कलीसिया का अगुआ कोई अधिकारी नहीं होता

04 फ़रवरी, 2022

मैथ्यू, फ्रांस

मेरा नाम मैथ्यू है, और मैंने तीन साल पहले सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के काम को स्वीकार किया था। अक्तूबर 2020 में मैं एक कलीसिया अगुआ बना। मुझे अहसास हुआ कि यह एक बड़ी जिम्मेदारी है, इसलिए कुछ दबाव महसूस करने के साथ-साथ मुझे गर्व भी हो रहा था। मुझे लगा कि इस कर्तव्य के लिए मैं इसलिए चुना गया हूँ क्योंकि मुझमें दूसरों से ज्यादा योग्यता है। मैंने अपने कर्तव्य को बहुत गंभीरता से लिया, और अपने कर्तव्य को लेकर दूसरों की समस्याएँ हल करने के लिए उनके साथ संगति करने लगा। समय के साथ, मैं बहुत-से मामलों को सुलझाने में खुद को सक्षम समझने लगा, और जब भी संगति के लिए मेरी जरूरत पड़ती, मैं एक पल भी झिझके बिना लपककर पहुँच जाता। मैं हरेक को यह दिखाना चाहता था कि मैं एक बढ़िया अगुआ हूँ और समस्याओं को हल करना जानता हूँ।

फिर कुछ मसीह-विरोधी कलीसिया में अफवाहें फैलाने लगे। वे सभा के ग्रुपों में कम्युनिस्ट पार्टी के झूठ फैलाकर ईश-निंदा करने लगे, तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने और उलटने-पलटने लगे और परमेश्वर के घर के काम की आलोचना करने लगे। वे लोगों को गुमराह करके परमेश्वर से दूर ले जाना चाहते थे। मैं जितना मुमकिन था उतनी सभाएं और संगति कर रहा था, और दुश्मन के खिलाफ सेना की अगुवाई करने वाले कमांडर की तरह महसूस कर रहा था। मैं यह साबित करना चाहता था कि मैं हरेक की रक्षा कर सकता हूँ ताकि वे देख सकें कि मैं कितना भारी बोझ उठा सकता हूँ और कितना जिम्मेदार हूँ। पर सच्चाई यह थी कि मैं अंदर से बहुत कमजोर महसूस कर रहा था। मैं खुद भी नहीं जानता था कि मसीह-विरोधियों की कुछ भ्रांतियों का खंडन कैसे करूँ, वे भ्रांतियाँ मुझे भी प्रभावित कर रही थीं। पर मैं अपनी कमजोरी दूसरों को नहीं दिखाना चाहता था। मैं बड़ा और ताकतवर दिखना चाहता था, यह सोचकर कि सच्चा अगुआ ऐसा ही होता है। मैंने अपनी दशा के बारे में कभी कुछ नहीं कहा, क्योंकि मुझे लगता था कि अगर मैंने एक अगुआ के रूप में कमजोरी के संकेत दिए तो मैं ताकतवर नहीं दिखूँगा। वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मैं सिर्फ धर्म-सिद्धांत उगल सकता हूँ और सच्चाई की वास्तविकता से दूर हूँ? मुझे लगता था कि कलीसिया के अगुआ के रूप में मुझे कठोर होना चाहिए, किसी राष्ट्रपति या सेना कमांडर की तरह। मैं किसी को अपनी कमजोरी नहीं दिखा सकता था! इसलिए सभाओं में, मैं हमेशा परमेश्वर के वचनों के गहरे ज्ञान और अपने अनुभव की बात करता था, जैसे भाई- बहन मेरी मदद से सुसमाचार के प्रचार में ज्यादा प्रभावशाली कैसे हो सकते थे। जबकि अपनी विफलताओं और भ्रष्टताओं को मैं अनदेखा कर देता था, और झट से अपने सही कामों की बात पर आ जाता था। अगर किसी सभा में मुझे नींद आ रही होती तो मैं इसे स्वीकार नहीं करता था, न ही अपनी किसी समस्या को, बल्कि यह कहता था कि मैं अपनी कमजोरी दूर करने का रास्ता झट से ढूँढ़ लूँगा। मैं बताता था कि मैंने कैसे नए विश्वासियों का सिंचन किया और उन्हें कैसे सीखने का मौका दिया, ताकि मैं अपने अच्छे कर्मों का प्रदर्शन कर सकूँ। अपना अनुभव साझा करते हुए मैं परमेश्वर के लिए अपने त्याग की बात करता था, कि मैंने कितनी दफा रात भर ड्यूटी की है, ताकि हर कोई मुझे आदर से देखे। मेरी साथिन बहन मेरिनेट मेरी बहुत तारीफ करती थी, क्योंकि मैं उसकी हालत को लेकर परमेश्वर के वचनों से हमेशा उसकी मदद करता रहता था। जब वह मेरी तारीफ करती तो मैं सचमुच बहुत खुश और संतुष्ट महसूस करता। सिंचन की ट्रेनिंग ले रहे भाई-बहन भी मेरी खूब तारीफ करते, और एक बार एक बहन ने मुझे बुलाकर कहा कि मुझसे सीखने के कारण ही वह अपना कर्तव्य निभाने में इतनी सक्षम हो सकी थी। इससे मेरे दंभ को खूब हवा मिली। मैंने उससे यह नहीं कहा कि मेरी मददगार संगति परमेश्वर के मार्गदर्शन के कारण थी, कि यह परमेश्वर के प्रबोधन से आई थी, इसलिए सारा गौरव उसे ही मिलना चाहिए। मेरी संगति के बाद कुछ भाई-बहन "आमीन" कहते थे, या यह कि "मैथ्यू कितनी सही बात कहता है," या फिर, "मैथ्यू की संगति के लिए मैं कितनी शुक्रगुजार हूँ।" कभी-कभी वे तारीफ भरे लहजे में मुझसे बात करते, और अपने कर्तव्यों को लेकर फैसले लेने में भी मेरी राय लेते, पूछते थे, "क्या यह ठीक है, मैथ्यू?" उनके दिलों में मेरी महत्वपूर्ण जगह थी। जब मैं देखता कि वे