एक लाइलाज मरीज के सोच-विचार
जून 2013 में मुझे दस-बारह दिन माहवारी होती रही, खून में बड़े-बड़े थक्के निकलते रहे। तब बीच-बीच में पेड़ू में दाईं ओर थोड़ा-सा दर्द हुआ, इसलिए मैंने ज्यादा नहीं सोचा। लेकिन अगली माहवारी के दौरान और ज्यादा थक्के निकलने लगे, खून भी ज्यादा बहने लगा। मैं थोड़ी घबरा गई, तो जाँच कराने अस्पताल पहुँची। डॉक्टर ने जाँच रिपोर्ट का इंतजार करने को कहकर मुझे घर भेज दिया। लेकिन अगले दिन से ही लगातार खून बहने लगा। सबसे अच्छी दवाई भी पूरी कारगर नहीं रही, दवा बंद करते ही खून बहना शुरू हो गया। बहुत ज्यादा खून बहने से घबराकर मैं पसीने से नहा गई। उस समय मैं घर में बिल्कुल अकेली थी। मैंने मन ही मन सोचा : “इतना ज्यादा खून बहने से मैं मर गई तो क्या होगा?” मैंने फौरन अपनी बहन को बताया और फिर अपने बिस्तर पर निढाल हो गई, हिल-डुल तक नहीं सकी। बहन ने तुरंत एंबुलेंस बुलाकर मुझे अस्पताल भिजवाया। खून बहने से मैं बुरी तरह पीली पड़ चुकी थी। होंठ नीले पड़ चुके थे, चेहरा किसी मुर्दे की तरह पीला पड़ चुका था। मेरा पूरा बदन काँप रहा था और मुझे तुरंत खून चढ़ाने की जरूरत थी, मगर अस्पताल में खून नहीं था और रात 1 बजे से पहले आ भी नहीं सकता था। यह सुनकर मेरे होश उड़ गए और मैं सोचने लगी, “एक बजने में तो अभी आठ घंटे बाकी हैं। इतनी देर तक कैसे जिऊँगी? मेरा लगभग सारा खून निकल चुका है, तो क्या आठ घंटे में बची रह भी पाऊँगी? अभी मैं इतनी जवान हूँ। मर गई तो न यह नीला आकाश और न ही स्वर्ग के राज्य के सुंदर नजारे देख सकूँगी।” मैं बेहद डरी हुई थी और लगातार परमेश्वर को पुकार रही थी : “हे परमेश्वर! मुझे बचा ले!” तभी मुझे परमेश्वर के वचनों का एक वाक्य सूझा : “जब तक तुम्हारी एक भी सांस बाकी है, परमेश्वर तुम्हें मरने नहीं देगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 6)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था से भर दिया। जब तक मेरी आखिरी साँस बची है, परमेश्वर की अनुमति के बिना मैं नहीं मरूँगी। मैंने मन-ही-मन प्रार्थना की : “परमेश्वर, तेरा शुक्रिया। जब मैं भयभीत और लाचार होती हूँ तो केवल तेरे वचन मुझे ढाढस बँधाते हैं। मेरी आखिरी साँस बची है, जब तक तू मरने नहीं देगा, मैं बची रहूँगी। तू जो कहता है, उस पर मुझे विश्वास है।” प्रार्थना करके मेरा मन काफी शांत हो गया, डर भी कम हो गया। शाम को करीब 6 बजे मेरा पति अस्पताल पहुँचा, पर मेरी आपबीती सुनकर भी उसने दिलासा देने के लिए एक शब्द तक नहीं कहा। उसने मुझ पर नजर फेरी, आसपास के लोगों से थोड़ी-सी बात की और फौरन चला गया। परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद से ही, मेरा पति मुझे सता रहा था। अब बीमार पड़ गई, तो वह मुझसे और भी कम वास्ता रखना चाहता था। मैं इतनी अकेली और लाचार थी। हिलने-डुलने और बोलने में भी दिक्कत हो रही थी, लेकिन मेरा मन एकदम साफ था। पति को बाहर जाते देखकर मैं अपने आँसू बहने से नहीं रोक पाई। मुझे लगा कि बीमारी में मेरा पति मेरा साथ देगा। कभी नहीं सोचा कि वह इतना बेरहम निकलेगा। मैं समझ गई कि अब कभी पति पर निर्भर नहीं रह सकती, सिर्फ परमेश्वर पर भरोसा कर सकती हूँ। मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की ताकि एक पल भी उससे न भटक जाऊँ। मैंने परमेश्वर के कुछ भजनों और वचनों पर भी विचार किया। मुझ पर सबसे गहरा प्रभाव इस भजन का था “पतरस ने सच्चे विश्वास और प्रेम को बनाए रखा” : “परमेश्वर! मेरे जीवन का कुछ भी मूल्य नहीं है, और मेरे शरीर का कुछ भी मूल्य नहीं है। मेरे पास केवल एक ही विश्वास और केवल एक ही प्रेम है। मेरे मन में तेरे लिए विश्वास है और हृदय में तेरे लिए प्रेम है; ये ही दो चीज़ें मेरे पास तुझे देने के लिए हैं, और कुछ नहीं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस ने यीशु को कैसे जाना)। मैं अपने मन में यह भजन गुनगुनाने लगी, और सोचा कि कैसे अपनी आस्था में खुद को परमेश्वर को नहीं सौंपा, उस पर सच्ची आस्था नहीं रखी। मैंने हमेशा सिर्फ अपने परिवार पर भरोसा करना चाहा, लेकिन मेरे सबसे करीबी इंसान ने सबसे नाजुक पल में मुझसे मुँह मोड़ लिया। परमेश्वर ही है जिसने अपने वचनों से मुझे दिलासा दी, सिर्फ वही मुझे बचा सकता है। मैंने मन-ही-मन प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, तू ही मुझे बचा सकता है, संभाल सकता है, मुझे आस्था और शक्ति दे सकता है। मैं तुझे अपना मन और जीवन सौंपने को तैयार हूँ।” परमेश्वर के वचनों के भजन पर विचार कर मुझे सच्ची शांति मिली, और मैंने अपनी बीमारी और मौत का डर मन से निकाल दिया। धीरे-धीरे मेरे बदन में थोड़ी-सी गरमाहट आई और मुझे पता भी नहीं चला कि कब 1 बज चुका है। खून चढ़ने के बाद सुबह तक मैं तरोताजा हो गई। मुझे बिस्तर पर बैठे देख डॉक्टर भी चौंक गया। उसने कहा : “कल तुम्हारी हालत पस्त थी; हैरान हूँ, तुमने रात कैसे निकाल दी!” डॉक्टर के मुँह से यह सुनकर मैंने बार-बार परमेश्वर को धन्यवाद दिया। अगर परमेश्वर के वचनों का मार्गदर्शन न होता तो मैं कभी नहीं बच पाती। यह सब परमेश्वर की छत्रछाया का कमाल है। उसके बाद डॉक्टर ने मुझे अगली जाँचों के लिए शहर के अस्पताल भेज दिया। मैंने मन-ही-मन सोचा : परमेश्वर ने कल मुझे इतनी खतरनाक हालत में बचाया, मुझे यकीन है कि मुझमें कोई गंभीर बीमारी नहीं निकलेगी।
