इस तरह मैंने परमेश्वर का स्वागत किया
जब मैं छः वर्ष की थी, तब मेरी माँ प्रभु यीशु में विश्वास करती थी, और वह अक्सर मुझे कलीसिया की सभाओं में लाती थी। मैं धीरे-धीरे इस तथ्य से अवगत हो गई कि इंसान परमेश्वर द्वारा बनाया गया था, कि अगर हम परेशानी में हैं तो हमें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए, और हमें हर बात के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए। मेरी माँ ने मुझे बताया था: "परमेश्वर लोगों से प्यार करता है, जब तक हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और हमारे मन में जो कुछ भी हो, उसे सौंप देते हैं और वास्तव में उस पर भरोसा रखते हैं, तो वह हमारी समस्याओं का समाधान करेगा और हमें भरपूर अनुग्रह प्रदान करेगा। अगर हम वास्तव में प्रभु में विश्वास करते हैं तो वह हमें भविष्य में स्वर्ग के राज्य में ले जाने के लिए आएगा!" माँ के शब्दों को सुनकर, मेरा दिल शांत और चिंता से मुक्त महसूस करता था, मुझे लगता था जैसे मेरे पास भरोसा करने के लिए कुछ था, और मैं दृढ़ता से विश्वास करती थी कि एक दिन प्रभु यीशु हमें स्वर्ग के राज्य में ले जाने के लिए लौटेगा। मैंने इंतजार किया और मैं इस दिन के आने का सपना देखती थी।
बाद में, मेरे जीवन की अप्रत्याशित घटनाओं के कारण, मैंने जूनियर हाई स्कूल से उत्तीर्ण होने से पहले अपने शहर के एक कपड़ों के कारखाने में काम करना शुरू कर दिया। कारखाने में, चूँकि मैं छोटी थी और मेरा व्यक्तित्व विशेष रूप से अंतर्मुखी था, मैं लोगों से बात करने के लिए पहल करने की हिम्मत नहीं सकती थी, और अक्सर मेरे सहकर्मियों द्वारा मुझे धौंस दिखाई जाती थी मेरी माँ अक्सर मुझे समझाती थी: "हम प्रभु में विश्वास करते हैं, चाहे दुनिया में हमारे साथ जैसी भी हो, हमें धैर्य का पालन करना सीखना चाहिए, हमें हर काम प्रभु के वचन के अनुसार करना चाहिए, हम दूसरों के साथ झगड़ा नहीं कर सकते...।" मैंने माँ के शब्दों को दिल में संजोये रखा, इसलिए मैं खुद से सभी चीजों में धैर्य और सहिष्णुता दिखाने के लिए कहा करती थी। कभी कभी मुझे ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता था जो मुझे वास्तव में अन्यायपूर्ण लगती थी, और मेरे दिल में बहुत पीड़ा होती थी, लेकिन जब भी ऐसा हुआ, तो मैं यह स्तुतिगीत गाया करती थी "प्रभु, तुम मेरे सबसे निकट के मित्र हो," और मैं प्रभु को उस दर्द के बारे में बताती थी जो मैं महसूस कर रही थी। मुझे लगता था कि केवल प्रभु ही मेरा सबसे करीबी दोस्त था, और यदि आज मैं प्रभु में विश्वास करती हूँ और भरोसा रखती हूँ तो मैं भविष्य में स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने में सक्षम हो जाऊँगी। जब भी मुझे इस तरह के विचार आते थे तो मुझे अपने दिल में उतना दर्द महसूस नहीं होता था। परमेश्वर को धन्यवाद हो कि इन पिछले कई सालों में इन दृढ़ विश्वासों की ओर मेरा झुकाव रहा है।
