मेरी पत्नी की मृत्यु के बाद
मैंने और मेरी पत्नी ने 2007 की सर्दियों में अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य एक साथ स्वीकारा। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे यकीन हो गया कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही सच्चा परमेश्वर है जिसने मानवजाति को आपदाओं से बचाने के लिए देह धारण किया है। मैंने सोचा कि इस बुढ़ापे में परमेश्वर से उद्धार का मौका मिलना अद्भुत आशीष और जिंदगी में सिर्फ एक बार मिलने वाला अवसर है जिसे हम गँवा नहीं सकते। सुसमाचार स्वीकारने के तुरंत बाद हम दोनों ने अपने कर्तव्य संभाल लिए। मैं सुसमाचार फैलाता और नए सदस्यों को सींचता था, और मेरी पत्नी घर पर मेजबानी करती थी। हमारे दिन खुशी-खुशी बीतने लगे। जल्द ही, मेरी पत्नी की पेट की समस्या, ब्रोंकाइटिस और कुछ दूसरे रोग अपने-आप ठीक होने लगे। परमेश्वर हमें आशीष और अनुग्रह दे रहा था। परमेश्वर पर हमारी आस्था बढ़ गई, और मेरी सुसमाचार सुनाने की लगन बढ़ गई। 2012 में सुसमाचार सुनाते हुए मुझे गिरफ्तार कर शहर के पुलिस थाने ले जाया गया। रिहाई के बाद भी हमारी आस्था के कारण पुलिस हमें जब-तब सताती थी। उसने धमकी भी दी कि अगर हम अपनी आस्था पर कायम रहे तो हमारे बच्चों और नाती-पोतों का भविष्य खराब हो जाएगा। हमारी बहू हमारी आस्था के बारे में सीसीपी के झूठों पर यकीन करती थी, और चीनी नववर्ष उत्सव के दौरान उसने मुझे और मेरी पत्नी को घर से निकाल दिया। हमारे पास रहने के लिए कोई जगह नहीं थी, और हम दीन-हीन महसूस करने लगे। हमने यह कहकर एक दूसरे को ढाढस और हौसला बँधाया : “यह परमेश्वर का शोधन है, और हमें यह कष्ट सहना चाहिए। हम हौसला नहीं खो सकते। हम हर चीज के बिना रह सकते हैं, पर परमेश्वर के बिना नहीं रह सकते।” उसके बाद हम एक छोड़े हुए घर में रहने लगे और मेजबानी का कर्तव्य निभाने लगे। हम वहाँ 8 साल रहे, भले ही घर की हालत खराब थी, लेकिन आस्था रखने और परमेश्वर के वचन खाने-पीने पर कोई रोक-टोक न होने के कारण हम स्वतंत्र थे।
सितंबर 2022 में, मेरी पत्नी का बरसों पुराना दिल का दर्द तेज होने लगा, और उसे दिन में कई बार दौरे पड़ने लगे। दर्द भी बार-बार उठने लगा था। सभाओं में वह प्रार्थना के लिए भी नहीं झुक पाती थी। कभी-कभी तो मुँह धोने के दौरान ही उसके दिल में दर्द होने लगता था। जब बहुत तेज दर्द होता, तो वह खड़ी की खड़ी रह जाती, और दर्द कम होने पर ही मुँह धो पाती थी। अपनी पत्नी की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ते देखकर मैं परेशान और चिंतित हो जाता था, लेकिन मैं सोचता था कि हम विश्वासी हैं, इसलिए परमेश्वर हमारी देख-भाल और रक्षा कर रहा है। परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, वह मुर्दों को जिला सकता है, और उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। वह पहले भी बीमारियों से घिरी रहती थी, लेकिन आस्तिक बनने के बाद वह पूरी तरह अच्छी हो चली थी, इसलिए यह छोटी-मोटी दिक्कत क्या है? मैंने इस बारे में ज्यादा नहीं सोचा और उसे यह कहकर ढाढस बंधाया : “डरो मत—हमारे पास परमेश्वर है। वह हमारी रक्षा करेगा।” बाद में मैंने देखा कि मेरी पत्नी और भी ज्यादा कष्ट में थी, और दवाइयाँ बढ़ाने से भी कतई फर्क नहीं पड़ा। मैंने सोचा कि किस तरह परमेश्वर व्यावहारिक कार्य करता है, और वह लोगों की रक्षा करता है, लेकिन हमें व्यावहारिक तरीकों से सहयोग करना पड़ता है। तब मैं फौरन अपनी पत्नी को अस्पताल ले गया। जाँचों से पता चला कि उसका जिगर, गुर्दे और फेफड़े सभी खराब हो चुके थे। डॉक्टर ने उसे फौरन आईसीयू में भेजकर कहा कि उसकी जिंदगी खतरे में है, और मुझे गंभीर स्थिति होने संबंधी कागज पर दस्तखत कर देने चाहिए। स्थिति गंभीर होने का कागज देखकर मैं घबरा गया और गश खाकर गिरने ही वाला था। मैं यह सच्चाई बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाया। मैं इस पर यकीन करने का साहस नहीं कर पाया। ऐसा कैसे हो सकता है? हम परमेश्वर की सुरक्षा वाले विश्वासी थे, इसलिए हमारे साथ ऐसा नहीं होना चाहिए। मैंने डॉक्टर से मिन्नतें कीं कि वह मेरी पत्नी की बीमारी दूर करने का उपाय सोचे, कोई भी ऐसी दवाई दे जो कारगर हो सके। डॉक्टर ने कहा कि वह कोई गारंटी नहीं दे सकता है। उसके मुँह से यह सुनकर मेरा दुख और बढ़ गया। मैंने सोचा मैं डॉक्टर पर निर्भर नहीं रह सकता इसलिए परमेश्वर का सहारा लूँगा। वार्ड में लौटकर मैंने प्रार्थना की : “हे परमेश्वर! मेरी पत्नी बहुत बीमार है और डॉक्टर नहीं जानता कि क्या करे। मैं उसे तुम्हें सौंप रहा हूँ। तुम सर्वशक्तिमान डॉक्टर हो जो मुर्दों को भी जिला सकता है। तुम्हारे लिए कुछ भी असंभव नहीं है। अगर वह ठीक नहीं हुई तो भी मैं तुम्हें दोष नहीं दूँगा।” मैं जानता था कि परमेश्वर अभी पारलौकिक कार्य नहीं कर रहा है, लेकिन मैंने कुछ भाई-बहनों की अनुभवजन्य गवाहियों के बारे में सोचा। अपनी गंभीर बीमारी में उन्होंने परमेश्वर का सहारा लिया और चमत्कारी ढंग से ठीक हो गए। मुझे अब भी उम्मीद थी कि मेरी पत्नी के साथ कोई चमत्कार होगा और उसकी हालत सुधर सकती है। लेकिन मेरी उम्मीद के विपरीत, तीसरे दिन की सुबह से वह बोल भी नहीं पाई, आँखें तक नहीं खोल पाई। उसकी हालत सुधरने की बजाय और ज्यादा बिगड़ने लगी। मेरा दिल बिल्कुल टूट गया और मैं मन ही मन परमेश्वर को बार-बार पुकारने लगा, “हे परमेश्वर! मेरी पत्नी बिल्कुल भी ठीक नहीं है। वह सच्ची विश्वासी है, 10 साल से भी ज्यादा समय से तुम्हारा अनुसरण कर रही है। अपनी आस्था के कारण उसने कष्ट और जुल्म सहे, इसलिए कोई चमत्कार दिखाकर उसे ठीक कर दो। तुम उसे ठीक कर सकते हो, तब इससे हमारा धर्मप्रचार और गवाही और भी विश्वसनीय हो जाएगी।” लेकिन चौथे दिन उसकी