मैंने झूठ बोलना कैसे बंद किया

04 फ़रवरी, 2022

मरिनेत्ते, फ्रांस

परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने से पहले, मैं बिना सोचे-समझे झूठ बोलती और चापलूसी किया करती थी, क्योंकि मैं डरती थी कि कहीं सच बोलकर लोगों को निराश न कर दूँ या उनका अपमान न कर दूँ। मैं नवंबर 2018 में सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने लगी, उसके वचनों से मैंने जाना कि वह खुशामदी और कपटी लोगों से घृणा करता है। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों पर अमल करने और एक ईमानदार इंसान बनने का फैसला किया, और थोड़ी कोशिश के बाद, मैं इस लायक बन गई कि अक्सर ईमानदारी से बोलूँ। उदाहरण के लिए, एक बार जब मुझे अपनी दवा के लिए 50 यूरो से ज्यादा देने थे, मगर फार्मेसिस्ट ने हिसाब में गलती करके आधे पैसे ही लिए, तो मैंने पल भर भी सोचे बिना, उसकी गलती बता दी। लेकिन जब कोई चीज मेरी शोहरत या निजी हितों पर बुरा असर डालती, तो साफगोई में मुश्किल होती थी।

इस साल मार्च में, मैं कलीसिया की एक अगुआ के रूप में काम कर रही थी, और पूरे समय व्यस्त रहती थी। कभी-कभी तो नींद पूरी न होने के कारण मैं थककर चूर हो जाती। एक दोपहर जब मैं झपकी लेने वाली थी, तो मेरी साथी बहन ली मुझसे बोली कि वह हमारे काम के बारे में बात करना चाहती है। उसका संदेश देखकर मुझे कोई खुशी नहीं हुई, क्योंकि मैं थकी हुई थी और कोई भी चर्चा नहीं करना चाहती थी। उस वक्त मैं आराम करने के अलावा किसी और चीज़ के बारे में नहीं सोच सकती थी, मगर यह बात मैं बहन ली से सीधे नहीं कहना चाहती थी। मुझे डर था कि वह मेरे बारे में जाने क्या सोचे, कि मैं आलसी या फिर कुछ और हूँ, मुझे शारीरिक आराम की ज्यादा फिक्र है, और वह मेरे बारे में अच्छा नहीं सोचेगी। इसलिए अपनी छवि बचाने की खातिर मैंने उससे कह दिया, "सॉरी, मेरा एक जरूरी एपॉइंटमेंट है। मुझे डॉक्टर के पास जाना है।" जरा भी सोचे बिना मेरे मुँह से यह झूठ निकल गया। इसको लेकर मैंने खुद को इतना दोषी माना कि आखिरकार मुझे आराम ही नहीं मिला, मैं पूरे समय परेशान रही। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है। मैंने बस यूं ही कैसे झूठ बोल दिया? फिर मुझ पर किसी को कैसे भरोसा होगा? मुझे पता था कि खुद के शारीरिक आराम के लिए झूठ बोलना सही नहीं है, परमेश्वर इसे पसंद नहीं करेगा, और मुझे कलीसिया के कार्य को महत्व देना चाहिए। मैंने फौरन बहन ली से संपर्क किया। उसने मुझसे पूछा, क्या मैं अपने एपॉइंटमेंट से लौट चुकी हूँ। मैंने उसे सच नहीं बताया, बल्कि झूठ बोलती रही, मैं नहीं चाहती थी कि उसके सामने बुरी दिखूँ, और उसे लगे कि मैं एक धूर्त इंसान हूँ। मैंने उसे बताया कि डॉक्टर को टीका क्लिनिक जाना था, तो उसने आखिर में एपॉइंटमेंट रद्द कर दिया, और मैं उससे मिलने नहीं गई। इसके बाद हमारी बातचीत काम पर आ गई, मगर मुझे बहुत बेचैनी महसूस हुई। मैंने उससे एक बार झूठ बोला था, फिर उसे न मानकर मैं आगे भी झूठ बोलती रही। मैं समझ गई कि मेरा शैतानी स्वभाव कितना गंभीर है, और मैंने शर्मिंदगी महसूस की। मैं बड़ी मुश्किल से उसकी आँखों में देख पा रही थी। मैंने उसे धोखा दिया था, जिसका अर्थ था कि मैं बहुत बेईमान इंसान थी। मैं बड़ी दुविधा महसूस कर रही थी। अगर मैं उसे सब साफ़-साफ़ बता दूँ, तो इससे उसकी नजर में मेरी छवि खराब