पतरस के जीवन पर

पतरस मानवता के लिए परमेश्वर का एक अनुकरणीय उदाहरण था, एक दिग्गज, जिसे सब जानते थे। किसलिए उस जैसे साधारण व्यक्ति को परमेश्वर द्वारा उदाहरण के रूप में उभारा गया, और आने वाली पीढ़ियों द्वारा उसकी प्रशंसा की गई? स्पष्टतः ये परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम की अभिव्यक्ति और संकल्प से अलग नहीं है। परमेश्वर के लिए प्रेम से भरा पतरस का हृदय किस तरह अभिव्यक्त हुआ, और उसके जीवन के अनुभव वास्तव में कैसे थे, यह जानने के लिए हमें अनुग्रह के युग में लौटकर उस समय के रीति-रिवाजों और उस युग के पतरस को दोबारा देखना होगा।

पतरस का जन्म एक साधारण यहूदी किसान-परिवार में हुआ था। उसके माता-पिता खेती करके पूरे परिवार का भरण-पोषण करते थे, और वह चार भाई-बहनों में सबसे बड़ा था। जाहिर है, यह हमारी कहानी का मुख्य भाग नहीं है; पतरस हमारा केंद्रीय पात्र है। जब वह पाँच वर्ष का था, उसके माता-पिता ने उसे पढ़ना-लिखना सिखाना आरंभ कर दिया। उस समय यहूदी लोग ज्ञानी हुआ करते थे; कृषि, उद्योग और वाणिज्य जैसे क्षेत्रों में तो वे खास तौर से उन्नत थे। अपने सामाजिक वातावरण के परिणामस्वरूप पतरस के माता और पिता, दोनों ने उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। ग्रामीण क्षेत्र से होने के बावजूद वे सुशिक्षित थे और उनकी तुलना आज के औसत विश्वविद्यालयी छात्रों से की जा सकती थी। निस्संदेह पतरस भाग्यशाली था कि उसका जन्म ऐसी अनुकूल सामाजिक परिस्थितियों में हुआ था। समझ से चतुर और बुद्धिमान होने के कारण वह नए विचारों को आसानी से आत्मसात कर लेता था। अपनी पढ़ाई शुरू करने के बाद वह पाठों के दौरान चीज़ों को बहुत आसानी से समझ लेता था। उसके माता-पिता को ऐसा तीव्रबुद्धि पुत्र पाने पर गर्व था, इसलिए उन्होंने इस आशा के साथ उसे विद्यालय भेजने का हर प्रयास किया कि वह आगे बढ़ सके और समाज में किसी प्रकार का कोई आधिकारिक पद प्राप्त करने योग्य हो जाए। अनजाने में पतरस को परमेश्वर में रुचि हो गई, जिसका नतीजा यह हुआ कि चौदह वर्ष की उम्र में जब वह हाई स्कूल में था, तो जिस प्राचीन यूनानी संस्कृति के पाठ्यक्रम का वह अध्ययन कर रहा था, उससे वह ऊब गया, खासकर प्राचीन यूनानी इतिहास के काल्पनिक लोगों और मनगढ़ंत घटनाओं से। तब से पतरस ने—जिसने अपनी युवावस्था के बसंत में प्रवेश किया ही था—मानव-जीवन और व्यापक दुनिया के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करनी शुरू कर दी। उसके विवेक ने उसे अपने माता-पिता द्वारा उठाई गई तकलीफों का बदला चुकाने के लिए मजबूर नहीं किया, क्योंकि उसने स्पष्ट रूप से देख लिया था कि समस्त लोग आत्म-वंचना की स्थिति में निरर्थक जीवन जी रहे हैं, धन तथा मान्यता के लिए संघर्ष करते हुए अपना जीवन बरबाद कर रहे हैं। उसकी इस अंतर्दृष्टि का मुख्य कारण वह सामाजिक वातावरण था, जिसमें वह रह रहा था। लोगों के पास जितना अधिक ज्ञान होता है, उनके आपसी