एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास

ईमानदार व्यक्ति होने का तुम्हारा निजी अनुभव कैसा है? (ईमानदार व्यक्ति होना सचमुच बहुत मुश्किल लगता है।) मुश्किल क्यों लगता है? (मैं सच में ईमानदार बनना चाहता हूँ। लेकिन जब मैं हर दिन खुद को जाँचता हूँ, तो पाता हूँ कि मैं थोड़ा धूर्त हूँ, मेरी कथनी में ढेरों मिलावटें हैं। कभी-कभी मैं अपनी बातों में भावनाएँ डाल देता हूँ, या बोलते समय मेरी कुछ मंशाएँ होती हैं। कभी-कभी मैं छोटे-मोटे खेल खेलता हूँ, घुमा-फिरा कर बोलता हूँ, या ऐसी बातें कहता हूँ जो वास्तविकता के विरुद्ध होती हैं—छल-कपट वाली चीजें, आधा-सच और दूसरी तरह की झूठी बातें, सब अपना लक्ष्य साधने के लिए।) ये तमाम व्यवहार लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से उपजते हैं; ये लोगों के उस अंश से जुड़े होते हैं जो कुटिल और धोखेबाज होता है। लोग धोखेबाजी के खेल क्यों खेलते हैं? यह उनका अपना उल्लू सीधा करने के लिए होता है, अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए होता है, और इसलिए वे छलपूर्ण तरीके इस्तेमाल करते हैं। ऐसा करते हुए वे खुले और निष्कपट नहीं होते, और वे ईमानदार लोग नहीं होते। ऐसे ही समय में लोग अपनी चालाकी और कपटीपन या अपनी दुर्भावना और घिनौनापन दिखाते हैं। ईमानदार होने में मुश्किल यहीं आती है : अपने दिल में ऐसे भ्रष्ट स्वभाव लिए हुए एक ईमानदार व्यक्ति बनना सचमुच खास तौर पर मुश्किल लगेगा। लेकिन अगर तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति हो, और सत्य को स्वीकार करने में समर्थ हो, तो ईमानदार व्यक्ति बनना बहुत मुश्किल नहीं होगा। तुम्हें लगेगा कि यह तो बहुत आसान है। निजी अनुभव वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं कि ईमानदार व्यक्ति होने की राह में आने वाली सबसे बड़ी बाधाएँ है लोगों का छल, उनकी धोखेबाजी, उनका बैर भाव और उनके घिनौने इरादे। जब तक उनके ये भ्रष्ट स्वभाव मौजूद रहेंगे, ईमानदार व्यक्ति होना बहुत मुश्किल होगा। तुम सभी लोग ईमानदार होने का प्रशिक्षण ले रहे हो, इसलिए तुम्हें इसका थोड़ा अनुभव है। तुम लोगों के अनुभव कैसे रहे हैं? (मैं हर दिन अपनी कही सारी झूठी बातें, सारा कूड़ा-करकट लिख डालता हूँ। फिर मैं खुद को जाँचता और अपना गहन विश्लेषण करता हूँ। मुझे पता चला है कि इन ज्यादातर झूठी बातों के पीछे मेरी कोई मंशा होती है, और मैंने ये बातें अपने मिथ्याभिमान और नाक कटने से बचने के लिए बताई थीं। हालाँकि मैं जानता हूँ कि मेरी बातें सत्य के अनुरूप नहीं हैं, फिर भी मैं झूठ बोले या ढोंग किए बिना नहीं रह सकता।) यही है ईमानदार व्यक्ति होने की सबसे बड़ी मुश्किल। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि तुम इससे अवगत हो या नहीं; अहम बात यह है कि यह जानते हुए भी कि जो तुम कर रहे हो वह गलत है, तुम जिद्दी होकर झूठ बोलते जाते हो, ताकि अपने लक्ष्य हासिल कर सको, अपनी छवि और अपना नाम बनाए रख सको, और इससे अनजान होने का कोई भी दावा झूठ है। एक ईमानदार व्यक्ति होने की कुंजी है अपनी मंशाओं, अपने इरादों और अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करना। यही झूठ बोलने की समस्या को जड़ से हल करने का एकमात्र तरीका है। अपने निजी लक्ष्य हासिल करना यानी व्यक्तिगत रूप से लाभान्वित होना, किसी स्थिति का फायदा उठाना, खुद को अच्छा दिखाना, या दूसरों की स्वीकृति पाना—ये झूठ बोलते वक्त लोगों के इरादे और लक्ष्य होते हैं। इस प्रकार से झूठ बोलना भ्रष्ट स्वभाव दर्शाता है, और झूठ बोलने को लेकर तुम्हें ऐसी समझ की जरूरत है। तो इस भ्रष्ट स्वभाव को कैसे हल करना चाहिए? इन सबका दारोमदार इस बात पर है कि तुम सत्य से प्रेम करते हो या नहीं। अगर तुम सत्य को स्वीकार सकते हो और अपनी वकालत किए बिना बोल सकते हो; अगर तुम अपने हितों पर ध्यान देना छोड़कर कलीसिया के कार्य, परमेश्वर के इरादों और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों का विचार कर सकते हो, तो तुम झूठ बोलना छोड़ दोगे। तुम सच्चाई और साफगोई से बोल पाओगे। इस आध्यात्मिक कद के बिना तुम सच्चाई से नहीं बोल पाओगे, जिससे यह साबित होगा कि तुम्हारे आध्यात्मिक कद में कमी है, और तुम सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हो। इसलिए एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए सत्य की समझ और आध्यात्मिक कद में बढ़ने की प्रक्रिया की जरूरत होती है। जब हम इसे इस रूप में देखते हैं, तो आठ-दस साल के अनुभव के बिना ईमानदार व्यक्ति होना असंभव लगता है। यह अवधि किसी के जीवन में बढ़ने की प्रक्रिया की है, सत्य को समझने और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया की है। शायद कुछ लोग यह पूछें : “झूठ बोलने की समस्या का हल और ईमानदार व्यक्ति बनना क्या सचमुच इतना कठिन हो सकता है?” यह इस पर निर्भर करता है कि तुम किसकी बात कर रहे हो। अगर वह सत्य से प्रेम करने वाला है, तो वह कुछ मामलों में झूठ बोलना छोड़ पाएगा। लेकिन अगर वह ऐसा है जो सत्य से प्रेम नहीं करता, तो उसके लिए झूठ बोलना छोड़ना और ज्यादा मुश्किल हो जाएगा।

ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए खुद को प्रशिक्षित करना मुख्य रूप से झूठ बोलने की समस्या को हल करने और साथ ही अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने का मामला है। इसे करने में एक अहम अभ्यास जुड़ा होता है : जब तुम्हें यह एहसास हो जाए कि तुमने किसी से झूठ बोला है, उसके साथ चाल चली है, तो तुम्हें उनके सामने पूरी तरह खुल कर माफी माँग लेनी चाहिए। झूठ बोलने की समस्या हल करने के लिए यह अभ्यास बहुत लाभकारी है। मिसाल के तौर पर, अगर तुमने किसी के साथ चाल चली या तुमने उससे जो बातें कीं, उनमें थोड़ी मिलावट थी या तुम्हारे निजी इरादे थे, तो तुम्हें उससे मिलकर अपना विश्लेषण करना चाहिए। तुम्हें उसे बताना चाहिए : “मैंने तुम्हें जो बताया वह झूठ था, अपने गौरव की रक्षा के लिए था। यह कहने के बाद मैं परेशान हो गया था, इसलिए मैं अब तुमसे क्षमा माँग रहा हूँ। कृपया मुझे माफ कर दो।” उस व्यक्ति को यह बात बहुत ताजगी देने वाली लगेगी। वह सोचेगा कि ऐसा कोई कैसे हो सकता है जो झूठ बोलने के बाद उसके लिए माफी माँगे। ऐसे साहस की वे सचमुच सराहना करते हैं। ऐसा अभ्यास करने के बाद किसी व्यक्ति को क्या लाभ हासिल होते हैं? इसका प्रयोजन दूसरों की सराहना पाना नहीं, बल्कि खुद को झूठ बोलने से ज्यादा असरदार तरीके से संयमित करना और रोकना है। इसलिए झूठ बोलने के बाद तुम्हें इसके लिए माफी माँगने का अभ्यास करना चाहिए। तुम इस तरह लोगों के सामने अपना विश्लेषण करने, पूरी तरह खुल जाने, और माफी माँगने का जितना ज्यादा अभ्यास करोगे, नतीजे उतने ही बेहतर होंगे—और तुम्हारी झूठी बातों की मात्रा कम और कम होती जाएगी। ईमानदार बनने और खुद को झूठ बोलने से रोकने के लिए अपना विश्लेषण कर, खुद को पूरी तरह खोल कर पेश करने का अभ्यास करने के लिए साहस चाहिए, और किसी से झूठ बोलने के बाद उससे माफी माँगने के लिए और भी ज्यादा साहस चाहिए। अगर तुम लोग साल-दो साल—या शायद चार-पाँच साल—इसका अभ्यास करो, तो तुम्हें यकीनन स्पष्ट नतीजे मिलेंगे, और झूठ बोलने से छुटकारा पाना मुश्किल नहीं होगा। खुद को झूठ से छुटकारा दिलाना ईमानदार व्यक्ति बनने की ओर पहला कदम है, और यह चार-पाँच साल के प्रयास के बिना नहीं किया जा सकता। झूठ बोलने की समस्या हल होने के बाद, दूसरा कदम धोखेबाजी और चालबाजी की समस्या को हल करना है। कभी-कभी चालबाजी और धोखेबाजी के लिए व्यक्ति का झूठ बोलना जरूरी नहीं होता—ये चीजें सिर्फ कार्य से भी हासिल की जा सकती हैं। हो सकता है कि कोई व्यक्ति बाहर से शायद झूठ न बोले, मगर फिर भी उसके दिल में धोखेबाजी और चालबाजी छिपी हुई हो। यह बात वे किसी और से ज्यादा जानते हैं क्योंकि उन्होंने बड़ी गहराई से इस बारे में सोचा और सावधानी से इस पर विचार किया है। बाद में चिंतन के बाद इसे पहचानना उनके लिए आसान होगा। एक बार झूठ बोलने की समस्या हल हो जाए, तो धोखेबाजी और चालबाजी की समस्याएँ दूर करना अपेक्षाकृत थोड़ा आसान होगा। लेकिन व्यक्ति को परमेश्वर का भय मानने वाला होना चाहिए क्योंकि धोखेबाजी और चालबाजी करते समय मनुष्य पर नीयत हावी होती है। लोग बाहर से इसे बूझ नहीं पाते, न ही वे इसे जान पाते हैं। सिर्फ परमेश्वर ही इसे जाँच सकता है, और सिर्फ वही इस बारे में जानता है। इसलिए कोई व्यक्ति धोखेबाजी और चालबाजी की समस्या को सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना पर भरोसा करके और उसकी जाँच को स्वीकार करके ही हल कर सकता है। अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता या दिल से परमेश्वर का भय नहीं मानता, तो उसकी धोखेबाजी और चालबाजी की समस्या हल नहीं हो सकती। हो सकता है तुम परमेश्वर से प्रार्थना करो, अपनी गलतियाँ मान लो, पाप स्वीकार कर प्रायश्चित्त करो, या हो सकता है अपने भ्रष्ट स्वभाव का गहन विश्लेषण करो—सच्चाई से बताओ कि उस वक्त तुम क्या सोच रहे थे, तुमने क्या कहा, तुम्हारी नीयत क्या थी, और तुमने धोखा कैसे किया। ये सब करना अपेक्षाकृत आसान है। हालाँकि अगर तुम्हें किसी दूसरे व्यक्ति के सामने पूरी तरह खुल जाने को कहा जाए, तो हो सकता है अपनी नाक कटने से बचने के लिए तुम अपना साहस और संकल्प खो दो। तब तुम्हारे लिए पूरी तरह खुल कर पेश आने का अभ्यास करना बहुत मुश्किल होगा। शायद तुम एक सामान्य ढंग से स्वीकार लो कि तुम कभी-कभी अपने निजी लक्ष्यों और नीयत के आधार पर बोलते या कार्य करते हो; तुम्हारी कथनी और करनी में एक स्तर की धोखेबाजी, मिलावट, झूठ या चालबाजी है। लेकिन फिर, कुछ हो जाए और शुरू से अंत तक की घटनाएँ उजागर कर, यह बता कर कि तुम्हारी कौन-सी बातें कपटपूर्ण थीं, उनके पीछे क्या नीयत थी, तुम क्या सोच रहे थे, तुम बैरभाव में या कुटिल थे या नहीं, तुम्हें अपना विश्लेषण करने पर मजबूर किया जाए, तो तुम बारीकियों में नहीं जाना चाहते या विस्तार से नहीं बताना चाहते। कुछ लोग यह कहकर चीजें छिपाते भी हैं : “बात ऐसी ही है। मैं बस बहुत धोखेबाज, घिनौना और अविश्वसनीय व्यक्ति हूँ।” यह दर्शाता है कि वे अपने भ्रष्ट सार का उचित ढंग से सामना करने के लायक नहीं हैं और यह भी कि वे कितने धोखेबाज और घिनौने हैं। ये लोग हमेशा टालमटोल के अंदाज और दशा में होते हैं। ये लोग हमेशा खुद को माफ करते और समायोजित करते रहते हैं, और ईमानदार बनने के सत्य का अभ्यास करने का कष्ट सहने या कीमत चुकाने में असमर्थ होते हैं। कई लोग हमेशा यह कहते हुए वर्षों से शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते रहे हैं : “मैं अत्यंत धोखेबाज और घिनौना हूँ, मेरे कृत्यों में अक्सर चालबाजी होती है, मैं लोगों से बिल्कुल ईमानदारी से पेश नहीं आता।” लेकिन वर्षों तक यूँ चिल्लाने के बाद भी वे पहले जितने ही धोखेबाज बने रहते हैं क्योंकि जब वे अपनी धोखेबाजी की दशा दिखाते हैं, तब कोई कभी उनसे सच्चा विश्लेषण या पछतावा नहीं सुनता। वे कभी भी दूसरों के सामने खुद को खोल कर पेश नहीं करते या लोगों से झूठ बोलने या उसे चालबाजी के बाद माफी नहीं माँगते, सभाओं में आत्म-विश्लेषण और आत्मज्ञान की अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में संगति तो वे करते ही नहीं। न वे कभी यह बताते हैं कि वे खुद को कैसे जान पाए, या ऐसी बातों को लेकर उन्होंने प्रायश्चित कैसे किया। वे इनमें से कुछ भी नहीं करते, जो यह साबित करता है कि वे खुद को नहीं जानते और उन्होंने सचमुच प्रायश्चित्त नहीं किया है। जब वे कहते हैं कि वे धोखेबाज हैं और ईमानदार व्यक्ति बनना चाहते हैं, तो वे महज नारे लगाते हैं, धर्म-सिद्धांत का प्रचार करते हैं, और कुछ नहीं। हो सकता है कि वे ये चीजें इसलिए करते हैं क्योंकि वे बने-बनाए ढर्रे पर चलने और दूसरों के पीछे चलने की कोशिश करते हैं। या हो सकता है कि कलीसिया के जीवन का माहौल उन्हें बिना दिलचस्पी के सतही तौर पर काम करने और दिखावा करने को मजबूर करता है। चाहे जो हो, ऐसे नारेबाज और धर्म-सिद्धांत प्रचारक कभी सच्चे दिल से प्रायश्चित्त नहीं करेंगे, और यकीनन परमेश्वर का उद्धार नहीं पा सकेंगे।

