खुद को छद्मवेश में छिपाने की यंत्रणा

17 दिसम्बर, 2024

मु शेन, चीन

2018 में एक दिन, मेरी अगुआ ने मुझे एक नई स्थापित हुई कलीसिया की मदद करने का काम सौंपा। मुझे इसकी सूचना मिली तो मुझे हैरानी भी हुई और घबराहट भी। शायद मेरी अगुआ की मेरे बारे में बहुत अच्छी राय थी; पर अगर मैं कोई वास्तविक काम न कर पाई तो मेरे भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे मैं इतनी अच्छी अगुआ नहीं हूँ? अगर ऐसा हुआ तो मेरी क्या इज्जत रह जाएगी? इन बातों के बारे में सोचते हुए मैं बहुत चिंतित हो उठी और सुकून से कर्तव्य निभाना मेरे लिए मुश्किल हो गया। एक हफ्ते बाद, इसी उधेड़बुन में घिरी मैं नई कलीसिया के लिए निकल पड़ी। शुरू में, जब भाई-बहन अपने सवाल उठाते तो मैं परमेश्वर के वचनों और सिद्धांतों और संगति के अपने अनुभवों के द्वारा उन्हें हल करने में सफल रही। लेकिन बाद में उनके सामने कुछ ऐसे मसले आ गए जिन्हें मैं पूरी तरह समझ नहीं पाई। मैं उन्हें हल करना भी नहीं जानती थी, इसलिए मुझे बहुत घबराहट होने लगी।

मुझे याद है एक बार एक सभा में भाई-बहनों ने कुछ प्रश्न और समस्या लेकर आए जो काम के दौरान उनके सामने आए थे, और मैं समझ नहीं पा रही थी कि इन्हें हल करने के लिए मैं सत्य के किस पहलू पर संगति करूँ। मुझे चिंता थी कि उनकी नजरों में मेरा मान कम हो जाएगा। घबराहट से मेरा बुरा हाल था और मैं दिमाग पर जोर देकर संगति के लिए परमेश्वर के वचनों या सिद्धांतों को जल्द-से-जल्द याद करने की कोशिश कर रही थी, लेकिन मैं जितना ज्यादा परेशान होती जाती, मेरा दिमाग उतना ही सुन्न होता जाता। यह देखकर कि सब भाई-बहन चुपचाप बैठे मेरी प्रतिक्रिया का इंतजार कर रहे हैं, मेरी दहशत और भी बढ़ गई और मैं सोचने लगी, “अगर मैं उनके मसले नहीं सुलझा सकती तो क्या इसका यह मतलब नहीं है कि मैं सत्य नहीं समझती और मैं वास्तविक काम करने में अक्षम हूँ? भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? कितनी शर्मिंदगी की बात होगी!” आखिर मैंने किसी तरह दिल कड़ा करके संगति के लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश चुना। मैं दिल से जानती थी कि यह दिन के उजाले की तरह साफ था कि मैं सिर्फ शब्दों और सिद्धांतों का ज्ञान बघार रही थी और इससे उनकी समस्याएँ हल नहीं हो सकती थीं। पर यह देखकर कि मेरे भाई-बहन मुझे सुन रहे थे और सिर हिला रहे थे, मैंने और कुछ नहीं कहा और इस बात पर ध्यान नहीं दिया। इसी तरह एक बार एक बहन ने अपनी बेटी के बारे में पूछा कि वह अपने काम में इतनी व्यस्त रहती है कि नियमित तौर पर सभाओं में नहीं आ पाती। उस बहन को चिंता थी कि उसकी बेटी सत्य न खोजने के कारण उद्धार प्राप्त करने का अवसर खो देगी। इसलिए वह अक्सर अपनी बेटी को परमेश्वर के वचन पढ़ने और सभाओं में और ज्यादा जाने के लिए कहती रहती थी। पर साथ ही उसे यह चिंता भी थी कि अपनी बेटी पर बहुत ज्यादा दबाव डालकर वह उसे परेशान न कर दे। इस मामले ने उसे विवश कर दिया था और उसे इसका कोई हल नहीं सूझ रहा था। मुझे भी उस समय यह नहीं पता था कि इस मसले को सुलझाने के लिए उसके साथ कैसे संगति करूँ। मैंने मन-ही-मन सोचा, “सबके सामने इस बहन के साथ संगति न कर पाने की कोई सफाई नहीं हो सकती। इस सभा समूह में यह मेरा पहला दिन है। अगर मैं उनकी किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर पाई तो क्या भाई-बहन यह नहीं सोचेंगे कि मैं सत्य पर संगति करके उनके मसले सुलझाने में सक्षम नहीं हूँ? चाहे कुछ भी हो, मुझे किसी-न-किसी तरीके से इस स्थिति में इज्जत बचानी होगी।” इसलिए मैंने संगति करते हुए कहा, “इस मसले के बारे में हमें सत्य खोजकर परमेश्वर के इरादे को पहचानना चाहिए। परमेश्वर उन लोगों को बचाता है जो उसमें आस्था रखते हैं और सत्य से प्रेम करते हैं। वह कभी भी जबर्दस्ती करके हमें सभाओं में जाने या अपने कर्तव्य निभाने के लिए नहीं कहता, इसलिए अगर आपकी बेटी सत्य का अनुसरण नहीं करती तो आप उसके साथ जबर्दस्ती नहीं कर सकतीं। आपको खुद को परमेश्वर की व्यवस्थाओं के आगे समर्पित कर देना चाहिए