यकृत कैंसर की बीमारी से सीखे सबक
ईसाई बनने के बाद मुझे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने कई बार गिरफ्तार किया, किंतु मैंने कभी प्रभु को धोखा नहीं दिया। कुछ साल पहले ही मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किया था, और धूप हो या बारिश, मैं हमेशा पूरे उत्साह से सुसमाचार का प्रचार करता और अपना कर्तव्य निभाता। मुझे लगता था कि मैं हमेशा परमेश्वर के प्रति वफादार रहूँगा, चाहे मुझे कितनी भी पीड़ा सहनी पड़े। मेरी बीमारी ने मुझे अपनी नश्वरता का बोध कराया, तब मेरे अंदर इस बात की थोड़ी-बहुत समझ पैदा हुई कि मेरी आस्था में आशीष पाने की मंशा छिपी हुई है।
अक्तूबर 2014 में एक दिन मैं एक सहभागिता से वापस आ रहा था, तो मुझे शरीर में कमजोरी महसूस हुई और मेरे पैर लड़खड़ा गए। मुझे लगा कि यह शरीर में नमी के कारण है, और मुझे कोई दवाई ले लेनी चाहिए। मैं ज्यादा ज्यादा चिंतित नहीं था। लेकिन कुछ समय बाद मेरे कान, उँगलियाँ और पैर के अँगूठे काले पड़ने लगे, और मैं अधिकाधिक कमजोर होता चला गया। मुझे लगने लगा कि मुझे कोई गंभीर बीमारी है, पर मैंने सोचा, इतने सालों तक अपना कर्तव्य निभाने में किए गए मेरे प्रयासों के कारण परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा। मेरे साथ कुछ बुरा नहीं होगा। मुझे यकीन था कि मैं अपने आप ही ठीक हो जाऊँगा। लेकिन ताज्जुब की बात है कि दवाई लेने के बाद भी मैं ठीक नहीं हुआ। मेरी पत्नी और बेटियाँ जाँच के लिए मुझे अस्पताल लेकर गईं, और नतीजों से पता चला कि मुझमें एनीमिया और हेपेटाइटिस-बी दोनों के गंभीर लक्षण थे। उन्होंने कहा, हालत और बिगड़ने पर इसे ठीक करना नामुमकिन हो जाएगा। यह सुनते ही मेरा पूरा शरीर ढीला पड़ गया। उन्होंने जो कहा, उसे मैं स्वीकार नहीं कर पाया। मैंने सोचा, "सालों तक मैंने इतने त्याग किए हैं। अपना कर्तव्य निभाने के लिए काफी कुछ सहा है। मुझे सीसीपी ने गिरफ्तार करके धमकाया, लेकिन मैंने कभी परमेश्वर को धोखा नहीं दिया, और कैद से छूटने पर वापस अपना कर्तव्य निभाने चला गया। मैं इतना बीमार कैसे हो सकता हूँ? परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की? अगर मैं ठीक नहीं हो सका, तो मेरे इतने सारे त्याग का क्या फायदा? मैंने परमेश्वर के आशीष पाए बिना इतने सालों तक उस पर विश्वास किया, और अब मेरा शरीर बीमार हो गया है। मुझे लगता है, मुझे अब अपना कर्तव्य निभाने की ज्यादा कोशिश नहीं करनी चाहिए; चाहे मैं कितनी भी तकलीफ सहूँ, यह बेकार होगा।" इस दौरान, मैं अभी भी अपना कर्तव्य निभाता रहा। लेकिन वह मैंने बिना उत्साह के किया। सभाओं के दौरान मैंने भाई-बहनों से उनकी समस्याओं के बारे में नहीं पूछा। मैं परमेश्वर के वचन पढ़ता था, लेकिन सहभागिता नहीं करना चाहता था। कुछ समय बाद मेरी हालत बद से बदतर होती चली गई। मैं ठीक से खड़ा भी न हो पाता, और दिन भर मेरा सिर चकराता रहता। मेरे अगुआ ने मुझे कुछ समय की छुट्टी दे दी, ताकि घर पर आराम करने से मेरी हालत सुधर जाए। मैंने अपने भाई-बहनों को खुशी और उत्साह के साथ अपना कर्तव्य निभाते देखा। लेकिन मैं? मैं अब इतना बीमार पड़ गया था कि अपना कर्तव्य बिलकुल भी नहीं निभा पाता था। मुझे लगा, शायद परमेश्वर ने मुझे नहीं बचाने का फैसला कर लिया है। मैं जितना इस बारे में सोचता, उतना ही दुख और दर्द मुझे महसूस होता। मैं परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना करने लगा : "परमेश्वर! मैं इन बीमारियों की चपेट में आ गया हूँ, और मुझे बहुत कमजोरी और पीड़ा महसूस हो रही है। मैं जानता हूँ कि तुम्हें दोष देना ठीक नहीं, लेकिन मैं तुम्हारी इच्छा भी नहीं समझ पा रहा। कृपा करके उसे समझने में मेरा मार्गदर्शन करो।"
प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : "उस समस्त कार्य के, जो परमेश्वर मनुष्य में करता है, अपने लक्ष्य और अपना अर्थ होता है; परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता, और न ही वह ऐसा कार्य करता है, जो मनुष्य के लिए लाभदायक न हो। शुद्धिकरण का अर्थ लोगों को परमेश्वर के सामने से हटा देना नहीं है, और न ही इसका अर्थ उन्हें नरक में नष्ट कर देना है। बल्कि इसका अर्थ है शुद्धिकरण के दौरान मनुष्य के स्वभाव को बदलना, उसके इरादों को बदलना, उसके पुराने विचारों को बदलना, परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम को बदलना, और उसके पूरे