परमेश्वर लोगों से जिस भी सत्य के अभ्यास की अपेक्षा रखता है उसके लिए उन्हें कीमत चुकाने और अपने असली जीवन में उसका व्यवहारिक रूप में अभ्यास और अनुभव करने की जरूरत होती है। परमेश्वर लोगों से नहीं कहता कि महज शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का पाठ करो, आत्मज्ञान की बातें करो, मान लो कि तुम धोखेबाज, झूठे, कुटिल, धोखेबाज और चालबाज हो या ये चीजें दो-चार बार जोर-जोर से बोलकर अपनी बात खत्म कर दो। अगर कोई ये तमाम चीजें मान ले, मगर इस सच्चाई के बाद जरा भी न बदले; अगर वह झूठ बोलना, छलना और धोखेबाजी करना जारी रखे; किसी चीज का सामना होने पर वह वही शैतानी चालबाजियाँ, वही शैतानी तरीके चलाता रहे; अगर उसके उपाय और तरीके कभी न बदलें, तो क्या यह व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के योग्य है? क्या वह कभी भी अपना स्वभाव बदल पाएगा? नहीं—कभी नहीं! तुम्हें चिंतन कर खुद को जानने में समर्थ होना चाहिए। तुम्हें भाई-बहनों की मौजूदगी में खुद को खोलकर पेश करने और अपनी सच्ची दशा के बारे में संगति करने की हिम्मत दिखानी चाहिए। अगर तुम खुल कर पेश नहीं आ सकते, या अपने भ्रष्ट स्वभाव का विश्लेषण नहीं कर सकते; अगर तुम अपनी गलतियाँ मानने की हिम्मत नहीं रखते, तो तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, खुद को जाननेवाला व्यक्ति होना तो दूर की बात है। अगर सभी लोग उन धार्मिक लोगों जैसे हों जो दूसरों की सराहना पाने के लिए दिखावा करते हैं, जो गवाही देते हैं कि वे परमेश्वर से कितना प्रेम करते हैं, उसके प्रति कितने समर्पित हैं, उसके प्रति कितने वफादार हैं, और परमेश्वर उनसे कितना प्रेम करता है, तो यह सब वे दूसरों का आदर और सराहना पाने के लिए करते हैं; अगर हरेक अपनी निजी योजनाएँ छिपाए रखे और अपने दिलों में निजी स्थान बनाए रखे, तो कोई भी सच्चे अनुभवों की बात कैसे कर सकता है? किसी के पास एक-दूसरे को बताने के लिए सच्चे अनुभव कैसे होंगे? तुम्हारे अनुभवों को साझा करने और उनके बारे में संगति करने का अर्थ है तुम्हारा अपने अनुभवों और परमेश्वर के वचनों के ज्ञान पर संगति करना। यह तुम्हारे दिल के हर विचार, तुम्हारी हर दशा और तुममें प्रकट भ्रष्ट स्वभाव को वाणी देना है। यह दूसरों को इन चीजों के बारे में जानने देने और फिर सत्य पर संगति करके समस्या को सुलझाने के बारे में है। अनुभवों पर इस प्रकार संगति करके ही सभी लोग लाभ और फल पाते हैं। केवल यही सच्चा कलीसिया जीवन है। अगर ये परमेश्वर के वचनों या किसी भजन पर तुम्हारी अंतर्दृष्टि के बारे में महज थोथी बातें हों, और फिर तुम इस पर आगे बोले बिना मनचाहे ढंग से संगति करो, अपनी वास्तविक दशाओं या समस्याओं का खुलासा न करो, तो ऐसी संगति से कोई लाभ नहीं मिलने वाला। अगर हरेक सैद्धांतिक या मीमांसात्मक ज्ञान के बारे में बताए, मगर वास्तविक अनुभवों से हासिल ज्ञान के बारे में कुछ न बोले; और अगर सत्य पर संगति करते समय वे अपने निजी जीवन, असली जीवन की समस्याओं और अपने भीतरी संसार के बारे में बोलने से बचें, तो फिर सच्चा संचार कैसे हो पाएगा? कोई वास्तविक भरोसा कैसे होगा? हो ही नहीं सकेगा! अगर कोई पत्नी अपने मन की बात पति से कभी न कहे, तो क्या इसे अंतरंगता कहा जाएगा? क्या वे जान पाएँगे कि एक-दूसरे के मन में क्या है? (नहीं, वे नहीं जान सकते।) फिर मान लो कि वे निरंतर कहते रहते हैं, “मैं तुमसे प्यार करता हूँ।” वे सिर्फ यही कहते हैं, मगर कभी खुद को खोल कर पेश नहीं करते या एक-दूसरे को नहीं बताते कि वे वास्तव में भीतर गहरे क्या सोच रहे हैं, उन्हें अपने साथी से क्या अपेक्षा है, या वे किन समस्याओं से जूझ रहे हैं। वे कभी भी एक-दूसरे को अपने मन की बात नहीं बताते, और साथ होने पर उनके बीच एक-दूसरे के लिए सतही मीठी बातों के अलावा कुछ नहीं होता। तो क्या वे सचमुच पति-पत्नी हैं? यकीनन नहीं! इसी तरह, अगर भाई-बहनों को एक-दूसरे से अपने मन की बात कहने लायक होना हो, एक-दूसरे की मदद करनी हो, और एक-दूसरे की जरूरत पूरी करनी हो, तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने सच्चे अनुभवों के बारे में बताना चाहिए। अगर तुम अपने सच्चे अनुभवों के बारे में कुछ नहीं कहते—अगर तुम सिर्फ मनुष्य को समझ आनेवाले शब्द और धर्म-सिद्धांत का प्रचार करते हो, अगर तुम सिर्फ परमेश्वर में विश्वास को लेकर थोड़ा धर्म-सिद्धांत का प्रचार करते हो, सिर्फ ऊबाऊ तुच्छ बातें बताते हो और अपने दिल की बात खुल कर नहीं कहते—तो तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, और ईमानदार व्यक्ति बनने लायक नहीं हो। अगर इसी मिसाल का इस्तेमाल करें : कई वर्षों तक साथ जीते हुए पति-पत्नी, कभी-कभी आपस में भिड़ते हुए, एक-दूसरे का आदी होने की कोशिश करते हैं। लेकिन अगर तुम दोनों सामान्य मानवता वाले हो, और हमेशा जीवन और काम की अपनी समस्याओं, अपनी गहरी सोच, चीजें ठीक करने की अपनी योजना, या अपने बच्चों के भविष्य के बारे में अपने विचारों और योजनाओं के बारे में तुम उससे और वह तुमसे दिल खोल कर बातें करते हो, और अपने साथी को ये सब बताते हो, तो फिर क्या तुम दोनों लोग विशेष रूप से एक-दूसरे के साथ अंतरंग महसूस नहीं करोगे? लेकिन अगर वह तुम्हें कभी अपने अंतर्मन की बातें न बताए, बस सिर्फ वेतन घर ले आए; अगर तुम अपने विचार कभी उसे न बताओ और तुम दोनों एक-दूसरे को दिल की बातें न बताओ, तो क्या तुम दोनों लोगों के बीच भावनात्मक दूरी नहीं होगी? जरूर होगी, क्योंकि तुम एक-दूसरे के विचारों और योजनाओं को नहीं समझते। आखिरकार, तुम यह नहीं बता सकोगे कि तुम्हारा जीवनसाथी किस किस्म का व्यक्ति है, न ही वह यह बता सकेगा कि तुम किस किस्म के व्यक्ति हो। तुम उसकी जरूरतें नहीं समझोगे, न ही वह तुम्हारी जरूरतें समझेगा। अगर लोगों के बीच कोई बोलचाल या आध्यात्मिक संचार न हो, तो उनके बीच अंतरंगता की कोई संभावना नहीं होती, और वे एक-दूसरे की जरूरतें पूरी नहीं कर सकते या एक-दूसरे की मदद नहीं कर सकते। तुम लोगों को ऐसा अनुभव हुआ होगा, हुआ है न? अगर तुम्हारा मित्र तुमसे अपने दिल की सारी बातें कहे, वह जो भी सोच रहा है, उसे जो भी तकलीफ या खुशी है, उनके बारे में तुम्हें खुलकर बताए, तो क्या तुम खुद को विशेष रूप से उसके करीब महसूस नहीं करोगे? वे तुम्हें ये सब बताने को इसलिए तैयार होते हैं क्योंकि तुमने भी अपने अंतरंग विचार उन्हें बताए हैं। तुम लोग खास तौर पर करीब हो, और इसी वजह से तुम लोगों की आपस में बहुत बनती है और तुम एक-दूसरे की मदद कर पाते हो। कलीसिया के भाई-बहन आपस में इस प्रकार के संचार और बातचीत के बिना सद्भाव के साथ एक-दूसरे के साथ मिल-जुल कर नहीं रह सकेंगे, और उनके लिए अपने कर्तव्य निभाते समय साथ मिल कर काम करना नामुमकिन हो जाएगा। इसीलिए सत्य पर संगति करने के लिए आध्यात्मिक संचार और दिल से बात करने की सामर्थ्य जरूरी होती है। यह उन सिद्धांतों में से एक है जो ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए किसी में होना चाहिए।

जब कुछ लोग यह सुनते हैं कि ईमानदार बनने के लिए सत्य बोलना और दिल की बात कहना चाहिए, और अगर वे झूठ बोलें या धोखा दें तो उन्हें इस बारे में खुल कर बता देना चाहिए और अपनी गलती मान लेनी चाहिए, तो वे कहते हैं : “ईमानदार होना कठिन है। क्या मुझे हर वह चीज दूसरों को बता देनी चाहिए जो मैं सोचता हूँ? क्या सिर्फ सकारात्मक चीजों पर संगति करना काफी नहीं है? मुझे दूसरों को अपने काले या भ्रष्ट हिस्से के बारे में बताने की जरूरत नहीं है, है न?” अगर तुम खुद को दूसरों के सामने खोल कर पेश नहीं करते, और अपना विश्लेषण नहीं करते, तो तुम कभी खुद को नहीं जान पाओगे। तुम कभी नहीं पहचानोगे कि तुम किस किस्म की चीज हो, और दूसरे तुम पर कभी भरोसा नहीं कर पाएँगे। यह एक तथ्य है। अगर तुम चाहते हो कि दूसरे तुम पर भरोसा करें, तो पहले तुम्हें ईमानदार होना चाहिए। ईमानदार होने के लिए तुम्हें पहले अपना दिल खोल कर रखना चाहिए ताकि सभी उसके भीतर झाँक सकें, तुम्हारी सोच और तुम्हारा असली चेहरा देख सकें। तुम्हें बहुरुपिया बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, या खुद को छिपाना नहीं चाहिए। तभी दूसरे तुम पर भरोसा करेंगे, और तुम्हें ईमानदार व्यक्ति मानेंगे। यह सबसे बुनियादी अभ्यास है, और ईमानदार व्यक्ति बनने की पहली शर्त है। अगर तुम हमेशा बहाने बनाते हो, हमेशा पवित्रता, कुलीनता, महानता और उच्च चरित्र का दिखावा करते हो; अगर तुम लोगों को अपनी भ्रष्टता और खामियाँ नहीं देखने देते; अगर तुम लोगों को अपनी नकली छवि दिखाते हो, ताकि वे तुम्हारी सच्चाई पर यकीन करें, यह मानें कि तुम महान, आत्मत्यागी, न्यायप्रिय, और निस्वार्थ हो—तो क्या यह धोखेबाजी और झूठ नहीं है? क्या समय के साथ लोग तुम्हारी असलियत नहीं देख पाएँगे? तो बहुरुपिया मत बनो, खुद को मत छिपाओ। इसके बजाय दूसरों के देखने के लिए खुद को और अपना दिल खोल कर रख दो। अगर तुम दूसरों के देखने के लिए अपना दिल खोल कर रख सकते हो, अगर तुम अपने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के विचारों और योजनाओं को खोल कर रख सकते हो—तो क्या यह ईमानदारी नहीं है? अगर तुम दूसरों के देखने के लिए खुद को खोल कर रख सकते हो, तो परमेश्वर भी तुम्हें देखेगा। वह कहेगा : “अगर तुमने दूसरों के देखने के लिए खुद को खोल कर रख दिया है, तो तुम यकीनन मेरे समक्ष ईमानदार हो।” लेकिन अगर तुम दूसरे लोगों की दृष्टि से दूर होने पर सिर्फ परमेश्वर के सामने खुद को खोल कर रखते हो, और दूसरे लोगों के साथ होने पर हमेशा महान, कुलीन या निस्वार्थ होने का दिखावा करते हो, तो फिर परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या सोचेगा? वह क्या कहेगा? वह कहेगा : “तुम पूरी तरह धोखेबाज हो। पूरी तरह पाखंडी और दुष्ट हो, तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो।” परमेश्वर इस तरह तुम्हारी निंदा करेगा। अगर तुम ईमानदार बनना चाहते हो, तो तुम चाहे परमेश्वर के सामने रहो या दूसरे लोगों के सामने, तुम्हें अपनी भीतरी दशा और अपने दिल की बातों का शुद्ध और खुला हिसाब पेश करने में समर्थ होना चाहिए। क्या ऐसा कर पाना आसान है? इसके लिए कुछ समय तक प्रशिक्षण और परमेश्वर से अक्सर प्रार्थना कर उस पर भरोसा करने की जरूरत है। तुम्हें हर विषय पर अपने दिल की बात को सरल ढंग से खुलकर बोलने के लिए खुद को प्रशिक्षित करना होगा। ऐसे प्रशिक्षण से तुम तरक्की कर सकोगे। अगर तुम्हारे सामने कोई बड़ी मुश्किल आए तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य को खोजना चाहिए; जब तक कि तुम सत्य का अभ्यास न कर लो, तुम्हें अपने दिल में युद्ध कर देह को जीतना चाहिए। खुद को इस प्रकार प्रशिक्षित करने से थोड़ा-थोड़ा करके तुम्हारा दिल धीरे-धीरे खुल जाएगा। तुम और ज्यादा शुद्ध हो जाओगे, तुम्हारे कथन और कार्य के प्रभाव पहले से अलग होंगे। तुम्हारी झूठी बातें और चालबाजी धीरे-धीरे कम होती जाएँगी और तुम परमेश्वर के समक्ष जी पाओगे। फिर तुम अनिवार्य रूप से ईमानदार व्यक्ति बन चुके होगे।

शैतान द्वारा भ्रष्ट होकर पूरी मानवजाति शैतानी स्वभाव के साथ जीती है। शैतान की तरह लोग हर पहलू में भेस बदल कर खुद को बढ़िया ढंग से पेश करते हैं, और हर मामले में धोखाधड़ी और फायदे के खेल खेलते हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके लिए वे धोखाधड़ी और फायदे के खेल का सहारा नहीं लेते। कुछ लोग खरीदारी जैसी आम गतिविधियों में भी धोखाधड़ी के खेल खेलते हैं। मिसाल के तौर पर हो सकता है उन्होंने सबसे फैशनेबल पोशाक खरीदी हो, मगर—बहुत पसंद होने पर भी—वे उसे कलीसिया में पहनने की हिम्मत नहीं करते, इस डर से कि भाई-बहन उनके बारे में बातें बनाएँगे और उन्हें ओछा कहेंगे। इसलिए वे इसे दूसरों की पीठ पीछे पहनते हैं। यह कैसा बर्ताव है? यह धोखेबाज और छल करने के स्वभाव का खुलासा है। कोई फैशनेबल पोशाक खरीद कर भी भाई-बहनों के सामने पहनने की हिम्मत क्यों नहीं करेगा? फैशनेबल चीजें उनकी दिली पसंद हैं और वे गैर-विश्वासियों की ही तरह दुनिया के चलन के पीछे भागते हैं। वे डरते हैं कि भाई-बहन उनकी असलियत न जान लें, यह न देख लें कि वे कितने ओछे हैं, और वे एक सम्मानित और ईमानदार व्यक्ति नहीं हैं। दिल से वे फैशनेबल चीजों के पीछे भागते हैं, और उन्हें जाने देना उनके लिए मुश्किल होता है, इसलिए वे उन्हें सिर्फ घर पर ही पहन सकते हैं, और डरते हैं कि भाई-बहन उन्हें देख न लें। अगर उनकी पसंदीदा चीजें लोगों के सामने नहीं आ सकतीं, तो फिर वे उन्हें छोड़ क्यों नहीं सकते? क्या कोई शैतानी स्वभाव उनका नियंत्रण नहीं कर रहा है? वे निरंतर शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, सत्य को समझते हुए-से लगते हैं, फिर भी वे सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते। यह वह व्यक्ति है जो शैतानी स्वभाव के साथ जीता है। अगर कोई व्यक्ति कथनी और करनी दोनों में ढोंगी है, दूसरों को अपना असली रूप नहीं देखने देता, और दूसरों के सामने हमेशा एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति होने की छवि पेश करता है, तो फिर उसमें और किसी फरीसी में क्या फर्क है? ऐसे लोग एक वेश्या का जीवन जीना चाहते हैं, मगर साथ ही अपनी शुचिता का एक स्मारक भी बनवाना चाहते हैं। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि वे अपनी आकर्षक पोशाक जनता के बीच नहीं पहन सकते, तो फिर उन्होंने उसे खरीदा क्यों? क्या यह पैसे की बर्बादी नहीं थी? सिर्फ इसलिए कि उन्हें ऐसी चीज पसंद है और उनका पोशाक पर दिल आ गया था, उन्हें लगा कि यह खरीद लेनी चाहिए। लेकिन खरीद लेने के बाद वे इसे बाहर नहीं पहन सकते। कुछ साल गुजर जाने के बाद, उन्हें इसे खरीदने पर पछतावा होता है, एकाएक उन्हें एहसास होता है : “मैं इतना मूर्ख कैसे था, इतना घिनौना कि मैंने यह किया?” अपने कृत्य पर उन्हें खुद भी घृणा होती है। लेकिन वह अपने कार्यों को नियंत्रित नहीं कर सकते क्योंकि वह उन चीजों को जाने नहीं दे सकते जिन्हें वह पसंद करते हैं, और जिनके पीछे भागते हैं। इसलिए वह खुद को संतुष्ट करने के लिए दोमुँही युक्ति और चाल चलते हैं। अगर वे ऐसे तुच्छ मामले में धोखेबाजी वाला स्वभाव दिखाते हैं, तो कोई बड़ा मामला आने पर क्या वे सत्य पर अमल कर पाएँगे? यह नामुमकिन होगा। स्पष्ट है कि धोखेबाज होना उनकी प्रकृति है, और धोखेबाजी उनकी दुखती रग है। एक छह-सात साल का बच्चा था जिसने एक बार अपने परिवार के साथ कुछ बढ़िया खा लिया। जब दूसरे बच्चों ने उससे पूछा कि उसने क्या खाया, तो बच्चे ने आँखें झपका कर कहा, “मैं भूल गया,” जबकि दरअसल वह बस उन्हें बताना नहीं चाहता था। क्या अभी-अभी खाई हुई चीज वह भूल चुका होगा? यह छह-सात साल का बच्चा झूठ बोलने में सक्षम था। क्या यह कोई ऐसी चीज थी जो बड़ों ने उसे सिखाई? क्या यह उसके घर के माहौल का असर था? नहीं—यह मनुष्य की प्रकृति है, उसकी विरासत; मनुष्य धोखेबाज स्वभाव के साथ पैदा होता है। दरअसल बच्चे ने जो भी बढ़िया चीज खाई हो, ऐसा करना सामान्य बात थी। उसके माता-पिता ने उसके लिए यह बनाया था; उसने किसी और का खाना नहीं चुराया था। अगर ऐसे हालात में यह बच्चा झूठ बोल सका, जबकि ऐसा करना बिल्कुल भी जरूरी नहीं था, तो क्या उसका दूसरे मामलों में झूठ बोलना और ज्यादा मुमकिन नहीं है? यह कौन-सी समस्या दर्शाता है? क्या यह उसकी प्रकृति की समस्या नहीं है? वह बच्चा अब बड़ा हो चुका है, और झूठ बोलना उसकी प्रकृति बन चुकी है। वह सचमुच एक धोखेबाज व्यक्ति है; बिल्कुल बचपन से ही उसमें यह देखा जा सकता था। धोखेबाज लोग दूसरों से झूठ बोलने और चालबाजी करने से बच नहीं सकते, और उनकी झूठी बातें और चालबाजी किसी भी जगह और वक्त दिखाई दे सकती हैं। उन्हें यह सीखने की जरूरत नहीं कि ये चीजें कैसे करें, या ये करने के लिए उन्हें उकसाए जाने की जरूरत नहीं है—वे ऐसा करने की क्षमता के साथ ही पैदा होते हैं। अगर वह बच्चा उतनी कच्ची उम्र में झूठ बोलकर लोगों से चाल चल सकता था, तो क्या झूठ बोलना सचमुच उसका एकबारगी का अपराध हो सकता था? यकीनन नहीं। यह दिखाता है कि वह प्रकृति सार से एक धोखेबाज व्यक्ति है। क्या ऐसी सरल चीज जान लेना आसान नहीं है? अगर कोई बचपन से ही झूठ बोलता रहा हो, अक्सर झूठ बोलता हो, जरूरत न होने पर भी सरल मामलों में लोगों से झूठ बोलकर उनसे चालबाजी करता हो, और झूठ बोलना उसकी प्रकृति बन गई हो, तो उसके लिए बदलना आसान नहीं होगा। वह प्रामाणिक रूप से धोखेबाज व्यक्ति है। ऐसा क्यों कहते हैं कि धोखेबाज लोग बचाए नहीं जा सकते? चूँकि उनके सत्य स्वीकारने की संभावना नहीं होती, इसलिए संभवतः उन्हें शुद्ध कर परिवर्तित नहीं किया जा सकता। परमेश्वर का उद्धार पा सकने वाले लोग अलग होते हैं। शुरुआत से ही वे अपेक्षाकृत निष्कपट होते हैं, और अगर वे छोटा-सा झूठ बोल भी दें, तो मुमकिन है वे झेंप कर परेशान हो जाएँगे। ऐसे किसी व्यक्ति के लिए ईमानदार बनना आसान है : अगर तुम उससे झूठ बोलने या धोखा देने को कहोगे, तो उसे मुश्किल होगी। झूठ बोले तो भी सारे शब्द नहीं बोल पाएगा, और सबको तुरंत पता चल जाएगा। ऐसे लोग अपेक्षाकृत सरल होते हैं, और अगर वे सत्य को स्वीकार कर पाएँ तो उनके उद्धार प्राप्त करने संभावना ज्यादा होगी। इस किस्म का व्यक्ति सिर्फ खास हालात में ही झूठ बोलता है, जब वह मुसीबत में फँस गया हो। आम तौर पर, ऐसे लोग हमेशा सत्य बोलने में सक्षम होते हैं। अगर वे सत्य का अनुसरण करते हैं, तो भ्रष्टता के इस पहलू को कुछ वर्ष के प्रयासों से त्याग सकेंगे, और फिर उनके लिए ईमानदार बनना मुश्किल नहीं होगा।

