मसीह-विरोधियों को उजागर करना मेरी जिम्मेदारी है
अगस्त 2020 के आखिरी हफ्ते में, मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया और शिन रैन को मेरी साझीदार बनाया गया। सितंबर की शुरुआत में, हमारे वरिष्ठ ने शिन रैन को शहर के बाहर एक बैठक में बुलाया, जबकि मैं कलीसिया के कई काम निपटाने के लिए कुछ उपयाजकों के साथ कलीसिया में रह गई। उस वक्त हमने देखा कि सिंचन कार्य थोड़ा प्रभावहीन था, खास तौर पर इसलिए कि सुपरवाइजर समय रहते काम की जाँच नहीं कर पाते थे। समस्या सुलझाने के लिए हमने सुपरवाइजर के साथ संगति की तैयारी की, लेकिन जब हमने इस बारे में शिन रैन को पत्र भेजा, तो उसने हमारा सुझाव तुरंत ठुकरा दिया, और उसके लौटने तक रुकने को कहा। मैंने सोचा, "यह बस सुपरवाइजर के साथ संगति ही तो है। हम तुम्हारे आने तक इंतजार क्यों करें?" लेकिन फिर लगा शायद शिन रैन सुपरवाइजर की दूसरी कुछ समस्याओं के बारे में जानती होगी जो हमें नहीं पता, और उन्हें हमारे साथ मिलकर सुलझाना चाहती है। यह सोचकर, मैं आगे कुछ नहीं बोली। कुछ दिन बाद शिन रैन बैठक से लौट आई, मगर कुछ भी नहीं बताया। तब मुझे लगा कि वह थोड़ी घमंडी है, क्योंकि हमारे लिए यह ठीक ही होता कि उसके आने से पहले, हम इन मसलों पर सुपरवाइजर के साथ संगति कर लेते। क्या ऐसा कोई कारण था कि हम उसके बिना काम नहीं कर सकते थे? फिर, जब अपनी बैठक में हमने काम के बारे में चर्चा की, तो मैंने पाया कि वह हमें हीन मानते हुए बस आदेश दे रही थी, मानो उसे हमारे साथ मामलों की चर्चा करने की जरूरत नहीं थी। मैंने हमारे काम के बारे में कुछ सुझाव दिए, मगर उसने कुछ भी सोचे बिना नकार दिये। कुछ सुझावों में तो कोई समस्या ही नहीं थी, लेकिन उसने जान-बूझकर उनमें खामियाँ निकालीं और हमसे वही करवाया जो वह चाहती थी। मिसाल के तौर पर, जब मैंने कुछ टीमों के काम की जाँच-पड़ताल की, तो मुझे कुछ समस्याएँ दिखीं, और मैंने सुझाव दिया कि इन्हें सुलझाने के लिए मैं सुपरवाइजर के साथ संगति करूँगी। लेकिन शिन रैन ने जोर देकर कहा कि मुझे जाने की जरूरत नहीं, और व्यस्त न होने पर वह खुद जाकर उनसे मिलेगी। और इन टीमों के काम को उसके मुकाबले मैं ज्यादा अच्छी तरह जानती थी, इसलिए मैंने अपना सुझाव दोहराया, मगर वह अब भी अड़ी रही कि मैं वही करूँ जो उसने कहा। इससे मुझे बड़ी तकलीफ महसूस हुई, मैंने सोचा, "हम साथी हैं, लेकिन आखिरी फैसला हमेशा उसी का होता है, बातचीत की कोई गुंजाइश ही नहीं होती। वह मेरे सारे सुझाव ठुकरा देती है और आखिर मुझे उसी की बात माननी पड़ती है। क्या मेरा एक भी सुझाव उचित नहीं? या वह बहुत घमंडी है?" लेकिन मैंने देखा वह बहुत जोर लगाती थी, मुझे मालूम था वह मुझसे ज्यादा समय से अगुआ थी, तो वह हालात को मुझसे बेहतर जानती होगी। इसलिए मैंने उसके तरीके से काम करने का फैसला किया, और आगे कुछ नहीं बोली।
इसके बाद, हम अलग-अलग टीमों से मिलने के लिए अलग हो गए। जब मैं सिंचन कर्मियों से मिली, तो प्रभारी बहन वांग ने बताया कि हाल में नए सदस्य ज्यादा हो जाने के कारण सिंचन कर्मी बहुत व्यस्त हो गए थे, और पूछा कि क्या हम नए सदस्यों के सिंचन के लिए अगुआओं और कर्मियों की पार्ट टाइम व्यवस्था कर सकेंगे। इससे पक्का हो जाएगा कि नए सदस्यों का समय के अनुसार सिंचन हो जाए। मुझे लगा बहन वांग का सुझाव अच्छा था, इसलिए मैंने उसे अपना लिया। जब शिन रैन को यह बात पता चली, तो उसी दिन उसने एक कड़ा पत्र लिखकर सभी सिंचन कर्मियों को भेज दिया। पत्र में मुझ पर बुरी आयोजना और काम में अव्यवस्था का आरोप लगाया गया था। उसने बहन वांग का भी निपटान किया, और परोक्ष रूप से उसे डांट लगाई, कहा कि हम लोगों ने व्यवस्था में मनमानी की और जैसा चाहा वैसा किया, जिससे कलीसिया के कार्य में रुकावट और गड़बड़ी पैदा हुई, जो बहुत गंभीर थी। यह पत्र मेरे लिए जोर के झटके जैसा था। इससे मेरा दिल मुँह को आने को हुआ। मैं मनमानी करती थी? कलीसिया के कार्य में बाधा पहुँचाती थी? मैं एकदम चौंक गई, मुझे डर लगा कि कहीं मैंने भटक कर बाधा तो नहीं पहुँचाई। खास तौर से जब मुझे एहसास हुआ कि सभी भाई-बहन इस पत्र को पढ़ सकते थे, तो मुझे खासी शर्मिंदगी महसूस हुई। अब सब लोग मेरे बारे में क्या सोचते होंगे? मैं आगे से उन्हें क्या मुँह दिखाऊँगी? मैं बहुत दुखी हो गई, लगा जैसे मेरी निंदा की गई थी। मैंने सोचा, "अगर हमने सच में गलती की भी हो, तो भी तुम सिद्धांतों के बारे में हमसे संगति कर सकती थी, हमें बता सकती थी कि हमने क्या गलती की, ताकि हम उसे सुधार लेते। हमसे संगति करने के बजाय तुम्हें सबको पत्र लिखने की क्या जरूरत थी?" मैं रोये बिना नहीं रह सकी। तब मैं दो दिन तक इस बात को लेकर निराश रही। फिर, परमेश्वर के वचन खा-पीकर ही मेरी हालत थोड़ी सुधरी। मेरे दिल में कुछ धुंधला-सा ख्याल था कि शिन रैन बड़ी गुस्सैल किस्म की थी, आगे से मुझे उससे संभल कर रहना चाहिए, उसे गुस्सा नहीं दिलाना चाहिए। वरना, पता नहीं वह कब मुझे दंड दे दे और नीचा दिखा दे। इसके बाद मेरे मन में वह दर्द बना रहा। हमेशा लगता रहा कि अगर मैंने उसकी बात नहीं सुनी या काट दी, तो वह मुझे नुकसान पहुँचाने के लिए जरूर कुछ करेगी। मुझे हमेशा डर-सा लगा रहता था।
