अपने स्‍वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है

शैतान ने मानवजाति को इतनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है कि सभी की प्रकृति शैतानी और स्वभाव अहंकारी है; यहाँ तक कि मूर्ख और बेवकूफ भी अहंकारी हैं, और खुद को अन्य लोगों से बेहतर मानते हुए उनकी आज्ञा का पालन करने से इनकार कर देते हैं। साफ दिखाई देता है कि मानवजाति बहुत गहराई तक भ्रष्ट है और उसके लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना बहुत मुश्किल है। अपने अहंकार और दंभ के कारण, लोगों में विवेक की पूरी तरह से कमी हो गई है; वे किसी की बात नहीं मानते—दूसरों की बात सही और सत्य के अनुरूप होने पर भी वे उनकी बात नहीं मानते। यह अहंकार के कारण ही है कि लोग परमेश्वर का मूल्यांकन, निंदा और प्रतिरोध करने का दुस्साहस करते हैं। तो, अहंकारी स्वभाव का समाधान कैसे किया जा सकता है? क्या इसका समाधान मानवीय संयम के भरोसे रहकर किया जा सकता है? क्या केवल इसकी पहचान करने और इसे स्वीकार करने मात्र से इसका समाधान हो सकता है? बिल्‍कुल नहीं। अहंकारी स्वभाव के समाधान का केवल एक ही तरीका है, और वह है परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना। केवल वे जो सत्य को स्वीकार करने में सक्षम हैं, धीरे-धीरे अपना अहंकारी स्वभाव छोड़ सकते हैं; जो लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, वे कभी अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करने में सक्षम नहीं होंगे। मैं ऐसे कई लोगों को देखता हूँ जो अपने कर्तव्य में थोड़ी प्रतिभा क्या दिखा देते हैं, इसे अपने दिमाग पर हावी हो जाने देते हैं। अपनी योग्‍यताएँ दिखाकर वे सोचते हैं कि वे बहुत प्रभावशाली हैं, और फिर वे उन्‍हीं के सहारे जीवन गुजार देते हैं और उससे ज्‍यादा कोशिश नहीं करते। दूसरे चाहे जो भी कहें, वे उनकी बात यह सोचकर नहीं सुनते कि उनके पास जो छोटी-छोटी चीजें हैं, वे ही सत्य हैं और वे स्‍वयं सर्वोच्च हैं। यह कैसा स्वभाव है? यह अहंकारी स्वभाव है। उनमें तर्क की बहुत कमी है। क्या अहंकारी स्वभाव होने पर कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? क्या वह परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है और अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कर सकता है? यह तो और भी मुश्किल है। अहंकारी स्वभाव को ठीक करने के लिए, उसे सीखना होगा कि अपना कर्तव्य निभाते समय परमेश्वर के कार्य, उसके न्याय और ताड़ना का अनुभव कैसे किया जाए। केवल इसी तरह से वह स्वयं को वास्तव में जान सकता है। केवल अपने भ्रष्ट सार और अपने अहंकार की जड़ को स्पष्ट रूप से देखकर, और फिर उसे समझकर और उसका विश्लेषण करके ही तुम वास्तव में अपना प्रकृति सार जान सकते हो। तुम्हें अपने अंदर की सभी भ्रष्ट चीजों को खोदकर बाहर निकालना होगा, और उन्‍हें सामने रखकर सत्य के आधार पर उन्हें जानना होगा, तभी तुम्हें पता चलेगा कि तुम क्या हो : न केवल तुम भ्रष्ट स्वभाव से भरे हो, और न केवल तुममें विवेक और समर्पण की कमी है, बल्कि तुम पाओगे कि तुममें बहुत-सी चीजों की कमी है, तुम्‍हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं है, और तुम बहुत दयनीय हो। तब तुम अहंकार नहीं कर पाओगे। यदि तुम इस तरह से विश्लेषण करके स्वयं को नहीं जानते, तो अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम्‍हें ब्रह्मांड में अपना स्थान पता नहीं चलेगा। तुम सोचोगे कि तुम हर तरह से उत्‍तम हो, दूसरों से जुड़ा सब कुछ बुरा है, केवल तुम ही सर्वश्रेष्ठ हो। फिर, तुम हर वक्‍त सबके सामने दिखावा करोगे, ताकि दूसरे तुम्हें आदर से देखें और तुम्हारी पूजा करें। यह पूरी तरह से आत्म-जागरूकता का अभाव होना है। कुछ लोग हमेशा दिखावा करते रहते हैं। दूसरों को यह अप्रिय लगता है, तो वे अहंकारी कहकर उनकी आलोचना करते हैं। परन्तु वे इसे स्वीकार नहीं करते; उन्‍हें यही लगता है कि वे प्रतिभाशाली और कुशल हैं। यह कैसा स्वभाव है? वे अत्यधिक अहंकारी और दंभी हैं। क्या ऐसे अहंकारी और दंभी लोग सत्य के प्‍यासे हो सकते हैं? क्या वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? यदि वे कभी स्वयं को जानने में सक्षम नहीं होते, और अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं छोड़ पाते, तो क्या वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हैं? निश्‍चित रूप से, नहीं।

बहुत से लोग अपनी इच्छानुसार अपना कर्तव्य निभाते हैं और दूसरों के सुझाव कभी नहीं सुनते। यदि कोई उन्हें कोई तरीका बताता है, तो वे उस समय उसे लिख लेते हैं और उसे मानने को सहमत हो जाते हैं, लेकिन बाद में वे उस तरफ ध्‍यान नहीं देते और अपने हिसाब से काम करना जारी रखते हैं। यह कैसा स्वभाव है? (दंभी और अहंकारी स्वभाव।) क्या इसमें हठधर्मिता है? (हाँ, है।) हठधर्मिता और अहंकार हर व्यक्ति में पाए जा सकते हैं। जब लोग किसी को कुछ ऐसा कहते हुए सुनते हैं जो सही और तार्किक हो, तब मामले को जमीर और विवेक से देखने पर उन्‍हें लगेगा कि इसे मानना चाहिए, लेकिन क्या वे उसे व्यवहार में ला पाएँगे? (जरूरी नहीं है।) इसका अभ्यास करने के लिए उनका रवैया कैसा होना चाहिए? सबसे पहले, उनका रवैया सही होना चाहिए : उन्हें अपनी कल्पनाओं, निर्णयों या भ्रामक समझ को छोड़ देना चाहिए, और फिर उस व्यक्ति के अच्छे सुझाव पर विचार करना चाहिए और सत्य की खोज करनी चाहिए, यदि उन्‍हें लगता है कि उस व्‍यक्ति का सुझाव सही और सत्‍य के सिद्धांतों के अनुरूप है, तो उन्‍हें उसे स्वीकार करना चाहिए और उसका पालन करना चाहिए। क्या उनका रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए? क्या इस रवैये में कोई अहंकार है? इसमें कोई अहंकार नहीं है; यह गंभीर, जिम्मेदार, सत्य को स्वीकार करने वाला और सकारात्मक चीजों से प्यार करने वाला रवैया है। जब तुम किसी व्यक्ति को कोई अच्छा सुझाव देते हुए सुनते हो, ऐसा सुझाव जो तुम्‍हें सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप लगता है, तो यदि तुम अपनी इज्‍जत बचाने के लिए या क्षणिक समझ के चलते इसे स्वीकारने की बात तो कहते हो, लेकिन जब कुछ करने का समय आता है, तो तुम अपनी इच्छानुसार कार्य करते हो, जो भी चाहते हो, वही करते हो, और उस सुझाव को किनारे कर देते हो जिसे तुम्‍हारे दिल ने सही माना था, तो तुम कैसे इंसान हो? क्या यह सत्य स्वीकार करने का रवैया है? यह कैसा स्वभाव है? यह अहंकार और विद्रोह है, यह सत्य स्वीकार नहीं करना है, यह अपनी इच्छा को प्राथमिकता देना और अपनी राय और विचारों को हावी होने देना है, और सत्य सिद्धांतों, सकारात्मक चीजों और परमेश्वर के वचनों को ध्यान से निकाल देना है। कुछ अन्‍य लोग ऐसे हैं जो व्यक्तिगत रूप से बड़े-बड़े वादे करते हैं, लेकिन जब कुछ हो जाता है, तो वे उन्हें पूरा करने के इच्‍छुक नहीं होते, और अपने ही गुणा-भाग करने लगते हैं : “अगर मैं इसे सिद्धांतों के अनुसार करता हूँ, तो मुझे सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति करनी होगी, और लोगों की धारणाओं को पलटना होगा, और यह बहुत कठिन होगा। मुझे बहुत सारी बातें करनी होंगी और मुझे डर है कि मैं शायद स्‍पष्‍ट न बोल पाऊँ, जिससे समय और ऊर्जा की बरबादी और बहुत परेशानी होगी! परेशानी से बचने के लिए, मुझे इसे इस तरह से करना होगा, और हर किसी को मेरी बात सुननी होगी, भले ही वे सहमत न हों, इस पर मेरा फैसला आखिरी होगा।” यह कैसा रवैया है? यह धूर्ततापूर्ण रवैया है। वादा करते समय वे ईमानदार, वफादार, आज्ञाकारी और पवित्र प्रतीत होते हैं, और दूसरों की राय और सत्य को स्वीकार करने में सक्षम लगते हैं, लेकिन जब कार्य करने का समय आता है, तो वे पूरी तरह से अलग होते हैं और उनका रवैया बदल जाता है। यह क्यों बदल जाता है? उनका रवैया पूरा का पूरा क्यों बदल जाता है? इसकी क्‍या वजह है? उन्हें लगता है कि इस तरह से कार्य करना शारीरिक रूप से बहुत कष्टकारी और बहुत परेशानी भरा है, इसलिए वे उस कष्‍ट को सहने के अनिच्छुक होते हैं। न तो उनके द्वारा पहले की गई प्रतिज्ञाएँ या वादे अब उनके लिए मायने रखते हैं, और न ही सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजों को संभालना। उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण बात अपनी दैहिक इच्‍छाओं को पूरा करना है, वही सबसे पहले आता है, और वे परमेश्वर के आदेश को पीछे धकेल देते हैं और उसे गंभीरता से नहीं लेते। क्या यह एक जिम्मेदार व्यक्ति है? क्या यह ईमानदार व्यक्ति है? क्या यह वह व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है? नहीं। ऐसे लोग भी हैं जो आमने-सामने होने पर दूसरों से वादा करते हैं कि वे किसी मामले को ठीक से संभाल लेंगे, और उन्‍हें पूरी तरह से निश्चिंत कर देते हैं, लेकिन जब उन्हें उसे संभालने की प्रक्रिया में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, तो वे बस उसे छोड़कर हाथ खड़े कर देते हैं। क्या यह एक भरोसेमंद व्यक्ति है? क्या यह काम करने का सिद्धांत सम्‍मत तरीका है? विशेष रूप से अपना कर्तव्य निभाते समय और परमेश्वर के घर के लिए काम करते समय, उन्हें सत्य सिद्धांतों का और भी अधिक पालन करना चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी चाहिए, भले ही इसके लिए कभी-कभी उन्हें नुकसान और अपमान ही क्‍यों न सहना पड़े, और उन्हें कभी भी कलीसिया के काम का नुकसान नहीं होने देना चाहिए। ऐसा करने वाले लोग ईमानदार होते हैं, परमेश्वर के इरादों पर ध्यान देते हैं, और हर मोड़ पर परमेश्वर के घर के बारे में सोचते हैं। जो लोग धोखेबाज होते हैं, वे अपना कर्तव्य निभाते समय लगातार अपने हितों के बारे में सोचते हैं, और अपने किसी भी काम में थोड़ा-सा भी नुकसान उठाने को तैयार नहीं होते; वे अपने नुकसान के बजाय परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान होने देना ज्‍यादा पसंद करेंगे। परमेश्वर जानता है कि कोई व्यक्ति सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभा रहा है या नहीं—परमेश्वर लोगों के विचारों और भावों की जाँच करता है। यदि परमेश्वर जान जाता है कि व्‍यक्ति दिल से धोखेबाज और दुष्‍ट है, वह अपने दैहिक हितों के लिए लालच के कारण काम करता है, वह सत्‍य से प्रेम नहीं करता और सत्‍य से विमुख हो चुका है, तो इन चीजों की जाँच करते ही वह उस व्‍यक्ति को त्‍याग देगा। तो क्या वह व्‍‍यक्ति खुद यह सब महसूस कर पाएगा? (नहीं।) वह यह क्‍यों महसूस नहीं कर पाएगा? (क्योंकि जब किसी व्यक्ति की प्रकृति उसके कार्यों को नियंत्रित करती है, तो जब तक उसके दैहिक हितों की तुष्टि होती रहती है, वह स्वयं की जाँच नहीं करता। परिणामस्वरूप, उसे यह एहसास नहीं होता कि इस तरह से काम करना सत्य के अनुरूप नहीं है।) तो, आंतरिक रूप से वह क्‍या है जिस पर मनुष्य जीवित रहता है? वह शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है। मनुष्य का सार शैतान का सार है, और मनुष्य अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीता है, केवल अपने घमंड, गर्व और दैहिक हितों की रक्षा करता है। इस प्रकार की स्वार्थी और घृणित सोच लोगों की प्रकृति बन गई है, इसलिए उन्हें लगता है कि सत्य का अभ्यास करना, परमेश्वर के प्रति समर्पित होना, परमेश्वर के वचनों को पूरी तरह से सुनना और सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर के मानकों के अनुसार कार्य करना बहुत कठिन और दुष्कर है। यहाँ समस्या क्‍या है? समस्‍या यह है कि मनुष्य शैतानी स्वभाव से बंधा हुआ और नियंत्रित है, और उसके दिल में बहुत सारी नकारात्मक चीजें हैं, इसलिए सत्य का अभ्यास करना बहुत कठिन लगता है और आसान तो बिल्कुल भी नहीं लगता। यदि लोगों के भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध हो जाएँ, और वे सत्य समझने और परमेश्वर के इरादों पर ध्यान देने में सक्षम हो जाएँ, तो उन्हें सत्य का अभ्यास करने में किसी बाधा या कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ेगा, और यह दुष्कर नहीं लगेगा।