मेरी कितनी तारीफ करते हैं तो मैं थोड़ा बेचैन महसूस करता, पर मुझे उनकी आदर की भावना अच्छी लगती। मुझे खुशी महसूस होती। फिर एक दिन मैंने एक वीडियो गवाही देखी, जिसका शीर्षक था "दिखावा करने से हुआ नुकसान।" यह झकझोर देने वाला वीडियो था। एक बहन, जो एक अगुआ थी, अपने कर्तव्य में खुद को हमेशा ऊंचा दिखाती थी। उसने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया और उसे एक बीमारी से अनुशासित किया गया। मूल बात यह थी कि उसके व्यवहार से परमेश्वर को खीज हो गई थी। वह वीडियो देखकर मेरी आँखों से आँसू बहने लगे और मुझे अहसास हुआ कि दूसरों की तारीफ पाने के लिए दिखावा करके मैं परमेश्वर का विरोध कर रहा था। मैं एक मसीह-विरोधी की राह पर था। मैंने कभी भी नहीं सोचा था कि दिखावा करना इतनी गंभीर समस्या हो सकती है। मैं अपने-आपसे कहता रहा, "मैंने परमेश्वर का क्रोध भड़काया है।" मैं सचमुच बहुत डर गया था और समझ नहीं पा रहा था क्या करूँ।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा, जिससे मुझे अपनी भ्रष्टता को समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "स्वयं का उत्कर्ष करना और स्वयं की गवाही देना, स्वयं पर इतराना, दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने की कोशिश करना—भ्रष्‍ट मनुष्‍यजाति इन चीज़ों में माहिर है। जब लोग अपनी शैता‍नी प्रकृतियों से शासित होते हैं, तब वे सहज और स्‍वाभाविक ढंग से इसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं, और यह भ्रष्‍ट मनुष्यजाति के सभी लोगों में है। लोग सामान्यतः कैसे स्वयं का उत्कर्ष करते और गवाही देते हैं? वे इस लक्ष्‍य को कैसे हासिल करते हैं? एक तरीक़ा इस बात की गवाही देना है कि उन्‍होंने कितना अधिक दुःख भोगा है, कितना अधिक काम किया है, और स्वयं को कितना अधिक खपाया है। वे इन बातों की चर्चा निजी पूँजी के रूप में करते हैं। अर्थात, वे इन चीज़ों का उपयोग उस पूँजी की तरह करते हैं जिसके द्वारा वे अपना उत्कर्ष करते हैं, जो उन्‍हें लोगों के दिमाग़ में अधिक ऊँचा, अधिक मज़बूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उन्‍हें मान दें, सराहना करें, सम्मान करें, यहाँ तक कि श्रद्धा रखें, पूज्‍य मानें, और अनुसरण करें। यह परम प्रभाव है। इस लक्ष्‍य—पूर्णतया अपना उत्कर्ष करना और स्वयं अपनी गवाही देना—को प्राप्त करने के लिए वे जो चीज़ें करते हैं, क्‍या वे तर्कसंगत हैं? वे नहीं है। वे तार्किकता के दायरे से बाहर हैं। इन लोगों में कोई शर्म नहीं है : वे निर्लज्‍ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्‍होंने परमेश्‍वर के लिए क्‍या-क्‍या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्‍यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, और विशेष दक्षताओं तक पर, या अपने आचरण की चतुर तकनीकों और लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीक़ों तक पर इतराते हैं। स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का उनका तरीक़ा स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे पाखण्‍ड और छद्मों का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमज़ोरियाँ, कमियाँ, और नाकामियाँ छिपाते हैं ताकि लोग हमेशा सिर्फ़ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्‍मक महसूस करते हैं तब दूसरे लोगों को यह बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ ग़लत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्‍य निभाने के दौरान उन्‍होंने परमेश्‍वर के घर को जो नुक़सान पहुँचाया होता है उसका तो वे ज़ि‍क्र तक नहीं करते। जब उन्‍होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतज़ार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्‍य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्‍या यह स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का ही तरीक़ा नहीं है? क्‍या स्वयं अपना उत्कर्ष करना और अपनी गवाही देना सामान्‍य मानवता की तर्कसंगत सीमाओं में आता है? यह नहीं आता है। इसलिए जब लोग यह करते हैं, तो सामान्यतः कौन-सा स्‍वभाव प्रगट होता है? अहंकारी स्वभाव मुख्‍य अभिव्यंजनाओं में से एक है, जिसके बाद छल-कपट आता है, जिसमें यथासंभव वह सब करना शामिल है जिससे दूसरे उनके प्रति अत्यधिक सम्‍मान का भाव रखें। उनकी कहानियाँ पूरी तरह अकाट्य होती हैं; उनके शब्‍दों में अभिप्रेरणाएँ और कुचक्र स्पष्ट रूप से होते हैं, और उन्‍होंने इस तथ्‍य को छिपाने का तरीक़ा ढूँढ़ निकाला होता है कि वे दिखावा कर रहे हैं, लेकिन वे जो कुछ कहते हैं उसका परिणाम यह होता है कि लोगों को अब भी यह महसूस करवाया जाता है कि वे दूसरों से बेहतर हैं, कि उनके बराबर कोई नहीं है, कि हर कोई उनसे हीनतर है। और क्‍या यह परिणाम चालाकीपूर्ण साधनों से हासिल नहीं किया गया है? ऐसे साधनों के पीछे कौन-सा स्‍वभाव है? और क्‍या उसमें दुष्‍टता के कोई तत्त्व हैं? यह एक प्रकार का दुष्‍ट स्‍वभाव ही है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना उन्नयन करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं')। परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरे दिल को एक झटका-सा लगा। मैं बिल्कुल साफ देख पा रहा था कि मेरे भीतर क्या छिपा हुआ है। मैं एक मजबूत इंसान, एक मुकम्मल इंसान के रूप में अपनी एक छवि निर्मित करना चाहता था। जब मैं अपने अनुभव पर संगति करता था तो मैं अपने "साहसिक" कारनामों का प्रदर्शन करता था, अपनी सफलताओं की बात तो करता था, पर विफलताओं की नहीं। जब मैं कमजोर या नकारात्मक होता, या किसी समस्या का सामना करता, या बहुत बुरी हालत में होता, तो भी मैं यही कहता था, "मैं ठीकठाक हूँ। मैं थोड़े परीक्षण से गुजर रहा हूँ, पर परमेश्वर की मदद से मैं इससे उबर जाऊंगा।" जबकि वास्तव में मैं बहुत तकलीफ में होता था। मैं हमेशा यह बोलता रहता था कि मैंने अपने कर्तव्य के लिए कितना कष्ट उठाया, और अपने जिम्मेदार होने का प्रदर्शन करता। पर सच्चाई यह नहीं थी। जब मैं अपने कर्तव्य के लिए त्याग करता, तो यह ज़्यादातर अपने नाम और रुतबे की खातिर होता। दूसरों की तारीफ पाकर मेरे मन में कुछ होने लगता, और मैं जानता था कि यह अच्छा नहीं था। इसके बावजूद मैंने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया था। मैंने लोगों से मेरी तारीफ न करने के लिए नहीं कहा था, क्योंकि मैं उनकी तारीफ और सराहना चाहता था, और उनके दिलों में परमेश्वर से भी ज्यादा जगह चाहता था। क्या मैं महादूत की तरह ही अहंकारी नहीं था? मैं दूसरों को परमेश्वर के सम्मुख नहीं ला रहा था, बल्कि उन्हें अपने सम्मुख ला रहा था। यह अहसास होते ही कि मैं भाई-बहनों के दिलों में परमेश्वर की जगह ले सकता था, मैं डर से काँपने लगा और मैं दिल-ही-दिल में जानता था कि परमेश्वर मेरे व्यवहार से घृणा करेगा। इस सच्चाई से सामना होते ही मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। "परमेश्वर, मैं दिखावा करता रहा हूँ, यह चाहता रहा हूँ कि हर कोई मुझे ऊंचे दर्जे पर रखे और मुझे सभी समस्याओं का समाधान करने वाला समझे। मैं तुम्हारी महिमा छीन रहा हूँ। परमेश्वर, मैं प्रायश्चित करना चाहता हूँ।" मुझे बहुत पछतावा हो रहा था। फिर मैंने एक माफीनामा लिखा और अपनी असलियत और खुद को ऊंचा दिखाने का खुलासा करते हुए इसे हर सभा ग्रुप को भेज दिया। मैंने हरेक से साफ-साफ यह भी कहा कि वे मेरी तारीफ न करें। मैं कुछ ऐसे लोगों को जानता था जो खासतौर से मेरा आदर करते थे, इसलिए मैंने अपना विश्लेषण करते हुए उन्हें निजी संदेश भेजे। कुछ दिन बाद, बहन मेरिनेट ने मुझसे साफ-साफ कहा कि वह पहले मेरी बहुत तारीफ करती थी और उसके दिल में मेरे लिए बड़ी अहम जगह थी। यह सुनकर मुझे बड़ी शर्म आई और मुझे लगा कि यह मेरी दुष्टता का सबूत है। उसी पल मुझे अपनी कुरूपता दिखाई दी। मैं दूसरों की तारीफ पाने के लिए दिखावा करता रहा था। मैं अपना विवेक खो बैठा था। यह एक कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? परमेश्वर ने मुझे उठाकर अगुआ के ओहदे पर बिठाया था और मैंने इसका यह बदला दिया था? मुझे इतनी शर्म पहले कभी भी महसूस नहीं हुई थी। पर मैंने अपनी भ्रष्टता से मुक्त होने के लिए अब भी सत्य की खोज नहीं की, इसलिए मैं जल्दी ही अपने पुराने रास्ते पर लौट आया।