अगले दिन जाँच कराने मैं किसी परिवार के साथ बड़े अस्पताल गई, तो पता चला कि मुझे अंतिम चरण का सर्वाइकल कैंसर है। बत्तख के अंडे जितनी बड़ी गाँठ बन चुकी थी और सर्जरी का सवाल ही नहीं उठता था। मेरी सर्जरी सफल नहीं हो सकती थी। जब मैंने उसे “अंतिम-चरण का सर्वाइकल कैंसर” कहते सुना, मेरे होश उड़ गए और मैं निढाल हो गई। मन-ही-मन सोचती रही : “कैंसर? मुझे कैंसर कैसे हो गया? कुछ अविश्वासी लोग कैंसर होने पर चंद महीने ही जी पाते हैं। क्या मैं इससे बच पाऊँगी?” वेदना और हताशा के कारण मैं किसी से बात तक नहीं करना चाहती थी। अस्पताल में बिस्तर पर पड़े-पड़े परमेश्वर पर अपनी करीब दस साल की आस्था के बारे में चिंतन करने लगी : जबसे मैंने परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा, मेरा परिवार मुझे सताता आया है और अविश्वासी तो मेरी हँसी उड़ाते और निंदा करते आए हैं। इन वर्षों के दौरान कलीसिया ने मुझे चाहे जो कर्तव्य सौंपा, मैंने हमेशा समर्पण किया। यह चाहे कितना ही कठिन या थकाऊ रहा हो, मैं परमेश्वर पर भरोसा कर इसे पूरा कर लेती थी। गिरफ्तार होने, सजा पाने और जेल जाने के बावजूद, एक बार भी परमेश्वर से विश्वासघात नहीं किया, और रिहा होने के बाद भी मैं सुसमाचार फैलाकर अपना कर्तव्य निभाती रही। मैं पहले ही इतने कठिन दौर से गुजर कर इतना ज्यादा कष्ट भोग चुकी थी, तो फिर मुझे लाइलाज बीमारी क्यों लगी? परमेश्वर ने मेरी सुरक्षा क्यों नहीं की? क्या परमेश्वर में मेरी आस्था खत्म होने वाली है? मैं न तो कुछ समझ पा रही थी, न इस तरह मरना स्वीकार पा रही थी। आँखों में शिकायत भरे आँसू बहने लगे और मैंने परमेश्वर से विनती की : “हे परमेश्वर, मैं मरना नहीं चाहती। अभी मर गई तो तुम्हारी महिमा और बड़े लाल अजगर के अंत का दिन कभी नहीं देख सकूँगी, और न ही राज्य के मनोरम दृश्य देख पाऊँगी। मैं अपने अंत की कल्पना करके ही थरथराने लगती हूँ। हे परमेश्वर, मेरी मदद कर, मेरा रोग हर ले!” तभी मैंने सोचा, मेरे शरीर से कितना ज्यादा खून बह गया था, किसी को भी मेरे बचने की उम्मीद नहीं थी, फिर भी परमेश्वर ने मेरा जीवन बचाया, और मैं उसके चमत्कारिक कर्म की साक्षी बनी। इसी सोच के साथ मैंने इलाज कराना चाहा।
मेरी गंभीर हालत देखते हुए डॉक्टरों ने मुझे एक साथ रेडिएशन और कीमोथेरेपी कराने की सलाह दी। कीमोथेरेपी से मुझे मितली होती थी और सिर चकराता था। इससे काफी दिक्कत होती थी, और चेहरा लाल पड़ जाता था। रेडिएशन के दौरान तो ऐसा लगता था मानो मेरे पूरे बदन पर सुइयाँ चुभो दी गई हों। एक साथ दोनों तरह के इलाज का दर्द असहनीय हो गया और मैं फिर से परमेश्वर से शिकायत कर उसे गलत समझने लगी : परमेश्वर का संरक्षण न पाने वाले अविश्वासियों को कैंसर होना तो समझ में आता है, मगर मैं तो परमेश्वर में आस्था रखती थी, मुझे यह लाइलाज रोग कैसे हुआ? परमेश्वर ने मेरी रक्षा नहीं की! अस्पताल में मेरा वार्ड तमाम तरह के कैंसर रोगियों से भरा पड़ा था और हर दो-चार दिन में किसी रोगी की लाश कमरे से बाहर ले जाई जाती थी। मैं आतंकित थी और डरती थी कि अगर मेरा रोग और बढ़ा तो किसी दिन मेरी लाश भी ऐसे ही बाहर लाई जाएगी। मैं दिन भर बाकी सारे कैंसर रोगियों में नहीं फँसना चाहती थी। दिन ब दिन उनकी कराहटें सुनना भारी पीड़ादायक था। इसलिए इलाज पूरा कराते ही मैं परमेश्वर के वचन पढ़ने किसी बहन के घर चली जाती थी। उसके साथ सभाओं में मैं परमेश्वर के वचनों के प्रति अपनी समझ सक्रिय होकर सुनाती थी, उसके साथ चर्चा करती थी कि सुसमाचार सुनने वाले भाई-बहनों की धारणाएँ कैसे दूर की जाए। मन-ही-मन सोचती थी, “अस्पताल से छुट्टी मिलते ही मैं सुसमाचार फैलाकर अपना कर्तव्य निभाना जारी रखूँगी। अगर मैं अधिक सभाओं में भाग लेती रही, परमेश्वर के वचन खाती-पीती रही और उसमें आस्था रखती रही तो वह मेरी रक्षा जरूर करेगा।” इलाज के दौरान मेरी एक रिश्तेदार मिलने आई और उसने मेरे पति और बच्चों को बता दिया कि उसका पति कैंसर से मरा था और मेरा कैंसर लाइलाज है। उसने कहा कि अस्पताल में इलाज कराने पर पैसा बहाने से अच्छा यह रहेगा कि मुझे कहीं घुमाने ले जाएँ और मुझे और पैसा दोनों को न खोया जाए। मेरे पति ने उसकी सलाह मानकर कहा कि वह मुझे घुमाने ले जा रहा है। उसने कहा कि मैं जहाँ चाहूँ, वहीं जा सकते हैं। लेकिन मेरे दिमाग में एक ही विचार था, “तो ये मेरा इलाज बीच में छोड़ देना चाहते हैं? अगर ऐसा हुआ तो क्या मैं मर नहीं जाऊँगी? क्या वास्तव में यही मेरा अंत है?” मुझे एक बार फिर वेदना ने घेर लिया। कुछ दिन बाद मेरे पति ने मेरे इलाज का खर्च चुकाने से मना कर दिया। मेरी बहन ने कहा : “तुम्हारे डॉक्टर ने कहा है कि तुम सिर्फ दो-तीन महीने बचोगी, इसलिए अपने पति से इलाज का पैसा माँगना बंद करो। अब तुम किसी इलाज से ठीक नहीं हो सकोगी। बस परमेश्वर पर भरोसा रखो—सिर्फ वही तुम्हें बचा सकता है!” बिस्तर पर लेटे-लेटे यह सुनकर सदमे से मुझे काठ मार गया, मुझमें यह सोचने की हिम्मत नहीं थी कि उसकी बात सच हो सकती है। मेरे पास जीने के लिए सिर्फ दो-तीन महीने बचे थे? मैंने खुद को बिल्कुल टूटा हुआ महसूस किया और मेरे चेहरे से आँसू ढुलकने लगे। डॉक्टर ने मुझे लाइलाज बता दिया था, और मेरे पति और बच्चों ने मेरा इलाज कराना छोड़ दिया था। तो फिर मौत का इंतजार करने के सिवाय क्या बचा था? मैंने इतने साल परमेश्वर पर विश्वास किया और इतना अधिक कष्ट सहा, सिर्फ इस उम्मीद से कि परमेश्वर मुझे मौत से बचाएगा और मैं राज्य में प्रवेश कर सकूँगी। मैंने कभी नहीं सोचा कि चीजें इस तरह खत्म हो जाएंगी। मैं बिल्कुल नाउम्मीद हो चुकी थी कि मुझे बचाया नहीं जा सकता। बाद के दिनों में मैंने आधे-अधूरे मन से प्रार्थना की और परमेश्वर के वचन पढ़ने के प्रति मेरा उत्साह घट गया। लगा कि मैं कभी भी मर सकती हूँ, प्रार्थना करने का अब कोई फायदा नहीं है। मैं बहुत ही निराश और नकारात्मक हो गई।