यदि कोई व्यक्ति सत्य के लिए बिल्कुल भी लालायित नहीं है, और उसे स्वीकार नहीं करना चाहता, तो उसके भीतर कोई भी गुण नहीं है, और जब भी उस पर कोई मुसीबत आएगी, तो वह बस शैतान के दर्शन के अनुसार जिएगा और अविश्वसनीय रूप से तुच्छ, दयनीय और अंधा दिखेगा। दूसरे शब्दों में, वह बेसहारा है और उसके भीतर कुछ भी नहीं है; उसमें पाप पर विजय पाने की कोई क्षमता नहीं है, अपनी दैहिक इच्‍छाओं के प्रति विद्रोह करने की कोई क्षमता नहीं है, सत्य का अभ्यास करने की कोई प्रेरणा नहीं है, स्वयं के विचार बदलने का कोई दृढ़ संकल्प नहीं है, और पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित होने का कोई संकल्प नहीं है। वह बस तुच्छ, दयनीय और अंधा है, और कुछ भी नहीं है। जब अपनी इच्छा से निरंकुश होकर दौड़ने की बारी आती है तो ऐसे लोगों में बहुत अधिक ऊर्जा होती है, लेकिन वे परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में असमर्थ रहते हैं। यदि तुम देखो कि वे कैसे दिखाई देते हैं, तो इनमें से कुछ लोग वाक्पटु और शिक्षित हैं और उनके पास कुछ प्रतिभा और खूबियाँ हैं, और वे सक्षम लोग हैं, तो फिर मैं उन्‍हें तुच्छ और दयनीय क्यों कहता हूँ? इसे कैसे मापा जाता है? जिस व्‍यक्ति के पास बिल्कुल भी सत्य नहीं है, वह तुच्छ और दयनीय है। क्या शिक्षा और ज्ञान, या प्रतिभाएँ और योग्यताएँ सत्य का स्थान ले सकती हैं? क्या वे किसी को सत्य समझने और मुश्किल समय से निकलने में मदद कर सकती हैं? क्या वे किसी को अपनी गवाही पर दृढ़ रख सकती हैं और परमेश्वर की स्वीकृति दिलवा सकती हैं? बिल्कुल नहीं। लोग चाहे कुछ भी करें, वे अपनी प्राथमिकताओं, इच्छाओं, धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर कार्य करना पसंद करते हैं, और इसे लेकर वे बहुत खुश, प्रसन्न और सुकून महसूस करते हैं। और फिर भी, यदि उन्हें सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के प्रति समर्पित होना हो, तो वे उसमें शक्तिहीन और पूरी तरह से अनिच्‍छुक महसूस करेंगे, या यहाँ तक कि उन्हें लगेगा मानो उन्हें लकवा मार गया हो। यह क्या हो रहा है? उनके दिल कहाँ हैं? वे किसकी सेवा करते हैं? ऐसा क्यों है कि जब लोग अपनी प्रतिभाओं और ज्ञान का उपयोग करके, और अपने अच्छे इरादों और प्राथमिकताओं के अनुसार काम करते हैं, तो वे बहुत सक्षम होते हैं, उनके पास कई युक्तियाँ और असीमित ऊर्जा होती है, लेकिन जब उनसे सत्य का अभ्यास करने, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने, और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए कहा जाता है, तब चाहे वे कितनी भी बड़ी शख्सियत क्यों न हों, असहाय और शक्तिहीन हो जाते हैं? इसके मूल में क्या है? ऐसा क्यों है कि सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों की खोज करने में, लोग मूर्खों जैसे, बहुत तुच्छ और दयनीय होते हैं, और फिर भी वे डींगें हांकते हैं, शेखी बघारते हैं, और सोचते हैं कि वे बाकी सभी से बेहतर हैं, और किसी की भी आज्ञा मानने से इनकार कर देते हैं? ऐसा क्यों है? (लोग स्वयं को नहीं जानते।) स्वयं को न जानना इसका एक पहलू है—मुख्य कारण यह है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं। सत्‍य समझने से पहले, यही उनकी कुरूप अवस्‍था, उनका चरित्र और उनका दयनीय रूप होता है—वे कुछ भी नहीं हैं। जिनके पास सत्य नहीं है वे सभी ऐसे ही हैं; भले ही उनका ज्ञान या स्‍तर कितने भी ऊँचे क्‍यों न हों, वे केवल कुरूप अवस्‍था और दरिद्रतापूर्ण स्‍वरूप दर्शाते हैं। परमेश्वर और सत्य को जानने से पहले मनुष्य इतना तुच्छ और दयनीय होता है, उसके पास कुछ भी नहीं होता और वह खुद कुछ भी नहीं होता है। मैं कुछ लोगों के संपर्क में आया हूँ, और उनके साथ बात और काम करते समय मैं उनके उदासीन, मंदबुद्धि, दरिद्र और दयनीय स्‍वरूप को देखता हूँ। वे बाहरी चीजों के बारे में थोड़ी बात कर सकते हैं, लेकिन जब कोई बात सत्य सिद्धांतों से जुड़ी होती है, तो उनके विचार इस या उस ओर झुक जाते हैं, या उन पर उनके कोई विचार ही नहीं होते। जब कोई व्यक्ति इतने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास कर रहा हो, उसने परमेश्वर के इतने सारे वचन पढ़े हों, इतने सारे उपदेश सुने हों, और हर दिन आध्यात्मिक जीवन जीता हो, तो वह इतना उदासीन, मंदबुद्धि, दरिद्र और दयनीय कैसे हो सकता है? जब कुछ होता है, तो उसका दृष्टिकोण सही क्यों नहीं होता? चीजों पर उसका नजरिया कभी क्यों नहीं बदलता? (उसने सत्य को स्वीकार या उसका अभ्यास नहीं किया है।) यह सही है। उसने बहुत सारे उपदेश सुने हैं, लेकिन जो कुछ भी उसने सुना है, वे सिद्धांत हैं; उसने परमेश्वर के बहुत सारे वचन पढ़े हैं, लेकिन उसने उनसे केवल सिद्धांत ही समझे हैं; वह कई सभाओं में गया है, लेकिन उसने जो पाया है, वह केवल कुछ शाब्दिक चीजें और विनियम हैं। इसका संबंध किससे है? वे ये चीजें क्यों प्राप्त करते हैं? परमेश्वर मनुष्य को जो प्रदान करता है वह सत्य, जीवन और सत्य वास्तविकता है, तो इन लोगों में ये फल क्यों पैदा होते हैं? क्या तुम लोगों ने कभी इस प्रश्न पर विचार किया है? यह एक गंभीर और बड़ी समस्या है। तो, इस समस्या को कैसे हल किया जा सकता है? तुम्‍हें परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना चाहिए, अपने दिल में इसे बसाना चाहिए और इसे अपनी वास्तविकता बनने देना चाहिए; तुम्हें अपनी आंतरिक स्थिति और अवस्‍था को बदलना होगा, और जिसका भी सामना करो, उसके प्रति सही विचार और सही रवैया रखना होगा। क्या यह वह मार्ग नहीं है जिसका तुम्हें अभ्यास करना चाहिए? क्या यह वह दिशा नहीं है जिस ओर तुम्हें खोजना चाहिए? इस बारे में सोचो, तुम इस मार्ग पर कैसे चल सकते हो? तुम सब क्या सोचते हो? (परमेश्वर, मुझे लगता है कि जब चीजें मुझ पर पड़ती हैं तो मुझे अपने इरादों, उद्देश्‍यों और अपने भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशनों पर विचार करना चाहिए, और फिर सचेत रूप से अपने गलत इरादों और भ्रष्टता के प्रकाशनों के प्रति विद्रोह करना चाहिए, और परमेश्वर के वचन में विद्यमान सत्य के अनुसार कार्य करना चाहिए।) यह सही रास्ता है, लेकिन इसे क्रियान्वित करने की प्रक्रिया में, क्या तुम स्‍वयं की समस्याओं का पता लगा पाते हो? (कई बार मैं उनका पता लगा लेता हूँ, तो कई बार नहीं।) इसके लिए तुम्‍हें परमेश्वर से प्रार्थना करना, आत्‍मचिंतन करना और स्वयं के कार्यों की बार-बार जाँच करना आवश्यक है। पवित्र आत्मा लोगों को उन चीजों के बारे में प्रबुद्ध करेगा जिन्‍हें वे नहीं समझते हैं, और एक बार तुम्‍हें पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता मिल जाने पर क्या तुम्‍हारी समस्याएँ हल नहीं हो जाएँगी? जब कोई परमेश्वर पर भरोसा करता है, तो ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका समाधान न किया जा सके।