एक ऑनलाइन सभा थी जिसमें दूसरे कलीसिया अगुआ भी हिस्सा ले रहे थे। मुझे भाई-बहनों की संगति बहुत सतही लगी और मैं थोड़ा उखड़ गया, मुझे लगा कि उनकी संगति खोखली थी और दूसरे अगुआ कोई ऊंची बात नहीं कह रहे थे। मैं उन्हें दिखाना चाहता था कि अच्छी संगति क्या होती है, अपनी समझ को हरेक के साथ बांटना चाहता था, ताकि वे मेरी बातों से बहुत कुछ सीख सकें। मैं उन्हें रास्ता दिखाना चाहता था। इसलिए मैं अपने दिमाग में तैयारी करने लगा कि मुझे क्या कहना है, मैं कोई ज्यादा प्रबुद्ध बात कहना चाहता था, ताकि मैं भीड़ से ऊपर उठकर वजनदार संगति कर सकूँ। मैं अपनी संगति के लिए अच्छे-से-अच्छे शब्द चुनना चाहता था। मैं यह साबित करना चाहता था कि मुझे दूसरों से बेहतर समझ है, ताकि लोग मेरी अंतर्दृष्टि की सराहना कर सकें। मैंने बहुत-से उदाहरणों और रूपकों का प्रयोग किया ताकि उन्हें पता चले कि मैं विवरण के साथ बढ़िया संगति दे सकता हूँ। मेरी बात खत्म हुई तो हरेक के मुंह से "आमीन" सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई। इसके बाद मैंने चैट विंडो की जांच की, यह देखने के लिए कि क्या भाई-बहनों ने मेरी संगति के बारे में कुछ अच्छा कहा है। सभा खत्म होने को थी कि भाई ज़ेइन ने भी थोड़ी संगति की, पर परमेश्वर के वचनों को उद्धरित किए बिना, जैसाकि हम हमेशा करते हैं, इन्हीं को आधार बनाते हुए, पर उसने मेरी संगति का हवाला दिया, और कहा कि हम सबको मेरी संगति के अनुसार चलना चाहिए। उसने मेरी संगति को अपनी समझ की आधारशिला बना लिया। मैंने देखा कि मैं एक बार फिर खुद को ऊंचा दिखा रहा था, दूसरों को मेरी स्तुति करने के लिए प्रेरित करते हुए। उस पल मुझे काफी बेचैनी महसूस हुई। मुझे कुछ दिन पहले एक संगति में पढ़े गए परमेश्वर के कुछ वचन याद आ गए। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "यदि भाई-बहनों को एक-दूसरे में विश्वास करने में सक्षम होना है, एक-दूसरे की सहायता करनी है और एक-दूसरे का भरण-पोषण करना है, तो प्रत्येक व्यक्ति को अवश्य अपने वास्तविक अनुभवों के बारे में बात करनी चाहिए। यदि तू अपने सच्चे अनुभवों के बारे में कुछ नहीं कहता, अगर तू केवल सिद्धांत के स्पष्ट शब्द दोहराता है, और परमेश्वर में विश्वास के बारे में कहावतों और लचर बातों की तोता-रटंत करता है, और जो कुछ तुम्हारे दिल में है, उसके बारे में खुलकर बिलकुल नहीं बताता, तो तू एक ईमानदार व्यक्ति नहीं है, और तू एक ईमानदार व्यक्ति होने में असमर्थ है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। "जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में अधिक बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और लोगों को कैसे दंड देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुमको इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुमने कितना सहन किया है, तुम लोगों के भीतर कितने भ्रष्टाचार को प्रकट किया गया है, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुमको जीता था; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुमको परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य कैसे चुकाना चाहिए। तुम लोगों को इन बातों को सरल तरीके से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा का अधिक व्यावहारिक रूप से प्रयोग करना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊंचा दिखाने की कोशिश न करो, और खोखले सिद्धांतों के बारे में बात न करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्क हीन माना जाएगा। तुम्हें अपने असल अनुभव की वास्तविक, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज़्यादा बात करनी चाहिए; यह दूसरों के लिए बहुत लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। "अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, और हमेशा लोगों को जीतने की कोशिश करते हो, हमेशा अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करना चाहते हो, और अपनी हैसियत की लालसा पूरी करना चाहते हो, तो तुम मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलते हो। क्या मसीह-विरोधियों के मार्ग की कोई भी चीज सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) इसकी क्या चीज सत्य के विपरीत है? ये लोग किसकी खातिर काम करते हैं? (हैसियत की खातिर।) हैसियत की खातिर काम करने वाले लोगों में क्या प्रदर्शित होता है? कुछ लोग कहते हैं, 'वे हमेशा सिद्धांत के शब्द बोलते हैं, वे कभी सत्य की वास्तविकता के बारे में संगति नहीं करते, वे हमेशा अपनी खातिर ही बोलते हैं, वे कभी परमेश्वर का उत्कर्ष नहीं करते या उसकी गवाही नहीं देते। जिन लोगों में ऐसी चीजें प्रदर्शित होती हैं, वे हैसियत की खातिर काम करते हैं।' वे सिद्धांत के शब्द क्यों बोलते हैं? वे परमेश्वर की बड़ाई क्यों नहीं करते और उसकी गवाही क्यों नहीं देते? क्योंकि उनके हृदय में केवल हैसियत और प्रतिष्ठा होती है—परमेश्वर