फिर, मुझे पता चला कि शिन रैन हर टीम के सुपरवाइजर से खुद मिलना चाहती थी, लेकिन समय का प्रबंध ठीक से न होने के कारण यह कई दिनों तक टल गया, और बहुत-से काम समय पर व्यवस्थित नहीं हुए, पूरे नहीं हो पाए। मुझे लगा वह बैठक में इस मामले से सीखे हुए सबक के बारे में बात करेगी, या काम की व्यवस्था में हुए भटकावों और गलतियों के बारे में बोलेगी, मगर जब उसने इसका जिक्र ही नहीं किया, तो मुझे हैरानी हुई। कुछ दिन बाद, हमारे वरिष्ठ ने प्रासंगिक सिद्धांतों के बारे में संगति करने के लिए पत्र भेजा, जिसमें कहा गया था कि नए सदस्यों के सिंचन के लिए अगुआओं और कर्मचारियों की पार्ट टाइम व्यवस्था मेरे लिए सही थी। इस तरह हम ज्यादा नेक कर्म जमा कर सके, और नए सदस्यों का सिंचन जल्द हो सका, जिससे कलीसिया के कार्य को फायदा हुआ। मुझे लगा, पता चलने पर शिन रैन आत्मचिंतन कर अपनी गलती समझेगी, मगर लगा उसे कोई फिक्र ही नहीं थी। उसने मेरी ओर घृणा से देखा और पलट कर चली गई। मैंने सोचा, "उसने अपने काम में गलती पर गलती की, फिर भी उसे खुद की पहचान बिल्कुल नहीं हुई। ऐसा करते रहना उसके लिए खतरनाक है।" मैंने उसके घमंडी बर्ताव पर नजर डाली और सोचा कि उसकी समस्याओं की ओर दूसरों के इशारा करने पर उसके रवैये की अनदेखी कर दें, तो भी वह किस तरह उसे दिए गए हर सुझाव को जोर देकर नकारती रही। फिर, पिछली बार उसने मुझे कैसी कड़ी फटकार लगाई थी, जिससे मैं डर कर लाचार महसूस करने लगी, मैंने उससे इसका जिक्र करने की हिम्मत तक नहीं की।
उस वक्त, काम का संचालन और व्यवस्था अकेली शिन रैन ही करती थी। हालाँकि हम दोनों साझीदार थीं, मगर उसने मुझे कभी कोई बात नहीं बताई, कोई चर्चा नहीं की। वह हर चीज की प्रभारी थी, सारे फैसले उसी के होते थे। काम के बारे में चर्चा करते समय, मेरे और कुछ उपयाजकों के अपनी राय दे देने के बाद, वह हमेशा हमारे नजरिए में खामियाँ निकालती, फिर हमारे विचारों को अलग ढंग से तैयार कर अपनी "ऊंची राय" पेश कर देती। समय के साथ हम सब महसूस करने लगे कि हम उससे हीन थे, शिन रैन हम लोगों से ज्यादा विचारशील और सक्षम थी, चीजों को ज्यादा स्पष्टता से देख सकती थी, इसलिए ज्यादातर, हम लोग उसका नजरिया मान लेते और वही करते जो वह कहती। इसके अलावा, जब शिन रैन जान-बूझकर मेरी गलतियाँ निकालती और मेरे सुझावों को फौरन नकार देती, तो वह बहुत आक्रामक होती, जिससे मुझे एक तरह का डर लगा रहता। लगता कि अगर मैंने उसकी बात नहीं सुनी, तो वह मेरे साथ कोई दुष्टता करेगी, इसलिए मैं अपने-आप समझौता कर लेती और उसके खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं करती। वह मेरी बात हमेशा ठुकरा देती थी, इसलिए, समय के साथ, मेरे पास कुछ नए विचार होने पर भी, मैं साझा नहीं करना चाहती थी। बाद में, अपने काम में मैं और ज्यादा निष्क्रिय हो गई, अपने काम में ज्यादा प्रभावी होने की कोशिश ही नहीं की। मैं बस एक कठपुतली की तरह थी। अपने काम की अलग-अलग समस्याओं से निपटते समय मेरी अपनी सोच या नजरिया नहीं होता था। मैं हर काम के लिए शिन रैन के आदेशों का इंतजार करती, और वही करती जो वह चाहती। बहुत-से उपयाजकों का भी यही हाल था। उस दौरान, मैं ज्यादा-से-ज्यादा निष्क्रिय हो गई। मुझे पता था कि परमेश्वर को मेरी हालत से घृणा थी, वह मुझसे अपना चेहरा छिपाए हुए था, लेकिन मुझे मालूम नहीं था कि इसे कैसे बदलूँ, यह एक यातना जैसा था।
उन कुछ दिनों में, हमें अपने वरिष्ठ अगुआ का एक पत्र मिला, जिसमें कहा गया कि हाल ही में कुछ भाई-बहन गिरफ्तार हो चुके थे। सुरक्षा के लिए, हमें समूहों में बंट जाने और सभी को एक साथ न रहने को कहा गया। इससे हम सब एक साथ गिरफ्तार होने से बच जाएँगे, वरना काम पिछड़ जाएगा। तब, शिन रैन वहाँ नहीं थी, इसलिए मैंने इस पर कुछ उपयाजकों से चर्चा की। मुझे लगा यह अच्छी योजना थी, लेकिन उपयाजकों को लगा कि अलग-अलग हो जाने से काम पर चर्चा करना मुश्किल हो जाएगा, आखिर में हम कोई फैसला नहीं कर पाए। वे फैसले के लिए शिन रैन के आने तक इंतजार करना चाहते थे। मैंने सोचा, "यह बस समूहों में बंटने की बात है, सिद्धांतों का कोई बड़ा सवाल नहीं, सुरक्षा की समस्याओं को देखते हुए, अलग-अलग हो जाना एक अच्छा ख्याल है।" लेकिन किसी में भी फैसला करने की हिम्मत नहीं थी। वे सहमति के लिए शिन रैन का इंतजार करने पर जोर देते रहे। मैं समझ गई कि सब लोग शिन