हो जाएगी, और वह मुझे बेईमान समझेगी। लेकिन अगर मैं झूठ बोलती रही, तो परमेश्वर मुझसे चिढ़ जाएगा। इसलिए मैं आत्मचिंतन के लिए परमेश्वर के सामने आई, आत्मचिंतन में मुझे एहसास हुआ कि अपने जीवन में मैं बहुत कपटी और झूठी थी। एक बार एक अगुआ ने मुझसे पूछा कि क्या मैंने बहन झाऊ को उस शाम की सभा के बारे में बताया है। मुझे याद आया कि मैंने नहीं बताया था, लेकिन अगुआ के मन में अपनी छवि को बचाने की चाह से मैंने उन्हें सच नहीं बताया। मैंने झूठ बोला, कह दिया कि मैंने अभी-अभी उसे बता दिया था। फिर मैंने फौरन बहन झाऊ को सभा के बारे में एक संदेश भेज दिया। यही नहीं, मैं हर शुक्रवार सुबह रसोई की चीजें खरीदने जाती थी, तो मैं आखिरी पल में तय हुई सभाओं में शामिल नहीं हो पाती थी। मैं सच नहीं बताती, अगुआ से सीधे यह नहीं कह देती कि मुझे रसोई के लिए अगले कुछ दिनों की जरूरत का सामान खरीदने जाना है, और रसोई का सामान खरीदने के लिए मेरे पास बस यही एक समय बचा है। इसके बजाय मैं उन्हें बताती कि मुझे किसी दूसरी सभा या किसी एपॉइंटमेंट के लिए जाना है, और यही कारण है कि मैं नहीं जा सकती। मैं सिर्फ अपनी छवि बचाने और अगुआ को यह दिखाने के लिए कि मैं हर समय अपने काम में व्यस्त रहती हूँ, धूर्त और धोखेबाज बनकर, चीजों को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रही थी। मैं समझ गई कि मैं ईमानदारी के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं के जरा भी करीब नहीं थी। इसलिए मैंने प्रार्थना की, "हे सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मुझे अपने झूठ बोलने और धोखा देने पर बहुत पछतावा है। अपने शारीरिक आराम के लिए मैं झूठ बोले बिना नहीं रह सकती। मैं ईमानदार इंसान हूँ ही नहीं। हे परमेश्वर, मुझे राह दिखाओ, सत्य को समझने, और इस भ्रष्टता से मुक्त होने में मेरी मदद करो।"

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "लोग अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में बहुत-कुछ ऐसा कहते हैं, जो व्यर्थ, असत्य, अज्ञानतापूर्ण, मूर्खतापूर्ण, और चीजों को उचित सिद्ध करने वाला होता है। मूलत:, वे ऐसी बातें अपने गौरव के लिए, अपने दंभ को संतुष्ट करने के लिए कहते हैं; ऐसी झूठी बातें कहना उनके भ्रष्ट स्वभाव का बाहर आना है। इस भ्रष्टता का समाधान करने से तुम्हारा हृदय स्वच्छ हो जाएगा, और इस प्रकार तुम पहले से अधिक शुद्ध, अधिक ईमानदार हो जाओगे। असल में, सभी लोग जानते हैं कि वे झूठ क्यों बोलते हैं : अपनी प्रतिष्ठा बचाने की खातिर। और दूसरों से खुद की तुलना करते हुए वे अपनी औकात से बढ़-चढ़कर बोलते हैं ताकि अपनी गरिमा और अखंडता बनाए रख सकें, लेकिन इसके विपरीत वे अपनी गरिमा गँवा बैठते हैं। इसका कारण यह है कि तुम बहुत-से झूठ बोलते हो, तुम्हारी हर बात झूठी होती है। उनमें से कोई भी बात सच नहीं होती। जब तुम कोई झूठ बोलते हो, तो उसी क्षण तुम्‍हारा सम्‍मान नहीं घट जाता, लेकिन तुम अपने हृदय में अनुभव करते हो कि तुम्‍हारी साख पूरी तरह गिर चुकी है, और तुम्‍हारा अन्‍त:करण तुम पर कपटी होने का आरोप लगाएगा। तुम अपने अन्‍तरतम की गहराई में स्‍वयं से घृणा करने लगोगे और खुद को तुच्छ समझोगे, और सोचोगे, 'मैं ऐसा दयनीय जीवन क्‍यों जी रहा हूँ? क्‍या सत्‍य बोलना सचमुच इतना मुश्किल है? क्‍या मुझे महज़ अपनी प्रतिष्‍ठा