अहंकार मिटाने का उपाय
"हे परमेश्वर! तेरा न्याय कितना वास्तविक है, धार्मिकता और पवित्रता से परिपूर्ण है। मानवजाति की भ्रष्टता के सत्य के बारे में तेरे प्रकाशनों ने मुझे पूरी तरह उजागर कर दिया है। मैं सोचता हूँ कि कैसे मैंने वर्षों तक खुद को खपाया और तेरी आशीष पाने के लिए स्वयं को व्यस्त रखा। मैंने पौलुस का अनुकरण किया, परिश्रम से कार्य किया, ताकि मैं भीड़ से अलग दिखूँ। तेरे न्याय के वचनों मे मुझे दिखाया कि मैं कितना स्वार्थी और घृणायोग्य था। मैं शर्मिंदा होकर ज़मीन पर गिर गया हूँ, तेरे चेहरे को देखने के बहुत अयोग्य हूँ। बहुत बार मैंने उस पथ को मुड़कर देखा है जिस पर मैं चला था। तू ही था जिसने मुझ पर नज़र रखी और मेरी रक्षा की, मुझे हर कदम राह दिखाते हुए आज तक लाया। मैं समझता हूँ कि मुझे बचाने के लिए तुझे क्या कीमत चुकानी पड़ती है, यह सब तेरा प्रेम है। हे परमेश्वर! तेरे न्याय का अनुभव करके, मैंने तेरे सच्चे प्रेम का स्वाद लिया है। यह तेरा न्याया है जो मुझे खुद को जानने और दिल से पछतावा करने देता है। मैं इतना भ्रष्ट हूँ कि मुझे सच में ज़रूरत है कि तू मेरा न्याय करे और मुझे शुद्ध करे। तेरे न्याय के बिना, मैं केवल अंधकार में भटक सकता हूँ। तेरे वचन ही हैं जो मुझे जीवन के प्रकाश के मार्ग पर लाये हैं। मुझे महसूस होता है कि तुझे प्रेम करना और तेरे लिए जीना सबसे सार्थक कार्य है। कितनी बार मैंने मुड़कर उस पथ को देखा है जिस पर मैं चला हूँ। तेरा न्याय और ताड़ना, तेरा आशीष और प्रेम हैं। मैं सत्य को समझूँगा और तेरे प्रति अधिक शुद्ध प्रेम को हासिल करूँगा। मुझे कितना भी कष्ट हो मैं इसके लिए तैयार हूँ" ("मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'परमेश्वर ने मुझे बहुत प्रेम दिया है')। हर बार जब मैं इस गीत को गाता हूँ, तो मैं इन सभी वर्षों के दौरान मेरे लिए परमेश्वर द्वारा किए गए उद्धार के बारे में सोचता हूँ, और मैं उसके लिए कृतज्ञता से भरा हुआ हूँ। यह परमेश्वर का न्याय और ताड़ना थी जिसने मुझे बदल दिया। इसने मुझ—एक अहंकारी, महत्वाकांक्षी, विद्रोही पुत्र—को दिखने में एक इंसान जैसा बनाया। मैं परमेश्वर द्वारा मेरे उद्धार के लिए ईमानदारी से धन्यवाद देता हूँ!
मैं देहात में पैदा हुआ था। क्योंकि मेरा परिवार गरीब था और मेरे माता-पिता ईमानदार थे, इसलिए वे अक्सर धोखा खाते थे। जब मैं छोटा था तब से लोग मुझे तुच्छ समझते थे, और मेरा मार खाना और धौंस का शिकार होना एक आम बात बात हो गयी थी। इससे मैं अक्सर इतना दुःखी हो जाता था कि रो पड़ता था। मैंने अपना सब कुछ अपनी पढ़ाई में लगा दिया ताकि मुझे अब उस प्रकार का जीवन न बिताना पड़े, ताकि भविष्य में मुझे सरकारी अधिकारी का कोई पद मिल सके, मैं कोई प्रभारी बन सकूँ, और हर कोई मेरी ओर सम्मान से देखे। किन्तु जैसे ही मैंने माध्यमिक शिक्षा पूरी कर उच्च विद्यालय की प्रवेश परीक्षा की तैयारी शुरू की तभी सांस्कृतिक क्रांति शुरू हो गई। लाल सैनिकों ने विद्रोह कर दिया, श्रमिक हड़ताल पर चले गए, छात्र विरोध में बाहर आ गए। हर दिन क्रांति में जकड़ा था। बड़ा उपद्रव हो रहा था, लोग भगदड़ में थे, और विद्यालय प्रवेश परीक्षा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। इसलिए, मैंने एक विद्यालय में परीक्षा का अवसर खो दिया। मैं बहुत ही निराश हो गया था—मुझे इतना बुरा लग रहा था मानो कि मैं गंभीर रूप से बीमार हो गया हूँ। बाद में, मैंने सोचा: भले ही मैं विद्यालय की परीक्षा नहीं दे सकता हूँ या सरकारी अधिकारी नहीं बन सकता हूँ, फिर भी मैं पैसे कमाने के लिए कड़ी मेहनत करूँगा। जब तक मेरे पास पैसा है, तब तक लोग मेरे बारे में अच्छा सोचेंगे। तब से, मैं हर जगह पैसा बनाने के तरीकों की तलाश करने लगा। चूँकि मेरा परिवार गरीब था, इसलिए मेरे पास व्यापार शुरू करने के लिए बिल्कुल धन नहीं था। रिश्तेदारों और दोस्तों से, मैंने दम दे कर पकाया गया गोश्त बेचने की एक दुकान शुरू करने के लिए 500 युआन उधार लिए। उस समय एक पाउंड गोश्त केवल सत्तर सेंट का था, किन्तु आवश्यक उपकरण खरीदने के बाद, उस 500 युआन में से जो बचा था वह पर्याप्त नहीं था। मेरी सारी कमाई सीधे व्यापार में चली जाती। जैसे ही मैं पैसे कमाता, तो उससे मैं अपना कर्ज चुकाता। मैंने कई कठिनाइयों को सहा ताकि मैं दूसरों की तुलना में बेहतर जीवन बिताने में समर्थ हो जाऊँ। सुबह से देर रात तक, मेरे पास आराम का समय नहीं था। कई वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद, मेरे कौशल बेहतर हो गए, और मेरा व्यवसाय अधिकाधिक फलने-फूलने लगा। मेरा परिवार शीघ्र ही दौलतमंद हो गया, और बहुत से लोग ईर्ष्या के साथ मुझे देखते थे।
1990 के बसंत में, हमारे गाँव में एक व्यक्ति था जो मुझसे यीशु पर विश्वास करने के बारे में बात की। मैंने जिज्ञासावश कुछ धर्मोपदेशों को सुना, और देखा कि जब वह उपदेश देने वाला भाई बोल रहा था, तो बहुत से लोग उसे आदर से देख रहे थे। उसे भीड़ से घिरा और प्रशंसा पाते देख कर मैं ईर्ष्या से जल-भुन गया। मैंने मन में सोचा: यदि मैं ऐसा व्यक्ति बन सकूँ, तो न केवल हर कोई मेरा सत्कार करेगा, बल्कि मैं प्रभु का अनुग्रह प्राप्त करने में भी समर्थ हो जाऊँगा और उसके द्वारा पुरस्कृत किया जाऊँगा। यह कितना अद्भुत होगा! इन विचारों से प्रेरित होकर, मैंने प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करना शुरू कर दिया, और मैं एक गृह कलीसिया में शामिल हो गया। उसके बाद, मैंने बाइबल का अध्ययन करने के लिए, विशेषरूप से बाइबल का ज्ञान पाने और उसके कुछ अंशों को याद रखने पर ध्यान लगाते हुए, कड़ी मेहनत की, और बहुत शीघ्र मैंने कई प्रसिद्ध अध्यायों और पदों को रट लिया। मैंने मत्ती के सुसमाचार का अध्याय 16, पद 26 पढ़ा जहाँ प्रभु यीशु ने कहा था: "यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त करे, और अपने प्राण की हानि उठाए, तो उसे क्या लाभ होगा? या मनुष्य अपने प्राण के बदले क्या देगा?" (मत्ती 16:26)। तब मैंने इस बारे में भी पढ़ा कि प्रभु यीशु ने पतरस को पुकारा, और उसने तुरंत मछली पकड़ने के जाल को छोड़कर मसीह का अनुसरण किया। मैंने मन में सोचा: जीवन बिताने के लिए पर्याप्त धन होना अच्छी बात है; लेकिन अगर मैं अधिक कमाऊँ भी तो मेरे मरने पर यह किस काम आएगा? यदि मैं प्रभु की प्रशंसा प्राप्त करना चाहता हूँ, तो मुझे पतरस के उदाहरण का अनुसरण करना होगा। इसलिए मैंने अपना व्यवसाय छोड़ दिया, और पूरा समय कलीसिया में व्यस्त रहने लगा। मैं उस समय बहुत जोश में था, और अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के माध्यम से मैंने जल्द ही 19 लोगों को ईसाई बना लिया था, और उसके बाद उन 19 लोगों के माध्यम से वह 230 लोगों तक विस्तारित हो गया था। तब, मैंने प्रभु यीशु के वचनों को पढ़ा: "जो मुझ से, 'हे प्रभु! हे प्रभु!' कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है" (मत्ती 7:21)। मैंने और अधिक आत्म-संतुष्टि महसूस की। उसके वचनों के शाब्दिक अर्थ से जो मैं समझा था उसके आधार पर, मुझे विश्वास था कि मैं पहले से ही प्रभु के