एक झूठे अगुआ की रिपोर्ट करने की कहानी

24 जनवरी, 2022

ल्यू यांग, दक्षिण कोरिया

2010 में, कलीसिया में मैं संपादन का काम कर रही थी। कलीसिया की एक अगुआ, मिस ली से चर्चा के दौरान, मुझे पता लगा कि परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के कुछ ही महीनों में उसे अगुआ चुन लिया गया था। वह हमसे अक्सर कहती, "पिछले कुछ वर्षों में, परमेश्वर ने मुझ पर बहुत दया की है। मेरे अगुआ हमेशा मुझे उन कलीसियाओं में भेज देते हैं, जो मुश्किलों से जूझ रही होती हैं। कभी-कभी मैं नहीं जाना चाहती, मगर जानती हूँ कि यह परमेश्वर का आदेश है, इसलिए मुझे अपने देह-सुख पर ध्यान न देकर, उसके प्रति वफादार रहना होगा। इसलिए मैं स्वीकार लेती हूँ। मैं कलीसिया में जाकर दौरे करती हूँ, जिससे कलीसिया का अस्तव्यस्त माहौल सामान्य हो जाता है, कलीसिया का जीवन और सुसमाचार का कार्य दोबारा असरदार हो जाते हैं। कभी-कभार मुश्किलों से सामना होने पर, मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती हूँ, और वह आगे का एक रास्ता खोल देता है, सब-कुछ आसान हो जाता है। मैं देख पाती हूँ कि परमेश्वर का कार्य बहुत अद्भुत है ..." उस वक्त, मिस ली का अनुभव सुनकर मैं उसे सराहने लगी। मुझे लगा कि वह बोझ उठाने में सक्षम है, एक काबिल कार्यकर्ता है। मुझे याद है, एक बार एक बैठक से पहले, मैं यूं ही बातें कर रही थी, कि मिस ली ने मेरी बात काटकर कहा, "यहाँ समय अनमोल है, इसलिए बैठकों में हम बातें न करें। आइए परमेश्वर के वचनों पर संगति कर समय का सदुपयोग करें।" उसकी बात सुनकर मुझे थोड़ी शर्मिंदगी तो हुई, मगर मैंने उसकी और अधिक सराहना की। मैंने सोचा, "इतने सालों में, मैं बहुत-से अगुआओं से मिली, लेकिन मिस ली पहली है, जो इतनी गंभीर और पवित्र है, सत्य का अनुसरण करने के प्रति समर्पित है।" मैं उसे आदर से देखकर उसे और सराहने लगी। लेकिन उसके साथ लंबे समय तक बातचीत करके, मुझे एहसास हुआ कि हालांकि उसकी संगति हमेशा बहुत तर्कसंगत होती है, और बाहर से सत्य का अनुसरण करने वाली लगती है, मगर इस पर संगति कम करती है कि परमेश्वर के वचनों के आधार पर आत्मचिंतन करके उसने खुद को कैसे जाना, या परमेश्वर के वचनों का उसका व्यवहारिक अनुभव क्या है। ज़्यादातर संगतियों में वह खुद को उठाती और दिखावा करती है, जिससे दूसरे समझें कि उसे परमेश्वर के घर द्वारा विकसित कर महत्वपूर्ण भूमिकाएं दी जाती हैं, और वे उसका आदर करें। लेकिन उससे भी ज़्यादा गंभीर यह सच्चाई है कि परमेश्वर के घर के हितों से जुड़े कुछ अहम मसलों में वह सत्य का अभ्यास नहीं करती थी, पूरे होशो-हवास में, झूठ बोलती और धोखा देती थी, ज़िम्मेदारी से बचकर खुद को बचाती थी। मुझे याद है कि एक बार, मिस ली के काम के प्रभारी मिस्टर सुन ने कलीसिया में गलत काम किये। उसने परमेश्वर के चढ़ावों का गबन कर लिया। फिर एक मसीह-विरोधी कहकर उसे निकाल दिया गया। मिस ली को मिस्टर सुन के कामों की जानकारी थी, और वह भी उन कामों में हिस्सेदार थी। लेकिन मिस्टर सुन के निष्कासन के बाद, जब हम लोगों ने सुन के बुरे कर्मों की के बारे में बात की, तो मिस ली ने न सिर्फ सुन की दुष्टता में शामिल होने से इनकार किया, बल्कि उसने न आत्मचिंतन किया, न प्रायश्चित किया, और उसने यूं दिखाया जैसे इस मामले में वह पूरी तरह से निर्दोष है, मानो उसे कुछ भी नहीं मालूम और इसमें उसकी कोई भूमिका न हो। उस वक्त मुझे पता चला कि मिस ली बोलती कुछ है और करती कुछ और है। वह ढोंगी है। मिस ली भेष बदलने और बड़ी-बड़ी बातों से धोखा देने में माहिर थी, इसलिए उसके नाम के ज़िक्र भर से भाई-बहनों के चेहरों पर सराहना और आराधना का भाव उभर जाता था। जब मेरी पार्टनर और मैंने मिस ली के बर्ताव और उसके कार्य और संगति के नतीजे देखे, तो हमने झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पहचानने के सिद्धांत लगाकर, यह तय किया कि मिस ली एक झूठी अगुआ है, और अपने अगुआओं को एक पत्र लिखकर मिस ली की इन बातों की रिपोर्ट की।