साँसें थम गईं और मैं टूट गया। मैं बुरी तरह निराश हो चुका था। मैं अपना दर्द बयान नहीं कर सकता; मैं रो रहा था, और परमेश्वर को दोष देने लग गया : “परमेश्वर, चाहे जो हो, मेरी पत्नी विश्वासी थी। तुम्हारा अनुसरण करने के लिए उसने कष्ट भोगे और पसीना बहाया, और वह चाहे जितनी भी बीमार पड़ी, उसने कभी तुम्हें दोष नहीं दिया। तुमने उसकी रक्षा क्यों नहीं की? अब जबकि वह गुजर चुकी है, अब मैं निपट अकेला पड़ चुका हूँ और मेरे पास कोई सहारा नहीं है। अब मैं अकेला कैसे जियूँ? हम चाहे विश्वासी हों या न हों, हम समान रूप से मरते हैं, है ना? मैं भी बूढ़ा हो रहा हूँ और देर-सबेर मेरा अंतकाल भी आएगा। विश्वासी के रूप में मेरे लिए क्या उम्मीद बची है?” उसके बाद तो मुझे आशा न रही, परमेश्वर के वचन भी पढ़ने नहीं चाहे। मेरी प्रार्थनाएँ कुछ शब्दों में सिमट गईं—मेरे पास कहने को कुछ नहीं होता था। जब कभी मैं यह सोचता कि हम कैसे एक दूसरे पर निर्भर रहते थे, उन कठिन दिनों के भावुक दृश्य आँखों में उतरते, परमेश्वर के वचन खाने-पीने, साथ में संगति करने और एक दूसरे का उत्साह बढ़ाने की याद आती तो मैं अपने आँसू बिल्कुल नहीं रोक पाता था। अमूमन मेरी पत्नी ही मेरा ख्याल रखती थी, और अब जबकि वह जा चुकी थी तो मेरी देखरेख करने वाला कोई नहीं था। मैं तमाम कठिनाइयों से जूझते हुए निपट अकेला पड़ चुका था। इतनी पीड़ा के साथ जीने का क्या अर्थ था? मैं इस झंझट से उबरने के लिए मर जाना चाहता था। उन दिनों मेरा जीवन दुःख-दर्द से भरा था। मैं खा या सो नहीं पा रहा था। ऐसा लगता था कि मेरे दिल में पत्थर गड़ा है। हर दिन मेरी सेहत गिरती जा रही थी। मेरा रक्तचाप बढ़ गया और दिल की धड़कनें बहुत सुस्त हो गईं; मुझे अस्पताल में भर्ती कराया गया। केवल तब जाकर मुझे लगा कि इस तरह जीना बहुत ही खतरनाक है, इसलिए मैंने प्रार्थना की : “हे परमेश्वर! अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद मैं घिसट-घिसट कर अकेले जी रहा हूँ। मुझमें जीने की शक्ति नहीं बची है और मरना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ कि इस तरह के विचार तुम्हारी इच्छा के अनुरूप नहीं हैं, लेकिन मैं अपनी इच्छा छोड़ नहीं पा रहा हूँ। मुझे आस्था प्रदान करो, ताकि मैं इस परीक्षण में मजबूती से टिका रहूँ और गिर न जाऊँ।”
एक रात सोने से ठीक पहले मेरे मन में अचानक परमेश्वर के कुछ वचन उभरे : “परमेश्वर के लिए तुम्हारे प्रेम का सार क्या है? अगर तुम मुझसे प्रेम करते हो तो तुम मुझसे विश्वासघात नहीं करोगे।” मुझे लगा कि यह परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन है, इसलिए मैंने फौरन परमेश्वर के वचन छान मारे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “जैसा कि मैंने कहा, मेरा अनुसरण करने वाले बहुत हैं, लेकिन मुझे वास्तव में प्रेम करने वाले बहुत कम हैं। शायद कुछ लोग कह सकते हैं, ‘यदि मैं तुमसे प्रेम न करता, तो क्या मैंने इतनी बड़ी कीमत चुकाई होती? यदि मैं तुमसे प्रेम न करता, तो क्या मैंने इस बिंदु तक तुम्हारा अनुसरण किया होता?’ निश्चित रूप से तुम्हारे पास कई कारण हैं, और तुम्हारा प्रेम निश्चित रूप से बहुत बड़ा है, लेकिन मेरे लिए तुम लोगों के प्रेम का सार क्या है? ‘प्रेम,’ जैसा कि कहा जाता है, ऐसे स्नेह को कहते हैं जो शुद्ध और निष्कलंक है, जहाँ तुम प्रेम करने, महसूस करने और विचारशील होने के लिए अपने हृदय का उपयोग करते हो। प्रेम में कोई शर्त, कोई बाधा और कोई दूरी नहीं होती। प्रेम में कोई संदेह, कोई कपट और कोई चालाकी नहीं होती। प्रेम में कोई व्यापार नहीं होता और उसमें कुछ भी अशुद्ध नहीं होता। यदि तुम प्रेम करते हो, तो तुम धोखा नहीं दोगे, शिकायत, विश्वासघात, विद्रोह नहीं करोगे, कुछ छीनने, पाने या ज्यादा माँगने की कोशिश नहीं करोगे। यदि तुम प्रेम करते हो, तो खुशी-खुशी खुद को समर्पित करोगे, खुशी-खुशी कष्ट सहोगे, मेरे अनुरूप हो जाओगे, मेरे लिए अपना सर्वस्व त्याग दोगे, तुम अपना परिवार, अपना भविष्य, अपनी जवानी और अपना विवाह छोड़ दोगे। वरना तुम लोगों का प्रेम, प्रेम बिल्कुल नहीं होगा, बल्कि कपट और विश्वासघात होगा! तुम्हारा प्रेम किस प्रकार का है? क्या वह सच्चा प्रेम है? या वह झूठा प्रेम है? तुमने कितना त्याग किया है? तुमने कितना अर्पित किया है? मुझे तुमसे कितना प्रेम प्राप्त हुआ है? क्या तुम जानते हो? तुम लोगों का हृदय बुराई, विश्वासघात और कपट से भरा हुआ है—और ऐसा होने से, तुम लोगों का प्रेम कितना अशुद्ध है? तुम लोग सोचते हो कि तुमने पहले ही मेरे लिए पर्याप्त त्याग कर दिया है; तुम लोग सोचते हो कि मेरे लिए तुम लोगों का प्रेम पहले से ही पर्याप्त है। लेकिन फिर तुम लोगों के वचन और कार्य हमेशा विद्रोही और कपटपूर्ण क्यों होते हैं? तुम लोग मेरा अनुसरण करते हो, लेकिन तुम मेरे वचन को स्वीकार नहीं करते। क्या इसे प्रेम माना जाता है? तुम लोग मेरा अनुसरण करते हो, लेकिन फिर मुझे एक तरफ कर देते हो। क्या इसे प्रेम माना जाता है? तुम लोग मेरा अनुसरण करते हो, लेकिन मुझ पर संदेह रखते हो? क्या इसे प्रेम माना जाता है? तुम लोग मेरा अनुसरण करते हो, लेकिन तुम मेरे अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर पाते। क्या इसे प्रेम माना जाता है? तुम लोग मेरा अनुसरण करते हो, मुझे वह नहीं मानते जो मैं हूँ, और हर मोड़ पर मेरे लिए चीजें मुश्किल कर देते हो। क्या इसे प्रेम माना जाता है? तुम लोग मेरा अनुसरण करते हो, लेकिन मुझे मूर्ख बनाने और हर मामले में धोखा देने का प्रयास करते हो। क्या इसे प्रेम माना जाता है? तुम लोग मेरी सेवा करते हो, लेकिन तुम्हें मेरा खौफ नहीं है। क्या इसे प्रेम माना जाता है? तुम लोग हर तरह से और हर चीज में मेरा विरोध करते हो। क्या यह सब प्रेम