स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए
कुछ लोग ऐसे हैं जो वर्षों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और उपदेश सुनने के बाद, खुद को थोड़ा-बहुत समझते हैं, जो कुछ वास्तविक अनुभवों के बारे में बात करने में समर्थ होते हैं, और अपनी वास्तविक दशाओं, अपनी व्यक्तिगत प्रविष्टियों, अपनी व्यक्तिगत प्रगति, अपनी कमियों, और वे किस प्रकार प्रवेश करने की योजना बनाते हैं, इत्यादि के बारे में संगति कर सकते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं जो खुद को बिल्कुल नहीं समझते और जो किसी वास्तविक अनुभव के बारे में बात करने में असमर्थ हैं। वे केवल बाहरी मामलों के बारे में वे बात कर सकते हैं जैसे कि शब्द और सिद्धांत, बाहरी कार्य, वर्तमान परिस्थिति, और सुसमाचार प्रसार की प्रगति, लेकिन ठोस जीवन प्रवेश या व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में कुछ भी नहीं बोल पाते। यह दिखाता है कि अभी तक वे जीवन प्रवेश के सही रास्ते पर नहीं आ पाए हैं। स्वभाव में बदलाव व्यवहार में बदलाव नहीं होता, न ही यह झूठा बाह्य परिवर्तन होता है, यह जोश में आकर अस्थायी बदलाव भी नहीं होता। ये परिवर्तन कितने भी अच्छे क्यों न हों, वे जीवन स्वभाव में परिवर्तन का स्थान नहीं ले सकते, क्योंकि ये बाहरी परिवर्तन मानवीय प्रयासों से लाए जा सकते हैं, लेकिन जीवन स्वभाव में परिवर्तन केवल व्यक्ति के अपने प्रयासों से नहीं लाए जा सकते। इसके लिए परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन का अनुभव करना और साथ ही पवित्र आत्मा की पूर्णता आवश्यक है। भले ही परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों का व्यवहार थोड़ा अच्छा होता है, लेकिन उनमें से कोई भी वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करता, वास्तव में परमेश्वर से प्रेम नहीं करता या परमेश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं चल सकता। ऐसा क्यों है? क्योंकि ऐसा करने के लिए जीवन स्वभाव में बदलाव की आवश्यकता होती है, केवल व्यवहार में बदलाव बिल्कुल भी काफी नहीं होता। स्वभाव में बदलाव का मतलब है कि तुम्हारे अंदर सत्य का ज्ञान और अनुभव है, सत्य तुम्हारा जीवन बन गया है, यह तुम्हारे जीवन और तुम्हारी हर चीज को यह निर्देशित कर सकता और उन पर इसका प्रभुत्व हो सकता है। यह तुम्हारे जीवन स्वभाव में आया बदलाव है। जिन लोगों के लिए सत्य जीवन बन गया है, केवल उनका ही जीवन स्वभाव बदला है। हो सकता है पहले कुछ सत्य ऐसे रहे हों जिन्हें तुमने समझ तो लिया था, लेकिन उन्हें व्यवहार में नहीं ला पाए, लेकिन अब तुम सत्य के हर उस पहलू को जिन्हें तुम समझते हो, बिना बाधाओं या कठिनाई के अभ्यास में ला सकते हो। जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो, तो तुम खुद को शांति और प्रसन्नता से भरा महसूस करते हो, लेकिन यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते, तो तुम्हें पीड़ा का अनुभव होता है और तुम्हारी अंतरात्मा विचलित हो जाती है। तुम हर चीज में सत्य का अभ्यास कर सकते हो, परमेश्वर के वचनों के अनुसार जी सकते हो और जीने का आधार पा सकते हो। इसका मतलब है कि तुम्हारा स्वभाव बदल गया है। अब तुम आसानी से अपनी धारणाएँ, कल्पनाएँ, दैहिक प्राथमिकताएँ, लक्ष्य और ऐसी चीजें त्याग सकते हो जिन्हें तुम पहले नहीं छोड़ सकते थे। तुम्हें लगने लगता है कि परमेश्वर के वचन वास्तव में अच्छे हैं और सत्य का अभ्यास करना सबसे अच्छी बात है। इसका मतलब है कि तुम्हारा स्वभाव बदल गया है। स्वभाव में परिवर्तन बहुत सरल लगता है, पर वास्तव में यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें काफी अनुभव की जरूरत होती है। इस अवधि में, लोगों को कई कठिनाइयाँ सहनी होती हैं, अपनी देह को वश में कर अपनी दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करना होता है, उन्हें न्याय, ताड़ना, काट-छाँट, परीक्षणों और शोधन से भी गुजरना होता है, इसके अलावा अपने हृदय में असफलताएँ, पतन, आंतरिक संघर्ष और पीड़ाएँ भी सहनी होती हैं। इन अनुभवों के बाद ही लोगों को अपनी प्रकृति की थोड़ी-बहुत समझ हो सकती है, लेकिन थोड़ी-बहुत समझ तुरंत पूरा परिवर्तन नहीं लाती; इससे पहले कि अंततः वे अपने भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे त्याग पाने में समर्थ हों, उन्हें एक लंबे अनुभव से गुजरना होता है। इसीलिए अपने स्वभाव को बदलने में पूरा जीवन लग जाता है। उदाहरण के लिए, यदि तुम किसी मामले में भ्रष्टता दिखाते हो, तो