2013 में, ठीक तब जब मैं 21 वर्ष की हो गई थी, मैंने बड़े शहर में काम खोजने के लिए कपड़ों के उस कारखाने को छोड़ दिया। अब उस जगह में सब कुछ एक तरह से अजीब था। हर सुबह मैं लोगों की भीड़ और कारों के अंतहीन प्रवाह का सामना करती थी। एक बस में घुस पाने और काम पर जल्दी से पहुँचने के लिए एक बड़ा प्रयास करना पड़ता था, और फिर मैं लगातार दोपहर के भोजन तक काम करने में व्यस्त रहती, जहां मैं कुछ खा लेती और काम पर वापस आ जाती थी। मैंने इस तरह महीने भर काम किया लेकिन मेरे दैनिक खर्चों के बाद मेरे पास वास्तव में कुछ नहीं बचता था। इस तरह के जीवन के दबाव का सामना कर मुझे कड़वाहट महसूस हुई, जैसे कि मेरे साथ कोई अन्याय हो रहा था, और मैं यह शिकायत किये बिना न रह सकी: हर कोई इतने स्वाभाविक रूप से और मुक्त रहता है, ऐसा क्यों है कि मैं ही इतनी क्लांत हूँ? इस तरह के दिन कब खत्म होंगे? मुझे गहराई से लगा कि बड़े शहर में जीवन उतना अच्छा नहीं था जितना कि मेरी कल्पना में था, इस तेज़-रफ़्तार ज़िन्दगी से दम घुटता था, और मुझे परमेश्वर के करीब होने के लिए समय नहीं मिलता था। हर बार जब मेरे घर से फोन आता, मेरी माँ मुझे याद दिलाना कभी नहीं भूलती थी: "प्यारी बेटी, तुम्हें निश्चित रूप से प्रभु से अक्सर प्रार्थना करनी होगी...। तुम्हें याद रखना चाहिए, प्रभु जल्द ही हमें लेने के लिए आएगा और हमें स्वर्ग के राज्य में ले जाएगा।" मैंने अपनी माँ के शब्दों को मेरे दिल में संजोये रखा, और मैं प्रभु के जल्द ही आने और हमें स्वर्ग के राज्य में ले जाने की आशा करती रही।
2014 में मुझे काम के लिए जापान जाने का मौका मिला, और मुझे उम्मीद थी कि मैं वहाँ पर मेरा तीन साल का अनुबंध पूरा कर सकूँगी। जैसे ही मैं जापान पहुँची, मेरे आस-पास सब कुछ इतना नया और अजीब लगा, लेकिन समय के साथ मुझे पता चला कि यहाँ जीवन अपने मुल्क जैसा अच्छा नहीं था। कारखाने में काम पर मुझे अक्सर डांटा जाता था, और भाषा की भी एक बाधा थी। मेरे सहकर्मियों में लगातार अंदरूनी झगड़े थे, हर कोई महत्वाकांक्षी और आक्रामक था, और हर कोई अपने उच्च अधिकारी के सामने दिखावा करने के लिए स्पर्धा किया करता था। मेरे लिए यह स्वीकार करना और भी मुश्किल था कि मेरे कुछ सहकर्मी दोगले थे, वे लोगों के सामने एक तरह से काम करते थे, और फिर उनकी पीठ के पीछे एक और तरीक़े से, इसलिए मुझे अक्सर धोखा दिया जाता था और मेरा आकलन किया जाता था। चूँकि हम अपने ही हित से प्रोत्साहित थे, हमारे बीच कोई भावनाएँ नहीं होती थीं, मेरे कोई सच्चे दोस्त नहीं थे, हम सब अपने-अपने हितों के लिए जीते थे। अपने हितों के लिए, दोस्ती हिसाब से बनाई जा सकती थी और करीबी रिश्तेदारों को धोखा दिया जा सकता था, सब कुछ छोड़ा जा सकता था, और इससे मुझे ऐसा लगता था कि दुनिया इतनी उजाड़ थी। मैं वास्तव में उनसे दूर जाना चाहती थी, लेकिन हकीक़त में मेरे पास ऐसे जीवन को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। जैसा कि कहा जाता है, "सर्वश्रेष्ठ की उत्तरजीविता", मेरे पास कोई विकल्प नहीं था, और कुछ समय में मैंने सीख लिया कि जिनसे भी मैं मिलती थी उनसे क्या कहना होगा। अच्छे संबंध रखने के लिए, मैं उनके साथ KTV और शराब-घरों में जाया करती थी। मैंने देखा कि मेरे आस-पास के सारे लोग अपने हितों, प्रसिद्धि और सौभाग्य के लिए लड़ रहे थे। वे उपयोगिताओं के भुगतान जैसी जीवन की छोटी बातों पर भी लगातार वाद-विवाद किया करते थे। इस तरह के परिवेश में रहते हुए, मैं भी पीछे छूट जाना नहीं चाहती थी, इसलिए मैं दूसरों की परवाह नहीं करती थी, मैं दूसरों के प्रति सहिष्णुता या धैर्य नहीं दिखाती थी, और मैंने प्रभु की शिक्षाओं का बिलकुल ही अभ्यास नहीं किया। इस परदेश में मेरा कोई करीबी रिश्तेदार