रैन की कितनी आराधना करते थे, कैसे सभी लोग चीजों की व्यवस्था और फैसले के लिए उसका इंतजार करते थे, उसके आदेश मानते थे, मुझे एहसास हुआ उसकी समस्या गंभीर थी। बाद में, मैंने एक उपयाजक बहन ली से अपनी हालत और शिन रैन की वो समस्याएँ बताईं जो मैंने देखी थीं। मुझे हैरत हुई जब उसने कहा कि वह भी शिन रैन से लाचार महसूस करती थी। वह शिन रैन से हमेशा डरती और उसके खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं करती। उसने यह भी कहा कि शिन रैन जान-बूझकर उसकी कमियाँ बढ़ा-चढ़ाकर दिखाती, और दूसरों के सामने उसे डांटती, ताकि वह बुरी दिखे। फिर बहन ली ने आगे कहा, "हम शिन रैन की समस्या देख सकती हैं, मगर अगर हम इसे ठीक से न समझें, इसे उजागर न करें, और सत्य पर अमल न करें, तो पवित्र आत्मा हमें त्याग देगा।" मैं उसकी इस बात पर सहमत हो गई। मुझे परमेश्वर के वचन का एक अंश याद आया। "कलीसिया के भीतर सत्य का अभ्यास करने वाले लोगों को अलग हटा दिया जाता है और वे अपना सर्वस्व अर्पित करने में असमर्थ हो जाते हैं, जबकि कलीसिया में परेशानियाँ खड़ी करने वाले, मौत का वातावरण निर्मित करने वाले लोग यहां उपद्रव मचाते फिरते हैं, और इतना ही नहीं, अधिकतर लोग उनका अनुसरण करते हैं। साफ बात है, ऐसी कलीसियाएँ शैतान के कब्ज़े में होती है; हैवान इनका सरदार होता है। यदि समागम के सदस्य विद्रोह नहीं करेंगे और उन प्रधान राक्षसों को खारिज नहीं करेंगे, तो देर-सवेर वे भी बर्बाद हो जाएँगे। अब ऐसी कलीसियाओं के ख़िलाफ़ कदम उठाए जाने चाहिए। जो लोग थोड़ा भी सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हैं यदि वे खोज नहीं करते हैं, तो उस कलीसिया को मिटा दिया जाएगा। यदि कलीसिया में ऐसा कोई भी नहीं है जो सत्य का अभ्यास करने का इच्छुक हो, और परमेश्वर की गवाही दे सकता हो, तो उस कलीसिया को पूरी तरह से अलग-थलग कर दिया जाना चाहिए और अन्य कलीसियाओं के साथ उसके संबंध समाप्त कर दिये जाने चाहिए। इसे 'मृत्यु दफ़्न करना' कहते हैं; इसी का अर्थ है शैतान को बहिष्कृत करना" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचन के इस अंश के बारे में सोचकर मुझे बहुत डर लगा। परमेश्वर के वचन ने हमारी मौजूदा हालत का सटीक खुलासा किया था। कलीसिया में शिन रैन का फैसला ही चलता था, सत्ता उसी के हाथ में थी, किसी में उसे उजागर करने की हिम्मत नहीं थी, कोई भी सत्य के साथ खड़ा होकर उस पर अमल करने की हिम्मत नहीं करता था। हम सब उसकी बात सुनते और मानते थे, आखिरी फैसला उसे ही करने देते थे। कैसे कहा जा सकता था कि हमारे दिलों में परमेश्वर के लिए जगह थी? कैसे परमेश्वर इस तरह हमसे घृणा नहीं करता, हमें घिनौना नहीं मानता? अगर हम ऐसा ही करते रहे, तो देर-सवेर, परमेश्वर हमें ठुकरा देगा और हम पवित्र आत्मा का कार्य पूरी तरह से गँवा देंगे। मैं साफ तौर पर समझ गई थी कि शिन रैन सिद्धांतों का उल्लंघन करती थी और मनमानी करती थी। हर चीज का फैसला वही करती थी, अत्याचारी बर्ताव करती थी, और अपने सहकर्मियों की सलाह बिल्कुल नहीं सुनती थी। जब दूसरे उसकी समस्याएँ बताते, तो वह स्वीकार नहीं करती, आत्मचिंतन नहीं करती, लेकिन मुझे उसके नाराज होने और फिर उसके द्वारा निपटाये और दबाए जाने से डर लगता था। मैं सवाल उठाने की हिम्मत नहीं करती थी। हमेशा उसकी बात सुनती और मान लेती, जिससे काम में देर होती, कलीसिया का कार्य बाधित होता, और मैं शैतान की साथी बन जाती। यह जानकर मुझे गहरा खेद और पछतावा हुआ। मैंने सोचा, "मुझे सत्य पर अमल कर उसे उजागर करना होगा। मैं अब इस तरह हाथ पर हाथ धरे बैठी नहीं रह सकती।"
लेकिन फिर मेरे साथ कुछ अप्रत्याशित घट गया। एक दिन, जब शिन रैन एक बैठक से लौटी, तो वह खिन्न चेहरा लिए गुस्से से बोली, "दो टीम सुपरवाइजर ऐसे हैं जो दूसरों के साथ ठीक से काम नहीं कर सकते और हमेशा दूसरों की आलोचना करते हैं। उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा।" यह सुनकर मैं चौंक गई। मुझे इन सुपरवाइजरों के बारे में थोड़ा पता था। हालांकि कभी-कभी वे घमंडी स्वभाव दिखाते थे, मगर वे दोनों ही सत्य को स्वीकार कर व्यावहारिक कार्य कर सकते थे। उन्होंने सिर्फ भ्रष्टता दिखाई थी और वे मिल-जुलकर सहयोग नहीं कर पाते थे, लेकिन सत्य के बारे में संगति से समस्या हल हो सकती थी। उन्हें बस यूँ ही बर्खास्त कैसे किया जा सकता था? क्या व्यावहारिक कार्य करनेवालों को मनमाने ढंग से बर्खास्त कर देने से कलीसिया का कार्य पिछड़ नहीं जाएगा? इस बार, मैं आँखें बंद करके उसका अनुसरण नहीं कर सकती थी, कायर नहीं बन सकती थी। मैंने कहा, "ऐसी अहम बात के लिए, हमें उचित ढंग से अभ्यास करने के तरीके खोजने होंगे। हम उन्हें बस अपनी मर्जी से हटा नहीं सकते।" फिर, हालत की जाँच-पड़ताल के लिए मैं कलीसिया