क्या इसका एहसास होते ही, तुम तुरंत सत्य का अभ्यास कर सकते हो? नहीं। समझ के इस स्तर पर, तो दूसरे तुम्हारी काट-छाँट करते हैं, और तब परिवेश तुम्हें बाध्य करके सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करने के लिए मजबूर करता है। कभी-कभी तुम ऐसा करने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाते और तुम अपने आपसे कहते हो, “क्या मुझे इसे ऐसे ही करना पड़ेगा? मैं इसे अपने हिसाब से क्यों नहीं कर सकता? मुझे हमेशा सत्य का अभ्यास करने के लिए क्यों कहा जाता है? मैं यह नहीं करना चाहता, मैं इससे थक चुका हूँ!” परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिए निम्न प्रक्रिया से गुजरना होता है : सत्य का अभ्यास करने का अनिच्छुक होने से लेकर सहर्ष सत्य का अभ्यास करने तक; नकारात्मकता और कमजोरी से लेकर सशक्त बनने और दैहिक इच्छाओं से विद्रोह कर पाने की क्षमता तक। जब लोग अनुभव के एक निश्चित बिंदु तक पहुँच जाते हैं और फिर कुछ परीक्षणों और शोधन से गुजरकर अंततः परमेश्वर के इरादे और कुछ सत्य समझने लगते हैं, तब वे थोड़े खुश होकर सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने को तैयार हो जाते हैं। शुरू में लोग सत्य पर अमल करने को तैयार नहीं होते। उदाहरण के तौर पर, निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों के निर्वहन को ही लो : तुम्हारे अंदर अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होने की कुछ समझ है, तुम्हें सत्य की भी थोड़ी समझ है, लेकिन तुम पूरी तरह निष्ठावान कब होगे? नाम और कर्म में तुम अपने कर्तव्यों का निर्वहन कब कर सकोगे? इसमें प्रक्रिया की आवश्यकता है। इस प्रक्रिया के दौरान तुम्हें कई कठिनाइयों को झेलना पड़ सकता है। शायद कुछ लोग तुम्हारी काट-छाँट करें, कुछ तुम्हारी आलोचना करें। सबकी निगाहें तुम पर लगी रहेंगी, तुम्हें परख रही होंगी, केवल तब जाकर तुम्हें एहसास होगा कि तुम गलत हो, तुम ही हो जिसने अच्छा काम नहीं किया, कि कर्तव्य के निर्वहन में निष्ठा न होना अस्वीकार्य है और यह भी कि तुम्हें अनमना नहीं होना चाहिए! पवित्र आत्मा तुम्हें भीतर से प्रबुद्ध करता है और जब तुम कोई भूल करते हो, तो वह तुम्हें फटकारता है। इस प्रक्रिया के दौरान तुम अपने बारे में कुछ बातें समझने लगोगे और जान जाओगे कि तुममें बहुत सारी अशुद्धियाँ हैं, तुम्हारे अंदर निजी इरादे भरे पड़े हैं और अपने कर्तव्य निभाते समय तुम्हारे अंदर बहुत सारी अनियंत्रित इच्छाएँ होती हैं। जब तुम इन चीजों के सार को समझ जाते हो, तब अगर तुम परमेश्वर के समक्ष आकर उससे प्रार्थना कर सच्चा प्रायश्चित कर सकते हो, तो तुम्हारी वे भ्रष्ट चीजें शुद्ध की जा सकती हैं। यदि इस तरह अपनी व्यावहारिक समस्याओं का समाधान करने के लिए तुम अक्सर सत्य की खोज करोगे, तो तुम आस्था के सही मार्ग पर कदम बढ़ा सकोगे; तुम्हें सच्चे जीवन-अनुभव होने लगेंगे और धीरे-धीरे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध होने लगेगा। तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव जितना शुद्ध होता जाएगा, तुम्हारा जीवन स्वभाव उतना ही रूपांतरित होगा।
भले ही अब बहुत से लोग अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, लेकिन सार रूप में, ऐसे कितने लोग हैं जो बेमन से अपने कर्तव्य निभा रहे हैं? कितने लोग सत्य को स्वीकार कर सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभा सकते हैं? कितने लोग अपने स्वभाव में बदलाव आने के बाद परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कर्तव्य निभाते हैं? इन बातों की ज्यादा जाँच करके तुम जान सकते हो कि क्या कर्तव्यों का निर्वहन करने में तुम मानक के अनुरूप हो, तुम यह भी स्पष्ट रूप से देख पाओगे कि तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव आया है या नहीं। स्वभाव में रूपांतरण लाना कोई आसान बात नहीं है; इसका मतलब महज व्यवहार में थोड़ा-सा बदलाव लाना और सत्य का थोड़ा ज्ञान हासिल कर लेना, सत्य के हर पहलू के बारे में अपने अनुभव पर थोड़ा बात कर लेना, या अनुशासित किए जाने के बाद थोड़ा बदल जाना या थोड़ा-सा समर्पित हो जाना नहीं है। ये चीजें जीवन स्वभाव में रूपांतरण का अंग नहीं हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? भले ही तुम थोड़ा-बहुत बदल गए हो, लेकिन तुम अभी भी सही मायने में सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हो। तुम शायद इस तरह से व्यवहार इसलिए करते हो क्योंकि तुम अस्थायी तौर पर उपयुक्त परिवेश में