अपने बेटे की जानलेवा बीमारी का सामना करना

24 जनवरी, 2022

लीयंगक्षिण, चीन

दो साल पहले मेरे बेटे की कमर में अचानक बहुत दर्द होने लगा। जब हम जाँच के लिए उसे अस्पताल ले गए, तो डॉक्टर ने बताया कि जाँच के नतीजे चिंताजनक हैं, इसलिए हमें आगे की जाँच के लिए किसी बड़े प्रांतीय अस्पताल में जाना चाहिए। उनकी बात सुनकर मैं डर गई, मैं जान गई कि मेरे बेटे को कोई गंभीर बीमारी हो सकती है। मगर फिर मैंने सोचा मैं इतने समय से अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, मैंने परमेश्वर के लिए बहुत त्याग किये और कष्ट उठाए हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के भयानक अत्याचार और गिरफ्तारी का भी सामना किया, अपने रिश्तेदारों के ताने और अपमान सहे, मगर मैं हमेशा अपने कर्तव्य में डटी रही, कभी उससे पीछे नहीं हटी। मुझे लगा परमेश्वर के लिए इतना सब कुछ करने के कारण वो किसी भी गंभीर खतरे से मेरे बेटे की रक्षा करेगा। जाँच में पता चला कि मेरे बेटे को लिवर कैंसर और लिवर सिरोसिस था। डॉक्टर का कहना था कि उसके पास बस तीन से छह महीने ही बचे हैं। ये मेरे लिए बहुत बड़ा झटका था, मेरी हालत ऐसी हो गई जैसे मुझे लकवा मार गया हो। मैं इस हकीकत को मान नहीं कर सकी। वो सिर्फ सैंतीस साल का था—उसे ऐसी गंभीर बीमारी कैसे हो सकती है? जाँच के नतीजे मेरे हाथ में थे और मेरे हाथ काँप रहे थे। मैंने सोचा कहीं डॉक्टर ने जाँच करने में कोई गड़बड़ तो नहीं कर दी। मैं अवाक होकर वहीं बिस्तर के कोने में बैठ गई, काफी देर तक मुझे कुछ होश न था। मेरी आँखों से आँसू बहते जा रहे थे मैंने सोचा, "वो तो अभी जवान है—उसे ऐसी गंभीर बीमारी कैसे हो गई? ये दोनों बीमारियाँ ही जानलेवा हैं, मगर एक साथ दोनों का होना? वही हमारा एकमात्र सहारा है। उसके बिना हमारे परिवार का क्या होगा? किसी इंसान को अपने ही बच्चे की कब्र खोदनी पड़े, इससे बड़ा कष्ट नहीं हो सकता।" मेरी हालत खराब होती जा रही थी। मेरे परिवार के लोगों और दोस्तों ने मुझे ताने मारे, कहा कि, "परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी तुम्हारे बेटे को ये बीमारी कैसे हो गई? किस काम का है तुम्हारा परमेश्वर जो तुम्हारे बेटे की रक्षा नहीं कर सका?" उन्होंने मुझसे मेरी आस्था त्याग कर घर पर रहने और बेटे का ख्याल रखने को कहा। उनकी उलाहना सुनकर मैं और भी ज़्यादा दुखी महसूस करने लगी। आँसू हर वक्त बहने को तैयार रहते, मैं सदमे की हालत में जी रही थी। मेरी परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसके वचन पढ़ने की इच्छा भी मर गई। मैं वाकई अंधकार में जा चुकी थी। फिर मैंने ये प्रार्थना की, "परमेश्वर, अपने बेटे को इतना बीमार देखकर, मुझे बहुत कष्ट हो रहा है, मैं इसे और नहीं झेल सकती। मुझे राह दिखाओ ताकि मैं तुम्हारी इच्छा समझ सकूँ।"

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : "परीक्षणों से गुज़रते हुए, लोगों का कमज़ोर होना, या उनके भीतर नकारात्मकता आना, या परमेश्वर की इच्छा पर या अभ्यास के लिए उनके मार्ग पर स्पष्टता का अभाव होना स्वाभाविक है। परन्तु हर हालत में, अय्यूब की ही तरह, तुम्हें परमेश्वर के कार्य पर भरोसा अवश्य होना चाहिए, और परमेश्वर को नकारना नहीं चाहिए। यद्यपि अय्यूब कमज़ोर था और अपने जन्म के दिन को धिक्कारता था, उसने इस बात से इनकार नहीं किया कि मनुष्य के जीवन में सभी चीजें यहोवा द्वारा प्रदान की गई थी, और यहोवा ही उन्हें वापस ले सकता है। चाहे उसकी कैसे भी परीक्षा ली गई, उसने अपना विश्वास बनाए रखा। ... परमेश्वर लोगों पर पूर्णता का कार्य करता है, जिसे वे देख नहीं सकते, महसूस