बुढ़ापे में और अधिक सत्य का अनुसरण करो
मैं एक ईसाई परिवार में पैदा हुई, और मैंने 60 की उम्र में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। मैं कितनी भाग्यशाली थी जो मुझे अंत के दिनों में प्रभु का स्वागत करने और परमेश्वर के आखिरी समय के कार्य को स्वीकारने का मौका मिला, मेरा बचाए जाने और राज्य में प्रवेश करने का सपना जल्द ही पूरा होने वाला था। अगर मैं कड़ी मेहनत से अपना कर्तव्य निभाऊँ और त्याग करूँ, तो मेरे पास परमेश्वर का उद्धार पाने का मौका होगा। इसके बाद, कलीसिया मुझे जो भी कर्तव्य सौंपती मैं उसे जी-जान से पूरा करती, और 70 की उम्र में भी, मैं अपनी बाइक से कलीसिया के लिए कुछ छोटे-मोटे काम कर पाती थी। कर्तव्य निभाते हुए सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती थी, कभी थकती नहीं थी। मुझे खुशी थी कि मैं अब भी कर्तव्य निभा सकती थी। जैसे-जैसे मैं बूढ़ी होती गई, तो इसका मेरे शरीर पर असर दिखने लगा और मैं पहले की तरह तंदुरुस्त नहीं थी। मेरी सेहत को देखते हुए, कलीसिया ने मुझे घर पर ही मेजबानी का कर्तव्य सौंप दिया। मुझे थोड़ी निराशा हुई। बढ़ती उम्र के साथ, मेरी आँखें कमजोर हो गई थीं, और अब बाइक से कर्तव्य निभाने नहीं जा सकती थी। मैं सिर्फ मेजबानी का कर्तव्य निभा सकती थी। बढ़ती उम्र के साथ अगर मैं कोई भी कर्तव्य नहीं निभा पाई, तो क्या मुझे तब भी बचाया जाएगा? मैंने सोचा कि अगर मैं थोड़ी जवान होती तो कितना अच्छा होता, मुझे उन जवान भाई-बहनों से बड़ी ईर्ष्या होती थी जो परमेश्वर के लिए कहीं भी जाकर काम कर सकते थे।
मार्च 2022 में, कलीसिया अगुआ ने मुझे बहन यू शिन की मदद के लिए भेजा था। वह 78 साल की थी और अपनी सेहत के कारण उसे काम करने में दिक्कत आ रही थी, वह कोई कर्तव्य नहीं निभा पा रही थी। उनकी हालत देखकर मैं बहुत दुखी और निराश हुई। मैं भी अस्सी साल की थी, बहन यू शिन से बड़ी ही थी, मेरी सेहत पहले जैसी नहीं थी, और क्या पता किसी दिन मैं भी बीमार पड़ जाऊँ और कर्तव्य न निभा पाऊँ, फिर मैं किस काम की रहूँगी? अगर मैं कोई कर्तव्य ही नहीं निभा पाऊँगी तो क्या मेरे उद्धार पाने की कोई आशा होगी? इस बारे में जितना सोचती उतना ही ज्यादा दुखी होती। फिर मैं भी बीमार पड़ गई। एक दिन, जब मैं आधी रात को बाथरूम जाने के लिए उठा तो मेरा सिर घूमने लगा, और सुबह तक, मैं बिस्तर से उठने लायक भी न रही। सिर इतना अधिक घूम रहा था कि आँखें नहीं खुल रही थीं। उल्टियों और दस्त के कारण बेहाल हो गई थी, पानी तक नहीं पच रहा था। मेरे पति ने मेरा ख्याल रखने के लिए हमारी बेटी को फोन करके बुलाया, फिर दो दिनों बाद, मेरी हालत बेहतर होने लगी। मैं अपने कर्तव्य में अटकी नहीं थी, पर मैं बहुत कमजोर पड़ गई थी, मुझमें कुछ भी करने की ताकत नहीं बची थी। खाना नहीं पच रहा था, चक्कर और उल्टी जैसा लग रहा था। मुझे चिंता थी, कि बूढ़ी होने और दिन-ब-दिन सेहत खराब होने से, अगर मैं फिर से उसी तरह बीमार पड़ा, तो क्या जल्दी ठीक हो पाऊँगी? अगर मैं जल्दी ठीक नहीं हुई, और मेरा ख्याल रखने के लिए किसी और की जरूरत पड़ी, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी, फिर क्या मैं बेकार नहीं कहलाऊँगी? क्या मैं बिना कर्तव्य निभाए राज्य में प्रवेश कर सकती हूँ? अगर मैं बस थोड़ा जवान होती तो कितना अच्छा होता, जैसा मैं 20 साल पहले हुआ करती थी, जब मैंने इस चरण का कार्य स्वीकारा ही था, मुझे किसी बात का डर नहीं था। कलीसिया मुझे जो भी कर्तव्य सौंपती, चाहे वह पास हो या दूर, मैं उसे पूरा कर देता। कर्तव्य निभाने के साथ, मुझे आशीष पाने की उम्मीद भी ज्यादा थी। पर मैं वक्त नहीं बदल सकती थी और अब किसी काम की नहीं थी। तो मैंने बस किसी तरह अपने दिन गुजारे। अनजाने में ही, मैं नकारात्मकता और गलतफहमी की हालत में जीने लगी थी। मेरी स्थिति बदतर होती जा रही थी। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़ने की इच्छा खो दी और मेरा कुछ करने का मन भी नहीं करता था। मैं पहले की तरह दिल लगाकर अपना कर्तव्य नहीं निभाती थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर! अब मैं बूढ़ी हो गई हूँ और कई कर्तव्य नहीं निभा सकती, तो राज्य में प्रवेश करने और बचाए जाने की मेरी कोई उम्मीद नहीं बची है। मैं बहुत निराश हूँ। हे परमेश्वर, मुझे आस्था दो और मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मेरी बढ़ती उम्र मुझे रोक न सके और मैं तुम्हारी इच्छा समझकर, इस दशा से बाहर निकल सकूँ।”