संबंध उतने ही जटिल होते हैं, उनकी भीतरी दुनिया उतनी ही पेचीदा होती है, इस कारण वे रिक्तता में जीते हैं। इन परिस्थितियों में पतरस ने अपना खाली समय व्यापक मुलाकातों में बिताया, जिनमें से अधिकांश धार्मिक हस्तियों से मिलने के लिए थीं। उसके हृदय में एक अस्पष्ट-सी भावना मौजूद लगती थी कि धर्म मानव-संसार की सभी गूढ़ बातों का समाधान कर सकता है, इसलिए वह अकसर धार्मिक सभाओं में भाग लेने के लिए नजदीकी उपासनागृह में जाता था। उसके माता-पिता इस बात से अनजान थे, और जल्दी ही पतरस, जो हमेशा से अच्छे चरित्र वाला था और बेहतरीन विद्वत्ता युक्त था, विद्यालय जाने से नफरत करने लगा। अपने माता-पिता की देखरेख में उसने बड़ी कठिनाई से हाई स्कूल पास किया। वह ज्ञान के सागर से तैरकर तट पर आ गया, एक गहरी साँस ली, और तब से उसे किसी ने शिक्षा नहीं दी और न ही उसे रोका।

विद्यालय की पढ़ाई पूरी करने के बाद उसने सभी प्रकार की पुस्तकें पढ़नी आरंभ कर दीं, परंतु सत्रह वर्ष की आयु में उसे अभी भी व्यापक दुनिया का ज्यादा अनुभव नहीं था। विद्यालय छोड़ने के बाद उसने खेती करके अपना भरण-पोषण किया और ज्यादा से ज्यादा समय पुस्तकें पढ़ने तथा धार्मिक सभाओं में भाग लेने के लिए निकालने लगा। उसके माता-पिता, जिन्हें उससे बहुत उम्मीदें थीं, अपने “विद्रोही पुत्र” के लिए अकसर स्वर्ग को कोसा करते थे, पर यह भी धार्मिकता की खातिर उसकी भूख और प्यास के मार्ग में बाधक नहीं बन सका। पतरस को अपने अनुभवों में कम असफलताओं का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन उसका हृदय कभी तृप्त न होने वाला था, और वह बारिश के बाद घास की तरह बढ़ गया। जल्दी ही उसे धार्मिक दुनिया की कुछ वरिष्ठ हस्तियों से भेंट करने का “सौभाग्य” प्राप्त हुआ, और चूँकि उसकी लालसा बहुत सशक्त थी, इसलिए उसने उनसे बारंबार मिलना शुरू कर दिया, फिर तो वह अपना लगभग सारा समय उन्हीं के बीच गुजारने लगा। संतुष्टिदायक प्रसन्नता में डूबे हुए उसे अचानक एहसास हुआ कि उनमें से अधिकतर लोगों का विश्वास मात्र उनकी बातों तक सीमित था, उनमें से किसी ने अपने विश्वास के प्रति अपना हृदय समर्पित नहीं किया था। ईमानदार और शुद्ध आत्मा वाला पतरस, ऐसा आघात भला कैसे सह सकता था? उसने महसूस किया कि जितने भी लोगों से वह जुड़ा था, उनमें से लगभग सभी आदमी के भेष में जानवर थे—वे मनुष्य की मुखाकृति वाले पशु थे। उस समय पतरस बहुत ही भोला था, अतः अनेक अवसरों पर उसने उनसे हृदय से विनती की। लेकिन वे धूर्त, चालाक धार्मिक शख्सियतें, इस जोशीले युवक की विनती कैसे सुन सकती थीं? यही वह समय था, जब पतरस ने मानव-जीवन के वास्तविक खालीपन को अनुभव किया : जीवन के चरण के पहले कदम पर वह असफल हो गया था...। एक साल के बाद वह उपासनागृह से निकल गया और स्वतंत्र जीवन जीने लगा।

