कलीसिया के काम की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है
पिछले साल दिसंबर में, कलीसिया को एक नया अगुआ चुनना था। एक दिन मैंने अगुआओं को कहते सुना, "हमें बहन लियु को तरक्की देकर यह पद सौंपना चाहिए। अगली बैठक में, हम बहन लियु के बारे में आंतरिक मूल्यांकन पढ़ेंगे, फिर भाई-बहन वोट कर सकते हैं।" यह खबर सुनकर मैं हैरान रह गई, सोचने लगी, "बहन लियु? उसे तो शोहरत और रुतबे की बड़ी चाह है। पहले, वो अपनी साथी, बहन चेंग से ईर्ष्या करती थी, उसने सबके सामने आलोचना कर उसे नीचा दिखाया था। जिसके चलते भाई-बहन उससे नाखुश थे और उसके काम का समर्थन नहीं करते थे, इससे कलीसिया के काम में बाधा पड़ी थी। अगुआओं ने कई बार उसके साथ संगति की, पर वो नहीं बदली, आखिर में उसे बर्खास्त कर दिया गया। इतनी काट-छाँट और निपटान के बाद भी, उसने आत्मचिंतन नहीं किया। वो मुस्कुराती रही, मानो कुछ हुआ ही न हो, उसे खुद की समझ या खुद से नफरत नहीं थी। जब वो न सत्य खोजती, न आत्मचिंतन करने पर ध्यान देती है, तो वो अगुआ बनने के लायक कैसे हो सकती है? कलीसिया अगुआ चुनना एक बड़ी बात है। कलीसिया अगुआ के अच्छे या बुरे होने से परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश पर सीधा असर पड़ता है। जो कलीसिया अगुआ सत्य के अनुसरण पर ध्यान नहीं देता, वह सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने में भाई-बहनों की अगुआई कैसे करेगा? क्या बहन लियु वाकई अगुआ बनने लायक है?" मगर फिर मैंने सोचा, "करीब दो साल से उससे मेरा कोई संपर्क नहीं रहा है। क्या अब वो पश्चाताप करके बदल चुकी है? अगुआ चुनने के सिद्धांत कहते हैं कि पहले अपराधों के कारण बर्खास्त किए जा चुके अगुआओं को भी चुना जा सकता है, अगर वे सच्चा पश्चाताप करके व्यावहारिक कार्य कर सकते हैं। मैं किसी को सीमित नहीं कर सकती, मुझे उन्हें इस रोशनी में देखना होगा कि वे बदल सकते हैं। अगुआ बहन लियु को तरक्की देना चाहते हैं, तो उसने ज़रूर पश्चाताप करके खुद को बदला होगा। अगुआ आम तौर पर सिद्धांतों के अनुसार चीज़ों का मूल्यांकन करते और संभालते हैं।" फिर, मैंने इस बारे में ज़्यादा नहीं सोचा।
कुछ दिन बाद, बैठक का समय आ गया। अगुआओं ने हमारे साथ अगुआ चुनने के सिद्धांतों पर संगति की और बहन लियु के बारे में आंतरिक मूल्यांकन पढ़कर सुनाए। जब मैंने कुछ भाई-बहनों के विचार सुने कि वह सत्य को अच्छे से नहीं स्वीकारती और काम में उतनी जिम्मेदार भी नहीं है, तो मुझे थोड़ी निराशा हुई। मैंने सोचा, "बहन लियु सत्य नहीं स्वीकारती है, तो उसे अगुआ कैसे बनाया जा सकता है?" मैं थोड़ी परेशान हो गई, मगर फिर सोचा, "कुछ पलों में अगुआ उसके सामान्य व्यवहार के बारे में बताएंगे और ये भी कि कैसे उसने अपने पिछले अपराधों पर चिंतन करके खुद को समझा, है न?" मगर अगुआओं ने इसका जिक्र ही नहीं किया। अंत में, उन्होंने हर किसी से बहन लियु की तरक्की के बारे में हमारी राय पूछी। सभी चुप रहे। किसी ने जवाब नहीं दिया। मैं उन्हें अपने विचार बताना चाहती थी, मगर अगुआओं ने मूल्यांकन पढ़े थे, सिद्धांतों पर संगति की थी, उन्हें तो नहीं लगा कि बहन लियु में कोई कमी है। अब अगर मैंने कोई सवाल उठाया, तो क्या इससे सबके सामने अगुआओं की बेइज्जती नहीं होगी? फिर अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या उन्हें लगेगा कि मैं जानबूझकर समस्या खड़ी कर, उनके लिए चीज़ों को मुश्किल बना रही हूँ? क्या वे सोचेंगे कि मैं उनके खिलाफ जा रही हूँ? मैं अगुआओं को नाराज नहीं करना चाहती थी। फिर हाल ही में मुझे बर्खास्त भी किया गया था। अगर मैंने इस पर कोई आपत्ति की, तो क्या सबको ऐसा लगेगा कि मैं विवादों को हवा देना चाहती हूँ, अगुआ पद पाने की होड़ में दूसरों की कमियाँ निकाल रही हूँ? मैंने सोचा, चलो छोड़ो, इसमें बहुत झमेला है। जब कोई कुछ नहीं कह रहा, तो मैं ही क्यों कहूं। फिर, अगुआ की तरक्की कोई छोटी बात तो नहीं है। अगुआ का सिद्धांतों के अनुसार मूल्यांकन होना चाहिए, सबसे काबिल इंसान को चुना जाना चाहिए। इसलिए, मैंने मुंह नहीं खोला। बैठक के बाद, मैं थोड़ी परेशान थी, पर फैसला हो चुका था। मैं सिर्फ ये कहकर खुद को दिलासा दे सकती थी, "फैसला तो हो चुका। अगर वो इस पद के लायक नहीं हुई, तो उसे बदल दिया जाएगा।" फिर मैंने इस बारे में और नहीं सोचा, मामला निपट गया था।
