भ्रष्टता के बंधन
मार्च 2020 में, मुझ पर जिस कलीसिया की ज़िम्मेदारी थी, वहाँ मैं चुनाव कराने गई, जिसमें बहन चेन को कलीसिया अगुआ चुना गया। मुझे लगा बहन चेन काफी काबिल है, लेकिन चूंकि उसने अगुआ का कर्तव्य निभाना शुरू ही किया है और उसे कलीसिया के काम की ज़्यादा जानकारी नहीं थी, इसलिए मैंने वहीं रहकर उसे प्रशिक्षण देने का फैसला किया। बहन चेन को कलीसिया का काम समझाने और जल्द-से-जल्द निपुण बनने में उसकी मदद करने के लिए, मैं हर सामूहिक सभा में उसके साथ जाती और कलीसिया के काम के कुछ सिद्धांत उसे बताती। जल्दी ही उसे काम की अच्छी जानकारी हो गई और समस्या होने पर वह सत्य खोजने में ध्यान देने लगी, परमेश्वर के वचनों पर उसकी संगति रोशनी देने वाली होती थी। सभाओं में भाग लेने वाले भाई-बहन जब कोई सवाल करते थे, तो कभी-कभी मेरे सोचने से पहले ही बहन चेन के पास उसका जवाब तैयार होता, वह फौरन परमेश्वर के वचनों में सवाल का जवाब ढूंढ निकालती थी। काम के बारे में चर्चा करते समय, वह किसी समस्या को हल करने से जुड़े सिद्धांत आसानी से खोज पाती थी। यह देखकर कि बहन चेन काम करने के बहुत काबिल थी और बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ रही थी, मुझे अचानक थोड़ा दबाव महसूस होने लगा : मैं उसके काम के लिए ज़िम्मेदार थी, इसलिए उसके मुकाबले मुझे समस्या का हल ढूंढकर संगति करने में बेहतर होना चाहिए। मगर कुछ बातों पर मैंने उतनी अच्छी तरह नहीं सोचा था जितना कि उसने, तो क्या दूसरों को ऐसा लगेगा कि हाल ही में चुनी गई अगुआ मुझसे अधिक काबिल है? तभी मैंने सोचा, "नहीं, मुझे अपनी काबिलियत साबित करनी ही होगी। मैं भाई-बहनों की नज़रों में खुद को गिरने नहीं दे सकती।" तब से, जब मैं बहन चेन के साथ अन्य सभाओं में जाती, तो इस बात पर खास ध्यान देती कि अन्य भाई-बहनों ने कैसी संगति की है, पता लगाने की कोशिश करती कि आखिर उनके हालात के साथ क्या समस्याएं जुड़ी हैं, इनके कारण क्या हैं, मुझ पर बहन चेन से पहले उन समस्याओं को हल करने का जूनून सवार था। मगर जितनी जल्दी उन समस्याओं के हल ढूंढने की कोशिश करती, उतनी ही परेशान हो जाती और अपने विचारों पर काबू पाना उतना ही मुश्किल हो जाता। और मैं भाई-बहनों के हालात स्पष्टता से समझ नहीं पाती। बाद में, बहन चेन की संगति से उन समस्याओं का हल निकलता। जब मैं भाई-बहनों को बहन चेन की सराहना करते हुए सुनती कि उसने बहुत अच्छे और स्पष्ट तरीके से बात की है, और वे अपनी समस्याओं में मदद पाने के लिए बहन चेन को खोजते, तो मैं और भी बेचैन हो उठती। मुझे खुद से नफ़रत होने लगती, सोचती कि मैं इतनी बेवकूफ़ कैसे हो सकती हूँ? मैं बहन चेन जितनी अच्छी क्यों नहीं हो सकती? मुझमें कुछ हद तक नकारात्मकता का भाव आने लगा। अगर इसी तरह चलता रहा, तो मेरी इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी।
मुझे याद है, एक दिन बहन चेन और हाल ही में चुने गए कई उपयाजकों के साथ मेरी एक बैठक थी, पता चला कि वे लोगों का चुनाव करने के सिद्धांतों को अब तक अच्छी तरह नहीं समझ पाए हैं। इसकी वजह से कलीसिया में समूह अगुआ का काम करने के लिए कुछ अयोग्य लोगों को चुन लिया गया है। मैंने इन बातों पर गौर किया, तो मुझे थोड़ी चिंता हुई। ये सोचकर कि मैं बहन चेन के मुकाबले अधिक समय से अगुआ हूँ और मुझे लोगों का चुनाव करने से सिद्धांतों की थोड़ी बेहतर समझ है, मैंने