ईमानदार लोगों के लिए परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानक क्या है? परमेश्वर की अपेक्षाएँ परमेश्वर के वचनों के इस अध्याय तीन चेतावनियाँ में किस तरह दी गई हैं? (“ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और मात्र परमेश्वर की चापलूसी करने के लिए चीज़ें न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना। ... यदि तुम्हारी बातें बहानों और महत्वहीन तर्कों से भरी हैं, तो मैं कहता हूँ कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अभ्यास करने से घृणा करता है। यदि तुम्हारे पास ऐसे बहुत-से गुप्त भेद हैं जिन्हें तुम साझा नहीं करना चाहते, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा और तुम सरलता से अंधकार से बाहर नहीं निकल पाओगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य)।) यहाँ एक विशेष रूप से महत्वपूर्ण वाक्य है। क्या तुम लोग देख सकते हो कि वह क्या है? (परमेश्वर कहते हैं : “यदि तुम्हारे पास ऐसे बहुत-से गुप्त भेद हैं जिन्हें तुम साझा नहीं करना चाहते, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा और तुम सरलता से अंधकार से बाहर नहीं निकल पाओगे।”) सही, इतना ही। परमेश्वर कहता है : “अगर तुम्हारी बातें बड़ी गोपनीय हैं, जिन्हें तुम साझा नहीं करना चाहते।” लोगों ने ऐसे बहुत-से काम किए होते हैं जिनके बारे में वे बात करने की हिम्मत नहीं रखते, और उनके बहुत-से काले हिस्से होते हैं। उनके कोई दैनिक कार्य परमेश्वर के वचन के अनुरूप नहीं होते, और वे दैहिक इच्छाओं से विद्रोह नहीं करते। वे बस अपने मन की करते हैं, और अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी उन्होंने सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है। “यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा और तुम सरलता से अंधकार से बाहर नहीं निकल पाओगे।” यहाँ परमेश्वर ने इंसानों को अभ्यास का मार्ग दिखाया है। अगर तुम इस प्रकार अभ्यास नहीं करते, सिर्फ नारे और धर्म-सिद्धांत चिल्लाते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसे आसानी से उद्धार नहीं मिलेगा। यह सचमुच उद्धार से जुड़ा हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए बचाया जाना बहुत महत्वपूर्ण है। क्या परमेश्वर ने कहीं और “आसानी से उद्धार प्राप्त न होने” का जिक्र किया है? कहीं और वह विरले ही इस बात का संदर्भ देता है कि बचाया जाना कितना मुश्किल है, लेकिन वह इसकी बात ईमानदार होने के बारे में बताते समय जरूर करता है। अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो, जिसे बचाना बहुत मुश्किल है। “आसानी से उद्धार प्राप्त न होना” का अर्थ है कि अगर तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते, तो तुम्हारा बचाया जाना मुश्किल होगा। तुम उद्धार का सही मार्ग पकड़ने के लायक नहीं रहोगे, और इसलिए तुम्हारा बचाया जाना नामुमकिन होगा। परमेश्वर इस वाक्यांश का प्रयोग लोगों को थोड़ी छूट देने के लिए करता है। जिसका भावार्थ है : तुम्हें बचाना आसान नहीं है, लेकिन अगर तुम परमेश्वर के वचनों पर अमल करो, तो तुम्हें उद्धार पाने की आशा होगी। यही इसका सीधा अर्थ है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं करते, कभी अपने रहस्यों और अपनी चुनौतियों का गहन विश्लेषण नहीं करते, दूसरों के सामने संगति में कभी खुल कर पेश नहीं आते, न संगति करते हो, न गहन विश्लेषण, न ही अपनी भ्रष्टता और घातक खामियों को सामने लाते हो, तो तुम बचाए नहीं जा सकते। ऐसा क्यों है? अगर तुम इस तरह खुद को खोल कर पेश नहीं करते या अपना विश्लेषण नहीं करते, तो तुम अपने ही भ्रष्ट स्वभाव से घृणा नहीं करोगे, और इसलिए तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव कभी नहीं बदलेगा। और अगर तुम बदल ही नहीं सकते, तो बचाए जाने के बारे में सोच भी कैसे सकते हो? परमेश्वर के वचन यह साफ तौर पर दिखाते हैं, और ये वचन परमेश्वर का इरादा दर्शाते हैं। परमेश्वर हमेशा इस बात पर जोर क्यों देता है कि लोगों को ईमानदार होना चाहिए? चूँकि ईमानदार होना बहुत महत्वपूर्ण है—इसका सीधा संबंध इस बात से है कि कोई व्यक्ति परमेश्वर को समर्पित हो सकता है या नहीं और वह उद्धार प्राप्त कर सकता है या नहीं। कुछ लोग कहते हैं : “मैं अहंकारी और आत्म-तुष्ट हूँ, और मैं अक्सर नाराज होकर भ्रष्टता दिखाता हूँ।” दूसरे कहते हैं : “मैं बहुत ओछा हूँ, तुच्छ हूँ, और जब लोग मेरी चापलूसी करते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है।” ये तमाम चीजें हैं जो लोगों को बाहर से दिखाई देती हैं, और ये बड़ी समस्याएँ नहीं हैं। तुम्हें इनके बारे में बोलते नहीं रहना चाहिए। तुम्हारा स्वभाव या चरित्र चाहे जैसा हो, अगर तुम परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार ईमानदार बन पाते हो, तो तुम्हें बचाया जा सकेगा। तो तुम सब क्या कहते हो? क्या ईमानदार होना महत्वपूर्ण है? यह सबसे महत्वपूर्ण चीज है, इसीलिए परमेश्वर अपने वचनों के अध्याय तीन चेतावनियाँ में ईमानदार होने के बारे में बात करता है। अन्य अध्यायों में, वह अक्सर जिक्र करता है कि विश्वासियों को सामान्य आध्यात्मिक जीवन और उचित कलीसिया जीवन बिताना चाहिए, और वह वर्णन करता है कि उन्हें सामान्य मानवता के साथ कैसे जीना चाहिए। इन विषयों पर उसके वचन सामान्य हैं; उन पर विशिष्ट रूप से या बहुत विस्तार से चर्चा नहीं की गई है। लेकिन जब परमेश्वर ईमानदार होने के बारे में बोलता है, तो वह लोगों को चलने का मार्ग दिखाता है। वह लोगों को बताता है कि अभ्यास कैसे करें, और वह बहुत विस्तार और स्पष्टता से बोलता है। परमेश्वर कहते हैं : “यदि तुम्हारे पास ऐसे बहुत-से गुप्त भेद हैं जिन्हें तुम साझा नहीं करना चाहते, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा।” ईमानदार होने का संबंध उद्धार प्राप्त करने से है। तो तुम सब क्या कहते हो, परमेश्वर लोगों के ईमानदार होने की माँग क्यों करता है? यह मानव आचरण के सत्य को छूता है। परमेश्वर ईमानदार लोगों को बचाता है, और जिन्हें वह अपने राज्य के लिए चाहता है, वे ईमानदार लोग होते हैं। अगर तुम झूठ और चालबाजी में सक्षम हो, धोखेबाज, कुटिल और छली व्यक्ति हो; तो तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो। अगर तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, तो इसकी कोई संभावना नहीं है कि परमेश्वर तुम्हें बचाएगा, न ही संभवतः तुम्हें बचाया जा सकेगा। तुम कहते हो कि अब तुम बहुत पवित्र हो, अहंकारी या आत्मतुष्ट नहीं हो, अपना कर्तव्य निभाते समय कीमत चुका सकने में समर्थ हो, या सुसमाचार फैलाकर अनेक लोगों का धर्म-परिवर्तन कर सकते हो। लेकिन अगर तुम ईमानदार नहीं हो, अभी भी धोखेबाज हो, बिल्कुल नहीं बदले हो, तो क्या तुम्हें बचाया जा सकेगा? बिल्कुल नहीं। इसलिए परमेश्वर के ये वचन सभी को याद दिलाते हैं कि बचाए जाने के लिए उन्हें पहले परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार ईमानदार बनना पड़ेगा। उन्हें खुद को खोलकर अपने भ्रष्ट स्वभाव, अपने इरादे और रहस्य दिखाने होंगे, और प्रकाश के मार्ग को खोजना होगा। “प्रकाश के मार्ग को खोजने” का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है अपने भ्रष्ट स्वभाव को हल करने के लिए सत्य को खोजना। जब तुम अपने कार्यों के पीछे की अपनी भ्रष्टता, अपने लक्ष्य और इरादे खुल कर दिखा देते हो, अपना विश्लेषण भी करते हो, जिसके बाद तुम खोजते हो : “मैंने वह काम क्यों किया? क्या इसमें परमेश्वर के वचनों का कोई आधार है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? ऐसा करके क्या मैं जानबूझ कर कुछ गलत कर रहा हूँ? क्या मैं परमेश्वर को धोखा दे रहा हूँ? अगर मैं परमेश्वर को धोखा दे रहा हूँ, तो मुझे यह नहीं करना चाहिए; मुझे गौर करना चाहिए कि परमेश्वर क्या अपेक्षा रखता है, और वह क्या कहता है, और पता लगाना चाहिए कि सत्य सिद्धांत क्या हैं।” यही है सत्य को खोजने का अर्थ; प्रकाश में चलने के यही मायने हैं। जब लोग इसका नियमित रूप से अभ्यास कर पाते हैं, तभी वे सच में बदल पाते हैं, और तब वे उद्धार प्राप्त कर पाते हैं।

परमेश्वर का लोगों से ईमानदार बनने का आग्रह करना यह साबित करता है कि वह धोखेबाज लोगों से सचमुच घृणा करता है, उन्हें नापसंद करता है। धोखेबाज लोगों के प्रति परमेश्वर की नापसंदगी उनके काम करने के तरीके, उनके स्वभावों, उनके इरादों और उनकी चालबाजी के तरीकों के प्रति नापसंदगी है; परमेश्वर को ये सब बातें नापसंद हैं। यदि धोखेबाज लोग सत्य स्वीकार कर लें, अपने धोखेबाज स्वभाव को मान लें और परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने को तैयार हो जाएँ, तो उनके बचने की उम्मीद भी बँध जाती है, क्योंकि परमेश्वर सभी लोगों के साथ समान व्यवहार करता है, जैसा कि सत्य करता है। और इसलिए, यदि हम परमेश्वर को प्रसन्न करने वाले लोग बनना चाहें, तो सबसे पहले हमें अपने व्यवहार के सिद्धांतों को बदलना होगा : अब हम शैतानी फलसफों के अनुसार नहीं जी सकते, हम झूठ और चालबाजी के सहारे नहीं चल सकते। हमें अपने सारे झूठ त्यागकर ईमानदार बनना होगा। तब हमारे प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण बदलेगा। पहले लोग दूसरों के बीच रहते हुए हमेशा झूठ, ढोंग और चालबाजी पर निर्भर रहते थे, और शैतानी फलसफों को अपने अस्तित्व, जीवन और आचरण की नींव की तरह इस्तेमाल करते थे। इससे परमेश्वर को घृणा थी। गैर-विश्वासियों के बीच यदि तुम खुलकर बोलते हो, सच बोलते हो और ईमानदार रहते हो, तो तुम्हें बदनाम किया जाएगा, तुम्हारी आलोचना की जाएगी और तुम्हें त्याग दिया जाएगा। इसलिए तुम सांसारिक चलन का पालन करते हो और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हो; तुम झूठ बोलने में ज्यादा-से-ज्यादा माहिर और अधिक से अधिक धोखेबाज होते जाते हो। तुम अपना मकसद पूरा करने और खुद को बचाने के लिए कपटपूर्ण साधनों का उपयोग करना भी सीख जाते हो। तुम शैतान की दुनिया में समृद्ध होते चले जाते हो और परिणामस्वरूप, तुम पाप में इतने गहरे गिरते जाते हो कि फिर उसमें से खुद को निकाल नहीं पाते। परमेश्वर के घर में चीजें ठीक इसके विपरीत होती हैं। तुम जितना अधिक झूठ बोलते और कपटपूर्ण खेल खेलते हो, परमेश्वर के चुने हुए लोग तुमसे उतना ही अधिक ऊब जाते हैं और तुम्हें त्याग देते हैं। यदि तुम पश्चाताप नहीं करते, अब भी शैतानी फलसफों और तर्क से चिपके रहते हो, अपना भेस बदलकर खुद को बढ़िया दिखाने के लिए चालें चलते और बड़ी-बड़ी साजिशें रचते हो, तो बहुत संभव है कि तुम्हारा खुलासा कर तुम्हें हटा दिया जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर धोखेबाज लोगों से घृणा करता है। केवल ईमानदार लोग ही परमेश्वर के घर में समृद्ध हो सकते हैं, धोखेबाज लोगों को अंततः त्याग कर हटा दिया जाता है। यह सब परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित कर दिया है। केवल ईमानदार लोग ही स्वर्ग के राज्य में साझीदार हो सकते हैं। यदि तुम ईमानदार व्यक्ति बनने की कोशिश नहीं करोगे, सत्य का अनुसरण करने की दिशा में अनुभव प्राप्त नहीं करोगे और अभ्यास नहीं करोगे, यदि अपना भद्दापन उजागर नहीं करोगे और यदि खुद को खोल कर पेश नहीं करोगे, तो तुम कभी भी पवित्र आत्मा का कार्य और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर पाओगे। चाहे तुम कुछ भी करो, या कोई भी कर्तव्य निभाओ, तुम्हारा रवैया ईमानदार होना चाहिए। ईमानदार रवैये के बिना तुम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभा सकते। अगर तुम अपना कर्तव्य हमेशा लापरवाही से निभाते हो, और तुम कोई काम अच्छी तरह नहीं कर पाते, तो तुम्हें आत्मचिंतन कर खुद को जानना चाहिए, और अपना गहन विश्लेषण करने के लिए खुल जाना चाहिए। फिर तुम्हें सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए, और अगली बार लापरवाह होने के बजाय बेहतर करने की कोशिश करनी चाहिए। अगर तुम कोशिश नहीं करते, और ईमानदार हृदय से परमेश्वर को संतुष्ट नहीं करते और हमेशा अपनी देह या स्वाभिमान को संतुष्ट करने पर ध्यान देते हो, तो क्या तुम कोई अच्छा काम कर पाओगे? क्या तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा पाओगे? यकीनन नहीं। धोखेबाज लोग अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा सतही होते हैं; उनके पास कोई भी कर्तव्य हो वे उसे अच्छे ढंग से नहीं निभाते, और ऐसे लोगों के लिए उद्धार पाना बहुत कठिन होता है। मुझे बताओ—जब धोखेबाज लोग सत्य को अभ्यास में लाते हैं, तो क्या वे धोखा देते हैं? सत्य को अभ्यास में लाने के लिए उन्हें कीमत चुकानी होती है, अपने निजी हितों को छोड़ना पड़ता है, और दूसरों के सामने खुद को खोल कर पेश करना होता है। लेकिन वे कुछ चीजें रोक लेते हैं; बोलते समय वे आधा ही बताते हैं, और बाकी रोक लेते हैं। दूसरों को हमेशा अंदाजा लगाना होता है कि उनका अर्थ क्या है, उनकी बातों का अर्थ समझने के लिए उन्हें तार जोड़ने पड़ते हैं। वे हमेशा पैंतरेबाजी के लिए स्थान और गुंजाइश रखते हैं। जब दूसरों का ध्यान जाता है कि वे धोखेबाज हैं, तो वे उनसे कोई सरोकार नहीं रखना चाहते, और वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनसे सावधान रहते हैं। वे झूठ बोलते और छल करते हैं, और दूसरे लोग उनकी बातों में सच क्या है, झूठ क्या है या वे बातें कितनी मिलावटी हैं, यह न जानने के कारण उन पर भरोसा नहीं कर सकते। वे दूसरों से किए गए अपने वायदों से अक्सर मुकर जाते हैं, और उनकी उनके दिलों में कोई जगह नहीं होती। फिर परमेश्वर के हृदय में क्या होता है? परमेश्वर उन्हें किस तरह से देखता है? परमेश्वर उनसे और भी ज्यादा घृणा करता है, क्योंकि परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराई की पड़ताल करता है। मनुष्य सिर्फ वही देख सकते हैं जो सतह पर है, मगर परमेश्वर ज्यादा सही ढंग से, ज्यादा गहराई से और ज्यादा वास्तविकता से देखता है।

