कलीसिया का अगुआ कोई अधिकारी नहीं होता

04 फ़रवरी, 2022

मैथ्यू, फ्रांस

मैंने तीन साल पहले सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किया था। अक्टूबर 2020 में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। मुझे एहसास हुआ कि यह एक बड़ी जिम्मेदारी है, थोड़ा दबाव महसूस करने के साथ-साथ मुझे गर्व भी हो रहा था। मुझे लगा कि इस महत्वपूर्ण कर्तव्य के लिए मैं इसलिए चुना गया हूँ क्योंकि मुझमें दूसरों से ज्यादा काबिलियत है। मैंने अपने कर्तव्य को बहुत गंभीरता से लिया, अपने भाई-बहनों के साथ संगति करने और उनकी समस्याओं और परेशानियों में उनकी मदद करने की भरसक कोशिश की। मैं हरेक को यह दिखाना चाहता था कि मैं एक बढ़िया अगुआ हूँ और वास्तविक काम कर सकता हूँ।

फिर एक कुकर्मी कलीसिया में अफवाहें फैलाने लगा। वह सभा समूहों में कम्युनिस्ट पार्टी के झूठ फैलाकर परमेश्वर की बदनामी और तिरस्कार करने लगा, तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने और बातों को पलटने के साथ ही परमेश्वर के घर के काम की आलोचना भी करने लगा। वह नए सदस्यों को गुमराह करना चाहता था, ताकि वे कलीसिया छोड़कर परमेश्वर को धोखा दे दें। इसलिए मैं जितना मुमकिन था उतना भाई-बहनों के साथ सभाएं और संगति कर रहा था, मैं दुश्मन समूह के खिलाफ सेना की अगुवाई करने वाले कमांडर की तरह महसूस कर रहा था। मैं यह साबित करना चाहता था कि मैं भाई-बहनों की रक्षा कर सकता हूँ, ताकि वे देख सकें कि मैं कितना भारी बोझ उठा सकता हूँ और कितना जिम्मेदार हूँ। लेकिन सच्चाई यह थी कि मैं अंदर से बहुत कमजोर महसूस कर रहा था। मैं खुद भी नहीं जानता था कि कुछ भ्रांतियों का खंडन कैसे करूँ, वे भ्रांतियाँ मुझे भी परेशान कर रही थीं। लेकिन मैं अपनी कमजोरी दूसरों को नहीं दिखाना चाहता था। मुझे लगता था कि कलीसिया के अगुआ के रूप में मुझे सख्त होना चाहिए, किसी प्रेसिडेंट या मिलिट्री कमांडर की तरह। मैं किसी को अपनी कमजोरी नहीं दिखा सकता था! इसलिए मैंने भाई-बहनों के सामने अपनी हालत के बारे में कभी खुलकर बात नहीं की। मैंने न केवल इस मामले में खुद को छिपाया, बल्कि सभाओं में परमेश्वर के वचनों की हमारी समझ के बारे में चर्चा करते समय, मैं गहरी समझ की बातें करना पसंद करता था, ताकि दूसरों को लगे कि मैं उन्हें बहुत अच्छी तरह समझता हूँ। जबकि अपनी विफलताओं और भ्रष्टताओं को के बारे में कुछ नहीं कहता था, झट से विषय बदलकर जो काम सही किए थे, उन की बात करने लगता था। उदाहरण के लिए, अगर किसी सभा में मुझे नींद आ रही होती तो मैं इसे स्वीकार नहीं करता था, जब कोई परेशानी की बात होती तो इसके बारे में दूसरों को बताने के बजाय इसे छिपा लेता था।

मेरी सहकर्मी बहन मेरिनेट मेरी बहुत तारीफ करती थी, क्योंकि मैं उसकी हालत से जुड़े परमेश्वर के वचनों से हमेशा उसकी मदद करता रहता था। मैं जानता था कि वह मेरे बारे में ऊंचा सोचती है, जब वह मेरी तारीफ करती तो मैं सचमुच बहुत खुश और संतुष्ट महसूस करता। नए सदस्यों का सिंचन करने वाले भाई-बहन भी मेरी खूब तारीफ करते। एक बार एक बहन ने मुझे कहा कि मेरी संगति और मदद से उसने बहुत सीखा है। दूसरों की मंजूरी पाकर मैं बहुत खुश था। सभाओं में, मेरी संगति के बाद कुछ भाई-बहन “आमीन” कहते, कुछ तो ये भी कहते, “ये तो वैसा ही है जैसा भाई मैथ्यू ने कहा था।” मुझे ऐसा लगता था मानो वे मेरे साथ मेरी भक्ति करने वाले लहजे में बात करते थे, मानो उनके दिलों में मेरी एक महत्वपूर्ण जगह थी। मैं जानता था कि यह सही नहीं था, पर मुझे उनका आदर पाना अच्छा लगता था। फिर एक दिन मैंने एक गवाही वाली वीडियो देखी, जिसका शीर्षक था “दिखावा करने से हुआ नुकसान।” इसने मेरे दिल का एक तार छेड़ दिया। एक बहन, जो एक अगुआ भी थी, अपने कर्तव्य में खुद को हमेशा ऊंचा दिखाती थी और दिखावा किया करती थी। उसने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया और उसे एक बीमारी से अनुशासित किया गया। मूल बात यह थी कि उसके व्यवहार से परमेश्वर को नफरत थी। वह वीडियो देखन के बाद मुझे एहसास हुआ कि दूसरों की तारीफ पाने के लिए दिखावा करके और घमंड करके मैं परमेश्वर की अवज्ञा और उसका विरोध कर रहा था। मैं एक मसीह-विरोधी की राह पर था। मैंने कभी भी नहीं सोचा था कि खुद को ऊंचा उठाना और दिखावा करना इतनी गंभीर समस्या हो सकती है। मैं सचमुच बहुत डर गया था और समझ नहीं पा रहा था क्या करूँ।