सत्य के साथ चलो, भावनाओं के साथ नहीं
जुलाई 2017 में एक दिन मुझे एक अगुआ का पत्र मिला कि कलीसिया गैर-विश्वासियों को हटा रही है, और मुझे मेरे भाई के बर्ताव के बारे में लिखना था। मैं हैरान रह गई, थोड़ी घबराहट भी हुई। क्या वे मेरे भाई को निकाल देना चाहते हैं? वरना मुझे उसके बारे में लिखने क्यों कहते? वो परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ता था, खाली वक्त में सभाओं में नहीं जाता था, हमेशा अपने दोस्तों के साथ मौज-मस्ती करता, बुरी चीज़ों के पीछे भागता था, आस्था की चीज़ों में उसकी कोई रुचि नहीं थी। वो तो मुझे भी धर्म पर ध्यान न देने और सांसारिक चीज़ों को अपनाने को कहता था। मैंने उसके साथ सहभागिता की, पर उसने मेरी बात नहीं सुनी और नाराज़ होकर कहा, "बहुत हो गया, तुम हमेशा यही बात करती हो, मुझे इससे मतलब नहीं!" फिर वो सोने चला गया। भाई-बहनों ने कई बार उसके साथ सहभागिता की, उसे परमेश्वर के वचन पढ़ने और सभाओं में जाने की सलाह दी, पर उसने इसे नहीं स्वीकारा। उसे परमेश्वर का अनुसरण और सभा के लिए समय निकाल बंधन जैसा लगता। वो बस अपनी माँ को खुश करने के लिए कलीसिया से जुड़ा था। वो हमेशा से ऐसा ही था। सचमुच एक गैर-विश्वासी लगता था, अगर उसे कलीसिया से निकाला गया, तो ये सिद्धांतों के अनुरूप होगा। पर हम हमेशा से करीब थे। जब हम छोटे थे, वो हमेशा मेरे लिये अच्छा खाना बचा कर रखता था, अगर कोई उसे कुछ पैसे देता, तो वो आधा मुझे दे देता। एक बार, टीचर ने मुझे स्कूल में रोक लिया, तो वह परेशान होकर रोने लगा। हमारे गाँव में कोई और भाई-बहन हमारे जितने करीब नहीं थे। ये सोचकर, मैं उसकी समस्याओं के बारे में नहीं लिख पाई। मैं वो रिश्ता नहीं तोड़ना चाहती थी। अगर मैंने उसके बर्ताव के बारे में ईमानदारी से बता दिया और वो निकाला गया, तो उसे उद्धार का मौका नहीं मिलेगा। क्या ये मेरी क्रूरता और बेरहमी नहीं होगी? अगर उसे पता चला मैंने उसके बारे में क्या लिखा है, तो क्या होगा? वो कभी मुझसे बात नहीं करेगा। मैंने कुछ सकारात्मक लिखने का फैसला किया, जैसे वो कभी-कभी परमेश्वर के वचन पढ़ता है, सभाओं में नहीं जाता पर परमेश्वर में विश्वास करता है। इससे उसे कुछ रियायत मिलेगी, ये सब देखकर शायद अगुआ उसके साथ और सहभागिता करे। उसे कलीसिया में बने रहने का मौका मिल जाये। पर, अगर मैं उसके बर्ताव को लेकर ईमानदार नहीं रही, तो ये झूठ बोलना और सच पर परदा डालना होगा। यह भाई-बहनों को गुमराह करेगा, कलीसिया का काम भी सामान्य रूप से नहीं चल पाएगा। एक तरफ कलीसिया का काम था, तो दूसरी तरफ मेरा भाई। आखिर मैं क्या करूँ? मैं बहुत परेशान थी, काम करते हुए खुद को शांत नहीं रख पाई। उसके बारे में लिखने को सोचती तो कुछ न सूझता, ये भी नहीं पता था कि शुरू कैसे करूँ। मैं जितना सोचती उतनी ही बेचैनी होती, तो मैंने मन-ही-मन प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं अपने भाई के मूल्यांकन में निष्पक्ष रहना चाहती हूँ, पर भावनाओं पर काबू नहीं कर पा रही, मैं ये नहीं कर सकती। मुझे राह दिखाओ ताकि मैं भावनाओं के दबाव में न आकर, तुम्हारे वचनों के अनुसार चलूँ।"