पत्र भेजने के बाद, हमने प्रतीक्षा की कि हमारे अगुआ मिस ली के बारे में दी गयी हमारी जानकारी की जांच करेंगे, लेकिन पंद्रह दिन बाद भी हमें कोई जवाब नहीं मिला। मेरी पार्टनर और मैं इस बारे में सोचते रहे, कि एक दिन मिस ली खुशी-खुशी हमारे साथ एक बैठक में आ पहुँची, और बोली कि अगुआ उसे विकसित करना चाहते हैं। मुझे यकीन नहीं हुआ। मैंने सोचा, "बर्खास्त करने के बजाय इस झूठी अगुआ को विकसित कर महत्वपूर्ण भूमिकाएँ दी जा रही हैं? सत्य के सिद्धांतों को न समझ पाने और विवेक की कमी के कारण हमने उसकी गलत रिपोर्ट तो नहीं दे दी?" महीने भर बाद मिस ली दोबारा आ पहुँची, कहने लगीं कि कलीसिया नये अगुआ चुनने की योजना बना रही है, और ज़्यादातर भाई-बहनों ने उसका सकारात्मक आकलन किया है, वे उसे अगुआ चुनना चाहते हैं। यह सुनकर मैं चौंक गयी। मैंने सोचा, "मिस ली कुटिल और चालाक है। वह बिल्कुल अगुआ बनने लायक नहीं है। मुझे मिस ली की रिपोर्ट करने के लिए एक और पत्र लिखना चाहिए।" लेकिन पत्र लिखते वक्त मैं झिझकने लगी। उस मुकाम पर, बहुत-से लोग मिस ली को नहीं जान पाये थे और उसके बाहरी झूठे रूप से धोखा खा चुके थे। अगर मैंने उसकी रिपोर्ट करने के लिए दोबारा पत्र लिखा, और हमारे अगुआ असली हालात नहीं समझ पाए, तो क्या उन्हें लगेगा कि मैं मिस ली से बैर करती हूँ? और फिर मिस ली को पता चल गया कि वह पत्र मैंने लिखा है, तो क्या वह बुरा मान जाएगी और चोरी-छिपे मुझे नुकसान पहुंचायेगी? इसके अलावा, परमेश्वर के वचनों की क़िताबें, उपदेश, संगतियाँ, तमाम चीज़ें हमें उसी के हाथ से मिलती हैं, अगर हमने उसे नीचा दिखाया, तो उसे हमें दबाने की सक्रिय कोशिश नहीं करनी होगी, हमें मुश्किल में डालने के लिए सिर्फ हमें नज़रअंदाज़ करना काफी होगा। ये सब सोचकर मैं बहुत उलझन में पड़ गयी। मैं दोबारा उसकी रिपोर्ट करूँ, या फिर उसे भूल जाऊँ? अपने निजी हितों, भविष्य और भाग्य की सोचकर, लगा जैसे कोई अनदेखी काली छाया मुझे बांधकर रोक रही है। उसके दमन से खुद को बचाने के लिए, मैंने थोड़ा संघर्ष किया, और आखिर में, मैंने समझौता करने का फैसला किया। मैंने उस पल उसकी रिपोर्ट न करने का फैसला किया। मैंने खुद को यह समझाकर सांत्वना दी, "कम-से-कम अब हम मिस ली को जानते हैं, उससे धोखा नहीं खायेंगे, तो फिलहाल यह ठीक है। शायद किसी दिन, परमेश्वर चीज़ें प्रकट करेगा, और सभी लोग मिस ली के बारे में जान जाएंगे और उसकी असलियत समझ लेंगे। जब वह दिन आयेगा, तो ज़ाहिर है उसे हटा दिया जाएगा।"

महीना भर ही हुआ था कि हमें दो बहनों से एक पत्र मिला। इन बहनों के पत्र में लिखा था कि वे जान गयी हैं कि मिस ली झूठी अगुआ है, और वे उसकी रिपोर्ट करना चाहती हैं, उन्होंने हमारी राय जाननी चाही, और पूछा कि क्या हमारे पास कोई सलाह है। मैंने याद किया कि किस तरह पिछली बार मिस ली की रिपोर्ट करने के बाद हमें कोई जवाब नहीं मिला था। अगर हमने फिर से उसकी रिपोर्ट की, तो क्या हमारे अगुआ कहेंगे कि हमने अगुआ पर हमला करने के लिए एक गुट बना लिया है, और कलीसिया के कार्य में बाधा पहुंचा रहे हैं? अगर ऐसा हुआ तो मिस ली के बर्खास्त होने से पहले, उसकी रिपोर्ट करने वालों को हटाकर घर भेज दिया जाएगा। यह विचार मन में लिये, मेरी पार्टनर और मैंने यह जवाबी पत्र लिखा कि "आप स्वयं उसकी सूचना दे सकती हैं। हमने पहले एक बार उसकी रिपोर्ट की थी, इसलिए हम दोबारा ऐसा नहीं करेंगे।" इस तरह जवाब देने के बाद, मुझे बहुत पछतावा हुआ। मुझे एहसास हुआ कि मैं ज़िम्मेदारी से भाग रही हूँ, खुद को बचाने के लिए पैंतरे लड़ा रही हूँ। यह एक काली छाया के आगे, कायर बन कर दुबक जाना था। अपराध-बोध से बचने और खुद को आराम पहुँचाने के लिए मैंने उसी तर्क का प्रयोग किया : "फिलहाल, बहुत-से लोग मिस ली को नहीं समझ पाये हैं। अगर हम रिपोर्ट करके उसे बर्खास्त करने की वकालत करेंगे, तो भाई-बहन ऐसा नहीं होने देंगे। वे उसे बचाने की कोशिश करेंगे। हमें भाई-बहनों में विवेक पैदा होते तक इंतज़ार करना होगा। सही समय आने पर, ज़ाहिर है, उसे हटा दिया जाएगा।" हालांकि मैंने यही सोचा, मगर जब भी मैं झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को उजागर करने के परमेश्वर के वचनों के अंश देखती, तो मेरा ज़मीर मुझे कोसता। मैं सोचती कि अगर मैंने अपने सामने के झूठे अगुआ की समस्या नहीं सुलझाई, तो क्या मैं कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी