मेरे बेटे की मृत्यु के बाद

10 जून, 2022

वांग ली, चीन

जून 2014 में एक दिन, मेरी बेटी ने अचानक फोन करके कहा कि मछली पकड़ते वक्त मेरे बेटे को बिजली का झटका लगा है। उसे सटीक जानकारी तो नहीं थी, मगर उसने मुझे दिल कड़ा करने को कहा। यह खबर सुनकर, मैं वहीं बिस्तर पर बैठ गई, दिमाग चकरा गया। मेरा बेटा परिवार का आधार-स्तंभ था। उसे कुछ हो गया, तो हम सब कैसे जियेंगे? जब मन में थोड़ी स्पष्टता आई, तो लगा, मैं इतने वर्षों से विश्वासी रही हूँ, हमेशा कर्तव्य निभाती रही, तो परमेश्वर उसकी रक्षा करेगा। वह ठीक होगा! मैं लड़खड़ाते हुए खड़ी हो गई, फिर दुर्घटना की जगह ले जाने के लिए मुझे कोई मिल गया। वहाँ पहुँची, तो देखा एक फोरेंसिक जाँचकर्ता मेरे बेटे की ऑटोप्सी कर रहा था। मैं सकते में आ गई, आँखों के सामने जो था उस पर यकीन नहीं कर पाई, मुझमें चलने की ताकत नहीं रही। कोई मुझे थामकर एक-एक-कदम चलाकर उसकी लाश के पास ले गया। लाश देखकर, मैं नीचे बैठकर रोये बिना नहीं रह सकी। मेरा नन्हा पोता सिर्फ चार महीने का था। मेरे पति और मैं बूढ़े हो रहे थे। अपने बेटे के बिना हम सब कैसे जी पाएंगे? मेरा हाल देख मेरी बेटी मुझसे धीरे से बोली, "मॉम, वह चला गया, मगर मैं हूँ न, और परमेश्वर तो तुम्हारे साथ ही है!" उसकी यह बात कि "परमेश्वर तो तुम्हारे साथ ही है" ने दुख में भी मुझे जगा दिया। सच था। परमेश्वर मेरा सहारा है—मैं उसे कैसे भूल सकती थी? मैंने दुख के सैलाब को रोका, आँसू पोंछे, और बेटे के अंतिम संस्कार की तैयारी में जुट गई।

घर पहुँचने के बाद, अपने बेटे का चेहरा याद कर मैं रो पड़ी। मैं बहुत पीड़ा में थी। दोस्तों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों ने मुस्कुरा कर ताने मारे, "तो आप परमेश्वर में विश्वास रखती हैं, फिर भी आपका बेटा बिजली के झटके से मर गया? आपकी आस्था के बावजूद, परमेश्वर ने आपके परिवार की रक्षा नहीं की!" फिर, मेरी बेटी ने भी यह कहकर मेरी आलोचना की, "आप विश्वासी हैं, तो मेरा भाई क्यों मर गया? परमेश्वर ने उसकी रक्षा क्यों नहीं की?" इन बातों ने सच में मेरे घाव पर नमक छिड़क दिया। उनका इस तरह मखौल उड़ाना मुझे बर्दाश्त नहीं हुआ—परमेश्वर को गलत समझ कर अपनी धारणाएं बनाने लगी। सोचा, प्रभु में अपनी आस्था में मैं कितना खपती रही। कभी-कभी दूसरे विश्वासियों का साथ देने मीलों दूर बाइक पर जाती, गर्मी हो या सर्दी, बारिश हो या तेज हवाएं, कभी देर नहीं की। परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने के बाद, मैंने काम करने के लिए और ज्यादा त्याग किए, सुसमाचार फैलाने और नए विश्वासियों के सिंचन में पूरे जोश से हिस्सा लिया। बड़े लाल अजगर ने मेरे घर को उलट-पलट दिया, मेरा दमन किया, फिर भी परमेश्वर का अनुसरण करती रही। मेरे सब-कुछ देने के बावजूद, परमेश्वर ने मेरे परिवार की रक्षा क्यों नहीं की? ऐसा क्यों हुआ? लगा जैसे मेरे साथ बहुत गलत हुआ, और मैं रोये बिना नहीं रह सकी। कुछ दिन बहुत परेशान रही। मैंने न परमेश्वर के वचन पढ़ने चाहे, न ही प्रार्थना करनी चाही, लेकिन अपने दिल में अंधेरा लिए मैं एक-एक दिन किसी तरह गुजारती रही। यह जानकर कि मेरी हालत खतरनाक थी, मैंने परमेश्वर से यह कहकर प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं अपने बेटे की मृत्यु को नहीं भुला सकती। मैं तुम्हें गलत समझकर दोष दे रही हूँ। हे परमेश्वर, मैं फिलहाल बहुत नकारात्मक और कमजोर हूँ। मुझे बचा लो, तुम्हारी इच्छा समझने और अपनी इस गलत हालत से उबरने में मेरी मदद करो।"

प्रार्थना के बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "यदि वे बचाए जाना चाहते हैं, और परमेश्वर द्वारा पूरी तरह प्राप्त किए जाना चाहते हैं, तो उन सभी को जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं शैतान के बड़े और छोटे दोनों प्रलोभनों और हमलों का सामना करना ही चाहिए। जो लोग इन प्रलोभनों और हमलों से उभरकर निकलते हैं और शैतान को पूरी तरह परास्त कर पाते हैं ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर द्वारा बचा लिया गया है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। "वे लोग जिन्हें बचाया नहीं गया है शैतान के क़ैदी होते हैं, उन्हें कोई स्वतंत्रता नहीं होती, उन्हें शैतान द्वारा छोड़ा नहीं गया है, वे परमेश्वर की आराधना करने के योग्य या पात्र नहीं हैं, शैतान द्वारा उनका क़रीब से पीछा और उन पर क्रूरतापूर्वक आक्रमण किया जाता है। ऐसे लोगों के पास कहने को भी कोई खुशी नहीं होती है, उनके पास कहने को भी सामान्य अस्तित्व का अधिकार