परेमश्वर के सामने जीवन जीना
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए इंसान को सबकुछ वास्तविक जीवन की ओर मोड़ देना चाहिए। यदि परमेश्वर में विश्वास रखने में, लोग वास्तविक जीवन में प्रवेश करके खुद को न जान पाएँ, और वे वास्तविक जीवन में सामान्य इंसानियत को न जी पाएँ, तो वे विफल हो जाएँगे। जो लोग परमेश्वर की आज्ञा नहीं मानते, वे सब ऐसे लोग हैं जो वास्तविक जीवन में प्रवेश नहीं कर सकते। वे सब ऐसे लोग हैं जो मनुष्यत्व के बारे में बात करते हैं, परंतु दुष्टात्माओं की प्रकृति को जीते हैं। वे सब ऐसे लोग हैं जो सत्य के बारे में बात करते हैं परंतु सिद्धांतों को जीते हैं। जो लोग वास्तविक जीवन में सत्य के साथ नहीं जी सकते, वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं परंतु वे उसके द्वारा घृणित और अस्वीकृत माने जाते हैं। तुम्हें वास्तविक जीवन में प्रवेश करने का अभ्यास करना है, अपनी कमियों, अवज्ञाकारिता, और अज्ञानता को जानना है, और अपने असामान्य मनुष्यत्व और अपनी कमियों को जानना है। इस तरह से, तुम्हारा ज्ञान तुम्हारी वास्तविक स्थिति और कठिनाइयों के साथ एकीकृत हो जाएगा। केवल इस प्रकार का ज्ञान वास्तविक होता है और इससे ही तुम अपनी दशा को सचमुच समझ सकते हो और स्वभाव-संबंधी परिवर्तनों को प्राप्त कर सकते हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कलीसियाई जीवन और वास्तविक जीवन पर विचार-विमर्श)। "जीवन प्रवेश की तलाश करते हुए, एक व्यक्ति को रोज़मर्रा के जीवन के हर मामले में अपने शब्दों, कर्मों, सोच और विचारों की जांच करनी चाहिए। उसे अपनी अवस्थाओं को समझना चाहिए, और फिर सत्य से उनकी तुलना करनी चाहिए, सत्य की तलाश करनी चाहिए, और जिस सत्य को समझा है उसकी वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए। सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने की प्रक्रिया के दौरान, एक व्यक्ति को अपनी अवस्थाओं को समझना चाहिए, और परमेश्वर के सामने प्रार्थना और विनती करने के लिए अक्सर आना चाहिए। उसे खुले दिल से दूसरे भाइयों और बहनों के साथ अक्सर सहभागिता भी करनी चाहिए, सत्य की वास्तविकता के प्रवेश मार्ग की खोज करनी चाहिए, और सत्य के सिद्धांतों की तलाश करनी चाहिए। अंततः, उसे पता चलेगा कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कौन-कौन से स्वभाव वह प्रकट करता है, परमेश्वर को उनसे खुशी मिलती है या नहीं, उसके अभ्यास का रास्ता सही है या नहीं, उसने आत्म-परीक्षण के माध्यम से स्वयं के भीतर पाई गई अवस्थाओं की तुलना परमेश्वर के वचनों के साथ की है या नहीं, इनकी सही-सही जाँच की गई है या नहीं, वे परमेश्वर के वचनों के अनुरूप हैं या नहीं, और उसने सच में कोई उपलब्धि हासिल की है या नहीं और उन अवस्थाओं में वास्तव में प्रवेश प्राप्त किया है या नहीं जो परमेश्वर के वचनों के अनुरूप हैं। जब तुम इन अवस्थाओं में, इन स्थितियों में अक्सर रहोगे, तो धीरे-धीरे, तुम्हें कुछ सत्यों और तुम्हारी वास्तविक अवस्थाओं की बुनियादी समझ हासिल हो जाएगी" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपने स्वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है')। परमेश्वर के वचन हमें जीवन प्रवेश की राह दिखाते हैं, जिसका मतलब है कि असली ज़िंदगी की हर घटना के दौरान हमारे हर विचार और कदम की हमें जांच करनी चाहिए और फिर इन्हें परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के सामने परखना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभावों पर विचार करना चाहिए, उसे जानना चाहिए, और इसे दूर करने के लिए सत्य का इस्तेमाल करना चाहिए। ख़ुद को सच में जानने का और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने का यही एक तरीका है।
