लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं

परमेश्वर लोगों से कहता है कि वे उसे परमेश्वर के रूप में मानें क्योंकि मानवजाति बहुत गहराई तक भ्रष्ट हो चुकी है और लोग उसे परमेश्वर नहीं बल्कि व्यक्ति मानते हैं। लोगों के परमेश्वर से हमेशा माँग करते रहने में क्या समस्या है? और उनके हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ पालने में क्या समस्या है? मनुष्य की प्रकृति में क्या निहित है? मैंने पाया कि लोगों के साथ चाहे कुछ भी घटित हो या वे चाहे जिस चीज से निपट रहे हों, वे हमेशा अपने हितों की सुरक्षा और अपने दैहिक सुखों की चिंता करते हैं, और वे हमेशा अपने पक्ष में तर्क और बहाने ढूंढ़ते रहते हैं। वे लेशमात्र भी सत्य खोजते और स्वीकारते नहीं हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं वह अपने दैहिक सुखों की सुरक्षा और अपने भविष्य की संभावनाओं के लिए होता है। वे सब परमेश्वर से अनुग्रह पाना चाहते हैं ताकि हर संभव लाभ उठा सकें। लोग परमेश्वर से इतनी सारी माँगें क्यों करते हैं? यह साबित करता है कि लोग अपनी प्रकृति से लालची हैं, और परमेश्वर के समक्ष उनमें कोई समझ नहीं है। लोग जो कुछ भी करते हैं—वे चाहे प्रार्थना कर रहे हों या संगति या प्रचार कर रहे हों—उनके अनुसरण, विचार और आकांक्षाएँ, ये सारी चीजें परमेश्वर से माँगें हैं और उससे चीजें पाने के प्रयास हैं, ये सब परमेश्वर से कुछ हासिल करने के लिए किए जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि “यह मानव प्रकृति है,” जो सही है! इसके अलावा, परमेश्वर से लोगों का बहुत अधिक माँगें करना और बहुत अधिक असंयत लालसाएँ रखना यह साबित करता है कि सचमुच लोगों में विवेक और समझ की कमी है। वे सब अपने लिए चीजों की माँग और आग्रह कर रहे हैं, या अपने लिए बहस करने और बहाने ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे हैं—वे यह सब अपने लिए करते हैं। कई मामलों में देखा जा सकता है कि लोग जो कुछ करते हैं वह पूरी तरह समझ से रहित है, जो इस बात का पूर्ण प्रमाण है कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” वाला शैतानी तर्क पहले ही मनुष्य की प्रकृति बन चुका है। परमेश्वर से लोगों का बहुत अधिक माँगें करना किस समस्या को दर्शाता है? यह दर्शाता है कि लोगों को शैतान एक निश्चित बिंदु तक भ्रष्ट कर चुका है, और परमेश्वर में अपने विश्वास में वे उसे परमेश्वर बिल्कुल नहीं मानते हैं। कुछ लोग कहते हैं : “अगर हम परमेश्वर को परमेश्वर न मानते तो फिर हम उस पर विश्वास क्यों करते? अगर हम उसे परमेश्वर न मानते तो क्या हम अब तक उसका अनुसरण कर रहे होते? क्या हम यह तमाम कष्ट सह सकते थे?” ऊपरी तौर पर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, और तुम उसका अनुसरण करने में सक्षम हो, फिर भी उसके प्रति अपने रवैये में, और कई चीजों को लेकर अपने विचारों में, तुम परमेश्वर को स्रष्टा की तरह बिल्कुल भी नहीं मानते हो। अगर तुम परमेश्वर को परमेश्वर मानते हो, अगर परमेश्वर को स्रष्टा मानते हो तो तुम्हें सृजित प्राणी के रूप में खड़ा होना चाहिए, और तुम्हारे लिए परमेश्वर से और अधिक माँगें करना या कोई असंयत इच्छा पालना असंभव होगा। इसके बजाय, तुम मन से सच्चा समर्पण करने में सक्षम रहोगे, और तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उसमें विश्वास करने और उसके सभी कार्यों का अनुपालन करने में पूरी तरह सक्षम होगे।

जब देहधारण की गवाही की शुरुआत होने लगी तो सभी लोगों ने शिकायत की : “परमेश्वर तुमने देह धारण करने से पहले हमें प्रबुद्ध क्यों नहीं किया ताकि हम खुद को मानसिक रूप से तैयार कर लेते। अगर हम मानसिक रूप से तैयार होते तो फिर हम विद्रोह और प्रतिरोध करने के बजाय तुम्हें स्वीकारने में सक्षम रहते। क्या तुम सर्वशक्तिमान नहीं हो? हम तुमसे विद्रोह और तुम्हारा प्रतिरोध इसलिए करते हैं क्योंकि हमें शैतान भ्रष्ट कर चुका है और हम ऐसा किए बिना रह नहीं सकते। क्या तुम हमें प्रतिरोध से रोकने और हमारा मार्ग सुगम करने के लिए कुछ नहीं कर सकते?” क्या लोग ऐसा ही नहीं सोचते थे? अनेक लोगों ने यह कहकर शर्तें भी तय कर दीं : “हम अपनी विद्रोही और प्रतिरोधी भावना के बारे में कुछ भी नहीं कर सकते हैं। परमेश्वर का देहधारण हमारी धारणाओं के बहुत ही प्रतिकूल है। अगर परमेश्वर का देहधारण थोड़ा-सा ऊँचा होता, या असंयत उपस्थिति युक्त होता, या ज्ञान संपन्न और वाक्पटु होता, या वह इच्छानुसार साकार हो सकता और संकेत और चमत्कार दिखा सकता, या परमेश्वर लोगों की कल्पनाओं के और अनुरूप बनकर देहधारी होता और कार्य करता, तो फिर हम परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करते।” अनेक लोगों ने उस समय ये माँगें कीं, किंतु परमेश्वर ने मनुष्य की कल्पनाओं या धारणाओं के अनुसार कार्य नहीं किया। इसके विपरीत, उसने पलटवार कर मनुष्य की धारणाओं के बिल्कुल उलट कार्य किया। इससे क्या साबित हुआ? इससे साबित हुआ कि मनुष्य की धारणाएँ और माँगें अनुचित और परेशानी पैदा करने वाली हैं। कुछ लोग कलीसिया के अगुआ बन गए लेकिन कोई वास्तविक कार्य नहीं किया, और हमेशा कुछ बाहरी कार्यों में व्यस्त रहे। जब मैंने इन लोगों का निपटान और काट-छाँट की, इन्हें जरा-सा धिक्कारा, तो ये मन ही मन उदास हो गए, ये फूट-फूट कर रोए और नकारात्मक हो गए। इन्होंने खुद से कहा : “क्या परमेश्वर दयालु और प्रेममय नहीं है? मैं इतनी अधिक पीड़ा झेल रहा हूँ, तो क्यों नहीं वह कुछ भले वचन कहकर मुझे सांत्वना देता? वह मुझे एक भी आशीर्वचन क्यों नहीं देता?” लोगों ने परमेश्वर से इस प्रकार माँगें कीं, और अपने ही औचित्यों से भरे हुए थे। कुछ लोगों को लगता था कि अनेक लोगों को सफलतापूर्वक सुसमाचार सुनाने की वजह से उनके पास आध्यात्मिक पूँजी है, इसलिए कुछ गलत करने पर निपटाए जाने के बाद वे तर्क देते थे : “मैंने बिना कोई पुरस्कार पाए इतने अधिक लोगों में सफलतापूर्वक सुसमाचार का प्रचार किया, और अब इस तरह मेरा निपटान और काट-छाँट की जा रही है। मैंने इतने अधिक कष्ट भोगे हैं, फिर भी अंत में मुझसे निपटा ही गया। परमेश्वर मेरी भावनाओं का ख्याल क्यों नहीं रखता?” क्या इस तरह सोचने वाले लोगों के दिल में सत्य होता है? क्या ये माँगें उचित हैं? अगर मैंने किसी को निपटाए जाने के बाद दिलासा दी तो वह सोचेगा : “परमेश्वर इतना अच्छा है, मैंने कभी नहीं सोचा कि वह मुझे सांत्वना देगा।” लेकिन अगर मैंने किसी व्यक्ति का निपटान किया, और इससे वह खास तौर पर परेशान हो गया, और मैंने उसे सांत्वना नहीं दी तो वह सोचेगा, “परमेश्वर क्यों दूसरे लोगों से निपटने के बाद उन्हें तो सांत्वना देता है, लेकिन मुझे नहीं देता? परमेश्वर मेरे साथ निष्पक्ष नहीं है,” और उसके दिल में धारणाएँ बैठ जाएंगी। लोग अपने दिल में कई अनुचित माँगें, कल्पनाएँ और इच्छाएँ पाल लेते हैं जो किसी खास वक्त और अनुकूल माहौल मिलते ही प्रस्फुटित हो जाएँगी। क्योंकि मनुष्य द्वारा प्रकट कोई भी विचार, ख्याल या माँग परमेश्वर के अनुरूप नहीं है, और मनुष्य की प्रकृति शैतानी चीजों से भरी पड़ी है : वह हर चीज अपने लिए करता है, वह स्वार्थी और लालची है, उसकी बहुत अधिक असंयत इच्छाएँ हैं, और वह बहुत ही मलिन और बहुत ही ज्यादा भ्रष्ट है।