हो और यह स्थिति तुम्हें अनुमति देती है या तुम्हारी वर्तमान परिस्थितियों ने तुम्हें इस तरह से व्यवहार करने के लिए मजबूर किया है। इसके अलावा, जब तुम्हारी मनोदशा अच्छी होती है, जब तुम्हारी स्थिति सामान्य होती है, और जब तुममें पवित्र आत्मा का कार्य होता है, तो तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो। लेकिन मान लो तुम किसी परीक्षण से गुजर रहे हो, तुम परीक्षणों के बीच अय्यूब की तरह कष्ट उठा रहे हो या तुम्हारे सामने मौत का परीक्षण है। अगर ऐसी स्थिति आए, तो क्या तुम तब भी सत्य का अभ्यास कर और दृढ़ता से गवाही दे पाओगे? क्या तुम पतरस की तरह यह कह सकते हो, “अगर तुझे जानने के बाद मुझे मरना भी पड़े, तो मैं ऐसा हर्ष और प्रसन्नता के साथ कैसे नहीं कर सकता?” पतरस ने किस चीज को महत्व दिया? पतरस ने समर्पण को महत्व दिया, उसने परमेश्वर को जानने को सर्वाधिक महत्वपूर्ण समझा, तभी वह मृत्युपर्यंत समर्पण कर पाया। स्वभाव में परिवर्तन रातोंरात नहीं होता; इसमें जीवन भर का अनुभव लग जाता है। सत्य को समझना थोड़ा आसान होता है, लेकिन विभिन्न संदर्भों में सत्य का अभ्यास करना कठिन होता है। सत्य को व्यवहार में लाने में लोगों को हमेशा परेशानी क्यों होती है? वास्तव में, ये सभी कठिनाइयाँ सीधे तौर पर लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से जुड़ी होती हैं और ये सारी बाधाएँ भ्रष्ट स्वभावों से आती हैं। इसलिए, सत्य को व्यवहार में लाने में समर्थ होने के लिए तुम्हें बहुत कुछ भुगतना पड़ता है और कीमत चुकानी पड़ती है। यदि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट न होता, तो तुम्हें सत्य का अभ्यास करने के लिए कष्ट सहने और कीमत चुकाने की आवश्यकता न होती। क्या यह स्पष्ट तथ्य नहीं है? ऐसा लग सकता है जैसे तुम सत्य को अभ्यास में ला रहे हो, लेकिन वास्तव में, तुम्हारे कृत्यों की प्रकृति यह नहीं दर्शाती कि तुम सत्य को अभ्यास में ला रहे हो। परमेश्वर का अनुसरण करने में कई लोग अपने परिवार और काम-धंधे त्याग करके अपने कर्तव्य निभाने में सक्षम होते हैं, इसलिए वे मानते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। लेकिन वे कभी सच्ची अनुभवात्मक गवाही देने में सक्षम नहीं होते। यहाँ असल में क्या चल रहा है? मनुष्य की धारणाओं से उन्हें मापने पर वे सत्य का अभ्यास करते प्रतीत होते हैं, फिर भी परमेश्वर नहीं मानता कि वे जो कर रहे हैं, वह सत्य का अभ्यास करना है। अगर तुम्हारे कामों के पीछे व्यक्तिगत इरादे हों और वे दूषित हों, तो तुम सिद्धांतों से भटक सकते हो और यह नहीं कहा जा सकता कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो; यह सिर्फ एक तरह का आचरण है। सही-सही कहें तो, परमेश्वर तुम्हारे इस तरह के आचरण की शायद निंदा करेगा; वह इसे स्वीकृति नहीं देगा या इसका स्मरणोत्सव नहीं मनाएगा। इसका सार और जड़ तक विश्लेषण करें तो, तुम ऐसे व्यक्ति हो जो बुराई करता है, और तुम्हारे ये बाहरी व्यवहार परमेश्वर के विरोध के तुल्य हैं। बाहर से तुम कुछ भी गड़बड़ी नहीं कर रहे हो या बाधा नहीं डाल रहे हो और तुमने वास्तविक क्षति नहीं पहुंचाई है। यह तर्कसंगत और उचित लगता है, लेकिन अंदर से इसमें मानवीय संदूषण और इरादे हैं, और इसका सार बुराई करने और परमेश्वर का विरोध करने का है। इसलिए परमेश्वर के वचनों के प्रयोग से और अपने कृत्यों के पीछे के अभिप्रायों को देखकर तुम्हें निश्चित करना चाहिए कि क्या तुम्हारे स्वभाव में कोई परिवर्तन हुआ है और क्या तुम सत्य को अभ्यास में ला रहे हो। यह इस पर निर्भर नहीं करता कि तुम्हारे कृत्य इंसानी कल्पनाओं और विचारों के अनुरूप हैं या नहीं या वो तुम्हारी रुचि के उपयुक्त हैं या नहीं; ऐसी चीजें महत्वपूर्ण नहीं हैं। बल्कि, यह इस बात पर आधारित है कि परमेश्वर की नजरों में तुम उसके इरादों से मेल खाते हो या नहीं, तुम्हारे कृत्यों में सत्य वास्तविकता है या नहीं, और वे उसकी अपेक्षाओं और मानकों को पूरा करते हैं या नहीं। केवल परमेश्वर की अपेक्षाओं से तुलना करके अपने आप को मापना ही सही है। स्वभाव में रूपांतरण और सत्य को अभ्यास में लाना उतना सहज और आसान नहीं है जैसा लोग सोचते हैं। क्या तुम लोग अब इस बात को समझ गए? क्या इसका तुम सबको कोई अनुभव है? जब समस्या के सार की बात आती है, तो शायद तुम लोग इसे नहीं समझ सकोगे; तुम्हारा प्रवेश बहुत ही उथला रहा है। तुम लोग सुबह से शाम तक भागते-दौड़ते हो, तुम लोग जल्दी उठते हो और देर से सोते हो, फिर भी तुम्हारा स्वभाव रूपांतरित नहीं हुआ है, और तुम