अपनी असलियत की सही पहचान
चर्च के काम-काज की आवश्यकताओं के कारण, मुझे अपने कर्तव्य के निर्वाह के लिए एक दूसरे स्थान पर भेजा गया था। उस समय, उक्त स्थान पर सुसमाचार का कार्य संतोषजनक स्थिति मेँ नहीं था और भाइयों और बहनों की स्थिति समान्यतया अच्छी नहीं थी। लेकिन चूंकि मुझे पवित्र आत्मा का सानिध्य प्राप्त था, प्रतिकूल अवस्था के बावजूद भी मैंने सभी सौंपे हुए कार्य को पूर्ण आत्मविश्वास के साथ हाथ मेँ लिया। सुपुर्द कार्य को स्वीकार करने के बाद, मैंने पूर्ण दायित्व बोध, सम्पूर्ण प्रबुद्धता का अनुभव किया और यह भी सोचा कि मुझमें पर्याप्त इच्छा शक्ति है। मुझे विश्वास था कि मैं समर्थ हूँ और इस दायित्व का निष्पादन भली भाँति कर सकती हूँ। वास्तविक स्थिति यह थी कि उस समय मुझे पवित्र आत्मा के कार्यों का किसी भी प्रकार का ज्ञान नहीं था और न ही मुझे अपने स्वभाव के बारे मेँ पता था। मैं पूरी तरह आत्म-संतुष्टि और आत्म-मुग्धता की स्थिति मेँ जी रही थी।
ठीक उसी समय जब मैं आत्म अभिमान से इतरा रही थी, मैं एक मेज़बान परिवार मेँ एक भाई से मिली जो उस कार्य के प्रभारी थे। उन्होंने मेरे कार्य से संबन्धित स्थितियों के बारे मेँ पूछा और मैंने यह सोचते हुए एक-एक करके उनके सभी प्रश्नों का उत्तर दिया कि निश्चित रूप से वे मेरी कार्य-क्षमता और अद्वितीय अंतर्दृष्टि की सराहना करेंगे। लेकिन मैंने सपने मेँ भी नहीं सोचा था कि मेरे जवाब को सुनने के बाद वे न सिर्फ सराहना मेँ अपना सर नहीं हिलाएँगे, बल्कि उन्होंने यह कहा कि मेरा काम आधा-अधूरा है, कार्मिकों का यथेष्ट इस्तेमाल नहीं हुआ है, मैंने कोई प्रतिफल नहीं प्राप्त किया है, आदि आदि बातें उन्होंने कहीं। उनके असन्तुष्ट हाव-भाव को देखकर और मेरे कार्य के लिए उनका मूल्यांकन सुनने के बाद अचानक मेरा दिल बैठ सा गया। मैंने सोचा: "वे कह रहे हैं कि मेरा काम आधा-अधूरा है? यदि मैंने कोई प्रतिफल नहीं प्राप्त किया है तो मुझे और क्या क्या करना होगा ताकि उसे प्रतिफल माना जा सके? इस संदर्भ मेँ क्या यही पर्याप्त नहीं था कि मैंने इस बिगड़े हुए कार्य को अस्वीकार नहीं किया और स्वेच्छा से इसे करने के लिए तैयार हो गई और उसके बावजूद वे कह रहे हैं कि मैंने अच्छे से काम नहीं किया है।" मेरे मन में अवज्ञा का भाव उमड़ रहा था, मुझे लगा कि मेरे साथ बड़ा अन्याय हुआ है और मेरी आँखों से लगभग आँसू गिरने लगे। मेरे मन मेँ घुमड़ रही अवज्ञा, असंतोष और विद्रोह का भाव सामने आ गया: मेरी क्षमता इससे अधिक प्रतिफल नहीं हासिल कर पाएगी; जो भी हो मैंने अपनी ओर से पूरी कोशिश की है, अत: यदि मैं असक्षम हूँ तो वे किसी और को रख लें...। मेरा मन बहुत बेचैन और ठगा हुआ महसूस कर रहा था, मेरी समझ मेँ नहीं आ रहा था कि इसका क्या करूँ और इसीलिए इसके बाद उन्होंने क्या कहा मैं एक शब्द भी नहीं सुन सकी। उन चंद दिनों के अंदर मैं आत्म अभिमान से लरबेज स्थिति से उदास और निरुत्साहित और स्वयं से संतुष्ट होने की स्थिति से बदलकर शिकायतों का पिटारा ढोने वाली बन गई। असफलता के बोध ने मुझे ग्रस लिया था। ...