परमेश्वर के प्रति मेरे त्याग में मिलावट

24 जनवरी, 2022

ज्यांग पिंग, चीन

अप्रैल 2020 में एक दिन, मुझे अचानक पीठ में दाईं ओर बहुत तेज़ दर्द महसूस हुआ। मुझे लगा ध्यान न देने के कारण मोच आ गई होगी, तो मैंने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, मुझे लगा दवाई की पट्टी लगा लूंगी तो ठीक हो जाएगा। मगर हैरत हुई कि पीठ का दर्द और बढ़ गया। लगता था जैसे किसी ने सुई चुभो रहा हो—मेरी छाती से लेकर पीठ तक सुई चुभने जैसा दर्द हो रहा था। जब हालत बुरी हो गई, तो लगा जैसे मेरी मांसपेशियों और हड्डियों को कोई नोंच रहा है। दर्द इतना ज़्यादा था कि बता नहीं सकती। कई रातों तक मैं दर्द के मारे सो नहीं पाई। जब दर्द बर्दाश्त से बाहर हो गया तो मैं फौरन डॉक्टर को दिखाना चाहती थी, मगर मैंने कुछ लोगों के साथ सुसमाचार साझा करने के लिए एक बैठक तय की थी। चेकअप के लिए गई तो बैठक में ज़रूर देरी हो जाएगी। मैंने सोचा, उनके साथ बैठक करने के बाद किसी दिन चली जाऊँगी, और फिर सब तो परमेश्वर के हाथ में है। मुझे बस अपना कर्तव्य निभाते रहना है, शायद कुछ दिनों बाद मैं बेहतर महसूस करने लगूं। इसलिए, मैंने दर्द सहने के लिए खुद को मजबूत किया और सुसमाचार प्रचार के बाद अस्पताल गई। डॉक्टर ने बहुत गंभीरता से कहा, “आप अब तक दिखाने क्यों नहीं आईं? ये कोई मामूली बात नहीं है। यह वायरस के कारण पैदा हुआ दाद है और अगर यह गंभीर हो गया, तो जान भी जा सकती है।” मुझे ज़ोर का झटका लगा। मैंने कभी सोचा भी नहीं था, समस्या इतनी गंभीर होगी कि इलाज के बिना मेरी जान भी जा सकती है! मैं सक्रियता से अपना कर्तव्य निभाती और सुसमाचार साझा करती रही हूँ, तो मुझे ऐसी गंभीर बीमारी कैसे हो सकती है? पिछले कुछ सालों में, मैंने त्याग किए, खुद को खपाया, मैंने पीड़ा सही और कीमत चुकाई है। कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा गिरफ्तार कर भयंकर यातना दिए जाने के भी मैंने कभी परमेश्वर को धोखा नहीं दिया और जेल से छूटने के बाद भी अपना कर्तव्य निभाती रही। फिर मैं बीमार कैसे हो सकती थी? इस बारे में सोचने पर मैं और परेशान हो गई। लगा कि रो पड़ूँगी, दिल में खालीपन महसूस हुआ।

उस समय, कलीसिया में काम बहुत अधिक था, तो मैं इलाज कराते हुए अपना कर्तव्य निभाती रही। जब मैं साइकल पर बाहर निकलती, तो ठोकर लगते ही मुझे असहनीय दर्द होता। कभी-कभी अचानक इतना तेज़ दर्द होता कि मैं सीधी बैठ भी नहीं पाती। काम से घर लौटकर सीधे बिस्तर पर लेट जाती, ज़रा-भी ताकत न बचती, मैं बात भी नहीं करना चाहती थी। मैं जानती थी मेरे साथ सब कुछ परमेश्वर की अनुमति से हो रहा था। मैं प्रार्थना करते हुए खोज रही थी, इस पर चिंतन करते हुए कि क्या मैंने ऐसा कुछ किया था जो परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं था, और मुझे लगा कि अगर मैं अपनी गलतियाँ पहचान कर अपना कर्तव्य निभाती रही, तो मैं अपनी बीमारी से ठीक हो जाऊँगी। दो महीने पलक झपकते बीत गए मगर मैं ठीक नहीं हुई। मुझे चिंता होने लगी कि यह बीमारी इतने दिनों से चल रही है—अगर यह कभी ठीक नहीं हुई तो मैं क्या करूंगी? पिछले कुछ सालों में मैंने अपना कर्तव्य निभाना भी कभी नहीं छोड़ा। बीमार रहकर भी सुसमाचार साझा करती रही, तो फिर मैं ठीक क्यों नहीं कर रही थी? इसके बारे में सोचने पर मुझे लगा कि मेरे साथ गलत हुआ है, मैं और परेशान हो गई। मैंने सोचा, “अगर मैं कभी ठीक नहीं हुई, तो एक दिन ऐसा आएगा जब मैं अपना कर्तव्य भी नहीं निभा पाऊँगी और अच्छे कर्म तैयार नहीं कर पाऊँगी। क्या तब मुझे कैसे बचाया जाएगा? क्या इतने सालों तक मैंने जो कुछ भी किया, वो सब बेकार चला जाएगा? मैंने तय किया, मुझे अपनी सेहत के लिए ताकत बचानी चाहिए, देखते हैं बीमारी का क्या होता है।” उसके बाद मैंने अपने कर्तव्य में दिल लगाना कम कर दिया। हमारे समूह की सभाओं में, मैं बस सुसमाचार के संभावित लक्ष्यों के बारे में यूं ही पूछ लेती, अगर कोई लक्ष्य न होते, तो मैं घर जाकर आराम करती। मुझे डर लग रहा था कहीं मैं बहुत कमज़ोर और बीमार न हो जाऊँ। उस दौरान, मैं अपनी बीमारी से काफी परेशान थी, मैं बहुत निराश थी। परमेश्वर के वचनों से मुझे कोई प्रबुद्धता नहीं मिल रही थी, सभाओं में मेरी संगति बहुत रूखी होती थी। मुझे लगा मैं परमेश्वर से काफी दूर हो गई हूँ। अपनी पीड़ा में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं अपनी बीमारी की वजह से बहुत दुखी हूँ, मेरे दिल में शिकायतें हैं, और मुझमें अपना कर्तव्य निभाने का कोई उत्साह नहीं है। कृपा करके मुझे अपने इरादों को समझने के लिए प्रबुद्ध करिए। मैं समर्पित होकर आत्मचिंतन करना और सबक सीखना चाहती हूँ।”

अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “पहला, जब लोग परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करते हैं, तब उनमें से किसके पास अपने लक्ष्य, कारण, और महत्वाकांक्षाएँ नहीं होती हैं? उनका एक भाग भले ही परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता है और परमेश्वर के अस्तित्व को देख चुका होता है, फिर भी वे कारण परमेश्वर में उनके विश्वास में अब भी समाए होते हैं, और परमेश्वर में विश्वास करने में उनका अंतिम लक्ष्य उसके आशीष और अपनी मनचाही चीजें प्राप्त करना होता है। लोगों के जीवन अनुभवों में, वे प्रायः मन ही मन सोचते हैं : ‘मैंने परमेश्वर के लिए अपने परिवार और जीविका का त्याग कर दिया है, और उसने मुझे क्या दिया है? मुझे इसमें अवश्य जोड़ना, और इसकी पुष्टि करनी चाहिए—क्या मैंने हाल ही में कोई आशीष प्राप्त किया है? मैंने इस दौरान बहुत कुछ दिया है, मैं बहुत दौड़ा-भागा हूँ, मैंने बहुत अधिक सहा है—क्या परमेश्वर ने बदले में मुझे कोई प्रतिज्ञाएँ दी हैं? क्या उसने मेरे अच्छे कर्म याद रखे हैं? मेरा अंत क्या होगा? क्या मैं परमेश्वर के आशीष प्राप्त कर सकता हूँ? ...’ प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदय में निरंतर ऐसा गुणा-भाग करता है, और वे परमेश्वर से माँगें करते हैं जिनमें उनके कारण, महत्वाकांक्षाएँ, तथा लेन-देन की मानसिकता होती है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने हृदय में लगातार परमेश्वर की परीक्षा लेता रहता है, परमेश्वर के बारे में लगातार मनसूबे बनाता रहता है, और स्वयं अपने व्यक्तिगत मनोरथ के पक्ष में परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क करता रहता है, और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहलवाने की कोशिश करता है, यह देखने के लिए कि परमेश्वर उसे वह दे सकता है या नहीं जो वह चाहता है। परमेश्वर का अनुसरण करने के साथ ही साथ, मनुष्य परमेश्वर से परमेश्वर के समान बर्ताव नहीं करता है। मनुष्य ने परमेश्वर के साथ हमेशा सौदेबाजी करने की कोशिश की है, उससे अनवरत माँगें की हैं, और यहाँ तक कि एक इंच देने के बाद एक मील लेने की कोशिश करते हुए, हर क़दम पर उस पर दबाव भी डाला है। परमेश्वर के साथ सौदबाजी करने की कोशिश करते हुए साथ ही साथ, मनुष्य उसके साथ तर्क-वितर्क भी करता है, और यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं जो, जब परीक्षाएँ उन पर पड़ती हैं या जब वे अपने आप को किन्हीं खास स्थितियों में पाते हैं, तो प्रायः कमजोर, नकारात्मक और अपने कार्य में सुस्त पड़ जाते हैं, और परमेश्वर के बारे में शिकायतों से भरे होते हैं। मनुष्य ने जब पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया था, उसी समय से मनुष्य ने परमेश्वर को एक अक्षय पात्र, एक स्विस आर्मी चाकू माना है, और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा साहूकार माना है, मानो परमेश्वर से आशीष और प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार और दायित्व है, जबकि परमेश्वर की जिम्मेदारी मनुष्य की रक्षा और देखभाल करना, और उसे भरण-पोषण देना है। ऐसी है ‘परमेश्वर में विश्वास’ की मूलभूत समझ, उन सब लोगों की जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और ऐसी है परमेश्वर में विश्वास की अवधारणा की उनकी गहनतम समझ(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मुझे काफी अपराध बोध महसूस हुआ। मैंने देखा कि अपनी आस्था में मैं परमेश्वर को परमेश्वर नहीं मान रही थी। मैं परमेश्वर को एक स्विस आर्मी चाकू, एक अक्षय पात्र समझ बैठी थी, सोचती थी कि अगर मैं परमेश्वर के लिए खुद को खपाती हूँ, तो वह यकीनन मुझे सुरक्षित और सेहतमंद