जीवन को बदलना। शुद्धिकरण मनुष्य की वास्तविक परीक्षा और वास्तविक प्रशिक्षण का एक रूप है, और केवल शुद्धिकरण के दौरान ही उसका प्रेम अपने अंतर्निहित कार्य को पूरा कर सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल शुद्धिकरण का अनुभव करके ही मनुष्य सच्चे प्रेम से युक्त हो सकता है)। मैंने परमेश्वर के वचनों पर अच्छी तरह गौर किया, और मैंने समझा कि मुझे बीमार करने के पीछे परमेश्वर की इच्छा मुझे हटाने की नहीं थी, बल्कि वह मेरी आस्था के पीछे छिपी अशुद्ध मंशा सामने लाना चाहता था, और अनुसरण के प्रति मेरी गलत सोच बदलना चाहता था, ताकि मैं सच में परमेश्वर से प्रेम करके उसका आज्ञापालन कर सकूँ। परमेश्वर मुझे शुद्ध करने और बचाने की कोशिश कर रहा था। इसका एहसास होने पर, मुझे वाकई शर्मिंदगी महसूस हुई। बीमारी का सामना करना परमेश्वर का प्रेम था। मैंने परमेश्वर की इच्छा जानने की कोशिश नहीं की, बल्कि मैंने उसे गलत समझा और दोष दिया। मैं कितना विवेकहीन था! मैं नकारात्मकता और दर्द में नहीं जी सकता था। मुझे परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना, सत्य की खोज करना और आत्मचिंतन करके खुद को जानना था।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : "लोग अनुग्रह की प्राप्ति और शांति के आनंद को केवल विश्वास का प्रतीक मानते हैं, और आशीष की तलाश को परमेश्वर में अपने विश्वास का आधार समझते हैं। बहुत कम लोग परमेश्वर को जानना चाहते हैं या अपने स्वभाव में बदलाव की कोशिश करते हैं। अपने विश्वास में लोग परमेश्वर को उन्हें एक उपयुक्त मंज़िल और जितना वे चाहते हैं, उतना अनुग्रह देने, उसे अपना सेवक बनाने, उसे अपने साथ एक शांतिपूर्ण, मैत्रीपूर्ण संबंध, फिर वह चाहे कभी भी हो, बनाए रखने के लिए बाध्य करना चाहते हैं, ताकि उनके बीच कभी कोई संघर्ष न हो। अर्थात् परमेश्वर में उनका विश्वास यह माँग करता है कि वह उनकी सभी आवश्यकताएँ पूरी करने का वादा करे और उनके द्वारा बाइबल में पढ़े गए इन वचनों को ध्यान में रखते हुए कि, 'मैं तुम लोगों की प्रार्थनाएँ सुनूँगा,' उन्हें वह सब प्रदान करे, जिसके लिए वे प्रार्थना करें। वे परमेश्वर से किसी का न्याय या निपटारा न करने की अपेक्षा करते हैं, क्योंकि वह हमेशा दयालु उद्धारकर्ता यीशु रहा है, जो हर समय और सभी जगहों पर लोगों के साथ एक अच्छा संबंध रखता है। लोग परमेश्वर में कुछ इस तरह विश्वास करते हैं : वे बस बेशर्मी से परमेश्वर से माँग माँगें करते हैं, यह मानते हैं कि चाहे वे विद्रोही हों या आज्ञाकारी, वह बस आँख मूँदकर उन्हें सब-कुछ प्रदान करेगा। वे बस परमेश्वर से लगातार 'ऋण वसूली' करते हैं, यह विश्वास करते हुए कि उसे उन्हें बिना किसी प्रतिरोध के 'चुकाना' चाहिए और इतना ही नहीं, दोगुना भुगतान करना चाहिए; वे सोचते हैं कि परमेश्वर ने उनसे कुछ लिया हो या नहीं, वे उसके साथ चालाकी कर सकते हैं, वह लोगों के साथ मनमानी नहीं कर सकता, और लोगों के सामने जब वह चाहे और बिना उनकी अनुमति के अपनी बुद्धि और धार्मिक स्वभाव तो बिलकुल भी प्रकट नहीं कर सकता, जो कई वर्षों से छिपाए हुए हैं। वे बस परमेश्वर के सामने अपने पाप स्वीकार करते हैं, और यह मानते हैं कि परमेश्वर उन्हें दोषमुक्त कर देगा, वह ऐसा करने से नाराज़ नहीं होगा, और यह हमेशा के लिए चलता रहेगा। वे परमेश्वर को आदेश दे देते हैं, और यह मानकर चलते हैं कि वह उनका पालन करेगा, क्योंकि यह बाइबल में दर्ज है कि परमेश्वर मनुष्यों से सेवा करवाने के लिए नहीं आया, बल्कि उनकी सेवा करने के लिए आया है, वह यहाँ उनका सेवक है। क्या तुम लोग अब तक यही मानते नहीं आए हो? जब भी तुम परमेश्वर से कुछ पाने में असमर्थ होते हो, तुम भाग जाना चाहते हो; जब तुम्हें कुछ समझ में नहीं आता, तो तुम बहुत क्रोधित हो जाते हो, और इस हद तक चले जाते हो कि उसे तरह-तरह की गालियाँ देने लगते हो। तुम लोग स्वयं परमेश्वर को पूरी तरह से अपनी बुद्धि और चमत्कार भी व्यक्त नहीं करने दोगे, तुम लोग तो बस अस्थायी आराम और सुविधा का आनंद लेना चाहते हो। परमेश्वर में आस्था को लेकर अब तक तो तुम्हारा वही पुराना दृष्टिकोण रहा है। यदि परमेश्वर तुम लोगों को थोड़ा-सा प्रताप दिखा दे, तो तुम लोग दुखी हो जाते हो। क्या तुम लोग देख रहे हो कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद कितना कितनी महान है? यह न समझो कि तुम सभी परमेश्वर के प्रति वफ़ादार हो, जबकि वास्तव