चाहे तुम जितने भी समय से विश्वासी रहे हो, तुम्हारा कर्तव्य जो भी हो या तुम जो भी काम करते हो, तुम्हारी काबिलियत ऊँची हो या नीची, तुम्हारा चरित्र अच्छा हो या बुरा, अगर तुम सत्य को स्वीकार सकते हो, और ईमानदार बनने की कोशिश करते हो, तो यकीनन तुम्हें फल मिलेगा। कुछ लोग जो ईमानदार बनने की कोशिश नहीं करते, वे सोचते हैं कि अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा लेना ही काफी है। उनसे मैं कहता हूँ, “तुम कभी भी अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने में सक्षम नहीं होगे।” कुछ और लोग सोचते हैं कि ईमानदार व्यक्ति होना कोई बड़ी बात नहीं है, परमेश्वर के इरादों के अनुसार सेवा करने का प्रयास करना उससे बड़ा कार्य है, और यही परमेश्वर को संतुष्ट करने का एकमात्र तरीका है। तो आगे बढ़ो और आजमा लो—देखो कि क्या ईमानदार व्यक्ति हुए बिना तुम परमेश्वर के इरादों के अनुसार सेवा कर सकते हो। दूसरे लोग ईमानदार बनने की कोशिश नहीं करते, बल्कि हर दिन प्रार्थना कर, सभाओं में समय पर जाकर परमेश्वर के वचनों को खा-पीकर और गैर-विश्वासियों की तरह न रहकर संतुष्ट हो जाते हैं। जब तक वे व्यवस्था भंग नहीं करते, या कुछ बुरा नहीं करते, यह काफी होता है। लेकिन क्या परमेश्वर को इस तरह संतुष्ट किया जा सकता है? अगर तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो तो परमेश्वर को कैसे संतुष्ट कर सकते हो? अगर तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो तो सही किस्म के इंसान नहीं हो। अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो कुटिल और धोखेबाज हो। तुम लापरवाही से काम करते हो, हर तरह की भ्रष्टता दिखाते हो, और चाह कर भी तुम सत्य पर अमल नहीं कर पाते। ईमानदार व्यक्ति होने से परे हर चीज का अर्थ यही है कि कोई भी काम अच्छे ढंग से नहीं किया जाता—तुम किसी भी तरह परमेश्वर को समर्पित नहीं हो पाओगे या उसे संतुष्ट नहीं कर पाओगे। ईमानदारी के रवैये के बिना किए अपने किसी भी काम से तुम परमेश्वर को कैसे संतुष्ट कर सकते हो? अगर तुम ईमानदार रवैये के बिना अपना कर्तव्य करते हो, तो परमेश्वर को संतुष्ट कैसे कर सकते हो? क्या तुम इसे उचित ढंग से कर सकते हो? तुम हमेशा अपनी देह और अपनी संभावनाओं के बारे में सोचते रहते हो, तुम हमेशा अपनी देह की तकलीफें घटाना चाहते हो, खुद को कम खपाना चाहते हो, कम त्याग करना चाहते हो, और कम कीमत चुकाना चाहते हो। तुम हमेशा कुछ रोक कर रखते हो। यह धोखेबाजी का रवैया है। परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के मामले में भी कुछ लोग स्वार्थ दिखाते हैं। वे कहते हैं : “मुझे भविष्य में आराम से रहना है। अगर परमेश्वर का कार्य कभी खत्म न हुआ तो क्या होगा? मैं अपना सौ फीसदी उसे नहीं दे सकता; मुझे यह भी नहीं मालूम कि परमेश्वर का दिन कब आएगा। मुझे स्वार्थी होना चाहिए, परमेश्वर के लिए खुद को खपाने से पहले मुझे अपने पारिवारिक जीवन और अपने भविष्य की व्यवस्थाएँ करनी हैं।” क्या ऐसा सोचने वाले बहुत-से लोग हैं? यह कैसा स्वभाव है जब कोई स्वार्थी होकर आकस्मिकता की योजनाएँ बनाता है? क्या ये लोग परमेश्वर के लिए वफादार हैं? क्या ये लोग ईमानदार हैं? स्वार्थी होना और आकस्मिकता की योजनाएँ बनाना परमेश्वर के साथ एकदिल होना नहीं है। यह धोखेबाज स्वभाव है, और ऐसा करने वाले लोग धोखेबाजी के साथ काम करते हैं। जिस रवैये से वे परमेश्वर के साथ पेश आते हैं वह यकीनन ईमानदार नहीं है। कुछ लोग डरते हैं कि उनसे बातचीत करते वक्त या मिलते-जुलते वक्त भाई-बहन उनकी समस्याएँ समझ जाएँगे और कहेंगे कि उनका आध्यात्मिक कद छोटा है, या वे उन्हें नीची नजर से देखेंगे। इसलिए बोलते समय वे हमेशा यह छाप छोड़ने की कोशिश करते हैं कि वे बहुत जोशीले हैं, कि वे परमेश्वर के लिए लालायित हैं, और सत्य पर अमल करने की उनकी तीव्र इच्छा है। लेकिन भीतर से वे वास्तव में बेहद कमजोर और निराश होते हैं। वे शक्तिशाली होने का ढोंग करते हैं ताकि कोई उनकी असलियत न जान सके। यह भी धोखा है। संक्षेप में, जीवन में या किसी कर्तव्य के निर्वहन में तुम जो भी करते हो, अगर तुम लोगों से झूठ बोलते और दिखावा करते हो या दूसरों को गुमराह करते या धोखा देते हो, उनसे आदर और आराधना करवाते हो कि वे तुम्हें हेय दृष्टि से न देखें, तो यह सब धोखा ही है। कुछ महिलाएँ अपने पतियों से बहुत प्यार करती हैं, जबकि असल में उनके पति राक्षस और छद्म-विश्वासी हैं। भाई-बहनों के यह कहने के डर से कि उसका प्यार बहुत गहरा है, ऐसी महिला खुद सबसे पहले कह देती है : “मेरा पति दानव है।” लेकिन उसके दिल में यह बात होती है : “मेरा पति नेक इंसान है।” पहले वाले बोल उसके होंठों से जरूर निकले थे, मगर वे सिर्फ दूसरों के सुनने के लिए थे, ताकि वे समझें कि वह अपने पति को अच्छी तरह जानती है। दरअसल उसकी बात का अर्थ है : “इस मामले को सामने मत लाओ। मैं पहले ही यह विचार व्यक्त कर दूँगी ताकि तुम लोगों को इसका जिक्र न करना पड़े। मैंने पहले ही अपने पति का दानव रूप उजागर कर दिया है, तो इसका अर्थ है कि मैंने अपने प्यार को जाने दिया है और तुम लोगों के पास इस बारे में कहने को कुछ नहीं बचेगा।” क्या यह कपटी होना नहीं है? क्या यह एक मुखौटा नहीं है? अगर तुम यह करते हो तो तुम दिखावा करके लोगों को धोखा दे रहे हो और गुमराह कर रहे हो। तुम हर मोड़ पर फायदे के खेल खेल रहे हो, चालें चल रहे हो, ताकि दूसरे जो देखें वह तुम्हारी नकली छवि हो, असली चेहरा नहीं। यह डरावना है; यह इंसान की धोखेबाजी है। चूँकि तुमने मान लिया है कि तुम्हारा पति एक दानव है, तो फिर तुम उससे तलाक क्यों नहीं ले लेतीं? उस दानव, उस शैतान को ठुकरा क्यों नहीं देतीं? यह कह कर भी कि तुम्हारा पति दानव है, तुम अपना जीवन उसके साथ बिताए जा रही हो—यह दर्शाता है कि तुम्हें दानव पसंद हैं। तुम अपने मुँह से कहती हो कि वह दानव है, मगर दिल से यह स्वीकार नहीं करतीं। इसका अर्थ है कि तुम दूसरों को धोखा दे रही हो, उनकी आँखों में धूल झोंक रही हो। इससे यह भी पता चलता है कि दानवों के साथ तुम्हारी सांठ-गाँठ है, तुम उन्हें बचा रही हो। अगर तुम सत्य का अभ्यास करने वाली होतीं, तो यह मानते ही कि तुम्हारा पति दानव है तुम उसे तलाक दे देतीं। तब तुम गवाही दे पातीं, और इससे यह दिखाई देता कि तुम अपने और दानव के बीच साफ अंतर कर रही थीं। लेकिन दुर्भाग्य से तुम न सिर्फ वह अंतर करने में असफल रही हो, बल्कि एक दानव के साथ अपने दिन गुजार रही हो, और भाई-बहनों को झूठ और चालबाजी से गुमराह कर रही हो। इससे साबित होता है कि तुम दानव जैसी ही हो, एक और झूठ बोलने वाली दानव हो। कहते हैं कि महिला जिस पुरुष से शादी करे उसके पीछे चले, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता। चूँकि तुमने एक दानव से शादी की और कभी उससे मुँह नहीं मोड़ा, तो इससे साबित होता है कि तुम भी एक दानव हो। तुम दानव की हो, मगर यह साबित करने के लिए कि तुम परमेश्वर की हो, तुम अपने पति को दानव बताती हो—क्या यह झूठ बोलने और धोखा देने की चाल नहीं है? तुम्हें सत्य अच्छी तरह मालूम है, लेकिन फिर भी दूसरों की आँखों में धूल झोंकने के लिए ऐसे उपाय इस्तेमाल करती हो। यह छल है; धोखेबाजी है। तमाम छली और धोखेबाज लोग पूरी तरह से दानव होते हैं।

सबका स्वभाव भ्रष्ट होता है। अगर तुम आत्मचिंतन करो, तो तुम्हें कुछ ऐसी दशाएँ और अभ्यास साफ दिखेंगे जिनमें तुम दूसरों पर नकली छाप छोड़ते हो या धोखेबाजी से काम लेते हो; तुम सभी के ऐसे दौर होते हैं जब तुम दिखावा करते हो या पाखंडी हो जाते हो। कुछ लोग कहते हैं : “फिर मेरा ध्यान क्यों नहीं गया? मैं एक निष्कपट व्यक्ति हूँ। मुझे इस दुनिया में बहुत डराया-धमकाया गया है, ठगा गया है, और मैंने एक बार भी धोखा नहीं किया। मैं बस अपने दिल की बात कहता हूँ।” इससे अभी भी यह साबित नहीं होता कि तुम ईमानदार हो। संभव है तुम बस नासमझ हो, ज्यादा शिक्षित नहीं हो, या हो सकता है समूहों में तुम आसानी से धकियाए जाते हो, या संभव है तुम अपने कामों में दिमाग न लगाने वाले अनाड़ी कायर हो, जिसके पास कम कौशल हैं, और तुम समाज के निचले तबके से हो—फिर भी इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम ईमानदार हो। ईमानदार इंसान वह है जो सत्य को स्वीकार कर सकता है—न कि एक दयनीय, नाकारा, बेवकूफ और निष्कपट व्यक्ति। तुम लोगों को ये चीजें समझने में सक्षम होना चाहिए, है न? मैं अक्सर कुछ लोगों को यह कहते हुए सुनता हूँ : “मैं कभी झूठ नहीं बोलता—मुझ से ही लोग झूठ बोलते हैं। मुझे हमेशा लोगों द्वारा धकियाया जाता है। परमेश्वर ने कहा कि वह जरूरतमंद लोगों को गोबर के ढेर से ऊपर उठाता है, और मैं उन्हीं लोगों में से एक हूँ। यह परमेश्वर का अनुग्रह है। परमेश्वर हम जैसे लोगों पर तरस खाता है, निष्कपट लोग जिनका समाज में स्वागत नहीं होता। यह सचमुच परमेश्वर की दया है!” परमेश्वर की इस बात का कि वह जरूरतमंद लोगों को गोबर के ढेर से ऊपर उठाता है, एक व्यवहारिक पक्ष भी है। हालाँकि तुम उसे पहचान सकते हो, मगर इससे यह साबित नहीं होता कि तुम ईमानदार व्यक्ति हो। असल में कुछ लोग निरे कमअक्ल होते हैं, बेवकूफ होते हैं; वे बिना किसी कौशल के मूर्ख होते हैं, कम काबिलियत वाले, जिन्हें सत्य की कोई समझ नहीं होती। ऐसे व्यक्ति का परमेश्वर द्वारा बताए गए ईमानदार लोगों से कोई संबंध नहीं है। मामला यही है कि परमेश्वर जरूरतमंद लोगों को गोबर के ढेर से ऊपर उठाता है, लेकिन बेवकूफ और मूर्ख लोग ऊपर नहीं उठाए जाते। तुम्हारी काबिलियत सहज ही बहुत कम है, और तुम बेवकूफ हो, नाकारा हो, और हालाँकि तुम एक गरीब परिवार में पैदा हुए थे, और समाज के निचले तबके के सदस्य हो, फिर भी तुम परमेश्वर के उद्धार का लक्ष्य नहीं हो। सिर्फ इसलिए कि तुमने बहुत कष्ट सहे हैं और समाज में भेदभाव झेले हैं, सिर्फ इसलिए कि सभी लोगों ने तुम्हें धकिया कर धोखा दिया है, यह मत सोचो कि इससे तुम ईमानदार बन जाते हो। अगर तुम ऐसा सोचते हो, तो बड़ी गलतफहमी में हो। क्या तुम्हें इस बारे में कुछ गलतफहमियाँ या विकृत समझ हैं कि ईमानदार व्यक्ति कौन होता है? क्या इस संगति से तुम लोगों को थोड़ी स्पष्टता मिली है? ईमानदार व्यक्ति होना वैसा नहीं है जैसा लोग सोचते हैं; यह सीधी बात करने वाला नहीं होता, जो गोल-मोल बातें करने से दूर रहता है। हो सकता है कोई व्यक्ति स्वाभाविक रूप से सच्चा हो, मगर इसका यह अर्थ नहीं है कि वह चालबाजी या धोखा नहीं करता। सभी भ्रष्ट लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है, जो कपटी और धोखेबाज होता है। जब लोग इस दुनिया में शैतान के प्रभाव में जीते हैं, उसकी ताकत से शासित और नियंत्रित होते हैं, तो उनके लिए ईमानदार होना नामुमकिन हो जाता है। वे सिर्फ और ज्यादा धोखेबाज बन सकते हैं। भ्रष्ट मानवता के बीच जीते हुए ईमानदार व्यक्ति होने में यकीनन कई मुश्किलें होती हैं। हमारा मजाक उड़ाया जा सकता है, तिरस्कार हो सकता है, आलोचना हो सकती है, गैर-विश्वासियों, दानव राजाओं और जीवित राक्षसों द्वारा हमें बहिष्कृत कर खदेड़ा जा सकता है। तो क्या इस दुनिया में ईमानदार बन कर जीवित रहना संभव है? क्या इस दुनिया में हमारे जीवित रहने की कोई जगह है? हाँ, है। यकीनन हमारे लिए जीवित रहने की जगह है। परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित कर हमें चुना है और वह निश्चित रूप से हमारे लिए एक रास्ता खोल देता है। हम परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, पूरी तरह से उसके मार्गदर्शन में उसका अनुसरण करते हैं, और पूरी तरह से उसकी दी हुई साँस और जीवन के भरोसे जीते हैं। चूँकि हमने परमेश्वर के वचनों का सत्य स्वीकार कर लिया है, इसलिए हमारे पास जीने के तरीके के नए नियम हैं, और हमारे जीवन के लिए नए लक्ष्य हैं। हमारे जीवन की बुनियादें बदल दी गई हैं। सिर्फ सत्य हासिल करने और बचाए जाने की खातिर हमने जीने की नई शैली और अपने आचरण की नई विधि अपना ली है। हमने नई जीवन शैली अपना ली है : हम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए जीते हैं। हम जो खाते हैं, पहनते हैं, या जहाँ रहते हैं, उससे इसका कोई लेना-देना नहीं; यह हमारी आध्यात्मिक जरूरत है। बहुत-से लोगों को लगता है कि ईमानदार होना बेहद मुश्किल है। इसका एक भाग यह है कि भ्रष्ट स्वभाव त्याग पाना बहुत कठिन होता है। इसके ऊपर अगर तुम गैर-विश्वासियों के बीच जी रहे हो—खासतौर से अगर तुम उनके साथ काम कर रहे हो—तो ईमानदार होने और सत्य बोलने से तुम्हारी हँसी उड़ाई जा सकती है, बदनामी और आलोचना हो सकती है, यहाँ तक कि तुम्हें बहिष्कृत कर खदेड़ा जा सकता है। यह हमारे जीवित रहने के लिए चुनौतियाँ खड़ी करता है। बहुत-से लोग कहते हैं : “ईमानदार होना व्यवहार्य नहीं है। अगर मैंने दो-टूक बातें कीं, तो घाटे में रहूँगा, और झूठ बोले बिना मेरा कोई भी काम नहीं हो पाएगा।” यह कैसा नजरिया है? धोखेबाज व्यक्ति का यही नजरिया और तार्किकता है। वे अपनी हैसियत और हितों को बचाने के लिए पूरी तरह झूठी और धूर्त बातें करते हैं। वे उन चीजों को खो देने के डर से ईमानदार बनने और सत्य बोलने को तैयार नहीं होते। पूरी भ्रष्ट मानव जाति ऐसी ही है। वे चाहे जितने ज्ञानी हों, उनकी हैसियत चाहे जितनी ऊँची या नीची हो, वे सरकारी अधिकारी हों या आम नागरिक, वे सेलेब्रिटी हों या औसत आदमी, सबके-सब निरंतर झूठ बोलते और धोखा देते हैं, और कोई भी भरोसेमंद नहीं है। अगर ये भ्रष्ट स्वभाव हल नहीं किए गए, तो वे हमेशा झूठ बोलते रहेंगे, धोखा देते रहेंगे, और धोखेबाज स्वभाव से भरे रहेंगे। क्या वे इस तरह से परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण हासिल कर सकते हैं? क्या वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं।

क्या तुम लोगों को लगता है कि ईमानदार होना बहुत कठिन है? क्या तुम लोगों ने कभी इसको अभ्यास में लाने की कोशिश की है? किन मामलों में तुम लोगों ने ईमानदार बनने का अभ्यास और अनुभव किया है? तुम लोगों के अभ्यास किन सिद्धांतों पर आधारित थे? फिलहाल तुम लोगों को इसका किस स्तर का अनुभव है? क्या तुम उस मुकाम पर पहुँच गए हो जहाँ तुम बुनियादी रूप से ईमानदार व्यक्ति हो? अगर तुमने यह हासिल कर लिया है, तो बहुत बढ़िया! परमेश्वर के वचनों से हम देख पाएँगे कि हमें बचाने और परिवर्तित करने के लिए वह सिर्फ आने वाले दिनों की बानगी दिखाने के लिए थोड़ा कार्य नहीं करता, या भविष्य की संभावना दिखाने के लिए कार्य नहीं करता है, जिसके बाद उसका कार्य समाप्त हो जाता है। न ही वह लोगों के बाहरी व्यवहार को बदलता है। इसके बजाय वह प्रत्येक व्यक्ति को उसके अंतरतम की गहराई, उसके स्वभावों और उसके सार से शुरू करके स्रोत पर ही परिवर्तित कर बदलना चाहता है। यह देखते हुए कि परमेश्वर इस तरह कार्य करता है, हमें खुद को लेकर कैसे कार्य करना चाहिए? हम जो खोजते हैं, अपने स्वभाव में परिवर्तन और जो कर्तव्य हमें निभाने चाहिए, उनकी जिम्मेदारी हमें लेनी चाहिए। हमें अपने सभी काम गंभीरता से करने चाहिए, चीजों को फिसलने नहीं देना चाहिए, और तमाम चीजें गहन विश्लेषण के लिए पेश करनी चाहिए। जब भी तुम कोई काम पूरा करो, तो भले ही तुम यह सोचो कि इसे सही ढंग से किया गया है, यह जरूरी नहीं है कि वह सत्य के अनुरूप हो। परमेश्वर के वचनों के अनुसार इसका गहन विश्लेषण, तुलना और पुष्टि होनी चाहिए, और इसे समझा जाना चाहिए। इस तरह यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह सही था या गलत। इसके अलावा जो काम तुम्हारे अनुसार तुमने गलत किए थे, उनका भी गहन विश्लेषण होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि भाई-बहन साथ में संगति करते हुए, खोजते हुए, और एक-दूसरे की मदद करते हुए ज्यादा वक्त बिताएँ। तुम जितनी संगति करोगे, तुम्हारा दिल उतना ही उजला होगा, और तुम सत्य सिद्धांतों को उतना ही ज्यादा समझोगे। यह परमेश्वर का आशीष है। दूसरों पर अच्छी छाप छोड़ने की आशा और इस चाह से कि वे तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखें और तुम्हारी हँसी न उड़ाएँ, तुममें से कोई भी अपना दिल न खोले और तुम सब खुद को छिपाए रखो, तो तुम सच्चे विकास का अनुभव नहीं करोगे। अगर तुम हमेशा भेस बदले रहोगे और संगति में खुल कर पेश नहीं होगे, तो तुम्हें पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता नहीं मिलेगी, तुम सत्य को नहीं समझ पाओगे। फिर नतीजा क्या होगा? तुम सदा के लिए अँधेरे में जिओगे, और तुम्हें बचाया नहीं जाएगा। अगर तुम सत्य प्राप्त करना चाहते हो, और अपना स्वभाव बदलना चाहते हो, तो तुम्हें सत्य हासिल कर उसका अभ्यास करने की कीमत चुकानी होगी, तुम्हें दिल खोलकर दूसरों के साथ संगति करनी होगी। यह तुम्हारे जीवन प्रवेश और स्वभाव परिवर्तन, दोनों के लिए लाभकारी है। सभाओं में अपने अनुभव और अपनी समझ की चर्चा करने से तुम्हें और दूसरों को लाभ होता है। अगर तुममें से कोई भी अपने आत्मज्ञान या अपने अनुभवों और समझ के बारे में बात न करे; अगर तुममें से कोई भी अपना गहन विश्लेषण न करे या खुले नहीं; अगर तुम सब शब्द और धर्मसिद्धांत शानदार ढंग से बोलते हो, पर तुममें से कोई भी अपने बारे में अपनी समझ साझा न करे, और तुममें से कोई भी तुम्हें प्राप्त हुए थोड़े-से आत्मज्ञान को सामने लाने का साहस न करे, तो इसका क्या नतीजा होगा? तुम सब इकट्ठा होकर कुछ विनम्र और हल्की-फुल्की बातें करोगे, एक-दूसरे की तारीफ करोगे, डींगें हाँकोगे और नकली बातें कहोगे। “वाह, कुछ वक्त से तुम बहुत अच्छे हो गए हो। तुमने कुछ बदलाव किए हैं!” “तुमने हाल में बड़ी अच्छी आस्था दिखाई है!” “तुममें बड़ा जूनून है!” “तुमने खुद को मुझसे बहुत ज्यादा खपाया है।” “तुम्हारा योगदान मुझसे ज्यादा है!” ऐसी ही स्थिति बनती है। सभी लोग एक-दूसरे की तारीफ और बड़ाई करते हैं, और कोई भी अपना असली चेहरा गहन विश्लेषण के लिए पेश नहीं करता, ताकि सभी लोग उसे जान और समझ सकें। क्या ऐसे माहौल में कोई सच्चा कलीसियाई जीवन हो सकता है? नहीं, नहीं हो सकता। कुछ लोग कहते हैं : “मैंने कई वर्षों तक कलीसियाई जीवन जिया है। मैं हमेशा तृप्त रहा, और मुझे मजा आया। सभाओं में सभी भाई-बहन परमेश्वर से प्रार्थना करना और उसके गुणगान में भजन गाना पसंद करते हैं। प्रार्थनाओं और भजनों से सबकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। कभी-कभी चीजें बहुत ज्यादा भावुक हो जाती हैं, और हम सब तप कर पसीना-पसीना हो जाते हैं। भाई-बहन नाचते-गाते हैं; यह बहुत समृद्ध, रंगारंग कलीसियाई जीवन है, और बहुत मजा आता है। यह सचमुच पवित्र आत्मा के कार्य का मूर्त रूप है! इसके बाद हम परमेश्वर के वचन खाते-पीते हैं, और हमें लगता है कि परमेश्वर के वचन सीधे हमारे दिल को छू रहे हैं। हम जब भी संगति करते हैं, सभी सचमुच जोश में होते हैं।” कुछ वर्षों का इस प्रकार का कलीसियाई जीवन सभी के लिए सचमुच आनंद देने वाला होता है, मगर इससे मिलता क्या है? शायद ही कोई वास्तव में सत्य वास्तविकता में प्रवेश करता है, और शायद ही कोई परमेश्वर की गवाही के अपने अनुभव बयान कर पाता है। उनमें परमेश्वर के वचन पढ़ने, नाचने-गाने के लिए बड़ी ऊर्जा होती है, लेकिन जब सत्य पर संगति करने का वक्त आता है, तो कुछ लोग दिलचस्पी खो देते हैं। कोई भी ईमानदार व्यक्ति बनने के अपने अनुभव की चर्चा नहीं करता; कोई भी अपना गहन विश्लेषण नहीं करता, और कोई भी दूसरों के जानने-समझने, पहचानने लाभ और शिक्षा पाने के लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव को खोल कर पेश नहीं करता। कोई भी परमेश्वर का गुणगान करने के लिए अपनी वास्तविक अनुभवजन्य गवाही पर संगति नहीं करता। कलीसियाई जीवन के अनेक वर्ष ऐसे ही नाचते-गाते, खुश होते, मजे करते व्यर्थ हो जाते हैं। तुम लोग मुझे बताओ : यह खुशी और मजा कहाँ से आता है? मैं कहूँगा कि यह वह नहीं है जो परमेश्वर देखना चाहता है या जिससे उसे संतोष मिलता है, क्योंकि वह लोगों के जीवन स्वभावों में बदलाव और लोगों को सत्य वास्तविकता जीते हुए देखना चाहता है। परमेश्वर इसे वास्तविकता में देखना चाहता है। वह नहीं चाहता कि सभाओं में होने पर या भावुक महसूस करने पर तुम अपनी भजन संहिता पकड़े उसके गुणगान में नाचो-गाओ—वह यह नहीं देखना चाहता। इसके विपरीत परमेश्वर यह देखकर दुखी, पीड़ित और बेचैन हो जाता है, क्योंकि उसने हजारों-लाखों वचन बोले हैं, लेकिन एक भी व्यक्ति ने उसे सचमुच आगे नहीं ब`ढ़ाया है, नहीं जिया है। यही चीज है जिससे परमेश्वर चिंतित है। तुम लोग अपने कलीसियाई जीवन से मिली थोड़ी शांति और खुशी से अक्सर बेपरवाह और आत्मतुष्ट हो जाते हो। तुम परमेश्वर का गुणगान करते हो, थोड़ी खुशी, आराम का झोंका या आध्यात्मिक तृप्ति पा लेते हो, और यकीन कर लेते हो कि तुमने अपनी आस्था पर अच्छा अमल किया है। तुम इन्हें पूँजी के रूप में लेकर, परमेश्वर में आस्था का सबसे बड़ा लाभ मानकर, इन विभ्रमों से चिपके रहते हो, और अपने जीवन स्वभाव में बदलाव और उद्धार के मार्ग में प्रवेश के स्थान पर इन्हें स्वीकार लेते हो। इस तरह तुम सोचते हो कि तुम्हें सत्य का अनुसरण करने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने की जरूरत नहीं है। आत्मचिंतन करने या अपनी समस्याओं का गहन विश्लेषण करने या परमेश्वर के वचनों पर अभ्यास कर उनका अनुभव करने की कोई जरूरत नहीं है। अब यह बात खतरनाक होती जा रही है। अगर लोग इसी तरह चलते रहे; अगर परमेश्वर के कार्य के समाप्त होने तक भी वे ईमानदार लोग न बने या अपना कर्तव्य बढ़िया ढंग से निभाने का प्रबंध न कर सके; अगर वे परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण न कर सके, और अभी भी मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह और नियंत्रित होते रहे, अगर वे शैतान के प्रभाव से न बच सके; अगर वे परमेश्वर द्वारा दी गई इन अपेक्षाओं को पूरा न कर सके, तो फिर वे ऐसे लोग नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर बचाएगा। इसीलिए परमेश्वर चिंतित है।