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा, जिससे मुझे अपनी भ्रष्टता की थोड़ी समझ हासिल हुई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “स्वयं का उत्कर्ष करना और स्वयं की गवाही देना, स्वयं पर इतराना, दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने की कोशिश करना—भ्रष्‍ट मनुष्‍यजाति इन चीज़ों में माहिर है। जब लोग अपनी शैता‍नी प्रकृतियों से शासित होते हैं, तब वे सहज और स्‍वाभाविक ढंग से इसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं, और यह भ्रष्‍ट मनुष्यजाति के सभी लोगों में है। लोग सामान्यतः कैसे स्वयं का उत्कर्ष करते और गवाही देते हैं? वे दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने के इस लक्ष्‍य को कैसे हासिल करते हैं? वे इस बात की गवाही देते हैं कि उन्‍होंने कितना कार्य किया है, कितना अधिक दुःख भोगा है, स्वयं को कितना अधिक खपाया है, और क्या कीमत चुकाई है। वे अपनी पूँजी के बारे में बातें करके अपना उत्कर्ष करते हैं, जो उन्‍हें लोगों के दिमाग़ में अधिक ऊँचा, अधिक मजबूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उन्हें मान दें, सराहना करें, सम्मान करें, यहाँ तक कि श्रद्धा रखें, पूज्‍य मानें, और अनुसरण करें। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए लोग कई ऐसे काम करते हैं, जो सतही तौर पर परमेश्वर की गवाही देते हैं, लेकिन वास्तव में वे उन लोगों का उत्कर्ष करते हैं और उनकी गवाही देते हैं। क्या इस तरह से कार्य करना उचित है? वे तार्किकता के दायरे से बाहर हैं। इन लोगों में कोई शर्म नहीं है : वे निर्लज्‍ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्‍होंने परमेश्वर के लिए क्‍या-क्‍या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्‍यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, विशेष कौशलों पर, अपने आचरण की चतुर तकनीकों पर, लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीक़ों पर इतराते तक हैं। स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का उनका तरीक़ा स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे पाखण्‍ड और छद्मों का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमज़ोरियाँ, कमियाँ और त्रुटियाँ छिपाते हैं, ताकि लोग हमेशा सिर्फ़ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्‍मक महसूस करते हैं तब दूसरे लोगों को यह बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ ग़लत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्‍य निभाने के दौरान उन्‍होंने कलीसिया के कार्य को जो नुक़सान पहुँचाया होता है उसका तो वे ज़ि‍क्र तक नहीं करते। जब उन्‍होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतज़ार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्‍य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्‍या यह स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का ही तरीक़ा नहीं है? क्‍या अपना उत्कर्ष करना और अपनी गवाही देना ऐसी चीज है, जिसे कोई जमीर और विवेक वाला व्यक्ति करता है? नहीं। इसलिए जब लोग यह करते हैं, तो सामान्यतः कौन-सा स्‍वभाव प्रगट होता है? अहंकार प्रकट होने वाले मुख्य स्वभावों में से एक है, जिसके बाद छल-कपट आता है, जिसमें यथासंभव वह सब करना शामिल है जिससे दूसरे उनके प्रति अत्यधिक सम्‍मान का भाव रखें। उनकी कहानियाँ पूरी तरह अकाट्य होती हैं; उनके शब्‍दों में अभिप्रेरणाएँ और कुचक्र स्पष्ट रूप से होते हैं, वे अपनी खूबियों का प्रदर्शन करते हैं, फिर भी वे इस तथ्‍य को छिपाना चाहते हैं। वे जो कुछ कहते हैं, उसका परिणाम यह होता है कि लोगों को यह महसूस करवाया जाता है कि वे दूसरों से बेहतर हैं, कि उनके बराबर कोई नहीं है, कि हर कोई उनसे हीनतर है। और क्‍या यह परिणाम चालाकीपूर्ण साधनों से हासिल नहीं किया गया है? ऐसे साधनों के पीछे कौन-सा स्‍वभाव है? और क्‍या उसमें दुष्‍टता के कोई तत्त्व