अपने काम के जरिए समर्पण करने की सीख

04 फ़रवरी, 2022

नोवो, फ़िलीपीन्स

2012 में, ताइवान में काम करते समय, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया। बाद में, मुझे पता चला कि फिलिप्पीन्स में इसे स्वीकार करने वाले शुरुआती लोगों में से मैं एक था। मैं उत्साहित था, मुझे लगा कि मैं धन्य हूँ। 2014 में, फिलिप्पीन्स लौटने के बाद, मैंने अपने देश में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार का प्रचार करना शुरू किया। जल्दी ही, बहुत-से फिलिप्पिनो लोगों ने परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया। मैं बहुत खुश था, और मुझे गर्व था कि मैं सुसमाचार का प्रचार करने के अपने काम को पूरा कर पाया हूँ। मुझे लगा कि सुसमाचार का प्रचार करना और परमेश्वर की गवाही देना एक विशेष काम है, जो हर कोई नहीं कर सकता, क्योंकि यह काम करने के लिए लोगों को कुछ सत्य समझना होता है। आमतौर पर जब मैं भाई-बहनों से मिलता, तो उन्हें ईर्ष्या होती कि मैं परमेश्वर का कार्य स्वीकारने वाले फिलिप्पीन्स के शुरुआती लोगों में से एक हूँ। उन्हें लगता कि मैं बहुत भाग्यशाली हूँ, और वे सुसमाचार का प्रचार करने और परमेश्वर की गवाही देने पर मेरी सराहना करते। उनकी ईर्ष्या और आदर भाव देखकर मुझमें उनसे श्रेष्ठ होने की भावना जागती, मुझे लगता कि मैं सुसमाचार के प्रचार जैसे महत्वपूर्ण काम के लायक हूँ।

एक दिन, मैंने सुना कि कलीसिया के दैनिक कार्य और ड्राइविंग के प्रभारी को अपने ड्राइविंग लाइसेंस का नवीकरण कराना था, तो वह कुछ समय तक गाड़ी नहीं चला सकता था। हमारे अगुआ को पता था कि मुझे ड्राइविंग आती है, तो उन्होंने पूछा कि क्या अस्थाई तौर पर मैं उस भाई का काम संभाल सकता हूँ, कलीसिया के लिए सामान खरीद सकता हूँ, और उसका दैनिक कार्य संभाल सकता हूँ। उस पल, मुझे चिंता हुई और मैं परेशान हो गया। मैंने सोचा, "आप अचानक क्यों चाहते हैं कि मैं गाड़ी चलाऊँ? मैं ड्राइवर बन गया, तो मेरे भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे?" मेरे मन में, सुसमाचार का प्रचार करना और परमेश्वर की गवाही देना एक महत्वपूर्ण काम था, जो परमेश्वर के प्रकटन को तरस रहे लोगों को उसके सामने लाएगा, मगर ड्राइविंग बस एक रोजमर्रा का काम है, एक साधारण काम, एक ऐसा काम जो बस उबाऊ है, इससे परमेश्वर की गवाही नहीं दी जा सकती, और कोई मेरा आदर नहीं करेगा। कोई भी इंसान रोजमर्रा का काम कर सकता है, मगर कोई भी सुसमाचार का प्रचार कर परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकता। उस पद पर नियुक्त किए जाने से मुझे बहुत ज्यादा निराशा हुई। मुझे लगा जैसे ड्राइविंग का काम मेरे लायक नहीं था। मैं नहीं समझ पाया कि मेरे साथ यह कैसे हो रहा है, मुझे फ़िक्र हो रही थी कि मेरे अगुआ मुझे यह काम देकर ही रहेंगे। मेरे मन में बहुत-से नकारात्मक विचार आए, मैं आज्ञा मानकर यह काम नहीं कर सकता था, न मैं चाहता था कि मेरे भाई-बहन जानें कि मेरा काम बदल गया है। अगले दिन, कुछ भाई-बहन मेरा अभिवादन करके बोले, "मैंने सुना है कि आप अब ड्राइविंग का काम कर रहे हैं?" उन्हें यह कहते सुन मैं बहुत शर्मिंदा और उदास हो गया। मुझे ये काम बिल्कुल नहीं करना था। मैंने सोचा मुझे तो सुसमाचार का प्रचार करना चाहिए, जिससे मुझे अच्छी शोहरत मिल सके। मैं नहीं चाहता था कि मेरे भाई-बहन मुझे नीची नजर से देखें। मैंने असंतुष्टि और अवज्ञा महसूस की, मेरा मन नकारात्मक विचारों से भर गया, मगर बाहर से, मैंने बुरा न मानने का नाटक किया। ताकि वे मेरी कमजोरी समझकर मुझे नीची नजर से न देखें, इसलिए मैंने उन्हें यह जवाब दिया, "ये परमेश्वर की व्यवस्थाएं हैं, और मैं इनके लिए उसका आभारी हूँ।" यह कहते समय मुझे एहसास हुआ कि हालांकि मैं जानता था कि "परमेश्वर की सभी चीजों पर संप्रभुता है," मगर जब परमेश्वर ने वास्तव में एक परिवेश बनाया, तो मैंने उसकी संप्रभुता को नहीं माना। मेरी कथनी का मेरे दिल से तालमेल नहीं था। बाहर से मैं आज्ञाकारी था, लेकिन वास्तव में मैं परमेश्वर द्वारा सृजित परिवेश को स्वीकार कर उसका पालन नहीं करना चाहता था। मैं यह बिना सोचे नहीं रह सका, "मैं एकाएक यह सब क्यों अनुभव कर रहा हूँ? क्या अगुआ ने मेरे लिए ड्राइविंग के काम की व्यवस्था करके गलती की है? यह काम मेरे लिए बिल्कुल भी सही नहीं है। मुझे तो सुसमाचार का प्रचार करना चाहिए, मैं ड्राइवर कैसे बन सकता हूँ?" मैंने बहुत नकारात्मक महसूस किया। मैंने सोचा उनकी नज़र में मैं सुसमाचार का प्रचार करने लायक नहीं हूँ, इसलिए उन्होंने मुझे ड्राइवर बना दिया। मुझे लगता था कि ड्राइविंग में सिर्फ हाथों की जरूरत होती है, इसमें जीवन प्रवेश या सत्य के सिद्धांतों को नहीं खोजना पड़ता, यह सिर्फ मेहनत-मजदूरी है, मैं बस गाड़ी चलाता हूँ, जो बताया जाता है वो सामान कलीसिया के लिए खरीद लाता हूँ। थोड़ा समय बीतने के बाद भी, मुझे जीवन प्रवेश नहीं मिला, मैं इस काम से ऊब गया, और ड्राइविंग का काम धीरे-धीरे बर्दाश्त के बाहर होता गया।