लोग हमेशा परमेश्वर से माँगें करते हैं, फिर चाहे स्थिति कोई भी हो। इसमें समस्या क्या है? कुछ लोग किसी सुख-साधन का मजा लेते हुए यह कहकर प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर, मेरी रक्षा कर, मुझे सदा इसी स्थिति में रहने दे।” लोग तब भी माँगें करते हैं जब वे खिन्न या उदास होते हैं : “परमेश्वर, तुम मुझ पर दया क्यों नहीं करते? तुम मुझे प्रबुद्ध क्यों नहीं करते? दूसरे लोगों के लिए स्थितियाँ इतनी अच्छी क्यों हैं, और मेरे लिए इतनी बुरी क्यों हैं?” लोग जब किसी मुसीबत में फँसते हैं, तो पुरजोर माँग करते हैं कि परमेश्वर उनके परिवेश को बदल दे; जब चीजें ठीक चल रही होती हैं, तो लोगों की माँगें और भी बढ़ जाती हैं। जब लोगों को कुछ हासिल होता है, तो उनकी लालसा और बढ़ जाती है, और जब कुछ हासिल नहीं होता, तो वे बेताब होकर इसे पाना चाहते हैं। लोग क्या हासिल करना चाहते हैं? वे अपनी पसंद की और अपने दैहिक हितों की चीजें हासिल करना चाहते हैं। इसलिए मनुष्य की कोई भी माँग उचित या औचित्यपूर्ण नहीं है। जब मैंने कुछ निर्धन परिवारों को कुछ कपड़े या चीजें इस्तेमाल करने के लिए दीं, तो यह देखकर कुछ लोग नाखुश हो गए। उन्होंने सोचा, “परमेश्वर क्यों हमेशा उनकी देखभाल करता है लेकिन मेरी नहीं? परमेश्वर निष्पक्ष नहीं है!” दूसरे लोगों ने उस समय इसे दिल पर न लेकर सोचा, “मुझ पर पहले से परमेश्वर का अनुग्रह है कि मैं उसमें विश्वास के मार्ग पर चल पा रहा हूँ और अब तक इसका अनुसरण कर रहा हूँ। मुझे उन भौतिक चीजों को पाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।” लेकिन बाद में इस बारे में सोचकर वे परेशान हो गए। जब वे इस एहसास से नहीं उबर पाए तो वे प्रार्थना करते रहे, और उन्होंने फौरी तौर पर सोचना बंद कर दिया, लेकिन ये चीजें अब भी उनके दिल में जमी हुई थीं—उन्होंने इसे चाहे जैसे देखा, उनके दिल को चैन नहीं मिला, और उन्होंने मन ही मन सोचा : “परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ है? यह मुझे क्यों नहीं दिखती? परमेश्वर इनमें से किसी भी बाहरी मामले को निष्पक्ष या तर्कसंगत रूप से नहीं संभालता है, तो उसकी धार्मिकता कहाँ प्रकट होती है?” फिर उन्होंने अपना मन बदलकर सोचा, “धार्मिकता का आशय वही नहीं है जो निष्पक्षता या तर्क-संगति का है, और इनमें घालमेल नहीं करना चाहिए,” लेकिन वे फिर भी उखड़े हुए थे और इस बात को अपने मन से निकाल नहीं पा रहे थे। लोग जरा-से भौतिक हित को लेकर इतने चिंतित होते हैं, अगर वे उतने ही चिंतित सत्य को लेकर भी हो सकें तो क्या खूब रहेगा। जो भी हो, अपने मन में सदा परमेश्वर से माँगते जाना उनकी प्रकृति का हिस्सा है, और जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे सब भौतिक लाभों से प्रेम करते हैं। संक्षेप में, लोगों की सभी माँगें और कुचक्र—परमेश्वर से यह-वह चीज माँगना, यहाँ-वहाँ कुचक्र रचना—सत्य के प्रतिकूल हैं, और परमेश्वर की अपेक्षाओं और इच्छा के विपरीत हैं। परमेश्वर उनमें से किसी से भी प्रेम नहीं करता, वह उन सबसे घृणा कर उनका तिरस्कार करता है। लोग परमेश्वर से जो माँगें करते हैं, जो कुछ वे पाना चाहते हैं, और वे जिन रास्तों पर चलते हैं, उनका सत्य से कोई वास्ता नहीं होता। कुछ लोग सोचते हैं, “मैं इतने साल से कलीसिया के लिए काम कर रहा हूँ—अगर मैं बीमार पड़ा तो परमेश्वर को मुझे स्वस्थ कर आशीष देना चाहिए।” खास कर जो लोग लंबे अरसे से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं, वे उससे और भी अधिक माँग करते हैं; जिन लोगों ने थोड़े-से समय विश्वास किया है वे खुद को पात्र नहीं मानते, लेकिन थोड़ी देर बाद ही वे खुद को इसका हकदार मानने लगते हैं। लोग बिल्कुल ऐसे ही होते हैं; यह मनुष्य की प्रकृति है, और कोई भी व्यक्ति इससे अछूता नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने कभी भी परमेश्वर से अत्यधिक माँग नहीं की है क्योंकि मैं सृजित प्राणी हूँ, और मैं उससे कुछ भी माँगने लायक नहीं हूँ।” यह कहने में उतावली न करो, समय सब कुछ बता देगा। आखिरकार एक दिन लोगों की प्रकृति और इरादे उजागर होकर फूट पड़ेंगे। लोग परमेश्वर से माँगें इसलिए नहीं करते कि उन्हें लगता है कि यह जरूरी है या यह सही समय है या कि वे पहले भी परमेश्वर से बहुत सारी माँगें कर चुके हैं, बल्कि बात यह है कि उन्हें यह एहसास ही नहीं होता कि यह एक माँग है। संक्षेप में, लोगों की इस प्रकार की प्रकृति होती है, इसलिए हो ही नहीं सकता कि वे इसे प्रकट न करें। अनुकूल परिस्थिति या अवसर आते ही यह स्वाभाविक रूप से प्रकट होकर रहेगी। इस पर संगति आज क्यों की जा रही है? इसका उद्देश्य लोगों को यह समझाना है कि उनकी अपनी प्रकृति में क्या है। यह मत सोचो कि कुछ साल परमेश्वर में विश्वास करने या कुछ दिन कलीसिया के लिए काम करने का यह अर्थ है कि तुम उसके लिए काफी खप चुके हो, समर्पित रह चुके हो या कष्ट सह चुके हो और कुछ चीजें पाने के हकदार बन चुके हो, जैसे भौतिक चीजों का आनंद, शारीरिक पोषण, या दूसरों की नजरों में अधिक सम्मान और अहमियत पाना, या परमेश्वर तुमसे सौम्यता से बात करे या तुम्हारा ज्यादा ख्याल रखकर अक्सर पूछे कि क्या तुम ठीक से खा-पहन रहे हो, तुम शारीरिक रूप से कैसे हो, इत्यादि। ये चीजें लोगों के मन में अनजाने में ही तब उपजती हैं जब वे परमेश्वर के लिए लंबे समय तक खप चुके होते हैं और सोचने लगते हैं कि वे उससे कुछ भी माँगने के हकदार हैं। जब वे थोड़े समय से ही परमेश्वर के लिए खप रहे होते हैं तो वे खुद को हकदार न मानकर परमेश्वर से माँग करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। लेकिन समय के साथ, वे सोचेंगे कि उनके पास आध्यात्मिक पूँजी है और उनकी माँगें सामने आने लगेंगी, और उनकी प्रकृति के ये पहलू उजागर हो जाएंगे। क्या लोग ऐसे ही नहीं हैं? लोग इस बारे में क्यों नहीं सोचते कि क्या परमेश्वर से इस तरह माँगना सही है? क्या तुम इन चीजों के हकदार हो? क्या परमेश्वर ने तुमसे इनका वादा किया था? अगर कोई चीज तुम्हारी नहीं है, फिर भी तुम हठपूर्वक इसे माँगते हो, तो यह सत्य के विपरीत है, और पूरी तरह से तुम्हारी शैतानी प्रकृति की उपज है। शुरुआत में महादूत ने कैसा व्यवहार किया था? उसे बड़ा