अपने कर्तव्य के जरिए समर्पण करने की सीख
2012 में, ताइवान में काम करते समय, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया। बाद में, मुझे पता चला कि फिलीपींस में इसे स्वीकार करने वाले शुरुआती लोगों में से मैं एक था। मैं बहुत उत्साहित था, मुझे लगा कि मुझे आशीष मिली है। 2014 में, फिलीपींस लौटने के बाद, मैंने अपने देश में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के राज्य के सुसमाचार का प्रचार करना शुरू किया। जल्दी ही, बहुत-से फिलीपीनो लोगों ने परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया। मैं रोमांचित हो गया और मुझे गर्व था कि मैं सुसमाचार का प्रचार कर पाया। मेरे भाई-बहनों को मुझसे ईर्ष्या होती क्योंकि मैंने इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाया और परमेश्वर का कार्य स्वीकारने वाले फिलीपींस के शुरुआती लोगों में से एक था। वे सभी कहते थे कि मैं बहुत भाग्यशाली हूँ। उनकी ईर्ष्या और आदर भाव देखकर मुझमें उनसे श्रेष्ठ होने की भावना जागती, मुझे लगता कि मैं ऐसे महत्वपूर्ण कर्तव्य के लायक हूँ।
एक दिन, कलीसिया-अगुआ ने मुझे बताया कि कलीसिया के सामान्य कार्यों के प्रभारी को कुछ काम है, और पूछा कि क्या कुछ समय के लिए मैं उस भाई का कर्तव्य संभाल सकता हूँ। मैं बहुत परेशान हो गया और सोचने लगा, “मेरे अगुआ अचानक क्यों चाहते हैं कि मैं सामान्य कार्य संभालूँ? भाई-बहनों को पता चलेगा तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” मेरे मन में, सुसमाचार का प्रचार करना और परमेश्वर की गवाही देना एक महत्वपूर्ण कर्तव्य था, जो परमेश्वर के प्रकटन को तरस रहे लोगों को उसके सामने ला सकता है। सामान्य कार्य मूल रूप से ऐसे काम थे, जो परमेश्वर की गवाही बिल्कुल नहीं दे सकते थे या जो लोगों से आदर नहीं दिलवा सकते थे। मुझे बहुत ज्यादा निराशा हुई। मैं नहीं समझ पाया कि मेरे साथ यह कैसे हो रहा है, मुझे फिक्र हो रही थी कि मेरे अगुआ मुझसे यह काम करवाते रहेंगे। मेरे मन में बहुत-से नकारात्मक विचार आए, मैं इसके प्रति समर्पित नहीं हो सकता था, न मैं चाहता था कि मेरे भाई-बहन जानें कि मेरा कर्तव्य बदल गया है।
अगले दिन, कुछ भाई-बहनों ने मुझे बताया कि उन्होंने सुना है कि मैं कलीसिया के कुछ सामान्य कार्य कर रहा हूँ। उन्हें यह कहते सुन मैं बहुत शर्मिंदा और उदास हो गया। मैं यह काम बिल्कुल नहीं करना चाहता था। मैंने असंतुष्टि और अवज्ञा महसूस की, मगर ऊपर से, मैंने बुरा न लगने का नाटक किया। ताकि वे मेरी कमजोरी समझकर मुझे नीची नजर से न देखें, इसलिए मैंने उन्हें यह जवाब दिया, “ये परमेश्वर की व्यवस्थाएं हैं, और मैं इनके लिए उसका आभारी हूँ।” यह कहने के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि हालांकि मैं जानता था कि “परमेश्वर की सभी चीजों पर संप्रभुता है,” मगर जब वास्तविक स्थिति आई, तो मैंने दिल से उसकी संप्रभुता को नहीं माना। मैं जो महसूस कर रहा था उसका मेरी बातों से तालमेल नहीं था। मैं आज्ञाकारी दिखता था, लेकिन वास्तव में मैं इसे बिल्कुल भी स्वीकारना नहीं चाहता था। मैं यह सोचे बिना नहीं रह सका, “क्या अगुआ ने मेरे लिए सामान्य कार्य सँभालने की व्यवस्था करके गलती की? यह काम मेरे लिए बिल्कुल भी सही नहीं है। मुझे तो सुसमाचार का प्रचार करना चाहिए, मैं यह कर्तव्य कैसे कर सकता हूँ?” मेरी नकारात्मकता बढ़ती गई। मुझे लगा जरूर उनकी नजर में मैं सुसमाचार का प्रचार करने लायक नहीं हूँ, तभी उन्होंने मुझसे यह कर्तव्य निभाने को कहा। मुझे लगता था कि सामान्य कार्य सँभालने में जीवन प्रवेश या सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजना पड़ता, यह सिर्फ मेहनत-मजदूरी है, इसलिए मैं जैसा बताया जाता, बस वैसे कार्य सँभालता रहता। थोड़ा समय बीतने के बाद भी, मुझे जीवन प्रवेश नहीं मिला, मैं इस काम से ऊब गया, और अंततः मैं यह काम अब और नहीं करना चाहता था।