मार्ग का अनुसरण कर रहा हूँ, कि मैं स्वर्गिक पिता की इच्छा का अनुसरण करने के मार्ग पर था, और अगले युग में जब परमेश्वर का राज्य साकार होगा, तो मैं पृथ्वी पर एक राजा के रूप में शासन करूँगा। इस प्रकार की महत्वाकांक्षा के वर्चस्व में, मेरा उत्साह और भी अधिक हो गया। मैंने दृढ़ संकल्प लिया कि मुझे पूरी तरह से मुझे यीशु के वचनों "अपने पड़ोसियों को अपने समान प्रेम करो" और "सहनशील और धैर्यवान बनो," का पालन करना था, साथ ही खुद ही उदाहरण बनकर अगुआई करनी थी, और कठिनाई का सामना करने से डरना नहीं था। कभी-कभी जब मैं अपने भाई-बहनों के घरों में जाता था, तो मैं पानी लाने, आग जलाने, और खेत का कार्य करने में उनकी सहायता करता था। जब वे बीमार होते, मैं उन्हें देखने जाता। जब उनके पास पर्याप्त पैसा नहीं होता तो मैं अपनी बचत में से उनकी सहायता करता था; जो भी कठिनाइयों का अनुभव कर रहा होता, मैं उसकी सहायता करता। शीघ्र ही मैंने अपने सभी भाइयों और बहनों की प्रशंसा और साथ ही कलीसिया के उच्च अगुआओं का भरोसा प्राप्त कर लिया। एक वर्ष बाद मुझे 30 कलीसियाओं की चरवाही करने के लिए कलीसिया का अगुआ बना दिया गया। मैं लगभग 400 विश्वासियों का प्रबंधन कर रहा था। एक बार जब मैंने मैंने यह पद पा लिया, तो मुझे बहुत अच्छा लगा। मुझे लगा कि मेरी सारी कड़ी मेहनत और प्रयास अंततः रंग लाये, किन्तु उसी समय मैंने अपने दिल में एक और भी अधिक ऊंचा आदर्श बना लिया जो था और उच्च पद पाने की कोशिश करना, और भी अधिक लोगों की प्रशंसा और श्रद्धा पाना। कड़ी मेहनत के एक और वर्ष द्वारा, मैं पाँच काउंटियों में सह-कार्यकर्ताओं की अगुआई, 420 कलीसियाओं की चरवाही करने वाला, एक उच्च स्तरीय कलीसिया अगुआ बन गया था। उसके बाद मैं कमज़ोर पड़ने से और ज्यादा डरने लगा, इसलिए मैंने अपने ऊपरी अच्छे व्यवहार पर, और अपने सहकर्मियों और भाइयों और बहनों के बीच अपनी छवि बनाने पर विशेष ध्यान दिया। अपने सहकर्मियों से समर्थन पाने के लिए और ताकि मेरे भाई-बहन मेरी प्रशंसा करें इसलिए, मैंने कलीसिया में भोजन पर फिजूल-खर्च का विरोध किया, और मैंने आदमियों और औरतों के बीच के सभी संपर्कों और अस्वास्थ्यकर अभ्यासों को निषिद्ध कर दिया। मेरी "ईमानदारी और न्याय की समझ" को मेरे सहकर्मियों और अन्य भाई-बहनों से समर्थन और अनुमोदन प्राप्त हुआ। मेरा अहंकारी स्वभाव भी बढ़ गया और नियंत्रण से बाहर हो गया। इसके अलावा, मुझे बाइबल के कुछ अधिक प्रचलित अंश मुंह-ज़बानी रटे थे, और कुछ निचले-स्तर के कलीसिया के अगुआओं और सहकर्मियों के साथ सभा करते और उपदेश देते समय, मैं अपनी बाइबल को देखे बिना केवल अध्याय और पद संख्याओं के आधार पर अंशों को पढ़ सकता था। मेरे भाई-बहन मेरी वास्तव में प्रशंसा करते थे, इसलिए कलीसिया में अंतिम निर्णय हमेशा मेरा होता था। हर कोई मेरी बात सुनता था। मैं हमेशा सोचता था कि मैं जो कहता था वह सही था, कि मेरे पास उच्च समझ है। चाहे यह कलीसिया का संचालन हो, कलीसियाओं को विभाजित करना हो, या कलीसिया के अगुआओं और सहकर्मियों को प्रोन्नत करना हो, मैं कभी भी इन बातों पर दूसरों के साथ चर्चा नहीं करता था। मैं जो कहता वह हमेशा महत्व रखता था; मेरे पास वास्तव में एक राजा का अधिकार था। उस समय मैं सिंहासन पर खड़े हो कर, वाक्पटुता से और अत्यधिक बोलते हुए, विशेष रूप से आनंद उठाता था, और जब हर कोई मुझे प्रशंसा के साथ देख रहा होता, तो दुनिया के शीर्ष पर होने की भावना मेरे लिए सम्मोहक थी और उसने मुझे हर बात भूलने पर मजबूर कर दिया। मैंने तब विशेष रूप से ऐसा महसूस किया जब मैंने यूहन्ना का सुसमाचार अध्याय 3, पद 34 को पढ़ा तो: "क्योंकि जिसे परमेश्वर ने भेजा है, वह परमेश्वर की बातें कहता है; क्योंकि वह आत्मा नाप नापकर नहीं देता।" मैं वास्तव में इसका आनन्द उठाता था, और मैं बेशर्मी से मानता था कि मुझे परमेश्वर के द्वारा भेजा गया है, कि परमेश्वर ने मुझमें पवित्र आत्मा को दिया है, और परमेश्वर की इच्छा मेरे माध्यम से व्यक्त की गई है। मैं मानता था कि चूंकि मैं शास्त्रों की व्याख्या कर सकता था, मैं उन "रहस्यों" को समझ सकता था जो दूसरे नहीं समझ सकते थे इसलिएमैं उन संकेतार्थों को देख सकता था जिन्हें दूसरे नहीं देख सकते थे। मैं केवल अपने पद से मिले आनंद में तल्लीन रहने से मतलब रखता था, और मैं पूरी तरह से भूल गया था कि मैं सिर्फ एक सृजन हूँ, कि मैं केवल परमेश्वर के अनुग्रह का एक पात्र हूँ।
जैसे-जैसे कलीसिया बढ़ती गयी, मेरी प्रतिष्ठा भी बढ़ती गई, और हर जगह जहाँ भी मैंजाता था, आधिकारिक स्वीकृति के बगैर धार्मिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए, पुलिस मेरा पीछा करती थी। सरकार के इस उत्पीड़न के कारण, मैंने घर लौटने का साहस नहीं किया। मैं कुछ समय के लिए छुप सकता था, किन्तु हमेशा के लिए नहीं, और एक बार जब मैं कुछ कपड़े लेने के लिए वापस गया तो मैं पुलिस द्वारा पकड़ लिया गया था। मुझे तीन वर्ष तक वापस से शिक्षा प्राप्त करने के लिए सश्रम कारावास दिया गया था। उन तीन वर्षों के दौरान मैं हर तरह के क्रूर उत्पीड़न और यातना से गुज़रा। दिन सचमुच वर्षों की तरह महसूस होते थे, और मुझे ऐसा महसूस होता था जैसे कि सिर से पैर की अँगुली तक त्वचा की परत छील दी गई हो। किन्तु बाहर आने के बाद भी मैं अत्यधिक आत्मविश्वास के साथ सुसमाचार का प्रचार करता रहा, बिल्कुल हमेशा की तरह, और मुझे अपने मूल पद पर पुनः बहाल कर दिया गया था। छः महीनों के बाद, एक बार फिर स्थानीय सरकार ने मुझे हवालात में डाल दिया और मुझे फिर से शिक्षा प्राप्त करने के लिए तीन वर्ष तक सश्रम कारावास की सज़ा दी गयी। हर संभव तरीके से मुझे यातना देने के बाद, उन्होंने मुझे और 70 दिनों के लिए एक निरोध केंद्र में डाल दिया। उसके बाद, मुझे एक श्रम शिविर में रखा गया जहाँ मैं ईंटें ढोता था। उस समय यह सातवाँ चंद्र मास था और मौसम तप रहा था। भट्ठे में तापमान लगभग 70 डिग्री था और मुझे हर दिन 10,000 से अधिक ईंटें बनानी पड़ती थी। पिछली क्रूर यातना और मेरी भूख ने मिलकर मेरे शरीर को अत्यधिक कमज़ोर बना दिया था। मैं शारीरिक रूप से गर्मी में उस प्रकार के श्रम को सहन नहीं कर पा रहा था, किन्तु दुष्ट संतरियों को इसकी बिल्कुल भी परवाह नहीं थी। जब मैं अपने कार्यों को पूरा नहीं कर पाता था तो वे मेरे हाथों को मेरी पीठ के पीछे करके हथकड़ी लगा देते थे, मुझसे घुटने टिकवाते, और मेरी बगलों में और मेरे घुटनों के पीछे बोतलें लगाते थे। फिर वे मुझे बिजली के अंकुशों से तब तक मारते थे जब तक की हथकड़ी मेरी देह में गहराई से गड़ नहीं जाती थी। यह अविश्वसनीय रूप से दर्दनाक था। इस प्रकार के क्रूर अत्याचार के अधीन, मैंने केवल सात दिनों का श्रम ही पूरा किया था जब मैं भट्ठे के अंदर बेहोश हो गया। 