नहीं था, न ही मेरे कोई सच्चे मित्र थे, इसलिए मुझे अकेलापन महसूस हुआ, और धीरे-धीरे मुझे पता चला कि अब प्रार्थनाओं के द्वारा मैं अपने पास प्रभु की उपस्थिति को महसूस नहीं करती थी। इससे मुझे और भी दुख मिला, और अक्सर जब काम से लौटकर मैं बिना कुछ भी खाए या बोले बिना अपने कमरे में खुद को बंद कर लेती थी। मैं फर्श पर बैठकर, चुप्पी में आँसू बहाया करती थी। उस समय मुझे लगता था कि इस दुनिया में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जो नेकी से मेरी परवाह करता हो, मेरे जीवन का कोई महत्व नहीं था, और मैंने आत्महत्या कर लेने के बारे में भी सोचा, लेकिन मेरे पास यह करने का साहस नहीं था। जब भी मुझे लगता कि किसी परिस्थिति में मैं खो-सी गई थी, मैं हमेशा प्रभु के वादे के बारे में सोचा करती, कि वह आकर हमें स्वीकार करेगा और हमें स्वर्गीय घर में वापस ले जाएगा, और मैंने सोचा था कि शायद यह जगह जो प्रभु हमारे लिए तैयार कर रहा था वह एकमात्र सच्ची शुद्ध भूमि थी, और मैं वास्तव में चाहती थी कि वो दिन जल्द ही आ जाए!
जब मैंने अकेलेपन और पीड़ा की इस दुर्दशा को महसूस करना शुरू किया, तो मेरे एक नए सहकर्मी गुओ ने मुझे अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के सुसमाचार के बारे में जानकारी दी। उसने मुझे बताया कि प्रभु यीशु वापस आ गया है, और वह इंसान के न्याय और शुद्धिकरण का कार्य कर रहा है। जब मैंने यह समाचार सुना तो मेरा दिल ख़ुशी के मारे उछल गया, लेकिन मुझे यह भी लगा कि मैं इसे सच मानने की हिम्मत नहीं कर सकती थी। इस बात ने मुझे उत्साहित किया कि प्रभु वापस आ गया था, ऐसा लगा कि मैं एक बार फिर से अपने जीवन में आशा देख पाऊँगी, लेकिन मैं इसे सच मानने की हिम्मत नहीं कर सकी। क्या यह सच हो सकता था? मैंने हमेशा प्रभु के आने की आशा की थी, लेकिन प्रभु कभी नहीं आया था। मैंने पहले सोचा था कि चाहे परमेश्वर न भी आए, मैं आजीवन उसका इंतज़ार करुँगी, लेकिन अब मैंने अचानक सुना है कि प्रभु वापस आ गया है। इसने मुझे चकित कर दिया, इस पर विश्वास करना मुश्किल था। मेरे संदेह और विस्मय को देखकर, गुओ ने मुझसे कहा: "परमेश्वर ने पृथ्वी पर प्रकट होने और अपना काम पूरा करने के लिए मनुष्य के पुत्र के रूप में देहधारण किया है, और उसे एक नए नाम, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम से, बुलाया जाता है।" मुझे यह बताने के बाद उसने मुझे राज्य के सुसमाचार पर सर्वशक्तिमान परमेश्वर के उत्कृष्ट वचन - संकलन की एक प्रति दी, और मुझे बताया कि इस पुस्तक के वचनों को स्वयं परमेश्वर ने बोला था, और वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त वो सत्य हैं जो मानव जाति को शुद्ध होने और उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बनाता है। उसने यह किताब मुझे घर ले जाने और ध्यान से पढ़ने के लिए दे दी। यह देखकर कि वह कितनी नेक थी, मैंने उससे किताब स्वीकार कर ली। चूँकि मैं प्रभु के आगमन का स्वागत करने का अवसर खोना नहीं चाहती थी, मैंने अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य की सावधानीपूर्वक जाँच करने का फैसला किया।