एक दिन, कुछ बहनों ने मुझे बताया, उन्हें इस बारे में थोड़ा संदेह था कि बहन लियु को अपने पिछले अपराधों की असल जानकारी और पछतावा था या नहीं। चर्चाओं में भी यह जिक्र किया गया कि जब बहन लियु को हटाकर बदला गया था, तब उसे अपने अपराध नहीं माने थे, उसने चिंतन भी नहीं किया था, वो सत्य खोजने वाली इंसान नहीं लगती थी। अगर उसने सत्य खोजने और उसका अनुसरण करने पर ध्यान नहीं दिया था, तो वह सत्य समझने और उसकी वास्तविकताओं में प्रवेश करने में दूसरों की अगुआई कैसे करेगी? इस चर्चा से मुझे परमेश्वर के वचन का एक अंश याद आया, "अगुआओं और कार्यकर्ताओं की श्रेणी के लोगों के उद्भव के पीछे क्या कारण है और उनका उद्भव कैसे हुआ? एक विराट स्तर पर, परमेश्वर के कार्य के लिए उनकी आवश्यकता है, जबकि अपेक्षाकृत छोटे स्तर पर, कलीसिया के कार्य के लिए उनकी आवश्यकता है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उनकी आवश्यकता है। ... अगुआ व कार्यकर्ताओं और परमेश्वर के चुने बाकी लोगों के बीच बस उनके द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों के विशिष्ट गुण का अंतर होता है। यह विशिष्ट गुण खास तौर पर उनकी अगुआई की भूमिका में दिखता है। उदाहरण के लिए, किसी कलीसिया में कितने भी लोग हों, अगुआ ही मुखिया होता है। तो यह अगुआ सदस्यों के बीच क्या भूमिका निभाता है? वह कलीसिया में मौजूद सभी चुने हुए लोगों की अगुआई करता है। संपूर्ण कलीसिया पर उसका क्या प्रभाव होता है? अगर यह अगुआ गलत रास्ते पर चलता है, तो कलीसिया में मौजूद परमेश्वर के चुने हुए लोग अगुआ के पीछे-पीछे गलत रास्ते पर चले जाएंगे, जिसका उन सब पर बहुत बड़ा असर पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर पौलुस को लो। उसने अपने द्वारा स्थापित कई कलीसियाओं और परमेश्वर के चुने लोगों की अगुआई की थी। जब पौलुस भटक गया, तो उसकी अगुआई वाली कलीसियाएँ और परमेश्वर के चुने हुए लोग भी भटक गए। इसलिए, जब अगुआ भटक जाते हैं, तो केवल अगुआ ही प्रभावित नहीं होते, बल्कि वे जिन कलीसियाओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई करते हैं, वे भी प्रभावित होते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों का दिल जीतना चाहते हैं')। परमेश्वर के वचन पर विचार कर मेरा मन भारी हो गया। कलीसिया अगुआ पूरी कलीसिया का मुखिया होता है। उसके अच्छे या बुरे होने का सीधा संबंध पूरी कलीसिया के सत्य समझने और परमेश्वर द्वारा बचाए जाने से होता है। जब सत्य का अनुसरण करने वाला अगुआ बनता है, तो वह अपने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश की जिम्मेदारी ले सकता है, सत्य के ज़रिए उनके जीवन प्रवेश की परेशानियां हल कर सकता है, परमेश्वर के वचनों पर अमल करने के अपने ज्ञान पर संगति कर सकता है, फिर धीरे-धीरे लोगों को सत्य की वास्तविकता में ले जा सकता है। अगर सत्य का अनुसरण न करने वाला अगुआ चुना जाता है, तो वह सत्य पर अमल नहीं करेगा, इसलिए वह भाई-बहनों को सत्य में नहीं ले जा पाएगा। वह केवल शब्दों और सिद्धांतों की बातें करेगा, लोगों को उलझन में डालकर कैद करेगा। इस तरह, क्या परमेश्वर के चुने हुए लोग बर्बाद नहीं हो जाएंगे? भले ही हम फिलहाल बहन लियु को सत्य का अनुसरण न करने वाली नहीं कह सकते, लेकिन अभी के आंतरिक मूल्यांकनों और पिछले व्यवहार के आधार पर, वह कलीसिया अगुआ बनने के लायक नहीं थी। अगर अभी उसे तरक्की देकर अगुआ बना दिया गया, तो यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों या कलीसिया के काम के लिए अच्छा नहीं होगा।
उस रात, मैंने और कुछ बहनों ने अगुआओं के साथ अपने विचार और चिंताएं साझा करने के लिए उनसे संपर्क किया। अगुआओं ने फिर से छानबीन करने और हालात के अनुसार चीज़ों का दोबारा मूल्यांकन करने का वादा किया। जल्दी ही, बहन लियु के वास्तविक व्यवहार की अच्छी तरह छानबीन करने और उसके बारे में आंतरिक मूल्यांकनों से अगुआओं को पता चला कि बहन लियु को अपने पिछले अपराधों की वास्तविक समझ नहीं थी, समस्याएं आने पर वो आत्मचिंतन नहीं करती थी, उसके लिए सत्य स्वीकारना मुश्किल था। अगुआओं ने कहा, "पहले हम बहन लियु के वास्तविक हालात नहीं जानते थे। चूंकि वो अपने काम में असरदार है, तो हमें लगा उसने पश्चाताप कर लिया होगा। अब, हमें पता चल गया है कि बहन लियु वाकई अगुआ बनने के लायक नहीं है।" यह सुनकर मुझे जो महसूस हुआ, उसे मैं बयान नहीं कर सकती। सही समय पर अपने विचार व्यक्त न कर पाने का पछतावा हुआ। अगर मैं जल्दी इस मामले को उठाती और सभी बहन लियु को उसके वास्तविक हालात के अनुसार परख पाते, तो ये समस्याएं खड़ी न हुई होतीं। मगर मैं अगुआओं और कर्मियों को नाराज़ करने से डरती थी, कि वे सोचेंगे कि मैं अगुआ बनने की चाह में समस्या खड़ी कर रही हूँ। आखिर में, खुद को बचाने के लिए, मैं कायर बनकर पीछे हट गई। मैंने सत्य पर अमल बिल्कुल नहीं किया, न ही परमेश्वर के घर के काम की रक्षा की। मैंने सिर्फ अपने निजी हितों के बारे में सोचा और उनकी रक्षा की। मैं कितनी स्वार्थी और नीच थी!
फिर, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े जो मेरे हालात से जुड़े थे। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "अगर लोग अपने काम की जिम्मेदारी न लें, तो यह कैसा स्वभाव है? यह शैतान का स्वभाव है, यह धूर्ततापूर्ण स्वभाव है। इंसान के जीवन-दर्शनों में चालाकी सबसे अधिक उलल्रेखनीय है। लोग सोचते हैं कि अगर वे चालाक न हों, तो वे दूसरों को नाराज करेंगे और खुद की रक्षा करने में असमर्थ होंगे; उन्हें लगता है कि कोई उनसे आहत या नाराज न हो जाए, इसलिए उन्हें पर्याप्त रूप से चालाक होना चाहिए, जिससे वे खुद को सुरक्षित रख सकें, अपनी आजीविका की रक्षा कर सकें, और जन-साधारण के बीच पाँव जमाने के लिए एक सुदृढ़ जगह हासिल कर सकें। अविश्वासियों की दुनिया में लोग ऐसे ही कार्य करते हैं; ऐसा क्यों है कि परमेश्वर के घर में तुम लोग अब भी इसी तरह से कार्य करते हो? यह देखकर कि परमेश्वर के घर के हितों को कोई बात नुकसान पहुँचा रही है, तुम कुछ नहीं कहते जिसका अर्थ है : 'यदि कोई और इस बारे में बोलना चाहता है, तो उसे बोलने दो—मैं यह करने नहीं जा रहा हूँ। मैं किसी को नाराज नहीं करूँगा और न ही खतरा मोल लूँगा।' यह गैरजिम्मेदारी और चालाकी है, और ऐसे लोगों पर भरोसा नहीं करना चाहिए। ... जो सत्य से प्रेम करते हैं और जिनमें सत्य की वास्तविकता होती है, वही लोग तब आगे आ सकते हैं, जब परमेश्वर के घर के काम को और चुने हुए लोगों को आवश्यकता होती है, वही लोग साथ खड़े होकर, बहादुरी और कर्तव्य-निष्ठा से, परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं, सत्य पर संगति कर सकते हैं, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सही मार्ग पर ले जा सकते हैं और उन्हें परमेश्वर के कार्य के प्रति आज्ञाकारी होने दे सकते हैं; यही परमेश्वर की इच्छा के प्रति जिम्मेदारी का रवैया है और उसकी परवाह करने की अभिव्यक्ति है। यदि तुम लोगों में यह रवैया नहीं है, तथा चीजों को संभालने में लापरवाह होने के अलावा तुम और कुछ नहीं हो, और तुम सोचते हो, 'मैं अपने कर्तव्य के दायरे में चीजों को करूँगा, लेकिन मुझे किसी और चीज की परवाह नहीं है। यदि तुम मुझसे कुछ पूछते हो, मैं तुम्हें उत्तर दूँगा—यदि मैं अच्छे मूड में हुआ तो। अन्यथा, मैं जवाब नहीं दूँगा। यह मेरा रवैया है', तो इस तरह का स्वभाव भ्रष्ट स्वभाव है, है न? केवल अपने पद, अपनी प्रतिष्ठा, अपने आत्म-सम्मान की रक्षा करना, और केवल उन चीजों की रक्षा करना जो किसी के स्वयं के हितों से संबंधित हों—क्या ऐसा करके कोई किसी न्यायसंगत कारण की रक्षा करता है? क्या वह सकारात्मक चीजों की रक्षा करता है? इन ओछे, स्वार्थी इरादोंके पीछे सत्य से उकता जाने वालास्वभाव है। तुम लोगों में से अधिकांश अक्सर इस प्रकार के व्यवहारों को व्यक्त करते हो, और जिस क्षण तुम किसी ऐसी बात का सामना करते हो, जो परमेश्वर के परिवार के हितों से संबंधित हो, तो तुम टालमटोल करते हो और कहते हो, 'मैंने नहीं देखा,' या 'मुझे पता नहीं,' या 'मैंने सुना नहीं।' चाहे तुम सचमुच अनजान हो या सिर्फ दिखावा कर रहे हो, अगर, जब यह सबसे ज्यादा मायने रखता हो, तब तुम इस तरह का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, तो यह कहना मुश्किल होता है कि क्या तुम वाकई परमेश्वर में विश्वास रखने वाले व्यक्ति हो; मेरी नजर में, तुम या तो अपने विश्वास में भ्रमित हो या फिर गैर-विश्वासी हो। तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति तो बिल्कुल नहीं हो" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचन ने मेरे दिल को भेद दिया। उसने