परमेश्वर के कुछ वचन पढ़ने के बाद मेरी स्थिति बेहतर होने लगी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “भाई-बहनों के बीच गैर-विश्वासियों के अलावा 60 से लेकर 80 या 90 वर्ष तक की उम्र के बड़े-बूढ़े भी हैं, जो अपनी बढ़ी हुई उम्र के कारण भी कुछ मुश्किलों का अनुभव करते हैं। ज्यादा उम्र होने पर भी जरूरी नहीं कि उनकी सोच सही या तार्किक ही हो, और उनके विचार और नजरिये सत्य के अनुरूप हों। इन बड़े-बूढ़ों को भी वही समस्याएँ होती हैं, और वे हमेशा चिंता करते हैं, ‘अब मेरी सेहत उतनी अच्छी नहीं रही, और मैं कौन-से कर्तव्य निभा पाऊँगा वे भी सीमित हो गए हैं। अगर मैं बस यह छोटा-सा कर्तव्य निभाऊँगा तो क्या परमेश्वर मुझे याद रखेगा? कभी-कभी मैं बीमार पड़ जाता हूँ, और मुझे अपनी देखभाल के लिए किसी की जरूरत पड़ती है। जब मेरी देखभाल के लिए कोई नहीं होता, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बूढ़ा हूँ, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे याद नहीं रहते, और सत्य को समझना मेरे लिए कठिन होता है। सत्य पर संगति करते समय मैं उलझे हुए और अतार्किक ढंग से बोलता हूँ, और मेरे पास साझा करने लायक कोई अनुभव नहीं होते। मैं बूढ़ा हूँ, मुझमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं है, मेरी दृष्टि बहुत स्पष्ट नहीं है, और मैं अब शक्तिशाली नहीं हूँ। मेरे लिए सब कुछ मुश्किल होता है। न सिर्फ मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, बल्कि मैं आसानी से चीजें भूल जाता हूँ, गलत समझ लेता हूँ। कभी-कभी मैं भ्रमित हो जाता हूँ, और कलीसिया और अपने भाई-बहनों के लिए समस्याएँ खड़ी कर देता हूँ। मैं उद्धार प्राप्त करना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण करना चाहता हूँ, मगर यह बहुत कठिन है। मैं क्या कर सकता हूँ?’ ... खास तौर से कुछ ऐसे बड़े-बूढ़े हैं, जो अपना सारा वक्त परमेश्वर के लिए खपने और अपना कर्तव्य निभाने में बिताना चाहते हैं, मगर वे शारीरिक रूप से बीमार हैं। कुछ को उच्च रक्तचाप है, कुछ को मधुमेह है, कुछ को पेट की बीमारियाँ हैं, और उन लोगों की शारीरिक ताकत उनके कर्तव्य की अपेक्षाओं की बराबरी नहीं कर पाती, और इसलिए वे झुँझलाते हैं। वे युवाओं को खाने-पीने, दौड़ने-कूदने में समर्थ देखते हैं, और उनसे ईर्ष्या करते हैं। वे युवाओं को ऐसे काम करते हुए जितना ज्यादा देखते हैं, यह सोचकर उतना ही संतप्त अनुभव करते हैं, ‘मैं अपना कर्तव्य अच्छे ढँग से निभाना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण कर उसे समझना चाहता हूँ, सत्य का अभ्यास भी करना चाहता हूँ, तो फिर यह इतना कठिन क्यों है? मैं बहुत बूढ़ा और बेकार हूँ! क्या परमेश्वर को बूढ़े लोग नहीं चाहिए? क्या बूढ़े लोग सचमुच बेकार होते हैं? क्या हम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकेंगे?’ चाहे वे जैसे सोचें वे दुखी रहते हैं, उन्हें खुशी नहीं मिलती। वे ऐसा अद्भुत समय और ऐसा बढ़िया मौका नहीं चूकना नहीं चाहते, फिर भी वे युवाओं की तरह तन-मन से खुद को खपाकर अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा नहीं पाते। ये बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाते हैं। हर बार जब वे किसी दिक्कत, रुकावट, कठिनाई या बाधा का सामना करते हैं, वे अपनी उम्र को दोष देते हैं, यहाँ तक कि खुद से घृणा करते हैं और खुद को पसंद नहीं करते। लेकिन किसी भी स्थिति में इसका कोई फायदा नहीं होता, कोई समाधान नहीं मिलता, और उन्हें आगे का रास्ता नहीं मिलता। कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके लिए सचमुच आगे का रास्ता नहीं है? क्या कोई समाधान है? (बूढ़े लोगों को भी अपने बूते के कर्तव्य निभाने चाहिए।) बूढ़े लोगों के लिए उनके बूते के कर्तव्य निभाना स्वीकार्य है, है न? क्या बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण अब सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते? क्या वे सत्य को समझने में सक्षम नहीं हैं? (हाँ, जरूर हैं।) क्या बूढ़े लोग सत्य को समझ सकते हैं? वे कुछ सत्य समझ सकते हैं, वैसे युवा लोग भी सभी सत्य नहीं समझ पाते। बूढ़े लोगों को हमेशा भ्रांति होती है, वे मानते हैं कि वे भ्रमित हैं, उनकी याददाश्त कमजोर है, और इसलिए वे सत्य को नहीं समझ सकते। क्या वे सही हैं? (नहीं।) हालाँकि युवा बूढ़ों से ज्यादा ऊर्जावान और शारीरिक रूप से सशक्त होते हैं, मगर वास्तव में उनकी समझने, बूझने और जानने की क्षमता बूढ़ों के बराबर ही होती है। क्या बूढ़े लोग भी कभी युवा नहीं थे? वे बूढ़े पैदा नहीं हुए थे, और सभी युवा भी किसी-न-किसी दिन बूढ़े हो जाएँगे। बूढ़े लोगों को हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि वे बूढ़े, शारीरिक रूप से कमजोर, बीमार और कमजोर याददाश्त वाले हैं, इसलिए वे युवाओं से अलग हैं। असल में कोई अंतर नहीं है। कोई अंतर नहीं है कहने का मेरा अर्थ क्या है? कोई बूढ़ा हो या युवा, उनके भ्रष्ट स्वभाव एक-समान होते हैं, हर तरह की चीज को लेकर उनके रवैये और सोच एक सामान होते हैं, और हर तरह की चीज को लेकर उनके परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण एक-समान होते हैं। इसलिए बूढ़े लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि बूढ़े होने और युवाओं की तुलना में उनकी असाधारण आकांक्षाओं के कम होने, और उनके स्थिर हो पाने के कारण उनकी महत्वाकांक्षाएँ या आकांक्षाएँ प्रचंड नहीं होतीं, और उनमें कम भ्रष्ट स्वभाव होते हैं—यह एक भ्रांति है। युवा लोग पद के लिए जोड़-तोड़ कर सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े पद के लिए जोड़-तोड़ नहीं कर सकते? युवा सिद्धांतों के विरुद्ध काम कर सकते हैं और मनमानी कर सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े ऐसा नहीं कर सकते? (हाँ, जरूर कर सकते हैं।) युवा घमंडी हो सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े