प्रस्तावना

सत्य को अभ्यास में लाते समय आने वाले कई कठिन पहलुओं और क्षेत्रों की ओर इन सहभागिताओं और शब्दों को निर्देशित किया गया है ; वे उन परिस्थितियों की ओर भी निर्देशित हैं जिनमें लोग आज-कल सही मार्ग से भटक जाते हैं, स्वयं को नकारात्मक तरीके से ज़ोर लगाने पर एकाग्र कर के, और स्वयं के स्वभाव को बदलना न चाहते हुए। ये शब्द मानव के तत्व और उसकी वर्तमान स्थिति की ओर ध्यान दिलाते हैं तथा साथ ही, स्पष्ट रूप से उस लक्ष्य को दर्शाते हैं जिसकी ओर लोगों को अग्रसर होना चाहिए। ये शब्द ही वो हैं जो लोगों के पास होने चाहिए। मैं आशा करता हूँ कि सभी लोग इसे गंभीरता से लेंगे, और एक बार जब सत्य को समझ लेने के बाद वे उन कार्यों को करने से दूर रहेंगे जो उन्हें सही मार्ग से भटकाते हैं, और मैं यह भी उम्मीद करता हूँ कि लोग सत्य के अनुसार कार्य करेंगे और सत्य को निभाएंगे।

ये सह्भागिताएँ समीक्षात्मक हैं और मानव प्रकृति से सम्बंधित पहलुओं को सुलझा सकती हैं, वे मानव की वर्तमान नकारात्मक परिस्थिति को भी सुलझा सकती हैं। यदि आप सावधानीपूर्वक इनको पढ़ें और स्वयं की परिस्थितियों से इनकी विवेचनात्मक तुलना करें, तब आप निश्चित रूप से सत्य को अभ्यास में लाने के प्रति अनिच्छुक होने से हटकर सत्य की ओर ध्यान देना शुरू करने की दिशा में आगे बढ़ेंगे, तथा अंततः सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम हो सकेंगे। संक्षेप में, मैं उम्मीद करता हूँ कि आप में से हर कोई प्रत्येक अध्याय के साथ विवेक से पेश आएगा और स्वयं के कार्यकलाप और अनुसरित किये जाने वाले ध्येयों को सावधानीपूर्वक निभाएगा।

अगला: अध्याय 8. अपनी प्रकृति को समझना और सत्य को व्यवहार में शामिल करना

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