हैं? (हाँ, हैं।) यह एक प्रकार का दुष्‍ट स्‍वभाव है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपना उन्नयन करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरे दिल पर सीधी चोट लगी। मैं देख पा रहा था कि मेरे भीतर गहराई में क्या छिपा हुआ है। मैं हमेशा एक मजबूत इंसान, एक मुकम्मल इंसान के रूप में अपनी एक छवि बनाना चाहता था। मैं अपनी उन्नत समझ और अपने सफल अनुभवों के बारे में बात करना पसंद करता था, ताकि लोगों पर मेरा सकारात्मक प्रभाव पड़े, लेकिन अपनी कमजोरी या वास्तविक परेशानियों के बारे में शायद ही कभी बात करता था। जब मैं कमजोर या नकारात्मक महसूस करता, या किसी समस्या का सामना करता, या बहुत बुरी हालत में होता, तो भी अपने आत्मसम्मान और प्रतिष्ठा को बचाने के लिए ऐसा बर्ताव करता मानो सब बढ़िया है। जबकि वास्तव में मैं बहुत तकलीफ में होता था। दूसरों की तारीफ पाकर और मेरे लिए उनकी भक्ति देखकर, मैं इसे समझ गया और जान गया था कि यह अच्छा नहीं था। लेकिन मैंने लोगों से यह नहीं कहा कि वे मेरी भक्ति न करें, क्योंकि मैं हर किसी की तारीफ, भक्ति और सराहना चाहता था। क्या मैं महादूत की तरह ही अहंकारी नहीं था? मैं दूसरों को परमेश्वर के सम्मुख नहीं ला रहा था, बल्कि उन्हें अपने समक्ष ला रहा था। यह एहसास होते ही कि मैं भाई-बहनों के दिलों में परमेश्वर की जगह ले सकता था, मैं डर से काँपने लगा, मैं दिल-ही-दिल में जानता था कि परमेश्वर को मेरे व्यवहार से घृणा है। मेरा मन पछतावे से भर गया, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं दिखावा करता रहा, यह चाहता रहा कि हर कोई मुझे एक अच्छा अगुआ माने, मुझे दूसरों से ऊंचे दर्जे पर रखे। मैं तुम्हारी महिमा छीन रहा हूँ। हे परमेश्वर, मैं तुम्हारे सामने प्रायश्चित करना चाहता हूँ।” फिर मैंने एक प्रायश्चित पत्र लिखा, जिसमें यह खुलासा किया कि कैसे मैं दिखावा कर रहा था और खुद को ऊंचा उठा रहा था, फिर इसे हर सभा समूह को भेज दिया। मैंने हरेक से साफ-साफ यह भी कहा कि वे मेरी भक्ति न करें। मैं कुछ ऐसे भाई-बहनों को जानता था जो खास तौर से मेरी भक्ति करते थे, इसलिए मैंने अपने बारे में खुलकर बात करते और और अपना विश्लेषण करते हुए हरेक को निजी संदेश भेजे। कुछ दिन बाद, बहन मेरिनेट ने मुझसे साफ-साफ कहा कि वह पहले मेरी बहुत तारीफ करती थी और उसके दिल में मेरे लिए बड़ी अहम जगह थी। यह सुनकर मुझे बड़ी शर्म आई और लगा कि यह मेरी दुष्टता का सबूत है। उस पल मुझे अपनी कुरूपता दिखाई दी, लगा कि दूसरों से अपनी पूजा करवाने में, मैं अपना विवेक खो बैठा था। यह कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? जब परमेश्वर ने मुझे यह कर्तव्य दिया था, तब उसने क्या मुझसे यही अपेक्षा की थी? मुझे बहुत बेचैनी और शर्मिंदगी महसूस हुई। लेकिन मैंने अपनी भ्रष्टता से मुक्त होने के लिए अब भी सत्य की खोज नहीं की, इसलिए मैं जल्दी ही अपने पुराने ढर्रे पर वापस लौट आया।

एक दिन मैं एक सभा में गया जिसमें दूसरे कलीसिया अगुआ भी हिस्सा ले रहे थे। मुझे भाई-बहनों की संगति बहुत सरल लगी और मैं थोड़ा परेशान हो गया। मुझे लगा कि उनकी संगति खोखली थी और मैंने उन्हें थोड़ी नीची नज़र से भी देखा। मैं उन्हें दिखाना चाहता था कि मेरी संगति उनकी संगति की तुलना में अधिक व्यावहारिक है। इसलिए मैं अपने मन में तैयारी करने लगा कि मुझे क्या कहना है। मैं कोई ज्यादा प्रबोधक बात कहना चाहता था, ताकि मैं भीड़ से ऊपर उठकर दमदार संगति कर सकूँ। मैंने अपनी संगति को समृद्ध करने के लिए अच्छे-से-अच्छे शब्दों पर विचार किया। मैं यह साबित करना चाहता था कि मुझे दूसरों से बेहतर समझ है, ताकि लोग मेरी अंतर्दृष्टि की सराहना कर सकें। अपनी संगति के दौरान, मैंने बहुत-से उदाहरणों का प्रयोग किया, ताकि उन्हें पता चले कि मेरी संगति अधिक विस्तृत और परिपूर्ण है। मेरी बात पूरी हुई तो हरेक के मुंह से “आमीन” सुनकर मुझे बहुत संतुष्टि मिली। फिर मैंने फौरन चैट विंडो की जांच की, यह देखने के लिए कि क्या भाई-बहनों ने मेरी संगति के बारे में कुछ अच्छा कहा है। सभा खत्म होने को थी कि भाई ज़ेन ने भी थोड़ी संगति की। परमेश्वर के वचनों को उद्धृत करने और यह बताने के