नई-नई आस्था रखने पर लोग हमेशा उत्साहित रहते हैं। सत्य पर परमेश्वर की संगति सुनते समय वे खास तौर पर सोचते हैं : “अब मुझे सत्य की समझ है। मुझे सच्चा मार्ग मिल गया है। मैं सचमुच खुश हूँ!” प्रत्येक दिन नव वर्ष या शादी का उत्सव मनाने जितना उल्लासमय लगता है; वे हर दिन किसी के सभा आयोजित करने या संगति करने की बाट जोहते हैं। लेकिन कुछ वर्ष बाद कुछ लोग कलीसिया के जीवन में अपना उत्साह खो देते हैं, परमेश्वर में विश्वास रखने में भी उत्साह खो देते हैं। ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य की सिर्फ सतही, सैद्धांतिक समझ होती है। उन्होंने सच में परमेश्वर के वचनों में प्रवेश नहीं किया होता है, या व्यक्तिगत रूप से उनकी वास्तविकता का अनुभव नहीं किया होता है। जैसे परमेश्वर कहता है, बहुत-से लोग दावत में शानदार भोजन को देखते हैं, मगर उनमें से ज्यादातर लोग नजर मारने ही आते हैं। वे परमेश्वर द्वारा दिया गया स्वादिष्ट भोजन उठाकर खाते नहीं, स्वाद नहीं लेते और अपने शरीरों की फिर से पूर्ति नहीं करते। परमेश्वर इसी बात से घृणा करता है, उसे इसी से चिंता होती है। क्या तुम लोग फिलहाल इसी दशा में नहीं हो? (हाँ।) मैं तुम सब लोगों की मदद करने के लिए तुम्हारे साथ अक्सर संगति करता हूँ। मुझे सबसे ज्यादा चिंता इस बात से होती है कि धर्मोपदेश सुनने और अपनी आध्यात्मिक जरूरतें पूरी होने के बाद तुम उन्हें अभ्यास में लाने के लिए कुछ नहीं करोगे और उनके बारे में और कुछ नहीं सोचोगे। ऐसी स्थिति में मेरा कहा सब-कुछ बेकार चला जाएगा। किसी में चाहे जैसी भी काबिलियत हो, तुम दो या तीन वर्ष की आस्था के बाद यह बताने में सक्षम होगे कि क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है। अगर वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है, तो देर-सवेर वह उसका अनुसरण करेगा; अगर वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम नहीं करता, तो वह ज्यादा समय नहीं टिकेगा, और उसका खुलासा कर हटा दिया जाएगा। क्या तुम लोग वास्तव में सत्य के प्रेमी हो? क्या तुम लोग ईमानदार बनने को तैयार हो? क्या तुम लोग भविष्य में बदलाव कर पाओगे? इस संगति के बाद इसका कितना अंश तुम लोग व्यक्तिगत रूप से लागू करोगे? वास्तव में इनमें से कितनों के नतीजे तुम लोगों को मिलेंगे? यह सब अज्ञात है; इसका खुलासा अंत में होगा। इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि आस्था में नया होने पर कोई कितना उत्साहित है, या वह कितने कष्ट सह सकता है। अहम यह है कि वह सत्य से प्रेम करता है या नहीं, वह सत्य को स्वीकार कर सकता है या नहीं। सिर्फ सत्य के प्रेमी ही कोई धर्मोपदेश सुनने के बाद उस पर मनन करेंगे। सिर्फ वे ही चिंतन करेंगे कि परमेश्वर को सचमुच समर्पित होने के लिए परमेश्वर के वचनों को कैसे अभ्यास में लाएँ, उनका अनुभव कैसे करें, अपने दैनिक जीवन में उन्हें कैसे लागू करें और परमेश्वर के वचनों की सत्य वास्तविकता को कैसे जिएँ। इसीलिए जो सत्य से प्रेम करते हैं, वे अंततः सत्य को प्राप्त करेंगे। जो सत्य से प्रेम नहीं करते वे शायद सच्चे मार्ग को स्वीकार कर लेंगे; हर दिन इकट्ठे होकर धर्मोपदेश सुन लेंगे और कुछ सिद्धांत सीख लेंगे, लेकिन तकलीफ या परीक्षणों का सामना होते ही वे नकारात्मक और कमजोर हो जाएँगे और शायद अपनी आस्था भी छोड़ देंगे। विश्वासियों के तौर पर तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे या नहीं, यह सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये और तुम्हारे अनुसरण के लक्ष्य पर निर्भर करता है : क्या वास्तव में यह सत्य को तुम्हारे जीवन के रूप में प्राप्त करना है या नहीं। कुछ लोग दूसरों की मदद करने, परमेश्वर की सेवा करने या कलीसिया की अच्छे ढंग से अगुआई करने के लिए खुद को सत्य से लैस करते हैं। यह बुरा नहीं है, और इसका अर्थ है कि वे लोग कोई जिम्मेदारी उठाते हैं। लेकिन अगर वे अपने जीवन प्रवेश या सत्य के अभ्यास पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, और वे समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य नहीं खोजते, तो क्या वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? यह असंभव होगा। अगर उनके पास सत्य वास्तविकता नहीं है तो वे दूसरों की मदद कैसे करेंगे? वे परमेश्वर की सेवा कैसे करेंगे? क्या वे कलीसिया का कार्य अच्छे ढंग से कर पाएँगे? यह भी नामुमकिन होगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने कितने धर्मोपदेश सुने हैं, या तुमने कौन-सा पथ चुना है। मैं तुम लोगों के साथ सही नजरिया साझा करूँगा : तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभाओ, तुम अगुआ हो या नियमित अनुयायी, तुम्हें मुख्य रूप से परमेश्वर के वचनों पर मेहनत करनी चाहिए। तुम्हें उन्हें पढ़ना चाहिए, और सच्चाई से उन पर विचार करना चाहिए। तुम्हें सबसे पहले उन सभी सत्य की समझ हासिल करनी होगी, जो तुम्हें जानने चाहिए और जिनका तुम्हें अभ्यास करना चाहिए; खुद को उनकी कसौटी पर कसो और अपने लिए उन्हें लागू करो। तुमने तब तक कोई सत्य प्राप्त नहीं किया होता जब तक तुम उसे पहले समझ कर वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर लेते। अगर तुम दूसरों को हमेशा वह सिद्धांत समझाते हो जिसे तुम समझते हो, मगर तुम उसे अभ्यास में नहीं ला पाते या उसका अनुभव नहीं कर पाते, तो यह एक गलती है—यह बेवकूफी और अज्ञानता है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों पर सत्य के रूप में अभ्यास और अनुभव करना चाहिए, धीरे-धीरे बहुत सारे सत्य समझ आने लगेंगे। तब तुम्हें अपने कर्तव्य में बेहतर से बेहतर नतीजे मिलने लगेंगे, और तुम्हारे पास साझा करने के लिए अनेक अनुभवजन्य गवाहियाँ होंगी। इस तरह परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन बन जाएँगे। तुम निश्चित रूप से अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाओगे, और तुम परमेश्वर का दिया हुआ आदेश पूरा कर सकोगे। अगर तुम हमेशा इन वचनों की कसौटी पर दूसरों को कसने की कोशिश करोगे, दूसरों पर लागू करोगे, या अपने काम में पूँजी की तरह इस्तेमाल करोगे, तो तुम मुसीबत में फँस जाओगे। ऐसा करके तुम ठीक पौलुस वाला रास्ता ही अपना रहे हो—पूरी तरह से। चूँकि यह तुम्हारा नजरिया है, इसलिए तुम यकीनन इन वचनों को धर्मसिद्धांत के रूप में, सिद्धांत के रूप में ले रहे हो, और तुम भाषण देने और काम करवाने के लिए इन सिद्धांतों का इस्तेमाल करना चाहते हो। यह बहुत खतरनाक है—यह वही चीज है जो नकली अगुआ और मसीह-विरोधी करते हैं। अगर तुम अपनी दशा को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखते हो, पहले आत्मचिंतन कर खुद की समझ हासिल करते हो और फिर सत्य को अभ्यास में लाते हो, तो तुम्हें फल मिलेगा और तुम सत्य वस्ताविकता में प्रवेश करोगे। तभी तुम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के योग्य होगे और तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद होगा। अगर तुम्हारे पास परमेश्वर के कार्य और उसके वचनों का व्यावहारिक अनुभव नहीं है; अगर तुम्हारे पास कोई भी जीवन प्रवेश नहीं है, और तुम सिर्फ शब्दों और धर्मसिद्धांतों का पाठ ही कर सकते हो, तो तुम काम करोगे भी तो आँखें बंद करके करोगे, और तुम्हें कुछ भी ठोस हासिल नहीं होगा। आखिरकार तुम एक नकली अगुआ और मसीह-विरोधी बन जाओगे, और तुम्हें हटा दिया जाएगा। अगर तुम सत्य का कोई पहलू समझते हो, तो तुम्हें पहले तुलना के लिए खुद को उसकी कसौटी में कस कर अपने जीवन में उसे लागू करना चाहिए, ताकि वह तुम्हारी वास्तविकता बन जाए। तब तुम यकीनन कुछ हासिल करोगे और बदल पाओगे। अगर तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन अच्छे हैं, सत्य हैं और उनमें वास्तविकता है, मगर तुम अपने दिल में सत्य पर चिंतन नहीं करते या उसे समझने की कोशिश नहीं करते, न ही अपने व्यावहारिक जीवन में अभ्यास कर उसका अनुभव करते हो, और इसके बजाय बस उसे एक नोटबुक में लिख कर छोड़ देते हो, तो तुम कभी भी न तो सत्य को समझ पाओगे न ही हासिल कर पाओगे। परमेश्वर के वचन पढ़ने या धर्मोपदेश और संगति सुनने पर तुम्हें उन पर चिंतन कर खुद को उनकी कसौटी पर कसना चाहिए, उन्हें अपनी दशा से जोड़ना चाहिए, और अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए उनका इस्तेमाल करना चाहिए। वचनों को सिर्फ इस तरह लागू करके ही तुम सचमुच में उनसे कुछ प्राप्त कर सकते हो। क्या किसी धर्मोपदेश को सुनने के बाद तुम लोग इसी तरह अभ्यास करते हो? अगर नहीं करते, तो न परमेश्वर और न ही उसके वचन तुम लोगों के जीवन में हैं, और अपने विश्वास में तुम लोगों के पास कोई वास्तविकता नहीं है। गैर-विश्वासियों की तरह तुम परमेश्वर के वचनों से बाहर जी रहे हो। कोई भी व्यक्ति जो परमेश्वर में विश्वास रखता है मगर उन वचनों को अभ्यास और अनुभव करने के लिए वास्तविक जीवन में लागू नहीं कर सकता, वह वास्तव में परमेश्वर में विश्वास नहीं रखता—वह छद्म-विश्वासी है। जो लोग सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, वे परमेश्वर को समर्पण करने वाले लोग नहीं हैं, वे उसके खिलाफ विद्रोह करने वाले और उसका प्रतिरोध करने वाले लोग हैं। परमेश्वर के वचनों को अपने असल जीवन में लाए बिना उनके पास परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का कोई तरीका नहीं होता। और अगर कोई अपने असल जीवन में परमेश्वर के कार्य या उसके वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव नहीं करता, तो उसके पास सत्य प्राप्त करने का कोई तरीका नहीं है। क्या तुम लोग यह समझते हो? अगर तुम लोग इन वचनों को समझ सकते हो, तो यह सबसे बढ़िया है—लेकिन तुम चाहे जैसे भी समझो, जितना भी समझो, सबसे अहम चीज यह है कि परमेश्वर के जिन वचनों और सत्यों को तुम समझते हो, उन्हें अपने जीवन में लागू करो, और वहाँ उन पर अभ्यास करो। तुम्हारे पास अपना आध्यात्मिक कद बढ़ाने और अपना स्वभाव बदलने का यही एकमात्र तरीका है।

