सात सालों के परीक्षण ने मेरे असली रंग दिखाये हैं
1994 में, अपनी माँ के साथ, मैंने परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किया। जब मुझे पता चला कि परमेश्वर उद्धार का कार्य करने के लिए देह में पुन: प्रकट हुए हैं, तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। परमेश्वर के उद्धार का लाभार्थी होना मेरे लिए विशेष रूप से सम्मान की बात थी। बाद में, मैं अक्सर सभाओं में जाता था, अपने भाई-बहनों के साथ परमेश्वर की स्तुति में भजन गाता था। जब मेरे पास समय होता था, तो मैं परमेश्वर के वचन को पढ़ता था, और जब मुझमें उनके इरादों की कुछ समझ आ गई, तो मैंने अपना समय काम और कलीसिया के भीतर अपने कर्तव्यों को ज़्यादा से ज़्यादा पूरा करने के बीच बाँट दिया। इसके कुछ समय बाद, मैंने सुना कि परमेश्वर का कार्य बहुत जल्द ख़त्म होने वाला है। बहुत उत्साहित होकर, मैंने मन में सोचा, "बेहतर रहेगा कि मैं सत्य का अनुसरण करने में कठिन परिश्रम करूँ और परमेश्वर के कार्य के पूरा होने से पहले और अच्छे कर्म करूँ। पूरे जीवन में एक ही बार मिलने वाले इस अवसर को मुझे हाथ से जाने नहीं देना चाहिए।" इसके बाद, मैंने अपनी नौकरी छोड़ने और पूरी तरह से अपना समय राज्य के सुसमाचार को फैलाने में लगा देने का दृढ़ संकल्प किया। मैंने इस विश्वास के साथ अपना शेष जीवन पूरी तरह से परमेश्वर को समर्पित करने का फैसला किया कि ऐसा करने से ही मैं उनकी प्रशंसा और आशीष पा सकता हूँ। उस दौरान, हर दिन, चाहे आँधी आए या तूफान, सुबह से देर रात तक लगातार मैं व्यस्त रहता था। यहाँ तक कि कई किलोमीटर साइकिल चलाने पर भी मुझे थकान या बहुत ज़्यादा काम करने की अनुभूति नहीं होती थी। ऐसा भी समय आता था जब सांसारिक लोगों द्वारा की गयी मेरी बदनामी या प्रियजनों द्वारा त्यागे जाने के कारण मुझे दर्द और कमज़ोरी महसूस होती थी, लेकिन जब भी यह विचार मेरे मन में आता कि धरती पर बड़ी आपदाओं के आने पर न केवल मुझे बख्शा जाएगा और मैं अनंत जीवन पाऊँगा, बल्कि परमेश्वर की प्रचुर भौतिक आशीषों का भी आनंद लूँगा, तो मैं उत्कर्ष की भावना से भर जाता था, और मुझे ये एहसास होता था कि मेरे सभी प्रयास सार्थक। इस तरह, मुझे विश्वास था कि अगर मैं परमेश्वर के लिए अपने को पूरी तरह खपा पाया, तो इसका मतलब है कि मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जो परमेश्वर से प्यार करता है और उनके आशीष के योग्य है, और मेरे लिए राज्य में निश्चित रूप से एक जगह होगी। तब से, लगातार खपाते और योगदान करते हुए मैं उस दिन का बेसब्री से इंतजार करने लगा जब परमेश्वर का कार्य समाप्ति पर होगा ताकि मैं जल्द से जल्द राज्य में अपनी खुशियों के हिस्से का दावा कर सकूँ।