एक दिन, मेरे साथ पहले सुसमाचार-प्रचार कर चुके एक भाई ने मुझे फोन करके पूछा, “भाई, हम लोग एक जगह जाना चाहते हैं, क्या आप ले जा सकेंगे?” यह सुनकर मुझे बड़ा दुख और शर्मिंदगी महसूस हुई। मैंने सोचा, “शायद यह भाई सोचता है कि मैं बस सामान्य कार्य सँभालता हूँ, कि मैं यहाँ सिर्फ बेकार या मामूली काम कर रहा हूँ और मेरा कोई रुतबा नहीं है। वह यकीनन मुझे नीची नजर से देखता है।” मैंने सच में दुखी और नकारात्मक महसूस किया, और मुझे कर्तव्यों में प्रेरणा भी नहीं मिली। उस दौरान, मैं कर्तव्य निभाता हुआ दिखता जरूर था, पर मेरे अंदर कुछ भी ठीक नहीं था, मैं अक्सर सोचता कि भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचते हैं। यहाँ तक कि मैं परमेश्वर के वचन पढ़ना या सभाओं में भाग लेना भी नहीं चाहता था। सैद्धांतिक रूप से मुझे मालूम था कि चाहे जो हो जाए, मुझे एक सृजित प्राणी के नाते अपने कर्तव्य निभाने चाहिए, फिर भी मैं अपनी नकारात्मक और निष्क्रिय हालत से उबर नहीं पाया। अंत में, मुझे पवित्र आत्मा का कार्य महसूस होना बंद हो गया, मेरा कर्तव्य एक सांसारिक काम जैसा लगने लगा, मैं बस रोजाना यहाँ-वहाँ दौड़-धूप करता हुआ दिन बीतने की प्रतीक्षा करता रहता था। मेरा दिल अंधकार और दुख से सराबोर था, सभाओं में मुझे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता नहीं मिलती थी, मैं हमेशा खालीपन महसूस करता था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं जानता हूँ कि मैं गलत दशा में हूँ, लेकिन मैं अभी भी इसी बात की परवाह करता हूँ कि भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचते होंगे। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो और राह दिखाओ, ताकि मैं अपनी भ्रष्टता पर विचार कर इस कर्तव्य को स्वीकार सकूं।”
बाद में, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “लोग परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सकते हैं या नहीं, यह आकलन करने में मुख्य बात यह है कि वे उससे असंयत माँगें कर रहे हैं या नहीं, और उसके प्रति उनके गुप्त अभिप्राय हैं या नहीं। अगर लोग हमेशा परमेश्वर से माँगें करते हैं, तो यह साबित करता है कि वे उसके आज्ञाकारी नहीं हैं। तुम्हारे साथ चाहे जो भी हो, यदि तुम इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं करते, तुम सत्य की तलाश नहीं करते, हमेशा अपने लिए तर्क-वितर्क करते हो और हमेशा यह महसूस करते हो कि सिर्फ तुम सही हो, और यहाँ तक कि तुम अभी भी यह संदेह करने में सक्षम हो कि परमेश्वर सत्य और धार्मिकता है, तो तुम संकट में पड़ जाओगे। ऐसे लोग सबसे अहंकारी और परमेश्वर के प्रति विद्रोही होते हैं। जो लोग हमेशा परमेश्वर से माँगते रहते हैं, वे कभी सच्चे रूप से उसकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकते। अगर तुम परमेश्वर से माँग करते हो, तो यह साबित करता है कि तुम उससे सौदा कर रहे हो, तुम अपनी ही इच्छा चुन रहे हो, और इसी के अनुसार कार्य कर रहे हो। ऐसा करके तुम परमेश्वर को धोखा दे रहे हो और तुममें आज्ञाकारिता की कमी है। ... अगर मनुष्य में कोई सच्ची आस्था नहीं है, कोई सारभूत विश्वास नहीं है, तो वह कभी भी परमेश्वर से प्रशंसा नहीं पा सकता। जब लोग परमेश्वर से कम माँगें करने में सक्षम हो जाएँगे, तो उनमें अधिक सच्ची आस्था और आज्ञाकारिता होगी, और उनकी तार्किक समझ भी अपेक्षाकृत सामान्य हो जाएगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल की भ्रष्टता को प्रकट किया। मुझे याद आया कि परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारते वक्त मैंने उससे प्रार्थना करके कहा था, “परमेश्वर चाहे किसी भी परिवेश की व्यवस्था करे, चाहे मेरे सामने मुश्किलें आएँ, या मैं कठिन परीक्षणों का अनुभव करूँ, मैं स्वीकार कर आज्ञा का पालन करूँगा। चाहे कुछ भी हो जाए, मैं परमेश्वर का अनुसरण करूँगा।” लेकिन अब, मुझे वास्तविक परिवेश रखा गया था, मगर मैं इसे मान नहीं पाया। मुझे एकाएक एहसास हुआ कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति मेरी आज्ञाकारिता महज बातें थीं। जब कलीसिया ने मेरे लिए सुसमाचार के प्रचार के काम की व्यवस्था की थी, तो मुझे लगा कि यह एक अहम कर्तव्य है, और मेरे भाई-बहन भी मेरी प्रशंसा करते और मुझे आदर से देखते थे, इसलिए मुझे अपना कर्तव्य बहुत पसंद था, और मैं उसे दिल लगाकर कड़ी मेहनत करता था। लेकिन जब अगुआ ने मेरे लिए सामान्य कार्य सँभालने की व्यवस्था की, तो मुझे लगा, जैसे मैं अचानक बहुत सम्मानित व्यक्ति से एक श्रमिक