ऐसे अंधकार मेँ मुझे परमेश्वर के वचन याद आए: "पतरस ने प्रयास किया कि वह ऐसे व्यक्ति की छवि जिए जो परमेश्वर से प्रेम करता है, ऐसा व्यक्ति बने जो परमेश्वर की आज्ञा मानता था, ऐसा व्यक्ति बने जो व्यवहार और काँट-छाँट स्वीकार करता था ..." (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। और एक मैं कैसी हूँ? किसी ने मेरी थोड़ी सी आलोचना कर दिया, कहा कि मेरा काम बहुत अच्छा नहीं है, और मैं परेशान हो गई और अपना काम छोडने के लिए सोचने लगी। क्या यही वह व्यक्ति है जो निपटान और काँट-छाँट को स्वीकार करने जा रहा है? क्या यही पतरस की तरह परमेश्वर के प्रेम का अनुसरण कर रहा है? जो मैंने प्रकट किया है, क्या यह वही नहीं है जिससे परमेश्वर अप्रसन्न होते हैं? मैं यह नहीं चाहती कि कोई यह कहे कि मैंने अच्छे से काम नहीं किया है और सिर्फ यह चाहती हूँ कि दूसरों से उनकी प्रशंसा और उनका सम्मान प्राप्त करूँ—क्या यह घोर अधम प्रकृति की प्रवृत्ति नहीं है? तभी मेरे हृदय मेँ आशा की एक किरण जागी। इसलिए मैंने "वचन देह में प्रकट होता है" को खोला और यह अंश देखा: "तुम लोगों के लिए सबसे अच्छा यह होगा कि तुम सब स्वयं को जानने की सच्चाई पर ज़्यादा ध्यान दो। तुम लोग परमेश्वर की कृपा क्यों नहीं प्राप्त कर पाए हो? तुम्हारा स्वभाव उसे घिनौना क्यों लगता है? तुम्हारे शब्द उसके अंदर जुगुप्ता क्यों उत्पन्न करते हैं? जैसे ही तुम लोग थोड़ी-सी निष्ठा दिखाते हो, तो खुद ही तुम अपनी तारीफ करने लगते हो और अपने छोटे से योगदान के लिए पुरस्कार चाहते हो; जब तुम थोड़ी-सी आज्ञाकारिता दिखाते हो तो दूसरों को नीची दृष्टि से देखते हो, और कोई छोटा-मोटा काम संपन्न करते ही तुम परमेश्वर का अनादर करने लगते हो। ... तुम लोगों जैसी मानवता के बारे में तो बात करना और सुनना भी अपमानजनक है। क्या तुम्हारे शब्दों और कार्यों में कुछ प्रशंसा योग्य है? ... क्या तुम्हें यह हास्यास्पद नहीं लगता? तुम लोग भली-भांति जानते हो कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, फिर भी तुम परमेश्वर के अनुरूप नहीं हो सकते हो। तुम लोग भली-भांति यह जानते हुए भी कि तुम सब बिल्कुल अयोग्य हो, तुम लोग डींगें मारते रहते हो। क्या तुम्हें ऐसा महसूस नहीं होता कि तुम्हारी समझ इतनी खराब हो चुकी है कि तुम्हारे पास अब आत्म-नियंत्रण ही नहीं रहा है? इस तरह की समझ के साथ तुम लोग परमेश्वर के साथ संगति करने के योग्य कैसे हो सकते हो? क्या तुम लोगों को इस मुकाम पर अपने लिए डर नहीं लगता है? तुम्हारा स्वभाव पहले ही इतना खराब हो चुका है कि तुम परमेश्वर के अनुरूप होने में समर्थ नहीं हो। इस बात को देखते हुए, क्या तुम लोगों की आस्था हास्यास्पद नहीं है? क्या तुम्हारी आस्था बेतुकी नहीं है? तुम अपने भविष्य से कैसे निपटोगे? तुम उस मार्ग का चुनाव कैसे करोगे जिस पर तुम्हें चलना है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)। परमेश्वर के वचन, मेरे अस्तित्व के आर-पार हो गए। इन शब्दों ने मुझे गूंगा बना दिया। मैं अन्तर्मन से लज्जित थी और शर्म से निर्जीव हो गई थी। तेज हवा मेँ तैरते हुए धुएँ की तरह, मेरा तर्क और मानसिक द्वंद तिरोहित हो गया। उस क्षण मैंने अपने हृदय मेँ परमेश्वर के वचनों की शक्ति और उनके प्रभुत्व का अनुभव अपने हृदय मेँ किया। परमेश्वर के वचनों के प्रकटन से, अंतत: मेरा स्वयम से आत्म साक्षात्कार हुआ। अपने दायित्व को पूरा करने के क्रम मेँ, परमेश्वर को संतुष्ट करने हेतु, सर्वश्रेष्ठ परिणाम प्राप्त करने के लिए मैंने पूर्णता प्राप्त करने का निरंतर प्रयास नहीं किया था। बल्कि मैं यथास्थिति से ही संतुष्ट थी और