अध्याय 30

कुछ लोगों को परमेश्वर के वचनों का थोड़ा-सा परिज्ञान हो सकता है, किंतु इनमें से किसी को भी अपनी भावनाओं पर भरोसा नहीं होता है; वे नकारात्मकता में पड़ने से बहुत डरते हैं। इस प्रकार, उन्होंने सदैव खुशी और दुःख के बीच अ‍दला-बदली की है। यह कहना उचित है कि सभी लोगों के जीवन दुःख से भरे हुए हैं; इसे एक कदम आगे ले जाते हुए, सभी लोगों के दैनिक जीवन में शोधन होता है, फिर भी मैं कह सकता हूँ कि किसी को भी प्रत्येक दिन अपनी आत्मा में मुक्ति नहीं मिलती है और यह ऐसा है मानो तीन बड़े पहाड़ उनके सिरों पर बोझ की तरह रखे हों। उनमें से एक का भी जीवन दिन भर में खुश और प्रसन्न नहीं होता है—और यहाँ तक कि जब वे थोड़ा सा खुश भी होते हैं, तो वे केवल दिखावा बनाए रखने का प्रयास कर रहे होते हैं। अपने हृदयों में, लोगों में सदैव किसी न किसी चीज की अपूर्णता का भाव रहता है। इस प्रकार, वे अपने हृदय में दृढ़ नहीं हैं; इस तरह जीते हुए, चीजें रिक्त और अनुचित महसूस होती हैं और जब परमेश्वर में विश्वास की बात आती है, तो वे व्यस्त होते हैं और उनके पास समय कम होता है अन्यथा उनके पास परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने का समय नहीं होता है या वे नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों को कैसे सही ढंग से खाएँ और पिएँ। उनमें से एक के भी हृदय में शांति, सुस्पष्टता और दृढ़ता नहीं होती। यह ऐसा है मानो वे सदैव एक घटाटोप आकाश के नीचे रहते हों, मानो वे बिना ऑक्सीजन वाले स्थान में रहते हों, इसके परिणामस्वरूप उनके जीवन में भ्रम पैदा हो गया है। परमेश्वर लोगों की निर्बलताओं के बारे में सीधे बात करता है, वह सदैव उनके कमजोर हिस्से पर प्रहार करता है—क्या तुम लोगों ने उस स्वर को स्पष्ट रूप से महसूस नहीं किया है, जिसे उसने सब जगह बोला है? परमेश्वर ने कभी भी लोगों को पश्चाताप करने का अवसर नहीं दिया है और वह सभी लोगों के लिए “चाँद” पर बिना ऑक्सीजन के जीवित रहने की व्यवस्था करता है। आरंभ से आज तक, बाहर से परमेश्वर के वचनों ने मनुष्य की प्रकृति को उजागर किया है, तब भी कोई इन वचनों के सार को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य के सार को उजागर करके, लोग स्वयं को जान जाते हैं और इस प्रकार परमेश्वर को जान जाते हैं, तब भी यह सार रूप में मार्ग नहीं है। परमेश्वर के वचनों का स्वर और उनकी गहराई परमेश्वर और मनुष्य के बीच स्पष्ट अंतर दर्शाते हैं। अपनी भावनाओं में, लोगों को अनजाने ही विश्वास हो जाता है कि परमेश्वर अगम्य और अलभ्य है; परमेश्वर हर चीज को प्रकट कर देता है और ऐसा लगता है कि कोई भी परमेश्वर और मनुष्य के रिश्ते को वहाँ तक लौटाने में सक्षम नहीं है, जहाँ वह हुआ करता था। यह देखना कठिन नहीं है कि परमेश्वर के सभी कथनों का उद्देश्य वचनों का उपयोग करके सभी लोगों को “गिराना” है, फलस्वरूप अपना कार्य निष्पादित करना है। ये परमेश्वर के कार्य के कदम हैं। फिर भी यह ऐसा नहीं है, जैसा लोग अपने मन में विश्वास करते हैं। उनका मानना है कि परमेश्वर का कार्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच रहा है, कि यह बड़े लाल अजगर पर विजय प्राप्त करने के अपने सबसे प्रत्यक्ष प्रभाव के समीप पहुँच रहा है, कहने का अर्थ है कि कलीसियाओं को पनपा रहा है और किसी को भी देहधारी परमेश्वर के बारे में