माना जाता है? तुम लोगों ने बहुत-कुछ समर्पित किया है, यह सच है, लेकिन तुम लोगों ने उसका अभ्यास कभी नहीं किया, जो मैं तुमसे चाहता हूँ। क्या इसे प्रेम माना जा सकता है? ध्यानपूर्वक किया गया आकलन दर्शाता है कि तुम लोगों के भीतर मेरे लिए प्रेम का जरा-सा भी संकेत नहीं है। इतने वर्षों के कार्य और मेरे द्वारा आपूर्ति किए गए बहुत सारे वचनों के बाद, तुम लोगों ने वास्तव में कितना प्राप्त किया है? क्या यह पीछे मुड़कर देखने लायक नहीं है? मैं तुम लोगों को चेतावनी देता हूँ : मैं अपने पास उन्हें नहीं बुलाता, जो कभी भ्रष्ट नहीं हुए; बल्कि मैं उन्हें चुनता हूँ जो मुझसे वास्तव में प्रेम करते हैं। इसलिए, तुम लोगों को अपने शब्दों और कर्मों में सजग रहना चाहिए, और अपने इरादे और विचार जाँचने चाहिए, ताकि वे सीमा पार न करें। अंत के दिनों में, मेरे सम्मुख अपना प्रेम अर्पित करने का अधिकतम प्रयास करो, वरना कहीं ऐसा न हो कि मेरा कोप तुम लोगों से कभी न हटे!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बुलाए बहुत जाते हैं, पर चुने कुछ ही जाते हैं)। परमेश्वर हर सवाल के जरिये मेरे मन का आकलन कर रहा था, जिससे मुझे खुद पर शर्म आने लगी और मैं निरुत्तर हो गया। इन्हें पढ़ते हुए मैं पश्चात्ताप के आँसू रोक नहीं सका। परमेश्वर ने मुझसे ये सारी माँगें कीं मगर मैं एक भी पूरी नहीं कर सका। परमेश्वर के प्रति मेरा प्रेम सच्चा नहीं था, यह झूठा प्रेम था, अशुद्ध और लेन-देन वाला प्रेम था। फिर भी मुझे लगता था कि मैं परमेश्वर से प्रेम करता हूँ। मुझे वाकई जरा-सा भी आत्म-ज्ञान नहीं था। आम तौर पर जब किसी कष्ट या रोग से मेरा सामना होता और मुझे परमेश्वर की देखरेख और सुरक्षा मिलती थी, या जब मुझे लगता था कि मेरे बचाए जाने और राज्य में प्रवेश की उम्मीद है, तो मैं परमेश्वर को धन्यवाद देता और मेरे पास अपार ऊर्जा होती थी। जब आस्था में कष्ट और दुख आते थे, जैसे बड़े लाल अजगर की गिरफ्त में आना, अपने बच्चों के हाथों सताया और दुत्कारा जाना, रिश्तेदारों और पड़ोसियों का उपहास और लाँछन सहना, तो मैं यह सारी कठिनाई झेल सकता था। मैं परमेश्वर से विश्वासघात करने की बजाय घर छोड़कर सड़कों पर भटकना और भीख माँगकर जीना पसंद करता। इस कारण मुझे लगा कि परमेश्वर के लिए मेरे पास सच्चा प्रेम और समर्पण है, और अंत में मैं परमेश्वर द्वारा बचा लिया जाऊँगा और कायम रहूँगा। लेकिन जब असल में कुछ हो गया और मेरी पत्नी की मृत्यु ने मुझे मर्माहत कर अकेला छोड़ दिया, और मैं किसी साथी-सहारे के बगैर दर्द से छटपटाने लगा तो अपनी पत्नी के साथ राज्य में प्रवेश का मेरा सपना भी बिखर गया, और मैं पूरी तरह उजागर हो गया। मैंने अपनी पत्नी की रक्षा न करने के लिए परमेश्वर को दोष ही नहीं दिया, बल्कि उस पर सवाल भी खड़े किए, और उसका विरोध करने के लिए खुद भी मरना चाहा। मुझमें कोई आज्ञाकारिता नहीं थी। मुझमें परमेश्वर के प्रति प्रेम का कोई नामोनिशान नहीं था। मानवजाति के उद्धार के लिए परमेश्वर ने दो बार देहधारण किया है, तमाम तरह के कष्ट सहे हैं, हमें बरसों तक सींचने और हमारी चरवाही के लिए सत्य व्यक्त किए हैं, हम सत्य समझ सकें, इसके लिए बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। मैं चाहे जितना भी विद्रोही और विरोधी था, परमेश्वर मेरे प्रति बार-बार धैर्यवान, सहिष्णु और दयावान था, और मुझे पश्चात्ताप का मौका दे रहा था। खतरे और कठिनाई में परमेश्वर ने कितनी ही बार हमारी रखवाली की और हमें खतरे से दूर रखा। जब मैं कमजोर और नकारात्मक पड़ा तो परमेश्वर के वचनों ने सहारा, पोषण और शक्ति देकर मेरा जोश बढ़ाया। उसने मुझे आज तक कदम दर कदम मार्गदर्शन दिया। परमेश्वर का प्रेम इतना अधिक व्यावहारिक और वास्तविक है। इसमें न कोई मिलावट है, न इसमें शर्तें जुड़ी हैं। लेकिन परमेश्वर के प्रति मेरा प्यार इतना अशुद्ध और लेन-देन वाला था। मैं हमेशा जोर-शोर से कहता था कि मेरे दिल पर परमेश्वर के वचनों का राज होना चाहिए, लेकिन जैसे ही मेरी पत्नी की मृत्यु हुई, मैं सिर्फ उसी के बारे में सोचता रहा। पत्नी के लिए मेरे प्यार ने परमेश्वर के प्रति मेरे प्यार को पीछे छोड़ दिया—उसके लिए मेरे दिल में कोई जगह नहीं थी। मैंने देखा कि मेरा तथाकथित प्रेम सिर्फ एक जुमला था, सिद्धांत था। मैं परमेश्वर को मूर्ख बनाकर धोखा दे रहा था। मैं परीक्षा में खरा नहीं उतरा—यह पूरी तरह नकली था! यह एहसास होने पर मैं अत्यधिक विद्रोही और विवेकहीन होने के लिए पछताया। प्रार्थना और पश्चात्ताप करने के लिए मैं परमेश्वर के समक्ष आया। “हे परमेश्वर! तुम्हारे वचन पढ़कर मुझे लगता है कि मैं तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम्हारे अनुसरण के इन वर्षों में तुमने मुझे सींचा, चराया, सहारा और पोषण दिया और इतनी बड़ी कीमत चुकाई। मेरे लिए तुम्हारा प्रेम इतना वास्तविक है, जबकि तुम्हारे लिए मेरा प्रेम सिर्फ नारा है, लफ्फाजी है। यह सब नकली है; धोखा है। मैं तुम्हारे समक्ष आने लायक नहीं हूँ। मैं तुम्हें अब और आहत नहीं करना चाहता। भविष्य में मैं चाहे जिन कठिनाइयों या हालात का सामना करूँ, चीजें चाहें कितनी ही मुश्किल हों, मैं तुम्हें आइंदा दोष नहीं दूँगा। मैं तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार हूँ।” बाद के दिनों में मैंने खुद को शांत किया, परमेश्वर के वचन खाए-पिए, वीडियो देखे और भजन सुने, और तब मेरी पीड़ा पहले जितनी नहीं रही।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा और तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि अनुसरण के प्रति मेरा दृष्टिकोण गलत होने के कारण ही मैं अपनी पत्नी की मौत को भुला नहीं पाया और परमेश्वर को दोष देकर उसके प्रति गलतफहमियाँ पाल बैठा। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है : तुम्हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि मेरी आस्था का उद्देश्य सत्य का अनुसरण नहीं था, बल्कि यह आशीष पाने, फायदा उठाने और शांति पाने के लिए था। मैं परमेश्वर के साथ सौदेबाजी कर रहा था। जबसे मैंने और मेरी पत्नी ने परमेश्वर का नया कार्य स्वीकारा, मैंने सोचा कि हममें आस्था है, हम परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, और उसके लिए कष्ट भोग और कीमत चुका सकते हैं, इसलिए वह हमारी शांति और सेहत सुनिश्चित करेगा, और जब उसका कार्य समाप्त होगा तो हम एक साथ उसके राज्य में प्रवेश कर उसके आशीष का सुख भोगेंगे। विश्वासी बनते ही हम अपने कर्तव्य निभाने में सक्रिय हो गए ताकि हमें अच्छी मंजिल हासिल हो। मैंने देखा कि मेरी पत्नी कुछ गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से अचानक उबरने लगी है। परमेश्वर ने हमें आशीष और अनुग्रह दिया था। इससे मेरा उत्साह और भी बढ़ गया, और भले ही बड़े लाल अजगर ने हमें गिरफ्तार किया और हमारे परिवार ने हमें सताया, हमारे बच्चों ने हमें घर से निकाला, चाहे जितनी मुश्किल आई हो, हम पीछे नहीं मुड़े और अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करने पर अडिग रहे। मैंने सोचा कि यह अपनी गवाही और परमेश्वर की भक्ति में अडिग रहना है, और यह कि अंत में हम बचा लिए जाएंगे और कायम रहेंगे। मेरी पत्नी का बीमार पड़ना मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं था, और मैं परमेश्वर से यह माँग करने लगा कि वह चमत्कार दिखाकर मेरी पत्नी को ठीक कर दे। मैंने वर्तमान स्थितियों के बदले परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के लिए अपने पिछले कष्टों और उत्पीड़न को पूँजी के रूप में इस्तेमाल किया। मेरी पत्नी की मृत्यु से मेरा यह सपना चकनाचूर हो गया कि हम एक साथ राज्य में प्रवेश कर इसके आशीष का सुख पाएंगे। मैंने तुरंत पलटकर परमेश्वर से जानना चाहा कि उसने मेरी पत्नी को क्यों नहीं बचाया। यहाँ तक कि मैंने परमेश्वर का विरोध करने के लिए उसकी धार्मिकता पर सवाल खड़े कर मरना चाहा, और मुझे लगा कि आस्तिक होना व्यर्थ है। मैंने देखा कि मेरी आस्था बिल्कुल ही धर्म के उन लोगों की तरह है जो भरपूर माँग करते हैं। यह सब आशीष और शांति पाने के लिए है। जब मुझे आशीष मिला तो मैंने परमेश्वर को धन्यवाद देकर उसकी प्रशंसा की, और उसकी धार्मिकता का बखान किया। जब मुझे आशीष नहीं मिला, तो मैंने परमेश्वर को दोष दिया, उससे तर्क-वितर्क किया और बात का बतंगड़ बनाया। अपनी आस्था में मैं परमेश्वर से बस आशीष और अनुग्रह पाना चाहते था, और इस दौरान दावा करता रहा कि मैं परमेश्वर से प्रेम और उसके प्रति समर्पण करता हूँ। क्या यह उसके साथ धोखा और खिलवाड़ नहीं था। मेरा जीवन और मेरे पास जो कुछ था वह सब परमेश्वर का दिया हुआ था। मेरी शादी भी परमेश्वर की ही व्यवस्था थी। परमेश्वर ने इतना अधिक अनुग्रह और आशीष दिया, फिर भी मैं संतुष्ट नहीं था। मैं बिल्कुल बदल गया और जब कोई चीज मेरे अनुसार नहीं हुई तो मैंने शिकायतें कीं। मेरा विवेक कहाँ चला गया? क्या मैं मनुष्य भी था? मैं कुत्ते से भी गया गुजरा था! कुत्ता अपने मालिक के घर की रखवाली कर उसके प्रति वफादार रहता है, लेकिन परमेश्वर का विश्वासी और अनुयायी होने के नाते परमेश्वर ने मुझे इतना सींचा और चराया, मैंने परमेश्वर का भरपूर अनुग्रह पाया, फिर भी मैंने परमेश्वर के प्रेम की कीमत नहीं चुकानी चाही, बल्कि उसे धोखा दिया और उससे सौदेबाजी करने की कोशिश की। मुझमें कोई मानवता नहीं थी! मैंने देखा कि मेरी आस्था का उद्देश्य सिर्फ आशीष पाना था, सत्य हासिल करना, अपना जीवन स्वभाव बदलना या सार्थक जीवन जीना नहीं। इतने बरसों की आस्था के बाद भी मेरे पास जरा-सी भी सत्य वास्तविकता नहीं थी। हर मोड़ पर मैं परमेश्वर से तर्क-वितर्क कर अपनी शर्तें रख रहा था, और असंयमित इच्छाओं से भरा था। फिर भी मैं परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर इसके आशीष का सुख भोगना चाहता था। यह कैसी कुत्सित सोच थी! कैसा भ्रामक ख्वाब था! अगर यह स्थिति खड़ी न की गई होती, तो मैं अब भी न तो खुद को जान पाता, न यह समझता कि मैं जमीर और विवेक से रहित हूँ। पहले मैं हमेशा यही सोचता था कि बरसों से विश्वासी होने, हर दिन प्रार्थना करने और परमेश्वर के वचन पढ़ने, जुल्मों के सामने कभी भी पीछे न मुड़ने के कारण मैं आध्यात्मिक कद वाला हूँ और परमेश्वर के प्रति समर्पित हूँ, इसलिए जब समय आएगा तो मैं निश्चित रूप से बचा लिया जाऊँगा और राज्य में प्रवेश करूँगा। लेकिन बाद में मैंने सीखा, अगर मैं उद्धार पाना चाहता हूँ तो सत्य को अभ्यास में लाना और सत्य वास्तविकता को जीना सबसे अहम है। अगर मैंने आशीष पाने के पीछे भागना नहीं छोड़ा तो भले ही अंत तक विश्वास करूँ लेकिन स्वभाव न बदने के कारण परमेश्वर मुझे बहिष्कृत और नष्ट कर देगा।