में तुम लोगों के पुराने विचार नहीं बदले हैं। जब तक तुम पर कोई मुसीबत नहीं आ पड़ती, तुम्हें लगता है कि सब-कुछ सुचारु रूप से चल रहा है, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारा प्रेम एक ऊँचे मुकाम पर पहुँच जाता है। अगर तुम्हारे साथ कुछ मामूली-सा भी घट जाए, तो तुम रसातल में जा गिरते हो। क्या यही परमेश्वर के प्रति तुम्हारा निष्ठावान होना है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे सामने मेरी वास्तविक स्थिति का खुलासा कर दिया। मैं सत्य को पाने के लिए त्याग नहीं कर रहा थ, बल्कि परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष पाने के लिए त्याग कर रहा था। मैं परमेश्वर के साथ धोखेबाजी और सौदेबाजी कर रहा था। जब सब-कुछ अच्छा चल रहा था और मुझे परमेश्वर का अनुग्रह मिल रहा था, तब तो मैंने पूरे मन से अपना कर्तव्य निभाया। मेरे भाई-बहन चाहे कितने भी दूर हों या मुझे कितना भी कठिन परिश्रम करना पड़े या चाहे जैसा भी मौसम हो, मुझे उनकी मदद करने और उनके साथ सहभागिता करने में हमेशा खुशी होती थी। लेकिन अब बीमार होने और अनुग्रह नहीं मिलने के कारण मुझे तकलीफ हुई और मैंने परमेश्वर से शिकायत की, उसे दोषी ठहराया। मैंने उसका विरोध किया और उसके साथ कुतर्क किया। खासकर अब, जबकि मेरी हालत हर दिन खराब होती जा रही थी, मैंने परमेश्वर में अपनी आस्था खो दी और अपने कर्तव्य को लेकर लापरवाह हो गया। मैंने सत्य या जीवन की खोज के लिए परमेश्वर पर विश्वास नही किया था। मैं तो लगातार आशीष पाने की अपनी इच्छा पूरी करने के लिए परमेश्वर का इस्तेमाल कर रहा था। मैंने यह सब सिर्फ अपने फायदे के लिए किया। उसके प्रति मेरी आस्था झूठी थी। मैं बहुत ही स्वार्थी और नीच था! परमेश्वर पर इस तरह विश्वास करके अगर मुझे भौतिक आशीष मिल भी गए, पर मेरा जीवन-स्वभाव नहीं बदला, तो परमेश्वर द्वारा मुझे हटा दिया जाएगा।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : "शुद्धिकरण वह सर्वोत्तम साधन है, जिसके द्वारा परमेश्वर लोगों को पूर्ण बनाता है, केवल शुद्धिकरण और कड़वे परीक्षण ही लोगों के हृदय में परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम उत्पन्न कर सकते हैं। कठिनाई के बिना लोगों में परमेश्वर के लिए सच्चे प्रेम की कमी रहती है; यदि भीतर से उनको परखा नहीं जाता, और यदि वे सच में शुद्धिकरण के भागी नहीं बनाए जाते, तो उनके हृदय बाहर ही भटकते रहेंगे। एक निश्चित बिंदु तक शुद्धिकरण किए जाने के बाद तुम अपनी स्वयं की निर्बलताएँ और कठिनाइयाँ देखोगे, तुम देखोगे कि तुममें कितनी कमी है और कि तुम उन अनेक समस्याओं पर काबू पाने में असमर्थ हो, जिनका तुम सामना करते हो, और तुम देखोगे कि तुम्हारी अवज्ञा कितनी बड़ी है। केवल परीक्षणों के दौरान ही लोग अपनी सच्ची अवस्थाओं को सचमुच जान पाते हैं; और परीक्षण लोगों को पूर्ण किए जाने के लिए अधिक योग्य बनाते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल शुद्धिकरण का अनुभव करके ही मनुष्य सच्चे प्रेम से युक्त हो सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे उसकी इच्छा को समझने में मदद मिली कि मुझे बीमार करना मेरी भ्रष्टता को दूर करने का परमेश्वर का तरीका था। जब मुझे जेल हुई थी, तब मैंने परमेश्वर को धोखा नहीं दिया था। किसी मुसीबत का सामना करने पर मैंने कभी परमेश्वर को दोष नहीं दिया। मैं सोचता था कि मैं परमेश्वर के प्रति वफादार हूँ और मेरी उस पर अटूट आस्था है। अगर यह बीमारी न आई होती, तो मुझे कभी अपने भ्रष्ट स्वभाव और आशीषों के लिए प्रयास करने की अपनी अशुद्ध मंशा का पता न चलता, मैं सत्य का अनुसरण तो बिल्कुल ही न कर पाता और इस तरह मैं कभी रूपांतरित न हो पाता। इस रोग का होना परमेश्वर का मुझे बचाने का तरीका था। यह मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम था! यह एहसास होने पर मैंने परमेश्वर को फिर कभी दोषी नहीं ठहराया और न ही उसे गलत समझा। चाहे मेरी हालत कितनी भी खराब हो, मैं परमेश्वर के आयोजनों का पालन करूँगा और आशीष पाने की अपनी मंशा त्याग दूँगा। इसके बाद, मैंने अपनी दवाई ली और खुद को परमेश्वर के हवाले कर दिया। मैं बस उसका मार्गदर्शन पाना चाहता था। हर रोज, मैं अपना कर्तव्य निभाने की भरपूर कोशिश करने लगा। अप्रत्याशित रूप से मेरी बीमारी मुझे पता चलने से पहले ही ठीक हो गई! मेरा दिल परमेश्वर के लिए धन्यवाद से भर गया!