इस बात को समझ नहीं सकते कि स्वभावगत रूपांतरण क्या है। इसका अर्थ है कि तुम्हारा प्रवेश बहुत ही उथला है, है न? चाहे तुमने कितने भी लंबे समय से परमेश्वर में आस्था रखी हो, लेकिन हो सकता है कि तुम लोग स्वभाव में रूपांतरण के सार और उससे जुड़ी गहरी चीजों को महसूस न कर सको। क्या यह कहा जा सकता है कि तुम्हारा स्वभाव बदल गया है? तुम कैसे जानते हो कि परमेश्वर तुम्हें स्वीकृति देता है या नहीं? कम से कम, तुम अपने हर काम में जबरदस्त दृढ़ता महसूस करोगे और तुम महसूस करोगे कि जब तुम अपने कर्तव्य निभा रहे हो, परमेश्वर के घर में या आम तौर पर कोई भी काम कर रहे हो तो पवित्र आत्मा तुम्हारा मार्गदर्शन और प्रबोधन कर रहा है और तुममें कार्य कर रहा है। तुम्हारा आचरण परमेश्वर के वचनों के अनुरूप होगा, और जब तुम्हारे पास कुछ हद तक अनुभव हो जाएगा, तो तुम महसूस करोगे कि अतीत में तुमने जो कुछ किया वह अपेक्षाकृत उपयुक्त था। लेकिन अगर कुछ समय तक अनुभव प्राप्त करने के बाद, तुम महसूस करो कि अतीत में तुम्हारे द्वारा किए गए कुछ काम उपयुक्त नहीं थे, तुम उनसे असंतुष्ट हो, और तुम्हें लगे कि वे सत्य के अनुरूप नहीं थे, तो इससे यह साबित होता है कि तुमने जो कुछ भी किया, वह परमेश्वर के विरोध में था। यह साबित करता है कि तुम्हारी सेवा विद्रोह, प्रतिरोध और मानवीय व्यवहार से भरी हुई थी और तुम अपने स्वभाव में बदलाव लाने में पूरी तरह से नाकाम रहे हो। इस संगति से, क्या अब तुम लोग स्पष्ट हो कि तुम्हें स्वभावगत बदलाव को कैसे समझना चाहिए? हो सकता है आमतौर पर तुम लोग अपना स्वभाव बदलने पर चर्चा न करते हो और शायद ही कभी व्यक्तिगत अनुभवों पर संगति करते हो। अधिक से अधिक, तुम ऐसी संगति करते हो : “मैं कुछ समय पहले नकारात्मक था। फिर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, और उसने मुझे इस तथ्य के प्रति प्रबुद्ध किया कि विश्वासियों की परीक्षा होनी ही चाहिए। मैंने कुछ समय तक इस पर विचार किया, और समझ पाया कि बात यही ही। साथ ही, ऐसे पहलू हैं जिनमें मैं अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा से नहीं निभाता, इसलिए मैंने इसे बस स्वीकार कर लिया। कुछ समय बाद मेरी प्रेरणा लौट आई और मैं आगे नकारात्मक नहीं रहा।” संगति के बाद, अन्य लोग भी कहते हैं, “हमारी दशा और हमारा भ्रष्ट स्वभाव भी लगभग वैसा ही है।” यदि तुम हमेशा इन चीजों पर संगति करते हो, तो यह एक समस्या होगी—तुम चीजों के सार को समझ या उन्हें स्पष्ट रूप से देख नहीं पाओगे। बरसों तक विश्वास रखकर भी, तुम्हारा जीवन-स्वभाव बदल नहीं पाएगा।
स्वभाव में रूपांतरण मुख्य रूप से एक व्यक्ति की प्रकृति में रूपांतरण को संदर्भित करता है। किसी व्यक्ति की प्रकृति की चीजों को बाहरी व्यवहारों से नहीं महसूस किया जा सकता। उनका सीधा संबंध लोगों के अस्तित्व की कीमत और महत्व से, जीवन के बारे में उनके दृष्टिकोण और उनके मूल्यों से है, उनमें लोगों की आत्मा की गहराई में स्थित चीजें और उनका सार शामिल हैं। अगर एक व्यक्ति सत्य को स्वीकार नहीं कर पाता, तो वह इन पहलुओं में किसी भी रूपांतरण का अनुभव नहीं करेगा। केवल परमेश्वर के कार्य का पूरी तरह अनुभव करने, पूरी तरह से सत्य में प्रवेश करने, अस्तित्व और जीवन पर अपने मूल्यों और दृष्टिकोणों को बदलने, चीजों को लेकर अपने विचारों को परमेश्वर के वचनों के अनुरूप करने, और पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित और निष्ठावान होने पर ही कहा जा सकता है कि व्यक्ति का स्वभाव रूपांतरित हो गया है। वर्तमान में, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए तुम कुछ प्रयास करते और कठिनाई के सामने मजबूत प्रतीत हो सकते हो, तुम ऊपरवाले से मिली कार्य व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने में सक्षम हो सकते हो, या तुम्हें जहाँ भी जाने के लिए कहा जाए वहाँ जाने में समर्थ हो सकते हो। ऊपर से ऐसा लग सकता है कि तुम कुछ हद तक आज्ञाकारी हो, लेकिन अगर कुछ ऐसा हो जाता है जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप न हो, तो तुम्हारा विद्रोह सामने आ जाता है। उदाहरण के लिए, तुम अपनी काट-छाँट किए जाने के प्रति समर्पित नहीं होते, और विपदा आने पर तो तुम और भी समर्पण नहीं करते; तुम परमेश्वर को लेकर शिकायत करने का दुस्साहस भी करते हो। इसलिए, बाहर से वह थोड़ा-सा समर्पण और बदलाव, बस व्यवहार में एक छोटा-सा बदलाव है। थोड़ा-सा बदलाव तो है, लेकिन यह तुम्हारे स्वभाव के रूपांतरण के रूप में गिने जाने के लिए पर्याप्त नहीं