नहीं होता, और इतना ही नहीं, उनके पास कहने को भी कोई गरिमा नहीं होती है। यदि तुम डटकर खड़े हो जाते हो और शैतान के साथ संग्राम करते हो, शैतान के साथ जीवन और मरण की लड़ाई लड़ने के लिए शस्त्रास्त्र के रूप में परमेश्वर में अपने विश्वास और अपनी आज्ञाकारिता, और परमेश्वर के भय का उपयोग करते हो, ऐसे कि तुम शैतान को पूरी तरह परास्त कर देते हो और उसे तुम्हें देखते ही दुम दबाने और भीतकातर बन जाने को मज़बूर कर देते हो, ताकि वह तुम्हारे विरुद्ध अपने आक्रमणों और आरोपों को पूरी तरह छोड़ दे—केवल तभी तुम बचाए जाओगे और स्वतंत्र हो पाओगे। यदि तुमने शैतान के साथ पूरी तरह नाता तोड़ने का ठान लिया है, किंतु यदि तुम शैतान को पराजित करने में तुम्हारी सहायता करने वाले शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित नहीं हो, तो तुम अब भी खतरे में होगे; समय बीतने के साथ, जब तुम शैतान द्वारा इतना प्रताड़ित कर दिए जाते हो कि तुममें रत्ती भर भी ताक़त नहीं बची है, तब भी तुम गवाही देने में असमर्थ हो, तुमने अब भी स्वयं को अपने विरुद्ध शैतान के आरोपों और हमलों से पूरी तरह मुक्त नहीं किया है, तो तुम्हारे उद्धार की कम ही कोई आशा होगी। अंत में, जब परमेश्वर के कार्य के समापन की घोषणा की जाती है, तब भी तुम शैतान के शिकंजे में होगे, अपने आपको मुक्त करने में असमर्थ, और इस प्रकार तुम्हारे पास कभी कोई अवसर या आशा नहीं होगी। तो, निहितार्थ यह है कि ऐसे लोग पूरी तरह शैतान की दासता में होंगे" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि मेरे बेटे की मृत्यु मेरी परीक्षा थी। मुझे इससे उबरने के लिए अपनी आस्था पर भरोसा करना होगा, परमेश्वर की गवाही देनी होगी, पहले जैसी नकारात्मक और कमजोर नहीं हो सकती, परमेश्वर में आस्था नहीं खो सकती, उसे गलत समझकर दोषी नहीं ठहरा सकती। मैंने वह वक्त याद किया, जब शैतान ने अय्यूब की परीक्षा ली थी। पहाड़ों की घाटियों के उसके मवेशियों और उसकी पूरी संपत्ति को लुटेरों ने लूट लिया था, उसके सभी 10 बच्चे मर गए, और उसके पूरे शरीर पर फोड़े हो गए। लेकिन अय्यूब ने परमेश्वर के नाम को नकारने और उसे दोष देने के बजाय, अपने जन्मदिन को कोसना पसंद किया। उसने कहा, "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है" (अय्यूब 1:21)। अय्यूब ने परमेश्वर की शानदार और जबरदस्त गवाही दी, शैतान को शर्मसार किया। लेकिन अपनी बात कहूँ, तो मैं सिर्फ अपना बेटा खोने के बाद, परमेश्वर को गलत मान कर दोष दे रही थी। अय्यूब से मैं जरा भी अपनी तुलना नहीं कर सकती थी—मैं बहुत शर्मिंदा थी। मुझे यह भी याद आया कि जब अय्यूब की परीक्षा ली गई, तो उसकी पत्नी ने उससे कहा कि परमेश्वर को छोड़ दे और मर जाए। लगा जैसे उसकी पत्नी उसे दोषी ठहरा रही थी, मगर दरअसल शैतान उसकी परीक्षा ले रहा था। क्या मेरे दोस्त, रिश्तेदार और मेरी बेटी शैतान की भूमिका नहीं निभा रहे थे? मेरे आसपास के लोगों के मखौल उड़ाने का इस्तेमाल शैतान मेरी परीक्षा लेने और मुझ पर हमला करने के लिए कर रहा था, ताकि मैं परमेश्वर को धोखा दूँ। अगर मैं नकारात्मकता में जीती रही, परमेश्वर को गलत समझ कर दोष देती रही, तो मैं शैतान की चाल में फँस जाऊँगी, पूरी तरह से उसकी हँसी की पात्र बन जाऊँगी। तब मुझे एहसास हुआ, कि इस पूरी मुसीबत में शैतान मुझे देखता रहा था, और परमेश्वर को उम्मीद थी कि मैं उसकी गवाही दूँगी और शैतान को नीचा दिखाऊँगी। मुझे पता था, आस्था के तमाम सालों में, मैंने परमेश्वर के वचनों से बहुत पोषण पाया था, और अब समय आ गया था कि मैं परमेश्वर की गवाही दूँ, मुझे उसे गलत समझ कर दोष देना और शैतान को हँसने देना बंद करना होगा। मुझे गवाही देकर शैतान को शर्मिंदा करना होगा! यह सोचकर मैंने पहले जितना दुखी और बेसहारा महसूस नहीं किया। मेरी आस्था बढ़ी और मैं परमेश्वर का सहारा लेने और उस हालत से उबरने को तैयार थी।

फिर, मैं सोचने लगी उस हालत से सामना होने पर मैं इतनी ज्यादा नकारात्मक और शिकायतों से भरी कैसे हो गई। फिर एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्‍हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्‍मे हो! ... तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्‍हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्‍हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्‍हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्‍हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्‍हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्‍हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्‍हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्‍हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? ... तुम्‍हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्‍हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि अपने बेटे की मृत्यु के बाद मैंने परमेश्वर को गलत समझ कर इसलिए दोष दिया, क्योंकि अपनी आस्था में मेरा नजरिया गलत था। आस्था हासिल करने के बाद से, मैं यह सोचकर आशीष पाने के मंसूबे पाले हुए थी कि एक व्यक्ति की आस्था से पूरे परिवार को आशीष मिलने चाहिए। परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने के बाद भी मैं ऐसा ही सोचती रही, मेरा ख्याल था कि मैं परमेश्वर के लिए खपती हूँ, कष्ट झेलती हूँ और कीमत चुकाती हूँ, तो परमेश्वर निश्चित रूप से मुझे आशीष देगा, मेरे परिवार की रक्षा करेगा, उन्हें सुरक्षित और भला-चंगा रखेगा। इसीलिए, कलीसिया ने मुझे कोई भी काम दिया हो, मैंने समर्पण किया, काम कितना भी मुश्किल क्यों न हो, सक्रिय रूप से जुटी रही, आगे बढ़ने की पुरजोर कोशिश करती रही, कितने भी कष्ट हों, खुशी-खुशी झेलती रही। दोस्तों और रिश्तेदारों ने मुझे कितना भी बदनाम किया, ठुकराया, और सरकार ने मेरा चाहे जैसा भी दमन किया हो, मैं कर्तव्य निभाती रही, कभी पीछे नहीं हटी। लेकिन जब अचानक मेरा बेटा बिजली के झटके से मर गया, तो मैं हर दिन दुख में जीने लगी, न प्रार्थना करने की इच्छा होती, न ही परमेश्वर के वचन पढ़ने की। मुझमें अनुसरण की पहले जैसी आकांक्षा नहीं रही, मैंने अपने पहले के प्रयासों को पूंजी की तरह इस्तेमाल कर परमेश्वर से बहस करने की भी कोशिश की। मैंने मेरे त्याग पर ध्यान न देने, मेरे बेटे को न बचाने के लिए, परमेश्वर को दोष दिया। उस हालत से खुलासा होने तक मैं अपना सही आध्यात्मिक कद नहीं समझ पाई। पहले मैं हमेशा सोचती थी कि अगर मैं परमेश्वर के लिए त्याग करूँ, कष्ट झेलकर कीमत चुकाऊँ, तो यह समर्पित होना, उसका आज्ञाकारी होना कहलाएगा, और वह यकीनन अंत में मुझे बचाएगा। लेकिन मेरे बेटे की मृत्यु ने मेरे सही आध्यात्मिक कद का खुलासा कर दिया, और तब मैं समझ पाई कि मेरे प्रयासों में बहुत-सी मंशाएं और मिलावटें थीं। सब-कुछ अनुग्रह और आशीषों की चाह के बदले था, और जब इसके लिए मेरा लक्ष्य और उम्मीदें चूर हो गईं, तो मुझमें प्रयास करने या अपना कर्तव्य निभाने की जरा भी इच्छा नहीं रही। इससे मैं समझ गई कि कड़ी मेहनत के वे सारे साल बस आशीष पाने, परमेश्वर से सौदा करने के लिए थे, अपना कर्तव्य निभा कर उसे संतुष्ट करने के लिए नहीं थे। मैं परमेश्वर का इस्तेमाल कर रही थी, उसे धोखा दे रही थी। आस्था के प्रति यह इतना दुर्भावनापूर्ण और गंदा नजरिया था। यह देखकर लगा, मैं सचमुच परमेश्वर की ऋणी हूँ, और सत्य का अनुसरण किए बिना या परमेश्वर की गवाही दिए बिना इतने वर्ष विश्वासी बने रहने के लिए खुद से घृणा की। मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेके और रोते हुए प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, कुछ समय से मैं नकारात्मक हालत में जी रही हूँ, तुम्हें गलत समझ कर दोष दे रही हूँ। तुम्हारे लिए यह बहुत दिल दुखानेवाला और निराशाजनक है! हे परमेश्वर, मैं प्रायश्चित करना चाहती हूँ!"

फिर एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "प्रत्येक के पास एक उचित गंतव्य है। ये गंतव्य प्रत्येक व्यक्ति के सार के अनुसार निर्धारित किए जाते हैं और दूसरे लोगों से इनका कोई संबंध नहीं होता। किसी बच्चे का दुष्ट व्यवहार उसके माता-पिता को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता और न ही किसी बच्चे की धार्मिकता को उसके माता-पिता के साथ साझा किया जा सकता है। माता-पिता का दुष्ट आचरण उनकी संतानों को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता, न ही माता-पिता की धार्मिकता उनके बच्चों के साथ साझा की जा सकती है। हर कोई अपने-अपने पाप ढोता है और हर कोई अपने-अपने आशीषों का आनंद लेता है। कोई भी दूसरे का स्थान नहीं ले सकता; यही धार्मिकता है। मनुष्य के नज़रिए से, यदि माता-पिता आशीष पाते हैं, तो उनके बच्चों को भी मिलना चाहिए, यदि बच्चे बुरा करते हैं, तो उनके पापों के लिए माता-पिता को प्रायश्चित करना चाहिए। यह मनुष्य का दृष्टिकोण है और कार्य करने का मनुष्य का तरीक़ा है; यह परमेश्वर का दृष्टिकोण नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के परिणाम का निर्धारण उसके आचरण से पैदा होने वाले सार के अनुसार होता है और इसका