन सकते हो क्योंकि तुम परमेश्वर के अनुयायी हो; तुम्हें यह सिद्धांत अपनाना होगा। अगर तुम अब भी उनके कारण विवशता में पड़ जाओ या उलझ जाओ तो तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा सकते, न तुम गंतव्य तक परमेश्वर का अनुसरण करने की गारंटी दे सकते हो। अगर तुम परमेश्वर के अनुयायी या सत्य के अनुरागी न होते तो कोई भी तुमसे यह अपेक्षा न करता। कुछ लोग कहते हैं : “अभी मैं सत्य नहीं समझता हूँ; मैं नहीं जानता कि दूसरों की पहचान कैसे करनी है।” अगर तुम्हारा आध्यात्मिक कद अभी इतना नहीं है तो पहचान का कार्य अभी रहने दो। जब तुम्हारा आध्यात्मिक कद पर्याप्त बड़ा हो जाए, तुम इस प्रकार के परीक्षणों से गुजरने में सक्षम हो जाओ, और इस ढंग से अभ्यास करने की पहल स्वयं करने में भी सक्षम हो जाओ, तो सत्य के इस पहलू का अभ्यास करने के लिए तुम्हारे लिए बहुत ज्यादा देर नहीं हुई होगी।
अनेक लोग व्यर्थ ही भावनात्मक रूप से पीड़ा झेलते हैं; वास्तव में, यह सब अनावश्यक, निरर्थक पीड़ा है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? लोग हमेशा अपनी भावनाओं के कारण विवश होते हैं, इसलिए वे सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के आगे समर्पण करने में असमर्थ रहते हैं; यही नहीं, भावनाओं के आगे विवश होना अपना कर्तव्य निभाने या परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए लाभदायक नहीं है, और साथ ही जीवन-प्रवेश के लिए भारी बाधा है। इसलिए भावनाओं की विवशता झेलने का कोई अर्थ नहीं है, न इसे परमेश्वर याद रखता है। तो तुम इस निरर्थक पीड़ा से खुद को कैसे मुक्त कर सकते हो? तुम्हें सत्य समझने और इन दैहिक संबंधों के सार को अच्छी तरह देखने-समझने की जरूरत है; तब तुम्हारे लिए देह की भावनाओं के आगे विवश होने से मुक्त होना आसान हो जाएगा। परमेश्वर में विश्वास करने वाले कुछ लोगों पर उनके गैर-विश्वासी माता-पिता भारी अत्याचार करते हैं; अगर उन्हें अपना जीवनसाथी ढूंढ़ने के लिए बाध्य नहीं किया जा रहा है तो उन्हें नौकरी खोजने के लिए बाध्य किया जा रहा है। वे जो चाहे सो कर सकते हैं लेकिन उन्हें परमेश्वर में विश्वास करने की अनुमति नहीं दी जाती है। कुछ माता-पिता तो परमेश्वर की निंदा तक करते हैं, इसलिए ये लोग अपने माता-पिता के सच्चे शैतानी चरित्र को देख लेते हैं। केवल तभी उनका दिल कराहता है : “ये तो सचमुच शैतान हैं, इसलिए मैं इन्हें अपने प्रियजन नहीं मान सकता हूँ!” इसके बाद वे अपनी भावनाओं की विवशता और जंजीरों से मुक्त होते हैं। लोगों को विवश करने और बाँधने के लिए शैतान भावनाओं का सहारा लेता है। अगर लोग सत्य नहीं समझते हैं तो वे आसानी से धोखा खा लेते हैं। अक्सर अपने माता-पिता और प्रियजनों की खातिर वे खिन्न रहते हैं, विलाप करते हैं, कठिनाइयाँ सहते हैं और त्याग करते हैं। यह उनका घोर अज्ञान है; वे बिना शिकायत किए अपने दुर्भाग्य को स्वीकारते हैं, और जो बोते हैं वही काटते हैं। इन चीजों को सहना बेकार है—एक ऐसा व्यर्थ प्रयास जिसे परमेश्वर बिल्कुल भी याद नहीं रखेगा—कहा जा सकता है कि वे बहुत बुरे दौर से गुजर रहे हैं। जब तुम वास्तव में सत्य समझोगे और उनके सार को स्पष्ट रूप से समझ पाओगे, तो मुक्त हो जाओगे; तुम महसूस