खुद से बेहद खुश थी। मैं यह समझने में विफल रही कि मेरी स्थिति से परमेश्वर अप्रसन्न होंगे, और मुझे इस बात से भी पीड़ा हुई कि किसी ने मेरी आलोचना की। सच्चाई यह थी कि मैं अज्ञानी और अयोग्य थी। मैं अपने हर छोटे से छोटे काम के लिए प्रशंसा चाहती थी और जब यह प्रशंसा नहीं मिलती थी तब मेरी शक्ति मेरा साथ छोड़ने लगती थी; और जब मेरे प्रयासों को प्रशंसा के बजाय आलोचना का सामना करना पड़ता था तो मैं चिढ़ कर उदास हो जाती थी। उस समय मैंने अपने ढोंगी चरित्र को पहचाना। मैंने महसूस किया कि मैं अपने दायित्व निर्वाह के बदले कुछ अपेक्षा रखती हूँ और कुछ पाना चाहती हूँ और विकारों से भरी हुई हूँ। यह (मेरा व्यवहार) परमेश्वर को संतुष्ट करने या उनके प्रेम का मोल चुकाने के लिए नहीं था, बल्कि इसके पीछे दूषित प्रयोजन छिपा हुआ था।
अतीत मेँ, मैं जब भी परमेश्वर के वचनों से मनुष्य के वास्तविक चरित्र का भंडाफोड़ होते देखती थी, तो इसका मेरे मन पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता था और मुझे संदेह होता था कि परमेश्वर के वचनों को बढ़ा-चढ़ाकर बोला गया था। मुझे प्रबुद्धता सिर्फ तब जाकर प्राप्त हुई जब परमेश्वर ने अपने वचनों को साकार प्रत्यक्ष किया। आज मैं अपने दायित्व को पूरा कर पाने में सक्षम हूँ तो इसका कारण परमेश्वर का महान उत्कर्ष और उनका अगाध प्रेम है। तथापि, मुझे यह अच्छा नहीं लगा या मैंने इसे आत्मसात नहीं किया, और इसके बजाय मैं उन चीजों के पीछे भागती रही जिनका कोई मूल्य या अर्थ नहीं था; जैसे कि लोगों द्वारा मेरी प्रशंसा, लोगों के बीच मेरा प्रख्यात होना, लोगों द्वारा मेरा अभिनंदन और लोगों के दिलों पर मेरा राज करना। इन बातों की आखिर क्या सार्थकता है? परमेश्वर कहते हैं कि मनुष्य सिर्फ भोजन पर आश्रित होकर नहीं जीता है, बल्कि वह मसीह के माध्यम से अभिव्यक्त वचनों से भी जीता है। लेकिन मेरा जीवन किस पर आश्रित था? मैं लोगों के अपने बारे मेँ दृष्टिकोण पर, उनके द्वारा मेरे विषय मेँ किए जा रहे मूल्यांकन पर भरोसा कर रही थी और प्राय: इन बातों के कारण अपने व्यक्तिगत लाभ-हानि के लिए चिंतित रहा करती थी। सम्मान और प्रशंसा के कुछ शब्द या सांत्वना या अपने महत्व के बारे में कहे गए कुछ शब्द मेरी ऊर्जा को कई गुना बढ़ा दिया करते थे और दूसरी ओर अपनी आलोचना या दूसरे की नकारात्मक भाव-भंगिमा मुझे निरुत्साहित कर देती थी और मैं अपने लक्ष्य के लिए शक्ति और दिशा को खो देती थी। यदि ऐसा ही है तो मैं परमेश्वर मेँ विश्वास ही क्यों करती हूँ? क्या यह सिर्फ लोगों की स्वीकृति के लिए हो सकता है? जैसा कि परमेश्वर के वचनों से प्रकट हुआ, जिस चीज की चिंता मुझे थी वह सत्य नहीं था, वे मानव होने के सिद्धान्त नहीं थे, और न ही वे परमेश्वर द्वारा अत्यंत परिश्रम से किए गए कार्य थे, बल्कि यह सब वह था जो मेरी देह को पसंद था; जिनसे मेरे जीवन को कोई लाभ नहीं हो सकता है। क्या मेरे प्रति दूसरे का उत्साह यह सिद्ध करता है कि परमेश्वर मेरी प्रशंसा करते हैं? यदि मैं परमेश्वर के अनुरूप नहीं हो सकती हूँ, तो क्या मेरा सारा अनुगमन अंतत: व्यर्थ नहीं गया? हे परमेश्वर! मुझे प्रबुद्ध करने, मेरी आँखें खोलने के लिए आपको धन्यवाद! तब मैंने अपने खुद के प्रकटन के आधार पर मसीह के अस्तित्व के बारे मेँ सोचा। मैंने सोचा कि किस तरह मानवता की रक्षा के लिए मसीह