52 घंटों तक मुझे बचाने कोई नहीं आया, मैं लगभग जड़ व्यक्ति बन गया था। होश में होने और देखने और सुनने में सक्षम होने के अलावा, मैं कुछ नहीं कर सकता था। मैं खा, पी नहीं सकता था, बात नहीं कर सकता था, चल नहीं सकता था यहाँ तक कि बाथरूम का उपयोग भी नहीं कर सकता था। कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा इस तरीके से तबाह कर दिए जाने के बाद, मेरी अहंकारी प्रकृति व्यापक रूप से परास्त हो गई थी। शक्ति और अहंकार की वह ऊर्जा जो कलीसिया में मेरे पास थी बिल्कुल गायब हो गई थी। मैं अंधकारमय और निराशावादी बन गया था; मैं असीम पीड़ा और असहायता के बीच में रह रहा था। बाद में निरोध केंद्र के लोगों को एक विकृत ख्याल आया, उन्होंने एक चिकित्सक से झूठे दस्तावेज़ बनाने के लिए कहा जिसमें कहा गया था कि मुझे "आनुवांशिक विकार" है। उन्होंने मेरी पत्नी को बुलाया और मुझे उठा कर घर ले जाने के लिए कहा। मेरी हालत का उपचार करने के लिए, हमारे घर का सब कुछ बिक गया, और जब मेरे रिश्तेदार मुझे देखने आए तो वे रुखाई से व्यंग्य करते और उपहास उड़ाते थे। इस स्थिति का सामना करके, मैं निराश हो गया और मैंने महसूस किया कि दुनिया बहुत अंधकारमय है, कि लोगों के बीच कोई पारिवारिक स्नेह या प्रेम नहीं है, केवल क्रूर उत्पीड़न और अपयश है...। इस दर्दनाक बीमारी की यातना का सामना करते हुए, मेरे जीवन में कोई आशा नहीं थी और मुझे नहीं पता था कि मैं कैसे ज़िंदा रह सकूँगा।
जैसे ही मैं निराशा में डूब रहा था, तभी सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मेरी ओर उद्धार का हाथ बढ़ाया। घर वापस आने के लगभग एक महीने के बाद, दो भाई मुझे अंत के दिनों के परमेश्वर के सुसमाचार का उपदेश देने और यह उपदेश देने के लिए आए कि परमेश्वर कार्य के एक नए चरण पर काम कर रहा है, मानव जाति को बचाने के लिए उसके दूसरे देहधारण का कार्य है। उस समय मैंने इस पर बिल्कुल भी विश्वास नहीं किया, किन्तु क्योंकि मैं बोल नहीं सकता था, इसलिए मैंने उनको दिखाने के लिए बाइबल में से कुछ अंश ढूँढे। इस तरह से मैंने उनका खण्डन किया। उन्होंने मुझे नम्रता से उत्तर दिया: "भाई, जब आप परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, तो आपके पास विनम्रता से खोजने वाला हृदय होनाचाहिए। परमेश्वर का कार्य हमेशा नया होता है; यह हमेशा आगे बढ़ रहा है, और उसकी बुद्धि को मानव के द्वारा नहीं समझा जा सकता है, इसलिए हम अतीत में बहुत अधिक नहीं जकड़े रह सकते हैं। यदि आप अनुग्रह के युग में परमेश्वर के कार्य का अनुसरण करते हैं तो क्या आप राज्य के युग में प्रवेश करने में सक्षम हो पायेंगे? इसके अतिरिक्त, बाइबल में प्रभु यीशु ने जो कहा उस सभी का अपना अर्थ और संदर्भ है।" तब, उन्होंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को मेरे पढ़ने के लिए खोला और उसके बाद बाइबल में दी गई अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य से संबंधित कई भविष्यवाणियाँ मेरे पढ़ने के लिए ढूँढी। परमेश्वर के वचनों और अपने भाइयों के साथ संगति के माध्यम से, परमेश्वर के नाम का अर्थ, उसके कार्य के तीन चरणों का आंतरिक सत्य, मानवजाति के उसके प्रबंधन में उसका उद्देश्य, उसके देहधारणों के रहस्य, बाइबल का आंतरिक सत्य, तथा बहुत कुछ मेरी समझ में आया। ये ऐसी बाते थीं जिनके बारे में मैंने कभी अपने जीवन में नहीं सुना था, और ये ऐसे रहस्य और सत्य भी थे कि जिन्हें ग्रहण करने का मैं उस समय इच्छुक नहीं था जब मैं बाइबल का अध्ययन करने के लिए इतनी मेहनत कर रहा था। मैंने इसे उत्साह के साथ सुना; मैं पूरी तरह से आश्वस्त हो गया था। उसके बाद, मेरे भाईयों ने मुझे यह कहते हुए परमेश्वर के वचनों की एक किताब दी: "बेहतर होने के बाद, आप अपने सहकर्मियों और भाई-बहनों को सुसमाचार का उपदेश दे सकते हैं।" मैंने परमेश्वर के वचनों की पुस्तक को बहुत खुशी से स्वीकार कर लिया। उस समय, मैं पूरा दिन केवल बिस्तर पर लेटे रहने और परमेश्वर के वचनों को पढ़ने में समर्थ था। मुझे ऐसी लालसा और आनन्द महसूस होता था जैसा पानी की ओर लौटने वाली मछली को होता है। मैं बहुत खुश और संतुष्ट था। शीघ्र ही, मेरा स्वास्थ्य धीरे-धीरे सुधरने लगा। मैं बिस्तर से उठ पा रहा था और थोड़ा चल-फिर सकता था, और मैं अपने जीवन में और अधिक आत्मनिर्भर होने में समर्थ हो गया था। इसके बाद मैं अपने घर में कलीसिया का जीवन जी रहा था, और मैं हर हफ्ते दो बार सभा करता था।
मैंने यह कल्पना नहीं की थी कि मेरे भविष्य के कलीसियाई जीवन में मेरा अहंकारी स्वभाव इतनी पूर्णता से उजागर होगा। परमेश्वर ने अपने वचनों और विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों के माध्यम से, अपने न्याय और ताड़ना के माध्यम से, मेरे साथ निपटने और मेरे पहलुओं की काँट-छाँट के माध्यम से, परमेश्वर ने मेरे अहंकारी, उच्छृंखल हृदय को थोड़ा-थोड़ा करके ज़मीन पर ला दिया। एक बार कलीसिया ने 17 या 18 वर्ष की एक जवान लड़की की मुझसे आ कर मिलने की व्यवस्था की। वह मेरे मूल संप्रदाय के एक भाई की बेटी थी, और पहले जब मैं कलीसिया का अगुआ था, तो मैं अक्सर उसके घर जाता था। मैंने मन में सोचा: कलीसिया के अगुआ की व्यवस्था को हो क्या गया है? एक बच्ची का आकर मेरा मार्गदर्शन करना—क्या वे मुझे तुच्छ समझते हैं? अपनी अहंकारी प्रकृति के तहत, मैंने तिरस्कार से कहा: "जितने वर्षों का तुम्हारा जीवन है मैंने उससे अधिक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है। जब मैं तुम्हारे घर आया करता था तब तुम मात्र कुछ ही वर्षों की थीं। तब मैं तुम्हारे साथ खेला करता था, किन्तु अब तुम मेरा मार्गदर्शन करने के लिए आ रही हो...।" मैंने जो कुछ कहा उससे मेरी छोटी बहन का चेहरा लाल हो गया, और उसने पुनः आने की हिम्मत नहीं की। अगले हफ्ते एक दूसरी छोटी बहन आई। वह भी काफी छोटी थी और पड़ोस के गाँव से थी। मैंने कुछ भी नहीं कहा, किन्तु मैंने सोचा: चाहे यह परमेश्वर पर विश्वास करने की वर्षों की संख्या हो या योग्यता, बाइबल का ज्ञान हो, या कलीसिया संचालन में अनुभव हो, मैं हर बात में तुम्हारी अपेक्षा बहुत अधिक बेहतर हूँ! तुम्हारी उम्र देखकर मैं कह सकता हूँ कि तुम अधिक से अधिक तीन से चार वर्ष से विश्वासी रही हो। मैंने 21 वर्षों तक विश्वास किया है। तुम मेरा मार्गदर्शन करने के योग्य कैसे हो सकती हो? ... किन्तु कौन जान सकता था कि यह छोटी बहन वास्तव में खुद को बहुत अच्छे से व्यक्त कर सकती थी—वह स्पष्ट रूप से और समझदारी से बोलती थी। मिलकर, उसने तुरंत परमेश्वर के कथनों को खोला और जोर से पढ़ने लगी: "कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जा कर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है जब लोग उन्हें सुनते हैं, उनकी आराधना करते हैं और उनके चारों ओर घूमते हैं। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के मन में उनकी एक हैसियत हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें: उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह इस बात को दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिमाग में एक हैसियत प्राप्त करना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। परमेश्वर के वचनों ने दुधारी तलवार की तरह, मुझ पर सीधा प्रहार करते हुए, मेरे दिल को भेद दिया। परमेश्वर में विश्वास करते हुए मैंने जो कर्म किए थे, उसमें मेरे अधम इरादों औरकुरूप प्रदर्शन का यह एक तीखा प्रकटन था, और साथ ही मेरी प्रकृति का सच्चा सार था। मैं शर्म से भर गय था और सिर्फ गायब हो जाना चाहता था। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि परमेश्वर के वचनों में क्या उजागर हुआ था, जब मैंने उस बारे में सोचा कि मैंने क्या प्रगट किया है, केवल तभी मुझे पता चला कि मेरी प्रकृति बहुत अहंकारी थी और सारभूत रूप से मैं परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण रहा था। अतीत में, लोगों का आदर और प्रशंसा पाने के लिए, दूसरों का प्रभारी होने के लिए, किसी उच्च स्तर पर होने के लिए, मैंने बाइबल पढ़ने में कड़ी मेहनत की और अपने आप को बाइबल के ज्ञान से सुसज्जित करने में सब कुछ लगा दिया। इस वजह से, मुझे एक हैसियत और खिताब मिला जिसका मैंने केवल सपना देखा था और साथ ही हर किसी का समर्थन भी मिला। मुझे दूसरों की प्रशंसा से आनन्द मिलता था, और मैं अपने स्वयं के घमंड को संतुष्ट करने के लिए उपदेश देता था। सामर्थ्य पर मेरे एकाधिकार के माध्यम से, मैं स्वयं को प्रकट करता था और इतराता था। जब मैं मंच पर खड़ा होता था, तब मैं दुनिया के शीर्ष पर होने की भावना का सदा खुशी से आनंद लेता था, और यहाँ तक कि स्वयं की गवाही देने और स्वयं को ऊँचा उठाने के लिए मैं बेशर्मी से बाइबल केअंशों उपयोग करता था। मैं सोचता था कि मुझे परमेश्वर द्वारा भेजा गया है। मैं ढीठता के साथ अहंकारी था। उस दिन, मैंने अपने कई वर्षों के उपदेश को उत्कृष्ट मानते हुए उस छोटी बहन को तुच्छ समझा। मेरा मानना था कि क्योंकि मैं परमेश्वर पर अधिक वर्षों से विश्वास करता हूँ और मुझे बाइबल का अधिक ज्ञान है, कलीसिया संचालन में अधिक अनुभव है, इसलिए मैं हर किसी से बेहतर हूँ। किसी के बारे में मेरी राय अच्छी नहीं थी, और मैंने उन दोनों बहनों को कम आँकाऔर उनका तिरस्कार किया। जब मैं बोलता था तो मैं दूसरों को ठेस पहुंचाता था, और मैंनें अहंकारवश सामान्य मानवता की अपनी समझ को त्याग दिया था। केवल तभी मैंने महसूस किया कि मेरे काम परमेश्वर के प्रतिरोध में थे और उसका विरोध करते थे। मैं हैसियत के लिए परमेश्वर के साथ संघर्ष कर रहा था। मेरी प्रकृति का सार शैतान की उत्कृष्ट छवि था। परमेश्वर के वचनों को सामने पाकर, आश्वस्त नहोने का कोई रास्ता न था। मैंने यह कहते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की: "हे परमेश्वर, मैं बहुत अहंकारी हूँ। जब मेरे पास हैसियत थी तब मैं उच्च और शक्तिशाली था, और जब मेरे पास हैसियत नहीं थी मैं तब भी किसी की नहीं सुनी। मैं लोगों पर शासन करने हेतु, उन्हें तुच्छ समझने के लिए अपने पुराने प्रमाण पत्रों और अधिकार का उपयोग करता था। मैं बहुत बेशर्म हूँ! आज मुझे तेरा उद्धार प्राप्त हुआ। मैं तेरे वचनों में प्रकटन और न्याय को स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ।"
उसके बाद, बहन ने एक बार फिर मेरे पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचनों के एक अंश को निकाला। वे थे: "मनुष्य की समझ ने अपने मूल प्रकार्य को खो दिया है, और मनुष्य की अंतरात्मा ने भी, अपने मूल प्रकार्य को खो दिया है। मनुष्य जिसे मैं देखता हूँ, वह मानव रूप में एक जानवर है, वह एक जहरीला साँप है, मेरी आँखों के सामने वह कितना भी दयनीय बनने की कोशिश करे, मैं उसके प्रति कभी भी दयावान नहीं बनूँगा, क्योंकि मनुष्य को काले और सफेद के बीच, सत्य और असत्य के बीच अन्तर की समझ नहीं है, मनुष्य की समझ बहुत ही सुन्न हो गई है, फिर भी वह आशीषें पाने की कामना करता है; उसकी मानवता बहुत नीच है फिर भी वह एक राजा के प्रभुत्व को पाने की कामना करता है। ऐसी समझ के साथ, वह किसका राजा बन सकता है? ऐसी मानवता के साथ, कैसे वह सिंहासन पर बैठ सकता है? सचमुच में मनुष्य को कोई शर्म नहीं है! वह नीच ढोंगी है! तुम सब जो आशीषें पाने की कामना करते हो, मैं सुझाव देता हूँ कि पहले शीशे में अपना बदसूरत प्रतिबिंब देखो—क्या तू एक राजा बनने लायक है? क्या तेरे पास एक ऐसा चेहरा है जो आशीषें पा सकता है? तेरे स्वभाव में ज़रा-सा भी बदलाव नहीं आया है और तूने किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं किया, फिर भी तू एक बेहतरीन कल की कामना करता है। तू अपने आप को भुलावे में रख रहा है!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद, मैं आँसूओं को बहने से नहीं रोक पाया। मुझे ऐसा लगा कि परमेश्वर के वचनों के हर वाक्य ने मेरे हृदय को गिरफ्त में ले लिया हो, मैंने उसके न्याय को अत्यधिक महसूस किया, और मैंने विशेष रूप से शर्मिंदगी महसूस की। अपनी पिछली कलीसिया में एक राजा की तरह शासन करने की मेरी शर्मनाक कोशिश के नज़ारे एक-एक करके मेरे सामने प्रकट होने लगे: अपने भाई-बहनों में मैं उच्च और शक्तिमान था, मैं लोगों को आदेश देता फिरता था, मैं सब कुछ पर नियंत्रण रखना चाहता था, मैं न केवल मैं अपने भाइयों और बहनों को परमेश्वर के सामने नहीं लाता था और उसे जानने में उनकी सहायता नहीं करता था, बल्कि मैंने उन्हें मेरे साथ इस तरह से व्यवहार करने के लिए प्रेरित किया मानो कि मैं बहुत ऊच्च हूँ, बहुत महान हूँ...। मैं जितना अधिक इस बारे में सोचता था उतना ही अधिक मुझे महसूस होता था कि मेरे कार्यों से परमेश्वर को घृणा है, कि मैं कुत्सित, अयोग्य हूँ और मैं अपने भाई-बहनों को निराश किया है। उस समय मुझे हद से ज्यादा शर्मिंदगी महसूस होती थी। मैंने देखा था कि जो कीमत मैंने अपनी स्वयं की महत्वाकांक्षी अभिलाषाओं के लिए चुकाई थी उसका कोई मूल्य नहीं था। हैसियत और दूसरों के द्वारा आदर पाने की मेरी कोशिश बेतुकी थी। मैं दिन रात इधर उधर भाग रहा था; मैंनें कठिनाइयों का सामना किया, मेहनत से कार्य किया, और जेल गया। मुझे सताया गया और मुझ पर अत्याचार किया गया, और मैं अधमरा हो गया। इससे मुझे परमेश्वर की कोई समझ नहीं मिली; इसके विपरीत, मेरी अहंकारी प्रकृति अधिकाधिक बढ़ती गई, मैं परमेश्वर को अपनी दृष्टि में इस हद तक कम से कम रखता था कि मैं भुलावे में आकर यह सोचता था कि जब परमेश्वर का राज्य साकार होगा, तब मैं राजा के रूप में शासन कर सकता हूँ। उसके साथ-साथ मुझे यह भी एहसास हुआ कि जब मेरी पिछली कलीसिया में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा मुझे सताया गया था, तो परमेश्वर मुझे अंत के दिनों के अपने कार्य को स्वीकार करने में बेहतर ढंग से समर्थ बनाने के लिए इसका उपयोग कर रहा था। अन्यथा, मेरी पिछली कलीसिया में मेरी प्रतिष्ठा और हैसियत के आधार पर, इस तथ्य के आधार पर कि मैंने परमेश्वर को अपनी नज़र में नहीं रखत था और मेरे अत्यधिक अभिमानी स्वभाव के आधार पर, मैं अपने पद को आसानी से जाने देने और सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकार करने में बिल्कुल भी समर्थ नहीं हुआ होता। मैं निश्चित रूप से एक दुष्ट सेवक बन गया होता जो दूसरों की परमेश्वर की ओर वापसी में बाधा उत्पन्न करता, विरोध करता और अंत में उसके दंड को भुगतता है! परमेश्वर द्वारा उद्धार के लिए और उसकी महान क्षमा के लिए मैं अपने हृदय की गहराई से उसे धन्यवाद दिये बिना रह पाया। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से जो प्रकट किया गया था उसके कारण मैं बहुत अधिक शांत हो गया, और अब मैं अपने भाइयों और बहनों के साथ इतना धृष्ट और अतर्कसंगत होने का साहस नहीं करता था।