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का ये अंश पढ़ा : "जो अपने सर्वथा अविश्वासी बच्चों और रिश्तेदारों को कलीसिया में खींचकर लाते हैं, वे बेहद स्वार्थी हैं और सिर्फ़ अपनी दयालुता का प्रदर्शन कर रहे हैं। ये लोग इसकी परवाह किए बिना कि उनका विश्वास है भी या नहीं और यह परमेश्वर की इच्छा है या नहीं, केवल प्रेमपूर्ण बने रहने पर ध्यान देते हैं। कुछ लोग अपनी पत्नी को परमेश्वर के सामने लाते हैं या अपने माता-पिता को परमेश्वर के सामने खींचकर लाते हैं और इसकी परवाह किए बिना कि क्या पवित्र आत्मा सहमत है या उनमें कार्य कर रहा है, वे आँखें बंद कर परमेश्वर के लिए 'प्रतिभाशाली लोगों को अपनाते रहते हैं'। इन गैर-विश्वासियों के प्रति दयालुता दिखाने से आखिर क्या लाभ मिल सकता है? यहाँ तक कि अगर वे जिनमें पवित्र आत्मा उपस्थित नहीं है, परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए संघर्ष भी करते हैं, तब भी उन्हें बचाया नहीं जा सकता। जो लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं, उनके लिए वास्तव में इसे प्राप्त करना उतना आसान नहीं है। जो लोग पवित्र आत्मा के कार्य और परीक्षणों से नहीं गुज़रे हैं और देहधारी परमेश्वर के द्वारा पूर्ण नहीं बनाए गए हैं, वे पूर्ण बनाए जाने में सर्वथा असमर्थ हैं। इसलिए जिस क्षण से वे नाममात्र के लिए परमेश्वर का अनुसरण आरंभ करते हैं, उन लोगों में पवित्र आत्मा मौजूद नहीं होता। उनकी स्थिति और वास्तविक अवस्थाओं के प्रकाश में, उन्हें पूर्ण बनाया ही नहीं जा सकता। इसलिए, पवित्र आत्मा उन पर अधिक ऊर्जा व्यय न करने का निर्णय लेता है, न ही वह उन्हें किसी प्रकार का प्रबोधन प्रदान करता है, न उनका मार्गदर्शन करता है; वह उन्हें केवल साथ चलने की अनुमति देता है और अंततः उनके परिणाम प्रकट करेगा—यही पर्याप्त है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि अपने भाई को कलीसिया में बनाये रखने और उसे उद्धार का मौका देने के लिए, उसके बारे में अच्छी बातें करना मेरी अपनी अभिलाषा थी। परमेश्वर के वचन साफ तौर पर कहते हैं, परमेश्वर का अनुसरण न करने और नाममात्र के लिए विश्वास करने वाले बचाये नहीं जा सकते। परमेश्वर उन्हें बचाता है जो सत्य से प्रेम करते हैं। केवल ऐसा इंसान ही पवित्र आत्मा की मौजूदगी और कार्य हासिल करेगा, सत्य को समझेगा और उसे पाएगा, अपना जीवन स्वभाव बदलेगा, आखिर में परमेश्वर द्वारा बचाया जाएगा और बना रहेगा। गैर-विश्वासी सत्य से प्रेम नहीं—इससे नफरत करते हैं। वे कभी सत्य को नहीं स्वीकारते, वे चाहे कितने ही सालों तक विश्वास करें, उनकी सोच, जीवन के बारे में उनका नजरिया और मूल्य कभी नहीं बदलेंगे। वे अविश्वासियों जैसे ही हैं। परमेश्वर उन्हें नहीं स्वीकारता, उन्हें कभी पवित्र आत्मा का प्रबोधन या मार्गदर्शन नहीं मिलेगा। वे अंत तक अनुसरण कर सकते हैं, पर अपना स्वभाव कभी नहीं बदलेंगे—वे बचाये नहीं जा सकते। अपने भाई के बारे में सोचा तो समझ आया, वो सत्य से प्रेम