और अपने स्नेह के अनुसार चलने से बचना चाहिए।” मेरी संगति खत्म होने के बाद वह बहन कुछ भी नहीं बोली, पर उसके चेहरे पर अब भी उलझन के भाव थे। यह देखकर कि उस बहन का मसले हल नहीं हुआ, अगुआ, बहन वांग लिन ने अपनी संगति प्रस्तुत की : “आपको अब भी अपनी बेटी की मदद करते रहना चाहिए और उसके साथ प्यार से संगति करनी चाहिए। समय के साथ यह स्पष्ट हो जाएगा कि क्या आपकी बेटी सत्य की खोजी है। अगर वह एक सच्ची विश्वासी है तो अगर शुरू में उसमें सांसारिक इच्छाएँ हों, और वह सत्य की खोज न कर रही हो, तो भी आपको धैर्य रखना चाहिए और इसे स्वीकार करके प्यार से उससे सहयोग करना चाहिए। फिर एक बार जब वह थोड़ा सत्य समझ जाएगी तो वह स्वाभाविक रूप से इसे ज्यादा महत्व देने लगेगी। अगर वह सत्य से प्रेम नहीं करती, और सिर्फ परमेश्वर की आशीष प्राप्त करने के लिए उसमें नाम भर की आस्था रखती है, तो उसकी कितनी भी मदद या उसके लिए प्रार्थना करने का कोई लाभ नहीं होगा, क्योंकि परमेश्वर छद्म-विश्वासियों को नहीं बचाता है। इसलिए हमें पहले प्यार से उसकी मदद और उसके साथ सहयोग करना चाहिए, और फिर यह जान लेने के बाद कि वह किस तरह की इंसान है, हम सिद्धांत के अनुसार उसके साथ व्यवहार करने का फैसला कर सकते हैं।” वह बहन लगातार अपना सिर हिला रही थी और मुझे भी पूरा मसला ज्यादा स्पष्टता से समझ आ गया था। बहन वांग लिन की संगति ने अभ्यास की एक स्पष्ट रूपरेखा खींच दी थी। पर मैं इसे खुले तौर पर स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। मैंने सोचा कि अगर मैं इसे खुलकर स्वीकार करती हूँ तो भाई-बहन यह पहचानने में और भी सक्षम हो जाएंगे कि मैंने सिर्फ सिद्धांतों के ज्ञान पर संगति की थी, और यह मेरे लिए बहुत शर्मिंदगी की बात होगी। इसके बाद, मैं इस बात को लेकर और भी दबाव और दहशत महसूस करने लगी कि मैं भाई-बहनों की समस्याएँ नहीं सुलझा पाऊँगी। कई बार जब मेरे सामने परेशानियाँ आतीं तो मैं भाई-बहनों के विचार और राय जानने के लिए उनके साथ संगति करना चाहती थी। पर फिर मुझे याद आता कि मैं उनके सिंचन और मदद के लिए हूँ और अगर मैंने इस स्थिति को उलट दिया और उनकी मदद लेने लगी तो वे मेरी उतनी इज्जत नहीं करेंगे। मेरे मन में यही उधेड़बुन चलती रहती और जब मैं कुछ कहना चाहती तो कुछ और सोचकर चुप हो जाती। कई बार ऐसा भी होता कि कोई मुश्किल मसला उठ खड़ा होता तो मैं भाई-बहनों से पहले आपस में चर्चा करने के लिए कहकर बाथरूम में या किसी दूसरे काम का बहाना बनाकर चली जाती। इस तरह कोई भी यह न भाँप पाता कि मैं असल में क्या हूँ। जब भी मैं ऐसा कुछ करती तो खुद को कोसती रहती कि इस मसले पर मेरी कितनी कमजोर पकड़ थी, और अगर मैंने खुलकर संगति की होती और भाई-बहनों की मदद ली होती तो मैं इस मसले की गहरी समझ प्राप्त कर सकती थी। ऐसे अवसरों पर, मैं हमेशा यह संकल्प करती कि भविष्य में मैं ऐसी स्थितियों से बचने की कोशिश नहीं करूंगी, पर जब भी कोई मुश्किल पैदा होती तो मैं अपने-आप ही रुतबे और मान को बचाने के चक्कर में पड़ जाती। मैं या तो कुछ शब्दों और सिद्धांतों का ज्ञान झाड़कर चर्चा के दौरान खानापूर्ति कर देती या स्थिति को पूरी तरह टाल देती। उस अवधि के दौरान, मेरी हालत दिनोदिन खराब होती गई—मैं सभा में संगति करती तो मुझमें अंतर्दृष्टि का अभाव होता, क्योंकि अपने काम में मुझे आगे कुछ न सूझता और, कर्तव्य निभाना मेरे लिए निरंतर कठिन होता जा रहा था। हमेशा एक मुखौटे लगाए रखना और खुद को छद्मवेश में छिपाने से मैं बहुत दबाव में आ गई और यंत्रणा में जीने लगी। मैंने यह भी सोचा कि शायद यह काम मेरे बस का नहीं है और मुझे वापस अपने पिछले काम पर लौट जाना चाहिए। अपनी खराब दशा का एहसास हो जाने के बाद मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “प्यारे परमेश्वर, पिछले कुछ समय से मुझे अपना काम बहुत थकाने वाला लग रहा है और मेरे विचारों में कोई स्पष्टता नहीं है। ऐसा लगता है कि तुमने मुझसे मुँह मोड़ लिया है, पर मुझे नहीं पता कि मुझसे कहाँ गलती हो गई है। हे परमेश्वर, कृपया खुद को बेहतर ढंग से समझने में मेरा मार्गदर्शन करो।”