एक दिन अपने अस्पताल के वार्ड में लौटते समय मैंने दरवाजा खोलते ही एक बिस्तर पर कफन में लिपटी कैंसर रोगी की लाश देखी। घबराहट के मारे भागकर मैं दूसरे वार्ड में चली गई। उस मरीज को दो दिन पहले ही भर्ती किया गया था और वह मर चुका था। मुझे डर लगा कि जल्द ही एक दिन मुझे भी मौत का सामना करना पड़ेगा, इसलिए मैं प्रार्थना करने दौड़ी : “हे परमेश्वर, मैं बेहद डरी हुई हूँ, नकारात्मक और कमजोर हूँ। मैं किसी अविश्वासी की तरह नहीं मरना चाहती हूँ। मेरी रक्षा कर, मुझे आस्था और शक्ति दे, और अपनी इच्छा समझने दे।” प्रार्थना के बाद मुझे परमेश्वर के वचनों का यह भजन याद आया “परीक्षणों की पीड़ा एक आशीष है” : “निराश न हो, कमज़ोर न बनो, मैं तुम्हारे लिए चीज़ें स्पष्ट कर दूँगा। राज्य की राह इतनी आसान नहीं है; कुछ भी इतना सरल नहीं है! तुम चाहते हो कि आशीष आसानी से मिल जाएँ, है न? आज हर किसी को कठोर परीक्षणों का सामना करना होगा। बिना इन परीक्षणों के मुझे प्यार करने वाला तुम लोगों का दिल मजबूत नहीं होगा और तुम्हें मुझसे सच्चा प्यार नहीं होगा। यदि ये परीक्षण केवल मामूली परिस्थितियों से युक्त भी हों, तो भी सभी को इनसे गुज़रना होगा; अंतर केवल इतना है कि परीक्षणों की कठिनाई हर एक व्यक्ति के लिए अलग-अलग होगी। परीक्षण मेरे आशीष हैं, और तुममें से कितने मेरे सामने आकर घुटनों के बल गिड़गिड़ाकर मेरे आशीष माँगते हैं? तुम्हें हमेशा लगता है कि कुछ मांगलिक वचन ही मेरा आशीष होते हैं, किंतु तुम्हें यह नहीं लगता कि कड़वाहट भी मेरे आशीषों में से एक है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 41)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे दिलासा दी और बहुत भावुक कर दिया। उसके वचनों ने मुझे दिखाया कि राज्य में प्रवेश करना कोई सरल-सपाट रास्ता नहीं है, व्यक्ति को कड़वे परीक्षण झेलने पड़ते हैं। मेरी बीमारी परमेश्वर से मिला एक और परीक्षण और आशीष थी। मैं परमेश्वर में आस्था नहीं छोड़ सकती थी, बल्कि मुझे इस बीमारी में परमेश्वर की इच्छा खोजनी थी और उसके बारे में शिकायत नहीं करनी थी, और मुझे परमेश्वर की गवाही में दृढ़ रहना था। परमेश्वर की इच्छा समझने के बाद मेरी निराशा घट गई और अब मेरे पास परमेश्वर पर निर्भर रहने की आस्था थी। यह देखकर कि परमेश्वर ने मुझे अभी तक मरने नहीं दिया है, मैं फुर्सत में उसके और अधिक वचन पढ़ने लगी और उस बहन के साथ सभा करने लगी।
उसके घर पर मैं परमेश्वर के वचनों का यह अंश अक्सर पढ़ती थी, “पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान।” एक खास अंश ने परमेश्वर में आस्था को लेकर मेरे विचारों के बारे में कुछ नई जानकारी दी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? तुम लोगों के बीच कितने सारे वचन कहे गए हैं? क्या तुम लोगों के बीच केवल थोड़ा-सा ही कार्य किया गया है? मैंने तुम लोगों के बीच कितनी आपूर्ति की है? तो फिर तुमने इसे प्राप्त क्यों नहीं किया? तुम्हें किस बात की शिकायत है? क्या यह बात नहीं है कि तुमने इसलिए कुछ भी प्राप्त नहीं किया है क्योंकि तुम देह से बहुत अधिक प्रेम करते हो? क्योंकि तुम्हारे विचार बहुत ज्यादा निरर्थक हैं? क्योंकि तुम बहुत ज्यादा मूर्ख हो? यदि तुम इन आशीषों को प्राप्त करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम परमेश्वर को दोष दोगे कि उसने तुम्हें नहीं बचाया? तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है : तुम्हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य)। मैंने परमेश्वर के वचनों में यह अंश भी पढ़ा : “उनके साथ इतनी निकटता से जुड़े उन लाभों के अतिरिक्त, परमेश्वर को कभी नहीं समझने वाले लोगों द्वारा उसके लिए इतना कुछ दिए जाने का क्या कोई अन्य कारण हो सकता है? इसमें हमें पूर्व की एक अज्ञात समस्या का पता चलता है : मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष देने वाले और लेने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह कर्मचारी और नियोक्ता के मध्य के संबंध के समान है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कार्य करता है। इस प्रकार के संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेनदेन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझदारी नहीं होती, केवल दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। न्याय को लेकर परमेश्वर के वचन मेरे दिल में खंजर की तरह उतरे। मानो परमेश्वर मेरा आमने-सामने न्याय कर रहा है। मैं आत्म-चिंतन करने लगी। एक ईसाई बनने के बाद मैं हमेशा अनुग्रह पाना चाहती थी। मैं सोचती थी कि जब तक मैं प्रभु पर आस्था रखूँगी, वह मुझे सुरक्षित रखेगा और संकट से बचाएगा। परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के बाद, यह जानकर भी कि परमेश्वर रोगियों को ठीक नहीं करता, दानवों को नहीं भगाता और अनुग्रह के युग की भाँति चमत्कार नहीं दिखाता, बल्कि लोगों से सत्य का अनुसरण कराता है, उन्हें न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन से गुजारता है, ताकि उनके भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध कर सके, जबकि मैं आशीष पाने की अनावश्यक इच्छा पाले बैठी थी। मानती थी कि जब तक अनवरत अपनी आस्था का अनुसरण करती हूँ, मैं सभी आपदाओं और बीमारियों से बची रहूँगी, और अगर बहुत बीमार पड़ी भी तो परमेश्वर मुझे बचा लेगा और मरने नहीं देगा। आशीष और अनुग्रह पाने के लिए मैंने खुद को उत्साहपूर्वक खपाया। मेरे पति ने चाहे जैसे मुझे सताया या रोका हो, या मेरे रिश्तेदारों ने जैसे भी मुझे कलंकित किया या त्यागा हो, मैं उनके सामने बेबस नहीं रही। गिरफ्तार करके जेल भेजे जाने के बावजूद मैंने परमेश्वर से विश्वासघात नहीं किया। रिहा होते ही मैंने अपना कर्तव्य निभाना जारी रखा। मुझे लगता था कि इस तरह अनुसरण से मैं बचा ली जाऊँगी और सुरक्षित रहूँगी। खासकर इस बार जब लगा कि मैं अंतिम साँसें गिन रही हूँ और मेरी पुकार सुनकर परमेश्वर ने मुझे मौत की कगार से निकाल दिया, तो मैं और भी आश्वस्त हो गई कि मेरे सामने कैसी भी मुसीबत आए, परमेश्वर मेरी मदद करेगा। जब मुझमें कैंसर निकला और मेरे परिवार ने मेरा इलाज कराने से हाथ खड़े कर दिए, तो