बताया है कि कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार लोगों में कपटी स्वभाव होता है। जब मैंने "कपटी" शब्द देखा, तो मुझे शैतान के कपटी वचनों और कर्मों की याद आई। मेरी हालत ऐसी ही थी और मेरा स्वभाव भी ऐसा ही था। मैं कपटी और मक्कार थी, मुझमें परमेश्वर के प्रति निष्ठा नहीं थी। बहन लियु के चयन के मामले में, ऐसा नहीं था कि मुझे चीज़ों की कोई जानकारी या समझ नहीं थी। बहन लियु को तरक्की देकर अगुआ बनाने को लेकर मुझे आपत्ति और संदेह था, गलत अगुआ चुने जाने पर कलीसिया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामने पैदा होने वाले खतरे को मैं अच्छी तरह समझती थी। मगर अपनी कपटी और मक्कार प्रकृति के कारण, मुझे डर लगा कि कुछ बोलने से अगुआओं और कर्मियों को शर्मिंदगी होगी, उनका अपमान होगा, मुझे यह भी फिक्र थी कि लोगों को लगेगा मैं अगुआ बनना चाहती हूँ, उनके मन में मेरी खराब छवि बनेगी। अपनी इज्जत और रुतबा बचाने और खुद की रक्षा के लिए, मैं आँखें मूंदकर खुशामदी इंसान बन गई, ताकि कोई नाराज न हो। मैंने परमेश्वर का ज़रा-सा भी भय नहीं माना। मैंने परमेश्वर के घर के काम को बड़ी लापरवाही और गैर-जिम्मेदारी से लिया। उस वक्त ये पक्का नहीं था कि बहन लियु अगुआई के काम के लायक थी या नहीं, तो मैं इस बारे में पूछकर ज़्यादा जानकारी हासिल कर सकती थी। मेरे सवाल आपत्ति नहीं होते, न ही यह जानबूझकर अगुआओं को मुश्किल में डालना होता, असल में यह तथ्यों को जानना और सिद्धांतों के अनुसार सही चयन में मदद करना होता। अगर मैंने पहले बहन लियु के बारे में गौर करके जाना होता कि उसने अपने पिछले अपराधों पर चिंतन नहीं किया है, वो अब भी सत्य नहीं स्वीकारती है, और वो अगुआ बनने लायक नहीं है, तो इसे सही समय पर रोक पाती। ऐसा करने का मतलब खुद की, कलीसिया के काम की और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन की जिम्मेदारी लेना होता। लेकिन कलीसिया के चुनाव जैसे अहम मामले में भी मैंने सिर्फ अपने निजी हितों का ध्यान रखा। परमेश्वर के घर के काम की रक्षा बिल्कुल नहीं की। मुझमें जमीर या समझ नहीं थी, मेरी प्रकृति सत्य से प्रेम करने की नहीं थी। परमेश्वर में बरसों की आस्था के बाद भी, मैं इन शैतानी विषों के अनुसार जी रही थी, जैसे "जब पता हो कि कुछ गड़बड़ है, तो चुप रहना ही बेहतर है," और "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।" मेरा सिद्धांत हमेशा "अपना हित और अपना फायदा" था। मैं स्वार्थी, नीच, कपटी और मक्कार थी, मेरे विचार धूर्त थे। मुझे लगा कि इस शैतानी तर्क पर चलकर मैं किसी को नाराज़ नहीं करूंगी, और लोगों के बीच अपनी जगह बनाए रख पाऊंगी। लेकिन परमेश्वर मेरे कर्मों पर नज़र रखता है, मेरे बर्ताव के कारण परमेश्वर ने मुझसे नफरत कर मेरी निंदा की। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर ने पिछले कुछ सालों में इस पर अनवरत संगति की कि झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों की पहचान कैसे करें, अच्छे कलीसिया अगुआ चुनने की क्या अहमियत है। उसने कलीसिया अगुआ के काम की जिम्मेदारियों और सत्य के कई अन्य पहलुओं के बारे में संगति की। परमेश्वर ने ऐसा इसलिए किया ताकि हम लोगों और चीज़ों को पहचान सकें, हम सब कलीसिया जीवन को बेहतर बनाए रख सकें और कलीसिया के काम की रक्षा कर सकें। लेकिन इतने उपदेश सुनने के बाद भी, मैंने परमेश्वर के वचनों को दिल में नहीं बसाया। समस्याएं आने पर भी मैं शैतानी फलसफों के अनुसार जीती रही, सत्य पर अमल नहीं कर पाई। इस बारे में सोचकर काफी दुःख और अपराध-बोध हुआ। मुझे परमेश्वर के वचन याद आये, "कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे कितना भी नुकसान पहुँचे, तुम परवाह नहीं करते, हस्तक्षेप नहीं करते, या दोषी महसूस नहीं करते—जो तुम्हें एक विवेकहीन या नासमझ व्यक्ति, एक गैर-विश्वासी, एक सेवाकर्ता बनाता है। तुम जो खाते हो वह परमेश्वर का है, तुम जो पीते हो वह परमेश्वर का है, और तुम परमेश्वर से आने वाली हर चीज का आनंद लेते हो, फिर भी तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान तुमसे संबंधित नहीं है—जो तुम्हें गद्दार बनाता है, जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो क्या तुम इंसान भी हो? यह एक दानव है, जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है। तुम