गई। मुझे यह देखकर अचरज हुआ कि उन लोगों को पहले ही हटा दिया गया था। मैंने जाँच-पड़ताल की, तो पता चला कि वे बर्खास्तगी के निशाने पर थे ही नहीं। मैं चौंककर गुस्सा हो गई, मैंने सोचा, "ऐसे बड़े मामले में, शिन रैन ने किसी के साथ चर्चा किए बिना ही फैसला कर लिया। यह तो तानाशाही थी!" मैंने शिन रैन की समस्या बताने के लिए एक पत्र लिखा, लेकिन वह खुद को बिल्कुल नहीं समझ पाई। फिर, मैंने जाना कि एक उपयाजिका बहन लियांग अपने काम में पहले सक्रिय और जिम्मेदार होती थी, लेकिन हाल में, शिन रैन उस पर अक्सर हमले करती और उसे नीचा दिखाती, इसलिए उसकी हालत नकारात्मक थी, उसे लगा कि वह उपयाजिका नहीं बनी रह सकती। यह सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ। मैं समझ गई कि शिन रैन के घमंड, अत्याचारी बर्ताव, दूसरों पर लगातार हमले और दबाव केवल दूसरों को नकारात्मक और दुखी ही करते थे। वह बेशक एक दुराचारी थी। मुझे उसे उजागर कर रोकने के लिए खड़ा होना होगा। मैं उसे अपनी मनमानी नहीं करने दे सकती थी। मगर, जब मुझे सच में उसका सामना करना पड़ा, तो मैं अब भी थोड़ी दब्बू थी।
फिर मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा। "अगर सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है और तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के भीतर रहते हो, तो जब तुम्हें उन दुष्ट लोगों और शैतानों का पता चलता है जो परमेश्वर के घर के कार्य में रुकावट डालते हैं और बाधाएँ खड़ी करते हैं, तुम उन पर ध्यान नहीं दोगे और उन्हें अनसुना कर दोगे; अपने विवेक द्वारा धिक्कारे जाए बिना, तुम उन्हें नज़रअंदाज़ कर दोगे। यहाँ तक कि तुम यह भी सोचोगे कि वह जो परमेश्वर के घर के कार्य में बाधाएँ खड़ी कर रहा है, तुम्हारा उससे कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे कितना भी नुकसान पहुँचे, तुम परवाह नहीं करते, हस्तक्षेप नहीं करते, या दोषी महसूस नहीं करते—जो तुम्हें एक विवेकहीन या नासमझ व्यक्ति, एक गैर-विश्वासी, एक सेवाकर्ता बनाता है। तुम जो खाते हो वह परमेश्वर का है, तुम जो पीते हो वह परमेश्वर का है, और तुम परमेश्वर से आने वाली हर चीज का आनंद लेते हो, फिर भी तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान तुमसे संबंधित नहीं है—जो तुम्हें गद्दार बनाता है, जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो क्या तुम इंसान भी हो? यह एक दानव है, जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है। तुम परमेश्वर में विश्वास का दिखावा करते हो, चुने हुए होने का दिखावा करते हो, और तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो। तुम एक इंसान का जीवन नहीं जी रहे, और स्पष्ट रूप से गैर-विश्वासियों में से एक हो। अगर तुम्हें परमेश्वर में सच्चा विश्वास है, तब यदि तुमने सत्य और जीवन नहीं भी प्राप्त किया है, तो भी तुम कम से कम परमेश्वर की ओर से बोलोगे और कार्य करोगे; कम से कम, जब परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान किया जा रहा हो, तो तुम उस समय खड़े होकर तमाशा नहीं देखोगे। यदि तुम अनदेखी करना चाहोगे, तो तुम्हारा मन कचोटेगा, तुम असहज हो जाओगे और मन ही मन सोचोगे, 'मैं चुपचाप बैठकर तमाशा नहीं देख सकता, मुझे दृढ़ रहकर कुछ कहना होगा, मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, इस दुष्ट बर्ताव को उजागर करना होगा, इसे रोकना होगा, ताकि परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान न पहुँचे और कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त न हो।' यदि सत्य तुम्हारा जीवन बन चुका है, तो न केवल तुममें यह साहस और संकल्प होगा, और तुम इस मामले को पूरी तरह से समझने में सक्षम होगे, बल्कि तुम परमेश्वर के कार्य और उसके घर के हितों के लिए भी उस ज़िम्मेदारी को पूरा करोगे जो तुम्हें उठानी चाहिए, और उससे तुम्हारे कर्तव्य की पूर्ति हो जाएगी" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। परमेश्वर के वचन से मैं समझ सकी कि जब कुछ लोग परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान होते देखते हैं, तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसे लोग इंसान से नीचे होते हैं। यह जानकर मैं बहुत दुखी हो गई, क्योंकि मैंने ऐसा ही व्यवहार किया था। मैं शिन रैन की समस्या को स्पष्ट समझ रही थी, लेकिन मैंने कभी उसे उजागर करने और रोकने की हिम्मत नहीं की। वह हमेशा मेरी कमियाँ निकालती, मेरे नजरिए को नकार देती, मुझ पर हावी होकर भाषण झाड़ने और हमले करने लगती, इसलिए मैं उससे डरती और उसे नाराज करने की हिम्मत नहीं करती। खुद को बचाने के लिए मैं उसकी बात मान लेती, खुद को नीचे गिरा लेती। यह भी सोचती कि अगर मैं उसकी आज्ञाकारी बनकर उससे