मई 2015 में मैंने सिंचन का काम लिया। यह काम मुझे सचमुच बहुत पसंद आया। मैं अपना समय परमेश्वर के वचनों पर गौर करने में बिताता, और जब भी मेरे भाई-बहनों को कोई समस्या होती, मैं उनके बारे में सोचता और परमेश्वर के वचनों के ऐसे अंश ढूँढ़ता, जिनसे उन्हें मदद मिल सके। कुछ समय बाद कलीसिया-जीवन में सुधार आया। मेरे भाई-बहन अपना कर्तव्य निभाने के लिए ज्यादा उत्साहित रहने लगे, और उनमें मुश्किलों और दमन का सामना करते हुए गवाही देने की आस्था पैदा हो गयी थी। मुझे बहुत गर्व महसूस हुआ। मुझे लगा कि अपने कर्तव्य-पालन में पहले से ज्यादा काबिल बनाकर परमेश्वर ने मुझे आशीष दिया है, जिससे साबित हुआ कि वह मेरी कड़ी मेहनत को सराह रहा है।
लेकिन उसी साल पाँच जून को जब मैं एक सभा में जाने के लिए तैयार हो रहा था, तभी अचानक मुझे चक्कर आने लगे। ऐसा लगा, जैसे धरती घूम रही हो। मेरा चेहरा और कपड़े जल्दी ही पसीने से भीग गए, और मेरे सिर में भयानक दर्द होने लगा। ये लक्षण ठीक वैसे ही थे, जैसे मुझमें तब दिखे थे जब मैं पहली बार बीमार हुआ था, लेकिन इस बार हालत ज्यादा खराब थी। मुझे लगा, जैसे मैं मर रहा हूँ। मैंने मन ही मन सोचा : "यह बीमारी वापस कैसे आ गई? मैं हर रोज कड़ी मेहनत करके अपना कर्तव्य निभाता हूँ—परमेश्वर मेरी रक्षा क्यों नहीं कर रहा? क्या मैं अभी भी परमेश्वर के प्रति पर्याप्त वफादार नहीं हूँ?" मेरी पत्नी ने मेरी हालत देखी, तो वह और मेरी बेटियाँ तुरंत मुझे अस्पताल ले गईं। जाँच के नतीजे आने पर डॉक्टर ने मुझे टाल दिया और मेरे बजाय मेरी बेटियों से बात करने लगा। उस वक्त, मैं जानता था कि अगर यह कैंसर नहीं है, तो यह कुछ और बुरा होने वाला है। मैं व्याकुल होने लगा, लेकिन फिर मैंने सोचा, "पिछली बार भी ऐसे ही लक्षण दिखे थे, लेकिन वे आखिर में ठीक हो गए थे! आज भी यह परमेश्वर के हाथों में ही है। मैं अब भी अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ, इसलिए यह कुछ बहुत बुरा नहीं होना चाहिए, है ना?" यह सोचकर मेरा मन शांत होने लगा। कुछ क्षण बाद मेरी दोनों बेटियाँ रोते हुए अंदर आईं और मेरी पत्नी से बोलीं : "डॉक्टर ने कहा है कि डैड को लीवर का कैंसर है ..." यह सुनकर उसे जोर का झटका लगा। वे तीनों एक-दूसरे के गले लगकर बुरी तरह से रोने लगीं।
मेरा मन बहुत बेचैन हो गया और मुझे भयंकर दर्द महसूस होने लगा। मुझे लीवर का कैंसर कैसे हो सकता है? इसका इलाज तो लगभग नामुमकिन है और मैं कभी भी मर सकता हूँ। अगर मैं मर गया, तो मेरी पत्नी और बेटियों का क्या होगा? क्या यही नतीजा है मेरी इतने सालों की कड़ी मेहनत और त्याग का? क्या मुझे स्वर्ग के राज्य का आशीष नहीं मिलने वाला? उस वक्त मुझे बहुत दुख और निराशा महसूस हुई। मेरी पत्नी ने रोते हुए मुझसे कहा : "अगर तुम्हें यह बीमारी है, तो इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर ने इसकी अनुमति दी है। परमेश्वर धार्मिक है। हमें उसे दोषी ठहराना या गलत समझना नहीं चाहिए। हमें उसकी इच्छा समझने की कोशिश करनी चाहिए।" मेरी पत्नी के शब्दों ने मुझे याद दिलाया कि हाँ, परमेश्वर धार्मिक है। मुझे बिना शिकायत किए उसकी इच्छा का पता लगाना होगा। अपनी पत्नी का दर्द देखकर मैं भी रोए बिना नहीं रह सका। आँखों में आँसू लिए मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की : "परमेश्वर! तुम बिना मतलब के कुछ नहीं करते। कृपा करके अपनी इच्छा समझने में मेरा मार्गदर्शन करो।" प्रार्थना के बाद मेरे मन को बहुत सुकून मिला। मैं जानता था कि मेरी बीमारी का कोई इलाज नहीं है, और मैं अपने परिवार पर पैसों का और बोझ नहीं डालना चाहता था, इसलिए मैंने घर जाकर आराम करने की इजाजत माँगी।