साल 1999 के अंत में एक दिन, जब मैं आत्मविश्वास के साथ राज्य में प्रवेश करने और उसके महान आशीषों का आनंद लेने की तैयारी कर रहा था, तो एक बहन ने मुझसे कहा, "पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए जाने वाले व्यक्ति ने सहभागिता की है कि अगर हम उद्धार पाना चाहते हैं और पूर्ण बनाए जाना चाहते हैं, तो हमें पहले सात साल के परीक्षणों से गुज़रना होगा।" यह सुनकर मुझे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। यह पक्का करने के लिए कि कहीं मैंने कुछ गलत तो नहीं सुना, मैंने उस बहन को अपनी बात दोहराने के लिए कहा। एक बार जब पक्का हो गया कि मैंने जो सुना वो सही था, तो मेरा सिर घूमने लगा और अचानक मुझे कुछ भी समझ आना बंद हो गया। कुछ भी हो, मैं उस बहन द्वारा कहे गए तथ्य को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। एक साथ, मेरे सिर में विचारों की घुड़दौड़ शुरू हो गयी: "मुझे अभी भी सात साल के परीक्षणों से क्यों गुज़रना है?" जब उन्होंने कहा कि परमेश्वर का कार्य अगले दो वर्षों में समाप्त हो जाएगा, तो मैंने सब कुछ त्याग दिया; अब जबकि अभी सात साल बाकी हैं, मेरा जीवन कैसे चलेगा? क्या पैसे कमाने के लिए मैं कोई नौकरी करूँ? सात साल में, मैं तीस का हो जाऊंगा; तो शादी का क्या? ..." पहले मैंने सोचा था कि मैं बस परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के कगार पर ही हूँ, और मेरे सभी शारीरिक कष्ट जल्द ही समाप्त हो जाएंगे। लेकिन, अब यह पता चला है कि न केवल मैं परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं करूँगा, बल्कि मुझे अभी भी सात साल के परीक्षण और शोधन से गुज़रना है। जब मैंने इस बारे में सोचा, तो मेरा दिल डूब गया, और मेरे अंदर बयां न की जा सकने वाली उदासी उमड़ने लगी। मैंने अनजाने में यह सोचते हुए परमेश्वर को दोष देना शुरू कर दिया, "हे परमेश्वर! आपने मुझे पहले क्यों नहीं बताया कि मुझे अभी भी सात साल के शोधन से गुज़रना है? मैंने पहले सोचा था कि स्थितियाँ कितनी ही कठिन क्यों न हो जाएँ, सब कुछ दो या तीन सालों में खत्म हो जाएगा, और फिर मैं राज्य में प्रवेश कर सकूँगा और चमत्कारिक आशीषों का आनंद ले सकूँगा। लेकिन अब मेरे सामने अभी भी सात साल का परीक्षण और शोधन बाकी है। आखिर मैं इन सबको झेलूंगा कैसे?" जितना मैं सोचता गया, उतना ही नकारात्मक होता गया। मुझे अपने किए गए फैसलों पर पछतावा होने लगा, नौकरी पाने और पैसा कमाने के लिए मैं धर्मनिरपेक्ष दुनिया में लौटने और समय होने पर ही कलीसिया की जिंदगी में हिस्सा लेने पर भी विचार करने लगा। इस तरह, मैं पूर्ण कष्ट में रहता था, और मेरा हौसला निरंतर नीचे रहता था, मैं सभाओं में झपकियाँ लेता था और केवल आधे-अधूरे मन से अपना कर्तव्य पूरा करता था। मुझे ऐसा लगता था कि मेरे पास वो ताकत नहीं रही जो पहले थी, लेकिन फिर भी कदम पीछे ले जाने की मेरी हिम्मत भी नहीं थी; मेरे लिए इधर कुंआ था तो उधर खाई। उस समय, कुछ लोग ऐसे थे जो सात वर्षों के परीक्षणों की कठिनाइयों को सहन करने में असमर्थ थे, इसलिए उन्होंने परमेश्वर की ओर से अपना मुंह मोड़ लिया था और अपना विश्वास खो दिया था। इस खबर को सुनकर मैं स्तब्ध रह गया, ऐसा लगा जैसे मेरे सिर में कोई अलार्म बज रहा हो। अपनी वर्तमान स्थिति को देखते हुए, मैंने महसूस किया कि अगर मैंने अपने आप को वापस लौटाने के लिए कुछ नहीं किया, तो मैं भी बहुत जोखिम में पड़ जाऊंगा—पर मैं अपनी वर्तमान परिस्थितियों को बदल कर उस नकारात्मकता से कैसे उबरूँ जिसमें मैं डूब गया था?