धारणाएँ नहीं हैं, या सभी लोग परमेश्वर को जान रहे हैं। फिर भी आओ पढ़ें कि परमेश्वर क्या कहता है : “लोगों के मन में, परमेश्वर परमेश्वर है और उससे आसानी से नहीं जुड़ सकते, जबकि मनुष्य मनुष्य है और उसे आसानी से स्वच्छंद नहीं होना चाहिए ... इसके परिणामस्वरूप, वे मेरे सामने सदैव विनम्र और धैर्यवान रहते हैं; वे मेरे अनुकूल होने में अक्षम हैं क्योंकि उनमें बहुत अधिक धारणाएँ हैं।” इससे यह देखा जा सकता है कि इस बात की परवाह किए बिना कि परमेश्वर क्या कहता है या मनुष्य क्या करता है, लोग परमेश्वर को जानने में पूरी तरह से अक्षम हैं; उनके सार द्वारा निभाई गई भूमिका की वजह से, कुछ भी हो, आखिरकार वे परमेश्वर के बारे में जानने में अक्षम हैं। इस प्रकार, परमेश्वर का कार्य तब समाप्त हो जाएगा, जब लोग स्वयं को नरक के पुत्र के रूप में देखेंगे। परमेश्वर को अपने समस्त प्रबंधन का समापन करने के लिए अपने कोप को लोगों पर निकालने या उनकी सीधे निंदा करने या अंततः उन्हें मृत्यु दंड देने की आवश्यकता नहीं है। वह अपनी गति से केवल कम बातें करता है, मानो उसके कार्य की पूर्णता आकस्मिक हो, कोई ऐसी चीज जो उसके खाली समय में जरा सा भी प्रयास किए बिना निष्पादित हो जाती हो। बाहर से, परमेश्वर के कार्य के लिए कुछ अत्यावश्यकता प्रतीत होती है—फिर भी परमेश्वर ने कुछ भी नहीं किया है, वह बोलने के अलावा और कुछ नहीं करता है। कलीसियाओं के बीच कार्य उस बड़े पैमाने का नहीं है, जैसा अतीत में होता था : परमेश्वर लोगों को जोड़ता या निष्कासित करता या उन्हें उघाड़ता नहीं है—ऐसा कार्य बहुत तुच्छ है। ऐसा लगता है कि ऐसा कार्य करने का परमेश्वर का मन नहीं है। उसे जो कहना चाहिए उसमें से वह बस थोड़ा सा कहता है, जिसके बाद वह मुड़ता है और बिना निशान छोड़े गायब हो जाता है—जो कि स्वाभाविक रूप से उसके कथन पूरे होने का दृश्य है। और जब यह क्षण आएगा, तब सभी लोग अपनी नींद से जाग जाएँगे। मानव जाति हजारों वर्षों से सुस्ती भरी नींद में है, वह सर्वत्र असामान्य गहन नींद में है। और कई वर्षों से, लोग अपने सपनों में इधर-उधर दौड़ रहे हैं और अपने हृदय में अन्याय के बारे में बोलने में अक्षम वे यहाँ तक कि अपने सपनों में चिल्लाते भी हैं। इस प्रकार, वे “अपने हृदयों में थोड़ा अवसाद महसूस करते हैं”—किंतु जब वे जागते हैं, तो वे सही तथ्यों को खोज लेंगे और चिल्लाएँगे : “तो यह चल रहा है!” इसलिए ऐसा कहा जाता है कि “आज, अधिकांश लोग अभी भी घोर निद्रा में हैं। केवल जब राज्य-गान बजता है तभी वे अपनी उनींदी आँखें खोलते हैं और अपने हृदयों में थोड़ा अवसाद महसूस करते हैं।”

किसी की भी आत्मा कभी भी मुक्त नहीं हुई है, कभी भी किसी की आत्मा चिंतामुक्त और सुखी नहीं रही है। जब परमेश्वर का कार्य पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा, तो लोगों की आत्माएँ मुक्त हो जाएँगी क्योंकि हर एक को प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया गया होगा और इस प्रकार वे सभी अपने-अपने हृदय में स्थिर रहेंगे। यह ऐसा है मानो लोग दूर-दराज इलाकों की यात्रा पर हों और जब वे घर वापस आते हैं तो उनका हृदय स्थिर हो जाता है। घर पहुँचने पर लोग अब और महसूस नहीं करेंगे कि दुनिया रिक्त और अनुचित है, बल्कि अपने घरों में शांति से रहेंगे। समस्त मानव जाति के बीच इस तरह की परिस्थितियाँ होंगी। इस