परमेश्वर की देखभाल और संरक्षण के तहत, मेरी बीमारी में धीरे-धीरे सुधार हुआ। मैं स्पष्ट रूप से बोलने में समर्थ तो नहीं था, फिर भी मैं साइकिल चला सकता था और सामान्य मामलों में थोड़ा कार्य कर सकता था। हालाँकि, क्योंकि मेरी अहंकारी प्रकृति बहुत गहराई तक समायी हुई थी, इसलिए मेरा न्याय करने और मुझे बदलने के लिए परमेश्वर ने एक बार फिर नए लोगों और चीज़ों की व्यवस्था की। एक दिन, कलीसिया के अगुआ ने मेरे लिए मेज़बानी के कार्य की व्यवस्था की। यह सुनकर मुझे वो काम करने का बिल्कुल मन नहीं हुआ। मैं मानता था कि मेजबान के रूप में कार्य करना मेरी योग्यताओं की बर्बादी है, किन्तु मैं मना भी नहीं कर सकता था, इसलिए मैं अनिच्छा से सहमत हो गया। जब मैं मेजबानी कर रहा था, तो कुछ भाई-बहन मेरे घर में सभा कर रहे थे और हमारे आस-पास की सुरक्षा के लिए उन्होंने मुझसे दरवाजे की निगरानी करने को कहा। एक बार फिर मेरे भीतर के विचार जागे: बस एक मेजबान के रूप में कार्य करना, दरवाजे पर नज़र रखना, मुझे इससे क्या मिलेगा? मैंने पहले के समय को याद करने लगा। जब मैं मंच पर खड़ा होता था, तो मैं बहुत अकड़ में रहता था, किन्तु आज के मेरे कर्तव्य में मेरे पास कोई सम्मान या कोई हैसियत नहीं थी। मेरी श्रेणी बहुत निम्न थी! कुछ समय के बाद, मेरा आंतरिक प्रतिरोध बढ़ता गया, मुझे ज़्यादा से ज़्यादा ऐसा लगने लगा कि मेरे साथ गलत किया जा रहा है, और मैं उस कर्तव्य को पूरा करने के लिए और तैयार नहीं था। बाद में जब कलीसिया के अगुआ आए, तो मैं अब और काबू नहीं रख सका। मैंने कहा: "आपको मुझे कोई और दायित्व देना होगा। आप सब सुसमाचार का उपदेश दे रहे हैं और कलीसिया की देखभाल कर रहे हैं, किन्तु मैं घर पर एक मेजबान के रूप में कार्य कर रहा हूँ और निगरानीकर रहा हूँ—मुझे भविष्य में क्या मिलेगा?" वह बहन मुस्कुरा दी और कहा: "आप ग़लती कर रहे हैं। परमेश्वर के सामने, कोई कर्तव्य बड़ा या छोटा नहीं है, कोई बड़ी या कम हैसियत नहीं है। चाहे हम कोई भी कर्तव्य करें, हममें से प्रत्येक का एक कार्य है। कलीसिया भिन्न-भिन्न कार्यों वाली एक पूरी इकाई है, बल्कि यह एक शरीर है। आइए परमेश्वर के वचनों के एक अंश को देखते हैं।" फिर उसने मुझे यह अंश पढ़ कर सुनाया: "वर्तमान धारा में उन सभी के पास, जो सच में परमेश्वर से प्रेम करते हैं, उसके द्वारा पूर्ण किए जाने का अवसर है। चाहे वे युवा हों या वृद्ध, जब तक वे अपने हृदय में परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता और श्रद्धा रखते हैं, वे उसके द्वारा पूर्ण किए जा सकते हैं। परमेश्वर लोगों को उनके भिन्न-भिन्न कार्यों के अनुसार पूर्ण करता है। जब तक तुम अपनी पूरी शक्ति लगाते हो और परमेश्वर के कार्य के लिए प्रस्तुत रहते हो, तुम उसके द्वारा पूर्ण किए जा सकते हो। वर्तमान में तुम लोगों में से कोई भी पूर्ण नहीं है। कभी तुम एक प्रकार का कार्य करने में सक्षम होते हो, और कभी तुम दो कार्य कर सकते हो। जब तक तुम अपने आपको परमेश्वर के लिए खपाने की पूरी कोशिश करते हो, तब तक तुम अंतत: परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाओगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सभी के द्वारा अपना कार्य करने के बारे में)। परमेश्वर के इन वचनों को सुनने और बहन की संगति के बाद, मेरा हृदय स्थिर और उज्जवल हो गया। मैंने सोचा: परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के भिन्न-भिन्न कार्य के आधार पर लोगों को सिद्ध बनाता है। वह यह नहीं देखता है कि क्या लोगों की हैसियत है या नहीं अथवा वे कौन सा कर्तव्य करते हैं; परमेश्वर जिसे सिद्ध बनाता है वह है लोगों के हृदय और उनकी आज्ञाकारिता। वह यह देखता है कि अंततः उनके स्वभाव में बदलाव आ रहा है या नहीं। चाहे वे कोई भी कर्तव्य करें, जब तक वे इसे अपना सर्वस्व देते हैं और पूर्णरूप से धर्मनिष्ठ हैं, और यदि वे अपने कर्तव्य को पूरा करते हुए अपने स्वयं के भ्रष्ट स्वभाव को फेंक देते हैं, तो वे परमेश्वर द्वारा सिद्ध बनाए जा सकते हैं। भले ही लोग कलीसिया में भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं, लेकिन लक्ष्य हमेशा परमेश्वर को संतुष्ट करना होता है। वे सब एक सृजन का कर्तव्य पूरा कर रहे हैं। यदि लोग परमेश्वर का सामना कर सकते हैं और व्यक्तिगत इरादों या अशुद्धियों के बिना अपने कर्तव्य को पूरा कर सकते हैं, तो भले ही दूसरे उनके द्वारा किए जा रहे उस कर्तव्य को तुच्छ समझें और सोचें कि इसका अधिक मूल्य नहीं है, किन्तु परमेश्वर की नज़रों में इसे चाहा जाता है और सँजोया जाता है। यदि लोग अपने इरादों और अपनी अभिलाषाओं को पूरा करने के लिए अपना कर्तव्य करते हैं, तो उनका कार्य कितना भी बड़ा हो और वे कोई भी कर्तव्य क्यों न करें, यह परमेश्वर को खुश नहीं करेगा। उसके बाद, मैंने वचन परमेश्वर के इन वचनों को देखा: "लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के इन वचनों से मैं समझ गया कि एक सृजन के रूप में, परमेश्वर की आराधना सही और उचित है। मेरे पास अपनी पसंद नहीं होनी चाहिए, और मुझे निश्चित रूप से परमेश्वर के सामने शर्त नहीं रखनी चाहिए या लेनदेन नहीं करना चाहिए। यदि परमेश्वर में मेरा विश्वास और मेरे कर्तव्य की पूर्ति आशीषों को या मुकुट को प्राप्त करने के लिए है, तो इस प्रकार का विश्वास अच्छे विवेक में और तर्कसंगत नहीं है। यह एक गलत परिप्रेक्ष्य से है। मैं "छोटे कार्य" को करने और "छोटे कर्तव्यों" को पूरा करने का अनिच्छुक था—क्या यह अभी भी आशीषों की खोज करने और दूसरों के द्वारा आदर पाने की अहंकारी महत्वाकांक्षाओं के वर्चस्व के अधीन होना नहीं है? अपने मन में, मैं विश्वास करता था कि हैसियत और अधिकार के साथ मैं एक अगुवे के रूप में कार्य कर सकता था, और मैं जितना अधिक कार्य करूँगा उतना ही अधिक परमेश्वर खुश होगा, और उतना ही अधिक मैं परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त करूँगा और उसके द्वारा पुरस्कृत किया जाऊँगा। इसलिए ही मैं अभी भी हैसियत को जाने नहीं दे रहा था, और मैं हमेशा बड़े कार्य करने और बड़े कर्तव्यों को करने की कोशिश कर रहा था ताकि अंत में मुझे एक महान मुकुट प्राप्त हो। मैंने परमेश्वर की इच्छा को भी ग़लत ढंग से समझा और मैं कलीसिया द्वारा व्यवस्थित कर्तव्य से असंतुष्ट था। मैंने इसके बारे में शिकायत करता था और यह भी मानता था कि मेजबान के कर्तव्य को पूरा करना मेरे कौशलों की बर्बादी है, कि यह मुझे तुच्छ समझने का एक तरीका है। मैं बहुत अहंकारी और अज्ञानी था! परमेश्वर के वचनों के न्याय के तहत, मुझे एक बार फिर से शर्मिंदगी महसूस हुई। और परमेश्वर के वचनों द्वारा प्रबुद्धता की वजह से, मैं उसकी इच्छा समझ गया। मुझे पता चल गया कि परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति को पसंद करता है, वह किस प्रकार के व्यक्ति को पूर्ण बनाता है, और किस प्रकार के व्यक्ति से वह घृणा करता है। मुझे परमेश्वर के लिए आज्ञाकारिता का हृदय प्राप्त हुआ था। इसके बाद मैंने परमेश्वर के सम्मुख अपनी इच्छा को पक्का किया और मैं कलीसिया में सबसे छोटा, सबसे विनम्र व्यक्ति बनने, एक मेजबान के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करने, अपने आस-पास की निगरानी करने, अपने भाई-बहनों को मेरे घर में बिना परेशान हुए सभा करने देने के लिए तैयार था। मैं इस तरह से परमेश्वर के हृदय को आराम पहुँचाऊँगा।