इसके कुछ समय बाद ही, मैंने परमेश्वर के वचनों के निम्न अंश देखे: "हर बार जब भी सात साल के परीक्षणों का उल्लेख किया जाता है, तो ऐसे कई लोग हैं जो बहुत व्याकुल और निराश अनुभव करते हैं, और कुछ लोग शिकायत करते हैं, और सभी प्रकार की प्रतिक्रियाएँ होती हैं। इन प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट है कि लोगों को अब ऐसे परीक्षणों की आवश्यकता है, इस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों और परिशोधन की आवश्यकता है। परमेश्वर में अपने विश्वास में लोग, भविष्य के लिए आशीर्वाद पाने की खोज करते हैं; यह उनकी आस्था में उनका लक्ष्य होता है। सभी लोगों की यही अभिलाषा और आशा होती है, लेकिन, उनकी प्रकृति के भीतर के भ्रष्टाचार का हल परीक्षण के माध्यम से किया जाना चाहिए। जिन-जिन पहलुओं में तुम शुद्ध नहीं किए गए हो, इन पहलुओं में तुम्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाता है, परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपने खुद के भ्रष्टाचार को जान जाओ। अंततः तुम उस बिंदु पर पहुंच जाते हो जहां तुम मर जाना और अपनी योजनाओं और इच्छाओं को छोड़ देना और परमेश्वर की सार्वभौमिकता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करना अधिक पसंद करते हो" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परीक्षणों के बीच परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करें')। परमेश्वर के वचन मेरी वर्तमान अवस्था का पूर्ण विश्लेषण थे। जैसे ही मैंने सुना कि मुझे अभी भी सात साल के परीक्षणों से गुज़रना है, मैं नकारात्मकता की गर्त में डूब गया, शिकायतों से भर गया, और मैंने परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर दिया। पहले मैं सोचता था कि चूंकि मैंने अपनी नौकरी और अपने पारिवारिक जीवन को छोड़ दिया है, मैंने औसत अनुयायियों की तुलना में कहीं अधिक निवेश किया है, इसलिए मैं परमेश्वर को सबसे ज्यादा प्रेम करता हूँ, और उनके आशीष के सबसे योग्य हूँ। तब जाकर मुझे महसूस हुआ कि मेरा अनुसरण अशुद्ध था। परमेश्वर लोगों के दिलो-दिमाग की जाँच करते हैं, और उन्होंने परीक्षणों और शोधनों का इस्तेमाल यह बताने के लिए किया है कि उनमें मेरा विश्वास वास्तव में आशीष की मनोकामना पर आधारित था। उन्होंने मुझे अपने अनुसरण के गलत दृष्टिकोण के बारे में सच्ची समझ हासिल करने दी और आशीष की मेरी मनोकामना को दूर कर दिया। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा: "क्या तुम लोग अभी भी अपने गंतव्य की खातिर मुझे धोखा देने के लिए एक झूठा मुखौटा नहीं लगा रहे हो, ताकि तुम्हारा गंतव्य पूरी तरह से खूबसूरत हो जाए और तुम जो चाहते हो वह सब हो? मुझे ज्ञात है कि तुम लोगों की भक्ति वैसी ही अस्थायी है, जैसी अस्थायी तुम लोगों की ईमानदारी है। क्या तुम लोगों का संकल्प और वह कीमत जो तुम लोग चुकाते हो, भविष्य के बजाय वर्तमान क्षण के लिए नहीं हैं? तुम लोग केवल एक खूबसूरत गंतव्य सुरक्षित कर लेने के लिए एक अंतिम प्रयास करना चाहते हो, जिसका एकमात्र उद्देश्य सौदेबाज़ी है। तुम यह प्रयास सत्य के ऋणी होने से बचने के लिए नहीं करते, और मुझे उस कीमत का भुगतान करने के लिए तो बिलकुल भी नहीं, जो मैंने अदा की है। संक्षेप में, तुम केवल जो चाहते हो, उसे प्राप्त करने के लिए अपनी चतुर चालें चलने के इच्छुक हो, लेकिन उसके लिए खुला संघर्ष करने के लिए तैयार नहीं हो। क्या यही तुम लोगों की दिली ख्वाहिश नहीं है? तुम लोगों को अपने को छिपाना नहीं चाहिए, न ही अपने गंतव्य को लेकर इतनी माथापच्ची करनी चाहिए कि न तो तुम खा सको, न सो सको। क्या यह सच नहीं है कि अंत में तुम्हारा परिणाम पहले ही निर्धारित हो चुका होगा?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, गंतव्य के बारे में)। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना ने मुझे शर्मिंदा कर दिया और मुझे मेरे विचारों और कार्यों पर सोचने को मजबूर कर दिया, यह एहसास कराया कि वे उन विचारों के समान थे जिन्हें परमेश्वर ने उजागर किया था। मैंने उस समय के बारे में सोचा जब मैंने पहली बार कलीसिया में प्रवेश किया था, तब मैं अपने कर्तव्यों को पूरा करते हुए नौकरी भी कर रहा था। जब मैंने सुना कि परमेश्वर का कार्य जल्द ही पूरा होने वाला है, तो मैंने अपने मन में सोचा कि उनका आशीष पाने और पुरस्कार प्राप्त करने के लिए, मुझे केवल थोड़े समय के लिए ही परमेश्वर की खातिर खुद को व्यय करने में पूरी तरह से निवेश करना है। परमेश्वर का कार्य समाप्त होने पर राज्य में अपना प्रवेश सुनिश्चित करने के लिए, मैंने सभी भौतिक सुखों को त्याग दिया था और अपने कर्तव्यों को पूरा करने में पूरी तरह जुट गया था। लेकिन, यह सुनकर कि अभी भी सात साल के परीक्षणों से गुज़रना है, मुझे ऐसा झटका महसूस हुआ जिससे लगा कि मैं उबर नहीं पाऊँगा, मैं इतना नकारात्मक हो गया कि मेरे अंदर अपने कर्तव्यों को पूरा करने का हौसला भी नहीं रहा। मेरा दिल परमेश्वर के प्रति आरोप और प्रतिरोध से भर गया। हर चीज़ जो मैंने छोड़ दी थी और जो मेहनत मैंने की थी उस पर मुझे पछतावा हुआ; मैंने परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने और उनसे मुँह फेर लेने के बारे में भी सोचा। पहले मैं जो व्यक्ति था उससे मैं पूरी तरह से बदल गया! केवल परीक्षण के प्रकाशन के माध्यम से मुझे यह एहसास हुआ कि मैंने वास्तव में परमेश्वर की आराधना सभी सृजित प्राणियों के निर्माता के तौर पर नहीं की थी। मैंने यह भी महसूस किया कि मैंने एक सृजित प्राणी के तौर पर अपने कर्तव्य को पूरा कर परमेश्वर प्रति अपने प्यार का अनुसरण करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने आपको व्यय नहीं किया था, न ही इस कारण सांसारिक चीजों को छोड़ा था। बल्कि, मैंने ये सारी कोशिशें विशुद्ध रूप से अपने भविष्य की मंज़िल के लिए कीं थीं। मैंने जो कुछ भी किया था वह परमेश्वर के साथ सौदा करने के लिए था; इस तरह, मैं उन्हें धोखा दे रहा था और उनका उपयोग राज्य में प्रवेश करने के अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कर रहा था, जहाँ मैं प्रचुर आशीष पा सकूँ। कितना स्वार्थी, नीच और घिनौना था मैं! यह वैसा ही था जैसा कि परमेश्वर के वचनों ने प्रकट किया था: "जिनके हृदय में परमेश्वर है, उनकी चाहे किसी भी प्रकार से परीक्षा क्यों न ली जाए, उनकी निष्ठा अपरिवर्तित रहती है; किंतु जिनके हृदय में परमेश्वर नहीं है, वे अपने देह के लिए परमेश्वर का कार्य लाभदायक न रहने पर परमेश्वर के बारे में अपना दृष्टिकोण बदल लेते हैं, यहाँ तक कि परमेश्वर को छोड़कर चले जाते हैं। इस प्रकार के लोग ऐसे होते हैं जो अंत में डटे नहीं रहेंगे, जो केवल परमेश्वर के आशीष खोजते हैं और उनमें परमेश्वर के लिए अपने आपको व्यय करने और उसके प्रति समर्पित होने की कोई इच्छा नहीं होती। ऐसे सभी अधम लोगों को परमेश्वर का कार्य समाप्ति पर आने पर बहिष्कृत कर दिया जाएगा, और वे किसी भी प्रकार की सहानुभूति के योग्य नहीं हैं। जो लोग मानवता से रहित हैं, वे सच में परमेश्वर से प्रेम करने में अक्षम हैं। जब परिवेश सही-सलामत और सुरक्षित होता है, या जब लाभ कमाया जा सकता है, तब वे परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आज्ञाकारी रहते हैं, किंतु जब जो वे चाहते हैं, उसमें कमी-बेशी की जाती है या अंतत: उसके लिए मना कर दिया जाता है, तो वे तुरंत बगावत कर देते हैं। यहाँ तक कि एक ही रात के अंतराल में वे अपने कल के उपकारियों के साथ अचानक बिना किसी तुक या तर्क के अपने घातक शत्रु के समान व्यवहार करते हुए, एक मुसकराते, 'उदार-हृदय' व्यक्ति से एक कुरूप और जघन्य हत्यारे में बदल जाते हैं। यदि इन पिशाचों को निकाला नहीं जाता, तो ये पिशाच बिना पलक झपकाए हत्या कर देंगे, तो क्या वे एक छिपा हुआ ख़तरा नहीं बन जाएँगे?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों से यह स्पष्ट था कि स्वार्थी और विश्वासघाती लोगों में मानवता की कमी होती है, वे शुद्ध रूप से लाभ के लिए जीते हैं, व्यक्तिगत लाभ के लिए निष्ठा रखते हैं और विश्वास को धोखा देते हैं। जो लोग शैतान की प्रकृति के अनुसार जीते हैं वे संभवतः परमेश्वर के अनुकूल नहीं हो सकते; ऐसे लोग लगातार परमेश्वर का विरोध और विश्वासघात करते हैं, यहाँ तक कि परमेश्वर को अपना दुश्मन मानते हैं। परमेश्वर इन लोगों से घृणा और नफरत करते हैं, अगर वे सत्य का अनुसरण करने से इनकार करते रहेंगे, तो वे अंततः हटा दिये जाएंगे। मैंने इस पर विचार किया कि दो बार जब देहधारी परमेश्वर मानवता के उद्धार के कार्य को करने के लिए पृथ्वी पर आये हैं, तब उन्होंने अविश्वसनीय अपमान सहा है और हमें शैतान के अंधेरे के प्रभाव से बचाने के लिए चरम सीमा की कीमत चुकाई है—और फिर भी उन्होंने कभी एक बार भी हमसे कुछ नहीं माँगा है। इसके विपरीत, न तो मैंने परमेश्वर के प्रेम को पहचाना, न उनके प्रति ज़रा-सी भी कृतज्ञता दिखाई, न खुद को समर्पित ही किया, बल्कि केवल इस बात