बन गया हूँ जिसकी किसी को कद्र नहीं, यह बड़ी शर्मिंदगी की बात थी। मुझे लगता था कि भाई-बहन मुझे पहले की तरह आदर से नहीं देखेंगे। इसलिए, अपने दिल की गहराई से, यह कर्तव्य मैं स्वीकार नहीं पाया, मैंने यह भी सोचा कि मेरे अगुआ की व्यवस्थाएं गलत थीं। मैंने अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को ज्यादा ही गंभीरता से लिया, मैं अपने कर्तव्यों को लेकर बहुत स्वार्थी और मीनमेख निकालने वाला इंसान था। मैं बस ऐसा कर्तव्य चाहता था जहाँ मैं दिखावा कर सकूँ और सबकी प्रशंसा पा सकूँ, मुझे कोई तुच्छ कर्तव्य नहीं चाहिए था। जब मेरे लिए व्यवस्थित कर्तव्य द्वारा मैं दिखावा नहीं कर सका, दूसरों की प्रशंसा नहीं पा सका, तो मेरा दिल प्रतिरोध और शिकायतों से भर गया, और मैं खुद को इसे मानने के लिए कभी तैयार नहीं कर पाया, जिससे पवित्र आत्मा का कार्य मुझसे खो गया और मैं अंधकार में जीने लगा। परमेश्वर के वचनों से, मैं समझ गया कि अगर मैं सच में परमेश्वर का आज्ञाकारी बनना चाहता हूँ, तो मुझे न सिर्फ अनुकूल माहौल में परमेश्वर की व्यवस्थाएं माननी होंगी, बल्कि खास तौर से उस वक्त माननी होंगी जब माहौल अनुकूल न हो। चाहे मेरी शोहरत चली जाए या भाई-बहन मुझे आदर से न देखें, तब भी मुझे स्वीकार कर आज्ञा माननी होगी।
बाद में, एक सभा में, मैंने अपनी हालत के बारे में खुलकर संगति की, मेरे भाई-बहनों ने परमेश्वर के वचनों का एक अंश मुझे भेजा : “शैतान मनुष्य को मजबूती से अपने नियंत्रण में रखने के लिए किसका उपयोग करता है? (प्रसिद्धि और लाभ का।) तो, शैतान मनुष्य के विचारों को नियंत्रित करने के लिए प्रसिद्धि और लाभ का तब तक उपयोग करता है, जब तक सभी लोग प्रसिद्धि और लाभ के बारे में ही नहीं सोचने लगते। वे प्रसिद्धि और लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए कष्ट उठाते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देते हैं, और प्रसिद्धि और लाभ के लिए कोई भी फैसला या निर्णय ले लेते हैं। इस तरह शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनमें उन्हें उतार फेंकने का न तो सामर्थ्य होता है, न साहस। वे अनजाने ही ये बेड़ियाँ ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पैर घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ के लिए मानवजाति परमेश्वर से दूर हो जाती है, उसके साथ विश्वासघात करती है और अधिकाधिक दुष्ट होती जाती है। इसलिए, इस प्रकार एक के बाद एक पीढ़ी शैतान की प्रसिद्धि और लाभ के बीच नष्ट होती जाती है। अब, शैतान की करतूतें देखते हुए, क्या उसके भयानक इरादे एकदम घिनौने नहीं हैं? हो सकता है, आज शायद तुम लोग शैतान के भयानक इरादों की असलियत न देख पाओ, क्योंकि तुम लोगों को लगता है कि व्यक्ति प्रसिद्धि और लाभ के बिना नहीं जी सकता। तुम लोगों को लगता है कि अगर लोग प्रसिद्धि और लाभ पीछे छोड़ देंगे, तो वे आगे का मार्ग नहीं देख पाएँगे, अपना लक्ष्य देखने में समर्थ नहीं हो पाएँगे, उनका भविष्य अंधकारमय, धुँधला और विषादपूर्ण हो जाएगा। परंतु, धीरे-धीरे तुम लोग समझ जाओगे कि प्रसिद्धि और लाभ वे विकट बेड़ियाँ हैं, जिनका उपयोग शैतान मनुष्य को बाँधने के लिए करता है। जब वह दिन आएगा, तुम पूरी तरह से शैतान के नियंत्रण का विरोध करोगे और उन बेड़ियों का विरोध करोगे, जिनका उपयोग शैतान तुम्हें बाँधने के लिए करता है। जब वह समय आएगा कि तुम वे सभी चीजें निकाल फेंकना चाहोगे, जिन्हें शैतान ने तुम्हारे भीतर डाला है, तब तुम शैतान से अपने आपको पूरी तरह से अलग कर लोगे और उस सबसे सच में घृणा करोगे, जो शैतान तुम्हारे लिए लाया है। तभी मानवजाति को परमेश्वर के प्रति सच्चा प्रेम और तड़प होगी” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों पर सोच-विचार करने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि शैतान द्वारा की गई हानि के कारण मैंने सामान्य कार्य सँभालने को साधारण, इज्जत कम करने और मेरी छवि को नुकसान पहुंचाने वाला काम माना, और मैं आज्ञापालन नहीं कर पाया। शैतान लोगों के दिलों को काबू में करने के लिए शोहरत और लाभ का इस्तेमाल करता है, लोगों से शोहरत और लाभ के लिए संघर्ष और सब-कछ का त्याग करवाता है। मैं अनजाने ही शैतान द्वारा धोखा खा गया था और भ्रष्ट कर दिया गया था। मैंने याद किया कि कैसे मेरे माता-पिता ने बचपन में मुझे दूसरों का आदर और सराहना पाना सिखाया था। इसलिए, छोटी उम्र से ही मैं मानता था कि मुझे दूसरों से ऊंचा उठकर विशिष्ट बनना चाहिए। इसके अलावा, समाज और मीडिया भी इस नजरिए को बढ़ावा देते हैं, मैंने देखा कि कैसे कुछ प्रसिद्ध और ऊंचे रुतबे वाले लोगों से औसत लोगों के मुकाबले बेहतर बर्ताव किया जाता है, इसलिए मैंने आगे बढ़ने और सभी की सराहना हासिल करने की ठान ली। परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने के बाद भी, मैं इन्हीं नजरियों के अनुसार जी रहा था, और गलत ढंग से यह मानता था कि सुसमाचार-कार्य महत्वपूर्ण है जो दूसरों की सराहना और आदर दिला सकता है, जबकि रोजमर्रा के काम सँभालने वालों का कोई आदर नहीं करता। मैं कर्तव्यों को बेहतर या बदतर समझता था, चाहता था कि कोई ऐसा कर्तव्य करूँ जिसमें मैं अलग दिखूँ। जब मेरे अगुआ ने हमारे काम की जरूरतों के अनुसार मुझे सामान्य कार्य सँभालने को कहा, तो मैंने बस अपनी इज्जत और रुतबे की सोची, और दिल की गहराई से इसे न तो स्वीकार सका, न ही मान सका। मैंने परमेश्वर की इच्छा बिल्कुल नहीं खोजी, न ही कलीसिया के कार्य की जरूरतों पर विचार किया। मैं बहुत स्वार्थी और घिनौना था! तब मैंने जाना कि सुसमाचार का प्रचार करते रहने की चाह दरअसल परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना नहीं था। मैं बस उस कर्तव्य के सहारे सब लोगों की सराहना पाना चाहता था। मैं अपने कर्तव्य का केवल दिखावे और लोगों का आदर पाने के लिए इस्तेमाल करना चाहता था, ताकि मैं शोहरत और लाभ पा सकूँ। अगुआ ने जब मेरे लिए सामान्य कार्य संभालने की व्यवस्था की, तो अत्यधिक सम्मानित व्यक्ति बनने की मेरी महत्वाकांक्षा ध्वस्त हो गई, इसलिए मैं निष्क्रियता से पीछे हट गया और कर्तव्य निभाने की प्रेरणा खो दी। मैंने सोचा कि कुछ भाई-बहनों का सांसारिक प्रतिष्ठा और रुतबा था लेकिन वे उन्हें छोड़ने में सक्षम हो गए, और कलीसिया उनके लिए चाहे किसी भी कर्तव्य की व्यवस्था करे, उनका कर्तव्य मामूली हो या न हो, वे फिर भी स्वीकार कर पालन कर पाए। उनसे तुलना करने पर मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी, न ही उसके प्रति आज्ञाकारिता थी। अब मुझे एहसास हुआ कि शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागना कितना बेतुका था। अगर मैं ऐसा ही करता रहा, तो सत्य को कभी समझ या प्राप्त नहीं कर पाऊंगा, और देर-सवेर, मुझे निकाल दिया जाएगा। इसके बाद, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “अगर तुम अपने उपलब्ध समय के दौरान जो कुछ भी सोचते हो, उसका संबंध इस बात से है कि अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कैसे किया जाए, सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए, और सत्य सिद्धांत कैसे समझे जाएँ, तो तुम अपनी समस्याएँ परमेश्वर के वचनों के अनुसार हल करने के लिए सत्य का उपयोग करना सीख जाओगे। इस प्रकार तुम स्वतंत्र रूप से जीने की क्षमता प्राप्त कर लोगे, तुम जीवन प्रवेश कर चुके होगे, और परमेश्वर का अनुसरण करने में तुम्हें किसी बड़ी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ेगा, और धीरे-धीरे, तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। यदि, अपने मन में, तुम अभी भी प्रतिष्ठा और रुतबे पर नजरें गड़ाए हो, अभी भी दिखावा करने और दूसरों से अपनी प्रशंसा करवाने में जुटे हो, तो तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, और तुम गलत रास्ते पर चल रहे हो। तुम जिसका अनुसरण करते हो, वह सत्य नहीं है, न ही यह जीवन है, बल्कि वो चीजें हैं जिनसे तुम प्रेम करते हो, वह प्रतिष्ठा, लाभ और रुतबा है—ऐसे में, तुम जो कुछ भी करोगे उसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, यह सब कुकर्म और सेवा करना है। अगर अपने दिल में तुम सत्य से प्रेम करते हो, हमेशा सत्य के लिए प्रयास करते हो, अगर तुम स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश करते हो, परमेश्वर के प्रति सच्ची आज्ञाकारिता प्राप्त करने में सक्षम हो, और परमेश्वर का भय मान सकते हो और बुराई से दूर रह सकते हो, और अगर