निर्धारण सदैव उचित तरीक़े से होता है। कोई भी दूसरे के पापों को नहीं ढो सकता; यहाँ तक कि कोई भी दूसरे के बदले दंड नहीं पा सकता। यह सुनिश्चित है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचनों पर मनन करके मैं समझ गई कि हर इंसान, भला करे या बुरा, उसकी मंजिल, उसके सार के अनुसार तय होती है यह दूसरों से जुड़ी नहीं होती। अपनी आस्था और कर्तव्य में, मैंने जितने भी कष्ट सहे हों, कीमत चुकाई हो, मैं बस अपना काम कर रही थी, एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी, उसका दायित्व निभा रही थी। इसका मेरे बेटे के भाग्य या परिणाम से कोई लेना-देना नहीं था, मेरी परीक्षाओं या प्रयासों का उसे कोई फायदा नहीं मिलना था। एक व्यक्ति की आस्था से पूरे परिवार को आशीष मिलने की बात अनुग्रह के युग की थी, लेकिन अब अंत के दिनों में, हर व्यक्ति को उसकी किस्म के अनुसार छांटा जाता है। हर इंसान का परिणाम परमेश्वर उसके काम के अनुसार तय करता है। मैं सोचती थी कि मैं अपने काम में थोड़ी मेहनत करती हूँ, इसलिए परमेश्वर को मेरे बेटे की देखभाल करनी चाहिए। लेकिन यह एक बेतुका नजरिया था, जो सत्य के बिल्कुल अनुरूप नहीं था। परमेश्वर सृजनकर्ता है, हर चीज का भाग्य, और जीवन में सबकी मंजिल उसके हाथ में होती है। परमेश्वर ने बहुत समय पहले ही तय कर दिया था कि मेरा बेटा कितने साल जिएगा। जब उसकी मृत्यु हुई, तो यह परमेश्वर द्वारा उसके लिए तय जीवनकाल का अंतिम समय था, उसे कोई बदल नहीं सकता था। कोई परमेश्वर में विश्वास करे या न करे, सभी लोग उसके हाथों में सृजित प्राणी हैं। उसके पास हरेक प्राणी के लिए उचित व्यवस्थाएँ करने की ताकत है, वह जो भी आयोजन और व्यवस्थाएँ करे, वह धार्मिक होता है। मुझे उसकी सत्ता के प्रति समर्पित होना चाहिए। इस समझ ने मेरे दिल में फ़ौरन उजाला कर दिया, मेरा दुख कम हो गया। मेरी हालत धीरे-धीरे सुधरने लगी, मैं हर दिन परमेश्वर से प्रार्थना कर, उसके वचन पढ़ने लगी। कभी-कभी मैं अपनी हालत के बारे में भाई-बहनों के साथ संगति करती, मेरे बेटे की मृत्यु अब मुझ पर उतना असर नहीं डाल रही थी।

उसी साल नवंबर में, मैं एक कलीसिया अगुआ बन गई। मैंने परमेश्वर का बड़ा आभार माना, और उस काम में खुद को पूरा झोंक दिया। जल्दी ही, मेरे बेटे की मृत्यु का मुआवजा दे दिया गया, लेकिन मुझे हैरत हुई जब मेरी बहू ने पूरी राशि ले लेनी चाही। उसने चोरी-छिपे वह सारा पैसा और सारी मूल्यवान चीजें भी ले लीं, जो मेरे बेटे ने अपने जीवन में जोड़ी थीं। वह अपने बेटे को भी लेकर भाग गई। मेरे पास अब बेटे की यादें और उनका खाली बेडरूम ही रह गया। पहले, हमारा परिवार साथ था, हम सब हँसते-बोलते थे, मगर अब एक जिंदगी और उसकी सारी संपत्ति चली गई थी। मैं कड़वे आँसू नहीं रोक सकी। मेरा बेटा जा चुका था, उसकी बीवी घर छोड़ चुकी थी। वह सारी मूल्यवान चीजें लेकर भाग गई थी। हमारा परिवार टूट चुका था, बेसहारा हो गया था—मेरे पास कुछ भी नहीं था। मैं इतने साल तक विश्वासी रही, हालात कैसे भी हों, अपना काम करती रही, अगुआ बनने के बाद से मैं हर दिन कलीसिया में काम करने में व्यस्त रही। अपनी किसी भी मुश्किल से नहीं भागी, भले ही वह बहुत तकलीफदेह क्यों न हो। मैं एक सच्ची विश्वासी थी, मैंने परमेश्वर के लिए सच्चे प्रयास किए। मेरे साथ मेरी बहू के इस बर्ताव को लेकर परमेश्वर ने क्यों कुछ नहीं किया? लगा, मेरे साथ बहुत ज्यादा गलत हुआ है, मैं एकदम अकेली और पीड़ित थी।

एक दिन, दुख से रोते समय मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया। "परीक्षणों से गुजरते समय लोगों का कमजोर होना, या उनके भीतर नकारात्मकता आना, या परमेश्वर की इच्छा या अपने अभ्यास के मार्ग के बारे में स्पष्टता का अभाव होना सामान्य है। परंतु हर हालत में, अय्यूब की ही तरह, तुम्हें परमेश्वर के कार्य पर भरोसा होना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर को नकारना नहीं चाहिए। यद्यपि अय्यूब कमजोर था और अपने जन्म के दिन को धिक्कारता था, फिर भी उसने इस बात से इनकार नहीं किया कि मनुष्य के जीवन में सभी चीजें यहोवा द्वारा प्रदान की गई हैं, और यहोवा ही उन्हें वापस लेने वाला है। चाहे उसकी कैसे भी परीक्षा ली गई, उसने यह विश्वास बनाए रखा। अपने अनुभव में, तुम चाहे परमेश्वर के वचनों के द्वारा जिस भी शोधन से गुजरो, परमेश्वर को मानवजाति से जिस चीज की अपेक्षा है, संक्षेप में, वह है परमेश्वर पर उनका विश्वास और प्रेम। इस तरह से कार्य करके जिस चीज को वह पूर्ण बनाता है, वह है लोगों का विश्वास, प्रेम और अभिलाषाएँ। परमेश्वर