बजाय कि परमेश्वर के वचनों के आधार पर हमें कैसे संगति करनी चाहिए, जैसा कि वह हमेशा करता है, उसने मेरी संगति का हवाला दिया। मैंने देखा कि मैं एक बार फिर खुद को ऊंचा उठा रहा था और दिखावा कर रहा था। उस पल मुझे खुद पर बहुत गुस्सा आया। सभा में हमने अभी-अभी सभी के साथ परमेश्वर के कुछ वचन साझा किये थे, यह कहते हुए कि हमें अपने दिल की बात कहनी चाहिए। मैं घमंड और दिखावा कैसे कर सकता था? मैं यह मान ही नहीं पाया कि मेरा बर्ताव ऐसा था। मैंने परमेश्वर के वचनों के उन अंशों को देखा जिन्हें हमने सभा में पढ़ा था, ताकि मैं उन पर सावधानी से विचार कर सकूं। परमेश्वर कहता है : “अगर भाई-बहनों को एक-दूसरे से अपने मन की बात कहने लायक होना हो, एक-दूसरे की मदद करनी हो, और एक-दूसरे की जरूरत पूरी करनी हो, तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने सच्चे अनुभवों के बारे में बताना चाहिए। अगर तुम अपने सच्चे अनुभवों के बारे में कुछ नहीं कहते—अगर तुम सिर्फ मनुष्य को समझ आनेवाले शब्द और धर्म-सिद्धांत का प्रचार करते हो, अगर तुम सिर्फ परमेश्वर में विश्वास को लेकर थोड़ा धर्म-सिद्धांत का प्रचार करते हो, सिर्फ ऊबाऊ तुच्छ बातें बताते हो और अपने दिल की बात खुल कर नहीं कहते—तो तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, और ईमानदार व्यक्ति बनने लायक नहीं हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। “जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और कैसे लोगों को ताड़ना देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुम लोगों को इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुम्हारे अनुभव में कितनी भ्रष्टता उजागर हुई, तुमने कितना कष्ट सहा, परमेश्वर का विरोध करने के लिए तुमने कितनी चीजें कीं, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुम लोगों को जीता; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुम्हें परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और कैसे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए। तुम्हें इन बातों को सरलता से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा में सत्व डालना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार चीजों का अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊंचा दिखाने की कोशिश मत करो, दिखावा करने के लिए खोखले सिद्धांतों की बात मत करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्कहीन माना जाएगा। तुम्हें अपने वास्तविक अनुभव की असली, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज्यादा बोलना चाहिए; यह दूसरों के लिए सबसे अधिक लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि भाई-बहनों के सामने मुझे अपना दिल खोलकर रखने, अपने दिल की बात कहने और अपने सच्चे अनुभव को साझा करने की जरूरत थी, खोखले शब्दों का प्रयोग कर दिखावा करने से बचना था। खुद की बात करूं, तो मैं सिर्फ खोखले सिद्धांतों की बातें कर रहा था, ताकि खुद को बड़ा दिखाकर दूसरों की सराहना पा सकूं। इसके परिणाम बिल्कुल साफ थे। लोग मुझे आदर से देखते थे और परमेश्वर के वचनों की गवाही देने के बजाय मेरी संगति को अपने संदर्भ के रूप में इस्तेमाल करते थे। सभाओं में अक्सर लोगों से ऐसी बातें सुनने को मिलती थीं, “भाई मैथ्यू की संगति के कारण” या “जैसा कि भाई मैथ्यू ने कहा है।” मैंने पौलुस के बारे में सोचा, जो हमेशा खुद को ऊंचा उठाता और दिखावा करता था, वह प्रभु यीशु के वचनों की गवाही नहीं देता था। इसके कारण विश्वासी 2,000 साल तक उस की भक्ति करते रहे और उसके शब्दों की गवाही देते रहे। क्या मैं भी पौलुस जैसा ही काम नहीं कर रहा था, और परमेश्वर के विरोध में उसी मसीह-विरोधी राह पर नहीं चल रहा था? मुझे बहुत डर लग रहा था और मुझे खुद से नफरत हुई। मैंने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं फिर से वही गलती कर रहा हूँ। तुम्हारे वचनों ने मुझे राह दिखाई, पर मैं अभी भी शैतान का अनुसरण करते हुए अपने दंभ को संतुष्ट कर रहा हूँ। मैं फिर से शैतान की भूमिका निभा रहा हूँ। परमेश्वर, मुझे तुम्हारी मदद की ज़रूरत है, मुझे बचा लो!”