सोचा कि मैं इस बात को उन्हें अच्छी तरह समझा सकती हूँ और यह हमारे भाई-बहनों के लिए यह देखने का एक अच्छा अवसर होगा कि मैं सत्य समझती हूँ और मुझे मामलों की स्पष्ट समझ है, और मैं अभी भी बहन चेन से बेहतर हूँ। इसलिए, मैंने कुछ काम के सिद्धांत ढूंढ निकाले और साथ मिलकर उनके बारे में चर्चा की। बहन चेन ने इन सिद्धांतों को मामले से जोड़ते हुए बताया कि किस तरह के लोगों को समूह अगुआ का काम करने के लिए चुना जाना चाहिए। जब मैंने देखा कि बहन चेन असली उदाहरणों के बिना बात कर रही है, तो मन-ही-मन मुझे अच्छा लगा। बहन चेन कुछ ही समय से अगुआ का पद संभाल रही है और उसे ज़्यादा अनुभव नहीं है। आगे मैं असली उदाहरण दूँगी, तब भाई-बहनों को पता चलेगा कि मैं बहुत सारे उदाहरण और जानकारी दे सकती हूँ, तब बेशक उन्हें लगेगा कि मैं काम की ज़िम्मेदारी संभालने के काबिल हूँ, और मेरी संगति कुशल और व्यापक है। जब मैंने इस बारे में सोचा, तो मुझे बड़ी खुशी हुई। मैंने अपना गला साफ़ किया और मुस्कुराते हुए उन सभी समस्याओं और गड़बड़ियों के बारे में बात की जिनका सामना अन्य कलीसियाओं ने चुनावों के दौरान किया था। मैंने काफ़ी देर तक उनके बारे में बातें की और अपनी बात ख़त्म करने के बाद, दूसरे भाई-बहनों से अपनी सराहना सुनने का इंतज़ार करने लगी। अचानक, बहन चेन ने कहा कि फ़िलहाल कलीसिया की मुख्य समस्या यह है कि भाई-बहन समूह अगुआओं का चुनाव करने के सिद्धांत नहीं समझते, और हमें उनसे जुड़े सत्यों पर स्पष्ट संगति करनी चाहिए। उसने कहा कि मैंने जो भी उदाहरण दिए, उनमें से ज़्यादातर असली मुद्दे पर नहीं थे। जैसे ही बहन चेन ने अपनी बात पूरी की, दूसरी उपयाजिका ने भी सहमति जताई। यह सुनकर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा। दोनों की कही बातें मेरे मन में नकारात्मक ढंग से बैठ गईं और मैं उलझन में पड़ गई। वे सभी उपयाजक मेरी ओर ही देख रहे थे, जिससे मुझे शर्मिंदगी महसूस होने लगी। पहले तो लगा था कि इज़्ज़त बचाने में कामयाब हो जाऊँगी, मगर मामला उल्टा पड़ गया। इज़्ज़त बचाने की बात तो दूर रही, मुझे और शर्मिंदा होना पड़ा। क्या दूसरों को लगेगा कि इतने बरसों से अगुआ होकर भी मैं अभी-अभी चुनी गई अगुआ की बराबरी भी नहीं कर सकती, क्या वे सोचेंगे कि मैं अच्छी नहीं हूँ? जैसे ही यह विचार मन में आया, मैं किसी से नज़रें नहीं मिला पाई, बस अनमने ढंग से वहां बैठी रही। जल्दी ही, एक उपयाजिका ने बहन चेन से एक सवाल पूछा, तो उसने जवाब में बहुत स्पष्ट संगति की। लगा जैसे उसने मुझे बुरी तरह से मात दे दी है और मेरे अंदर की घबराहट मुझे घुटनों पर ले आई। ऐसा लगा मानो मैं बुरी तरह से हार गई हूँ, अपना सिर भी नहीं उठा पा रही। मैंने एक बार फिर बहन चेन की अच्छी काबिलियत और उनके तेज़ी से आगे बढ़ने के बारे में सोचा। वह कई मामलों में मुझसे बेहतर थी। मैंने इस बारे में जितना सोचा उतना ही बुरा लगा, ऐसा लगा कि उसने मेरे हिस्से की प्रसिद्धि मुझसे छीन ली है। मैं उसके प्रति पक्षपाती होने लगी, अब मैं अपने कर्तव्य में उसके साथ भागीदारी नहीं करना चाहती थी। सभा के बाद, बहन चेन ने सुझाव दिया कि हम कुछ दिनों बाद साथ मिलकर समूह की सभा में भाग लें। इस पर ज़रा-सा भी ध्यान दिए बिना, मैंने बेरुखी से कहा, "बहन झाऊ और मुझे उस दिन दूसरे समूह की सभा में जाना है।" उसका चेहरा लाल हो उठा और उसने थोड़ा असहज महसूस किया। मुझे उसकी उपेक्षा करते देख वह वहां से चली गई।