इस अनुभव के माध्यम से, मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर के वचन कितने महान हैं, कि उसने मानव जाति को बचाने के लिए सत्य और अपनी सभी इच्छाओं को व्यक्त किया है। हमें सभी चीजों में सच्चाई को समझने, उसकी इच्छा को समझने, अपनी स्वयं की अवधारणाओं और विश्वासों का समाधान करने के लिए केवल उसके वचनों को मेहनत से पढ़ने की आवश्यकता है। तब से, मैंने उसके वचनों के लिए अधिक प्यास विकसित की, और मैंने उसके वचनों को पढ़ने के लिए हर सुबह चार या पाँच बजे उठना शुरू कर दिया। कुछ समय के बाद, मैं उनके वचनों के एक अंश को याद करने में समर्थ हो गया, मुझे उसकी इच्छा की समझ प्राप्त हुई, और मैंने अपने हृदय में इसका वास्तव में आनंद उठाया। बाद में, सुसमाचार के कार्य के लिए उत्तरदायी एक भाई था जो प्रायः मेरे घर में रहता था। कई बार जब वह सुसमाचार का प्रचार कर रहा होता था और कठिनाइयों का सामना करता था, तो वह उनका समाधान करने के लिए मुझसे परमेश्वर के वचनों की तलाश करने के लिए कहता था। उसने देखा कि मैं उन्हें बहुत जल्दी ढूँढ लेता था, और उसके बाद जैसे ही वह समस्याओं में पड़ता, वह मुझसे परमेश्वर के कुछ वचनों को खोजने में सहायता करने के लिए कहता। वह वास्तव में मेरा आदर करता था। अनजाने में, मेरी अहंकारी प्रकृति ने एक बार फिर सताना शुरू कर दिया। मैंने मन में सोचा: तुम सुसमाचार का प्रचार करने के लिए उत्तरदायी हो, फिर भी मुझे अब तक मुद्दों को सुलझाने में तुम्हारी सहायता करनी पड़ती है। तुमने परमेश्वर के वचन को उतना नहीं पढ़ा है जितना मैंने पढ़ा है, और तुम इसके बारे में उतना नहीं समझते हो जितना मैं समझता हूँ। मैंने पहले ही सत्य को प्राप्त कर लिया है। यदि मैं सुसमाचार का प्रचार करने का प्रभारी होता, तो मैं निश्चित रूप से तुम्हारी अपेक्षा बेहतर होता। इसलिए अपने मन में मैंने अपने भाई को तुच्छ समझना शुरू कर दिया, और कुछ समय बाद मैंने उस पर जानबूझकर ध्यान न देना शुरू कर दिया। बाद में, कलीसिया का अगुआ मेरे घर आया और उसने मुझसे पूछा: "आपका हाल-चाल कैसा है?" आत्मविश्वास से भरपूर, मैंने उत्तर दिया: "मैं ठीक हूँ। मैं रोज़ परमेश्वर के वचनों को पढ़ता हूँ और प्रार्थना करता हूँ। उस भाई ने देखा है कि मैं परमेश्वर के वचन को काफी समझता हूँ, इसलिए वह मुद्दों को सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों को ढूँढने में हमेशा मुझसे अपनी सहायता करने को कहता है...।" कलीसिया के अगुआ ने मैंने जो कहा उससे टपक रहे अहंकार को सुना, और उसने परमेश्वर के वचनों की किताब उठाई और कहा: "आओ हम उसके वचनों के कुछ अंश पढ़ें।" परमेश्वर कहता है: 'क्योंकि जितनी अधिक उनकी हैसियत होती है, उनकी महत्वाकांक्षा उतनी ही अधिक होती है; जितना अधिक वे सिद्धांतों को समझते हैं, उनके स्वभाव उतना ही अधिक अहंकारी हो जाते हैं। यदि, परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में, तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो, और इसके बजाय हैसियत का अनुसरण करते हो, तो तुम ख़तरे में हो' ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं')। 'इस पर ध्यान दिए बगैर कि तुमने सत्य की वास्तविकता के कौन से पहलू को सुना है, यदि तुम इसके विरुद्ध अपने आप को सँभालते हो, यदि तुम इन वचनों को अपने जीवन में कार्यान्वित करते हो, और उन्हें अपने स्वयं के अभ्यास में शामिल करते हो, तो तुम निश्चित रूप से कुछ हासिल करोगे, और निश्चित रूप से बदल जाओगे। यदि तुम इन वचनों को पेट में ठूँस लेते हो, और उन्हें अपने मस्तिष्क में याद कर लेते हो, तो तुम कभी भी नहीं बदलोगे। ...तुम्हें एक अच्छी बुनियाद अवश्य रखनी चाहिए। अगर, बिल्कुल शुरुआत में, तुम पत्रों और सिद्धांतों की बुनियाद रखते हो, तो तुम परेशानी में रहोगे। यह ऐसा है जैसे जब लोग समुद्र तट पर घर बनाते हैं: घर खतरे में रहेगा चाहे तुम उसे कितना ही ऊँचा क्यों न बना लो, और लंबे समय तक नहीं रहेगा' ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')।" परमेश्वर के इन वचनों को सुनने के बाद, मैं पूर्ण रूप से शर्मिंदा था। मुझे एहसास हुआ कि मेरी अपनी अहंकारी प्रकृति फिर से बाहर आ रही थी। पहले यीशु पर विश्वास करते हुए, मैंने बाइबल में दिए गए सिद्धांतों का गहन ज्ञान प्राप्त करने और उन्हें समझने पर ध्यान लगाया था, और मैंने उच्च और शक्तिशाली होने के लिए, अधिकाधिक अहंकारी होने के लिए उसका एक आधार के रूप में उपयोग किया। अब मैं भाग्यशाली था कि मैं परमेश्वर के वचनों में इतने सत्यों को पढ़ सकता था, किन्तु मैं फिर से अपने पुराने मार्ग पर चला गया था और मैं अपने स्वयं के ज्ञान पर भरोसा कर रहा था। मैंने परमेश्वर के वचनों में से कुछ वाक्यों को याद कर लिया था और मैं विश्वास करता था कि मैंने सत्य प्राप्त कर लिया है; मैं एक बार पुनः अहंकारी बन गया था और किसी की नहीं सुनता था। मैं हैसियत के लिए दूसरों के साथ होड़ करता था और उनके साथ मुक़ाबला करता था। यह वास्तव में बहुत शर्मनाक था! वचनों में सिद्धांतों को समझना लोगों को केवल अहंकारी बना सकता है, किन्तु केवल वे लोग ही अपने स्वभाव को बदल सकते हैं और एक मनुष्य के रूप में जी सकते हैं जो परमेश्वर के वचनों के सत्य को जानते हैं। वह भाई मुझसे अधिक लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास करता था और वह मेरी अपेक्षा अधिक समझता था, किन्तु वह नम्रता से मेरी सहायता माँगने में समर्थ था। यह वास्तव में उनकी ताक़त थी, और यह परमेश्वर के कार्य और वचन के उसके अनुभव से उत्पन्न परिणाम था। मैंने न केवल उससे कुछ सीखा नहीं और अपने जीवन में परमेश्वर के वचन को अभ्यास में लाने पर ध्यान नहीं दिया, और उचित मानवता का जीवन नहीं जीया, बल्कि मैं उसे तुच्छ समझता था और उसे नज़रअंदाज़ करता था। मैं वास्तव में अहंकारी, अंधा और अज्ञानी था! उस समय मेरा हृदय बहुत अधिक पीड़ा में था। मुझे महसूस होता था कि मेरी यह अहंकारी प्रकृति वास्तव में शर्मनाक और कुरूप थी। यह बहुत घृणित थी! और इस तरह का अहंकार जिसमें समस्त तर्क का अभाव था बहुत आसानी से परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करता है। अपने आप को बदले बिना, सचमुच में सत्य की तलाश किए बिना मैं केवल स्वयं को बर्बाद कर सकता था। जब मुझे इन सब का एहसास हुआ, तो मुझे सचमुच महसूस हुआ कि परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना वास्तव में मेरे लिए उसका प्रेम और उद्धार है। यह मेरे लिए अपनी अहंकारी प्रकृति के प्रति घृणा महसूस करने का कारण बना, और मेरी समझ में आया कि परमेश्वर पर मेरे विश्वास में मुझे सत्य का अनुसरण करने और स्वभाव में परिवर्तन लाने की कोशिश करने के सही मार्ग चलना चाहिए।