नहीं कर सकते; इन परिस्थितयों में तुम्हारे विश्वास की आवश्यकता होती है। लोगों के विश्वास की आवश्यकता तब होती है जब किसी चीज को नग्न आँखों से नहीं देखा जा सकता है, और तुम्हारे विश्वास की तब आवश्यकता होती है जब तुम अपनी स्वयं की धारणाओं को नहीं छोड़ पाते हो। जब तुम परमेश्वर के कार्यों के बारे में स्पष्ट नहीं होते हो, तो आवश्यकता होती है कि तुम विश्वास बनाए रखो और तुम दृढ़ रवैया रखो और गवाह बनो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मेरे बेटे का इस कदर बीमार पड़ना मेरे लिए एक तरह की परीक्षा थी जिसमें सफल होने के लिए मुझे अपनी आस्था पर डटे रहना था। मैंने अय्यूब के बारे में सोचा, जिसने अपनी सारी संपत्ति, पशुओं और अपने बच्चों को खो दिया था, उसका पूरा शरीर फोड़ों से भर गया था। इतनी बड़ी परीक्षा के बावजूद, वो परमेश्वर पर उँगली उठाने से पहले खुद को कोसने को तैयार था, वो यहोवा के नाम का गुणगान करता रहा। उसने परमेश्वर के लिए शानदार गवाही दी। जब वह इन सारी मुसीबतों का सामना कर रहा था, तो उसके दोस्तों ने उसका मज़ाक उड़ाया, उसकी पत्नी ने उसकी निंदा करते हुए उसे परमेश्वर का साथ छोड़कर मर जाने को कहा। बाहर से तो लगा जैसे उसकी पत्नी और दोस्त ही उसे फटकार रहे हों, मगर असल में इसके पीछे शैतान था जो लोगों के ज़रिये अय्यूब को परमेश्वर को ठुकराने और उसे धोखा देने पर मजबूर कर रहा था। मगर अय्यूब उसके जाल में नहीं फँसा, उसने अपनी पत्नी को फटकार कर उसे बेवकूफ कहा। मैं जान गई कि र मेरे दोस्तों और परिवार के लोगों के हमलों के पीछे शैतान की चालें थीं। मुझे अय्यूब की तरह मजबूती से परमेश्वर के लिए गवाही देनी थी। मैं उनकी बेतुकी बातों पर ध्यान नहीं दे सकती। उस वक्त मैंने खुद को उतना दुखी और असहाय महसूस नहीं किया।

कुछ हफ़्तों बाद उसकी सर्जरी की गई जिससे उसका कैंसर काबू में आ गया। मैंने सोचा शायद परमेश्वर मेरी आस्था के कारण उस पर थोड़ी दया दिखाए, और परमेश्वर के किसी चमत्कार से वह बिल्कुल ठीक हो जाए। मैं अपने बेटे के पूरी तरह स्वस्थ होने की उम्मीद करने लगी, सोचती रही अगर ऐसा हुआ तो कितना अच्छा होगा फिर परमेश्वर के वचनों का ये अंश मुझे याद आया : "तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्‍हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्‍हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्‍हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्‍हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्‍हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्‍हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्‍हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्‍हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्‍हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो?" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी आस्था के पीछे के गलत नज़रिये और आशीष पाने की चाह को साफ तौर पर उजागर कर दिया। मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। प्रभु में विश्वास करते हुए मैं हमेशा आशीष और अनुग्रह की खोज में रहती थी, ताकि मेरे पूरे परिवार को आशीष मिले। परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने के बाद, मैंने कभी बेशर्मों की तरह परमेश्वर से अनुग्रह पाने के लिए प्रार्थना नहीं की, मगर मैंने न तो सत्य खोजा और ना ही कभी परमेश्वर को समझ पाई। इस वर्तमान युग में सौ गुना अधिक पाने और आगे वाले युग में अनंत जीवन की चाह रखना गलत था। मुझे लगा कि मैंने परमेश्वर के लिए इतने त्याग किये