लोगों पर पूर्णता का कार्य करता है, और वे इसे देख नहीं सकते, महसूस नहीं कर सकते; इन परिस्थितियों में तुम्हारा विश्वास आवश्यक होता है। लोगों का विश्वास तब आवश्यक होता है, जब कोई चीज खुली आँखों से न देखी जा सकती हो, और तुम्हारा विश्वास तब आवश्यक होता है, जब तुम अपनी धारणाएँ नहीं छोड़ पाते। जब तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में स्पष्ट नहीं होते, तो आवश्यक होता है कि तुम विश्वास बनाए रखो, रवैया दृढ़ रखो और गवाह बनो। जब अय्यूब इस मुकाम पर पहुँचा, तो परमेश्वर उसे दिखाई दिया और उससे बोला। अर्थात्, केवल अपने विश्वास के भीतर से ही तुम परमेश्वर को देखने में समर्थ हो पाओगे, और जब तुम्हारे पास विश्वास होगा तो परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बनाएगा। विश्वास के बिना वह ऐसा नहीं कर सकता" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। इस बारे में बार-बार सोचकर, मैं समझ पाई, कि परमेश्वर मुश्किलों के जरिए हमारी आस्था और प्रेम को पूर्ण करता है। हम किसी भी चीज का सामना करें, कैसी भी पीड़ा और तकलीफ झेलें, परमेश्वर उम्मीद करता है कि हम उससे उबरने के लिए अपनी आस्था का सहारा लेंगे और उसकी गवाही देंगे। मुझे याद आया कि अय्यूब ने अपने परिवार की सारी संपत्ति और बच्चे खो दिए, एक दौलतमंद इंसान से कंगाल और बेसहारा बन गया। लेकिन फिर भी उसने जमीन पर गिरकर यहोवा परमेश्वर का गुणगान किया, क्योंकि उसने कभी नहीं माना कि अपनी संपत्ति उसने अपनी मेहनत से कमाई थी, उसने अपने बच्चों को अपनी निजी संपत्ति नहीं माना। वह साफ़ तौर पर जानता था कि यह सब परमेश्वर की देन है। ऊपर से तो लगता था कि लुटेरों ने सब-कुछ लूट लिया था, लेकिन उसने चीजों को सतही तौर पर नहीं देखा—उसने परमेश्वर की देन को स्वीकारा और समर्पण किया। परमेश्वर के प्रति अय्यूब की आस्था और श्रद्धा, एक-के-बाद-एक परीक्षण और पीड़ा से शुद्ध होते रहे। और एक था इब्राहीम, जिसका सौ साल की उम्र तक कोई बेटा नहीं था, लेकिन जब परमेश्वर ने उससे अपने बेटे की बलि चढ़ाने को कहा, तो इब्राहीम के लिए यह भले ही बहुत दर्दनाक था, मगर उसने न तो परमेश्वर से सौदेबाजी की, न ही बहस। उसे पता था कि परमेश्वर ने उसे वह बेटा दिया था, तो अगर परमेश्वर उसे वापस चाहता है, तो वह उसे लौटा देगा। अय्यूब और इब्राहीम दोनों का जमीर और समझ बहुत महान थे, उनकी आस्था और समर्पण वास्तविकता की परीक्षा में खरे उतर सके। लेकिन अपनी बात कहूँ, तो मैंने अपने बेटे के मर जाने पर परमेश्वर को गलत समझा और उसे दोष दिया, बाद में जब मैंने परमेश्वर के वचनों के कारण उसकी इच्छा को समझा, तो मैंने थोड़ा-सा समर्पण किया, इसलिए मुझे लगा कि मैंने थोड़ा आध्यात्मिक कद हासिल कर लिया है और मैं गवाही दे सकती हूँ। लेकिन जब मेरी बहू हमारे परिवार की मूल्यवान चीजें लेकर भाग गई, तो मेरे मन में फिर से शिकायतें सिर उठाने लगीं। मैं समझ गई कि मुझे सिर्फ परमेश्वर से आशीष और उपहार पाने की चाह थी, मगर कोई भी विपत्ति या दुर्भाग्य बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। वरना, मैं नकारात्मक होकर शिकायतें करने लगती। मेरे मन में परमेश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा या समर्पण नहीं था। इन हालात ने बार-बार जिन बातों का खुलासा किया, उनसे मेरे सही आध्यात्मिक कद का पता चला। इसके बिना, मैं अब भी अपने बाहरी अच्छे बर्ताव से अंधी बनी रहती, और सोचती कि अपने बेटे के मरने के बाद काम करते रहने का मतलब थोड़ा समर्पण और आध्यात्मिक कद का होना है। लेकिन परमेश्वर जानता था कि आशीषों के लिए मेरी सौदेबाजी की मानसिकता और लक्ष्य कितने गहरे थे। मुझे इन सब चीजों से गुजरना ही था, ताकि धीरे-धीरे थोड़ा शुद्धिकरण और बदलाव हासिल कर सकूँ। परमेश्वर ने मेरे साथ यह सब होने दिया, यह मेरे लिए उसका उद्धार था। इस बारे में मैंने जितना सोचा, उतना ही दोषी महसूस किया, और परमेश्वर के सामने प्रार्थना के लिए दंडवत हो गई : "हे परमेश्वर! अब मैं समझ गई हूँ कि मुझे तुममें विश्वास रखे इतने वर्ष हो गए, फिर भी मेरी आस्था सच्ची नहीं है। अभी भी जब ऐसा कुछ होता है जो मुझे पसंद नहीं, तो मैं शिकायत करती हूँ, गवाही तो दे ही नहीं पाती। हे परमेश्वर, मैं तुम्हारे सामने प्रायश्चित करना चाहती हूँ। मुझे खुद को जानने का रास्ता दिखाओ।"

