बीमारी और तकलीफों ने मेरा असली रंग दिखा दिया
बचपन से ही मुझे सिरदर्द की शिकायत थी, कभी-कभी दर्द इतना ज़्यादा होता था कि मैं बिस्तर पर करवट बदलती रहती थी। किशोरी होने के बाद मैंने डॉक्टर को दिखाया, उन्होंने कहा कि ये दिमाग़ी नसों में दबाव के कारण है, दवा लेनी होगी, लेकिन उनके द्वारा लिखी दवाओं के बुरे असर का पता चला, तो मैं दवा लेने से डर गई। मैं बस दर्द सहती रही। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य स्वीकार करने के बाद, अपने-आप ही मेरी हालत बहुत बेहतर हो गयी। मैंने परमेश्वर को दिल से धन्यवाद दिया। इसके बाद मैं दिल लगाकर सभाओं में भाग लेने लगी, अपना कर्तव्य निभाने लगी, सोचने लगी कि मैं एक विश्वासी हूँ, परमेश्वर ज़रूर मेरी देखभाल करेगा, जब कभी दिक्कतें आयेंगी वह रास्ता खोल देगा, मेरे परिवार को स्वस्थ और सुरक्षित रखेगा, सेहत की किसी भी समस्या से मुझे बचाएगा। बाद में मैंने अपनी नौकरी और घर छोड़ दिया, और पूरा समय अपने कर्तव्य में लगा दिया। इस तरह देखते-देखते कई साल गुज़र गये, बिना थके मैं अपना काम किए जा रही थी। लेकिन कुछ साल पहले मेरी सेहत बिगड़ने लगी, मुझे अक्सर बेहद कमज़ोरी, सीने में कसाव, और सांस फूलने की दिक्कत होने लगी। कभी-कभी सुबह मुंह खोलने की भी हिम्मत नहीं होती, क्योंकि कुछ बोलते ही मैं थक जाती, पूरी सुबह मैं निढाल रहती। पहले-पहल मैंने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, सोचा, "मेरी हालत परमेश्वर के हाथों में है। मुझे अपना कर्तव्य निभाते रहना है, कभी-न-कभी मेरी हालत सुधर जाएगी।" इस तरह दो साल बीत गये, मगर मेरी सेहत बद से बदतर होती जा रही थी। कमज़ोरी के अलावा, कभी-कभी मेरा दिल धौंकनी की तरह चलता, ठंडा पसीना बहता और मैं बहुत ज्यादा परेशान हो जाती, और मुझे तुरंत लेटना पड़ता। मैं बात तक नहीं कर पाती। सबसे ख़राब बात यह थी कि सिरदर्द फिर से सताने लगा, कभी-कभी यों लगता कि मेरी रक्तवाहिनियाँ फटने ही वाली हैं। मैंने कुछ चीनी दवाएं लीं, पर कोई फायदा नहीं हुआ। डॉक्टर के पास गई तो उसने कहा कि यह दिल में खून न पहुँचने और दिमागी नसों में दबाव की गंभीर बीमारी है। उन्होंने कहा कि अगर मेरी रक्तवाहिनियाँ फट गयीं, तो किसी भी पल मौत हो सकती है। यह सुनकर मुझे दादाजी की याद आई, जो दिमाग में खून का थक्का बनने से मरे थे, इसके अलावा, चालीस की उम्र में मेरे डैड को तीव्र दिमाग़ी रक्तस्राव हुआ था, तीन दिन बाद उनकी भी मौत हो गयी थी। अब मुझे हर समय तेज़ सिरदर्द होता रहता है। क्या किसी दिन मेरे डैड की तरह मेरी भी नसें फट जाएँगी? बरसों पहले मैंने कर्तव्य निभाने के लिए नौकरी और परिवार छोड़ दिए थे, फिर मेरी सेहत क्यों बिगड़ती जा रही है? मुझे लगा कि परमेश्वर को मेरी रक्षा करनी चाहिए। इसके बाद के दिनों में, मैं अपना काम तो कर रही थी, मगर मेरी हालत के कारण मेरा मुँह बना रहता। हालांकि मैंने प्रार्थना की, परमेश्वर की इच्छा जानने की कोशिश की और बीमारी से उबरने पर उसके वचन पढ़े, मगर जब मुझे कोई सुधार नहीं दिखा, तो प्रार्थना करने और खोजने की मेरी