जब मैंने राज्य के सुसमाचार पर सर्वशक्तिमान परमेश्वर के उत्कृष्ट वचन - संकलन को पढ़ा, मैंने मन ही मन सोचा: मैंने बाइबल के अलावा कहीं भी परमेश्वर के वचन के होने के बारे में नहीं सुना है, तो इस पुस्तक में किसके बारे में लिखा गया है? मैंने किताब को ऐसे दिल से खोला जिसमें अधीरता और जिज्ञासा दोनों ही थीं, और मैंने इस परिच्छेद को पढ़ा: "अधिकांश लोग जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं वे केवल इस बात को ज्यादा महत्व देते हैं कि आशीषों को किस प्रकार प्राप्त किया जाए या आपदा से कैसे बचा जाए। परमेश्वर के कार्य और प्रबंधन का उल्लेख करने पर वे चुपचाप हो जाते हैं और उनकी रुचि समाप्त हो जाती है। उन्हें लगता है कि वे इस प्रकार के कुछ उबाऊ प्रश्नों को जानने से वे अपने जीवन में बढ़ नहीं सकते हैं या किसी भी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकते हैं, और इसलिए हालांकि वे परमेश्वर के प्रबंधन के संदेश के बारे में सुन चुके होते हैं, वे उन्हें बहुत ही लापरवाही से लेते हैं। उन्हें वे इतने मूल्यवान नहीं लगते कि उन्हें स्वीकारा जाए और वे अपने जीवन का अंग तो उन्हें बिल्कुल नहीं लगते। ऐसे लोगों के पास परमेश्वर का अनुसरण करने का बहुत ही साधारण लक्ष्य होता हैः आशीषें प्राप्त करने का और वे इस लक्ष्य से मतलब न रखने वाली किसी भी बात पर ध्यान देने में बहुत ही आलस दिखाते हैं। उनके लिए, करने का अर्थ आशीषें प्राप्त करने के लिये परमेश्वर पर विश्वास करना सबसे तर्कसंगत लक्ष्य और उनके विश्वास का आधारभूत मूल्य है। और जो चीज़ें इस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता प्रदान नहीं करतीं वे उनसे प्रभावित नहीं होते हैं। आज जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं उनके साथ ऐसी ही समस्या है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "केवल परमेश्वर के प्रबंधन के मध्य ही मनुष्य बचाया जा सकता है")। इस परिच्छेद को पढ़ते ही मुझे अपने चेहरे पर एक दर्दनाक गर्मी महसूस हुई, जैसे कि मुझे थप्पड़ मार दिया गया था, और मैं यह तय नहीं कर पाई कि मुझे क्या करना होगा। मुझे लगा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन बहुत कठोर और बहुत ही रूखे थे। इन वचनों ने इन पिछले कई वर्षों में परमेश्वर पर मेरे विश्वास के संबंध में मेरे इरादों और दृष्टिकोण के प्रति जैसे निशाने पर तीर मारा था। अब तक मैंने सोचा था कि परमेश्वर में विश्वास करना आशीर्वाद और अनुग्रह प्राप्त करने के लिए था, कि जब कोई बात हो जाए तो हम चीज़ों की खोज करने, उनके लिए अनुरोध करने, परमेश्वर के पास जा सकते हैं, और परमेश्वर को ऐसी चीज़ें मनुष्यों को मुफ्त में देनी चाहिए। मैंने यह भी सोचा कि अगर मैं परमेश्वर में विश्वास करती हूँ तो क्या परमेश्वर का आशीर्वाद कुछ ऐसा नहीं है जो मुझे मिलना ही चाहिए? मैंने इस पर सावधानी से सोचा, अगर परमेश्वर का यह वादा न हो कि मैं स्वर्ग में जाउँगी और अनन्त जीवन प्राप्त करूँगी, तो मैं निश्चित रूप से उस पर विश्वास ही नहीं करती। इसी क्षण में मैंने अंततः यह स्वीकार किया कि परमेश्वर पर विश्वास करने में मेरा दृष्टिकोण गलत था, और यह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं था, लेकिन मुझे समझ में नहीं आया कि परमेश्वर पर विश्वास करने में उचित दृष्टिकोण क्या था, और उस समय मुझे अभी भी संदेह था: यदि सर्वशक्तिमान परमेश्वर लौटा हुआ प्रभु यीशु है, तो उसने मुझे स्वर्ग के राज्य में स्वर्गारोहण क्यों नहीं कराया है?