इसके बाद, परमेश्वर के वचनों का यह अंश मेरे सामने आया : “सभी भ्रष्ट मनुष्य एक आम समस्या से ग्रस्त होते हैं : जब उनकी कोई हैसियत नहीं होती, तो वे किसी के साथ परस्पर संपर्क के समय या बातचीत करते समय शेखी नहीं बघारते, न ही वे अपनी बोल-चाल में कोई निश्चित शैली या लहजा अपनाते हैं; वे बस साधारण और सामान्य होते हैं, और उन्हें खुद को आकर्षक ढंग से पेश करने की आवश्यकता नहीं होती है। वे कोई मनोवैज्ञानिक दबाव महसूस नहीं करते और खुलकर, दिल से संगति कर सकते हैं। वे सुलभ होते हैं और उनके साथ बातचीत करना आसान होता है; दूसरों को यह महसूस होता है कि वे बहुत अच्छे लोग हैं। जैसे ही उन्हें कोई रुतबा प्राप्त होता है, वे घमंडी बन जाते हैं, साधारण लोगों की अनदेखी करते हैं, कोई उन तक नहीं पहुँच सकता; उन्हें लगता है कि वे कुलीन हैं और वे आम लोग से अलग मिट्टी के बने हुए हैं। वे आम इंसान को हेय समझते हैं, बोलते समय रौब दिखाते हैं और दूसरों के साथ खुलकर संगति करना बंद कर देते हैं। वे अब खुले तौर पर संगति क्यों नहीं करते हैं? उन्हें लगता है कि अब उनके पास ओहदा है, और वे अगुआ हैं। उन्हें लगता है कि अगुआओं की एक निश्चित छवि होनी चाहिए, उन्हें आम लोगों की तुलना में थोड़ा ऊँचा होना चाहिए, उनका आध्यात्मिक कद बड़ा होता है और वे जिम्मेदारी संभालने में बेहतर होते हैं; वे मानते हैं कि आम लोगों की तुलना में, अगुआओं में अधिक धैर्य होना चाहिए, उन्हें अधिक कष्ट उठाने और खपने में समर्थ होना चाहिए, और शैतान के किसी भी प्रलोभन का सामना करने में सक्षम होना चाहिए। वे सोचते हैं उनके माता-पिता या परिवार के दूसरे सदस्यों की मृत्यु पर भी उनमें ऐसा आत्म-नियंत्रण होना चाहिए कि वे न रोएँ या उन्हें रोना ही है, तो सबकी नजरों से दूर, गुपचुप रोना चाहिए, ताकि किसी को उनकी कमियाँ, दोष या कमजोरियाँ न दिखाई दें। उन्हें तो यह भी लगता है कि अगुआओं को किसी को भी यह भनक नहीं लगने देनी चाहिए कि वे निराश हो गए हैं; बल्कि उन्हें ऐसी सभी बातें छिपानी चाहिए। वे मानते हैं कि ओहदे वाले व्यक्ति को ऐसा ही करना चाहिए। जब वे इस हद तक अपना दमन करते हैं, तो क्या हैसियत उनका परमेश्वर, उनका प्रभु नहीं बन गई है? और ऐसा होने पर, क्या उनमें अभी भी सामान्य मानवता है? जब उनमें ये विचार होते हैं—जब वे खुद को इस तरह सीमित कर लेते हैं, और इस तरह का कार्य करते हैं—तो क्या वे हैसियत के प्रति आसक्त नहीं हो गए हैं?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, हैसियत के प्रलोभन और बंधन कैसे तोड़ें)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे यह एहसास हुआ कि मुझे अपना काम इतना भारी और थकाऊ इसलिए लग रहा था क्योंकि मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित रहती थी। उस कलीसिया में आने से पहले मैं भाई-बहनों के साथ सभाओं में कितनी स्वतंत्र और उन्मुक्त महसूस करती थी—मुझपर कोई दबाव नहीं था, और अगर मैं कोई बात समझ नहीं पाती थी तो मैं इसे संगति में उठाती थी। लेकिन जबसे मैं इस कलीसिया में मदद करने आई, मैंने खुद को एक आसन पर बिठा दिया, यह सोचने लगी कि मैं इन लोगों की मदद के लिए आई हूँ इसलिए मुझे इनसे बेहतर और अधिक कुशल होना चाहिए। मेरा मानना था कि भाई-बहनों के हर मसले को हल करके ही मैं अपने रुतबे की कसौटी पर खरी उतर पाऊँगी। अपने भाई-बहनों की प्रशंसा और स्वीकृति पाने के लिए, मैंने एक छद्म रूप धारण कर लिया था और दिखावे करने लगी। हालांकि यह साफ था कि इन मसलों पर मेरी मजबूत पकड़ नहीं थी, लेकिन मैं खुलकर बोलने और खोजने के लिए तैयार नहीं थी, इसके बजाय मैं शब्दों और सिद्धांतों का ज्ञान झाड़ते हुए सिर्फ खानापूर्ति करने पर तुली थी, और भाई-बहनों को धोखा देने के साथ-साथ ऐसी स्थिति से पूरी तरह से बचने के बहाने खोज रही थी। मुझे इस बात का ख्याल तक नहीं था कि भाई-बहनों की समस्याएँ सुलझ रही हैं या नहीं, मैं इतनी साधारण-सी बात भी नहीं कह पा रही थी कि “मैं इस मसले को समझ नहीं पा रही हूँ।” तब जाकर मुझे यह एहसास हुआ कि मैं रुतबे को बहुत ज्यादा महत्व दे रही थी, और जो कुछ भी मैं कर रही थी वह इस रुतबे को बचाने के लिए ही था। मेरी कलीसिया ने मेरे लिए यह व्यवस्था की कि मैं इस नई कलीसिया में जाकर अपना कर्तव्य निभाऊँ ताकि मैं अपने भाई-बहनों के साथ काम कर वहाँ की समस्याओं और मसलों को सुलझा सकूँ, लेकिन मैंने अच्छे ढंग से अपना कर्तव्य निभाने और वास्तविक कार्य करने पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया, इसके बजाय मैं यही सोचती रही थी कि भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे, और अपना रुतबा और मान बचाने का सबसे अच्छा तरीका क्या था। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचाए रखने के लिए मैं उन्हें धोखा देने तरीके भी खोज लेती थी। अपने कर्तव्यों की अवहेलना करके मैंने न सिर्फ खुद को तकलीफ पहुंचाई थी, बल्कि अपने भाई-बहनों का भी नुकसान किया और कलीसिया के काम में विलंब किया। इसके कारण परमेश्वर मुझे कितनी बुरी और घृणित समझ रहा होगा। मैं अंधकार में जा गिरी थी—यह परमेश्वर की धार्मिकता व को दर्शाता था, और मुझे कर्तव्यनिष्ठ ढंग से आत्म-चिंतन करके परमेश्वर के सामने प्रायश्चित करने की जरूरत थी।

अगले दिन, मैंने भाई-बहनों के सामने अपनी इस हालत पर खुलकर बात की, और कुछ ऐसे प्रश्न भी उठाए जिन पर संगति करने में मुझे परेशानी होती थी। मिलजुलकर संगति करने से, और परमेश्वर के मार्गदर्शन से, हमें आखिर इन मसलों की बेहतर समझ प्राप्त हुई, और हमें अभ्यास का एक रास्ता मिला। इसके बाद भी मैं कोई मुश्किल आने पर या किसी विषय की समझ न होने पर अनजाने में एक झूठा भेस ले लेती थी, ताकि भाई-बहनों मेरी कमजोरी न जान पाएँ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उसके मार्गदर्शन के लिए याचना की। तब परमेश्वर के वचनों का एक अंश मेरे सामने आया और मुझे अभ्यास का एक रास्ता मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “स्वयं को हैसियत के नियंत्रण से मुक्त करने के लिए, तुम्हें सबसे पहले क्या करना चाहिए? तुम्हें सबसे पहले इसे अपने इरादों, सोच और अपने दिल से निकाल देना चाहिए। यह कैसे किया जाता है? पहले, जब तुम्हारी कोई हैसियत नहीं थी, तुम उन लोगों की अनदेखी करते थे जो तुम्हें आकर्षक नहीं लगते थे। अब जबकि तुम्हारे पास हैसियत है, अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो, जो अनाकर्षक है, या जिसे समस्याएँ हैं, तो तुम उसकी मदद करने की जिम्मेदारी महसूस करते हो, और इसलिए तुम उसके साथ संगति करने में ज्यादा समय बिताते हो, उसकी कुछ व्यावहारिक समस्याएँ सुलझाने की कोशिश करते हो। ऐसे काम करते समय तुम्हारे दिल में क्या भावना होती है? उल्लास और शांति की भावना होती है। इसलिए भी तकलीफ में या नाकामयाब होने पर, तुम्हें दूसरों से बार-बार अपने मन की बात कहनी चाहिए, अपनी समस्याओं और कमजोरियों पर और परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने और फिर उससे उबरकर परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने योग्य होने के बारे में संगति करनी चाहिए। और उनसे इस तरह मन की बात कहने का क्या असर होता है? बेशक यह सकारात्मक होता है। तुम्हें कोई भी हीन भावना से नहीं देखेगा—बल्कि संभवतः वे इन अनुभवों से गुजरने की तुम्हारी क्षमता से ईर्ष्या करें। कुछ लोग हमेशा यही सोचते हैं कि हैसियत होने पर लोगों को अधिकारियों जैसा पेश आना चाहिए और एक खास लहजे में बोलना चाहिए ताकि लोग उन्हें गंभीरता से लें और उनका सम्मान करें। क्या ऐसी सोच सही है? अगर तुम्हें यह एहसास हो जाए कि ऐसी सोच गलत है, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, और देह संबंधी चीजों के विरुद्ध विद्रोह करना चाहिए। रौब मत दिखाओ और पाखंड की राह पर मत चलो। ज्यों ही ऐसा विचार आए, तुम्हें सत्य खोजकर इसका समाधान करना चाहिए। अगर तुम सत्य नहीं खोजते, तो यह विचार, यह नजरिया आकार लेकर तुम्हारे दिल में जड़ें जमा लेगा। परिणामस्वरूप, यह तुम पर हावी हो जाएगा, तुम छद्मवेश बनाकर अपनी ऐसी छवि गढ़ोगे कि कोई भी तुम्हारी असलियत न जान सके या तुम्हारी सोच को न समझ पाए। तुम दूसरों से मुखौटा लगाकर बात करोगे जो तुम्हारे सच्चे दिल को उनसे छिपाएगा। तुम्हें यह सीखना होगा कि दूसरे लोग तुम्हारा दिल देख सकें, तुम दूसरों के सामने अपना दिल खोल सको और उनके करीबी बन सको। तुम्हें देह के विरुद्ध विद्रोह करना होगा और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार आचरण करना होगा। इस प्रकार तुम्हारे दिल को शांति और खुशी मिलेगी(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, हैसियत के प्रलोभन और बंधन कैसे तोड़ें)। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह एहसास हुआ कि प्रतिष्ठा और रुतबे की जंजीरों से मुक्त होने के लिए मुझे अपने दिल से रुतबे की इच्छा का त्याग करना होगा। सच्चाई यह थी कि मैं चाहे जो भी कर्तव्य निभा रही थी या मेरा जो भी रुतबा था, मैं अब भी बहुत गहराई से शैतान की भ्रष्टता की शिकार थी और मेरे अंदर बहुत सारी कमियाँ और खामियाँ थीं। यह बिल्कुल स्वाभाविक था—ऐसा नहीं है कि अगुआ बनते ही या रुतबा पाते ही कोई अचानक ही बाकी सबसे बेहतर हो जाता है, उसकी आध्यात्मिक कद-काठी बढ़ जाती है, वह सत्य को समझने लगता है, और हर मसले को समझने और सुलझाने में सक्षम हो जाता है। मेरे लिए खुद को ठीक से समझना बहुत जरूरी था। बाद में, जब भी अपने रुतबे को बचाने और अपनी कमजोरियों को छिपाने की इच्छा मेरे मन में जागती, मैं ठीक इसका उल्टा करती : मैं बिना किसी दिखावे के अपने-आपको सबके सामने खोलकर रख देती, और भाई-बहनों को अपनी असली आध्यात्मिक कद-काठी देखने देती। जब मैं किसी ऐसी समस्या का सामना करती जिसे मैं सुलझा न पाती, तो मैं सच्चाई से यह स्वीकार कर लेती कि मैं इसे समझ नहीं पा रही हूँ और अपने भाई-बहनों के साथ सत्य की खोज करती, हम एक-दूसरे की खूबियों से अपनी कमजोरियों की भरपाई करते। इस तरह अभ्यास करने से, मैं बहुत उन्मुक्त और शांत महसूस करने लगी, और अपना काम मुझे पहले की तरह थका देने वाला नहीं लगता था।

फिर भी ऐसे अवसर आते रहते थे जब मैं सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाती थी। एक बार, एक सभा में बहन वांग लिन मुझसे पहले पहुँच गई। मैं मन-ही-मन सोचने लगी, “वह पहले ही मेरी कमियाँ और खामियाँ जानती है, क्योंकि पिछली संगति में मैंने सिर्फ शब्दों और सिद्धांतों के ज्ञान पर चर्चा की थी। अगर मैं एक बार फिर भाई-बहनों की समस्याएँ सुलझाने में असफल रही तो उसकी नजरों में मैं और भी गिर जाऊँगी। तब मैं कैसे किसी को अपना चेहरा दिखा पाऊँगी?” यह सोचने के बाद मैं थोड़ी बेचैन हो गई और मुझे लगा कि उसके साथ संगति की अगुआई करते हुए मुझ पर बहुत दबाव रहेगा। मैंने बहन वांग लिन से कहा, “अगर आपको कोई दूसरा काम है तो आप बेफिक्र होकर जाइए। मैं सभा संभाल लूँगी।” वह बिना कुछ कहे वहाँ से चली गई। मुझे बड़ी हैरानी हुई जब कुछ दिन बाद उसने मुझसे कहा, “उस दिन, मैंने पहले यह सोचा था कि सभा के बाद मैं काम में कुछ समस्याओं और भटकावों को लेकर बात करूंगी, लेकिन जैसे ही मैं सभा स्थल पर पहुंची तो तुमने मुझसे कहा कि वहाँ मेरी जरूरत नहीं है। मैंने इसके बारे में सोचा है और फैसला किया है कि मुझे तुम्हें तुमसे जुड़े कुछ मसलों के बारे में बताना चाहिए। यह तुम्हारे लिए भी अच्छा होगा और कलीसिया के लिए भी।” उसने मुझे बताया कि मैं जो कुछ भी करती हूँ उसमें अपने रुतबे और मान की रक्षा करती हूँ, अपनी कमियों को छिपाकर एक छद्म भेस ओढ़े रखती हूँ, और भाई-बहनों के साथ जुड़कर उनके साथ कोई वास्तविक सहयोग नहीं कर पा रही। यह देखते हुए कि मैं गलत इरादे से कर्तव्य निर्वहन करती हूँ, मेरे लिए पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करना और कोई परिणाम हासिल करना बहुत मुश्किल होगा। बहन वांग लिन की टिप्पणियाँ सुनकर मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया। मुझे खुद पर शर्म आने लगी और मैं बहुत बुरा महसूस करने लगी। उन्होंने ठीक ही कहा था : मेरा काम कलीसिया की मदद करना था, पर इस डर से कि मेरी पोल खुल जाएगी और