इस असफलता ने 18-वर्षीय पतरस को कहीं अधिक परिपक्व और परिष्कृत बना दिया। अब उसमें युवावस्था के भोलेपन का कोई निशान बाकी नहीं रहा; असफलता ने उसकी युवावस्था की मासूमियत और सादगी का बेदर्दी से गला घोंट दिया, और उसने एक मछुआरे का जीवन जीना आरंभ कर दिया। इसके बाद लोगों को उन उपदेशों को सुनते हुए देखा जा सकता था जो पतरस अपनी नाव पर दिया करता था। मछुआरे की जिंदगी अपनाने के बाद वह जहाँ भी जाता, वहीं अपना संदेश फैलाता। उसके उपदेश श्रोताओं का ध्यान पूरी तरह से अपनी ओर खींच लेते, क्योंकि जो-कुछ भी वह कहता था, उससे आम लोगों के दिलों के तार झनझना उठते, और वे उसकी ईमानदारी से अत्यधिक द्रवित हो उठते थे। वह अकसर लोगों को दूसरों के साथ दिल से व्यवहार करने, स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजों के प्रभुत्व का आह्वान करने, और अपने विवेक की अनदेखी कर शर्मनाक काम न करने, और सभी मामलों में उस परमेश्वर को संतुष्ट करने की सीख देता था जिसे वे दिल से प्यार करते थे...। उसके प्रवचन सुनकर लोग अकसर अत्यधिक द्रवित हो जाते; वे सब उससे प्रेरित अनुभव करते और अकसर उनकी आँखों में आँसू आ जाते। उस दौरान उसके सभी अनुयायी उसकी बहुत प्रशंसा करते। वे सभी दीन-हीन थे, और समाज की तत्कालीन स्थिति को देखते हुए, स्वाभाविक रूप से संख्या में बहुत कम थे। पतरस को भी उस समय समाज के धार्मिक तत्वों द्वारा सताया गया था, जिसके परिणामस्वरूप उसे दो साल तक एक जगह से दूसरी जगह जाते हुए एकाकी जीवन जीना पड़ा। उन दो वर्षों के असाधारण अनुभवों से उसने काफी परिज्ञान प्राप्त कर लिया और ऐसी अनेक बातें सीख लीं, जिन्हें वह पहले नहीं जानता था। परिणामस्वरूप अब वह अपने 14-वर्षीय स्वरूप से बिलकुल भिन्न हो गया; दोनों में अब कोई समानता प्रतीत नहीं होती थी। इन दो वर्षों में उसका सभी प्रकार के लोगों से सामना हुआ और उसने समाज के बारे में सभी प्रकार की सच्चाइयाँ देखीं, जिसके परिणामस्वरूप उसने धीरे-धीरे धार्मिक दुनिया के सभी तरह के कर्मकांडों से खुद को दूर करना शुरू कर दिया। वह उस समय पवित्र आत्मा के कार्य के विकास से गहरा प्रभावित था; उस समय तक यीशु को काम करते हुए कई साल हो गए थे, इसलिए पतरस का काम भी उस समय पवित्र आत्मा के काम से प्रभावित था, हालाँकि अभी तक यीशु से उसकी भेंट नहीं हुई थी। इस कारण से, जब पतरस प्रचार कर रहा था, तब उसे कई ऐसी चीजें प्राप्त हुईं, जो संतों की पिछली पीढ़ियों के पास कभी नहीं प्राप्त हुईं थीं। निस्संदेह तब वह यीशु के विषय में थोड़ा-बहुत जानता था, परंतु उसे अभी तक यीशु से आमने-सामने मिलने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ था। उसे केवल पवित्र आत्मा से जन्मी उस स्वर्गिक हस्ती से मिलने की आशा और लालसा थी।