इच्छा खत्म हो गयी। मैं अपने परिवार के पास लौट गयी, ताकि वो मेरा इलाज कराएं, लेकिन मेरी सास ने कहा कि जिस कारखाने में मेरे पति काम करते हैं, वो दिवालिया हो चुका है, उन्होंने उसे तनख्वाह नहीं दी है। यह सुनकर मैं बहुत परेशान हो गयी। मैं सच में बीमार थी, मेरे पति नौकरी खो चुके थे, उन्हें तनख्वाह भी नहीं मिली थी। इलाज छोड़ो—अब हमारा गुज़र-बसर कैसे होगा? उन दिनों, अपनी बिगड़ती सेहत और पति की बेरोज़गारी की बात सोचकर मुझे भयानक पीड़ा होने लगी। मैंने सोचा, "मैंने अपने कर्तव्य के लिए इतना कुछ छोड़ दिया है। परमेश्वर मेरी देखभाल क्यों नहीं कर रहा है?" फिर मैंने सोचा, "मैं परमेश्वर को दोष नहीं दे सकती, मुझे समर्पण करना होगा। कौन जाने, शायद मेरे पति को अच्छी नौकरी मिल जाए, जो तनख्वाह उन्हें नहीं मिली, उसकी भरपाई हो जाए।" इसलिए मैंने प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मेरे पति को काम मिलना या न मिलना तुम्हारे हाथ में है। उनकी नौकरी मैं आपके हवाले करती हूँ...।" प्रार्थना करते समय मेरे मन में आशा की किरण थी, मैं चाह रही थी कि मेरे पति को जल्दी ही काम मिल जाए। कुछ महीने गुज़र गये, फिर भी उन्हें कोई काम नहीं मिला। मैं बहुत निराश हो गयी, मुझमें जोश नहीं रहा। देखने पर लगता था कि मैं अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, लेकिन अपनी सेहत और परिवार के बारे में सोचकर, मैं बहुत परेशान हो जाती। ऐसे मौके भी आये जब थोड़ी और मेहनत करने से मेरा काम बेहतर हो सकता था, फिर मैं सोचती, "इतना काफी है। ज़्यादा जोश दिखाने का भी क्या फ़ायदा?" इसलिए, कर्तव्य निभाने में मुझमें पहले जैसा जोश नहीं रहा। मुझे सौंपा गया काम धीमी रफ़्तार से हो रहा था, मुझमें पहले जैसी आग नहीं थी। जब मैं भाई-बहनों को उनके काम में समस्याओं से जूझते देखती, तो आगे बढ़कर उनकी मदद करने का मेरा मन नहीं होता। मेरे नकारात्मक और ढीले-ढाले रवैये से कलीसिया के कार्य पर असर पड़ने लगा, लेकिन उस वक्त मैं इतनी ज़्यादा सुन्न थी कि मुझे कुछ ग़लत नहीं लगा। अपने परिवार की हालत से मैं सचमुच बहुत दुखी थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, कुछ समय से मैं बहुत दुखी हूँ। मैं तुमसे हमेशा मांगती रहती हूँ, अपने कर्तव्य में मेरा मन नहीं लगता। मैं जानती हूँ, मुझे समर्पण करना चाहिए, पर नहीं कर पा रही, मुझे समझ नहीं आता इस सबसे कैसे उबरूं। मुझे तुम्हारी इच्छा समझने का रास्ता दिखाओ।"
प्रार्थना के कुछ ही दिन बाद, परमेश्वर के वचनों का एक अंश मेरे मन में कौंध गया : "परमेश्वर के कार्य के दौरान, आरंभ से लेकर अब तक, परमेश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए—या तुम लोग कह सकते हो, उस प्रत्येक व्यक्ति के लिए जो उसका अनुसरण करता है—परीक्षाएँ निर्धारित कर रखी हैं और ये परीक्षाएँ भिन्न-भिन्न आकारों में होती हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपने परिवार के द्वारा ठुकराए जाने की परीक्षा का अनुभव किया है; कुछ ने विपरीत परिवेश की परीक्षा का अनुभव किया है; कुछ लोगों