मेरी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी, मैंने उन्हें वहाँ से भेजने का बहाना बनाया था, जबकि वह मेरे साथ मिलकर जल्दी-से-जल्दी इन समस्याओं की पहचान और इनका समाधान करना चाहती थी। वह कलीसिया के काम से ज्यादा वाकिफ थी, इसलिए अपने कर्तव्यों के निर्वाह में उसके साथ सहयोग किए बिना मैं अच्छे परिणाम कैसे हासिल कर सकती थी? बहन वांग लिन को न सिर्फ यह एहसास हो गया था कि मेरे पास सत्य वास्तविकता नहीं थी और मैं मसलों को सुलझाने में अक्षम थी, बल्कि उसने यह भी जान लिया था कि मुझ पर रुतबे और प्रतिष्ठा का जुनून सवार था। मैं उस समय बहुत अपमानित महसूस कर रही थी। अपनी उस पीड़ा के बीच मैंने परमेश्वर के सम्मुख आकर प्रार्थना की : “प्यारे परमेश्वर! आज वांग लिन ने मेरी समस्याओं और कमियों की तरफ इशारा किया। मुझे इस स्थिति से सीख लेनी चाहिए, इसलिए मैं तुमसे विनती करती हूँ कि खुद को बेहतर ढंग से समझने में मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को सुधारकर सच में कायाकल्प कर सकूँ।” प्रार्थना के बाद मेरी नजर परमेश्वर के वचनों के एक अंश पर पड़ी, जिनसे मेरी उस समय की स्थिति उजागर होती थी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “लोग स्वयं भी सृजित प्राणी हैं। क्या सृजित प्राणी सर्वशक्तिमान हो सकते हैं? क्या वे पूर्णता और निष्कलंकता हासिल कर सकते हैं? क्या वे हर चीज में दक्षता हासिल कर सकते हैं, हर चीज समझ सकते हैं, हर चीज की असलियत देख सकते हैं, और हर चीज में सक्षम हो सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते। हालांकि, मनुष्यों में भ्रष्ट स्वभाव और एक घातक कमजोरी है : जैसे ही लोग किसी कौशल या पेशे को सीख लेते हैं, वे यह महसूस करने लगते हैं कि वे सक्षम हो गये हैं, वे रुतबे और हैसियत वाले लोग हैं, और वे पेशेवर हैं। चाहे वे कितने भी साधारण हों, वे सभी अपने-आपको किसी प्रसिद्ध या असाधारण व्यक्ति के रूप में पेश करना चाहते हैं, अपने-आपको किसी छोटी-मोटी मशहूर हस्ती में बदलना चाहते हैं, ताकि लोग उन्हें पूर्ण और निष्कलंक समझें, जिसमें एक भी दोष नहीं है; दूसरों की नजरों में वे प्रसिद्ध, शक्तिशाली, या कोई महान हस्ती बनना चाहते हैं, पराक्रमी, कुछ भी करने में सक्षम और ऐसे व्यक्ति बनना चाहते हैं, जिनके लिए कोई चीज ऐसी नहीं, जिसे वे न कर सकते हों। उन्हें लगता है कि अगर वे दूसरों की मदद माँगते हैं, तो वे असमर्थ, कमजोर और हीन दिखाई देंगे और लोग उन्हें नीची नजरों से देखेंगे। इस कारण से, वे हमेशा एक झूठा चेहरा बनाए रखना चाहते हैं। ... यह किस तरह का स्वभाव है? ऐसे लोगों के अहंकार की कोई सीमा नहीं होती, वे अपनी सारी समझ खो चुके हैं। वे हर किसी की तरह नहीं बनना चाहते, वे आम आदमी या सामान्य लोग नहीं बनना चाहते, बल्कि अतिमानव, असाधारण व्यक्ति या कोई दिग्गज बनना चाहते हैं। यह बहुत बड़ी समस्या है! जहाँ तक सामान्य मानवता के भीतर की कमजोरियों, कमियों, अज्ञानता, मूर्खता और समझ की कमी की बात है, वे इन सबको छिपा लेते हैं और दूसरे लोगों को देखने नहीं देते, और फिर खुद को छद्म वेश में छिपाए रहते हैं। ... वे नहीं जानते कि वे स्वयं क्या हैं, न ही वे सामान्य मानवता को जीने का तरीका जानते हैं। उन्होंने एक बार भी व्यावहारिक मनुष्यों की तरह काम नहीं किया है। यदि तुम कल्पना-लोक में रहकर दिन गुजारते हो, जैसे-तैसे काम करते रहते हो, यथार्थ में रहकर काम नहीं करते, हमेशा अपनी कल्पना के अनुसार जीते हो, तो यह परेशानी वाली बात है। तुम जीवन में जो मार्ग चुनते हो वह सही नहीं है। अगर तुम ऐसा करते हो, तो फिर चाहे तुम जैसे भी परमेश्वर में विश्वास करते हो, तुम सत्य को नहीं समझोगे, न ही तुम सत्य को हासिल करने में सक्षम होगे। सच तो यह है कि तुम सत्य को हासिल नहीं कर सकते, क्योंकि तुम्हारा प्रारंभिक बिंदु ही गलत है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे यह एहसास हुआ कि मैं दूसरों की प्रशंसा पाने के लिए अपने-आपको हमेशा एक छद्मवेश में इसलिए छिपाकर रखती थी क्योंकि मैं अपने अहंकारी स्वभाव