दबी हुई रही, तो वह मुझे और नहीं दबाएगी, दंड नहीं देगी। अगर मैं खुद को बचाए रख सकती थी, तो उसके काबू में रहने और उससे दबे रहने को तैयार थी। मैं परमेश्वर के घर के हितों का ख्याल किए बिना इस हालत में जी रही थी। जिस तरह से वह सिद्धांतों के खिलाफ जाकर अत्याचारी जैसा बर्ताव कर रही थी, उससे कलीसिया के कार्य पर असर पड़ चुका था, लेकिन मैंने मजबूती से खड़े होकर उसे उजागर करने की हिम्मत नहीं की। जब वह हर जगह लोगों पर हमला करके उन पर हावी हो गई, उसने सत्ता झपट ली, और खुद फैसले करने लगी, तो मैंने उसका विरोध करने और उसके कुकर्मों को रोकने की हिम्मत नहीं की। मेरी खुशामदी हालत गंभीर थी। मैं बदनामी में रहनेवाली एक बेकार कायर इंसान के सिवाय कुछ भी नहीं थी। इस तरह जीकर मेरी कोई गरिमा कैसे हो सकती थी? मैंने परमेश्वर के वचनों के सिंचन और पोषण के साथ-साथ परमेश्वर से आने वाली हर चीज़ का आनंद लिया, लेकिन हमेशा खुद को बचाने की कोशिश करती रही, कलीसिया के हितों की रक्षा के लिए सत्य पर अमल नहीं कर पाई। मैं इंसान कहलाने लायक नहीं थी। इस बारे में सोचकर, मैं बहुत परेशान होकर खुद को दोषी मानने लगी। इतनी ज्यादा स्वार्थी और कपटी होने पर मैंने खुद से घृणा की। सोचा, "मैं अब ऐसा करते नहीं रह सकती। इस बार, वह मुझे दंड दे या मुझसे बदला ले, मुझे डटकर उसके कुकर्मों को उजागर करना होगा, और परमेश्वर के घर के कार्य की सुरक्षा करनी होगी। यह मेरी जिम्मेदारी है।"
जब मैं लौटी, तो शिन रैन द्वारा दोनों सुपरवाइजरों की मनमानी बर्खास्तगी के जवाब में, मैंने उसके द्वारा सिद्धांतों के उल्लंघन और उसके अत्याचारी बर्ताव को उजागर किया। लेकिन मैं एक भी शब्द कह सकूँ इससे पहले ही उसने मेरी बात काट दी, और बोली कि मैं उसके साथ मिल-जुलकर सहयोग नहीं कर पाई। उस वक्त, बहुत से उपयाजकों ने भी उसके दमनकारी और हावी होने वाले बर्ताव को उजागर किया। आखिरकार, सच्चाई सामने देखकर वह उनकी बात काट नहीं सकी, तो उसने कहा कि जो समस्याएँ हमने उसे बताईं, वह उन्हें पहचान नहीं पाई थी, और वह आगे से सत्य जरूर खोजेगी। आखिरकार, वह मुस्कराकर बोली, "मुझमें ऊंची काबिलियत है, इसलिए मैं घमंडी हुए बिना नहीं रह सकती।" यह सुनकर मैं अवाक रह गई। वह पूरी तरह से विवेकहीन थी। फिर, दोनों उपयाजकों ने, इस उम्मीद से कि वह प्रायश्चित करेगी, शिन रैन के साथ दो बार संगति करके उसकी मदद की, लेकिन शिन रैन ने स्वीकार ही नहीं किया, और दोनों बहनों पर यह कहकर हमला किया कि वे उसका निपटान कर रहे थे। जब मैंने देखा कि शिन रैन सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं रही और उसे अपने कुकर्मों की ज़रा भी समझ नहीं है, तो मुझे एहसास हुआ कि उसकी समस्या गंभीर थी।
फिर, मैंने एक बात सोची। शिन रैन ने हमें इतना नीचे दबा दिया था कि हम बहुत कमजोर हो गए थे, और अपना काम नहीं करना चाहते थे। आखिर हो क्या रहा था? फिर, परमेश्वर का वचन पढ़ने के बाद, आखिर मैंने शिन रैन की करतूतों के पीछे के तरीकों और सार की समझ हासिल की। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "मसीह-विरोधी सत्य का अनुसरण करने वालों के विरुद्ध जिन तमाम साधनों का इस्तेमाल करते हैं, उनके पीछे इरादे और मकसद होते हैं। परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करने का प्रयास करने के बजाय, उनका मकसद अपनी ताकत और रुतबा बचाना, साथ ही परमेश्वर के चुने हुए लोगों के दिल में अपनी जगह और छवि की रक्षा करना होता है। ये तरीके और व्यवहार परमेश्वर के घर के कार्य में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते हैं और कलीसियाई जीवन पर भी इनका विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। क्या यह एक मसीह-विरोधी के कुकर्मों की सबसे आम अभिव्यक्ति नहीं है? इन बुरे कामों के अलावा, मसीह-विरोधी कुछ और भी करते हैं जो और अधिक घृणित है, वे हमेशा यह पता लगाने की कोशिश में लगे रहते हैं कि सत्य का अनुसरण करने वालों पर हावी कैसे हुआ जाए। उदाहरण के लिए, यदि कुछ लोगों ने व्यभिचार किया है या कोई अन्य अपराध किया है, तो मसीह-विरोधी उन पर हमला करने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं, उनका अपमान करने, उन्हें उजागर और उनकी बदनामी करने के अवसर ढूँढ़ते हैं, उन्हें अपना कर्तव्य निभाने में हतोत्साहित करने के लिए उन पर ठप्पा लगाते हैं ताकि वे नकारात्मक हो जाएँ। मसीह विरोधी परमेश्वर के चुने हुए लोगों को भी मजबूर करते हैं कि वे उनके साथ भेदभाव करें, उनसे किनारा कर लें और उन्हें नकार दें, ताकि सत्य का अनुसरण करने वाले अलग-थलग पड़ जाएं। अंत में, जब सत्य का अनुसरण करने वाले सभी लोग नकारात्मक और कमजोर महसूस करने लगते हैं, सक्रिय रूप से अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर पाते, और सभाओं में भाग लेने के इच्छुक नहीं रह जाते, तब मसीह-विरोधी अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं। जब सत्य का अनुसरण करने वाले उनकी हैसियत और ताकत के लिए खतरा नहीं रह जाते, जब कोई उन्हें रिपोर्ट करने या उन्हें बेनकाब करने का साहस नहीं करता, तो मसीह-विरोधी सुकून महसूस करते हैं। ... मसीह-विरोधियों की वो कौन-सी सोच है जिससे वे ऐसी दुष्टता कर पाते हैं? 