हैं, इसलिए वह मेरी सराहना करेगा और मुझे आशीष देगा, वह किसी भी बीमारी या आपदा से मेरे परिवार की रक्षा करके हमारा जीवन आसान बनाएगा, किसी भी भयानक दुर्घटना से हमारी रक्षा करेगा। अपना कर्तव्य निभाने के लिए मैंने अपना घर और नौकरी छोड़ दी, मैं खुशी-खुशी सारा कष्ट उठाने को तैयार थी। मगर जब मेरे बेटे को कैंसर हुआ, तो उसे बीमार देखकर मैं बहुत दुखी हो गई, कि कर्तव्य निभाने की इच्छा ही खो बैठी। मैंने परमेश्वर के लिए खुद को कितना खपाया, कितना कष्ट झेला, उसका हिसाब लगाते हुए, मैं परमेश्वर से कुतर्क कर रही थी, मेरे बेटे की रक्षा नहीं करने के लिए उस पर उँगली उठा रही थी। अपने हालात और परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन से मैंने जाना कि आस्था में अनुसरण को लेकर मेरा नज़रिया गलत था। मैं अपनी आस्था की खातिर त्याग नहीं कर रही थी कि सत्य की खोज सकूँ और अपनी भ्रष्टता से छुटकारा पा सकूँ, बल्कि इसलिए किया कि बदले में परमेश्वर से अनुग्रह और आशीष पा सकूँ। मैं परमेश्वर के साथ लेन-देन कर रही थी, उसका इस्तेमाल करके उसे धोखा दे रही थी। मैं बिना कुछ सोचे-समझे इस बात के पीछे पड़ी थी कि परमेश्वर तूफान, बीमारी और आपदाओं से मेरे परिवार की रक्षा करेगा। मुझमें और उन धार्मिक लोगों में क्या फ़र्क है जो सिर्फ कुछ पाकर ही तृप्त होते हैं? मैंने जाना कि अनुसरण को लेकर मेरा नज़रिया कितना गलत था। फिर समझी कि परमेश्वर का कितना कर्ज है मुझ पर और उसके सामने आकर प्रार्थना करने लगी, मैं अपने बेटे की सेहत परमेश्वर के हाथों में सौंपकर, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार हो गई।

फिर एक के बाद एक मेरे बेटे की तीन-चार सर्जरी हुई, और उसकी हालत बेहतर होती गई। वह ठीक से खाना खाने के साथ-साथ छोटे-मोटे काम भी कर पा रहा था। मैं बहुत खुश थी, खासकर तब जब वह अपने बेटे के साथ नाच-गा रहा था, पूरी तरह स्वस्थ दिख रहा था। मुझे लगा उसके लिए अब भी उम्मीद बाकी है। मैं सोच रही थी कि देखा जाए तो, उसकी बीमारी तो मौत की सजा थी और वो छह महीने भी जिंदा नहीं रह सकता था। मगर अब छह महीने बीत चुके थे और वह काफी स्वस्थ था। ये परमेश्वर की आशीष और सुरक्षा ही थी। अगर ऐसे ही चलता रहता, तो शायद उसके पूरी तरह ठीक होने की संभावना भी हो। मगर मैंने जैसा सोचा था वैसा नहीं हुआ। अचानक उसे खाने-पीने में बहुत तकलीफ होने लगी, उसके पेट की सूजन तेज़ी से बढ़ने लगी जिसके कारण वो ठीक से बैठ भी नहीं पा रहा था। उसने अपनी जाँच कराई, तो पता चला कि कैंसर के ना फैलने के बाद भी, सिरोसिस की समस्या बदतर होती जा रही थी और उसे लिवर एसाइटिस हो गया था। मुझे लगा जैसे मौत हर पल उसके करीब आती जा रही थी, मैं फिर से हताश हो गई। जब मेरे बेटे की सेहत दिनोंदिन बेहतर होती जा रही थी, तो वह फिर से बिगड़ने क्यों लगी ये समझ नहीं आ रहा था। वो कितना अच्छा बेटा था, सबसे हँसी-खुशी मिलकर रहता था, उसने कभी कोई गलत काम नहीं किया। दोस्त, परिवार वाले और पड़ोस के लोग, सभी उसकी तारीफ करते रहते थे। वो मेरी आस्था से बहुत खुश नहीं था, मगर कभी मेरे मार्ग में रुकावट भी नहीं बना। आखिर उसे ये जानलेवा बीमारी क्यों हुई? फिर मैं सोचने लगी, जब से मैं विश्वासी बनी हूँ तब से लगातार सुसमाचार साझा कर रही हूँ, कलीसिया में जो भी काम आता, हमेशा उसके लिए तैयार रहती थी। पार्टी द्वारा गिरफ्तार करके सताए जाने के कारण मेरे परिवार वाले मेरी आस्था का विरोध करने लगे थे, मगर कोई मेरा कितना भी विरोध करता, मैं कभी अपनी आस्था से पीछे नहीं हटी। मैं अपना कर्तव्य निभाती रही। मैंने इतने सारे त्याग किए हैं, फिर मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है? इतने सालों के त्याग के बदले में क्या मुझे यही मिला है? मैंने ऐसा कुछ कहा तो नहीं, मगर मुझे लगने लगा जैसे परमेश्वर ने मेरे साथ गलत किया हो। मैं हर वक्त हताश, उदास और उलझन में रहने लगी। मुझमें कोई उम्मीद नहीं बची थी। मैं हर वक्त भयानक पीड़ा के कारण रोती रहती थी।