इस घटना के बाद, मैंने खुद में झांकना शुरू किया ताकि मैं अपने अहंकार और तर्क के अभाव के मूल को जान सकूँ, जान सकूँ क्या चीज़ मेरी सोच का मार्गदर्शन कर रही थी, कौन सी चीज़ अहंकार की मेरी शैतानी प्रकृति को बार-बार मुझमें उजागर करवा रही। एक दिन, मैंने परमेश्वर के इन वचनों को देखा: "शैतान जो कुछ भी करता है, वह उसके स्वयं के लिए होता है। यह परमेश्वर से परे जाना, परमेश्वर से मुक्त होना और स्वयं सामर्थ्य का प्रयोग करना, और उन सभी चीज़ों पर अपना आधिपत्य जमाना चाहता है जो परमेश्वर ने रची हैं। इसलिए, मनुष्यों की प्रकृति शैतान की प्रकृति है। ... मनुष्य की शैतानी प्रकृति बड़ी मात्रा में फ़लसफ़े से युक्त है। कभी-कभी तुम स्वयं ही इसके बारे में अवगत नहीं होते हो और इसे नहीं समझते हो, मगर तुम्हारे जीवन का हर पल इस पर आधारित है। इसके अलावा तुम्हें लगता है कि यह फ़लसफ़ा बहुत सही है, बहुत उचित है और गलत नहीं है। यह इसका चित्रण करने के लिए काफी है कि शैतान का फ़लसफ़ा लोगों की प्रकृति बन गया है और वे पूरी तरह से शैतान के फ़लसफ़े के अनुसार जी रहे हैं और इसका जरा सा भी विद्रोह नहीं करते। इसलिए, वे लगातार शैतानी प्रकृति को प्रकट कर रहे हैं, और हर लिहाज़ से वे निरंतर शैतानी फ़लसफ़े के अनुसार जी रहे हैं। शैतान की प्रकृति मनुष्य का जीवन है" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')। परमेश्वर के इन वचनों पर विचार करते हुए, मेरा हृदय अधिकाधिक उज्ज्वल हो गया। मैंने सोचा: शैतान के मानवजाति को भ्रष्ट करने के बाद, हमारी प्रकृति भी वैसी ही अहंकारी, वैसी ही अनियंत्रित, और परमेश्वर की आराधना से रहित हो गई जैसा स्वयं शैतान है, और हम दूसरों से अपना सम्मान करवाने की कोशिश करते हैं और स्वयं की आराधना करते हैं मानो कि हम परमेश्वर हों। प्रसिद्ध लोगों के सामाजिक प्रभाव और प्रसिद्ध कथनों के माध्यम से, शैतान ने अपनी सोच, जीवन के अपने फ़लसफ़े और जीवित रहने के अपने नियमों को मानव हृदय में जमा दिया है, कुछ ऐसा बन गया है जिस पर लोग अपनी जिंदगी में भरोसा करते हैं; ये मानवजाति की सोच का मार्गदर्शन कर रहे हैं, उनके कार्यों पर हावी हैं, और उनके अधिकाधिक अहंकारी और अतर्कसंगत बनने का कारण बन रहे हैं। मैंने इस बात पर चिंतन किया कि जब मैं एक बच्चा था तबसे मुझे धमकाया जाता था और मुझसे भेदभाव किया जाता था और मैंने उन लोगों से ईर्ष्या करने लगा था जिनके पास सामर्थ्य और हैसियत थी। इसके अलावा, "लोग ऊपर की ओर बढ़ने के लिए संघर्ष करते हैं, किन्तु पानी नीचे की ओर बहता है," "पृथ्वी पर और साथ ही स्वर्ग में मैं स्वयं अपना स्वामी हूँ", "दूसरों से ऊपर उठना" और "पारिवारिक प्रतिष्ठा" आदि जीवित रहने के शैतानी नियम, मेरे जीवन में हावी होते हुए, कम उम्र से ही मेरे हृदय में दृढ़ता से जम गए थे। चाहे वह बाहरी दुनिया में हो या कलीसिया में हो, मैं हैसियत और प्रतिष्ठा पाने के लिए अपनी अधिकतम कोशिश कर रहा था; मैं दूसरों की अपेक्षा उच्चतर पद पर उठने, दूसरों का प्रभारी बनने की कोशिश कर रहा था। इन बातों के विष से भरकर, मैं इस हद तक अधिकाधिक अहंकारी बन गया था कि मैं आडंबरपूर्ण हो गया था और मैं चाहता था कि मेरा कहा हुआ हमेशा अंतिम निर्णय हो। मैं इस हद तक अहंकारी था कि मैं मानता था कि मुझे परमेश्वर द्वारा भेजा गया है, और मैं सोचता था कि मैं परमेश्वर के साथ एक राजा के रूप में शासन करूँगा। इन ज़हरों के कारण, मैं अपने आप को बहुत ऊँचा समझता था; मैं अपने आप को सचमुच महान समझता था। मैं अपने भाईयों और बहनों के सामने हमेशा लंबे समय से विश्वासी होने का दिखावा करता और अपनी ताक़त की तुलना अन्य लोगों की कमज़ोरियों के साथ करता। मैं दूसरों का अपमान करता और उन्हें तुच्छ समझता। मैं उनके साथ निष्पक्षता से व्यवहार नहीं कर सकता था, और शैतान द्वारा की गयी मेरी भ्रष्टता के सार और सत्य की मुझे समझ नहीं थी। शैतान के ज़हर ने मुझे इतना अहंकारी बना दिया था कि मैंने अपना मानवीय तर्क खो दिया। बिल्कुल शैतान की तरह, मैं हर चीज़ में सत्ता पर कब्ज़ा करना चाहता था। मैं मानवजाति पर शासन करने के लिए एक ऊँचा पद चाहता था। शैतान के इन ज़हरों ने मुझे इतने भयानक रूप से, इतनी गहराई से नुकसान पहुँचाया कि जो जीवन मैं जी रहा था, वह पूरी तरह से शैतान, दुष्टात्मा के समान था! मैंने यह कहते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की: "हे परमेश्वर, मैं इन बातों के अनुसार अब और नहीं जीना चाहता हूँ। मैंने इनके लिए भयानक दुःख झेले हैं, मैं असहनीय कुरूपता में रह रहा हूँ और मैंने तुझे निराश किया है। हे परमेश्वर, मैं सत्य का अनुसरण करने के लिए, एक उचित व्यक्ति बनने के लिए जिसके पास वास्तव में विवेक और तर्क है, एक सच्चे व्यक्ति की तरह जीने के लिए, तेरे हृदय को आराम पहुँचाने के लिए, अपना अधिकतम करने का इच्छुक हूँ। हे परमेश्वर, मैं तुझसे विनती करता हूँ कि अपने न्याय और ताड़ना को मुझसे दूर न ले जा, मुझे शुद्ध करने के लिए तेरे कार्य की मैं याचना करता हूँ। जब तक मुझे बदलना, मेरा एक सच्चा इंसान बनना और शीघ्र ही तेरा हो जाना संभव है, तब तक मैं तुझसे और भी अधिक गंभीर न्याय और ताड़ना तथा तेरे अनुशासन की ताड़ना को स्वीकार करने को तैयार हूँ।"
एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों को पढ़ा जो कहते हैं: "परमेश्वर में आत्मतुष्टि और ख़ुदगर्ज़ी के या दंभ या घमंड के तत्व नहीं हैं; उसमें कुटिलता के कोई तत्व नहीं हैं। जो कोई भी परमेश्वर की अवज्ञा करता है, वह शैतान से आता है; शैतान समस्त कुरूपता तथा दुष्टता का स्रोत है। मनुष्य में शैतान के सदृश विशेषताएं होने का कारण यह है कि मनुष्य को शैतान द्वारा भ्रष्ट और संसाधित किया गया है। मसीह को शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किया गया है, अतः उसके पास केवल परमेश्वर की विशेषताएं हैं तथा शैतान की एक भी विशेषता नहीं है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का सार है)। मेरा हृदय एक बार फिर द्रवित हो गया। परमेश्वर बहुत उच्च और महान है, फिर भी बहुत विनम्र और छुपा हुआ है। वह कभी भी अपनी अकड़ नहीं दिखाता है, और मानवजाति के बीच अपने कार्य में कभी भी वह उच्च और शक्तिशाली पद ग्रहण नहीं करता है। वह हमेशा चुपचाप समस्त कार्य करता रहता है जिनकी मनुष्य को आवश्यकता है, भारी अपमान और पीड़ा को सहता है, वो उन्हें कठिनाई के रूप में नहीं देखता। इसके विपरीत, वह कष्ट झेलता है और शैतान के अधिकार क्षेत्र में रहने वाली और उसके फ़लसफ़े से बँधी मानवजाति से दुःखी होता है। वह शैतान के प्रभाव से मानव जाति को बचाने के लिए सभी संभव प्रयास करता है ताकि लोग जीवन प्राप्त कर सकें, मुक्त रूप से बिना अवरोधों के रह सकें, और उसके आशीषों को स्वीकार कर सकें। परमेश्वर बहुत महान है, बहुत पवित्र है, और उसके जीवन में अहंकार और दंभ के कोई तत्व नहीं हैं, क्योंकि मसीह स्वयं सत्य, मार्ग और जीवन है। वह सर्वोच्च है और साथ ही विनम्र और प्यारा है। मसीह के स्वरूप को देखते हुए, मैंने और भी अधिक महसूस किया कि मैं अहंकारी और बेशर्म था, और मसीह के उदाहरण का अनुसरण करने की, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए एक उचित व्यक्ति का जीवन जीने की कोशिश करने की लालसा रखता था। इसके बाद, मसीह के उदाहरणों का पालन करना और एक सच्चे मनुष्य के ढंग को जीना वो लक्ष्य बन गया जिसे पाने की मैं कोशिश करता था।