तुम अपने हर काम में खुद पर संयम रखते हो, और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकारने में सक्षम हो, तो तुम्हारी दशा बेहतर होती जाएगी, और तुम ऐसे व्यक्ति होगे जो परमेश्वर के सामने रहता है। ... जो सभी चीजों में सत्य खोजना पसंद करते हैं, वे आत्मचिंतन कर खुद को जानने का प्रयास करते हैं, वे सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और उनके दिलों में हमेशा परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता और परमेश्वर का भय रहता है। अगर उनके मन में परमेश्वर के बारे में कोई धारणा या गलतफहमी पैदा होती है, तो वे तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और उसका समाधान करने के लिए सत्य की तलाश करते हैं। वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, ताकि परमेश्वर की इच्छा पूरी हो; वे सत्य की दिशा में प्रयत्नशील रहते हैं और परमेश्वर के ज्ञान का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखते हैं और सभी कुकर्मों से दूर रहते हैं। ये ऐसे लोग हैं जो हमेशा परमेश्वर के समक्ष रहते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अच्छे व्यवहार का यह मतलब नहीं कि व्यक्ति का स्वभाव बदल गया है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि अगर मैं परमेश्वर में विश्वास करने के सही मार्ग पर आना, सत्य का अनुसरण करना और अपने स्वभाव को बदलना चाहता था, तो मुझे अनुसरण के अपने गलत नजरिए को बदलना होगा। चाहे मैं अपने कर्तव्य में दिखावा कर सकूँ या नहीं, दूसरों की सराहाना पा सकूँ या नहीं, मुझे अपना कर्तव्य स्वीकार कर उसे वफादारी से निभाना चाहिए। कर्तव्य के प्रति मेरा यही रवैया होना चाहिए और सृजित प्राणियों में ऐसी ही समझ होनी चाहिए। अगर मैंने बिना सत्य का अनुसरण किए कर्तव्य निभाया और परमेश्वर की आज्ञा न मान पाया, अगर मैंने सिर्फ शोहरत और रुतबा पाने और भाई-बहनों से सम्मान पाने के लिए इसे किया, तो इसका अर्थ है कि मैं परमेश्वर के विरोध के मार्ग पर चल रहा हूँ। अगर मैंने अपने तौर-तरीकों को नहीं बदला, तो आखिर में मुझे सिर्फ ठुकराया और निकाला जा सकता है। परमेश्वर में विश्वास करने, और अपना कर्तव्य निभाने के लिए जरूरी है कि मैं अपने इरादे स्पष्ट रखूँ, सत्य खोजने और उसका अभ्यास करने पर ध्यान लगाऊँ, अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को त्याग दूँ, चीजों को परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप करूँ। केवल तब ही मैं परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी बनूँगा और केवल इस ढंग से ही अपने भ्रष्ट स्वभाव में बदलाव ला सकूँगा। यह समझ लेने के बाद मुझे एक दिशा मिल गई, और मैं गहराई से अपना कर्तव्य स्वीकारने को तैयार हो गया। लोग मुझे आदर से देखें या न देखें, मुझे अपना कर्तव्य भरसक अच्छे ढंग से निभाना होगा।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “तुम्हारा आज परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य को पूरा कर पाना, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक, और चाहे वह बाहरी मुद्दों को संभालना हो या आंतरिक कार्य को, किसी का भी अपना कर्तव्य निभाना संयोग नहीं है। यह तुम्हारी पसंद कैसे हो सकती है? यह सब परमेश्वर द्वारा किया गया है। यह सिर्फ परमेश्वर द्वारा तुम्हें आदेश सौंपे जाने के कारण ही है कि तुम इस तरह प्रेरित हुए हो, तुम्हारे पास मिशन और जिम्मेदारी का एहसास है और तुम इस कर्तव्य को पूरा कर सकते हो। अविश्वासियों में ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके पास अच्छी शक्ल, ज्ञान या प्रतिभा है लेकिन क्या परमेश्वर उन पर कृपा करता है? नहीं, वह नहीं करता। परमेश्वर ने उन्हें नहीं चुना और वह सिर्फ तुम लोगों पर उपकार करता है। उसने अपने प्रबंधन कार्य में तुम सभी को हर प्रकार की भूमिका निभाने, सभी प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करने और विभिन्न प्रकार की जिम्मेदारियाँ उठाने का बीड़ा दिया है। जब परमेश्वर की प्रबंधन योजना आखिरकार खत्म हो जाएगी और पूरी कर ली जाएगी तो यह कितनी महिमा और सौभाग्य की बात होगी! तो फिर जब लोग आज अपना कर्तव्य पूरा करते समय थोड़ी कठिनाई सहते