जब परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है या लोगों से अपनी अपेक्षाएँ सामने रखता है, तो वह हमेशा उनका अभ्यास करने के सिद्धांत और पथ बताता है। मिसाल के तौर पर एक ईमानदार व्यक्ति होने को ही ले लें, जिस पर हम अभी बात कर रहे थे : परमेश्वर ने लोगों को एक पथ दिया है, उन्हें बताया है कि ईमानदार लोग कैसे बनें, ईमानदार लोग होने के सिद्धांतों पर अमल कैसे करें, ताकि वे सही रास्ते पर चल सकें। परमेश्वर ने कहा था : “यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा और तुम सरलता से अंधकार से बाहर नहीं निकल पाओगे।” इसका निहितार्थ यह है कि परमेश्वर अपेक्षा रखता है कि हम जिसे राज और निजी समझते हैं, उसे खोल कर रखें, उसे गहन विश्लेषण के लिए पेश करें। तुम लोगों ने इस बारे में नहीं सोचा है : तुम लोगों ने यह समझा या जाना नहीं है कि परमेश्वर ने यह बात इसलिए कही है ताकि तुम इस तरह से अभ्यास करो। कभी-कभी तुम धोखे और कपट के इरादे से कार्य करते हो, इसलिए तुम्हारे कार्य और इरादे बदले जाने चाहिए। शायद कोई भी तुम्हारी बातों की धोखेबाजी या कपट की प्रकृति को बूझ नहीं पाता-मगर अपनी पीठ मत थपथपाओ। तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आकर अपनी जाँच करनी चाहिए—तुम लोगों को बेवकूफ बना सकते हो, मगर परमेश्वर को मूर्ख नहीं बना सकते। तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, खुद को खोल कर अपने इरादों और तरीकों का गहन विश्लेषण करना चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए कि क्या तुम्हारे ये इरादे परमेश्वर को पसंद होंगे या उसे घृणित लगेंगे, क्या तुम उन्हें खोल कर पेश कर सकते हो, क्या उनके बारे में चर्चा करना कठिन है, और क्या वे सत्य के अनुरूप हैं। इस प्रकार के गहन विश्लेषण और विश्लेषण से तुम पाओगे कि दरअसल यह मामला सत्य के अनुरूप नहीं है; ऐसे व्यवहार को बाहर प्रकाश में लाना कठिन है, और इससे परमेश्वर घृणा करता है। फिर तुम इस व्यवहार को बदलते हो। मेरी इस संगति से तुम लोगों को कैसा लग रहा है? तुममें से कुछ लोग शायद चिंतित हो रहे होगे। तुम सोचते हो : “परमेश्वर में विश्वास रखना सचमुच पेचीदा है। यहाँ तक पहुँचना काफी मुश्किल भरा रहा है—अब क्या मुझे फिर से शुरू करना है?” वास्तविकता यह है कि अब परमेश्वर आ गया है, और उसने मानव जाति को सत्य वास्तविकता में प्रवेश कराने के लिए अगुआई शुरू कर दी है। यह एक विश्वासी और एक व्यक्ति के रूप में शुरुआत है। अगर तुम अच्छी शुरुआत करोगे, तो तुम्हें अपनी आस्था में ठोस बुनियाद बनानी होगी, पहले दर्शन के सत्य और परमेश्वर का अनुसरण करने के महत्व को सीखना होगा, और फिर सत्य का अभ्यास करने और अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने पर ध्यान केंद्रित करना होगा। इस तरह तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे। अगर तुम सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलने पर ध्यान केंद्रित करते हो, और इन चीजों के आधार पर नींव रखते हो, तो यह एक समस्या बन जाती है। यह रेत पर घर की नींव बनाने जैसा है : चाहे तुम जितनी भी ऊँची इमारत बना लो, हमेशा इसके गिरने का खतरा बना रहेगा, और यह नहीं टिकेगी। लेकिन इस मुकाम पर तुम लोगों के बारे में एक सराहनीय बात यह है कि तुम लोग उस बात को समझ पाते हो जिस पर मैं संगति करता हूँ और उसे सुनने को तैयार हो। यह अच्छी बात है। सबसे महत्वपूर्ण बात है सत्य का अनुसरण करना और वास्तविकता में प्रवेश करना, बाकी सब गौण है। अगर तुम यह जानते हो, तो तुम्हें अपनी आस्था में सही रास्ता पकड़ने में मुश्किल नहीं होगी। सत्य का अनुसरण करने के पथ पर चलने के लिए तुम्हें सबसे पहले खुद को जानना होगा—तुम्हें साफ पता होना चाहिए कि तुममें कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं, और तुम्हारी खामियाँ क्या हैं। तब तुम खुद को सत्य से लैस करने की अहमियत समझोगे, और समस्याओं को सुलझाने के लिए तेजी से सत्य को खोज पाओगे। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता! एक बार जब तुम जीवन प्रवेश को लेकर अपनी समस्याओं का समाधान कर लेते हो और तुम्हें सत्य वास्तविकता प्राप्त हो जाती है, तो तुम्हें अंदरूनी सुकून का ज्यादा एहसास होगा। चाहे जितनी बड़ी विपत्तियाँ आएँ, तुम डरोगे नहीं। अगर तुम ये थोड़े-से आखिरी वर्ष सत्य का अनुसरण किए बिना गँवा देते हो, और जब चीजें घटित होती हैं तब भी तुम हैरत में पड़ जाते हो, तुम प्रतीक्षा की निष्क्रिय दशा में पड़े रहते हो, न ही तुम अपनी समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का प्रयोग कर पाते हो, बल्कि अभी भी सांसारिक आचरण के फलसफों और भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते रहते हो, तो यह कितना दयनीय होगा! महाविपत्तियों का दिन आने पर तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता की एक किरण भी न हो, तब तुम सत्य का अनुसरण न करने, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से न निभाने और जरा भी सत्य हासिल न करने को लेकर पछताओगे। तुम निरंतर व्याकुलता की दशा में जियोगे। अभी फिलहाल, पवित्र आत्मा का कार्य किसी इंसान के लिए प्रतीक्षा नहीं करता। अपनी आस्था के पहले कुछ वर्षों में परमेश्वर लोगों को थोड़ा अनुग्रह देता है, थोड़ी कृपा देता है; वह उन्हें सहायता और पोषण देता है। अगर लोग कभी नहीं बदलते और कभी वास्तविकता में प्रवेश नहीं करते, बल्कि अपने जाने-पहचाने शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से ही संतुष्ट रहते हैं, तो वे खतरे में हैं। वे पहले ही पवित्र आत्मा के कार्य से चूक गए हैं, और परमेश्वर द्वारा मानव जाति के उद्धार और पूर्णता का आखिरी मौका खो चुके हैं। वे रोते और दांत पीसते हुए सिर्फ विपत्तियों में ही डूब सकते हैं।

जब तुम पहले-पहल अपनी आस्था की नींव रखना शुरू करते हो, तो तुम लोगों को सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर दृढ़ता से कदम रखने चाहिए। तुम्हें सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की प्रारंभरेखा पर होना चाहिए, न कि शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का पाठ करने की प्रारंभरेखा पर। तुम्हारा ध्यान सत्य वास्तविकता में प्रवेश, सभी चीजों में सत्य को खोजने और अभ्यास में लाने, सभी चीजों में सत्य का अभ्यास करने और प्रत्येक चीज की इससे तुलना करने पर केंद्रित होना चाहिए। तुम्हें चिंतन करना चाहिए कि सत्य का अभ्यास कैसे करें, अभ्यास के सिद्धांत क्या हैं, और सत्य का कैसा अभ्यास परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर उसे संतुष्ट करेगा। लेकिन लोगों में आध्यात्मिक कद का बड़ा अभाव होता है। वे हमेशा उन चीजों के बारे में पूछते हैं जो सत्य के अभ्यास से संबंधित नहीं हैं, जो आत्मज्ञान या एक ईमानदार व्यक्ति होने से संबंधित नहीं हैं। क्या यह दुखद नहीं है? क्या यह छोटा आध्यात्मिक कद नहीं दिखाता? कुछ लोगों ने परमेश्वर के कार्य का यह कदम उसके शुरू होते ही स्वीकार कर लिया, और वे आज तक विश्वासी बने हुए हैं। लेकिन अभी भी वे यह नहीं समझते कि सत्य वास्तविकता क्या है, या सत्य का अभ्यास करना क्या होता है। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने अपनी आस्था के लिए अपना परिवार और करियर छोड़ दिया है और बहुत कुछ सहा है। तुम कैसे कह सकते हो कि मुझमें कोई सत्य वास्तविकता नहीं है? मैंने अपना परिवार पीछे छोड़ दिया—क्या यह वास्तविकता नहीं है? मैंने अपनी शादी छोड़ दी—क्या यह वास्तविकता नहीं है? क्या यह सब सत्य का अभ्यास करने की अभिव्यक्ति नहीं हैं?” बाहरी तौर से तो तुमने परमेश्वर में विश्वास के लिए लौकिक चीजें छोड़ दी हैं, अपना परिवार छोड़ दिया है। लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि तुमने सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है? क्या इसके मायने ये हैं कि तुम परमेश्वर को समर्पित होने वाले ईमानदार व्यक्ति हो? क्या इसका अर्थ है कि तुम्हारा स्वभाव बदल गया है, या तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसके पास सत्य है, मानवता है? निश्चित रूप से नहीं। तुम्हारे ये बाहरी कर्म दूसरे लोगों को अच्छे लग सकते हैं—लेकिन इनका यह अर्थ नहीं है कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो या परमेश्वर को समर्पित हो, और इनका निश्चित रूप से यह अर्थ नहीं है कि तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहे हो। लोगों का त्याग और उनका खपना बहुत ज्यादा मिलावटी हैं, सारे लोग आशीष पाने के इरादे से नियंत्रित हैं, और वे परीक्षणों और शोधन से शुद्ध नहीं हुए हैं। इसीलिए बहुत से लोग अभी भी अपने कर्तव्यों में लापरवाह हैं, और उन्हें कोई व्यावहारिक नतीजे नहीं मिलते; बल्कि वे कलीसिया कार्य में गड़बड़ करते हैं, बाधा डालते हैं, कमजोर करते हैं और उसमें तमाम मुसीबतें लाते हैं। वे प्रायश्चित्त के बारे में बिल्कुल नहीं सोचते और जब कलीसिया उन्हें हटा देती है तब भी वे अपनी पैरवी के लिए नकारात्मकता फैलाते रहते हैं, झूठ बोलते रहते हैं, और तथ्यों को तोड़ते-मरोड़ते रहते हैं। कुछ लोग एक-दो दशक तक विश्वास रखने के बाद भी हिंसक होकर सभी तरह की बुराई करते हैं। फिर उन्हें कलीसिया द्वारा या तो हटा दिया जाता है या निष्कासित कर दिया जाता है। यह तथ्य कि वे इतनी भयानक चीजें कर पाते हैं पर्याप्त सबूत है कि उनका चरित्र बहुत भयंकर होता है, वे बहुत कुटिल और कपटी होते हैं, और वे जरा भी निष्कपट, आज्ञाकारी या विनम्र नहीं होते। ऐसा इसलिए कि उन्होंने कभी भी सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने की ज्यादा परवाह नहीं की। वे परमेश्वर में आस्था को ऐसा मामला मानते हैं : “अगर मैं अपना परिवार छोड़े रखता हूँ, परमेश्वर के लिए खुद को खपाता हूँ, कष्ट सहता हूँ, और कीमत चुकाता हूँ, तो परमेश्वर को मेरे कृत्यों को स्मरण रखना चाहिए और मुझे उसका उद्धार प्राप्त होना चाहिए।” यह बस सनक और खयाली पुलाव है। अगर तुम उद्धार प्राप्त करना चाहते हो, और सचमुच परमेश्वर के समक्ष आना चाहते हो, तो पहले तुम्हें परमेश्वर के पास यह खोजते हुए आना चाहिए : “हे परमेश्वर, मुझे किस चीज का अभ्यास करना चाहिए? लोगों को बचाने के लिए तुम्हारा मानक क्या है? तुम किस प्रकार के लोगों को बचाते हो?” हमें सबसे बढ़कर इन्हीं चीजों को खोजना और जानना चाहिए। सत्य पर अपनी बुनियाद स्थापित करो, सभी चीजों में सत्य और वास्तविकता के लिए मेहनत करो, और फिर तुम वह व्यक्ति बनोगे जिसकी बुनियाद होगी, जिसके पास जीवन है। अगर तुम अपनी बुनियाद शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर स्थापित करते हो, कभी किसी सत्य का अभ्यास नहीं करते, या किसी भी सत्य में मेहनत नहीं करते, तो तुम ऐसे व्यक्ति बनोगे जिसके पास कभी जीवन नहीं होगा। जब हम ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करते हैं, तो हममें जीवन, वास्तविकता और एक ईमानदार व्यक्ति का सार होता है। तब हम एक ईमानदार व्यक्ति जैसा अभ्यास और व्यवहार करते हैं, और कम-से-कम हमारा वह ईमानदार अंश परमेश्वर को खुशी देगा और वह उसे अपनी स्वीकृति देगा। लेकिन हम अभी भी अक्सर झूठ, चालबाजी और धोखेबाजी का प्रदर्शन करते हैं, जिसे शुद्ध करना जरूरी है। इसीलिए हमें खोज जारी रखनी चाहिए और ढर्रे में नहीं फँसना चाहिए। परमेश्वर हमारी प्रतीक्षा में है, हमें मौका दे रहा है। अगर तुम कभी ईमानदार व्यक्ति बनने की योजना नहीं बनाते, यदि तुम कभी नहीं खोजते कि कैसे ईमानदारी से और दिल से बोलें, चालाकी या धोखे की मिलावट के बिना कैसे काम करें और एक ईमानदार व्यक्ति की तरह कैसे बर्ताव करें, तो ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे तुम ईमानदार मानव के समान जी सको या ईमानदार व्यक्ति की सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सको। अगर तुमने सत्य के किसी एक पहलू की वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है, तो तुमने सत्य के उस पहलू को प्राप्त कर लिया है; अगर तुम्हारे पास वह वास्तविकता नहीं है, तो तुम्हारे पास वह जीवन या आध्यात्मिक कद नहीं है। परीक्षणों और प्रलोभनों का सामना होने पर या तुम्हें कोई आदेश मिलने पर अगर तुम में बिल्कुल कोई वास्तविकता नहीं होती, तो तुम आसानी से लड़खड़ा कर गलतियाँ करोगे; परमेश्वर का अपमान और उसके खिलाफ विद्रोह में प्रवृत्त हो जाओगे। तुम अपनी मदद नहीं कर पाओगे। बहुत-से लोग अपने कर्तव्यों में हिंसक व्यवहार करते हैं, परामर्श लेने से इनकार कर देते हैं, सुधर नहीं पाते, कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा पैदा करते हैं, और परमेश्वर के घर के हितों को गंभीर हानि पहुँचाते हैं। अंत में ऐसे लोग या तो हटा दिए जाते हैं या निष्कासित कर दिए जाते हैं—यही अनिवार्य नतीजा होता है। लेकिन अगर तुम फिलहाल ईमानदार व्यक्ति होने के लिए सत्य का अभ्यास कर रहे हो, तो ईमानदार व्यक्ति के रूप में तुम्हारी अनुभवजन्य गवाही को परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी। कोई भी यह तुमसे नहीं ले सकता, कोई भी तुम्हें इस वास्तविकता से, इस जीवन से अलग नहीं कर सकता। कुछ लोग पूछते हैं, “मैं लंबे समय से ईमानदार व्यक्ति रहा हूँ। क्या मैं फिर से धोखेबाज व्यक्ति बन सकता हूँ?” अगर तुमने अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग दिया है; अगर तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति बनने की सत्य वास्तविकता प्राप्त है; अगर तुम मनुष्य के समान जी रहे हो, और तुम्हें धूर्तता, धोखेबाजी और गैर-विश्वासियों के संसार से दिल से घृणा है, तो तुम शैतान की सत्ता के अधीन वापस नहीं जा सकते। ऐसा इसलिए कि तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में सक्षम हो; तुम पहले से ही प्रकाश में जी रहे हो। धोखेबाज व्यक्ति से ईमानदार इंसान में बदलना आसान नहीं है। परमेश्वर को सचमुच आनंदित करने वाले ईमानदार व्यक्ति से धोखेबाज व्यक्ति में वापस बदलना नामुमकिन होगा, और भी ज्यादा मुश्किल होगा। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे ईमानदार व्यक्ति होने का कई वर्षों का अनुभव है। मैं अधिकतर समय सत्य बोलता हूँ और मैं काफी ईमानदार हूँ। लेकिन कभी-कभार मैं ऐसी बातें कह देता हूँ जो असत्य, अप्रत्यक्ष और धोखेबाजी की होती हैं।” इस समस्या को ठीक करना ज्यादा आसान है। जब तक तुम सत्य खोजने और सत्य के लिए प्रयास करने पर ध्यान देते हो, तो तुम्हें भविष्य में बदल न पाने को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं है। तुम निश्चित रूप से सुधरते रहोगे। मिट्टी में बोए गए अंकुर की तरह अगर तुम उसमें समय पर पानी डालोगे, रोज धूप में रखोगे, तो तुम्हें फिक्र करने की जरूरत नहीं कि बाद में इसमें फल लगेंगे या नहीं, और शरद ऋतु में यकीनन फसल होगी। अभी तुम लोगों को सबसे ज्यादा चिंता इस बारे में होनी चाहिए : क्या तुम लोगों ने ईमानदार व्यक्ति होने में प्रवेश किया है? क्या तुम कम-से-कम झूठ बोल रहे हो? क्या तुम कह सकते हो कि कुल मिलाकर अब तुम ईमानदार व्यक्ति हो? यही अहम सवाल हैं। अगर कोई कहता है : “मैं जानता हूँ कि मैं धोखेबाज व्यक्ति हूँ, लेकिन मैंने कभी भी ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास नहीं किया है,” तब तुममें ईमानदार व्यक्ति होने की कोई भी वास्तविकता नहीं है। तुम्हें कड़ी मेहनत करने की जरूरत है, अपने जीवन के हर छोटे पहलू, हर तरह के बर्तावों, धोखेबाजी के सभी पैंतरों, और दूसरों से पेश आने के तरीकों को गहन विश्लेषण के लिए सामने रखना चाहिए। इन चीजों का गहन विश्लेषण करने से पहले तुम अपने-आपसे बहुत खुश हो सकते हो, तुमने जो कुछ किया है उससे बहुत आत्म-संतुष्ट हो सकते हो। लेकिन एक बार परमेश्वर के वचनों से उनका तुलनात्मक गहन विश्लेषण करने के बाद तुम्हें झटका लगेगा, “मुझे एहसास नहीं था कि मैं इतना घिनौना हूँ, इतना दुर्भावनापूर्ण और छली हूँ!” तुम अपना सही रूप देखोगे और सचमुच अपनी मुश्किलों, खामियों और धोखेबाजी को पहचानोगे। अगर तुम कोई गहन विश्लेषण नहीं करते, और हमेशा के लिए खुद को ईमानदार व्यक्ति और धोखेबाजी से मुक्त इंसान मानते हो, फिर भी खुद को धोखेबाज कहते हो, तो तुम कभी नहीं बदलोगे। अगर तुम अपने दिल में पैठे उन घिनौने, दुष्ट इरादों को खोद कर नहीं निकालते, तो तुम अपनी कुरूपता और भ्रष्टता को कैसे देखोगे? अगर तुम अपनी भ्रष्ट दशाओं पर आत्मचिंतन कर उनका गहन विश्लेषण नहीं करते, तो क्या तुम उस सत्य को देख पाओगे कि तुम कितनी गहराई से भ्रष्ट हो? अपने भ्रष्ट स्वभाव की समझ के बिना तुम यह नहीं जान पाओगे कि समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य को कैसे खोजें, तुम नहीं जानोगे कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार सत्य का अनुसरण कैसे करें और वास्तविकता में प्रवेश कैसे करें। इस वाक्यांश का सच्चा अर्थ यही है : “अगर तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते तो तुम्हें कभी भी वास्तविकता प्राप्त नहीं होगी।”