पूरी तरह से अनुपस्थित होता है। ऐसे लोग हैसियत और अधिकार की आराधना करते हैं, प्रतिष्ठा उनके लिए बहुत महत्व रखती है, प्रतिष्ठा और हैसियत ही उनका जीवन बन गया होता है; परमेश्वर उनके हृदय से अनुपस्थित रहता है, वे परमेश्वर का भय नहीं मानते, उसकी आज्ञा मानने की तो बात ही दूर है; वे केवल अपनी बड़ाई करते हैं, अपनी ही गवाही देते हैं, और दूसरों की प्रशंसा प्राप्त करने के लिए दिखावा करते हैं। इस प्रकार, वे अकसर अपने बारे में डींग मारते हैं कि उन्होंने क्या किया है, उन्होंने कितना सहा है, उन्होंने परमेश्वर को कैसे संतुष्ट किया है, जब उनसे निपटा गया तो वे कितने सहनशील रहे, यह सब वे लोगों की सहानुभूति और प्रशंसा अर्जित करने के लिए करते हैं। ये लोग मसीह-विरोधियों जैसे ही होते हैं, वे पौलुस के मार्ग पर चलते हैं। और उनका अंतिम परिणाम क्या होता है? (वे मसीह-विरोधी बन जाते हैं और हटा दिए जाते हैं।)" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए होना ही चाहिए अभ्यास का सुनिश्चित मार्ग')। मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि मुझे अपना दिल खोलकर रख देने और अपने सच्चे अनुभव को साझा करने, साफ-साफ कहने, और खोखले शब्दों और घिसी-पिटी बातों से बचने की जरूरत थी। एक सच्चा अगुआ अपने अनुभव और परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ को साझा करता है, सत्य को समझने और परमेश्वर के सम्मुख आने में दूसरों का मार्गदर्शन करता है। एक मसीह-विरोधी तारीफ और वाहवाही के लिए खोखले शब्दों से संगति का दिखावा करता है, और दूसरों को सिर्फ अपने सम्मुख लाता है। जहाँ तक मेरी बात थी, मैं लोगों को अभ्यास का कोई मार्ग दिए बगैर सिर्फ खोखले सिद्धांत उगल रहा था। मैंने कोई वास्तविक समस्या हल नहीं की थी। मेरा लक्ष्य सत्य को समझने और परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करने में उनकी मदद करने की बजाय उनकी तारीफ पाना था। दिखावे के परिणाम बिल्कुल साफ थे। लोग मुझे आदर से देखते थे और परमेश्वर के वचनों की गवाही देने की बजाय मेरी संगति को अपने संदर्भ के रूप में इस्तेमाल करते थे। लोग हमेशा ऐसी बातें कहते थे, "मैथ्यू की संगति का शुक्र है" या "जैसाकि भाई मैथ्यू ने कहा है।" मैंने पौलुस के बारे में सोचा, जो हमेशा दिखावा करता था और प्रभु यीशु के वचनों की गवाही नहीं देता था। इससे विश्वासी 2,000 साल तक पौलुस के शब्दों की वाहवाही करते रहे और गवाही देते रहे। क्या मैं भी पौलुस जैसा ही काम नहीं कर रहा था, और परमेश्वर के खिलाफ उसी राह पर नहीं चल रहा था? मुझे बहुत डर लग रहा था और खुद से नफरत-सी हो रही थी। मैंने प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं वही गलती कर रहा हूँ। तुम्हारे वचनों ने मुझे राह दिखाई, पर मैं अभी भी शैतान का अनुसरण करते हुए अपने दंभ को संतुष्ट कर रहा हूँ। मैं फिर से शैतान की भूमिका निभा रहा हूँ। परमेश्वर, मेरी मदद करो, मुझे बचा लो!"

एक शाम एक सभा के लिए तैयारी करते समय मैंने यह अंश देखा : "मनुष्य द्वारा परमेश्वर की सेवा में सबसे बड़ी वर्जना क्या है? क्या तुम लोग जानते हो? अगुआओं के रूप में सेवा करने वाले कुछ लोग हमेशा अलग होने की कोशिश करना चाहते हैं, बाकी सबसे बेहतर होना चाहते हैं, और कुछ नई तरकीबें पाना चाहते हैं, जो परमेश्वर को यह दिखा सकें कि वे वास्तव में कितने सक्षम हैं। लेकिन वे सत्य को समझने और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते; हमेशा दिखावा करने की कोशिश करते हैं। क्या यह ठीक एक अहंकारी प्रकृति का प्रकटन नहीं है? ... परमेश्वर की सेवा करने में लोग अच्छी प्रगति करना, अच्छी चीजें करना, अच्छी बातें बोलना, अच्छे कार्य करना, अच्छी बैठकें आयोजित करना और अच्छे अगुआ बनना चाहते हैं। यदि तुम हमेशा ऐसी उच्च महत्वाकांक्षाएँ रखते हो, तो तुम परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करोगे; जो लोग ऐसा करते हैं, वे शीघ्र ही मर जाएँगे। यदि तुम परमेश्वर की सेवा में सदाचारी, धर्मनिष्ठ और विवेकशील नहीं हो, तो तुम देर-सबेर उसके स्वभाव का अपमान कर दोगे" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य से रहित होकर कोई परमेश्वर को नाराज़ करने का भागी होता है')। परमेश्वर के इन वचनों से मैं सन्न रह गया। इस प्रकाशन से मुझे बड़ी सफलता हासिल करने की अपनी उन्मादी महत्वाकांक्षा और इच्छा दिखाई देने लगी। मैं अपनी वाक्पटुता