से मतलब रखा कि मैं कैसे आशीष प्राप्त कर सकता हूँ। जब परमेश्वर का कार्य मेरी अवधारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार नहीं बैठा या इसने मुझे भौतिक रूप से लाभान्वित नहीं किया, तो मैं तुरंत परमेश्वर से दूर हो गया, यहाँ तक कि मुझे अपने सभी प्रयासों पर और त्यागी गयी सभी चीजों पर पछतावा हुआ। मैंने परमेश्वर को पूरी तरह से छोड़ने की इच्छा भी की। मैं देख सकता था कि मुझमें थोड़ी-सी भी मानवता नहीं थी; मेरा स्वभाव ऐसा था कि मैंने परमेश्वर का विरोध और उससे विश्वासघात किया था, और ऐसा विद्रोह केवल परमेश्वर के शाप के योग्य था। इन सबका एहसास हो जाने के बाद, मैं अपराधबोध और आत्म-दोष से भर गया, और मैंने फिर कभी इतना अनैतिक न होने का संकल्प लिया। मुझे पता था कि जितनी जल्दी हो सके, मुझे पश्चाताप करना चाहिए, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अनुसरण करना चाहिए।
बाद में, मैंने निम्नलिखित वचनों को एक धर्मोपदेश में पढ़ा: "आज ऐसे कई लोग हैं जिनके दिल दुखों को बढ़ावा देते हैं, जो सात साल के परीक्षणों का सामना करने पर बुराईयुक्त विश्वास की कमी के साथ व्यवहार करते हैं। यह बहुत आश्चर्य की बात है, इससे मुझे एहसास हुआ है कि जो अब परमेश्वर के परिवार मे हैं, वे पूर्व दिनों के इस्राएलियों से कोई बेहतर नहीं हैं। यह कहा जा सकता है कि वर्तमान समय में परमेश्वर का कार्य भ्रष्ट मानवजाति के लिए सबसे उपयुक्त है, और उसके लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है। अगर परमेश्वर ने इस तरह से कार्य नहीं किया होता, तो मानवजाति उन्हें कभी नहीं जान पाती, वास्तविक विश्वास प्राप्त नहीं कर पाती या वास्तव में उनकी प्रशंसा नहीं कर पाती। इंसान इन दिनों कमज़ोर, दुष्ट और अंधे हैं। उन्हें परमेश्वर का कोई सच्चा ज्ञान नहीं है। परीक्षण शुरू होने से पहले, कई लोगों के परमेश्वर के प्रति विद्रोह, प्रतिरोध और विश्वासघात की प्रकृति को सभी के द्वारा देखे जाने के लिए दिन की रोशनी में उजागर किया गया था। ऐसे लोग राज्य में प्रवेश करने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? उन्हें परमेश्वर के वादों को प्राप्त करने के योग्य कैसे माना जा सकता है? अगर मनुष्य वास्तव में अपनी कमियों, दुर्बलताओं, और दुष्टता को समझ लेता है—अगर वह देख सकता है कि कैसे उसका स्वभाव परमेश्वर के प्रति विद्रोही और प्रतिरोधी है—तो वह परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित विभिन्न कष्टों और शोधनों को समर्पित होगा, और परमेश्वर के आयोजनों और उसके समस्त कार्यों को समर्पित होने के लिए इच्छुक और तैयार होगा। केवल अत्यधिक अहंकारी लोग ही परमेश्वर के वचन के कुछ अंशों को पढ़ने के बाद मान लेंगे कि उन्होंने सत्य समझ लिया है, मानवता पा ली है, और उन्हें परीक्षण और शोधन से गुज़रने की आवश्यकता नहीं है, उन्हें तो सीधे तीसरे स्वर्ग में उठा लिया जाना चाहिए। जीवन के अनुभव वाले किसी व्यक्ति को इसका एहसास हो गया होगा कि अगर कोई केवल परमेश्वर के वचन को पढ़ता है, लेकिन