छह महीने पहले भाई चेन ने एक सभा में अपना एक अनुभव साझा किया था। जब उन्होंने अपना अनुभव सुनाना ख़त्म किया, तो मेरे मन में विचार आया कि वे अपनी मनमर्ज़ी से अपना कर्तव्य निर्वाहन कर रहे थे और वे सिद्धांतों के खिलाफ़ गए थे, और इस लिए उनकी कांट-छांट और निपटान किया गया था। उन्होंने कोई भी बहाना नहीं बनाया, बस थोड़ा आत्म-संयम दिखाया और ऐसा लग रहा था कि उन्होंने समर्पण किया है। लेकिन वे अपने काम में मनमर्ज़ी से क्यों चल रहे थे, कौन से भ्रष्ट स्वभावों ने उन पर काबू किया था या इसकी जड़ क्या थी, इन बातों पर उन्होंने विचार नहीं किया या समझने की कोशिश नहीं की, न ही उन्होंने इन्हें दूर करने के लिए सत्य की खोज की। उनकी आज्ञाकारिता सिर्फ़ नियमों पर टिके रहने तक सीमित थी। इसे सही समर्पण नहीं कहा जा सकता। मैं सोच रही थी, "क्या इस कमी के बारे में मुझे उन्हें बताना चाहिए?" लेकिन फिर मैंने सोचा, "भाई चेन तो मुझसे भी ज़्यादा लंबे समय से विश्वासी रहे हैं, और उनकी समझ और अनुभव मुझसे कहीं ज़्यादा है। अगर मैं उन्हें कोई सुझाव देती हूँ, तो मैं एक ऐसी बच्ची की तरह नहीं दिखूँगी जो छोटे मुँह बड़ी बात कहने की कोशिश कर रही है? क्या ऐसा करने से मैं घमंडी नज़र आऊंगी? मेरे ख़्याल में मुझे कुछ नहीं कहना चाहिए।" अपने विचार साझा करना समाप्त करने के बाद, उन्होंने हमसे पूछा कि क्या हमें उनमें कोई कमी नज़र आई। मैं उन्हें इस बारे में बताना चाहती थी, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पाई। मैंने सोचा, "वे मुझसे उम्र में बहुत बड़े हैं। अगर मैं ऐसा कहूँगी कि उन्होंने सच में समर्पण नहीं किया है और बस नियमों का पालन कर रहे हैं, तो उनका अपमान होगा और मैं उन्हें शर्मिंदा करूँगी। अगर उन्हें इसे स्वीकार नहीं किया और कहने लगे कि मैं घमंडी हूँ और मुझे कोई अनुभव नहीं है, तो मैं शर्मिंदा हो जाऊँगी। मैं उन्हें ठीक से जानती भी नहीं, और ऐसा करने से कहीं वे मेरे बारे में गलत राय न बना लें।" मैं काफ़ी देर तक हिचकिचाती रही, और फिर कहा, "आपके पास अनुभव का अम्बार है और कुछ व्यावहारिक समझ भी है।"
यह कहने के बाद मुझे बेचैनी होने लगी। मैं उनकी कमियां साफ़ तौर पर देख पा रही थी, लेकिन मैंने एक शब्द नहीं कहा। इसके बजाय, मैंने कुछ ऐसा अच्छा कहा जो मेरी अंतरात्मा के खिलाफ़ था। इसमें कुछ सच्चाई या ईमानदारी नहीं थी। फिर, मैं हमारी उन दिनों की सभाओं के बारे में सोचने लगी जब हम सब अपने विचार साझा करते थे। हमें हर दिन ख़ुद पर विचार करने और ख़ुद को जानने की ज़रूरत थी, ये देखने की ज़रूरत थी कि हम कितने झूठ और कितने कमज़ोर सत्य बोल रहे हैं, अपने निजी लक्ष्यों से प्रेरित होकर हमने कितनी बातें कही हैं, और हमने कौन सी ऐसी बातें कही हैं जो सत्य के खिलाफ़ जाती हैं। मुझे अहसास हुआ कि मैंने सिर्फ़ और सिर्फ़ भाई चेन से झूठ बोला है। मुझे मालूम है कि परमेश्वर हमें बार-बार ईमानदार रहने के लिए प्रोत्साहित करता है, झूठ को झूठ कहने के लिए और स्पष्ट रूप से सच बोलने के लिए प्रेरित करता है। लेकिन फिर भी मैं इस बुनियादी आवश्यकता का अभ्यास नहीं कर पाई। मैं दुखी महसूस करने लगी। मैं फ़ौरन परमेश्वर के सामने गई और प्रार्थना करने लगी कि वह मुझे अपने आप को जानने का रास्ता दिखाए। फिर मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा : "तुम सभी सुशिक्षित हो। तुम सभी अपनी बोली में परिष्कृत और संतुलित होने पर ध्यान देते हो, और बोलने के तरीके पर भी ध्यान देते हो : तुम व्यवहारकुशल हो, और दूसरों के स्वाभिमान और सम्मान को नुकसान नहीं पहुंचाना सीख चुके हो। अपने शब्दों और कार्यों में, तुम लोगों को उनकी अपनी सोच से काम करने का अवसर देते हो। लोगों को सहज महसूस कराने के लिए तुम वह सब कुछ करते हो जो तुम कर सकते हो। तुम उनकी कमियों या कमज़ोरियों को उजागर नहीं करते हो, और तुम कोशिश करते हो कि तुम उन्हें तकलीफ़ न पहुँचाओ और शर्मिंदा न करो। अधिकांश लोग इसी सिद्धांत के अनुसार काम