प्रकार, परमेश्वर कहता है कि “लोग शैतान के बंधन से स्वयं को मुक्त कराने में कभी भी समर्थ नहीं हुए हैं।” देह में रहते हुए कोई भी स्वयं को इस अवस्था से निकालने में समर्थ नहीं है। परमेश्वर मनुष्य की विभिन्न वास्तविक अवस्थाओं के बारे में क्या कहता है, उसे कुछ समय के लिए एक तरफ़ रख देते हैं और उन रहस्यों के बारे में बात करते हैं, जिन्हें परमेश्वर को मनुष्य के लिए अभी प्रकट करना है। “असंख्य बार लोगों ने मुझे उपहासपूर्ण नज़रों से देखा है, मानो मेरा शरीर काँटों से आच्छादित हो और उनके लिए घृणास्पद हो और इस प्रकार लोग मुझसे घृणा करते हैं और मानते हैं कि मैं महत्वहीन हूँ।” इसके विपरीत, सार रूप में, परमेश्वर के वचनों में मनुष्य के असली रंग प्रकट होते हैं : मनुष्य पंखों से ढका है, उसके बारे में कुछ भी सुखदायक नहीं है और इस तरह मनुष्य के लिए परमेश्वर की घृणा बढ़ जाती है क्योंकि मनुष्य काँटों-से-ढकी हुई सेई के सिवाय कुछ नहीं है जिसके बारे में कुछ भी सराहनीय नहीं है। ऊपर-ऊपर से, ये वचन परमेश्वर के प्रति मनुष्य की धारणाओं का वर्णन करते प्रतीत होते हैं—किंतु वास्तविकता में, परमेश्वर मनुष्य की छवि के आधार पर उसकी एक तस्वीर चित्रित कर रहा है। ये वचन परमेश्वर द्वारा मनुष्य का चित्रांकन हैं और यह ऐसा है मानो परमेश्वर ने मनुष्य की छवि पर चिपकाने वाला पदार्थ छिड़क दिया हो; इस प्रकार, पूरे जगत में मनुष्य की छवि बहुत ऊँची हो जाती है और यहाँ तक कि लोगों को विस्मित भी करती है। जब से उसने बोलना शुरू किया, तब से परमेश्वर मनुष्य के साथ एक बड़ी लड़ाई के लिए अपनी सेना को स्थित कर रहा है। वह विश्वविद्यालय में बीजगणित के एक प्रोफेसर की तरह है, जो मनुष्य के लिए तथ्यों का खाका खींचता है और जो तथ्यों द्वारा साबित हो जाता है उसे सूचीबद्ध करता है—सबूत और जवाबी-सबूत—सभी लोगों को पूरी तरह आश्वस्त कर देते हैं। यह परमेश्वर के सभी वचनों का उद्देश्य है और यह इसी कारण है कि परमेश्वर इन रहस्यपूर्ण वचनों को मनुष्य पर अकस्मात उछालता है : “कुल मिलाकर मनुष्य के हृदय में मेरा बिल्कुल कोई मूल्य नहीं है, मैं एक अनावश्यक घरेलू सामान हूँ।” इन वचनों को पढ़ने के बाद, लोग अपने हृदय में प्रार्थना करने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते हैं और वे परमेश्वर के प्रति अपने आभार को जान जाते हैं और इस वजह से वे स्वयं अपनी निंदा करते हैं, उन्हें विश्वास हो जाता है कि मनुष्य को मर जाना चाहिए और उसका रत्ती भर भी मूल्य नहीं है। परमेश्वर कहता है, “इसी वजह से मैं स्वयं को उस स्थिति में पाता हूँ जिसमें मैं आज हूँ”, जो आज की वास्तविक परिस्थितियों से जुड़ने पर, लोगों को स्वयं की निंदा करने का कारण बनते हैं। क्या यह सत्य नहीं है? यदि तुम्हें तुम्हारा ज्ञान करवा दिया गया होता, तो क्या “मुझे सच में मर जाना चाहिए!” जैसे वचन तुम्हारे मुँह से आ सकते थे? मनुष्य की सच्ची परिस्थितियाँ ऐसी ही हैं और यह इस लायक नहीं है कि इसके बारे में बहुत अधिक सोचा जाए—यह केवल एक उपयुक्त उदाहरण है।