एक दिन, पहले मेरे साथ सुसमाचार-प्रचार कर चुके एक भाई ने मुझे फोन करके पूछा, "भाई, आजकल आपके क्या हालचाल हैं? क्या नए काम में आपका मन लग गया? हम लोग एक जगह जाना चाहते हैं। आप कब ले जा सकेंगे?" यह सुनकर मुझे बड़ा दुख और शर्मिंदगी महसूस हुई। मैंने सोचा, "शायद मेरे भाई के लिए, मैं बस एक ड्राइवर हूँ, मेरा कोई रुतबा नहीं है। वह यकीनन मुझे नीची नजर से देखता है।" मैंने बहुत दुखी और नकारात्मक महसूस किया, काम में मेरा मन था ही नहीं। मैं परमेश्वर के वचन पढ़ना या सभाओं में जाना नहीं चाहता था, मैं अक्सर सोचता कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं। उस दौरान, हालांकि मैंने अपना काम किया, कोई अवज्ञा नहीं दिखाई, फिर भी मैं भीतर से परेशान था, मैं इस काम को स्वीकार नहीं कर पाया। हालांकि सैद्धांतिक रूप से मुझे मालूम था कि चाहे जो हो, मुझे एक सृजित प्राणी के नाते अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, फिर भी मैं अपनी नकारात्मक और निष्क्रिय हालत से उबर नहीं पाया। धीरे-धीरे, पवित्र आत्मा का कार्य महसूस होना बंद हो गया, मेरा काम एक सांसारिक काम जैसा लगने लगा, सुबह शुरू करो, शाम को खत्म, दिन बीतने की प्रतीक्षा करो। मेरा दिल अंधकार और दुख से सराबोर था, सभाओं में मुझे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता नहीं मिलती थी, मैं हमेशा खालीपन महसूस करता था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं जानता हूँ कि मैं गलत दशा में हूँ, लेकिन चीजें लाते-ले जाते समय मुझे इसकी ही परवाह होती है कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते होंगे। मुझे राह दिखाओ, ताकि मैं आज्ञा मानकर इस काम को स्वीकार कर सकूं।"

बाद में, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "सच्चा समर्पण क्या है? जब कभी भी परमेश्वर ऐसी चीज़ें करता है जो तुम्हारे अनुरूप चली जाती हैं, और तुम्हें ऐसा महसूस होता है कि सब कुछ संतोषजनक और उचित है, और तुम्हें भीड़ से अलग खड़े होने दिया गया है, तुम्हें यह सब काफी गौरवशाली लगता है और तुम कहते हो, 'परमेश्वर को धन्यवाद' और उसके आयोजनों एवं व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो पाते हो। हालांकि, जब कभी भी तुम्हें मामूली जगह पर तैनात कर दिया जता है, जहाँ तुम दूसरों से अलग दिखने में अक्षम होते हो, और जिसमें कोई भी कभी तुम्हें अभिस्वीकृत नहीं करता, तो तुम खुश नहीं रहते और समर्पण करना तुम्हें कठिन लगता है। ... जब परिस्थितियां अनुकूल हों, तब समर्पण करना आम तौर पर आसान होता है। अगर तुम प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समर्पण कर सकते हो—जिनमें चीजें तुम्हारे अनुकूल नहीं होतीं और तुम्हारी भावनाओं को ठेस पहुँचती है, जो तुम्हें कमजोर करती हैं, जो तुम्हें शारीरिक रूप से तकलीफ देती हैं और तुम्हारी प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाती हैं, जो तुम्हारे मिथ्याभिमान और गौरव को संतुष्ट नहीं करतीं, और जो तुम्हें मानसिक रूप से कष्ट पहुंचाती हैं—तो तुम सच में बड़े हो गए हो" (परमेश्‍वर की संगति)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल की भ्रष्टता को प्रकट किया। मुझे याद आया कि परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारते वक्त मैंने उससे प्रार्थना करके कहा था, "परमेश्वर किसी भी परिवेश की व्यवस्था करे, चाहे मेरे सामने मुश्किलें आएँ, या मैं कठिन परीक्षणों का अनुभव करूँ, मैं स्वीकार कर आज्ञा का पालन करूंगा। चाहे कुछ भी हो जाए, मैं परमेश्वर का अनुसरण करूँगा।" लेकिन अब, एक वास्तविक परिवेश आया, मगर मैं आज्ञा नहीं मान पाया। मुझे एकाएक एहसास हुआ कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति मेरी आज्ञाकारिता महज बातें हैं। शुरुआत में, जब कलीसिया ने मेरे लिए सुसमाचार के प्रचार के काम की व्यवस्था की, तो मुझे लगा कि यह काम कोई खास इंसान ही कर सकता है, और चूंकि यह अहम काम मेरे पास था, इसने मुझे प्रतिष्ठित बना दिया। मेरे भाई-बहन