मैंने परमेश्वर को अपनी अंतिम उम्मीद समझा, और यह सोचा कि अगर मैं सभाओं में शामिल होती रही और परमेश्वर के वचन पढ़ती रही, और अधिक प्रार्थना कर परमेश्वर पर निर्भर रही और अच्छे ढंग से अपना कर्तव्य निभाती रही तो परमेश्वर मेरी आस्था और समर्पण को जरूर देखेगा, और वह शायद मेरी रक्षा कर मुझे जीने देगा। परमेश्वर के वचनों के खुलासे से मैंने देखा कि भले ही मैं कुछ चीजों को त्यागने, खुद को खपाने और उत्साह से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम थी, लेकिन मैं सत्य का अनुसरण नहीं कर रही थी, अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़कर शुद्ध नहीं बन रही थी, बल्कि खुद को खपाने और कीमतें चुकाने के बदले में परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष पाना चाहती थी, सोच रही थी कि परमेश्वर मुझे इस महा आपदा में मौत से बचा लेगा और मुझे शानदार मंजिल मिल जाएगी। जब परमेश्वर ने मुझे बचाया तो मैंने उसे निरंतर धन्यवाद दिया और उसकी स्तुति की, लेकिन जब मुझे यह लाइलाज बीमारी लगी तो मुझे गलत लगा, मैंने चुपचाप परमेश्वर का विरोध किया और अन्यायी होने के लिए उसे दोष भी दिया। अपनी आस्था में मैं परमेश्वर से सिर्फ फायदे हथियाना चाहती थी और यह नहीं समझती थी सत्य का अनुसरण कितना महत्वपूर्ण है। जब मेरा सामना ऐसी बीमारी से हुआ जिसके कारण मेरा अंत और मेरी मंजिल खतरे में थी, मैं परमेश्वर पर आस्था खो बैठी। परमेश्वर के वचनों और प्रार्थना में मेरी रुचि नहीं रही, मैंने तो परमेश्वर को गलत समझकर उसे दोषी भी ठहराया। मैंने देखा कि परमेश्वर के प्रति मुझमें न तो रत्ती भर ईमानदारी थी, न ही सच्चा प्रेम था, मैं बस उसका इस्तेमाल कर रही थी, उसे छल रही थी, उसके साथ “व्यापार कर रही थी।” मैं खुद को विश्वासी कैसे मान लिया? अगर मैं इसी तरह अनुसरण करती रहती तो भले ही मेरी जान बच जाती लेकिन मैं परमेश्वर से विद्रोह और प्रतिरोध कर रही होती। इस तरह जीने का मूल्य ही क्या था? यह सोचकर मैं बहुत शर्मिंदा हो गई। मैं परमेश्वर की कितनी ऋणी थी।
बाद में परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर मेरी समझ और भी बढ़ गई। परमेश्वर कहते हैं : “परमेश्वर से लोगों की माँगों की समस्या का समाधान करने से अधिक मुश्किल और कुछ नहीं है। जब परमेश्वर के कार्यकलाप तुम्हारी सोच के अनुरूप नहीं होते या वे तुम्हारी सोच के अनुसार नहीं किए गए होते तो तुम कदाचित उसका विरोध कर सकते हो—जो यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि अपनी प्रकृति में तुम परमेश्वर विरोधी हो। इस समस्या की पहचान केवल बार-बार आत्म-चिंतन करने और सत्य की समझ पाने से हो सकती है, और इसका पूर्ण समाधान केवल सत्य का अनुसरण करने से हो सकता है। जब लोग सत्य को नहीं समझते तो परमेश्वर से कई माँगें कर बैठते हैं, जबकि जब वे सत्य को वास्तव में समझते हैं तो कोई माँग नहीं करते हैं; उन्हें सिर्फ यह लगता है कि उन्होंने परमेश्वर को पर्याप्त रूप से संतुष्ट नहीं किया है, कि वे परमेश्वर के प्रति पर्याप्त समर्पण नहीं करते हैं। लोगों का हमेशा परमेश्वर से माँगें करना उनकी भ्रष्ट प्रकृति को दिखाता है। अगर तुम खुद को नहीं जान सकते और इस मामले में सच्चे मन से प्रायश्चित्त नहीं कर सकते तो परमेश्वर में विश्वास के अपने मार्ग में तुम छिपे हुए खतरों और जोखिम का सामना करोगे। तुम साधारण चीजों को तो वश में कर सकते हो, लेकिन जब तुम्हारे भाग्य, संभावनाओं और मंजिल जैसे महत्वपूर्ण मामले आएंगे तो शायद तुम इन्हें वश में नहीं कर पाओगे। उस समय, अगर तुममें अभी भी सत्य की कमी होगी तो तुम फिर से अपने पुराने तरीकों पर उतर आओगे और इस तरह नष्ट किए जाने वालों में शामिल हो जाओगे। अनेक लोग हमेशा इसी तरह अनुसरण और विश्वास करते आए हैं; जिस दौरान उन्होंने परमेश्वर का अनुसरण किया, वे अच्छा व्यवहार करते रहे लेकिन इससे यह तय नहीं होता कि भविष्य में क्या होगा। ऐसा इसलिए है कि तुम मनुष्य की घातक कमजोरी बिल्कुल नहीं जानते या मनुष्य की प्रकृति में निहित उन चीजों को नहीं जानते जो परमेश्वर का विरोध कर सकती हैं, और तुम इनसे तब तक अनभिज्ञ रहते हो जब तक ये तुम्हें तबाही के कगार पर लाकर खड़ा नहीं कर देतीं। चूँकि परमेश्वर का विरोध करने की तुम्हारी प्रकृति का निराकरण नहीं होता है, यह तुम्हें तबाही की ओर ले जाती है, और संभव है कि जब तुम्हारा सफर पूरा हो जाए और परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाए, तब तुम वह कर दोगे जिससे परमेश्वर का सर्वाधिक विरोध होता हो और वह कह दोगे जिससे उसकी निंदा होती हो, और इस प्रकार तुम निंदित और बहिष्कृत कर दिए जाओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि मैं बीमारी लगने के बाद से ही मौत से डरी हुई थी, और मेरी यह उत्कट इच्छा थी कि परमेश्वर मुझे मौत से दूर रखे। क्या यह परमेश्वर से माँग करना नहीं है? मैंने हमेशा यही सोचा कि परमेश्वर पर विश्वास करने के कारण उसे मुझे हर घड़ी बचाना चाहिए, और मुझसे ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, जैसा वह किसी अविश्वासी से करेगा। अंतिम चरण के कैंसर का पता चलने के बाद जब देखा कि परमेश्वर ने मेरी अतिरिक्त सुरक्षा नहीं की तो मैं समर्पण कर ही नहीं पाई। मैंने अपने त्याग, खुद को खपाने और जेल में कष्ट सहने को पूँजी मान लिया ताकि परमेश्वर के सामने अपनी बात रखकर शर्तें मनवा सकूँ और परमेश्वर से अपनी बीमारी दूर करवा लूँ। जब परमेश्वर ने मेरी माँगें पूरी नहीं कीं तो मैंने उससे बहस और लड़ाई की। लगा कि इतने साल के विश्वास के बावजूद मुझमें परमेश्वर के लिए रत्ती भर भी श्रद्धा नहीं थी। मुझमें मानवता और विवेक की इतनी कमी थी। मैंने सोचा कि अय्यूब ने कैसे जीवनभर परमेश्वर में श्रद्धा रखी और बुराई से दूर रहा। जब परमेश्वर ने उसकी परीक्षा