ही ऊँचा स्थान दिया गया, बहुत अधिक दिया गया, इसलिए उसने सोचा कि वह जो कुछ भी चाहता है और उसे जो कुछ भी मिला है, वह उसका हकदार है, आखिरकार वह इस हद तक पहुँच गया कि बोल पड़ा, “मैं परमेश्वर के बराबर होना चाहता हूँ!” इसी कारण लोग बहुत अधिक माँगों, बहुत बड़ी इच्छाओं के साथ परमेश्वर में विश्वास करते हैं। अगर वे अपनी ही जाँच नहीं करते और समस्या की गंभीरता समझने में विफल रहते हैं, तो एक दिन कह देंगे, “परमेश्वर, हट जाओ। मैं कमोबेश खुद परमेश्वर हो सकता हूँ” या “हे परमेश्वर, मैं वही पहनूँगा जो तुम पहनते हो, वही खाऊँगा जो तुम खाते हो।” जो लोग इस स्तर तक पहुँच चुके हैं कि वे पहले ही परमेश्वर को मानव के रूप में मान रहे हैं। यद्यपि लोग मुँह-जुबानी मानते हैं कि देहधारी परमेश्वर ही स्वयं परमेश्वर है, लेकिन ये सब सिर्फ सतही शब्द हैं। वास्तव में, उनके दिल में परमेश्वर के प्रति थोड़ा-सा भी समर्पण या भय नहीं है। कुछ लोग तो परमेश्वर बनना चाहते हैं, और अगर उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ इस हद तक बढ़ जाएँ तो मुसीबत होगी। संभावना है कि उन पर कोई विपत्ति आ पड़ेगी, और भले ही वे कलीसिया से निकाल दिए जाएँ, फिर भी उन्हें परमेश्वर दंडित करेगा।

परमेश्वर में विश्वास करने वालों को परमेश्वर को परमेश्वर के रूप में मानना चाहिए, और ऐसा करके ही वे सचमुच परमेश्वर में विश्वास करते हैं। उन्हें सिर्फ परमेश्वर के दर्जे को नहीं स्वीकारना चाहिए, बल्कि उनमें परमेश्वर के सार और स्वभाव के प्रति सच्ची समझ और भय भी होना चाहिए, और उन्हें पूर्ण आज्ञाकारी होना चाहिए। इसका अभ्यास करने के कुछ तरीके इस प्रकार हैं : पहला, परमेश्वर के साथ बातचीत करते समय अपने अंदर धर्मपरायण और ईमानदार रवैया रखो, इसमें कोई धारणा या कल्पना न हो, और दिल आज्ञाकारी बना रहे। दूसरा, तुम जो कुछ भी कहते हो, जो भी प्रश्न पूछते हो और जो कुछ भी करते हो, उसके पीछे के इरादों को जाँच के लिए परमेश्वर के सामने लाओ और प्रार्थना करो। सत्य के सिद्धांतों के अनुसार और परमेश्वर के वचनों के आधार पर अभ्यास कैसे किया जाए, केवल यह जानकर ही तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। अगर तुम सत्य की खोज नहीं करते तो सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने में तो असमर्थ रहोगे ही, तुम अधिकाधिक धारणाएँ भी बटोर लोगे और इससे मुसीबत आएगी। जब तुम परमेश्वर को व्यक्ति मानते हो तो तुम जिस परमेश्वर में विश्वास करते हो वह स्वर्ग में एक अस्पष्ट परमेश्वर है; तुम देहधारण को पूरी तरह नकार चुके होगे, और तुम फिर कभी अपने दिल में व्यावहारिक परमेश्वर को स्वीकार नहीं करोगे। इस समय, तुम मसीह-विरोधी बनकर अंधकार में गिर जाओगे। तुम जितने अधिक औचित्य दोगे, परमेश्वर से उतनी ही अधिक माँगें करोगे, और उसके बारे में तुम्हारी उतनी ही अधिक धारणाएँ होंगी, जो तुम्हें ज्यादा से ज्यादा खतरे में डाल देंगी। तुम परमेश्वर से जितनी अधिक माँगें करते हो, उससे उतना ही ज्यादा साबित होता है कि तुम परमेश्वर को परमेश्वर नहीं मानते। अगर तुम सदा अपने दिल में परमेश्वर से माँगें करते रहे तो समय के साथ-साथ संभावना है कि तुम खुद को परमेश्वर मानने लगोगे और कलीसिया में काम करते समय अपने लिए गवाही दोगे, यहाँ तक कहने लगोगे, “क्या परमेश्वर खुद अपनी गवाही नहीं देता? तो मैं क्यों नहीं दे सकता?” चूँकि तुम परमेश्वर के कार्य को नहीं समझते, इसलिए तुम्हारे मन में उसके बारे में धारणाएँ होंगी, और तुम्हारे दिल में उसके लिए भय नहीं होगा। तुम्हारा लहजा बदल जाएगा, तुम्हारा स्वभाव अहंकारी हो जाएगा, और अंत में तुम धीरे-धीरे अपनी बड़ाई करने और अपने लिए गवाही देने लगोगे। इंसान के पतन की प्रक्रिया यही होती है, और ऐसा पूरी तरह सत्य का अनुसरण न करने के कारण होता है। मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने वाला हर व्यक्ति अपनी बड़ाई करता है और अपने लिए गवाही देता है, खुद को बढ़ावा देता है और हर मोड़ पर अपना दिखावा करता है, और बिल्कुल भी परमेश्वर की परवाह नहीं करता है। मैं जिन चीजों के बारे में बता रहा हूँ, क्या तुमने इनका अनुभव किया है? कई लोग लगातार अपने लिए गवाही देते हैं, बताते फिरते हैं कि उन्होंने कैसे ये-वो कष्ट सहे, वे कैसे काम करते हैं, परमेश्वर कैसे उन्हें महत्व देता है और ऐसे कुछ काम सौंपता है, और वे किस किस्म के हैं, वे जानबूझकर खास स्वर में बोलते हैं, और कुछ खास शिष्टाचार दिखाते हैं, जब तक कि आखिरकार कुछ लोग यह न सोचने लगें कि शायद वे परमेश्वर हैं। जो लोग इस स्तर तक पहुँच चुके हैं, पवित्र आत्मा बहुत पहले ही उन्हें त्याग चुका है और हालाँकि उन्हें अभी तक भगाया या निष्कासित नहीं किया गया है, बल्कि उन्हें सेवा करने के लिए रख छोड़ा गया है, उनका भाग्य पहले ही सील-बंद हो चुका है और वे अपनी सजा का इंतजार भर कर रहे हैं। कुछ स्थानों पर ऐसा हो भी चुका है। एक नए विश्वासी ने देखा कि एक बहन विशेष काफी ओजस्वी ढंग से बोलती और गरिमामयी दिखती है, और वह उसे गलती से परमेश्वर समझ बैठा। जब जाने का समय हुआ, तो यह नया विश्वासी उसके पैरों से चिपककर चिल्लाया, “हे परमेश्वर! मत जाओ! हे परमेश्वर! मुझे तुम्हारी याद आएगी!” वह स्पष्ट जानती थी कि वह परमेश्वर नहीं है, लेकिन उसने इसका न तो खंडन किया, न ही स्थिति स्पष्ट की। क्या ऐसे व्यक्ति के पास कोई विवेक है? (नहीं है।) उसके पास कोई विवेक नहीं है और वह निश्चित रूप से निकम्मी है! कुछ लोग भ्रमित और अज्ञानी होते हैं, और ऐसे किसी व्यक्ति को परमेश्वर मान बैठते हैं—यह वाकई भयंकर बात है! और रोते हुए उसके पैरों से चिपकना तो इतनी बड़ी अज्ञानता है कि इसे सुधारा भी नहीं जा सकता है! यदि तुम एक भ्रष्ट मानव को जो शैतान है, परमेश्वर मान सकते हो तो तुम किस तरह परमेश्वर में विश्वास कर रहे हो? क्या यह शैतान में विश्वास करना नहीं है? कोई कितना भ्रमित होगा कि किसी व्यक्ति को परमेश्वर मान ले? अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो लेकिन तुम सत्य को स्वीकारने या उसका अनुसरण करने में असमर्थ हो तो संभावना है कि तुम दूसरों से धोखा खा बैठोगे, और तुम्हारा मूर्खतापूर्ण कार्य करने और भटकने की भी संभावना है। मूर्ख और अज्ञानी लोग वास्तव में खतरे में हैं, वे हर प्रकार की मूर्खतापूर्ण चीज करने में सक्षम हैं।