करते हैं। और यह किस तरह का सिद्धांत है? यह चालाक, कपटी, विश्वासघाती और धोखेबाज़ है। लोगों के मुस्कुराते चेहरों के पीछे बहुत से द्वेषी, कपटी और घिनौनी बातें होती हैं। उदाहरण के लिए, दूसरों के साथ बातचीत करते समय, जैसे ही कुछ लोगों को दिखाई देता है कि दूसरे व्यक्ति थोड़ा रुतबा है, तो वे उसे सहज महसूस कराने के लिए चिकनी-चुपड़ी, प्रेम भरी, चापलूसी वाली बातें करना शुरू कर देते हैं। लेकिन क्या वे ऐसा ही सोच रहे हैं? निश्चित रूप से उनके गुप्त इरादे और उद्देश्य होते हैं। ऐसे लोगों के दिल में अंधकार होता है और वे बहुत घिनौने होते हैं। ऐसे लोगों का जीवन में जैसा आचरण है वो घिनौना और नफ़रत के योग्य है" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'जीवन संवृद्धि के छह संकेतक')। परमेश्वर के वचन मेरी हालत को साफ़-साफ़ बयाँ कर रहे थे। मेरे शब्दों में बिल्कुल भी सच्चाई नहीं थी, बल्कि बहुत ज़्यादा मक्कारी भरी हुई थी। मैं गोलमोल बातें करती थी ताकि लोगों को दुख न हो, और मैं हमेशा अच्छी बातें बोला करती थी। बाहरी तौर पर ऐसा लगता था कि मुझे दूसरों की फ़िक्र है, लेकिन मेरा असली इरादा यह था कि लोग मेरे बारे में अच्छा बोलें, मैं अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत की सुरक्षा करना चाहती थी। भाई चेन के अनुभव सुनकर मुझे अच्छी तरह से समझ आ रहा था कि वे नियमों का पालन कुछ ज़्यादा ही कर रहे हैं, और मैं जानती थी कि यह उनके जीवन प्रवेश के लिए सहायक नहीं होगा। लेकिन मैंने सोचा कि अगर ये बात मैं उनसे कहूँगी, तो वे शर्मिंदा होंगे और मेरे बारे में गलत राय बना लेंगे, इसलिए मैंने अपना मुँह बंद रखा। जब उन्होंने मुझसे मेरे सुझाव माँगे, तब भी मैंने कुछ नहीं कहा। बल्कि मैंने उनकी चापलूसी की और उन्हें धोखा दिया। मैं कितनी धूर्त और धोखेबाज़ थी! भाई चेन ने इसलिए हमसे अपनी कमियों के बारे में बताने के लिए कहा क्योंकि वे अपनी कमियों और कमज़ोरियों को दूर करना चाहते थे, लेकिन मैं उनके प्रति अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाने में विफल रही, और यही नहीं, मैंने उनकी तारीफ़ करके उन्हें धोखा दिया और उनकी आँखों में धूल झोंकी। तब मुझे अहसास हुआ कि मेरी बातें सुनने में अच्छी और विनम्र लगती थीं और किसी को बुरा नहीं लगता था, लेकिन समस्या आने पर मैं सत्य का अभ्यास नहीं करती थी। इसे अच्छी इंसान होना नहीं कहा जाता है, बल्कि इसे धूर्त और कपटी होना कहा जाता है। मैं सोचती थी कि अभी मेरी उम्र कम है और मेरे अनुभव में कमी है, मुझे दुनिया के तरीके नहीं आते हैं। लेकिन तथ्यों ने मेरी सच्चाई सामने रख दी और मैंने देखा कि असल में मैं बहुत चालाक थी, और मुझे अपने आप से नफ़रत होने लगी। अब मैं कपटी और बेईमान नहीं रहना चाहती थी। फिर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं पश्चाताप करने के लिए तैयार थी, उसकी आवश्यकता के अनुसार सत्य बोलना और ईमानदार व्यक्ति बनना चाहती थी।
मैंने फ़ैसला किया कि मुझे भाई चेन में जो भी समस्याएं नज़र आई थीं, मैं एक पत्र में लिखकर भेज दूँगी, लेकिन लिखते समय मुझे दोबारा हिचकिचाहट होने लगी। मुझे चिंता थी कि मैं सही शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर रही हूँ, उन्हें ये अच्छा नहीं लगेगा, वे सोचेंगे कि मैं फ़िज़ूल की बातें लेकर बैठ गई हूँ। यही नहीं, मैंने उस समय तो कुछ नहीं बोला, अब इसे मुद्दा बना रही हूँ, तो क्या उन्हें ऐसा नहीं लगेगा कि मैं बेकार में बात का बतंगड़ बना रही हूँ? "शायद मुझे अभी कुछ नहीं करना चाहिए," मैंने सोचा, "लेकिन अगली बार कह दूँगी।" लेकिन इस विचार ने मुझे फिर परेशान कर दिया। परमेश्वर ने ये हालात सिर्फ़ और सिर्फ़ मुझे समझाने के लिए नहीं सामने रखे थे। उसे उम्मीद थी कि मैं उसके वचनों को स्वीकार करूँगी और उन्हें अभ्यास में लाऊँगी। अगर मैंने हार मान ली और इसे जाने