पृथ्वी पर काम करने के लिए अवतरित हुए थे। लेकिन परमेश्वर के प्रति मनुष्य मात्र का दृष्टिकोण क्या है? परमेश्वर पवित्र हैं और सम्माननीय हैं, स्वयं विभूतिमय परमेश्वर हैं, लेकिन असल में उन्हें कौन अपने हृदय मेँ संजोता है, उन्हें कौन अपने हृदय मेँ धारण करता है और कौन वास्तव मेँ परमेश्वर की महिमा का गुणगान करता है? विद्रोह और प्रतिरोध के अतिरिक्त, मनुष्य और अस्वीकृति करता है, फिर भी मसीह मनुष्य से इस बात के लिए कोई चिंता प्रकट नहीं करते हैं और न ही मनुष्य के अपराध एवं आज्ञालंघन के अनुसार उनके साथ व्यवहार करते हैं। मानवजाति के लिए निस्वार्थ रूप से खुद को खपाते हुए वे चुपचाप सारी कठिनाइयाँ सहते हैं। लेकिन क्या कभी भी किसी ने मसीह की इस विनम्रता, उनकी दयालुता और उदारता का हृदय से गुणगान किया है? तुलना करने पर, मुझे अपनी संकीर्ण मानसिकता और भी अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी, किस तरह मैंने चीजों को गड़बड़ किया, किस तरह मैं लोगों द्वारा प्रशंसा और सम्मान पाने के लिए लालायित रहती थी। मुझे अपने चरित्र के स्वार्थी, कुत्सित और निर्लज्ज दुर्गुणों का आभास हुआ। अपने इन तमाम चरित्रगत दुर्गुणों के बावजूद भी मैंने अनुभव किया कि मैं अभी भी सोने की तरह ही मूल्यवान हूँ। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि परमेश्वर कहते हैं कि मानव मन का भटकाव एक ऐसे बिंदु पर पहुँच गया है जहाँ उसके किए स्वयं को नियंत्रित करना कठिन हो गया है। परमेश्वर के वचनों ने मुझे सर्वथा दृढ़ निश्चयी बना दिया है। इस समय मेरे अंतःस्थल मेँ, जड़-चेतन के मालिक, मसीह के लिए एक विचित्र प्रकार की उत्कंठा और लगाव का भाव अनायास उत्पन्न हो गया। मेरे पास परमेश्वर से इस प्रार्थना के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं था: "हे परमेश्वर! आपका अंतर्निहित स्वभाव, आपका गुण, आपकी नेकी से मुझे निरंतर ईर्ष्या होती रहती है। आपकी तुलना किससे हो सकती है? आपने हम लोगों के बीच जो अभिव्यक्त किया है और प्रकट किया है और जो कुछ भी आपने हम लोगों को दिखाया है वह आपके दिव्य सौंदर्य, आपकी शुचिता, आपकी धार्मिकता और आपकी महिमा की अभिव्यक्ति है। हे परमेश्वर, आपने मेरी आँखें खोल दी हैं और मुझे मेरी नज़रों मेँ ही लज्जित और गिरा दिया है, मुझे धरती पर अपना सिर झुकाने के लिए विवश कर दिया है। आप मेरे अहंकार और निस्सारता को जानते हैं। यदि आपने अद्भुत योजना और व्यवस्था नहीं की होती, यदि आपने मुझसे निपटने के लिए उस भाई को नहीं भेजा होता, तो मैं बहुत पहले यह भूल गई होती कि मैं असल में हूं कौन। आपके प्रभुत्व मेँ मैं सेंध लगा रही थी और स्वयम पर गर्व कर रही थी—मुझमें कहीं कोई शर्म नहीं थी! हे परमेश्वर! आपके द्वारा किए गए प्रकटन और रक्षा के कारण, मैं अपने असली चरित्र को देखने मेँ समर्थ हुई और आपकी मनोरमता को समझ पाई हूँ। हे परमेश्वर! मैं अब और अधिक नकारात्मक नहीं होना चाहती हूँ, और उन तुच्छ चीजों के लिए नहीं जीना चाहती हूँ। मेरी एकमात्र इच्छा है कि आपकी ताड़ना और न्याय, आपके दंड और अनुशासन के माध्यम से आपको जानूँ, आपका अनुसरण करूँ, और इसके अलावा मेरी अभिलाषा है कि आपके निपटान, मार्गदर्शन और काट-छांट के माध्यम से मैं अपने कर्तव्य को पूरा करके आपके ऋण को चुका सकूँ।"
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