लोग हमेशा परमेश्वर से माँगें करते हैं, अपनी धारणाओं के अनुसार उससे ये या वो काम करने को कहते हैं। तुम परमेश्वर से कहते हो कि वह तुम्हें बचाए, तुम पर दया करे, तुमसे प्रेम करे, तुम पर अनुग्रह दिखाए—यह सब कुछ तुम्हारे ख्यालों के अनुसार है। ऐसा करके तुम परमेश्वर से माँगें करने और अपनी आज्ञा मनवाने के लिए अपने ही ख्यालों और तरीकों का इस्तेमाल करते हो। इसमें क्या समस्या है? क्या यह परमेश्वर में विश्वास करना है? यह तो तुम्हारा अपने पर ही विश्वास करना है। न तो तुम्हारे दिल में परमेश्वर है, न ही कहने के लिए कोई सत्य है। कोई व्यक्ति दयालुता में मेरे लिए एक जोड़ी जूते लाया, लेकिन वे छोटे थे, इसलिए मैं इन्हें लौटा देना चाहता था। लेकिन तभी मैंने सोचा कि अगर मैं इन्हें लौटाता हूँ तो उसे गलतफहमी हो जाएगी, इसलिए मैंने ये एक अन्य बहन को पहनने के लिए दे दिए। जब उसे पता चला तो वह इसे स्वीकार नहीं पाया और बोला : “तुम्हें पता है कि मैंने इन्हें खरीदने के लिए कितने प्रयास किए और कितने पैसे खर्चे हैं, और कितनी दूर तक घूमा हूँ? तुमने ये इतनी आसानी से किसी और को दे दिए, क्या तुम्हें लगता है कि यह पैसा कमाना मेरे लिए इतना आसान था? अगर तुम इन्हें नहीं पहनना चाहते हो तो मुझे लौटा दो—तुम इन्हें किसी और को कैसे दे सकते हो?” मैंने कहा : “मैंने तो तुम्हें जूते खरीदने के लिए नहीं कहा था। तुमने खुद खरीदे और मुझे दिए, लेकिन ये मेरे पाँवों में नहीं अटे, इसलिए मैंने ये दूसरी बहन को दे दिए। क्या इसमें कोई समस्या है? अगर मैं इनको तुम्हें लौटा देता तो क्या तुम निराश और अशक्त नहीं हो जाते, और मुझे गलत नहीं समझ बैठते? क्या मैं उचित व्यवस्था नहीं कर सकता हूँ?” क्या लोगों का मेरे साथ इस तरह व्यवहार करना उचित है? क्या यह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य समझता है? जब तुम कोई चीज परमेश्वर को भेंट करते हो, तो फिर यह तुम्हारी नहीं रह जाती है, यह उसकी हो जाती है। परमेश्वर इसका जो चाहे वो कर सकता है, और वह इसे जैसे भी संभाले, यह उसका काम है। लोगों में थोड़ी-सी समझ होनी चाहिए, उन्हें समर्पण करना सीखना चाहिए, और हरदम परमेश्वर के कार्यों में दखल नहीं देना चाहिए। क्या परमेश्वर के साथ निरंतर बहस करने में कोई समझदारी है? मेरे लिए चीजें खरीदते समय लोग परमेश्वर के प्रति बहुत दया और प्रेम के भाव से भरे हुए लगते हैं, लेकिन बाद में वे यह माँग करते हैं कि मुझे वे चीजें पसंद आनी ही चाहिए, और अगर मैं ऐसा न कर सकूँ तो वे शिकायत करते हैं। इतना ही नहीं, अगर मैं उनका उपयोग नहीं करता तो यह ठीक नहीं है, लोग यह पाबंदी थोपते हैं कि मैं उन्हें किसे दे सकता हूँ, और वे मुझे मन से कुछ नहीं करने देना चाहते हैं। लोग दिन भर इसी तरह परमेश्वर को जाँचते और उस पर चिंतन कर सोचते हैं, “परमेश्वर मनुष्य की इच्छाओं को पूरा क्यों नहीं कर सकता?” लोगों में पूरी तरह समझ की कमी है, वे बहुत विवेकहीन हैं! मैंने पाया कि सभी लोग कहते हैं, “मुझे परमेश्वर से ठीक से प्रेम करना चाहिए और उसके प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए,” लेकिन उनमें यह लेशमात्र समझ नहीं है कि परमेश्वर से प्रेम का क्या अर्थ है। लोगों के दिल भ्रष्ट स्वभाव से भरे पड़े हैं तो इनमें प्रेम कैसे हो सकता है? अगर लोग इतने भ्रष्ट हैं कि उनमें एक सामान्य व्यक्ति जैसी समझ भी नहीं है तो क्या परमेश्वर से प्रेम करने और उसकी आज्ञा मानने की बात कोरे शब्द नहीं हैं? लोगों के भीतर अगर कुछ है तो वे हैं धारणाएँ और कल्पनाएँ, आक्रोश, असंयत इच्छाएँ और उनकी अनुचित माँगें। उनके भीतर न तो कोई प्रेम है, न ही आज्ञाकारिता। लोगों के लिए प्रेम, पीछा करने के लिए एक लक्ष्य भर है, परमेश्वर द्वारा की गई एक अपेक्षा मात्र है। उनमें से कितने इसे हासिल करते हैं? कितने लोगों के पास वास्तविक अनुभव की गवाही है?

अब जबकि तुम सभी लोग सत्य का अनुसरण करने और अपने स्वभाव बदलने के लिए प्रयास करने के इच्छुक हो तो परमेश्वर से माँगें करते हुए तुम्हें किस प्रकार आत्म-चिंतन करना चाहिए? क्या तुम्हारी माँगें सत्य के अनुरूप हैं? परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया क्या होना चाहिए? क्या तुमने कभी इन प्रश्नों पर चिंतन किया है? कुछ लोग कुछ कलीसियाओं की अगुआई करने के बाद अहंकारी बन जाते हैं, सोचने लगते हैं कि उनके बिना परमेश्वर का घर नहीं चल सकता और वे विशेष व्यवहार के हकदार हैं। लोगों की शैतानी प्रकृति होती है और जिसका पद जितना ऊँचा होता है, उसकी परमेश्वर से उतनी ही बड़ी माँगें होती हैं; जो सिद्धांतों को जितना ज्यादा समझता है, उसकी माँगें उतनी ही अधिक गुप्त और धूर्त होती जाती हैं। शायद वह इन्हें उतने मुखर होकर न कहे, लेकिन ये उसके दिल में छिपी हुई होती हैं। दूसरे लोग इन्हें आसानी से नहीं ताड़ पाते लेकिन न जाने कब किसी के अंदर की शिकायतों और प्रतिरोध का गुबार फूट पड़े? इसका मतलब तो और भी ज्यादा मुसीबत होगी, और इससे परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचने की संभावना है। ऐसा क्यों है कि जो धार्मिक अगुआ और हस्तियाँ मसीह-विरोधी हैं, वे ज्यादा खतरे में हैं? किसी व्यक्ति का पद जितना ऊँचा होता है, उसकी महत्वाकाँक्षाएँ उतनी ही अधिक हो जाती हैं; जो सिद्धांतों को जितना अधिक समझता है, उसका स्वभाव उतना ही अधिक अहंकारी हो जाता है। इसलिए परमेश्वर में विश्वास तो करना लेकिन सत्य के बजाय रुतबे के पीछे भागना खतरनाक है। परमेश्वर ने इतने अधिक सत्य व्यक्त किए हैं, और जो सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, उन्हें उजागर कर अपने घर से निष्कासित कर दिया है, जो धार्मिक मंडलियों में हैं, उनकी तो बात ही छोड़ो। क्या तुम लोगों को यह आवश्यक लगता है कि परमेश्वर लोगों का न्याय करे और उन्हें प्रताड़ना दे? जब लोग वाकई सत्य को समझेंगे और जीवन-प्रवेश करेंगे तो वे अपनी भ्रष्टता की वास्तविकता को देख लेंगे और यह महसूस करेंगे कि उनके लिए सत्य का अनुसरण न करना खतरनाक रहेगा। अभी तो लोग अपनी प्रकृति बिल्कुल नहीं समझते हैं, और भले ही उन्हें थोड़ी-सी सतही समझ जरूर होती है, यह सिर्फ सिद्धांतों की समझ है, और उन्होंने सत्य हासिल नहीं किया है। इसलिए उन्हें नहीं लगता कि वे खतरे में हैं, न वे भय मानना जानते हैं, न अपनी चिंता करना जानते हैं। कुछ नए विश्वासी कुछ भी कहने और करने की हिम्मत दिखाते हैं लेकिन जिन्होंने न्याय और प्रताड़ना का अनुभव कर लिया है वे अलग होते हैं। उनके दिल में परमेश्वर के लिए कुछ भय होता है और भले ही वे कुछ धारणाएँ पालते हों, वे इन्हें कहने का साहस नहीं करते और फौरन प्रार्थना करना जानते हैं : “हे परमेश्वर, मैंने तुम्हें नाराज कर दिया है...।” कुछ नए विश्वासी बिना सोचे-समझे परमेश्वर की निंदा का दुस्साहस करते हुए कहते हैं, “परमेश्वर दुःख भोगता है? क्या दुःख भोगता है? अच्छा खाना-पहनना, हर जगह लोगों का आतिथ्य सत्कार पाना—यह तो दुःख भोगना नहीं है! लेकिन मेरी बला से। मैं तो परमेश्वर के आत्मा में विश्वास करता हूँ, किसी व्यक्ति में नहीं।” वे देहधारण को नकारने की हिम्मत करते हैं। इन लोगों का ऐसा कलेजा है। उनमें परमेश्वर का भय बिल्कुल नहीं है, वे किसी से नहीं डरते, वे कुछ भी कह सकते हैं, और वे सब शैतानी और पाशविक प्रवृत्तियाँ पालते हैं। अगर ऊपरवाले के मन में किसी व्यक्ति के बाबत कुछ अच्छी छाप या राय है तो कुछ लोग कहते हैं, “यह कलीसिया में लोकप्रिय और कृपापात्र व्यक्ति है, जिसकी परमेश्वर के घर में खूब आवभगत होती है।” क्या इस प्रकार का व्यक्ति सत्य समझता है? लेशमात्र भी नहीं। वह चीजों को जिस तरीके से देखता है, उससे यह पूरी तरह उजागर हो चुका है कि उसके मन में अब भी हर चीज इसी संसार की है। यह पूर्ण रूप से सांसारिक दृष्टिकोण और अनुभूति है। क्या परमेश्वर पर विश्वास करने और उसके वचन पढ़ने का इन लोगों पर कोई प्रभाव पड़ता है? वे सत्य बिल्कुल भी नहीं स्वीकारते, और चीजों को देखने का उनका तरीका बिल्कुल अविश्वासियों के समान होता है। वे वास्तव में गैर-विश्वासी हैं।