रखेगा, मुझे कभी बीमारी या त्रासदी का सामना नहीं करना पड़ेगा, और मैं सभी तरह की आपदाओं से बच जाऊँगी, और अंत में मुझे बचाया जाएगा और मुझे एक अच्छी मंज़िल हासिल होगी। इन पिछले कुछ सालों में, मैं अपने परिवार से दूर हो गई और मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए करियर भी छोड़ दिया, मैंने पीड़ा सही और कीमत चुकाई, गिरफ्तार करके भयंकर यातना दिए जाने के भी मैंने पाँव पीछे नहीं किए। मगर जब मैं बीमार पड़ी, खासकर जब मैंने देखा कि मेरी सेहत की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं, तो मैंने परमेश्वर को दोष दिया, उससे तर्क करने की कोशिश की। मैंने सालों से झेले गए सारे कष्टों को जोड़ा, और सोचा कि अगर मुझे बचाया नहीं गया तो मैंने जो कुछ भी दिया वो सब बेकार चला जाएगा, तो मैंने अपने कर्तव्य में ध्यान देना कम कर दिया। फिर समझ आया कि मेरी आस्था सत्य पाने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के लिए नहीं थी, बल्कि अपने कष्टों और कड़ी मेहनत के बदले परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष पाने के लिए थी। क्या यह परमेश्वर को धोखा देना और उसका इस्तेमाल करना नहीं है? इंसान को बचाने के लिए परमेश्वर ने हमारे सिंचन और पोषण के लिए कई वचन बोले हैं। मगर मैंने परमेश्वर के प्रेम का मूल्य नहीं चुकाया; बल्कि उससे लेन-देन करने की कोशिश की। जब उसने वो पूरा नहीं किया जो मैं चाहती थी, तो मैं जैसे-तैसे कर्तव्य निभाने लगी और परवाह करना छोड़ दिया। मैं परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी ईमानदार नहीं थी। मुझमें सचमुच विवेक या समझ नाम की चीज़ नहीं थी। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करने लगी, “परमेश्वर, मैं अपनी आस्था में तुम्हारा इस्तेमाल करके तुम्हें धोखा देती रही हूँ। मैं तो इंसान कहलाने लायक भी नहीं हूँ! मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ। मुझे राह दिखाओ।”

फिर मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “कई मामलों में परमेश्वर के परीक्षण एक बोझ होते हैं जो वह लोगों को देता है। परमेश्वर तुम्हें कितना भी भारी बोझ क्यों न दे, तुम्हें उस बोझ का भार उठाना चाहिए, क्योंकि परमेश्वर तुम्हें समझता है, और यह जानता है कि तुम वह बोझ उठा पाओगे। परमेश्वर तुम्हें जो बोझ देता है, वह तुम्हारी कद-काठी, या तुम्हारी सहनशक्ति की अधिकतम सीमा से अधिक नहीं होगा; इसलिए तुम निश्चित रूप से उसे वहन करने में सक्षम होगे। परमेश्वर चाहे तुम्हें किसी भी तरह का बोझ या किसी भी तरह का परीक्षण दे, एक बात याद रखो : प्रार्थना करने के बाद चाहे तुम परमेश्वर के इरादों को समझ पाओ या नहीं, चाहे तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन और प्रकाश प्राप्त कर पाओ या नहीं; और इस परीक्षण द्वारा परमेश्वर चाहे तुम्हें अनुशासित कर रहा हो या तुम्हें चेतावनी दे रहा हो, अगर तुम इसे नहीं समझ पाते हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में देर नहीं करते और वफादारी से उस पर डटे रहते हो, तो परमेश्वर संतुष्ट रहेगा और तुम अपनी गवाही में मजबूती से खड़े रहोगे। ... अगर परमेश्वर में अपनी आस्था और सत्य की खोज में तुम यह कहने में सक्षम हो कि ‘परमेश्वर कोई भी बीमारी या अप्रिय घटना मेरे साथ होने दे—परमेश्वर चाहे कुछ भी करे—मुझे समर्पण करना चाहिए और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर रहना चाहिए। अन्य सभी चीजों से पहले मुझे सत्य के इस पहलू—समर्पण—को अभ्यास में लाना चाहिए, मुझे इसे कार्यान्वित करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण की वास्तविकता को जीना ही चाहिए। साथ ही, परमेश्वर ने जो आदेश मुझे दिया है और जो कर्तव्य मुझे निभाना चाहिए, मुझे उनका परित्याग नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि अंतिम साँस लेते हुए भी मुझे अपने कर्तव्य पर डटे रहना चाहिए,’ तो क्या यह गवाही देना नहीं है? जब तुम्हारा इस तरह का संकल्प होता है और तुम्हारी इस तरह की अवस्था होती है, तो क्या तब भी तुम परमेश्वर की शिकायत कर सकते हो? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते। ऐसे समय में तुम मन ही मन सोचोगे, ‘परमेश्वर ने मुझे यह साँस दी है, उसने इन तमाम वर्षों में मेरा पोषण और मेरी रक्षा की है, उसने मुझसे बहुत-सा दर्द लिया है और मुझे बहुत-सा अनुग्रह और बहुत-से सत्य दिए हैं। मैंने ऐसे सत्यों और रहस्यों को समझा है, जिन्हें लोग कई पीढ़ियों से नहीं समझ पाए हैं। मैंने परमेश्वर से इतना कुछ पाया है, इसलिए मुझे भी परमेश्वर को कुछ लौटाना चाहिए! पहले मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा था, मैं कुछ भी नहीं समझता था, और मैं जो कुछ भी करता था, उससे परमेश्वर को दुख पहुँचता था। हो सकता है, मुझे परमेश्वर को लौटाने का भविष्य में और अवसर न मिले। मेरे पास जीने के लिए जितना भी समय बचा हो, मुझे अपनी बची हुई थोड़ी-सी शक्ति अर्पित करके परमेश्वर के लिए वह सब करना चाहिए जो मैं कर सकता हूँ, ताकि परमेश्वर यह देख सके कि उसने इतने वर्षों से मेरा जो पोषण किया है, वह व्यर्थ नहीं गया, बल्कि फलदायक रहा है। मुझे परमेश्वर को और दुखी या निराश करने के बजाय उसे सुख पहुँचाना चाहिए’(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके, मैं उसके इरादे को समझ पाई। मैं चाहे कैसी भी मुश्किलों का सामना करूँ, सब परमेश्वर की अनुमति से होता है। यह बीमारी देकर परमेश्वर उठाने के लिए बोझ दे रहा है, मुझे बस स्वीकार कर समर्पण करना चाहिए, गवाही देनी चाहिए। मैंने पतरस के बारे में सोचा, परमेश्वर को संतुष्ट करना और उसे समर्पित होने का प्रयास करता सक्षम था, उसने बीमारी का सामना किया और अभाव में जीवन बिताया, मगर वह इन चीजों को स्वीकार कर पाया और कभी शिकायत नहीं की। ये चीजें परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम को नहीं बदल पाईं। मुझे पतरस की तरह एक सृजित प्राणी की जगह खड़े होकर इस हालात से सबक सीखना होगा। मैं दवाएं लेते हुए अपना कर्तव्य निभाती रही, मैंने खुद को अपनी बीमारी से मजबूर नहीं पाया। कुछ महीनों तक धीरे-धीरे सुधार होने के बाद, मेरी समस्या खत्म हो गई। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी।

सितंबर में एक दिन, मैं सुसमाचार साझा करके घर आई, तो मेरे पति ने भारी आवाज में कहा कि वे एक दिन पहले नियमित चेकअप के लिए गए थे, तो डॉक्टर ने कहा कि अगले दिन फिर से आकर एमआरआई करा लें। अपने पति की बात सुनकर मैं काफी बेचैन हो गई, और मैं सोचने लगी कि कहीं उन्हें कोई गंभीर बीमारी तो नहीं हो गई, उस रात मैं बिल्कुल नहीं सो पाई। बिस्तर पर करवटें बदलती रही। मैंने यह सोचकर खुद को दिलासा दिया कि शायद कोई बड़ी समस्या नहीं होगी। वे भी एक विश्वासी हैं और मैं घर से दूर रहकर अपना कर्तव्य निभाती रही हूँ, तो परमेश्वर उनकी रक्षा ज़रूर करेंगे। अगले दिन मैं उनके साथ अस्पताल गई। हैरत हुई, जब मुझे पता चला कि उन्हें पैन्क्रियाटिक कैंसर है। यह खबर सुनकर मुझे ज़ोर का झटका लगा। मैंने सुना था कि इस कैंसर का इलाज बहुत मुश्किल है और समय पर इलाज नहीं हुआ तो यह बहुत तेज़ी से बढ़ता है और अगर गंभीर हुआ तो कुछ ही महीनों में जानलेवा हो सकता है। वे जीवन के जोश से भरपूर लगते थे, मगर शायद उनके पास ज्यादा समय नहीं बचा था। मुझे लगा जैसे मेरे ऊपर आसमान टूट पड़ा हो। मैंने सोचा, “मैं अभी-अभी तो ठीक हुई हूँ और मेरे पति को कैंसर हो गया। ऐसा क्यों हो रहा है?” जब भी मैं अपने पति के कैंसर के बारे में सोचती, तो बुरी तरह रोने लगती। अपनी पीड़ा में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मेरे दिल की देखभाल करने और उसके इरादे को समझने में मेरा मार्गदर्शन करने की विनती की।

मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : “परमेश्वर पर विश्वास करते हुए लोग भविष्य के लिए आशीष पाने में लगे रहते हैं; यही उनकी आस्‍था का लक्ष्‍य होता है। सभी लोगों की यही अभिलाषा और आशा होती है, लेकिन उनकी प्रकृति की भ्रष्टता परीक्षणों और शोधन के माध्यम से दूर की जानी चाहिए। तुम जिन-जिन पहलुओं में शुद्ध नहीं हो और भ्रष्टता दिखाते हो, उन पहलुओं में तुम्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाकर उसमें परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपनी भ्रष्टता को जान जाओ। अंततः तुम उस मुकाम पर