है। तुम कई रास्तों पर चलने में सक्षम हो सकते हो, कई कठिनाइयों का सामना कर सकते हो, और बहुत अपमान सह सकते हो; तुम खुद को परमेश्वर के बहुत करीब महसूस कर सकते हो, और पवित्र आत्मा तुम पर कुछ काम कर सकता है। लेकिन, जब परमेश्वर तुमसे कुछ ऐसा करने के लिए कहता है जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं है, तो शायद तुम अभी भी समर्पण न करो, बल्कि, हो सकता है तुम बहाने ढूंढ़ने लगो, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका प्रतिरोध करो, और गंभीर अवसरों पर सवाल-जवाब कर उसके खिलाफ लड़ने तक लगो। यह एक गंभीर समस्या होगी! यह दिखाएगा कि तुममें अभी भी परमेश्वर का विरोध करने वाली प्रकृति है, तुम वास्तव में सत्य नहीं समझते, और तुम्हारे जीवन-स्वभाव में बिल्कुल भी बदलाव नहीं आया है। बरखास्त किए जाने या हटा दिए जाने के बाद भी, कुछ लोग परमेश्वर के बारे में राय बनाने और यह कहने का दुस्साहस करते हैं कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है। यहाँ तक कि वे परमेश्वर के साथ बहस करते और लड़ते भी हैं, जहाँ भी जाते हैं, परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाएँ और परमेश्वर के प्रति अपना असंतोष फैलाते हैं। ऐसे लोग दानव हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। दानवी प्रकृति वाले लोग कभी नहीं बदलेंगे और उन्हें छोड़ देना चाहिए। जो लोग हर स्थिति में सत्य खोज और उसे स्वीकार कर सकते हैं, और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित हो सकते हैं, केवल उनके पास ही सत्य पाने और स्वभाव में बदलाव प्राप्त करने की आशा होती है। अपने अनुभवों में, तुम्हें उन दशाओं के बीच अंतर करना सीखना चाहिए जो बाहर से सामान्य दिखाई देती हैं। तुम प्रार्थना के दौरान सुबक और रो सकते हो, या महसूस कर सकते हो कि तुम्हारा दिल परमेश्वर से बहुत प्रेम करता है, और उसके बहुत करीब है, फिर भी ये दशाएँ केवल पवित्र आत्मा का कार्य हैं और यह नहीं दर्शातीं कि तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो। यदि तुम तब भी परमेश्वर से प्रेम और समर्पण कर सको, जब पवित्र आत्मा कार्य न कर रहा हो, और जब परमेश्वर तुम्हारी धारणाओं के विपरीत कार्य करता है, केवल तभी तुम वह व्यक्ति हो जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करता है। केवल तभी तुम वह व्यक्ति हो जिसका जीवन-स्वभाव बदल गया है। केवल ऐसे व्यक्ति में ही सत्य वास्तविकताएँ होती हैं।
अपने स्वभाव को रूपांतरित करने की शुरुआत कहाँ से करनी चाहिए? यह अपनी प्रकृति समझने से शुरू होता है। यही मुख्य है। तो, अपनी प्रकृति कैसे समझें? यह पहचानकर कि तुममें कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं। एक बार जब तुम इन भ्रष्ट स्वभावों को स्पष्ट रूप से पहचान लोगे, तो अपनी प्रकृति सार को समझ जाओगे। कुछ हैं जो पूछते हैं, “मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को कैसे समझूँ?” निस्संदेह, तुम्हें इसे परमेश्वर के वचनों के अनुसार समझना चाहिए, और सत्य के अनुसार इसे पहचानना चाहिए। तो इसे व्यवहार में कैसे लाते हैं? तुम जो भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो उसकी तुलना परमेश्वर के उजागर करने वाले वचनों से करके। तुम जितना अधिक मिलान कर लोगे, उतनी ही तुम्हें पहचान होती जाएगी। यदि तुम काफी मिलान कर सकते हो और बहुत कुछ की पहचान कर सकते हो, तो तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझ सकोगे। क्या तुम लोगों में से जिन्होंने लंबे समय से विश्वास रखा है और कई वर्षों तक इस तरह से अभ्यास किया है, उन्हें अब अपनी प्रकृति की समझ है? शायद वे इससे कोसों दूर हों! तुम्हारी तुलना को एक मार्ग का अनुसरण करना चाहिए; कोई शून्य के आधार पर बातें नहीं कर सकता। तुम्हें इस बारे में परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़ने चाहिए कि वह कैसे मनुष्य के भ्रष्ट सार को उजागर करता है। तुम्हें इन सभी वचनों को खोजना चाहिए, फिर वचनों के साथ अपनी दशा की तुलना करते हुए उन्हें अक्सर पढ़ना चाहिए और अक्सर आत्मचिंतन करना चाहिए। एक बार जब तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव पूरी तरह से मेल खा जाता है, और तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन तुम्हारी दशा को बड़ी सटीकता के साथ उजागर करते हैं, और यह किसी भी तरह से गलत नहीं है, तो क्या तुम आश्वस्त नहीं होगे? कुछ लोग कहते हैं, “अपनी प्रकृति समझकर, तुम इसे बदल सकते हो।” यह कहना किसी के लिए भी