परमेश्वर में विश्वास का दिखावा करते हो, चुने हुए होने का दिखावा करते हो, और तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो। तुम एक इंसान का जीवन नहीं जी रहे, और स्पष्ट रूप से गैर-विश्वासियों में से एक हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। परमेश्वर के वचन से, मैंने अपने जैसे स्वार्थी और खुदगर्ज लोगों के प्रति उसकी नफ़रत को महसूस किया। मैंने जो किया था उस पर मुझे काफी पछतावा भी हुआ। परमेश्वर बिल्कुल सही था। उसके घर में, मैं बस एक मुफ्तखोर थी। मैंने बरसों से परमेश्वर में विश्वास किया, उसके वचन के सिंचन और पोषण का आनंद उठाया, मगर मेरे दिल में उसके लिए कोई जगह नहीं थी, मैं उसके साथ एकमन नहीं थी। एक अहम मौके पर, मैं परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं कर पाई। मैं अच्छी तरह जानती थी कि अगुआ के चयन में समस्या है, मगर मुझमें सच बोलने की हिम्मत तक नहीं थी। मैं बिना सोचे अभी भी मानती थी कि अगर वो गलत पाई गई, तो उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा। क्या परमेश्वर में विश्वास करने वाले का रवैया ऐसा होना चाहिए? क्या मैं एक अविश्वासी, एक गैर-विश्वासी नहीं थी? परमेश्वर का चुना हुआ सच्चा सदस्य उसके घर के मामलों को हमेशा अपना मामला समझता है, वह उसका पक्ष लेकर उसके घर के कार्य की रक्षा कर सकता है। मगर मैंने खुद को परमेश्वर के घर का सदस्य नहीं माना। मैं कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों की परवाह नहीं की। जब मैंने समस्या देखी, तो उसके बारे में नहीं पूछा। मैं परमेश्वर के विश्वासी की बुनियादी जिम्मेदारियां भी नहीं निभा पाई। परमेश्वर भला ऐसी आस्था को कैसे मान्यता देगा? इस बारे में सोचकर मेरा दिल टूट गया, आँखों से आंसू बहने लगे। मुझमें जमीर या समझ नहीं थी, मुझे खुद से नफरत हो गई। आँखों में आंसू लिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर! शैतान ने मुझे बहुत अधिक भ्रष्ट कर दिया है। मैं सिर्फ अपने निजी हितों के बारे में सोचती हूँ, तुम्हारे घर के काम को बनाए नहीं रख सकती। इसी वजह से चुनाव के काम में भी अड़चन आई। मैं बहुत स्वार्थी और नीच हूँ! मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ।"
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा, "हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, और अपनी हैसियत, गौरव और प्रतिष्ठा पर विचार मत कर। इंसान के हितों पर गौर मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा की परवाह करनी चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, तू वफादार रहा है या नहीं, तूने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन पर बार-बार विचार कर और इनका पता लगा, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा। जब तेरी क्षमता कमज़ोर होती है, अगर तेरा अनुभव उथला है, या अगर तू अपने पेशेवर कार्य में दक्ष नहीं है, तब सारी ताकत लगा देने के बावजूद तेरे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, और परिणाम बहुत अच्छे नहीं हो सकते हैं। तू जो भी करता है, उसमें तू अपनी स्वयं की स्वार्थी इच्छाओं की नहीं सोचता या अपने स्वयं के हितों की रक्षा नहीं नहीं करता है, इसके बजाय हर समय परमेश्वर के घर के कार्य और हितों पर विचार करता है। भले ही तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से न निभा पाओ, पर तुम्हारा दिल सुधार दिया गया है; अगर, इसके ऊपर से, तुम अपने कर्तव्य में आई समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो, तब तुम तुम्हारा कर्तव्य मानक स्तर का होगा और तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। यह है गवाही देना" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। "वह सब कुछ करो जो परमेश्वर के कार्य के लिए लाभदायक है और ऐसा कुछ भी न करो जो परमेश्वर के कार्य के हितों के लिए हानिकर हो। परमेश्वर के नाम, परमेश्वर की गवाही और परमेश्वर के कार्य की रक्षा करो। तुम्हें उस हर चीज का समर्थन करना चाहिए और उसके प्रति जवाबदेह होना चाहिए जो परमेश्वर के घर के हित से संबंध रखती है, या जिसका ताल्लुक परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर के नाम से है। तुम में से हरेक की यह