भी मेरा अभिनंदन कर मुझे आदर से देखते। मुझे अपना काम बहुत पसंद था, इसलिए मैं उस काम में बड़े उत्साह के साथ कड़ी मेहनत करता था। लेकिन जब अगुआ ने मुझे ड्राइविंग का काम सौंपा, तो मुझे लगा, जैसे पल भर में मैं बहुत सम्मानित व्यक्ति से एक ड्राइवर बन गया जिसकी किसी को कद्र नहीं, यह बड़ी शर्मिंदगी की बात थी। ऊपर से, मुझे ड्राइविंग कोई महत्वपूर्ण काम नहीं लगता था, कोई भी इसके प्रति आदर भाव नहीं रखता। अगर मैंने यह काम किया, तो मेरे भाई-बहन मुझे पहले की तरह आदर से नहीं देखेंगे, इसलिए अपने दिल की गहराई से, यह काम मुझे स्वीकार नहीं था, मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का पालन नहीं कर सकता था, मैंने यह भी सोचा कि मेरे अगुआ की व्यवस्थाएं गलत थीं। मैंने अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बड़ी गंभीरता से ली, मैं मीनमेख निकालता और काम के साथ अपनी पसंद के अनुसार पेश आता। मैं ऐसा काम चाहता था जहां मैं अपना चेहरा दिखा सकूँ और मेरा आदर हो, कोई तुच्छ और अदृश्य काम नहीं। जब मेरे लिए व्यवस्थित काम में मुझे लोगों का आदर नहीं मिला, तो मेरा दिल प्रतिरोध और शिकायतों से भर गया। ऊपर से तो मैंने इसका विरोध नहीं किया, लेकिन भीतर से मैं खुद को इसे मानने को तैयार नहीं कर पाया, जिससे पवित्र आत्मा का कार्य मुझसे छूट गया और मैं अंधकार में जीने लगा। परमेश्वर के वचनों से, मैं समझ गया कि अगर मैं सच्चाई से परमेश्वर का आज्ञाकारी बनकर वास्तविक कद पाना चाहूँ, तो मुझे परमेश्वर की व्यवस्थाएं माननी होंगी, सिर्फ तब नहीं जब माहौल मेरे अनुकूल हो, बल्कि ख़ास तौर से उस वक्त जब माहौल अनुकूल न हो। चाहे मेरी शोहरत चली जाए या भाई-बहन मुझे आदर से न देखें, तब भी मुझे स्वीकार कर आज्ञा माननी होगी।

बाद में, एक सभा में, मैंने अपनी हालत के बारे में खुलकर संगति की, मेरे भाई-बहनों ने परमेश्वर के वचनों का एक अंश मुझे भेजा, जिससे मैं अपनी अवज्ञा के मूल को समझ पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "शैतान मनुष्य को मजबूती से अपने नियन्त्रण में रखने के लिए किस का उपयोग करता है? (प्रसिद्धि एवं लाभ का।) तो, शैतान मनुष्य के विचारों को नियन्त्रित करने के लिए प्रसिद्धि एवं लाभ का तब तक उपयोग करता है जब तक लोग केवल और केवल प्रसिद्धि एवं लाभ के बारे में सोचने नहीं लगते। वे प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए कठिनाइयों को सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए जो कुछ उनके पास है उसका बलिदान करते हैं, और प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते वे किसी भी प्रकार की धारणा बना लेंगे या निर्णय ले लेंगे। इस तरह से, शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनके पास इन्हें उतार फेंकने की न तो सामर्थ्‍य होती है न ही साहस होता है। वे अनजाने में इन बेड़ियों को ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पाँव घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते, मनुष्यजाति परमेश्वर को दूर कर देती है और उसके साथ विश्वासघात करती है, तथा निरंतर और दुष्ट बनती जाती है। इसलिए, इस प्रकार से एक के बाद दूसरी पीढ़ी शैतान के प्रसिद्धि एवं लाभ के बीच नष्ट हो जाती है। अब शैतान की करतूतों को देखने पर, क्या उसकी भयानक मंशाएँ बिलकुल ही घिनौनी नहीं हैं? हो सकता है कि आज तुम लोग अब तक शैतान की भयानक मंशाओं की वास्तविक प्रकृति को नहीं देख पा रहे हो क्योंकि तुम लोग सोचते हो कि प्रसिद्धि एवं लाभ के बिना कोई जी नहीं सकता है। तुम सोचते हो कि यदि लोग प्रसिद्धि एवं लाभ को पीछे छोड़ देते हैं, तो वे आगे के मार्ग को देखने में समर्थ नहीं रहेंगे, अपने लक्ष्यों को देखने में समर्थ नहीं रह जायेँगे, उनका भविष्य अंधकारमय, मद्धिम एवं विषादपूर्ण हो जाएगा। परन्तु, धीरे-धीरे तुम सभी लोग यह समझ जाओगे कि प्रसिद्धि एवं लाभ ऐसी भयानक बेड़ियाँ हैं जिनका उपयोग शैतान मनुष्य को बाँधने के लिए करता है। जब वो दिन आएगा, तुम पूरी तरह से शैतान के नियन्त्रण का विरोध करोगे और उन बेड़ियों का पूरी तरह से विरोध करोगे जिनका उपयोग शैतान तुम्हें बाँधने के लिए करता है। जब वह समय आएगा कि तुम उन सभी चीज़ों को फेंकने की इच्छा करोगे जिन्हें शैतान ने तुम्हारे भीतर डाला है, तब तुम शैतान से अपने आपको पूरी तरह से अलग कर लोगे और तुम सच में उन सब से घृणा करोगे जिन्हें शैतान तुम तक लाया है। केवल तभी मानवजाति के पास परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम और लालसा होगी" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों पर सोच-विचार कर मुझे एहसास हुआ कि मैं मिले हुए काम को इसलिए नहीं मान पा रहा था, क्योंकि मुझे लगा कि इससे मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे को नुकसान होगा, यह शैतान द्वारा की जा रही हानि थी। शैतान लोगों के दिलों को काबू में करने के लिए शोहरत और दौलत का इस्तेमाल करता है। इससे लोग शोहरत और दौलत के लिए संघर्ष करते हैं, अपना सब-कुछ त्याग देते हैं। साथ ही, मैं अनजाने ही शैतान के फलसफों के पीछे भाग रहा था। मैंने याद किया कि कैसे मेरे माता-पिता ने बचपन में मुझे दूसरों का आदर और सराहना पाना सिखाया था, तबसे मैं मानता था कि मुझे दूसरों से ऊंचा उठकर विशिष्ट बनना चाहिए। समाज और मीडिया भी इस नजरिए को बढ़ावा देते हैं, मैंने देखा कि कैसे कुछ प्रसिद्ध, धनी और ऊंचे रुतबे वाले लोगों से औसत लोगों के मुकाबले बेहतर बर्ताव किया जाता है, इसलिए मैंने आगे बढ़ने और सभी की सराहना हासिल करने की ठान ली। परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने के बाद भी, मैं इन्हीं विचारों से जी रहा था, मैंने परमेश्वर की इच्छा को खोजने या सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान दिए बिना अपना काम किया, मेरी ये गलत सोच थी कि सुसमाचार का प्रचार करने जैसा महत्वपूर्ण काम करना ही दूसरों की सराहना और आदर पाने का एकमात्र रास्ता है। मुझे लगा शारीरिक मेहनत करने वाले की कोई कद्र नहीं करता। मैं कामों को बेहतर या बदतर समझता था, चाहता था कि कोई ऐसा काम करूँ जिसमें मैं अलग दिखूँ। जब मेरे अगुआ ने हमारे काम की जरूरतों के अनुसार मुझे गाड़ी चलाने को कहा, तो मैं उसे दिल की गहराई से न तो स्वीकार सका, न ही मान सका, मुझे लगा, सुसमाचार-प्रचार का काम मेरे योग्य है, ड्राइविंग का काम नहीं। मुझे सिर्फ अपनी छवि और रुतबे की फिक्र थी, मैंने परमेश्वर की इच्छा नहीं खोजी, कलीसिया के कार्य की जरूरतों पर विचार नहीं किया। मैं बहुत स्वार्थी और घिनौना था! सुसमाचार का प्रचार करने का अपना काम करते रहने की चाह दरअसल परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना नहीं था। मैं बस उस काम के सहारे सब लोगों की सराहना पाना चाहता था। मैं अपने काम का दिखावे और लोगों का आदर पाने के लिए इस्तेमाल करना चाहता था, ताकि मैं शोहरत और दौलत पा सकूँ और उससे मिलने वाले सम्मान का आनंद उठा सकूँ। अगुआ ने जब मेरे लिए इस काम की व्यवस्था की, तो ऊँचा सम्मानित व्यक्ति बनने की मेरी महत्वाकांक्षा ध्वस्त हो गई, इसलिए मैं निष्क्रियता से सिमट गया और कर्तव्य निभाने का जोश खो दिया। मैंने देखा कि ये शैतानी विचार और राय मेरे दिल में कैसे बसे हुए थे, और मेरी प्रकृति बन चुके थे। मेरी कथनी-करनी, काम के प्रति बर्ताव, सब उसके काबू में थे, मुझसे परमेश्वर के प्रति विद्रोह और प्रतिरोध करवा रहे थे। शोहरत और दौलत के पीछे भागने से मैं पूरी समझ खो चुका था। मैंने सोचा कि कुछ भाई-बहनों का सांसारिक रुतबा था और बहुत-से लोग उनका समर्थन करते थे, लेकिन परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य संभालने के बाद, वे अपनी शोहरत और रुतबे को छोड़ने में सक्षम हो गए, और कलीसिया चाहे किसी भी काम की व्यवस्था करे, तुच्छ-से-तुच्छ काम भी, वे स्वीकार कर पालन कर पा रहे थे। उनसे तुलना करके मैंने शर्मिंदगी महसूस की। मैं परमेश्वर का सच्चा विश्वासी नहीं था। मेरे दिल में उसके लिए कोई जगह नहीं थी, न ही उसके प्रति आज्ञाकारिता थी। अब मुझे एहसास हुआ कि शोहरत और दौलत के पीछे भागना कितनी बेशर्मी और घिनौनापन था। अगर मैं ऐसा ही करता रहा, तो सत्य को कभी नहीं समझ पाऊंगा, और देर-सवेर, मुझे हटा दिया जाएगा।

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना कोई मामूली बात नहीं है। इसकी कुंजी है सत्य खोजने पर ध्यान देना और सत्य को अमल में लाना। इन बातों को तुम्हें हर दिन अपने दिल में बैठाना ज़रूरी है। चाहे कोई भी समस्या आए, हमेशा अपने हितों की ही सुरक्षा मत करो; बल्कि सत्य की खोज करना सीखो और आत्म-चिंतन करो। तुम्हारे अंदर कोई भी भ्रष्टता क्यों न हो, लेकिन तुम उन्हें अनियंत्रित नहीं छोड़ सकते; अगर तुम आत्म-चिंतन करके अपनी भ्रष्टता के सार को पहचान सको तो यह सबसे अच्छा है। अगर तुम हर स्थिति में इस बात पर विचार करो कि अपने भ्रष्ट स्वभाव को कैसे दूर किया जाए, सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए और सत्य के सिद्धांत क्या हैं, तो तुम