एक शाम मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा : “क्या तुम लोगों को पता है कि परमेश्वर की सेवा में इंसान की सबसे बड़ी वर्जना क्या है? कुछ अगुआ और कार्यकर्ता हमेशा अलग दिखना चाहते हैं, बाकी लोगों से आगे रहना और दिखावा करना चाहते हैं और नई-नई तरकीबें ढूँढने में लगे रहना चाहते हैं, ताकि परमेश्वर को दिखा सकें कि वास्तव में वे कितने सक्षम हैं। लेकिन, वे सत्य को समझने और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं। यह काम करने का सबसे मूर्खतापूर्ण तरीका है। क्या यह असल में घमंडी स्वभाव को नहीं दिखाता है? ... परमेश्वर की सेवा में लोग अच्छी प्रगति करना, अच्छी चीजें करना, अच्छी बातें बोलना, अच्छे काम करना, अच्छी बैठकें आयोजित करना और अच्छे अगुआ बनना चाहते हैं। अगर तुम हमेशा ऐसी ऊँची महत्वाकांक्षाएँ रखोगे, तो तुम परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करोगे; जो लोग ऐसा करते है, वे शीघ्र ही मर जाएँगे। अगर तुम परमेश्वर की सेवा में सदाचारी, कर्तव्यनिष्ठ और विवेकशील नहीं रहोगे, तो तुम देर-सबेर उसके स्वभाव का अपमान करोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के इन वचनों को पढ़कर मैं भय से कांपने लगा। परमेश्वर के वचनों के इस प्रकाशन से, मुझे बड़ी सफलता हासिल करने की अपनी उन्मादी महत्वाकांक्षा और इच्छा की समझ आ गई। मैं सभाओं की अध्यक्षता कर प्रभावशाली भाषण देना चाहता था। मुझे सभाओं में दिखावा करना पसंद था और भाई-बहनों की भक्ति पाना चाहता था, इस उम्मीद में कि उन्हें लगेगा मुझमें अच्छी काबिलियत और गहरी समझ है। इन इच्छाओं से प्रेरित होकर, मैं हर एक सभा में उपदेश देना और दिखावा करना चाहता था, इस उम्मीद में कि दूसरे मेरी सराहना करेंगे। मुझे इस तरह की अगुवाई बहुत भाती थी। लेकिन फिर मैंने यह पढ़ा “अगर तुम हमेशा ऐसी ऊँची महत्वाकांक्षाएँ रखोगे, तो तुम परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करोगे; जो लोग ऐसा करते है, वे शीघ्र ही मर जाएँगे,” तो मेरा दिल डर से काँपने लगा और मेरे दिल में एक सिहरन-सी दौड़ गई। पहले मैं सोचता था मैं परमेश्वर को संतुष्ट कर रहा हूँ, पर अब मुझे एहसास हुआ मैं उसे नाराज़ कर रहा था। मैं कुछ बड़ा करना चाहता था, बड़ी सभाएं आयोजित कर ऊंचे उपदेश देना चाहता था। मैं परमेश्वर की गवाही नहीं दे रहा था या सत्य का अभ्यास नहीं कर रहा था, मैं भाई-बहनों की जिंदगियों के लिए कोई जिम्मेदारी भी नहीं उठा रहा था। मैं उनके दिलों में जगह बनाने के लिए खुद को ऊँचा उठा रहा था। यह परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाएगा। “दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए” में कहा गया है :

1. मनुष्य को स्वयं को बड़ा नहीं दिखाना चाहिए, न अपनी बड़ाई करनी चाहिए। उसे परमेश्वर की आराधना और बड़ाई करनी चाहिए।

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8. जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें परमेश्वर की आज्ञा माननी चाहिए और उसकी आराधना करनी चाहिए। किसी व्यक्ति को ऊँचा न ठहराओ, न किसी पर श्रद्धा रखो; परमेश्वर को पहले, जिनका आदर करते हो उन्हें दूसरे और ख़ुद को तीसरे स्थान पर मत रखो। किसी भी व्यक्ति का तुम्हारे हृदय में कोई स्थान नहीं होना चाहिए और तुम्हें लोगों को—विशेषकर उन्हें जिनका तुम सम्मान करते हो—परमेश्वर के समतुल्य या उसके बराबर नहीं मानना चाहिए। यह परमेश्वर के लिए असहनीय है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य

परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे अंदर से काफी पीड़ा महसूस हुई। मैंने सोचा परमेश्वर अपने स्वभाव का अपमान करने के लिए शायद मुझे माफ नहीं करेगा। मैंने प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं सचमुच बहुत पीड़ित हूँ, बहुत तकलीफ में हूँ। मुझे पता नहीं था कि मैं तुम्हारे क्रोध को भड़का रहा था। मैं प्रायश्चित करना चाहता हूँ। हे परमेश्वर! तुम्हारी इच्छा को समझने में मुझे तुम्हारे प्रबोधन की ज़रूरत है।”

अपने डर में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “आज परमेश्वर तुम लोगों का न्याय करता है, तुम लोगों को ताड़ना देता है, और तुम्हारी निंदा करता है, लेकिन तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि तुम्हारी निंदा इसलिए की जाती है, ताकि तुम स्वयं को जान सको। वह इसलिए निंदा करता है, शाप देता है, न्याय करता और ताड़ना देता है, ताकि तुम स्वयं को जान सको, ताकि तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन हो सके, और, इसके अलावा, तुम अपनी कीमत जान सको, और यह देख सको कि परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक और उसके स्वभाव और उसके कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार हैं, और वह मनुष्य के उद्धार के लिए अपनी योजना के अनुसार कार्य करता है, और कि वह धार्मिक परमेश्वर है, जो मनुष्य को प्यार करता है, उसे बचाता है, उसका न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है। यदि तुम केवल यह जानते हो कि तुम निम्न हैसियत के हो, कि तुम भ्रष्ट और अवज्ञाकारी हो, परंतु यह नहीं जानते कि परमेश्वर आज तुममें जो न्याय और ताड़ना का कार्य कर रहा है, उसके माध्यम से वह अपने उद्धार के कार्य को स्पष्ट करना चाहता है, तो तुम्हारे पास अनुभव प्राप्त करने का कोई मार्ग नहीं है, और तुम आगे जारी रखने में सक्षम तो बिल्कुल भी नहीं हो। परमेश्वर मारने या नष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि न्याय करने, शाप देने, ताड़ना देने और बचाने के लिए आया है। उसकी 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना के समापन से पहले—इससे पहले कि वह मनुष्य की प्रत्येक श्रेणी का परिणाम स्पष्ट करे—पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य उद्धार के लिए होगा; इसका प्रयोजन विशुद्ध रूप से उन लोगों को पूर्ण बनाना—पूरी तरह से—और उन्हें अपने प्रभुत्व की अधीनता में लाना है, जो उससे प्रेम करते हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए)। इसे पढ़कर मुझे कुछ शांति मिली। मुझे लगा मैंने परमेश्वर को इतना नाराज कर दिया है कि वो मुझे माफ़ नहीं करेगा, पर ऐसी बात नहीं थी। भले ही परमेश्वर मेरा न्याय करने और मुझे उजागर करने के लिए अपने वचनों का प्रयोग कर रहा था, पर वह मुझसे नफरत या मेरी निंदा नहीं करता था। वह चाहता था कि मैं प्रायश्चित करूँ और बदल जाऊँ। मैं परमेश्वर की धार्मिकता के साथ-साथ उसकी दया और सहनशीलता देख सकता था। मैं जानता था कि इस बार मुझे सत्य की खोज करके अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करना होगा।