दो दिनों बाद मेरे भाई-बहन मुझसे मिलने आए और मेरा हालचाल पूछा। उन्हें देखकर, और अपनी हालत की गंभीरता के बारे में सोचकर मैं रोने लगा, और बोला : "तुम सभी का मेरे साथ होना, मेरी परवाह करना, परमेश्वर का प्रेम है। लेकिन ऐसी बीमारी के कारण मैं ज्यादा दिनों तक जिंदा नहीं रह पाऊँगा। मैं अब पहले की तरह अपना कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगा, न ही मैं परमेश्वर का राज्य साकार होते देखने के लिए जीवित रहूँगा।" एक बहन ने मुझे दिलासा दिया, और धैर्य के साथ मुझसे कहा : "भाई, यह बीमारी परमेश्वर का ही प्रेम एक है। तुम्हें और अधिक प्रार्थना करनी चाहिए, सत्य की खोज करनी चाहिए, परमेश्वर की इच्छा जाननी चाहिए, और अपनी बीमारी में गवाही देनी चाहिए!" बाद में उसने मुझे परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश दिए। उनमें से एक अंश का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा : "परमेश्वर में अपने विश्वास में लोग, भविष्य के लिए आशीर्वाद पाने की खोज करते हैं; यह उनकी आस्था में उनका लक्ष्य होता है। सभी लोगों की यही अभिलाषा और आशा होती है, लेकिन, उनकी प्रकृति के भीतर के भ्रष्टाचार का हल परीक्षण के माध्यम से किया जाना चाहिए। जिन-जिन पहलुओं में तुम शुद्ध नहीं किए गए हो, इन पहलुओं में तुम्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाता है, परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपने खुद के भ्रष्टाचार को जान जाओ। अंततः तुम उस बिंदु पर पहुंच जाते हो जहां तुम मर जाना और अपनी योजनाओं और इच्छाओं को छोड़ देना और परमेश्वर की सार्वभौमिकता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करना अधिक पसंद करते हो। इसलिए अगर लोगों को कई वर्षों का शुद्धिकरण नहीं मिलता है, अगर वे एक हद तक पीड़ा नहीं सहते हैं, तो वे, अपनी सोच और हृदय में देह के भ्रष्टाचार के बंधन से बचने में सक्षम नहीं होंगे। जिन भी पहलुओं में तुम अभी भी शैतान के बंधन के अधीन हो, जिन भी पहलुओं में तुम अभी भी अपनी इच्छाएं रखते हो, जिनमें तुम्हारी अपनी मांगें हैं, यही वे पहलू हैं जिनमें तुम्हें कष्ट उठाना होगा। केवल दुख से ही सबक सीखा जा सकता है, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे को समझने में समर्थ होना। वास्तव में, कई सत्यों को कष्टदायक परीक्षणों के अनुभव से समझा जाता है। कोई भी व्यक्ति एक आरामदायक और सहज परिवेश में या अनुकूल परिस्थिति में परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ सकता है, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को नहीं पहचान सकता है, परमेश्वर के धर्मी स्वभाव की सराहना नहीं कर सकता है। यह असंभव होगा!" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परीक्षणों के बीच परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करें')। इसे पढने के बाद मैंने आत्मचिंतन किया। पहले, जब मैं बीमार पड़ा, तो मैं सत्य की खोज के ज़रिए समर्पित हो पाया। मुझे लगा था कि मैं अपने विश्वास पर अटल रहा हूँ, और मैंने आशीष पाने की इच्छा त्याग दी है। लेकिन अब जबकि मेरी बीमारी वापस आ गई है और वह पहले से भी बदतर है, तो मुझे फिर से उजागर किया गया है। मैंने देखा कि आशीष पाने की मेरी इच्छा गहरे जड़ जमाए हुए है और मैं परमेश्वर की परीक्षा में सफल नहीं हो पाया हूँ। अगर मैं फिर से बीमार न पड़ा होता, तो मेरे लिए आशीष पाने की अपनी इस गहरी इच्छा और अपनी बेतुकी कामनाओं को देख पाना मुश्किल था, बदलने और शुद्ध होने का तो सवाल ही नहीं उठता। साथ ही, मैंने परमेश्वर का पवित्र और धार्मिक स्वभाव भी देखा। वो इंसान के मन की जाँच करता है, इसलिए वह मेरी भ्रष्टता और मिलावट के बारे में जानता था। उसने मेरी बीमारी का इस्तेमाल मुझे आत्म-चिंतन करने, सत्य की खोज करने और अपना भ्रष्ट स्वभाव ठीक करने पर मजबूर करने के लिए किया। यह परमेश्वर का प्रेम हैं! फिर मैंने अपने व्यवहार पर विचार किया, और मुझे हैरानी हुई कि आखिर क्यों बीमारी के वक्त मेरी प्रतिक्रिया परमेश्वर को गलत समझने और उसे दोषी ठहराने की रही। क्या मैं अब भी परमेश्वर के साथ सौदेबाजी नहीं कर रहा था? क्या मैं हमेशा परमेश्वर द्वारा मेरे लिए की गई व्यवस्था स्वीकार करने के लिए तैयार न होते हुए भी उसके आशीष पाना नहीं चाहता था? मैंने हमेशा परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश की, लेकिन इसकी वजह क्या थी?