बाद में जब मैं भाई-बहनों से मिला तो उन्होंने मुझे परमेश्वर के वचनों के कुछ प्रसंग सुनाए जिन्होंने मेरी दशा का समाधान किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “यदि किसी व्यक्ति का जन्म उसके पिछले जीवन पर नियत था, तो उसकी मृत्यु उस नियति के अंत को चिह्नित करती है। यदि किसी का जन्म इस जीवन में उसके ध्येय की शुरुआत है, तो उसकी मृत्यु उसके उस ध्येय के अंत को चिह्नित करती है। चूँकि सृजनकर्ता ने किसी व्यक्ति के जन्म के लिए परिस्थितियों का एक निश्चित समुच्चय निर्धारित किया है, इसलिए स्पष्ट है कि उसने उसकी मृत्यु के लिए भी परिस्थितियों के एक निश्चित समुच्चय की व्यवस्था की है। दूसरे शब्दों में, कोई भी व्यक्ति संयोग से पैदा नहीं होता है, किसी भी व्यक्ति की मृत्यु अकस्मात नहीं होती है, और जन्म और मृत्यु दोनों ही अनिवार्य रूप से उसके पिछले और वर्तमान जीवन से जुड़े हैं। किसी व्यक्ति की जन्म और मृत्यु की परिस्थितियाँ दोनों ही सृजनकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित की जाती हैं; यह व्यक्ति की नियति है, और व्यक्ति का भाग्य है। चूँकि किसी व्यक्ति के जन्म के बारे में बहुत सारे स्पष्टीकरण होते हैं, वैसे ही यह भी सच है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु भी विशेष परिस्थितियों के एक भिन्न समुच्चय में होगी। लोगों के अलग-अलग जीवनकाल और उनकी मृत्यु होने के अलग-अलग तरीके और समय होने का यही कारण है। कुछ लोग ताकतवर और स्वस्थ होते हैं, फिर भी जल्दी मर जाते हैं; कुछ लोग कमज़ोर और बीमार होते हैं, फिर भी बूढ़े होने तक जीवित रहते हैं, और बिना कोई कष्ट पाए मर जाते हैं। कुछ की मृत्यु अस्वाभाविक कारणों से होती है, और कुछ की मृत्यु स्वाभाविक कारणों से होती है। कुछ का जीवन उनके घर से दूर समाप्त होता है, कुछ अपने प्रियजनों के साथ उनके सानिध्य में आखिरी साँस लेते हैं। कुछ आसमान में मरते हैं, कुछ धरती के नीचे। कुछ पानी के अन्दर डूब जाते हैं, कुछ आपदाओं में अपनी जान गँवा देते हैं। कुछ सुबह मरते हैं, कुछ रात्रि में। ... हर कोई एक शानदार जन्म, एक बहुत बढ़िया ज़िन्दगी, और एक गौरवशाली मृत्यु की कामना करता है, परन्तु कोई भी व्यक्ति अपनी नियति से परे नहीं जा सकता है, कोई भी सृजनकर्ता की संप्रभुता से बचकर नहीं निकल सकता है। यह मनुष्य का भाग्य है। मनुष्य अपने भविष्य के लिए अनगिनत योजनाएँ बना सकता है, परन्तु कोई भी अपने जन्म के तरीके और समय की और संसार से अपने प्रस्थान की योजना नहीं बना सकता है। यद्यपि लोग मृत्यु को टालने और उसको रोकने की भरसक कोशिश करते हैं, फिर भी, उनके जाने बिना, मृत्यु चुपचाप पास आ जाती है। कोई नहीं जानता है कि वह कब मरेगा या वह कैसे मरेगा, और यह तो बिलकुल भी नहीं जानता कि वह कहाँ मरेगा। स्पष्ट रूप से, न तो मानवजाति के पास जीवन और मृत्यु की सामर्थ्य है, न ही प्राकृतिक संसार में किसी प्राणी के पास, केवल अद्वितीय अधिकार वाले सृजनकर्ता के पास ही यह सामर्थ्य है। मनुष्य का जीवन और उसकी मृत्यु प्राकृतिक संसार के किन्हीं नियमों का परिणाम नहीं है, बल्कि सृजनकर्ता के अधिकार की संप्रभुता का परिणाम है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। “इस जीवन में, सृष्टिकर्ता के बारे में सच्ची समझ, ज्ञान, और श्रद्धा पाने, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चलने के लिए, लोगों के पास चीजों को समझने से लेकर इस अवसर को पाने, यह क्षमता होने, और सृष्टिकर्ता के साथ संवाद में शामिल होने की शर्तों को पूरा करने के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए सीमित समय होता है। अब अगर तुम चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हें जल्दी से मार्ग दिखाए, तो तुम अपने ही जीवन के प्रति जिम्मेदार नहीं हो। जिम्मेदार होने के लिए, तुम्हें खुद को सत्य से सुसज्जित करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए, जब तुम्हारे साथ कुछ घटे तो अधिक आत्म-चिंतन करना चाहिए, और जल्दी से अपनी कमियों की भरपाई करनी चाहिए। सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने, परमेश्वर के बारे में और अधिक जानने, परमेश्वर की इच्छा को जानने और समझने में सक्षम होने और अपना जीवन व्यर्थ न होने देने के लिए तुम्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए। तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि सृष्टिकर्ता कहाँ है, सृष्टिकर्ता की इच्छा क्या है, और सृष्टिकर्ता आनंद, क्रोध, और दुख, और खुशी कैसे व्यक्त करता है—भले ही तुम गहरी जागरूकता या संपूर्ण ज्ञान नहीं पा सकते, पर कम से कम तुम्हें परमेश्वर के बारे में बुनियादी समझ तो होनी ही चाहिए, परमेश्वर से कभी विश्वासघात मत करो, मौलिक रूप से परमेश्वर के अनुकूल रहो, परमेश्वर के प्रति विचारशील रहो, परमेश्वर को बुनियादी सांत्वना दो, और वह सब करो जो एक सृजित प्राणी के लिए उचित और मूल रूप से हासिल करने योग्य हो। ये कोई आसान चीजें नहीं हैं। अपने कर्तव्यों को पूरा करने की प्रक्रिया में, लोग धीरे-धीरे खुद को और इस तरह परमेश्वर को जान सकते हैं। यह प्रक्रिया दरअसल सृष्टिकर्ता और सृजित प्राणियों के बीच एक संवाद है, और यह एक ऐसी प्रक्रिया होनी चाहिए जो व्यक्ति के लिए जीवन भर याद रखने लायक हो। यह कोई कष्टदायी या मुश्किल प्रक्रिया नहीं होनी चाहिए, बल्कि लोगों को इसका आनंद लेने में सक्षम होना चाहिए। इसलिए, लोगों को अपने कर्तव्यों को पूरा करने में बिताए गए दिनों और रातों, वर्षों और महीनों को संजोना चाहिए। उन्हें जीवन के इस चरण को संजोना चाहिए और इसे बोझ या बाधा नहीं मानना चाहिए। उन्हें अपने जीवन के इस चरण का आनंद लेना और अनुभवात्मक ज्ञान हासिल करना चाहिए। तभी, वे सत्य की समझ प्राप्त करेंगे और एक इंसान की तरह जीवन जिएंगे, उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होगा, और वे कम-से-कम बुरे कर्म करेंगे। जब तुम सत्य के बारे में बहुत कुछ जानते हो, तुम ऐसे काम नहीं करते जो परमेश्वर को दुखी या परेशान करते हों। जब तुम परमेश्वर के समक्ष आते हो, तो तुम्हें लगता कि परमेश्वर अब तुमसे नफरत नहीं करता है। कितनी शानदार बात है! जब कोई यहाँ तक पहुँच जाएगा, तो यहाँ तक कि अगर वह मर भी जाए तो क्या उसे शांति नहीं मिलेगी? तो फिर उन लोगों का क्या मामला है जो अभी मरने की भीख माँग रहे हैं? वे बस बचकर भागना चाहते हैं और कष्ट नहीं सहना चाहते। वे चाहते हैं कि यह जीवन तुरंत खत्म हो जाए, ताकि वे खुद को परमेश्वर के समक्ष प्रस्तुत कर सकें। तुम परमेश्वर के समक्ष प्रस्तुत होना चाहते हो, पर परमेश्वर तुम्हें अभी अपने पास नहीं देखना चाहता। तुम परमेश्वर के बुलाने से पहले ही उसके पास क्यों जाना चाहोगे? अपना समय आने से पहले उसके पास मत जाओ? यह अच्छी बात नहीं है। अगर तुम एक सार्थक और मूल्यवान जीवन जीते हो और तब परमेश्वर तुम्हें लेकर जाता है, तो यह एक शानदार बात है!