नहीं बल्कि नफरत करता था। वो हमेशा अविश्वासियों के साथ पार्टियां करता, परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ता या सभाओं में नहीं जाता। ये सोचकर कि कुछ हासिल नहीं होगा, वो कोई काम नहीं करना चाहता था। शिकायत करता कि आस्था का जीवन उबाऊ होता है, विश्वास करना, न करना एक जैसा है। वो किसी की सहभागिता नहीं सुनता, बहुत अधिक सहभागिता से वो चिढ़ जाता। उसका बर्ताव नाममात्र के विश्वासी या गैर-विश्वासी के जैसा था, परमेश्वर उसे बिल्कुल नहीं स्वीकारेगा। उसने कभी पवित्र आत्मा का कार्य या सत्य की समझ हासिल नहीं की। उसे कलीसिया में बनाये रखने के लिए उसे कितना भी अच्छा दिखा दूँ, पर उसे कभी बचाया नहीं जाएगा। जब ये समझ गई थी कि वो गैर-विश्वासी है, परमेश्वर उसे नहीं बचाएगा, तब भावनाओं में बहकर, उसे कलीसिया में बनाये रखने के लिए उसकी रक्षा करना, क्या परमेश्वर के खिलाफ जाना नहीं होगा? अगर मैं निष्पक्ष नहीं रही, तथ्यों के आधार पर मूल्यांकन न लिखकर, दूसरों को गुमराह किया, जिसके कारण जिसे हटाया जाना चाहिए, उसे समय पर हटाया नहीं गया। तो क्या ये कलीसिया के काम में रुकावट डालना नहीं होगा? मैं जानती थी मुझे भावनाओं को त्यागकर सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, अपने भाई के बारे में सच-सच लिखना होगा, यही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। उसके बर्ताव के बारे में लिखने के बाद मुझे थोड़ी राहत मिली, आखिर कलीसिया ने उसे हटा दिया। इस नतीजे को मैंने शांति से स्वीकार किया। परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और मार्गदर्शन से, मैंने भावनाओं में बहकर अपने भाई की रक्षा नहीं की, बल्कि निष्पक्ष रहकर सही तरीके से उसका मूल्यांकन कर पाई। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी।
फिर जुलाई 2021 में, एक कलीसिया अगुआ ने मेरी माँ को मूल्यांकन लिखने को कहा। मैं सोचने लगी, हाल ही में सिद्धांत के अनुसार सुसमाचार साझा न करके उन्होंने कलीसिया को खतरे में डाल दिया था। जब दूसरे उनकी समस्या पर ध्यान दिलाते, तो वे उसे नहीं स्वीकारती थीं। वे लगातार सही-गलत को लेकर बहस करतीं, जिससे सभी को बेबसी होती। उन्होंने बस एक-दो बार ही ऐसी समस्या खड़ी नहीं की थी। एक बार सभा में, एक अगुआ ने उनके बजाय दूसरी बहन को परमेश्वर के वचन पढ़ने को कहा। वे कहने लगीं कि अगुआ उन्हें दबा रही है, वो एक झूठी अगुआ है। एक बहन ने देखा कि वे सभा में बखेड़ा खड़ा कर रही हैं, उसने उन्हें अपनी आवाज़ धीमी रखने और माहौल का ध्यान रखने को कहा। मेरी माँ ने उस बहन पर बहस करने का इल्जाम लगाया कहा कि अगर उसने फिर से ऐसा किया, तो वे वापस नहीं लौटेंगी। वे किसी भी मामूली बात को लेकर झगड़ती रहती थीं, सभाओं में समस्या खड़ी कर देती थीं। वो पहले ही कलीसियाई जीवन को बिगाड़ने वाली बन चुकी थीं। दूसरों ने कई बार सहभागिता करके उनकी काट-छाँट की थी, इस उम्मीद में कि वे खुद को समझकर पश्चाताप करेंगी, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया, बल्कि तथ्यों को