की ख़ातिर ये झूठ बोलने चाहिए? जीवन मेरे लिए इस क़दर थका देने वाला क्‍यों है?' तुम्‍हें थकाऊ जीवन जीना ज़रूरी नहीं है, लेकिन तुमने सरलता और स्‍वतन्‍त्रता का मार्ग नहीं चुना है। तुमने अपनी प्रतिष्‍ठा और अपने दम्‍भ को बचाये रखने का मार्ग चुना है, इसलिए जीवन तुम्‍हारे लिए बहुत थका देने वाला है। झूठ बोलकर तुम किस तरह की ख्‍याति हासिल करते हो? ख्‍याति एक खोखली चीज़ है, और उसकी क़ीमत दस सेण्‍ट भी नहीं होती। झूठ बोल कर तुम अपना ईमान और आत्म-सम्मान बेच देते हो। इन झूठों की वजह से तुम अपनी गरिमा खो देते हो और परमेश्‍वर के समक्ष तुम्‍हारा कोई ईमान नहीं रह जाता। परमेश्‍वर इससे आनन्दित नहीं होता और वह इससे नफ़रत करता है। तब इसका क्या महत्व है? क्‍या यह मार्ग सही है? नहीं, यह सही नहीं है, और इस मार्ग पर चलते हुए तुम प्रकाश में नहीं रहते हो। जब तुम प्रकाश में नहीं रह रहे होते हो, तो तुम क्‍लान्‍त महसूस करते हो। तुम हमेशा झूठ बोलते रहते हो और उन झूठों को इस तरह दिखाने की कोशिश करते हो कि वे सत्‍य का आभास दें, अपने दिमाग़ पर मूर्खतापूर्ण बातें सोचने के लिए ज़ोर डालते रहते हो, और इस तरह खुद को तब तक दुखी बनाते रहते हो जब तक कि तुम अन्‍तत: यह नहीं सोचने लगते कि 'मुझे अब और झूठ नहीं बोलना चाहिए। मैं चुप रहूँगा और कम-से-कम बात करूँगा।' लेकिन यह तुम्‍हारे वश में नहीं रह जाता। ऐसा क्‍यों है? चूँकि तुम अपनी प्रतिष्‍ठा और ख्‍याति जैसी चीज़ों को तज नहीं सकते, इसलिए उनकी रक्षा के लिए तुम झूठ ही बोल सकते हो। तुम्‍हें लगता है कि झूठ का उपयोग कर तुम इन चीज़ों को थामे रख सकते हो, लेकिन दरअसल तुम ऐसा कर नहीं सकते। तुम्‍हारे असत्‍य न केवल तुम्‍हारी सत्यनिष्ठा और गरिमा को बनाये रखने में सफल नहीं हुए, बल्कि, इससे भी ज्‍़यादा महत्‍वपूर्ण यह है कि तुमने सत्‍य को अमल में लाने का अवसर भी गँवा दिया है। अगर तुमने अपनी ख्‍याति और प्रतिष्‍ठा को बचा भी लिया है, तब भी तुमने सत्‍य को तो गँवा ही दिया है; तुमने इसे अमल में लाने का अवसर, साथ ही एक ईमानदार व्‍यक्ति होने का अवसर भी गँवा दिया है। यह सबसे बड़ी क्षति है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'ईमानदार होकर ही कोई सच्ची मानव सदृशता जी सकता है')। इसमें मेरी हालत का सटीक वर्णन किया गया है। मैं समझ गई कि मैं धूर्त और धोखेबाज हूँ। मैं जब आराम करना चाहती थी, तो यह छोटा-सा सच भी नहीं बोल सकी। मैंने अपनी साथी को सीधे तौर पर नहीं बताया कि मुझे झपकी लेनी है और उससे थोड़ी देर बाद मिल पाऊँगी, इसके बजाय मैंने झूठ बोला। मेरी प्रेरणा, अपनी शोहरत और रुतबा बचाने की थी, दूसरों की नज़रों में अपनी छवि बचाने की थी। लेकिन परमेश्वर ऐसे व्यवहार से घृणा करता है और मैंने खुद को इसका दोषी भी माना। जैसे कि परमेश्वर के वचनों में कहा गया है, "जब तुम कोई झूठ बोलते हो, तो उसी क्षण तुम्‍हारा सम्‍मान नहीं घट जाता, लेकिन तुम अपने हृदय में अनुभव करते हो कि तुम्‍हारी साख पूरी तरह गिर चुकी है, और तुम्‍हारा अन्‍त:करण तुम पर कपटी होने का आरोप लगाएगा। तुम अपने अन्‍तरतम की गहराई में स्‍वयं से घृणा करने लगोगे और खुद को तुच्छ समझोगे, और सोचोगे, 'मैं ऐसा दयनीय जीवन क्‍यों जी रहा हूँ? क्‍या सत्‍य बोलना सचमुच इतना मुश्किल है? क्‍या मुझे महज़ अपनी प्रतिष्‍ठा की ख़ातिर ये झूठ बोलने चाहिए? जीवन मेरे लिए इस क़दर थका देने वाला क्‍यों है?'" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'ईमानदार होकर ही कोई सच्ची मानव सदृशता जी सकता है')। परमेश्वर के इन वचनों से मैंने खुद की पहचान कर ली। मुझे सच में एहसास हुआ कि अपनी शोहरत को बचाने के लिए झूठ बोलना जीवन जीने का एक विनाशकारी तरीका था, शुरुआत के झूठ को दबाने के लिए मुझे लगातार झूठ बोलते रहना था, और आखिरकार मैं बेहद नकली और कपटी बन जाती। मुझे पता था कि परमेश्वर इससे घृणा करता है, क्योंकि वह पवित्र और धार्मिक है। अपनी तमाम बेईमानियाँ याद करके, मेरी अंतरात्मा ने मेरे झूठ बोलने के बाद खुद को दोषी महसूस किया, मुझे पछतावा हुआ और मैं परमेश्वर के सामने रो पड़ी, मैंने झूठ बोलने को लेकर शर्मिंदा महसूस किया। मगर फिर इस सच्चाई को जानने के बाद भी, मैं और ज्यादा झूठ बोले बिना नहीं रह सकी। मुझमें कितनी भ्रष्टता और बेशर्मी थी! झूठ बोलना मेरी असली प्रकृति बन चुकी थी। मैंने प्रभु यीशु की कुछ बातें याद कीं : "परन्तु तुम्हारी बात 'हाँ' की 'हाँ,' या 'नहीं' की 'नहीं' हो; क्योंकि जो कुछ इस से अधिक होता है वह बुराई से होता है" (मत्ती 5:37)। "तुम अपने पिता शैतान से हो और अपने पिता की लालसाओं को पूरा करना चाहते हो। वह तो आरम्भ से हत्यारा है और सत्य पर स्थिर न रहा, क्योंकि सत्य उसमें है ही नहीं। जब वह झूठ बोलता, तो अपने स्वभाव ही से बोलता है; क्योंकि वह झूठा है वरन् झूठ का पिता है" (यूहन्ना 8:44)। यह सच था। मेरा लगातार झूठ बोलना यह दर्शाता था कि मैं शैतान की हो गई थी, मैं ऐसा बस अपनी छवि और शोहरत को बचाने के लिए करती थी। लेकिन इससे मेरा चरित्र और मेरी प्रतिष्ठा छिन गई। यह मेरी बहुत बड़ी बेवकूफी थी! परमेश्वर मुझे मौके दे रहा था कि मैं सत्य का अभ्यास करूँ और एक ईमानदार इंसान बनूँ, गवाही दूँ और शैतान को शर्मसार करूँ। लेकिन मैं शैतान की चालों में फंस कर, मखौल का पात्र बन रही थी। यह सिर्फ मेरी शोहरत के लिए और मेरी भ्रष्टता को दबाने के लिए था। मैं एक ईमानदार इंसान नहीं थी, बल्कि प्रकृति से धोखेबाज थी।

मैंने परमेश्वर के वचनों में यह भी पढ़ा : "तुम लोगों को पता होना चाहिए कि परमेश्वर ईमानदार इंसान को पसंद करता है। मूल बात यह है कि परमेश्वर निष्ठावान है, अत: उसके वचनों पर हमेशा भरोसा किया जा सकता है; इसके अतिरिक्त, उसका कार्य दोषरहित और निर्विवाद है, यही कारण है कि परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है जो उसके साथ पूरी तरह से ईमानदार होते हैं। ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और मात्र परमेश्वर की चापलूसी करने के लिए चीज़े न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। मैं समझ गई कि ईमानदार होने का अर्थ है हमारे दिल में कोई धोखा न होना, हमारी जबान पर कोई झूठ न होना, और किसी भी चीज में परमेश्वर या इंसान को धोखा नहीं देना। मुझे एहसास हुआ कि मैं बहन ली के साथ पहले भी बहुत धूर्त थी, हमेशा अपनी छवि और अपने निजी हितों को बचाने के लिए झूठ बोलती थी। मैं थकी हुई थी और झपकी लेना चाहती थी, इसलिए मैं उस वक्त उसके साथ कलीसिया के कार्य के बारे में चर्चा नहीं करना चाहती थी, लेकिन मैंने बस वह बात नहीं कही जो मेरे मन में थी, बल्कि एक एपॉइंटमेंट होने का झूठ बोला, क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि वह मुझे नीचा समझे। बेहद थकान के कारण आराम की जरूरत होने की बात कहने के बजाय मैंने उस बैठक से दूर रहने के लिए झूठ बोलना पसंद किया। फिर जब हमने बैठक की, तब भी मैंने अपनी गलती नहीं मानी, बल्कि झूठ बोलती रही, पहले वाले झूठ को दबाने के लिए एक और झूठ का इस्तेमाल किया। जब मेरी अगुआ ने काम के बारे में पूछा, तो मैंने वह काम कर देने के बारे में झूठ बोला, जो मैंने दरअसल किया ही नहीं था। और जब मुझे अपनी रसोई का साप्ताहिक सामान खरीदना था और एक सभा का समय उसके आड़े आ रहा था, तो मैंने एक एपॉइंटमेंट होने का झूठ बोला। हर चीज में मैं बस अपनी छवि को बचाना चाहती थी। मैं समझ गई कि मेरी प्रकृति बहुत शातिर और धोखेबाज है। सबसे बुनियादी चीजों के बारे में भी मैं सच नहीं बोल सकती थी। मैं शैतान द्वारा बहुत गहराई तक भ्रष्ट की जा चुकी थी, मैं बिल्कुल भी ईमानदार नहीं थी।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "लोग ईमानदार होकर ही जान सकते हैं कि वे कितनी बुरी तरह से भ्रष्ट हैं और उनमें इंसानियत बची है या नहीं; ईमानदारी पर अमल करने पर ही वे जान सकते हैं कि वे कितने झूठ बोलते हैं और कपट और बे‌ईमानी उनके अंदर कितनी गहराई में छिपे हैं। ईमानदारी पर अमल करने का अनुभव होने पर ही वे धीरे-धीरे अपनी भ्रष्टता की सच्चाई को जान सकते हैं और अपने प्रकृति और सार को पहचान सकते हैं और तभी उनका भ्रष्ट स्वभाव निरंतर शुद्ध हो सकता है। अपने भ्रष्ट स्वभाव की निरंतर शुद्धि के दौरान ही लोग सत्य पा सकते हैं। इन वचनों का अनुभव करने के लिए समय लो। परमेश्वर उन लोगों को सिद्ध नहीं बनाता है जो धोखेबाज हैं। यदि तुम लोगों का हृदय ईमानदार नहीं है, यदि तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, तो तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त नहीं किए जाओगे। इसी तरह, तुम भी कभी भी सत्य को प्राप्त नहीं कर पाओगे, और परमेश्वर को पाने में भी असमर्थ रहोगे। परमेश्वर को न पाने का क्या अर्थ है? यदि तुम परमेश्वर को प्राप्त नहीं करते हो और तुमने सत्य को नहीं समझा है, तो तुम परमेश्वर को नहीं जानोगे और परमेश्वर के अनुकूल होने का कोई रास्ता नहीं होगा, ऐसा हुआ तो तुम परमेश्वर के शत्रु हो। अगर तुम परमेश्वर से असंगत हो, तो परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है; यदि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है, तो तुम्हें बचाया नहीं जाएगा। यदि तुम्हें बचाया नहीं जा सकता, तो तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों कर रहे हो? यदि तुम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते, तो तुम हमेशा परमेश्वर के कट्टर शत्रु बनकर रहोगे और तुम्हारा परिणाम तय हो चुका होगा। इस प्रकार, यदि लोग चाहते हैं कि उन्हें बचाया जाए, तो उन्हें ईमानदार बनना शुरू करना होगा। ऐसा एक संकेत है जो उन लोगों को चिह्नित करता है, जिन्हें अंतत: परमेश्वर द्वारा प्राप्त किया जाएगा। क्या तुम लोग जानते हो कि वह क्या है? बाइबल में, प्रकाशित-वाक्य में लिखा है: 'उनके मुँह से कभी झूठ न निकला था, वे निर्दोष हैं' (प्रकाशितवाक्य 14:5)। कौन हैं 'वे'? ये वो लोग हैं जिन्हें परमेश्वर द्वारा पूर्ण और प्राप्त किया जाता है और बचाया जाता है। परमेश्वर उनका वर्णन कैसे करता है? उनके क्रियाकलापों की विशिष्टताएँ और अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? (उन पर कोई कलंक नहीं है। वे झूठ नहीं बोलते।