हैं; जब उन्हें कुछ चीजें छोड़नी पड़ती हैं, खुद को थोड़ा खपाना पड़ता है और कुछ कीमत चुकानी पड़ती है; जब वे दुनिया में अपनी हैसियत, शोहरत और धन-दौलत खो देते हैं और जब ये सभी चीजें खत्म हो जाती हैं तो ऐसा लगता है जैसे यह सब परमेश्वर ने उनसे छीन लिया है लेकिन उन्होंने कुछ अधिक कीमती और अधिक मूल्यवान चीज हासिल कर ली होती है। लोगों ने परमेश्वर से क्या हासिल किया है? उन्होंने अपने कर्तव्य को पूरा करके सत्य और जीवन हासिल किया है। सिर्फ जब तुमने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया है, तुमने परमेश्वर का आदेश पूरा कर लिया है, तुम अपना पूरा जीवन अपने मिशन और उस आदेश के लिए जीते हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है, तो तुम्हारे पास एक सुंदर गवाही है और तुम ऐसा जीवन जीते हो जिसका कोई मूल्य है—सिर्फ तभी तुम एक असली इंसान कहला सकते हो! और मैं यह क्यों कहता हूँ कि तुम एक असली इंसान हो? क्योंकि परमेश्वर ने तुम्हें चुना है और तुमसे अपने प्रबंधन के अंतर्गत एक सृजित प्राणी होने के नाते अपना कर्तव्य पूरा करवाया है। यह तुम्हारे जीवन का सबसे बड़ा मूल्य और सबसे बड़ा मतलब है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “यदि तुम परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने के लिए सभी चीजों में अपनी सारी निष्ठा देना चाहते हो, तो तुम इसे केवल एक कर्तव्य निभाकर नहीं कर सकते हो; तुम्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए हर आदेश को स्वीकार करना चाहिए। चाहे वह तुम्हारी पसंद के अनुसार हो और तुम्हारी रुचियों से मेल खाता हो, या कुछ ऐसा हो जो तुम्हें पसंद नहीं है, पहले कभी नहीं किया हो, या कठिन हो, फिर भी तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए और उसका पालन करना चाहिए। तुम्हें न केवल इसे स्वीकार करना चाहिए, बल्कि तुम्हें सक्रिय रूप से सहयोग भी करना चाहिए, और अनुभव और प्रवेश करते समय इसके बारे में सीखना चाहिए। भले ही तुम्हें कष्ट झेलना पड़े, भले ही तुम थके-माँदे हो, अपमानित हो, या बहिष्कृत कर दिए गए हो, फिर भी तुम्हें अपनी पूरी निष्ठा लगा देनी चाहिए। केवल इस तरह से अभ्यास करके ही तुम सभी चीजों में अपनी पूरी निष्ठा दे पाओगे और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर पाओगे। तुम्हें इसे अपना व्यक्तिगत कामकाज नहीं, बल्कि कर्तव्य मानना चाहिए जिसे पूरा करना ही है। लोगों को कर्तव्यों को कैसे समझना चाहिए? उन्हें इसे सृष्टिकर्ता—परमेश्वर—द्वारा किसी व्यक्ति को करने के लिए दी गई चीज समझना चाहिए; लोगों के कर्तव्य ऐसे ही आरंभ होते हैं। परमेश्वर जो आदेश तुम्हें देता है, वह तुम्हारा कर्तव्य होता है, और यह पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है कि तुम परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपना कर्तव्य निभाओ। अगर तुम्हें यह स्पष्ट है कि यह कर्तव्य परमेश्वर का आदेश है, कि यह तुम पर परमेश्वर के प्रेम और आशीष की वर्षा है, तो तुम परमेश्वर में रमे हृदय के साथ अपना कर्तव्य स्वीकार कर सकोगे, और तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखोगे, और तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सभी मुश्किलों से उबरने में सफल रहोगे। जो लोग खुद को सचमुच परमेश्वर के लिए खपाते हैं, वे परमेश्वर के आदेश को कभी नहीं ठुकराते, वे कभी कोई कर्तव्य नहीं ठुकरा सकते। परमेश्वर तुम्हें चाहे जो भी कर्तव्य सौंपे, उसमें चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न हों, तुम्हें मना करने के बजाय उसे स्वीकार करना चाहिए। यह अभ्यास का रास्ता है, जिसका अर्थ है परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करना और सभी चीजों में अपनी निष्ठा देना। यहाँ केन्द्र बिन्दु कहाँ है? यह ‘सभी चीजों में’ है। ‘सभी चीजों’ का मतलब वे चीजें नहीं हैं जिन्हें तुम पसंद करते हो या जिन कामों में तुम अच्छे हो, वे वह चीजें तो बिल्कुल भी नहीं हैं जिनसे तुम वाकिफ हो। कभी-कभी वे ऐसी चीजें होंगी जिनमें तुम कुशल नहीं हो, ऐसी चीजें होंगी जिन्हें तुम्हें सीखने की जरूरत है, ऐसी चीजें जो कठिन हैं, या ऐसी चीजें होंगी जिनमें तुम्हें कष्ट सहना