दिखाने के लिए सभाओं की अध्यक्षता करना चाहता था। मुझे दिखावा करना पसंद था और मैं इसका कोई मौका नहीं चूकता था। मुझे तारीफ पाना और यह सुनना चाहता था, "भाई मैथ्यू कितनी शानदार सभाएं करता है! उससे अच्छा कोई अगुआ नहीं है!" इन इच्छाओं से प्रेरित होकर, मैं एक से दूसरी सभा की तरफ लपकता था, लगातार काम करता, सभाएं जटाता और समस्याएँ सुलझाता था। मुझे इस तरह की अगुवाई बहुत भाती थी। पर फिर मैंने यह पढ़ा : "यदि तुम हमेशा ऐसी उच्च महत्वाकांक्षाएँ रखते हो, तो तुम परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करोगे; जो लोग ऐसा करते हैं, वे शीघ्र ही मर जाएँगे," मैं डर से काँप रहा था और मेरे दिल में एक सिहरन-सी दौड़ रही थी। मैं सोचता था मैं परमेश्वर को संतुष्ट कर रहा हूँ, पर अब मुझे महसूस हुआ मैं उसे क्रोध दिला रहा था। मुझे खुद से बहुत खीज हो रही थी। मैं कुछ बड़ा करना चाहता था, ऊंचे उपदेश देना चाहता था। मैं परमेश्वर की गवाही देने या सत्य के अभ्यास से प्रेरित नहीं था, मैं भाई-बहनों की जिंदगियों के लिए कोई जिम्मेदारी भी नहीं उठा रहा था। मैं सिर्फ खुद को ऊंचा उठाने और भाई-बहनों के दिलों में अपनी खास जगह बनाने में लगा था। यह परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का अपमान था। जो कहते हैं, "मनुष्य को स्वयं को बड़ा नहीं दिखाना चाहिए, न अपनी बड़ाई करनी चाहिए। उसे परमेश्वर की आराधना और बड़ाई करनी चाहिए।" "जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें परमेश्वर की आज्ञा माननी चाहिए और उसकी आराधना करनी चाहिए। किसी व्यक्ति को ऊँचा न ठहराओ, न किसी पर श्रद्धा रखो; परमेश्वर को पहले, जिनका आदर करते हो उन्हें दूसरे और ख़ुद को तीसरे स्थान पर मत रखो। किसी भी व्यक्ति का तुम्हारे हृदय में कोई स्थान नहीं होना चाहिए और तुम्हें लोगों को—विशेषकर उन्हें जिनका तुम सम्मान करते हो—परमेश्वर के समतुल्य या उसके बराबर नहीं मानना चाहिए। यह परमेश्वर के लिए असहनीय है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए)। यह सिर्फ खुद की जयजयकार ही नहीं थी जो प्रशासनिक आदेशों का अपमान थी, इससे भी बढ़कर, मैंने दूसरों को गलत और परमेश्वर के प्रतिरोध के रास्ते पर डाल दिया था, क्योंकि वे एक व्यक्ति की प्रशंसा कर रहे थे। इसके परणाम गंभीर होने थे और परमेश्वर का क्रोधित होना निश्चित था। मैं दहशत में था। मुझे लगता था परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करने के लिए परमेश्वर मुझे माफ नहीं करेगा। मेरी हालत बहुत दयनीय थी। मैंने प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं सचमुच बहुत पीड़ित हूँ। मुझे पता नहीं था कि मैं तुम्हारे क्रोध को भड़का रहा था। मैं प्रायश्चित करना चाहता हूँ। हे परमेश्वर, तुम्हारी इच्छा को समझने में मेरी मदद करो।"

मैं अपने डर में खोया था कि तभी मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "आज परमेश्वर तुम लोगों का न्याय करता है, तुम लोगों को ताड़ना देता है, और तुम्हारी निंदा करता है, लेकिन तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि तुम्हारी निंदा इसलिए की जाती है, ताकि तुम स्वयं को जान सको। वह इसलिए निंदा करता है, शाप देता है, न्याय करता और ताड़ना देता है, ताकि तुम स्वयं को जान सको, ताकि तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन हो सके, और, इसके अलावा, तुम अपनी कीमत जान सको, और यह देख सको कि परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक और उसके स्वभाव और उसके कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार हैं, और वह मनुष्य के उद्धार के लिए अपनी योजना के अनुसार कार्य करता है, और कि वह धार्मिक परमेश्वर है, जो मनुष्य को प्यार करता है, उसे बचाता है, उसका न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है। यदि तुम केवल यह जानते हो कि तुम निम्न हैसियत के हो, कि तुम भ्रष्ट और अवज्ञाकारी हो, परंतु यह नहीं जानते कि परमेश्वर आज तुममें जो न्याय और ताड़ना का कार्य कर रहा है, उसके माध्यम से वह अपने उद्धार के कार्य को स्पष्ट करना चाहता है, तो तुम्हारे पास अनुभव प्राप्त करने का कोई मार्ग नहीं है, और तुम आगे जारी रखने में सक्षम तो बिल्कुल भी नहीं हो। परमेश्वर मारने या नष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि न्याय करने, शाप देने, ताड़ना देने और बचाने के लिए आया है। उसकी 