एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास

ईमानदार व्यक्ति होने का तुम्हारा निजी अनुभव कैसा है? (ईमानदार व्यक्ति होना सचमुच बहुत मुश्किल लगता है।) यह मुश्किल क्यों लगता है? (मैं सच में ईमानदार बनना चाहता हूँ। लेकिन जब मैं हर दिन खुद को जाँचता हूँ, तो पाता हूँ कि मैं थोड़ा बेईमान हूँ, मेरी कथनी में ढेरों मिलावटें है। कभी-कभी मैं अपनी बातों में जज्बात डाल देता हूँ, या बोलते समय मेरी कुछ मंशाएँ होती हैं। कभी-कभी मैं थोड़े खेल खेलता हूँ, घुमा-फिरा कर बोलता हूँ, या ऐसी बातें कहता हूँ जो वास्तविकता के विरुद्ध होती हैं—छल-कपट वाली चीजें, आधा-सच और दूसरी तरह की झूठी बातें, सब अपना लक्ष्य साधने के लिए।) ये तमाम व्यवहार लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से उपजते हैं; ये लोगों के उस अंश से जुड़े होते हैं जो कुटिल और कपटपूर्ण है। लोग कुटिल होने का खेल क्यों खेलते हैं? यह उनका अपना उल्लू सीधा करने के लिए होता है, अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए होता है, और इसलिए वे छलपूर्ण उपाय करते हैं। ऐसा करने में वे खुले और निष्कपट नहीं होते, ईमानदार नहीं होते। ऐसे ही समय में लोग अपनी बेईमानी और चालाकी या अपनी दुष्टता और घिनौनापन दिखाते हैं। ईमानदार होने में मुश्किल यहीं आती है : अपने दिल में ऐसा भ्रष्ट स्वभाव लिए हुए एक ईमानदार व्यक्ति बनना सचमुच खास तौर पर मुश्किल लगेगा। लेकिन अगर तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति हो, सत्य को स्वीकार करने में समर्थ हो, तो ईमानदार व्यक्ति बनना बहुत मुश्किल नहीं होगा। तुम्हें लगेगा कि यह बहुत आसान है। निजी अनुभव वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं कि ईमानदार व्यक्ति होने की राह में आने वाली सबसे बड़ी बाधाएँ है लोगों का छल, कपट, बैरभाव और उनके घिनौने इरादे। जब तक उनके ये भ्रष्ट स्वभाव मौजूद रहेंगे, ईमानदार व्यक्ति होना बहुत मुश्किल होगा। तुम सभी लोग ईमानदार होने का प्रशिक्षण ले रहे हो, इसलिए तुम्हें इसका थोड़ा अनुभव है। तुम्हारे अनुभव कैसे रहे हैं? (मैं हर दिन अपनी कही सारी झूठी बातें, सारा कूड़ा-करकट लिख डालता हूँ। फिर मैं थोड़ा आत्म-निरीक्षण और आत्म-विश्लेषण करता हूँ। मुझे पता चला है कि इन ज्यादातर झूठी बातों के पीछे मेरी कोई मंशा है, और मैंने ये बातें अपने मिथ्याभिमान और नाक कटने से बचने के लिए बताई थीं। हालांकि मैं जानता हूँ कि मेरी बातें सत्य के अनुरूप नहीं हैं, फिर भी मैं झूठ बोले या ढोंग किए बिना नहीं रह सकता।) यही है ईमानदार व्यक्ति होने की सबसे बड़ी मुश्किल। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि तुम इससे अवगत हो या नहीं; अहम बात यह है कि यह जानते हुए भी कि जो तुम कर रहे हो वह गलत है, तुम जिद्दी होकर झूठ बोलते जाते हो, ताकि अपने लक्ष्य हासिल कर सको, अपनी छवि और अपना नाम बनाए रख सको, और इससे अनजान होने का दावा झूठ है। एक ईमानदार व्यक्ति होने की कुंजी है तुम्हारी मंशाओं, तुम्हारे इरादों और भ्रष्ट स्वभावों को दूर करना। यही झूठ बोलने की समस्या और इसके स्रोत को दूर करने का एकमात्र तरीका है। अपने निजी लक्ष्य हासिल करना यानी व्यक्तिगत रूप से लाभान्वित होना, किसी स्थिति का फायदा उठाना, खुद को अच्छा दिखाना, या दूसरों की स्वीकृति पाना—ये झूठ बोलते वक्त लोगों के इरादे और लक्ष्य होते हैं। इस प्रकार से झूठ बोलना भ्रष्ट स्वभाव दर्शाता है, और झूठ बोलने को लेकर तुम्हें ऐसी समझ की जरूरत है। तो इस भ्रष्ट स्वभाव को कैसे दूर करना चाहिए? इन सबका दारोमदार इस बात पर है कि तुम सत्य से प्रेम करते हो या नहीं। अगर तुम सत्य को स्वीकार सकते हो और अपनी वकालत किए बिना बोल सकते हो; अगर तुम अपने हितों पर ध्यान देना छोड़ कर कलीसिया कार्य, परमेश्वर की इच्छा और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों का विचार कर सकते हो, तो तुम झूठ बोलना छोड़ दोगे। तुम सच्चाई और साफगोई से बोल पाओगे। इस आध्यात्मिक कद के बिना, तुम सच्चाई से नहीं बोल पाओगे, जिससे यह साबित होगा कि तुम्हारे आध्यात्मिक कद में कमी है, और तुम सत्य पर अमल करने में असमर्थ हो। इसलिए एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए सत्य की समझ और आध्यात्मिक कद में बढ़ने की प्रक्रिया की जरूरत होती है। अगर इसे हम इस रूप में देखें, तो आठ-दस साल के अनुभव के बिना ईमानदार व्यक्ति होना असंभव है। किसी को जीवन में बढ़ने, सत्य को समझने और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया में इतना समय लगाना चाहिए। शायद कुछ लोग यह पूछें : “झूठ बोलने की समस्या को छोड़ना और ईमानदार बनना क्या सचमुच इतना कठिन हो सकता है?” यह इस पर निर्भर करता है कि तुम किसकी बात कर रहे हो। अगर वह सत्य से प्रेम करने वाला है, तो वह कुछ मामलों में झूठ बोलना छोड़ पाएगा। लेकिन अगर वह सत्य से प्रेम नहीं करने वाला कोई है, तो उसके लिए झूठ बोलना छोड़ना और ज्यादा मुश्किल हो जाएगा।

ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए खुद को प्रशिक्षित करना मुख्य रूप से झूठ बोलने की समस्या को दूर करने और साथ ही अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने का मामला है। इसे करने में एक अहम अभ्यास जुड़ा होता है : जब तुम्हें यह एहसास हो जाए कि तुमने किसी से झूठ बोला है, उसके साथ चाल चली है, तो तुम्हें उनके सामने पूरी तरह खुल कर माफी माँग लेनी चाहिए। झूठ बोलने की समस्या दूर करने के लिए यह अभ्यास बहुत लाभकारी है। मिसाल के तौर पर, अगर तुमने किसी के साथ चाल चली या तुमने उससे जो बातें कीं, उनमें थोड़ी मिलावट थी या तुम्हारे निजी इरादे थे, तो तुम्हें उससे मिलकर अपना विश्लेषण करना चाहिए। तुम्हें उसे बताना चाहिए : “मैंने तुम्हें जो बताया वह झूठ था, मेरे अपने गौरव की रक्षा के लिए ऐसा किया था। यह कहने के बाद मैं परेशान हो गया था, इसलिए मैं अब तुमसे क्षमा माँग रहा हूँ। कृपया मुझे माफ कर दो।” उस व्यक्ति को यह बात बहुत ताजगी देने वाली लगेगी। वह सोचेगा कि ऐसा कोई कैसे हो सकता है जो झूठ बोलने के बाद उसके लिए माफी माँगे। ऐसे साहस की वह सचमुच सराहना करता है। ऐसा अभ्यास करने के बाद किसी व्यक्ति को कैसे लाभ हासिल होते हैं? इसका प्रयोजन दूसरों की सराहना पाना नहीं, बल्कि खुद को झूठ बोलने से ज्यादा असरदार तरीके से संयमित करना और रोकना है। इसलिए झूठ बोलने के बाद, तुम्हें इसके लिए माफी माँगने का अभ्यास करना चाहिए। तुम इस तरह लोगों के सामने अपना विश्लेषण करने, पूरी तरह खुल जाने, और माफी माँगने का जितना ज्यादा अभ्यास करोगे, नतीजे उतने ही बेहतर होंगे—और तुम्हारी झूठी बातों की मात्रा कम और कम होती जाएगी। ईमानदार बनने और खुद को झूठ बोलने से रोकने के लिए अपना विश्लेषण कर, खुद को पूरी तरह खोल कर पेश करने का अभ्यास करने के लिए साहस चाहिए, और किसी से झूठ बोलने के बाद उससे माफी माँगने के लिए और ज्यादा साहस चाहिए। अगर तुम लोग साल-दो साल—या शायद चार-पाँच साल—इसका अभ्यास करो, तो तुम्हें यकीनन स्पष्ट नतीजे मिलेंगे, और तुम्हारे लिए झूठ बोलने से छुटकारा पाना मुश्किल नहीं होगा। खुद को झूठ से छुटकारा दिलाना ईमानदार व्यक्ति बनने की ओर पहला कदम है, और यह चार-पाँच साल के प्रयास के बिना नहीं किया जा सकता। झूठ बोलने की समस्या ठीक हो जाने के बाद, दूसरा कदम छल-कपट और चालबाजी की समस्या को दूर करना है। कभी-कभी चालबाजी और छल-कपट के लिए किसी व्यक्ति का झूठ बोलना जरूरी नहीं होता—ये चीजें सिर्फ कार्य से भी पूरी की जा सकती हैं। कोई व्यक्ति बाहर से शायद झूठ न बोले, मगर फिर भी उसके दिल में शायद छल-कपट और चालबाजी छिपी हुई हों। यह बात वह किसी और से ज्यादा जानता है, क्योंकि उसने बड़ी गहराई से इस बारे में सोचा और सावधानी से इस पर विचार किया है। बाद में चिंतन के बाद इसे पहचानना उसके लिए आसान होगा। एक बार झूठ बोलने की समस्या हल हो जाए, तो छल-कपट और चालबाजी की समस्याएँ दूर करना अपेक्षाकृत थोड़ी आसान होंगी। लेकिन व्यक्ति के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होना चाहिए, क्योंकि छल-कपट और चालबाजी करते समय मनुष्य नीयत से शासित होता है। दूसरे लोग बाहर से इसे बूझ नहीं पाते, न ही वे इसे जान पाते हैं। सिर्फ परमेश्वर ही इसे जाँच सकता है, और सिर्फ वही इस बारे में जानता है। इसलिए, कोई व्यक्ति छल-कपट और चालबाजी की समस्या को सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना पर भरोसा करके और उसकी जाँच को स्वीकार करके ही दूर कर सकता है। अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता, या दिल से परमेश्वर का भय नहीं मानता, तो उसकी छल-कपट और चालबाजी की समस्या हल नहीं हो सकती। हो सकता है तुम परमेश्वर से प्रार्थना करो, अपनी गलतियाँ मान लो, पाप स्वीकार कर प्रायश्चित्त करो, या हो सकता है अपने भ्रष्ट स्वभाव का विश्लेषण करो—सच्चाई से बताओ कि उस वक्त तुम क्या सोच रहे थे, तुमने क्या कहा, तुम्हारी नीयत क्या थी, और तुमने कपट कैसे किया। ये सब करना अपेक्षाकृत आसान है। लेकिन, अगर तुम्हें किसी दूसरे व्यक्ति के सामने पूरी तरह खुल जाने को कहा जाए, तो हो सकता है अपनी नाक कटने से बचने के लिए तुम अपना साहस और संकल्प खो दो। तब तुम्हारे लिए पूरी तरह खुल कर पेश होने का अभ्यास करना बहुत मुश्किल होगा। शायद, तुम एक सामान्य ढंग से स्वीकार लो कि तुम कभी-कभी अपने निजी लक्ष्यों और नीयत के आधार पर बोलते या कार्य करते हो; तुम्हारी कथनी और करनी में एक स्तर का फरेब, मिलावट, झूठ या चालबाजी है। लेकिन फिर, कुछ हो जाए और शुरू से अंत तक की घटनाएँ उजागर कर, यह बता कर कि तुम्हारी कौन-सी बातें कपटपूर्ण थीं, उनके पीछे कौन-सा आशय था, तुम क्या सोच रहे थे, तुम बैरभाव वाले या कुटिल थे या नहीं, तुम्हें अपना विश्लेषण करने पर मजबूर कर दिया जाए, तो तुम बारीकियों में नहीं जाना चाहते या विस्तार से नहीं बताना चाहते। कुछ लोग यह कह कर चीजें छिपाते भी हैं : “बात ऐसी ही है। मैं बस बहुत कपटी, घिनौना और अविश्वसनीय व्यक्ति हूँ।” यह दर्शाता है कि वे अपने भ्रष्ट सार का उचित ढंग से सामना करने के अयोग्य हैं और यह भी कि वे कितने कपटी और घिनौने हैं। ये लोग हमेशा टालमटोल की विधि और दशा में होते हैं। ये लोग हमेशा खुद को माफ करते और समायोजित करते रहते हैं, और ईमानदार बनने के सत्य का अभ्यास करने का कष्ट सहने या कीमत चुकाने में असमर्थ होते हैं। कई लोग वर्षों से हमेशा यह कहते हुए, सिद्धांत के वचनों का प्रचार करते रहे हैं : “मैं अत्यंत धोखेबाज और घिनौना हूँ, मेरे कृत्यों में अक्सर ठगी होती है, मैं लोगों से बिल्कुल ईमानदारी से पेश नहीं आता।” लेकिन वर्षों तक यूँ चिल्लाने के बाद भी वे पहले जितने ही धोखेबाज बने रहते हैं, क्योंकि जब वे अपनी धोखेबाजी की दशा दिखाते हैं, तब कोई कभी उनसे सच्चा विश्लेषण या पछतावा नहीं सुनता। वे कभी भी दूसरों के सामने खुद को खोल कर पेश नहीं करते या लोगों से झूठ बोलने या उन्हें ठगने के बाद माफी नहीं माँगते, सभाओं में आत्म-विश्लेषण और आत्मज्ञान की अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में संगति तो वे करते ही नहीं। वे कभी यह भी नहीं बताते कि वे खुद को कैसे जान पाए, या ऐसी बातों को लेकर उन्होंने पछतावा कैसे किया। वे इनमें से कुछ भी नहीं करते, जो यह साबित करता है कि वे खुद को नहीं जानते और उन्होंने सचमुच प्रायश्चित्त नहीं किया है। जब वे कहते हैं कि वे धोखेबाज हैं और ईमानदार बनना चाहते हैं, तो वे महज नारे लगते हैं, सिद्धांत का प्रचार करते हैं, और कुछ नहीं। हो सकता है कि वे ये चीजें इसलिए करते हैं क्योंकि वे सामाजिक तौर-तरीकों के साथ चलने, झुंड के पीछे भागने की कोशिश करते हैं। या हो सकता है कि कलीसिया जीवन का माहौल उन्हें यूँ ही बिना दिलचस्पी के सतही तौर पर काम करने और दिखावा करने को मजबूर करता है। किसी भी तरह, ऐसे नारेबाज और सिद्धांत प्रचारक कभी सच्चे दिल से प्रायश्चित्त नहीं करेंगे, और यकीनन परमेश्वर का उद्धार नहीं पा सकेंगे।