करोगे कि तुम्हारी विगत पीड़ा तुम्हारी अज्ञानता और मूर्खता का नतीजा थी। तुम किसी और को दोष नहीं दोगे; तुम अपनी अज्ञानता, अपनी मूर्खता और इस बात को दोषी ठहराओगे कि तुमने सत्य नहीं समझा या चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देखा। क्या भावना की समस्या हल करना आसान है? क्या तुम लोग इसका निराकरण कर चुके हो? (अभी नहीं। हमने अभी तक परमेश्वर के बताए अभ्यास मार्ग का अभ्यास या इसमें प्रवेश नहीं किया है; बस इतना जरूर है कि जब इस तरह की कोई चीज होती है तो हमारे पास संदर्भ लेने का एक आधार है।) यह सब कहते हुए, चाहे व्यावहारिक मामलों के बारे में बोल रहे हों, या उन चीजों के बारे में जिनकी तुम लोगों ने मार्गों के रूप में व्याख्या की है, मैं तुमसे कहता हूँ : जब तुम इस तरह की चीज का सामना करते हो तो इसे संभालने का सबसे अच्छा तरीका है परमेश्वर से प्रार्थना करना और सत्य खोजना, और तब तुम्हें इसे हल करने का रास्ता मिलेगा। जब तुम देह की भावनाओं के सार को समझ लोगे तो तुम्हारे लिए सत्य सिद्धांतों के अनुसार मामलों को संभालना आसान हो जाएगा। अगर तुम हमेशा अपने प्रियजनों के साथ दैहिक संबंधों के कारण विवश रहते हो तो तुम्हारे पास सत्य का अभ्यास करने का कोई रास्ता नहीं होता; भले ही तुम सिद्धांत समझते हो और नारे लगाते हो, फिर भी तुम अपनी वास्तविक समस्याएँ हल करने में असमर्थ रहोगे। कुछ लोगों को सत्य खोजना बिल्कुल नहीं आता है। दूसरे लोग सत्य खोजने में तो समर्थ हैं, लेकिन जब लोग उनके साथ सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति करते हैं तो वे पूरी तरह विश्वास नहीं करते और इसे पूर्ण रूप से स्वीकारने में असमर्थ रहते हैं; वे इसे बस सिद्धांत समझकर सुनते हैं। लिहाजा, अपनी भावनाओं के आगे विवश होने की तुम्हारी समस्या का कभी भी समाधान नहीं हो सकता; अगर इसका समाधान नहीं हो सकता, तो तुम इससे कभी बाहर नहीं निकल सकते हो, और तुम विवश और बंधे रहोगे। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो लेकिन उसका अनुसरण करने या अपना वांछित कर्तव्य निभाने में असमर्थ हो तो अंत में, तुम परमेश्वर का वादा प्राप्त करने लायक नहीं रहोगे, फिर एक दिन तुम आपदा में घिर जाओगे और दंडित किए जाओगे—तब रोना और दाँत पीसना व्यर्थ होगा, और तुम्हें कोई नहीं बचा सकेगा। क्या तुम अब भ्रष्ट स्वभाव का समाधान न करने के दुष्परिणाम समझ गए हो?
हमने आज किस विषय पर संगति की है? हमने लोगों की दशाओं, उनके भ्रष्ट स्वभावों के साथ ही इस बारे में संगति की है कि सत्य वास्तविकता में कैसे प्रवेश करें, अपने सामने आने वाले मामलों में कैसे उचित ढंग से पेश आएँ, हमें कैसे दृष्टिकोण अपनाने चाहिए और अपने भ्रष्ट स्वभावों को कैसे जानना चाहिए, कैसे इनका विश्लेषण और निराकरण करना चाहिए। जीवन-प्रवेश का सबक हमेशा सीखना चाहिए; इसे सीखने या इसकी शुरुआत करने के लिए कभी बहुत देर नहीं होती। तो, किस समय बहुत देर हो चुकी होती है? अगर तुम मर चुके हो तब बहुत देर हो गई होती है; अगर तुम जीवित हो तो अभी भी देर नहीं हुई है। अभी तुम सभी लोग जीवित हो, मरे नहीं हो, किंतु क्या तुम वास्तव में जानते हो कि जीवित और मृत क्या हैं? अंग्रेजी में लोग हमेशा कहते हैं, “मैं अभी