सीख जाओगे कि अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य का उपयोग कैसे किया जाए। ऐसा करने से तुम स्वभाव में परिवर्तन हासिल करोगे और इस प्रकार धीरे-धीरे सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करोगे। अगर तुम्‍हारा मन इस तरह के विचारों से भरा हुआ है कि ऊँचा पद कैसे हासिल किया जाए, दूसरों के सामने कैसे कार्य किया जाए, कैसे उन्हें अपनी सराहना करने के लिए प्रेरित किया जाए, तो तुम ग़लत मार्ग पर हो। इसका मतलब है कि तुम शैतान के लिए काम कर रहे हो; तुम उसकी सेवा में लगे हुए हो। अगर तुम्‍हारा मन इस तरह के विचारों से भरा हुआ है कि तुम कैसे अपने को इस तरह बदल लो कि तुम अधिक-से-अधिक मनुष्‍य जैसे हो जाओ, परमेश्‍वर के इरादों के अनुरूप हो जाओ, उसके प्रति समर्पित होने और श्रद्धा रखने में सक्षम हो जाओ, और अपने हर कृत्‍य में संयम दिखाओ और उसकी जाँच स्‍वीकार करो, तो तुम्‍हारी हालत उत्‍तरोत्‍तर सुधरती जाएगी। परमेश्‍वर के समक्ष जीने वाला व्‍यक्ति होने का अर्थ यही है। वैसे, मार्ग दो हैं : एक जो महज़ आचरण पर, अपनी महत्‍त्‍वाकांक्षाओं, आकांक्षाओं, प्रयोजनों, और योजनाओं को पूरा करने पर बल देता है; यह शैतान के समक्ष और उसके अधिकार-क्षेत्र के अधीन जीना है। दूसरा मार्ग इस पर बल देता है कि परमेश्‍वर की इच्‍छा को किस तरह सन्‍तुष्‍ट किया जाए, सत्‍य की वास्‍तविकता में कैसे प्रवेश किया जाए, परमेश्‍वर के समक्ष समर्पण कैसे किया जाए, कैसे उसके प्रति कोई गलतफहमी न पाली जाए या उसकी अवज्ञा न की जाए, ताकि व्यक्ति परमेश्‍वर के प्रति श्रद्धा रखे और अपना कर्तव्‍य ठीक से निभाए। ऐसा ही व्यक्ति सदैव परमेश्‍वर के समक्ष जीता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य का अभ्यास करके ही कोई सामान्य मानवता से युक्त हो सकता है')। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि अगर मैं सत्य हासिल करना और भ्रष्टता से बचना चाहूँ, तो मुझे गलत लक्ष्य के पीछे भागना बंद करना होगा। चाहे मैं अपने काम में दिखावा कर सकूँ या नहीं, दूसरों की सराहाना पा सकूँ या नहीं, मुझे अपना काम स्वीकार कर उसे वफादारी से निभाना चाहिए। सृजित प्राणियों के मन में काम के प्रति यही रवैया और समझ होनी चाहिए। अगर मैं सिर्फ भाई-बहनों का आदर पाने के लिए अपना काम करता हूँ, तो इसका अर्थ है कि मैं शैतान की सेवा करता हूँ, क्योंकि शैतान लोगों को शोहरत, दौलत, और रुतबे के पीछे भगाता है, परमेश्वर से दूर करता है, उसे धोखा दिलाता है। अगर मैंने शोहरत और दौलत के पीछे भागने का अपना लक्ष्य या अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदला, तो आखिर में मुझे जरूर हटा दिया जाएगा। सत्य और स्वभावगत परिवर्तन का अनुसरण करना, परमेश्वर की व्यवस्थाओं को स्वीकारना, शोहरत और दौलत के अपने विचारों को त्याग देना, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार काम करना, और अपना कर्तव्य ठीक ढंग से निभाना ही, परमेश्वर के सामने जीने का एकमात्र मार्ग है, यह प्रयास ही अपने भ्रष्ट स्वभाव में बदलाव लाने का एकमात्र मार्ग है। यह समझ लेने के बाद मुझे एक दिशा मिल गई। मैं जान गया कि परमेश्वर में अपनी आस्था और अपने कर्तव्य में मुझे सत्य का अनुसरण करना होगा, मैं अपना काम स्वीकारने को तैयार हो गया। लोग मुझे आदर से देखें या न देखें, मुझे अपना काम भरसक अच्छे ढंग से निभाना होगा।

फिर, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "आज, जब तुम लोग परमेश्‍वर के घर में कोई कर्तव्‍य निभाते हो, वह चाहे बड़ा हो या छोटा, चाहे इसमें शारीरिक श्रम करना पड़ता हो या अपने मस्तिष्‍क का प्रयोग, चाहे वह कलीसिया के अंदर या बाहर किया गया हो, तुम जो भी कर्तव्‍य निभाते हो, वह संयोग नहीं है; वह तुम्हारी पसंद नहीं है, वह परमेश्‍वर द्वारा नियंत्रित है। परमेश्‍वर के आदेश के कारण ही तुम प्रेरित होते हो, और तुम्‍हारे भीतर लक्ष्‍य और ज़ि‍म्‍मेदारी का यह बोध है, और तुम यह कर्तव्‍य निभा पा रहे हो। अविश्‍वासियों के बीच ऐसे बहुत-से लोग हैं जो आकर्षक, बुद्धिमान, या सक्षम हैं। लेकिन क्‍या परमेश्‍वर उन पर अनुग्रह करता है? (नहीं।) परमेश्‍वर सिर्फ़ तुम लोगों पर, इस समुदाय के लोगों पर अनुग्रह करता है। वह अपने प्रबंधन कार्य में तुम्‍हें हर तरह की भूमिकाएँ निभाने के लिए, हर तरह के कर्तव्‍य और दायित्‍व पूरे करने के लिए तैयार करता है, और जब, अंतत:, परमेश्‍वर की प्रबंधन योजना समाप्त हो जाती है और पूरी हो जाती है, तो यह कितने गौरव और सम्‍मान की