परमेश्वर लोगों से जिस भी सत्य के अभ्यास की अपेक्षा रखता है उसके लिए उन्हें कीमत चुकाने और अपने असली जीवन में उसका सचमुच अभ्यास और अनुभव करने की जरूरत होती है। परमेश्वर लोगों से नहीं कहता कि महज सिद्धांत का पाठ करो, आत्मज्ञान की बातें करो, मान लो कि तुम धोखेबाज, झूठे, कपटी, कुटिल और धूर्त हो या ये चीजें दो-चार बार जोर-जोर से बताकर अपनी बात खत्म कर दो। अगर कोई ये तमाम चीजें मान ले, मगर इस सच्चाई के बाद जरा भी न बदले; अगर वह झूठ बोलना, छलना और धोखेबाजी करना जारी रखे; अगर किसी चीज का सामना होने पर वह वही शैतानी ठगी, वही शैताने तरीके चलाता रहे; अगर उसके उपाय और तरीके कभी न बदलें, तो क्या यह व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के योग्य है? क्या वह कभी भी अपना स्वभाव बदल पाएगा? नहीं—कभी नहीं! तुम्हें चिंतन कर खुद को जानने में समर्थ होना चाहिए। तुम्हें भाई-बहनों की मौजूदगी में खुद को खोलकर पेश करने और अपनी सच्ची दशा के बारे में संगति करने की हिम्मत दिखानी चाहिए। अगर तुम खुल कर पेश नहीं हो सकते, या अपने भ्रष्ट स्वभाव का विश्लेषण नहीं कर सकते; अगर तुम अपनी गलतियाँ मानने की हिम्मत नहीं कर सकते, तो तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, खुद को जाननेवाला व्यक्ति बनना तो दूर की बात है। अगर सभी लोग उन धार्मिक लोगों जैसे हों जो दूसरों की सराहना पाने के लिए दिखावा करते हैं, जो गवाही देते हैं कि वे परमेश्वर से कितना प्रेम करते हैं, उसके प्रति कितने समर्पित हैं, उसके कितने बड़े भक्त हैं, और परमेश्वर उनसे कितना प्रेम करता है, तो यह सब वे दूसरों का आदर और सराहना पाने के लिए करते हैं; अगर सभी लोग अपनी निजी योजनाएँ छिपाए रखें और अपने दिलों में निजी स्थान बनाए रखें, तो कोई भी सच्चे अनुभवों की बात कैसे कर सकता है? किसी के पास एक-दूसरे को बताने के लिए सच्चे अनुभव कैसे होंगे? तुम्हारे अनुभवों को साझा करने और उनका संचार करने का अर्थ है तुम्हारा अपने अनुभवों और परमेश्वर के वचनों के ज्ञान पर संगति करना। यह तुम्हारे दिल के हर विचार, तुम्हारी हर दशा और तुममें प्रकट भ्रष्ट स्वभाव को वाणी देना है। यह दूसरों को इन चीजों के बारे में जानने देने और फिर सत्य पर संगति करके समस्या को सुलझाने के बारे में है। अनुभवों पर इस प्रकार संगति करके ही सभी लोग लाभ और फल पाते हैं। यही सच्चा कलीसिया जीवन है। अगर ये महज परमेश्वर के वचनों या किसी भजन पर तुम्हारी अंतर्दृष्टि के बारे में थोथी बातें हों, और फिर तुम इस पर आगे बोले बिना अपनी मनचाहे ढंग से लोगों से घुलो-मिलो, अपनी वास्तविक दशाओं या समस्याओं का खुलासा न करो, तो ऐसी संगति से कोई लाभ नहीं मिलता। अगर सभी लोग सैद्धांतिक या मीमांसात्मक ज्ञान के बारे में बताएँ, मगर वास्तविक अनुभवों से हासिल ज्ञान के बारे में कुछ न बोलें; और अगर सत्य पर संगति करते समय वे अपने निजी जीवन, असली जीवन समस्याओं और अपने भीतरी संसार के बारे में बोलने से बचें, तो फिर सच्चा संचार कैसे हो पाएगा? सच्चा भरोसा कैसे होगा? हो ही नहीं सकेगा! अगर कोई पत्नी अपने मन की बात पति से कभी न कहे, तो क्या इसे अंतरंगता कहा जाएगा? क्या वे जान पाएँगे कि एक-दूसरे के मन में क्या है? (नहीं, वे नहीं जान सकते।) फिर मान लो कि वे निरंतर कहते रहते हैं, “मैं तुमसे प्यार करता हूँ।” वे सिर्फ यही कहते हैं, मगर कभी खुद को खोल कर पेश नहीं करते या एक-दूसरे को नहीं बताते कि वे वास्तव में भीतर गहरे क्या सोच रहे हैं, उन्हें अपने साथी से क्या अपेक्षा है, या वे किन समस्याओं से जूझ रहे हैं। वे कभी भी एक-दूसरे को अपने मन की बात नहीं बताते, और साथ होने पर उनके बीच एक-दूसरे के लिए सतही मीठी बातों के अलावा कुछ नहीं होता। तो क्या वे सचमुच पति-पत्नी हैं? यकीनन नहीं! इसी तरह, अगर भाई-बहनों को एक-दूसरे से अपने मन की बात कहने लायक होना हो, एक-दूसरे की मदद करनी हो, और एक-दूसरे की जरूरत पूरी करनी हो, तो प्रत्येक को अपने सच्चे अनुभवों के बारे में बताना चाहिए। अगर तुम अपने सच्चे अनुभवों के बारे में कुछ नहीं कहते—अगर तुम सिर्फ मनुष्य को समझ आनेवाले सिद्धांत वचनों और पत्रों का प्रचार करते हो, अगर तुम सिर्फ परमेश्वर में विश्वास को लेकर थोड़ा सिद्धांत प्रचार करते हो, सिर्फ ऊबाऊ तुच्छ बातें बताते हो और अपने दिल की बात खुल कर नहीं कहते—तो तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, और ईमानदार व्यक्ति बनने लायक नहीं हो। अगर इसी मिसाल का इस्तेमाल करें : कई वर्षों तक साथ जीते हुए पति-पत्नी, कभी-कभी आपस में भिड़ते हुए, एक-दूसरे का आदी होने की कोशिश करते हैं। लेकिन अगर तुम दोनों सामान्य मानवता वाले हो, और हमेशा जीवन और काम की अपनी समस्याओं, अपनी भीतरी सोच, चीजें ठीक करने की अपनी योजना, या अपने बच्चों के भविष्य के बारे में अपने विचारों और योजनाओं के बारे में एक-दूसरे से दिल खोल कर बातें करते हो, और अपने साथी को ये सब बताते हो, तो फिर क्या तुम दोनों विशेष रूप से एक-दूसरे के साथ अंतरंग नहीं हो जाओगे? लेकिन अगर वह तुम्हें कभी अपने अंतर्मन की बातें न बताए, बस सिर्फ वेतन घर ले आए; अगर तुम अपने विचार कभी उसे न बताओ और तुम दोनों एक-दूसरे को दिल की बातें न बताओ, तो क्या तुम दोनों के बीच भावनात्मक दूरी नहीं होगी? जरूर होगी, क्योंकि तुम एक-दूसरे के विचारों और योजनाओं को नहीं समझते। आखिरकार, तुम यह नहीं बता सकोगे कि तुम्हारा जीवनसाथी किस किस्म का व्यक्ति है, न ही वह यह बता सकेगा कि तुम किस किस्म के व्यक्ति हो। तुम उसकी जरूरतें नहीं समझोगे, न ही वह तुम्हारी जरूरतें समझेगा। अगर लोगों के बीच कोई बोलचाल या आध्यात्मिक संचार न हो, तो उनके बीच अंतरंगता की कोई संभावना नहीं होती, और वे एक-दूसरे की जरूरतें पूरी नहीं कर सकते या एक-दूसरे की मदद नहीं कर सकते। तुम लोगों को ऐसा अनुभव हुआ होगा, हुआ है न? अगर तुम्हारा मित्र तुमसे अपने दिल की सारी बातें कहे, वह जो भी सोच रहा है, उसे जो भी तकलीफ या खुशी है, उनके बारे में तुम्हें खुलकर बताए, तो क्या तुम खुद को विशेष रूप से उसके करीब महसूस नहीं करोगे? वे मित्र तुम्हें ये सब बताने को इसलिए तैयार होते हैं, क्योंकि तुमने भी अपने अंतरंग विचार उन्हें बताये हैं। तुम लोग खास तौर पर करीब हो, और इसी वजह से तुम्हारी आपस में बहुत बनती है और तुम एक-दूसरे की मदद करते हो। कलीसिया के भाई-बहन आपस में इस प्रकार के संचार और बातचीत के बिना सद्भाव के साथ एक-दूसरे के साथ मिल-जुल कर नहीं रह सकेंगे, और उनके लिए अपने कर्तव्य निभाते समय साथ मिल कर काम करना नामुमकिन हो जाएगा। इसीलिए सत्य पर संगति करने के लिए आध्यात्मिक संचार और दिल से बात करने की समार्थ्य जरूरी होती है। यह उन सिद्धांतों में से एक है जो ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए किसी में होना चाहिए।

जब कुछ लोग यह सुनते हैं कि ईमानदार बनने के लिए सत्य बोलना और दिल की बात कहना चाहिए, और अगर वे झूठ बोलें या धोखा दें तो उन्हें इस बारे में खुल कर बता देना चाहिए और अपनी गलती मान लेनी चाहिए, तो वे कहते हैं : “ईमानदार होना कठिन है। क्या मुझे हर वह चीज दूसरों को बता देनी चाहिए जो मैं सोचता हूँ? क्या सिर्फ सकारात्मक चीजों पर संगति करना काफी नहीं है? मुझे दूसरों को अपने काले या भ्रष्ट अंश के बारे में बताने की जरूरत नहीं है, है न?” अगर तुम खुद को दूसरों के सामने खोल कर पेश नहीं करते, अपना विश्लेषण नहीं करते, तो तुम कभी खुद को नहीं जान पाओगे। तुम कभी नहीं पहचानोगे कि तुम किस किस किस्म की चीज हो, और दूसरे तुम पर कभी भरोसा नहीं कर पाएँगे। यह एक तथ्य है। अगर तुम चाहते हो कि दूसरे तुम पर भरोसा करें, तो पहले तुम्हें ईमानदार बनना चाहिए। ईमानदार बनने के लिए तुम्हें पहले अपना दिल चीर कर रखना चाहिए ताकि सभी उसके भीतर झाँक सकें, तुम्हारी सोच और तुम्हारा असली चेहरा देख सकें। तुम्हें बहुरूपिया बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, या खुद को छिपाना नहीं चाहिए। तभी दूसरे तुम पर भरोसा करेंगे, और तुम्हें ईमानदार व्यक्ति मानेंगे। यह सबसे बुनियादी अभ्यास है, और ईमानदार व्यक्ति बनने की पहली जरूरत। अगर तुम हमेशा बहाने बनाते हो, हमेशा पवित्रता, कुलीनता, महानता और उच्च चरित्र का दिखावा करते हो; अगर तुम लोगों को अपनी भ्रष्टता और खामियाँ नहीं देखने देते; अगर तुम लोगों को अपनी नकली छवि दिखाते हो, ताकि वे तुम्हारी सच्चाई पर यकीन करें, यह मानें कि तुम महान, आत्मत्यागी, न्यायप्रिय, और निस्वार्थ हो—तो क्या यह धोखेबाजी और असत्यता नहीं है? क्या समय के साथ लोग तुम्हारी असलियत नहीं देख पाएँगे? तो बहुरूपिया मत बनो, खुद को मत छिपाओ। इसके बजाय, दूसरों के देखने के लिए खुद को खोल कर रख दो। अगर तुम दूसरों के देखने के लिए अपना दिल खोल कर रख सकते हो, अगर तुम अपने तमाम सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के विचारों और योजनाओं को खोल कर रख सकते हो—तो क्या यह ईमानदारी नहीं है? अगर तुम दूसरों के देखने के लिए खुद को खोल कर रख सकते हो, तो परमेश्वर भी तुम्हें देखेगा। वह कहेगा : “अगर तुमने दूसरों के देखने के लिए खुद को खोल कर रख दिया है, तो तुम यकीनन मेरे समक्ष ईमानदार हो।” लेकिन अगर तुम दूसरे लोगों की दृष्टि से दूर होने पर सिर्फ परमेश्वर के सामने खुद को खोल कर रखते हो, और दूसरे लोगों के साथ होने पर हमेशा महान, कुलीन और निस्वार्थ होने का दिखावा करते हो, तो फिर परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या सोचेगा? वह क्या कहेगा? वह कहेगा : “तुम पूरी तरह धोखेबाज हो। पूरी तरह पाखंडी और घिनौने हो, ईमानदार नहीं हो।” परमेश्वर इस तरह तुम्हारी निंदा करेगा। अगर तुम ईमानदार बनना चाहते हो, तो तुम चाहे परमेश्वर के सामने रहो या दूसरे लोगों के सामने, तुम्हें अपनी भीतरी दशा और अपने दिल की बातों का शुद्ध और खुला हिसाब पेश करने में समर्थ होना चाहिए। क्या ऐसा कर पाना आसान है? इसके लिए कुछ समय तक प्रशिक्षण लेने और परमेश्वर से अक्सर प्रार्थना कर उस पर भरोसा करने की जरूरत है। तुम्हें हर विषय पर अपने दिल की बात को सरल ढंग से खुलकर बोलने में खुद को प्रशिक्षित करना चाहिए। ऐसे प्रशिक्षण से तुम तरक्की कर सकोगे। अगर कोई बड़ी मुश्किल तुम्हारे सामने आए तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य को खोजना चाहिए; तुम्हें अपने दिल में युद्ध कर देह को जीतना चाहिए, जब तक कि तुम सत्य पर अमल न कर पाओ। खुद को इस प्रकार प्रशिक्षित करने से थोड़ा-थोड़ा करके तुम्हारा दिल धीरे-धीरे खुल जाएगा। तुम और ज्यादा शुद्ध हो जाओगे, तुम्हारे कथन और कार्य के प्रभाव पहले से अलग होंगे। तुम्हारी झूठी बातें और ठगी, धीरे-धीरे कम होती जाएँगी और तुम परमेश्वर के समक्ष जी पाओगे। फिर तुम अनिवार्य रूप से ईमानदार व्यक्ति बन चुके होगे।

शैतान द्वारा भ्रष्ट होकर पूरी मानवजाति शैतानी स्वभाव के साथ जीती है। शैतान की तरह, लोग हर पहलू में भेस बदल कर खुद को बढ़िया ढंग से पेश करते हैं, और हर मामले में धोखाधड़ी और फायदे के खेल खेलते हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके लिए वे धोखाधड़ी और फायदे के खेल का सहारा नहीं लेते। कुछ लोग खरीदारी जैसी आम गतिविधियों में भी धोखाधड़ी के खेल खेलते हैं। मिसाल के तौर पर, हो सकता है उन्होंने सबसे फैशनेबल पोशाक खरीदी हो, मगर—बहुत पसंद होने पर भी—वे उसे कलीसिया में पहनने की हिम्मत नहीं करते, इस डर से कि भाई-बहन उनके बारे में बातें बनाएँगे और उन्हें ओछा कहेंगे। इसलिए वे इसे दूसरों को नजर आए बिना पहनते हैं। यह कैसा बर्ताव है? यह धोखेबाज और कपटी स्वभाव का खुलासा है। कोई फैशनेबल पोशाक खरीद कर भी भाई-बहनों के सामने पहनने की हिम्मत क्यों नहीं करेगा? फैशनेबल चीजें उनकी दिली पसंद हैं, और वे अविश्वासियों की ही तरह दुनिया के चलन के पीछे भागते हैं। मगर डरते हैं कि भाई-बहन उनकी असलियत न जान लें, यह न देख लें कि वे कितने ओछे हैं, और वे एक सम्मानित और ईमानदार व्यक्ति नहीं हैं। दिल से वे फैशनेबल चीजों के पीछे भागते हैं, और उन्हें जाने देना उनके लिए मुश्किल है, इसलिए वे उन्हें सिर्फ घर पर ही पहन सकते हैं, और डरते हैं कि भाई-बहन उन्हें देख न लें। अगर उनकी पसंदीदा चीजें रोशन नहीं हो सकतीं, तो फिर वे उन्हें छोड़ क्यों नहीं सकते? क्या कोई शैतानी स्वभाव उनका नियंत्रण नहीं कर रहा है? वे निरंतर सिद्धांत वचन बोलते हैं, सत्य को समझते हुए से लगते हैं, फिर भी वे सत्य पर अमल नहीं कर पाते। यह वह व्यक्ति है जो शैतानी स्वभाव के साथ जीता है। अगर कोई व्यक्ति कथनी और करनी दोनों में धोखेबाज है, दूसरों को अपना असली रूप नहीं देखने देता, और दूसरों के सामने हमेशा एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति होने की छवि पेश करता है, तो फिर उसमें और किसी फरीसी में क्या फर्क है? ऐसे लोग एक वेश्या का जीवन जीना चाहते हैं, मगर साथ ही अपनी शुचिता का एक स्मारक भी चाहते हैं। उसे अच्छी तरह मालूम था कि वह अपनी आकर्षक पोशाक जनता के बीच नहीं पहन सकता, तो फिर उसने खरीदी क्यों? क्या यह पैसे की बर्बादी नहीं थी? सिर्फ इसलिए कि उसे ऐसी चीज पसंद है और वह इस पोशाक को अपना दिल दे बैठा था, उसे लगा कि यह खरीद लेनी चाहिए। लेकिन खरीद लेने के बाद वह इसे बाहर नहीं पहन सकता। कुछ साल गुजर जाने के बाद, उसे इसे खरीदने पर पछतावा होता है, एकाएक उसे एहसास होता है : “मैं इतना मूर्ख कैसे था, ऐसा करने जितना घिनौना कैसे था?” अपने कृत्य पर उसे खुद भी घृणा होती है। लेकिन वह अपने कार्यों को नियंत्रित नहीं कर सकता, क्योंकि वह उन चीजों को जाने नहीं दे सकता जिन्हें वह पसंद करता है, जिनके पीछे भागता है। इसलिए वह खुद को संतुष्ट करने के लिए दोमुँही युक्ति और चाल चलता है। ऐसे लोग अगर ऐसे तुच्छ मामले में धोखाधड़ी वाला स्वभाव दिखाते हैं, तो कोई बड़ा मामला आने पर क्या वे सत्य पर अमल कर पाएँगे? यह नामुमकिन होगा। स्पष्ट है कि धोखेबाज होना उनकी प्रकृति है, और धोखा उनकी दुखती रग है। एक छह-सात साल का बच्चा था जिसने एक बार अपने परिवार के साथ कुछ बढ़िया खा लिया। जब दूसरे बच्चों ने उससे पूछा कि उसने क्या खाया, तो बच्चे ने आँख झपका कर कहा, “मैं भूल गया,” जबकि दरअसल वह बस उन्हें बताना नहीं चाहता था। क्या अभी-अभी खाई हुई चीज वह भूल चुका होगा? यह छह-सात साल का बच्चा झूठ बोलने में सक्षम था। क्या यह कोई ऐसी चीज थी जो बड़ों ने उसे सिखाई? क्या यह उसके घर के माहौल का असर था? नहीं—यह मनुष्य की प्रकृति है, उसकी विरासत; मनुष्य धोखेबाज स्वभाव के साथ पैदा होता है। दरअसल, बच्चे ने जो भी बढ़िया चीज खाई हो, ऐसा करना सामान्य था। उसके माता-पिता ने उसके लिए यह बनाया; उसने किसी और का खाना नहीं चुराया। अगर ऐसे हालात में यह बच्चा झूठ बोल सका, जबकि ऐसा करना बिल्कुल भी जरूरी नहीं था, तो क्या उसका दूसरे मामलों में झूठ बोलना और भी ज्यादा मुमकिन नहीं है? यह कौन-सी समस्या दर्शाता है? क्या यह उसकी प्रकृति की समस्या नहीं है? वह बच्चा अब बड़ा हो चुका है, और झूठ बोलना उसकी प्रकृति बन चुकी है। वह सचमुच एक धोखेबाज व्यक्ति है; बिल्कुल बचपन से ही उसमें यह देखा जा सकता था। धोखेबाज लोग दूसरों से झूठ बोलने और उनसे चालबाजी करने से बच नहीं सकते, और उनकी झूठी बातें और चालबाजी किसी भी जगह और वक्त दिखाई दे सकती हैं। उन्हें यह सीखने की जरूरत नहीं कि ये चीजें कैसे करें, या ये करने के लिए उनके उकसाए जाने की जरूरत नहीं है—वे ऐसा करने की क्षमता के साथ ही पैदा होते हैं। अगर वह बच्चा उतनी कच्ची उम्र में झूठ बोलकर लोगों से चाल चल सकता था, तो क्या झूठ बोलना सचमुच उसका एकबारगी अपराध हो सकता था? यकीनन नहीं। यह दिखाता है कि वह प्रकृति सार से एक धोखेबाज व्यक्ति है। क्या ऐसी सरल चीज जान लेना आसान नहीं है? अगर कोई बचपन से ही झूठ बोलता रहा हो, अक्सर झूठ बोलता हो, जरूरत न होने पर भी सरल मामलों में लोगों से झूठ बोलकर उनसे चालबाजी करता हो, और झूठ बोलना उसकी प्रकृति बन गई हो, तो उसके लिए बदलना आसान नहीं होगा। वह प्रामाणिक रूप से धोखेबाज व्यक्ति है। ऐसा क्यों कहते हैं कि धोखेबाज लोग बचाए नहीं जा सकते? चूँकि उनके सत्य स्वीकारने की संभावना नहीं होती, इसलिए संभवत: उन्हें शुद्ध कर परिवर्तित नहीं किया जा सकता। परमेश्वर का उद्धार पा सकने वाले लोग अलग होते हैं। शुरुआत से ही वे अपेक्षाकृत निष्कपट होते हैं, और अगर वे छोटा-सा झूठ बोल भी दें, तो मुमकिन है वे झेंप कर परेशान हो जाएँ। ऐसे किसी व्यक्ति के लिए ईमानदार बनना आसान है : अगर तुम उससे झूठ बोलने या धोखा देने को कहोगे, तो उसे मुश्किल होगी। झूठ बोले तो भी सारे शब्द नहीं बोल पाएगा, और सबको तुरंत पता चल जाएगा। ऐसे लोग अपेक्षाकृत सरल होते हैं, और अगर वे सत्य को स्वीकार कर पाएँ तो उनके उद्धार प्राप्त करने संभावना ज्यादा होगी। इस किस्म का व्यक्ति सिर्फ खास हालात में ही झूठ बोलता है, जब वह मुसीबत में फँस गया हो। आम तौर पर, ऐसे लोग हमेशा सत्य बोलने में सक्षम होते हैं। अगर वे सत्य का अनुसरण करते हैं, तो भ्रष्टता के इस पहलू को कुछ वर्ष के प्रयासों से त्याग सकेंगे, और फिर उनके लिए ईमानदार बनना मुश्किल नहीं होगा।