ने गिरफ्तार किए जाने और यातना दिए जाने की परीक्षा का अनुभव किया है; कुछ लोगों ने विकल्प का सामना करने की परीक्षा का अनुभव किया है; और कुछ लोगों ने धन एवं हैसियत की परीक्षाओं का सामना करने का अनुभव किया है। सामान्य रूप से कहें, तो तुम लोगों में से प्रत्येक ने सभी प्रकार की परीक्षाओं का सामना किया है। परमेश्वर इस प्रकार से कार्य क्यों करता है? परमेश्वर हर किसी के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करता है? वह किस प्रकार के परिणाम देखना चाहता है? जो कुछ मैं तुम लोगों से कहना चाहता हूँ उसका महत्वपूर्ण बिंदु यह है : परमेश्वर देखना चाहता है कि यह व्यक्ति उस प्रकार का है या नहीं जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है। इसका अर्थ यह है कि जब परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा ले रहा होता है, तुम्हें किसी परिस्थिति का सामना करने पर मजबूर कर रहा होता है, तो वह यह जाँचना चाहता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो या नहीं जो उसका भय मानता और बुराई से दूर रहता है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें)। मुझे एहसास हो गया कि परमेश्वर सभी के लिए अलग कार्य करता है, अलग माहौल तैयार करता है। वह अलग-अलग हालात में उनके रवैये देखना चाहता है, जानना चाहता है कि क्या वे उसका भय मान और बुराई से दूर रह सकते हैं। यह घंटी मुझे जगाने के लिए थी। मेरी बीमारी बदतर होती जा रही थी, मेरे पति की नौकरी छूट गयी थी, आमदनी का कोई जरिया नहीं था। यह सब परमेश्वर की अनुमति से हुआ था। मुझे समर्पण करना होगा, सत्य खोजना और सबक सीखना होगा। लेकिन मैं न परमेश्वर की इच्छा जानने की, न गवाही देने की कोशिश कर रही थी। इसके बजाय मैं उदास थी, शिकायत कर रही थी। क्या यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध करना नहीं था? मैंने अय्यूब को याद किया, जिसके पास पहाड़ियों में भरे मवेशी थे, काफी धन-संपत्ति थी, जो छीन ली गई और उसका शरीर फोड़े से भर गया था। फिर भी, उसने कभी परमेश्वर को दोष नहीं दिया, बल्कि जमीन पर गिरकर कहा, "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है" (अय्यूब 1:21)। अय्यूब की आस्था सच्ची आस्था थी। अय्यूब के अनुभव के बारे में सोचकर मुझे शर्मिंदगी हुई। उसने परमेश्वर के इतने सारे वचन नहीं पढ़े थे, ऐसे भयानक परीक्षण के सामने भी उसने अपनी आस्था बनाये रखी और परमेश्वर की गवाही दी। लेकिन मुझे तो हरेक दिन परमेश्वर के वचनों का मार्गदर्शन और पोषण मिलता है, फिर भी मुझमें परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था और समर्पण नहीं है। बीमारी और अपने पति की बेरोज़गारी से जूझने के कारण मैं उदास होकर कुड़कुड़ाती थी। मैं बहुत अधिक विद्रोही थी!