थोड़ी देर बाद मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : "सभी लोग स्वयं के लिए जीते हैं। मैं तो बस अपने लिए सोचूँगा, बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी ख़ातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; वे चीजों को त्यागते हैं, परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं और परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं—लेकिन फिर भी वे ये सब स्वयं के लिए करते हैं। संक्षेप में, यह सब स्वयं के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है। दुनिया में, सब कुछ निजी लाभ के लिए होता है। परमेश्वर पर विश्वास करना आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ही कोई व्यक्ति सब कुछ छोड़ देता है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कोई व्यक्ति बहुत दुःख का भी सामना कर सकता है। यह सब मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति का प्रयोगसिद्ध प्रमाण है" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'बाहरी परिवर्तन और स्वभाव में परिवर्तन के बीच अंतर')। "किसी भी समस्या का समाधान करना परमेश्वर से लोगों की अपेक्षाओं के समाधान से अधिक मुश्किल नहीं है। अगर परमेश्वर का कोई भी कार्य तुम्हारी सोच के अनुरूप नहीं है और अगर वह तुम्हारी सोच के अनुसार कार्य नहीं करता ह, तो तुम उसका विरोध कर सकते हो—इससे पता चलता है कि अपनी प्रकृति में मनुष्य परमेश्वर विरोधी है। इस समस्या को जानने और इसका समाधान करने के लिये आपको सत्य के अनुसरण का रास्ता अपनाना चाहिये। जो लोग सत्य से रहित हैं वे परमेश्वर से बहुत अधिक अपेक्षाएं रखते हैं, जबकि जो सचमुच सत्य को समझते हैं वे कोई मांग नहीं करते; वे सिर्फ़ यह महसूस करते हैं कि उन्होंने परमेश्वर को अधिक संतुष्ट नहीं किया है, वे उतने आज्ञाकारी नहीं हैं जितने कि होने चाहिये। जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे हमेशा उससे कुछ न कुछ मांगते हैं, जो उनके भ्रष्ट स्वभाव को दर्शाता है। अगर तुम इसे गंभीर समस्या नहीं मानते, अगर तुम इसे ज़रूरी नहीं मानते, तो तुम्हारे मार्ग में जोखिम और छिपे हुए खतरे होंगे। तुम ज्यादातर चीज़ों का समाधान कर सकते हो, लेकिन जब इसमें तुम्हारा भाग्य, संभावनाएं और मंज़िल शामिल होते हैं, तो तुम इनका समाधान नहीं कर सकते। उस समय, अगर तुम सत्य से रहित हो, तो फिर से अपने पुराने तरीकों को चुन लोगे और इस तरह नष्ट किए जाने वालों में शामिल हो जाओगे" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं')।
परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे यह समझने में मदद मिली कि परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की इन कोशिशों की वजह "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," और "फायदा न हो तो उँगली भी मत उठाओ" के शैतानी विष थे। मैंने जो कुछ भी क्या, उसमें मेरा ध्यान हमेशा अपना फायदा सोचने और आशीष पाने पर रहता था। यहाँ तक कि अपना कर्तव्य निभाने में भी हमेशा मेरी अपनी मंशाएँ और बुरे इरादे रहते थे। मैं जिस मार्ग पर चलता आया हूँ, उसके बारे में सोचा जाए, तो मैंने हमेशा ही परमेश्वर के कार्य के लिए सतही त्याग किए थे, जबकि दरअसल मैं इन मामूली त्यागों के बदले में महान आशीष पाने की कोशिश कर रहा था। परमेश्वर के आशीष पाने के लिए कोई भी पीड़ा सार्थक लगती थी। लेकिन जब मेरी इच्छाएँ पूरी नहीं हुईं, और मैं बार-बार बीमार होने लगा, इस हद तक कि ऐसा लगने लगा मानो मैं मरने वाला हूँ, तब परमेश्वर को लेकर मेरी सारी गलतफहमियों, दोषारोपण, विरोध और धोखे का खुलासा हुआ। मैंने अपना कर्तव्य अपनी मंजिल पाने के लिए निभाया था। मैं परमेश्वर का इस्तेमाल कर रहा था, उसे धोखा दे रहा था। मैंने अपना विवेक और समझ खो दी थी। मैं बुरा और नीच था! अगर परमेश्वर के आयोजनों ने बार-बार मुझे उजागर नहीं किया होता, तो मैं कभी न देख पाता कि मैं कितना स्वार्थी और धोखेबाज हूँ। मैंने आशीष पाने की अपनी कोशिश को सही समझा था और परमेश्वर की अपेक्षाओं को बहुत पीछे छोड़ दिया था। मैंने जो कुछ भी किया था, जितने भी त्याग किए थे, उनका कोई मोल नहीं था—परमेश्वर कभी उनकी प्रशंसा नहीं करेगा। अगर मैंने सत्य की खोज नहीं की, अगर मेरी मंशा अब भी अपने लिए आशीष पाने की ही रही, तो परमेश्वर मुझसे नफरत करेगा और मुझे दंड देगा। मैं परमेश्वर के वचनों का आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे प्रबुद्ध किया, इस बीमारी के जरिये खुद को जानने दिया और अपनी बेतुकी इच्छाएँ त्यागने में मेरी मदद की। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार है! मैंने इस बारे में जितना सोचा, परमेश्वर का प्रेम मुझे उतना ही ज्यादा महान लगा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "परमेश्वर! मुझे कैंसर होने के पीछे तुम्हारी नेक इच्छा है। मेरी जिंदगी और मौत तुम्हारे हाथों में है। मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगा और तुम्हें संतुष्ट करने के लिए गवाही दूँगा।"