ईमानदार लोगों के लिए परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानक क्या है? परमेश्वर की अपेक्षाएँ परमेश्वर के वचनों के इस अध्याय तीन चेतावनियाँ में किस तरह दी गई हैं? (“ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और मात्र परमेश्वर की चापलूसी करने के लिए चीज़ें न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना। ... यदि तुम्हारी बातें बहानों और महत्वहीन तर्कों से भरी हैं, तो मैं कहता हूँ कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अभ्यास करने से घृणा करता है। यदि तुम्हारे पास ऐसे बहुत-से गुप्त भेद हैं जिन्हें तुम साझा नहीं करना चाहते, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा और तुम सरलता से अंधकार से बाहर नहीं निकल पाओगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य)।) यहाँ एक विशेष रूप से महत्वपूर्ण वाक्य है। क्या तुम लोग देख सकते हो कि वह क्या है? (परमेश्वर कहते हैं, “यदि तुम्हारे पास ऐसे बहुत-से गुप्त भेद हैं जिन्हें तुम साझा नहीं करना चाहते, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा और तुम सरलता से अंधकार से बाहर नहीं निकल पाओगे।”) सही, इतना ही। परमेश्वर कहता है : “अगर तुम्हारी बड़ी गुप्त बातें हैं, जिन्हें तुम साझा नहीं करना चाहते।” लोगों ने ऐसे बहुत-से काम किए होते हैं जिनके बारे में बात करने की वे हिम्मत नहीं करते, और उनके बहुत-से काले हिस्से होते हैं। उनका कोई भी दैनिक कार्य परमेश्वर के वचन के अनुरूप नहीं होता, और वे देह के खिलाफ विद्रोह नहीं करते। वे बस अपने मन की करते हैं, और अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी उन्होंने सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है। “यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा और तुम सरलता से अंधकार से बाहर नहीं निकल पाओगे।” यहाँ परमेश्वर ने इंसानों को अभ्यास का मार्ग दिखाया है। अगर तुम इस प्रकार अभ्यास नहीं करते, सिर्फ चिल्ला कर नारे और सिद्धांत बताते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसे आसानी से उद्धार नहीं मिलेगा। यह सचमुच उद्धार से जुड़ा हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए बचाया जाना बहुत महत्वपूर्ण है। क्या परमेश्वर ने कहीं और “आसानी से उद्धार प्राप्त न होने” का जिक्र किया है? कहीं और वह विरले ही इस बात का संदर्भ देता है कि बचाया जाना कितना मुश्किल है, लेकिन वह इसकी बात ईमानदार होने के बारे में बताते समय जरूर करता है। अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो, जिसे बचाना बहुत मुश्किल है। “आसानी से उद्धार प्राप्त न होना” का अर्थ है कि अगर तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते, तो तुम्हारा बचाया जाना मुश्किल होगा। तुम उद्धार का सही मार्ग पकड़ने के लायक नहीं रहोगे, और इसलिए तुम्हारा बचाया जाना नामुमकिन होगा। परमेश्वर इस वाक्यांश का प्रयोग लोगों को थोड़ी छूट देने के लिए करता है। जिसका भावार्थ है : तुम्हें बचाना आसान नहीं है, लेकिन अगर तुम परमेश्वर के वचनों पर अमल करो, तो तुम्हें उद्धार पाने की आशा होगी। यही इसका विपरीतार्थ है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं करते, कभी अपने रहस्यों और अपनी चुनौतियों का विश्लेषण नहीं करते, दूसरों के सामने संगति में कभी खुल कर पेश नहीं होते, न संगति करते हो, न विश्लेषण, न ही अपनी भ्रष्टता और घातक खामियों को उनके साथ रोशन करते हो, तो तुम बचाए नहीं जा सकते। ऐसा क्यों है? अगर तुम इस तरह खुद को खोल कर पेश नहीं करते या अपना विश्लेषण नहीं करते, तो तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव से घृणा नहीं करोगे, और इसलिए तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव कभी नहीं बदलेगा। और अगर तुम बदल ही नहीं सकते, तो बचाए जाने के बारे में सोच भी कैसे सकते हो? परमेश्वर के वचन यह साफ तौर पर दिखाते हैं, ये वचन परमेश्वर की इच्छा दर्शाते हैं। परमेश्वर हमेशा इस बात पर जोर क्यों देता है कि लोगों को ईमानदार होना चाहिए? चूँकि ईमानदार होना बहुत महत्वपूर्ण है—इसका सीधा संबंध इस बात से है कि कोई व्यक्ति परमेश्वर को समर्पित हो सकता है या नहीं और वह उद्धार प्राप्त कर सकता है या नहीं। कुछ लोग कहते हैं : “मैं अहंकारी और आत्म-तुष्ट हूँ, और मैं अक्सर नाराज होकर भ्रष्टता दिखाता हूँ।” दूसरे कहते हैं : “मैं बहुत ओछा हूँ, घमंडी हूँ, और जब लोग मेरी चापलूसी करते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है।” ये तमाम चीजें हैं जो लोगों को बाहर से दिखाई देती हैं, और ये बड़ी समस्याएँ नहीं हैं। तुम्हें इनके बारे में बोलते नहीं रहना चाहिए। तुम्हारा स्वभाव या चरित्र चाहे जैसा हो, अगर तुम परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार ईमानदार बन पाते हो, तो तुम्हें बचाया जा सकेगा। तो तुम सब क्या कहते हो? क्या ईमानदार होना महत्वपूर्ण है? यह सबसे महत्वपूर्ण चीज है, इसीलिए परमेश्वर अपने वचनों के अध्याय तीन चेतावनियाँ में ईमानदार होने के बारे में बात करता है। अन्य अध्यायों में, वह अक्सर जिक्र करता है कि विश्वासियों को सामान्य आध्यात्मिक जीवन और उचित कलीसिया जीवन बिताना चाहिए, और वह वर्णन करता है कि उन्हें सामान्य मानवता के साथ कैसे जीना चाहिए। इन विषयों पर उसके वचन सामान्य हैं; उन पर विशिष्ट रूप से या बहुत विस्तार से चर्चा नहीं की गई है। लेकिन, जब परमेश्वर ईमानदार होने के बारे में बोलता है, तो वह लोगों को चलने का मार्ग दिखाता है। वह लोगों को बताता है कि अभ्यास कैसे करें, और वह बहुत विस्तार और स्पष्टता से बोलता है। परमेश्वर कहता है, “यदि तुम्हारे पास ऐसे बहुत-से गुप्त भेद हैं जिन्हें तुम साझा नहीं करना चाहते, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा।” ईमानदार होने का संबंध उद्धार प्राप्त करने से है। तो तुम सब क्या कहते हो, परमेश्वर लोगों के ईमानदार होने की माँग क्यों करता है? यह मानव आचरण के सत्य को छूता है। परमेश्वर ईमानदार लोगों को बचाता है, और वह अपने राज्य के लिए ईमानदार लोग चाहता है। अगर तुम झूठ और चालबाजी में सक्षम हो, धोखेबाज, कपटी और छली व्यक्ति हो; तो तुम ईमानदार नहीं हो। अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो ऐसा मौका ही नहीं है कि परमेश्वर तुम्हें बचाए, न ही संभवत: तुम्हें बचाया जा सके। तुम कहते हो कि अब तुम बहुत पवित्र हो, अहंकारी या आत्मतुष्ट नहीं हो, अपना कर्तव्य निभाते समय कीमत चुका सकने में समर्थ हो, या सुसमाचार को फैलाकर अनेक लोगों का धर्म-परिवर्तन कर सकते हो। लेकिन अगर तुम ईमानदार नहीं हो, अभी भी धोखेबाज हो, बिल्कुल नहीं बदले हो, तो क्या तुम्हें बचाया जा सकेगा? बिल्कुल नहीं। इसलिए परमेश्वर के ये वचन सभी को याद दिलाते हैं कि बचाए जाने के लिए उन्हें पहले परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार ईमानदार बनना पड़ेगा। उन्हें खुद को खोलकर अपना भ्रष्ट स्वभाव, अपने इरादे और रहस्य दिखाने होंगे, और प्रकाश मार्ग को खोजना होगा। “प्रकाश मार्ग को खोजने” का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए सत्य को खोजना। जब तुम अपने कार्यों के पीछे की अपनी भ्रष्टता, अपने लक्ष्य और इरादे खुल कर दिखा देते हो, अपना विश्लेषण भी करते हो, जिसके बाद तुम खोजते हो : “मैंने वह काम क्यों किया? क्या इसमें परमेश्वर के वचनों का कोई आधार है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? ऐसा करके क्या मैं जानबूझ कर कुछ गलत कर रहा हूँ? क्या मैं परमेश्वर को धोखा दे रहा हूँ? अगर मैं परमेश्वर को धोखा दे रहा हूँ, तो मुझे यह नहीं करना चाहिए; मुझे गौर करना चाहिए कि परमेश्वर क्या अपेक्षा रखता है, वह क्या कहता है, और सत्य सिद्धांत क्या हैं।” यही है सत्य को खोजने का अर्थ; प्रकाश में चलने के यही मायने हैं। जब लोग इसका नियमित रूप से अभ्यास कर पाते हैं, तभी वे सच में बदल पाते हैं, और इस तरह उद्धार प्राप्त कर पाते हैं।

परमेश्वर का लोगों से ईमानदार बनने का आग्रह करना यह साबित करता है कि वह धोखेबाज लोगों से सचमुच घृणा करता है, उन्हें नापसंद करता है। धोखेबाज लोगों के प्रति परमेश्वर की नापसंदगी उनके काम करने के तरीके, उनके स्वभावों, उनके इरादों और उनकी चालबाजी के तरीकों के प्रति नापसंदगी है; परमेश्वर को ये सब बातें नापसंद हैं। यदि धोखेबाज लोग सत्य स्वीकार कर लें, अपने धोखेबाज स्वभाव को मान लें और परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने को तैयार हो जाएँ, तो उनके बचने की उम्मीद भी बँध जाती है, क्योंकि परमेश्वर सभी लोगों के साथ समान व्यवहार करता है, जैसा कि सत्य करता है। और इसलिए, यदि हम परमेश्वर को प्रसन्न करने वाले लोग बनना चाहें, तो सबसे पहले हमें अपने व्यवहार के सिद्धांतों को बदलना होगा : अब हम शैतानी फलसफों के अनुसार नहीं जी सकते, हम झूठ और चालबाजी के सहारे नहीं चल सकते। हमें अपने सारे झूठ त्यागकर ईमानदार बनना होगा। तब हमारे प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण बदलेगा। पहले लोग दूसरों के बीच रहते हुए हमेशा झूठ, ढोंग और चालबाजी पर निर्भर रहते थे, और शैतानी फलसफों को अपने अस्तित्व, जीवन और आचरण की नींव की तरह इस्तेमाल करते थे। इससे परमेश्वर को घृणा थी। अविश्वासियों के बीच यदि तुम खुलकर बोलते हो, सच बोलते हो और ईमानदार रहते हो, तो तुम्हें बदनाम किया जाएगा, तुम्हारी आलोचना की जाएगी और तुम्हें त्याग दिया जाएगा। इसलिए तुम सांसारिक चलन का पालन करते हो और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हो; तुम झूठ बोलने में ज्यादा-से-ज्यादा माहिर और अधिक से अधिक धोखेबाज होते जाते हो। तुम अपना मकसद पूरा करने और खुद को बचाने के लिए कपटपूर्ण साधनों का उपयोग करना भी सीख जाते हो। तुम शैतान की दुनिया में समृद्ध होते चले जाते हो और परिणामस्वरूप, तुम पाप में इतने गहरे गिरते जाते हो कि फिर उसमें से खुद को निकाल नहीं पाते। परमेश्वर के घर में चीजें ठीक इसके विपरीत होती हैं। तुम जितना अधिक झूठ बोलते और कपटपूर्ण खेल खेलते हो, परमेश्वर के चुने हुए लोग तुमसे उतना ही अधिक ऊब जाते हैं और तुम्हें त्याग देते हैं। यदि तुम पश्चाताप नहीं करते, अब भी शैतानी फलसफों और तर्क से चिपके रहते हो, अपना भेस बदलकर खुद को बढ़िया दिखाने के लिए चालें चलते और बड़ी-बड़ी साजिशें रचते हो, तो बहुत संभव है कि तुम्हें उजागर कर निकाल दिया जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर धोखेबाज लोगों से नफरत करता है। केवल ईमानदार लोग ही परमेश्वर के घर में समृद्ध हो सकते हैं, धोखेबाज लोगों को अंततः त्यागकर बाहर निकाल दिया जाता है। यह सब परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित कर दिया है। केवल ईमानदार लोग ही स्वर्ग के राज्य में साझीदार हो सकते हैं। यदि तुम ईमानदार व्यक्ति बनने की कोशिश नहीं करोगे, सत्य का अनुसरण करने की दिशा में अनुभव प्राप्त नहीं करोगे और अभ्यास नहीं करोगे, यदि अपना भद्दापन उजागर नहीं करोगे और यदि खुद को खोल कर पेश नहीं करोगे, तो तुम कभी भी पवित्र आत्मा का कार्य और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर पाओगे। चाहे तुम कुछ भी करो, या कोई भी कर्तव्य निभाओ, तुम्हारा रवैया ईमानदार होना चाहिए। ईमानदार रवैये के बिना तुम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभा सकते। अगर तुम अपना कर्तव्य हमेशा लापरवाह होकर सतही ढंग से निभाते हो, और तुम कोई काम अच्छी तरह नहीं कर सकते, तो तुम्हें आत्मचिंतन कर खुद को समझना चाहिए, और अपना विश्लेषण करने के लिए खुल जाना चाहिए। फिर तुम्हें सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए, और अगली बार लापरवाह और सतही होने के बजाय बेहतर काम करने की कोशिश करनी चाहिए। अगर तुम कोशिश कर, ईमानदार हृदय से परमेश्वर को संतुष्ट नहीं करते और हमेशा अपनी देह या स्वाभिमान को संतुष्ट करने पर ध्यान देते हो, तो क्या तुम कोई अच्छा काम कर पाओगे? क्या तुम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा पाओगे? यकीनन नहीं। धोखेबाज लोग अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा सतही होते हैं; उनके पास कोई भी कर्तव्य हो वे उसे अच्छे ढंग से नहीं निभाते, और ऐसे लोगों का उद्धार पाना मुश्किल होता है। मुझे बताओ—जब धोखेबाज लोग सत्य पर अमल करते हैं, तो क्या वे धोखा देते हैं? सत्य पर अमल करने के लिए उन्हें कीमत चुकानी होती है, अपने निजी हितों को छोड़ना पड़ता है, और दूसरों के सामने खुद को खोल कर पेश करना होता है। लेकिन वे कुछ चीजें रोक लेते हैं; बोलते समय वे आधा ही बताते हैं, बाकी रोक लेते हैं। दूसरों को हमेशा अंदाजा लगाना होता है कि उनका अर्थ क्या है, उनकी बातों का अर्थ समझने के लिए उन्हें तार जोड़ने पड़ते हैं। वे हमेशा पैंतरेबाजी के लिए स्थान और त्रुटियों के लिए गुंजाइश रखते हैं। जब दूसरों का ध्यान जाता है कि वे धोखेबाज हैं, तो वे उनसे कोई सरोकार नहीं रखना चाहते, अपने किसी भी काम में उनसे सुरक्षित बचे रहने के उपाय करते हैं। वे झूठ बोलते और छल करते हैं, और दूसरे लोग उनकी बातों में सच क्या है, झूठ क्या है या वे बातें कितनी मिलावटी हैं, यह न जानने के कारण उन पर भरोसा नहीं कर सकते। वे दूसरों को दिए गए अपने वायदों से अक्सर मुकर जाते हैं, और लोग अपने दिलों में उन्हें कोई मूल्य नहीं देते। फिर परमेश्वर के हृदय में क्या होता है? परमेश्वर उन्हें किस तरह से देखता है? परमेश्वर उनसे और भी ज्यादा घृणा करता है, क्योंकि परमेश्वर लोगों के दिलो-दिमाग की गहराई में झाँकता है। मनुष्य सिर्फ वही देख सकते हैं जो सतह पर है, मगर परमेश्वर ज्यादा सही ढंग से, ज्यादा गहराई से और ज्यादा वास्तविकता से देखता है।