कर रहे शैतान को बर्दाश्त कर उसे बचा नहीं रही हूँ? खासतौर से जब मैं देखती कि हमारी मेज़बानी करने वाले भाई-बहन ली की सराहना करते हैं, और उसे झूठे अगुआ के रूप में उजागर करते ही, वे न सिर्फ हमें समझ नहीं पायेंगे बल्कि हमें दोष देंगे, हमसे घृणा करेंगे सोचेंगे कि हम जानबूझकर मिस ली पर हमला कर रहे हैं। जब मैंने देखा कि इस झूठे अगुआ ने लोगों को इतनी गहराई से धोखा दिया है, और मुझे पता तक नहीं कि कितने भाई-बहन इस धोखे का शिकार हैं, तो मुझे और भी लगा कि झूठे अगुआ परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश की राह का रोड़ा हैं। उस पल, मैं जल्द से जल्द मिस ली को पद से हटते हुए देखना चाहती थी, लेकिन मुझमें फिर से उसकी रिपोर्ट करने का साहस नहीं था। बस इसलिए कि मेज़बानी कर रहे भाई-बहनों को नाराज़ न कर दूँ, मैं मिस ली के व्यवहार को उजागर नहीं कर पायी। मगर मन-ही-मन मैं खुद को दोषी मानती थी। मैंने सोचा कि मैं इतनी कायर और बेकार कैसे हो सकती हूँ। मैंने एक झूठे अगुआ को कलीसिया के कार्य में बाधा पहुंचाते देखकर भी उसकी रिपोर्ट करने और सच बोलने की हिम्मत नहीं की। क्या मैं सिर्फ शैतान की गुलाम नहीं थी? मैंने परमेश्वर के वचन का अंश याद किया, "तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? क्या तुम उसके लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम मेरे लिए खड़े होकर बोल सकते हो? क्या तुम दृढ़ता से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम में शैतान के सभी दुष्कर्मों के विरूद्ध लड़ने का साहस है? क्या तुम अपनी भावनाओं को किनारे रखकर मेरे सत्य की खातिर शैतान का पर्दाफ़ाश कर सकोगे? क्या तुम मेरी इच्छा को स्वयं में पूरा होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है? स्वयं से ये सवाल पूछो और अक्सर इनके बारे में सोचो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। परमेश्वर के वचन ने जो प्रकट किया उससे मैंने शर्मिंदगी महसूस की। आम तौर पर, मैं ज़ोरों से नारे लगाते हुए कहती थी, मैं परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखूँगी और परमेश्वर की गवाही दूंगी, अक्सर प्रार्थना करती, कहती कि मैं परमेश्वर से प्रेम कर उसे संतुष्ट करना चाहती हूँ, लेकिन जब सच में कुछ हुआ और मुझे परमेश्वर के घर के हितों के लिए खड़ा होना, उनकी रक्षा करना था, तो मैं अपने खोल में दुबक गई। मुझे साफ़ तौर पर पता था कि परमेश्वर की सच्ची इच्छा झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को बाहर करने की थी, और मुझे मिस ली के बारे में मालूम था, लेकिन दमन और बर्खास्तगी के डर से, मैंने उसे कलीसिया के भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाने दिया, धोखा देने दिया, और उसकी रिपोर्ट करने की हिम्मत नहीं की। इससे भी बुरी यह सच्चाई थी कि अपनी मेज़बानी कर रहे भाई-बहनों को मिस ली से धोखा खाते देखकर भी मैंने नहीं सोचा कि झूठे अगुआ को समझने में उनकी मदद कैसे करूँ। इसके बजाय, मैंने समझौते किये। इस डर से कि मिस ली को उजागर करने से वे भाई-बहन नाराज़ हो जाएंगे और हमारी मेज़बानी नहीं करेंगे, और इसलिए कि मेरे देह-सुख को कोई नुकसान न पहुंचे, मैंने मिस ली की झूठी अगुआई के व्यवहार पर चुप्पी साध ली। मैंने अपने व्यवहार पर आत्मचिंतन किया और समझ सकी कि मैं सच में स्वार्थी और नीच हूँ। खुद की रक्षा करने के लिए, मैंने एक झूठे अगुआ को कलीसिया में सत्ता में रहने और उसके कार्य में बाधा पहुँचाने दिया, इस बारे में कुछ भी नहीं किया। मैंने परमेश्वर द्वारा मुहैया की गयी हर चीज़ का आनंद लिया, मेरे भाई-बहनों ने मेरी मेज़बानी और देखभाल की, फिर भी मैंने परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा नहीं की। मैंने यूं बर्ताव किया मानो मेरा इससे कुछ लेना-देना नहीं, यह मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है। इसे मैं ज़मीर या समझ कैसे कह सकती हूँ? मैंने अपनी दशा और बर्ताव के बारे में आत्मचिंतन किया और बहुत दोषी और शर्मिंदा महसूस किया। मैं समझ गयी कि दरअसल मैं स्वार्थी, नीच, धूर्त, और कपटी हूँ। मैं बिल्कुल भी परमेश्वर के सामने जीने लायक नहीं हूँ!