मैं तुम सभी को विश्लेषण करने और यह देखने के लिए एक उदाहरण दूँगा कि क्या तुम आत्‍मचिंतन करना जानते हो, और क्या तुम दूसरों की समस्याओं के माध्यम से स्वयं के मुद्दों की पहचान कर सकते हो। एक बार मैंने किसी के साथ समय बिताया, शुरू-शुरू में तो वह सावधान और सतर्क रहा, मेरे कुछ भी करने पर वह मुझसे मेरा मकसद पूछता और मैं जो कुछ भी कहता, वह सिर झुकाकर हामी भरता और ध्यान से सुनता था। उसके मन में यह सीमा थी : “तुम परमेश्वर हो, मैं तुम्हारा अपमान नहीं कर सकता, मैं इस सीमा को नहीं लांघ सकता, तुम जो भी कहोगे, मैं वह सुनूँगा, तुम मुझे जो भी करने को कहोगे, मैं वह करूँगा।” मूलतः उसमें कोई समस्या नहीं दिखती थी। लेकिन जब हमने एक कुछ समय साथ बिताया और कुछ बातचीत की, तो वह मेरे बोलने के तरीके और लहजे का आदी हो गया—वह इन चीजों से परिचित हो गया, और उसने सोचा, “हालाँकि हम दोनों बराबर नहीं हैं, और हमारी पहचान और दर्जा समान नहीं हैं, लेकिन मैं तुमसे बात करने में सहज हूँ, मुझे कुछ भी छिपाने की जरूरत नहीं है, मैं जो चाहूँ, कह सकता हूँ।” समय के साथ, मनुष्य और परमेश्वर के बीच का रिश्ता टूट गया, और उसने सोचा, “मुझे पता है कि तुम्हारा चरित्र कैसा है, मुझे पता है कि तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो। मैं जानता हूँ कि किन चीजों से तुम नाराज नहीं होगे और मेरी काट-छाँट नहीं करोगे, और मैं उन चीजों को करने से बचूँगा जिनके लिए तुम मेरी काट-छाँट नहीं करोगे। अगर मैं उन्हें करता भी हूँ, तो मैं तुम्हें वह देखने या पता नहीं चलने दूँगा। तुम्हें पता न लगे, इसके लिए मैं तुम्हारे करीबी लोगों को भी नहीं बताऊँगा कि मैं तुम्हारी पीठ पीछे क्या कर रहा हूँ। इस तरह, तुम्हें इस बारे में पता नहीं चलेगा, है न? यदि तुम्हें इसके बारे में पता नहीं चलेगा, तो तुम मेरी काट-छाँट नहीं करोगे, है न? मुझे इसके लिए इज्जत नहीं खोनी होगी और कष्ट तो बिल्‍कुल नहीं उठाना पड़ेगा, है न? यह बहुत अच्छा है! मैं वह बाकी सब कुछ करूँगा जो तुम मुझे करने के लिए कहोगे, और मैं समर्पण करूँगा, लेकिन मेरे पास सापेक्ष स्वतंत्रता तो होनी ही चाहिए।” क्या यहाँ कोई समस्या नहीं उभरी? (उभरी है।) कौन-सी समस्या उभरी है? क्या यहाँ मनुष्य के हृदय की धोखेबाजी नहीं है? (बिल्‍कुल है।) चाहे अन्य लोगों के सामने हो या परमेश्वर के सामने, लोग हमेशा उन चीजों को अपने दिल की गहराई में छिपाने की कोशिश करते हैं जो वे दूसरों को नहीं बताना चाहते, और मन की यह स्थिति और स्वभाव धोखेबाजी है, जो हर व्यक्ति में होता है। यहाँ एक और स्वभाव है—अहंकार। यहाँ अहंकार कहाँ प्रकट होता है? इस व्यक्ति ने मन ही मन सोचा, “तो, तुम भी इसी तरह से बात करते हो। तुम्हारे बात करने के तरीके में ज्यादा प्रभावशाली कुछ भी नहीं है, तुम बस ये बातें कह पाते हो, और अगर मैं तुम्हें बेहतर जान पाऊँ, तो मैं उन्हें तुमसे भी बेहतर तरीके से कह पाऊँगा। तुम ऐसे कपड़े पहनते हो? कपड़े पहनने को लेकर मेरी समझ तुमसे बेहतर है, मैं तुमसे अधिक आकर्षक हूँ, बस तुम्हारे पास मुझसे अधिक सत्‍य हैं। इसलिए, समय के साथ, जब मैं तुम्हें बेहतर तरीके से जान जाऊँगा, तो मैं जो भी कहना चाहता हूँ, उसे कहने का साहस करूँगा, और मैं गलत नहीं बोलूँगा।” क्या यह अहंकार नहीं है? (है।) ये दो स्वभाव हैं। एक और छिपा हुआ स्वभाव है, क्या तुम्‍हें वह पता चला? जब कोई परमेश्वर के सामने अहंकार, धोखा और पाखंड प्रकट करता है, तो क्या वह दिल की गहराई से इस बारे में जानता है? (हाँ।) जब वह यह जानता है, तो वह इसका क्या करता है? क्या वह स्वयं को रोकता है? क्या वह परहेज करता है? क्या वह स्वयं पर विचार करता है? (नहीं।) यह कैसा स्वभाव है जब कोई व्यक्ति जानता है कि उसने अहंकारी स्वभाव प्रकट किया है लेकिन फिर भी वह इस पर विचार नहीं करता या स्वयं को जानने का प्रयास नहीं करता, और यदि कोई उसे इस बारे में बताता है, तो भी वह इसे स्वीकार नहीं करता, और इसके बजाय अपना बचाव करने की कोशिश करता है? (हठधर्मिता।) यह सही है, यह हठधर्मिता है। इस प्रकार का हठधर्मी स्वभाव अन्य लोगों के सामने कैसे भी क्‍यों न प्रकट हो, और भले ही ऐसा रवैया किसी भी संदर्भ में क्‍यों न प्रकट हो, उस व्‍यक्ति का स्‍वभाव हठधर्मी है। चाहे लोग कितने भी कपटी और छद्मवेशी क्यों न हों, उनका यह अड़ियल स्वभाव आसानी से उजागर हो जाता है। चूँकि लोग शून्य में नहीं रहते, और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे अन्य लोगों के सामने हैं या नहीं, सभी लोग परमेश्वर के सामने रहते हैं, और हर व्यक्ति परमेश्वर की जाँच के अधीन है। यदि लोग आम तौर पर दुराग्रही, लम्पट, असंयमी हैं, और उनकी ऐसी प्रवृत्ति और भ्रष्टता के प्रकाशन हैं, और यदि, जब उन्हें इसका एहसास होता है, तब भी वे पीछे नहीं हटते, और इसकी पहचान कर लेने पर भी पश्चाताप नहीं करते, खुल कर संगति नहीं करते, या इस समस्या को हल करने के लिए सत्य की खोज नहीं करते तो यह हठधर्मिता है। हठधर्मिता की अभिव्यक्ति के संदर्भ में, इसके दो प्रकार हैं : “हठधर्मिता” और “कठोरता।”[क] “हठ” का अर्थ है बहुत जिद्दी होना, अपने तरीकों में कोई बदलाव न करना, और नरम न होना। “कठोरता” का अर्थ है कि अन्य लोग उसके संपर्क में नहीं आना चाहते और ऐसा करना उनके लिए पीड़ादायक होता है। आम तौर पर लोग ऐसे लोगों के संपर्क में आने के इच्‍छुक नहीं होते जिनका स्वभाव अड़ियल होता है, ठीक उसी तरह जैसे लोग कठोर चीजों के संपर्क में नहीं आना चाहते और ऐसा करने पर बहुत असहज महसूस करते हैं; लोगों को मुलायम चीजें पसंद होती हैं, मुलायम चीजों की बनावट लोगों को अच्‍छा महसूस कराती है, और इससे उन्हें खुशी मिलती है, जबकि हठधर्मिता बिल्कुल विपरीत है। हठधर्मिता लोगों को एक रवैया प्रदर्शित करने पर मजबूर करती है, और यह रवैया अडियलपन और जिद्दीपन है। यह कौन-सा स्‍वभाव है? यह हठधर्मी स्वभाव है। इसका मतलब यह है कि जब व्यक्ति किसी चीज का सामना करता है, भले ही वह यह जानता है या उसे इसका थोड़ा-बहुत एहसास होता है कि उसका यह रवैया अच्छा और सही नहीं है, तो वह अपने अड़ियल स्वभाव के कारण यह सोचने के लिए प्रेरित होता है, “अगर किसी को पता चल भी गया तो क्या? मैं ऐसा ही हूँ!” यह कैसा रवैया है? वह इस मुद्दे से इनकार करता है, उसे नहीं लगता कि यह रवैया बुरा या परमेश्वर के प्रति विद्रोहपूर्ण है, यह शैतान से आता है, या यह शैतान के स्वभाव का प्रकाशन है; उसे यह समझ नहीं आता या एहसास नहीं होता कि परमेश्वर इसे कैसे देखता है और परमेश्वर इससे कैसे घृणा करता है—यही इस समस्या की गंभीरता है। हठधर्मिता का स्वभाव अच्छा है या बुरा? (यह बुरा है।) यह एक शैतानी स्वभाव है। इससे लोगों के लिए सत्य को स्वीकार करना कठिन हो जाता है, और इससे उनके लिए पश्चाताप करना और भी कठिन हो जाता है। सभी शैतानी स्वभाव नकारात्मक चीजें हैं, उन सभी से परमेश्वर घृणा करता है, और उनमें से कोई भी सकारात्मक चीज नहीं है।

जिन तीन प्रकार के स्वभावों का मैंने अभी उल्लेख किया, धोखेबाजी, अहंकार और हठधर्मिता का, वे सभी घातक चीजें हैं। अगर तुम अन्य लोगों के प्रति अहंकार, धोखेबाजी या हठधर्मिता प्रकट करते हो, तो तुममें सिर्फ बुरा स्वभाव या खराब मानवता है; अगर तुम परमेश्वर के प्रति अहंकार, धोखेबाजी या हठधर्मिता प्रकट करते हो, तो यह परमेश्वर के प्रति विरोध प्रकट करने की अभिव्यक्ति है, जिससे उसके स्वभाव का अपमान होने की संभावना है—अगर तुम पश्चात्ताप नहीं करते, तो यह बहुत खतरनाक होगा। अगर तुम ये स्वभाव अन्‍य लोगों के सामने प्रकट करते हो, तो वे इसे गंभीरता से नहीं लेते; अगर तुम ये भ्रष्ट स्वभाव इसी तरह परमेश्वर के सामने प्रकट करते हो, तो तुम परमेश्वर का विरोध कर रहे होगे और उसके स्वभाव का अपमान कर रहे होगे। हालाँकि यह जानबूझकर या इरादतन नहीं होगा, फिर भो तुम इसे अपनी शैतानी प्रकृति के प्रभुत्व के तहत अनिच्‍छा से करोगे। इसलिए, जब तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होता है, तब अगर तुम आत्‍मचिंतन कर सत्य से उसका समाधान नहीं कर सकते, तो देर-सवेर वह एक बीमारी बन जाएगा और जैसे ही यह पुरानी बीमारी दोबारा उभरेगी, तो बहुत परेशान करेगी। अगर तुम बार-बार परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करते हो, तो तुम्‍हें निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा।

अभी मैंने जो उदाहरण दिया है, उसमें वह व्यक्ति और कौन-सा स्वभाव प्रदर्शित करता है? (सत्‍य से विमुख होना।) कौन-सा भाग दर्शाता है कि वह सत्य से विमुख है? बाहरी तौर पर, वह सत्य से प्रेम करता है, उसे लगता है कि परमेश्वर उससे जो भी अपेक्षा करता है, उसका जो भी कर्तव्य है, और जो कुछ भी कलीसिया के कार्य के दायरे में आता है, उसे करना उसका कर्तव्य है, तो फिर उसे सत्‍य से विमुख कैसे कहा जा सकता है? (उसने कभी सत्य नहीं खोजा।) उसने कभी सत्य नहीं खोजा; यह स्पष्ट प्रमाण है। तो, विवरण की दृष्टि से, कौन-सी अभिव्यक्तियाँ दर्शाती हैं कि वह सत्‍य से विमुख है? (जब परमेश्वर की अपेक्षा उसकी इच्‍छा से टकराई, तो उसने परमेश्वर की इच्छा खोजने के बजाय अपनी इच्छा का पालन करना चुना।) यह विवरण है। सत्य से विमुख होने का स्वभाव लोगों में मुख्य रूप से कैसे अभिव्यक्त होता है? जब वे कोई सकारात्मक चीज देखते हैं, तो वे उसे सत्य से नहीं मापते—उसे मापने के लिए वे किस चीज का इस्तेमाल करते हैं? उसे मापने और यह देखने के लिए कि क्या यह चीज सुरुचिपूर्ण ढंग से की गई है, इसका रूप क्या है और यह कितनी प्रभावशाली है, वे शैतान के तर्क का इस्तेमाल करते हैं। वे हर चीज उन तरीकों से मापते हैं, जिनका इस्तेमाल शैतान लोगों का मूल्यांकन करने के लिए करता है, यानी वे सिद्धांत और तरीके, जिनका इस्तेमाल गैर-विश्वासी लोगों का मूल्यांकन करने के लिए करते हैं। चीजें करते समय वे सत्य नहीं खोजते, और उनके तमाम कार्यों का शुरुआती बिंदु सत्य को एक तरफ रखकर उन्हें अपनी कल्पनाओं और दृष्टिकोणों, और सांसारिक आचरण के फलसफों और उस ज्ञान का इस्तेमाल करके मापना होता है जिसे उन्होंने समझा होता है—वे सब-कुछ इसी तरह से करते हैं। वे मानवीय दृष्टिकोणों और शैतान के तर्क का अपने माप के रूप में इस्तेमाल करते हैं, और मापते-मापते वे पाते हैं कि उनकी नजर में और कोई उनके जितना अच्छा नहीं है—वे सर्वश्रेष्ठ हैं। क्या उनके हृदय में मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ होती हैं? क्या वहाँ सत्य का कोई सिद्धांत होता है? नहीं, कोई नहीं होता। वे मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ नहीं देखते, वे नहीं देखते कि सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है, वे नहीं देखते कि सत्य सभी चीजों से ऊपर है, इसलिए वे स्वाभाविक रूप से देहधारी परमेश्वर को तुच्छ समझते हैं, और उनके मन में हमेशा परमेश्वर के देहधारण के पहनावे के ढंग, वाणी और आचरण के बारे में धारणाएँ होती हैं। और इसलिए, लंबे संपर्क के बाद, वे सोचते हैं, “तुम उतने गरिमापूर्ण, शाही और गहन नहीं हो जितना मैंने सोचा था, और तुम्‍हारे पास तो मेरे जैसी उत्‍कृष्‍टता भी नहीं है। जैसे मैं यहाँ खड़ा हूँ, तो क्‍या मेरे पास एक महान विभूति वाली उत्‍कृष्‍टता नहीं है? हालाँकि तुम सत्य बोलते हो, फिर भी मुझे तुममें परमेश्वर जैसा कुछ दिखाई नहीं देता। तुम हमेशा सत्य के बारे में बात करते हो, तुम हमेशा वास्तविकता में प्रवेश करने की बात करते हो, तुम कुछ रहस्यों का खुलासा क्यों नहीं करते? तुम थोड़ा तीसरे स्वर्ग की भाषा में क्यों नहीं बोलते?” चीजों पर यह किस प्रकार का तर्क और दृष्टिकोण है? (यह चीजों पर शैतान का दृष्टिकोण है।) यह शैतान से आता है। तुम लोगों को क्‍या लगता है कि मैं इन चीजों को कैसे देखता हूँ? (तुम ऐसे व्यक्ति से घृणा करते हो और उससे बातचीत करने के इच्छुक नहीं होते।) तुम लोग गलत हो। उलटे, ऐसे किसी व्यक्ति से सामना होने पर मैं उसके करीब जाऊँगा और उसके साथ सामान्य रूप से संगति करूँगा, और जो मैं प्रदान कर सकता हूँ, वह उसे प्रदान करूँगा और जैसे भी संभव होगा, उसकी मदद करूँगा। अगर वह अड़ियल और जिद्दी हुआ, तो न केवल मैं उसके साथ सामान्‍य रूप से निभा पाऊँगा, बल्कि जितना हो सकेगा, उसके साथ चीजों पर चर्चा भी करूँगा। मैं कहूँगा, “क्या तुम्‍हें लगता है कि इस तरह से काम करना सही रहता है? तुम्‍हें इनमें से जो भी तरीका उपयुक्‍त लगे, उसका इस्तेमाल करो, और अगर तुम्‍हें लगता है कि इनमें से कोई भी उपयुक्त नहीं है, तो इस समस्या को हल करने के लिए अपना तरीका सोचो।” इस प्रकार का व्यक्ति खुद को जितना बड़ा समझता है, मैं उसके साथ उतना ही अधिक इस तरह हिल-मिल जाता हूँ; मैं किसी के सामने अपनी शान नहीं बघारता। अगर दो स्टूल हों, एक ऊँचा और एक नीचा, तो मैं उसे ऊँचे वाले पर बैठने दूँगा, और खुद नीचे वाले पर बैठूँगा। मैं उसकी तरफ अदब से देखकर बात करूँगा, और अंततः उसे शर्मिंदा कर दूँगा, और धीरे-धीरे उसे एहसास दिलाऊँगा कि उसके पास सत्‍य नहीं है, वह दरिद्र और दयनीय, सुन्न और मंदबुद्धि है। तुम इस तरीके के बारे में क्या सोचते हो? (यह अच्छा है।) तो, अगर मैं उसे एकाएक खारिज कर देता, तो क्या यह उसके लिए अच्छा रहता? दरअसल, इसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन इससे उसका कुछ भला न होता। अगर वह थोड़ी ईमानदारी के साथ परमेश्वर में विश्वास करता है, उसमें कुछ मानवता है, और उसे बचाया जा सकता है, तो मेरा उसके साथ बातचीत करना ठीक है। आखिरकार, अगर एक दिन वह सत्‍य समझ ले, तो वह स्वयं निचले स्टूल पर बैठना पसंद करेगा, और फिर घमंड नहीं करेगा। अगर मैं उसे नजरअंदाज कर दूँ, तो वह हमेशा ऐसा ही अज्ञानी और मूर्ख बना रहेगा, मूर्खतापूर्ण चीजें कहता और करता रहेगा, और हमेशा एक मूर्ख व्यक्ति, दरिद्र और दयनीय बना रहेगा—यह उन लोगों की कुरूप स्थिति है, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते। लोग सकारात्मक चीजों को तुच्छ समझते हैं और उनसे घृणा करते हैं, और जब वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो ईमानदार, स्‍नेही है और हमेशा सत्य का अभ्‍यास करता है लेकिन जिसमें कभी-कभी बुद्धि का अभाव होता है, तो वे उसका दिल से तिरस्‍कार करते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसा व्यक्ति बेकार और निकम्मा है, जबकि वे स्वयं चतुर और हिसाब-किताब में अच्छे हैं, साजिश करने और षड्यंत्र रचने में माहिर हैं, साधन-संपन्न और प्रतिभाशाली हैं, और सक्षम और वाक्पटु हैं। उन्‍हें लगता है कि यह उन्हें परमेश्वर के उद्धार का पात्र बनाता है, लेकिन वास्तव में इसका उलटा है—यह उस प्रकार का व्यक्ति है जिससे परमेश्वर घृणा करता है। यह सत्‍य को नापसंद करने और उससे विमुख होने का स्वभाव है।