परमेश्वर जो भी कहता है वह सत्य है। उसके प्रत्येक अंतिम वचन में सत्य वास्तविकता होती है, और यह सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। लोगों को अभ्यास और प्रवेश करने के लिए बस परमेश्वर के वचनों को अपने दैनिक जीवन में लाने की जरूरत है। परमेश्वर का प्रत्येक वचन मानव जाति की जरूरत को लक्ष्य करके होता है और प्रत्येक वचन लोगों के उससे अपनी तुलना करने के लिए है। ये यूँ ही सरसरी नजर डालने के लिए नहीं हैं, न ही तुम्हारी कुछ आध्यात्मिक जरूरतें पूरी करने के लिए हैं, न ही वे बनावटी बातें करने के लिए या शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करने की तुम्हारी जरूरत पूरी करने के लिए हैं। परमेश्वर के प्रत्येक वचन में सत्य की वास्तविकता है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में नहीं लाते, तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का कोई रास्ता नहीं होगा—तुम हमेशा ऐसे इंसान रहोगे जिसका वास्तविकता से कोई रिश्ता नहीं है। अगर तुम ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करते हो, तो तुम्हारे पास ईमानदार होने की वास्तविकता होगी, और तुम झूठे ढोंग करने के बजाय एक ईमानदार व्यक्ति होने की सच्ची दशा में जी सकोगे। तुम यह भी समझ पाओगे कि कैसा व्यक्ति ईमानदार होता है और कैसा व्यक्ति नहीं, और परमेश्वर धोखेबाज लोगों से घृणा क्यों करता है। तुम ईमानदार व्यक्ति होने के महत्त्व को सचमुच समझ जाओगे; तुम अनुभव करोगे कि लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा रख कर परमेश्वर कैसा महसूस करता है, और वह लोगों से यह अपेक्षा क्यों रखता है। यह पता लगने पर कि तुम अत्यंत धोखेबाज हो, तुम अपनी धोखेबाजी और कुटिलता से घृणा करोगे। तुम्हें इस बात से घृणा होगी कि अपने धोखेबाज और कुटिल स्वभाव के साथ तुम बेशर्मी से कैसे जीते रहे हो। इस तरह तुम बदलाव के लिए उत्सुक हो जाओगे। इस तरह तुम्हें यह और ज्यादा महसूस होगा कि ईमानदार व्यक्ति होना ही सामान्य मानवता वाला और सार्थक जीवन जीने का एकमात्र रास्ता है। तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर का लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा रखना अत्यंत अर्थपूर्ण है। तुम्हें लगेगा कि ऐसा करके ही तुम परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हो पाओगे, कि सिर्फ ईमानदार लोगों को ही उद्धार मिलेगा, और यह कि परमेश्वर ने जो कुछ भी कहा वह पूरी तरह से सही है! तुम लोग मुझे बताओ : क्या लोगों से ईमानदार होने की परमेश्वर की अपेक्षा अर्थपूर्ण है? (हाँ, जरूर है।) फिर तुम लोगों को अपने धोखेबाज और कुटिल अंशों का गहन विश्लेषण अभी से शुरू कर देना चाहिए। उनका गहन विश्लेषण करने के बाद तुम पाओगे कि धोखेबाजी के हर काम के पीछे एक इरादा है, एक खास लक्ष्य, एक इंसानी कुरूपता है। तुम पाओगे कि यह धोखा लोगों की मूर्खता, स्वार्थ और घिनौनापन दर्शाता है। जब तुम्हें यह पता चलेगा, तब तुम अपना असली चेहरा देखोगे, और जब तुम अपना असली चेहरा देखोगे, तुम खुद से घृणा करोगे। खुद से घृणा करना शुरू करने और सचमुच यह जान लेने के बाद कि तुम किस किस्म के इंसान हो, क्या तुम शान बघारते रहोगे? क्या हर मोड़ पर तुम डींग हाँकते रहोगे? क्या तुम्हें हमेशा दूसरों से अभिनंदन और प्रशंसा की चाह रहेगी? क्या तुम अब भी कहोगे कि परमेश्वर की माँगें बहुत ऊँची हैं, कि ये जरूरी नहीं हैं? तुम उस तरह कार्य नहीं करोगे, वैसी बातें नहीं कहोगे। तुम परमेश्वर की बातों से सहमत हो जाओगे और “आमीन” कहोगे। तुम्हें दिलो-दिमाग और अपनी आँखों से यकीन हो जाएगा। जब ऐसा होता है तो इसका अर्थ है कि तुमने परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना शुरू कर दिया है, तुमने वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है और तुम्हें नतीजे दिखाई देने लगे हैं। जितना ही तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करोगे, तुम्हें उतना ही महसूस होगा कि वे कितने सही और जरूरी हैं। मान लो कि तुम उनका अभ्यास नहीं करते। इसके बजाय तुम हमेशा बड़बड़ाते रहते हो, “अरे, मैं बेईमान हूँ, धोखेबाज हूँ,” और फिर भी किसी हालात का सामना होने पर तुम धोखेबाजी से काम लेते हो, इस दौरान यह सोचते रहते हो कि यह धोखेबाजी नहीं है, खुद को अभी भी ईमानदार मानते हो, और मामले को यूँ ही गुजर जाने देते हो। और अगली बार कोई मामला आने पर तुम फिर से चालबाजी करते हो, कुटिलता और धोखेबाजी में लग जाते हो, और मुँह खोलते ही झूठ बोलने लगते हो। बाद में तुम्हें ताज्जुब होता है “क्या मैं फिर से कुटिल और धोखेबाज बन गया था? क्या मैं दोबारा झूठ बोल रहा था? मुझे नहीं लगता इसकी कोई अहमियत है,” और तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो, “हे परमेश्वर, तुम देख रहे हो मैं किस तरह साजिशों का सहारा लेता हूँ, हमेशा कुटिल और धोखेबाज रहता हूँ। मुझे माफ कर दो। अगली बार मैं वैसा नहीं रहूँगा; अगर मैं वैसा रहा तो मुझे अनुशासित करना,” इन मामलों को हल्के में लेकर तुम उन्हें दबा देते हो। यह कैसा व्यक्ति है? यह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम नहीं करता और सत्य का अभ्यास करने को तैयार नहीं होता। हो सकता है तुमने अपना कर्तव्य निभाने, परमेश्वर की सेवा करने या धर्मोपदेश सुनने में थोड़ी कीमत चुकाई हो, थोड़ा वक्त लगाया हो। हो सकता है तुमने अपना थोड़ा कामकाजी समय भी न्योछावर किया हो और थोड़ा कम पैसा कमाया हो। लेकिन असल में तुमने सत्य का जरा भी अभ्यास नहीं किया है, और तुमने सत्य का अभ्यास करने के विषय को गंभीरता से नहीं लिया है। तुम सतही और लापरवाह रहे हो, इसे कभी अहमियत नहीं दी। अगर तुम सत्य का अभ्यास सिर्फ बिना रुचि के करते हो, तो इससे साबित होता है कि सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया प्रेम का नहीं है। तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अभ्यास करने को तैयार नहीं है; तुम सत्य से बहुत दूर हो और सत्य से विमुख हो। तुमने आशीष प्राप्त करने के लिए आस्था रखी है, और तुम परमेश्वर से सिर्फ इसलिए दूर नहीं गए क्योंकि तुम्हें दंडित होने का डर है। इसलिए तुम अपनी आस्था किसी तरह निभा लेते हो, खुद को अच्छा दिखाने के लिए शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करने की कोशिश करते हो, थोड़ी आध्यात्मिक शब्दावली और कुछ लोकप्रिय भजन सीख लेते हो, सत्य पर संगति करने के लिए कुछ सूत्रवाक्य और अपनी आस्था से जुड़े प्रचलित बोल सीख लेते हो। तुम खुद को आध्यात्मिक व्यक्ति की तरह अलंकृत करते हो, यह सोचकर कि तुम वह व्यक्ति हो जो परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है और परमेश्वर के उपयोग के लायक है। तुम बेपरवाह होकर खुद को भूल जाते हो। तुम इस सतही छवि, इस पाखंडी व्यवहार के फेर में आकर बेवकूफ बन जाते हो। तुम अपनी मृत्यु तक इनसे बेवकूफ बनते रहते हो, और हालाँकि तुम्हें लगता है कि तुम स्वर्ग में आरोहण करोगे, सच पूछो तो तुम नरक में उतरोगे। वैसी आस्था रखने का भला क्या अर्थ है? तुम्हारी इस तथाकथित “आस्था” में कुछ भी वास्तविक नहीं है। ज्यादा-से-ज्यादा तुमने मान लिया है कि एक परमेश्वर है, मगर तुमने सत्य वास्तविकता में जरा भी प्रवेश नहीं किया है। तो अंत में तुम्हारा नतीजा भी वही होगा जो गैर-विश्वासियों का होता है—तुम नरक में जाओगे, बिनी किसी अच्छे अंतिम नतीजे के। परमेश्वर ने कहा : “मैं जो माँगता हूँ वे केवल उजले, रंग-बिरंगे फूल ही नहीं, बल्कि भरपूर फल हैं।” तुम्हारे पास चाहे जितने फूल हों या वे चाहे जितने भी सुंदर हों, वे परमेश्वर को नहीं चाहिए। इसका अर्थ यह है कि तुम चाहे जितना भी मीठा बोलो या चाहे तुम जितने भी खपते, योगदान देते, न्योछावर करते नजर आओ, यह वह नहीं है जिससे परमेश्वर को आनंद मिलता है। परमेश्वर सिर्फ यह देखता है कि तुम्हें वास्तव में सत्य की कितनी समझ है और तुमने कितना अभ्यास किया है, परमेश्वर के वचनों की कितनी सत्य वास्तविकता तुमने जी है, क्या तुम्हारे जीवन स्वभाव में सच्चा बदलाव हुआ है, तुम्हारे पास कितनी सच्ची अनुभवजन्य गवाही है, तुमने कितने नेक कर्म किए हैं, तुमने परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए कितना कार्य किया है, और क्या तुमने अपना कर्तव्य मानक स्तर तक निभाया है। परमेश्वर यही चीजें देखता है। जब लोग परमेश्वर को नहीं समझते और उसके इरादों को नहीं जानते, तो वे हमेशा इसका गलत अर्थ निकालते हैं और उसके साथ हिसाब चुकाने के तरीके के रूप में उसे कुछ सतही चीजें पेश करते हैं। वे कहते हैं, “हे परमेश्वर, मैं कई वर्षों से विश्वासी रहा हूँ। मैंने सब जगहों की यात्रा की है, सुसमाचार का प्रचार किया है, और बहुत-से लोगों का धर्म-परिवर्तन किया है। मैं तुम्हारे वचनों के अनेक अंशों का पाठ कर सकता हूँ, और बहुत-से भजन गा सकता हूँ। किसी बड़ी या मुश्किल चीज के आने पर मैं हमेशा उपवास और प्रार्थना करता हूँ, और मैं पूरे समय तुम्हारे वचन पढ़ता रहता हूँ। मैं तुम्हारे इरादों के अनुरूप कैसे नहीं हूँ?” फिर परमेश्वर उनसे कहता है : “क्या तुम अब ईमानदार व्यक्ति हो? क्या तुम्हारी धोखेबाजी बदल गई है? क्या तुमने ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए कभी कोई कीमत चुकाई है? क्या तुम कभी भी अपने द्वारा किए गए धोखेबाजी के तमाम कामों, धोखेबाजी के सभी खुलासों को मेरे पास लाए हो, और उन्हें रोशन किया है? क्या तुम मेरे साथ कम बेईमान हो? मुझसे झूठी शपथ या खोखले वादे करते समय या मुझे मूर्ख बनाने के लिए बढ़िया बातें करते समय क्या तुम उन्हें पहचानते हो? क्या तुमने इन चीजों को जाने दिया है?” जब तुम उस बारे में सोचते हो और पाते हो कि तुमने इन्हें बिल्कुल जाने नहीं दिया है, तो तुम हक्के-बक्के रह जाओगे। तुम इस तथ्य के प्रति आगाह होगे कि तुम परमेश्वर से किसी भी तरह हिसाब नहीं चुका सकते। तुम लोग खुद को जान सको इसके लिए मैं तुम लोगों की भ्रष्ट दशा को उजागर करता हूँ; मैं इतना इसलिए बोलता हूँ ताकि तुम लोग सत्य का अभ्यास करके वास्तविकता में प्रवेश कर सको। कोई भी वचन, कोई भी संगति या सत्य लोगों के हर जगह पाठ करने के लिए नहीं हैं; वे अभ्यास में लाने के लिए हैं। तुम लोगों को हमेशा सत्य को स्वीकार करने और अभ्यास में लाने को क्यों कहा जा रहा है? इसलिए कि केवल सत्य ही तुम लोगों की भ्रष्टता को शुद्ध कर सकता है और जीवन और तुम्हारे मूल्यों के प्रति नजरिए को बदल सकता है और केवल सत्य ही किसी का जीवन बन सकता है। जब तुम सत्य स्वीकारते हो, तो इसे अपना जीवन बनाने के लिए तुम्हें इस का अभ्यास भी करना चाहिए। अगर तुम्हें विश्वास है कि तुम्हें सत्य की समझ है मगर तुमने इस का अभ्यास नहीं किया है और यह तुम्हारा जीवन नहीं बन पाया है, तो संभवतः तुम नहीं बदल सकते। चूँकि तुमने सत्य को स्वीकार नहीं किया है, इसलिए तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के शुद्ध होने का कोई रास्ता नहीं है। अगर तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, तो तुम नहीं बदलोगे। अंततः अगर सत्य ने तुम्हारे दिल में जड़ें नहीं जमाई हैं और यह तुम्हारा जीवन नहीं बन पाया है, तो जब एक विश्वासी के रूप में तुम्हारा समय समाप्त होने को होगा, तो तुम्हारी नियति और परिणाम का फैसला हो जाएगा। इस संगति के प्रकाश में क्या तुम सभी लोगों को लग रहा है कि शीघ्रता से सत्य का अभ्यास करना चाहिए? तीन साल, पाँच साल या और भी ज्यादा प्रतीक्षा करने के बाद ही इसका अभ्यास शुरू न करो। सत्य पर अभ्यास करने को लेकर कोई भी समय बहुत जल्द या बहुत देर का नहीं होता; अगर तुम इसका शीघ्र अभ्यास करोगे, तो शीघ्र बदलोगे, अगर तुम इसका बाद में अभ्यास करोगे, तो बाद में बदलोगे। अगर तुम पवित्र आत्मा के कार्य और परमेश्वर द्वारा मानव जाति की पूर्णता का मौका चूक गए तो विपत्तियाँ आने पर तुम खतरे में पड़ जाओगे। फिर जब मानव जाति को बचाने का परमेश्वर का कार्य समाप्त होगा, तो कोई भी मौके नहीं बचेंगे। अगर मौके चूक जाने के बाद तुम कहोगे : “तब मैंने उसके लिए कोई मेहनत नहीं की, मगर अब मैं इस पर अमल करूँगा,” तो बहुत देर हो जाएगी, और परमेश्वर द्वारा तुम्हें पूर्ण बनाए जाने की संभावना नहीं रहेगी। ऐसा इसलिए कि अब पवित्र आत्मा कार्य नहीं करेगा, और सभी चीजों, सभी सत्य के बारे में तुम्हारी समझ बहुत उथली होगी। अब तमाम हालात पैदा हो रहे हैं, और सत्य पर संगति के जरिए तुम लोगों की आस्था बढ़ रही है और तुममें परमेश्वर का अनुसरण करने का जोश ज्यादा है। अगर कुछ समय तक हालात न बने होते, तो तुम लोग यकीनन नकारात्मक और अनुशासनहीन हो जाते, परमेश्वर से दूर और दूर हो जाते। तुम ठीक धार्मिक संसार के लोगों की तरह ही हो जाते, बिल्कुल सत्य वास्तविकता के बिना सभाओं और धार्मिक अनुष्ठानों के खाकों का निरीक्षण करने वाले। फिर रोने-धोने से तुम लोगों का क्या भला होता?

मुझे बताओ, क्या धोखेबाज लोगों के साथ-साथ जीना थकाऊ होता है? (जरूर होता है।) क्या वे भी थके हुए नहीं हैं? दरअसल वे भी थके हुए हैं मगर उन्हें अपनी थकान महसूस नहीं होती। ऐसा इसलिए कि धोखेबाज और ईमानदार लोग अलग-अलग होते हैं : ईमानदार लोग ज्यादा सरल होते हैं। उनके विचार उतने पेचीदा नहीं होते, वे वही बोलते हैं जो सोचते हैं। दूसरी ओर धोखेबाज लोगों को हमेशा घुमा-फिरा कर बोलना पड़ता है। वे कोई भी बात सीधे तौर पर नहीं करते—बल्कि हमेशा धोखेबाजी के खेल खेलते हैं, अपने झूठ छिपाते हैं। वे हमेशा अपने दिमाग चलाते रहते हैं, हमेशा सोचते रहते हैं, डरते हैं कि जरा भी लापरवाह हुए तो वे कोई चूक कर बैठेंगे। कुछ लोग किस हद तक धोखेबाजी के खेल खेलते हैं? वे चाहे जिससे भी बातचीत कर रहे हों, हमेशा समझने की कोशिश में रहते हैं कि कौन ज्यादा मतलबी है, कौन ज्यादा होशियार है, कौन सबसे ऊपर है, और आखिरकार प्रतिस्पर्धा की उनकी भावना मानसिक विकार बन जाती है। वे रात में सो नहीं पाते, फिर भी उन्हें दर्द महसूस नहीं होता और यहाँ तक कि यह सामान्य लगता है। फिर क्या वे जीवित दानव नहीं बन चुके हैं? जब परमेश्वर लोगों को बचाता है, तो वह उन्हें ईमानदार लोग होने और उसके वचनों के अनुसार जीने के लिए शैतान के प्रभाव से मुक्त होने और अपने भ्रष्ट स्वभाव त्यागने देता है। एक ईमानदार व्यक्ति की तरह जीना स्वतंत्रता और मुक्ति देने वाला और काफी कम दर्दनाक होता है। यह सबसे खुशहाल जीवन होता है। ईमानदार लोग ज्यादा सरल होते हैं। वे अपने दिल की बात करते हैं, वही बोलते हैं जो वे सोचते हैं। अपने कथनों और कृत्यों में वे अपने जमीर और समझ का अनुसरण करते हैं। वे सत्य के लिए मेहनत करने को तैयार रहते हैं और उसे समझ लेने के बाद वे उसका अभ्यास करते हैं। जब वे कोई बात समझ नहीं पाते, तो सत्य खोजने को तैयार रहते हैं, और फिर वे वही करते हैं जो सत्य के अनुरूप होता है। वे हर जगह और हर चीज में परमेश्वर की इच्छाएँ खोजते हैं, और फिर अपने कार्यों में उनका पालन करते हैं। ऐसे कुछ क्षेत्र हो सकते हैं जिनमें वे बेवकूफ होते हैं और जिनमें उन्हें सत्य सिद्धांतों से लैस होना चाहिए, और इसके लिए जरूरी है कि वे निरंतर विकास करें। इस तरह अनुभव करने का अर्थ है कि वे ईमानदार और बुद्धिमान हो सकते हैं, और पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हो सकते हैं। लेकिन धोखेबाज लोग ऐसे नहीं होते। वे शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं, अपनी भ्रष्टता का खुलासा करते रहते हैं, फिर भी डरते हैं कि ऐसा करने से कहीं दूसरे लोग उनके खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए कुछ पता न लगा लें। इसलिए वे जवाब में कुटिल, धोखेबाज चालें चलते हैं। वे उस समय से डरते हैं जब तमाम चीजों का खुलासा होगा, इसलिए वे झूठ बनाने और उन्हें छिपाने के सभी साधन इस्तेमाल करते हैं जो उनके वश में हैं, और जब कुछ अंतराल नजर आता है तो उसे भरने के लिए वे और झूठ बोलते हैं। हमेशा झूठ बोलना और अपना झूठ छिपाना—क्या यह जीने का एक थकाऊ तरीका नहीं है? वे हमेशा झूठ और उन्हें दबाने के तरीके सोचने के लिए अपने दिमाग लगाते रहते हैं। यह बहुत ज्यादा थकाऊ होता है। इसीलिए झूठ तैयार करने और उन्हें छिपाने में दिन बिताने वाले धोखेबाज लोगों का जीवन हमेशा इतना थकाऊ और दर्दनाक होता है! लेकिन ईमानदार लोगों के साथ बात अलग है। ईमानदार व्यक्ति को बोलते और कर्म करते समय इतनी सारी चीजों पर विचार नहीं करना पड़ता। ज्यादातर स्थितियों में ईमानदार व्यक्ति बस सच्चाई से बोल सकता है। सिर्फ जब कोई खास मामला उनके हितों को प्रभावित करता है, तभी वे अपना दिमाग थोड़ा ज्यादा चलाते हैं—वे अपने हितों की रक्षा करने और अपना अभिमान और गर्व बनाए रखने के लिए थोड़ा झूठ बोल सकते हैं। ऐसे झूठ सीमित होते हैं, इसलिए ईमानदार लोगों के लिए बोलना और कार्य करना उतना थकाऊ नहीं होता। धोखेबाज लोगों के इरादे ईमानदार लोगों के मुकाबले काफी पेचीदा होते हैं। उनके ध्यान देने योग्य विचार बहुत ज्यादा बहुआयामी होते हैं : उन्हें अपनी प्रतिष्ठा, शोहरत, लाभ और हैसियत का विचार करना होता है; और उन्हें अपने हितों की रक्षा करनी होती है—और ये सब लोगों को खामियाँ दिखाए बिना या खेल का खुलासा किए बिना, इसलिए उन्हें झूठ तैयार करने के लिए अपना दिमाग लगाना पड़ता है। इसके अलावा धोखेबाज लोगों की बहुत बड़ी और अत्यधिक आकांक्षाएँ और कई माँगें होती हैं। उन्हें अपने लक्ष्य पाने के लिए तरीके ईजाद करने होते हैं, इसलिए उन्हें झूठ बोलते और ठगते रहना पड़ता है, और वे जितने ज्यादा झूठ बोलते हैं, उतने ज्यादा झूठ उन्हें छिपाने पड़ते हैं। इसीलिए धोखेबाज व्यक्ति का जीवन ईमानदार व्यक्ति के जीवन की अपेक्षा बहुत ज्यादा थकाऊ और पीड़ादायक होता है। कुछ लोग अपेक्षाकृत ईमानदार होते हैं। उन्होंने चाहे जो भी झूठ बोले हों, अगर वे इसकी परवाह किए बिना सत्य का अनुसरण कर आत्मचिंतन कर सकते हैं, जिस चालबाजी में वे शामिल हैं उसे पहचान सकते हैं, चाहे वह जो भी हो, उसका गहन विश्लेषण करने, समझने और फिर उसे बदलने के लिए परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में उसे देख सकते हैं, तो फिर वे कुछ ही वर्षों में अपने झूठ और चालबाजी से काफी हद तक छुटकारा पा सकेंगे। फिर वे वैसे व्यक्ति बन चुके होंगे जो बुनियादी तौर पर ईमानदार हैं। इस तरह जीना उन्हें न सिर्फ अधिक पीड़ा और थकान से मुक्त कर देता है, इससे उन्हें शांति और खुशी भी मिलती है। कई मामलों में वे शोहरत, प्राप्ति, हैसियत, अभिमान और गर्व के बंधनों से स्वतंत्र रह कर स्वाभाविक रूप से आजाद और मुक्त जीवन जिएँगे। लेकिन हालाँकि धोखेबाज लोगों की बातों और कृत्यों के पीछे हमेशा गुप्त मंसूबे होते हैं। वे लोगों को गुमराह करने और चालबाजी करने के लिए तरह-तरह के झूठ बनाते हैं और उजागर होते ही वे अपने झूठों को छिपाने के तरीके सोचने लगते हैं। तरह-तरह से उत्पीड़ित होकर उन्हें भी लगता है कि उनका जीवन थकाऊ है। उनके लिए हर स्थिति में इतने सारे झूठ बोलना बहुत थकाऊ होता है, और फिर उन झूठों को छिपाना और भी ज्यादा थकाऊ होता है। उनकी हर बात कोई लक्ष्य साधने के लिए होती है, इसलिए वे अपने प्रत्येक शब्द पर बहुत ज्यादा मानसिक ऊर्जा खपाते हैं। और जब उनकी बात खत्म हो जाती है तो वे डर जाते हैं कि तुमने उनके भीतर झाँक लिया है, तो उन्हें अपने झूठ छिपाने के लिए अपना दिमाग लगाना पड़ता है, तुम्हें दृढ़ निश्चय से चीजें समझानी पड़ती हैं, तुम्हें यकीन दिलाने की कोशिश करनी पड़ती है कि वे झूठ नहीं बोल रहे हैं, धोखा नहीं दे रहे हैं, और वे एक नेक इंसान हैं। धोखेबाज लोग ऐसे काम करने में तत्पर होते हैं। अगर दो धोखेबाज लोग साथ हों, तो साजिश, संघर्ष और षड्यंत्र का होना लाजिमी है। यह तकरार कभी खत्म नहीं होती, जिससे और गहरी नफरत पैदा होती है और वे कट्टर दुश्मन बन जाते हैं। अगर किसी धोखेबाज व्यक्ति के साथ तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो, तो ये बर्ताव तुम्हें यकीनन परेशान कर देंगे। अगर वे बस यहाँ-वहाँ वैसे कर्म करते रहे, तो तुम कहोगे कि हरेक का स्वभाव भ्रष्ट है, और ऐसी चीजों से बचना मुश्किल है। लेकिन अगर वे सारा समय यूँ ही करते रहे, तो तुम्हें इन तरीकों से खास तौर पर घृणा होगी, नफरत होगी; तुम्हें उनके इस पहलू और उनके इन इरादों से नफरत हो जाएगी। जब तुम इस हद तक नफरत करोगे, तो उनसे घृणा कर उन्हें ठुकरा सकोगे। यह बहुत सामान्य बात है। जब तक वे प्रायश्चित्त नहीं करते और थोड़ा बदलाव नहीं दिखाते, उनसे बातचीत नहीं की जा सकती।