घमंडी नहीं हो सकते? लेकिन बड़े-बूढ़े जब घमंडी होते हैं, तो ज्यादा उम्र के कारण वे उतने आक्रामक नहीं होते और इसलिए यह उनका घमंड तेज-तर्रार नहीं होता। युवा अपने लचीले हाथ-पैर और फुर्तीले दिमाग के कारण अहंकार का ज्यादा स्पष्ट दिखावा करते हैं, जबकि बड़े-बूढ़े अपने सख्त हाथ-पाँव और हठीले दिमाग के कारण अहंकार का कम स्पष्ट दिखावा करते हैं। लेकिन उनके अहंकार और भ्रष्ट स्वभावों का सार एक-समान होता है। किसी बूढ़े व्यक्ति ने चाहे जितने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, या चाहे जितने वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाया हो, अगर वह सत्य का अनुसरण नहीं करता, तो उसका भ्रष्ट स्वभाव कायम रहेगा। ... तो ऐसा नहीं है कि बड़े-बूढ़ों के पास करने को कुछ नहीं है, न ही वे अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ हैं, उनके सत्य का अनुसरण करने में असमर्थ होने की तो बात ही नहीं उठती—उनके लिए करने को बहुत कुछ है। अपने जीवन में जो विविध मतांतर और भ्रांतियाँ तुमने पाल रखी हैं, साथ ही जो विविध पारंपरिक विचार और धारणाएँ, अज्ञानी, जिद्दी, दकियानूसी, अतार्किक और बेतुकी चीजें तुमने इकट्ठा कर रखी हैं, वे सब तुम्हारे दिल में जमा हो गई हैं, और तुम्हें युवाओं से भी ज्यादा वक्त इन चीजों को खोद निकालने, विश्लेषित करने और पहचानने में लगाना चाहिए। ऐसी बात नहीं है कि तुम्हारे पास कुछ करने को नहीं है, या कोई काम न होने पर तुम्हें संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करना चाहिए—यह न तो तुम्हारा कार्य है न ही तुम्हारी जिम्मेदारी। अव्वल तो बड़े-बूढ़ों की मनःस्थिति सही होनी चाहिए। भले ही तुम्हारी उम्र बढ़ रही हो और शारीरिक रूप से तुम अपेक्षाकृत बूढ़े हो, फिर भी तुम्हें युवा मनःस्थिति रखनी चाहिए। भले ही तुम बूढ़े हो रहे हो, तुम्हारी सोचने की शक्ति धीमी हो गई है, तुम्हारी याददाश्त कमजोर है, फिर भी अगर तुम खुद को जान पाते हो, मेरी बातें समझ सकते हो, और सत्य को समझ सकते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम बूढ़े नहीं हो, और तुम्हारी काबिलियत कम नहीं है। अगर कोई 70 की उम्र में होकर भी सत्य को नहीं समझ पाता, तो यह दिखाता है कि उसका आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है, और कामकाज के लायक नहीं है। इसलिए सत्य की बात आने पर उम्र असंगत होती है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। मैंने यह अंश अनेकों बार पढ़ा। परमेश्वर के वचन वाकई मेरे दिल को छू गए और मेरी दशा उजागर हो गई। मैंने देखा कि मैं अब बूढ़ी हो गई हूँ, मेरी हालत पहले जैसी नहीं रही, अपना कर्तव्य निभाने के लिए अब मैं भाग-दौड़ नहीं कर सकती थी, बस घर पर मेजबानी कर सकती थी। जब मैंने घर पर बैठी बहन यू शिन की हालत देखी, जो अपना कर्तव्य नहीं निभा पा रही थी, तो मुझे अपनी उम्र की चिंता सताने लगी कि अगर किसी दिन मैं भी कहीं आने-जाने या कर्तव्य निभाने में असमर्थ रहा, तो मुझे बचाया नहीं जाएगा। राज्य में प्रवेश न कर पाने के विचार से बहुत पीड़ा और दुख हुआ, और इससे मैं अपनी मंजिल को लेकर भी फिक्रमंद हो गई। मैं नकारात्मकता और निराशा में जी रही थी, और कुछ करने का मन नहीं करता था। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे प्रेरणा मिली और मेरा दिल रौशन हो गया। ऐसा नहीं है कि बूढ़े लोगों के पास कोई विकल्प नहीं होता और उन्हें बचाया नहीं जाएगा, कि हम कुछ नहीं कर सकते या कोई कर्तव्य नहीं निभा सकते। बूढ़ा होने से हमारा दिल बूढ़ा नहीं हो जाता, और ऐसा नहीं है कि हम किसी काम के नहीं रहते। बूढ़े लोग भी पहले की तरह ही काम कर सकते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ सकते हैं, और सही समय पर प्रार्थना कर सकते हैं, और वो सब कुछ कर सकते हैं जो दूसरे करते हैं। परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि उसे बूढ़े लोग मंजूर नहीं क्योंकि वे ज्यादा कर्तव्य नहीं निभा सकते। फिर, जवान और बूढ़े सभी लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं, और हम सभी को उनका समाधान करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। खासकर मेरे जैसे बुजुर्गों ने, घर पर, स्कूल में, और बाहर समाज में रहकर, सभी तरह के विचार, धारणाएँ, और जीवन के फलसफे विकसित कर लिए हैं। इनमें से बहुत से शैतानी फलसफे, पाखंड और झूठ मेरे दिमाग में भी भर गए थे। मैं बरसों से विश्वासी रहा हूँ, मगर ये शैतानी जहर अभी भी मुझमें मौजूद थे और मेरे जीने के नियम बन गए थे। कभी-कभी जब मैं दूसरों के साथ सभा में होती, तो देखती कि कोई नकारात्मक स्थिति में है या नकारात्मकता फैला रहा है। मुझे साफ नजर आता था कि उनकी बातें किसी के लिए शिक्षाप्रद नहीं हैं, मगर मैं आपसी संबंधों को बचाने के लिए अपना मुँह बंद ही रखती। मैं इस शैतानी फलसफे के अनुसार जीती थी, “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।” मैं सत्य का अभ्यास नहीं करना चाहती थी, किसी को नाराज नहीं करना चाहती थी। और सभाओं में, जब हम बाइबल के कुछ किरदारों और कहानियों पर चर्चा करते, तो कुछ भाई-बहनों को वह सब समझ ही नहीं आता था, और मैं अहंकारी स्वभाव दिखाती थी। मुझे