एक शाम गोधूलि के समय पतरस अपनी नाव पर सवार होकर मछलियाँ पकड़ रहा था (उस समय गलील के नाम से जाने जानेवाले समुद्र के तट के निकट)। उसके हाथों में मछली पकड़ने की बंसी थी, लेकिन उसके मन में दूसरी ही बातें चल रही थीं। अस्त होते सूरज ने पानी की सतह को रक्त के एक विशाल महासागर की तरह रोशन कर दिया था। रोशनी पतरस के युवा किंतु शांत और स्थिर मुखमंडल पर प्रतिबिंबित हो रही थी; ऐसा लगता था, मानो वह गहरे सोच में हो। उसी क्षण मंद हवा चली, और उसे अचानक अपने जीवन के अकेलेपन का अनुभव हुआ, जिसने उसे तुरंत अवसाद की भावना से भर दिया। जैसे-जैसे समुद्र की लहरें प्रकाश में चमक रही थीं, यह स्पष्ट होता गया कि उसका मछली पकड़ने का मन नहीं है। जब वह विचारों में खोया हुआ था, तभी अचानक उसने अपने पीछे से किसी को कहते हुए सुना : “यहूदी शमौन, योना के पुत्र, तुम्हारे जीवन के दिन एकाकी हैं। क्या तुम मेरा अनुगमन करोगे?” भौंचक्के पतरस के हाथों से मछली पकड़ने की बंसी एकदम से छूट गई और समुद्र के तल में जा समाई। पतरस ने जल्दी से मुड़कर देखा कि एक व्यक्ति उसकी नाव में खड़ा है। उसने उसे ऊपर से नीचे तक देखा : कंधों पर लटकते हुए उसके बाल सूर्य के प्रकाश में थोड़े सुनहरे पीले रंग के नजर आ रहे थे। मझौले कद के उस व्यक्ति ने स्लेटी रंग के कपड़े पहने थे और सिर से पैर तक उसका पहनावा एक यहूदी व्यक्ति का-सा था। लुप्त होती रोशनी में उसके स्लेटी कपड़े थोड़े काले दिख रहे थे, और उसके चेहरे पर हलकी-सी चमक दिखाई दे रही थी। पतरस ने कई बार यीशु से मिलने की कामना की थी, लेकिन कभी सफल नहीं हुआ था। उस क्षण अपनी आत्मा की गहराई में पतरस को विश्वास हो गया कि वह व्यक्ति निश्चित रूप से वही पवित्र जन है, जो उसके हृदय में मौजूद है, इसलिए उसने अपनी नाव में ही उसे दंडवत् प्रणाम किया और बोला : “क्या तू वही प्रभु है, जो स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार का प्रचार करने आया है? मैंने तेरे अनुभवों के बारे में सुना है, परंतु मैंने तुझे कभी देखा नहीं था। मैं तेरा अनुगमन करना चाहता था, परंतु मैं तुझे खोज नहीं पाया।” तब तक यीशु उसकी नाव के केबिन में आ गया था और शांति से बैठ गया था। उसने कहा, “उठ और मेरे पास बैठ। मैं यहाँ उन्हें खोजने आया हूँ, जो वास्तव में मुझसे प्रेम करते हैं। मैं विशेष रूप से स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाने आया हूँ, और मैं उन्हें खोजने के लिए प्रत्येक स्थान पर जाऊँगा, जो मेरे साथ एक मन के हैं। क्या तू इच्छुक है?” पतरस ने उत्तर दिया, “मुझे अवश्य ही उसका अनुगमन करना है, जिसे स्वर्गिक पिता द्वारा भेजा गया है। मुझे अवश्य ही उसे अंगीकार करना है, जिसे पवित्र आत्मा द्वारा चुना गया है। चूँकि मैं स्वर्गिक पिता से प्रेम करता हूँ, मैं तेरा अनुगमन करने का इच्छुक क्यों नहीं होऊँगा?” यद्यपि पतरस के शब्दों में धार्मिक धारणाएँ बहुत ही सशक्त थीं, फिर भी यीशु मुस्कुराया और उसने संतोषपूर्वक अपना सिर हिलाया। उस क्षण उसके भीतर पतरस के लिए पितासदृश प्रेम की भावना उत्पन्न हो गई।