चाहे तुम जितने लंबे समय से विश्वासी रहे हो, तुम्हारा कर्तव्य जो भी हो या तुम जो भी काम करते हो, तुम्हारी काबिलियत ऊँची हो या नीची, तुम्हारा चरित्र अच्छा हो या बुरा, अगर तुम सत्य को स्वीकार सकते हो, और ईमानदार बनने की कोशिश करते हो, तो यकीनन तुम्हें फल मिलेगा। कुछ लोग जो ईमानदार बनने की कोशिश नहीं करते, वे सोचते हैं कि अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा लेना ही काफी है। उनसे मैं कहता हूँ, “तुम कभी भी अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभा सकोगे।” कुछ और लोग सोचते हैं कि ईमानदार होना कोई बड़ी बात नहीं है, परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में लगना उससे बड़ा कार्य है, और यही परमेश्वर को संतुष्ट करने का एकमात्र तरीका है। तो आगे बढ़ो, और आजमा लो—देख लो कि क्या ईमानदार हुए बिना तुम परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में लग सकते हो। कुछ और दूसरे लोग ईमानदार बनने की कोशिश नहीं करते, बल्कि हर दिन प्रार्थना कर, सभाओं में समय पर जाकर परमेश्वर के वचनों को खा-पीकर और अविश्वासियों की तरह न रहकर संतुष्ट रहते हैं। जब तक वे व्यवस्था भंग नहीं करते, या कुछ बुरा नहीं करते, यह अच्छा है। लेकिन क्या परमेश्वर को इस तरह संतुष्ट किया जा सकता है? अगर तुम ईमानदार नहीं हो तो परमेश्वर को कैसे संतुष्ट कर सकते हो? अगर तुम ईमानदार नहीं हो तो सही किस्म के इंसान नहीं हो। अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो कुटिल और चालबाज हो। तुम लापरवाही और सतही ढंग से काम करते हो, हर तरह की भ्रष्टता दिखाते हो, और चाह कर भी तुम सत्य पर अमल नहीं कर पाते। ईमानदार व्यक्ति होने से परे की हर चीज का अर्थ है कि कोई भी काम अच्छे ढंग से नहीं किया जाता—तुम किसी भी तरह परमेश्वर को समर्पित नहीं हो सकते या उसे संतुष्ट नहीं कर सकते। ईमानदारी के रवैये के बिना किए अपने किसी भी काम से तुम परमेश्वर को कैसे संतुष्ट कर सकते हो? अगर तुम ईमानदार रवैये के बिना अपना कर्तव्य निभाते हो, तो परमेश्वर को संतुष्ट कैसे कर सकते हो? क्या तुम इसे उचित ढंग से कर सकते हो? तुम हमेशा अपनी देह और अपनी संभावनाओं के बारे में सोचते हो, तुम हमेशा अपनी देह की तकलीफें घटाना चाहते हो, कम खपना चाहते हो, कम त्याग करना चाहते हो, और कम कीमत चुकाना चाहते हो। तुम हमेशा कुछ रोक कर रखते हो। यह धोखेबाजी का रवैया है। परमेश्वर के लिए खपने के मामले में भी कुछ लोग खुदगर्जी दिखाते हैं। वे कहते हैं : “मुझे भविष्य में आराम से रहना है। अगर परमेश्वर का कार्य कभी खत्म न हुआ, तो क्या होगा? मैं अपना सौ फीसदी उसे नहीं दे सकता; मुझे यह भी नहीं मालूम कि परमेश्वर का दिन कब आएगा। मुझे मतलबी होने की जरूरत है, परमेश्वर के लिए खपने से पहले मुझे अपने पारिवारिक जीवन और अपने भविष्य की व्यवस्थाएँ करनी हैं।” क्या ऐसे बहुत-से लोग हैं जो ऐसा सोचते हैं? यह कैसा स्वभाव है जब कोई मतलबी होकर अपने मुश्किल वक्त की योजनाएँ बनाता है? क्या ये लोग परमेश्वर के वफादार हैं? क्या ये लोग ईमानदार हैं? मतलबी होना और मुशिकल वक्त की योजनाएँ बनाना परमेश्वर के साथ एकदिल होना नहीं है। यह धोखेबाज स्वभाव है, और ऐसा करनेवाले लोग धोखेबाजी के काम करते हैं। जिस रवैये से वे परमेश्वर के साथ पेश आते हैं वह यकीनन ईमानदार नहीं है। कुछ लोगों डरते हैं कि उनसे बातचीत करते वक्त या मिलते-जुलते वक्त भाई-बहन उनकी समस्याएँ समझ जाएँगे और कहेंगे कि उनका आध्यात्मिक कद छोटा है, या वे उन्हें नीची नजर से देखेंगे। इसलिए बोलते समय वे हमेशा यह छाप छोड़ने की कोशिश करते हैं कि वे बहुत जोशीले हैं, परमेश्वर के लिए लालायित हैं, और सत्य पर अमल करने की उनकी तीव्र इच्छा है। लेकिन भीतर से वे वास्तव में बेहद कमजोर और नकारात्मक होते हैं। वे शक्तिशाली होने का ढोंग करते हैं ताकि कोई उनकी असलियत न जान सके। यह भी धोखा है। संक्षेप में, जीवन में या किसी कर्तव्य निर्वहन में तुम जो भी करो, अगर उसमें लोगों से छल करने, उन्हें धोखा देने, उनसे आदर पाने और आराधना करवाने, और वे तुम्हें हेय दृष्टि से न देखें, इसके लिए झूठ और ढोंग करते हो या नकली चेहरा दिखाते हो, तो यह सब धोखा ही है। कुछ महिलाएँ अपने पतियों से बहुत प्यार करती हैं, जबकि असल में उनके पति दानव और गैर-विश्वासी हैं। भाई-बहनों के यह कहने के डर से कि उसका प्यार बहुत गहरा है, ऐसी महिला खुद सबसे पहले कह देती है : “मेरा पति दानव है।” लेकिन उसके दिल में यह बात होती है : “मेरा पति नेक इंसान है।” पहलेवाले बोल उसके होंठों से जरूर निकले थे, मगर वे सिर्फ दूसरों के सुनने के लिए थे, ताकि वे समझें कि वह अपने पति को अच्छी तरह जानती है। दरअसल उसकी बात का अर्थ है : “इस मामले को रोशन मत करो। पहले मैं ही यह विचार व्यक्त कर दूंगी ताकि तुम लोगों को इसका जिक्र न करना पड़े। मैंने पहले ही अपने पति का दानव रूप उजागर कर दिया है, यानी इसका अर्थ है कि मैंने अपने प्यार को जाने दिया है और तुम लोगों के पास इस बारे में कहने को कुछ नहीं रह जाएगा।” क्या यह कपटी होना नहीं है? क्या यह एक मुखौटा नहीं है? अगर तुम यह करते हो तो तुम नकली दिखावा करके लोगों को धोखा दे रहे हो और गुमराह कर रहे हो। तुम हर मोड़ पर फायदे के खेल खेल रहे हो, चालें चल रहे हो, ताकि दूसरे जो देखें वह तुम्हारी नकली छवि हो, असली चेहरा नहीं। यह डरावना है; यह इंसान की धोखेबाजी है। चूँकि तुमने मान लिया है कि तुम्हारा पति दानव है, तो फिर तुम उससे तलाक क्यों नहीं ले लेती? उस दानव, उस शैतान को ठुकरा क्यों नहीं देती? यह कह कर भी कि तुम्हारा पति दानव है, तुम अपना जीवन उसके साथ बिता रही हो—यह दर्शाता है कि तुम्हें दानव पसंद हैं। तुम अपने मुँह से कहती हो कि वह दानव है, मगर दिल से यह नहीं मानती। इसका अर्थ है कि तुम दूसरों को धोखा दे रही हो, उनकी आँखों में धूल झोंक रही हो। इससे यह भी पता चलता है कि दानवों के साथ तुम्हारी सांठ-गाँठ है, तुम उन्हें बचा रही हो। अगर तुम सत्य पर अमल करने वाली होती, तो यह मानते ही कि तुम्हारा पति दानव है तुम उसे तलाक दे देती। तब तुम गवाही दे पाती, और इससे यह दिखाई देता कि कि तुम अपने और दानव के बीच एक साफ लकीर खींच रही थी। लेकिन दुर्भाग्य से तुमने न सिर्फ वह लकीर नहीं खींची, बल्कि तुम एक दानव के साथ अपने दिन गुजार रही हो, भाई-बहनों को झूठ और धोखे से गुमराह कर रही हो। इससे साबित होता है कि तुम दानव जैसी ही हो, एक और झूठ बोलनेवाली दानव हो। कहते हैं कि महिला जिस पुरुष से शादी करती है उसके पीछे चलती है, फिर वह मुर्गा हो या कुत्ता। चूँकि तुमने एक दानव से शादी की और कभी उससे मुँह नहीं मोड़ा, इसलिए इससे साबित होता है कि तुम भी एक दानव हो। तुम दानव की हो, मगर यह साबित करने के लिए कि तुम परमेश्वर की हो, तुम अपने पति को दानव बताती हो—क्या यह झूठ बोलने और धोखा देने की चाल नहीं है? तुम्हें सत्य अच्छी तरह मालूम है, लेकिन फिर भी दूसरों की आँखों में धूल झोंकने के लिए ऐसे उपाय इस्तेमाल करती हो। यह छल है; धोखेबाजी है। तमाम छली और धोखेबाज लोग पूरी तरह से दानव होते हैं।

सबका स्वभाव भ्रष्ट होता है। अगर तुम थोड़ा आत्मनिरीक्षण करो, तो तुम्हें कुछ ऐसी दशाएँ और अभ्यास साफ दिखेंगे जिनमें तुम दूसरों पर नकली छाप छोड़ते हो या धोखेबाजी से काम करते हो; तुम सभी के ऐसे दौर होते हैं जब तुम दिखावा करते हो या पाखंडी हो जाते हो। कुछ लोग कहते हैं : “फिर मेरा ध्यान क्यों नहीं गया? मुझे इस दुनिया में बहुत डराया-धमकाया गया है, ठगा गया है, मगर मैंने एक बार भी धोखा नहीं किया। मैं बस अपने दिल की बात करता हूँ।” इससे अभी भी यह साबित नहीं होता कि तुम ईमानदार हो। संभव है तुम बस नासमझ हो, ज्यादा शिक्षित नहीं हो, या हो सकता है समूहों में तुम आसानी से धकियाए जाते हो, या संभव है तुम अपने कामों में दिमाग न लगाने वाले अनाड़ी कायर हो, जिसके पास कम कौशल हैं, और तुम समाज के निचले तबके से हो—फिर भी इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम ईमानदार हो। ईमानदार इंसान वह होता है जो सत्य को स्वीकार कर सकता है—न कि एक दयनीय, नाकारा, बेवकूफ और बेईमान व्यक्ति। तुम लोगों को ये चीजें जानना आना चाहिए, है न? मैं अक्सर कुछ लोगों को यह कहते हुए सुनता हूँ : “मैं कभी झूठ नहीं बोलता—मुझसे ही लोग झूठ बोलते हैं। वहाँ बाहर हमेशा मुझे धकियाया जाता है। परमेश्वर ने कहा कि वह जरूरतमंद लोगों को गोबर में से ऊपर उठाता है, और मैं उन्हीं लोगों में से एक हूँ। यह परमेश्वर का अनुग्रह है। परमेश्वर हम जैसे लोगों पर तरस खाता है, निष्कपट लोग जिनका समाज स्वागत नहीं करता। यह सचमुच परमेश्वर की करुणा है!” परमेश्वर की इस बात का कि वह जरूरतमंद लोगों को गोबर में से ऊपर उठाता है, जरूर एक व्यवहारिक पक्ष भी है। हालाँकि तुम उसे पहचान सकते हो, मगर इससे यह साबित नहीं होता कि तुम ईमानदार हो। असल में, कुछ लोग निरे कमअक्ल होते हैं, बेवकूफ होते हैं; वे बिना किसी कौशल के मूर्ख होते हैं, कम काबिलियत वाले, जिन्हें सत्य की कोई समझ नहीं है। ऐसे व्यक्ति का परमेश्वर द्वारा बताये गए ईमानदार लोगों से कोई संबंध नहीं है। मामला यही है कि परमेश्वर जरूरतमंद लोगों को गोबर में से ऊपर उठाता है, लेकिन बेवकूफ और मूर्ख लोग ऊपर नहीं उठाए जाते। तुम्हारी काबिलियत सहज ही बहुत कम है, तुम बेवकूफ हो, नाकारा हो, और हालाँकि तुम एक गरीब परिवार में पैदा हुए थे, और तुम समाज के निचले तबके के सदस्य हो, फिर भी तुम परमेश्वर के उद्धार का लक्ष्य नहीं हो। सिर्फ इसलिए कि तुमने बहुत कष्ट सहे हैं और समाज में भेदभाव झेले हैं, सिर्फ इसलिए कि सभी लोगों ने तुम्हें धकिया कर धोखा दिया है, यह मत सोचो कि इससे तुम ईमानदार बन गए हो। अगर तुम ऐसा सोचते हो, तो तो बड़ी गलतफहमी में हो। क्या तुम्हें इस बारे में कुछ गलतफहमियाँ या गलत संकल्पनाएँ हैं कि ईमानदार व्यक्ति कौन है? क्या इस संगति से तुम सबको थोड़ी स्पष्टता मिली है? ईमानदार व्यक्ति होना वैसा नहीं है जैसा लोग सोचते हैं; यह सीधी बात करनेवाला नहीं होता, जो गोल-मोल बातें करने से दूर रहता है। हो सकता है कोई व्यक्ति स्वाभाविक रूप से सीधा और सरल हो, मगर इसका यह अर्थ नहीं है कि वह चालबाजी या धोखेबाजी नहीं करता। सभी भ्रष्ट लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है, जोकि कपटी और धोखेबाज होता है। जब लोग इस दुनिया में शैतान के प्रभाव में जीते हैं, उसकी ताकत से शासित और नियंत्रित होते हैं, तो उनके लिए ईमानदार होना नामुमकिन हो जाता है। वे सिर्फ और ज्यादा धोखेबाज बन सकते हैं। भ्रष्ट मानवता के बीच जीते हुए ईमानदार होने में यकीनन कई मुश्किलें होती हैं। हमारा मजाक उड़ाया जा सकता है, तिरस्कार हो सकता है, आलोचना हो सकती है, गैर-विश्वासियों, दानव राजाओं और जीवित दानवों द्वारा हमें बहिष्कृत कर खदेड़ा जा सकता है। तो क्या इस दुनिया में ईमानदार बन कर जीवित रहना संभव है? क्या इस दुनिया में हमारे जीवित रहने की कोई जगह है? हाँ, है। यकीनन हमारे लिए जीवित रहने की जगह है। परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित कर हमें चुना है और वह निश्चित रूप से हमारे लिए एक रास्ता खोल देता है। हम परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, पूरी तरह से उसके मार्गदर्शन में उसका अनुसरण करते हैं, और पूरी तरह से उसकी दी हुई साँस और जीवन के भरोसे जीते हैं। चूँकि हमने परमेश्वर के वचनों का सत्य स्वीकार कर लिया है, इसलिए हमारे पास जीने के तरीके के नए नियम हैं, हमारे जीवन के लिए नए लक्ष्य हैं। हमारे जीवन की बुनियादें बदल दी गई हैं। सिर्फ सत्य हासिल करने और बचाए जाने की खातिर हमने जीने की नई शैली और अपने आचरण की नई विधि अपना ली है। हमने नई जीवनशैली अपना ली है : हम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए जीते हैं। हम जो खाते हैं, पहनते हैं, या जहाँ रहते हैं, उससे इसका कोई लेना-देना नहीं; यह हमारी आध्यात्मिक जरूरत है। बहुत-से लोगों को लगता है कि ईमानदार होना बेहद मुश्किल है। इसका एक भाग यह है कि भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा पाना बहुत कठिन है। इसके ऊपर, अगर तुम अविश्वासियों के बीच जीते हो—खासतौर से अगर तुम उनके साथ काम करते हो—तो ईमानदार होने और सत्य बोलने से तुम्हारी हँसी उड़ाई जा सकती है, बदनामी और आलोचना हो सकती है, तुम्हें बहिष्कृत कर खदेड़ा जा सकता है। यह हमारे जीवित रहने के लिए चुनौतियाँ खड़ी करता है। बहुत-से लोग कहते हैं : “ईमानदार होना व्यवहार्य नहीं है। अगर मैंने दो-टूक बातें कीं, तो घाटे में रहूँगा, और झूठ बोले बिना मेरा कोई भी काम नहीं हो पाएगा।” यह कैसा नजरिया है? यह एक धोखेबाज व्यक्ति का नजरिया और तार्किकता है। वे सिर्फ अपनी हैसियत और हितों को बचाने के लिए झूठी और धोखेबाज बातें करते हैं। वे ये चीजें खो देने के डर से ईमानदार बनने और सत्य बोलने को तैयार नहीं होते। पूरी भ्रष्ट मानवजाति ऐसी ही है। वे चाहे जितने ज्ञानी हों, उनकी हैसियत चाहे जितनी ऊँची या नीची हो, वे सरकारी अधिकारी हों या आम नागरिक, सेलेब्रिटी हों या औसत आदमी, सबके-सब निरंतर झूठ बोलते और धोखा देते हैं, और कोई भी भरोसेमंद नहीं है। अगर ये भ्रष्ट स्वभाव ठीक नहीं किए गए, तो वे हमेशा झूठ बोलते रहेंगे, धोखा देते रहेंगे, और धोखेबाज स्वभाव से भरे रहेंगे। क्या वे इस तरह से परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण कर सकते हैं? क्या वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं।