घर वापस जाते हुए, मैंने उस सभा के बारे में सोचा जिसमें बहन चेन अकेली जा रही थी। वह उस समूह के लोगों को अच्छी तरह नहीं जानती थी। अगर कोई ऐसी समस्या आ गई जिसे आपस में चर्चा करके सुलझाने की ज़रूरत हो, तो क्या होगा? अगर मैं नहीं गई और उसके सामने कोई ऐसी समस्या आ गई जिसे हल करना उसे नहीं आया, तो क्या इससे हमारा काम रुक जाएगा? मैं वापस जाकर उसे ढूंढना चाहती थी, मगर जब मैंने यह सोचा कि उस सभा में मुझे कितना अपमान सहना पड़ा था, तो मैं बहुत परेशान हो गई और खुद को उसके ख़िलाफ़ कर लिया : "चूंकि तुम्हारी काबिलियत इतनी शानदार है और तुम हर काम में अच्छी हो, तो ये काम खुद कर सकती हो।" इस तरह, मेरे भ्रष्ट स्वभाव ने मेरे ज़मीर की आवाज़ दबा दी। बिना किसी हिचकिचाहट के, मैंने बाइक उठायी और सीधा घर चली आई। उस रात मैं बिस्तर पर करवटें बदलती रही, नींद बिल्कुल भी नहीं आई। मैं लगातार यह सोचती रही कि कैसे बहन चेन तेज़ी से आगे बढ़ रही है, कैसे सभी भाई-बहन उसकी सराहना करते हैं। अगर मैं उस कलीसिया में रही, तो क्या सजावट का सामान नहीं बन जाऊँगी? मैंने उस कलीसिया को छोड़ने का तय किया। मगर इस विचार ने मुझे परेशान कर दिया। बहन चेन वाकई अच्छा काम कर रही थी, मगर उसके साथ-साथ कुछ उपयाजक भी बिल्कुल नए थे। बहुत-से सिद्धांतों की उन्हें पूरी समझ नहीं थी, इसलिए वे गलतियां कर सकते थे। यह परमेश्वर के घर के काम के लिए अच्छा नहीं होगा। मैं जानती थी कि मुझे यहां रहकर कुछ समय तक उनकी मदद करनी चाहिए, इस तरह अचानक चले जाना गैर-जिम्मेदारी होगी। मुझे एहसास हुआ कि मेरी हालत अच्छी नहीं है, इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, मैंने उससे उसकी इच्छा को समझने और खुद को जानने में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए विनती की।
अगले दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा "व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत," अनुच्छेद 5 में: "किसी भी व्यक्ति को स्वयं को पूर्ण या प्रतिष्ठित और कुलीन या दूसरों से भिन्न नहीं समझना चाहिए; यह सब मनुष्य के अभिमानी स्वभाव और अज्ञानता से उत्पन्न होता है। हमेशा अपने तुम को विशिष्ट समझना—यह एक अभिमानी स्वभाव है; कभी भी अपनी कमी को स्वीकार नहीं कर पाना, और कभी भी अपनी भूलों एवं असफलताओं का सामना नहीं कर पाना—अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; वह कभी भी दूसरों को अपने से ऊँचा नहीं होने देता है, या अपने से बेहतर नहीं होने देता है—ऐसा उसके अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; दूसरों को खुद से श्रेष्ठ या ताकतवर न होने देना—यह एक अहंकारी स्वभाव के कारण होता है; कभी दूसरों को किसी भी विषय पर अपने से बेहतर विचार, सुझाव और दृष्टिकोण न रखने देना, और, ऐसा होने पर नकारात्मक हो जाना, बोलने की इच्छा न रखना, व्यथित और निराश महसूस करना, तथा परेशान हो जाना—ये सभी चीजें उसके अभिमानी स्वभाव के ही कारण होती हैं। अभिमानी स्वभाव तुमको अपनी प्रतिष्ठा को सँजोने वाला बना सकता है, दूसरों के मार्गदर्शन को स्वीकार करने, अपनी कमियों का सामना करने, तथा अपनी असफलताओं और गलतियों को स्वीकार करने में असमर्थ बना सकता है। इसके अतिरिक्त, जब कोई व्यक्ति तुमसे बेहतर होता है, तो यह तुम्हारे दिल में उस व्यक्ति के