उसी समय, प्रायश्चित के लिए तैयार होकर, मैंने समर्पण भाव से परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे प्रबुद्ध करने की विनती की ताकि मैं खुद को जान सकूं। इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं?" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान')। "परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का क्या हाल है? क्या तुमने अपना जीवन सचमुच अर्पित किया है? यदि तुम लोगों ने अय्यूब के समान परीक्षण सहे होते, तो आज परमेश्वर का अनुसरण करने वाले तुम लोगों में से कोई भी अडिग न रह पाता, तुम सभी लोग नीचे गिर जाते। और, निस्संदेह, तुम लोगों और अय्यूब के बीच ज़मीन-आसमान का अंतर है। आज यदि तुम लोगों की आधी संपत्ति जब्त कर ली जाए, तो तुम लोग परमेश्वर के अस्तित्व को नकारने की हिम्मत कर लोगे; यदि तुम्हारा बेटा या बेटी तुमसे ले लिया जाए, तो तुम चिल्लाते हुए सड़कों पर दौड़ोगे कि तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है; यदि आजीविका कमाने का तुम्हारा एकमात्र रास्ता बंद हो जाए, तो तुम परमेश्वर से उसके बारे में पूछताछ करने की कोशिश करोगे; तुम पूछोगे कि मैंने तुम्हें डराने के लिए शुरुआत में इतने सारे वचन क्यों कहे। ऐसा कुछ नहीं है, जिसे तुम लोग ऐसे समय में करने की हिम्मत न करो। यह दर्शाता है कि तुम लोगों ने वास्तव में कोई सच्ची अंतर्दृष्टि नहीं पाई है, और तुम्हारा कोई वास्तविक आध्यात्मिक कद नहीं है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (3))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत को प्रकट किया। मुझे रत्ती भर भी शक नहीं था। मैं हर दिन अपना कर्तव्य निभाती हुई दिखती थी, लेकिन मैं अपने नीच इरादों को दिल में छिपा रही थी, सोचती थी कि मैं कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, परमेश्वर को मेरी सेहत और मेरे परिवार की रक्षा करनी चाहिए, सब कुछ अच्छा चलना चाहिए। जब मेरी मांगें और आकांक्षाएं पूरी नहीं हुईं, जब मेरे हितों पर प्रहार हुआ, तो मैंने अपनी सेहत के न सुधरने, और मेरे पति को काम न मिलने के लिए परमेश्वर को दोष देना शुरू कर दिया। यह "परमेश्वर से उसके बारे में पूछताछ करने" की इच्छा रखने से अलग कैसे है? उस वक्त मुझे एहसास हुआ कि मेरी आस्था हमेशा से आशीष पाने की इच्छा से ही चल रही थी। मुझमें आस्था सिर्फ आशीष पाने के लिए थी। "लाभ न हो तो उंगली भी न हिलाओ," "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," मैं ऐसे शैतानी ज़हर के सहारे जी रही थी। मैंने परमेश्वर के साथ सांसारिक सौदेबाजी करने की कोशिश की, आशीष पाने के अपने नीच लक्ष्य को हासिल करने के लिए, उसका और अपने कर्तव्य का इस्तेमाल किया। मैं परमेश्वर के साथ सौदा कर रही थी, उसके साथ धोखा और झगड़ा कर रही थी! परमेश्वर मुझे अपने घर लाया, हमेशा अपने वचनों से मेरा सिंचन और पोषण किया, ताकि मैं सत्य हासिल कर सकूं, अपने शैतानी स्वभाव से मुक्त हो सकूं, और परमेश्वर द्वारा बचायी जा सकूँ। लेकिन सत्य का अनुसरण करने और उसके प्रेम का प्रतिफल देने के लिए अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के बजाय, मैं जोड़-तोड़ कर रही थी, परमेश्वर को धोखा दे रही थी। मैंने परमेश्वर से तर्क करने की कोशिश की, जब मेरी इच्छाएं पूरी नहीं हुईं तो मैंने उसे दोष दिया। मैं घिनौनी