परमेश्वर से सदा माँगते रहना मनुष्य की प्रकृति का अंग है, और तुम लोगों को इस प्रकृति का विश्लेषण परमेश्वर के वचनों के अनुरूप करना चाहिए। तुम्हें इसका विश्लेषण किस ढंग से करना चाहिए? पहला कदम यह स्पष्ट जानना है कि परमेश्वर को लेकर लोगों में कौन-सी अनुचित माँगें और कौन-सी असंयत इच्छाएँ हैं, और तुम्हें इनमें से एक-एक का विश्लेषण करना चाहिए : लोग ऐसी माँग क्यों करते हैं? उनकी मंशा क्या है? उनका उद्देश्य क्या है? तुम जितना अधिक सचेत होकर इस तरह विश्लेषण करोगे, तुम्हें अपनी प्रकृति की उतनी ही अधिक समझ आएगी, और वह समझ उतनी ही अधिक विस्तृत होती जाएगी। अगर तुम इसका विस्तृत विश्लेषण नहीं करते हो, बल्कि सिर्फ यह जानते हो कि लोगों को परमेश्वर से माँगें नहीं करनी चाहिए, केवल यह समझते हो कि परमेश्वर से माँगें करना अनुचित है, और बात खत्म, तो फिर अंततः तुम न तो कोई प्रगति करोगे और न बदलोगे। कुछ लोग कहते हैं : “हम लोगों की परमेश्वर से इतनी अधिक माँगें होती हैं क्योंकि हम बेहद स्वार्थी हैं। हमें क्या करना चाहिए?” स्वाभाविक रूप से, लोगों को सत्य समझना और स्वार्थ का सार जानना चाहिए। जब तुम वास्तव में मनुष्य की स्वार्थपरता को समझ लोगे, तो जान लोगे कि तुममें क्या कमी है; डर तो इस बात का है कि अगर लोग यह नहीं समझ सके तो क्या होगा। विश्लेषण के जरिए प्रकट रूप से असंयत या अनुचित माँगों को पहचाना आसान है, और खुद से नफरत करना संभव है। कभी-कभी तुम सोच सकते हो कि तुम्हारी माँगें तर्कसंगत और उचित हैं, और चूँकि तुम उन्हें तर्कसंगत मानते हो और सोचते हो कि चीजें इसी तरह होनी चाहिए, और चूँकि दूसरे भी ऐसी ही माँगें करते हैं, तो तुम्हें भी लग सकता है कि तुम्हारी माँगें हद से ज्यादा नहीं हैं, बल्कि उचित और स्वाभाविक हैं। यह दर्शाता है कि तुमने अभी भी सत्य हासिल नहीं किया है, इसीलिए तुम इन्हें स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकते हो। एक उदाहरण पेश है : मान लो कि किसी व्यक्ति ने कई साल तक परमेश्वर का अनुसरण किया, और अनेक झंझावातों और चुनौतियों से गुजरकर बहुत ज्यादा दुःख भोगे। उसका व्यवहार हमेशा ठीक लगता था, और अपनी मानवता, अपनी पीड़ा और परमेश्वर के प्रति अपनी भक्ति के मामलों में संतोषजनक दिखता था। यहाँ तक कि वह विवेक संपन्न भी था, हमेशा परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने का इच्छुक रहता था, और अपना कार्य संपन्न करते हुए आम तौर पर सावधानी से कदम बढ़ाना जानता था। बाद में मैंने पाया कि यह व्यक्ति स्पष्ट और सौम्य होकर बोलता था, लेकिन लेशमात्र भी आज्ञाकारी नहीं था, इसलिए मैंने उसे हटाते हुए आदेश दिया कि भविष्य में दोबारा उसका उपयोग न किया जाए। उसने कलीसिया के लिए कई साल तक काम किया था, बहुत अधिक कष्ट उठाए थे, फिर भी उसे आखिर हटा दिया गया। यही नहीं, मैंने उसकी कुछ व्यावहारिक कठिनाइयों का समाधान नहीं किया था। लोग इस प्रकार की स्थिति के बारे में क्या सोचेंगे? पहली बात, कई लोग उसके बचाव में आकर कहेंगे, “यह ठीक नहीं है। इस परिस्थिति में परमेश्वर को उसके प्रति अत्यधिक दया और अनुग्रह दिखाना चाहिए क्योंकि वह परमेश्वर से प्रेम करता है और उसके लिए खपता है। अगर उसके जैसा कोई व्यक्ति, जिसने कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है, बहिष्कृत किया जा सकता है तो हम जैसे नए विश्वासियों के लिए क्या उम्मीद है?” यहाँ एक बार फिर लोगों की माँगें सामने आ जाती हैं, वे हमेशा उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर उस व्यक्ति को आशीष देगा, उसे रहने देगा, वे अब भी सोचते हैं : “इस आदमी ने परमेश्वर के साथ सही किया है, परमेश्वर को उसे निराश नहीं करना चाहिए!” लोग परमेश्वर से जो माँगें करते हैं, उनमें से कई माँगें मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं से उपजती हैं। लोग यह माप-जोख कर रहे हैं कि परमेश्वर को लोगों को क्या देना चाहिए, और उसे उनके साथ उन विवेक के मानकों के अनुसार कैसा व्यवहार करना चाहिए जो इससे संबंधित है कि मनुष्यों के बीच क्या उचित और तर्कसंगत है, लेकिन यह सत्य के अनुरूप कैसे हो सकता है? मैं यह क्यों कहता हूँ कि मानवजाति की सभी माँगें अनुचित हैं? क्योंकि ये वो मानक हैं जिनकी माँग लोग दूसरों से करते हैं। क्या लोगों के पास सत्य है? क्या वे मनुष्य के सार को समझने में सक्षम हैं? कुछ लोग माँग करते हैं कि परमेश्वर लोगों के साथ विवेक के मानक के अनुसार व्यवहार करे, वे परमेश्वर को मनुष्यों द्वारा अपेक्षित मानकों पर कसते हैं। यह सत्य के अनुरूप नहीं है और अनुचित है। जब कोई छोटी-मोटी बात हो तो लोग धैर्य रख लेते हैं, लेकिन जब अंततः उनका परिणाम निर्धारण होता है तो वे शायद धैर्य न रख सकें। उनकी माँगें बाहर आ जाएँगी, और उनके मुँह से बेरोकटोक शिकायत और निंदा के बोल निकलेंगे, और वे अपना असली रंग दिखाने लगेंगे। उस समय उन्हें अपनी ही प्रकृति का ज्ञान हो जाएगा। मानवीय धारणाओं और अपनी इच्छा के अनुसार लोग हमेशा परमेश्वर से माँगें करते रहते हैं, और वे इस प्रकार की कई माँगें करते हैं। तुम लोग शायद आम तौर पर ध्यान नहीं देते होगे और सोचते होगे कि कभी-कभी किसी चीज के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने को माँग के रूप में नहीं देखा जा सकता है, लेकिन दरअसल, सावधानीपूर्वक विश्लेषण से पता चलता है कि कई मानवीय माँगें अनुचित हैं, बेतुकी हैं, साथ ही हास्यास्पद भी हैं। तुमने पहले इस मामले की गंभीरता नहीं पहचानी, लेकिन भविष्य में धीरे-धीरे तुम्हें इसका पता चल जाएगा, और तब तुम्हें अपनी प्रकृति की सच्ची समझ आ जाएगी। धीरे-धीरे, अपने अनुभव से तुम्हें अपनी प्रकृति के बारे में ज्ञान मिलेगा और तुम इसे पहचानने लगोगे, सत्य पर संगति के साथ में तुम इसे स्पष्ट रूप से जान लोगे—तब तुम इस संबंध में सत्य में प्रवेश कर चुके होगे। जब तुम वास्तव में मनुष्य की प्रकृति और सार को स्पष्ट रूप से समझ लोगे तो तुम्हारा स्वभाव बदल जाएगा और तब तुम्हारे पास सत्य होगा।