पतरस ने कई वर्षों तक यीशु का अनुगमन किया और उसमें कई बातें ऐसी देखीं, जो औरों में नहीं थीं। एक वर्ष तक अपना अनुगमन करने के पश्चात् यीशु ने उसे बारह शिष्यों में से एक चुना। (निस्संदेह यीशु ने इसे जोर से नहीं बोला और दूसरे इससे बिलकुल अनजान थे।) जीवन में, पतरस ने यीशु द्वारा की गई हर चीज से खुद को मापा। सबसे बढ़कर, यीशु ने जिन संदेशों का प्रचार किया, वे उसके हृदय में अंकित हो गए। वह यीशु के प्रति अत्यधिक समर्पित और वफादार था, और उसने यीशु के खिलाफ कभी कोई शिकायत नहीं की। परिणामस्वरूप जहाँ कहीं यीशु गया, वह यीशु का विश्वसनीय साथी बन गया। पतरस ने यीशु की शिक्षाओं, उसके नम्र शब्दों, उसके भोजन, उसके कपड़ों, उसके आश्रय और उसकी यात्राओं पर ग़ौर किया। उसने हर मामले में यीशु का अनुकरण किया। वह कभी पाखंडी नहीं था, लेकिन फिर भी उसने वह सब त्याग दिया, जो पुराना था और कथनी और करनी दोनों से यीशु के उदाहरण का अनुगमन किया। तभी उसे अनुभव हुआ कि आकाश और पृथ्वी और सभी वस्तुएँ सर्वशक्तिमान के हाथों में हैं, और इस कारण उसकी अपनी कोई व्यक्तिगत पसंद नहीं थी। उसने यीशु को पूर्णरूपेण आत्मसात कर लिया और उसे उदाहरण की तरह इस्तेमाल किया। यीशु का जीवन दर्शाता है कि उसने जो कुछ किया, वह पाखंडी नहीं था; अपने बारे में डींगें मारने के बजाय उसने प्रेम से लोगों को प्रभावित किया। विभिन्न चीजों ने दिखाया कि यीशु क्या था, और इस कारण से पतरस ने उसकी हर बात का अनुकरण किया। पतरस के अनुभवों ने उसे यीशु की मनोरमता का अधिकाधिक बोध कराया और उसने इस तरह की बातें कहीं : “मैंने पूरे ब्रह्मांड में सर्वशक्तिमान की खोज की है और आकाश, पृथ्वी और सभी चीजों के आश्चर्यों को देखा है, और इस प्रकार मैंने सर्वशक्तिमान की मनोरमता का गहरा अनुभव प्राप्त किया है। परंतु इस पर भी मेरे हृदय में वास्तविक प्रेम कदापि नहीं था और मैंने अपनी आँखों से सर्वशक्तिमान की मनोरमता को कभी नहीं देखा था। आज सर्वशक्तिमान की दृष्टि में मुझे उसके द्वारा कृपापूर्वक देखा गया है, और मैंने अंततः परमेश्वर की मनोरमता का अनुभव कर लिया है। मैंने अंततः जान लिया है कि मानव-जाति सिर्फ इसलिए परमेश्वर से प्रेम नहीं करती, क्योंकि उसने सब चीजें बनाई हैं, बल्कि अपने दैनिक जीवन में मैंने उसकी असीम मनोरमता पाई है। यह भला उस स्थिति तक सीमित कैसे हो सकती है, जो अभी दिखाई पड़ रही है?” जैसे-जैसे समय बीता, पतरस में भी बहुत-सी मनोहर बातें आती गईं। वह यीशु के प्रति बहुत आज्ञाकारी हो गया, और निस्संदेह उसे अनेक विघ्नों का भी सामना करना पड़ा। जब यीशु उसे विभिन्न स्थानों पर प्रचार करने के लिए ले गया, तो उसने सदैव विनम्र होकर यीशु के उपदेशों को सुना। वर्षों से यीशु का अनुगमन करने के कारण वह कभी अहंकारी नहीं हुआ। यीशु द्वारा यह बताए जाने के बाद कि उसके आने का कारण क्रूस पर चढ़ाया जाना है, ताकि वह अपना कार्य पूरा कर सके, पतरस अकसर अपने दिल में पीड़ा अनुभव करता और एकांत में छुपकर रोया करता। फिर भी, आखिरकार वह “दुर्भाग्यपूर्ण” दिन आ ही गया। यीशु के पकड़े जाने के बाद पतरस अपनी मछली पकड़ने की नाव में अकेले रोता रहा और उसके लिए