तुम लोग क्या कहते हो—क्या धोखेबाज लोगों का जीवन थकाऊ नहीं है? वे अपना पूरा समय झूठ बोलने और फिर उन्हें छिपाने के लिए और ज्यादा झूठ बोलने और चालबाजी करने में लगा देते हैं। वे ही खुद को इतना थकाते हैं। वे जानते हैं कि इस तरह जीना थकाऊ है—फिर भी वे क्यों धोखेबाज बने रहना चाहते हैं, ईमानदार क्यों नहीं होना चाहते? क्या तुम लोगों ने कभी इस सवाल पर विचार किया है? यह लोगों के अपनी शैतानी प्रकृति द्वारा बेवकूफ बनाए जाने का नतीजा है; यह उन्हें ऐसे जीवन और ऐसे स्वभाव से छुटकारा पाने से रोकता है। लोग इस तरह बेवकूफ बनाए जाने और इस तरह जीने को तैयार रहते हैं; वे सत्य का अभ्यास नहीं करना चाहते, प्रकाश के मार्ग पर नहीं चलना चाहते। तुम्हें लगता है कि इस तरह जीना थकाऊ है और इस तरह कार्य करना जरूरी नहीं है—लेकिन धोखेबाज लोग सोचते हैं कि यह पूरी तरह से जरूरी है। वे सोचते हैं कि ऐसा न करने से उनका अपमान होगा, उनकी छवि, प्रतिष्ठा और हितों को भी नुकसान पहुँचेगा, और वे बहुत-कुछ खो देंगे। वे ये चीजें सँजोते हैं, वे अपनी छवि, प्रतिष्ठा और हैसियत को सँजोते हैं। यह उन लोगों का असली चेहरा है जो सत्य से प्रेम नहीं करते। संक्षेप में, लोग ईमानदार होने या सत्य का अभ्यास करने को इसलिए तैयार नहीं होते क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते। अपने दिल में वे प्रतिष्ठा और हैसियत जैसी चीजों को संजोते हैं, वे सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागना और शैतान की सत्ता के अधीन रहकर जीना पसंद करते हैं। यह उनकी प्रकृति की समस्या है। अभी ऐसे लोग हैं जिन्होंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, अनेक धर्मोपदेश सुने हैं और जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखना क्या होता है। लेकिन फिर भी वे सत्य का अभ्यास नहीं करते और जरा भी नहीं बदले हैं—ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते। भले ही वे थोड़ा-बहुत सत्य समझते हों, फिर भी वे उस का अभ्यास नहीं कर पाते। ऐसे लोग परमेश्वर में चाहे जितने वर्ष विश्वास रख लें, वह कुछ भी नहीं होगा। क्या सत्य से प्रेम न करने वालों को बचाया जा सकेगा? यह बिल्कुल नामुमकिन है। सत्य से प्रेम न करना किसी व्यक्ति के दिल, उसकी प्रकृति की समस्या है। इसे दूर नहीं किया जा सकता। अपनी आस्था में कोई बचाया जा सकता है या नहीं, यह मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि वह सत्य से प्रेम करता है या नहीं। सिर्फ सत्य का प्रेमी ही सत्य को स्वीकार सकता है; सिर्फ वही मुश्किलें झेल सकता है और सत्य की खातिर कीमत चुका सकता है, सिर्फ वही परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा कर सकता है। सिर्फ वही सत्य को खोज सकता है, और अपने अनुभवों के जरिए आत्मचिंतन कर खुद को जान सकता है, देह-सुख के विरुद्ध विद्रोह करने, सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को समर्पित होने का साहस रखता है। सिर्फ सत्य के प्रेमी ही उसका इस तरह अनुसरण कर सकते हैं, उद्धार के पथ पर चल सकते हैं और परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं। इसके सिवाय दूसरा कोई रास्ता नहीं है। सत्य से प्रेम न करने वालों के लिए इसे स्वीकार करना बहुत मुश्किल होता है। ऐसा इसलिए कि अपनी प्रकृति से ही वे सत्य से विमुख होते हैं और उससे घृणा करते हैं। अगर वे परमेश्वर का प्रतिरोध करना बंद कर देना चाहें या बुरे कर्म न करना चाहें, तो ऐसा करना उनके लिए बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि वे शैतान के हैं और वे पहले ही दानव और परमेश्वर के शत्रु बन चुके हैं। परमेश्वर मानव जाति को बचाता है, वह दानवों या शैतान को नहीं बचाता। कुछ लोग ऐसे सवाल पूछते हैं : “मैं वास्तव में सत्य को समझता हूँ। मैं सिर्फ उसका अभ्यास नहीं कर सकता। मैं क्या करूँ?” यह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम नहीं करता। अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता, तो उसे समझ कर भी वह उसका अभ्यास नहीं कर सकता क्योंकि दिल से वह ऐसा करने को तैयार नहीं है, और उसे सत्य पसंद नहीं है। ऐसा व्यक्ति उद्धार से परे है। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे लगता है कि ईमानदार व्यक्ति बन कर तुम बहुत-सी चीजें खो देते हो, इसलिए मैं ऐसा व्यक्ति नहीं बनाना चाहता। धोखेबाज लोग कभी खोते नहीं—यहाँ तक कि वे दूसरों का फायदा उठाकर लाभान्वित होते हैं। तो मैं धोखेबाज बनना पसंद करूँगा। मैं दूसरों को अपना निजी व्यवसाय जानने देने, मुझे जानने या समझने देने को तैयार नहीं हूँ। मेरा भाग्य मेरे अपने हाथों में होना चाहिए।” फिर ठीक है, हर तरह से आजमा कर देख लो। देखो तुम्हें कैसे नतीजा मिलता है; देखो अंत में कौन नरक में जाता है, और कौन दंडित किया जाता है।

क्या तुम लोग ईमानदार बनने को तैयार हो? इस संगति को सुनने के बाद तुम लोग क्या करना चाहते हो? तुम पहले किस बात से शुरू करोगे? (मैं झूठ न बोलकर शुरू करूँगा।) अभ्यास करने का यह सही तरीका है, मगर झूठ न बोलना आसान नहीं होता। लोगों के झूठों के पीछे अक्सर इरादे होते हैं, लेकिन कुछ झूठों के पीछे कोई इरादा नहीं होता, न ही उनकी जान-बूझकर योजना बनाई जाती है। बजाय इसके वे सहज ही निकल आते हैं। ऐसे झूठ आसानी से सुलझाए जा सकते हैं; जिन झूठों के पीछे इरादे होते हैं उन्हें सुलझाना मुश्किल होता है। ऐसा इसलिए कि ये इरादे व्यक्ति की प्रकृति से आते हैं और शैतान की चालबाजी दर्शाते हैं, और ये ऐसे इरादे होते हैं जो लोग जान-बूझकर चुनते हैं। अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता, तो वह देह-सुख के खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकता—इसलिए उसे परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा करना चाहिए, और मसला सुलझाने के लिए सत्य खोजना चाहिए। लेकिन झूठ को एक ही बार में पूरी तरह नहीं सुलझाया जा सकता। ये कभी-कभी लौट आते हैं और कई-कई बार ऐसा होता है। यह सामान्य स्थिति है, और जब तक तुम अपने बताए प्रत्येक झूठ को सुलझाते जाओगे, और ऐसा करते रहोगे, तो वह दिन आएगा जब तुमने सभी झूठ सुलझा लिए होंगे। झूठ का समाधान एक लंबा युद्ध है : जब एक झूठ बाहर आ जाए तो आत्मचिंतन करो और फिर परमेश्वर से प्रार्थना करो। जब दूसरा झूठ बाहर आए, तो दोबारा आत्मचिंतन कर परमेश्वर से प्रार्थना करो। तुम परमेश्वर से जितनी ज्यादा प्रार्थना करोगे, अपने भ्रष्ट स्वभाव से उतनी ही घृणा करोगे, और उतने ही सत्य का अभ्यास करने और उसे जीने को लालायित होगे। इस तरह तुम्हें झूठ का परित्याग करने की शक्ति मिलेगी। ऐसे अनुभव और अभ्यास के थोड़े समय के बाद तुम देख पाओगे कि तुम्हारे झूठ बहुत कम हो गए हैं, तुम ज्यादा आसानी से जी रहे हो, और अब तुम्हें झूठ बोलने या अपने झूठ छिपाने की जरूरत नहीं है। हालाँकि तुम शायद हर दिन ज्यादा न बोलो, मगर तुम्हारा हर वाक्य तुम्हारे दिल से आएगा और सच्चा होगा, जिसमें झूठ बहुत कम होंगे। इस तरह जीना कैसा लगेगा? क्या यह स्वतंत्र और मुक्त करने वाला नहीं होगा? तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें बाधित नहीं करेगा, तुम उसके बंधन में नहीं रहोगे, और कम-से-कम तुम ईमानदार व्यक्ति बनने के परिणाम देखना शुरू कर दोगे। बेशक विशेष हालात का सामना होने पर तुम शायद कोई छोटा-मोटा झूठ बोल दो। ऐसे मौके भी आ सकते हैं जब तुम्हारा सामना किसी खतरे या मुसीबत से हो, या तुम अपनी सुरक्षा बनाए रखना चाहो, तब झूठ बोलने से बचा नहीं जा सकता। फिर भी तुम्हें उस पर आत्मचिंतन कर उसे समझना चाहिए और समस्या को हल करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर कहना चाहिए : “मुझमें अभी भी झूठ और चालबाजी हैं। परमेश्वर मुझे सदा के लिए मेरे भ्रष्ट स्वभाव से बचाए।” जब कोई जान-बूझकर बुद्धि का प्रयोग करता है, तो यह भ्रष्टता का खुलासा नहीं माना जाता। ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए इंसान को इसका अनुभव करना पड़ता है। इस तरह तुम्हारे झूठ और भी कम हो जाएँगे। आज तुम दस झूठ बोलते हो, कल शायद नौ बोलो, और परसों आठ। बाद में तुम सिर्फ दो-तीन ही बोलोगे। तुम ज्यादा-से-ज्यादा सत्य बोलोगे, और ईमानदार व्यक्ति बनने का तुम्हारा अभ्यास परमेश्वर के इरादों, उसकी अपेक्षाओं और उसके मानकों के और ज्यादा करीब पहुँच जाएगा—और यह कितना अच्छा होगा! ईमानदार होने का अभ्यास करने के लिए तुम्हारे पास एक पथ और एक लक्ष्य होना चाहिए। सबसे पहले झूठ बोलने की समस्या को हल करो। तुम्हें अपने ये झूठ बोलने के पीछे के सार को जानना चाहिए। तुम्हें यह भी गहन विश्लेषण करना चाहिए कि कौन-से इरादे और मंशाएँ तुम्हें ये झूठ बोलने को प्रेरित करती हैं, तुम्हारे भीतर ऐसे इरादे क्यों हैं, और उनका सार क्या है। जब तुम इन सभी मसलों का स्पष्टीकरण कर लोगे, तो तुम झूठ बोलने की समस्या को अच्छी तरह समझ चुके होगे, और कुछ घटित होने पर तुम्हारे पास अभ्यास के सिद्धांत होंगे। अगर तुम ऐसे अभ्यास और अनुभव के साथ आगे बढ़ोगे, तो यकीनन तुम्हें परिणाम मिलेंगे। एक दिन तुम कहोगे : “ईमानदार होना आसान है। धोखेबाज होना बहुत थकाऊ है! मैं अब और धोखेबाज इंसान नहीं रहना चाहता, मुझे हमेशा सोचना पड़ता है कि कौन-सा झूठ बोलूँ और अपने झूठ कैसे छिपाऊँ। यह एक मानसिक रोगी होने की तरह है, जो विरोधाभासी बातें करता है-ऐसा जो ‘इंसान’ कहने लायक नहीं है! ऐसा जीवन बहुत थकाऊ है, अब मैं और उस तरह नहीं जीना चाहता!” इस समय तुम्हें सचमुच ईमानदार होने की आशा होगी, और इससे साबित होगा कि तुम ईमानदार व्यक्ति बनने की ओर आगे बढ़ रहे हो। यह एक कामयाबी है। बेशक तुममें से कुछ लोग होंगे जो तुम्हारे अभ्यास शुरू करते समय ईमानदार बातें कहेंगे और खुद को खोल कर पेश करने के बाद अपमानित महसूस करेंगे। तुम्हारा चेहरा लाल हो जाएगा, तुम शर्मिंदा महसूस करोगे, और तुम लोगों की हँसी से डरोगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? तब भी तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर उससे शक्ति देने की विनती करनी चाहिए। तुम कहो : “हे परमेश्वर, मैं ईमानदार व्यक्ति बनाना चाहता हूँ, लेकिन मुझे डर है कि मेरे सत्य बोलने पर लोग मुझ पर हँसेंगे। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे मेरे शैतानी स्वभाव के बंधन से बचा लो; मुझे स्वतंत्र और मुक्त होकर तुम्हारे वचनों के अनुसार जीने दो।” जब तुम इस तरह प्रार्थना करोगे, तो तुम्हारे दिल में और ज्यादा उजाला हो जाएगा, और तुम खुद से कहोगे : “इसे अभ्यास में लाना अच्छा है। आज मैंने सत्य का अभ्यास किया है। आखिरकार अब मैं ईमानदार व्यक्ति बन गया हूँ।” जब तुम इस तरह प्रार्थना करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। वह तुम्हारे हृदय में कार्य करेगा, वह तुम्हें प्रेरित करेगा, तुम्हें इस बात की सराहना करने देगा कि ईमानदार बन कर कैसा महसूस होता है। सत्य को इसी तरह अभ्यास में लाना चाहिए। बिल्कुल शुरुआत में तुम्हारे सामने कोई पथ नहीं होगा, लेकिन सत्य को खोजने से तुम्हें पथ मिल जाएगा। जब लोग सत्य को खोजना शुरू करते हैं, तो जरूरी नहीं कि उनमें आस्था हो। पथ न होने से लोगों को बड़ी मुश्किल होती है, लेकिन जब एक बार वे सत्य को समझ लेते हैं, और उनके सामने अभ्यास का पथ होता है तो उनके दिलों को उसमें आनंद मिलने लगता है। अगर वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाते हैं, तो उनके दिलों को आराम मिलेगा, उन्हें स्वतंत्रता और मुक्ति हासिल होगी। अगर तुम्हें परमेश्वर का थोड़ा सच्चा ज्ञान है, तो तुम इस संसार की तमाम चीजें स्पष्ट देख पाओगे; तुम्हारा हृदय प्रकाशित होगा, और तुम्हारे सामने एक पथ होगा। फिर तुम संपूर्ण मुक्ति और स्वतंत्रता प्राप्त करोगे। उस समय तुम समझ जाओगे कि सत्य का अभ्यास करने, परमेश्वर को संतुष्ट करने और एक सच्चा व्यक्ति बनने का क्या अर्थ होता है—और इसमें तुम परमेश्वर में अपने विश्वास के सही रास्ते पर चलोगे।

शरद ऋतु 2007

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