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना के समापन से पहले—इससे पहले कि वह मनुष्य की प्रत्येक श्रेणी का परिणाम स्पष्ट करे—पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य उद्धार के लिए होगा; इसका प्रयोजन विशुद्ध रूप से उन लोगों को पूर्ण बनाना—पूरी तरह से—और उन्हें अपने प्रभुत्व की अधीनता में लाना है, जो उससे प्रेम करते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए)। यह पढ़कर मुझे कुछ शांति मिली। मुझे लगा मैंने परमेश्वर इतना नाराज कर दिया है कि वो मुझे माफ़ नहीं करेगा, पर ऐसी बात नहीं थी। परमेश्वर मुझे अनुशासित कर रहा था, पर वह मुझसे घृणा नहीं करता था। वह चाहता था मैं बदल जाऊँ। मैंने परमेश्वर की धार्मिकता, सहनशीलता और क्षमाशीलता देखी थी। मैं जानता था कि इस बार मुझे सत्य की खोज करके अपनी भ्रष्टता को दूर करना होगा।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक दूसरा अंश पढ़ा : "एक ईमानदार व्यक्ति होने के नाते तुम्हें अपना दिल खोलना चाहिए, ताकि हर कोई उसके अंदर देख सके, तुम्हारे विचारों को समझ सके, और तुम्हारा असली चेहरा देख सके; अच्छा दिखने के लिए तुम्हें तुम खुद भेष धारण करने या खुद को आकर्षक बनाने का प्रयास न करो। लोग तभी तुम पर विश्वास करेंगे और तुमको ईमानदार मानेंगे। यह ईमानदार होने का सबसे मूल अभ्यास और ईमानदार व्यक्ति होने की शर्त है। तू हमेशा पवित्रता, सदाचार, महानता का दिखावा करता है, नाटक करता है, और उच्च नैतिक गुणों के होने का नाटक करता है। तू लोगों को अपनी भ्रष्टता और विफलताओं को नहीं देखने देता है। तू लोगों के सामने एक झूठी छवि पेश करता है, ताकि वे मानें कि तू सच्चा, महान, आत्म-त्यागी, निष्पक्ष और निस्वार्थी है। यह धोखा है। भेष धारण मत कर और खुद को आकर्षक ढंग से प्रस्तुत मत कर; इसके बजाय, अपने आप को स्पष्ट कर और दूसरों के देखने के लिए खुद को और अपने हृदय को पूरी तरह उजागर कर दे। यदि तू दूसरों के देखने के लिए अपने हृदय को उजागर कर सकता है और अपने विचारों और योजनाओं को—चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक—स्पष्ट कर सकता है तो क्या तू ईमानदार नहीं बन रहा है? यदि तू दूसरों के समक्ष अपने आप को उजागर कर सकता है, तो परमेश्वर भी तुझे देखेगा और कहेगा: 'तूने दूसरों के देखने के लिए स्वयं को खोल दिया है, और इसलिए मेरे सामने भी तू निश्चित रूप से ईमानदार है।' यदि तू दूसरे लोगों की नज़र से दूर केवल परमेश्वर के सामने अपने आप को उजागर करता है, और उनके साथ रहते हुए हमेशा महान और गुणी या न्यायी और निःस्वार्थ होने का दिखावा करता है, तो परमेश्वर क्या सोचेगा और परमेश्वर क्या कहेगा? वह कहेगा: 'तू वास्तव में धोखेबाज़ है; तू विशुद्ध रूप से पाखंडी और क्षुद्र है; और तू ईमानदार व्यक्ति नहीं है।' परमेश्वर इस प्रकार से तेरी निंदा करेगा। यदि तू ईमानदार व्यक्ति होना चाहता है, तो चाहे तू परमेश्वर के सामने हो या दूसरे लोगों के सामने, तुझे अपने में जो कुछ भी प्रकट होता है, उसका और अपने हृदय में मौजूद शब्दों का एक शुद्ध और खुला लेखा-जोखा प्रदान करने में सक्षम होना चाहिए। क्या यह हासिल करना आसान है? इसके लिए समय की आवश्यकता होती है, इसमें आंतरिक संघर्ष की आवश्यकता होती है और हमें लगातार अभ्यास करना पड़ता है। धीरे-धीरे हमारा हृदय खुल जाता है और हम खुद को उजागर कर पाते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। इस अंश से मेरी समझ में आया कि परमेश्वर मुझसे क्या चाहता था। वह चाहता था कि मैं एक ईमानदार इंसान बनूँ। मतलब मुझे दूसरों के सामने अपनी भ्रष्टता उजागर करके अपने ईमानदार विचार साझा करने थे, ताकि वे मेरी कमजोरियों और परेशानियों को देख सकें। अगर मैं अपनी विफलताएँ और कमियाँ उजागर किए बिना खुद को ऊंचा दिखाता रहूँगा, संगति के जरिए सिर्फ अपनी एक झूठी छवि निर्मित करता रहूँगा, तो यह एक झूठ होगा। यह न तो लोगों के साथ ईमानदारी होगी और न ही परमेश्वर के साथ। उस दिन मैंने समझा कि एक ईमानदार इंसान बनना कितना जरूरी है। मैंने अपनी गलत सोच को भी जाना-समझा। मुझे लगता था कि अगुआ में कोई कमजोरी न हो, उसे वीर पुरुष होना चाहिए, एक रहनुमा की तरह, जो दूसरों से ऊंचे स्तर का और उनसे बेहतर होता है। लेकिन परमेश्वर यह नहीं चाहता। परमेश्वर सीधे-सादे, ईमानदार लोग चाहता है। ऐसे लोग अपनी कमियाँ खुलकर बताते हैं, वे सत्य से प्रेम और उसका अभ्यास करते हैं। वे