बाद में, जब मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया के भाइयों और बहनों से मिली, तो मैंने उनसे इन दो सवालों के जवाब की आशा की। बहन हुइक्सिन ने मेरे साथ सहभागिता की: "परमेश्वर ने मानव जाति बनाई, उसने हमें वह हवा दी जिसमें हम सांस लेते हैं, और उसने हमें जीवन दिया। एक बेहतर अस्तित्व जीने के लिए, उसने हमें सब कुछ दिया। हम परमेश्वर द्वारा बनाई गई हवा में सांस ले रहे हैं, परमेश्वर द्वारा दी गई धूप और बारिश का आनंद ले रहे हैं और परमेश्वर द्वारा हमें दिए गए सभी प्रकार के फल और सब्जियों के साथ हम भोजन करते हैं। हम सर्जित प्राणी हैं, परमेश्वर में विश्वास करना और परमेश्वर की आराधना करना उचित और सही है। यह बच्चों का माता-पिता के प्रति आज्ञाकारी होने जैसा ही है। हमें शर्तों पर ज़ोर नहीं देना चाहिए या सौदेबाज़ी करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, न ही हमें परमेश्वर के अनुग्रह और आशीर्वाद की माँग करनी चाहिए। चाहे हमें आशीर्वाद मिले या दुर्भाग्य, हमें हमेशा परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए और परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए। अय्यूब के साथ ऐसा ही था, अपने विश्वास के कारण उसे आशीर्वाद प्राप्त हुए, पर यह भी उसके विश्वास के कारण ही था कि वह परीक्षणों और आपदाओं में आया, लेकिन वह हमेशा परमेश्वर की स्तुति करने में सक्षम रहा था, इसलिए अय्यूब की आस्था ने परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त की।" इस बहन की सहभागिता के माध्यम से मैं अंततः कुछ समझने लगी कि कैसे परमेश्वर द्वारा मनुष्य बनाया गया था, कि परमेश्वर में विश्वास करना उचित और सही है, कैसे यह बच्चों का अपने माता-पिता के प्रति आज्ञाकारी होने जैसा है, क्यों हमें शर्तों पर ज़ोर देना नहीं चाहिए, और चाहे परमेश्वर हमें आशीर्वाद दे या न दे, कैसे हमें हमेशा परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए और परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए। इन चीज़ों के बारे में सोचकर, मैंने बहन से कहा: "मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन और कार्य की जाँच करने के लिए अपनी अवधारणाओं को अलग करने के लिए तैयार हूँ।" बहन गुओ ने जवाब दिया: "परमेश्वर को धन्यवाद हो! जब तक हम अपने दिल में खोज करने की प्यास रखते हैं, तब तक परमेश्वर हमें प्रबोधन और मार्गदर्शन देगा, जिससे हम परमेश्वर के वचन में उसकी उपस्थिति को देख सकें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की वेबसाइट पर तुम परमेश्वर के और भी वचन पढ़ सकती हो और वहाँ सुसमाचार वीडियो और संगीत वीडियो भी हैं...।" यह कहते ही उसने राज्य के आने के सुसमाचार के वेब-पेज को खोला और मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की वेबसाइट दिखाई। मैं ख़ुशी से आश्चर्यचकित थी: वाह! इतने सारे वीडियो और इतनी फिल्में थीं! उनके पास परमेश्वर के वचनों का संग्रह, और परमेश्वर के वचन के स्तुतिगीत वीडियो, और भाइयों और बहनों के साक्ष्य-लेख भी थे ...। यह वास्तव में प्रचुर मात्रा में था, आँखों के लिए एक दावत की तरह। मुझे नहीं पता था कि शुरू कहाँ से करना है। जब मैं वेब-पेज देख रही थी, एक फिल्म—स्वप्न से जागृति—ने वास्तव में मेरा ध्यान आकर्षित किया, और इसकी सामग्री वास्तव में बहुत अच्छी थी। यह फिल्म इस दिन तक मेरी याद में ताज़ा बनी हुई है। इसके मुख्य चरित्र ने, परमेश्वर में अपने विश्वास के माध्यम