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिसमें मुझे उस मार्ग की सही समझ मिली, जिस पर इतने वर्षों से चल रही थी। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "चूँकि आज के लोगों में अय्यूब जैसी मानवता नहीं है, इसलिए उनकी प्रकृति और सार, और परमेश्वर के प्रति उनकी मनोवृत्ति क्या है? क्या वे परमेश्वर का भय मानते हैं? क्या वे बुराई से दूर रहते हैं? वे जो परमेश्वर का भय नहीं मानते और बुराई से दूर नहीं रहते हैं उनका सार केवल तीन शब्दों में प्रस्तुत किया जा सकता है : 'परमेश्वर के शत्रु।' तुम लोग ये तीन शब्द अक़्सर कहते हो, किंतु उनका वास्तविक अर्थ तुम लोगों ने कभी नहीं जाना है। 'परमेश्वर के शत्रु' शब्दों का सार है : वे यह नहीं कह रहे हैं कि परमेश्वर मनुष्य को शत्रु के रूप में देखता है, बल्कि यह कि मनुष्य परमेश्वर को शत्रु के रूप में देखता है। पहला, जब लोग परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करते हैं, तब उनमें से किसके पास स्वयं अपने लक्ष्य, कारण, और महत्वाकांक्षाएँ नहीं होती हैं? उनका एक भाग भले ही परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता है और परमेश्वर के अस्तित्व को देख चुका होता है, फिर भी वे कारण परमेश्वर में उनके विश्वास में अब भी समाए होते हैं, और परमेश्वर में विश्वास करने में उनका अंतिम लक्ष्य उसके आशीष और अपनी मनचाही चीज़ें प्राप्त करना होता है। लोगों के जीवन अनुभवों में, वे प्रायः मन ही मन सोचते हैं, मैंने परमेश्वर के लिए अपने परिवार और जीविका का त्याग कर दिया है, और उसने मुझे क्या दिया है? मुझे इसमें अवश्य जोड़ना, और इसकी पुष्टि करनी चाहिए—क्या मैंने हाल ही में कोई आशीष प्राप्त किया है? मैंने इस दौरान बहुत कुछ दिया है, मैं बहुत दौड़ा-भागा हूँ, मैंने बहुत अधिक सहा है—क्या परमेश्वर ने बदले में मुझे कोई प्रतिज्ञाएँ दी हैं? क्या उसने मेरे अच्छे कर्म याद रखे हैं? मेरा अंत क्या होगा? क्या मैं परमेश्वर के आशीष प्राप्त कर सकता हूँ? ... प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदय में निरंतर ऐसा गुणा-भाग करता है, और वे परमेश्वर से माँगें करते हैं जिनमें उनके कारण, महत्वाकांक्षाएँ, तथा लेन-देन की मानसिकता होती है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने हृदय में लगातार परमेश्वर की परीक्षा लेता रहता है, परमेश्वर के बारे में लगातार मनसूबे बनाता रहता है, और स्वयं अपने व्यक्तिगत मनोरथ के पक्ष में परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क करता रहता है, और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहलवाने की कोशिश करता है, यह देखने के लिए कि परमेश्वर उसे वह दे सकता है या नहीं जो वह चाहता है। परमेश्वर का अनुसरण करने के साथ ही साथ, मनुष्य परमेश्वर से परमेश्वर के समान बर्ताव नहीं करता है। मनुष्य ने परमेश्वर के साथ हमेशा सौदेबाजी करने की कोशिश की है, उससे अनवरत माँगें की हैं, और यहाँ तक कि एक इंच देने के बाद एक मील लेने की कोशिश करते हुए, हर क़दम पर उस पर दबाव भी डाला है। परमेश्वर के साथ सौदबाजी करने की कोशिश करते हुए साथ ही साथ, मनुष्य उसके साथ तर्क-वितर्क भी करता है, और यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं जो, जब परीक्षाएँ उन पर पड़ती हैं या जब वे अपने आप को किन्हीं निश्चित स्थितियों में पाते हैं, तो प्रायः कमज़ोर, निष्क्रिय और अपने कार्य में सुस्त पड़ जाते हैं, और परमेश्वर के बारे में शिकायतों से भरे होते हैं। मनुष्य ने जब पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया था, उसी समय से मनुष्य ने परमेश्वर को एक अक्षय पात्र, एक स्विस आर्मी चाकू माना है, और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा साहूकार माना है, मानो परमेश्वर से आशीष और प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार और कर्तव्य है, जबकि परमेश्वर का दायित्व मनुष्य की रक्षा और देखभाल करना, और उसे भरण-पोषण देना है। ऐसी है 'परमेश्वर में विश्वास' की मूलभूत समझ, उन सब लोगों की जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और ऐसी है परमेश्वर में विश्वास की अवधारणा की उनकी गहनतम समझ। मनुष्य की प्रकृति और सार से लेकर उसके व्यक्तिपरक अनुसरण तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के भय से संबंधित हो। परमेश्वर में विश्वास करने में मनुष्य के लक्ष्य का परमेश्वर की आराधना के साथ कोई लेना-देना संभवतः नहीं हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह, मनुष्य ने न कभी यह विचार किया और न समझा कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए परमेश्वर का भय मानने और आराधना करने की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थितियों के आलोक