दिया, तो क्या यह परमेश्वर को धोखा देना नहीं हुआ? मैंने दोबारा परमेश्वर से प्रार्थना की, यह कहते हुए, "मैं अब भाई चेन के अभिमान के बारे चिंता नहीं करना चाहती हूँ। मैं अब इस बार में विचार नहीं करना चाहती हूँ कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचेंगे। हे परमेश्वर, मुझे सत्य का अभ्यास करने की राह दिखाओ।" इसके बाद, मैंने भाई चेन के अनुभव पर विचार किया और उसे परमेश्वर के वचनों का उपयोग करके समझने की कोशिश की। मुझे जो भी समस्याएं नज़र आईं, मैंने उन्हें लिख लिया, अपनी थोड़ी-बहुत समझ को लिखा, और फिर उसे भाई चेन को भेज दिया। यह अभ्यास करके मुझे बहुत चैन मिला। अगले ही दिन मुझे भाई चेन का जवाब मिला। उन्होंने लिखा कि मेरे पत्र ने उन्हें काफ़ी प्रभावित किया, और उनकी समस्याओं के बारे में मेरे द्वारा लिख कर भेजना परमेश्वर के प्रेम से आया था। उन्हें अहसास हुआ कि जब भी कोई मामला उठता था, तो वे सत्य की खोज पर ध्यान नहीं देते थे, और जब उनकी काँट-छाँट और निपटान किया गया, तो वे एक अनियोजित तरीके से इससे गुज़रे थे। उन्होंने लिखा कि चीज़ों को अनुभव करने के अपने तरीके में मौजूद गलतियों को वे ठीक करने के लिए तैयार थे। उनका जवाब पढ़कर, मुझ पर बहुत असर पड़ा। मुझे महसूस हुआ कि भाई-बहनों के साथ अपने मेलजोल में मुझे चिंता करने की ज़रूरत नहीं थी। बस किसी मामले को सामने रखने के पीछे मेरा इरादा सही होना चाहिए, और तब वे इसे स्वीकार करने के लिए तैयार रहेंगे। मेरी सारी चिंताएं मेरी कल्पना थीं, और मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के काबू में थी। मुझे यह भी समझ आया कि कलीसिया में रिश्ते जीवन जीने के सिद्धांतों या छल-कपट पर नहीं चलते हैं, बल्कि परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने और आपसी ईमानदारी पर चलते हैं।
लेकिन शैतान ने मुझे इतनी गहराई से भ्रष्ट कर दिया था और मेरे भ्रष्ट स्वभाव की जड़ें इतनी गहरी थीं कि जब भी मेरी प्रतिष्ठा और हितों को खतरा होता, तो मेरे लिए सत्य का अभ्यास मुश्किल हो जाता था।
कुछ समय बाद, मुझे पता चला कि एक युवा बहन अक्सर ऑनलाइन उपन्यास पढ़ती थीं। मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा और मैंने सोचा, "ज़्यादातर ऑनलाइन उपन्यास बस इंसानों की लिखी कहानियाँ होती हैं। अगर उसके दिमाग में ये सब बातें घर कर गईं, तो वह परमेश्वर के वचनों को पढ़ना नहीं चाहेगी या अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करना चाहेगी। फिर वह पवित्र आत्मा का कार्य गंवा देगी और यह उसके जीवन के लिए बहुत बड़ा नुकसान होगा। मुझे इस मुद्दे पर उससे बात करनी होगी।" लेकिन मैं अपना मुँह खोलने ही वाली थी कि मुझे हिचकिचाहट होने लगी : "क्या उसे बुरा लगेगा, क्या वह सोचेगी कि मैं अपनी टांग वहाँ अड़ा रही हूँ जहाँ मुझे नहीं अड़ानी चाहिए? अगर वह मेरी बातों को स्वीकार नहीं करती है, तो रोज़-रोज़ उसका सामना करना अजीब लगेगा। शायद मुझे कलीसिया के लीडर को इस बारे में बता देना चाहिए और वे इस बारे में उससे बात कर सकते हैं।" लेकिन मैं जानती थी कि यह सोच गलत है। यह मेरी ज़िम्मेदारी थी कि मैं उसके साथ सहभागिता करूँ क्योंकि यह बात मुझे पता चली थी। मुझे किसी और को यह ज़िम्मेदारी सौंप कर अपना पल्ला नहीं झाड़ लेना चाहिए। मैंने कई बार इस मुद्दे पर उससे बात करने की सोची, लेकिन हर बार मेरे मुँह से शब्द नहीं निकलते थे और मुझे समझ नहीं आता था कि कहाँ से शुरू करूँ। दिन गुज़रते रहे और एक दिन कलीसिया के लीडर ने मुझसे उस बहन की स्थिति के बारे में पूछा। तब जाकर मैंने लीडर को यह बात बताई। मुझे हैरानी हुई जब लीडर ने कहा कि वे किसी दूसरे काम में व्यस्त हैं और मुझे उस बहन के साथ सहभागिता करनी चाहिए। मुझे अहसास हुआ कि परमेश्वर मेरे लिए यह स्थिति तैयार कर रहा है यह देखने के लिए कि क्या मैं अपनी देह की इच्छाओं को