से स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के अपने बचपन के सपने को पकड़कर, परमेश्वर का अनुसरण किया, परमेश्वर के लिए काम किया, उसके लिए खर्च और बलिदान किया, लेकिन जब परमेश्वर सत्य व्यक्त करने और अंत के दिनों में न्याय का कार्य करने लौटा, तो वह अपनी दृढ़ मान्यताओं से चिपकी रही और स्वर्ग के राज्य में स्वर्गारोहित होने के अपने सपने को थामे रहकर उसने परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार नहीं किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की बहनों द्वारा सच्चाई पर सहभागिता के माध्यम से, वह स्वर्ग के राज्य में स्वर्गारोहित होने के पीछे छिपे रहस्य को समझ पाई, और उसने यह स्वीकार किया कि वह स्वयं एक फरीसी थी, कि उसने प्रभु में विश्वास तो किया था लेकिन उसका स्वागत या उसके प्रति समर्पण नहीं किया था, और उसके आगमन का विरोध भी किया था। परमेश्वर के वचन के न्याय और ताड़ना के माध्यम से, उसने अपनी दृढ़ मान्यताओं को अलग कर दिया और पश्चाताप करने के लिए वास्तव में परमेश्वर की ओर मुड़ गई, तथा आभार और अपराध के आँसू बहाने लगी। यह फिल्म बहुत वास्तविक है! मैंने अपने ही अनुभव के बारे में सोचा, कैसे मैंने बचपन में स्वर्ग के राज्य का सपना देखा, और मैंने कैसे कल्पना की कि एक दिन मैं शुद्ध सफेद वस्त्र पहनूँगी, पंखों की एक जोड़ी उगाऊँगी और जहाँ भी चाहूँ उड़कर जाने में सक्षम हूँगी...। इस सपने को लिए हुए इतने सारे ईसाई हुए हैं जिन्होंने उस दिन की प्रतीक्षा की है जब प्रभु उन्हें स्वर्ग के राज्य में उठाएगा, लेकिन उनमें से किसी ने भी नहीं समझा था कि यह केवल मनुष्यों का सपना था, न कि हमें स्वर्ग के राज्य में ले जाने के लिए परमेश्वर के आगमन की वास्तविक स्थिति, क्योंकि वास्तव में स्वर्गारोहित होने का अर्थ अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करना और परमेश्वर के पास आना है!
इस फिल्म में एक दृश्य है जहां बहन यांग कहती है: "चलो सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कुछ वचनों को पढ़ते हैं, 'उस समय यीशु का कार्य समस्त मानव जाति का छुटकारा था। उन सभी के पापों को क्षमा कर दिया गया था जो उसमें विश्वास करते थे; जितने समय तक तुम उस पर विश्वास करते थे, उतने समय तक वह तुम्हें छुटकारा देगा; यदि तुम उस पर विश्वास करते थे, तो तुम अब और पापी नहीं थे, तुम अपने पापों से मुक्त हो गए थे। यही है बचाए जाने, और विश्वास द्वारा उचित ठहराए जाने का अर्थ। फिर भी जो विश्वास करते थे उन लोगों के बीच, वह रह गया था जो विद्रोही था और परमेश्वर का विरोधी था, और जिसे अभी भी धीरे-धीरे हटाया जाना था। उद्धार का अर्थ यह नहीं था कि मनुष्य पूरी तरह से यीशु द्वारा प्राप्त कर लिया गया था, लेकिन यह कि मनुष्य अब और पापी नहीं था, कि उसे उसके पापों से क्षमा कर दिया गया था: बशर्ते कि तुम विश्वास करते थे, तुम कभी भी अब और पापी नहीं बनोगे' ("वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (2)")। 