आसान है। लेकिन इसे समझना कैसे है? कोई मार्ग तो जरूर होगा। यदि कोई मार्ग है, तो तुम्हें पता होगा कि कैसे अनुभव करें। बिना किसी मार्ग के, तुम केवल नारे लगा रहे हो, “हम सभी को अपनी प्रकृतियों को समझना चाहिए। हमारी प्रकृतियाँ अच्छी नहीं हैं और वे शैतान की हैं। जब हम अपना प्रकृति सार समझ लेते हैं, तो हम अपने स्वभावों को रूपांतरित कर सकते हैं।” इस तरह नारे लगा लेने के बाद, और कुछ नहीं किया गया है, और किसी के पास कोई समझ नहीं है। यह बिना किसी मार्ग के सिद्धांतों की बात करना है। क्या इस तरह से काम करना समस्या पैदा करना नहीं है? इस तरह से काम करने का नतीजा क्या होगा? तुम लोग अमूमन नारे लगाते हो, “हमें अपनी प्रकृतियों को समझना चाहिए! हम सभी को परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए! हम सभी को परमेश्वर के सामने अवश्य समर्पण करना होगा! हम सभी को परमेश्वर के सामने दंडवत करना चाहिए! हम सभी को परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए! जो कोई भी परमेश्वर से प्यार नहीं करता है, वह अस्वीकार्य है!” इन सिद्धांतों के बारे में बात करने का कोई फायदा नहीं है और इससे समस्याएँ हल नहीं होती हैं। तुम मानव प्रकृति को कैसे समझते हो? अपनी प्रकृति को समझने का वास्तविक अर्थ है अपनी आत्मा की गहराई में मौजूद चीजों का विश्लेषण करना; उन चीजों का विश्लेषण करना जो तुम्हारे जीवन में हैं उन शैतानी तर्क और शैतान के फलसफों का विश्लेषण करना जिनके अनुसार तुम जीते आ रहे हो—जो कि शैतान का जीवन है जो तुम जी रहे हो। केवल अपने आत्मा में गहरे मौजूद चीजों को बाहर निकाल कर ही तुम अपनी प्रकृति को समझ सकते हो। इन चीज़ों को कैसे निकाला जा सकता है? मात्र एक या दो मामलों द्वारा, उन्हें निकाला और विश्लेषित नहीं किया जा सकता। कई बार काम खत्म कर लेने के बाद भी तुम्हारे पास कोई समझ नहीं होती। थोड़ी-सी भी पहचान या समझ प्राप्त कर सकने में तीन या पाँच वर्ष लग सकते हैं। इसलिए, बहुत-सी परिस्थितियों में तुम्हें आत्म-चिंतन कर खुद को जानना चाहिए। कोई परिणाम देखने के लिए तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार गहराई तक खोदना चाहिए और आत्म-विश्लेषण करना चाहिए। जैसे-जैसे सत्य की तुम्हारी समझ ज्यादा से ज्यादा गहरी होती जाएगी, तुम आत्मचिंतन और आत्मज्ञान के जरिये धीरे-धीरे अपने प्रकृति सार को जान जाओगे।
अपनी प्रकृति जानने के लिए, तुम्हें कुछ चीजों के द्वारा इसकी समझ हासिल करनी चाहिए : सबसे पहले, तुम्हें इस बात की स्पष्ट समझ होनी चाहिए कि तुम्हें क्या पसंद है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि तुम क्या खाना या पहनना पसंद करते हो, बल्कि इसका मतलब है कि तुम किस तरह की चीजों का आनन्द लेते हो, किन चीजों से तुम ईर्ष्या करते हो, किन चीजों की तुम आराधना करते हो, किन चीजों की तुम्हें तलाश है, और किन चीजों की ओर तुम अपने हृदय में ध्यान देते हो, जिस प्रकार के लोगों के संपर्क में आने का तुम आनन्द लेते हो, और जिस प्रकार के लोगों को तुम पसंद करते हो और अपना आदर्श मानते हो। उदाहरण के लिए, ज्यादातर लोग ऐसे लोगों को पसंद करते हैं जो महान हों, जो अपनी बोल-चाल में शानदार हों, या ऐसे हों जो वाक्पटु चापलूसी से बात करते हों या कुछ लोग ऐसे व्यक्तियों को पसंद करते हैं जो एक ढोंग करते हैं। यह पूर्वोक्त उस बारे में है कि वे कैसे लोगों के साथ बातचीत करना पसंद करते हैं। जहाँ तक लोग जिन चीजों को पसंद करते हैं इस बात का प्रश्न है, इसमें शामिल है कुछ चीजों को करने के लिए तैयार होना जिन्हें करना आसान है, उन चीजों को करने का आनन्द लेना जिन्हें दूसरे अच्छा मानते हैं, और जिनके कारण लोगों की प्रशंसा और सराहनाएँ मिलेंगी। लोगों की प्रकृति में, जिन चीजों को वे पसंद करते हैं, उनकी एक जैसी विशिष्टता होती है। अर्थात, वे उन लोगों, घटनाओं, और चीजों को पसंद करते हैं जिनके बाहरी दिखावे की वजह से अन्य लोग उनसे ईर्ष्या करते हैं, वे उन लोगों, घटनाओं और चीजों को पसंद करते हैं जो सुंदर और शानदार दिखते हैं, और वे उन लोगों, घटनाओं और चीज़ों को पसंद करते हैं जो लोगों से अपनी आराधना करवाते हैं। ये चीजें जिन्हें लोग अत्यधिक पसंद करते हैं वे बढ़िया, चमकदार, भव्य और आलीशान होती हैं। सभी लोग इन चीज़ों की आराधना करते हैं। यह देखा जा सकता है कि लोगों में कोई सच्चाई नहीं होती है, न ही उनमें वास्तविक मानव की सदृशता होती है। इन चीज़ों की आराधना करने का लेशमात्र भी महत्व नहीं है, मगर लोग तब भी इन चीजों को पसंद करते हैं। ये