लगता थाथी कि एक बूढ़ी ईसाई होने के नाते, मैं उनसे ज्यादा जानती हूँ, तो मैं बस उन्हें समझाती रहती थी, इस मौके का इस्तेमाल दिखावे के लिए करती थी। इतने सारे अनसुलझे भ्रष्ट स्वभावों के साथ, मुझे थोड़ी जल्दी करते हुए सत्य का अनुसरण करने की कोशिश करनी चाहिए थी। अपनी भ्रष्टता को हल करने के लिए मुझे अपने बचे हुए समय में और अधिक सत्य खोजना चाहिए। मुझे बहुत सी चीजें करनी चाहिए और बहुत से सत्य में प्रवेश करना चाहिए। लेकिन अच्छी सेहत और अनेक कर्तव्य निभाने की संभावना के कारण, मुझे हमेशा जवान लोगों से ईर्ष्या होती थी, मुझे लगता था उनके पास उद्धार पाने की उम्मीद ज्यादा है। अब मैं चल-फिर नहीं पा रही और मेरे कर्तव्य सीमित हो गए, तो मुझे चिंता होने लगी कि राज्य में मेरे लिए कोई जगह नहीं होगी। मैं ऐसी नकारात्मक स्थिति में डूब गई जिससे बाहर नहीं निकल पा रहा थी। अब सोचकर लगता है कि मैं कितनी बेवकूफ थी। मुझे सही रवैया रखना था। भले ही मेरी उम्र हो चुकी है और मेरा शरीर बूढ़ा हो रहा है, पर मैं परमेश्वर के वचन समझ सकती हूँ, और मेरे पास अभी भी सामान्य समझ और विवेक है, तो मुझे सत्य का अनुसरण करने में देरी नहीं करनी चाहिए, मैं दुख और चिंता में जीती नहीं रह सकती। यह बात परमेश्वर के वचनों के इस अंश में स्पष्ट है : “भले ही तुम बूढ़े हो रहे हो, तुम्हारी सोचने की शक्ति धीमी हो गई है, तुम्हारी याददाश्त कमजोर है, फिर भी अगर तुम खुद को जान पाते हो, मेरी बातें समझ सकते हो, और सत्य को समझ सकते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम बूढ़े नहीं हो, और तुम्हारी काबिलियत कम नहीं है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों से मेरा दिल उजला हो गया और मुझे फौरन लगा कि मैं अभी भी प्रयास कर सकती हूँ। परमेश्वर कहता है कि मैं बूढ़ी नहीं हूँ, तो मुझे अपने बचे हुए सालों में और अधिक निष्ठापूर्वक सत्य का अनुसरण करना चाहिए।
मैंने परमेश्वर के वचनों में यह भी पढ़ा : “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिलकुल भी तय नहीं करता, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। “प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर की इच्छा है कि उसे पूर्ण बनाया जाए, अंततः उसके द्वारा उसे प्राप्त किया जाए, उसके द्वारा उसे पूरी तरह से शुद्ध किया जाए, और वह ऐसा इंसान बने जिससे वह प्रेम करता है। चाहे मैं तुम लोगों को पिछड़ा हुआ कहता हूँ या निम्न क्षमता वाला—यह सब तथ्य है। मेरा ऐसा कहना यह प्रमाणित नहीं करता कि मेरा तुम्हें छोड़ने का इरादा है, कि मैंने तुम लोगों में आशा खो दी है, और यह तो बिलकुल नहीं कि मैं तुम लोगों को बचाना नहीं चाहता। आज मैं तुम लोगों के उद्धार का कार्य करने के लिए आया हूँ, जिसका तात्पर्य है कि जो कार्य मैं करता हूँ, वह उद्धार के कार्य की निरंतरता है। प्रत्येक व्यक्ति के पास पूर्ण बनाए जाने का एक अवसर है : बशर्ते तुम तैयार हो, बशर्ते तुम खोज करते हो, अंत में तुम इस परिणाम को प्राप्त करने में समर्थ होगे, और तुममें से किसी एक को भी त्यागा नहीं जाएगा। यदि तुम निम्न क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निम्न क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम उच्च क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उच्च क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम अज्ञानी और निरक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निरक्षरता के अनुसार होंगी; यदि तुम साक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस तथ्य के अनुसार होंगी कि तुम साक्षर हो; यदि तुम बुज़ुर्ग हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उम्र के अनुसार होंगी; यदि तुम आतिथ्य प्रदान करने में सक्षम हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम कहते हो कि तुम आतिथ्य प्रदान नहीं कर सकते और केवल कुछ निश्चित कार्य ही कर सकते हो, चाहे वह सुसमाचार फैलाने का कार्य हो या कलीसिया की देखरेख करने का कार्य या अन्य सामान्य मामलों में शामिल होने का कार्य, तो मेरे द्वारा तुम्हारी पूर्णता भी उस कार्य के अनुसार होगी, जो तुम करते हो। वफ़ादार होना, बिल्कुल अंत तक आज्ञापालन करना, और परमेश्वर के प्रति सर्वोच्च प्रेम रखने की कोशिश करना—यह तुम्हें अवश्य करना चाहिए, और इन तीन चीज़ों से बेहतर कोई अभ्यास नहीं है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना)। परमेश्वर के ये वचन पढ़कर मैं बहुत प्रेरित हुई। परमेश्वर ने कभी किसी का परिणाम उसकी काबिलियत, उम्र या यह देखकर निर्धारित नहीं किया कि उसने कितने कर्तव्य निभाए हैं। परमेश्वर बस यह देखता है कि लोग उसके प्रति समर्पित और आज्ञाकारी हैं या नहीं। अगर व्यक्ति में सत्य का अनुसरण करने का संकल्प और सच्ची आस्था है और वह सत्य से प्रेम करता है, तो परमेश्वर उसका त्याग नहीं करेगा। मैंने देखा कि परमेश्वर धार्मिक है, और उसकी अपेक्षाएँ सभी के लिए एक जैसी नहीं हैं। वह व्यक्ति के आध्यात्मिक कद और चीजों को हासिल करने की क्षमता के आधार पर उससे अपेक्षाएँ करता है। जो मेजबानी कर सकते हैं उन्हें मेजबानी करनी चाहिए, जो सुसमाचार फैला सकते हैं उन्हें सुसमाचार