एक समझ से, जब परमेश्वर मनुष्य की माफ़ी और सहिष्णुता के लिए प्रार्थना करता है, तो लोग देखते हैं कि परमेश्वर उनका मज़ाक उड़ा रहा है और दूसरी समझ से, वे स्वयं के विद्रोह को भी देखते हैं—वे केवल परमेश्वर की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह स्वयं मनुष्य के लिए अत्यधिक परिश्रम करे। इसके अलावा, लोगों की धारणाओं के बारे में बोलते हुए, परमेश्वर कहता है कि वह मनुष्य के सांसारिक आचरण के फलसफे या मनुष्य की भाषा में कुशल नहीं हैं। अतः एक प्रकार से, इस कारण लोग इन वचनों की तुलना व्यावहारिक परमेश्वर से करते हैं और दूसरी तरह से वे उसके वचनों में परमेश्वर का अभिप्राय देखते हैं—परमेश्वर उनका मज़ाक उड़ा रहा है क्योंकि वे समझते हैं कि परमेश्वर मनुष्य का असली चेहरा प्रकट कर रहा है और वह लोगों को परमेश्वर की वास्तविक परिस्थितियों के बारे में नहीं बता रहा है। परमेश्वर के वचनों का अंतर्निहित अर्थ ताना, कटाक्ष, मज़ाक और मनुष्य के प्रति घृणा से भरा हुआ है। ऐसा लगता है मानो वह जो कुछ भी करता है उसमें, मनुष्य व्यवस्था को विकृत कर रहा है और रिश्वत ले रहा है; लोग वेश्या हैं और जब परमेश्वर बोलने के लिए अपना मुँह खोलता है, तो वे आतंक से डर जाते हैं, अंदर तक भयभीत हो जाते हैं कि उनके बारे में सच्चाई पूरी तरह से उजागर हो जाएगी और वे किसी का भी सामना करने में शर्मिंदगी महसूस करेंगे। किंतु तथ्य तो तथ्य हैं। परमेश्वर मनुष्य के “पश्चाताप” की वजह से अपने कथनों को नहीं रोकता है; लोग जितना अधिक अकथनीय रूप से शर्मिंदा और लज्जित होते हैं, उतना ही अधिक परमेश्वर उनके चेहरों को जलती हुई नज़र से घूरता है। उसके मुँह के वचन मनुष्य के सभी कुरूप कर्मों को सामने ला देते हैं—यही न्यायिक और निष्पक्ष होना है, केवल इसे किंगतियाँ[क] कहा जाता है, यही जनता के उच्चतम न्यायालय का न्याय है। इस प्रकार, जब लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, तो उन्हें अचानक दिल का दौरा पड़ जाता है, उनका रक्तचाप बढ़ जाता है, ऐसा लगता है मानो वे हृदय धमनी रोग से पीड़ित हैं, जैसे मिर्गी उन्हें उनके पूर्वजों के साथ मुलाकात करने के लिए पश्चिमी स्वर्ग में वापस भेजने ही वाली है—जब वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, तो यही प्रतिक्रिया होती है। मनुष्य वर्षों के कठिन परिश्रम द्वारा निर्बल बनाया जाता है, वह अंदर और बाहर से बीमार है, हृदय से लेकर उसकी रक्त वाहिकाओं, बड़ी आँत, छोटी आँत, पेट, फेफड़े, गुर्दे आदि तक उसका सर्वस्व बीमार है। उसके संपूर्ण शरीर में कुछ भी स्वस्थ नहीं है। इसलिए, परमेश्वर का कार्य मनुष्य के लिए अप्राप्य स्तर तक नहीं पहुँचता, बल्कि लोगों को स्वयं को जानने का कारण बनता है। क्योंकि मनुष्य का शरीर विषाणुओं से आक्रांत है और क्योंकि वह बूढ़ा हो गया है, इसलिए उसकी मृत्यु का दिन निकट आ गया है और वापसी का कोई रास्ता नहीं है। मगर यह कहानी का केवल एक हिस्सा है; आंतरिक अर्थ अभी प्रकट होना है क्योंकि मनुष्य की बीमारी के स्रोत को ढूँढा जा रहा है। वास्तव में, जिस समय परमेश्वर के कार्य की संपूर्णता पूरी हो जाती है, तो यह वह समय नहीं होता जब पृथ्वी पर उसका कार्य पूरा हो जाता है, क्योंकि एक बार जब कार्य का यह चरण समाप्त हो जाता है, तो देह में भविष्य का कार्य करने का कोई तरीका नहीं होगा, और परमेश्वर के आत्मा को इसे पूरा करने की आवश्यकता होगी। इसलिए परमेश्वर कहता है, “जब मैं औपचारिक रूप से पुस्तक खोलता हूँ तो ऐसा तब होता है, जब संपूर्ण ब्रह्मांड में लोगों को ताड़ना दी जा रही होती है, जिस समय मेरा कार्य पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है, जब