त्याग कर सत्य का अभ्यास करूँगी या नहीं। मैंने सोचा कि मैं कैसे काफ़ी समय से बेचैन थी। ख़ासतौर पर जब मेरा सामना उस बहन से होता था, तो मुझे यह ख़्याल तंग करता था कि मैंने उससे बात नहीं की है। मैंने उसे प्रेम नहीं दिखाया है या ज़िम्मेदारी नहीं ली है, और इससे मेरी अंतरात्मा को तकलीफ़ होती थी। मुझे ऑनलाइन उपन्यासों में खो जाने के खतरों के बारे में अच्छी तरह पता था। दुष्ट शैतान इन बुरी आदतों का इस्तेमाल लोगों को धोखा देने और भ्रष्ट करने के लिए करता है, उनके विचारों को काबू में करने और उन्हें परमेश्वर को त्यागने के लिए मजबूर करने के लिए करता है, ताकि उनका अधर्म और मायूसी बढ़ती जाए, और इतनी बढ़ जाए कि वह उन्हें निगल जाए। मैंने बिल्कुल भी नहीं सोचा कि उस बहन की ज़िंदगी को इससे कितना नुकसान पहुँचेगा या अपने कर्तव्य पालन में उसका ध्यान बंटने से कलीसिया के काम को बड़ा नुकसान पहुँच सकता है। मैं इस बारे में बात करने और उसे नाराज़ करने से डर रही थी, और अपना रिश्ता बनाकर रखने के लिए बहुत सावधानी से कदम उठा रही थी। मैं कितना स्वार्थी और निंदनीय बर्ताव कर रही थी!
फिर मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा : "बहुत से लोग मानते हैं कि एक अच्छा व्यक्ति होना वास्तव में आसान है, इसमें बस कम बोलने और अधिक करने, एक अच्छा हृदय रखने और गलत आशय नहीं रखने की ज़रूरत है। उनका मानना है कि यह सुनिश्चित करेगा कि वे जहाँ कहीं भी जाएँ वहाँ समृद्ध हों, कि लोग उन्हें पसंद करेंगे, और बस इस प्रकार का व्यक्ति होना पर्याप्त है। वे इस हद तक चले जाते हैं कि सत्य की खोज भी नहीं करना चाहते हैं; वे बस अच्छे लोग बन कर संतुष्ट हैं। वे सोचते हैं कि सत्य की खोज करना और परमेश्वर की सेवा करने का मामला बहुत जटिल है; वे सोचते हैं कि इसके लिए कई सत्यों को समझने की आवश्यकता है, और कौन इसे पूरा कर सकता है? वे बस आसान मार्ग को अपनाना चाहते हैं—अच्छे लोग बनना और अपने कर्तव्य करना—और सोचते हैं कि इतना पर्याप्त होगा। क्या यह स्थिति उचित है? क्या एक अच्छा व्यक्ति बनना वास्तव में इतना सरल है? समाज में, तुम्हें बहुत से अच्छे लोग बहुत उत्कृष्ट तरीके से बोलते दिख जाएंगे, और भले ही बाहर से ऐसा लगे कि उन्होंने कोई बड़ी दुष्टता नहीं की है, किन्तु अंतरतम में वे धोखेबाज और झूठे होते हैं। विशेष रूप से, वे यह देखने में सक्षम होते हैं कि हवा किधर को बहती है, और वे अपनी बातों में चिकने-चुपड़े और दुनियादारी वाले होते हैं। जैसा कि मैं इसे देखता हूँ, ऐसा 'अच्छा व्यक्ति' एक झूठा है, पाखंडी है; वह बस अच्छा होने का दिखावा करा रहा है। जो लोग किसी सुखद माध्यम से चिपके रहते हैं वे सबसे भयावह होते हैं। वे किसी का अपमान नहीं करने की कोशिश करते हैं, वे लोगों-को-खुश करने वाले होते हैं, वे सभी चीज़ों में हामी भरते हैं, और कोई भी उनकी वास्तविक प्रकृति का पता नहीं लगा सकता है। इस तरह का व्यक्ति एक जीवित शैतान है!" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्य को अभ्यास में ला कर ही तू भ्रष्ट स्वभाव के बंधनों को त्याग सकता है')। परमेश्वर के वचन सीधे मेरे दिल में उतर गए और मैंने देखा कि मैं एक "खुशामदी" इंसान हूँ, जो हमेशा बीच का रास्ता अपनाती है, कभी किसी को नाराज़ नहीं करती है, और कभी भी किसी को उसकी समस्याएं नहीं बताती है। परमेश्वर के वचनों ने बिल्कुल यही खुलासा किया था। अगर मैं कुछ कहती भी थी, तो पहले मैं इस बात पर विचार करती थी कि मैं किससे बात कर रही हूँ और हालात क्या हैं। मैं कभी भी अपनी दोस्ती को नुकसान नहीं पहुँचा सकती थी या कभी भी किसी दूसरे को मुझ में गलतियाँ ढूंढने नहीं दे सकती थी। मैंने देखा कि इस बहन में समस्या है और मैं उसे इसके बारे में बताना चाहती थी, लेकिन जैसे ही मेरे मन में ख़्याल आता कि वह नाराज़ हो जाएगी, मैं बार-बार टाल देती थी, और यह काम कलीसिया