फैलाना चाहिए। लोगों से जो बन पड़े वही कर्तव्य निभाना चाहिए। अगर हम सत्य का अनुसरण और परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करेंगे, हमारे उद्धार की उम्मीद बनी रहेगी। लेकिन मुझे लगा कि इस बुढ़ापे में, मैं कोई कर्तव्य नहीं निभा सकती, और परमेश्वर मुझे स्वीकार नहीं करेगा। मैंने परमेश्वर को आम दुनिया के मालिक जैसा समझ लिया, जो तुम्हें तभी तक रखेगा जब तुम काम करने लायक हो और तुम्हारी कोई अहमियत हो, वरना तुम्हें बाहर निकाल देगा। यह परमेश्वर का भय न मानना था। मेरी गलत धारणाओं और कल्पनाओं के कारण ही मैं परमेश्वर की इच्छा को गलत समझ बैठी थी। परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि बूढ़े लोगों को पूर्ण किया या बचाया नहीं जा सकता। मैंने उन मसीह-विरोधियों और कुकर्मियों के बारे में सोचा जिन्हें कलीसिया से निकाल दिया गया था। कुछ तो मुझसे जवान थे और अपने कर्तव्य के लिए अपना घर-बार और नौकरी छोड़ दी थी। मानवीय मानकों के हिसाब से वे कड़ी मेहनत करते थे, पर उन्होंने सत्य का अनुसरण नहीं किया और उनके भ्रष्ट स्वभावों में जरा भी बदलाव नहीं आया। वे अपनी शैतानी प्रकृति के अनुसार काम करते थे, परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डालते थे, कभी पश्चात्ताप नहीं करते थे, तो आखिर में परमेश्वर ने उन्हें निकाल दिया। जहाँ तक बूढ़े सदस्यों की बात है, कुछ घर पर रहकर मेजबानी का कर्तव्य निभाते हैं, कुछ कलीसिया की किताबें संभालते हैं, पर वे सभी अपने हिसाब से अपनी भूमिका निभाते हैं। उनके बुढ़ापे या ज्यादा कर्तव्य न निभा पाने के कारण परमेश्वर उनसे मुँह नहीं मोड़ता या उन्हें नहीं निकालता। मैंने देखा कि परमेश्वर लोगों को उनकी उम्र के कारण नहीं बल्कि उनकी प्रकृति सार के आधार पर निकालता है। अपने बुढ़ापे के कारण, मैं पहले की तरह कलीसिया में अपना योगदान नहीं दे सकती। मैं अपने घर पर लोगों की मेजबानी करती हूँ। तो मुझे अपनी मेजबानी का कर्तव्य अच्छे से निभाना है, और सभाओं के लिए घर पर सुरक्षित माहौल बनाए रखना है, ताकि भाई-बहनें शांति से आते-जाते रह सकें। यह अपने कर्तव्य के प्रति मेरा समर्पण है। मेरी पड़ोसन बहन यू शिन स्वस्थ नहीं है और उसे मेरे सहारे की जरूरत है, तो मुझसे जो बन पड़े वो करना चाहिए, उससे मिलकर संगति करनी चाहिए। और जब भी मेरे सामने कोई चुनौतियाँ या परेशानियाँ आएँ, उन्हें हल करने के लिए मुझे प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के वचन पढ़ने चाहिए। अगर मैं पाँच किलो वजन उठा सकती हूँ, तो उतना ही उठाऊँगी, और अगर बीस किलो उठा सकती हूँ, तो बीस किलो उठाऊँगी। अपनी भरसक कोशिश करो, जो बन पड़े वो करो—यही सबसे जरूरी है। यह बात समझ आने के बाद, मैंने शर्मिंदगी और अपमान महसूस किया। मैंने परमेश्वर की इच्छा नहीं समझी, और उसके वचनों के अनुरूप व्यवहार नहीं कर रही थी। बल्कि, अपने गलत दृष्टिकोण के साथ जीते हुए परमेश्वर को गलत समझ बैठी थी। मैं वाकई बड़ी विद्रोही थी।
मैंने विचार किया कि मैं अपने बुढ़ापे, कर्तव्य न निभा पाने, और निकाले जाने को लेकर इतनी दुखी क्यों थी। इसके पीछे कौन-सी मंशा थी? अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े : “कुछ लोग जैसे ही यह देखते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास उनके लिए आशीष लाएगा, उनमें जोश भर जाता है, परंतु जैसे ही वे देखते हैं कि उन्हें शोधन सहने पड़ेंगे, उनकी सारी ऊर्जा खो जाती है। क्या यह परमेश्वर पर विश्वास करना है? अंततः, अपने विश्वास में तुम्हें परमेश्वर के सामने पूर्ण और चरम आज्ञाकारिता हासिल करनी होगी। तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो परंतु फिर भी उससे माँगें करते हो, तुम्हारी कई धार्मिक धारणाएँ हैं जिन्हें तुम छोड़ नहीं सकते, तुम्हारे व्यक्तिगत हित हैं जिन्हें तुम त्याग नहीं सकते, और फिर भी देह के आशीष खोजते हो और चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हारी देह को बचाए, तुम्हारी आत्मा की रक्षा करे—ये सब गलत दृष्टिकोण वाले लोगों के व्यवहार हैं। यद्यपि धार्मिक विश्वास वाले लोगों का परमेश्वर पर विश्वास होता है, फिर भी वे अपना स्वभाव बदलने का प्रयास नहीं करते और परमेश्वर संबंधी ज्ञान की खोज नहीं करते, बल्कि केवल अपनी देह के हितों की ही तलाश करते हैं। तुम लोगों में से कइयों के विश्वास ऐसे हैं, जो धार्मिक आस्थाओं की श्रेणी में आते हैं; यह परमेश्वर पर सच्चा विश्वास नहीं है। परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए लोगों के पास उसके लिए पीड़ा सहने वाला हृदय और स्वयं को त्याग देने की इच्छा होनी चाहिए। जब तक वे ये दो शर्तें पूरी नहीं करते, तब तक परमेश्वर पर उनका विश्वास मान्य नहीं है, और वे स्वभाव में बदलाव हासिल करने में सक्षम नहीं होंगे। जो लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर संबंधी ज्ञान की तलाश करते हैं, और जीवन की खोज करते हैं, केवल वे ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। “लोग आशीष पाने, पुरस्कृत होने, ताज पहनने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। क्या यह सबके दिलों में नहीं है? यह एक तथ्य है कि यह सबके दिलों में है। हालाँकि