क्या तुम सबको लगता है कि ईमानदार होना बहुत कठिन है? क्या तुम लोगों ने कभी इस पर अमल करने की कोशिश की है? किन मामलों में तुम लोगों ने ईमानदार बनने का अभ्यास और अनुभव किया है? तुम लोगों के अभ्यास किन सिद्धांतों पर आधारित थे? फिलहाल इसका किस स्तर का अनुभव तुम लोगों को है? क्या तुम उस मुकाम पर पहुँच गए हो जहाँ तुम बुनियादी रूप से ईमानदार हो? अगर तुमने यह हासिल कर लिया है, तो बहुत बढ़िया है! परमेश्वर के वचनों से हम देख पाएँगे कि हमें बचाने और परिवर्तित करने के लिए वह सिर्फ थोड़ी तैयारी का काम या हमारे भविष्य की संभावना दिखाने का कार्य ही नहीं करता, जिसके बाद उसका कार्य समाप्त हो जाता है। वह लोगों के बाहरी व्यवहार को भी नहीं बदलता। इसके बजाय, वह प्रत्येक व्यक्ति को उसके अंतरतम की गहराई, उसके स्वभावों और उसके सार से शुरू करके स्रोत पर ही परिवर्तित कर बदलना चाहता है। यह देखते हुए कि परमेश्वर इस तरह कार्य करता है, हमें खुद को लेकर कैसे कार्य करना चाहिए? हम जो खोजते हैं, हमारे स्वभाव परिवर्तन और जो कर्तव्य हमें निभाने चाहिए, उनकी जिम्मेदारी हमें लेनी चाहिए। हमें अपने सभी काम गंभीरता से करने चाहिए, चीजों को फिसलने नहीं देना चाहिए, और तमाम चीजें विश्लेषण के लिए पेश करनी चाहिए। जब भी तुम कोई काम पूरा करो, तो भले ही तुम यह सोचो कि तुमने इसे सही ढंग से किया है, पर जरूरी नहीं कि वह सत्य के अनुरूप हो। परमेश्वर के वचनों के अनुसार इसका विश्लेषण, तुलना और पुष्टि होनी चाहिए, इसे समझा जाना चाहिए। इस तरह, यह सपष्ट हो जाएगा कि यह सही था या गलत। यही नहीं, जो काम तुम्हारे अनुसार तुमने गलत किए थे, उनका भी विश्लेषण होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि भाई-बहन साथ में संगति करते हुए, खोजते हुए, और एक-दूसरे की मदद करते हुए ज्यादा वक्त बिताएँ। तुम जितनी संगति करोगे, तुम्हारा दिल उतना ही उजला होगा, और तुम सत्य सिद्धांतों को उतना ही ज्यादा समझोगे। यह परमेश्वर का आशीष है। अगर दूसरों पर अच्छी छाप छोड़ने की आशा और इस चाह से कि वे तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखें और तुम्हारी हँसी न उड़ाएँ, तुममें से कोई भी अपना दिल न खोले और तुम सब खुद को छिपाए रखो, तो तुम सच्चे विकास का अनुभव नहीं करोगे। अगर तुम हमेशा भेस बदले रहोगे और संगति में खुल कर पेश नहीं होगे, तो तुम्हें पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता नहीं मिलेगी, तुम सत्य को नहीं समझ पाओगे। फिर नतीजा क्या होगा? तुम सदा के लिए अँधेरे में जियोगे, और तुम्हें बचाया नहीं जाएगा। अगर तुम सत्य प्राप्त करना चाहते हो, अपना स्वभाव बदलना चाहते हो, तो तुम्हें सत्य हासिल कर उस पर अमल करने की कीमत चुकानी होगी, तुम्हें दिल खोलकर दूसरों के साथ संगति करनी होगी। यह तुम्हारे जीवन प्रवेश और स्वभाव परिवर्तन, दोनों के लिए लाभकारी है। सभाओं में अपने अनुभव और अपनी समझ की चर्चा करने से तुम्हें और दूसरों को लाभ होता है। अगर तुममें से कोई भी अपने आत्मज्ञान या अपने अनुभवों और समझ के बारे में बात न करे; अगर तुममें से कोई भी अपना विश्लेषण न करे या खुल कर पेश न हो; अगर तुम सब पत्रों और सिद्धांतों पर शानदार ढंग से बोलो पर अपने बारे में अपनी समझ साझा न करो, और तुममें से कोई भी तुम्हें प्राप्त थोड़े-से आत्मज्ञान को रोशन न करो, तो इसका क्या नतीजा होगा? तुम सब इकट्ठा होकर कुछ विनम्र और हल्की-फुल्की बातें करोगे, एक-दूसरे की तारीफ करोगे, डींग हाँकोगे और कपटी बातें कहोगे। “वाह, कुछ वक्त से तुम बहुत अच्छे हो। तुमने कुछ बदलाव किए हैं!” “तुमने हाल में बड़ी अच्छी आस्था दिखाई है!” “तुममें बड़ा जूनून है!” “तुमने मुझसे बहुत ज्यादा खपाया है।” “तुम्हारा योगदान मुझसे ज्यादा है!” ऐसी ही स्थिति बनती है। सभी लोग एक-दूसरे की तारीफ और बड़ाई करते हैं, और कोई भी अपना असली चेहरा विश्लेषण के लिए पेश नहीं करता, ताकि सभी लोग उसे जान और समझ सकें। क्या ऐसे माहौल में कोई सच्चा कलीसिया जीवन हो सकता है? नहीं, नहीं हो सकता। कुछ लोग कहते हैं : “मैंने कई वर्षों तक कलीसिया जीवन जिया है। मैं हमेशा तृप्त रहा, और मुझे मजा आया। सभाओं में सभी भाई-बहन परमेश्वर से प्रार्थना करना और उसके गुणगान में भजन गाना पसंद करते हैं। प्रार्थनाओं और भजनों से सबकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। कभी-कभी चीजें बहुत ज्यादा भावुक हो जाती हैं, और हम सब तप कर पसीना-पसीना हो जाते हैं। भाई-बहन नाचते-गाते हैं; यह बहुत समृद्ध, रंगारंग कलीसिया जीवन है, और बहुत मजा आता है। यह सचमुच पवित्र आत्मा के कार्य का मूर्त रूप होता है! इसके बाद, हम परमेश्वर के वचन खाते-पीते हैं, और हमें लगता है कि परमेश्वर के वचन सीधे हमारे दिल को छू रहे हैं। हम जब भी संगति करते हैं, सभी सचमुच जोश में होते हैं।” कुछ वर्षों का इस प्रकार का कलीसिया जीवन सभी के लिए सचमुच आनंद देने वाला होता है, मगर इससे मिलता क्या है? शायद ही कोई वास्तव में सत्य वास्तविकता में प्रवेश करता है, और शायद ही कोई परमेश्वर की गवाही के अपने अनुभव बयान कर पाता है। उनमें परमेश्वर के वचन पढ़ने, नाचने-गाने के लिए बड़ी ऊर्जा होती है, लेकिन जब सत्य पर संगति करने का वक्त आता है, तो कुछ लोग दिलचस्पी खो देते हैं। कोई भी ईमानदार इंसान बनने के अपने अनुभव की चर्चा नहीं करता; कोई भी अपना विश्लेषण नहीं करता, और कोई भी दूसरों के जानने-समझने, लाभ और शिक्षा पाने के लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव को खोल कर पेश नहीं करता। कोई भी परमेश्वर का गुणगान करने के लिए अपनी वास्तविक अनुभवात्मक गवाही पर संगति नहीं करता। कलीसिया जीवन के अनेक वर्ष ऐसे ही नाचते-गाते, खुश होते, मजे करते व्यर्थ हो जाते हैं। तुम लोग मुझे बताओ : यह खुशी और मजा कहाँ से आता है? मैं कहूंगा कि यह वह नहीं है जो परमेश्वर देखना चाहता है या जिससे उसे संतोष मिलता है, क्योंकि वह लोगों के जीवन स्वभावों में बदलाव और लोगों को सत्य वास्तविकता जीते हुए देखना चाहता है। परमेश्वर इस वास्तविकता को देखना चाहता है। वह नहीं चाहता कि सभाओं में होने पर तुम अपनी भजन संहिता पकड़े उसके गुणगान में नाचो-गाओ, या जूनूनी बन जाओ—वह यह नहीं देखना चाहता। इसके विपरीत, परमेश्वर यह देखकर दुखी, पीड़ित और बेचैन हो जाता है, क्योंकि उसने हजारों-लाखों वचन बोले हैं, लेकिन एक भी व्यक्ति ने उसे सचमुच आगे नहीं बढ़ाया है, नहीं जिया है। यही चीज है जिससे परमेश्वर चिंतित है। तुम सब अपने कलीसिया जीवन से मिली थोड़ी शांति और खुशी से अक्सर बेपरवाह और आत्मतुष्ट हो जाते हो। तुम परमेश्वर का गुणगान करते हो, थोड़ी खुशी, आराम का झोंका या आध्यात्मिक तृप्ति पा लेते हो, और यकीन कर लेते हो कि तुमने अपनी आस्था पर अच्छा अमल किया है। तुम इन्हें पूँजी के रूप में लेकर, परमेश्वर में आस्था का सबसे बड़ा लाभ मानकर, इन विभ्रमों से चिपके रहते हो, और अपने जीवन स्वभाव में बदलाव और उद्धार के मार्ग में प्रवेश के स्थान पर इन्हें स्वीकार लेते हो। इस तरह, तुम सोचते हो कि तुम्हें सत्य का अनुसरण करने और एक ईमानदार इंसान बनने की जरूरत नहीं है। आत्मचिंतन करने या अपनी समस्याओं का विश्लेषण करने या परमेश्वर के वचनों पर अमल कर उनका अनुभव करने की कोई जरूरत नहीं है। अब यह बात खतरनाक होती जा रही है। अगर लोग इसी तरह चलते रहे; अगर परमेश्वर के कार्य के समाप्त होने तक भी वे ईमानदार न बने या अपना कर्तव्य बढ़िया ढंग से निभाने का प्रबंध न कर सके; अगर वे परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण न कर सके, अब भी मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह और नियंत्रित होते रहे, शैतान के प्रभाव से न बच सके; परमेश्वर द्वारा दी गई इन अपेक्षाओं को पूरा न कर सके, तो फिर वे ऐसे लोग नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर बचाएगा। इसीलिए परमेश्वर चिंतित है।

नई-नई आस्था रखने पर लोग हमेशा उत्साहित रहते हैं। सत्य पर परमेश्वर की संगति सुनते समय वे खास तौर पर सोचते हैं : “अब मुझे सत्य की समझ है। मुझे सच्चा मार्ग मिल गया है। मैं सचमुच खुश हूँ!” प्रत्येक दिन नव वर्ष या शादी का उत्सव मनाने जितना उल्लासमय लगता है; वे हर दिन किसी के सभा आयोजित करने या संगति करने की बाट जोहते हैं। लेकिन कुछ वर्ष बाद, कुछ लोग कलीसिया जीवन में अपनी दिलचस्पी खो देते हैं, परमेश्वर में विश्वास रखने में भी रुचि खो देते हैं। ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य की सिर्फ सतही, सैद्धांतिक समझ होती है। उन्होंने परमेश्वर के वचनों में प्रवेश नहीं किया होता है, या व्यक्तिगत रूप से उनकी वास्तविकता का अनुभव नहीं किया होता है। ठीक परमेश्वर के कहे जैसा ही, बहुत-से लोग दावत में शानदार भोजन का नजारा देखने आते हैं, मगर ज्यादातर लोग भोजन को सिर्फ देखने ही आते हैं। वे परमेश्वर द्वारा दिया गया स्वादिष्ट भोजन लेकर उसे खाते नहीं, स्वाद नहीं लेते और अपने शरीरों की फिर से पूर्ति नहीं करते। परमेश्वर इसी बात से घृणा करता है, उसे इसी से चिंता होती है। क्या तुम फिलहाल ऐसी दशा में नहीं हो? (बिल्कुल।) मैं तुम सबकी मदद करने के लिए तुम्हारे साथ अक्सर संगति करता हूँ। मुझे सबसे ज्यादा चिंता इस बात से होती है कि धर्मोपदेश सुनने और अपनी आध्यात्मिक जरूरतें पूरी होने के बाद तुम उन पर अमल करने के लिए कुछ नहीं करोगे और उनके बारे में कुछ भी नहीं सोचोगे। ऐसी स्थिति में मेरा बताया सब-कुछ बेकार चला गया होगा। किसी में चाहे जैसी भी काबिलियत हो, तुम यह बता सकोगे कि क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो दो-तीन वर्ष की आस्था के बाद सत्य से प्रेम करता है। अगर वे ऐसे लोग हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं, तो देर-सवेर वे उसका अनुसरण करेंगे; अगर वे सत्य से प्रेम करने वालों में नहीं हैं, तो ज्यादा समय नहीं टिकेंगे, और उन्हें उजागर कर त्याग दिया जाएगा। क्या तुम सब वास्तव में सत्यप्रेमी हो? क्या तुम लोग ईमानदार बनने को तैयार हो? क्या तुम सब भविष्य में बदल पाओगे? इस संगति के बाद इसका कितना अंश तुम व्यक्तिगत रूप से लागू करोगे? इनमें से कितनों के नतीजे तुम लोगों में सचमुच मिलेंगे? यह सब अज्ञात है; इसका खुलासा अंत में होगा। इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि आस्था में नया होने पर कोई कितना उत्साहित है, या वह कितने कष्ट सह सकता है। अहम यह है कि वह सत्य से प्रेम करता है या नहीं, वह सत्य को स्वीकार कर सकता है या नहीं। सिर्फ सत्यप्रेमी ही कोई धर्मोपदेश सुनने के बाद उस पर मनन करेंगे। सिर्फ वे ही चिंतन करेंगे कि परमेश्वर को सचमुच समर्पित होने के लिए, परमेश्वर के वचनों पर कैसे अमल करें, उनका अनुभव कैसे करें, अपने दैनिक जीवन में उन्हें कैसे लागू करें और परमेश्वर के वचनों की सत्य वास्तविकता को कैसे जिएँ। इसीलिए सत्यप्रेमी अंतत: सत्य प्राप्त करेंगे। सत्य से प्रेम न करने वाले लोग सच्चे मार्ग को शायद स्वीकार तो कर लेंगे; हर दिन इकठ्ठा होकर धर्मोपदेश सुन लेंगे और कुछ सिद्धांत सीख लेंगे, लेकिन तकलीफ या परीक्षणों का सामना होते ही वे नकारात्मक और कमजोर होकर शायद अपनी आस्था भी छोड़ देंगे। विश्वासियों के तौर पर, तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे या नहीं, यह सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये और तुम्हारे अनुसरण के लक्ष्य पर निर्भर करता है : क्या वास्तव में यह सत्य को तुम्हारे जीवन के रूप में प्राप्त करना है या नहीं। कुछ लोग दूसरों की मदद करने, परमेश्वर की सेवा करने या कलीसिया की अच्छे ढंग से अगुआई करने के लिए खुद को सत्य से लैस करते हैं। यह बुरा नहीं है, और इसका अर्थ है कि वे लोग कोई जिम्मेदारी उठाते हैं। लेकिन अगर वे अपने जीवन प्रवेश या सत्य को अमल में लाने पर ध्यान नहीं देते, समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य नहीं खोजते, तो क्या वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? यह असंभव होगा। अगर उन्हें सत्य वास्तविकता प्राप्त नहीं है तो वे दूसरों की मदद कैसे करेंगे? वे परमेश्वर की सेवा कैसे करेंगे? क्या वे कलीसिया कार्य अच्छे ढंग से कर पाएँगे? यह भी नामुमकिन होगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने कितने धर्मोपदेश सुने हैं, या तुमने कौन-सा पथ चुना है। मैं तुम सबके साथ सही नजरिया साझा करूँगा : तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभाओ, तुम अगुआ हो या नियमित अनुयायी, तुम्हें मुख्य रूप से परमेश्वर के वचनों पर मेहनत करनी होगी। तुम्हें उन्हें पढ़ना होगा, और सच्चाई से उन पर विचार करना होगा। तुम्हें सबसे पहले उन सभी सत्यों की समझ हासिल करनी होगी, जो तुम्हें जानने चाहिए और जिन पर तुम्हें अमल करना चाहिए; खुद को उनकी कसौटी पर कसो और अपने लिए उन्हें लागू करो। तुम्हें तब तक कोई सत्य प्राप्त नहीं होता जब तक तुम उसे पहले समझ कर वास्तविकता में प्रवेश नहीं करते। अगर तुम दूसरों को हमेशा वह सिद्धांत समझाते हो जिसे तुम समझते हो, मगर तुम उस पर अमल नहीं कर पाते या उसका अनुभव नहीं कर पाते, तो यह एक गलती है—यह बेवकूफी और अज्ञानता है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों पर सत्य के रूप में अमल और अनुभव करना चाहिए, धीरे-धीरे बड़ी मात्रा में सत्य को समझ लेना चाहिए। तब तुम्हें अपने कर्तव्य में बेहतर और बेहतर नतीजे मिलने लगेंगे, और तुम्हारे पास साझा करने के लिए अनेक अनुभवात्मक गवाहियाँ होंगी। इस तरह, परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन बन जाएँगे। तुम निश्चित रूप से अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा सकोगे, और तुम परमेश्वर का दिया हुआ आदेश पूरा कर सकोगे। अगर तुम हमेशा इन वचनों की कसौटी पर दूसरों को कसने की कोशिश करोगे, दूसरों पर लागू करोगे, या अपने काम में पूँजी की तरह इस्तेमाल करोगे, तो मुसीबत में फँस जाओगे। ऐसा करके तुम ठीक पौलुस वाला रास्ता ही अपना रहे हो। चूँकि यह तुम्हारा नजरिया है, इसलिए तुम यकीनन इन वचनों को सिद्धांत के रूप में ले रहे हो, और भाषण देने और काम करवाने के लिए इन सिद्धांतों का इस्तेमाल करना चाहते हो। यह बहुत खतरनाक है—यह वही चीज है जो नकली अगुआ और मसीह-विरोधी करते हैं। अगर तुम अपनी दशा को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखते हो, पहले आत्मचिंतन कर खुद की समझ हासिल करते हो और फिर सत्य को अमल में लाते हो, तो तुम्हें फल मिलेगा और तुम सत्य वस्ताविकता में प्रवेश करोगे। तभी तुम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के योग्य होगे और तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद होगा। अगर तुम्हारे पास परमेश्वर के कार्य और वचनों का व्यावहारिक अनुभव नहीं है; अगर तुमने जीवन में प्रवेश किया ही नहीं है, और सिर्फ पत्रों और सिद्धांत का पाठ कर सकते हो, तो तुम काम करोगे भी तो आँखें बंद करके करोगे, और तुम्हें कुछ भी ठोस हासिल नहीं होगा। आखिरकार, तुम एक नकली अगुआ और मसीह-विरोधी बन जाओगे, और तुम्हें त्याग दिया जाएगा। अगर तुम सत्य का कोई पहलू समझते हो, तो तुम्हें पहले तुलना के लिए खुद को उसकी कसौटी में कस कर अपने जीवन में उसे लागू करना चाहिए, ताकि वह तुम्हारी वास्तविकता बन जाए। तब तुम यकीनन कुछ हासिल करोगे और बदल पाओगे। अगर तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन अच्छे हैं, सत्य हैं और उनमें वास्तविकता है, मगर तुम अपने दिल में सत्य पर चिंतन नहीं करते या उसे समझने की कोशिश नहीं करते, न ही अपने व्यावहारिक जीवन में इस पर अमल कर उसका अनुभव करते हो, और इसके बजाय बस उसे एक नोटबुक में लिख कर छोड़ देते हो, तो तुम कभी भी न तो सत्य को समझ पाओगे न ही हासिल कर पाओगे। परमेश्वर के वचन पढ़ने या धर्मोपदेश और संगति सुनने पर, तुम्हें उन पर चिंतन कर खुद को उनकी कसौटी पर कसना चाहिए, उन्हें अपनी दशा से जोड़ना चाहिए, और अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए उनका इस्तेमाल करना चाहिए। वचनों को सिर्फ इस तरह लागू करके ही तुम सचमुच में उनसे कुछ पा सकते हो। क्या कोई धर्मोपदेश सुनने के बाद क्या तुम इसी तरह अमल करते हो? अगर नहीं करते, तो न परमेश्वर और न ही उसके वचन तुम लोगों के जीवन में हैं, और अपने विश्वास में तुम लोगों के पास कोई वास्तविकता नहीं है। अविश्वासियों की तरह तुम परमेश्वर के वचनों से बाहर जी रहे हो। कोई भी व्यक्ति जो परमेश्वर में विश्वास रखता है मगर उन पर अमल कर उनका अनुभव करने के लिए असली जीवन में उसके वचनों को लागू नहीं कर सकता, वह परमेश्वर में सचमुच विश्वास नहीं रखता—वह गैर-विश्वासी है। जो लोग सत्य पर अमल नहीं कर सकते, वे परमेश्वर की आज्ञा माननेवाले लोग नहीं हैं, वे उसके खिलाफ विद्रोह करने वाले और उसका प्रतिरोध करने वाले लोग हैं। परमेश्वर के वचनों को अपने असल जीवन में लाये बिना उनके पास परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का कोई तरीका नहीं है। और अगर कोई अपने असल जीवन में परमेश्वर के कार्य या उसके वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव नहीं करता, तो उसके पास सत्य प्राप्त करने का कोई तरीका नहीं है। क्या तुम यह समझते हो? अगर तुम लोग इन वचनों को समझ सकते हो, तो यह सबसे बढ़िया है—लेकिन तुम चाहे जितना भी जानो, जितना भी समझो, सबसे अहम चीज यह है कि परमेश्वर के जिन वचनों और सत्यों को तुम समझते हो, उन्हें अपने जीवन में लागू करो, और वहाँ उन पर अमल करो। तुम्हारे पास अपना आध्यात्मिक कद बढ़ाने और अपना स्वभाव बदलने का यही एकमात्र तरीका है।