जिम्मेदारी है, तुम में से हरेक के लिए यह बंधनकारी है, और यही तुम सबको करना चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'राज्य के युग में परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं के बारे में वार्ता')। परमेश्वर के वचन ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। समस्याएं आने पर, मुझे अपने रुतबे और छवि की परवाह न करके कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को आगे रखकर, अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचते देखकर, मुझे लोगों की नाराजगी से डरे बिना, सिद्धांतों और परमेश्वर के घर के हितों को कायम रखना चाहिए। भले ही मुझे कुछ चीज़ों की साफ समझ न हो, लेकिन मुझे सत्य खोजने और उस पर अमल करने पर ध्यान देना चाहिए और कलीसिया के हितों की रक्षा करनी चाहिए। जैसे कि इस अगुआ की तरक्की के मामले में, मैं चीज़ों को साफ तौर पर समझ नहीं पाई, तो मुझे इस बारे में बोलना, सत्य खोजना और भाई-बहनों के साथ छानबीन करनी चाहिए थी। इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए थी कि दूसरे लोग या अगुआ क्या सोचते हैं। मुझे परमेश्वर की ओर मुड़कर उसकी जांच-पड़ताल को स्वीकारना चाहिए था। कलीसिया के कार्य, और भाई-बहनों के हितों की रक्षा के सही इरादे रखने पर, कोई भी मेरी आलोचना या निंदा नहीं करता। इन चीज़ों को समझने के बाद, मुझे थोड़ी राहत महसूस हुई।
फिर, मैंने अपनी बहनों के साथ संगति की और खोजा, तो पता चला कि मुझमें एक और गलत सोच थी। मैं सोचती थी कि मेरे अगुआओं के विभिन्न फैसले सिद्धांतों के अनुसार होते थे, मुझे उन पर सवाल नहीं उठाना चाहिए। मेरा असहमत होना, उनके लिए जानबूझकर मुश्किलें खड़ी करना था, जिससे मैं उनकी बात काटकर उन्हें शर्मिंदा कर देती। दरअसल, मेरी सोच सत्य के अनुरूप बिल्कुल नहीं थी। यह पूरी तरह मेरी कल्पना पर आधारित थी। अपने धार्मिक कार्यों के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे अगुआओं और कर्मियों के प्रति सिद्धांतों की सही समझ हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब कलीसिया में किसी को अगुआ बनने के लिए उन्नत और विकसित किया जाता है, तो उसे सीधे अर्थ में उन्नत और विकसित किया जाता है; इसका यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही योग्य अगुआ है, या सक्षम अगुआ है, कि वह पहले से ही अगुआ का काम करने में सक्षम है, और वास्तविक कार्य कर सकता है—ऐसा नहीं है। जब किसी को अगुआ के रूप में उन्नत और विकसित किया जाता है, तो ज्यादातर लोग स्पष्ट रूप से यह नहीं समझ पाते कि उसके पास कम से कम क्या चीज होनी चाहिए। कुछ लोग, अपनी कल्पनाओं के भरोसे रहते हुए, उन्नत और विकसित किए जाने वालों का आदर करते हैं, पर यह एक भूल है। जिन्हें उन्नत किया जाता है, उन्होंने चाहे कितने ही वर्षों से विश्वास रखा हो, क्या उनके पास वास्तव में सत्य की वास्तविकता होती है? ऐसा जरूरी नहीं है। क्या वे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं को साकार करने में सक्षम हैं? अनिवार्य रूप से नहीं। क्या उनमें जिम्मेदारी की भावना है? क्या उनमें प्रतिबद्धता है? क्या वे परमेश्वर के प्रति समर्पित हैं? जब उनके सामने कोई समस्या आती है, तो क्या वे सत्य की खोज करते हैं? यह सब अज्ञात है। ... जिन्हें उन्नत और विकसित किया जाता है, लोगों को उनसे उच्च अपेक्षाएँ या अवास्तविक उम्मीदें नहीं करनी चाहिए; यह अनुचित होगा, और उनके साथ अन्याय होगा। तुम लोग उनके कार्य पर नजर रख सकते हो, और अगर उनके काम के दौरान तुम्हें समस्याओं या ऐसी बातों का पता चलता है जो सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं, तो तुम इन मामलों को उठाकर, इन्हें सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो। तुम्हें उनकी आलोचना, और निंदा नहीं करनी चाहिए, या उन पर हमला कर उन्हें अलग नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे विकसित किए जाने की अवधि में हैं, और उन्हें ऐसे लोगों के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जिन्हें पूर्ण बना दिया गया है, उन्हें पूर्ण या सत्य की वास्तविकता से युक्त व्यक्ति के रूप में तो बिल्कुल भी नहीं देखना चाहिए। वे तुम लोगों जैसे ही हैं : यह वह समय है, जब उन्हें प्रशिक्षित किया जा रहा है। अंतर केवल