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “ईमानदार होने के लिए तुम्हें पहले अपना दिल खोल कर रखना चाहिए ताकि सभी उसके भीतर झाँक सकें, तुम्हारी सोच और तुम्हारा असली चेहरा देख सकें। तुम्हें बहुरुपिया बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, या खुद को छिपाना नहीं चाहिए। तभी दूसरे तुम पर भरोसा करेंगे, और तुम्हें ईमानदार व्यक्ति मानेंगे। यह सबसे बुनियादी अभ्यास है, और ईमानदार व्यक्ति बनने की पहली शर्त है। अगर तुम हमेशा बहाने बनाते हो, हमेशा पवित्रता, कुलीनता, महानता और उच्च चरित्र का दिखावा करते हो; अगर तुम लोगों को अपनी भ्रष्टता और खामियाँ नहीं देखने देते; अगर तुम लोगों को अपनी नकली छवि दिखाते हो, ताकि वे तुम्हारी सच्चाई पर यकीन करें, यह मानें कि तुम महान, आत्मत्यागी, न्यायप्रिय, और निस्वार्थ हो—तो क्या यह धोखेबाजी और झूठ नहीं है? क्या समय के साथ लोग तुम्हारी असलियत नहीं देख पाएँगे? तो बहुरुपिया मत बनो, खुद को मत छिपाओ। इसके बजाय दूसरों के देखने के लिए खुद को और अपना दिल खोल कर रख दो। अगर तुम दूसरों के देखने के लिए अपना दिल खोल कर रख सकते हो, अगर तुम अपने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के विचारों और योजनाओं को खोल कर रख सकते हो—तो क्या यह ईमानदारी नहीं है? अगर तुम दूसरों के देखने के लिए खुद को खोल कर रख सकते हो, तो परमेश्वर भी तुम्हें देखेगा। वह कहेगा : ‘अगर तुमने दूसरों के देखने के लिए खुद को खोल कर रख दिया है, तो तुम यकीनन मेरे समक्ष ईमानदार हो।’ लेकिन अगर तुम दूसरे लोगों की दृष्टि से दूर होने पर सिर्फ परमेश्वर के सामने खुद को खोल कर रखते हो, और दूसरे लोगों के साथ होने पर हमेशा महान, कुलीन या निस्वार्थ होने का दिखावा करते हो, तो फिर परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या सोचेगा? वह क्या कहेगा? वह कहेगा : ‘तुम पूरी तरह धोखेबाज हो। पूरी तरह पाखंडी और दुष्ट हो, तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो।’ परमेश्वर इस तरह तुम्हारी निंदा करेगा। अगर तुम ईमानदार बनना चाहते हो, तो तुम चाहे परमेश्वर के सामने रहो या दूसरे लोगों के सामने, तुम्हें अपनी भीतरी दशा और अपने दिल की बातों का शुद्ध और खुला हिसाब पेश करने में समर्थ होना चाहिए। क्या ऐसा कर पाना आसान है? इसके लिए कुछ समय तक प्रशिक्षण और परमेश्वर से अक्सर प्रार्थना कर उस पर भरोसा करने की जरूरत है। तुम्हें हर विषय पर अपने दिल की बात को सरल ढंग से खुलकर बोलने के लिए खुद को प्रशिक्षित करना होगा। ऐसे प्रशिक्षण से तुम तरक्की कर सकोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़कर मेरी समझ में आया कि परमेश्वर मुझसे क्या चाहता था। वह चाहता था कि मैं एक ईमानदार इंसान बनूँ। यानी, मुझे दूसरों के सामने अपनी भ्रष्टता उजागर करके अपने ईमानदार विचार साझा करने थे, ताकि वे मेरी कमजोरी और कमियों को देख सकें। अगर मैं अपनी कमजोरी और विफलताओं को उजागर किए बिना खुद को ऊंचा दिखाता रहूँगा, संगति और सभाओं का इस्तेमाल हमेशा सिर्फ दिखावा करने के लिए करता रहूँगा, तो यह बहुत बड़ी बेईमानी होगी। यह अपने भाई-बहनों को धोखा देना होगा। मैं समझ गया कि मुझे एक ईमानदार इंसान बनना ही होगा। मैंने अपनी गलत सोच को भी जाना-समझा। मुझे लगता था कि अगुआ में कोई कमजोरी नहीं होनी चाहिए, उसे वीर होना चाहिए, किसी निर्देशक की तरह, जो दूसरों से ऊंचे स्तर का और उनसे बेहतर होता है। लेकिन परमेश्वर ऐसा अगुआ नहीं चाहता। परमेश्वर सीधे-सादे, ईमानदार लोग चाहता है। ऐसे लोग जो अपनी भ्रष्टता और कमियाँ खुलकर बता सकते हैं, वे सत्य से प्रेम और उसका अभ्यास करते हैं। उनकी संगति का मकसद दिखावा करना नहीं, बल्कि अपने अनुभव का इस्तेमाल कर भाई-बहनों की मदद करना होता है। मुझे प्रभु यीशु की बात याद आई : “परन्तु तुम रब्बी न कहलाना, क्योंकि तुम्हारा एक ही गुरु है, और तुम सब भाई हो। ... और स्वामी भी न