'यदि सत्य का अनुसरण करने वाले अक्सर उपदेश सुनेंगे, तो एक न एक दिन वे मेरे कार्यों की असलियत जान जाएँगे, और फिर वे निश्चित रूप से मुझे बेनकाब कर हटा देंगे। जब तक वे अपना कर्तव्य निभाएंगे, तब तक मेरी हैसियत, प्रतिष्ठा और सम्मान खतरे में रहेंगे। इसलिए पहले प्रहार करना बेहतर है, मौका मिलते ही उन्हें परेशान करना चाहिए, उनकी निंदा करनी चाहिए और उन्हें निष्क्रिय बना देना चाहिए, ताकि उनमें अपने कर्तव्यों का पालन करने की इच्छा ही न रहे। मसीह-विरोधी अगुआओं, कर्मियों और सत्य की खोज करने वालों में झगड़ा करवाते हैं, ताकि अगुआ और कर्मी उनसे घृणा करें, उनसे बचें, उन्हें महत्व या तरक्की देना बंद कर दें। इस तरह, उन्हें सत्य का अनुसरण करने या अपने कर्तव्यों का पालन करने में कोई रुचि नहीं रहेगी। सत्य का अनुसरण करने वालों का निष्क्रिय बने रहना ही अच्छा है।' मसीह-विरोधी इसी मकसद को हासिल करना चाहते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'सत्य का अनुसरण करने वालों को वे निकाल देते हैं और उन पर आक्रमण करते हैं')। परमेश्वर का वचन पढ़कर, मैं समझ सकी कि मसीह-विरोधी सत्ता को जीवन मानते हैं और उन्हें रुतबे की जबरदस्त चाह होती है। उन्हें फिक्र होती है कि सत्य का अनुसरण करनेवाले लोग इसे समझ लेंगे, इसका भेद जान लेंगे, भाई-बहनों का साथ और स्वीकृति हासिल कर लेंगे, इसलिए अपने पद और सत्ता को मजबूत करने के लिए, मसीह-विरोधी जान-बूझकर सत्य का अनुसरण करनेवालों पर हमला करने और उन्हें नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं, ताकि वे उन्हें नकारात्मक बना सकें, उनका आत्मविश्वास गिरा सकें, और वे अपना काम सही ढंग से न कर पाएं। इस तरह वे सत्ता में बने रह सकते हैं, फैसले कर सकते हैं। मुझे एहसास हुआ कि शिन रैन यही करती थी। वह हमेशा हमारी कमियाँ निकालती, निराशावाद और व्यंग्य से हमारी समस्याओं को दबोच लेती, और जान-बूझकर हमारे भाई-बहनों के सामने हमें शर्मिंदा करती और नीचा दिखाती, जिससे हमें लगता कि हम व्यावहारिक कार्य नहीं कर सकते, और हम कमजोर होकर अपना काम करने में असमर्थ हो जाते। उसने जो खुली चिट्ठी लिखी, बेतुकी समझ और मनमाने ढंग से काम करने के आरोपों से मुझे नीचा दिखाकर जो मेरी निंदा की, उससे लगा जैसे उसने मुझ पर ही हमला किया था। तब से मैं उससे बुरी तरह डरी हुई थी। मुझे बहुत डर था कि अगर किसी बात पर मैं उससे सहमत न रहूँ, तो वह सबके सामने मुझे फिर से नीचा दिखाएगी, फटकार लगाएगी, इसलिए मैंने उसका अनुसरण करने की भरसक कोशिश की, उसे दोबारा नाराज करने की हिम्मत नहीं की, फिर से उसकी इच्छा के खिलाफ जाने, या उसे समझने और उजागर करने की हिम्मत नहीं की। यही तरीके उसने उपयाजकों के साथ भी अपनाए, ताकि सभी सिर झुकाकर सोचें कि उन्हें आत्मचिंतन करने की जरूरत है, ताकि कोई भी उसे न समझ सके, सभी उससे लाचार होकर उसकी बात सुनें, और कोई भी उसके फैसलों पर आपत्ति जताने की हिम्मत न करे। इसी तरीके से उसने अकेले सत्ता संभालने का अपना लक्ष्य हासिल किया। शिन रैन की कथनी और करनी खास तौर पर बुरी, धूर्त और दुष्ट थी। उसकी कथनी और करनी ठीक मसीह-विरोधी जैसी थी।
मैंने यह भी सोचा, हम सब उससे दबे हुए थे, तो फिर हम उसे आदर से क्यों देखते थे और आखिर उसी की बात क्यों सुनते थे, उसकी गैर-मौजूदगी में हम फैसले करने की हिम्मत क्यों नहीं रखते थे? उसने हम लोगों को इस हद तक कैसे धोखा दिया, कैसे हम पर काबू किया? फिर, मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश पढ़ा। "मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों को नियंत्रित करने का सबसे आम लक्षण यह है कि उनके नियंत्रण के दायरे में, अकेले उन्हीं की चलती है। मसीह-विरोधी की गैर-मौजूदगी में, कोई और अपना मन बनाने या निर्णय लेने की हिम्मत नहीं कर सकता है। यदि मसीह-विरोधी मौजूद न हो, तो बाकी लोग बिन माँ के बच्चों की तरह होते हैं। उन्हें पता नहीं होता कि कैसे प्रार्थना या खोज करें, न ही यह पता होता है कि चीजों पर साथ मिलकर चर्चा कैसे करें। वे कठपुतलियों या मृत लोगों की तरह होते हैं। हम इसके विस्तार में नहीं जाएंगे कि लोगों को नियंत्रित करने के लिए मसीह-विरोधी किस प्रकार के भाषण का उपयोग करते हैं। उनके पास निश्चित रूप से कहावतें और तरीके होते हैं और इसके द्वारा