के लीडर पर छोड़ देती थी। मुझे अहसास हुआ कि मैं सिर्फ़ अपने बारे में सोच रही थी, मैं सोच रही थी कि विवादास्पद कामों की ज़िम्मेदारी लेने के लिए दूसरे लोग हैं, और मैं नहीं चाहती थी कि मेरे हितों को किसी भी तरह का नुकसान पहुँचे। मैं इस तरह अपने भाई-बहनों के साथ बर्ताव कर रही थी। कभी-कभी जब मुझे नज़र आता था कि कोई बुरी स्थिति में है या उसकी भ्रष्टता सामने आ रही है, तो मैं अपनी आँखें बंद कर लेती थी, इस बारे में न किसी को बताती थी और न ही अपने विचार साझा करती थी। बाहरी तौर पर, ऐसा लगता था कि मेरे रिश्ते सबके साथ अच्छे हैं। मैं दूसरों की फ़िक्र करने वाली इंसान लगती थी। लेकिन ये सब नकली था, सब दिखावा। मैंने अपने सच्चे, दिली शब्दों को छुपा लिया, और मुखौटा पहन लिया। मैं कितनी बड़ी पाखंडी थी! मैंने साफ़ तौर पर अपने भाई-बहनों को धोखा दिया था, लेकिन फिर भी चाहती थी कि वे मेरे बारे में अच्छा सोचें। मैं कितनी बेशर्म थी! मैंने देखा कि मैं कपटी, खुशामदी और झूठी इंसान के अलावा कुछ नहीं थी।
फिर मैंने परमेश्वर के कुछ और वचनों को पढ़ा : "जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को प्राप्त नहीं कर लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। वह प्रकृति विशिष्ट रूप से किस चीज़ को अपरिहार्य बनाती है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीज़ें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीज़ें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि वे शैतान के जहर से युक्त हैं। जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि शैतान का जहर क्या है, इसे वचनों के माध्यम से पूरी तरह से व्यक्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि तुम कुछ कुकर्मियों से पूछते हो उन्होंने बुरे कर्म क्यों किए, तो वे जवाब देंगे: 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।' यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का तर्क लोगों का जीवन बन गया है। भले वे चीज़ों को इस या उस उद्देश्य से करें, वे इसे केवल अपने लिए ही कर रहे होते हैं। सब लोग सोचते हैं चूँकि जीवन का नियम, हर कोई बस अपना सोचे, और बाकियों को शैतान ले जाए, यही है, इसलिए उन्हें बस अपने लिए ही जीना चाहिए, एक अच्छा पद और ज़रूरत के खाने-कपड़े हासिल करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देनी चाहिए। 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये'—यही मनुष्य का जीवन और फ़लसफ़ा है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह कथन वास्तव में शैतान का जहर है और जब इसे मनुष्य के द्वारा आत्मसात कर लिया जाता है तो यह उनकी प्रकृति बन जाता है। इन वचनों के माध्यम से शैतान की प्रकृति उजागर होती है; ये पूरी तरह से इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। और यही ज़हर मनुष्य के अस्तित्व की नींव बन जाता है और उसका जीवन भी, यह भ्रष्ट मानवजाति पर लगातार हजारों सालों से इस ज़हर के द्वारा हावी रहा है" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')। इन वचनों से मुझे खुशामदी इंसान होने की असली वजह के बारे में कुछ समझ हासिल हुई, यानी मुझे समझ आया कि शैतान के सिद्धांत और विष मुझ में गहराई से समा गए थे। ऐसी बातों से मुझ में ज़हर भर चुका था, "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" "अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है" और "दूसरों की भावनाओं और तर्क-शक्ति के सामंजस्य मेंअच्छी बातें कहो, क्योंकि निष्कपट होना दूसरों को खिझाता है।" मैं बस अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत के बारे में सोचती थी। मैं चाहती थी मैं जो कुछ भी करूँ, दूसरे मेरे बारे में अच्छा बोलें, मैं बहुत स्वार्थी, धूर्त और कपटी बन गई थी। बचपन से ही मेरी माँ और मेरे पिता