के नियंत्रण में थी। मैं तो एक सृजित प्राणी-मात्र थी, इसलिए मैं सब कुछ नहीं समझ सकती थी और हर मसले पर पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो सकती थी। यह बिल्कुल स्वाभाविक था कि कर्तव्य निभाने के दौरान मुझे कुछ मसलों और मुश्किलों का सामना करना पड़े। लेकिन जैसे ही मैंने थोड़ा रुतबा हासिल किया मैं खुद को “असाधारण” समझने लगी, और अपनी असलियत को पहचानने और अपनी खामियों का सामना करने में विफल रही। मैं हमेशा एक महान, महत्वपूर्ण व्यक्ति, अच्छाइयों का एक पुतला बनना चाहती थी, इसलिए मैंने एक झूठा भेस धारण कर लिया और हर अवसर पर भाई-बहनों की नजरों में अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को बचाने के लिए दिखावा करने लगी। मैं भ्रष्ट थी और शैतान की ऐसी सूक्तियों से बहुत ज्यादा प्रभावित थी कि “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है” और “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।” मैं लोगों के जिस समूह के भी साथ होती, मैं हमेशा सबसे अच्छी छाप छोड़ना चाहती और हर किसी की सराहना और प्रशंसा पाना चाहती थी, मेरा मानना था कि सिर्फ ऐसा करके ही मैं इज्जत और चरित्र के साथ जी सकती हूँ। फिर जब सबके सामने मेरी कमियाँ और खामियाँ उजागर हो गईं तो मुझे बहुत तकलीफ हुई और मैंने इन कमियों को छिपाने और इन पर पर्दा डालने के रास्ते खोज लिए। पिछली घटना इसका बहुत अच्छा उदाहरण थी : इस चिंता से कि वांग लिन मेरी असलियत भाँप लेगी, मैंने उसे जानबूझकर सभा से भेज दिया, ताकि मैं इस तथ्य को छिपाए रख सकूँ कि मैं सत्य नहीं समझती। अपने खुद के रुतबे और मान को बचाने की कोशिश में मैंने कलीसिया के काम का जरा भी ध्यान नहीं रखा, और न ही अपने खुद के कर्तव्य का ख्याल किया। मैं कितनी स्वार्थी और मक्कार थी! मुझे यह एहसास हो गया कि कलीसिया में अब भी बहुत सारे ऐसे वास्तविक मसले थे जिन्हें सुलझाया जाना था, और अगर मैंने बहन वांग लिन के साथ सहयोग नहीं किया तो समस्याएँ हल नहीं हो पाएँगी। इससे पूरी कलीसिया के काम में देर हो जाएगी, और भाई-बहनों की जिंदगियों को नुकसान पहुंचेगा। अपनी छवि को बचाने के लिए मैं कलीसिया के हितों की बलि चढ़ा रही थी—क्या मैं दुष्टता नहीं कर रही थी? परमेश्वर चाहता है कि हम सामान्य मनुष्यों की तरह जिएँ, परमेश्वर की आराधना कर उसके सम्मुख समर्पण करें, ईमानदारी से आचरण करें और परमेश्वर के अनुरोधों के अनुरूप अपने कर्तव्य निभाएँ। फिर भी, मेरे निरंकुश अहंकार के कारण, मुझमें एक सामान्य मनुष्य की तर्कशीलता नहीं थी, और हमेशा दूसरों की नजरों में अपनी एक श्रेष्ठ छवि बनाने और उनकी प्रशंसा बटोरने में जुटी रहती थी। मैं परमेश्वर के प्रतिरोध के रास्ते पर चल रही थी। अगर मैंने प्रायश्चित नहीं किया तो आखिर में मुझे दंडित करने के लिए नरक में डाल दिया जाएगा। जब मुझे इस सबका एहसास हुआ तो मुझे खुद से घृणा होने लगी और खुद पर शर्म आने लगी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं प्रायश्चित करके ईमानदारी और व्यावहारिक ढंग से एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार थी।

ये सब एहसास हो जाने के बाद, मैंने अपने मसलों को सुलझाने के लिए अभ्यास का रास्ता खोजा। मेरे सामने परमेश्वर के वचनों के दो अंश आए, जो इस प्रकार थे : “परमेश्वर की उपस्थिति में तुम खुद को चाहे जैसे लुकाओ-छिपाओ या अपने को चाहे जिस रूप में गढ़ो, परमेश्वर को तुम्हारे सभी सबसे सच्चे विचारों और तुम्हारे अंदर सबसे गहरे, अंतरतम हिस्सों में छिपी चीजों की स्पष्ट समझ होती है; ऐसा एक भी इंसान नहीं है जिसकी गुप्त, आंतरिक चीजें परमेश्वर की जाँच से बच सकती हों(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर मनुष्य के दिल और दिमाग को टटोलता है—जहाँ तक मेरे भ्रष्ट स्वभाव, मेरे इरादों और अशुद्धता, इन चीजों के सभी पहलुओं से परमेश्वर अवगत था। मैंने खुद को कितना ही क्यों न छिपाया हो, मैंने कितने ही मुखौटे क्यों न पहनें हों, मेरा भ्रष्ट स्वभाव वैसा ही था, मेरी आध्यात्मिक कद-काठी में भी कोई बदलाव