होगा। हालाँकि, चाहे यह कुछ भी हो, जब तक परमेश्वर ने तुम्हें यह सौंपा है, तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए, और इसे स्वीकारने के बाद, तुम्हें पूरी निष्ठा के साथ अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करना चाहिए। यही अभ्यास का मार्ग है। चाहे जो हो जाए, तुम्हें हमेशा सत्य की खोज करनी चाहिए, और एक बार जब तुम निश्चित हो जाते हो कि किस प्रकार का अभ्यास परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो तुम्हें इसी प्रकार अभ्यास करना चाहिए। केवल ऐसा करके ही तुम सत्य का अभ्यास कर रहे होते हो, और केवल इसी तरह से तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि किसी को कोई भी कर्तव्य संयोग से नहीं मिलता। वह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था से मिलता है। मैं अपनी पसंद पर नहीं चल सकता था, मुझे आज्ञापालन करना था और अपना कर्तव्य अपने पूरे दिल और ताकत से अच्छी तरह करना था। इस तरह से जीवन जीना ही सार्थक है, व्यर्थ नहीं है। पहले मैं शोहरत और लाभ से सम्मोहित था, परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं समझता था, इसलिए कर्तव्य के प्रति सही से पेश न आ सका, और मैं कर्तव्यों को बेहतर या बदतर के रूप में देखता था। अब मैं समझता हूँ कि कोई भी कर्तव्य एक-दूसरे से ऊपर या नीचे नहीं होता, हम बस अलग-अलग काम करते हैं। चाहे यह सुसमाचार का प्रचार करना हो या सामान्य कार्य सँभालना, मुझे उसे स्वीकारना चाहिए। परमेश्वर चाहता है हम उसके घर में चाहे जो भी कर्तव्य करें, हमें उसमें सत्य का अनुसरण करना चाहिए और जीवन प्रवेश पर जोर देना चाहिए। अगर मैं सराहना, लाभ, प्रतिष्ठा और रुतबा पाने के लिए अपना कर्तव्य करूँ, तो मैं एक सृजित प्राणी का कर्तव्य नहीं निभाऊंगा, मैं अपने फायदे के लिए चालें चलूँगा। मैं परमेश्वर के प्रति विद्रोह और उसका विरोध करूँगा। अगर ऐसा हुआ तो, भले ही लोग मेरी सराहना करें, परमेश्वर इसे स्वीकृति नहीं देगा, फिर इसे करने का क्या फायदा? हालांकि सामान्य कार्य सँभालना मुझे महत्वपूर्ण नहीं लगा, पर इस माहौल ने मुझे आत्मचिंतन करने और खुद को जानने, सत्य का अनुसरण करने, सबक सीखने और अंततः प्रतिष्ठा और रुतबे की आकांक्षा छोड़ने और आज्ञापालन सीखने दिया। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार था। वास्तव में, कलीसिया के सामान्य कार्य सँभालने पर ऐसी कई बातों से मेरा सामना हुआ, जहाँ मुझे कलीसिया के हितों पर विचार करने की जरूरत थी, जिस दौरान मुझे सत्य खोजने और सिद्धांतों के अनुसार काम करने की जरूरत थी। क्या यह मेरे लिए सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य निभाने बहुत अच्छा मौका नहीं था? इसका एहसास हो जाने पर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं अब और तुम्हारे विरुद्ध विद्रोह नहीं करना चाहता। मैं तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहता हूँ, तुम्हारा निरीक्षण स्वीकार करना चाहता हूँ, और तुम्हें दिल से प्रेम करते हुए अपने कर्तव्य करना चाहता हूँ।” प्रार्थना करने के बाद, मुझे सुकून महसूस हुआ, मुझमें अपना कर्तव्य उचित ढंग से करने का आत्मविश्वास जागा।
एक बार, मैं एक कार्य पूरा करने के लिए भाई-बहनों के साथ काम कर रहा था। मैंने उन्हें ईमानदारी से अपने कर्तव्यों की प्रत्येक बारीकी का विचार और निरीक्षण करते हुए बड़ी सावधानी से अपने काम करते देखा, ताकि कलीसिया के हितों का नुकसान न हो। मैंने उस वक्त की बात सोची, जब मैंने अपने कर्तव्य के प्रति कार्य ग्रहण करने के समय से ही गलत रवैया अपनाया था। मैं बस वही करता, जो मेरा अगुआ तय करता था, और अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से करने पर कभी विचार न करता। इस तरह अपने कर्तव्य निभाकर मैंने परमेश्वर को दुखी किया और उसे मुझसे घृणा करने को मजबूर किया। बाद में, मैंने इसकी फिक्र नहीं की कि दूसरे मुझे आदर से देखते हैं या नहीं। इसके बजाय, मैंने कलीसिया के हितों के बारे में गंभीरता से सोचा, और मैं अपने कामों में भी सावधान और सतर्क रहता। इस तरह से अपने कर्तव्य करने से, मुझे सुकून मिला, अब मुझे थकावट महसूस नहीं होती थी। अपने अनुभव से मैंने बहुत हासिल