प्रति घृणा और जलन पैदा कर सकता है, और तुम स्वयं को विवश महसूस कर सकते हो, कुछ इस तरह कि अब तुम्हारे कर्तव्य निभाना नहीं चाहते और इसे करने में लापरवाह हो जाते हो। अभिमानी स्वभाव के कारण तुम्हारे अंदर ये व्यवहार और आदतें उत्पन्न हो जाती हैं" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचन बिल्कुल स्पष्ट हैं। जब लोग अहंकार में जीते हैं, तो वे हर तरह से सबसे ऊँची जगह पाना और दूसरों से बेहतर होना चाहते हैं। इस तरह के लोग अपनी इज़्ज़त और रुतबे को सबसे ऊपर रखते हैं। जब वे दूसरों से आगे नहीं निकल पाते हैं या उनकी स्वीकृति नहीं पाते, तो वे निराश और हताश हो जाते हैं, यहां तक कि वे अपना कर्तव्य भी निभाना नहीं चाहते। परमेश्वर ने जैसे इंसान को उजागर किया, मैं वैसी ही हूँ। मेरा स्वभाव बहुत अहंकारी था, मुझे सिर्फ़ नाम और रुतबे की चाह थी। जब मैंने पहली बार बहन चेन को जाना, तो मैंने सोचा कि मैं अपने काम में अधिक सक्षम और समस्याओं को हल करने को लेकर सत्य पर संगति करने में उससे बेहतर हूँ, तब मुझे उसकी मदद करने और उसके साथ संगति करने में खुशी होती थी। मगर बाद में जब मैंने देखा कि उसकी काबिलियत कितनी अच्छी है और वह कितनी तेज़ी से सीखती है, दूसरे भी उसके बारे में ऊँचा सोचते हैं, तो मुझे लगा कि मेरा पद खतरे में है। मैं मन-ही-मन उससे अपनी तुलना करने लगी, उससे प्रतिस्पर्धा करने लगी, खुद को अधिक सक्षम दिखाने की हर कोशिश करने लगी। मैं अपनी काबिलियत साबित करना चाहती थी। खास तौर पर, टीम का अगुआ चुनने की समस्या को लेकर, सिद्धांतों पर अपनी संगति द्वारा मैं दिखावा करना और दूसरों की प्रशंसा पाना चाहती थी, नतीजा यह हुआ कि कुछ चीज़ें ठीक से नहीं हुईं और बहन चेन ने मुझे चित कर दिया। मैंने आत्मचिंतन नहीं किया, और तो और, मैं उससे बैर करने लगी, अब मैं उसके साथ काम नहीं करना चाहती थी। मैं तो अपने आदेश को छोड़कर उस कलीसिया से निकल जाना चाहती थी। आत्मचिंतन से मैंने जाना कि मेरे ऊपर इज़्ज़त और रुतबे की चाह पूरी तरह से हावी थी, मैं कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा रही थी। एहसास हुआ कि मैंने अपना काम पूरी तरह से छोड़ दिया है। इस तरह से उजागर करके परमेश्वर ने मेरा न्याय किया और मुझे ताड़ना दी, ताकि मैं आत्मचिंतन करके अपनी गलत सोच और मंशाओं को ठीक कर सकूँ। परमेश्वर की इच्छा समझने के बाद मेरा मन काफी शांत हो गया।
उसके बाद, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े, जहां वह मसीह-विरोधी स्वभाव को उजागर करता है। "जब मसीह-विरोधी किसी समूह के भीतर अपने कर्तव्य निभा रहे होते हैं, तो उनका पहला विचार उन सिद्धांतों की तलाश करना नहीं होता जो उनके अपने कर्तव्य में शामिल होते हैं, न ही इसकी तलाश करना होता है कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं, या परमेश्वर के घर के नियम क्या हैं। इसके बजाय, वे पूछते हैं कि क्या उनके कर्तव्य निभाने के परिणामस्वरूप और अधिक लोग उनका आदर करेंगे, क्या ऊपर वाले को इसके बारे में पता चलेगा, समूह में कौन अपने काम में सबसे अच्छा है और कौन निरीक्षक है। जब वे अपना कर्तव्य निभाने के परिवेश में प्रवेश कर जाते हैं, तो जो वे सोचते हैं, जो वे जानना और समझना चाहते हैं, वह मुख्य रूप से सत्य से संबंधित नहीं होता, न ही वह अपने कर्तव्य पूरे करने के मुद्दे को हल करने, रुकावट या गड़बड़ी