प्रार्थना के बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : "तुम अय्यूब के परीक्षणों से गुजरते हो और इसी समय तुम पतरस के परीक्षणों से भी गुज़रते हो। जब अय्यूब की परीक्षा ली गई, तो उसने गवाही दी, और अंत में उसके सामने यहोवा प्रकट हुआ था। उसके गवाही देने के बाद ही वह परमेश्वर का चेहरा देखने के योग्य हुआ था। यह क्यों कहा जाता है : 'मैं गंद की भूमि से छिपता हूँ, लेकिन खुद को पवित्र राज्य को दिखाता हूँ?' इसका मतलब यह है कि जब तुम पवित्र होते हो और गवाही देते हो केवल तभी तुम परमेश्वर का चेहरा देखने का गौरव प्राप्त कर सकते हो। यदि तुम उसके लिए गवाह नहीं बन सकते हो, तो तुम्हारे पास उसके चेहरे को देखने का गौरव नहीं है। यदि तुम शुद्धिकरण का सामना करने में पीछे हट जाते हो या परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत करते हो, इस प्रकार परमेश्वर के लिए गवाह बनने में विफल हो जाते हो और शैतान की हँसी का पात्र बन जाते हो, तो तुम्हें परमेश्वर का प्रकटन प्राप्त नहीं होगा। यदि तुम अय्यूब की तरह हो, जिसने परीक्षणों के बीच अपनी स्वयं की देह को धिक्कारा था और परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत नहीं की थी, और अपने शब्दों के माध्यम से, शिकायत या पाप किए बिना अपनी स्वयं की देह का तिरस्कार करने में समर्थ था, तो यह गवाह बनना है। जब तुम किसी निश्चित अंश तक शुद्धिकरणों से गुज़रते हो और फिर भी अय्यूब की तरह हो सकते हो, परमेश्वर के सामने सर्वथा आज्ञाकारी और उससे किसी अन्य अपेक्षा या तुम्हारी धारणाओं के बिना, तब परमेश्वर तुम्हें दिखाई देगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अपनी पवित्रता और धार्मिकता दिखाई। परमेश्वर केवल उन्हीं के सामने प्रकट होता है, जो परीक्षण और शुद्धिकरण के दौरान गवाही देता है। जब परमेश्वर ने अय्यूब की परीक्षा ली, तो शैतान ने अय्यूब की संपत्ति, उसके बच्चे, उसकी सेहत और खुशी, सब-कुछ छीन लिया, और उसका शरीर घावों से भर गया। किंतु उसने परमेश्वर से शिकायत नहीं की या उसे दोष नहीं दिया। उसने सिर्फ खुद से नफरत की और खुद को शाप दिया। इस महान परीक्षण का सामना करते हुए भी वह एक सृजित प्राणी के रूप में परमेश्वर की प्रभुता का पालन करने और उसके नाम का गुणगान करने में सक्षम रहा। उसने यह तक कहा : "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया" (अय्यूब 1:21)। ये वचन शैतान के सामने परमेश्वर की एक खूबसूरत और जबरदस्त गवाही जैसे थे, और आखिर में, परमेश्वर अय्यूब के सामने प्रकट हुआ। अय्यूब की जिंदगी की यही अहमियत थी। मुझे इस बीमारी का सामना इसलिए करना पड़ा, क्योंकि परमेश्वर मुझ पर खास दया दिखा रहा था। मुझे अय्यूब की ही तरह परमेश्वर के आयोजनों का पालन करना था। मुझे अपने कैंसर से बेबस नहीं होना चाहिए। इसके बजाय मुझे अपनी जिंदगी परमेश्वर के हवाले कर देनी चाहिए, ताकि मैं शैतान के सामने परमेश्वर की मजबूत और जबरदस्त गवाही दे सकूँ, जिससे उसके दिल को सुकून मिले। मैंने अपनी चिंताएँ अलग रख दीं, और खुद को परमेश्वर की प्रभुता के आगे समर्पित कर दिया, और जल्दी ही मेरी हालत में सुधार आने लगा। मुझे भूख भी अच्छी लगने लगी, मैं आराम से चलने-फिरने लगा, और अपना कर्तव्य भी अच्छे से निभाने लगा। बाद में मेरी बेटियाँ जाँच के लिए मुझे अस्पताल ले गईं। डॉक्टर इस घटना पर विश्वास नहीं कर सका। उसने कहा कि मेरे जैसे मरीज बहुत कम होते हैं, और बिना अस्पताल में इलाज करवाए मेरा ठीक हो जाना किसी चमत्कार से कम नहीं है। तब मैंने जाना कि परमेश्वर ने मेरी रक्षा की है। मैं एहसास कर सकता था कि मेरी जिंदगी परमेश्वर के हाथों में है, और मैंने सभी चीजों पर परमेश्वर की प्रभुता का अनुभव किया।
कुछ समय बाद मेरी बीमारी फिर से वापस आ गई। मेरी पत्नी और बेटियाँ मुझे अस्पताल ले गईं, जहाँ मुख्य चिकित्सक ने मेरी गंभीर हालत देखकर मेरी जाँच करने के लिए एक विशेषज्ञ बुलाया। लैब की जाँच के नतीजे आने पर विशेषज्ञ ने कहा कि उनके पास मेरी बीमारी के इलाज के लिए जरूरी सारे उपकरण नहीं हैं, और उसने सलाह दी कि हम 2,00,000 से ज्यादा युआन चुका दें, ताकि मामले को प्रांतीय अस्पताल भेजा जा सके, जहाँ शायद मेरा इलाज मुमकिन हो। मेरी बेटी ने रोते हुए मेरी पत्नी से कहा : "आपने सुना, किस तरह से उन्होंने यह सब कहा? डैड का इलाज कोई नहीं कर सकता। पिछले कुछ सालों में हमारे गाँव के 30 से ज्यादा लोगों को कैंसर हुआ है, और वे सब मर गए ..." मेरी पत्नी का चेहरा आँसुओं से भीग गया। मैंने खुद को निकम्मा आदमी महसूस किया। एक बार फिर मुझे अपनी मौत करीब आती दिखने लगी और मैं हैरान रह गया : यह बीमारी वापस कैसे आ सकती है, और वह भी इतने गंभीर रूप में? लेकिन इस बार मैंने खुद को धिक्कारा। मुझे परमेश्वर की अवज्ञा करने का अफसोस हुआ। मैंने अपनी मौत से सामना होने के सभी मौकों के बारे में सोचा, तब कैसे परमेश्वर ने मेरी रक्षा करते हुए हर बार मुझे जिंदा रखा था। मैंने परमेश्वर की प्रभुता स्पष्ट देखी थी, तो फिर मैं परमेश्वर को वास्तव में क्यों नहीं समझ सका? जिंदगी और मौत पर केवल परमेश्वर का अधिकार है, न कि इन डॉक्टरों का! इसलिए मैं परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना करने लगा। मैंने कहा : "हे परमेश्वर, एक बार फिर मैं अपनी मौत का सामना करना कर रहा हूँ। मुझे पता है, इसके पीछे तुम्हारी नेक इच्छा है। मेरी जिंदगी और मौत तुम्हारे हाथों में है। मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगा और तुम्हें संतुष्ट करने के लिए गवाही दूँगा!"