चीजें, जिन्हें लोग पसंद करते हैं, उन लोगों को विशेष रूप से अच्छी लगती प्रतीत होती हैं, जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, और ये वही चीजें होती हैं लोग जिनका विशेष रूप से अनुसरण करने के इच्छुक होते हैं। एक सरल उदाहरण दूँ तो : गैर-विश्वासियों के अपने समूह होते हैं। वे अभिनेताओं या गायकों के पीछे भागते हैं, उनके हस्ताक्षर और संदेश चाहते हैं, या उनसे हाथ मिलाते और उनके गले लगते हैं। क्या ये बातें विश्वासियों के दिलों में मौजूद होती हैं? क्या तुम कभी-कभार उन मशहूर हस्तियों के गाने गाते हो जिनकी तुम आराधना करते हो? या क्या तुम कभी-कभी उनका अनुकरण करते हो और उनकी जिन शैलियों के लिए तुम तरसते हो, उस तरह के कपड़े पहनते हो? तुम इन हस्तियों और मशहूर लोगों को अपनी आराधना के पात्र और अपनी आराधना के आदर्श बना लेते हो। ये वे आम चीजें हैं जिनके लोग शौकीन होते हैं। क्या विश्वासी वास्तव में इन बातों की आराधना नहीं करते जिनकी गैर-विश्वासी लोग आराधना करते हैं? अंतरतम में, अधिकांश लोगों के पास अब भी उनकी आराधना करने वाला हृदय है। तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, और ऐसा लगता है कि तुम अब स्पष्ट रूप से उन चीजों का पीछा नहीं कर रहे हो। हालांकि, अपने दिल में तुम अभी भी उन चीजों की ईर्ष्या करते हो, और तुम अभी भी उन चीजों के शौकीन हो। कभी-कभी तुम्हें लगता है : “मैं अभी भी उनका संगीत सुनना चाहता हूँ, और मैं अब भी उन टीवी कार्यक्रमों को देखना चाहता हूँ जिनमें वे काम कर रहे हैं। वे कैसे रहते हैं? वे इस समय कहाँ हैं? अगर मैं उन्हें देख सकता और उनसे हाथ मिला सकता, तो यह बढ़िया होता, फिर अगर मैं मर भी जाऊं तो भी यह इसके योग्य होगा।” चाहे लोग जिनकी भी आराधना करें, सभी इन चीजों को पसंद करते हैं। शायद तुम्हें ऐसा मौका नहीं मिलता या तुम ऐसी स्थिति में नहीं होते कि इन लोगों, घटनाओं और चीजों के संपर्क में आ सको, लेकिन ये चीजें तुम्हारे दिल के भीतर हैं। जिन चीजों का लोग अनुसरण और लालसा करते हैं, वे सांसारिक प्रवृत्तियों से संबंधित होती हैं, ये चीजें शैतान और दुष्टों की होती हैं, परमेश्वर उनसे घृणा करता है, वे सत्य से रहित होती हैं। जिन चीजों के लिए लोग तरसते हैं, वे उनकी प्रकृति सार का पता लगाने की अनुमति देती हैं। लोगों की पसंद उनके कपड़े पहनने के तरीके में देखी जा सकती है। कुछ लोग ध्यान खींचने वाले, रंगीन कपड़े या विचित्र पोशाक पहनने के इच्छुक होते हैं। वे ऐसी चीजें पहनने को तैयार होते हैं जो पहले किसी और ने नहीं पहनी होतीं, और वे ऐसी चीजें पसंद करते हैं जो विपरीत लिंग को आकर्षित कर सकें। उनका ये कपड़े और चीजें पहनना उनके जीवन और दिल की गहराइयों में इन चीजों के लिए उनकी प्राथमिकता दर्शाता है। जो चीजें वे पसंद करते हैं, वे गरिमापूर्ण या शालीन नहीं होतीं। वे सामान्य व्यक्ति द्वारा पसंद की जाने वाली चीजें नहीं होतीं। इन चीजों के लिए उनके लगाव में अधार्मिकता है। उनका दृष्टिकोण बिल्कुल वैसा ही है, जैसा सांसारिक लोगों का होता है। व्यक्ति उनमें ऐसा कुछ भी नहीं देख पाता जिनमें सत्य से जरा भी कोई सामंजस्य हो। इसलिए, तुम क्या पसंद करते हो, तुम किस पर ध्यान केंद्रित करते हो, तुम किसकी आराधना करते हो, तुम किसकी ईर्ष्या करते हो, और रोज तुम अपने दिल में क्या सोचते हो, ये सब तुम्हारी अपनी प्रकृति का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन सांसारिक चीजों से तुम्हारा अनुराग यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि तुम्हारी प्रकृति अधार्मिकता की शौकीन है, और गंभीर परिस्थितियों में तुम्हारी प्रकृति दुष्टतापूर्ण और असाध्य है। तुम्हें इस तरह अपनी प्रकृति का विश्लेषण करना चाहिए; यह जाँचो कि तुम क्या पसंद करते हो और तुम अपने जीवन में क्या त्यागते हो। शायद तुम कुछ समय के लिए किसी के प्रति अच्छे हो, लेकिन इससे यह साबित नहीं होता कि तुम उन के चाहने वाले हो। जिसके तुम वाकई शौकीन हो, वह ठीक वो है जो तुम्हारी प्रकृति में है; भले ही तुम्हारी हड्डियाँ टूट गयी हों, तुम फिर भी उसका आनंद लोगे और कभी भी इसे त्याग नहीं पाओगे। इसे बदलना आसान नहीं है। उदाहरण के लिए एक साथी को ढूँढने की बात लो, लोग अपने जैसे लोगों की ही तलाश करते हैं। यदि कोई महिला वास्तव में किसी के प्यार में पड़ जाए, तो कोई भी उसे रोक नहीं पाएगा। यहाँ तक कि अगर उसकी टांग भी तोड़ दी जाये, तब भी वह उसके साथ ही रहना चाहेगी; अगर उसे उसके साथ विवाह करने का अर्थ उस महिला की मृत्यु हो तो