प्राप्त परिणाम उनके अधीन लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों में परिलक्षित होते हैं। ... उदाहरण के लिए, यदि तुम कोई उचित सुझाव देते हो, तो सभी को उस सही योजना पर संगति करना जारी रखना चाहिए। यह सही मार्ग है, अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा और जिम्मेदारी है। लेकिन मसीह-विरोधी सोचने लगेगा, 'तुम्हारी योजना मेरे दिमाग में क्यों नहीं आई?' मन में वे यह तो मानते हैं कि योजना सही है, लेकिन क्या वे इसे स्वीकारेंगे? अपनी प्रकृति के कारण, वे तुम्हारे सही सुझाव को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। वे पक्का तुम्हारी योजनाओं को नकारने का प्रयास करेंगे और कोई दूसरी योजना सामने रखेंगे। वे तुम्हें एहसास कराएंगे कि तुम्हारी योजना पूरी तरह से अव्यावहारिक है, जिससे तुम्हें लगेगा कि तुम मसीह-विरोधी को नहीं छोड़ सकते, तुम्हें लगेगा कि जब मसीह-विरोधी काम करेगा, तभी किसी और को निभाने के लिए भूमिका मिलेगी, उनके बिना कोई काम अच्छे से नहीं हो सकता, मसीह-विरोधी के बिना बाकी सभी लोग बेकार हैं और कुछ नहीं कर सकते। मसीह-विरोधी जब कुछ करते हैं तो उनके तरीके गैर-परंपरागत और आडंबरी होते हैं। दूसरों का सुझाव कितना भी सही क्यों न हो, वे उसे हमेशा अस्वीकार कर देते हैं। भले ही उस व्यक्ति का सुझाव उनके विचारों के अनुरूप हो, यदि मसीह विरोधी ने पहले उसे प्रस्तावित नहीं किया है, तो वे निश्चित रूप से उसे स्वीकार या लागू नहीं करेंगे। मसीह-विरोधी तब तक सुझाव को तुच्छ बताने, उसे अस्वीकार करने और उसकी निंदा करने का भरसक प्रयास करेगा, जब तक कि जिस व्यक्ति ने उसे प्रस्तुत किया है, वह यह मानकर अपने ही विचार को अस्वीकार न कर दे कि वह गलत है। तब कहीं जाकर मसीह विरोधी को चैन मिलता है। मसीह-विरोधी खुद को ऊँचा उठाना और दूसरों को नीचा दिखाना पसंद करते हैं ताकि लोग उनकी पूजा करें और उन्हें चीजों के केंद्र में रखें। मसीह-विरोधी केवल खुद को आगे बढ़ाते हैं और दूसरों को अपने पीछे रखते हैं ताकि वे स्वयं दूसरों से अलग दिखाई दें। मसीह-विरोधी मानते हैं कि वे जो कुछ भी कहते और करते हैं, वह सही है और बाकी लोग जो कुछ कहते और करते हैं, वह गलत है। वे अक्सर अन्य लोगों के विचारों और अभ्यासों को नकारने के लिए नए दृष्टिकोण पेश करते हैं, दूसरों की राय में मीनमेख निकालकर समस्याएँ ढूँढ़ते हैं और लोगों की योजनाओं को बाधित करते या नकारते हैं, ताकि हर कोई उनकी बात सुने और उनके तरीकों के अनुसार कार्य करे। वे इन तरीकों और साधनों का उपयोग तुम्हें लगातार नकारने, तुम पर हमला करने और तुम्हें यह महसूस कराने के लिए करते हैं कि तुम अच्छे नहीं हो, ताकि तुम उनके अधीन होते चले जाओ, उनका सम्मान और उनकी प्रशंसा करो, जब तक कि तुम पूरी तरह से उनके नियंत्रण में नहीं हो जाते। यही वह प्रक्रिया है जिससे मसीह-विरोधी लोगों को अपने वश में और उन्हें नियंत्रित करते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों को भ्रमित करने, फुसलाने, धमकाने और नियंत्रित करने का काम करते हैं')। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मेरे दिल में उजाला हो गया। पहले, जब शिन रैन हमारे नजरिए को नकारती थी, तो मैं बस सोचती कि वह घमंडी है, मगर मैं उसके इरादों और उसके कर्मों की प्रकृति को नहीं समझ सकी थी। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद ही मैं समझ पाई कि हर बार जब शिन रैन हमारे नजरिए को नकारती थी, तो वह हमारे नजरिए की समस्याएँ दिखाने और उन्हें काटने में माहिर थी, जिससे हम महसूस करते कि शायद हमारी सलाह उचित नहीं थी। फिर वह इस आधार पर कोई विचार तैयार कर लेती या कोई ऊंचा सिद्धांत बता देती, और थोड़ी देर बाद, हमें लगता हम उससे हीन थे, और सोचते कि उसमें चीजों को गहराई से देखने की समझ है। हम न सिर्फ उसे समझने में कामयाब नहीं हुए बल्कि उसकी और ज्यादा सराहना करते रहे, जब तक कि आखिरकार हमने खुद को अपने-आप ठुकरा नहीं दिया। हम महसूस करते कि हमारे विचार और सुझाव बुनियादी रूप से बेकार थे, उनका जिक्र करना बेकार था, और हमें बस उसी की बात सुन लेनी चाहिए। इस तरह, उसने लोगों के विचारों को कब्जे में करने का अपना लक्ष्य हासिल कर लिया था। इस कब्जे में बहुत समय रहने के बाद, जब हमारे साथ कुछ घटता, तो हमने सत्य खोजना और सोचना बंद कर दिया। अंत में, हमने अपनी सोच खो दी, हम कठपुतलियाँ बन गए, अपने काम में बिल्कुल बेकार हो गए। अब मैं समझ गई कि यह एक तरीका था जो मसीह-विरोधी लोगों पर हावी होने और उन्हें कब्जे में करने के लिए इस्तेमाल करते थे। शिन रैन ने हमें काबू में करने के लिए इस तरीके का इस्तेमाल किया, ताकि हम उसकी बात सुनें, उसकी आज्ञा मानें। शिन रैन इतनी ज्यादा कपटी, धूर्त और दुष्ट थी!