पहुँच जाते हो जहाँ तुम अपनी योजनाओं और इच्छाओं को छोड़ने और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करने के लिए मर जाना पसंद करते हो। इसलिए अगर लोगों का कई वर्षों तक शोधन न हो, अगर वे एक हद तक पीड़ा न सहें, तो वे अपनी सोच और हृदय में देह की भ्रष्टता की बाध्यताएँ तोड़ने में सक्षम नहीं होंगे। जिन किन्हीं पहलुओं में लोग अभी भी अपनी शैतानी प्रकृति की बाध्यताओं में जकड़े हैं और जिन भी पहलुओं में उनकी अपनी इच्छाएँ और मांगें बची हैं, उन्हीं पहलुओं में उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। केवल दुख भोगकर ही सबक सीखे जा सकते हैं, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे समझने में समर्थ होना। वास्तव में, कई सत्य कष्टदायक परीक्षणों से गुजरकर समझ में आते हैं। कोई भी व्यक्ति आरामदायक और सहज परिवेश या अनुकूल परिस्थिति में परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ सकता है, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को नहीं पहचान सकता है, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की सराहना नहीं कर सकता है। यह असंभव होगा!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों की रोशनी में मैंने आत्मचिंतन किया। पहले जब मैं बीमार थी, परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन के ज़रिए, मैंने अपने आशीष पाने के गलत दृष्टिकोण को पहचाना, फिर अपनी हालत की परवाह न करते हुए, मैं समर्पित होने को तैयार थी। मैंने सोचा मैं आशीष पाने की अपनी इच्छा त्याग दूँगी, मगर जब मेरे पति को कैंसर हुआ, तो मैं परमेश्वर को दोष देने और उसे गलत समझने से खुद को नहीं रोक पाई। मुझे लगा परमेश्वर को हमारी रक्षा करनी चाहिए क्योंकि हम विश्वासी हैं। मैंने देखा कि आशीष पाने की मेरी इच्छा कितनी गहरी थी। अगर परमेश्वर ने मुझे ऐसे बेनकाब नहीं किया होता, तो मुझे अपने हृदय में गहराई में निहित आशीष पाने और असाधारण इच्छाओं को प्राप्त करने के इरादों को पहचानना मुश्किल होता, और मेरे लिए शुद्ध होना और परिवर्तन प्राप्त करना उससे भी अधिक कठिन हो जाता। फिर मुझे एहसास हुआ कि मुझे अपने पति की बीमारी से सबक सीखना होगा, परमेश्वर को दोष देना बंद करना होगा।

शांत होकर, मैंने विचार किया, जब मेरे पति को कैंसर हुआ तो मैं शिकायत करने और परमेश्वर को गलत समझने से खुद को क्यों नहीं रोक पाई। मैंने परमेश्वर के वचन में पढ़ा : “मसीह-विरोधियों की नजर में और उनके विचारों और दृष्टिकोणों में परमेश्वर के अनुसरण के पीछे कुछ न कुछ फायदे होने चाहिए; वे फायदों के बिना नहीं हिलने वाले। अगर वे प्रसिद्धि, लाभ या रुतबे का आनंद नहीं ले सकते, अगर वे जो भी कार्य करते हैं या कर्तव्य निभाते हैं उसमें लोगों की प्रशंसा नहीं मिलती तो वे परमेश्वर में विश्वास करने और अपने कर्तव्य निभाने में कोई तुक नहीं समझते। उन्हें पहला लाभ यह होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों में जिन वादों और आशीषों की बात की गई है वे उन्हें जरूर मिलें, और उन्हें कलीसिया के अंदर प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे का आनंद भी मिलना चाहिए। मसीह-विरोधियों को लगता है कि परमेश्वर में विश्वास से व्यक्ति दूसरों से श्रेष्ठ हो जाएगा, उसे सराहना मिलेगी और वह विशेष हो जाएगा—परमेश्वर के विश्वासियों को कम-से-कम इन चीजों का आनंद लेना चाहिए। अगर वे ऐसा नहीं कर पाते तो फिर इस बात पर कुछ प्रश्नचिह्न लग जाता है कि क्या यह परमेश्वर जिस पर वे विश्वास कर रहे हैं सच्चा परमेश्वर है। क्या मसीह-विरोधियों का तर्क इन शब्दों को सत्य मान लेने वाला नहीं होता कि ‘परमेश्वर में विश्वास करने वालों को परमेश्वर के आशीष और अनुग्रह का आनंद जरूर मिलना चाहिए’? जरा इन शब्दों के विश्लेषण की कोशिश करो : क्या ये सत्य हैं? (नहीं हैं।) अब यह स्पष्ट है कि ये शब्द सत्य नहीं हैं, ये भ्रांति हैं, ये शैतान की दलील हैं और इनका सत्य से कोई संबंध नहीं है। क्या परमेश्वर ने कभी ऐसा कहा है, ‘अगर लोग मुझ में विश्वास करेंगे तो उन्हें अवश्य ही आशीष मिलेगा और वे कभी दुःख नहीं भोगेंगे’? परमेश्वर के वचनों की कौन-सी पँक्ति ऐसा कहती है? परमेश्वर ने कभी ऐसा कोई वचन नहीं कहा है, न कभी ऐसा किया है। जब आशीषों या दुःखों की बात आती है तो एक सत्य ऐसा है जिसे खोजना चाहिए। लोगों को किस बुद्धिमानी भरी कहावत का पालन करना चाहिए? अय्यूब ने कहा, ‘क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?’ (अय्यूब 2:10)। क्या ये शब्द सत्य हैं? ये एक मनुष्य के शब्द हैं; इन्हें सत्य की ऊँचाइयों पर नहीं रखा जा सकता, हालाँकि ये किसी न किसी रूप में सत्य के अनुरूप जरूर हैं। ये किस रूप में सत्य के अनुरूप हैं? लोग आशीष पाते हैं या दुःख भोगते हैं, यह सब परमेश्वर के हाथ में है, यह सब परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है। यह सत्य है। क्या मसीह-विरोधी इसमें विश्वास करते हैं? नहीं, वे नहीं करते। वे यह नहीं मानते। वे इसमें विश्वास क्यों नहीं करते या इसे क्यों नहीं मानते हैं? (परमेश्वर में उनका विश्वास आशीष पाने की खातिर होता है—वे सिर्फ आशीष पाना चाहते हैं।) (क्योंकि वे बहुत स्वार्थी होते हैं और सिर्फ देह के हितों के पीछे भागते हैं।) अपने विश्वास में मसीह-विरोधी सिर्फ आशीष पाना चाहते हैं और दुःख नहीं भोगना चाहते। जब वे यह देखते हैं कि किसी व्यक्ति को आशीष मिला है, उसे लाभ मिला है, अनुग्रह मिला है और उसे अधिक भौतिक सुख और बड़े लाभ मिले हैं, तो उन्हें लगता है कि यह परमेश्वर ने किया है; और अगर उसे ऐसे भौतिक आशीष नहीं मिले हैं तो फिर यह परमेश्वर का कार्य नहीं है। इसका तात्पर्य है, ‘अगर तुम सचमुच परमेश्वर हो तो फिर तुम लोगों को सिर्फ आशीष दे सकते हो; तुम्हें लोगों का दुःख टालना चाहिए और उन्हें पीड़ा नहीं होने देनी चाहिए। केवल तभी लोगों के लिए तुममें विश्वास करने का महत्व और औचित्य है। अगर तुममें विश्वास करने के बाद भी लोग दुःख से घिरे हैं, अभी भी पीड़ा में हैं, तो फिर तुममें विश्वास करने का क्या औचित्य है?’ वे यह स्वीकार नहीं करते कि सभी चीजें और घटनाएँ परमेश्वर के हाथ में हैं, कि परमेश्वर समस्त चीजों का संप्रभु है। और वे ऐसा क्यों नहीं स्वीकारते? क्योंकि मसीह-विरोधी दुःख भोगने से घबराते हैं। वे सिर्फ लाभ उठाना चाहते हैं, फायदे में रहना चाहते हैं, आशीषों का आनंद लेना चाहते हैं; वे परमेश्वर की संप्रभुता या आयोजन नहीं स्वीकारना चाहते, बल्कि परमेश्वर से सिर्फ लाभ पाना चाहते हैं। मसीह-विरोधियों का यही स्वार्थी और घृणित दृष्टिकोण होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग छह))। “सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी खातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; जब वे चीजें त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं, तो यह धन्य होने के लिए होता है, और जब वे परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं, तो यह भी पुरस्कार पाने के लिए ही होता है। संक्षेप में, यह सब धन्य होने, पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में लोग अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर में वे धन्य होने के लिए कोई कर्तव्य करते हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए ही लोग सब-कुछ छोड़ते हैं और कड़े दुःख को सहन कर पाते हैं। मनुष्य की शैतानी प्रकृति का इससे बेहतर प्रमाण नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन आशीष और दुर्भाग्य के बारे में मसीह-विरोधियों की सोच बताते हैं। वे अपनी आस्था में आशीषों के पीछे भागते हैं, सोचते हैं कि उनकी आस्था के कारण उन्हें आशीष मिलेगी। जब ऐसा नहीं होता, तो उन्हें लगता है कि आस्था का कोई मतलब नहीं, और वे किसी भी पल परमेश्वर को धोखा देकर उसे छोड़ सकते हैं। मैंने देखा कि आस्था को लेकर मेरा नज़रिया भी ऐसा ही है। मैं सोचती थी कि जब मैंने इतने सारे त्याग किए हैं, तो परमेश्वर मुझे और मेरे परिवार को सुरक्षा, बीमारी और आपदा से मुक्ति का आशीष देगा। इसलिए मैंने मेरे पति या मेरे बीमार होने पर, परमेश्वर को गलत समझा और उसे दोष दिया। मैंने तो परमेश्वर के सामने अनुचित मांगें भी रखीं, मैं चाहती थी वो मेरी समस्या और मेरे पति का कैंसर ठीक कर दे। जब परमेश्वर ने मेरी इच्छाएँ पूरी नहीं कीं, तो मैं अपने कर्तव्य के लिए और