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा। "परमेश्वर का परिवार उन लोगों को बने रहने की अनुमति नहीं देता है जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं, और न ही यह उन लोगों को बने रहने की अनुमति देता है जो जानबूझकर कलीसियाओं को ध्वस्त करते हैं। हालाँकि, अभी निष्कासन के कार्य को करने का समय नहीं है; ऐसे लोगों को सिर्फ उजागर किया जाएगा और अंत में हटा दिया जाएगा। इन लोगों पर व्यर्थ का कार्य और नहीं किया जाना है; जिनका सम्बंध शैतान से है, वे सत्य के पक्ष में खड़े नहीं रह सकते हैं, जबकि जो सत्य की खोज करते हैं, वे सत्य के पक्ष में खड़े रह सकते हैं। जो लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं, वे सत्य के वचन को सुनने के अयोग्य हैं और सत्य के लिये गवाही देने के अयोग्य हैं। सत्य बस उनके कानों के लिए नहीं है; बल्कि, यह उन पर निर्देशित है जो इसका अभ्यास करते हैं। इससे पहले कि हर व्यक्ति का अंत प्रकट किया जाए, जो लोग कलीसिया को परेशान करते हैं और परमेश्वर के कार्य में व्यवधान ड़ालते हैं, अभी के लिए उन्हें सबसे पहले एक ओर छोड़ दिया जाएगा, और उनसे बाद में निपटा जाएगा। एक बार जब कार्य पूरा हो जाएगा, तो इन लोगों को एक के बाद एक करके उजागर किया जाएगा, और फिर हटा दिया जाएगा। फिलहाल, जबकि सत्य प्रदान किया जा रहा है, तो उनकी उपेक्षा की जाएगी। जब मनुष्य जाति के सामने पूर्ण सत्य प्रकट कर दिया जाता है, तो उन लोगों को हटा दिया जाना चाहिए; यही वह समय होगा जब लोगों को उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा। जो लोग विवेकशून्य हैं, वे अपनी तुच्छ चालाकी के कारण दुष्ट लोगों के हाथों विनाश को प्राप्त होंगे, और ऐसे लोग दुष्ट लोगों के द्वारा पथभ्रष्ट कर दिये जायेंगे तथा लौटकर आने में असमर्थ होंगे। इन लोगों के साथ इसी प्रकार पेश आना चाहिए, क्योंकि इन्हें सत्य से प्रेम नहीं है, क्योंकि ये सत्य के पक्ष में खड़े होने में अक्षम हैं, क्योंकि ये दुष्ट लोगों का अनुसरण करते हैं, ये दुष्ट लोगों के पक्ष में खड़े होते हैं, क्योंकि ये दुष्ट लोगों के साथ साँठ-गाँठ करते हैं और परमेश्वर की अवमानना करते हैं। वे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि वे दुष्ट लोग दुष्टता विकीर्ण करते हैं, मगर वे अपना हृदय कड़ा कर लेते हैं और उनका अनुसरण करने के लिए सत्य के विपरीत चलते हैं। क्या ये लोग जो सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं लेकिन जो विनाशकारी और घृणास्पद कार्यों को करते हैं, दुष्टता नहीं कर रहे हैं? यद्यपि उनमें से कुछ ऐसे हैं जो अपने आप को सम्राटों की तरह पेश करते हैं और कुछ ऐसे हैं जो उनका अनुसरण करते हैं, किन्तु क्या परमेश्वर की अवहेलना करने की उनकी प्रकृति एक-सी नहीं है? उनके पास इस बात का दावा करने का क्या बहाना हो सकता है कि परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता है? उनके पास इस बात का दावा करने का क्या बहाना हो सकता है कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? क्या यह उनकी अपनी दुष्टता नहीं है जो उनका विनाश कर रही है? क्या यह उनकी खुद की विद्रोहशीलता नहीं है जो उन्हें नरक में नहीं धकेल रही है? जो लोग सत्य का अभ्यास करते हैं, अंत में, उन्हें सत्य की वजह से बचा लिया जाएगा और सिद्ध बना दिया जाएगा। जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं, अंत में, वे सत्य की वजह से विनाश को आमंत्रण देंगे। ये वे अंत हैं जो उन लोगों की प्रतीक्षा में हैं जो सत्य का अभ्यास करते हैं और जो नहीं करते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैं समझ गयी कि मैं एक ऐसी इंसान थी जो परमेश्वर के वचन द्वारा प्रकाशित सत्य का अभ्यास नहीं करती। ऐसी इंसान थी जिससे परमेश्वर को घृणा है। हर बात में, मैं खुद को बचाने की कोशिश करती थी। झूठे अगुआ के सामने मेरी हिम्मत नहीं हुई कि सत्य का अभ्यास करूँ और उसकी रिपोर्ट करूँ, क्या मैं बस परमेश्वर का विरोध करने के लिए शैतान के आगे घुटने टेककर उसके साथ साँठ-गाँठ नहीं कर रही थी? ऊपर से तो, मैं मिस ली के साथ खड़ी होकर उसकी रक्षा नहीं कर रही थी, लेकिन सब कुछ जानकर भी मैंने न रिपोर्ट की, न उसे उजागर किया। मैंने उसे कलीसिया के भाई-बहनों को उलझन में डालने और धोखा देने दिया, कलीसिया के कार्य में बाधा और गड़बड़ी करने दी। ऐसा करके मैं शैतान की तरफ खड़ी होकर उसकी दुष्ट ताकतों की मदद कर रही थी। परमेश्वर के वचन में कहा गया है : "वे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि वे दुष्ट लोग दुष्टता विकीर्ण करते हैं, मगर वे अपना हृदय कड़ा कर लेते हैं और उनका अनुसरण करने के लिए सत्य के विपरीत चलते हैं। क्या ये लोग जो सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं लेकिन जो विनाशकारी और घृणास्पद कार्यों को करते हैं, दुष्टता नहीं कर रहे हैं?