किया, मैं समझ सका कि परमेश्वर ने मुझे अच्छा न लगने वाला कर्तव्य इसलिए दिया था ताकि मैं आत्मचिंतन कर समझूँ कि मेरा प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना गलत है, यह मुझे प्रतिष्ठा और रुतबे के बंधनों और बेड़ियों से बचाने के लिए था। वह मुझे सत्य का अनुसरण करने की राह पर ले जा रहा था। ये सब मेरे प्रति परमेश्वर का प्रेम था। परमेश्वर के नेक इरादों को समझा और देखा कि मुझ पर चाहे जो भी विपत्ति आए, भले ही यह कोई ऐसी चीज या कोई ऐसा कर्तव्य हो जो मेरी धारणाओं के अनुकूल न हो, यह मेरे जीवन के लिए लाभकारी है। मैं अब परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकता। मुझे परमेश्वर का आज्ञाकारी बनना था और अपने कर्तव्य जिम्मेदारी से निभाने थे।
इसके बाद जल्दी ही वह भाई, जो सामान्य कार्यों का प्रभारी था, लौट आया। अगुआ ने मेरे लिए उस भाई के साथ कार्य करने और सामान्य कार्य संभालते रहने की व्यवस्था कर दी। यह समाचार पाकर, मैंने सोचा, “इस बार, मैं अपनी पसंद के अनुसार अपने कर्तव्यों से पेश नहीं आऊँगा। मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार कर उनका पालन करना होगा।” मुझे पता था कि यह परमेश्वर ने मुझ पर अनुग्रह दिखाकर मुझे खुद को प्रशिक्षित करने और अपने वचनों में प्रवेश करने का एक और मौका दिया है। अपने पिछले अनुभव के कारण अपने कर्तव्य में मेरे मन में कोई नकारात्मक विचार नहीं थे, मैं अब अपने कर्तव्य को नीची नजर से नहीं देखता था, न ही दूसरों से सराहना न पाने के कारण उदास था। मैंने अपना कर्तव्य व्यावहारिक ढंग से करते हुए परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने की कोशिश की। मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “अपने कर्तव्य को निभाने वाले सभी लोगों के लिए, फिर चाहे सत्य को लेकर उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, और अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं, व्यक्तिगत मंशाओं, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियतकी स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे दो चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौते कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना इतना भी मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा, तुम्हेंअपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्यों को दूर रखना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगेकि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्ट व्यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगेकि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को तुष्ट करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल में उजाला कर दिया। जब हम अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो हमें परमेश्वर के निरीक्षण को स्वीकार करना चाहिए, अपनी आकांक्षाओं, इरादों और अभिप्रेरणाओं को छोड़ना चाहिए। अपना सच्चा दिल अर्पित करना चाहिए, कलीसिया के लाभ के लिए काम करने चाहिए, जो भी काम हमसे अपेक्षित है उसे यथासंभव अच्छे ढंग से करना चाहिए। केवल इसी प्रकार हम सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा सकते हैं, ईमानदारी से जी सकते हैं, और वह मानवता और विवेक रख सकते हैं, जो लोगों में होने चाहिए। जब मैंने इस तरह अभ्यास किया, तो मैंने मन की शांति और सुकून महसूस किया।
अब मैं अपने कर्तव्य में बहुत खुश हूँ, मैंने काफी कुछ हासिल किया है। मैं जानता हूँ कि तथ्यों और परमेश्वर के वचनों के न्याय से उजागर हुए बिना, मैं अपनी भ्रष्टता को नहीं पहचान पाता, न ही मैं सत्य का अनुसरण करने का महत्त्व जान पाता। इस अनुभव के बाद, मुझे यह भी एहसास हुआ कि यह व्यवस्था परमेश्वर करता है कि मैं कौन-सा कर्तव्य करूँगा, और यह जीवन प्रवेश को लेकर मेरी जरूरतों पर आधारित है, इसलिए मुझे स्वीकार कर इसका पालन करना चाहिए, सत्य का अनुसरण करना चाहिए, पूरा दिल और दिमाग लगाकर अपने कर्तव्य निभाने चाहिए, एक ऐसा इंसान बनना चाहिए, जो सच में परमेश्वर का आज्ञाकारी है और उसकी स्वीकृति प्राप्त करता है।
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