एक बार मैंने ये अंश पढ़ा : "धार्मिकता किसी भी तरह से न्‍यासंगत या तर्कसंगत नहीं होती; यह समतावाद नहीं है, या तुम्‍हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्‍हें तुम्‍हारे हक़ का हिस्‍सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्‍हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्‍हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को ख़त्‍म देता : तब भी परमेश्‍वर धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्‍यों कहा जाता है? मानवीय दृष्टिकोण से, अगर कोई चीज़ लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्‍वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज़ को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्‍वर धार्मिक है। अगर परमेश्‍वर ने पहले तभी अय्यूब को नष्‍ट कर दिया होता, तो लोगों ने यह न कहा होता कि वह धार्मिक है। हालाँकि, लोग भ्रष्‍ट कर दिए गए हों या नहीं, उन्हें नष्ट करते समय क्या परमेश्‍वर को अपना इसका औचित्य सिद्ध करना पड़ता है? क्‍या उसे लोगों को बतलाना चाहिए कि वह ऐसा किस आधार पर करता है? क्‍या उसका निर्णय इस बात पर आधारित होना चाहिए : 'अगर वे उपयोगी हैं, तो मैं उन्‍हें नष्‍ट नहीं करूँगा; अगर वे उपयोगी नहीं हैं, तो मैं उन्‍हें नष्‍ट कर दूँगा'? इसकी आवश्यकता नहीं है। परमेश्‍वर की नज़रों में, किसी भी ऐसे व्‍यक्ति से जो भ्रष्‍ट है, वह जैसे भी चाहे निपटा जा सकता है; परमेश्‍वर जो कुछ भी करता है, वह उचित ही होगा, और सब परमेश्वर का ही विधान है। ... परमेश्‍वर का सार धार्मिकता है। यद्यपि वह जो करता है उसे बूझना आसान नहीं है, तब भी वह जो कुछ भी करता है वह सब धार्मिक है; बात सिर्फ़ इतनी है कि लोग समझते नहीं हैं। जब परमेश्‍वर ने पतरस को शैतान के सुपुर्द कर दिया था, तब पतरस की प्रतिक्रिया क्‍या थी? 'तुम जो भी करते हो उसकी थाह तो मनुष्‍य नहीं पा सकता, लेकिन तुम जो भी करते हो उस सब में तुम्‍हारी सदिच्छा समाई है; उस सब में धार्मिकता है। यह कैसे सम्‍भव है कि मैं तुम्‍हारे बुद्धिमान कर्मों की सराहना न करूँ?' आज, तुम्‍हें देखना चाहिए कि परमेश्वर शैतान को इसलिए नष्‍ट नहीं करता ताकि वह मनुष्‍यों को दिखा सके कि शैतान ने उन्‍हें किस तरह भ्रष्‍ट कर दिया है और परमेश्‍वर किस तरह उन्हें बचाता है; अंततः, चूँकि शैतान ने लोगों को बुरी तरह से भ्रष्‍ट कर दिया है उसकी वजह से, वे शैतान द्वारा उन्हें भ्रष्‍ट किए जाने का राक्षसी पाप देखेंगे, और जब परमेश्‍वर शैतान को नष्‍ट करता है, तब वे परमेश्‍वर की धार्मिकता देखेंगे और देखेंगे कि इसमें परमेश्‍वर का स्‍वभाव और बुद्धिमत्ता निहित है। वह सब जो परमेश्‍वर करता है धार्मिक है। हालाँकि वह तुम्‍हारे लिए अज्ञेय हो सकता है, तब भी तुम्‍हें मनमाने ढंग से फ़ैसले नहीं करने चाहिए। अगर तुम्‍हें उसका कोई कृत्‍य अतर्कसंगत प्रतीत होता है, या उसके बारे में तुम्हारी कोई धारणाएँ हैं, और उसकी वजह से तुम कहते हो कि वह धार्मिक नहीं है, तब तुम सर्वाधिक अतर्कसंगत हो रहे हो। तुम देखो कि पतरस ने पाया कि कुछ चीज़ें अबूझ थीं, लेकिन उसे पक्का विश्‍वास था कि परमेश्‍वर की बुद्धिमता विद्यमान थी और उन चीजों में उसकी इच्छा थी। मनुष्‍य हर चीज़ की थाह नहीं पा सकते; इतनी सारी चीज़ें हैं जिन्‍हें वे समझ नहीं सकते। इस तरह, परमेश्‍वर के स्‍वभाव को जानना आसान बात नहीं है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को कैसे जानें')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि उसकी धार्मिकता वैसी नहीं है जैसा कि मैं सोचती थी—यह बिल्कुल निष्पक्ष और भेदभाव से रहित थी, इसका मतलब यह नहीं था कि हम जितना योगदान देंगे उतना ही पाएंगे। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और उसका सार बिल्कुल धार्मिक है, चाहे वह हमें कुछ दे या हमसे छीन ले, चाहे हमें आशीष मिले या हम परीक्षणों में कष्ट भोगें, इन सबमें उसकी बुद्धि काम करती है। यह सब उसके धार्मिक स्वभाव का प्रकाशन है। अय्यूब पूरी जिंदगी परमेश्वर के मार्ग पर चलता रहा, परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहा। परमेश्वर की नज़रों में एकदम पूर्ण होने के बाद भी, परमेश्वर ने उसकी परीक्षा ली। हर परीक्षा के बाद उसके मन में परमेश्वर के लिए आस्था और श्रद्धा बढ़ती गई, और आखिर में उसने शैतान को पूरी तरह हरा कर परमेश्वर के लिए बेहतरीन गवाही दी। फिर परमेश्वर उसके सामने प्रकट हुआ और उसे भरपूर आशीष दिया। इससे परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव प्रकट होता है। मैंने पौलुस के बारे में भी सोचा। उसने बहुत कष्ट उठाए और प्रभु के सुसमाचार का प्रचार करने के लिए दुनिया भर में घूमता रहा, मगर उसके मन में परमेश्वर के लिए सच्ची श्रद्धा या समर्पण नहीं था। वह केवल अपनी कड़ी मेहनत के बदले परमेश्वर से आशीष पाना चाहता था। थोड़ा-बहुत काम करने के बाद उसने कहा, "मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्‍वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है" (2 तीमुथियुस 4:7-8)। पौलुस का योगदान उसकी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं से भरा था, वह परमेश्वर से लेन-देन करना चाहता था। उसका स्वभाव बिल्कुल नहीं बदला और वह परमेश्वर-विरोधी मार्ग पर चल रहा था। आखिर में परमेश्वर ने उसे दंड दिया। इससे पता चलता है कि परमेश्वर इस पर ध्यान नहीं देता कि कौन कितना काम करता है, वह हमारे सच्चे प्रेम और समर्पण को और हमारे जीवन स्वभाव में हुए बदलावों पर ध्यान देता है। यह परमेश्वर के पवित्र और धार्मिक स्वभाव की बेहतर अभिव्यक्ति है। मुझे लगा मैंने जो दिया मुझे उसके बराबर का भुगतान मिलेगा, मेरे योगदानों के बराबर मुझे कुछ न कुछ ज़रूर मिलेगा। यह एक इंसानी, लेन-देन वाली सोच है जो परमेश्वर की धार्मिकता से बिल्कुल अलग है। मैंने कुछ त्याग किए हैं, एक विश्वासी होने के नाते कुछ अच्छे काम भी किए हैं, मगर अनुसरण पर मेरी सोच गलत थी, मेरे मन में परमेश्वर के लिए सच्चा समर्पण नहीं था। बेटे के बीमार पड़ने पर मैंने परमेश्वर को दोषी ठहराया और उसका विरोध किया। मेरा स्वभाव नहीं बदला था, मैं परमेश्वर का विरोध करने वाली इंसान थी जिसका संबंध शैतान से था। मैं परमेश्वर का आशीष पाने के काबिल नहीं थी। मुझे एहसास हुआ कि मैंने परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं समझा था, मैं सोचती थी कि मैंने अपने कर्तव्य में कुछ त्याग किए हैं, इसलिए परमेश्वर को मेरे बेटे की रक्षा कर उसका ध्यान रखना चाहिए। क्या मैं परमेश्वर के कार्य को इंसानी, लेन-देन वाली सोच से नहीं आँक रही थी? फिर मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : "प्रत्येक के पास एक उचित गंतव्य है। ये गंतव्य प्रत्येक व्यक्ति के सार के अनुसार निर्धारित किए जाते हैं और दूसरे लोगों से इनका कोई संबंध नहीं होता। किसी बच्चे का दुष्ट व्यवहार