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी करतूतों को उजागर किया। मैंने प्रभु यीशु की बात याद की, "जो मेरे साथ नहीं वह मेरे विरोध में है, और जो मेरे साथ नहीं बटोरता वह बिखेरता है" (मत्ती 12:30)। परमेश्वर और शैतान के बीच के युद्ध में, परमेश्वर के साथ न खड़े होने का अर्थ है शैतान के साथ खड़े होना। बीच का कोई रास्ता है ही नहीं। मैं तो चालाक बनने, निष्पक्ष होने और अपनी रक्षा करने की कोशिश कर रही थी। यह शैतान का पक्ष चुनने और परमेश्वर को धोखा देने से अलग कैसे है? पहले मैं सोचती थी कि बहुत-से लोग मिस ली को नहीं समझते, लेकिन जब परमेश्वर उसे पूरी तरह प्रकट कर देगा, और सही समय आयेगा, तब उसे सहज ही हटा दिया जाएगा। ऊपर से तो यह विचार बहुत उचित लग रहा था, लेकिन असल में, मैं अपनी ज़िम्मेदारी से बच रही थी। यह सत्य का अभ्यास करने से बचने का बहाना भर था। मैंने कलीसिया में एक झूठी अगुआ की बुराई और उसके द्वारा की जा रही गड़बड़ी को माफ़ कर दिया। उस पल, मैं समझ पायी कि मेरे भाई-बहनों को झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी धोखा देकर काबू में कर लेंगे, और शैतान के प्रभाव में रहते हुए कोई छुटकारा नहीं मिल सकता। झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों द्वारा की गयी यह बुराई हम भी करते हैं जब झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को समझकर, भी उनकी रिपोर्ट या उन्हें उजागर नहीं करते। मुझे एक झूठी अगुआ का साथी कहना गलत नहीं होगा। इन सबके बारे में सोचकर मैं दुखी हो गयी। मुझे खुद से नफरत हुई कि मैं इतनी स्वार्थी, नीच, कमज़ोर और नाकाबिल हूँ। मैं एक बेकार और निकम्मी गुलाम थी! बुराई के खिलाफ जंग में मेरे पास कोई गवाही नहीं थी। मैं वैसी बन गयी थी जिससे परमेश्वर घृणा करता है! मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रायश्चित करने के लिए प्रार्थना की। मैंने परमेश्वर से ऐसी शक्ति देने की विनती की जिससे मैं झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों की काली ताकतों से निकल सकूं, परमेश्वर के साथ खड़ी हो सकूं, और शैतान की ताकतों को "ना" कर सकूं। उस वक्त, मैंने कुछ और सबूत मिलने के बाद मिस का रिपोर्ट लेटर लिखना चाहा। लेकिन ऐसा करने से पहले, कलीसिया ने जांच-पड़ताल कर तय कर दिया कि मिस ली एक झूठी अगुआ है, जिसने मसीह-विरोधी का रास्ता अपनाया है, और उसे उसके काम से हटा दिया। तभी मैं यह जान पायी कि हमारा पहला लेटर एक दूसरे झूठे अगुआ ने रास्ते में रोककर अपने पास रख लिया था। व्यावहारिक कार्य न करने के कारण उस झूठे अगुआ को भी हटा दिया गया। उस वक्त यह खबर सुनकर हमें बहुत खुशी हुई थी, मैं कर्जदार जैसा महसूस कर रही थी, खुद को दोषी भी माना, क्योंकि मैं परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा नहीं कर पायी, और इस माहौल में गवाही नहीं दे पायी थी।

मिस ली के हटा दिये जाने के बाद, कलीसिया की एक नई अगुआ ने कलीसिया का काम संभाला, मैंने सोचा कि यह इस मामले का अंत है, मगर ऐसा नहीं था। महीना भर ही हुआ था कि एक दिन, जो बहन मेरी पार्टनर थी, उसने बाहर से लौटकर मुझे बताया कि मिस ली हटा दिये जाने के बाद भी ज़िद्दी है। वह भाई-बहनों को धोखा देने और उनकी सहानुभूति पाने के लिए अभी भी धारणाएं फैला रही है, अपना एक गुट बना रही है, ताकि नई अगुआ को हटा दिया जाए और वह फिर से अगुआ का स्थान ले सके। यह सुनकर मैं भौंचक्की रह गयी। मैं क्या करना चाहिए? जल्द से जल्द, मुझे मिस ली के दुष्ट बर्ताव के बारे में अगुआओं को बताना होगा। सौभाग्य से, हमें कलीसिया के नये अगुआओं से मिलने का एक मौक़ा मिला, वे भी अपने अगुआओं को मिस ली की रिपोर्ट करने के बारे में चर्चा कर रहे थे, वे तय करने की कोशिश कर रहे थे कि हालात को स्पष्ट रूप से कैसे समझाया जाए। मैंने उनसे कहा कि हमारे लिए लेटर लिखना आसान होगा और सुझाया कि वे हमें लिखने दें, वे खुशी-खुशी राजी हो गये, अगले दिन, जब मैंने और मेरी पार्टनर ने रिपोर्ट लेटर पूरा लिख लिया, और हम उसे पुनरीक्षण और सत्यापन के लिए अगुआओं के पास भेजने की तैयारी कर रहे थे तो मेरी पार्टनर ने अचानक कहा, "लेटर पर दस्तखत कर देते हैं।" यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गयी। मैंने सिर्फ लेटर लिखने में उनकी मदद करने की सोची थी। खुद दस्तख़त करने का विचार नहीं किया था। जब मेरी पार्टनर ने यह बात कही तो खुद को बचाने की मेरी इच्छा फिर से उभर गयी। मैंने सोचा, "मिस ली और उसका गुट