पैदा करने से बचने और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से पूरा कर परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर पाने से जुड़ा होता है। बल्कि, उनका पहला विचार समूह के भीतर अपना पैर जमाने, मजबूत आधार बनाने, अपना पद सुरक्षित करने, प्रशंसा हासिल करने और समूह से अलग दिखने के बारे में होता है। वे सोचते हैं कि कैसे वे अन्य लोगों से ऊपर हो सकते हैं और कैसे वे समूह के अगुआ बन सकते हैं। ऐसा करके, क्या वे अपना कर्तव्य निभा रहे हैं? (नहीं।) वे क्या करने आए हैं? (कोई शक्तिशाली पद ग्रहण करने।) वे कहते हैं, 'जहाँ तक मेरी बात है, धर्मनिरपेक्ष दुनिया में मैं हर किसी से आगे निकलना चाहता हूँ। मैं जिस भी समूह में रहूँ, मैं हमेशा बॉस रहूँगा, मैं कभी मातहत नहीं बनूँगा। बेहतर है, कोई मुझे अनुयायी बनाने का प्रयास न करे। मैं जिस भी समूह में जाऊँगा, मैं प्रमुख बनूँगा, और मैं चाहता हूँ कि जो मैं कहूँ, वही हो। अगर वे मेरी बात नहीं सुनेंगे, तो मैं उन सभी को समझाने और अपना चयन करवाने का तरीका खोज लूँगा। एक बार उन्होंने मुझे चुन लिया, तो मेरा कहा ही माना जाएगा और मुझे जो पसंद है मैं वही करूँगा।' किसी भी समूह में जब मसीह-विरोधी अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, तो वे एक मामूली अनुयायी होने से संतुष्ट नहीं होते। वे किस चीज के बारे में सबसे ज्यादा जुनूनी होते हैं? आदेश देने और दूसरों से अपनी इच्छा का पालन करवाने में। वे अपने कर्तव्यों को पूरा करने, कड़ी मेहनत करने, अधिक कीमत चुकाने, अधिक समय और ऊर्जा खर्च करने, या अपने हिस्से का काम करने को लेकर जुनूनी नहीं होते। इसके बजाय, वे पढ़ते हैं कि किस प्रकार ऐसे लोग बनें, जो कर्मियों को काम पर लगाने और अपने व्यवसायों के मामलों में दूसरों की अगुआई करते हैं। वे दूसरों की अगुआई में चलने को तैयार नहीं होते। वे अनुयायी बनने या बिना धूमधाम के चुपचाप अपना कर्तव्य पूरे करने के लिए तैयार नहीं होते। उनके कर्तव्य जो भी हों, यदि वे महत्त्वपूर्ण स्थिति में नहीं हो सकते, यदि वे अगुआ नहीं हो सकते, तो उन्हें अपने कर्तव्य पूरे करने का कोई उद्देश्य ही नहीं मिलता। यदि चीजें उनके मुताबिक न हों, तो यह उनके लिए और भी कम दिलचस्प होता है, और उनमें अपने कर्तव्य निभाने की इच्छा और भी कम हो जाती है। लेकिन अगर अपने कर्तव्य निभाते हुए वे महत्त्वपूर्ण स्थिति में हो सकते हों और अपनी बात मनवा सकते हों, तो वे अन्य किसी से भी अधिक उत्साह के साथ अपनी भूमिका निभाएंगे। अपने दिलों में, वे दूसरों से बहुत बेहतर होने, दूसरों से बढ़कर होने की अपनी जरूरत को पूरा करनेना और अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने को अपना कर्तव्य समझते है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग सात)')। परमेश्वर के वचन यह विश्लेषण करते हैं कि क्यों लोग दूसरों से पीछे रहना नहीं चाहते हैं, क्यों वे इज़्ज़त और रुतबे के पीछे भागते हैं। उन पर सम्मान और प्रशंसा पाने की चाह हावी रहती है, यह एक मसीह-विरोधी का मार्ग है। मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा सबसे ज़्यादा अहमियत रखता है। वे सत्य समझने या सिद्धांतों को लागू करने के लिए काम कभी नहीं करते और वे परमेश्वर को संतुष्ट करने की परवाह नहीं करते। वे बस सोचते रहते हैं कैसे दूसरों पर रौब जमाएँ, कैसे लोग उनकी