कुछ लोग लंबे समय से मेरे संपर्क में हैं और मुझसे अधिक परिचित हैं, और हालाँकि वे मेरे साथ अपने दोस्‍त या किसी ऐसे व्यक्ति जैसा व्यवहार नहीं करते जो उनकी बराबरी का हो, फिर भी वे बिल्कुल भी नियंत्रित महसूस नहीं करते, और जैसे-जैसे समय बीतता है, वैसे-वैसे वे अधिकाधिक साहसी होते जाते हैं, और उनके दिलों की सीमाएँ उत्तरोत्तर मिटती जाती हैं। उन्‍हें हमेशा लगता है कि वे सब-कुछ समझते हैं और यह सोचकर कि उनके अलावा कोई कुछ नहीं समझता, अक्सर मुझे वे बातें बताते हैं जो वे समझते हैं। यह कौन-सा स्वभाव है? (अहंकार।) यह अहंकार है। वे बाहरी चीजें एक नजर में समझी जा सकती है, और फिर भी ये लोग खुद को बहुत चालाक समझते हैं, जो कि दुखद है। अगर किसी व्यक्ति का अहंकारी स्वभाव उस बिंदु तक पहुँच जाता है जहाँ वह पूरी तरह से विवेक खो देता है, तो यह उसे बुराई करने की ओर ले जा सकता है, और उसका अहंकारी स्वभाव तब एक दुष्ट स्वभाव बन जाएगा। अगर कोई व्यक्ति होशियार है, अगर उसके वचन और कार्य हमेशा षड्यंत्र भरे होते हैं, अगर वह एक दुर्जेय चरित्र है, और जब तुम उसके साथ होते हो, तो वह हमेशा तुम्हें नियंत्रित और प्रबंधित करना चाहता है, तो तुम ऐसे व्यक्ति को दयालु मानते हो या दुष्‍ट? (दुष्‍ट।) तुम उससे डरते हो और सोचते हो, “यह व्यक्ति हमेशा मुझे नियंत्रित करना चाहता है। मुझे जितनी जल्दी हो सके इससे दूर हो जाना चाहिए। अगर मैं इसकी बात न मानूँ, तो यह मुझसे बदला लेने का कोई तरीका सोच लेगा और किसे पता कि मुझे दंडित करने के लिए किन तरीकों का इस्तेमाल करे।” तुम उसके दुष्‍ट स्वभाव को समझ सकते हो, है न? (हाँ।) कैसे समझ सकते हो? (ऐसे लोग हमेशा दूसरों से अपनी माँगों और विचारों के अनुसार काम करवाते हो।) अगर वे लोगों से इस तरह से काम करवाते हो तो क्या यह माँग गलत है? ऐसे लोगों का अपनी इच्छा के अनुसार काम करवाना क्या वाकई गलत है? क्या यह तर्क सही है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) तुम उनके तरीकों से असहज हो जाते हो या स्वभाव से? (उनके स्वभाव से।) सही है, उनका स्वभाव तुम्हें असहज कर देता है और एहसास कराता है कि यह स्वभाव शैतान की ओर से आता है, सत्य के अनुरूप नहीं है, तुम्हें विमुख करने तथा नियंत्रित करने वाला और बाध्यकारी है। यह न केवल तुम्हें असहज करता है, बल्कि तुम्हें मन ही मन डराता है। तुम्हें यह सोचने पर मजबूर करता है कि अगर तुम उनका कहा नहीं मानोगे, तो संभव है कि वे तुम्हें दंडित करेंगे। ऐसे व्यक्ति का स्वभाव बहुत ही दुष्‍ट होता है! वे कुछ भी यूँ ही नहीं कहते—वे तुम्हें नियंत्रित करना चाहते हैं। वे तुम्हारे सामने मुश्किल माँगें रखते हैं और उन माँगों को खास ढंग से पूरा करने को कहते हैं। यह एक निश्चित प्रकार का स्वभाव दर्शाता है। वे तुमसे सिर्फ कोई काम करने को ही नहीं कहते, बल्कि वे तुम्हारे पूरे अस्तित्व को ही नियंत्रित करना चाहते हैं। अगर वे तुम्हें नियंत्रित कर लेते हैं, तो तुम उनकी कठपुतली, उनके हाथों का खिलौना बन जाओगे। जब तुम जो कहना चाहते हो, जो करते हो और तुम्हारे काम का तरीका, पूरी तरह उन पर निर्भर करता है, तो उन्हें खुशी मिलती है। जब तुम ऐसा स्वभाव देखते हो, तो तुम मन में क्या महसूस करते हो? (मुझे डर लगता है।) और जब तुम्हें डर लगता है, तो तुम उनके इस स्वभाव को कैसे परिभाषित कर सकते हो? क्या यह जिम्मेदारी वाला स्वभाव है, क्या यह सहृदयता हैया शातिराना स्वभाव है? तुम्हें यह शातिराना लगेगा। जब तुम्हें किसीका स्वभाव शातिराना लगे, तो तुम्हें आनंद आता है, या जुगुप्सा और अरुचि होती है, भय लगता है? (जुगुप्सा, अरुचि और भय।) ये बुरी भावनाएँ उत्पन्न होती है। जब तुम्हें जुगुप्सा, अरुचि और भय लगता है, तो तुम मुक्त और स्वतंत्र महसूस करते होया बाध्य महसूस करते हो? (बाध्य।) इस प्रकार की संवेदनाएँ और भावनाएँ कहाँ से आती हैं? ये शैतान से आती हैं। और परमेश्वर से आने वाली चीजों से लोग किन भावनाओं का आनंद लेते हैं? (मुक्ति और आजादी की भावनाओं का।) तुम्‍हारा हृदय अत्यंत मुक्त और आजाद होता है। यहाँ तक कि अगर तुम्‍हारी काट-छाँट की जाती है, तुम्हें तिरस्कृत किया जाता है, अनुशासित किया जाता है या न्याय करके ताड़ना दी जाती है, तो वह विचार और भावना कैसी होती है? (मेरे दिल में कृतज्ञता और पश्चात्ताप की भावना होती है, और यह भावना होती है कि मैंने कुछ गलत किया है, और तब मैं वास्तव में पश्चात्ताप करने और सही दिशा में जाने में सक्षम होता हूँ। हालाँकि मुझे अपने हदय में कुछ दर्द महसूस होता है, लेकिन मेरी आत्मा परमेश्वर के प्रेम का और शांति और खुशी का आनंद लेती है।) जो परिणाम प्राप्त होता है वह सकारात्मक होता है, और यह परमेश्वर का कार्य होता है। शैतान के कार्यों के क्या परिणाम होते हैं? (वे लोगों को बंधन में डालते हैं और उन्हें मुक्ति नहीं मिल पाती। वे अपने दिलों में पीड़ा सहते हैं और नहीं जानते कि खुद को कैसे आजाद किया जाए।) वे लोगों को विवश करते हैं, उन्हें एक अकथनीय, अजीब भय से भर देते हैं, उनके दिलों को बाँधते और विवश करते हैं। जैसे ही वे कार्य करने की कोशिश करते हैं, वे उनके हाथ-पैर बाँध देते हैं और उन्हें बेहद डरा देते हैं। यह शैतान का कार्य है, और यह शैतान से आता है। जब शैतान और मसीह-विरोधी इस तरह से कार्य करते हैं, तो कौन सा स्वभाव प्रकट होता है? यह एक दुष्ट स्वभाव होता है।

जिन लोगों में दुष्ट स्वभाव होता है, वे हमेशा दूसरों को नियंत्रित करना चाहते हैं। लोगों को नियंत्रित करने का क्या मतलब है? क्या यह केवल तुम्‍हें कुछ शब्द कहने से रोकना है? क्या यह सिर्फ तुम्‍हें एक निश्चित तरीके से सोचने से रोकना है? निश्चित रूप से नहीं—यह किसी शब्द या विचार की समस्या नहीं है, बल्कि इस बात की है कि उनका स्वभाव दुष्ट है। “दुष्‍ट” शब्द के आधार पर, व्यक्ति जब यह स्वभाव प्रकट करता है, तो वह कौन-सी चीजें कर सकता है? सबसे पहले, वह लोगों को अपने हित में प्रभावित करना चाहेगा। अपने हित में प्रभावित करने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि कलीसिया में जो कुछ भी होता है, वह उसमें दखल देना, हस्तक्षेप करना और व्यवस्थाएँ करना चाहेगा। वह तुम्‍हारे लिए कोई नियम निर्धारित करेगा और फिर तुम्‍हें उसका पालन करना होगा। अगर तुम ऐसा नहीं करोगे, तो वह क्रोधित हो जाएगा। वह तुम्हें अपने हित में प्रभावित करना चाहता है : अगर वह तुम्‍हें पूर्व में जाने के लिए कहता है तो तुम्‍हें पूर्व में जाना होगा, और अगर वह तुम्‍हें पश्चिम में जाने के लिए कहता है तो तुम्‍हें पश्चिम में जाना होगा। उसकी यही इच्छा होती है, और फिर वह इसी तरह से कार्य करता है—इसे ही किसी को अपने हित में प्रभावित करना कहा जाता है। ये लोग व्यक्ति के भाग्य को वश में करना चाहते हैं, व्यक्ति के जीवन, मस्तिष्‍क, व्यवहार और प्राथमिकताओं को वश में और नियंत्रित करना चाहते हैं, ताकि उस व्यक्ति का मस्तिष्‍क, विचार, प्राथमिकताएँ और इच्छाएँ उसके अनुरूप हो जाएँ जो वे कहते और चाहते हैं, न कि उसके अनुरूप जो परमेश्वर कहता है—इसे किसी को अपने हित में प्रभावित करना कहा जाता है। वे हमेशा यह व्यवस्था करना चाहते हैं कि लोग उनकी इच्छा के अनुसार ऐसा या वैसा करें, वे सिद्धांतों के आधार पर नहीं बल्कि अपने इरादों और प्राथमिकताओं के आधार पर कार्य करते हैं। वे इसकी परवाह नहीं करते कि तुम कैसा महसूस करते हो, वे तुम्‍हें जबरन आदेश देते हैं, और तुम्‍हें वही करना होता है जो वे तुमसे कहते हैं; अगर तुम उनकी इच्छा के अनुसार कार्य नहीं करते, तो वे तुमसे निपटेंगे और तुम्‍हें महसूस कराएँगे कि तुम्‍हारे पास वास्तव में कोई विकल्प नहीं है और इसके अलावा कुछ नहीं किया जा सकता। तुम अपने दिल में जानते हो कि तुम्‍हें धोखा दिया जा रहा है और नियंत्रित किया जा रहा है, लेकिन तुम फिर भी नहीं जानते कि इसे कैसे पहचाना जाए, विरोध करने का साहस तो तुम बिल्कुल नहीं करते। क्या उनके कार्य शैतान का व्यवहार नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) यह शैतान का व्यवहार है। शैतान इसी तरह लोगों को मूर्ख बनाता है और इसी तरह लोगों को नियंत्रित करता है, इसलिए शैतानी स्वभाव लोगों में हमेशा दूसरों को नियंत्रित कर प्रभावित करने की कोशिश के रूप में अभिव्यक्त होता है। चाहे वे दूसरों को नियंत्रित और प्रभावित करने के इस उद्देश्य को प्राप्त कर सकें या नहीं, फिर भी सभी लोगों में ऐसा स्वभाव होता है। यह कौन-सा स्वभाव है? (दुष्टता।) यह दुष्टता है। इसे दुष्टता क्यों कहा जाता है? इस स्वभाव के स्पष्ट प्रकाशन क्या हैं? क्या इसमें जबरदस्ती की भावना होती है? (हाँ, होती है।) इसमें जबरदस्ती की भावना होती है, जिसका अर्थ है कि चाहे तुम सुनो या न सुनो, चाहे तुम कैसा भी महसूस करो, चाहे तुम इसका आनंद लो या नहीं या इसे समझो या नहीं, वे बिना किसी चर्चा के, तुम्‍हें बोलने का मौका और किसी तरह की स्वतंत्रता दिए बिना तुमसे जबरन माँग करते हैं कि तुम उनकी बात सुनो और वही करो जो वे कहते हैं—क्या इसमें अर्थ की यह परत नहीं है? (बिल्कुल है।) इसे “क्रूरता” कहा जाता है, जो दुष्टता का एक पहलू है।[ख] दुष्टता का दूसरा पहलू “बुराई” है,[ग] “बुराई” किसे संदर्भित करती है? यह इस बात को संदर्भित करती है कि लोग तुम्‍हें नियंत्रित करने और अपनी चालबाजी पर ध्यान देने के लिए मजबूर करने और इस प्रकार खुद को संतुष्ट करने का परिणाम प्राप्त करने के लिए जबरन धर्मसिद्धांतों की शिक्षा देते और दमन के तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। इसे “बुराई” कहा जाता है। अपने कार्यों में शैतान तुम्‍हें स्वतंत्र इच्छा रखने से, सोचना-समझना सीखने से, और तुम्हारा जीवन परिपक्‍व बनाने वाले सत्य को समझने से रोकना चाहता है। शैतान तुम्‍हें ये काम नहीं करने देता और वह तुम्‍हें नियंत्रित करना चाहता है। शैतान तुम्हें सत्य नहीं खोजने देता और परमेश्वर के इरादे नहीं समझने देता, और वह तुम्हें परमेश्वर के सामने ले जाने के बजाय अपने सामने लाता है और तुम्हें अपनी बात सुनने के लिए मजबूर करता है मानो वही सत्य हो, और जो कुछ भी वह कहता है वही सही हो, और मानो वही सभी चीजों का केंद्र हो, इसलिए तुम्‍हें उसे सुनना होगा और यह विश्लेषण करने का प्रयास नहीं करना होगा कि उसके शब्द सही हैं या गलत। लोगों के व्यवहार और मस्तिष्‍क को जबरदस्‍ती और हिंसक रूप से अपने हित में प्रभावित और नियंत्रित करने का स्‍वभाव दुष्टता कहलाता है। क्या तुम अपने दैनिक जीवन में अक्सर ये अभिव्यक्तियाँ नहीं देखते? (हाँ, देखते हैं।) जब तुम लोग उनके संपर्क में आते हो, तो क्या तुम्‍हें एहसास होता है कि ये दुष्ट स्वभाव के प्रकाशन हैं? (मुझे पहले इसका एहसास नहीं होता था, लेकिन अब मैं समझता हूँ।) अगर अन्य लोग तुम लोगों के साथ ऐसी चीजें करते हैं और ऐसा स्वभाव प्रकट करते हैं, तो तुम लोग इसे समझ और पहचान सकते हो, लेकिन अगर तुम लोग स्वयं ऐसी चीजें करते हो और ऐसा स्वभाव प्रकट करते हो, तो क्या तुम लोगों को एहसास होगा कि यह एक समस्या है? क्या तुम्‍हें एहसास होगा कि “ऐसा स्वभाव दुष्टतापूर्ण है! इस तरह से कार्य करना बहुत गंभीर बात है! हमेशा लोगों पर हावी होने की इच्छा और महत्वाकांक्षा रखना, लोगों को जबरन नियंत्रित करना गलत है, यह शैतान का है, यह शैतानी स्वभाव है। मैं ऐसा नहीं कर सकता, मुझे लोगों के साथ व्यवहार और बातचीत करने का ऐसा तरीका खोजना होगा, जो सत्य के अनुरूप हो”? क्या तुम्‍हें यह एहसास होगा? (नहीं।) अगर तुम यह एहसास करने में असमर्थ हो, और अक्सर यह स्वभाव प्रकट करते हो, तो परिणाम क्या होंगे? क्या तुम लोग जानते हो? (भाई-बहन मेरे साथ समय नहीं बिताना चाहेंगे और मुझे अस्वीकार कर देंगे।) यह एक परिणाम है। इस तरह का व्यक्ति दूसरों के साथ सौहार्दपूर्ण तरीके से नहीं रह सकता, और लोग उससे बहुत विमुख होंगे। वह प्लेग की तरह होता है; उसके पहुँचते ही हर कोई वहाँ से चला जाता है, और ऐसा क्यों होता है? कोई भी उससे नियंत्रित नहीं होना चाहता। लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं और परमेश्वर का अनुसरण करना चाहते हैं, वे शैतान का अनुसरण नहीं करना चाहते, और फिर भी ऐसा व्यक्ति हमेशा दूसरों को नियंत्रित करना चाहता है, तो लोग उसे भला कैसे अस्‍वीकार नहीं कर सकते? सबसे पहले, उसे अक्सर भाई-बहनों द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाएगा और लोग उससे घृणा करेंगे। अगर वह पश्चात्ताप नहीं कर सकता, तो ऐसा व्यक्ति शायद अपने कर्तव्य को ठीक से या लंबे समय तक निभाने में भी सक्षम न हो पाए, क्योंकि वह दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से काम नहीं कर सकता। इसलिए उसे हटाना होगा। इसके अतिरिक्त, और कौन-से परिणाम होते हैं? (कलीसियाई जीवन बाधित होगा।) यह दूसरा परिणाम है। वह व्यक्ति भाई-बहनों के बीच कलंक बन जाएगा और कलीसियाई जीवन को बाधित करेगा। इससे उसका व्यक्तिगत रूप से क्या नुकसान होगा? (वह जीवन में आगे बढ़ने में असमर्थ होगा।) वह निश्चित रूप से जीवन में आगे बढ़ने में असमर्थ होगा, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? उसे निश्चित रूप से दंडित कर हटा दिया जाएगा। ऐसा व्यक्ति, जिसे हमेशा उसके भाई-बहनों द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाता है, जो जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ता, और जो हमेशा लोगों को नियंत्रित करना चाहता है, लोगों को अपनी बात सुनने के लिए बाध्य करता है, उनके दिलों में परमेश्वर का स्थान लेना चाहता है, और अंततः अलग-थलग कर दिया जाता है, और जो फिर भी पश्चात्ताप नहीं करता और कभी नहीं बदलता, परमेश्वर ऐसे व्यक्ति से कैसे निपटेगा? मुझे बताओ, परमेश्वर इंसानों को बचाता है या गैर-इंसानों को? (इंसानों को।) तो परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को किस रूप में परिभाषित करता है? (एक गैर-इंसान के रूप में।) परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को एक गैर-इंसान के रूप में परिभाषित करता है और उसे नहीं बचाता। तो फिर क्या उसका परिणाम निर्धारित नहीं है? ऐसे व्यक्ति के जीवन में कोई आशा, कोई मूल्य नहीं होता। परमेश्वर द्वारा गैर-इंसान के रूप में परिभाषित किया जाना कितना दयनीय है!