‌) तुम सबको इस बात को समझना और ग्रहण करना चाहिए कि झूठ न बोलने का क्या अर्थ है: इसका अर्थ ईमानदार होना है। उन पर कोई कलंक नहीं है का क्या अर्थ है? जो व्यक्ति कलंकित नहीं है, उसे परमेश्वर कैसे परिभाषित करता है? परमेश्वर की नजर में पूर्ण व्यक्ति कौन है? (वह जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है।) सही है। परमेश्वर की नजर में मूलत: पूर्ण व्यक्ति वह होता है, जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है। तो क्या पूर्ण होने का संबंध निष्कलंक होने से है, क्या ये दोनों एक ही चीज हैं? (हाँ।) बिलकुल। तो 'निष्कलंक' होने का क्या अर्थ है? (वे लोग, जो पूर्ण होते हैं, परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं।) सही है। ये वे लोग हैं, जो परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं, जो परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर पाते हैं। केवल ऐसे लोग ही निष्कलंक होते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जीवन संवृद्धि के छह संकेतक')। इस बारे में सोचकर मैं बहुत डर गई। परमेश्वर कहता है : "यदि तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, तो तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त नहीं किए जाओगे। इसी तरह, तुम भी कभी भी सत्य को प्राप्त नहीं कर पाओगे, और परमेश्वर को पाने में भी असमर्थ रहोगे।" "यदि तुम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते, तो तुम हमेशा परमेश्वर के कट्टर शत्रु बनकर रहोगे और तुम्हारा परिणाम तय हो चुका होगा।" यह सच है कि परमेश्वर धोखेबाज लोगों को नहीं बचाता। मैं जानती थी कि अगर मैंने प्रायश्चित नहीं किया, तो अंत में परमेश्वर मुझे हटा देगा। परमेश्वर के वचनों के कारण, मुझे आखिरकार खुद की सही समझ हासिल हो सकी, यह जान सकी कि झूठ शैतान से आते हैं, और मैं झूठ इसलिए बोलती हूँ क्योंकि मेरी परवरिश ऐसी थी और समाज का प्रभाव ऐसा था। मेरी मॉम मुझे हमेशा बताती थी कि किसी के बाल या कपड़े कितने भी खराब क्यों न दिखें, मुझे फिर भी अच्छी बातें ही कहनी हैं, ताकि उनकी भावनाओं को ठेस न पहुंचे। वरना मेरी जरूरत के समय कोई भी मेरी मदद करने नहीं आएगा। ऐसी शिक्षा के साथ, मुझमें ईमानदार होने की हिम्मत नहीं थी। मैं अच्छी छवि बनाए रखने की कोशिश करती थी, ताकि लोग मुझे पसंद करें और सोचें कि मुझमें करुणा है। लेकिन दरअसल मैं एक नकली और धोखेबाज इंसान बन गई। इसने मुझे बाइबल में अय्यूब 1:7 की याद दिला दी : "यहोवा ने शैतान से पूछा, 'तू कहाँ से आता है?' शैतान ने यहोवा को उत्तर दिया, 'पृथ्वी पर इधर–उधर घूमते–फिरते और डोलते–डालते आया हूँ।'" शैतान के कथन धूर्त और घुमा-फिराकर कहे गए थे, इसमें स्पष्ट नहीं था कि वह वास्तव में क्या कह रहा है। झूठ बोलकर क्या मैं शैतान की ही तरह धूर्त नहीं बन रही थी? यह देखकर कि मेरी प्रकृति शैतान जैसी ही थी, मैंने बहुत शर्मिंदगी महसूस की। मैं शैतान की सत्ता के अधीन थी, और मैं अपने शैतानी स्वभाव से बिल्कुल भी मुक्त नहीं थी। इस तरह मैं कैसे मसीह के अनुरूप हो सकती थी या परमेश्वर की स्वीकृति पा सकती थी? मैं प्रायश्चित करने के लिए परमेश्वर के सामने आई, और उससे मुझे क्षमा करने की विनती की। मुझे खुद से और शैतान से घृणा हो गई, और मैंने खुद को बहुत दोषी महसूस किया। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है, मुझे मालूम था कि मैं झूठ बोलती और उसका अपमान करती नहीं रह सकती थी। एक और अंश जिस पर मैंने गौर किया, वह यह था : "ऐसा एक संकेत है जो उन लोगों को चिह्नित करता है, जिन्हें अंतत: परमेश्वर द्वारा प्राप्त किया जाएगा। क्या तुम लोग जानते हो कि वह क्या है? बाइबल में, प्रकाशित-वाक्य में लिखा है: 'उनके मुँह से कभी झूठ न निकला था, वे निर्दोष हैं' (प्रकाशितवाक्य 14:5)। कौन हैं 'वे'? ये वो लोग हैं जिन्हें परमेश्वर द्वारा पूर्ण और प्राप्त किया जाता है और बचाया जाता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जीवन संवृद्धि के छह संकेतक')। परमेश्वर ईमानदार लोगों को अहमियत देता है, और बेईमान लोग कभी भी उसके राज्य में प्रवेश नहीं करेंगे। मैं सच में झूठ बोलना बंद करना चाहती थी, बेदाग़ बनना चाहती थी, लेकिन यह मैं अपने ही बूते पर नहीं कर सकती थी। खुद को शैतान के चंगुल में फंसने से बचाने के लिए मुझे परमेश्वर की मदद की जरूरत थी। कभी-कभी सच बोलने से शर्मिंदगी हो सकती है, मगर मैं झूठ बोलना बंद कर देना चाहती थी। फिर मैंने "एक ईमानदार व्यक्ति बनने के सिद्धांत" को दोबारा पढ़ा। "(1) अपने आपको एक ईमानदार व्यक्ति बनने में प्रशिक्षित करने के लिए परमेश्वर पर निर्भर होना आवश्यक है। अपना दिल उसे दे दो, और उसकी जाँच को स्वीकार करो। केवल इसी तरह से समय के साथ व्यक्ति अपने झूठ और कपट को त्याग सकता है। (2) सत्य स्वीकार करना और अपने प्रत्येक शब्द और कर्म पर चिंतन करना आवश्यक है। स्वयं द्वारा प्रकट भ्रष्टता के मूल और सार का विश्लेषण करो, और स्वयं को जान जाओ। (3) यह जाँच करना आवश्यक है कि किन मामलों में व्यक्ति अनेक झूठ बोलता है और मन में धोखेबाजी को आश्रय देता है। अपना विश्लेषण करने और अपनी सच्चाई प्रकट करने का साहस करो, माफी माँगो और सुधार करो। ..." (सत्य का अभ्यास करने के 170 सिद्धांत)। मैं जानती थी कि मुझे बहन ली से माफी माँगनी है। मैं इतनी कपटी थी, मैंने उससे दो बार झूठ बोला। मैंने फैसला किया कि मुझे उसके सामने अपनी भ्रष्टता और अपनी प्रेरणाओं के बारे में खुलकर बताना होगा। मैं ये चीजें छिपा नहीं सकती। चाहे जो भी हो, मुझे सच बता देना चाहिए और एक ईमानदार इंसान बनना चाहिए। कई बार प्रार्थना करने के बाद, मैंने बहन ली के सामने खुलकर अपनी बात कहने की हिम्मत जुटाई। मैंने उसे विस्तार से सब कुछ बताया कि कैसे मैंने उसे धोखा दिया, और कहा कि मैंने परमेश्वर के सामने प्रायश्चित किया है। मैंने अपने झूठ को दबाने की कोशिश नहीं की, क्योंकि मुझे मालूम था कि परमेश्वर मुझे देख रहा है, मुझे हर चीज विस्तार से बतानी है। मेरी बात पूरी होने के बाद मुझे लगा जैसे एक बहुत बड़ा बोझ मेरे सीने से उतर गया हो, और मुझे बहुत आराम मिला।