द्वेषपूर्ण, और चालबाज़ हैं, वे जानते हैं कि दूसरों को धोखा कैसे दें। अगर इस बार हम उन्हें बाहर निकालने में सफल नहीं हुए, और ली फिर से सत्ता हथिया कर कलीसिया की अगुआ बन गयी, तो हमारा क्या होगा? वो अपनी सत्ता द्वारा उन्हें निकाल देती है जिनसे उसे चिढ़ है, अगर उसने फिर से सत्ता पा ली, तो यकीनन वह हमें अपने काम से हटाकर घर भेज देगी, या निष्कासित कर देगी। तो क्या परमेश्वर में मेरा विश्वास रखना बेकार नहीं हो जाएगा? क्या मुझे कभी उद्धार मिल पायेगा? लेकिन लेटर पर दस्तख़त न हों, तो वह मान्य नहीं होगा, क्योंकि हमने किसी और के लिए लिखा है।" मैंने पल भर के लिए सोचा, फिर अपनी पार्टनर से कहा, "हम उनके प्रतिनिधि के रूप में दस्तखत कर देते हैं।" सच तो यह है कि मैं इस मामले से थोड़ी दूरी बनाये रखना चाहती थी, ताकि मुझे जिसका डर है वो हो भी जाए, तो मैं खुद को बचा सकूं। मेरा दमन हुआ भी तो ज़्यादा सख्ती नहीं होगी। तब, मेरी पार्टनर ने मेरा निपटान किया, "इस लेटर पर दस्तख़त करने में इतनी मुश्किल क्या है? तुम बहुत चालाक बन रही हो!" इस बात ने मेरे दिल को छलनी कर दिया। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर मेरी पार्टनर का प्रयोग कर रहा है, मेरा निपटान कर याद दिला रहा है कि खुद को न बचाऊँ या चालाकी न करूँ, सत्य का अभ्यास करके एक ईमानदार इंसान बनूँ।

बाद में, मैंने आत्मचिंतन किया। ऐसा क्यों है कि हर बार जब परमेश्वर के घर के हितों से जुड़ी कोई घटना घटती है जिस पर मुझे राय देनी होती है, तो मैं डरकर दुबक जाती हूँ, खुद को बचाने की कोशिश करती हूँ? किस प्रकृति के काबू में मैं ऐसा करती हूँ? सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "शैतान राष्ट्रीय सरकारों और प्रसिद्ध एवं महान व्यक्तियों की शिक्षा और प्रभाव के माध्यम से लोगों को दूषित करता है। उनके शैतानी शब्द मनुष्य के जीवन-प्रकृति बन गए हैं। 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये' एक प्रसिद्ध शैतानी कहावत है जिसे हर किसी में डाल दिया गया है और यह मनुष्य का जीवन बन गया है। जीने के लिए दर्शन के कुछ अन्य शब्द भी हैं जो इसी तरह के हैं। शैतान प्रत्येक देश के लोगों को शिक्षित करने, धोखा देने और भ्रष्ट करने के लिए की पारंपरिक संस्कृति का इस्तेमाल करता है, और मानवजाति को विनाश की विशाल खाई में गिरने और उसके द्वारा निगल लिए जाने पर मजबूर कर देता है, और अंत में परमेश्वर लोगों को नष्ट कर देता है क्योंकि वे शैतान की सेवा करते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं। कल्पना करो कि समाज में कई वर्षों से सक्रिय व्यक्ति से कोई यह प्रश्न पूछे : 'चूँकि तुम इतने लंबे समय से दुनिया में रहे हो और इतना कुछ हासिल किया है, ऐसी कौन-सी मुख्य प्रसिद्ध कहावतें हैं जिनके अनुसार तुम लोग जीते हो?' शायद वह कहे, 'सबसे महत्वपूर्ण कहावतें यह हैं कि "अधिकारी उपहार देने वालों को नहीं मार गिराते, और जो चापलूसी नहीं करते हैं वे कुछ भी हासिल नहीं करते हैं।"' क्या ये शब्द उस व्यक्ति की प्रकृति के स्वभाव का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं? पद पाने के लिए अनैतिक साधनों का इस्तेमाल करना उसकी प्रकृति बन गयी है, और अधिकारी होना ही उसे जीवन देता है। अभी भी लोगों के जीवन में, और उनके आचरण और व्यवहार में कई शैतानी विष उपस्थित हैं—उनमें बिलकुल भी कोई सत्य नहीं है। उदाहरण के लिए, उनके जीवन दर्शन, काम करने के उनके तरीके, और उनकी सभी कहावतें बड़े लाल अजगर के विष से भरी हैं, और ये सभी शैतान से आते हैं। इस प्रकार, सभी चीजें जो लोगों की हड्डियों और रक्त में बहें, वह सभी शैतान की चीज़ें हैं। ... शैतान ने मनुष्य को गंभीर ढंग से दूषित कर दिया है। शैतान का विष हर व्यक्ति के रक्त में बहता है, और यह देखा जा सकता है कि मनुष्य की प्रकृति दूषित, बुरी और प्रतिक्रियावादी है, शैतान के दर्शन से भरी हुई और उसमें डूबी हुई है—अपनी समग्रता में यह प्रकृति परमेश्वर के साथ विश्वासघात करती है। इसीलिए लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं और परमेश्वर के विरूद्ध खड़े रहते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। परमेश्वर के वचन पढ़ते समय, मैं समझ गयी कि मुझमें झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों का सामना करने की हिम्मत नहीं है, क्योंकि मेरी प्रकृति शैतानी तर्क, व्यवस्था और सांसारिक फलसफों से भरी है, जैसे कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "जितनी कम परेशानी, उतना ही बेहतर," और "ज्ञानी लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं।" यह भी है, "प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वयं