जीवन-प्रवेश का अनुसरण करने के लिए दैनिक जीवन के सभी मामलों में अपने शब्दों, कर्मों, विचारों और भावों की जाँच करना, अपनी अवस्था समझना, और फिर तुलना के लिए उसका परमेश्वर के वचनों से मिलान करना, सत्य खोजना और अपनी समझ के अनुसार उसका यथासंभव पालन करना आवश्यक है। अभ्यास और अनुभव करने की प्रक्रिया में व्यक्ति को लगातार अपनी अवस्था जाँचते रहना भी जरूरी है, यह देखने के लिए कि कौन-सी ऐसी अन्य नकारात्मक अवस्थाएँ और चीजें उसके दिल में बनी हुई हैं जो उसे सत्य का अभ्यास करने से रोकती हैं, और उन्हें खोज निकालने के बाद, इन असामान्य अवस्थाओं के समाधान के लिए उसे परमेश्वर से प्रार्थना और विनती करनी जरूरी है—यह सुनिश्चित करेगा कि वह उन सत्‍यों को, जिन्हें वह समझता है, अभ्‍यास में ला सकता है। नकारात्मक अवस्थाओं, धारणाओं और कल्पनाओं का लगातार समाधान करना ही यह सुनिश्चित करने का एकमात्र तरीका है कि व्‍यक्ति सत्य को अभ्‍यास में ला सकता है। चाहे सत्य के जिस भी पहलू को अभ्‍यास में लाया जाए, कुछ कठिनाइयाँ होंगी, और जब परिवेश और संदर्भ बदलेगा, तो नई कठिनाइयाँ पैदा हो जाएँगी। इसके अलावा, लोगों की विभिन्न धारणाएँ, कल्पनाएँ और मिलावटी इरादे उन्हें सत्य का अभ्यास करने से रोक सकते हैं, इसलिए उन्हें अकसर उन लोगों के साथ खुलकर संगति करनी चाहिए जो सत्य समझते हैं, और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने का मार्ग खोजना चाहिए, और सत्य-सिद्धांत तलाशने चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे विभिन्न परिवेशों और संदर्भों और सभी तरह के मामलों में सत्य-सिद्धांतों के अनुसार सत्य का अभ्यास कर सकें। सत्य-वास्तविकता में प्रवेश सिर्फ इसी तरह से प्रवेश की खोज और अभ्यास करने से पाया जा सकता है। अगर लोग अकसर आत्‍मचिंतन नहीं करते, तो वे अपनी अवस्थाएँ नहीं समझ पाएँगे, और उन्हें पता नहीं चलेगा कि सत्य का अभ्यास करने में कठिनाइयाँ कहाँ हैं और इसमें कितनी बड़ी बाधाएँ हैं, इसलिए वे यह सुनिश्चित नहीं कर पाएँगे कि वे सत्य को अभ्यास में ला सकते हैं। जो स्वयं को जानते हैं और अपनी अवस्थाएँ समझते हैं, वे ही परमेश्वर पर भरोसा कर सकते हैं और उससे आशा रख सकते हैं, और आसानी से सत्य को अभ्यास में ला सकते हैं। जो लोग स्वयं को नहीं जानते, वे हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित विनियमों का पालन करते हैं, इसलिए उनके सामने आने वाली बाधाएँ असंख्य होती हैं और उनकी कठिनाइयाँ बड़ी होती हैं। वास्तव में, लोगों के सामने आने वाली सबसे बड़ी कठिनाई उनके भ्रष्ट स्वभाव में निहित होती है, जिसके बाद आती है अभ्यास के सिद्धांतों को न समझ पाने की कठिनाई। ये दोनों कठिनाइयाँ हल हो जाने पर लोगों के लिए सत्य को अभ्यास में लाना आसान हो जाता है। परमेश्वर के प्रति समर्पित और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने वाला बनने के लिए व्यक्ति को पहले सत्य को अभ्यास में लाने पर काम करना चाहिए; अगर व्यक्ति प्रतिदिन सामने आने वाले विभिन्न मामलों में सत्य के विभिन्न पहलुओं को अभ्यास में लाने में सक्षम होता है, तो वह पहले ही सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर चुका होता है। अगर तुम लगातार इस तरह प्रशिक्षित होते और आत्‍मचिंतन करते हो और परमेश्वर के वचन में अभ्यास का मार्ग ढूँढ़ते हो, तो तुम धीरे-धीरे अपनी भ्रष्ट अवस्था का समाधान करने में सक्षम हो जाओगे, और तुम्‍हारे पास सत्य का अभ्यास करने और उसमें प्रवेश करने का एक मार्ग होगा। साथ ही, तुम सत्य के सभी पहलुओं को अभ्यास में लाने के लिए सिद्धांतों की बुनियादी समझ हासिल कर लोगे। जब व्यक्ति को इन अवस्थाओं और सत्य के सभी पहलुओं की सच्ची समझ होती है, तो उसका दिल संतुष्ट महसूस करता है और उत्‍तरोत्‍तर समृद्ध होता जाता है; वह अब सुन्न और मंदबुद्धि या दरिद्र और दयनीय दिखाई नहीं देता। आजकल ज्यादातर लोग बाहरी मामलों के बारे में थोड़ी-बहुत बात कर सकते हैं, लेकिन जब उनसे सही और गलत के मामलों पर सही दृष्टिकोण व्यक्त करने और उन मामलों की अपनी समझ और उनसे निपटने के अपने तरीकों और अभ्यास के मार्गों के बारे में बात करने के लिए कहा जाता है, तो ज्यादातर लोगों में स्पष्ट समझ का अभाव होता है और वे अंदर से पूरी तरह से रिक्त होते हैं। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम गलत हो, हम अंदर से पूरी तरह से रिक्त नहीं हैं। हम जानते हैं कि बारिश पर परमेश्वर की संप्रभुता है, परमेश्वर वसंत में पेड़ों पर कलियाँ खिलने की व्यवस्था करता है, परमेश्वर द्वारा आदेशित नियम निर्धारित करते हैं कि पक्षी अपने घोंसले कब बनाएँगे, विभिन्न फूल अलग-अलग क्‍यों होते हैं और इतने सारे रंगों में क्यों आते हैं, और पेड़ों की पत्तियाँ हरी क्‍यों होती हैं—ये परमेश्वर द्वारा सभी चीजों के सृजन के नियम हैं और ये परमेश्वर द्वारा आदेशित होते हैं। हम जानते हैं कि हमें परमेश्वर द्वारा आदेशित नियमों के अनुसार जीना चाहिए, सुबह उठना, रात को सोना और दिन में तीन बार भोजन करना चाहिए, और हम यह भी जानते हैं कि मनुष्यों के जन्म, आयु-वृद्धि, बीमारी और मृत्यु के नियम हैं, और उन्हें कोई नहीं तोड़ सकता। इसके अलावा, हम परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करते—हम आज जीने के लिए परमेश्वर को धन्‍यवाद देते हैं और अगर हमें कल मरना हो तो भी हम उसे इसी तरह धन्यवाद देगे। हम दरिद्र, सुन्‍न और मंदबुद्धि नहीं हैं।” क्या सिर्फ इन सिद्धांतों को समझना सत्य समझने के समान है? क्या यह सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करना है? (नहीं।) इन चीजों को समझना सिर्फ पहला कदम है, और ये वे चीजें भी हैं जिन्हें लोगों को अवश्य समझना चाहिए, लेकिन उन्हें सबसे अधिक यह समझना जरूरी है कि उन्हें कैसे जीना चाहिए, उन्हें किसके अनुसार जीना चाहिए, और उन्हें कौन-से कर्तव्य निभाने चाहिए। अगर तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों के समाधान के लिए सत्य नहीं खोज सकते, तो तुम्हारे पास जीवन-प्रवेश नहीं होगा, और तुम्‍हें सत्य और जीवन प्राप्त नहीं होंगे, और क्या परमेश्वर में इस तरह की आस्था खोखली नहीं है? इसका मतलब है कि तुम अंदर से बिल्कुल रिक्त हो। अन्य लोग कहते हैं, “अतीत में मेरा आध्‍यात्मिक कद छोटा था और मैं नहीं जानता था कि जो कुछ भी मुझ पर आकर पड़ता है वह परमेश्वर द्वारा आयोजित है, और मुझे नहीं पता था कि इन चीजों को कैसे देखना है या इनसे कैसे निपटना है, और जब ये चीजें घटित हुईं तो मैं हक्का-बक्का रह गया और उनसे मानवीय तरीकों से निपटा। अब मैं समझता हूँ कि रोज घटित होने वाली सभी चीजें, चाहे वे कितनी भी छोटी क्यों न हों, परमेश्वर द्वारा आयोजित की जाती हैं, और सब-कुछ परमेश्वर द्वारा आदेशित होता है, और मैं कहूँगा, ‘हे परमेश्वर! मैं तुम्‍हारी संप्रभुता के लिए तुम्‍हें धन्यवाद देता हूँ, और अपना भाग्य तुम्‍हारे हाथों में और तुम्‍हारे आयोजन की दया पर छोड़ने के लिए तैयार हूँ; मैं विद्रोह नहीं करना चाहता, मैं तुम्‍हारे वचन सुनना चाहता हूँ, और निश्चित रूप से मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाऊँगा और अपनी पूरी निष्ठा और प्रयास उसमें लगाऊँगा!’ मैं यह सब समझता हूँ, तो फिर मैं अभी भी दरिद्र और दयनीय कैसे हो सकता हूँ?” वास्तव में, वे दरिद्र और दयनीय हैं। मैं यह क्यों कहता हूँ? (क्योंकि उन्हें अपने शैतानी स्वभाव और अपने प्रकृति-सार का ज्ञान नहीं है; वे बहुत सारे आध्यात्मिक धर्मसिद्धांतों के बारे में बात कर सकते हैं, लेकिन जब कुछ घटित होता है, तो वे तब भी अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार ही जीते हैं, और वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी उनका जीवन-स्वभाव थोड़ा भी नहीं बदलता।) वे जो समझते हैं, वह सिर्फ वो झूठा आध्‍यात्मिक लबादा होता हैं जिसे उन्‍होंने पहना होता है; उनमें किसी विश्‍वासी की समानता और किसी संत की शालीनता होने का आभास होता है, और ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने कुछ गहन और आध्यात्मिक धार्मिक सिद्धांतों में महारत हासिल कर ली है, लेकिन वे जो समझते हैं वह सत्य नहीं होता, बल्कि सिर्फ एक तरह का धार्मिक सिद्धांत होता है। यह व्यक्ति के जीवन की दिशा या चीजों पर उसके विचार या सांसारिक आचरण के फलसफे नहीं बदल सकता, व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव को तो बिल्कुल भी नहीं बदल सकता। ये धार्मिक सिद्धांत, ये आध्यात्मिक धर्मसिद्धांत परमेश्वर के साथ व्यक्ति का रिश्ता सामान्‍य बिल्कुल नहीं बना सकते, न उसे अपने भ्रष्ट स्वभाव पहचानने में सक्षम बना सकते हैं, न ही उसे ये भ्रष्ट स्वभाव छोड़ने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, उसे परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के माध्यम से परमेश्वर को जानने और उसके प्रति समर्पित होने के बिंदु तक पहुँचने में सक्षम बनाना तो दूर की बात है। इसलिए, ये तथाकथित आध्यात्मिक वचन और धर्मसिद्धांत लोगों को थोड़ा-सा भी लाभ नहीं पहुँचाते, बल्कि उन्हें सिर्फ अहंकारी और घमंडी, और परमेश्वर के प्रति अधिकाधिक विद्रोही और उसके विरोधी बनाते हैं, क्योंकि इन सड़ी-गली चीजों का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है और यह सब पाखंड है जिसे पूरी तरह से त्‍याग कर छोड़ देना चाहिए।