जब परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है या लोगों से अपनी अपेक्षाएँ सामने रखता है, तो वह हमेशा उन पर अमल करने के सिद्धांत और पथ बताता है। मिसाल के तौर पर, एक ईमानदार इंसान होने को लें, जिस पर हम अभी बात कर रहे थे : परमेश्वर ने लोगों को एक पथ दिया है, उन्हें बताया है कि ईमानदार कैसे बनें, ईमानदार होने के सिद्धांतों पर अमल कैसे करें, ताकि वे सही रास्ते पर चल सकें। परमेश्वर ने कहा, “यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा और तुम सरलता से अंधकार से बाहर नहीं निकल पाओगे।” इसका अंदरूनी अर्थ यह है कि परमेश्वर अपेक्षा रखता है कि हम जिसे राज और निजी समझते हैं, उसे लेकर खुलासा करें, उसे विश्लेषण के लिए पेश करें। तुम लोगों ने इस बारे में नहीं सोचा है : तुम लोगों ने यह समझा या जाना नहीं है कि परमेश्वर ने यह बात इसलिए कही है ताकि तुम इस तरह से अमल करो। कभी-कभी तुम कपट और धोखेबाजी के इरादे से कार्य करते हो, इसलिए तुम्हारे कार्य और इरादे बदले जाने चाहिए। शायद कोई भी तुम्हारी बातों के कपट और धोखेबाजी की प्रकृति को बूझ नहीं पाता, मगर अपनी पीठ मत थपथपाओ। तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आकर अपनी जाँच करनी चाहिए—तुम लोगों को बेवकूफ बना सकते हो, मगर परमेश्वर को मूर्ख नहीं बना सकते। तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, खुद को खोल कर अपने इरादों और तरीकों का विश्लेषण करना चाहिए, चिंतन करना चाहिए कि क्या तुम्हारे ये इरादे परमेश्वर को पसंद होंगे या उसे घिनौने लगेंगे, क्या तुम उन्हें खोल कर पेश कर सकते हो, क्या उनके बारे में चर्चा करना कठिन है, और क्या वे सत्य के अनुरूप हैं। इस प्रकार की चीरफाड़ और विश्लेषण से तुम पाओगे कि दरअसल यह मामला सत्य के अनुरूप नहीं है; ऐसे व्यवहार को बाहर प्रकाश में लाना कठिन है, और इससे परमेश्वर को घृणा होती है। फिर तुम इस व्यवहार को बदलते हो। मेरी इस संगति से तुम सबको कैसा लग रहा है? तुममें से कुछ लोग शायद चिंतित हो रहे होगे। तुम सोचते हो : “परमेश्वर में विश्वास रखना सचमुच पेचीदा है। यहाँ तक पहुँचना काफी मुश्किल रहा है—अब मुझे फिर से नए सिरे से शुरू करना है?” वास्तविकता यह है कि अब परमेश्वर आ गया है, और उसने मानवजाति को सत्य वास्तविकता की ओर आगे बढ़ाना शुरू कर दिया है। यह एक विश्वासी और एक व्यक्ति के रूप में शुरुआत है। अगर तुम एक अच्छी शुरुआत करोगे, तो तुम्हें अपनी आस्था में ठोस बुनियाद बनानी चाहिए, पहले परमेश्वर का अनुसरण करने की दृष्टि और महत्व से जुड़े सत्यों को सीखना चाहिए, और फिर सत्य पर अमल करने और अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस तरह तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे। अगर तुम सिर्फ पत्रों और सिद्धांत के बारे में बोलने, और इन चीजों के आधार पर नींव बनाने पर ध्यान केंद्रित करोगे, तो यह एक समस्या बन जाती है। यह रेत पर घर की नींव बनाने जैसा है : चाहे तुम जितनी भी ऊँची इमारत बना लो, हमेशा इसके गिर जाने का खतरा बना रहेगा, और यह नहीं टिकेगी। लेकिन इस मुकाम पर तुम लोगों के बारे में एक सराहनीय बात यह है कि तुम लोग उस बात को समझ पाते हो जिस पर मैं संगति करता हूँ और तुम उसे सुनने को तैयार हो। यह अच्छी बात है। सबसे महत्वपूर्ण बात है सत्य का अनुसरण करना और वास्तविकता में प्रवेश करना, बाकी सब गौण है। अगर तुम यह जानते हो, तो तुम्हें अपनी आस्था में सही रास्ता पकड़ने में मुश्किल नहीं होगी। सत्य का अनुसरण करने के पथ पर चलने के लिए तुम्हें सबसे पहले खुद को जानना होगा—तुम्हें साफ पता होना चाहिए कि तुममें कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं, और तुम्हारी खामियाँ क्या हैं। तब तुम खुद को सत्य से लैस करने की अहमियत समझोगे, और समस्याओं को सुलझाने के लिए तेजी से सत्य को खोज पाओगे। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता! एक बार जीवन प्रवेश के साथ अपनी समस्याओं का समाधान कर लो और तुम्हें सत्य वास्तविकता प्राप्त हो जाए, तो तुम्हें अंदरूनी सुकून का ज्यादा एहसास होगा। विपत्तियाँ चाहे जितनी भी बड़ी क्यों न हों, तुम डरोगे नहीं। अगर तुम ये थोड़े-से आखिरी वर्ष सत्य का अनुसरण किए बिना यूँ ही गँवा दो, और जब चीजें घटित हों, तब तुम हैरत में पड़ने को प्रवृत्त हो जाओ, तुम प्रतीक्षा की निष्क्रिय दशा में पड़े रहो, तुम अपनी समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का प्रयोग न कर पाओ, बल्कि अभी भी सांसारिक फलसफों और भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते रहो, तो यह कितना दयनीय होगा! महाविपत्तियों का दिन आने पर तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता की एक किरण भी न हो, तब तुम सत्य का अनुसरण न करने, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से न निभाने और जरा भी सत्य हासिल न करने को लेकर पछताओगे। तुम निरंतर व्याकुलता की दशा में जियोगे। अभी फिलहाल, पवित्र आत्मा का कार्य किसी इंसान के लिए प्रतीक्षा नहीं करता। लोगों को अपनी आस्था के पहले कुछ वर्षों में, वह उन्हें थोड़ा अनुग्रह देता है, थोड़ी कृपा देता है; वह उन्हें सहायता और पोषण देता है। अगर लोग कभी नहीं बदलते और कभी वास्तविकता में प्रवेश नहीं करते, बल्कि अपने जाने-पहचाने सिद्धांतों से ही संतुष्ट रहते हैं, तो वे खतरे में हैं। वे पहले ही पवित्र आत्मा के कार्य से चूक गए हैं, और परमेश्वर द्वारा मनुष्य के उद्धार और पूर्णता का आखिरी मौका खो चुके हैं। वे रोते और दांत पीसते हुए सिर्फ विपत्तियों में डूब सकते हैं।

जब तुम पहले-पहल अपनी आस्था की नींव बनाना शुरू करते हो, तो तुम्हें सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर दृढ़ता से कदम रखने चाहिए। तुम्हें सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की प्रारंभरेखा पर होना चाहिए, न कि पत्रों और सिद्धांतों का पाठ करने की प्रारंभरेखा पर। तुम्हारा ध्यान सत्य वास्तविकता में प्रवेश, सभी चीजों में सत्य को खोजने और अमल में लाने, सभी चीजों में सत्य पर अमल करने और प्रत्येक चीज की इससे तुलना करने पर केंद्रित होना चाहिए। तुम्हें चिंतन करना चाहिए कि सत्य पर अमल कैसे करें, अभ्यास के सिद्धांत क्या हैं, और सत्य का कैसा अभ्यास परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर उसे संतुष्ट करेगा। लेकिन लोगों में आध्यात्मिक कद का बड़ा अभाव है। वे हमेशा उन चीजों के बारे में पूछते हैं जो सत्य के अभ्यास से संबंधित नहीं हैं, जो आत्मज्ञान या एक ईमानदार व्यक्ति होने से संबंधित नहीं हैं। क्या यह दुखद नहीं है? क्या यह छोटा आध्यात्मिक कद नहीं दिखाता? कुछ लोगों ने परमेश्वर के कार्य का यह कदम उसके शुरू होते ही स्वीकार कर लिया, और वे आज तक विश्वासी बने हुए हैं। लेकिन अभी भी वे यह नहीं समझते कि सत्य वास्तविकता क्या है, या सत्य पर अमल करना क्या होता है। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने अपनी आस्था के लिए अपना परिवार और करियर छोड़ दिया है और बहुत कुछ सहा है। तुम कैसे कह सकते हो कि मुझमें जरा भी सत्य वास्तविकता नहीं है? मैंने अपना परिवार पीछे छोड़ दिया—क्या यह वास्तविकता नहीं है? मैंने अपनी शादी छोड़ दी—क्या यह वास्तविकता नहीं है? क्या ये सब सत्य पर अमल करने की अभिव्यक्ति नहीं हैं?” ऊपर से तो तुमने परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए सांसारिक चीजें छोड़ दी हैं, अपना परिवार छोड़ दिया है। लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि तुमने सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है? क्या इसके मायने हैं कि तुम परमेश्वर को समर्पित होने वाले ईमानदार इंसान हो? क्या इसका अर्थ है कि तुम्हारा स्वभाव बदल गया है, या तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसके पास सत्य है, मानवता है? निश्चित रूप से नहीं। तुम्हारे ये बाहरी कर्म दूसरे लोगों को अच्छे लग सकते हैं—लेकिन इनका यह अर्थ नहीं है कि तुम सत्य पर अमल करते हो या परमेश्वर को समर्पित हो, और इनका निश्चित रूप से यह अर्थ नहीं है कि तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहे हो। लोगों का त्याग और उनका खपना बहुत ज्यादा मिलावटी हैं, सारे लोग आशीष पाने के इरादे से नियंत्रित हैं, और वे परीक्षणों और शुद्धिकरण से शुद्ध नहीं हुए हैं। इसीलिए बहुत से लोग अभी भी अपने कर्तव्यों में सतही हैं, और उन्हें कोई असली नतीजे नहीं मिलते; वे कलीसिया कार्य को बाधित, गड़बड़, कमजोर भी करते हैं और उसमें तमाम मुसीबतें लाते हैं। वे प्रायश्चित्त के बारे में बिल्कुल नहीं सोचते और जब कलीसिया उन्हें हटाती है तब भी वे अपनी पैरवी के लिए नकारात्मकता फैलाते रहते हैं, झूठ बोलते रहते हैं, और तथ्यों को तोड़ते-मरोड़ते रहते हैं। कुछ लोग एक-दो दशक तक विश्वास रखने के बाद भी पागल होकर तरह-तरह के दुष्कर्म करते हैं। फिर उन्हें कलीसिया द्वारा या तो हटा दिया जाता है या निष्कासित कर दिया जाता है। यह तथ्य कि वे इतनी भयानक चीजें कर सकते हैं पर्याप्त सबूत है कि उनका चरित्र बहुत भयंकर है, वे बहुत कुटिल और कपटी हैं, और वे जरा भी निष्कपट, आज्ञाकारी या विनम्र नहीं हैं। ऐसा इसलिए कि उन्होंने कभी भी सत्य पर अमल करने और एक ईमानदार इंसान बनने की ज्यादा परवाह नहीं की। वे परमेश्वर में आस्था को ऐसा मामला मानते हैं : “अगर मैं अपना परिवार छोड़ दूँ, परमेश्वर के लिए खुद को खपाऊँ, कष्ट सहूँ, और कीमत चुकाऊँ, तो परमेश्वर को मेरे कृत्यों को स्मरण रखना चाहिए और मुझे उसका उद्धार प्राप्त होना चाहिए।” अगर तुम उद्धार प्राप्त करना चाहते हो, सचमुच परमेश्वर के समक्ष आना चाहते हो, तो पहले तुम्हें परमेश्वर के पास खोजने की दृष्टि से आना चाहिए : “हे परमेश्वर, मुझे किस चीज पर अमल करना चाहिए? लोगों को बचाने के लिए तुम्हारा मानक क्या है? तुम किस प्रकार के लोगों को बचाते हो?” हमें सबसे बढ़कर इन्हीं चीजों को खोजना और जानना चाहिए। सत्य पर अपनी बुनियाद बनाओ, सभी चीजों में सत्य और वास्तविकता के प्रति मेहनत करो, और फिर तुम वह व्यक्ति बनोगे जिसकी बुनियाद होगी, जिसे जीवन प्राप्त होगा। अगर तुम अपनी बुनियाद पत्रों और सिद्धांतों पर बनाते हो, कभी किसी सत्य पर अमल नहीं करते, या किसी भी सत्य में मेहनत नहीं करते, तो तुम ऐसे व्यक्ति बनोगे जिसे कभी जीवन प्राप्त नहीं होता। ईमानदार बनने का अभ्यास करने पर हममें जीवन, वास्तविकता और एक ईमानदार इंसान का सार होता है। तब हम एक ईमानदार इंसान जैसा अभ्यास और व्यवहार करेंगे, और कम-से-कम, हमारा वह ईमानदार अंश परमेश्वर को खुशी देगा और वह उसे स्वीकृति देगा। लेकिन, हम अभी भी अक्सर झूठ, चालबाजी और धोखेबाजी का प्रदर्शन करते हैं, जिसे शुद्ध करना जरूरी है। इसीलिए हमें खोज जारी रखनी चाहिए और ढर्रे में फँसे नहीं रहना चाहिए। परमेश्वर हमारी प्रतीक्षा में है, हमें मौका दे रहा है। अगर तुम कभी ईमानदार बनने की योजना नहीं बनाते, ईमानदारी से और दिल से बोलने की कोशिश नहीं करते, चालाकी या धोखे की मिलावट के बिना काम करने और एक ईमानदार इंसान की तरह बर्ताव करने की कोशिश नहीं करते, तो ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे तुम ईमानदार मानवता के साथ जी सको या एक ईमानदार व्यक्ति बनने की सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सको। अगर तुमने सत्य के किसी एक पहलू की वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है, तो तुमने सत्य के उस पहलू को प्राप्त कर लिया है; अगर तुम्हें वह वास्तविकता प्राप्त नहीं है, तो तुम्हें वह जीवन या आध्यात्मिक कद प्राप्त नहीं है। परीक्षणों और प्रलोभनों का सामना होने या तुम्हें कोई आदेश मिलने पर अगर तुममें वास्तविकता है ही नहीं, तो तुम आसानी से लड़खड़ा कर गलतियाँ करोगे; परमेश्वर का अपमान और अवज्ञा करने को प्रवृत्त हो जाओगे। तुम अपनी मदद नहीं कर पाओगे। बहुत-से लोग अपने कर्तव्यों में पागलपन दिखाते हैं, परामर्श नहीं लेते, सुधर नहीं पाते, कलीसिया कार्य में घोर बाधा और गड़बड़ी पैदा करते हैं, और परमेश्वर के घर के हितों को गंभीर हानि पहुँचाते हैं। अंत में ऐसे लोग या तो हटा दिए जाते हैं या निष्कासित कर दिए जाते हैं—यही अनिवार्य नतीजा होता है। लेकिन अगर तुम फिलहाल ईमानदार इंसान होने के लिए सत्य पर अमल कर रहे हो, तो ईमानदार इंसान के रूप में तुम्हारी अनुभवात्मक गवाही को परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी। कोई भी यह तुमसे दूर नहीं ले जा सकता, कोई भी तुम्हें इस वास्तविकता से, इस जीवन से अलग नहीं कर सकता। कुछ लोग पूछते हैं, “मैं बड़े लंबे समय से ईमानदार रहा हूँ। क्या मैं वापस एक कपटी व्यक्ति बन सकता हूँ?” अगर तुमने अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग दिया है; अगर तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति बनने की सत्य वास्तविकता प्राप्त है; अगर तुम मानवता के साथ जी रहे हो, तुम्हें दिल से धूर्तता, धोखेबाजी और अविश्वासियों के संसार से घिन है, तो तुम शैतान की सत्ता के अधीन वापस नहीं जा सकते। ऐसा इसलिए कि तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार जी सकते हो; तुम पहले से ही प्रकाश में जी रहे हो। कपटी व्यक्ति से ईमानदार इंसान में बदलना आसान नहीं है। परमेश्वर को सचमुच आनंदित करनेवाले ईमानदार इंसान से कपटी व्यक्ति में वापस बदलना नामुमकिन होगा, और भी ज्यादा मुश्किल होगा। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे ईमानदार इंसान होने का कई वर्षों का अनुभव है। मैं अधिकतर समय सत्य बोलता हूँ और मैं काफी ईमानदार हूँ। लेकिन कभी-कभार मैं ऐसी बातें कह देता हूँ जो असत्य, अप्रत्यक्ष और कपटी होती हैं।” इस समस्या को ठीक करना ज्यादा आसान है। अगर तुम सत्य खोजने और सत्य के लिए प्रयास करने पर ध्यान देते हो, तो तुम्हें भविष्य में बदल न पाने को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं है। तुम निश्चित रूप से सुधरते रहोगे। मिट्टी में बोये अंकुर की तरह अगर तुम उसमें समय पर पानी डालोगे, रोज धूप में रखोगे, तो तुम्हें फिक्र करने की जरूरत नहीं कि बाद में इसमें फल लगेंगे या नहीं, और शरद ऋतु में यकीनन फसल होगी। अभी तुम्हें सबसे ज्यादा चिंता इस बारे में होनी चाहिए : क्या तुमने ईमानदार होने में प्रवेश किया है? क्या तुम कम-से-कम झूठ बोल रहे हो? क्या तुम कह सकते हो कि कुल मिलकर अब तुम ईमानदार हो? यही अहम सवाल हैं। अगर कोई कहता है : “मैं जानता हूँ कि मैं धोखेबाज हूँ, लेकिन मैंने कभी भी ईमानदार होने का अभ्यास नहीं किया,” तब तुममें ईमानदार होने की कोई भी वास्तविकता नहीं है। तुम्हें कड़ी मेहनत करने की जरूरत है, अपने जीवन के हर छोटे पहलू, हर तरह के बर्ताव, धोखेबाजी के सभी पैंतरों, और दूसरों से पेश आने के तरीकों को विश्लेषण के लिए सामने रखने की जरूरत है। इन चीजों का विश्लेषण करने से पहले तुम अपने-आपसे बहुत खुश हो सकते हो, तुमने जो कुछ किया है उससे बहुत आत्म-संतुष्ट हो सकते हो। लेकिन एक बार परमेश्वर के वचनों से तुलनात्मक विश्लेषण करने के बाद तुम्हें झटका लगेगा, “मुझे एहसास नहीं था कि मैं इतना घिनौना हूँ, इतना दुर्भावनापूर्ण और छली हूँ!” तुम अपना सही रूप देखोगे और सचमुच अपनी मुश्किलों, खामियों और धोखेबाजी को पहचानोगे। अगर तुम कोई विश्लेषण नहीं करते, और हमेशा के लिए खुद को ईमानदार और चालबाजी से मुक्त मानते हो, फिर भी खुद को धोखेबाज कहते हो, तो तुम कभी नहीं बदलोगे। अगर तुम अपने दिल में पैठे उन घिनौने बुरे इरादों को खोद कर नहीं निकालते, तो तुम अपनी कुरूपता और भ्रष्टता को कैसे देखोगे? अगर तुम अपनी भ्रष्ट दशाओं पर आत्मचिंतन कर उनका विश्लेषण नहीं करते, तो क्या तुम उस सत्य को देख पाओगे कि तुम कितनी गहराई से भ्रष्ट हो? अपने भ्रष्ट स्वभाव की समझ के बिना तुम यह नहीं जान सकोगे कि समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य को कैसे खोजें, तुम नहीं जानोगे कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार सत्य का अनुसरण कैसे करें, और वास्तविकता में प्रवेश कैसे करें। इस वाक्यांश का सच्चा अर्थ यही है : “अगर तुम सत्य पर अमल नहीं करते तो तुम्हें वास्तविकता कभी प्राप्त नहीं होगी।”