में, मनुष्य का सार स्पष्ट है। यह सार क्या है? यह सार यह है कि मनुष्य का हृदय द्वेषपूर्ण है, छल और कपट रखता है, निष्पक्षता, धार्मिकता और सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता है, और यह तिरस्करणीय और लोभी है। मनुष्य का हृदय परमेश्वर के लिए और अधिक बंद नहीं हो सकता है; उसने इसे परमेश्वर को बिल्कुल भी नहीं दिया है। परमेश्वर ने मनुष्य का सच्चा हृदय कभी नहीं देखा है, न ही उसकी मनुष्य द्वारा कभी आराधना की गई है। परमेश्वर चाहे जितनी बड़ी कीमत चुकाए, या वह चाहे जितना अधिक कार्य करे, या वह मनुष्य का चाहे जितना भरण-पोषण करे, मनुष्य इस सबके प्रति अंधा, और सर्वथा उदासीन ही बना रहता है। मनुष्य ने कभी परमेश्वर को अपना हृदय नहीं दिया है, वह केवल स्वयं ही अपने हृदय का ध्यान रखना, स्वयं अपने निर्णय लेना चाहता है—जिसका निहितार्थ यह है कि मनुष्य परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करना, या परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का पालन करना नहीं चाहता है, न ही वह परमेश्वर के रूप में परमेश्वर की आराधना करना चाहता है। ऐसी है आज मनुष्य की दशा" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन और न्याय दिल में चुभने वाले थे। "परमेश्वर के शत्रु" शब्द मुझे खास तौर पर चुभते थे। मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि इतने वर्षों की आस्था के बाद परमेश्वर की शत्रु के रूप में उजागर हो जाऊंगी, लेकिन परमेश्वर के वचनों ने सचमुच मेरी सच्चाई का खुलासा किया था। "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" और "फ़ायदा न हो तो उंगली भी मत उठाओ," ये शैतानी जहर मेरे जीवन-मंत्र थे। मैं बहुत स्वार्थी, दुष्ट और खुदगर्ज हो गई थी। मैंने अपने निजी हितों को सबसे ऊपर रखा, हर चीज में, सिर्फ यही देखती कि मुझे आशीष मिलेंगे या नहीं, फायदा होगा या नहीं। मैं अपने निजी हितों को हमेशा सबसे ऊपर रखती थी। जब पहली बार विश्वासी बनी, तो यह अनुग्रह और आशीष पाने के लक्ष्य के लिए था। परमेश्वर का नया कार्य स्वीकारने के बाद, मैंने परमेश्वर से वो चीजें सीधे नहीं मांगीं, लेकिन भीतर कहीं गहरे महसूस किया कि मैं इतना खप रही हूँ, तो परमेश्वर को मेरी देखभाल करनी चाहिए, जिन आशीषों की चाह थी वो मुझे देने चाहिए। मैंने ढिठाई से सोचा मैं इसके लायक हूँ, मैंने कीमत चुकाई थी, इसलिए परमेश्वर को मुझे देना ही होगा, वरना वह धार्मिक नहीं। जब मेरा परिवार सुरक्षित और खुशहाल था, और मैं परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष देख सकती थी, तो मैं अपने काम में पूरा जोश दिखाती, मुझे लगता कितने भी कष्ट झेलने पड़ें, सब ठीक है। जब मेरा बेटा बिजली के झटके से मर गया, तो मैंने समझा कि परमेश्वर मेरे परिवार की रक्षा नहीं कर रहा है, और उसके प्रति मेरे मन में आक्रोश भर गया। जब मेरे हितों के साथ समझौता हुआ, तो मैंने देखभाल न करने के लिए परमेश्वर को दोष दिया। मैंने अपने प्रयासों और दुखों का इस्तेमाल परमेश्वर के साथ बहस करने के लिए सौदे की चीज की तरह किया। मुझे लगा, परमेश्वर का जितना भी अनुग्रह मिले, मिलना तो है ही, मगर उसने जब ऐसा कुछ किया जो मुझे अच्छा नहीं लगा, तो मैं उससे फौरन नाखुश हो गई, तुनक कर उसे गलत समझने लगी। समझ गई कि मैं स्वार्थी और दुर्भावनापूर्ण थी, मुझमें जमीर और समझ थी ही नहीं। मैं एक गैर-विश्वासी थी, परमेश्वर की कट्टर दुश्मन! मैंने पौलुस के बारे में सोचा, जिसने पूरे यूरोप में जगह-जगह घूम कर सुसमाचार साझा किया और बहुत कष्ट सहे, लेकिन वह सारी कड़ी मेहनत परमेश्वर के राज्य के आशीष के बदले में थी। बहुत कुछ करने के बाद, वह बोला, "मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्‍वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है" (2 तीमुथियुस 4:7-8)। कैसी बात कह दी। इस वाक्य से पौलुस का अर्थ था कि सुसमाचार फैलाने के लिए उसने इतने कष्ट सहे कि परमेश्वर को उसे ताज पहनाना ही पड़ेगा, यह उसे ही मिलना चाहिए, वरना परमेश्वर धार्मिक नहीं। ऐसा कहकर वह परमेश्वर पर दबाव डाल रहा था, दरअसल परमेश्वर को भड़का रहा था, शोर मचाकर खुले आम चुनौती दे रहा था। अंत में, उसने परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित किया और दंडित हुआ। समझ गई मैं वैसी ही थी। जब परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष नहीं मिले, तो मैंने उसे दोष दिया, गलत समझा, अपने दिल में उसे अधार्मिक मानकर आलोचना की। मैं भी पौलुस के रास्ते पर ही चल रही थी न, परमेश्वर के खिलाफ?