खपना नहीं चाहती थी। आस्था को लेकर मेरी सोच कितनी बेतुकी थी! सच तो यह है, परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा कि विश्वासियों के साथ बुरी चीज़ें नहीं होंगी। वह सभी चीज़ों पर राज करता है। जन्म, मृत्यु, बीमारी और सेहत, सब उसी के हाथ में है, लोग परमेश्वर से सिर्फ आशीष ही नहीं, बल्कि दुर्भाग्य भी पाते हैं, और विश्वासी कोई अपवाद नहीं हैं। कर्तव्य निभाना सबसे उचित और स्वाभाविक चीज़ है जो सृजित प्राणी को करनी चाहिए, इसका आशीष मिलने या न मिलने से कोई लेना-देना नहीं है। मगर शैतान ने मुझे इतनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया था कि मैं “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और “बिना पुरस्कार के कभी कोई काम मत करो” जैसे शैतानी जहर के मुताबिक जी रही थी। मैं बस खुद के हितों के बारे में सोचती थी, परमेश्वर को अपने द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली वस्तु के रूप में देख रही थी। मैं अपनी पीड़ा, त्याग और कड़ी मेहनत का इस्तेमाल कर धोखे से परमेश्वर से आशीष पाना चाहती थी। जब परमेश्वर ने कुछ ऐसा किया जो मेरे निजी हितों पर चोट करते थे, तो उसके लिए मेरे मन में शिकायतें और गलतफहमी भर गई, मैंने उससे तर्क करते हुए उसका विरोध किया। मैं किस तरह की विश्वासी थी? मैं स्वार्थी और घिनौनी थी! मुझे पौलुस की याद आई, उसने भी प्रभु के लिए बहुत से कष्ट सहे थे, पर उसने सत्य या परमेश्वर के ज्ञान का अनुसरण बिल्कुल नहीं किया। उसने अपने त्याग, योगदानों और कड़ी मेहनत का इस्तेमाल कर बदले में पुरस्कार और मुकुट पाना चाहा। उसने कहा था, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्‍वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। असल में उसका मतलब था कि अगर परमेश्वर ने उसे मुकुट और पुरस्कार नहीं दिया, तो परमेश्वर धार्मिक नहीं है। वह अपने प्रयासों और कष्टों का इस्तेमाल पूँजी के रूप में करके परमेश्वर पर दबाव डालना और उसका विरोध करना चाहता था। आखिर में परमेश्वर ने उसे दंड दिया। इसका एहसास होने पर मुझे बहुत डर लगा। मैंने देखा कि अपनी आस्था में मैंने सत्य के अनुसरण पर नहीं, बल्कि सिर्फ अनुग्रह और आशीष पाने पर ध्यान दिया। मैं परमेश्वर के विरोध के मार्ग पर चल रही थी। इस तरह मुझे कभी सत्य हासिल नहीं होगा, मेरा भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदलेगा। आखिर में मुझे हटा दिया जाएगा! फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर पर विश्वास करना कष्ट सहने या उसके लिए कई चीजें करने से ताल्लुक रखता है; तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर में विश्वास का प्रयोजन तुम्हारी देह की शांति के लिए है, या इसलिए है कि तुम्हारी जिंदगी में सब-कुछ ठीक रहे, या इसलिए कि तुम आराम से रहो और हर चीज में सहज रहो। परंतु इनमें से कोई भी प्रयोजन ऐसा नहीं है, जिसे लोगों को परमेश्वर पर अपने विश्वास के साथ जोड़ना चाहिए। अगर तुम इन प्रयोजनों के लिए विश्वास करते हो, तो तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है, और तुम्हें पूर्ण बनाया जाना बिल्कुल संभव नहीं है। परमेश्वर के क्रियाकलाप, परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, उसकी बुद्धि, उसके वचन, और उसकी अद्भुतता और अगाधता ही वे सब चीजें हैं, जिन्हें लोगों को समझना चाहिए। यह समझ होने पर, तुम्हें इसका उपयोग अपने हृदय को व्यक्तिगत माँगों, आशाओँ और धारणाओं से छुटकारा दिलाने के लिए करना चाहिए। केवल इन चीजों को दूर करके ही तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित शर्तें पूरी कर सकते हो, और केवल ऐसा करके ही तुम जीवन प्राप्त कर सकते हो और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो। परमेश्वर पर विश्वास करने का प्रयोजन उसे संतुष्ट करना और उसके द्वारा अपेक्षित स्वभाव को जीना है, ताकि अयोग्य लोगों के इस समूह के माध्यम से उसके क्रियाकलाप और उसकी महिमा प्रकट हो सके। परमेश्वर पर विश्वास करने का यही सही दृष्टिकोण है और यही वह लक्ष्य भी है, जिसे तुम्हें पाना चाहिए(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। परमेश्वर के