परमेश्वर से लोगों की माँगों की समस्या का समाधान करने से अधिक मुश्किल और कुछ नहीं है। जब परमेश्वर के कार्यकलाप तुम्हारी सोच के अनुरूप नहीं होते या वे तुम्हारी सोच के अनुसार नहीं किए गए होते तो तुम कदाचित उसका विरोध कर सकते हो—जो यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि अपनी प्रकृति में तुम परमेश्वर विरोधी हो। इस समस्या की पहचान केवल बार-बार आत्म-चिंतन करने और सत्य की समझ पाने से हो सकती है, और इसका पूर्ण समाधान केवल सत्य का अनुसरण करने से हो सकता है। जब लोग सत्य को नहीं समझते तो परमेश्वर से कई माँगें कर बैठते हैं, जबकि जब वे सत्य को वास्तव में समझते हैं तो कोई माँग नहीं करते हैं; उन्हें सिर्फ यह लगता है कि उन्होंने परमेश्वर को पर्याप्त रूप से संतुष्ट नहीं किया है, कि वे परमेश्वर की आज्ञा का पालन पर्याप्त रूप से नहीं करते हैं। लोगों का हमेशा परमेश्वर से माँगें करना उनकी भ्रष्ट प्रकृति को दिखाता है। अगर तुम खुद को नहीं जान सकते और इस मामले में सच्चे मन से प्रायश्चित्त नहीं कर सकते तो परमेश्वर में विश्वास के अपने मार्ग में तुम छिपे हुए खतरों और जोखिम का सामना करोगे। तुम साधारण चीजों को तो वश में कर सकते हो, लेकिन जब तुम्हारे भाग्य, संभावनाओं और मंजिल जैसे महत्वपूर्ण मामले आएंगे तो शायद तुम इन्हें वश में नहीं कर पाओगे। उस समय, अगर तुममें अभी भी सत्य की कमी होगी तो तुम फिर से अपने पुराने तरीकों पर उतर आओगे और इस तरह नष्ट किए जाने वालों में शामिल हो जाओगे। अनेक लोग हमेशा इसी तरह अनुसरण और विश्वास करते आए हैं; जिस दौरान उन्होंने परमेश्वर का अनुसरण किया, वे अच्छा व्यवहार करते रहे लेकिन इससे यह तय नहीं होता कि भविष्य में क्या होगा। ऐसा इसलिए है कि तुम मनुष्य की घातक कमजोरी बिल्कुल नहीं जानते या मनुष्य की प्रकृति में निहित उन चीजों को नहीं जानते जो परमेश्वर का विरोध कर सकती हैं, और तुम इनसे तब तक अनभिज्ञ रहते हो जब तक ये तुम्हें तबाही के कगार पर लाकर खड़ा नहीं कर देतीं। चूँकि परमेश्वर का विरोध करने की तुम्हारी प्रकृति का निराकरण नहीं होता है, यह तुम्हें तबाही की ओर ले जाती है, और संभव है कि जब तुम्हारा सफर पूरा हो जाए और परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाए, तब तुम वह कर दोगे जिससे परमेश्वर का सर्वाधिक विरोध होता हो और वह कह दोगे जिससे उसकी निंदा होती हो, और इस प्रकार तुम निंदित और बहिष्कृत कर दिए जाओगे। अंतिम क्षण में, सबसे संकटपूर्ण समय में, पतरस ने बचने की कोशिश की। उस समय उसने परमेश्वर की इच्छा नहीं समझी और अपना अस्तित्व बचाने और कलीसियाओं का कार्य करने की सोची। बाद में यीशु ने उसे दर्शन देकर कहा : “क्या तुम मुझे एक बार फिर अपने लिए सूली पर लटकाओगे?” पतरस तब परमेश्वर की इच्छा समझ गया, और फौरन आज्ञा मान ली। मान लो कि उस क्षण उसकी अपनी माँगें होतीं और वह कहता, “मैं अभी नहीं मरना चाहता, मुझे दर्द से डर लगता है। क्या तुम हमारी खातिर सूली पर नहीं लटकाए गए थे? तुम क्यों चाहते हो कि मुझे सूली पर लटकाया जाए? क्या मैं सूली पर लटकने से बच सकता हूँ?” अगर उसने ऐसी माँगें की होतीं तो फिर वह जिस मार्ग पर चला, वह व्यर्थ रहता। किंतु पतरस तो हमेशा ऐसा व्यक्ति रहा जिसने परमेश्वर की आज्ञा मानी और उसकी इच्छा खोजी, और अंत में वह परमेश्वर की इच्छा समझ गया और उसने पूरी तरह समर्पण कर दिया। अगर पतरस ने परमेश्वर की इच्छा नहीं खोजी होती और अपनी सोच के अनुसार कार्य किया होता तो फिर उसने गलत रास्ता पकड़ लिया होता। लोगों में सीधे परमेश्वर की इच्छा समझने की क्षमता की कमी होती है, लेकिन अगर वे सत्य समझने के बाद भी आज्ञा पालन न करें तो फिर वे परमेश्वर को धोखा दे रहे हैं। अर्थात्, लोगों का सदा परमेश्वर से माँगें करते रहने का संबंध उनकी प्रकृति से है : उनकी माँगें जितनी ज्यादा होती हैं, वे उतने ही अधिक विद्रोही और प्रतिरोधी होते हैं, और उनमें उतनी ही अधिक धारणाएँ होती हैं। लोग जितनी ज्यादा माँगें परमेश्वर से करते हैं, संभावना है कि वे उतना ही अधिक उससे विद्रोह करेंगे, उसका प्रतिरोध करेंगे और यहाँ तक कि विरोध भी करेंगे। शायद एक दिन वे परमेश्वर को धोखा देकर छोड़ सकते हैं। अगर तुम इस समस्या का निराकरण करना चाहते हो तो तुम्हें सत्य के कई पहलू जानने के साथ ही कुछ व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करने की भी जरूरत है ताकि तुम इसे पूरी तरह समझ कर इसका समूल समाधान कर सको।

लोग परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सकते हैं या नहीं, यह आकलन करने में मुख्य बात यह है कि वे उससे असंयत माँगें कर रहे हैं या नहीं, और उसके प्रति उनके गुप्त अभिप्राय हैं या नहीं। अगर लोग हमेशा परमेश्वर से माँगें करते हैं, तो यह साबित करता है कि वे उसके आज्ञाकारी नहीं हैं। तुम्हारे साथ चाहे जो भी हो, यदि तुम इसे परमेश्वर से प्राप्त नहीं करते, तुम सत्य की तलाश नहीं करते, हमेशा अपने लिए तर्क-वितर्क करते हो और हमेशा यह महसूस करते हो कि सिर्फ तुम सही हो, और यहाँ तक कि तुम अभी भी यह संदेह करने में सक्षम हो कि परमेश्वर सत्य और धार्मिकता है, तो तुम संकट में पड़ जाओगे। ऐसे लोग सबसे अहंकारी और परमेश्वर के प्रति विद्रोही होते हैं। जो लोग हमेशा परमेश्वर से माँगते रहते हैं, वे कभी सच्चे रूप से उसकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकते। अगर तुम परमेश्वर से माँग करते हो, तो यह साबित करता है कि तुम उससे सौदा कर रहे हो, तुम अपनी ही इच्छा चुन रहे हो, और इसी के अनुसार कार्य कर रहे हो। ऐसा करके तुम परमेश्वर को धोखा दे रहे हो और तुममें आज्ञाकारिता की कमी है। परमेश्वर से माँग करना अपने आप में ही नासमझी है; अगर तुम्हें सचमुच विश्वास है कि वह परमेश्वर है, तो तुम उससे माँगने की हिम्मत नहीं करोगे, न तुम खुद को उससे माँग करने के योग्य समझोगे, फिर चाहे तुम इन माँगों को उचित समझो या नहीं। अगर तुममें परमेश्वर के प्रति सच्चा विश्वास है, तो फिर तुम सिर्फ उसकी आराधना और आज्ञापालन करोगे, इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं है। आज, लोग न सिर्फ अपनी पसंद-नापसंद खुद चुनते हैं, बल्कि वे यह भी माँग करते हैं कि परमेश्वर उनकी इच्छा के अनुसार कार्य करे। वे न केवल परमेश्वर की आज्ञा न मानने का विकल्प चुनते हैं, बल्कि वे परमेश्वर से भी कहते हैं कि वह उनका आज्ञापालन करे। क्या यह विवेकशून्यता नहीं है? इसलिए, अगर मनुष्य में कोई सच्ची आस्था नहीं है, कोई सारभूत विश्वास नहीं है, तो वह कभी भी परमेश्वर से प्रशंसा नहीं पा