नहीं आया था, और मैं अब भी सत्य नहीं समझती थी, न ही मेरे पास सत्य वास्तविकता थी। दरअसल, न सिर्फ परमेश्वर को मेरे स्वांग का पता था, बल्कि सत्य समझने वाला कोई भी भाई-बहन, मेरे दिखावे को समझ सकता था। खुद को एक परिपूर्ण व्यक्ति के रूप में पेश करने की मेरी कोशिश दरअसल खुद को भ्रम में रखने और खुद से धोखा करने के अलावा कुछ नहीं थी। तब जाकर मुझे यह एहसास हुआ था कि रुतबे और मान की खातिर दिखावा करने और एक छद्मवेश धारण करने की मेरी कोशिश एक निरर्थक कोशिश थी, और मैं खुद को जितना छिपा रही थी उतना ही ज्यादा उजागर हो रही थी। यह जीने का एक मूर्खतापूर्ण तरीका था। इन चीजों का एहसास हो जाने के बाद, मैंने सचेत रूप से परमेश्वर की जांच-पड़ताल को स्वीकार किया, और जब भी मैं अपने रुतबे और मान को बचाने की सोचती तो सक्रिय रूप से खुद को दूसरों के सामने खुलकर बोलती और सत्य का अभ्यास करती।

उस कलीसिया से विदा होने से एक दिन पहले, मैं बहन से यह पूछना चाहती थी कि क्या अब भी वह कुछ समस्याओं या कठिनाइयों पर चर्चा करना चाहती है, पर मुझे यह चिंता भी थी कि अगर मैं उसके मसलों को नहीं सुलझा पाई तो उसके सामने मूर्ख दिखूँगी। मैंने मन-ही-मन सोचा, “वैसे भी मैं कल यहाँ से जा ही रही हूँ, मैं अगली बार सत्य का अभ्यास कर लूँगी।” तभी मुझे परमेश्वर के वचनों के एक अंश का ख्याल आया : “अगर कभी तुम्हारे सामने कुछ खास मुसीबतें आती हैं या तुम कुछ विशेष परिवेशों का सामना करते हो, तब तुम्हारा रवैया हमेशा उनसे बचने या भागने, उन्हें नकारने और उनसे पिंड छुड़ाने का रहता है—अगर तुम खुद को परमेश्वर के आयोजनों के रहमोकरम पर नहीं छोड़ते, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण के लिए अनिच्छुक रहते हो, और सत्य से नियंत्रित होना नहीं चाहते हो—अगर तुम हमेशा खुद फैसले करना चाहते हो और खुद से जुड़ी हर चीज को अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार नियंत्रित करना चाहते हो तो देर-सबेर परमेश्वर तुम्हें यकीनन दरकिनार कर देगा या शैतान को सौंप देगा। अगर लोग यह बात समझ जाएँ तो उन्हें तुरंत पीछे मुड़ जाना चाहिए और परमेश्वर की अपेक्षा वाले सही मार्ग के अनुसार अपने जीवन की राह पर चलना चाहिए। यही सही मार्ग है, और जब मार्ग सही होता है तो इसका मतलब है कि दिशा भी सही है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह एहसास हुआ कि अपनी बहन से उसके मसलों और कठिनाइयों के बारे में पूछना, भले ही एक महत्वहीन-सी बात लगती थी, पर यह रुतबे और मान की अपनी चाह को त्यागकर सत्य का अभ्यास करने का एक अवसर भी था। अगर मैंने खुद को छिपाना और एक नकली मुखौटा पहनकर दूसरों को गुमराह करना और अपने रुतबे और मान को बचाना जारी रखा, तो मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के बंधनों से कभी भी मुक्त नहीं हो पाऊँगी। मुझे अब अपनी इच्छाओं के आगे हार नहीं माननी थी—मुझे सत्य का अभ्यास करना था और ऐसा जीवन जीना था जिससे मानवता झलके और शैतान को शर्मिंदा करना था। इसलिए जाने से पहले मैंने अपनी बहन से पूछा कि क्या उसकी कुछ समस्याएँ या कठिनाइयाँ थीं। जब मुझे उसकी स्थिति समझ में आ जाती तो मैं संगति प्रदान करती, और जब मेरे पास कोई जवाब न होता तो मैं कहती, “मुझे नहीं पता कि इस मसले को कैसे हल करें, चलिए मिलकर कोई समाधान खोजते हैं।” इस तरह अभ्यास करने के बाद, मैंने बहुत सुकून और शांति महसूस की।

इस अनुभव से मैंने बहुत कुछ सीखा है। अगर मैं कर्तव्य निभाने के लिए उस कलीसिया में न गई होती, तो इस वास्तविक स्थिति के जरिये उजागर न हुई होती, तो मुझे कभी भी यह एहसास न हो पाता कि मुझे रुतबे का किस हद तक मोह था, और अपने रुतबे और मान को बचाना परमेश्वर के प्रतिरोध का रास्ता था। परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन ने रुतबे और मान के बंधनों से मुक्त होने, और खुद को छिपाने की आदत छोड़ने में मेरी मदद की। मुझे बचाने के लिए सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!

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