अपना ध्यान भाई-बहनों के जीवन प्रवेश पर टिकाए रहते हैं, और सत्य के सिद्धांत खोजते हैं, न कि अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने में जुटे रहते हैं। मुझे प्रभु यीशु का कथन याद आया : "परन्तु तुम रब्बी न कहलाना, क्योंकि तुम्हारा एक ही गुरु है, और तुम सब भाई हो। ... और स्वामी भी न कहलाना, क्योंकि तुम्हारा एक ही स्वामी है, अर्थात् मसीह। जो तुम में बड़ा हो, वह तुम्हारा सेवक बने। जो कोई अपने आप को बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा : और जो कोई अपने आपको छोटा बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा" (मत्ती 23:8-12)। एक अगुआ के तौर पर मैं पूरा समय एक दिखावा करता रहा, इस उम्मीद से कि लोग मेरा गुणगान करेंगे। मुझे अहसास हुआ कि मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं से कितना दूर था। अगुआ एक सेवक की भूमिका निभाता है, ऐसा सेवक जिस पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है। उन्हें हमेशा इस जिम्मेदारी का ध्यान रखना पड़ता है, कि उन्हें भाई-बहनों का सिंचन करना है, मदद करनी है, और सत्य की खोज करके उनकी समस्याएँ सुलझानी हैं। अगुआ कोई अधिकारी नहीं होता, न ही वह दूसरों से ऊपर होता है। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और सभी मनुष्य सृजित प्राणी हैं, भले ही उनका कोई भी ओहदा हो। हम सबको सृष्टिकर्ता की आराधना करनी चाहिए। उसी घड़ी मुझे अपनी भूमिका और जिम्मेदारी समझ में आ गई, कि मुझे एक सृजित प्राणी के तौर पर अपना कर्तव्य ठीक-से निभाना चाहिए। उस समय से मेरी मानसिकता में एक बदलाव आने लगा और मैं ईमानदार इंसान बनने में जुट गया। जब मुझे लगता मैं अपनी बढ़ाई कर रहा हूँ, तो मैं खुलकर अपनी भ्रष्टता और कमियों को उजागर करता, कभी-कभी यह काफी पीड़ाजनक होता, पर इससे यही पता चलता था कि मैं कितना बेईमान हूँ। मैंने कितने सारे खेल खेले थे, दूसरों को कितना बेवकूफ बनाया था। खुलकर बोलने से मुझे अपना असली रंग और असली आध्यात्मिक कद दिखाई देने लगा। मुझे अहसास हुआ कि मैं कुछ भी नहीं हूँ। अपनी सब संगतियों में, मैं धर्म-सिद्धांतों से लोगों को प्रेरित और उनकी मदद करते हुए खुद को ऊँचा उठा रहा था। लेकिन अब मैंने भाई-बहनों से अपनी असली दशा को साझा करना शुरू कर दिया, पूरी साफगोई से। मेरी भी वही समस्याएँ थीं जो उनकी थीं, मुझमें वैसी ही भ्रष्टता थी जैसी उनमें थी, और मैं अगुआ था, पर हम एक जैसे थे। सिर्फ हमारे कर्तव्य अलग थे। जब मैंने ऐसा किया तो मुझे महसूस नहीं हुआ कि मैं दूसरों से ज्यादा होशियार हूँ। बल्कि मैंने उनके अनुभवों से कुछ सीखा, और दूसरों की संगति से प्रबुद्ध हुआ। पहले मैं दूसरों की संगति पर शायद ही कोई ध्यान देता था, और अहंकारवश यह समझता था कि मैं ही दूसरों को प्रबुद्ध कर रहा हूँ। परमेश्वर के वचनों की कृपा से मैं दूसरों से ज्यादा घनिष्ठता से जुड़ सका, मैं उन्हें बेहतर ढंग से समझने लगा, और उनकी असली दशा को देख पाया। मैंने देखा कि परमेश्वर की व्यवस्थाएं उनकी मदद करते समय भी मुझे उनसे बहुत कुछ सीखने का अवसर देती हैं। हमारी एक साथ संगति के जरिए मैंने कितना कुछ सीखा। अब मैं पहले जैसा अभिमानी और आत्म-मुग्ध नहीं रहा था, मैं दूसरों से बराबरी का, सामान्य और स्वाभाविक व्यवहार करता था, कभी-कभी तो संगति के दौरान मैं अगुआ के अपने ओहदे को भी बिल्कुल भूल जाता। मैं खुद में आए इस बदलाव के लिए परमेश्वर का आभारी हूँ।

कभी-कभी मैं अब भी पाता हूँ कि मैं दिखावा कर रहा हूँ, इससे पता चलता है कि शैतान ने मुझे कितनी गहराई से भ्रष्ट किया है। यह कोई आई-गई चीज नहीं है, यह मेरे हाड़-मांस और मेरे खून में है। सत्य के पोषण के बिना, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बिना, मैं भाई-बहनों को अपने नियंत्रण में ही रखे रहता और परमेश्वर से होड़ करता रहता। सही बात है। बदल न पाना सचमुच खतरनाक है। सिर्फ सत्य ने ही मुझे मेरे शैतानी स्वभाव से मुक्त किया। इसके बिना, मैं एक मसीह-विरोधी बन जाता और निंदा का भागी होता। परमेश्वर के मार्गदर्शन की कृपा से मैंने अपना नजरिया बदला है, और अब अगुआ के रूप में अपने कर्तव्य को लेकर मेरा नजरिया काफी साफ हो चुका है। सबसे बढ़कर, परमेश्वर मुझे मेरे शैतानी स्वभाव के नियंत्रण से बचा रहा है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद है!

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