परमेश्वर जो भी कहता है वह सत्य है। उसके प्रत्येक अंतिम वचन में सत्य वास्तविकता है, और यह सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। लोगों को अभ्यास और प्रवेश करने के लिए बस परमेश्वर के वचनों को अपने दैनिक जीवन में लाने की जरूरत है। परमेश्वर के प्रत्येक वचन का उद्देश्य मानवजाति की जरूरत है और प्रत्येक वचन लोगों के उससे अपनी तुलना करने के लिए है। ये यूँ ही सरसरी नजर डालने के लिए नहीं हैं, तुम्हारी कुछ आध्यात्मिक जरूरतें पूरी करने के लिए भी नहीं हैं, बनावटी प्रेम दिखाने लिए भी नहीं, न ही पत्रों और सिद्धांत के बारे में बात करने की तुम्हारी जरूरतें पूरी करने के लिए हैं। परमेश्वर के प्रत्येक वचन में सत्य की वास्तविकता है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों पर अमल नहीं करते, तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का कोई रास्ता नहीं होगा—तुम हमेशा ऐसे इंसान बने रहोगे जिसका वास्तविकता से कोई रिश्ता नहीं है। अगर तुम ईमानदार होने का अभ्यास करते हो, तो तुम्हारे पास ईमानदार होने की वास्तविकता होगी, और तुम एक ईमानदार इंसान होने की सच्ची दशा में जी सकोगे, बजाय इसके कि झूठे ढोंग करते रहो। तुम यह भी समझ पाओगे कि कैसा व्यक्ति ईमानदार होता है और कैसा व्यक्ति नहीं, और परमेश्वर धोखेबाज लोगों से घृणा क्यों करता है। तुम ईमानदार होने के महत्त्व को सचमुच समझ जाओगे; तुम अनुभव करोगे कि लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा रख कर परमेश्वर कैसा महसूस करता है, और वह लोगों से यह अपेक्षा क्यों रखता है। यह पता लगने पर कि तुम अत्यंत कपटपूर्ण हो, तुम अपनी धोखेबाजी और कुटिलता से घृणा करोगे। तुम्हें इस बात से घृणा होगी कि अपने धोखेबाज और कुटिल स्वभाव के साथ तुम बेशर्मी से कैसे जीते रहे हो। इस तरह तुम बदलने को उत्सुक हो जाओगे। इस तरह तुम्हें यह और ज्यादा महसूस होगा कि ईमानदार इंसान होना ही सामान्य मानवता वाला सार्थक जीवन जीने का एकमात्र रास्ता है। तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर का लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा रखना अत्यंत अर्थपूर्ण है। तुम्हें लगेगा कि ऐसा करके ही तुम परमेश्वर की इच्छा पूरी कर सकोगे, सिर्फ ईमानदार लोगों को ही उद्धार मिलेगा, और परमेश्वर ने जो कुछ भी कहा वह पूरी तरह से सही है! तुम लोग मुझे बताओ : क्या लोगों से ईमानदार होने की परमेश्वर की अपेक्षा अर्थपूर्ण है? (हाँ, जरूर है।) फिर, तुम सबको अपने धोखेबाज और कुटिल अंशों का विश्लेषण अभी शुरू कर देना चाहिए। उनका विश्लेषण करने के बाद तुम पाओगे कि धोखेबाजी के हर काम के पीछे एक इरादा है, एक खास लक्ष्य, एक इंसानी कुरूपता है। तुम पाओगे कि यह धोखा लोगों की मूर्खता, स्वार्थ और घिनौनापन दर्शाता है। यह देख लेने के बाद तुम अपना असली चेहरा देखोगे, और अपना असली चेहरा देखने के बाद, खुद से घृणा करोगे। खुद से घृणा करना शुरू करने और सचमुच यह जान लेने के बाद कि तुम किस किस्म के इंसान हो, क्या तुम अपनी अकड़ दिखाते रहोगे? क्या हर मोड़ पर तुम डींग हाँकते रहोगे? क्या तुम्हें हमेशा दूसरों से अभिनंदन और प्रशंसा की चाह रहेगी? क्या तुम अब भी कहोगे कि परमेश्वर की माँगें बहुत ऊँची हैं, ये जरूरी नहीं हैं? तुम उस तरह कार्य नहीं करोगे, वैसी बातें नहीं कहोगे। तुम परमेश्वर की बातों से सहमत हो जाओगे और “आमीन” कहोगे। तुम्हें दिलो-दिमाग और अपनी दृष्टि से यकीन हो जाएगा। ऐसा होने का अर्थ है कि तुमने परमेश्वर के वचनों पर अमल करना शुरू कर दिया है, तुमने वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है और तुम्हें नतीजे दिखाई देने लगे हैं। तुम परमेश्वर के वचनों पर जितना ज्यादा अमल करोगे, तुम्हें उतना ही महसूस होगा कि वे कितने सही और जरूरी हैं। मान लो कि तुम उन पर अमल नहीं करते। इसके बजाय तुम हमेशा बड़बड़ाते रहते हो, “अरे, मैं बेईमान हूँ, धोखेबाज हूँ,” और फिर भी किसी हालत का सामना होने पर निरंतर यह सोचते हुए कि यह धोखेबाजी नहीं है तुम धोखेबाजी से काम करते हो, खुद को अभी भी ईमानदार मानते हो, और उस मामले को यूँ ही गुजर जाने देते हो। और अगली बार कोई मामला आने पर तुम फिर से चालबाजी करते हो, कुटिलता और धोखेबाजी में लग जाते हो, और मुँह खोलते ही झूठ बोलने लगते हो। बाद में, तुम सोचते हो “क्या मैं फिर से कुटिल और धोखेबाज बन गया था? क्या मैं दोबारा झूठ बोल रहा था? मुझे नहीं लगता इसकी कोई अहमियत है,” और तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो, “हे परमेश्वर, तुम देख रहे हो मैं किस तरह साजिश का सहारा लेता हूँ, हमेशा कुटिल और धोखेबाज रहता हूँ। मुझे माफ कर दो। अगले बार मैं वैसा नहीं रहूँगा; अगर मैं वैसा रहा तो मुझे अनुशासित कर देना,” इन मामलों को हल्के में लेकर उन्हें दबा देते हो। यह कैसा व्यक्ति है? यह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम नहीं करता और सत्य पर अमल करने को तैयार नहीं होता। हो सकता है तुमने अपना कर्तव्य निभाने, परमेश्वर की सेवा करने या धर्मोपदेश सुनने में थोड़ी कीमत चुकाई हो, थोड़ा वक्त लगाया हो। हो सकता है तुमने अपना थोड़ा कामकाजी समय भी न्योछावर किया हो और थोड़ा कम पैसा कमाया हो। लेकिन असल में, तुमने सत्य पर जरा भी अमल नहीं किया है, और तुमने सत्य पर अमल करने के विषय को गंभीरता से नहीं लिया है। तुम सतही और लापरवाह रहे हो, इसे कभी अहमियत नहीं दी। अगर तुम सत्य पर अमल करते वक्त सिर्फ बिना रुचि के करते हो, तो इससे साबित होता है कि सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया प्रेम का नहीं है। तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य पर अमल करने को तैयार नहीं है; तुम सत्य से बहुत दूर हो और उससे घृणा करते हो। तुमने आशीष प्राप्त करने के लिए आस्था रखी है, और तुम परमेश्वर से सिर्फ इसलिए दूर नहीं चले गए क्योंकि तुम्हें दंडित होने का डर है। इसलिए तुम अपनी आस्था किसी तरह निभा लेते हो, खुद को अच्छा दिखाने के लिए सिद्धांत वचनों और पत्रों का प्रचार करने की कोशिश करते हो, थोड़ी आध्यात्मिक शब्दावली और कुछ लोकप्रिय भजन सीख लेते हो, सत्य पर संगति करने के लिए कुछ सूत्रवाक्य और अपनी आस्था से जुड़े प्रचलित बोल सीख लेते हो। तुम खुद को आध्यात्मिक व्यक्ति की तरह अलंकृत करते हो, यह सोचकर कि तुम वह व्यक्ति हो जो परमेश्वर की इच्छा का पालन करता है और परमेश्वर के उपयोग के लायक है। तुम बेपरवाह होकर खुद को भूल जाते हो। तुम इस सतही छवि, इस पाखंडी व्यवहार के फेर में आकर बेवकूफ बन जाते हो। तुम अपनी मृत्यु तक इनसे बेवकूफ बनते रहते हो, और हालाँकि तुम्हें लगता है कि तुम स्वर्ग में आरोहण करोगे, सच पूछो तो तुम नरक में उतरोगे। वैसी आस्था रखने का भला क्या अर्थ है? तुम्हारी इस तथाकथित “आस्था” में कुछ भी वास्तविक नहीं है। ज्यादा-से-ज्यादा तुमने मान लिया है कि परमेश्वर है, मगर तुमने सत्य वास्तविकता में जरा भी प्रवेश नहीं किया है। तो अंत में, तुम्हारा नतीजा भी वही होगा जो अविश्वासियों का होता है—तुम नरक में जाओगे, बिनी किसी अच्छे नतीजे के। परमेश्वर ने कहा, “मैं जो माँगता हूँ वे केवल उजले, रंग-बिरंगे फूल ही नहीं, बल्कि भरपूर फल हैं।” तुम्हारे पास चाहे जितने फूल हों या वे चाहे जितने भी सुंदर हों, परमेश्वर को नहीं चाहिए। इसका अर्थ यह है कि तुम चाहे जितना भी मीठा बोलो या चाहे तुम जितने भी खपते, योगदान देते, न्योछावर करते नजर आओ, यह वो नहीं है जिससे परमेश्वर को आनंद मिलता है। परमेश्वर सिर्फ यह देखता है कि तुम्हें वास्तव में सत्य की कितनी समझ है और तुमने कितने पर अमल किया है, परमेश्वर के वचनों की कितनी सत्य वास्तविकता तुमने जी है, क्या तुम्हारे जीवन स्वभाव में सच्चा बदलाव हुआ है, तुम्हारे पास कितनी सच्ची अनुभवात्मक गवाही है, तुमने कितने नेक कर्म किए हैं, तुमने परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए कितना कार्य किया है, और क्या तुमने अपना कर्तव्य मानक स्तर तक निभाया है। परमेश्वर यही चीजें देखता है। जब लोग परमेश्वर को नहीं समझते और उसकी इच्छा नहीं जानते, तो वे हमेशा इसका गलत अर्थ निकलते हैं और उसके साथ विवाद खत्म करने के तरीके के रूप में उसे कुछ सतही चीजें पेश करते हैं। वे कहते हैं, “हे परमेश्वर, मैं कई वर्षों से विश्वासी रहा हूँ। मैंने सब जगहों की यात्रा की है, सुसमाचार का प्रचार किया है, और बहुत-से लोगों का धर्म-परिवर्तन किया है। मैं तुम्हारे वचनों के अनेक अंशों का पाठ कर सकता हूँ, और बहुत-से भजन गा सकता हूँ। किसी बड़ी या मुश्किल चीज के आने पर मैं हमेशा उपवास और प्रार्थना करता हूँ, निरंतर तुम्हारे वचन पढ़ता हूँ। मैंने तुम्हारी इच्छा का पालन कैसे नहीं किया होगा?” फिर परमेश्वर उनसे कहता है : “क्या तुम अब ईमानदार हो? क्या तुम्हारी धोखेबाजी बदल गई है? क्या तुमने ईमानदार बनने के लिए कभी कोई कीमत चुकाई है? क्या तुम कभी भी अपने द्वारा किए गए धोखेबाजी के तमाम कामों, धोखे के अपने तरीकों को मेरे पास लाए हो, और उन्हें रोशन किया है? क्या तुम मेरे साथ कम बेईमान हो रहे हो? मुझसे झूठी शपथ या खोखले वादे करते समय या मुझे मूर्ख बनाने के लिए बढ़िया बातें करते समय तुम उन्हें पहचानते हो? क्या तुमने इन चीजों को जाने दिया है?” जब तुम उस बारे में सोचते हो और पाते हो कि तुमने इन्हें जाने नहीं दिया है, तो तुम हक्का-बक्का हो जाओगे। तुम इस तथ्य के प्रति आगाह हो जाओगे कि तुम परमेश्वर के समक्ष विवाद खत्म नहीं कर सकते। तुम खुद को जान सको इसके लिए मैं तुम्हारी भ्रष्ट दशा को उजागर करता हूँ; मैं इतना इसलिए बोलता हूँ ताकि तुम सत्य पर अमल करके वास्तविकता में प्रवेश कर सको। कोई भी वचन, कोई भी संगति या सत्य लोगों के दूर-दूर तक पाठ करने के लिए नहीं हैं; वे अमल करने के लिए हैं। तुम्हें हमेशा सत्य को स्वीकार करने और अमल में लाने को क्यों कहा जा रहा है? इसलिए कि केवल सत्य ही तुम्हारी भ्रष्टता को शुद्ध कर सकता है और जीवन और तुम्हारे मूल्यों के प्रति नजरिये को बदल सकता है और केवल सत्य ही किसी का जीवन बन सकता है। जब तुम सत्य स्वीकारते हो, तो इसे अपना जीवन बनाने के लिए तुम्हें इस पर अमल भी करना चाहिए। अगर तुम्हें विश्वास है कि तुम्हें सत्य की समझ है मगर तुमने इस पर अमल नहीं किया है और यह तुम्हारा जीवन नहीं बन पाया है, तो संभवत: तुम नहीं बदल सकते। चूँकि तुमने सत्य को स्वीकार नहीं किया है, इसलिए तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के शुद्ध होने का कोई रास्ता नहीं है। अगर तुम सत्य पर अमल नहीं कर सकते, तो तुम नहीं बदलोगे। अंतत: अगर सत्य ने तुम्हारे दिल में जड़ें नहीं जमाई हैं और यह तुम्हारा जीवन नहीं बन पाया है, तो जब एक विश्वासी के रूप में तुम्हारा समय समाप्त होने को होगा, तो तुम्हारी नियति और परिणाम का फैसला हो जाएगा। इस संगति के प्रकाश में, क्या तुम सभी को लग रहा है कि शीघ्रता से सत्य पर अमल करना चाहिए? तीन-चार साल या और भी ज्यादा प्रतीक्षा करने के बाद इस पर अमल शुरू न करो। सत्य पर अमल करने को लेकर कोई भी समय बहुत जल्द या बहुत देर का नहीं होता; अगर तुम इस पर शीघ्र अमल करोगे, तो शीघ्र बदलोगे, अगर तुम इस पर बाद में अमल करोगे, तो बाद में बदलोगे। अगर तुम पवित्र आत्मा के कार्य और परमेश्वर द्वारा मानवजाति की पूर्णता का मौका चूक गए तो विपत्तियाँ आने पर तुम खतरे में पड़ जाओगे। फिर जब मानवजाति को बचाने का परमेश्वर का कार्य समाप्त होगा, तो कोई भी मौके नहीं बचेंगे। अगर मौके चूक जाने के बाद तुम कहोगे, “तब मैंने उसके लिए कोई मेहनत नहीं की, मगर अब मैं इस पर अमल करूँगा,” तो बहुत देर हो जाएगी, और तुम्हारे परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने की संभावना नहीं रहेगी। ऐसा इसलिए कि अब पवित्र आत्मा कार्य नहीं करेगा, और सभी चीजों, सभी सत्यों के बारे में तुम्हारी समझ बहुत उथली हो जाएगी। अब तमाम हालात पैदा हो रहे हैं, और सत्य पर संगति के जरिये तुम लोगों की आस्था बढ़ रही है और तुममें परमेश्वर का अनुसरण करने का जोश ज्यादा है। अगर कुछ समय तक हालात न बने होते, तो तुम सब यकीनन नकारात्मक और अनुशासनहीन हो जाते, परमेश्वर से दूर और दूर हो जाते। तुम ठीक धार्मिक संसार के लोगों की तरह ही हो जाते, बिल्कुल सत्य वास्तविकता के बिना, सभाओं और धार्मिक अनुष्ठानों के खाकों का निरीक्षण करते। फिर अपनी छाती ठोक कर रोने से तुम लोगों का क्या भला होता?

मुझे बताओ, क्या धोखेबाज लोगों के साथ-साथ जीना थाकाऊ है? (जरूर है।) क्या वे भी थके हुए नहीं हैं? दरअसल, वे भी थके हुए हैं मगर अपनी थकान महसूस नहीं करते। ऐसा इसलिए कि धोखेबाज और ईमानदार लोग अलग-अलग होते हैं : ईमानदार लोग ज्यादा सरल होते हैं। उनके विचार उतने पेचीदा नहीं होते, वे वही बोलते हैं जो सोचते हैं। दूसरी ओर धोखेबाज लोगों को हमेशा घुमा-फिरा कर बोलना पड़ता है। वे कोई भी बात सीधे तौर पर नहीं करते—बल्कि हमेशा धोखेबाजी के खेल खेलते हैं, अपने झूठ छिपाते हैं। वे हमेशा अपने दिमाग चलाते रहते हैं, हमेशा सोचते रहते हैं, डरते हैं कि जरा भी लापरवाह हुए तो वे कोई चूक कर बैठेंगे। कुछ लोग किस हद तक धोखेबाजी के खेल खेलते हैं? वे चाहे जिससे भी बातचीत कर रहे हों, हमेशा समझने की कोशिश में रहते हैं कि कौन ज्यादा खुदगर्ज है, कौन ज्यादा होशियार है, कौन सबसे ऊपर है, और आखिरकार प्रतिस्पर्धा की उनकी भावना एक मानसिक विकार बन जाती है। वे रात में सो नहीं पाते, फिर भी उन्हें दर्द महसूस नहीं होता और यह सामान्य लगता है। फिर क्या वे जीवित दानव नहीं बन चुके हैं? जब परमेश्वर लोगों को बचाता है, तो वह उन्हें ईमानदार बनकर उसके वचनों के अनुसार जीने के लिए शैतान का प्रभाव और अपना भ्रष्ट स्वभाव त्यागने देता है। एक ईमानदार इंसान की तरह जीना स्वतंत्रता और मुक्ति देने वाला होता है। यह सबसे खुशहाल जीवन होता है। ईमानदार लोग ज्यादा सरल होते हैं। वे अपने दिल की बात करते हैं, वही बोलते हैं जो वे सोचते हैं। अपने कथनों और कृत्यों में वे अपने जमीर और समझ का अनुसरण करते हैं। वे सत्य के लिए मेहनत करने को तैयार रहते हैं और उसे समझ लेने के बाद वे उस पर अमल करते हैं। जब वे कोई बात समझ नहीं पाते, तो सत्य खोजने को तैयार रहते हैं, और फिर वे वही करते हैं जो सत्य के अनुरूप होता है। वे हर जगह हर चीज में परमेश्वर की इच्छा खोजते हैं, और फिर अपने कार्यों में इसका पालन करते हैं। ऐसे कुछ क्षेत्र हो सकते हैं जिनमें वे बेवकूफ होते हैं और जिनमें उन्हें सत्य सिद्धांतों से लैस होना चाहिए, और इसके लिए जरूरी होता है कि वे निरंतर विकास करें। इस तरह अनुभव करने का अर्थ है कि वे ईमानदार और बुद्धिमान हो सकते हैं, और पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा का पालन कर सकते हैं। लेकिन धोखेबाज लोग ऐसे नहीं होते। वे शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं, अपनी भ्रष्टता प्रदर्शित करते हैं, फिर भी डरते हैं कि ऐसा करने से कहीं दूसरे लोग उनके खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए कुछ पता न लगा लें। इसलिए वे जवाब में कुटिल, धोखेबाज चालें चलते हैं। वे तमाम चीजों का खुलासा करने वाले समय से डरते हैं, इसलिए वे झूठ बनाने और उन्हें छिपाने के सभी साधन इस्तेमाल करते हैं जो उनके वश में हैं, और जब कुछ अंतराल नजर आता है तो उसे भरने के लिए वे और झूठ बोलते हैं। हमेशा झूठ बोलना और अपना झूठ छिपाना—क्या यह जीने का एक थकाऊ तरीका नहीं है? वे हमेशा झूठ और उन्हें दबाने के तरीके सोचने के लिए अपने दिमाग कुरेदते रहते हैं। यह बहुत ज्यादा थकाऊ होता है। इसीलिए झूठ तैयार करने और उन्हें दबाने में दिन बिताने वाले धोखेबाज लोगों का जीवन हमेशा थकाऊ और दर्दनाक होता है! लेकिन ईमानदार लोगों के साथ यह अलग होता है। ईमानदार इंसान को बोलते और कर्म करते समय इतनी सारी चीजों पर विचार नहीं करना पड़ता। ज्यादातर स्थितियों में, ईमानदार इंसान बस सच्चाई से बोल सकता है। सिर्फ जब कोई खास मामला उनके हितों को प्रभावित करे, तभी वे अपना दिमाग थोड़ा ज्यादा चलाते हैं—वे अपने हितों की रक्षा करने और अपना अभिमान और गर्व बनाए रखने के लिए थोड़ा झूठ बोल सकते हैं। ऐसे झूठ सीमित होते हैं, इसलिए ईमानदार लोगों के लिए बोलना और कार्य करना उतना थकाऊ नहीं होता। धोखेबाज लोगों के इरादे ईमानदार लोगों के मुकाबले काफी पेचीदा होते हैं। उनके ध्यान देने योग्य विचार बहुत ज्यादा बहुआयामी होते हैं : उन्हें अपनी प्रतिष्ठा, शोहरत, लाभ और हैसियत का विचार करना होता है; उन्हें अपने हितों की रक्षा करनी होती है—और ये सब लोगों को खामियाँ दिखाए बिना या खेल का खुलासा किए बिना, इसलिए उन्हें झूठ तैयार करने के लिए अपना दिमाग कुरेदना पड़ता है। इसके अलावा, धोखेबाज लोगों की बहुत बड़ी और अत्यधिक आकांक्षाएँ और कई माँगें होती हैं। उन्हें अपने लक्ष्य पाने के लिए तरीके ईजाद करने होते हैं, इसलिए उन्हें झूठ बोलते और ठगते रहना पड़ता है, और ज्यादा झूठ बोलते हुए उन्हें ज्यादा झूठ छिपाने पड़ते हैं। इसीलिए धोखेबाज का जीवन ईमानदार इंसान की अपेक्षा बहुत ज्यादा थकाऊ और पीड़ादायक होता है। कुछ लोग अपेक्षाकृत ईमानदार होते हैं। उन्होंने चाहे जो भी झूठ बोले हों, अगर वे सत्य का अनुसरण कर आत्मचिंतन कर सकें, जो भी चालबाजी की हो अगर वे उसे पहचान सकें, उसका विश्लेषण करने, समझने और फिर उसे बदलने के लिए परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में उसे देख सकें, तो फिर वे कुछ ही वर्षों में अपने झूठ और चालबाजी से काफी हद तक छुटकारा पा सकेंगे। फिर वे वैसे व्यक्ति बन चुके होंगे जो बुनियादी तौर पर ईमानदार हैं। इस तरह जीना उन्हें न सिर्फ अधिक पीड़ा और थकान से मुक्त कर देता है, इससे उन्हें शांति और खुशी भी मिलती है। कई मामलों में, वे प्रतिष्ठा, लाभ, हैसियत, अभिमान और गर्व के प्रतिबंधनों से स्वतंत्र रह कर स्वाभाविक रूप से एक आजाद और मुक्त जीवन जिएँगे। लेकिन धोखेबाज लोगों की बातों और कृत्यों के पीछे हमेशा गुप्त मंसूबे होते हैं। वे लोगों से छल और चालबाजी करने के लिए तरह-तरह के झूठ बनाते हैं और उजागर होते ही वे अपने झूठों को छिपाने के तरीके सोचते हैं। तरह-तरह से उत्पीड़ित होकर उन्हें भी लगता है कि उनका जीवन थकाऊ है। वे जिस भी स्थिति का सामना करते हैं उसमें इतने सारे झूठ बोलना उनके लिए बहुत थकाऊ होता है, और फिर उन झूठों को छिपाना और भी ज्यादा थकाऊ होता है। उनकी हर बात कोई लक्ष्य साधने के लिए होती है, इसलिए अपनी हर बात में वे बहुत ज्यादा मानसिक ऊर्जा खपाते हैं। और अपनी बात खत्म हो जाने पर वे डर जाते हैं कि आपने उनके भीतर झाँक लिया है, इसलिए उन्हें अपने झूठ छिपाने के लिए अपना दिमाग कुरेदना पड़ता है, तुम्हें डटकर चीजें समझानी पड़ती हैं, तुम्हें यकीन दिलाने की कोशिश करनी पड़ती है कि वे झूठ नहीं बोल रहे हैं, धोखा नहीं दे रहे हैं, और वे एक नेक इंसान हैं। धोखेबाज लोग ऐसे कामों के योग्य होते हैं। अगर दो धोखेबाज लोग साथ हों, तो साजिश, संघर्ष और षड्यंत्र का होना लाजिमी है। यह तकरार कभी खत्म नहीं होती, जिससे और गहरी नफरत पैदा होती है और वे कट्टर दुश्मन बन जाते हैं। अगर किसी धोखेबाज के साथ तुम एक ईमानदार इंसान हो, तो ये बर्ताव तुममें यकीनन घिन पैदा कर देंगे। अगर वे बस यहाँ-वहाँ वैसे कर्म करते रहे, तो तुम कहोगे कि सबका स्वभाव भ्रष्ट है, और ऐसी चीजों से बचना मुश्किल है। लेकिन अगर वे सारा समय यूँ ही करते रहे, तो तुम्हें इन तरीकों से खास तौर पर घृणा होगी, घिन आएगी; तुम्हें उनके इस पहलू और उनके इन इरादों से घिन हो जाएगी। जब तुम इतना ज्यादा चिढ़ जाओगे, तो उनसे घृणा कर उन्हें ठुकरा सकोगे। यह बहुत सामान्य बात है। जब तक वे प्रायश्चित्त कर थोड़ा बदलाव नहीं दिखाते, उनसे बातचीत नहीं हो सकती।