कहलाना, क्योंकि तुम्हारा एक ही स्वामी है, अर्थात् मसीह। जो तुम में बड़ा हो, वह तुम्हारा सेवक बने। जो कोई अपने आप को बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा : और जो कोई अपने आपको छोटा बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा(मत्ती 23:8-12)। मुझे एहसास हुआ कि अगुआ एक सेवक की भूमिका निभाता है, ऐसा सेवक जिस पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है। चाहे जो भी हो, उन्हें हमेशा इस जिम्मेदारी का ध्यान रखना पड़ता है, यह जिम्मेदारी है भाई-बहनों का सिंचन करना, उन्हें सहारा देना, और सत्य की खोज करके उनकी समस्याएँ सुलझाना। अगुआ कोई अधिकारी नहीं होता, न ही वह दूसरों से ऊपर होता है। लेकिन एक अगुआ रहते हुए मैं पूरे समय दिखावा करता रहा, इस उम्मीद में कि लोग मेरी सराहना करेंगे और मेरी पूजा करेंगे। क्या यह परमेश्वर की अपेक्षाओं के विपरीत नहीं था? परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और सभी इंसान, भले ही उनका ओहदा कितना भी बड़ा या छोटा हो, सृजित प्राणी हैं, उन्हें सृष्टिकर्ता की आराधना करनी चाहिए। मुझे अपनी भूमिका और जिम्मेदारी समझ में आ गई, कि मुझे एक सृजित प्राणी के तौर पर अपना कर्तव्य ठीक-से निभाना चाहिए। तब से मेरी मानसिकता में बदलाव आने लगा और मैं पूरी इच्छा से ईमानदार इंसान बनने का अभ्यास करने लगा। जब मुझे लगता कि मैं अपनी बड़ाई और दिखावा कर रहा हूँ, तो मैं खुलकर अपनी भ्रष्टता और कमियों को उजागर करता। कभी-कभी यह काफी पीड़ाजनक होता, पर इससे यही पता चलता था कि मैं कितना बेईमान हूँ। मैंने देखा कि मैं भाई-बहनों को कितना अधिक बेवकूफ बना रहा था। मैंने जितना अधिक खुलकर बोला, उतना ही मुझे अपना असली रंग और असली आध्यात्मिक कद दिखाई देने लगा। मुझे एहसास हुआ कि मैं कभी उतना ऊंचा और उतना शक्तिशाली नहीं था, जितना मैं खुद को समझता था। पहले, भाई-बहनों के साथ अपनी सभी संगतियों में, मैं धर्म-सिद्धांतों से लोगों को प्रोत्साहित और उनकी मदद करते हुए खुद को ऊँचा उठा रहा था। लेकिन अब मैंने भाई-बहनों से अपनी असली हालत को साझा करना शुरू कर दिया, संगति में पूरी साफगोई से अपने दिल की बात कहने लगा। जब मैंने ऐसा किया तो मुझे महसूस नहीं हुआ कि मैं दूसरों से ज्यादा होशियार हूँ। बल्कि मैं उनके अनुभवों से कुछ सीख पाया, और दूसरों की संगति से रोशनी और प्रबुद्धता हासिल की। पहले मैं दूसरों की संगति पर शायद ही कोई ध्यान देता था, और अहंकारवश यह समझता था कि मैं ही दूसरों को रोशन कर रहा हूँ। अब जबकि मैं हर किसी के साथ सच्चे दिल से बातचीत कर रहा था, तो भाई-बहनों के बताये अनुभवों और ज्ञान को अच्छे से सुन पाता था अब मैं पहले जैसा अभिमानी और आत्म-मुग्ध नहीं रहा, मैं भाई-बहनों के साथ मिल-जुलकर बराबरी का व्यवहार करता था। मेरी समझ सामान्य हो रही थी, सभाओं में संगति के दौरान मैं दिल खोलकर बात कर पाता था। खुद में आए इस बदलाव के लिए मैं परमेश्वर का बहुत आभारी हूँ।

कभी-कभी मुझे अब भी लगता है कि मैं दिखावा कर रहा हूँ, इससे पता चलता है कि शैतान ने मुझे कितनी गहराई तक भ्रष्ट किया है। यह कोई आई-गई चीज नहीं है, यह मेरे हाड़-मांस और मेरे खून में रच-बस गई है। मुझे परमेश्वर के वचन और अधिक पढने, उसके वचनों के न्याय और प्रकाशनों का अनुभव करने, अपनी भ्रष्टता और दोष जानने, अपना शैतानी स्वभाव त्यागने और परमेश्वर द्वारा बचाए जाने की आवश्यकता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!

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