इतना है कि वे साधारण लोगों की तुलना में अधिक काम करते और अधिक जिम्मेदारियाँ निभाते हैं। उनके पास अधिक काम करने की जिम्मेदारी और दायित्व है; वे अधिक कीमत चुकाते हैं, अधिक कठिनाई सहते हैं, अधिक कष्ट झेलते हैं, अधिक समस्याएँ हल करते हैं, अधिक लोगों की निंदा सहन करते हैं, और निस्संदेह, सामान्य लोगों की तुलना में अधिक प्रयास करते हैं, कम सोते हैं, कम अच्छा भोजन करते हैं, और कम गपशप हैं। यह है उनके बारे में खास; इसके अतिरिक्त वे किसी भी अन्य व्यक्ति के समान होते हैं। मेरे यह कहने का क्या मतलब है? सभी को यह बताना कि उन्हें परमेश्वर के घर में विभिन्न प्रकार की प्रतिभाओं की उन्नति और विकास को सही तरह से लेना चाहिए, और इन लोगों से अपनी अपेक्षाओं में कठोर नहीं होना चाहिए। स्वाभाविक रूप से, लोगों को उनके बारे में अपनी राय में अयथार्थवादी भी नहीं होना चाहिए। उनकी अत्यधिक सराहना या सम्मान करना मूर्खता है, तो उनके प्रति अपनी अपेक्षाओं में अत्यधिक कठोर होना भी मानवीय या यथार्थवादी नहीं है। तो उनके साथ व्यवहार कार्य करने का सबसे तर्कसंगत तरीका क्या है? उन्हें सामान्य लोगों की तरह ही समझना, और जब कोई ऐसी समस्या आए जिसे खोजने की आवश्यकता हो, तो उनके साथ संगति करना और एक-दूसरे की क्षमताओं से सीखना और एक-दूसरे का पूरक होना। इसके अतिरिक्त, अगुआ और कार्यकर्ता वास्तविक कार्य कर रहे हैं या नहीं, वे समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का इस्तेमाल करते हैं या नहीं, इस पर नजर रखना सभी की जिम्मेदारी है; अगुआ या कार्यकर्ता मानक स्तर का है या नहीं, इसे मापने के ये मानक और सिद्धांत हैं" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचन बिल्कुल स्पष्ट हैं। परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच से कलीसिया अगुआ चुने और विकसित किए जाते हैं। वे पूर्ण नहीं होते, वे अभी भी अभ्यास कर रहे होते हैं। वे अभी भी सत्य के अनुसरण कर स्वभाव में बदलाव ला रहे होते हैं। उनके काम में भटकाव और गलतियां होना लाजमी है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इसे सही तरीके से लेना चाहिए, उनके काम की निगरानी और सुरक्षा की जिम्मेदारी निभानी चाहिए। अगर कलीसिया अगुआ जो करते हैं वह अनुचित या काम के लिए नुकसानदेह होता है, तो परमेश्वर के चुने हुए लोगों को यह मसला उठाकर कलीसिया का काम पूरा करने में अगुआओं का सहयोग करना चाहिए। यह भी परमेश्वर के चुने हुए लोगों का कर्तव्य है। अगुआ का चुनाव करते हुए हर बार, हम इतने सारे आंतरिक मूल्यांकन क्यों पढ़ते हैं, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को वोट क्यों करना होता है? क्योंकि परमेश्वर के चुने हुए लोग तथ्यों को जानते हैं। परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सहयोग के बिना, अगुआओं और कर्मियों के मूल्यांकन में गलती होना लाजमी है। जब परमेश्वर के चुने हुए ज़्यादातर लोग बोझ उठाते और अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हैं, तभी अगुआओं का चयन सटीक और सिद्धांतों के अनुरूप होता है। मगर मैंने चीज़ों को तथ्यों के अनुसार नहीं देखा। धारणाओं के आधार पर, मैंने सोचा कि अगुआओं की राय और फैसले सिद्धांतों के अनुसार हैं और उनमें कोई समस्या नहीं होगी। मेरी सोच पूरी तरह बेतुकी थी! मैं अगुआओं के बारे में बहुत ऊंचा सोचती थी। सिद्धांतों पर ध्यान दिए बिना आँखें मूंदकर उनकी बात सुनती और मानती थी। यह कितनी बड़ी बेवकूफी और अज्ञानता थी! परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे कलीसिया अगुआओं के साथ पेश आने का सही तरीका समझ आ गया। मुझे आँखें मूंदकर उनकी बात माननी नहीं चाहिए। अगर उनका काम सही और सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है, तो उसे स्वीकार कर उसका पालन करना चाहिए। यह किसी इंसान या अगुआ का आज्ञापालन नहीं, सत्य पर चलना है। अगर उनकी कथनी या करनी सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, तो वे चाहे किसी भी स्तर के अगुआ हों, मुझे उनकी बात ठुकराकर उसे नहीं मानना चाहिए, दिल को खोलकर संगति करनी चाहिए, समस्या समझने तक दूसरों के साथ सत्य खोजना चाहिए। यह कलीसिया के हितों की रक्षा करना है। जब हर कोई सत्य के सिद्धांतों को गंभीरता से लेगा, अगुआओं के साथ मिलजुलकर सहयोग करेगा, अपनी