सकता। जब लोग परमेश्वर से कम माँगें करने में सक्षम हो जाएँगे, तो उनमें अधिक सच्ची आस्था और आज्ञाकारिता होगी, और उनकी तार्किक समझ भी अपेक्षाकृत सामान्य हो जाएगी। अक्सर ऐसा होता है कि लोग तर्क-वितर्क करने में जितने अधिक प्रवृत्त होते हैं, और वे जितने अधिक औचित्य बताते हैं, उतना ही अधिक कठिन उन्हें संभालना होता है। उनकी बहुत-सी माँगें तो होती ही हैं, उन्हें उंगली पकड़ाओ तो वे सिर पर चढ़ जाते हैं। एक मामले में संतुष्ट होने पर वे दूसरे मामले में माँग करने लगते हैं। उन्हें सभी मामलों में संतुष्ट करना होता है, वरना वे शिकायत करने लगते हैं, और चीजों को निराशाजनक बताकर खारिज करते हुए लापरवाही से कार्य करते हैं। बाद में वे कृतज्ञ और पछतावा महसूस करते हैं, फूट-फूटकर रोते हैं और मरना चाहते हैं। इसका क्या फायदा? क्या यह अविवेकी और अनवरत संताप-दायी होना नहीं है? समस्याओं की इस कड़ी को जड़ से मिटाना होगा। यदि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है और तुम इसे दूर नहीं करते, यदि तुम तब तक प्रतीक्षा करना चाहते हो जब तक कि तुम मुसीबत में न पड़ जाओ या इसे दूर करने के चक्कर में कोई बड़ी मुसीबत मोल न ले लो, तो तुम इसकी क्षतिपूर्ति कैसे करोगे? क्या यह कुछ-कुछ अब पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गई खेत जैसा नहीं है? इसलिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को पूरी तरह से हल करने के लिए तुम्हें तभी सत्य खोज लेना होगा जब भ्रष्ट स्वभाव पहली बार सामने आता है। तुम्हें भ्रष्ट स्वभाव पनपते ही इसका समाधान कर लेना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि तुमसे कोई गलती न हो और भविष्य में परेशानियाँ खड़ी न हों। यदि भ्रष्ट स्वभाव जड़ें जमा ले और वह किसी की विचारधारा या दृष्टिकोण बन जाए, तो फिर वह इंसान को बुरे कार्य करने के लिए निर्देशित कर सकेगा। इसलिए, आत्म-चिंतन और आत्म-ज्ञान का मुख्य उद्देश्य अपने भ्रष्ट स्वभाव का पता लगाना और उसे हल करने के लिए शीघ्रता से सत्य की खोज करना है। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारी प्रकृति में क्या चीजें हैं, तुम्हें क्या पसंद है, तुम्हारा क्या लक्ष्य है और तुम क्या हासिल करना चाहते हो। ये जानने के लिए कि क्या ये चीजें परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हैं, तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार इन चीजों का विश्लेषण करना चाहिए और यह समझना चाहिए कि ये किस लिहाज से गलत हैं। जब तुम इन चीजों को समझ लो, तो तुम्हें अपने असामान्य विवेक की समस्या अर्थात अपने अविवेकी और अनवरत संतापदायी होने की समस्या को हल करना चाहिए। यह केवल तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की समस्या नहीं है, बल्कि यह तुममें विवेक की कमी से भी जुड़ी है। विशेष रूप से जहाँ लोगों के हित जुड़े हों, स्व-हित की भावना में बह जाने वाले लोगों में सामान्य विवेक नहीं होता है। यह एक मानसिक समस्या है और यह लोगों की घातक कमजोरी भी है। कुछ लोगों को लगता है कि उनमें कोई खास काबिलियत और कुछ हुनर हैं, और अलग दिखने के लिए वे हमेशा अगुआ बनना चाहते हैं, इसलिए वे परमेश्वर से उनका उपयोग करने की माँग करते हैं। यदि परमेश्वर उनका उपयोग नहीं करता, तो वे कहते हैं, “परमेश्वर मुझ पर कृपा क्यों नहीं कर रहा? परमेश्वर, अगर कुछ महत्वपूर्ण करने के लिए तुम मेरा इस्तेमाल करोगे, तो मैं तुम्हारे लिए खुद को खपाने का वादा करता हूँ!” क्या इस तरह का इरादा सही है? परमेश्वर के लिए खुद को खपाना अच्छी बात है, लेकिन परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की इच्छा के पीछे उनकी अपनी मंशाएँ हैं। वे अपनी हैसियत से प्यार करते हैं और इसी पर उनका ध्यान केंद्रित होता है। जब लोग सच्चे आज्ञाकारी हो सकें, परमेश्वर चाहे उनका उपयोग करे या न करे, वे पूरे मन से उसका अनुसरण कर सकें, चाहे उनके पास हैसियत हो या न हो, वे परमेश्वर के लिए खुद को खपा सकें, तो ऐसे लोगों को ही विवेकशील और परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी माना जा सकता है। परमेश्वर के लिए खुद को खपाने को तैयार होना अच्छी बात है और परमेश्वर भी ऐसे लोगों का उपयोग करने को तैयार रहता है, लेकिन यदि वे सत्य से युक्त नहीं हैं, तो परमेश्वर किसी भी तरह उनका उपयोग नहीं कर सकता। यदि लोग सत्य के लिए प्रयास और सहयोग करने के इच्छुक हैं, तो एक शुरुआती चरण होना ही चाहिए। लोगों को जब सत्य की समझ हो जाती है और वे सचमुच परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं तभी परमेश्वर औपचारिक रूप से उनका उपयोग कर सकता है। प्रशिक्षण का यह चरण अनिवार्य है। आज सभी अगुआ और कार्यकर्ता इसी प्रशिक्षण चरण में हैं। जब उन्हें जीवन का अनुभव हो जाएगा और वे सिद्धांतों के अनुसार मामलों को संभालने लगेंगे, तब वे परमेश्वर द्वारा उपयोग के लायक हो जाएँगे।

मनुष्य की प्रकृति की चीजें किन्हीं बाह्य व्यवहारों, लोकाचार या विचार और ख्याल जैसी नहीं होती हैं जिनसे बस निपट लो और बात खत्म हो जाए; इन्हें तो तिनका-तिनका करके खोजना पड़ता है। यही नहीं, लोगों के लिए इन्हें पहचानना आसान नहीं हैं, और अगर इन्हें पहचान भी लिया जाए तो बदलना आसान नहीं है—ऐसा करने के लिए काफी व्यापक समझ की जरूरत होती है। हम क्यों हमेशा मनुष्य की प्रकृति का विश्लेषण करते हैं? क्या तुम लोग इसका अर्थ नहीं समझते हो? लोगों के भ्रष्ट स्वभाव के खुलासों का स्रोत क्या है? ये सब उनकी अपनी ही प्रकृति से आते हैं, और वे सब अपनी प्रकृति से संचालित होते हैं। मनुष्य का हर भ्रष्ट स्वभाव, हर विचार और ख्याल, हर इरादा, सब के सब मनुष्य की प्रकृति से संबंधित हैं। इसलिए, सीधे मनुष्य की प्रकृति को खोजकर उसके भ्रष्ट स्वभावों का निराकरण आसानी से किया जा सकता है। यद्यपि लोगों की प्रकृति बदलना आसान नहीं है, अगर वे अपने द्वारा प्रकट भ्रष्ट स्वभाव को पहचान और समझ सकते हैं, और अगर वे इनका निराकरण करने के लिए सत्य खोज सकते हैं, तो फिर वे धीरे-धीरे अपने स्वभाव बदल सकते हैं। एक बार व्यक्ति अपने जीवन स्वभाव में बदलाव ले आए तो फिर उसमें परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाली चीजें कम होती जाएँगी। मनुष्य की प्रकृति का विश्लेषण करने का उद्देश्य उसका स्वभाव बदलना है। तुम लोग इस उद्देश्य को नहीं समझे हो, और सोचते हो कि महज अपनी प्रकृति का विश्लेषण करने और इसे समझ लेने से परमेश्वर की आज्ञा मान सकते हो और अपनी तर्कबुद्धि को बहाल कर सकते तो। तुम लोग बस नियमों को बिना सोचे-समझे लागू करते हो! ऐसा क्यों है कि मैं लोगों के अहंकार और आत्म-तुष्टता को सीधे उजागर नहीं कर देता? मुझे उनकी भ्रष्ट प्रकृति का भी विश्लेषण