दुनिया भर के लोगो परीक्षणों के अधीन होते हैं।” जिस समय देह में कार्य पूरा हो जाता है यह वह समय नहीं है, जब परमेश्वर का कार्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचता है—इस समय की पराकाष्ठा केवल इस चरण के दौरान कार्य को संदर्भित करती है और संपूर्ण प्रबंधन योजना की पराकाष्ठा नहीं है। इसलिए, परमेश्वर की मनुष्य से उच्च अपेक्षाएँ नहीं हैं। वह केवल इतना चाहता है कि लोग स्वयं को जानें, इस प्रकार से कार्य के अगले चरण को पूरा करें, जिसमें परमेश्वर की इच्छा प्राप्त कर ली गई होगी। जैसे-जैसे परमेश्वर का कार्य बदलता है, लोगों की “कार्य इकाई” बदलती जाती है। आज पृथ्वी पर परमेश्वर के कार्य का चरण है और इस प्रकार उन्हें अवश्य जमीनी स्तर पर ही कार्य करना चाहिए। भविष्य में देश का प्रशासन करने की आवश्यकता होगी और इस प्रकार उन्हें “केंद्रीय समिति” के लिए पुनर्निर्दिष्ट किया जाएगा। यदि वे विदेश यात्रा करते हैं, तो उन्हें विदेश जाने के लिए प्रक्रियाओं से निपटना होगा। ऐसे समय में वे अपनी मातृभूमि से दूर दूसरे देश में होंगे—किंतु यह तब भी परमेश्वर के कार्य की अपेक्षाओं की वजह से होगा। जैसा लोगों ने कहा है, “जब आवश्यक हो, तो हम परमेश्वर के लिए अपना जीवन अर्पित कर देंगे”—क्या यह वह मार्ग नहीं है, जिस पर भविष्य में चला जाएगा? किसने कभी भी ऐसे जीवन का आनंद लिया है? कोई व्यक्ति हर जगह यात्रा कर सकता है, विदेशों में जा सकता है, देहात में मार्गदर्शन प्रदान कर सकता है, स्वयं को आम लोगों के बीच घुला-मिला सकता है और वह उच्चस्तरीय संगठनों के सदस्यों के साथ राष्ट्र के महत्वपूर्ण मामलों पर भी बात कर सकता है; और जब आवश्यक हो, वह व्यक्तिगत रूप से नरक में जीवन का स्वाद चख सकता है, जिसके बाद वह लौट सकता है और तब भी स्वर्ग के आशीषों का आनंद लेने में समर्थ हो सकता है—क्या ये मनुष्य के आशीष नहीं हैं? किसने कभी भी परमेश्वर के साथ तुलना की है? किसने कभी भी सभी देशों की यात्रा की है? वास्तव में, लोग किन्हीं भी संकेतकों या स्पष्टीकरणों के बिना परमेश्वर के कुछ वचनों को समझने में समर्थ हो सकेंगे—यह केवल इतना ही है कि उन्हें स्वयं पर कोई विश्वास नहीं है, यही वजह है जिसने परमेश्वर के कार्य को आज तक इतना खींच दिया है। क्योंकि लोगों में अत्यधिक अभाव है—जैसा परमेश्वर ने कहा था, “उनके पास कुछ नहीं है”—आज का कार्य उनके लिए ज़बर्दस्त कठिनाइयाँ खड़ी करता है; इससे अधिक और क्या, उनकी कमज़ोरी ने स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के मुँह को विवश कर दिया है—और क्या ये चीजें ठीक वही नहीं हैं, जो परमेश्वर के कार्य में बाधा डाल रही हैं? क्या तुम लोग अभी भी इसे नहीं देख सकते? परमेश्वर जो कुछ कहता है उन सब में छिपा हुआ अर्थ है। जब परमेश्वर बोलता है, तो वह उस मुद्दे का उत्सुकता से लाभ उठाता है जो हाथ में है और एक कहानी की तरह उसके द्वारा बोले गए सभी वचनों में गहन संदेश समाविष्ट होता है। इन सरल वचनों में गहन अर्थ समाविष्ट होते हैं और इस तरह से महत्वपूर्ण मुद्दों को समझाते हैं—क्या इन मामलों में परमेश्वर के वचन सर्वोत्तम नहीं हैं? क्या तुम्हें यह पता है?

फुटनोट :

क. किंगतियाँ : चीन में शाही समय के दौरान धार्मिक न्यायाधीश के लिए इस पद का उपयोग किया जाता था।

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