315 मसीह के बारे में धारणाएँ रखना परमेश्वर का विरोध करना है

1

तुम्हारे विचार से स्वर्ग का ईश्वर

बहुत खरा, धार्मिक और महान है,

पूजने और सम्मान पाने के योग्य है,

जबकि धरती का ईश्वर बस एक प्रतिनिधि है,

स्वर्ग के ईश्वर का एक साधन है,

वो उसके बराबर कभी नहीं हो सकता,

उससे उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती।


तुम ऐसा मानते कि ईश्वर की महानता

और सम्मान स्वर्ग के ईश्वर के ही हैं,

पर इंसान की प्रकृति और भ्रष्टता

ऐसे गुण हैं जो धरती पर के ईश्वर में मौजूद हैं।


जैसे तुम मसीह के कर्म देखते,

जैसे उसके कार्यों, उसकी पहचान

और सार को तुम आँकते

वो एक अधर्मी का नज़रिया है।

जैसे तुम इन सबको देखते

वो एक दुष्ट का नज़रिया है।


2

धरती पर है जो ईश्वर, उसे तुम कमज़ोर,

तुच्छ, नाकारा मानते,

जबकि स्वर्ग के ईश्वर को उत्कृष्ट मानते,

जो भावनाओं में न बहता, जिसमें बस धार्मिकता है;

तुम मानते धरती के ईश्वर के स्वार्थी इरादे हैं,

उसमें निष्पक्षता या विवेक नहीं।


तुम्हें लगे स्वर्ग का ईश्वर हमेशा वफ़ादार और सीधा है,

पर धरती के ईश्वर में थोड़ी बेईमानी है;

स्वर्ग का ईश्वर इंसान से बहुत प्रेम करे,

पर धरती का ईश्वर नहीं,

उसे इंसान की परवाह नहीं, वो तो उसकी उपेक्षा करे।


जैसे तुम मसीह के कर्म देखते,

जैसे उसके कार्यों, उसकी पहचान

और सार को तुम आँकते

वो एक अधर्मी का नज़रिया है।

जैसे तुम इन सबको देखते

वो एक दुष्ट का नज़रिया है।


3

ये गलतफहमी बहुत दिनों से है तुम्हारे मन में,

और भविष्य में भी ये वैसी ही रहेगी।


तुमने बहुत बड़ी भूल की है,

तुमसे पहले ये भूल किसी ने न की:

केवल उत्कृष्ट स्वर्गिक ईश्वर की सेवा करते हो

जिसके सिर पे मुकुट सजा है,

पर धरती के ईश्वर को तुम तुच्छ मानते हो,

वो तो तुम्हारे लिए अदृश्य है।

क्या ये तुम्हारा पाप नहीं, ईश-स्वभाव

के खिलाफ अपराध का उदाहरण नहीं?


—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें से रूपांतरित

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