के दरवाज़े की सफ़ाई करता है; पड़ोसी की छत की सफाई से उसे कोई सरोकार नहीं।" मैं इन शैतानी फलसफों के सहारे जी रही थी, इसलिए मैं खासतौर से स्वार्थी, नीच, कायर और कपटी थी। हर बात में, सबसे पहली चीज़ जिस पर मेरा ध्यान होता वह था मेरा अपना लाभ और हानि। मैंने याद किया कि जब पहली बार मैंने मिस ली की रिपोर्ट करनी चाही, तो मैंने ऐसा करने की हिम्मत नहीं की, क्योंकि मैं खुद को बचाना चाहती थी। अब, मिस ली सत्ता पाने के लिए कलीसिया में एक गुट बना रही है, कलीसिया के कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा कर रही है, पर मुझमें अभी भी साहस नहीं है कि डटकर सत्य का अभ्यास करूँ। मैं कछुए की तरह अपने ही खोल में दुबक रही हूँ, डरी हुई हूँ कि सिर उठाते हुए झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी ने मुझे देख लिया तो वे मुझे दंड दे देंगे। परमेश्वर की इच्छा यह थी कि शोहरत और दौलत के लिए लड़ने वाले ये शैतानी किस्म के लोग और मसीह-विरोधी दानव, कलीसिया के कार्य में बाधा पहुंचाते हैं, उन्हें निकाल दिया जाए, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को धोखा खाने से बचें और कलीसिया के कार्य में बाधा न पहुंचे। लेकिन कई बातों को लेकर मैं बहुत फ़िक्रमंद थी। मेरी चिंता परमेश्वर की इच्छा को लेकर नहीं थी। मैं सिर्फ यही सोचती थी कि अपने निजी हितों को नुकसान से कैसे बचाऊँ। मैं बहुत स्वार्थी और घिनौनी थी! मैं नाम के लिए परमेश्वर में विश्वास रखती थी, उसका अनुसरण करती थी, लेकिन मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी। मैं परमेश्वर के घर को एक समाज के रूप में देखती थी, निष्पक्षता और धार्मिकता रहित एक जगह, जहां मुझे सतर्क रहते हुए खुद को बचाना सीखना होगा, या फिर मुझे दमन और दंड का खतरा मोल लेना होगा, इसी कारण मैंने खुद को बचाने के लिए शैतान के फलसफों का इस्तेमाल करने की सोची। लेकिन यह नज़रिया ईश-निंदा के सिवाय कुछ भी नहीं था! परमेश्वर के वचनों में कहा गया है : "दुष्टों को निश्चित ही दंड दिया जाएगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दुष्टों को निश्चित ही दंड दिया जाएगा)। परमेश्वर का वचन ही सत्य और परमेश्वर के कार्य का व्यावहारिक सबूत है। छह महीने पहले, मैंने झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के हटाये जाने और निकाले जाने के असली उदाहरण देखे थे। क्या यह परमेश्वर की धार्मिकता नहीं थी? लेकिन उस वक्त मैं अंधी हो गयी थी। सिर्फ अपने निजी हितों का ख़याल करती रही। मैंने परमेश्वर में विश्वास रखा, मगर उसके वचनों, वफादारी या उसकी धार्मिकता में विश्वास नहीं रखा। यहाँ तक कि मैंने परमेश्वर को अविश्वासियों के नज़रिये से देखा। मैं समझ सकी कि मैं सिर्फ एक गैर-विश्वासी के सिवाय कुछ नहीं थी, और मेरी करनी ने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया था। अगर मैं इन शैतानी फलसफों और व्यवस्थाओं के सहारे जीती रही, स्वभाव में बदलाव नहीं लाया, सत्य का अभ्यास नहीं किया, तो अंत में परमेश्वर मुझे दंडित कर हटा देगा। इन बातों के बारे में सोचकर, मुझे एहसास हुआ कि मुझे अपना कर्तव्य और ज़िम्मेदारी निभाने की भरसक कोशिश करनी होगी, अगर किसी दिन ये झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी मुझे दबा दें या निष्कासित भी कर दें, तो भी सीखने को सबक मिलेगा जिसमें परमेश्वर के नेक इरादे निहित होंगे। यह समझ लेने के बाद, बेबाकी के साथ मैंने रिपोर्ट लेटर पर दस्तख़त कर दिये। उस वक्त, मैंने सुरक्षित और शांत महसूस किया, गर्व का भी अनुभव किया। मुझे लगा कि आखिर मैं डटकर खड़ी हूँ और एक अच्छी इंसान बन गयी हूँ।

करीब एक महीने बाद, जिस शुभ समाचार की हम प्रतीक्षा कर रहे थे, आखिर वह आ गया। मिस ली ने बहुत-से दुष्कर्म किये थे और बदलने से मना किया, इसलिए उसे मसीह-विरोधी कहकर कलीसिया से निष्कासित कर दिया गया। दुष्कर्म करने और कलीसिया के कार्य में बाधा पहुँचाने में मिस ली का अनुसरण करने वाले दुष्कर्मियों को भी निष्कासित कर दिया गया। जिन लोगों ने प्रायश्चित की भावना दिखायी, उन्हें दुष्कर्मी न समझते हुए, कलीसिया में रहने दिया गया और प्रायश्चित का मौक़ा दिया गया। महीनों से जो बवाल मचा हुआ था, आखिर वह ख़त्म हो गया, कलीसिया का सामान्य जीवन फिर शुरू हो गया। यह नतीजा देखकर मैं बहुत खुश थी, लेकिन मुझे पछतावा और खेद भी हुआ, क्योंकि झूठी अगुआ और मसीह-विरोधी की रिपोर्ट करने में मैं सच्चाई से गवाही देने में असफल रही। मेरी जो बातें उजागर हुईं, वे थीं धूर्त शैतानी स्वभाव, स्वार्थ, घिनौनापन और खुद को बचाने की मेरी इच्छा। मैंने परमेश्वर की धार्मिकता और उसके घर में सत्य के शासन पर भी शक किया। मैं अभी भी काफी हद तक एक गैर-विश्वासी थी। मैं समझ सकी कि मैं गहराई से भ्रष्ट हूँ, और परमेश्वर की बहुत ऋणी हूँ। इसलिए, मैंने शपथ ली, कि अगली बार ऐसा कुछ हुआ तो मैं परमेश्वर की तरफ रहूँगी।