ली और वह अपनी संपत्ति और बच्चे खो बैठा और उसका बदन फोड़ों से भर गया, तो उसने एक बार भी परमेश्वर से शिकायत नहीं की या खुद को ठीक करने की माँग नहीं की। अय्यूब बहुत ही रहमदिल और विवेकवान था। जहाँ तक मेरी बात है, मौत सामने देखकर मेरा दिल शिकायतों और भ्राँतियों से भर गया, और मैं यह अनुचित माँग करने लगी कि परमेश्वर मेरी जान बचा ले। जब शुरू में इतना सारा खून बहने से मेरी जान खतरे में थी, तो परमेश्वर के संरक्षण और देख-रेख से ही मैं बची—उसने मुझे अपना अनुग्रह देकर अपना अद्भुत कर्म देखने दिया। यही नहीं, बरसों विश्वास करते हुए मुझे परमेश्वर के वचनों से काफी सिंचन और पोषण मिला था, मैं कई सत्य और रहस्य जान चुकी थी। मैंने जितना कभी माँगा या सोचा, परमेश्वर ने उससे ज्यादा ही दिया था, लेकिन मैं अभी भी संतुष्ट नहीं थी। जब मुझे कैंसर होने का पता चला, मैंने परमेश्वर से अनुचित माँगें कीं, उससे कहा कि वह मुझे जीने दे। मैंने जाना कि मेरी प्रकृति बहुत ही स्वार्थी है। परमेश्वर सृष्टि का प्रभु है, तो फिर मुझ जैसी तुच्छ, विद्रोही, प्रतिरोधी और भ्रष्टता से भरपूर इंसान को परमेश्वर से माँग करने का अधिकार ही क्या है? मैंने देखा कि मुझमें जरा-सी भी आत्म-जागृति नहीं है, कि मुझमें अहंकार है और परमेश्वर के लिए लेशमात्र भी श्रद्धा नहीं है। जब परमेश्वर के कार्यकलाप मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं रहे तो मैंने नखरे दिखाए, बहस की और विरोध किया। मैंने अपना दुष्ट स्वभाव दिखाया और अगर मैंने अपना भ्रष्ट स्वभाव न बदला तो मैं परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर दूँगी और उसके धार्मिक दंड की भागी बनूँगी। मैं डर गई और परमेश्वर से कोई भी अनुचित माँग करने की हिम्मत न कर सकी, इसलिए मैंने उससे प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, तुम्हारे न्याय और ताड़ना के लिए धन्यवाद, जिससे मैंने जाना कि मैं कितनी अविवेकी हूँ। हे परमेश्वर! मैं पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ, मेरी हालत चाहे सुधरे या न सुधरे, मैं तुम्हारे आयोजनों के प्रति समर्पण करूँगी।” यह एहसास होने के बाद मुझे थोड़ा और सुकून मिला।
अस्पताल के बिस्तर पर लेटे-लेटे मैंने सोचा कि बीमार पड़ने के बाद मैंने इतनी अनुचित माँगें कैसे कर डालीं। चिंतन और खोज के जरिए मैंने जाना कि इसका मुख्य कारण मेरा परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं समझ पाना था। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “धार्मिकता किसी भी तरह से निष्पक्षता या तर्कसंगतता नहीं है; यह समतावाद नहीं है, या तुम्हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्हें तुम्हारे हक का हिस्सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है, यह केवल निष्पक्ष और विवेकपूर्ण होना है। बहुत कम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान पाते हैं। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को खत्म कर देता : क्या यह धार्मिक होता? वास्तव में, यह धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्यों कहा जाता है? लोग धार्मिकता को कैसे देखते हैं? अगर कोई चीज लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्वर धार्मिक है। अगर परमेश्वर ने पहले तभी अय्यूब को नष्ट कर दिया होता, तो लोगों ने यह न कहा होता कि वह धार्मिक है। हालाँकि, लोग भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, वे बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, उन्हें नष्ट करते समय क्या परमेश्वर को इसका औचित्य सिद्ध करना पड़ता है? क्या उसे लोगों को बतलाना चाहिए कि वह ऐसा किस आधार पर करता है? क्या परमेश्वर को लोगों को बताना चाहिए कि उसने कौन से नियम बनाए हैं? इसकी आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर की नजरों में, जो व्यक्ति भ्रष्ट है, और जो परमेश्वर का विरोध कर सकता है, वह व्यक्ति बेकार है; लेकिन परमेश्वर चाहे जैसे उससे निपटे, वह उचित ही होगा, और यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। अगर तुम लोग परमेश्वर की निगाहों में अप्रिय होते, और अगर वह कहता कि तुम्हारी गवाही के बाद तुम उसके किसी काम के नहीं हो और इसलिए उसने तुम लोगों को नष्ट कर दिया होता, तब भी क्या यह उसकी धार्मिकता होती? हाँ, होती। तुम इसे तथ्यों से इस समय भले न पहचान सको, लेकिन तुम्हें धर्म-सिद्धांत में इसे समझना ही चाहिए। तुम लोग क्या कहोगे—परमेश्वर द्वारा शैतान का विनाश क्या उसकी धार्मिकता की अभिव्यक्ति है? (हाँ।) अगर उसने शैतान को बने रहने दिया होता, तब तुम क्या कहते? तुम हाँ कहने का दुस्साहस तो नहीं करते? परमेश्वर का सार धार्मिकता है। हालाँकि वह जो करता है उसे बूझना आसान नहीं है, तब भी वह जो कुछ भी करता है वह सब धार्मिक है; बात सिर्फ इतनी है कि लोग समझते नहीं हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से जाना कि मैं कैसे परमेश्वर की धार्मिकता का अर्थ अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार निकालती थी। मुझे लगता था कि मैं परमेश्वर की विश्वासी हूँ, मैंने भारी कीमत चुकाई है, खुद को खपाया है, परमेश्वर से विश्वासघात किए बिना जेल में कष्ट भोगे हैं, उसकी गवाही में अडिग रही हूँ, इसलिए उसे मुझे लाइलाज रोग से बचाना चाहिए। अविश्वासियों को परमेश्वर नहीं बचाता, और उन्हें कैंसर होना सामान्य बात है। मैं मानती थी कि यही परमेश्वर की धार्मिकता है। जब परमेश्वर ने मेरी धारणाओं के अनुसार कार्य नहीं किया और मुझे लाइलाज रोग लग गया, तो लगा कि मैंने खुद को जितना भी खपाया, मुझे उसका सिला नहीं मिला, कि परमेश्वर ने मेरे साथ गलत किया है, इसलिए मेरा दिल परमेश्वर के प्रति शिकायतों और गलतफहमियों से भर गया। मैंने जान लिया कि परमेश्वर की धार्मिकता को लेकर मेरी समझ और अविश्वासियों की लेन-देन वाली समझ में कोई फर्क नहीं है। मुझे लगता था कि मुझे मेरे सारे कार्यों का प्रतिफल मिलना चाहिए, और जिसकी मैं हकदार थी, वह न मिलना अनुचित था। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैंने जाना कि परमेश्वर का सार ही धार्मिक है। परमेश्वर के हर कार्य के पीछे उसकी इच्छा और बुद्धि होती है। मैं सतही आभासों और धारणाओं के आधार पर अपनी स्थिति का आकलन नहीं कर सकती थी। यह गलत होगा, और मुमकिन है कि मैं परमेश्वर की आलोचना और प्रतिरोध करने लगूँ। मुझे लगा कि बीमार होना एक मुसीबत है, लेकिन इस बीमारी के पीछे परमेश्वर की इच्छा थी। अगर मैं इससे न गुजरती तो तो मुझे यह एहसास ही नहीं होता कि मुझमें मानवता और विवेक की कितनी कमी है। जैसे ही परमेश्वर के क्रियाकलाप मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं रहे, मैं बहस और विरोध करने लगी। मुझमें परमेश्वर के प्रति समर्पण और श्रद्धा नहीं थी। इस बीमारी के अनुभव ने मुझे मेरा असली आध्यात्मिक कद दिखा दिया और परमेश्वर से अनुचित माँगें त्यागने में मेरी मदद की। परमेश्वर का धन्यवाद! उसने चमत्कार कर दिया, वह वाकई बुद्धिमान है! अतीत में मैं परमेश्वर को नहीं जानती थी और उसके धार्मिक स्वभाव का आकलन अपने विचारों के आधार पर करती थी। मैं परमेश्वर के प्रति कितनी अंधी और अज्ञानी थी! परमेश्वर सारी सृष्टि का प्रभु है, लेकिन मैं तो एक तुच्छ, सृजित प्राणी हूँ—उसे जैसा ठीक लगे मुझसे वैसा पेश आना सही है। यही नहीं, मैं अपनी आस्था को लेनदेन समझती थी और परमेश्वर से मैंने अनुचित माँगें कीं। चाहे मुझे मरना ही पड़े, यह भी परमेश्वरी की धार्मिकता होगी—मुझे परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए थी। परमेश्वर चाहे जो फैसला करे, चाहे मैं जिऊँ या मरूँ, यह सब उचित होगा। मुझे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना था—मुझमें यह विवेक होना चाहिए था। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का कुछ ज्ञान मिलने के बाद मुझमें काफी स्पष्टता आ गई, और मैंने परमेश्वर के बारे में शिकायत करना और उसे गलत समझना बंद कर दिया। परमेश्वर मुझसे चाहे जैसे पेश आया, मैंने शिकायत नहीं की, मैं समर्पण करने में सक्षम थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़कर जाना कि अपनी नैतिकता से कैसे पेश आना चाहिए और मैंने मौत से डरना बंद कर दिया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “यदि कोई व्यक्ति इस संसार में कई दशकों तक जीवित रहा है और फिर भी नहीं जान पाया है कि मानव जीवन कहाँ से आता है, न ही यह समझ पाया है कि किसकी हथेली में मनुष्य का भाग्य निहित है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वह शान्ति से मृत्यु का सामना नहीं कर पाएगा। जिस व्यक्ति ने जीवन के कई दशकों का अनुभव करने के बाद सृजनकर्ता की संप्रभुता का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वह ऐसा व्यक्ति है जिसके पास जीवन के अर्थ और मूल्य की सही समझ है। ऐसे व्यक्ति के पास सृजनकर्ता की संप्रभुता के वास्तविक अनुभव और समझ के साथ जीवन के उद्देश्य का गहन ज्ञान है, और उससे भी बढ़कर, वह सृजनकर्ता के अधिकार के समक्ष समर्पण कर सकता है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के द्वारा मानवजाति के सृजन का अर्थ समझता है, वह समझता है कि मनुष्य को सृजनकर्ता की आराधना करनी चाहिए, कि जो कुछ भी मनुष्य के पास है, वह सृजनकर्ता से आता है और वह निकट भविष्य में ही किसी दिन उसके पास लौट जाएगा। ऐसा व्यक्ति समझता है कि सृजनकर्ता मनुष्य के जन्म की व्यवस्था करता है और मनुष्य की मृत्यु पर उसकी संप्रभुता है, और जीवन व मृत्यु दोनों सृजनकर्ता के अधिकार द्वारा पूर्वनियत हैं। इसलिए, जब कोई व्यक्ति वास्तव में इन बातों को समझ लेता है, तो वह शांति से मृत्यु का सामना करने, अपनी सारी संसारिक संपत्तियों को शांतिपूर्वक छोड़ने, और जो होने वाला है, उसे खुशी से स्वीकार व समर्पण करने, और सृजनकर्ता द्वारा व्यवस्थित जीवन के अंतिम मोड़ का स्वागत करने में सक्षम होगा न कि आँखें मूँदकर उससे डरेगा और संघर्ष करेगा। यदि कोई जीवन को सृजनकर्ता की संप्रभुता का अनुभव करने के एक अवसर के रूप में देखता है और उसके अधिकार को जानने लगता है, यदि कोई अपने जीवन को सृजित मनुष्य के रूप में अपना कर्तव्य निभाने और अपना ध्येय पूरा करने के एक दुर्लभ अवसर के रूप में देखता है, तो जीवन के बारे में उसके पास निश्चित ही सही दृष्टिकोण होगा, और वह ऐसा जीवन बिताएगा जिसमें सृजनकर्ता का आशीष और मार्गदर्शन होगा, वह निश्चित रूप से सृजनकर्ता की रोशनी में चलेगा, वह निश्चित रूप से सृजनकर्ता की संप्रभुता को जानेगा, वह निश्चित रूप से उसके प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेगा, और निश्चित रूप से उसके अद्भुत कर्मों और उसके अधिकार का गवाह बनेगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि, निश्चित रूप से, ऐसा व्यक्ति सृजनकर्ता के द्वारा प्रेम पाएगा और स्वीकार किया जाएगा, और केवल ऐसा व्यक्ति ही मृत्यु के प्रति एक शांत दृष्टिकोण रख सकता है, और जीवन के अंतिम मोड़ का स्वागत प्रसन्नतापूर्वक कर सकता है। एक ऐसा व्यक्ति जो स्पष्ट रूप से मृत्यु के प्रति इस प्रकार का दृष्टिकोण रखता था, वह अय्यूब था। अय्यूब जीवन के अंतिम मोड़ को प्रसन्नता से स्वीकार करने की स्थिति में था, और अपनी जीवन यात्रा को एक सहज अंत तक पहुँचाने के बाद, जीवन में अपने ध्येय को पूरा करने के बाद, वह सृजनकर्ता के पास लौट गया” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। “अय्यूब बिना किसी कष्ट के अपनी मृत्यु का सामना इसलिए कर पाया, क्योंकि वह जानता था कि मरने के बाद