जिम्मेदारियां पूरी करेगा, तभी कलीसिया का काम और परमेश्वर के चुने हुए लोगों का कलीसियाई जीवन पक्का होगा और कायम रहेगा। अगर हर किसी की सोच मेरे जैसी रही, वे आँखें मूंदकर अगुआओं और कर्मियों के बारे में ऊंचा सोचते रहे, सभी समस्याओं को अगुआओं और कर्मियों पर छोड़ दिया, अगुआओं के चुनाव जैसे अहम मामलों पर भी बेपरवाह बने रहे, अपनी जिम्मेदारियां न निभाते हुए अगुआओं का कहा मानते रहे, चीज़ों पर नज़र रखने के लिए उनका सहयोग नहीं किया और यह जानकर भी कि चीज़ें साफ़ तौर पर अनुचित हैं, न सत्य खोजा, न ही कुछ बोला, तो वे न केवल अपना कर्तव्य खो बैठेंगे, बल्कि गलत अगुआ भी चुन सकते हैं। इससे कलीसिया के काम और भाई-बहनों को नुकसान ही पहुंचेगा। साथ ही, मैंने यह भी सीखा कि जिन चीज़ों को मैं नहीं समझती, उसमें मुझे परमेश्वर का भय मानने वाले दिल के साथ सत्य खोजना चाहिए, जब तक मैं सवाल को साफ तौर पर समझ न लूं। अगर कलीसिया के काम की रक्षा करने का हमारा इरादा सही है, तो अपने अगुआओं से असहमत होने पर भी, हम उनके सामने परेशानी खड़ी नहीं करेंगे या उनका विरोध नहीं करेंगे, बल्कि हम सही तरीके से सत्य खोजकर, समस्या के बारे में जानकर परमेश्वर के घर के काम और उसके हितों की रक्षा करेंगे। अगर अगुआ सही इंसान है, तो वह सत्य स्वीकारेगा और इसके कारण किसी को नहीं दबाएगा। अगर अलग राय होने के कारण कोई अगुआ दूसरों को दबाता है, तो इससे साबित होता है कि वह सत्य नहीं स्वीकारता, इससे हमें सही इंसान को पहचानने में भी मदद मिल सकती है। ये सब समझकर, मेरा दिल रोशन हो गया, मुझे सुकून मिला। अब अगुआओं के साथ सहयोग और कलीसिया के काम की रक्षा करना जानती हूँ।
एक बार, भाई-बहनों ने ली की रिपोर्ट कर उसे उजागर किया, कहा कि वह बहुत स्वार्थी और लालची है, वह अक्सर भाई-बहनों का फायदा उठाती है और उनसे चीजें मांगती है। लोगों को वह नापसंद थी, उन्हें लगता था उसका प्रभाव बुरा था। सिद्धांतों के अनुसार, उसे निकाल देना चाहिए। अगुआओं ने रिपोर्ट की छानबीन और पुष्टि की, तो यह सब सही साबित हुआ, पर अगुआओं ने कहा वह सुसमाचार-कार्य में असरदार थी इसलिए अपने काम में बनी रह सकती है। जब मैंने यह सुना, तो ली के पिछले बर्ताव के बारे में सोचने लगी। उसमें दुष्ट स्वभाव था, वो मनमाने ढंग से काम करती थी, अपनी बात मनवाना चाहती थी। अगर कोई उसकी समस्याएँ बताता, तो वह उससे बदला लेती और दंड देती, वह सत्य को बिल्कुल नहीं स्वीकारती थी। आखिर, उसे बर्खास्त कर दिया गया। तब भी, ली ने पश्चाताप नहीं किया, वो अब भी लालची थी, अक्सर भाई-बहनों से चीजें मांगती रहती थी। सिद्धांतों के अनुसार, उसे निकाल दिया जाना ही सही था। हालांकि, मेरे मन में अभी भी कुछ संदेह थे। उसमें बुरी इंसानियत थी, वो धूर्त और लालची थी, अगर वो कलीसिया में बनी रही, तो और भी दुष्टता करेगी और कलीसिया का काम बिगाड़ेगी। अगर हम काम पर बुरा असर पड़ने तक इंतजार करते रहे, तो क्या देर नहीं हो जाएगी? मैंने सोचा, "क्या मुझे अगुआओं को इस बारे में बताना चाहिए?" फिर सोचा, "अगुआ सिद्धांतों के अनुसार चीज़ों का मूल्यांकन और निगरानी कर सकते हैं। अगर मैंने अभी कुछ कहा, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या उन्हें लगेगा कि मुझे उनकी व्यवस्थाओं से दिक्कत है? किसी और ने भी कुछ नहीं कहा, तो छोड़ो, मैं भी कुछ नहीं कहूंगी।" जब मैंने इस तरह सोचा, तो बेचैनी महसूस हुई। हाल ही के अपने अनुभव को यादकर, समझ आया मैं फिर से अपने हितों की रक्षा कर रही हूँ। मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, कहा, मैं सही इरादे रखना और तुम्हारी जांच स्वीकार कर कलीसिया के काम की रक्षा करना चाहती हूँ, भले ही दूसरे मेरे बारे में कुछ भी सोचें। मैंने सभी को अपनी चिंताएं बताईं और साथ मिलकर खोजा। मेरी बात पूरी होने पर, दूसरे भाई-बहनों ने भी कुछ सुझाव दिए। उसके बाद, अगुआओं ने छानबीन कर पता लगाया कि ली कलीसिया में बने रहने लायक नहीं थी, इसलिए सिद्धांतों के अनुसार उसे कलीसिया से निकाल दिया गया। इस मामले का यह नतीजा देखकर मुझे काफी सुरक्षा महसूस हुई। मैंने जाना कि शैतानी फलसफों के अनुसार न जीना और सत्य का अभ्यास करना ही सच्चे इंसान की तरह और गरिमा के साथ जीने का एकमात्र तरीका है। परमेश्वर का धन्यवाद!
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