फिर, मैंने परमेश्वर के कुछ और वचन पढ़े : "मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। सच है। हमारा काम हमारे लिए परमेश्वर का आदेश होता है, यह ऐसी जिम्मेदारी है, जिससे हम जी नहीं चुरा सकते। यह सही और उचित है, ठीक बच्चों के अपने माता-पिता से जुड़े होने की तरह। यह बिना-शर्त होनी चाहिए। एक सृजित प्राणी के रूप में, अपनी आस्था और कर्तव्य में, कुछ त्याग करना एक जिम्मेदारी, एक दायित्व होता है जो मुझे पूरा करना चाहिए। मुझे इन्हें पूंजी नहीं मानना चाहिए, न ही परमेश्वर से सौदे करने की चीज। अंत में मुझे आशीष मिलें, या दुर्भाग्य का सामना करना पड़े, मुझे परमेश्वर के शासन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होकर काम करना चाहिए। जन्म से मृत्यु तक, विपत्ति या सौभाग्य से गुजरकर, कोई विश्वासी हो या गैर-विश्वासी, उसे पूरी जिंदगी तमाम मुश्किलों और मुसीबतों का सामना करना ही पड़ता है। मेरे बेटे की जल्द मृत्यु और परिवार के दूसरे दुर्भाग्य, इन सबका सामना होना आम बातें थीं। लेकिन मुझमें आशीष पाने की आकांक्षा बहुत तीव्र थी, मैंने अपने काम में कुछ त्याग किए थे, तो लगा मैंने सच्चा योगदान दिया था, इसलिए मैं इनका इस्तेमाल कर परमेश्वर से पुरस्कार माँगना चाहती थी। जब मुझे ये चीजें नहीं मिलीं, तो मैंने परमेश्वर को गलत मानकर उसे दोष दिया। समझ गई कि मैं प्रकृति से ही कितनी स्वार्थी और दुष्ट थी, और मेरा नजरिया कितना बेतुका था। मुझे याद आया कि परमेश्वर ने हमारा उद्धार करने के लिए, दो बार देहधारी होकर कितने कष्ट और अपमान सहे, लेकिन उसने कभी व्यक्त नहीं किया कि इसके लिए कितना खून, पसीना और आँसू बहाए। वह शांति से गुमनामी में सत्य व्यक्त करता है, मनुष्य को बचाने का अपना कार्य करता है। हमारे लिए उसका प्रेम बहुत महान है! अनेक वर्ष विश्वासी रहकर मैंने परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों का बहुत आनंद उठाया, सत्य से इतना सिंचन और पोषण पाया, लेकिन मैंने हमेशा अपने छोटे-छोटे त्याग को पूंजी की तरह इस्तेमाल करना चाहा, ढीठ होकर माँग करती रही कि परमेश्वर मुझे आशीष दे, मेरे परिवार के सदस्यों की रक्षा करे। समझ गई कि मैं सचमुच बेशर्म हूँ, बहुत विवेकहीन हूँ। इस बारे में सोचकर मुझे बहुत खेद हुआ, अपराध-बोध हुआ। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : "जो लोग मानवता से रहित हैं, वे सच में परमेश्वर से प्रेम करने में अक्षम हैं। जब परिवेश सही-सलामत और सुरक्षित होता है, या जब लाभ कमाया जा सकता है, तब वे परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आज्ञाकारी रहते हैं, किंतु जब जो वे चाहते हैं, उसमें कमी-बेशी की जाती है या अंतत: उसके लिए मना कर दिया जाता है, तो वे तुरंत बगावत कर देते हैं। यहाँ तक कि एक ही रात के अंतराल में वे अपने कल के उपकारियों के साथ अचानक बिना किसी तुक या तर्क के अपने घातक शत्रु के समान व्यवहार करते हुए, एक मुस्कुराते, 'उदार-हृदय' व्यक्ति से एक कुरूप और जघन्य हत्यारे में बदल जाते हैं। यदि इन पिशाचों को निकाला नहीं जाता, तो ये पिशाच बिना पलक झपकाए हत्या कर देंगे, तो क्या वे एक छिपा हुआ ख़तरा नहीं बन जाएँगे?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास)। परमेश्वर के वचन पढ़कर लगा, मेरे लिए छिपने की कोई जगह नहीं बची। मैं ऐसी ही किस्म की इंसान थी। मेरी आस्था इसलिए थी कि आशीष हासिल करूँ, जब मेरी चाह पूरी नहीं हुई, मेरे परिवार में कुछ अनहोनी घट गई, तो मैं तुरंत परमेश्वर के विरुद्ध खड़ी हो गई और मन में उसके प्रति आक्रोश पैदा हो गया, मैं उससे एक दुश्मन की तरह पेश आने लगी। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन ने ही आखिरकार मुझे अपना असली चेहरा दिखाया। समझ आया कि मैं प्रकृति से ही परमेश्वर की विरोधी थी। इसका एहसास होने पर मैं पछतावे और अपराध-बोध से भर गई। मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेककर, पछतावे से भरकर रोते हुए प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं ठीक उसी किस्म की बिना इंसानियत वाली इंसान हूँ, जिसका आपने बयान किया है। मैंने जो थोड़ा-सा दिया, उसका इस्तेमाल तुमसे सौदा करने के लिए करना चाहा। मैं तुम्हें धोखा देकर तुम्हारा प्रतिरोध कर रही थी—मैं तुम्हारी बहुत ऋणी हूँ! हे परमेश्वर, मैं तुम्हारे सामने प्रायश्चित करना चाहती हूँ। तुम कोई भी व्यवस्था करो, मैं समर्पण कर उसे स्वीकारने और तुम्हारे प्रेम की कीमत चुकाने के लिए अपने काम में सब-कुछ लगाना चाहती हूँ!" फिर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करने, उसके वचन और अधिक पढ़ने, और अपने काम में पूरी ताकत लगा देने की कोशिश की। ऐसा करके मैंने अपनी शांति और खुशी फिर से हासिल की, और अब मैं अपना बेटा खो देने के दर्द में डूबी नहीं रही।

हालाँकि यह एक दर्दनाक अनुभव था, मगर ठीक इसी प्रकार के कष्ट से, मैं आशीषों के पीछे भागने के अपने दुष्ट लक्ष्य, और अपनी आस्था में भ्रष्टता और मिलावट को समझ पाई थी, परमेश्वर का प्रतिरोध करने की अपनी शैतानी प्रकृति की थोड़ी समझ हासिल कर पाई थी। इन मुश्किलों से गुजरे बिना, सच्चाई का खुलासा हुए बिना, मैं अपना सही आध्यात्मिक कद नहीं देख पाई होती। इस अनुभव ने मुझे सच में सिखाया कि नापसंद चीजों से हमारा जितना ज्यादा सामना होता है, उतने ही ज्यादा सत्य खोजने को मिलते हैं। इसके पीछे हमारे लिए परमेश्वर का प्रेम और उद्धार होता है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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