इसके बाद, मैं हर वक्त परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करने लगी, उससे मेरे दिल को परखने की विनती की। जब कभी मेरे मन में कोई धूर्त मंशा आती, या मैं बेईमान या कपटी हो जाती, तो मैं परमेश्वर से मुझे अनुशासित कर रोक देने की विनती करती। मुझे पता था कि झूठ बोलने की समस्या को तुरंत सुलझाया नहीं जा सकता, मैं अपने जीवन में कभी भी सच में एक ईमानदार इंसान नहीं रही। मैं एक ईमानदार इंसान बनने की कोशिश जारी रखना चाहती थी। परमेश्वर उन्हीं लोगों को पसंद करता और आशीष देता है जो ईमानदार हैं, और सिर्फ ईमानदार लोगों को ही बचाया जा सकता है। उसके बाद से, जब कभी मुझे एहसास होता कि मेरे मन में कपटी विचार आ रहा है, तो मैं परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करती, "हे परमेश्वर, मेरे सामने एक मुश्किल आई है, और मुझे लगता है कि झूठ बोले बिना मैं इसे पार नहीं कर सकती। मुझे सत्य को समझने की प्रबुद्धता दो, और अपना देह-सुख त्याग देने की हिम्मत दो। हे परमेश्वर, मैं सत्य का अभ्यास करना चाहती हूं, एक ईमानदार इंसान बनना चाहती हूँ। मेरी मदद करो, मैं तुम्हारी बहुत आभारी हूँ!"

एक बार, सभा के बाद, एक अगुआ ने मुझसे पूछा कि मैं इस सभा के बारे में क्या सोचती हूँ। मैंने वास्तव में ध्यान दिया था कि वे सभा में ढीठ बने हुए थे, और उनकी संगति में दूसरी समस्याएँ भी थीं। लेकिन मैं सच बोलकर उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने से डरती थी, क्योंकि फिर वे मुझे पसंद न करते। मैं ईमानदार बन कर अपने बारे में उनकी राय नहीं बदलना चाहती थी। इसलिए मैंने कहा, "बहुत बढ़िया था।" यह कहते ही मुझे बड़ा अजीब-सा लगा। मुझे एहसास हुआ कि मैंने झूठ बोला है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर एक ईमानदार इंसान बनने और सच बोलने के लिए मेरा मार्गदर्शन करने की विनती की। फिर मैंने जाकर सभा की समस्याओं के बारे में अगुआ से बात की और तब मुझे बड़ा सुकून महसूस हुआ। उनकी अगली सभा काफी बेहतर थी। मैं समझ गई कि जब हम दिल से प्रार्थना करते हैं तो परमेश्वर हमारी सुनता है। मैंने देखा कि कुछ समय बाद, मैं धीरे-धीरे बदल रही थी। अपनी इज़्ज़त और रुतबा बचाने के लिए पहले मैं हमेशा झूठ बोलती थी। लेकिन जब मैंने अपना दिल परमेश्वर को सौंप दिया, उससे अपने दिल की और मेरी निगरानी करने और मुझे काबू में रखने की विनती की, तो मैं अपना खुद का हाल साफ तौर पर देख सकी। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की और ईमानदार होने का अभ्यास किया। यह बात कभी-कभी लोगों को बुरी लग सकती है, लेकिन परमेश्वर के सामने एक ईमानदार इंसान बनना मेरे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है।

लोगों को खुश करने, अपनी शोहरत और रुतबे को बचाने के लिए पहले मेरी झूठ बोलने की आदत थी, लेकिन अब मैं परमेश्वर द्वारा मेरे लिए बनाए गए हर माहौल में ईमानदार इंसान बने रहने की कोशिश कर रही हूँ। मैं इन अनुभवों और इस समझ के लिए परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ। उसके वचनों के न्याय ने मेरी भ्रष्टता और बदसूरती को समझने, और कुछ बदलाव लाने में मेरी मदद की है। मैं जानती हूँ कि झूठ बोलने की आदत को बदलना एक निरंतर प्रक्रिया है, और परमेश्वर मेरे अनुभव के लिए एक-के-बाद-एक हालात तैयार कर रहा है। मुझे सतर्क रहना होगा ताकि मैं परमेश्वर को नाराज करने वाला कोई झूठ न बोलूँ। सबसे अहम बात है परमेश्वर के वचनों के न्याय को स्वीकार करना और उससे प्रार्थना करके उस पर भरोसा करना, ताकि झूठ बोलने की प्रवृत्ति से सही मायनों में मुक्त हो सकें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर की जय हो!

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