और नीच थी, उसके सामने जीने के लायक ही नहीं थी। मैं सच में खुद से दिल से घृणा करने लगी, सोचने लगी कि मुझमें ज़मीर और समझ की इतनी कमी कैसे है। मैंने जंगल में भटकते शिकायत करते इस्राएलियों को याद किया। मिस्री फ़राओ के चंगुल से बचाने के लिए, वे परमेश्वर का धन्यवाद नहीं कर रहे थे, बल्कि परमेश्वर को दोष दे रहे थे कि उन्हें मांस खाने को नहीं मिला, इससे परमेश्वर का क्रोध उबल पड़ा, उसने कहा, "ये मेरे विश्रामस्थान में कभी प्रवेश न करने पाएँगे" (धर्मगीत 95:11)। आखिरकार वे जंगल में ही मर-खप गये। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के आधार पर, मेरी शिकायतों के कारण मुझे परमेश्वर से दंड मिलना चाहिए था। लेकिन परमेश्वर ने मेरा जीवन नहीं छीना। इसके बजाय, उसने वचनों से मेरा न्याय किया, मुझे उजागर कर प्रबुद्ध किया और रास्ता दिखाया, ताकि मैं आस्था के बारे में अपने गलत विचारों और आशीष पाने की अपनी घृणित प्रेरणा को समझ सकूं। उसने मुझे प्रायश्चित करने और बदलने का मौक़ा दिया। यह मेरे प्रति परमेश्वर का प्रेम और उद्धार था!
मैंने बाद में परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े, जिनसे मुझे और गहरा आत्मज्ञान हासिल करने में मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "चाहे लोग अपने मुँह से न कहें, लेकिन जब वे पहली बार परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू करते हैं, तो अपने दिलों में सोच रहे होते हैं, 'मैं स्वर्ग जाना चाहता हूँ, नरक नहीं। मैं चाहता हूँ कि न केवल मैं, बल्कि मेरा पूरा परिवार आशीष पाए। मैं अच्छा खाना खाना चाहता हूँ, अच्छे कपड़े पहनना चाहता हूँ, अच्छी चीजों का आनंद लेना चाहता हूँ। मुझे एक अच्छा परिवार, एक अच्छा पति (या पत्नी) और अच्छे बच्चे चाहिए। अंतत: मैं राजा की तरह राज करना चाहता हूँ।' सब कुछ उनकी इच्छाओं के बारे में होता है। उनका यह स्वभाव, ये बातें जो वे अपने दिलों में सोचते हैं, ये फालतू इच्छाएँ—ये सब मनुष्य के अहंकार की प्रतीक हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? बात आखिरकार लोगों की हैसियत पर आती है। मनुष्य एक सृजित प्राणी है, जो धूल से उत्पन्न हुआ है; परमेश्वर ने मिट्टी से मनुष्य को बनाया और उसमें जीवन का श्वास फूँका। मनुष्य की ऐसी निम्न हैसियत है, फिर भी लोग बहुत-सी चीजों की इच्छा लिए परमेश्वर के सामने आते हैं। मनुष्य की हैसियत इतनी निम्न है कि उसे अपना मुँह खोलकर परमेश्वर से कुछ नहीं माँगना चाहिए। तो लोगों को क्या करना चाहिए? उन्हें अंत तक लड़ना चाहिए, दूसरों के शिकंजे के लिए अभेद्य होना चाहिए, घुटने टेकने चाहिए, और खुशी से आज्ञापालन करना चाहिए। यह प्रसन्नता से विनम्रता को अपनाने का प्रश्न नहीं है; लोग इसी हैसियत के साथ पैदा होते हैं; उन्हें जन्मजात आज्ञाकारी और विनम्र होना चाहिए, क्योंकि उनकी हैसियत ही सादी है, और इसलिए उन्हें परमेश्वर से चीजों की माँग नहीं करनी चाहिए, न ही परमेश्वर से फालतू अपेक्षाएँ रखनी चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अहंकारी स्वभाव