वह सृजनकर्ता के पास लौट जाएगा। जीवन में उसके लक्ष्यों और जो उसने हासिल किया था, उनकी वजह से ही सृजनकर्ता द्वारा उसके जीवन को वापस लेने के समय वह शान्ति से मृत्यु का सामना कर पाया, और इतना ही नहीं, शुद्ध और चिंतामुक्त होकर, वह सृजनकर्ता के सामने खड़ा हो पाया था” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचन खा-पीकर मैंने जाना कि मेरा जीवन परमेश्वर से आता है। परमेश्वर मेरे जीवन, मरण, आशीष और दुर्भाग्य का नियंता और व्यवस्थापक है। परमेश्वर से माँग करने की कोई तुक नहीं है। भले ही परमेश्वर मुझे मरने दे, तो भी इसके पीछे उसकी इच्छा होगी। मुझे इसका सामना सही ढंग से करना था, और सृजित प्राणी में यही विवेक होना चाहिए। मैंने अय्यूब के बारे में सोचा जिसने ताउम्र परमेश्वर पर श्रद्धा रखी और बुराई से दूरी बनाए रखी। उसके सामने चाहे जो भी स्थिति आई हो, वह परमेश्वर के नियम और व्यवस्थाओं को पहचान सका। उसने शिकायत नहीं की, परमेश्वर को गलत नहीं समझा, न कोई राय बनाई, न बहस की। वह समर्पण करने और खामोशी से अपनी मृत्यु का सामना करने में सक्षम था। मुझे परमेश्वर के प्रति अय्यूब की श्रद्धा का अनुकरण करना था, बुराई से दूर रहकर परमेश्वर के नियम और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना था। परमेश्वर ने मुझे जीवन दिया, इसलिए वह इसे जब भी वापस लेना चाहे, मुझे समर्पण करना था। जहाँ तक यह सवाल है कि जीवन के बाद मेरा क्या हश्र होगा, तो इसे भी मेरे इस जीवन के कार्यों के आधार पर परमेश्वर तय करेगा। परमेश्वर ने मुझे अभी तक मरने नहीं दिया, इसलिए मुझे अपना बचा हुआ समय पश्चात्ताप करने में लगाना था, परमेश्वर के प्रति श्रद्धा के मार्ग पर चलकर बुराई से दूर रहना था, सत्य का अनुसरण कर स्वभावगत बदलाव लाना था, और अपनी सर्वोत्तम क्षमता के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना था। यह बोध होने के बाद मेरे विचार स्पष्ट हो गए और मृत्यु का भय कम हो गया। मैंने खुद को परमेश्वर के और निकट पाया।
इस दौरान जैसे-जैसे मैं अपनी साथी बहनों के साथ सभाएँ करके परमेश्वर के वचन खाती-पीती रही, मेरी हालत में ठोस सुधार होता गया। मुझे अभी भी चार बार कीमोथेरेपी करवानी थी, लेकिन इसके दुष्प्रभाव बहुत भारी थे, इसलिए मैं सिर्फ रेडियोथेरेपी करवा सकी। लेकिन मुझे रेडियोथेरेपी पहले जितनी पीड़ादायक नहीं लगी। जानती थी कि मैं बचूँगी या नहीं, इसका अंतिम फैसला परमेश्वर को करना है, इसलिए मैंने अपनी बीमारी की चिंता नहीं की, और खाली समय में परमेश्वर के वचनों पर विचार करती और भजन सुनती। कुछ ही समय बाद, मैं ज्यादा से ज्यादा अच्छा महसूस करने लगी, मानो मैं पहले जैसे हो गई हूँ। दूसरे सभी रोगी कहने लगे कि मैं इतनी तंदुरुस्त दिखती हूँ कि उन्होंने मुझे नर्स समझा। अस्पताल में चालीस दिन रहने के बाद मुझे छुट्टी दे दी गई। अगली जाँच के दौरान डॉक्टर ने कहा कि मेरा सर्वाइकल ट्यूमर गायब हो चुका है। डॉक्टर के मुँह से यह सुनकर कि मेरा ट्यूमर खत्म हो चुका है, मुझे विश्वास ही नहीं हुआ, लगा कि मैंने कुछ गलत सुना है। मैंने डॉक्टर से दुबारा पूछा तो उसने पुष्टि की कि यह गायब हो चुका है। मैं खुशी से झूम उठी। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि बत्तख के अंडे के आकार का ट्यूमर बिल्कुल गायब हो सकता है। मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “मनुष्य का हृदय और आत्मा परमेश्वर के हाथ में हैं, उसके जीवन की हर चीज़ परमेश्वर की दृष्टि में रहती है। चाहे तुम यह मानो या न मानो, कोई भी और सभी चीज़ें, चाहे जीवित हों या मृत, परमेश्वर के विचारों के अनुसार ही जगह बदलेंगी, परिवर्तित, नवीनीकृत और गायब होंगी। परमेश्वर सभी चीज़ों को इसी तरीके से संचालित करता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। वास्तव में सभी प्राणी और चीजें परमेश्वर के हाथों में हैं। सभी जीवित या मृत चीजें परमेश्वर की संप्रभुता और प्रबंधन के अधीन हैं। परमेश्वर की इच्छा के अनुसार ही उनका आयोजन होता है। सबने कहा कि मैं नहीं बच पाऊँगी, डॉक्टर ने भी कह दिया कि इतने बड़े ट्यूमर का ऑपरेशन नहीं हो सकता, इसलिए मैंने सपने में भी नहीं सोचा कि यह पूरी तरह गायब हो सकता है। यह सब परमेश्वर की अद्भुत लीला है! मैं बहुत भावुक हो गई और दिल से महसूस किया कि मैं परमेश्वर की ऋणी हूँ। मैं इतनी विद्रोही और भ्रष्ट थी और मैंने परमेश्वर से अनुचित माँगें कीं, मैं बचाए जाने लायक नहीं थी। लेकिन परमेश्वर मेरे विद्रोहीपन और भ्रष्टता के आधार पर मुझसे पेश नहीं आया। इस उद्धार के लिए मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ। घर लौटने के बाद मैंने सुसमाचार फैलाकर अपना कर्तव्य निभाना जारी रखा, और धीरे-धीरे मेरी सेहत सुधर गई।
बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश मिला : “व्यक्ति का परिणाम या गंतव्य उसकी अपनी इच्छा से तय नहीं होता, न ही वह उसकी अपनी पसंद या कल्पनाओं से निर्धारित होता है। इसमें सृष्टिकर्ता, परमेश्वर, का निर्णय अंतिम होता है। ऐसे मामलों में लोगों को कैसे सहयोग करना चाहिए? लोगों के पास केवल एक मार्ग है, जिसे वे चुन सकते हैं : अगर वे सत्य खोजते हैं, सत्य को समझते हैं, परमेश्वर के वचनों का पालन करते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित हो पाते हैं और उद्धार प्राप्त करते हैं, केवल तभी अंततः उनके पास अच्छा अंत और अच्छा भाग्य होगा। अगर लोग इसके विपरीत करते हैं, तो उनकी संभावनाओं और नियति की कल्पना करना मुश्किल नहीं है। और इसलिए, इस मामले में इस बात पर ध्यान केंद्रित न करो कि परमेश्वर ने मनुष्य से क्या वादा किया है, मानवजाति के परिणाम के बारे में परमेश्वर क्या कहता है, या परमेश्वर ने मानवजाति के लिए क्या कुछ तैयार किया है। इनका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, ये परमेश्वर के काम हैं, इन्हें तुम ले या माँग नहीं सकते और न ही इनकी अदला-बदली कर सकते हो। एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, तुमसे जो कार्य अपेक्षित है उसे अपने पूरे दिलो-दिमाग और ताकत के साथ करना चाहिए। बाकी चीजें—संभावनाएँ और नियति, और मानवजाति के भावी गंतव्य से संबंधित चीजें—ऐसी चीजें नहीं है जिन्हें तुम तय कर सको, वे परमेश्वर के हाथों में हैं; यह सब सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन आता है, इसकी व्यवस्था वही करता है और इसका किसी भी सृजित प्राणी से कुछ लेना-देना नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, ‘अगर इसका हमसे कोई लेना-देना नहीं है, तो हमें यह क्यों बताते हो?’ भले ही इसका तुम लोगों से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन परमेश्वर से है। केवल परमेश्वर ही इन चीजों को जानता है, केवल परमेश्वर ही इनके बारे में बात कर सकता है, और केवल परमेश्वर ही मानवजाति से इन चीजों का वादा करने का हकदार है। और अगर परमेश्वर इन्हें जानता है, तो क्या परमेश्वर को इनके बारे में बात नहीं करनी चाहिए? तुम्हारा अपनी संभावनाओं और नियति का अनुसरण करना एक गलती है, जब तुम नहीं जानते कि वे क्या हैं। परमेश्वर ने तुम्हें इनका अनुसरण करने को नहीं कहा, वह तुम्हें सिर्फ बता रहा था; अगर तुम गलती से यह मान बैठो कि परमेश्वर तुम्हें इसे अपने अनुसरण का लक्ष्य बनाने को कह रहा था, तो तुममें विवेक का नितांत अभाव है और तुम्हारे पास सामान्य मानव का दिमाग नहीं है। परमेश्वर जिन चीजों का वादा करता है, उन सबसे अवगत होना ही पर्याप्त है। तुम्हें एक तथ्य स्वीकार करना चाहिए : चाहे वह किसी भी तरह का वादा हो, चाहे वह अच्छा हो या साधारण, चाहे वह सुखद हो या अरुचिकर, सब कुछ सृष्टिकर्ता की संप्रभुता, व्यवस्थाओं और निर्धारणों के दायरे में आता है। केवल सृष्टिकर्ता द्वारा इंगित सही दिशा और मार्ग पर चलना और इन्हीं के अनुसार अनुसरण में लगे रहना ही सृजित प्राणी का कर्तव्य और दायित्व है। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि अंततः तुम्हें क्या प्राप्त होता है, और परमेश्वर के किन वादों में से तुम्हें हिस्सा मिलता है, यह सब तुम्हारे अनुसरण पर, तुम्हारे द्वारा लिए जाने वाले मार्ग पर और सृष्टिकर्ता की संप्रभुता पर आधारित है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग नौ))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मेरी अंतिम परिणति और मंजिल प्रार्थनाओं से तय नहीं होगी, और परमेश्वर के साथ लेन-देन के जरिये हासिल नहीं होगी। बल्कि परमेश्वर मेरा अंतिम परिणाम मेरे अनुसरण, मेरे क्रियाकलापों और मेरे मार्ग के आधार पर तय करेगा। लेकिन मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया था और मैं परमेश्वर के स्वभाव को नहीं समझती थी। जब देखा कि परमेश्वर लोगों को शानदार मंजिल दे रहा है, तो मैंने सोचा कि जब तक मैं मेहनत से अनुसरण करती रही, अपना कर्तव्य निभाती रही, कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम रही, और चाहे जिस किसी अत्याचार और कठिनाई का सामना करना पड़े, अपना कर्तव्य निभाती रही तो मैं बचा ली जाऊँगी और जीवित रहूँगी। इतने वर्षों तक मैं अपनी मान्यताओं और इच्छाओं के आधार पर अपने परिणाम और मंजिल के लिए निरंतर खोज और प्रयास करती आई थी। मैं पौलुस की राह पर चल रही थी। अगर मैं ऐसा ही करती रहती, तो मुझे न सिर्फ अच्छी मंजिल नहीं मिलती, मुझे उजागर करके निकाल दिया जाता क्योंकि मेरा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध नहीं हुआ था। मैं अंततः कैंसर से उबर चुकी हूँ। परमेश्वर ने मुझे मरने नहीं दिया, बल्कि मुझे पश्चात्ताप का एक मौका दिया है। यह परमेश्वर का उद्धार है! मैंने मन-ही-मन सोचा, “मुझे आगे चलकर अपने कर्तव्य में सत्य का अनुसरण करना और स्वभावगत बदलाव लाना होगा। मैं आशीष के बदले परमेश्वर से लेन-देन करने में नहीं लगी रह सकती। मुझे मानवता और विवेक संपन्न व्यक्ति होना चाहिए जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करे। परमेश्वर मेरे लिए चाहे अच्छे परिणाम की व्यवस्था करे या बुरे, यह फैसला परमेश्वर को करना है। मुझे तो सत्य और स्वभावगत बदलाव के लिए प्रयास करना है।”
नौ साल बीत चुके हैं, और मेरी बीमारी दुबारा कभी नहीं लौटी। इस अनुभव के जरिये मैंने जाना कि भले ही इस बीमारी ने मेरे जीवन को खतरे में डाल दिया, परमेश्वर ने कभी भी मुझसे मेरा जीवन या मेरा भविष्य नहीं छीनना चाहा। परमेश्वर इस बीमारी का इस्तेमाल मुझे शुद्ध करने और बदलने में कर रहा था, मेरी आस्था की अशुद्धियाँ उजागर कर रहा था और मेरी कुछ बेतुकी धारणाएँ बदल रहा था। इसने मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता का सच्चा ज्ञान और अनुभव पाने के साथ ही जीवन और मृत्यु के प्रति सही रवैया अपनाकर समर्पण करने में मदद की। मेरे लिए तो यह बीमारी मुझ पर अनुग्रह और मेरा उद्धार करने का परमेश्वर का तरीका थी। ठीक जैसे परमेश्वर कहता है : “यदि किसी के हृदय में वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास है, तो उसे सबसे पहले यह जान लेना चाहिए कि व्यक्ति का जीवनकाल परमेश्वर के हाथों में है। व्यक्ति के जन्म और मृत्यु का समय परमेश्वर ने पूर्व नियत किया है। जब परमेश्वर लोगों को बीमारी देता है, तो उसके पीछे कोई कारण होता है—उसका अर्थ होता है। यह उन्हें बीमारी जैसा लगता है, लेकिन वास्तव में यह बीमारी नहीं, अनुग्रह है। लोगों को पहले इस तथ्य को पहचानना चाहिए और इसके बारे में सुनिश्चित होना चाहिए, और इसे गंभीरता से लेना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)।
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