भी वह विवाह करना चाहेगी। यह कैसे हो सकता है? इसका कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति उसे नहीं बदल सकता जो लोगों की हड्डियों में होता है, जो उनके दिल में होता है। यहाँ तक कि अगर कोई मर भी जाए, तो भी उसकी आत्मा बस वही चीजें ले जाएगी; ये चीजें मानव प्रकृति की हैं, और वे किसी व्यक्ति के सार का प्रतिनिधित्व करती हैं। लोग जिन चीज़ों के शौकीन होते हैं, उनमें कुछ अधार्मिकता होती है। कुछ लोग उन चीजों के अपने शौक में स्पष्ट होते हैं और कुछ नहीं होते; कुछ तो उन्हें अत्यधिक पसंद करते हैं और कुछ नहीं करते; कुछ लोगों में आत्म-नियंत्रण होता है और कुछ स्वयं को नियंत्रित नहीं कर पाते। कुछ लोग अंधकारपूर्ण और दुष्टतापूर्ण चीजों में डूबने के आदी होते हैं, जिससे साबित होता है कि उनके पास जीवन नहीं है। कुछ लोग देह के प्रलोभनों पर विजय पा सकते हैं और उन चीजों के वशीभूत या उनसे विवश नहीं होते, जो साबित करता है कि उनका थोड़ा आध्यात्मिक कद है और उनके स्वभाव में थोड़ा बदलाव आया है। कुछ लोग कुछ सत्य समझते हैं और महसूस करते हैं कि उनके पास जीवन है और वे परमेश्वर से प्यार करते हैं, लेकिन असल में, यह अभी भी बहुत जल्दी है, और अपने स्वभाव को बदलना कोई आसान बात नहीं है। क्या किसी व्यक्ति की प्रकृति सार को समझना आसान है? यदि कोई थोड़ा-बहुत समझता भी है, तो उस समझ को हासिल करने के लिए उस व्यक्ति को बहुत सारे घुमावदार रास्तों से गुजरना पड़ेगा और थोड़ी-बहुत समझ हो भी तो, बदलाव लाना आसान नहीं है। लोगों को इन तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, और जब तक सत्य के अनुसरण की इच्छाशक्ति न हो, लोग खुद को नहीं जान सकते। तुम्हारे इर्द-गिर्द लोग, घटनाएँ और चीजें चाहे कैसे भी बदलें, और चाहे दुनिया कैसे भी उलट-पुलट हो जाए, अगर सत्य तुम्हारा भीतर से मार्गदर्शन कर रहा है, यदि उसने तुम्हारे भीतर जड़ें जमा ली हैं और परमेश्वर के वचन तुम्हारे जीवन, प्राथमिकताओं, अनुभवों और अस्तित्व का मार्गदर्शन करते हैं, तो उस बिंदु पर तुम वास्तव में बदल गए होगे। वर्तमान में, लोगों का तथाकथित रूपांतरण केवल थोड़ा सहयोग करना, बेमन से काट-छाँट किए जाने को स्वीकारना, सक्रियता से अपने कर्तव्यों को निभाना और थोड़े उत्साह और विश्वास का होना है, लेकिन इसे स्वभावगत रूपांतरण नहीं माना जा सकता और इससे यह साबित नहीं होता कि लोगों के पास जीवन है। ये सिर्फ लोगों की प्राथमिकताएँ और प्रवृत्तियाँ हैं—और कुछ नहीं।
अपनी प्रकृति में लोग जिन चीजों को पसंद करते हैं, उन्हें उजागर करने के अलावा, प्रकृति की समझ के स्तर तक पहुँचने के लिए, उनकी प्रकृति से संबंधित कुछ बेहद महत्वपूर्ण पहलुओं को भी उजागर करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, चीजों पर लोगों के दृष्टिकोण, लोगों के तरीके और जीवन के लक्ष्य, लोगों के जीवन के मूल्य और जीवन पर दृष्टिकोण, साथ ही सत्य से संबंधित सभी चीजों पर उनके नजरिए और विचार। ये सभी चीजें लोगों की आत्मा के भीतर गहरी समाई हुई हैं और स्वभाव में परिवर्तन के साथ उनका एक सीधा संबंध है। तो फिर, भ्रष्ट मानवजाति का जीवन को लेकर क्या दृष्टिकोण है? इसे इस तरह कहा जा सकता है : “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।” सभी लोग अपने लिए जीते हैं; अधिक स्पष्टता से कहें तो, वे देह-सुख के लिए जी रहे हैं। वे केवल अपने मुँह में भोजन डालने के लिए जीते हैं। उनका यह अस्तित्व जानवरों के अस्तित्व से किस तरह भिन्न है? इस तरह जीने का कोई मूल्य नहीं है, उसका कोई अर्थ होने की तो बात ही छोड़ दो। व्यक्ति के जीवन का दृष्टिकोण इस बारे में होता है कि दुनिया में जीने के लिए तुम किस पर भरोसा करते हो, तुम किसके लिए जीते हो, और किस तरह जीते हो—और इन सभी चीजों का मानव-प्रकृति के सार से लेना-देना है। लोगों की प्रकृति का विश्लेषण करके तुम देखोगे कि सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं। वे सभी शैतान हैं और वास्तव में कोई भी अच्छा व्यक्ति नहीं है। केवल लोगों की प्रकृति का विश्लेषण करके ही तुम वास्तव में मनुष्य की भ्रष्टता और सार को जान सकते हो और समझ सकते हो कि लोग वास्तव में किससे संबंध रखते हैं, उनमें वास्तव में क्या कमी है, उन्हें किस चीज से लैस होना चाहिए, और उन्हें मानवीय सदृशता को कैसे जीना चाहिए। व्यक्ति की प्रकृति का वास्तव में विश्लेषण कर पाना आसान नहीं है, और वह परमेश्वर के वचनों का अनुभव किए बिना या वास्तविक अनुभव प्राप्त किए बिना नहीं किया जा सकता।
बसंत ऋतु 1999