बात होगी! और इसलिए आज जब लोगों को अपने कर्तव्‍यों का निर्वाह करते समय छोटी-मोटी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, जब उन्‍हें चीज़ों को छोड़ना और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना पड़ता है, जब उन्‍हें कोई क़ीमत चुकानी पड़ती है, जब उन्‍हें अपनी दुनिया में प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि और भाग्य गँवाने पड़ते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो परमेश्‍वर ने उनसे वे चीज़ें छीन ली हों—लेकिन उन्‍होंने कोई बड़ी और बेहतर चीज हासिल कर ली है। उन्‍होंने परमेश्‍वर से क्‍या प्राप्त किया है? केवल जब तुमने अपना ने कर्तव्य ठीक से निभाया है, जब तुम परमेश्वर द्वारा सौंपे गये आदेश को पूरा कर लेते हो, जब तुम अपने लक्ष्‍य और आदेश के लिए अपना पूरा जीवन खपा देते हो, और तुम ह तुम एक सार्थक जीवन जीते हो—केवल तभी तुम एक सच्‍चे इंसान हो! और मैं क्यों कहता हूँ कि तुम एक सच्चे व्यक्ति हो? क्‍योंकि परमेश्‍वर ने तुम्हें चुना है, उसने तुम्‍हें इस बात की गुंजाइश दी है कि तुम परमेश्‍वर द्वारा रचे गये एक प्राणी के रूप में उसके प्रबंधन में अपना कर्तव्‍य निभाओ, और तुम्‍हारे जीवन का इससे बड़ा कोई मूल्‍य या अर्थ नहीं हो सकता" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर के समक्ष समर्पण से संबंधित अभ्यास के सिद्धांत')। "यदि तुम अपने हर काम में परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए समर्पित रहना चाहते हो, तो केवल एक ही कर्तव्य करना काफी नहीं है; तुम्हें परमेश्वर द्वारा दिये गए हर आदेश को स्वीकार करना चाहिए। चाहे यह तुम्हारी पसंदों के अनुसार हो या न हो, और चाहे यह तुम्हारी रूचियों में से एक हो या न हो, या चाहे यह कुछ ऐसा काम हो जो तुम्हें करना अच्छा नहीं लगता हो या तुमने पहले कभी न किया हो, या कुछ मुश्किल काम हो, तुम्हें इसे फिर भी स्वीकार कर इसके प्रति समर्पित होना होगा। न तुम्हें केवल इसे स्वीकार करना होगा, बल्कि अग्रसक्रिय रूप से अपना सहयोग देना होगा, और इसे सीखना होगा, इसमें प्रवेश पाना होगा। यदि तुम कष्ट उठाते हो, यदि तुम इसके लिए वाहवाही तक नहीं पा सके हो, तुम्हें फिर भी समर्पण के लिए प्रतिबद्ध रहना होगा। तुम्हें इसे अपना व्यक्तिगत कामकाज नहीं बल्कि कर्तव्य मानना चाहिए; कर्तव्य जिसे पूरा करना ही है। लोगों को अपने कर्तव्यों को कैसे समझना चाहिए। जब सृष्टिकर्ता—परमेश्वर—किसी को कोई कार्य सौंपता है, तब उस समय, वह उस व्यक्ति का कर्तव्य बन जाता है। जिन कार्यों और आदेशों को परमेश्वर तुम्हें देता है—वे तुम्हारे कर्तव्य हैं। जब तुम उन्हें अपने लक्ष्य बनाकर उनके पीछे जाते हो, और जब तुम्हारा दिल वास्तव में परमेश्वर-प्रेमी होता है, तब भी क्या तुम इनकार कर सकोगे? (नहीं।) बात ये नहीं की तुम कर सकते हो या नहीं—तुम्हें इसे इनकार नहीं करना चाहिए। तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए। यही अभ्यास का पथ है। अभ्यास का मार्ग कौन-सा है? (हर कार्य में पूरी तरह से समर्पित होना।) परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए सभी चीजों में समर्पित रहो। यहाँ केन्द्र बिन्दु कहाँ है? यह 'सभी चीजों में' है। 'सभी चीजों' का मतलब वे चीजें नहीं हैं जिन्हें तुम पसंद करते हो या जिन कामों में तुम अच्छे हो, वे वह चीजें तो बिल्कुल भी नहीं हैं जिनसे तुम वाकिफ हो। कभी-कभी, तुम्हें कोई चीज अच्छे से नहीं आती, कभी-कभी तुम्हें सीखने की आवश्यकता होती है, कभी-कभी तुम्हें कठिनाइयों का सामना करना और कभी-कभी तुम्हें कष्ट उठाना पड़ेगा। लेकिन चाहे वह कोई भी कार्य हो, अगर वह परमेश्वर का आदेश है, तो तुम्हें उसे स्वीकार करना चाहिए, उसे अपना कर्तव्य समझना चाहिए, उसे पूरा करने के लिए समर्पित होना चाहिए और परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना चाहिए : यह अभ्यास का मार्ग है। चाहे तुम्हारे साथ कुछ भी हो जाए, तुम्हें हमेशा सत्य की खोज करनी चाहिए, और एक बार जब तुम निश्चित हो जाते हो कि किस तरह का अभ्यास परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तुम्हें उसका अभ्यास करना चाहिए। इस तरह से कार्य करना ही सत्य का अभ्यास करना है, और इस तरह से कार्य करना ही सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल ईमानदार बनकर ही लोग वास्तव में खुश हो सकते हैं')। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि कोई भी काम संयोग से नहीं मिलता, न ही कोई एक इंसान इसकी व्यवस्था करता है। ये मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और संकल्प से मिलते हैं। हालांकि ड्राइविंग ऐसा काम नहीं था, जो मुझे पसंद था या जो मैं करना चाहता था, मगर मेरे लिए इसकी व्यवस्था कलीसिया के कार्य की जरूरत के आधार पर की गई थी, इसलिए मैं अपनी पसंद पर नहीं चल सकता था। इससे भले ही मुझे कष्ट हुआ हो, या मुझे सराहना न मिली हो, मेरे पास इसे मना करने का कोई कारण नहीं था। मुझे समझदारी से आज्ञा माननी चाहिए, क्योंकि यह काम परमेश्वर से आया है। परमेश्वर ने मुझे एक काम दिया है, जिसका अर्थ है कि उसने मुझे एक जिम्मेदारी, एक मिशन सौंपा है, इसलिए वह कितना भी मुश्किल क्यों न हो, मुझे पूरे दिल से इसे करना चाहिए, एक सृजित प्राणी के नाते कर्तव्य करते हुए परमेश्वर द्वारा सौंपा गया काम पूरा करना चाहिए। इस तरह से जीवन जीना सार्थक है, निरर्थक नहीं है। पहले मैं शोहरत और दौलत से सम्मोहित था, परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं समझता था, इसलिए काम के प्रति रवैया सही नहीं था, और मैं काम को बेहतर या बदतर के रूप में देखता था। सच यह है कि परमेश्वर के घर में, कोई भी काम बेहतर या बदतर नहीं होता, हम बस अलग-अलग काम करते हैं। सुसमाचार का प्रचार करना और कार चलाना, दोनों कलीसिया के कार्य का जरूरी हिस्सा हैं। परमेश्वर चाहता है हम उसके घर में हर काम करते हुए जीवन प्रवेश का अनुसरण करें। अगर मैं सराहना, शोहरत और दौलत पाने के लिए अपना काम करूँ, तो मैं एक सृजित प्राणी का कर्तव्य नहीं निभाऊंगा, मैं अपने फायदे के लिए चालें चलूँगा। भले ही लोग मेरी सराहना करें, परमेश्वर इसे स्वीकृति नहीं देगा। जब मेरे अगुआ ने मुझे ड्राइवर का काम सौंपा, तो हालांकि लोगों के बीच मेरा कोई रुतबा नहीं था और यह थोड़ा थकाऊ था, पर इस माहौल ने मुझे आज्ञा मानना सिखाया, सत्य समझने में मदद की, धीरे-धीरे मुझे शोहरत और दौलत की आकांक्षा को छोड़ने दिया। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार था। एक बार कलीसिया के लिए गाड़ी चलाते समय मैंने इस बारे में सोचा, तो परमेश्वर के घर के हितों के विचार से जुड़ी कई बातों से मेरा सामना हुआ, जिन सबके लिए सत्य की खोज और सिद्धांतों के अनुसार काम करना जरूरी था। क्या यह मेरे लिए सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना काम करने का अच्छा मौक़ा नहीं था? इसका एहसास हो जाने पर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मेरे अज्ञान के लिए क्षमा कर दो। मैंने बहुत-सी चीजों में तुम्हें निराश किया है। अब से, मैं सारी चीजें तुम्हारी व्यवस्थाओं के जिम्मे छोड़ दूंगा, तुम्हारा निरीक्षण स्वीकार करूंगा, और अपने काम तुम्हें दिल से प्रेम करते हुए करूँगा।" प्रार्थना करने के बाद, मुझे सुकून महसूस हुआ, मुझमें अपना काम उचित ढंग से करने का आत्मविश्वास जागा।

एक बार, मैं कलीसिया के लिए चीजें खरीदने के लिए गाड़ी से भाई-बहनों को ले गया। मैंने उन्हें बड़ी सावधानी से चीजें चुनते, दाम और गुणवत्ता की तुलना करते देखा, ताकि परमेश्वर के परिवार के हितों का नुकसान न हो। मैंने उस वक्त की बात सोची, जब मैंने ड्राइविंग शुरू की थी, आदर से देखे जाने की मेरी आकांक्षा तृप्त न होने के कारण, काम के प्रति मेरा रवैया गलत था। हर दिन जो काम किया जाता, वो मैं करता, मगर कभी उस पर गंभीरता से गौर नहीं करता, और अपना काम अच्छे ढंग से करने पर कभी विचार नहीं किया। खरीदारी करते समय, मैंने शायद ही कभी ऊंची क्वालिटी और कम दाम खोजा हो, बस जो ठीक दिखा उसे खरीद लिया। मैंने कभी इतनी सावधानी से खरीदारी नहीं की। मैंने सच में इस काम में मन नहीं लगाया। अब मैं सेवाकर्मी नहीं बनना चाहता था। फिर, मैंने इसकी फिक्र नहीं की कि मेरे काम में दूसरे मुझे आदर से देखते हैं या नहीं। इसके बजाय, मैंने अपने कामों और कलीसिया के हितों के बारे में गंभीरता से सोचा, मैं कलीसिया के लिए चीजें सतर्क होकर सोच-समझकर खरीदता। इस तरह से अपने काम करने से, मुझे सुकून मिलता, अब यह थकाने वाला नहीं था। अपने अनुभव से मैंने बहुत-कुछ हासिल किया, मैं समझ सका कि परमेश्वर ने मुझे अच्छा न लगने वाला काम इसलिए दिया ताकि मैं आत्मचिंतन कर समझूँ कि मेरा शोहरत और रुतबे के पीछे भागना गलत है। वह मुझे सत्य का अनुसरण करने की राह पर ले जा रहा था। ये सब मेरे प्रति परमेश्वर का प्रेम था। परमेश्वर के नेक इरादों का अनुभव कर, मैं समझ सका कि परमेश्वर चीजों की व्यवस्था चाहे जैसे करे, भले ही वे मेरी धारणाओं के अनुरूप न हों, मगर ये सब मेरे जीवन के लिए लाभकारी हैं। मैं अब परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकता। मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए उसका आज्ञाकारी बनना था।