ही परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ है')। परमेश्वर के न्याय ने मुझे पूरी तरह बेपर्दा कर दिया। यह सच है—परमेश्वर सृजन का प्रभु, सभी का शासक है। वह बहुत सम्माननीय, बहुत महान है, मगर मैं परमेश्वर के हाथों धूल से बनी महज एक प्राणी हूँ। सार रूप में, मैं बहुत तुच्छ और बेकार हूँ, इसके अलावा, मैं शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट की जा चुकी हूँ, शैतानी स्वभाव से भरी हूँ, मुझमें ज़रा-भी इंसानियत नहीं है। मैं परमेश्वर से चीज़ें माँगने लायक नहीं हूँ। आज मेरा जीवित होना, परमेश्वर द्वारा दी गयी सांस लेना, परमेश्वर के अनुग्रह से ही तो है। लेकिन मैं घमंडी, नासमझ थी, परमेश्वर से लगातार मांग ही रही थी, सोच रही थी कि मेरी आस्था के कारण परमेश्वर को मुझे आशीष देना चाहिए, हर मोड़ पर मेरी रक्षा करनी चाहिए, ताकि मेरी सेहत बनी रहे, मैं दुर्भाग्य से मुक्त रहूँ, मेरे पति को अच्छी नौकरी मिले, ताकि किसी काम में कोई रुकावट न हो। वरना, मैं बस परमेश्वर से शिकायत करती, उसे दोष देती। मुझमें वाकई आत्मज्ञान की कमी थी, मुझमें समझ या शर्म की भावना बिल्कुल नहीं थी! उस पल मैंने खुद से नफ़रत की। मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश को याद किया : "यदि तुम हमेशा मेरे प्रति बहुत निष्ठावान रहे हो, मेरे लिए तुममें बहुत प्रेम है, मगर फिर भी तुम बीमारी, दरिद्रता, और अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के द्वारा त्यागे जाने की पीड़ा को भुगतते हो या जीवन में किसी भी अन्य दुर्भाग्य को सहन करते हो, तो क्या तब भी मेरे लिए तुम्हारी निष्ठा और प्यार बना रहेगा?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2))। मैंने एक और अंश भी पढ़ा : "परमेश्वर में अपने विश्वास में, पतरस ने प्रत्येक चीज़ में परमेश्वर को संतुष्ट करने की चेष्टा की थी, और उस सब की आज्ञा मानने की चेष्टा की थी जो परमेश्वर से आया था। रत्ती भर शिकायत के बिना, वह ताड़ना और न्याय, साथ ही शुद्धिकरण, घोर पीड़ा और अपने जीवन की वंचनाओं को स्वीकार कर पाता था, जिनमें से कुछ भी परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम को बदल नहीं सका था। क्या यह परमेश्वर के प्रति सर्वोत्तम प्रेम नहीं था? क्या यह परमेश्वर के सृजित प्राणी के कर्तव्य की पूर्ति नहीं थी? चाहे ताड़ना में हो, न्याय में हो, या घोर पीड़ा में हो, तुम मृत्यु पर्यंत आज्ञाकारिता प्राप्त करने में सदैव सक्षम होते हो, और यह वह है जो परमेश्वर के सृजित प्राणी को प्राप्त करना चाहिए, यह परमेश्वर के प्रति प्रेम की शुद्धता है। यदि मनुष्य इतना प्राप्त कर सकता है, तो वह परमेश्वर का गुणसंपन्न सृजित प्राणी है, और ऐसा कुछ भी नहीं है जो सृष्टिकर्ता की इच्छा को इससे बेहतर ढंग से संतुष्ट कर सकता हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। इन वचनों ने मुझे सचमुच प्रेरित किया, मुझे लगा परमेश्वर ठीक मेरे सामने है, मुझसे पूछ रहा है, "अगर यह बीमारी जीवन भर तुम्हारे साथ रहे और तुम पैसे की मुश्किलें