मुझे अचरज हुआ जब चार साल बाद, फिर एक बार ऐसा ही कुछ हुआ। मेरी कलीसिया के अगुआ मिस्टर वैंग और दो अन्य लोग, जो शब्दों और सिद्धांतों की बातें करते थे, व्यावहारिक कार्य नहीं करते थे, उन्हें झूठे अगुआ होने के लिए बर्खास्त कर दिया गया, और परमेश्वर के घर ने उनका काम संभालने के लिए दो अगुआ हमारी कलीसिया में भेजे। जब ये दो बहनें आयीं, तो मिस्टर वैंग ने कहा, हमारी कलीसिया "दान की बछिया" नहीं लेती। यानी उसने उन दो बहनों को स्वीकार नहीं किया जो हमारी अगुआ बनने के लिए स्थानांतरित की गयी थीं, वे सत्ता वापस लेना चाहते थे। वे और कलीसिया के बहुत-से उपयाजक नयी अगुआओं पर हमला करने के बहाने ढूंढ़ने लगे, और दूसरे भाई-बहनों को उनका साथ देने और नयी अगुआओं के खिलाफ रिपोर्ट लिखने को बहकाया। बाद में, उन्होंने मुझे भी नयी अगुआओं की रिपोर्ट करने को कहा। उस वक्त, जब मैंने उनकी लिखी रिपोर्ट पढ़ी, तो मैंने देखा कि दुष्कर्मों के जो सबूत उन्होंने दिये थे, वे असल में बस भ्रष्टता उजागर करने के आम उदाहरण थे, दुष्कर्म तो थे ही नहीं, कुछ में बात को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया था, और कुछ तो बिल्कुल मिथ्या आरोप और झूठ थे जिनमें सच्चाई को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया था। लेटर में उनकी निंदा बेकाबू, और द्वेषपूर्ण और बढ़ा-चढ़ा कर की गई थी। उस वक्त मुझे एहसास हुआ कि उनके रिपोर्ट लेटर का असली मकसद परमेश्वर के घर के कार्य को बचाना, झूठे अगुआओं को निकालना या परमेश्वर के चुने हुए लोगों की रक्षा करना नहीं था, बल्कि सत्ता हथियाना, कलीसिया के अगुआओं के पदों पर दोबारा आसीन होना, कलीसिया को काबू में करना और परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर नियंत्रण करना था। बाद में, मसीह-विरोधियों को पहचानने के सिद्धांतों के आधार पर, मैंने तय किया कि वे मसीह-विरोधी हैं। शुरू में तो मैंने इस मामले से अलग रहना चाहा, क्योंकि हटाये गये अगुआओं के अलावा, रिपोर्ट लेटर में शामिल दूसरे लोग, फिलहाल उपयाजक और समूह अगुआ के रूप में कार्यरत थे, जबकि मैं तो बस एक साधारण विश्वासी थी, जिसका कोई खास रुतबा नहीं था, इसलिए ये ऐसे लोग थे, जिन्हें नीचा दिखाना मेरे लिए अच्छा नहीं था। लेकिन जब मैंने सोचा कि कई साल पहले किस तरह से मिस ली की रिपोर्ट करने वह बाहर निकाल दी गयी थी, और कैसे मैंने कोई वास्तविक गवाही नहीं दी थी, तो मैंने फिर से न छिपने या न दुबकने का फैसला किया। इसलिए, मैंने अपने आसपास के भाई-बहनों के साथ संगति की, ताकि वे साफ़-साफ़ समझ सकें कि इस रिपोर्ट लेटर को लिखने वाले लोगों के असली लक्ष्य और इरादे क्या हैं, और वे उन लोगों को पहचान सकें। इसके बाद, मैंने सत्ता पाने के लिए किए गए उनके दुष्कर्मों को उजागर किया, और परमेश्वर के घर को इनकी खबर दी। इसके बाद, परमेश्वर के घर ने हालात की जांच-पड़ताल की, सच का पता लगाया, तय किया कि ये लोग मसीह-विरोधी हैं, और उन्हें निष्कासित कर दिया। जब मैंने देखा कि मसीह-विरोधियों के इस समूह के निष्कासन की रिपोर्ट में मेरे द्वारा दिये गये कुछ सबूत हैं, तो मैं बहुत खुश हुई और मुझे बहुत सुकून मिला। इस मामले में अपनी ज़िम्मेदारियाँ अच्छी तरह निभाने के कारण मैंने सम्मानित अनुभव किया।

परमेश्वर झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों की व्यवस्था करता है ताकि हममें विवेक का विकास हो सके। साफ़ तौर पर समझ ये लेने के बाद कि सत्ता के लिए झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी दूसरों को कैसे धोखा देते हैं, परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा पहुँचाकर उसे कैसे बरबाद कर देते हैं, पग-पग उजागर होकर वे कैसे निष्कासित कर दिये जाते हैं, हमें परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का थोड़ा ज्ञान हासिल होता है, हम समझ जाते हैं कि परमेश्वर के घर में मसीह और सत्य का शासन होता है, कि परमेश्वर की धार्मिकता और पवित्रता अपमान नहीं सहते, और हमारे दिलों में परमेश्वर के प्रति भय पैदा होता है। मसीह-विरोधियों की नाकामयाबी का अनुभव हमारे लिए एक चेतावनी है, कि उनकी राह पकड़ना ठीक नहीं है, उससे भी अहम यह है, कि जब झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी प्रकट हों, तो हमें सत्य का अभ्यास कर परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करनी चाहिए।

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