लोग अक्सर इसके बारे में बात नहीं करते, यहाँ तक कि वे आशीष प्राप्त करने का अपना मकसद और इच्छा छिपाते हैं, फिर भी यह इच्छा और मकसद लोगों के दिलों की गहराई में हमेशा अडिग रहा है। लोग चाहे कितना भी आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हों, उनके पास जो भी अनुभव या ज्ञान हो, वे जो भी कर्तव्य निभा सकते हों, कितना भी कष्ट सहते हों, या कितनी भी कीमत चुकाते हों, वे अपने दिलों में गहरी छिपी आशीष पाने की प्रेरणा कभी नहीं छोड़ते, और हमेशा चुपचाप उसके लिए श्रम करते हैं। क्या यह लोगों के दिल के अंदर सबसे गहरी दबी बात नहीं है? आशीष प्राप्त करने की इस प्रेरणा के बिना तुम लोग कैसा महसूस करोगे? तुम किस रवैये के साथ अपना कर्तव्य निभाओगे और परमेश्वर का अनुसरण करोगे? अगर लोगों के दिलों में छिपी आशीष प्राप्त करने की यह प्रेरणा खत्म हो जाए तो ऐसे लोगों का क्या होगा? संभव है कि बहुत-से लोग नकारात्मक हो जाएँगे, जबकि कुछ अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाएँगे। वे परमेश्वर में अपने विश्वास में रुचि खो देंगे, मानो उनकी आत्मा गायब हो गई हो। वे ऐसे प्रतीत होंगे, मानो उनका हृदय छीन लिया गया हो। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आशीष पाने की प्रेरणा ऐसी चीज है जो लोगों के दिल में गहरी छिपी है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। मेरी दशा वैसी ही थी जिसके बारे में परमेश्वर इन वचनों में खुलासा करता और आंकता है। परमेश्वर वाकई मनुष्य के दिलो-दिमाग को जांचता-परखता है। इससे आशीष पाने की मेरी मंशाएँ और उम्मीदें उजागर हो गईं, और यह भी कि मेरी आस्था सिर्फ आशीष पाने के लिए थी। जब मैंने इस चरण के कार्य को स्वीकारा था, तब मैं राज्य में प्रवेश पाने के मौके को लेकर प्रेरित थी। कलीसिया जो चाहती थी मैं वो करने को तैयार थी। बारिश हो या धूप, मैं अपना कर्तव्य निभाती थी। मैंने सोचा कि परमेश्वर मुझे तभी स्वीकार करेगा जब मैं कोई कीमत चुकाऊँगी, फिर मुझे बचा लिया जाएगा और मुझे स्वर्ग के राज्य की आशीषें मिलेंगी। मगर जब देखा कि मैं बूढ़ी हो रही हूँ, बढ़ती उम्र के साथ शरीर के क्रियाकलापों पर असर पड़ रहा है, और पहले की तरह अपने कर्तव्य नहीं निभा पा रहा हूँ, तो मुझे चिंता होने लगी कि एक दिन मैं बीमार पड़ जाऊँगी, कोई कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी। इससे मैं दुखी और परेशान हो गई। जब मैंने उन दो दिनों को याद किया जब मैं बीमार थी और चल-फिर नहीं पा रही थी, तो मुझे और ज्यादा चिंता हुई कि अगर मैं फिर से बीमार पड़ी और जल्दी ठीक नहीं हुई, तो मैं कोई कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी और मुझे बचाया नहीं जाएगा। मुझे लगा मेरा दिल खोखला हो गया है, मैंने अँधकार और निराशा महसूस की। मुझे परमेश्वर के वचन पढ़ने या प्रार्थना करने का मन नहीं करता था, मैं बस यूँ ही अपना हर दिन गुजारती थी। मैंने देखा कि मेरे दिल की गहराई में आशीष पाने की मंशा छिपी हुई थी, और मैं यह लक्ष्य पाने के लिए हमेशा मेहनत और कोशिश करती थी। कहने को तो मैं अपना कर्तव्य निभाकर परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहती थी, पर असल में, कर्तव्य निभाने के बदले में स्वर्ग के राज्य की आशीषें पाना चाहती थी। मैं अपनी मंजिल के लिए काम कर रही थी। मैं वाकई प्रकृति से बहुत दुष्ट और धूर्त हूँ। मैं एक ईसाई परिवार में पैदा हुई, और बचपन से ही अपने माँ-बाप की तरह प्रभु यीशु में विश्वास करने लगी थी। 60 की उम्र में, मैंने परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारा। मैं अब तक बहुत कुछ हासिल कर चुकी हूँ। परमेश्वर ने अंत के दिनों में सत्य के हर पहलू पर स्पष्ट संगति की है, और उसके वचनों के न्याय और ड़ना से, मुझे अपनी भ्रष्ट प्रकृति और शैतानी जहर की कुछ समझ हासिल हुई है, अब मैं खुद से घृणा कर पाती हूँ, और मेरे भ्रष्ट स्वभाव में थोड़ा बदलाव आया है। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना के अनुभवों से मुझे ये फल मिले हैं। यह परमेश्वर का कितना बड़ा अनुग्रह है! मैंने कितना महान उद्धार पाया है। अगर परमेश्वर इसी वक्त मेरी साँसों को रोक दे, तो भी मुझे कोई पछतावा नहीं होगा, और मैं परमेश्वर का आभारी रहूँगी। मगर अभी मैं जिंदा हूँ, और मेरी साँसें बाकी हैं। मुझे पूरे दिल से सत्य का अनुसरण कर अपने स्वभाव को बदलना चाहिए। भविष्य में चाहे आशीष मिले या आपदा का सामना करूँ, मुझे परमेश्वर के नियम और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। एक सृजित प्राणी के तौर पर मुझे यही समझ रखनी चाहिए। मगर परमेश्वर के वचनों का इतना अधिक पोषण मिलने के बाद भी, मुझे उसके प्रेम की कीमत चुकाना नहीं आया। मैं राज्य की आशीषें पाने के लिए परमेश्वर से अपने कर्तव्य का सौदा करना चाहती थी। जब लगा कि ऐसा नहीं हो सकता तो मैं नकारात्मक होकर परमेश्वर को गलत समझ बैठी। मुझमें अंतरात्मा या विवेक नहीं था। मेरी मानवता कहाँ थी? मैं बहुत स्वार्थी, नीच, और घिनौना थी। आस्था में मेरी प्रेरणाएँ और नजरिये सही नहीं थे। मैं बस स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पाना चाहती थी, और सिर्फ दैहिक लाभ और आशीषों