प्रशंसा और उनका अनुसरण करें, इस तरह वे लोगों को परमेश्वर से छीनने का अपनी निरंकुश लालसा पूरी करना चाहते हैं। मसीह-विरोधियों के बारे में परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मैं अभी तक उतनी गंभीर हालत में नहीं पहुँची हूँ, मगर मैं एक मसीह-विरोधी स्वभाव के लक्षण ज़रूर दिखा रही थी। जब मैंने बहन चेन को इतनी अधिक प्रगति करते और भाई-बहनों की प्रशंसा पाते देखा, तो उसे नापसंद करने लगी और उसे खुद से अलग करने लगी। मुझे लगा जैसे वो मुझे चमकने से रोक रही है, उसने मेरी शोहरत चुरा ली है। मैं इन शैतानी विषों के अनुसार जी रही थी, "बाकी सबसे ऊपर खड़े हो" और "केवल एक ही अल्फा पुरुष हो सकता है।" मैं लगातार रुतबे के लिए लड़ रही थी, ताकि सबसे आगे हो सकूँ। मुझे लगता था कि जो सबसे ऊपर होता है उसके पास ताकत होती है और उसी की बात मानी जाती है, सोचती थी कि ताकत और रुतबे की अहमियत किसी भी दूसरी चीज़ से ज़्यादा है। मैंने तो परमेश्वर की कलीसिया को भी रुतबे की लड़ाई का ठिकाना बना लिया, ताकि अपनी कुत्सित इच्छाएँ पूरी कर सकूँ। मैं मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलकर परमेश्वर का विरोध कर रही थी, उसके स्वभाव का भयंकर अपमान कर रही थी। मैंने देखा कि जिस मार्ग पर मैं चल रही थी वह कितना खतरनाक है और परमेश्वर को उससे कितनी नफ़रत है। यह बात भी सच थी कि बहन चेन अपने कर्तव्य में नई थी, अगर उसे बेबस किया जाए, उसके काम में रुकावट डाली जाए और इससे उसके कर्तव्य को नुकसान पहुंचे, तो यह मेरे द्वारा की गई दुष्टता होगी। मैंने दोषी महसूस किया, जाना कि कैसे मैं अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीकर सिर्फ़ अपने पद को बचाने की लड़ाई लड़ रही थी। इसने न केवल दूसरों का नुकसान और उन्हें बाधित किया, बल्कि बुरे कर्म करने और कलीसिया के काम में रुकावट डालने के कारण मुझे हटाया भी जा सकता था। मैंने सचमुच यह जाना कि निजी रुतबे के पीछे भागना अच्छा मार्ग नहीं है। मुझे काफी डर लगा और अब मैं उस भ्रष्ट स्वभाव में नहीं जीना चाहती थी। मैं परमेश्वर के सामने पश्चाताप करना चाहती थी।
उसके बाद, मैंने अभ्यास का मार्ग ढूंढने के लिए परमेश्वर के वचनों को पढ़ा। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "अगर परमेश्वर ने तुम्हें मूर्ख बनाया है, तो तुम्हारी मूर्खता में अर्थ है; अगर उसने तुम्हें तेज दिमाग का बनाया है, तो तुम्हारे तेज होने में अर्थ है। परमेश्वर तुम्हें जो भी निपुणता दे, तुम्हारे जो भी गुण हों, चाहे तुम्हारी बौद्धिक क्षमता कितनी भी ऊँची हो, उन सभी का परमेश्वर के लिए एक उद्देश्य है। ये सब बातें पहले से तय हैं। तुम जो भूमिका निभाते हो, जो कर्तव्य तुम निभाते हो—परमेश्वर ने उसे भी बहुत पहले ही निर्धारित कर दिया था। कुछ लोगों को यकीन नहीं होता। वे अधिक सीखकर, अधिक देखकर, और अधिक मेहनती होकर चीजों को बदलना चाहते हैं। लेकिन वे पार नहीं पा सकते। समय के साथ, वे इसे अनुभव से सीखेंगे; वे चाहे जिससे भी लड़ लें, लेकिन वे परमेश्वर द्वारा निर्धारित भाग्य से नहीं लड़ सकते। तुम जिस चीज में अच्छे हो, वहीं तुम्हें प्रयास करना है। अपने कौशल से बाहर के क्षेत्रों में बलपूर्वक खुद से काम करवाने का प्रयास न करो और दूसरों से ईर्ष्या न करो। सबका अपना कार्य है। हमेशा दूसरे लोगों के काम खुद करने की इच्छा रखते हुए और किसी अन्य को नहीं बस खुद को दिखाना चाहते हुए यह मत सोचो कि तुम सब कुछ खुद कर सकते हो, कि तुम पूर्ण हो, दूसरों से बेहतर हो। यह एक भ्रष्ट स्वभाव है। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि नृत्य करते समय तुम धुन पकड़कर नाच सकते हो—यह वह जगह है जहाँ तुम्हें एक मध्यस्थ बनना चाहिए, सफलताएं प्राप्त करनी चाहिए, सिद्धांतों में महारत हासिल करनी चाहिए और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए। कुछ लोग कपड़े डिजाइन करना पसंद करते हैं और इसमें अपेक्षाकृत कुशल होते हैं। तो तुम्हें इसी में प्रयास करना चाहिए और आगे की पढ़ाई करनी चाहिए। ऐसे लोग हैं जो सोचते हैं कि वे कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते। बात अगर ऐसी है तो तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो दूसरों के निर्देशों को ईमानदारी से सुने। तुम जो कर सकते हो, उसे अच्छे से, अपनी पूरी ताकत से करो। इतना पर्याप्त है। परमेश्वर संतुष्ट होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत')। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, मैंने जाना कि किसी इंसान में कितनी काबिलियत होगी या उसमें कितने गुण होंगे, यह सब परमेश्वर पहले ही तय कर देता है, इनमें परमेश्वर की बुद्धि होती है। परमेश्वर के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि हम सब कुछ समझें, हर काम करने के काबिल हों या दूसरों से बेहतर हों। वह चाहता है कि हम अपनी भूमिकाएं अच्छी तरह निभाएं। अगर हम अपनी काबिलियत अपनी भूमिका का सबसे अच्छा उपयोग करें, तो उसे खुशी होगी। अगर हम अहंकारी और दंभी बनकर हमेशा खुद के लिए लड़ते रहेंगे, तो यह हमारी बेवकूफ़ी होगी और हम दयनीय जीवन जिएंगे। परमेश्वर के वचनों में मुझे अभ्यास का मार्ग भी मिल गया, यानी अपनी कमियों को स्वीकारने का साहस करो। मेरे पास बहन चेन जितनी काबिलियत या काम करने की कुशलता नहीं थी। ये परमेश्वर द्वारा तय किए गए तथ्य थे। मुझे विवेकपूर्ण होकर परमेश्वर की सत्ता और व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए, कर्तव्यनिष्ठा से एक नेक इंसान बनना चाहिए, अपने काम में दिल लगाना चाहिए और बहन चेन के साथ मिलकर काम कैसे करने पर अधिक सोचना चाहिए, ताकि हम एक टीम के रूप में कलीसिया का काम पूरा कर सकें। यही वास्तव में परमेश्वर की इच्छा थी। परमेश्वर के वचनों में यह भी बताया गया है कि उसके घर का काम किसी एक इंसान द्वारा नहीं किया जा सकता। सभी को साथ मिलकर काम करना होगा। हम सब चीज़ों को अलग-अलग तरीके से देखते हैं, इसलिए जब हम एक दूसरे की कमियों को पूरा करेंगे, तो एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में चीज़ों को देख पायेंगे। पवित्र आत्मा हमारा मार्गदर्शन करे, यह तभी मुमकिन है जब हम सचमुच एक होकर काम करें और अपने कर्तव्य प्रभावी ढंग से निभाएं। इन बातों का एहसास होने पर, मैंने बहन चेन को खोजकर उस दौरान की अपनी हालत के बारे में सब कुछ खुलकर बता दिया और मैंने उससे माफी भी माँग ली। तब से, साथ मिलकर सभाएं करते हुए मैंने अपनी संगति उससे बेहतर बनाने की कोशिश नहीं की, बल्कि जब वो बात करती तो मैं ध्यान से उसकी बातें सुनती और उन पर दिल से विचार करती। अगर वो कोई बात भूल जाती, तो मैं अपनी संगति में उसे शामिल करने की कोशिश करती। मुझे जितनी बात समझ आती, उतनी ही बात करती, उससे ज़्यादा नहीं। इस तरह के सहयोग से हमारी संगति अधिक से अधिक प्रभावशाली होने लगी और बहन चेन और मैं बहुत करीब हो गए।