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। परमेश्वर के वचनों के ये दो प्रसंग पढ़कर मेरा दिल काफी उजला हो गया। पहले मैं सोचता था कि चूँकि मेरी पत्नी बरसों से विश्वासी थी, और उसने मरते-मरते भी परमेश्वर को दोष नहीं दिया, इसलिए परमेश्वर को उसे इतनी जल्दी नहीं मरने देना चाहिए था। परमेश्वर को उसे जीने देना चाहिए था, ताकि हम एक साथ राज्य में प्रवेश करते और अच्छी मंजिल और परिणाम पाते। इसीलिए मैं उसकी मौत को भुला नहीं पा रहा था और मेरा दिल परमेश्वर के प्रति निंदा और गलतफहमी से भरा हुआ था। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने जाना कि आस्था रखने से यह गारंटी नहीं मिल जाती कि इंसान मरेगा नहीं। जीवन-मरण, बुढ़ापा और बीमारी ऐसी चीजें हैं जिनसे कोई बच नहीं सकता। लोग चाहे जितनी उम्र तक जिएँ, इसे परमेश्वर ने पहले से तय किया है। मेरी पत्नी का जन्म-मरण उसके पूर्व और वर्तमान जीवन से प्रभावित था, और परमेश्वर ने इसकी व्यवस्था उसके जन्म से भी पहले से कर रखी थी। उसके जन्म का समय, उसके जीवन का पथ, उसके जीवन का वांछित उद्देश्य, उसकी आयु, और उसकी मृत्यु का समय—इनमें से कुछ भी आकस्मिक नहीं है। लोग अक्सर कहते हैं कि हमारा भाग्य स्वर्ग से तय होता है। यह स्वर्गिक नियम है, और इसे कोई तोड़ नहीं सकता है। जब मेरी पत्नी का समय पूरा हो गया तो वह स्वाभाविक रूप से गुजर गई, इसे कोई नहीं बदल सकता था। मैं सोचा करता था कि चूँकि मेरी पत्नी की मृत्यु हो चुकी है, इसलिए उसे अब बचाया नहीं जा सकता है। लेकिन अब मैं जानता हूँ कि किसी की मृत्यु का उसके उद्धार से कोई संबंध नहीं है। उसके उद्धार के लिए महत्वपूर्ण यह है कि उसने सत्य का अनुसरण किया या नहीं, परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता को जिया या नहीं। जो परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं और सत्य का अनुसरण कर इसे खोजते हैं, उन्हीं की आत्माएँ मृत्यु के बाद बचाई जाएँगी। अब्राहम, अय्यूब और पतरस को ही ले लो—उन सबकी मृत्यु हो गई, लेकिन मृत्यु के बाद उनकी आत्माएँ बचा ली गईं, और उन्हें अच्छा परिणाम और मंजिल मिली। कुछ विश्वासियों में सच्ची आस्था नहीं होती और वे बिल्कुल अविश्वासियों जैसे होते हैं। भले ही वे अभी जी रहे हों, लेकिन वे बचाए नहीं जा सकेंगे। मेरी पत्नी ने बरसों परमेश्वर पर विश्वास किया, लेकिन मैं नहीं जानता कि उसकी आस्था सच्ची थी या झूठी। परमेश्वर उसके परिणाम की चाहे जो व्यवस्था करे, वह उसे नरक में भेजे या ऊपर स्वर्ग में, परमेश्वर धार्मिक है और वह कुछ भी गलत नहीं करेगा। सृजित प्राणी के रूप में मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। मेरे पास ऐसा विवेक होना चाहिए। पहले मुझमें यह स्पष्टता नहीं थी और मैं परमेश्वर के शासन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार नहीं था। जब मेरी पत्नी की मृत्यु हुई तो मैंने मरकर इससे उबरना चाहा। लेकिन अब मैं जान चुका हूँ कि मेरी पत्नी की मृत्यु परमेश्वर ने तय की थी, और उसी ने ऐसा होने दिया। साथ ही, मरने की इच्छा करना भी परमेश्वर का निरादर था, यह उसके प्रति समर्पण नहीं था; यह उससे विद्रोह था। मेरी पत्नी की मृत्यु से मुझे दुख-दर्द मिला लेकिन इसके पीछे परमेश्वर की सदिच्छा थी। पहली बात, इसने मेरी भ्रष्टता उजागर कर दी, और आशीष के बदले परमेश्वर से लेनदेन करने की मेरी आंतरिक इच्छा को स्वच्छ कर दिया। इसने मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जानने में भी मदद की। यह परमेश्वर का प्रेम और उद्धार था। परमेश्वर मुझे इस बुढ़ापे में भी जीने दे रहा था। मुझे इस समय को संजोना चाहिए और परमेश्वर ने जो परिवेश बनाया है उसमें पूरी कर्मठता से सत्य का अनुसरण करना चाहिए ताकि अपनी भ्रष्टता और परमेश्वर के कार्य को समझ सकूँ, समर्पित होकर परमेश्वर की आराधना कर सकूँ, और परमेश्वर से विद्रोह और उसे आहत करना बंद करूँ। परमेश्वर भविष्य में चाहे जो करे, वह चाहे जैसे परिवेश रचे, मुझे उसे सुनना चाहिए, अपना जीवन उचित रूप से जीना चाहिए, सुसमाचार फैलाकर परमेश्वर की गवाही देनी चाहिए, सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के लिए जीना चाहिए, और परमेश्वर के शासन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। मैं उसके नेक इरादों की तौहीन नहीं कर सकता। मुझे अपना जीवन खत्म करने के विचार छोड़ने जरूरी थे। इसलिए, मैंने सच्चे मन से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मुझे न अनुग्रह चाहिए न आशीष। मेरे पास सत्य की कमी है, इसलिए मैं सत्य के सिवाय और कुछ नहीं माँग रहा हूँ। मेरा भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव है और मुझे तुम्हारा न्याय और तुम्हारी ताड़ना चाहिए ताकि मैं नियंत्रण में रहूँ और भटकूँ नहीं।” इस समझ के साथ मेरे पूरे शरीर को आराम मिला। मुझे फिर से भोजन अच्छा लगने लगा और ठीक से नींद आने लगी। प्रतिकूल परिस्थिति के कारण मैं भाई-बहनों के साथ सभाओं में नहीं जा सका, फिर भी मैंने नियमित रूप से भक्ति की और परमेश्वर के वचन खाए-पिए। उसके वचनों ने मुझे सींचा और पोषण दिया, और इससे मैं शांत, सहज और बंधनमुक्त हो गया। धीरे-धीरे मेरी सेहत भी सुधरने लगी। दूसरे ग्रामीणों ने कहा कि मैं 70 साल का बूढ़ा नहीं, बल्कि अच्छा-खासा सेहतमंद लगता हूँ। मैंने परमेश्वर को धन्यवाद दिया और दिल में उसकी प्रशंसा की!