तुम क्या कहते हो—क्या धोखेबाज लोगों का जीवन थकाऊ नहीं है? वे अपना पूरा समय झूठ बोलने और फिर उन्हें छिपाने के लिए और ज्यादा झूठ बोलने और चालबाजी करने में लगा देते हैं। वे खुद ही खुद को इतना थका लेते हैं। वे जानते हैं कि इस तरह जीना थकाऊ है—फिर भी वे क्यों धोखेबाज बने रहना चाहते हैं, ईमानदार क्यों नहीं होना चाहते? क्या तुमने कभी इस सवाल पर विचार किया है? यह लोगों के अपनी शैतानी प्रकृति द्वारा बेवकूफ बनाए जाने का नतीजा है; यह उन्हें ऐसे जीवन और ऐसे स्वभाव से छुटकारा पाने से रोकता है। लोग इस तरह बेवकूफ बनाए जाने और इस तरह जीने को तैयार रहते हैं; वे सत्य पर अमल नहीं करना चाहते, प्रकाश मार्ग पर नहीं चलना चाहते। तुम्हें लगता है कि इस तरह जीना थकाऊ है और इस तरह कार्य करना जरूरी नहीं है—लेकिन धोखेबाज लोग सोचते हैं कि यह जरूरी है। वे सोचते हैं कि ऐसा न करने से उनका अपमान होगा, उनकी छवि, शोहरत और हितों को भी नुकसान पहुँचेगा, और वे बहुत-कुछ खो देंगे। वे ये चीजें सँजोते हैं, अपनी छवि, शोहरत और हैसियत को सँजोते हैं। यह उन लोगों का असली चेहरा है जो सत्य से प्रेम नहीं करते। संक्षेप में, लोग ईमानदार होने या सत्य पर अमल करने को इसलिए तैयार नहीं होते, क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते। अपने दिल में वे शोहरत और हैसियत जैसी चीजों को संजोते हैं, सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागना और शैतान की सत्ता के अधीन जीना पसंद करते हैं। यह उनकी प्रकृति की समस्या है। अभी ऐसे लोग हैं जिन्होंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, अनेक धर्मोपदेश सुने हैं और जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखना क्या होता है। लेकिन फिर भी वे सत्य पर अमल नहीं करते और वे जरा भी नहीं बदले हैं—ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते। भले ही वे थोड़ा-बहुत सत्य समझते हों, फिर भी वे उस पर अमल नहीं कर पाते। ऐसे लोग परमेश्वर में चाहे जितने वर्ष विश्वास रख लें, कुछ भी नहीं होगा। क्या सत्य से प्रेम न करने वालों को बचाया जा सकेगा? यह बिल्कुल नामुमकिन है। सत्य से प्रेम न करना व्यक्ति के दिल, उसकी प्रकृति की समस्या है। इसे दूर नहीं किया जा सकता। अपनी आस्था में कोई बचाया जा सकेगा या नहीं, यह मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि वे सत्य से प्रेम करते हैं या नहीं। सिर्फ सत्यप्रेमी लोग ही सत्य को स्वीकार सकते हैं; सिर्फ वही लोग मुश्किलें झेल सकते हैं और सत्य की खातिर कीमत चुका सकते हैं, सिर्फ वही परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा कर सकते हैं। सिर्फ वही सत्य को खोज सकते हैं, और अपने अनुभवों के जरिये आत्मचिंतन कर खुद को जान सकते हैं, देह-सुख त्यागने, सत्य पर अमल करने और परमेश्वर को समर्पित होने का साहस रखते हैं। सिर्फ सत्यप्रेमी ही उसका इस तरह अनुसरण कर सकते हैं, उद्धार के पथ पर चल सकते हैं और परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं। इसके सिवाय दूसरा कोई रास्ता नहीं है। सत्य से प्रेम न करने वालों के लिए इसे स्वीकार करना बहुत मुश्किल है। ऐसा इसलिए कि अपनी प्रकृति से ही वे सत्य से ऊबे हुए होते हैं और उससे घृणा करते हैं। अगर वे परमेश्वर का प्रतिरोध करना बंद कर देना चाहें या बुरे कर्म न करना चाहें, तो ऐसा करना उनके लिए बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि वे शैतान के हैं और वे पहले ही दानव और परमेश्वर के शत्रु बन चुके हैं। परमेश्वर मानवजाति को बचाता है, वह दानवों या शैतान को नहीं बचाता। कुछ लोग ऐसे सवाल पूछते हैं : “मैं सत्य को जरूर समझता हूँ। मैं सिर्फ उस पर अमल नहीं कर सकता। मैं क्या करूँ?” यह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम नहीं करता। अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता, तो उसे समझ कर भी वह उस पर अमल नहीं कर सकता, क्योंकि दिल से वह ऐसा करने को तैयार नहीं है, और उसे सत्य पसंद नहीं है। ऐसा व्यक्ति उद्धार से परे है। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे लगता है कि ईमानदार बन कर तुम बहुत-सी चीजें खो देते हो, इसलिए मैं ऐसा व्यक्ति नहीं बनाना चाहता। धोखेबाज लोग कभी खोते नहीं—वे दूसरों का फायदा उठाकर भी लाभान्वित होते हैं। तो मैं धोखेबाज बनना पसंद करूँगा। मैं दूसरों को अपना निजी व्यवसाय जानने देने, मुझे जानने-समझने देने को तैयार नहीं हूँ। मेरा भाग्य मेरे अपने हाथों में होना चाहिए।” फिर ठीक है, किसी भी तरह से आजमा कर देख लो। देखो तुम्हें कैसे नतीजा मिलता है; देखो अंत में कौन नरक में जाता है, और कौन दंडित होता है।

क्या तुम लोग ईमानदार बनने को तैयार हो? ये संवाद सुनने के बाद तुम क्या करना चाहते हो? तुम पहले किस बात से शुरू करोगे? (मैं झूठ बोले बिना शुरू करूँगा।) अभ्यास करने का यह सही तरीका है, मगर झूठ न बोलना आसान नहीं है। लोगों के झूठों के पीछे अक्सर इरादे होते हैं, लेकिन कुछ झूठों के पीछे कोई इरादा नहीं होता, न ही जान-बूझ कर उनकी योजना बनाई जाती है। बजाय इसके वे सहज ही निकल आते हैं। ऐसे झूठ आसानी से सुलझाए जा सकते हैं; जिन झूठों के पीछे इरादे होते हैं उन्हें सुलझाना मुश्किल होता है। ऐसा इसलिए कि ये इरादे व्यक्ति की प्रकृति से आते हैं और शैतान की चालबाजी दर्शाते हैं, और ये ऐसे इरादे हैं जो लोग जान-बूझ कर चुनते हैं। अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता, तो वह देह-सुख नहीं त्याग सकता—इसलिए उसे परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा करना चाहिए, और मसला सुलझाने के लिए सत्य खोजना चाहिए। लेकिन झूठ को एक ही बार में पूरी तरह नहीं सुलझाया जा सकता। ये कभी-कभी लौट आते हैं और कई-कई बार ऐसा होता है। यह सामान्य स्थिति है, और अगर तुम अपना बताया प्रत्येक झूठ सुलझाते जाओगे, तो वह दिन आएगा जब तुमने सभी झूठ सुलझा लिए होंगे। झूठ का समाधान एक लंबा युद्ध है : एक झूठी बात बाहर आने पर आत्मचिंतन करो और परमेश्वर से प्रार्थना करो। जब दूसरा झूठ बाहर आए, तो दोबारा आत्मचिंतन कर परमेश्वर से प्रार्थना करो। तुम परमेश्वर से जितनी ज्यादा प्रार्थना करोगे, अपने भ्रष्ट स्वभाव से उतनी ही घृणा करोगे, और सत्य पर अमल करने और उसे जीने को उतने ही लालायित होगे। इस तरह, तुम्हें झूठ का परित्याग करने की शक्ति मिलेगी। ऐसे अनुभव और अभ्यास के थोड़े समय के बाद तुम देख पाओगे कि तुम्हारे झूठ बहुत कम हो गए हैं, तुम ज्यादा आसानी से जी रहे हो, और अब तुम्हें झूठ बोलने या अपने झूठ छिपाने की जरूरत नहीं है। हालाँकि तुम शायद हर दिन ज्यादा न बोलो, मगर तुम्हारा हर वाक्य तुम्हारे दिल से आएगा और सच्चा होगा, झूठ बहुत कम होंगे। इस तरह जीना कैसा लगेगा? क्या यह स्वतंत्र और मुक्त करनेवाला नहीं होगा? तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव तुम पर शासन नहीं करेगा, तुम उसके बंधन में नहीं रहोगे, और कम-से-कम तुम ईमानदार इंसान बनने के परिणाम देखना शुरू कर दोगे। बेशक विशेष हालात का सामना होने पर तुम शायद कोई छोटा झूठ बोल दो। ऐसे मौके भी आ सकते हैं जब किसी खतरे या मुसीबत से तुम्हारा सामना हो जाए, या तुम अपनी सुरक्षा बनाए रखना चाहो, तब झूठ बोलने से बचा नहीं जा सकता। फिर भी तुम्हें उस पर चिंतन कर उसे समझना चाहिए और समस्या को दूर करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर कहना चाहिए : “मुझमें अभी भी झूठ और चालबाजी हैं। परमेश्वर मुझे सदा के लिए मेरे भ्रष्ट स्वभाव से बचा ले।” जब कोई जान-बूझ कर बुद्धि का प्रयोग करता है, तो यह भ्रष्टता का खुलासा नहीं माना जाता। ईमानदार बनने के लिए इंसान को इसका अनुभव करना पड़ता है। इस तरह तुम्हारे झूठ और भी कम हो जाएँगे। आज तुम दस झूठ बोलते हो, कल शायद नौ बोलो, और परसों आठ। बाद में, तुम सिर्फ दो-तीन ही बोलोगे। तुम ज्यादा-से-ज्यादा सत्य बोलोगे, और ईमानदार बनने का तुम्हारा अभ्यास परमेश्वर की इच्छा, उसकी अपेक्षाओं और मानकों के और ज्यादा करीब पहुँच जाएगा, और यह कितना अच्छा होगा! ईमानदार होने का अभ्यास करने के लिए तुम्हारे पास एक पथ और एक लक्ष्य होना चाहिए। सबसे पहले, झूठ बोलने की समस्या को दूर करो। तुम्हें अपने अपने झूठ बोलने के पीछे के सार को जानना चाहिए। तुम्हें यह भी विश्लेषण करना चाहिए कि कौन-से इरादे और मंशाएँ तुम्हें ये झूठ बोलने को प्रेरित करती हैं, तुम्हारे भीतर ऐसे इरादे क्यों हैं, और उनका सार क्या है। जब तुम इन सभी मसलों का स्पष्टीकरण कर लोगे, तो तुम झूठ बोलने की समस्या को अच्छी तरह समझ चुके होगे, और कोई घटना होने पर तुम्हारे पास अभ्यास के सिद्धांत होंगे। अगर तुम ऐसे अभ्यास और अनुभव के साथ आगे बढ़ोगे, तो यकीनन तुम्हें परिणाम मिलेंगे। एक दिन तुम कहोगे : “ईमानदार होना आसान है। धोखेबाज होना बहुत थकाऊ है! मैं अब धोखेबाज इंसान नहीं रहना चाहता, मुझे हमेशा सोचना पड़ता है कि कौन-सा झूठ बोलूँ और अपने झूठ कैसे छिपाऊँ। यह एक मानसिक रोगी होने की तरह है, जो विरोधाभासी बातें करता है, ऐसा जो ‘इंसान’ कहने लायक नहीं है! ऐसा जीवन बहुत थकाऊ है, और अब मैं उस तरह नहीं जीना चाहता!” तब तुम्हें सचमुच ईमानदार होने की आशा होगी, और इससे साबित होगा कि तुम ईमानदार बनने की ओर आगे बढ़ रहे हो। यह एक नई तोड़ है। बेशक तुममें से कुछ लोग होंगे जो अभ्यास शुरू करते समय ईमानदार बातें कहने और खुद को खोल कर पेश करने के बाद अपमानित महसूस करेंगे। तुम्हारा चेहरा लाल हो जाएगा, तुम शर्मिंदा महसूस करोगे, लोगों की हँसी से डरोगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? तब भी तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर उससे शक्ति देने की विनती करनी चाहिए। तुम कहो : “हे परमेश्वर, मैं ईमानदार बनाना चाहता हूँ, लेकिन मुझे डर है कि मेरे सत्य बोलने पर लोग मुझ पर हँसेंगे। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे मेरे शैतानी स्वभाव के बंधन से बाहर निकालो; मुझे स्वतंत्र और मुक्त होकर तुम्हारे वचनों के अनुसार जीने दो।” जब तुम इस तरह प्रार्थना करोगे, तो तुम्हारे दिल में और ज्यादा उजाला हो जाएगा, और तुम खुद से कहोगे : “इस पर अमल करना अच्छा है। आज मैंने सत्य पर अमल किया है। आखिरकार, अब मैं ईमानदार इंसान बन गया हूँ।” जब तुम इस तरह प्रार्थना करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। वह तुम्हारे हृदय में कार्य करेगा, तुम्हें प्रेरित करेगा, तुम्हें गुण जानने देगा कि ईमानदार बन कर कैसा महसूस होता है। सत्य को इस तरह अमल में लाना चाहिए। बिल्कुल शुरुआत में तुम्हारे सामने कोई पथ नहीं होगा, लेकिन सत्य को खोजने से तुम्हें पथ मिल जाएगा। जब लोग सत्य को खोजना शुरू करते हैं, तो जरूरी नहीं कि उनमें आस्था हो। पथ न होने से लोगों को बड़ी मुश्किल होती है, लेकिन जब एक बार वे सत्य को समझ लेते हैं, और उनके सामने अभ्यास का पथ होता है तो उनके दिलों को उसमें आनंद मिलता है। अगर वे सत्य पर अमल कर पाएँ, सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाएँ, तो उनके दिलों को आराम मिलेगा, उन्हें स्वतंत्रता और मुक्ति हासिल होगी। अगर तुम्हें परमेश्वर का थोड़ा सच्चा ज्ञान है, तो तुम इस संसार की तमाम चीजें स्पष्ट देख पाओगे; तुम्हारा हृदय प्रकाशित होगा, और तुम्हारे सामने एक पथ होगा। फिर तुम संपूर्ण स्वतंत्रता और मुक्ति प्राप्त करोगे। तब तुम समझ जाओगे कि सत्य पर अमल करने, परमेश्वर को संतुष्ट करने और एक सच्चा व्यक्ति बनने का क्या अर्थ होता है—और इसमें तुम परमेश्वर में अपने विश्वास में सही रास्ते पर चलोगे।

शरद ऋतु, 2007

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