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश को पढ़ा और मैं इसे नहीं समझ सका। मुझे नहीं पता था कि इसका क्या अर्थ है, किन्तु लाज रखने के वास्ते, मैं स्वयं को एक ओर कर अपने भाई-बहनों के साथ संगति की खोज करने का अनिच्छुक था। मुझे डर था कि वे मुझे तुच्छ समझेंगे क्योंकि मैं अन्य लोगों के मुद्दों को सुलझाने का अभ्यस्त था और दूसरों की सहायता लेने के लिए कभी भी अपनी किसी भी समस्या को नहीं लाता था। इसके बाद, मुझे एहसास हुआ कि संगति न करने की मेरी अनिच्छा अभी भी मेरी अहंकारी प्रकृति का वर्चस्व थी और दूसरों के द्वारा तुच्छ नहीं समझे जाने की इच्छा थी। मैंने अपने भाई-बहनों के साथ संगति करने के लिए देह की इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह किया। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि न केवल उन्होंने मुझे तुच्छ नहीं समझा, बल्कि उन्होंने धैर्य से परमेश्वर की इच्छा को मुझे बताया, और मेरी कठिनाई का बहुत जल्दी समाधान हो गया। एक समय एक भाई ने मुझे कलीसिया के कार्य से संबंधित एक पत्र पहुँचाने के लिए दिया। मेरे अहंकार की वजह से और इस वजह से कि मैं कार्य को मेरे अपने विचारों के आधार पर पूरा किया था, पत्र समय पर नहीं पहुँचा। जब उसने देखा कि इससे कार्य रुकने जा रहा था, तो वह भाई बहुत चिंतित हो गया। निपटारे के द्वारा उसने मुझे उजागर किया। उस समय मैं बहुत असहज था और मैंने लज्जित महसूस किया, किन्तु मैं यह भी जानता था कि यह परमेश्वर है जो मुझसे निपट रहा है और मेरे पहलुओं की काट-छांट कर रहा था। यह परमेश्वर था जो परीक्षा ले रहा था कि मुझमें आज्ञाकारिता है या नहीं, और मैं सत्य को अभ्यास में ला सकता हूँ या नहीं। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की: "हे परमेश्वर, आज मेरे भाई के मेरे साथ व्यवहार करने के कारण मैंने असहज महसूस किया। मैं इसका विरोध भी करना चाहता था क्योंकि अतीत में, मैं हमेशा उच्च पद पर रहा था और दूसरों को डाँटता था, और मैंने कभी भी सच के प्रति समर्पण नहीं किया था। मैं हमेशा शैतान की सदृशता को जीता था। अब, मैंने परमेश्वर के कार्य का बहुत अधिक अनुभव कर लिया है और मैं समझता हूँ कि जो व्यक्ति व्यवहारऔर काट-छाँट किया जाना स्वीकार करने में समर्थ है वही सर्वाधिक तर्कसंगत है। यह एक ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर का आज्ञाकारी है और परमेश्वर का भय मानता है। केवल इस प्रकार के व्यक्ति में ही सबसे अधिक ईमानदारी और एक मानवीय आचरण होता है। अब मैं परमेश्वर को प्रेम करने वाले हृदय के साथ अपनी देह से मुँह मोड़ने के लिए तैयार हूँ। मैं तैयार हूँ कि तू मेरे हृदय को द्रवित करे, मेरे संकल्प को सिद्ध बनाए।" इस प्रार्थना के बाद, मैं अपने हृदय में बहुत अधिक शांति और निर्मलता महसूस कर रहा था। मैंने देखा कि परमेश्वर ने जो किया वह महान था, उसने लोगों, घटनाओं और चीजों के माध्यम से, मुझे अपने आप को पहचानने में सहायता की थी ताकि मैं जितनी जल्दी हो सके बदल सकूँ। अब से, मैं परमेश्वर की अधिक तलाश करने, अपने कर्तव्य को यथासंभव अच्छी तरह से करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करने के लिए तैयार हूँ। इसके बाद, मेरा भाई चिंतित था कि मैं इन सबको स्वीकार करने के लिए अनिच्छुक होऊँगा, इसलिए उसने मेरे साथ परमेश्वर की इच्छा पर संवाद किया। मैंने अपने स्वयं के अनुभव से संबंधित एहसास के बारे में बात की। हम इस पर हँसे, और अपने हृदय से मैंने परमेश्वर के उद्धार के लिए, उसके मुझे बदलने के लिए धन्यवाद दिया। सारी महिमा परमेश्वर की हो!
इसलिए, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के बारम्बार न्याय और ताड़ना के माध्यम से, मेरा अहंकारी स्वभाव धीरे-धीरे बदल गया। मैं मामूली व्यक्ति बन सकत था, मैं धैर्य से दूसरों की बात सुन सकता था, और मैं दूसरों के सुझावों को ध्यान में रख सकता था। मैं कुछ मुद्दों पर अपने भाइयों और बहनों की राय ले सकता था, और मैं उनके साथ सद्भावपूर्ण ढंग से सहयोग कर सकता था। जो भी बात हो, उसमें मेरा कहा अंतिम निर्णय हो, ऐसा मैं अब नहीं चाहता था, और अब मैं बहुत अहंकारी और दूसरों की बात सुनने का अनिच्छुक नहीं था। मैंने अंततः थोड़ी सी मानवता प्राप्त कर ली थी। तब से, मैं महसूस करता हूँ कि मैं एक बहुत सरल व्यक्ति बन गया हूँ। मैं बहुत सरलता से, बहुत खुशी से रहता हूँ। मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के मेरे उद्धार के लिए धन्यवाद देता हूँ। उसके उद्धार के बिना, मैं अभी भी भ्रष्टता से बच निकलने में समर्थ हुए बिना, अंधकार और पाप के बीच में कठोरता से संघर्ष कर रहा होता। परमेश्वर द्वारा उद्धार के बिना, मेरी प्रकृति इस हद तक अहंकारी हो जाती कि मैं लोगों से खुद की परमेश्वर के समान आराधना करवाता, मुझसे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान हो जाता और मैं अनजाने में उनके दिये दंड को भोगता। परमेश्वर के बारम्बार के न्याय और ताड़ना के माध्यम से, मैंने देखा कि उनका प्रेम बहुत वास्तविक है, और मेरे बदलने की प्रतीक्षा करते हुए,उसने हमेशा अपने प्रेम का उपयोग मुझे प्रेरित करने के लिए किया है। इस बात की परवाह किए बिना कि मैं कितना विद्रोही था, इस बात की परवाह किए बिना कि मुझसे व्यवहार करना कितना मुश्किल था, परमेश्वर के बारे में मुझे कितनी शिकायतें और ग़लतफ़हमियाँ थीं, उसने कभी इसे कोई मुद्दा नहीं बनाया था। उसने तब भी मेरे हृदय को जगाने, मेरी आत्मा को जगाने, मुझे शैतान के दुःख से बचाने, मुझे परमेश्वर के प्रकाश में रहने देने, मानव जीवन के सच्चे मार्ग पर चलाने के लिए, हर तरह के परिवेश को कड़ी मेहनत से बनाया था। परमेश्वर ने 20 से भी ज़्यादा वर्ष तक धैर्य से प्रतीक्षा की और मेरे लिए एक बहुत बड़ी कीमत चुकाई। परमेश्वर का प्रेम वास्तव में विस्तीर्ण और अंतहीन है! अब, परमेश्वर का न्याय और ताड़ना मेरा खजाना बन गए हैं; वे मेरे अनुभवों से और कुछ ऐसी चीज़ों से सम्पत्ति का एक अनमोल स्रोत भी है जिन्हें भूलने में मैं कभी भी समर्थ नहीं हो पाऊँगा। इस कष्ट का मूल्य और अर्थ था। भले ही मैं अभी भी परमेश्वर की अपेक्षाओं से कम पड़ता हूँ, फिर भी मैं आत्मविश्वास के साथ स्वभाव में परिवर्तन पाने की कोशिश कर रहा हूँ, और मैं परमेश्वर के न्याय और ताड़नाओं का अधिक गहन अनुभव करने का इच्छुक हूँ। मुझे विश्वास है कि वह निश्चित रूप से मुझे एक सच्चे व्यक्ति में बदल सकता है जो उसकी इच्छा के अनुरूप हो।
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