इसके बाद जल्दी ही, मेरे भाई को नया ड्राइविंग लाइसेंस मिल गया और वो काम पर लौट आया, और अगुआ ने मेरे लिए सामान्य मामले संभालने के काम की व्यवस्था कर दी। यह समाचार पाकर, मैंने सोचा, "इस बार, मैं अपनी पसंद के अनुसार कर्तव्य से पेश नहीं आऊँगा। मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार कर उनका पालन करना होगा। मुझे पता है कि उसने अपने वचनों और कार्य के जरिए मुझे पूर्ण करने के लिए, अभ्यास करने का एक और मौका दिया है और अलग-अलग कामों में उसके वचनों का अनुभव और अभ्यास करने दिया है।" अपने पिछले अनुभव के कारण अपने नए काम में मेरे मन में कोई नकारात्मक विचार नहीं थे, मैं अब अपने काम को नीची नजर से नहीं देखता, दूसरों से सराहना पाने की कोशिश भी नहीं करता। मैंने अपना काम व्यावहारिक ढंग से करते हुए परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने की कोशिश की। मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अपने कर्तव्य को निभाने वाले उन तमाम लोगों के लिए, चाहे सत्य की उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत इरादों, अभिप्रेरणाओं, प्रतिष्ठा और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य करने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों का, परमेश्वर के हितों का, उसके कार्य का ध्यान रखना चाहिए, और इन विचारों को पहला स्थान देना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपने रुतबे की स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे इन चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौता कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम ऐसा कुछ समय के लिए कर लो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना मुश्किल नहीं है। इसके साथ ही, तुम्हें अपनी ज़िम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, अपनी स्वार्थी इच्छाएँ, व्यक्तिगत अभिलाषाएँ और इरादे त्याग देने चाहिए, परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना चाहिए, और परमेश्वर तथा उसके घर के हितों को सर्वोपरि रखना चाहिए। इस तरह से कुछ समय अनुभव करने के बाद, तुम पाओगे कि यह जीने का एक अच्छा तरीका है। नीच या निकम्मा व्यक्ति बने बिना, यह सरलता और नेकी से जीना है, न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है, एक संकुचित मन वाले या ओछे व्यक्ति की तरह नहीं। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही जीना और काम करना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को पूरा करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल में उजाला कर दिया। जब हम अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो हमें परमेश्वर के निरीक्षण को स्वीकार करना चाहिए, अपनी आकांक्षाओं को छोड़ना चाहिए, अपना सच्चा दिल सामने रखना चाहिए, परमेश्वर के घर के लाभ के लिए काम करने चाहिए, अपना हर काम दिल लगाकर करना चाहिए। यह एक सृजित प्राणी का अपना कर्तव्य निभाना है, ईमानदारी से जीते हुए, और वह करना है जो लोगों का कर्तव्य है। जब मैंने इस तरह अभ्यास किया, तो मैंने बहुत दृढ़ता और सुकून महसूस किया। अब मैं अपने काम में बहुत खुश हूँ, मैंने बहुत-कुछ हासिल किया है। मैं जानता हूँ कि तथ्यों और परमेश्वर के वचनों के न्याय से उजागर हुए बिना, मैं अपनी भ्रष्टता को नहीं पहचान पाता। मेरी भ्रष्टता, विद्रोह, और अनुसरण के बारे में मेरी गलत सोच से निपटने के लिए, परमेश्वर ने मुझे एक ऐसे माहौल में रखा, जो मुझे पसंद नहीं था, ताकि मैं खुद को जान सकूँ, मुझे यह समझाने के लिए कि काम के प्रति कैसा रवैया और नजरिया परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होता है। यह अनुभव करने के बाद, मुझे यह भी एहसास हुआ कि यह व्यवस्था परमेश्वर करता है कि मैं कौन-सा काम करूँगा, और यह जीवन प्रवेश को लेकर मेरी जरूरतों पर आधारित है, इसलिए मुझे स्वीकार कर इसका पालन करना चाहिए, पूरा दिल और दिमाग लगाकर अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, अपने काम करते समय सत्य का अनुसरण करना चाहिए, एक ऐसा इंसान बनाना चाहिए, जो सच में परमेश्वर का आज्ञाकारी है और उसकी स्वीकृति प्राप्त करता है।

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