मुझसे कहते थे कम बोलो और ज़्यादा सुनो, और जितना कम बोलोगी उतना ही अच्छा रहेगा। उन्होंने मुझे सिखाया कि दूसरों से सीधी बात नहीं करनी चाहिए क्योंकि उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। मैं इन शैतानी सिद्धांतों के अनुसार जीवन जी रही थी और शायद ही कभी दूसरे लोगों के साथ खुल कर और सच्चाई से बात करती थी। यहाँ तक कि अपने घनिष्ठ दोस्तों के साथ भी मैं शायद ही कभी उनकी गलतियाँ बताती थी, क्योंकि मुझे डर था कि उन्हें बुरा लगेगा और उनके मन में मेरी छवि बिगड़ जाएगी। इसके बजाय, मैं उनकी हाँ में हाँ मिलाना, उनकी ख़ुशामद करना पसंद करती थी, लेकिन ये सब झूठ था, सब नाटक था! मुझे अहसास हुआ कि ज़िंदगी भर इन शैतानी सिद्धांतों के अनुसार जीने से मैं पूरी तरह नकली, चालाक, स्वार्थी, और घिनौनी इंसान बन जाऊँगी। मैं सिर्फ़ अपने हितों के बारे में सोचती थी और दूसरों के बारे में बिल्कुल नहीं सोचती थी। मैं दूसरों के साथ ईमानदार नहीं थी और उनके लिए मेरे मन में कोई प्रेम नहीं था। मेरी जैसी इंसान किसी की मदद नहीं कर सकती या किसी भी तरह से किसी को फ़ायदा नहीं पहुँचा सकती है, और मैं किसी की दोस्ती के लायक नहीं हूँ। मुझे समझ आ रहा था कि ये शैतानी सिद्धांत सच में बहुत ही बकवास थे और ये कभी भी आचार-व्यवहार के सिद्धांत नहीं होने चाहिए। मुझे समझ आ रहा था कि जीवन भर के लिए इन शैतानी सिद्धांतों पर चलना हमारी भ्रष्टता को और बढ़ाएगा और हमारी इंसानियत में और भी कमी आएगी। मैं उन लम्हों के बारे में सोचने लगी जब मैंने कोई समस्या देखी और कुछ नहीं कहा। मैं बाद में दोषी महसूस करती थी और मुझे ऐसा लगता था कि मेरे दिल पर कोई भार था जिसे मैं हटा नहीं पा रही थी। मुझे ऐसा लगता था कि मुझे सच मालूम है लेकिन मैं इसे अभ्यास में नहीं ला पा रही थी। मैं कितनी डरपोक थी, मुझ में कोई गरिमा या ईमानदारी नहीं थी। इस उम्र में भी मैं एक सभ्य इंसान नहीं बन पा रही थी, और मुझे इंसानी मेलजोल के सिद्धांत भी नहीं पता थे। इसके बजाय, मैं शैतान द्वारा सिखाए और प्रचारित धर्म निरपेक्ष तरीके अपना रही थी। उस पल मुझे सच में अपने आप से नफ़रत हो रही थी। अब मैं इन शैतानी सिद्धांतों के अनुसार जीवन नहीं जीना चाहती थी। मैं बस परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचार और व्यवहार करना चाहती थी।
फिर मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा : "एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे महत्वपूर्ण अभ्यास क्या है? इसका उत्तर है, तुम्हारा दिल परमेश्वर के लिए खुला होना चाहिए। 'खुला होना' से मेरा क्या मतलब है? इसका मतलब है कि अपनी हर सोच, अपने इरादों, और तुम पर किन चीज़ों का काबू है, इनका परमेश्वर को एक स्पष्ट दृश्य देना। तुम वही कहते हो जो तुम्हारे दिल में है, बिना किसी अंतर या छिपाव के, बिना किसी अंधकारमय पक्ष के, बिना दूसरों को अनुमान लगाने या प्रश्न पूछकर गहराई से समझने की आवश्यकता के, तुम कोई गोलमोल बातें नहीं करते; बल्कि वही कहते हो जो तुम सोचते हो, तुम्हारा कोई और इरादा नहीं होता। इसका मतलब है कि तुम्हारा दिल खुला है। कभी-कभी तुम्हारा सीधे तरीके से बात करना दूसरों को तकलीफ़ पहुँचा सकता है और उन्हें बुरा लग सकता है। लेकिन, क्या कोई भी कहेगा, 'तुमने बहुत ईमानदारी से बात की है और मुझे बहुत आहत किया है; मैं तुम्हारी ईमानदारी को स्वीकार नहीं कर सकता हूँ'? नहीं; कोई नहीं कहेगा। अगर तुम कभी-कभी लोगों को चोट पहुंचाते हो, अगर तुम उनके साथ खुलकर बात कर सकते हो और उनसे माफ़ी मांग सकते हो, स्वीकार कर सकते हो कि तुमने बिना समझदारी के बात की है, और उनकी कमज़ोरियों की परवाह नहीं की है, तो वे देखेंगे कि तुम्हारे दिल में कोई नाराज़गी नहीं है, तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो, और तुम बस अपने बोलने के तरीके पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते हो और बहुत स्पष्ट शब्दों में बात करते हो; इसके लिए कोई भी तुम्हारे विरुद्ध नहीं होगा। ... एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यह है कि तुम्हारा दिल परमेश्वर के लिए खुला होना चाहिए। बाद में, तुम अन्य लोगों के प्रति खुला रहना, ईमानदारी से और सही तरीके से बोलना, अपने दिल की बात कहना, गरिमा, सत्यनिष्ठा और अच्छे चरित्र वाला व्यक्ति बनना, और बढ़ा-चढ़ाकर या झूठ न बोलने वाला बनना या अपने को छिपाने या दूसरों को धोखा देने वाले शब्दों का उपयोग न करना सीख सकते हो" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'ईमानदार होकर ही कोई सच्ची मानव सदृशता जी सकता है')। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया, तो मैं बहुत प्रभावित हुई। मुझे लगा मानो परमेश्वर ने मेरा हाथ पकड़कर सिखाया है कि एक इंसान की तरह मुझे कैसे बर्ताव करना चाहिए। एक सच्चा इंसान बनना, सच्चाई के साथ बोलना और काम करना, परमेश्वर के सामने अपना दिल पूरी तरह खोल देना, अपने भाई-बहनों के सामने खुलकर बात करना, और चालबाज़ी या चालाकी न करना—इस तरह जीने से थकान नहीं होती है। मैंने बाद में उस बहन से उसकी समस्या के बारे में बात की और ऑनलाइन उपन्यासों में खो जाने के खतरों के बारे में उसके साथ सहभागिता की। पहले, वह काफ़ी नाख़ुश लग रही थी, और मुझे थोड़ा अजीब लगा। लेकिन जब मैंने उससे खुलकर बात और सहभागिता की, तो उसे अहसास हुआ कि वह एक खतरनाक स्थिति में थी। वह कहने लगी कि अब वह ऑनलाइन उपन्यास नहीं पढ़ेगी और अपने कर्तव्यों पर ध्यान देगी। जब उसने यह कहा, तो मैंने राहत की सांस ली, लेकिन मैंने अपनी भी आलोचना की। अगर मैंने पहले बोल दिया होता, तो शायद उसकी इस समस्या को जल्दी दूर किया जा सकता था। सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मैं हमेशा सबको ख़ुश रखना चाहती थी, मैंने हार मान ली और सत्य का अभ्यास नहीं किया, नतीजतन समस्याओं का हल नहीं हुआ। खुशामदी व्यक्ति होना सच में नुकसानदायक है। इसके बाद, मुझे जब भी भाई-बहनों के कर्तव्य पालन में कोई समस्या नज़र आती थी, कभी-कभी मुझे फिर भी चिंता होती थी कि मैं उन्हें नाराज़ कर दूँगी, लेकिन परमेश्वर से प्रार्थना करके, सचेत होकर सत्य का अभ्यास करके और एक ईमानदार इंसान बनकर, मैं हमेशा बाद में सच्चाई से समस्या के बारे में बोल पाती थी। सिर्फ़ परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से मैं सही बर्ताव करना और भाई-बहनों से मेलजोल करना सीख पाई। मुझे समझ आ गया कि परमेश्वर के वचन बहुत कीमती हैं। वे हमारे आचार और व्यवहार के सिद्धांत हैं। चाहे हमारे कर्तव्य हों या हमारा बर्ताव, हमें हमेशा परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन की ज़रूरत है। कोई समस्या आने पर अगर हम सत्य की खोज करेंगे, तो हमारे पास हमेशा अनुसरण करने के लिए एक राह होगी।
पीछे मुड़कर देखती हूँ तो मुझे समझ आता है कि मैं कपटी थी, लेकिन मैंने कभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव की जाँच और विश्लेषण करने के लिए ईमानदारी से ख़ुद की तुलना परमेश्वर के वचनों से नहीं की। इसके अलावा, मैं शायद ही कभी परमेश्वर के वचनों में अभ्यास की राह या सिद्धांतों की तलाश करती थी, और यही वजह है कि मेरा कपटी स्वभाव बिल्कुल नहीं बदला। हालांकि मैंने अपने जीवन में बस छोटी-मोटी समस्याओं का सामना किया है, फिर भी जब मैं अपनी जाँच करती हूँ और परमेश्वर के वचनों में सत्य की खोज करती हूँ, तो मुझे फल मिलता है और कुछ समझ आती है। मैं आंतरिक शांति भी महसूस करती हूँ और जीवन प्रवेश की राह पर थोड़ा आगे बढ़ती हूँ। इसे समझ पाना और इसका फल प्राप्त करना सिर्फ़ परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से संभव है! परमेश्वर का शुक्रिया!
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