बहुत प्रार्थनाएँ कीं। परंतु अपने हृदय में वह जानता था कि यह पिता परमेश्वर की इच्छा है और इसे कोई नहीं बदल सकता। यीशु के प्रति अपने प्रेम के कारण ही वह दुखी होकर रोता रहा था। निस्संदेह यह मानवीय दुर्बलता है। अतः जब उसे ज्ञात हुआ कि यीशु को क्रूस पर चढ़ा दिया जाएगा, उसने यीशु से पूछा : “अपने जाने के बाद क्या तू हमारे बीच लौटेगा और हमारी देखभाल करेगा? क्या हम फिर भी तुझे देख पाएँगे?” हालाँकि ये शब्द बहुत सीधे-सादे और मानवीय धारणाओं से भरे थे, पर यीशु पतरस की पीड़ा की कड़वाहट के बारे में जानता था, अतः अपने प्रेम के द्वारा उसने उसकी दुर्बलता को ध्यान में रखा : “पतरस, मैंने तुझसे प्रेम किया है। क्या तू यह जानता है? हालाँकि तू जो कहता है, उसका कोई कारण नहीं है, फिर भी, पिता ने वादा किया है कि अपने पुनरुत्थान के बाद मैं 40 दिनों तक लोगों को दिखाई दूँगा। क्या तुझे विश्वास नहीं है कि मेरा आत्मा तुम लोगों पर निरंतर अनुग्रह करता रहेगा?” हालाँकि इससे पतरस को कुछ सुकून मिला, फिर भी उसने महसूस किया कि किसी चीज की कमी है, और इसलिए, पुनरुत्थान के बाद, यीशु पहली बार खुले तौर पर उसके सामने आया। किंतु पतरस को अपनी धारणाओं से चिपके रहने से रोकने के लिए यीशु ने उस भव्य भोजन को अस्वीकार कर दिया, जो पतरस ने उसके लिए तैयार किया था, और पलक झपकते ही गायब हो गया। उस क्षण से पतरस को प्रभु यीशु की गहन समझ प्राप्त हुई, और वह उससे और अधिक प्रेम करने लगा। पुनरुत्थान के बाद यीशु अकसर पतरस के सामने आया। चालीस दिन पूरे होने पर स्वर्गारोहण करने के बाद वह पतरस को तीन बार और दिखाई दिया। हर बार जब वह दिखाई दिया, तब पवित्र आत्मा का कार्य पूर्ण होने वाला और नया कार्य आरंभ होने वाला था।

अपने पूरे जीवन में पतरस ने मछलियाँ पकड़कर अपना जीवनयापन किया, परंतु इससे भी अधिक वह सुसमाचार के प्रचार के लिए जीया। अपने बाद के वर्षों में उसने पतरस की पहली और दूसरी पत्री लिखी, साथ ही उसने उस समय के फिलाडेल्फिया की कलीसिया को कई पत्र भी लिखे। उस समय के लोग उससे बहुत प्रभावित थे। लोगों को अपनी खुद की साख का इस्तेमाल करके उपदेश देने के बजाय उसने उन्हें जीवन की उपयुक्त आपूर्ति उपलब्ध करवाई। वह जीते-जी कभी यीशु की शिक्षाओं को नहीं भूला और जीवनभर उनसे प्रेरित रहा। यीशु का अनुगमन करते हुए उसने प्रभु के प्रेम का बदला अपनी मृत्यु से चुकाने और सभी चीजों में उसके उदाहरण का अनुसरण करने का संकल्प लिया था। यीशु ने इसे स्वीकार कर लिया, इसलिए जब पतरस 53 वर्ष का था (यीशु के जाने के 20 से अधिक वर्षों के बाद), तो यीशु उसकी आकांक्षा की पूर्ति में मदद करने के लिए उसके सामने प्रकट हुआ। उसके बाद के सात वर्षों में पतरस ने अपना जीवन स्वयं को जानने में व्यतीत किया। इन सात वर्षों के पश्चात एक दिन उसे उलटा क्रूस पर चढ़ा दिया गया और इस तरह उसके असाधारण जीवन का अंत हो गया।

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