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "यदि कोई व्यक्ति होशियार है, षड्यंत्र के तहत काम और बातें करता है और दुर्जेय है, और जब तुम उसके साथ होते हो, तो वह हमेशा तुम्हें नियंत्रित और प्रबंधित करना चाहता है, तो मन ही मन तुम ऐसे व्यक्ति को उदार-हृदय कहोगे या शातिर? (शातिर।) तुम उससे डर जाओगे और सोचोगे, 'यह व्यक्ति हमेशा मुझे नियंत्रित करना चाहता है। मुझे जितनी जल्दी हो सके इससे दूर हो जाना चाहिए। यदि मैं इसकी बात न मानूँ, तो यह मुझे चुपके से नुकसान पहुँचाने का कोई तरीका सोच लेगा और शायद मुझे दंडित भी करे।' तुम उसके शातिर स्वभाव को समझ सकते हो, है न? (हाँ।) कैसे समझ सकते हो? (ऐसे लोग हमेशा दूसरों से अपनी माँगों और विचारों के अनुसार काम करवाते हैं।) अगर वे लोगों से इस तरह से काम करवाते हैं तो क्या यह माँग गलत है? ऐसे लोगों का अपनी इच्छा के अनुसार काम करवाना क्या वाकई गलत है? क्या यह तर्क सही है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) तुम उनके तरीकों से असहज हो जाते हो या स्वभाव से? (उनके स्वभाव से।) सही है, उनका स्वभाव तुम्हें असहज कर देता है और एहसास कराता है कि यह स्वभाव शैतान की ओर से आता है, सत्य के अनुरूप नहीं है, तुम्हें परेशान करने तथा नियंत्रित करने वाला और बाध्यकारी है। यह न केवल तुम्हें असहज करता है, बल्कि तुम्हें मन ही मन डराता है। तुम्हें यह सोचने पर मजबूर करता है कि यदि तुम उनका कहा नहीं मानोगे, तो संभव है कि वे तुम्हें 'सीधा' कर देंगे। ऐसे व्यक्ति का स्वभाव बहुत ही शातिर होता है! वे कुछ भी यूँ ही नहीं कहते—वे तुम्हें नियंत्रित करना चाहते हैं। वे तुम्हारे सामने मुश्किल माँगें रखते हैं और उन माँगों को खास ढंग से पूरा करने को कहते हैं। यह एक निश्चित प्रकार का स्वभाव दर्शाता है। वे तुमसे सिर्फ कोई काम करने को ही नहीं कहते, बल्कि वे तुम्हारे पूरे अस्तित्व को ही नियंत्रित करना चाहते हैं। यदि वे तुम्हें नियंत्रित कर लेते हैं, तो तुम उनकी कठपुतली, उनकी गुड़िया बन जाओगे और फिर वे तुम्हें जैसा चाहेंगे नचाएँगे। जब तुम जो कहना चाहते हो, जो करते हो और तुम्हारे काम का तरीका, पूरी तरह उन पर निर्भर करता है, तो उन्हें खुशी मिलती है। जब तुम ऐसा स्वभाव देखते हो, तो तुम मन में क्या महसूस करते हो? (मुझे डर लगता है।) और जब तुम्हें डर लगता है, तो तुम उनके इस स्वभाव को कैसे परिभाषित कर सकते हो? क्या यह जिम्मेदारी वाला स्वभाव है, क्या यह सहृदयता है या शातिराना स्वभाव है? तुम्हें यह शातिराना लगेगा। जब तुम्हें किसी का स्वभाव शातिराना लगे, तो तुम्हें आनंद आता है, या घृणा और अरुचि होती है, भय लगता है? (घृणा, अरुचि और भय।) ये बुरी भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। जब तुम्हें घृणा, अरुचि और भय लगता है, तो तुम मुक्त और स्वतंत्र महसूस करते हो या बाध्य महसूस करते हो? (बाध्य।) इस प्रकार की संवेदनाएँ और भावनाएँ कहाँ से आती हैं? ये शैतान से आती हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने स्वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है')। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गई कि मैं शिन रैन से इतना ज्यादा क्यों डरती थी, और उसकी अवहेलना या विरोध करने की हिम्मत क्यों नहीं करती थी। खासकर इसलिए कि जब शिन रैन मेरा निपटान करती या मुझे नकारती, तो उसका स्वभाव बहुत क्रूर होता, जिससे मैं लाचार और दबी हुई महसूस करती। लगता, अगर मैंने उसकी बात नहीं मानी, तो वह मुझे दबाकर दंड देगी। वास्तव में, मैं उसके क्रूर स्वभाव के कब्जे में थी। शिन रैन अपने क्रूर स्वभाव से हम पर हमला कर हमें नीचा दिखाती, जानबूझ कर खामियां निकालती और हमारे विचारों को नकारती। उसका इरादा हमसे समझौता करवाने का था ताकि आखिरकार हम उसकी कठपुतलियाँ बन जाएँ। यह सबसे अपनी बात मनवाने और अवज्ञा ख़त्म करने के लिए था, और इस तरह उसे पूर्ण सत्ता हथियाने का अपना लक्ष्य पूरा करना था। काबू में करने की उसकी आकांक्षा बहुत मजबूत थी।
फिर, उपयाजकों और मैंने साथ मिलकर परमेश्वर के वचनों पर संगति की। हम जितना ज्यादा बोलीं, हमारे दिल उतने ही उजले हो गए। हमने शिन रैन के छल करने, कब्जा करने और हमें दबाने के तरीकों की थोड़ी समझ हासिल की, हमने समझा कि शिन रैन की प्रकृति घमंडी और क्रूर थी। अपना पद और सत्ता मजबूत करने के लिए, उसने लोगों को दबाने और उन्हें कब्जे में करने के तरीके अपनाए। वो चाहती थी कि भाई-बहनों के बीच उसी की बात मानी जाए। अक्सर सिद्धांतों का उल्लंघन और मनमानी करने के कारण, वह कलीसिया के कार्य में बाधा डालती और उसे नुकसान पहुँचाती। कई बार उजागर करने और संगति करने के बावजूद, उसने न तो कोई बात मानी और न ही समझकर प्रायश्चित किया। परमेश्वर के वचन के आधार पर, हम निश्चित रूप से समझ सके कि शिन रैन मसीह-विरोधी थी, और उसे बर्खास्त कर, निरीक्षण के लिए अलग-थलग किया जाना ज़रूरी है। इसलिए, हम लोगों ने उसी दिन अपना संकल्प अपने वरिष्ठों तक पहुँचा दिया, फिर, जाँच-पड़ताल और पुष्टि के बाद, उन्हें शिन रैन के बुरे कर्मों का पता चला, तो उन्होंने तय किया कि वह मसीह-विरोधी थी और उसे निकाल बाहर किया। उसे निकाल दिए जाने के बाद, भाई-बहन बहुत खुश थे। हम समझ पाए कि परमेश्वर धार्मिक है और परमेश्वर के घर में सत्य का शासन होता है। साथ ही, मुझे खेद और पछतावा भी हुआ। मुझे एहसास हुआ कि मेरी अपनी प्रकृति छली और स्वार्थी थी, और अपनी रक्षा करने की मेरी चाह बहुत मजबूत थी। मैं सत्य खोजने, उसे समझने और उसे उजागर करने के बजाय, उससे दबने और गुलामी सहने को तैयार थी, मैंने साफ तौर पर उसके कुकर्मों और कलीसिया के कार्य में बाधा डालने को माफ किया, जिसका अर्थ था कि उसके कुकर्मों में मैं भी हिस्सेदार थी। मैंने यह भी अनुभव किया कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में, हमें सत्य के सिद्धांतों का मान रखना चाहिए, मसीह-विरोधियों और कुकर्मियों को उजागर करना चाहिए, क्योंकि कलीसिया के कार्य की सुरक्षा करने और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने का यही एक तरीका है। परमेश्वर का धन्यवाद!
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