जिंदा हूँ।” इसका क्या मतलब है? यह वह स्थिति है जब तुम अपने साथ कुछ घटित होने पर कुछ समझ नहीं पाते हो या तुम्हें समाज के ज्वार में घसीटा जाता है, या तुम्हें लगता है कि तुम पतित हो, और तब तुम खुद को चिमटी काटते हो और इसे महसूस भी कर पाते हो—तब तुम महसूस करते हो कि तुम अभी भी जिंदा हो, कि तुम्हारा हृदय अभी तक मरा नहीं है। अगर तुम अभी जिंदा हो तो तुम्हारे अपने लक्ष्य भी होने चाहिए और तुम्हें इंसान की तरह जीना चाहिए। पहले तुम पतित थे और सांसारिक चीजों के पीछे भागते हुए बुराई की लहर पर सवार रहते थे; क्या अब वह समय नहीं आ गया है कि तुम खुद को सँभालकर आगे और पतित होने से बचा लो? तुम जानते हो कि पश्चिमी लोगों को सच्चा मार्ग नहीं मिला है, और जब मानव जीवन और उनकी जीवनशैली की बात आती है तो वे निराशा महसूस करते हैं, इसलिए उनके शब्द गहरी भावना से भरे होते हैं और उनमें एक प्रकार की उदासी और निराशा होती है—अर्थात, भीतर ही भीतर कैद एक असहाय मनोदशा। जीवन जीते-जीते उन्हें अक्सर लगता है कि वे इंसान नहीं हैं, लेकिन उन्हें तो इसी तरह जीना पड़ेगा; भले ही उन्हें भूत, जानवर या हैवान जैसा महसूस हो, फिर भी उन्हें इसी तरह जीना पड़ेगा। क्या किया जा सकता है? वे कुछ नहीं कर सकते। अगर वे मरते नहीं हैं तो उन्हें इसी तरह जीना पड़ेगा; उनके लिए कोई दूसरा उपाय नहीं है, और वे दयनीय जीवन जीते हैं। क्या तुम सभी लोग ऐसे ही हो? अगर तुम एक दिन गहरी भावना से भर कर सोचते हो, “आह, मैं अभी भी जिंदा हूँ, मेरा दिल अभी तक नहीं मरा है”—अगर कोई व्यक्ति उस हद तक जाकर जी रहा है तो उसका क्या होगा? ऐसे लोग पहले ही भारी खतरे में हैं! एक विश्वासी के लिए यह पहले ही बहुत खतरनाक है। तुम बिल्कुल भी ऐसा कुछ नहीं कह सकते “मैं अभी भी जीवित हूँ, लेकिन मेरी देह एक खोल है और मैं एक चलती-फिरती लाश हूँ। मेरा दिल जिंदा है, और केवल मेरे दिल की कुछ इच्छाएँ और आदर्श ही मेरी देह को थामे हुए हैं।” इस हद तक मत चले जाओ! अगर तुम इस हद तक चले गए तो तुम्हें बचाना बहुत कठिन होगा। अभी तुम्हें देखकर लगता है कि तुम्हारी स्थितियाँ बिगड़ी नहीं हैं। अगर तुम किसी गैर-विश्वासी को परमेश्वर का वचन पढ़कर सुनाते हो तो उसे कोई जागरूकता मिलने से रही; इसलिए अगर अब मैं तुम्हारी काट-छाँट करने के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग करूँ तो क्या तुम इसके प्रति जरा-भी सचेत होओगे? (हाँ।) तुममें से कुछ लोगों को केवल अपनी काट-छाँट के बाद ही अपने बारे में कुछ भान होता है; तभी तुम्हें पछतावा होता है। इसका मतलब है कि तुम अभी भी सचेत हो, और तुम्हारे दिल अभी पूरी तरह मरे नहीं हैं, जो साबित करता है कि तुम अभी भी जाग्रत हो, जीवित हो! अगर तुम सत्य को स्वीकार कर अभ्यास में ला सकते हो तो तुम्हारे बचा लिए जाने की उम्मीद है। अगर कोई सत्य को स्वीकार न करने की हद तक पहुँच जाए तो वह पूरी तरह मर चुका है और उसे बचाया नहीं जा सकता। कलीसिया में ऐसे अनेक लोग हैं जो सत्य स्वीकार ही नहीं कर सकते। हालाँकि ये लोग साँस ले रहे हैं लेकिन वास्तव में इनमें कोई आत्मा नहीं है। वे आत्मा विहीन मृतक हैं, चलती-फिरती लाशें हैं। ऐसे लोगों का पूरी तरह खुलासा हो चुका है और वे हटा दिए गए हैं।
5 अक्तूबर 2016