अभी, वह कौन-सी महत्वपूर्ण चीज है, जिसका अनुसरण परमेश्वर के विश्वासियों को करना जरूरी है? (स्वभाव में बदलाव।) क्या बहुत सारे धर्मसिद्धांतों के बारे में बात करना व्यक्ति का स्वभाव बदल सकता है? (नहीं।) स्वभाव में बदलाव वास्तव में क्या है? क्या स्वभाव में बदलाव का मतलब यह है कि व्यक्ति का चरित्र बदल जाता है और वह बेहद सहज, आसानी से घुल-मिल जाने वाला और सभी को पसंद आने वाला बन जाता है? क्या स्वभाव में बदलाव का मतलब यह है कि व्यक्ति मौन हो जाता है और हँसने-बोलने का इच्छुक नहीं रहता? क्या स्वभाव में बदलाव का मतलब यह है कि व्यक्ति मौसम की मार झेला हुआ, अनुभवी और परिपक्व बन जाता है? (नहीं।) तो स्वभाव में बदलाव क्या होता है? व्यक्ति का स्वभाव बदलने के लिए पहली चीज क्या समझनी चाहिए? सबसे पहले, व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि स्वभाव में बदलाव हासिल करने का आधार क्या है, यानी, उसे पहले यह पहचानना चाहिए कि शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद मनुष्य का प्रकृति-सार क्या बन गया है और उसका स्वभाव क्या बन गया है। इससे वह अपनी भ्रष्टता का सत्य पहचान सकेगा। उदाहरण के लिए, कुछ लोग विशेष रूप से धोखेबाज होते हैं, और यह धोखेबाजी उनकी प्रकृति होती है और यही उनका स्वभाव भी होता है; कुछ लोग विशेष रूप से अहंकारी होते हैं, और यह अहंकार उनकी प्रकृति होता है और यही उनका स्वभाव भी होता है। मैं एक उदाहरण देता हूँ। मान लो, जब तुम पर कोई मुसीबत आती है तो तुम्‍हारे अपने इरादे होते हैं। जब ये इरादे प्रकट होते हैं, तो नियंत्रण किसका रहता है? पहले, वह निश्चित रूप से तुम्‍हारा व्यक्तित्व नहीं होता जिसका नियंत्रण रहता है, न ही वह तुम्‍हारी पारिवारिक पृष्ठभूमि होती है, और दूसरा व्यक्ति तो वह बिल्कुल नहीं होता। तुम्‍हारे इरादे तुम्‍हारे स्वभाव के नियंत्रण में होते हैं। इसलिए, सबसे पहले तुम्‍हें अपनी जाँच कर यह पता लगाना चाहिए कि यह कौन-सा स्वभाव है, वह अहंकार है या धूर्तता या दुष्टता या फिर हठधर्मिता। जब तुम इसे समझ लो, तो अपनी और जाँच करके यह पता लगाओ कि यह स्वभाव कौन-सी अवस्थाएँ को पैदा करेगा। उदाहरण के लिए, मान लो यह धोखेबाजी है। जब लोग छल-कपट में संलग्न होते हैं, तब वे ऐसा किन उद्देश्‍यों से करते हैं? वे कौनसा लक्ष्‍य प्राप्‍त करने की कोशिश कर रहे हैं? बिना किसी अपवाद के, ऐसा प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा हासिल करने के लिए है; संक्षेप में, यह उनके अपने हितों के लिए है। और निजी हितों के पीछे भागने के मूल में क्या है? जड़ यह है कि लोग अपने हितों को बाक़ी सब चीज़ों से ज्‍़यादा महत्‍वपूर्ण मानते हैं। वे अपना स्‍वार्थ साधने के लिए छल-कपट में संलग्न होते हैं, और इससे उनका कपटपूर्ण स्‍वभाव प्रकट हो जाता है। इस समस्‍या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? पहले तुम्हें यह जानना और समझना चाहिए कि हित क्या हैं, वे लोगों के लिए सटीक रूप से क्या लाते हैं, और उनके पीछे भागने के क्या परिणाम होते हैं। अगर तुम इसका पता नहीं लगा सकते, तो उनका त्याग कहना आसान होगा, करना मुश्किल। अगर लोग सत्य नहीं समझते, तो उनके लिए अपने हित छोड़ने से कठिन कुछ नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके जीवन-दर्शन हैं “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और “मनुष्य धन के लिए मरता है, जैसे पक्षी भोजन के लिए मरते हैं” जाहिर है, वे अपने हितों के लिए जीते हैं। लोग सोचते हैं कि अपने हितों के बिना—अगर उन्‍हें अपने हित छोड़ने पड़े—तो वे जीवित नहीं रह पाएँगे, मानो उनका अस्तित्व उनके हितों से अविभाज्य हो, इसलिए ज्यादातर लोग अपने हितों के अतिरिक्त सभी चीजों के प्रति अंधे होते हैं। वे अपने हितों को किसी भी चीज से ऊपर समझते हैं, वे अपने हितों के लिए जीते हैं, और उनसे उनके हित छुड़वाना उनसे अपना जीवन छोड़ने के लिए कहने जैसा है। तो ऐसी परिस्थितियों में क्‍या किया जाना चाहिए? लोगों को सत्य स्वीकारना चाहिए। सत्य समझकर ही वे अपने हितों के सार की सच्चाई देख सकते हैं; तभी वे उन्हें छोड़ना और उनके प्रति विद्रोह करना शुरू कर सकते हैं, उनसे अलग होने की पीड़ा को सहन करने योग्य हो सकते हैं जो उन्हें प्रिय है। और जब तुम ऐसा कर सकते हो, और अपने हितों को त्याग सकते हो, तो तुम अपने मन में शांति और सुकून की अधिक अनुभूति करोगे और ऐसा करने से तुम अपनी दैहिक इच्छाओं पर जीत पा लोगे। अगर तुम अपने हितों से चिपके रहते हो और उन्‍हें त्‍यागने से इनकार कर देते हो और अगर तुम सत्य को जरा-भी स्वीकार नहीं करते हो—तो मन ही मन तुम कह सकते हो, “अपने फायदे के लिए कोशिश करने और किसी भी नुकसान को नकारने में क्या गलत है? परमेश्वर ने मुझे कोई दण्ड नहीं दिया है, लोग मेरा क्या बिगाड़ लेंगे?” कोई भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, लेकिन अगर परमेश्वर में तुम्हारी यही आस्था है, तो तुम अंततः सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाओगे। यह तुम्हारी भयंकर हानि होगी—तुम उद्धार नहीं प्राप्‍त कर सकोगे। क्या इससे बड़ा कोई पछतावा हो सकता है? अपने हितों के पीछे भागने का अंततः यही परिणाम होता है। अगर लोग सिर्फ प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, अगर वे सिर्फ अपने हितों के पीछे भागते हैं, तो वे कभी भी सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाएँगे और अंततः वे ही नुकसान उठाएँगे। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने वालों को ही बचाता है। अगर तुम सत्य स्वीकार नहीं करते, अगर तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव पर आत्मचिंतन करने और उसे जानने में असमर्थ रहते हो, तो तुम सच्चा पश्चात्ताप नहीं करोगे और तुम जीवन-प्रवेश नहीं कर पाओगे। सत्य को स्वीकारना और स्वयं को जानना तुम्हारे जीवन के विकास और उद्धार का मार्ग है, यह तुम्हारे लिए अवसर है कि तुम परमेश्वर के सामने आकर उसकी जाँच को स्वीकार करो, उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकार करो और जीवन और सत्य को प्राप्त करो। अगर तुम प्रसिद्धि, लाभ, रुतबे और अपने हितों के लिए सत्य का अनुसरण करना छोड़ देते हो, तो यह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को प्राप्त करने और उद्धार पाने का अवसर छोड़ने के समान है। तुम प्रसिद्धि, लाभ, रुतबा और अपने हित चुनते हो, लेकिन तुम सत्य का त्याग कर देते हो, जीवन खो देते हो और बचाए जाने का मौका गँवा देते हो। किसमें अधिक सार्थकता है? अगर तुम अपने हित चुनकर सत्य को त्‍याग देते हो, तो क्या यह मूर्खतापूर्ण नहीं है? आम बोलचाल की भाषा में कहें तो यह एक छोटे से फायदे के लिए बहुत बड़ा नुकसान उठाना है। प्रसिद्धि, लाभ, रुतबा, धन और हित सब अस्थायी हैं, ये सब अल्पकालिक हैं, जबकि सत्य और जीवन शाश्वत और अपरिवर्तनीय हैं। अगर लोग प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे दौड़ाने वाले भ्रष्ट स्वभाव दूर कर लें, तो वे उद्धार पाने की आशा कर सकते हैं। इसके अलावा, लोगों द्वारा प्राप्त सत्य शाश्वत होते हैं; शैतान लोगों से ये सत्‍य छीन नहीं सकता, न ही कोई और उनसे यह छीन सकता है। तुमने अपने हित त्याग देते हो, लेकिन तुम्‍हें सत्य और उद्धार प्राप्त हो जाते हैं; ये तुम्हारे अपने परिणाम हैं और इन्हें तुम डकौल प्राप्त करते हो। अगर लोग सत्‍य का अभ्‍यास करने का चुनाव करते हैं, तो वे अपने हितों को गँवा देने के बावजूद परमेश्वर का उद्धार और शाश्‍वत जीवन हासिल कर रहे होते हैं। वे सबसे ज्‍़यादा बुद्धिमान लोग हैं। अगर लोग अपने हितों के लिए सत्‍य को त्‍याग देते हैं, तो वे जीवन और परमेश्वर के उद्धार को गँवा देते हैं; वे लोग सबसे ज्‍यादा बेवकूफ होते हैं। कोई व्‍यक्ति क्‍या चुनता है—अपने हित या सच—वह अविश्‍वसनीय रूप से उजागर करने वाला होता है। जो लोग सत्‍य से प्रेम करते हैं वे सत्‍य को चुनेंगे; वे परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसका अनुसरण करना चुनेंगे। वे सत्‍य का अनुसरण करने के लिए अपने निजी हितों तक को त्‍याग देना पसन्‍द करेंगे। उन्‍हें कितना ही दुख क्‍यों न झेलना पड़े, वे परमेश्वर को सन्‍तुष्‍ट करने के लिए अपनी गवाही पर अडिग बने रहने के लिए दृढ़ निश्‍चयी होते हैं। यह सत्‍य का अभ्‍यास करने और सत्‍य की वास्‍तविकता में प्रवेश करने का मूलभूत मार्ग है।