क्यों करना पड़ता है? अगर मैं सिर्फ उनके अहंकार और उनकी आत्म-तुष्टता को उजागर करूँगा तो समस्या का समाधान नहीं होगा। लेकिन, अगर मैं उनकी प्रकृति का विश्लेषण करूँ, तो इसमें शामिल पहलू बहुत व्यापक हैं और इसमें हर प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव शामिल है। यह आत्म-तुष्टता, आत्म-महत्व और अहंकार के संकीर्ण दायरे से कहीं व्यापक है। प्रकृति में इससे ज्यादा चीजें शामिल होती हैं। इसलिए लोगों के लिए यह पहचानना अच्छा रहेगा कि परमेश्वर से विभिन्न माँगें करते हुए, अर्थात, अपनी असंयत इच्छाओं में, वे कितने प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हैं। एक बार लोग अपनी प्रकृति और सार को समझ लेंगे तो फिर वे खुद से नफरत कर सकते हैं और खुद को नकार सकते हैं; उनके लिए अपने भ्रष्ट स्वभावों का निराकरण करना आसान हो जाएगा, और उनके पास एक रास्ता होगा। अन्यथा, तुम लोग कभी भी मूल कारण नहीं खोज पाओगे, और यही कहोगे कि यह आत्म-तुष्टता, अहंकार या घमंड होना या बिल्कुल भी वफादारी का न होना है। क्या केवल ऐसी सतही बातें करने से तुम्हारी समस्या का समाधान हो सकता है? क्या मनुष्य की प्रकृति पर चर्चा करने की कोई जरूरत है? शुरुआत में आदम और हव्वा की प्रकृति क्या थी? उनमें कोई इरादतन प्रतिरोध नहीं था, खुला विद्रोह तो बिल्कुल भी नहीं था। वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर का प्रतिरोध करने के क्या मायने हैं, और वे उसकी आज्ञा मानने के मायने तो बिल्कुल भी नहीं जानते थे। शैतान ने जो कुछ फैलाया, उन्होंने उसे आत्मसात कर लिया। अब शैतान ने मानवजाति को इस हद तक भ्रष्ट कर दिया है कि लोग हर चीज में परमेश्वर से विद्रोह और उसका विरोध कर सकते हैं, और उसका विरोध करने के लिए हर तरीका सोच सकते हैं। यह स्पष्ट है कि मनुष्य की प्रकृति शैतान के समान ही है। मैं क्यों कहता हूँ कि मनुष्य की प्रकृति शैतान की प्रकृति है? शैतान वह है जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है और चूँकि लोगों की प्रकृति शैतानी है, वे शैतान के हैं। लोग शायद जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले कार्य न करें, लेकिन अपनी शैतानी प्रकृति के कारण उनके सभी विचार परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। भले ही लोग कुछ न करें, फिर भी वे परमेश्वर का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि मनुष्य का आंतरिक सार बदलकर कुछ ऐसा हो गया है जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। इसलिए, वर्तमान मनुष्य नव-सृजित मनुष्य से भिन्न है। पहले लोगों के भीतर प्रतिरोध या विश्वासघात की भावना नहीं थी, वे जीवंत हुआ करते थे और किसी शैतानी प्रकृति से संचालित नहीं होते थे। अगर लोगों के भीतर शैतानी प्रकृति का वर्चस्व या बाधा नहीं है, तो वे चाहे जो करें, इसे परमेश्वर का प्रतिरोध करना नहीं माना जा सकता।

प्रकृति क्या है? प्रकृति मनुष्य का सार है। स्वभाव वे चीजें हैं जो किसी की प्रकृति से प्रकट होती हैं, और स्वभाव में बदलाव का अर्थ है कि उसके भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध कर सत्य से बदल दिया गया है। तब जो उजागर होता है वह भ्रष्ट स्वभाव नहीं होता, बल्कि सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति होती है। जब शैतान ने इंसान को भ्रष्ट कर दिया तो उसके बाद इंसान शैतान का मूर्त रूप बन गया, और ऐसी शैतानी चीज जैसा बन गया जो परमेश्वर का प्रतिरोध करती है और पूरी तरह उससे विश्वासघात करने में सक्षम है। परमेश्वर लोगों से अपना स्वभाव बदलने की अपेक्षा क्यों करता है? क्योंकि परमेश्वर लोगों को पूर्ण बनाना और हासिल करना चाहता है, अंततः मनुष्यों को ऐसा बनाना चाहता है जिनमें परमेश्वर को जानने की बहुत सारी अतिरिक्त वास्तविकताएँ हों, और सत्य के सभी पहलुओं की वास्तविकताएँ हों। इस प्रकार के लोग पूर्ण रूप से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होते हैं। अतीत में, लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होता था, और वे जब भी कुछ करते थे तो उसमें गलती करते थे या प्रतिरोध दिखाते थे, लेकिन अब लोग कुछ सत्य समझते हैं और कई ऐसी चीजें कर सकते हैं जो परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हैं। लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है कि लोग परमेश्वर से विश्वासघात नहीं करते हैं। लोग अब भी ऐसा कर सकते हैं। उनकी प्रकृति से निकलने वाला एक हिस्सा बदला जा सकता है, और जो बदला जा सकता है वह वही हिस्सा है जिसमें लोग सत्य के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम हैं। लेकिन सिर्फ इस कारण कि अब तुम सत्य को अभ्यास में ला सकते हो, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारी प्रकृति बदल चुकी है। यह वैसा ही है जैसे पहले लोग हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखते थे और उससे माँगें करते थे, और अब कई मामलों में वे ऐसा नहीं करते—लेकिन कुछ मामलों में अब भी उनमें धारणाएँ और माँगें हो सकती हैं, और वे अब भी परमेश्वर से विश्वासघात करने में सक्षम हैं। तुम कह सकते हो, “परमेश्वर चाहे जो करे, मैं उसके प्रति समर्पण कर सकता हूँ, और बिना शिकायत या माँग किए कई मामलों में आज्ञापालन कर सकता हूँ,” लेकिन कुछ मामलों में तुम अभी भी परमेश्वर से विश्वासघात कर सकते हो। यद्यपि तुम जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करते, लेकिन जब तुम उसकी इच्छा नहीं समझते हो तो अब भी इसके विरुद्ध जा सकते हो। तो, जो हिस्सा बदल सकता है, उसका अर्थ क्या है? इसका बस यही अर्थ है कि जब तुम परमेश्वर की इच्छा समझते हो तो तुम आज्ञा पालन कर सकते हो, और जब तुम सत्य समझते हो तो तुम इसे अभ्यास में ला सकते हो। अगर तुम कुछ मामलों में सत्य या परमेश्वर की इच्छा नहीं समझते तो अब भी तुममें भ्रष्टता प्रकट करने की संभावना है। अगर तुम सत्य समझते हो लेकिन कुछ चीजों से विवश होने के कारण इसे अभ्यास में नहीं लाते तो फिर यह विश्वासघात है, और यह कुछ ऐसा है जो तुम्हारी प्रकृति में है। बेशक, तुम्हारा स्वभाव कितना बदल सकता है, इसकी कोई सीमा नहीं है। तुम जितने अधिक सत्य हासिल करते जाओगे, यानी परमेश्वर को लेकर तुम्हारा ज्ञान जितना गहरा होता जाएगा, तुम उसका प्रतिरोध और उससे विश्वासघात उतना ही कम करते जाओगे। अपना स्वभाव बदलने की कोशिश मुख्य रूप से सत्य के अनुसरण से पूरी होती है, और अपनी प्रकृति और सार की समझ सत्य को समझने से हासिल होती है। जब कोई सचमुच सत्य हासिल कर लेगा तो उसकी सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी।

शरद ऋतु, 1999

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