वचनों ने दिखाया कि मुझे किस चीज़ का अनुसरण करना चाहिए। अपनी आस्था में मुझे किसी तरह के फ़ायदे या आशीष के पीछे नहीं भागना चाहिए, बल्कि परमेश्वर को जानने और संतुष्ट करने का तरीका खोजना चाहिए, अय्यूब की तरह परमेश्वर से कोई माँग या अनुरोध नहीं करना चाहिए। अय्यूब का मानना था कि उसके पास जो भी था वह परमेश्वर ने दिया था, तो चाहे परमेश्वर ने दिया हो या छीन लिया हो, चाहे उसे आशीष मिली हो या बदकिस्मती, उसने बिना शर्त परमेश्वर के प्रति समर्पण किया और उसकी धार्मिकता की प्रशंसा की। जब शैतान ने अय्यूब को प्रलोभन दिया, जब उसकी सभी संपत्तियां चोरी हो गई थीं, उसके बच्चे मर गए थे, और उसका पूरा शरीर फोड़ों से भर गया था, तब उसने कभी परमेश्वर से शिकायत नहीं की, और उसके नाम का गुणगान करता रहा। परमेश्वर ने चाहे जो भी किया, अय्यूब एक सृजित प्राणी के स्थान पर खड़ा रहा, उसके प्रति समर्पित होकर उसकी आराधना की। इसलिए परमेश्वर ने अय्यूब की आस्था की प्रशंसा की। इस समझ से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। मेरे पति की सेहत बेहतर हो या न हो, मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पित होना होगा और कर्तव्य पूरा करना होगा।

फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढे : “परमेश्वर ने सभी सृजित प्राणियों की उत्पत्ति, आगमन, जीवनकाल और परिणाम के साथ ही उनके जीवन के मिशन और मानव जाति में उनकी भूमिका की पूरी योजना पहले से ही बना रखी है। इन चीजों को कोई नहीं बदल सकता; यह सृष्टिकर्ता का अधिकार है। प्रत्येक सृजित प्राणी का आगमन, उसके जीवन का मिशन, उसका जीवनकाल कब समाप्त होगा—ये सभी नियम परमेश्वर द्वारा बहुत पहले ही निर्धारित किए गए हैं, जैसे परमेश्वर ने प्रत्येक खगोलीय पिंड की कक्षा निर्धारित की; ये खगोलीय पिंड किस कक्षा में चलेंगे, ये कितने वर्षों तक और कैसे परिक्रमा करेंगे, किन नियमों का पालन करेंगे—यह सब परमेश्वर ने बहुत पहले ही निर्धारित किया था, जो हजारों-लाखों वर्षों से अपरिवर्तित है। यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित है, और यह उसका अधिकार है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। वचनों से मैंने देखा, हमारी किस्मत, उम्र और परिणाम, सब सृष्टि के प्रभु के हाथों में है। हमारा जन्म, मृत्यु, बीमारी और सेहत सब परमेश्वर के शासन द्वारा नियत किए गए हैं। हमारी मौत कब होगी यह परमेश्वर तय करता है, कोई भी इससे बच नहीं सकता। लेकिन परमेश्वर ने जो समय तय किया है, उसके आने से पहले कैंसर भी हो जाए तो हम नहीं मरेंगे। यह परमेश्वर का अधिकार है और इसे कोई नहीं बदल सकता। इस समझ से मुझे थोड़ी राहत मिली। मैं जानती थी कि मेरे पति की सेहत परमेश्वर के हाथों में है, मैं बस परमेश्वर की व्यवस्था के प्रति समर्पित होते हुए अपना कर्तव्य पूरा कर सकती थी।

अस्पताल में कुछ दिनों तक मेरे पति ने अपनी कीमोथेरेपी कराई, हैरानी की बात थी कि उनके खून में कैंसर की कोशिकाएं नहीं थीं। सारे सूचक सामान्य थे। आधा ट्यूमर भी चला गया था। डॉक्टर ने कहा, ऐसा मामला शायद ही कभी देखने को मिलता है। हमारे बेटे ने बताया कि उसके सहकर्मी के पिता को भी यही कैंसर हुआ था। उन्होंने बस एक बार कीमोथेरेपी कराई और उसे झेल न पाई, कुछ महीनों के बाद उनकी मौत हो गई। मेरे पति इतनी जल्दी ठीक हो गए, इसके लिए मैंने परमेश्वर का बहुत आभार माना। मुझे सबसे अधिक खुशी थी कि मेरे पति जो सिर्फ नाम के विश्वासी थे, हमेशा पैसे के पीछे भागते थे, उन्हें कैंसर होने के बाद उन्हें परमेश्वर की सर्वशक्ति-संपन्न संप्रभुता की कुछ समझ आयी, फिर उन्होंने अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के बीच सुसमाचार का प्रचार किया और परमेश्वर के कर्मों की गवाही साझा की।

भले ही इन सबसे गुजरना, मेरे लिए काफी पीड़ादायक था, मगर मुझे आशीष पाने की अपनी इच्छा और अनुसरण को लेकर अपनी गलत सोच की थोड़ी समझ मिली, और मैंने अपनी आस्था में अनुसरण के लक्ष्यों को ठीक किया। इस अनुभव से मैंने ये सारे सबक सीखे। मैंने देखा कि मानवजाति को बचाने का परमेश्वर का कार्य बहुत व्यावहारिक है!

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