उसके माता-पिता को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता और न ही किसी बच्चे की धार्मिकता को उसके माता-पिता के साथ साझा किया जा सकता है। माता-पिता का दुष्ट आचरण उनकी संतानों को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता, न ही माता-पिता की धार्मिकता उनके बच्चों के साथ साझा की जा सकती है। हर कोई अपने-अपने पाप ढोता है और हर कोई अपने-अपने सौभाग्य का आनंद लेता है। कोई भी दूसरे का स्थान नहीं ले सकता; यही धार्मिकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। मैं सोचती थी, मैंने अपनी आस्था में इतने त्याग किए हैं, इसलिए परमेश्वर मेरे बेटे को ठीक कर देगा। वरना, मैं उसे धार्मिक नहीं समझूँगी। मैं एकदम बेवकूफ थी! मैंने चाहे कितनी भी कीमत चुकायी हो, वह मेरा कर्तव्य था, एक सृजित प्राणी होने के नाते मुझे यही करना चाहिए। इसका मेरे बेटे की बीमारी, उसकी किस्मत या मंज़िल से कोई नाता नहीं। मुझे इसका फायदा उठाकर परमेश्वर के साथ सौदेबाजी या लेन-देन की कोशिश नहीं करनी चाहिए। इसका एहसास होने पर, मैं काफी आज़ाद महसूस करने लगी।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिनसे मुझे अपनी गलत सोच के सार को समझने में मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मसीह-विरोधी कुछ इस तरह के इंसान होते हैं कि उनके साथ चाहे कितनी भी चीजें हो जाएँ, वे कभी भी परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजकर उन्हें सुलझाने की कोशिश नहीं करते, परमेश्वर के वचनों के माध्यम से चीजों को देखने की कोशिश करना तो बहुत दूर की बात है—जिसकी पूरी वजह यह है कि वे लोग मानते ही नहीं कि परमेश्वर के वचनों की हर पंक्ति सत्य है, और वे उस सही रवैये को भी स्वीकार नहीं करते, जो परमेश्वर के कहे अनुसार हर मामले में इंसान का होना चाहिए। वे केवल एक ही प्रकार के परमेश्वर में विश्वास रखते हैं : अलौकिक परमेश्वर में, जो चिह्न और चमत्कार दिखाता है, गुआन यिन और बुद्ध जैसे झूठे देवताओं के समान, जो भी मामूली चिह्न और चमत्कार दिखाते हैं। ... मसीह-विरोधियों की राय में परमेश्वर वही है जो वेदी के पीछे छिपा रहकर पूजा जाए, लोगों द्वारा चढ़ाए जाने वाले खाद्य पदार्थ खाए, उनके द्वारा जलाई जाने वाली धूप में सांस ले, लोग जब मुसीबत में हों तो उनकी मदद करे, सहायता की पेशकश करे और उनके अनुरोध पूरे करे—जहाँ तक वह कर सकता है—बशर्ते वे अपनी विनतियों में गंभीर हों। मसीह-विरोधियों की राय में केवल ऐसा परमेश्वर ही परमेश्वर है। इस बीच, परमेश्वर आज जो कुछ भी करता है, मसीह-विरोधी उसका तिरस्कार करते हैं। और इसकी वजह क्या है? मसीह-विरोधियों की प्रकृति और सार को देखते हुए, उन्हें सिंचन, चरवाही और उद्धार के कार्य नहीं चाहिए जो सृष्टिकर्ता परमेश्वर के प्राणियों पर करता है, बल्कि उन्हें हर चीज में समृद्धि और सफलता चाहिए, वे इस दुनिया में दंडित नहीं होना चाहते, और मरने के बाद वे स्वर्ग जाना चाहते हैं। उनका दृष्टिकोण और आवश्यकताएँ सत्य के प्रति उनकी शत्रुता के सार की पुष्टि करती हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते और वे मसीह के सार को नकारते हैं (भाग एक)')। परमेश्वर का हर एक वचन बिल्कुल सटीक निशाने पर बैठता है। आत्मचिंतन के बाद मुझे एहसास हुआ, कि मैं हमेशा यही सोचती थी कि मैंने अपनी आस्था में जो भी काम किया है उसके लिए परमेश्वर मुझे भुगतान और आशीष देगा, वह मेरे परिवार को सुरक्षित और स्वस्थ रखेगा। इसलिए जब मैंने सर्जरी के बाद अपने बेटे की सेहत को बेहतर होते देखा, तो मैंने उसे परमेश्वर की आशीष माना, मैं उसकी बहुत आभारी थी और