झेलती रहो, फिर भी क्या तुम दिल लगा कर अपना कर्तव्य निभाओगी?" ऐसा लगा मानो परमेश्वर उसी पल मेरे उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हो। मैंने पतरस को याद किया, जो एक मछुआरा था। कभी-कभी दिन भर काम करने पर भी उसे एक मछली न मिलती, लेकिन उसने अपनी कमी के लिए परमेश्वर से कभी शिकायत नहीं की, क्योंकि वह भौतिक धन-दौलत के पीछे नहीं भाग रहा था, बल्कि वह परमेश्वर को जानना और उससे प्रेम करना चाहता था। आखिरकार, परमेश्वर ने उसे पूर्ण किया। लेकिन मैं बिना किसी बीमारी और तकलीफ के देह-सुख चाहती थी, और शारीरिक रूप से संतुष्ट होने पर भी मैं सत्य हासिल न कर पाती। मुझे परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलती। फिर क्या यह बेमानी नहीं होता? अविश्वासियों को देखो। वे धन और भौतिक आनंद के पीछे भागते हैं, मनचाहा सब-कुछ पा लेने के बाद भी उनमें आस्था या सत्य नहीं होता, उनका जीवन खोखला होता है, पीड़ा से भरा होता है। जब बड़ी आपदा आयेगी, तो वे उसमें डूब जाएंगे, रोयेंगे और दांत पीसेंगे। भले ही मेरे जीवन में कुछ भौतिक चीज़ों की कमी थी, मगर परमेश्वर मेरे साथ था, उसके वचन मुझे रास्ता दिखाकर मेरा पोषण कर रहे थे। अगर मैं सत्य समझ सकूं, इंसानियत के साथ जीवन जी सकूं, और अंत में परमेश्वर की स्वीकृति पा सकूं, तो इससे मुझे अपार धन से कहीं अधिक आनंद मिलेगा। इसलिए मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैं कभी बेहतर हो पाऊँ या नहीं, कभी भी मेरे जीवन में इससे उबरने का रास्ता मिले या नहीं, मैं तुम्हारे शासन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होकर अपना कर्तव्य निभाने को तैयार हूँ। अब मैं तुमसे सौदेबाज़ी नहीं करूंगी। हे परमेश्वर, मुझे शक्ति दो ताकि मैं तुम्हारी गवाही दे सकूं।" प्रार्थना के बाद मेरा दिल रोशनी और आनंद से भर गया, मैंने परमेश्वर को अपने बहुत क़रीब पाया।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिससे मुझे अभ्यास का एक मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "चाहे तुम्हारे सामने कोई भी परीक्षण क्यों न हो, तुम्हें इसे परमेश्वर द्वारा दिए गए एक बोझ के रूप में देखना चाहिए। कुछ लोगों को कोई बड़ी बीमारी और असहनीय कष्ट झेलने पड़ते हैं, और कुछ मृत्यु का भी सामना करते हैं। उन्हें इस तरह की स्थिति को कैसे देखना चाहिए? कई मामलों में परमेश्वर के परीक्षण एक बोझ होते हैं जो वह लोगों को देता है। परमेश्वर तुम्हें कितना भी भारी बोझ क्यों न दे, तुम्हें उस बोझ का भार उठाना चाहिए, क्योंकि परमेश्वर तुम्हें समझता है, और यह जानता है कि तुम वह बोझ उठा पाओगे। परमेश्वर तुम्हें जो बोझ देता है, वह तुम्हारी कद-काठी, या तुम्हारी सहनशक्ति की अधिकतम सीमा से अधिक नहीं होगा; इसलिए तुम निश्चित रूप से उसे वहन करने में सक्षम होगे। परमेश्वर चाहे तुम्हें किसी भी तरह का बोझ या किसी भी तरह का परीक्षण दे, एक बात याद रखो : प्रार्थना करने के बाद चाहे तुम परमेश्वर की इच्छा को समझ पाओ या नहीं, चाहे तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन और प्रकाश प्राप्त कर पाओ या नहीं; और इस परीक्षण द्वारा परमेश्वर चाहे तुम्हें अनुशासित कर रहा हो या तुम्हें चेतावनी दे रहा हो, अगर तुम इसे नहीं समझ पाते हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर तुम अपना वह कर्तव्य निभाना नहीं छोड़ते, जो तुम्हें अवश्य निभाना चाहिए, और निष्ठापूर्वक उसका निर्वाह करते रहते हो, तो परमेश्वर तुमसे संतुष्ट रहेगा और तुम अपनी गवाही में मजबूती से खड़े रहोगे। ... अगर परमेश्वर में अपनी आस्था और सत्य की खोज में तुम यह कहने में सक्षम हो, 'परमेश्वर कोई भी बीमारी या अप्रिय घटना मेरे साथ होने दे—परमेश्वर चाहे कुछ भी करे—मुझे आज्ञापालन करना चाहिए, और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर रहना चाहिए। अन्य सभी चीजों से पहले मुझे सत्य के इस पहलू—आज्ञापालन—को अभ्यास में लाना चाहिए, मैं इसे कार्यान्वित करता हूँ और परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता की वास्तविकता को जीता हूँ। साथ ही, परमेश्वर ने जो आदेश मुझे दिया है और जो कर्तव्य मुझे निभाना चाहिए, मुझे उनका परित्याग नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।' क्या यह गवाही देना नहीं हुआ? जब तुम्हारा इस तरह का संकल्प होता है और तुम्हारी इस तरह की अवस्था होती है, तो क्या तब भी तुम परमेश्वर की शिकायत कर सकते हो? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य के बारंबार चिन्तन से ही मार्ग मिलता है')। इस पर विचार करने से समझ सकी कि अपनी बीमारी और घर की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के आगे मुझे समर्पण करना चाहिए। मेरी सेहत चाहे सुधरे या बहुत बिगड़ जाए, मुझे अपना कर्तव्य निभाते रहना होगा, परमेश्वर की गवाही देनी होगी।
उसके बाद, मैं अभी भी अपनी सेहत की लड़ाई लड़ रही थी, घर पर भी कुछ नहीं बदला था, लेकिन मेरे मन में कोई नाराज़गी नहीं थी। कभी-कभी जब मुसीबत बढ़ जाती, मेरे सीने में कसाव महसूस होता, सांस फूलने लगती, और ज़बरदस्त सिरदर्द होने लगता, तब मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती, "हे परमेश्वर, मेरी सेहत के साथ चाहे जो हो, मैं समर्पण करने को तैयार हूँ। भले ही यह मेरी बिल्कुल आख़िरी साँस हो, मैं अपना कर्तव्य निभाऊंगी, और तुम्हें संतुष्ट करने के लिए गवाही दूंगी।" प्रार्थना के बाद, मुझे अपने दिल में शक्ति का अनुभव होता और दर्द कम होने लगता। अचरज की बात थी कि जब मैंने अपना सबक सीख लिया, तो कुछ समय बाद मेरी सेहत में धीरे-धीरे सुधार होने लगा, बीमारी के दौरे कम होते गये। मेरे पति को भी एक नौकरी मिल गयी। इस अनुभव ने मुझे सिखाया कि परमेश्वर का कार्य हमारी धारणाओं के अनुरूप हो या न हो, वह सब हमें स्वच्छ और शुद्ध करने के लिए होता है। बीमार होने से मैंने शारीरिक कष्ट झेला है, लेकिन यह मेरे जीवन के लिए बहुत फायदेमंद है। अपने अनुसरण में मैं अपने इस गलत नज़रिये को सुधार पायी। मैं परमेश्वर के उद्धार के लिए उसका धन्यवाद करती हूँ!
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