हर तरह के परीक्षणों और कष्टों के शोधन से नहीं गुज़रता है, तो ऐसा व्यक्ति स्वभाव में परिवर्तन को प्राप्त नहीं कर सकता। सिर्फ इसलिए कि किसी ने कई सिद्धांतों को समझ लिया है तो ये ज़रूरी नहीं है कि उसके पास सही कद-काठी हो। इस प्रकार, भविष्य में, मनुष्य को कई परीक्षणों से गुज़रना चाहिए: यह परमेश्वर का अनुग्रह और उत्कर्ष है, और इससे भी अधिक ये परमेश्वर का उद्धार है, और सभी को इसके लिए परमेश्वर का धन्यवाद और उनकी प्रशंसा करनी चाहिए" (ऊपर से संगति)। इस उपदेश को पढ़ने के बाद, मैंने परमेश्वर के इरादों के बारे में और भी अधिक जानकारी प्राप्त की। इस तरह के परीक्षणों और शोधन का सामना करना वास्तव में बिल्कुल वही था जिसकी मेरे जीवन में आवश्यकता थी; अगर मुझे इस तरह से उजागर नहीं किया गया होता, तो मैंने कभी भी उन बुरे इरादों की जांच नहीं की होती जिन्होंने मेरे विश्वास को उकसाया था या मैंने अपनी स्वार्थी और नीच शैतानी प्रकृति को पहचाना नहीं होता। मैंने यह भी सोचा था कि मुझे परमेश्वर पर सच्चा विश्वास है, और मैंने खुद को परमेश्वर से सच्चा प्रेम करने वाला मान लिया था। मैं अपने आप को बहका रहा था और धोखा दे रहा था। परमेश्वर के चमत्कारिक कार्यों ने मुझे पूरी तरह से उजागर कर दिया था, मुझे उनके प्रति अपने प्रतिरोध के असली रंग देखने दिया और मुझे मेरी दुष्टता और कुरूपता को देखने दिया। इसने मुझे दिखाया था कि मैं एक अवसरवादी और शैतान का जीवित, साँस लेता वंशज हूँ। परमेश्वर में मेरा विश्वास पूरी तरह से अशुद्ध था और एक सौदेबाज़ी था। अगर मैं इस तरह से अपने विश्वास का अभ्यास करता रहा, तो मुझे कभी भी परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त नहीं होगी, और मैं असफल हो जाऊंगा। न्याय और ताड़ना का अनुभव करने से मुझे यह महसूस करने में मदद मिली कि परमेश्वर में विश्वास करना उतना सरल नहीं है जैसा मैं सोचता था; परमेश्वर के प्रति आस्था रखते ही किसी व्यक्ति को परमेश्वर का आशीष नहीं मिल जाता, न ही कोई केवल इसलिए अपने आप ही किसी खुशहाल मंजिल पर पहुंच जाता है क्योंकि उसने काम किया है और समय और ऊर्जा लगाई है। अगर मेरी शैतानी प्रकृति को साफ़ नहीं किया जाता और बदला नहीं जाता, तो मैं सौ वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने पर भी उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता था। यह परमेश्वर के धर्मी स्वभाव से निर्धारित होता है, और कोई भी इसे बदल नहीं सकता। मुझे इसका भी एहसास हुआ कि परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने के मार्ग पर परीक्षण और शोधन एक आवश्यक कदम है। अब मैं परमेश्वर को दोष नहीं देता या उन्हें गलत नहीं समझता, बल्कि खुशी-खुशी अपने काम के लिए प्रस्तुत होता हूँ। मैंने सब कुछ नए सिरे से शुरू करने और सत्य का अनुसरण करने के लिए कड़ी मेहनत करने का संकल्प लिया है, ताकि जल्द ही किसी दिन मैं स्वभाव में परिवर्तन और परमेश्वर के साथ अनुकूलता को पा सकूं।
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