प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : "संपूर्ण मानवजाति में कौन है जिसकी सर्वशक्तिमान की नज़रों में देखभाल नहीं की जाती? कौन सर्वशक्तिमान द्वारा तय प्रारब्ध के बीच नहीं रहता? क्या मनुष्य का जीवन और मृत्यु उसका अपना चुनाव है? क्या मनुष्य अपने भाग्य को खुद नियंत्रित करता है? बहुत से लोग मृत्यु की कामना करते हैं, फिर भी वह उनसे काफी दूर रहती है; बहुत से लोग जीवन में मज़बूत होना चाहते हैं और मृत्यु से डरते हैं, फिर भी उनकी जानकारी के बिना, उनकी मृत्यु का दिन निकट आ जाता है, उन्हें मृत्यु की खाई में डुबा देता है; बहुत से लोग आसमान की ओर देखते हैं और गहरी आह भरते हैं; कई लोग अत्यधिक रोते हैं, दर्दनाक आवाज़ में सिसकते हैं; बहुत से लोग परीक्षाओं के बीच पतित हो जाते हैं; बहुत से प्रलोभन के बंदी बन जाते हैं। यद्यपि मैं मनुष्य को मुझे स्पष्ट रूप से निहारने की अनुमति देने के लिए व्यक्तिगत रूप से प्रकट नहीं होता, तब भी बहुत से लोग मेरे चेहरे को देखकर भयभीत हो जाते हैं, बेहद डरते हैं कि मैं उन्हें मार गिराऊँगा, या मैं उन्हें नष्ट कर दूँगा। क्या मनुष्य वास्तव में मुझे जानता भी है या नहीं? कोई भी निश्चित रूप से नहीं कह सकता। क्या ऐसा नहीं है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 11)। परमेश्वर के वचनों में सामर्थ्य और अधिकार था, जिससे मुझे हिम्मत मिली। परमेश्वर सृजनकर्ता है और सभी चीजों पर नियंत्रण रखता है। एक सृजित प्राणी के रूप में मैं जानता था कि मुझे सृजनकर्ता की प्रभुता का पालन करना होगा। अगर मैंने अपने जीवन को मूल्यवान समझा और परमेश्वर को दोषी ठहराया, तो यह उसका विरोध करना और उसे धोखा देना होगा, और मैं उससे नजरें नहीं मिला सकूँगा, फिर मेरी जिंदगी का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। यह सब समझने के बाद मैंने बीमारी या मौत से बेबस महसूस नहीं किया। मैंने अपनी पत्नी और बेटियों से कहा : "उदास मत हो। भले ही डॉक्टर ने मेरी मौत घोषित कर दी हो, मुझे यकीन है कि मेरी जिंदगी और मौत परमेश्वर के हाथों में है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह सब धार्मिक होता है। मैं अपनी आखिरी साँस तक परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए दृढ़ता से गवाही दूँगा!" फिर, मैं आराम करने के लिए घर वापस आ गया। मैं हर रोज परमेश्वर के सामने जाता और प्रार्थना करता, और परमेश्वर के वचन पढ़ता। मुझे सुकून और शांति का एहसास हुआ। डॉक्टर ने इंजेक्शन के लिए मुझे सीरम के दो डब्बे दिए थे, जिनकी कीमत दस युआन से भी कम थी। मैंने वे एक महीने तक लगाए, और जल्दी ही मेरी उँगलियों की रंगत बदलने लगी, मेरी भूख भी लौट आई। धीरे-धीरे मेरी हिम्मत और ताकत वापस आने लगी, और मैं बीमारी से पहले की हालत में वापस आ गया। जब मैं जाँच के लिए फिर से अस्पताल गया, तो डॉक्टर ने कहा कि यह चमत्कार ही है, जो मैं इतनी जल्दी ठीक हो गया। मैं जानता था कि यह सब परमेश्वर की ही मेहरबानी है, उसके अलावा मुझे और कोई न बचा पाता। जैसा कि परमेश्वर कहता है : "स्पष्ट रूप से, न तो मानवजाति के पास जीवन और मृत्यु की सामर्थ्य है, न ही प्राकृतिक संसार में किसी प्राणी के पास, केवल अद्वितीय अधिकार वाले सृजनकर्ता के पास ही यह सामर्थ्य है। मनुष्य का जीवन और उसकी मृत्यु प्राकृतिक संसार के किन्हीं नियमों का परिणाम नहीं है, बल्कि सृजनकर्ता के अधिकार की संप्रभुता का परिणाम है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। मैंने परमेश्वर की प्रभुता, अधिकार और उसके चमत्कारी कर्मों को अनुभव किया था। मैंने उसका प्रेम और उद्धार देखा था। मैंने दिल की गहराई से परमेश्वर को धन्यवाद दिया और उसका गुणगान किया। मेरे गाँव के सभी लोग मुझे देखकर हैरान रह गए। उन्होंने कहा कि उन्होंने नहीं सोचा था कि मैं बच जाऊँगा, उन्होंने मुझे दोबारा इतना स्वस्थ देखने की उम्मीद ही छोड़ दी थी, और इस बीमारी से बाल-बाल बचना वाकई मेरी खुशकिस्मती थी! लेकिन मेरा दिल जानता था : इसका किस्मत से कोई लेना-देना नहीं था। यह परमेश्वर का सामर्थ्य और अधिकार था। परमेश्वर ने मुझे बचाया! जल्दी ही मैं कलीसिया में फिर से अपना कर्तव्य निभाने लगा। पाँच साल बीत गए, लेकिन वह बीमारी मुझे फिर कभी नहीं हुई। यह मेरी उम्मीद से कहीं ज्यादा था। मेरे साथ जो भी हुआ, उसके लिए मैंने परमेश्वर का धन्यवाद किया।
इस बीमारी के ज़रिए, परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से और सच्चाई का सामना करके मैंने अपनी आस्था और भ्रष्ट स्वभाव के पीछे की अपनी गलत सोच के बारे में कुछ अंतर्दृष्ट पाई, और परमेश्वर की प्रभुता, उसके धार्मिक स्वभाव और खूबसूरत सार को जाना। मैंने आशीष पाने की अपनी इच्छा त्याग दी और सबसे सार्थक और मूल्यवान जीवन जीने का तरीका सीखा। मैं परमेश्वर की दया का बहुत आभारी हूँ!
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