के पीछे भागती थी। मैं पौलुस के मार्ग पर चल रही थी। मैंने सोचा कि कैसे पौलुस ने इतना कुछ हासिल किया, पर उसकी आस्था सिर्फ इनाम और मुकुट पाने के लिए थी। वह परमेश्वर से अपने कर्तव्य का सौदा कर रहा था, उसके बदले में स्वर्ग की आशीषें पाना चाहता था। उसने परमेश्वर को जानने की कोशिश नहीं की। वह परमेश्वर के विरोध के मार्ग पर था। अंत में परमेश्वर ने उसे दंडित किया। मेरा लक्ष्य भी वही था जो पौलुस का था। मैंने परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना स्वभाव नहीं बदला, मैं बस आशीषें पाने के लिए कर्तव्य निभा रही थी। कहने को तो मैं कर्तव्य निभा रही थी, पर असल में, परमेश्वर को धोखा दे रही थी। मैं सच्ची विश्वासी नहीं थी। सच्चा विश्वासी वो होता है जो सत्य का अनुसरण करने, परमेश्वर को जानने और उससे प्रेम करने की कोशिश करता है। लोग अपना कर्तव्य कैसे निभाते हैं, इसके लिए कोई शर्त या सौदा नहीं है। इसके पीछे निजी मंशाएँ, लक्ष्य या अनावश्यक इच्छाएँ भी नहीं हैं। वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना सब कुछ झोंक देते हैं। ठीक पतरस की तरह—भले ही उसने पौलुस जितना काम नहीं किया, पर वह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकारने, खुद को जानने, और परमेश्वर को जानकर उससे प्रेम करने में सक्षम था। आखिर, उसने मरते दम तक समर्पण किया, परमेश्वर के लिए सूली पर उल्टा लटका दिया गया, और परमेश्वर को महिमामंडित किया। मेरी जैसी आस्था में, जिसके पीछे बुरी मंशाएँ और इच्छाएँ छिपी थीं, कितने ही सालों तक परमेश्वर में विश्वास करके भी मुझे उसकी स्वीकृति नहीं मिलती। आखिर में परमेश्वर मुझे ठुकरा देगा, मुझसे घृणा करेगा। पश्चात्ताप के बिना, और अपनी आस्था और कर्तव्य में सौदेबाजी करके, मुझे सत्य हासिल नहीं होगा या मेरा स्वभाव नहीं बदलेगा। मेरा अंत पौलुस जैसा होगा, परमेश्वर मुझे उजागर करके निकाल देगा।
मैंने परमेश्वर की इन बातों पर विचार किया : “मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। तब मुझे एहसास हुआ कि कर्तव्य वह है जो एक सृजित प्राणी को निभाना चाहिए, और आशीष पाने या दुर्भाग्य से इसका कोई संबंध नहीं है। परमेश्वर के घर का सदस्य होने के नाते, मुझे उसके सामने शर्तें नहीं रखनी चाहिए। मुझे अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए। जैसा परिवार में होता है। जब बच्चे अपने परिवार के लिए कुछ करते हैं, तो क्या वे अपने माँ-बाप से पैसे माँग सकते हैं? ऐसे व्यक्ति को परिवार का सदस्य नहीं बल्कि कर्मचारी कहा जाएगा। परमेश्वर के परिवार का सदस्य और एक सृजित प्राणी होने के नाते, मुझे सृष्टिकर्ता के लिए कर्तव्य निभाना ही चाहिए, यही सही है और स्वाभाविक भी। मुझे शर्तें रखने या इनाम पाने की सोच के बिना अपनी भक्ति दिखानी चाहिए। मुझे यही करना चाहिए। अब मैं बूढ़ी हो गई हूँ, मेरी सेहत अच्छी नहीं है, पर परमेश्वर ने हार नहीं मानी है। वह अभी भी अपने वचनों से मेरा पोषण और मार्गदर्शन करता है। मेरी अंतरात्मा नहीं मर सकती, मैं नकारात्मक दशा में नहीं जी सकती, खुद को मायूसी में नहीं धकेल सकती। मुझे सही रवैया अपनाना चाहिए, और जब तक मेरी मनोदशा सही है और मुझमें विवेक है, मुझे खुद को जानने के लिए परमेश्वर के वचन पढ़ने और अपना स्वभाव बदलने की कोशिश करनी चाहिए, मुझसे जो हो सके वही कर्तव्य निभाना चाहिए, परमेश्वर के नियम और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। मैंने परमेश्वर के वचनों में कुछ और भी पढ़ा : “हर व्यक्ति को सत्य का अनुसरण करने के मार्ग की ओर प्रयास करने चाहिए, भले ही तुम्हारी क्षमता या उम्र कितनी भी हो, या परमेश्वर में विश्वास किए हुए कितने ही साल हुए हों। तुम्हें किसी भी वस्तुगत तर्कों पर जोर नहीं देना चाहिए; तुम्हें बिना शर्त सत्य का अनुसरण करना चाहिए। अपने दिन यूँ ही न गँवाओ। अगर तुम सत्य को खोजने और उसके अनुसरण के प्रयासों को अपने जीवन का बड़ा कार्य बना लो, तो संभवतः अनुसरण से तुम जो सत्य पाओ और जिस तक तुम पहुँचो, वह तुम्हारा चाहा हुआ न हो। लेकिन अगर परमेश्वर कहता है कि वह अनुसरण में तुम्हारे रवैये और ईमानदारी के आधार पर तुम्हें एक उचित मंजिल देगा, तो यह कितनी अद्भुत बात रहेगी! अभी के लिए, इस बात पर ध्यान केंद्रित मत करो कि तुम्हारी मंजिल या परिणाम क्या होगा, या भविष्य में क्या होगा और क्या बदा है, या क्या तुम विपत्ति से बचकर प्राण न गँवाने में सक्षम रहोगे—इन चीजों के बारे में मत सोचो, न इनकी माँग करो। केवल परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं में सत्य का अनुसरण करने, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने पर ध्यान केंद्रित करो, जिससे कि तुम परमेश्वर की छह हजार वर्षों की प्रतीक्षा और छह हजार वर्षों की आशा के अयोग्य सिद्ध नहीं होगे। परमेश्वर को थोड़ा ढाढ़स बँधाओ; ऐसा करो कि वह तुमसे तनिक आशान्वित रहे और अपनी इच्छाएँ तुममें साकार करे। बताओ भला, अगर तुम ऐसा करोगे तो क्या परमेश्वर तुम्हारे साथ बुरा बर्ताव करेगा? बिल्कुल भी नहीं! और भले ही अंतिम परिणाम व्यक्ति की कामना के अनुरूप न हों, उसे एक सृजित प्राणी की तरह इस तथ्य से कैसे पेश आना