उसका गुणगान करने लगी। मगर जब दोबारा उसकी हालत बिगड़ने लगी, तो मैं उसके ठीक होने के लिए परमेश्वर से चमत्कार की उम्मीद करने लगी। जब परमेश्वर ने मेरी इच्छा के अनुसार काम नहीं किया, तो मेरी सारी खुशी गुस्से में बदल गई, मेरे सभी त्यागों का ध्यान नहीं रखने और मेरे बेटे की रक्षा करके उसे ठीक नहीं करने के कारण, मैं परमेश्वर से बहुत नाराज़ हो गई। मुझे अपने त्याग पर भी अफसोस होने लगा। मन में सिर्फ यही चल रहा था, मैंने अपनी आस्था में क्या पाया, क्या खोया। अपनी आस्था में, परमेश्वर को सृष्टिकर्ता मानकर उसकी आराधना करने या उसके प्रति समर्पित होने के बजाय, मैं हमेशा उसे मेरी मांगें पूरी करने वाली और मुझे आशीष देने वाली चीज़ माना। मैं भला उन अविश्वासियों से अलग कहां थी जो बुद्ध या गुआन यिन की आराधना करते हैं? एक सच्चा विश्वासी ऐसा नहीं करता! परमेश्वर दो बार देहधारण करके इस धरती पर आया, उसने भयंकर अपमान सहे, लोगों की निंदा, विरोध, विद्रोह और गलतफहमियों का सामना किया। उसने यह सब हमें अपने वचन और सत्य बताने के लिए किया ताकि वे हमारा जीवन बन जाएं, कि हम परमेश्वर के वचनों के अनुसार चलकर भ्रष्टता से बच सकें, और अंत में हमें बचाया जा सके। परमेश्वर ने मानवजाति के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। इतने सालों की आस्था में मैंने परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष का बहुत आनंद उठाया, मुझे बहुत से सत्यों का सिंचन और पोषण मिला। मगर परमेश्वर के लिए मेरा मन बिल्कुल भी सच्चा नहीं था। इससे परमेश्वर को कितना दुख पहुंचा होगा और कितनी निराशा हुई होगी! मुझे परमेश्वर के ऋणों का एहसास होता गया, मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेक दिए, पछतावे और अपराध बोध के आँसू मेरे चेहरे पर छलक आये। मैंने पश्चाताप में परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा, "परमेश्वर, मैं इतने सालों से सत्य की खोज किए बिना विश्वासी बनी हुई थी। मेरे बेटे की बीमारी के दौरान मैंने तुम्हारे लिए गवाही देने के बजाय, तुम्हें निराश किया। परमेश्वर, मैं तुम्हारी ऋणी हूँ। तुम्हारे सामने पश्चाताप करना चाहती हूँ, मेरे बेटे की सेहत बेहतर हो या ना हो, मैं तुम्हारे आयोजनों और शासन के प्रति समर्पित होने को तैयार हूँ। मुझे आस्था दो और मेरे साथ खड़े रहो।" प्रार्थना के बाद लगा जैसे मेरे कंधों पर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो। मैं बहुत हल्का महसूस करने लगी, मेरे बेटे की बीमारी को लेकर अब मैं पहले जितनी परेशान नहीं थी।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिनसे मुझे इन सबके बारे में कुछ और नई समझ हासिल हुई। "मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कार्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। इन वचनों से मैंने जाना कि हमारे कर्तव्य का आशीष या शाप मिलने से कोई संबंध नहीं है। सृजित प्राणी होने के नाते, मुझे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। यही उचित और सही है। यह वैसा ही है जैसे माता-पिता का अपने बच्चे का पालन-पोषण करना—बच्चों को उनके प्रति ईमानदार होना चाहिए। उनके प्रेम में जायदाद पाने की चाह या शर्तें नहीं होनी चाहिए। यह सबसे बुनियादी चीज़ है जो एक व्यक्ति को करनी चाहिए। अपने कर्तव्य में मेरा ध्यान परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने पर नहीं था। मैं तो परमेश्वर द्वारा दिए गए कर्तव्य का फायदा उठाकर उसके साथ सौदा करना चाहती थी। अपने ज़रा-से त्याग के लिए मैं परमेश्वर से अनुग्रह और आशीष चाहती थी। ये सब नहीं मिलने