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और प्रसंग पढ़ा जिससे मुझे अपनी भ्रष्टता को और अच्छी तरह समझने में मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “चाहे उसके साथ कितनी भी चीजें घटित हो जाएँ, मसीह-विरोधी जैसा व्यक्ति कभी परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजकर उन्हें हल करने की कोशिश नहीं करता, चीजें परमेश्वर के वचनों के माध्यम से देखने की कोशिश तो वह बिल्कुल भी नहीं करता—जो पूरी तरह से इसलिए है, क्योंकि वह इस पर विश्वास नहीं करता कि परमेश्वर के वचनों की प्रत्येक पंक्ति सत्य है। परमेश्वर का घर सत्य पर चाहे जिस भी तरह संगति करे, मसीह-विरोधी उसे ग्रहण नहीं करते, जिसका नतीजा यह होता है कि चाहे उन्हें किसी भी स्थिति का सामना करना पड़े, उनमें सही मानसिकता का अभाव रहता है; विशेष रूप से, जब यह बात आती है कि वे परमेश्वर और सत्य को कैसे लेते हैं, तो मसीह-विरोधी हठपूर्वक अपनी धारणाएँ अलग रखने से इनकार कर देते हैं। जिस परमेश्वर में वे विश्वास करते हैं, वह वो परमेश्वर है जो चिह्न और चमत्कार दिखाता है, यानी अलौकिक परमेश्वर। जो कोई भी संकेत और चमत्कार दिखा सकता है—चाहे वह बोधिसत्व हो, बुद्ध हो या माजू हो—वे उसे परमेश्वर कहते हैं। ... मसीह-विरोधियों के विचार में, उस परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए जो वेदी के पीछे छिपा हो, लोगों द्वारा चढ़ाए गए खाद्य पदार्थ खाता हो, उनकी जलाई हुई धूप सूँघता हो, उनके मुसीबत में होने पर मदद के लिए हाथ बढ़ाता हो, जब लोग मदद माँगें और अपनी विनती में सच्चे हों तो उनकी समझ की सीमा के भीतर खुद को सर्वशक्तिमान दिखाते हुए उन्हें तत्काल सहायता प्रदान करता हो, और उनकी जरूरतें पूरी करता हो। मसीह-विरोधियों के अनुसार सिर्फ ऐसा ईश्वर ही सच्चा परमेश्वर है। इस बीच, आज परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसमें उसे मसीह-विरोधियों का तिरस्कार झेलना पड़ता है। और ऐसा क्यों है? मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार को देखते हुए, उन्हें जिस चीज की जरूरत है, वह सिंचन, चरवाही और उद्धार का वह कार्य नहीं है जो सृष्टिकर्ता परमेश्वर के प्राणियों पर करता है, बल्कि सभी चीजों में समृद्धि और सफलता, इस दुनिया में दंडित न किया जाना और मरने पर स्वर्ग जाना है। उनका दृष्टिकोण और जरूरतें सत्य के प्रति उनकी शत्रुता के सार की पुष्टि करती हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद पंद्रह : वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते और वे मसीह के सार को नकारते हैं (भाग एक))। परमेश्वर सत्य से घृणा करने वाले मसीह-विरोधियों को उजागर करता है। वे चाहे कितने ही बरसों से परमेश्वर के वचन खा-पी रहे हों, वे किसी भी चीज को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देखते हैं। वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं मगर सत्य का अनुसरण नहीं करते; वे बस चमत्कार चाहते हैं। वे हमेशा यही माँग करते रहते हैं कि परमेश्वर उनकी समस्याएँ दूर करे और वे जो चाहें वो दे, इस जीवन में हर चीज उन्हीं के अनुसार हो, और अगले जीवन में वे सदा जीते रहें। उनकी आस्था पूरी तरह आशीष के लिए है। अपनी आस्था में मेरा अनुसरण भी बिल्कुल किसी मसीह-विरोधी जैसा था। मैं परमेश्वर की आराधना इस प्रकार कर रहा था मानो वह कोई बुत हो। आम तौर पर, जब किसी कष्ट या रोग से हमारा सामना होता तो मैं प्रार्थना करता था कि परमेश्वर हमारी रक्षा करे और हमें दिक्कतों से बचा ले। मुझे लगता था कि परमेश्वर को हमारी हर माँग पूरी करनी चाहिए और हमें जो भी जरूरत है, वो देना चाहिए। मेरे मन में परमेश्वर की यही छवि थी। अपनी माँगों को पूरी करने के लिए परमेश्वर का दोहन करना क्या उसे धोखा देना और उसकी निंदा करना नहीं था? और अब तो यह अनुग्रह का युग भी नहीं है, इसलिए परमेश्वर न तो रोगियों को चंगा करता है और न दानवों को बाहर निकालता है। आज उसका कार्य न्याय और ताड़ना का है। यह मानवता का भ्रष्ट स्वभाव दूर करने और हमें शैतान के प्रभाव से बचाने का कार्य है। लेकिन मैं न तो सत्य के प्रेम करता था, न परमेश्वर के कार्य को महत्व देता था। मैं तो बस परमेश्वर से अनुग्रह और आशीष माँगता रहा। सार रूप में मैं अविश्वासी था। मैं बरसों से परमेश्वर का अनुसरण कर रहा था, उसके वचनों के सिंचन, पोषण, और उसकी देखरेख और संरक्षण का आनंद ले रहा था, लेकिन मैंने न तो सत्य का अनुसरण किया न ही परमेश्वर का प्रेम चुकाया। मैं तो परमेश्वर से अनुचित माँगें तक कर बैठा। इस तरह के अनुसरण ने मुझे परमेश्वर का दुश्मन बना दिया और आखिरकार मुझे परमेश्वर से दंड मिलना तय था। इस एहसास ने मुझे डरा दिया। मैं इस गलत मार्ग पर और आगे नहीं बढ़ना चाहता था, बल्कि पाप कबूलना और पश्चात्ताप करना चाहता था।
बाद में, अय्यूब के अनुभव के बारे में पढ़कर मेरी समझ और बढ़ी। मैंने सीखा कि जब परीक्षण हों तो उनका सामना कैसे किया जाए। मैंने परमेश्वर के वचनों में और अधिक पढ़ा : “अय्यूब ने परमेश्वर से किन्हीं लेन-देनों की बात नहीं की, और परमेश्वर से कोई याचनाएँ या माँगें नहीं कीं। उसका परमेश्वर के नाम की स्तुति करना भी सभी चीज़ों पर शासन करने की परमेश्वर की महान सामर्थ्य और अधिकार के कारण था, और वह इस पर निर्भर नहीं था कि उसे आशीषें प्राप्त हुईं या उस पर आपदा टूटी। वह मानता था कि परमेश्वर लोगों को चाहे आशीष दे या उन पर आपदा लाए, परमेश्वर की सामर्थ्य और उसका अधिकार नहीं बदलेगा, और इस प्रकार, व्यक्ति की परिस्थितियाँ चाहे जो हों, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। मनुष्य को धन्य किया जाता है तो परमेश्वर की संप्रभुता के कारण किया जाता है, और इसलिए जब मनुष्य पर आपदा टूटती है, तो वह भी परमेश्वर की संप्रभुता के कारण ही टूटती है। परमेश्वर की सामर्थ्य और अधिकार मनुष्य से संबंधित सब कुछ पर शासन करते हैं और उसे व्यवस्थित करते हैं; मनुष्य के सौभाग्य के उतार-चढ़ाव परमेश्वर की सामर्थ्य और उसके अधिकार की अभिव्यंजना हैं, और जिसका चाहे जो दृष्टिकोण हो, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। यही वह है जो अय्यूब ने अपने जीवन के वर्षों के दौरान अनुभव किया था और जानने लगा था। अय्यूब के सभी विचार और कार्यकलाप परमेश्वर के कानों तक पहुँचे थे, और परमेश्वर के सामने आए थे, और परमेश्वर द्वारा महत्वपूर्ण माने गए थे। परमेश्वर ने अय्यूब के इस ज्ञान को सँजोया, और ऐसा हृदय होने के लिए अय्यूब को सँजोया। यह हृदय सदैव, और सर्वत्र, परमेश्वर के आदेश की प्रतीक्षा करता था, और समय या स्थान चाहे जो