चाहिए? उसे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं की हर चीज के समक्ष बिना किसी निजी मसौदे के समर्पण करना चाहिए। क्या सृजित प्राणियों का नजरिया ऐसा नहीं होना चाहिए? (बिल्कुल।) यही सही मानसिकता है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए)। “सत्य का अनुसरण मानव जीवन की बहुत बड़ी बात है। कोई भी दूसरी चीज सत्य के अनुसरण जितनी महत्वपूर्ण नहीं है, और सत्य प्राप्त करने से बढ़कर मूल्यवान कोई चीज नहीं है। क्या आज तक परमेश्वर का अनुसरण करना आसान रहा है? जल्दी करो, और सत्य के अनुसरण को महत्व दो! अंत के दिनों के कार्य का यह चरण परमेश्वर की छह हजार वर्ष की प्रबंधन योजना में लोगों पर किए जा रहे सबसे महत्वपूर्ण कार्य का चरण है। सत्य का अनुसरण वह सबसे बड़ी उम्मीद है जो परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों से रखता है। उसे उम्मीद है कि लोग सही मार्ग पर चलेंगे, जो सत्य के अनुसरण का मार्ग है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए)। इसे पढ़कर मैं बहुत प्रेरित हुआ, यह बात मेरे दिल को छू गई। परमेश्वर ने हमें अपनी इच्छा, और लोगों से अपनी अपेक्षाओं और उम्मीदों के बारे में सब बता दिया है, उसे हमारी काबिलियत और उम्र से कोई फर्क नहीं पड़ता, न ही इससे कि हमने कितने कर्तव्य निभाए हैं, और वह देखता है कि क्या हम सत्य का अनुसरण करते हैं, क्या हम अपनी आस्था में समर्पित और आज्ञाकारी हैं। जैसे अनुग्रह के युग में, एक विधवा ने बस दो छोटे सिक्के दान किए थे, फिर भी उसे परमेश्वर की स्वीकृति मिली क्योंकि उसने अपना सब कुछ उसे दान कर दिया था। परमेश्वर ने उसकी ईमानदारी देखी। भले ही अब मैं बूढ़ी हूँ और जवान लोगों से बिल्कुल भी तुलना नहीं कर सकती, पर मैं नकारात्मक नहीं हूँ। मैं आगे बढ़कर हर दिन को उपयोग में लाना चाहती हूँ। जब तक मुझमें बुद्धि और विवेक है, मुझे वाकई और अधिक सत्य का अनुसरण करना और परमेश्वर के वचन पढ़ना चाहिए, जो भी समझा है, उस हर छोटी चीज का अभ्यास करते हुए कर्तव्य में अपनी भरसक कोशिश करनी चाहिए। तब मृत्यु के बाद, मेरे दिल को शांति मिलेगी, और मैं जीवन भर मुझे पोषण देने के लिए परमेश्वर को निराश नहीं करूँगी। परमेश्वर ने मुझे अंत के दिनों में पैदा होने दिया। 60 की उम्र में मैं उसके अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार पाई, परमेश्वर का प्रकटन देख पाई, खुद उसकी वाणी सुन पाई, और उसके वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव कर पाई; यह मेरे लिए परमेश्वर का बहुत बड़ा अनुग्रह और आशीष थी। अगर मैं आज भी बुढ़ापे के दुख में जी रही होती, सत्य का अनुसरण करने के इस अवसर का फौरन लाभ नहीं उठाती, तो परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और बचाए जाने का मौका गँवा देती। अगर मैं सत्य के अनुसरण को टाल देती, तो यह मौका गँवा देती, और पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होती। तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं पश्चात्ताप के लिए तैयार हूँ। मैं अब नकारात्मकता, बेचैनी, और गलतफहमी की स्थिति में नहीं जीना चाहती। जब तक जीवित हूँ, मैं तुम्हारे वचनों को अभ्यास में लाना, सत्य का अनुसरण करने की भरसक कोशिश करना और सही मार्ग पर चलना चाहती हूँ। तुम्हारे वचनों से जो कुछ भी समझ पाई उसका अभ्यास करना और कर्तव्य निभाकर तुम्हारी इच्छा पूरी करना चाहती हूँ। चाहे मुझे आशीष मिले या दुर्भाग्य का सामना करूँ, मैं तुम्हारे नियम और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण को तैयार हूँ।”
तब से, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़ने और उन पर चिंतन करने पर ध्यान दिया है। कलीसिया मुझे जो भी कर्तव्य सौंपती है मैं उसमें अपनी भरसक कोशिश करती हूँ। इतने बरसों से विश्वासी रहकर मैंने कुछ अनुभव और ज्ञान हासिल किया है, और परमेश्वर की गवाही के लिए लेख लिखने का अभ्यास किया है। खासकर अब सुसमाचार फैलाने वालों को धार्मिक लोगों की धारणाओं के समाधान के लिए अच्छे लेखों की जरूरत है, और इतने बरसों की आस्था के बाद, मैं कुछ लिखना चाहूँगी, ताकि राज्य का सुसमाचार फैलाने में योगदान दे सकूँ। और तो और चूँकि मुझमें बहुत अहंकारी स्वभाव है और अपने अहंकार के कारण अक्सर अपने परिवार को बेबस कर देती हूँ, अपनी भ्रष्टता के इस पहलू को हल करने और अपने परिवार के सामने सामान्य मानवता के साथ जीने के लिए मैं सत्य की खोज कर रही हूँ। आम तौर पर भाई-बहनों के साथ मेलजोल में, जब मैं किसी को सिद्धांतों के विरुद्ध कुछ करते देखती हूँ, तो मुझे कुछ ऐसा कहने से डर लगता है जिससे वे नाराज हो जाएँ या मेरे बारे में गलत सोचें, फिर परमेश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि मैं अपने शैतानी फलसफों के अनुसार नहीं जियूँगी, और मैं सत्य का अभ्यास करने, कलीसिया के हितों को कायम रखने, और खुशामदी न होने पर ध्यान देती हूँ। अब मैं हर छोटी चीज में सत्य का अभ्यास करना सीख रही हूँ, और अब बहुत शांत और खुश रहती हूँ। परमेश्वर के मार्गदर्शन और अनुग्रह से ही मैं परेशानी, बेचैनी, और चिंता से निकल पाने में सक्षम हुई हूँ। मैं वाकई परमेश्वर की आभारी हूँ!
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