कुछ महीनों के बाद बहन चेन को प्रोन्नत कर दिया गया और हम साथ-साथ काम करने लगे। हम मिलकर कुछ कलीसियाओं के काम का र प्रबंधन करते थे। एक दिन, एक अगुआ ने हमें यह संदेश भेजा कि हमारे काम का एक हिस्सा काफी सफल रहा है। इससे मुझे अपने अंदर एक तरह की कमज़ोरी महसूस हुई, क्योंकि अगर अगुआ को पता होता कि उस काम को बहन चेन ने संभाला है, तो क्या वह उसकी ज़्यादा इज्ज़त करेंगी? उस दिन शाम को, बहन चेन ने मुझे बताया कि कैसे वह उस काम को अधिक प्रभावी बना सकी। मैंने सोचा, "इस काम के अच्छे नतीजे मिल चुके हैं। अगर हम साथ मिलकर इसके बारे में बात करते हैं, तो यह और भी बेहतर होता जाएगा। तब क्या यह सचमुच उसे मुझसे बेहतर नहीं बना देगा?" यह सोचकर, मैं अब इस बारे में चर्चा नहीं करना चाहती थी। मगर तभी मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से नाम और फ़ायदे की लड़ाई में उलझने जा रही हूँ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके अपनी दैहिक इच्छाओं का त्याग करने की कोशिश की। तभी परमेश्वर के ये वचन मेरे मन में आये : "हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, और अपनी स्वयं की हैसियत, प्रतिष्ठा और साख पर विचार मत कर। इंसान के हितों पर गौर मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा की परवाह करनी चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, क्या तूने वफादार होने के लिए अपना अधिकतम किया है, क्या अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास किया है और अपना सर्वस्व दिया है, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन चीज़ों पर बार-बार विचार कर, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर कहता है कि हम केवल अपने हितों के बारे में नहीं सोच सकते, बल्कि परमेश्वर के घर के हित और काम सबसे पहले आने चाहिए। हमें ऐसे काम करने चाहिए जिनसे दूसरों के जीवन प्रवेश को लाभ हो। अपने कर्तव्य में समर्पण दिखाने का यही तरीका है। मैं जानती थी कि मुझे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार काम करना होगा इसलिए मैंने बहन चेन से बात की कि हम उस काम को कैसे कर सकते हैं, मौजूदा समस्याएं क्या हैं और हम उन्हें कैसे हल कर सकते हैं। अगले दिन एक सभा में, मैंने अपनी हाल की स्थिति और उससे मिली अपनी समझ पर संगति की। मैंने जितनी ज़्यादा बात की उतना ही लगा कि नाम और रुतबे के पीछे भागना वाकई अच्छा मार्ग नहीं है। मुझे खुद से बड़ी घृणा और नफ़रत हुई। मैं अब अपने शैतानी स्वभाव के काबू में नहीं रहना चाहती थी। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करके और व्यावहारिक तरीके से अपना कर्तव्य निभाकर मुझे खुशी महसूस हुई। तब से, कोई भी समस्या सामने आने पर, मैं प्रार्थना करती और सोचती हूँ कि परमेश्वर के घर के हित के लिए क्या अच्छा होगा। मुझे बहन चेन की खूबियों से सीखना आ गया है, ताकि हम एक दूसरे की कमज़ोरी की भरपाई कर सकें। ऐसा करके मुझे सुकून और शांति महसूस हुई, अब हम अपने कर्तव्य में पहले से अधिक प्रभावशाली हैं। यह छोटा-सा बदलाव पूरी तरह से परमेश्वर के न्याय और ताड़ना की वजह से ही आया है। परमेश्वर का धन्यवाद!
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