हो, उस पर जो कुछ भी टूटता उसका स्वागत करता था। अय्यूब ने परमेश्वर से कोई माँगें नहीं कीं। उसने स्वयं अपने से जो माँगा वह यह था कि परमेश्वर से आई सभी व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करे, स्वीकार करे, सामना करे, और आज्ञापालन करे; अय्यूब इसे अपना कर्तव्य मानता था, और यह ठीक वही था जो परमेश्वर चाहता था। अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था, न ही उसे कोई वचन बोलते, कोई आज्ञा देते, कोई शिक्षा देते, या उसे किसी चीज़ का निर्देश देते सुना था। आज के वचनों में, जब परमेश्वर ने उसे सत्य के संबंध में कोई प्रबुद्धता, मार्गदर्शन या पोषण नहीं दिया था, उसके लिए परमेश्वर के प्रति ऐसा ज्ञान और प्रवृत्ति रख पाना—यह बहुमूल्य था, और उसका ऐसी चीज़ें प्रदर्शित करना परमेश्वर के लिए पर्याप्त था, और उसकी गवाही परमेश्वर द्वारा सराही और सँजोई गई थी। अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा या व्यक्तिगत रूप से उसे कोई शिक्षा देते नहीं सुना था, परंतु परमेश्वर के लिए उसका हृदय और वह स्वयं उन लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक अनमोल थे जो परमेश्वर के सामने केवल गहन सिद्धांतों की शब्दावली में बोल सकते थे, जो केवल शेखी बघार सकते थे, और बलिदान चढ़ाने की बात कर सकते थे, परंतु जिनके पास परमेश्वर का सच्चा ज्ञान कभी नहीं था, और जिन्होंने कभी सच में परमेश्वर का भय नहीं माना था। क्योंकि अय्यूब का हृदय शुद्ध था, और परमेश्वर से छिपा हुआ नहीं था, और उसकी मानवता ईमानदार और दयालु हृदय थी, और वह न्याय से और जो सकारात्मक था उससे प्रेम करता था। केवल इस प्रकार का व्यक्ति ही जो ऐसे हृदय और मानवता से युक्त था, परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर पाने में समर्थ था, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम था। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की संप्रभुता देख सकता था, उसका अधिकार और सामर्थ्य देख सकता था, और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति आज्ञाकारिता प्राप्त करने में समर्थ था। केवल इस जैसा व्यक्ति ही परमेश्वर के नाम की सच्ची स्तुति कर सकता था। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह यह नहीं देखता था कि परमेश्वर उसे आशीष देगा या उसके ऊपर आपदा लाएगा, क्योंकि वह जानता था कि सब कुछ परमेश्वर के हाथ से नियंत्रित होता है, और यह कि मनुष्य का चिंता करना मूर्खता, अज्ञानता, या तर्कहीनता का, और सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य के प्रति संदेह का, और परमेश्वर का भय न मानने का संकेत है। अय्यूब का ज्ञान ठीक वही था जो परमेश्वर चाहता था” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। मैंने परमेश्वर के वचनों में देखा कि अय्यूब विश्वास करता था कि सारी चीजों और सारे कार्यों पर परमेश्वर का शासन है। चाहे उसे आशीष मिला या उसने आपदाएँ सहीं, हर चीज परमेश्वर से आई। जब उसकी परीक्षा ली गई, उसके परिवार की धन-दौलत और उसके सारे बच्चे छीन लिए गए, और उसका शरीर फोड़ों से भर गया, तब भी उसने बिल्कुल शिकायत नहीं की, बल्कि यह कहकर परमेश्वर के नाम की महिमा गाई, “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। अय्यूब की आस्था में कोई लेनदेन या माँगें नहीं थीं। वह परमेश्वर की संप्रभुता पर विश्वास करता था, इसीलिए उसने परमेश्वर की सामर्थ्य की प्रशंसा की। वह मानता था कि परमेश्वर जो भी करता है वो अच्छा है। अय्यूब चरित्र से मूलतः ईमानदार और रहमदिल था, जिसने मुझे अपराध बोध और शर्म से भर दिया। अय्यूब की तुलना में मुझमें इतनी ज्यादा कमियाँ थीं। अय्यूब ने जो कुछ सुना था उसी आधार पर परमेश्वर को जानता था; उसने परमेश्वर के वचनों के सिंचन और पोषण का अनुभव नहीं किया था, लेकिन परीक्षणों का सामना होने पर उसने परमेश्वर को दोष नहीं दिया। चाहे उसे आशीष मिला या उसने आपदा का सामना किया, वह इसे परमेश्वर से स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण कर सका। उसकी तुलना में मैंने परमेश्वर के वचन बहुत अधिक खाए-पिए लेकिन मैं परमेश्वर का प्रेम चुकाना नहीं जानता था। जब मुझे परमेश्वर का आशीष और अनुग्रह मिला तो मैंने उसकी सामर्थ्य और अधिकार पर विश्वास किया। जब मेरी पत्नी बीमार पड़ी और नहीं रही तो मैं परमेश्वर की सामर्थ्य और अधिकार के बारे में शंका करने लगा। मैं परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं था। मैं उसके साथ तर्क-वितर्क भी कर रहा था। मेरे मन में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी, और मैं परमेश्वर के शासन या व्यवस्थाओं पर विश्वास नहीं करता था। मैंने देखा कि मैं परमेश्वर की सामर्थ्य और शक्ति की प्रशंसा अपने आशीष और आपदाओं के आकलन के आधार पर करता था। मैं परमेश्वर के शासन और व्यवस्थाओं के प्रति बिना शर्त समर्पण नहीं कर पाया। जब कोई कठिनाई आई तो मैंने परमेश्वर के साथ बहस की, यहाँ तक कि उसका विरोध किया और बात का बतंगड़ बनाया। अय्यूब की तुलना में मुझमें जरा-सी भी मानवता या बुद्धि नहीं थी। परमेश्वर के प्रति यह घृणित और कुत्सित सोच थी। मैं उसे अब और आहत नहीं करना चाहता था। मैंने कसम खाई कि परमेश्वर अब चाहे जैसी भी स्थिति खड़ी करे, मैं चाहे आशीष पाऊँ या दुर्भाग्य झेलूँ, मैं अय्यूब का अनुसरण करूँगा और परमेश्वर से दुबारा कभी सौदेबाजी नहीं करूँगा, उसके शासन और व्यवस्थाओं के प्रति पूर्ण समर्पण करूँगा। भले ही मुझे सत्य हासिल न हो और मैं अंत में निकाल दिया जाऊँ, लेकिन मैं शिकायत नहीं करूँगा। कुछ समय बाद ही मैं ऐसी खतरनाक स्थिति से निकल गया, और फिर से सभाओं में जाने लगा। मैं भाई-बहनों के साथ परमेश्वर के वचन खा-पीकर कलीसिया का जीवन जीने लगा। कलीसिया ने मुझे एक कर्तव्य भी सौंप दिया। अब मैं वाकई खुश हूँ।
मेरी पत्नी की मृत्यु ने मेरा बहुत सारा विद्रोहीपन उजागर कर दिया। परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन से यह देख पाया कि मैं अपनी आस्था में घिनौने ढंग से आशीष के पीछे भाग रहा हूँ। मैंने इस गलत मार्ग पर चलने के प्रयास बंद कर दिए। साथ ही मैंने यह भी समझ लिया कि मेरी पत्नी की मृत्यु इसलिए हुई क्योंकि उसका जीवनकाल समाप्त हो चुका था। इसका उचित रूप से सामना करने से मेरी पीड़ा खत्म हो गई। अब मुझे कर्मठ होकर सत्य का अनुसरण करने और स्वभाव बदलने की जरूरत है। मैं चाहे आशीष पाऊँ या कहर झेलूँ, मुझे परमेश्वर के वचन सुनने चाहिए, और उसके शासन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए।
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