भ्रष्ट स्वभाव सभी लोगों में गहराई से जड़ें जमाए हुए हैं, और कोई भी किसी अन्य से ज्यादा भ्रष्ट नहीं है। लोगों के विभिन्‍न चीजों पर विचार, धारणाएँ, कल्पनाएँ और विद्रोह की मात्रा ज्‍यादा अलग नहीं होती और काफी हद तक वे एक-जैसी होती हैं। सभी लोग शैतान की शक्ति के अधीन रहते हैं, और वे सभी शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं। अगर कुछ समान है तो यह कि परमेश्वर हर किसी को समान अवसर देता है, परमेश्वर हर किसी के प्रति समान रवैया रखता है, और सत्य और जीवन का परमेश्वर का पोषण सभी के लिए समान होता है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर के मानक और अपेक्षाएँ भी समान हैं। अगर तुम्‍हें लगता है कि तुम छुटकारा दिलाए जाने योग्य नहीं हो, दूसरों की तुलना में अधिक भ्रष्ट हो, और परमेश्वर तुम्‍हें नहीं बचाएगा क्योंकि तुमने कुछ भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए हैं जिन्हें दूसरों ने देखा है और जिनसे वे विमुख हैं, और तुम खुद को हारा हुआ मानकर खारिज कर देते हो, कोई उत्साह नहीं पैदा कर पाते, और तुम्‍हारा कुछ भी करने का मन नहीं करता, और तुम सोचते हो कि जीने का कोई अर्थ नहीं है, और तुम्‍हारे लिए मर जाना बेहतर होगा, तो यह किस तरह का रवैया है? यह परिपक्वता की अभिव्यक्ति नहीं है और यह वह नहीं है जो परमेश्वर देखना चाहता है; परमेश्वर इस तरह का व्यक्ति या इस तरह का रवैया पसंद नहीं करता। सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में लोगों को कई गलत अवस्थाएँ पलटनी जरूरी हैं, और उनका अपने अनुसरण के बारे में अपने विचार लगातार सही करना जरूरी है, और लगातार परमेश्वर के सामने आकर उससे यह कहना जरूरी है कि वह उनकी जाँच करे, उन्हें प्रबुद्ध करे और उनका मार्गदर्शन करे। परमेश्वर उन्हें सहायता और अनुग्रह प्रदान करेगा, और परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति की अत्यधिक धैर्य, दयालुता, कृपा और क्षमा के साथ अगुआई करेगा। इसलिए, तुम्हें लोगों के सही रवैयों और सत्य का अनुसरण करने की उनकी इच्‍छा और न्याय और प्रकाश की लालसा पर संदेह नहीं करना चाहिए, और तुम्‍हें इस बात पर संदेह भी नहीं करना चाहिए कि परमेश्वर का सार मानवजाति को बचाने और उसके प्रति दया और क्षमा का है। तुम लोगों को ये वचन याद रखने चाहिए! लोगों को ये वचन बताने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि उन्हें किसी भी समय सत्य का अनुसरण करना नहीं छोड़ना चाहिए, खुद को हारा हुआ मानकर खारिज नहीं करना चाहिए, या नकारात्मक नहीं होना चाहिए। नकारात्मकता में पड़ने पर तुम्‍हें मन ही मन सोचना है : परमेश्वर ने इतने सारे सत्य क्‍यों अभिव्यक्त किए हैं? इ‍सलिए कि और भी अधिक लोगों को सत्य समझकर अपनी वास्तविक समस्याएँ हल करने में आपूर्ति मिल सके। न सिर्फ तुम्‍हें सीधे तौर पर परमेश्वर के वचनों से बहुत-कुछ प्राप्त होता है, बल्कि जब तुम अपने भाई-बहनों के साथ सत्य पर संगति करते हो, तो भी तुम्‍हें बहुत-कुछ प्राप्त होता है—क्या यह वैसा ही नहीं है जैसे परमेश्वर उस समय तुम्‍हारे लिए आपूर्ति कर रहा हो? अगर तुम ऐसा सोचते हो, और यह महसूस कर सकते हो, तो हार क्यों मानना चाहते हो? तुम्‍हारे दिल में शिकायतें क्यों पैदा होती हैं? तुम्‍हें बचाने में परमेश्वर की ईमानदारी पर संदेह क्यों करते हो? लोग मूर्ख, आध्‍यात्मिक कद में छोटे और कमजोर हो सकते हैं, लेकिन जब उद्धार की बात आती है तो वे विश्वास नहीं खो सकते। मुझे उम्मीद है कि किसी दिन जब मैं तुम लोगों से दोबारा बातचीत करूँगा, तो मैं देखूँगा कि तुम लोग दरिद्र और दयनीय या सुन्‍न और मंदबुद्धि नहीं दिखते, बल्कि तुमने कुछ प्राप्त और हासिल कर लिया है। तुम लोगों ने बहुत-कुछ सुन लिया है, बहुत-कुछ देख लिया है, बहुत-कुछ समझ लिया है, लेकिन तुम लोगों ने सत्य प्राप्त किया है या नहीं, और तुम्‍हें पूर्ण बनाया जा सकता है या नहीं, यह तुम लोगों के अनुसरण पर निर्भर करता है। यह तथ्य है कि अगर कोई इसका अनुसरण करता है तो वह इसे प्राप्त कर सकता है, लेकिन अगर वह इसे नहीं सुनता या इसका अनुसरण नहीं करता तो वह इसे कभी प्राप्‍त नहीं करेगा। अगर तुम लोग वास्‍तव में सत्‍य का अनुसरण करते हो, और पतरस की तरह परमेश्वर के प्रति प्रेम और अपने स्‍वभाव में बदलाव का अनुसरण करते हो, तो तुम परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त कर लोगे; यह निश्चित है।

6 फ़रवरी 2018

फुटनोट :

क. मूल पाठ में, “इसके दो प्रकार हैं : ‘हठधर्मिता’ और ‘कठोरता’” यह वाक्यांश नहीं है।

ख. मूल पाठ में, “जो दुष्टता का एक पहलू है” यह वाक्यांश नहीं है।

ग. मूल पाठ में, “दुष्टता का दूसरा पहलू ‘बुराई’ है” यह वाक्यांश नहीं है।

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में I सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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