पर मैं परमेश्वर को दोषी ठहराने लगी। मैं विवेकहीन थी, मैंने वाकई परमेश्वर को निराश किया। मेरे बेटे के बीमार पड़ने पर, मेरी माँगें बढ़ती जा रही थी, मैं हमेशा परमेश्वर को गलत समझती और उसे दोषी ठहराती रही। इस सोच को लेकर मुझे खुद से नफ़रत होने लगी। मैंने मन-ही-मन संकल्प लिया मेरा बेटा ठीक हो या ना हो, मैं दोबारा कभी परमेश्वर को दोषी नहीं ठहराऊँगी। इसके बाद मेरे बेटे की सेहत बिगड़ती चली गई। दिनोदिन उसकी सेहत बिगड़ती जा रही थी। इससे मुझे बहुत तकलीफ हुई, मैं बहुत दुखी थी, मगर मेरा मन बहुत हल्का हो गया।

फिर एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों में ये पढ़ा : "परमेश्वर पहले ही पूरी तरह से अपने सभी प्राणियों की उत्पत्ति, आगमन, जीवन-काल और अंत की योजना, और साथ ही उनके जीवन के लक्ष्य और पूरी मानवजाति में उनकी भूमिका की भी योजना बना चुका है। इन चीजों को कोई नहीं बदल सकता; यह सृष्टिकर्ता का अधिकार है। प्रत्येक प्राणी का आगमन, वे कितने समय तक जीवित रहते हैं, उनके जीवन का लक्ष्य—ये सभी नियम परमेश्वर द्वारा निर्धारित किए गए हैं, ठीक वैसे ही जैसे परमेश्वर ने प्रत्येक खगोलीय पिंड की कक्षा निर्धारित की थी; ये खगोलीय पिंड किस कक्षा का अनुसरण करते हैं, कितने वर्षों तक करते हैं, वे कैसे परिक्रमा करते हैं, वे किन नियमों का पालन करते हैं—यह सब बहुत पहले परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया गया था, जो हजारों-लाखों वर्षों से अपरिवर्तित है। यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया गया गया है, और यह उसका अधिकार है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है')। ये सच है। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, हमारा जीवन कितना लंबा होगा, ये उसके हाथों में है। हम कब तक जिएँगे, कितना कष्ट भोगेंगे, हमें कितनी आशीष मिलेगी ये सब परमेश्वर के हाथों में है। परमेश्वर सिर्फ अच्छे कर्मों के कारण ही किसी का जीवन नहीं बढ़ाता है, और ना ही बुरे कर्मों के कारण किसी का जीवन छोटा करता है। कोई इंसान अच्छा हो या बुरा, निश्चित समय आने पर, परमेश्वर उसका जीवन अवश्य खत्म करेगा। इसे कोई नहीं बदल सकता। मेरा बेटा कब तक जिंदा रहेगा, परमेश्वर यह बहुत पहले ही तय कर चुका है। परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक होते हैं मुझे बस उसके आयोजनों और शासन के प्रति समर्पित होना चाहिए। इसका एहसास होने पर मेरी पीड़ा कुछ कम हुई। मैं जानती थी कि मेरे बेटे के साथ चाहे जो भी हो, एक सृजित प्राणी होने के नाते मुझे अपना कर्तव्य निभाकर परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना ही होगा।

इस साल मार्च में, मैंने आखिरकार अपने बेटे को अलविदा कहा। मगर परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से, मैं उसकी मौत का ठीक से सामना कर पाई और मेरी पीड़ा बहुत कम हुई। इन दो सालों में, जब से मेरा बेटा बीमार हुआ था, मैंने बहुत पीड़ा सही, मगर इस पीड़ा के अनुभव से ही मैं अपनी आस्था के पीछे छिपी आशीष पाने की चाह की भ्रष्टता और अपने नीच इरादों को समझ पाई। मैं जान गई कि शैतान मुझे कितनी गहराई तक भ्रष्ट कर चुका है, अगर मैंने इस भ्रष्टता को दूर नहीं किया, तो मैं परमेश्वर को दोषी ठहराकर उसे ठुकराती रहूँगी। इस अनुभव से मैंने वास्तव में जाना कि अपने जीवन की इन मुश्किलों से मुझे कितना फायदा हुआ है। परमेश्वर के कर्म हमारी धारणाओं से जितने अलग होंगे, उसमें खोजने के लिए उतना ही सत्य होगा, और ये उतना ही हमारे उद्धार के लिए होगा।

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