'मनुष्य को छुटकारा दिये जाने से पहले, शैतान के बहुत से ज़हर उसमें पहले से ही गाड़ दिए गए थे। हज़ारों वर्षों की शैतान की भ्रष्टता के बाद, मनुष्य के भीतर पहले ही ऐसा स्वभाव है जो परमेश्वर का विरोध करता है। इसलिए, जब मनुष्य को छुटकारा दिया गया है, तो यह छुटकारे से बढ़कर और कुछ नहीं है, जहाँ मनुष्य को एक ऊँची कीमत पर खरीदा गया है, परन्तु भीतर का विषैला स्वभाव नहीं हटाया गया है। मनुष्य जो इतना अशुद्ध है उसे परमेश्वर की सेवा करने के योग्य होने से पहले एक परिवर्तन से होकर अवश्य गुज़रना चाहिए। न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से, मनुष्य अपने भीतर के गन्दे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने में समर्थ हो सकता है। …यद्यपि मनुष्य को छुटकारा दिया गया है और उसके पापों को क्षमा किया गया है, फिर भी इसे केवल इतना यह पाप की अपेक्षा अधिक गहराई तक फैला है, इसे शैतान के द्वारा गाड़ा गया है और यह मनुष्य के भीतर गहराई से जड़ पकड़े हुए है। मनुष्य के लिए अपने पापों के प्रति अवगत होना आसान नहीं है; मनुष्य अपनी स्वयं की गहराही माना जाता है कि परमेश्वर मनुष्य के अपराधों का स्मरण नहीं करता है और मनुष्य के अपराधों के अनुसार मनुष्य से व्यवहार नहीं करता है। हालाँकि, जब मनुष्य देह में रहता है और उसे पाप से मुक्त नहीं किया गया है, तो वह, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को अंतहीन रूप से प्रकट करते हुए, केवल पाप करता रह सकता है। यही वह जीवन है जो मनुष्य जीता है, पाप और क्षमा का एक अंतहीन चक्र। अधिकांश मनुष्य दिन में सिर्फ इसलिए पाप करते हैं ताकि शाम को स्वीकार कर सकें। वैसे तो, भले ही पापबलि मनुष्य के लिए सदैव प्रभावी है, फिर भी यह मनुष्य को पाप से बचाने में समर्थ नहीं होगी। उद्धार का केवल आधा कार्य ही पूरा किया गया है, क्योंकि मनुष्य में अभी भी भ्रष्ट स्वभाव है' ("वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)")। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों में इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर है। हम उन्हें सुनते ही समझ जाते हैं। अनुग्रह की आयु में, प्रभु यीशु ने मानवजाति को पापों से मुक्त करने के लिए ही छुटकारे का कार्य किया, आस्था के ज़रिये उन्हें धर्मी बनाया और विश्वास के ज़रिये बचाया। हालांकि, प्रभु यीशु ने कभी नहीं कहा जिस किसी के भी पापों को माफ किया गया है, वह स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकता है। क्योंकि हो सकता है प्रभु यीशु ने हमें सभी पापों से मुक्त कर दिया हो, लेकिन उन्होंने हमें हमारे शैतानी स्वभाव से मुक्त नहीं किया है। हमारा अहंकार, स्वार्थ, कपट, बुराई आदि यानी हमारा भ्रष्ट स्वभाव अभी भी शेष है। ये बातें पाप से भी गहरी हैं। इनका समाधान सरल नहीं है। अगर परमेश्वर की विरोधी शैतानी प्रकृति और भ्रष्ट स्वभाव का समाधान न किया जाए, तो हम लोग अनेक पाप कर बैठते हैं। हमसे ऐसे पाप भी हो सकते हैं जो व्यवस्था के उल्लंघन से भी बदतर हों, यानी घोर पाप। फरीसी प्रभु यीशु की निंदा और विरोध क्यों कर पाए? वे उन्हें सलीब पर कैसे चढ़ा पाए? इससे सिद्ध होता है कि अगर इंसान के शैतानी स्वभाव का समाधान न किया जाए तो इंसान अब भी पाप और परमेश्वर का विरोध कर सकता है और परमेश्वर को धोखा दे सकता है।"
वीडियो से इस अंश को सुनकर, मुझे यह समझ में आया कि प्रभु यीशु के छुटकारे को स्वीकार करके हमें केवल हमारे पापों से मुक्ति मिलती है, यह हमें हमारी पापी प्रकृति से बचने में सक्षम नहीं बनाता है, और यही कारण है जब हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, भले ही हम अक्सर हमारे पापों को स्वीकारते और पश्चाताप करते हैं, फिर भी हम अक्सर पाप करते ही रहते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि अनुग्रह के युग में परमेश्वर के कार्य ने केवल इंसान को उसके पापों से मुक्त किया और उसे अपने विश्वास से बचाया था, लेकिन अभी भी हमारे पापों से बचने और शुद्ध होने के लिए कोई रास्ता नहीं है, परमेश्वर के लिए अभी भी यह आवश्यक है कि हमारे पापों को खत्म करने के लिए कार्य का एक चरण पूरा करे, तभी हम अपने पापों के बंधनों से पूरी तरह से बचने में सक्षम होंगे, शुद्ध हो जाएँगे और उद्धार को प्राप्त करेंगे। मैंने अपने बारे में सोचा, कैसे अगर मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के वचनों को नहीं पढ़ा होता और यह न देखा होता कि परमेश्वर में विश्वास करने पर मनुष्य के गलत दृष्टिकोण को परमेश्वर ने कैसे प्रकट किया है, तो मैंने यह नहीं जाना होता कि केवल परमेश्वर के आशीर्वाद पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करने के मेरे इरादे और दृष्टिकोण गलत थे, मैं अपनी भ्रष्टता को देख पाने में सक्षम न होती, मैं यह नहीं जान पाती कि खोज करने का मेरा तरीक़ा मेरी स्वार्थपरता और नीचता को अभिव्यक्त करता था, और मैं यही सोचते रहती कि परमेश्वर में विश्वास के माध्यम से अनुग्रह और आशीर्वाद को खोजना सही था। इसके अलावा, हालांकि मैं प्रभु में विश्वास करती थी, फिर भी मैंने दुनिया की रुझानों का पालन किया था, फिर भी मैंने धन की कामना की और खाने, पीने और मस्ती करने की चाह रखी थी, मैं फिर भी प्रतिष्ठा और सौभाग्य के लिए छटपटाई थी और दूसरों के खिलाफ़ साजिशें करती थी, मैं अभी भी पाप में जी रही थी, खुद को मुक्त करने में असमर्थ थी, और केवल सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन के माध्यम से ही मैं इन भ्रष्टताओं के बारे में कुछ समझ पाई थी। मुझे लगता है कि अंत के दिनों में परमेश्वर का अपने वचन के द्वारा न्याय और ताड़ना का कार्य करना, पूरी तरह से ज़रूरी है, और यह वास्तव में लोगों को शुद्ध कर सकता है और उन्हें बचा सकता है! वर्ना कैसे मेरे जैसे लोग जो गंदे और भ्रष्ट हैं, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के योग्य हो सकते हैं? परमेश्वर को धन्यवाद हो! मैंने कभी सपने में नहीं सोचा था कि जब मैं काम खोजने के लिए जापान आई, तो मैं वास्तव में हमारे उद्धारकर्ता की वापसी का स्वागत करुँगी और परमेश्वर के प्रकटन की गवाही दूँगी। मैंने ईमानदारी से सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ना शुरू कर दिया, सक्रिय रूप से कलीसिया के जीवन में भाग लिया, और भाइयों और बहनों से, परमेश्वर के वचन के बारे में सहभागिता करने के लिए, मिलती रही। जब भी मेरे पास समय होता था, मैंने सुसमाचार फिल्में, गायक-मंडली के वीडियो, संगीत वीडियो और सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया के अन्य वीडियो देखे। परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए उसे धन्यवाद, क्योंकि मैं अधिक से अधिक सच्चाइयों को समझ रही हूँ, और मेरी आत्मा शांति और स्थिरता का आनंद ले रही है। आजकल मैं चिंता में नहीं जीती हूँ और न ही मैं पीड़ा में रहती हूँ, और निश्चित रूप से मुझे आत्मघाती विचार नहीं आते हैं। यह परमेश्वर का वचन ही था जिसने मेरे विश्वास को मजबूत किया और मुझे एक उज्ज्वल और सुंदर भविष्य देखने की अनुमति दी। अपने भाइयों और बहनों के साथ सच्चाई की खोज करने के लिए, और यह जानने के लिए कि किसी प्राणी के कर्तव्यों को पूरी तरह से कैसे निभाया जाए ताकि परमेश्वर के प्यार का प्रतिफल दिया जा सके, मैं तैयार हूँ, क्योंकि केवल इस तरह से जी कर मेरे पास वास्तव में एक सार्थक जीवन हो सकता है!
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