तोड़-मरोड़ दिया। कहा कि उनकी छोटी सी गलती पर सब झपट पड़ते हैं। उन्होंने सत्य को नहीं स्वीकारा। सिद्धांत के अनुसार उन्हें सभाओं के लिए ग्रुप बी में रखा जाना चाहिए, ताकि वे ज़्यादा रुकावटें पैदा कर, भाई-बहनों के कलीसियाई जीवन पर असर न डाल पाएँ। मैं जानती थी मुझे जल्द से जल्द कलीसिया के लिए उनका मूल्यांकन लिखना चाहिए। मैंने सोचा कि उन्हें दूसरों की राय की कितनी परवाह है, सत्य स्वीकार करने की उनकी अनिच्छा, उनका ज़बरदस्त गुस्सा। वे अक्सर उलझती रहती थीं, आलोचना करने वाले की उपेक्षा करती थीं। अगर उन्हें पता चला उनके बारे में मैंने लिखा है, तो क्या वे इसे स्वीकार पाएंगी? उनके परिवार ने ही उनके बारे में ऐसा कहा है, ये जानकर क्या उनका अपमान नहीं होगा? शायद वे निराश होकर अपनी आस्था ही त्याग दें। मैं बहुत परेशान हो गई, सोचने लगी उन्होंने मुझसे कितना प्रेम किया, मेरी कितनी परवाह की। एक बार, जब मैं छोटी थी, मुझे आधी रात को तेज बुखार हो गया, तो वे मुझे अपनी पीठ पर लेकर दूसरे गाँव के डॉक्टर के पास गईं। बुखार इतना तेज था कि डॉक्टर भी मेरा इलाज नहीं करना चाहता था, उसी रात वे मुझे शहर के अस्पताल लेकर गईं। जीवन में सब कुछ व्यवस्थित करने में हमेशा मेरी मदद की, हर बारीकी का ध्यान रखा। उन्होंने मुझे जन्म दिया, पाला-पोसा, सुसमाचार सुनाकर मुझे परमेश्वर के पास लाई। वे मेरे काम में भी सहयोगी बनी रहीं। वे मेरे लिए इतनी अच्छी थीं। उनके बुरे कर्मों और गैर-विश्वासी व्यवहार का खुलासा किया, तो क्या ये ज़मीर का न होना नहीं, इससे उन्हें नुकसान नहीं पहुंचेगा? अगर दूसरों को पता चला कि मैंने ही अपनी माँ का ऐसा मूल्यांकन लिखा है, कलीसियाई जीवन में उनके द्वारा डाली बाधा उजागर की है, तो अपनी माँ के प्रति इतना बेरहम होने पर शायद वे मेरी आलोचना करें, मुझे निष्ठुर, कृतघ्न और बदमाश कहें। मैं जानती थी मेरी माँ सत्य नहीं स्वीकारती, पर वो मेरी बहुत परवाह करती थीं, आखिर वो मेरी ही माँ थीं। मैं माँ के बारे में ऐसा मूल्यांकन लिखने से बचना चाहती थी। अगुआ मुझ पर दबाव बनाती रहीं, पर मैं लिख दूँगी ये कहकर, बात को टाल देती। पहले, हम विश्वासियों का परिवार थे, ये खुशनुमा एहसास था। हम मिलकर भजन गाते, प्रार्थना करते, परमेश्वर के वचन पढ़ते, अपनी भावनाएं बताते। कभी-कभी वो यादें मेरे जेहन में आतीं। लेकिन मेरे भाई को हटा दिया गया, फिर मेरी माँ को भी हटाकर ग्रुप बी में डालने की बात हो रही थी। मैं बहुत दुखी थी, मुझे नहीं पता था इन हालात से कैसे निबटा जाये। मुझमें अनुसरण करने की आस्था नहीं थी, अपना काम करने की इच्छा नहीं बची थी। दूसरों की समस्याएं हल करने के लिए सत्य खोजने की जिम्मेदारी महसूस नहीं हुई। बेमन से सभाओं में जाती, दिमाग कहीं और लगा होता था, सहभागिता भी नहीं कर पाती। हर दिन इसी तरह लापरवाही से काम करती, मैं बहुत तकलीफ में थी। मैं जानती थी मेरी हालत ठीक नहीं है, मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, इस नकारात्मकता से निकलने की राह दिखाने को कहा, ताकि मैं अपनी भावनाओं में न फँसूँ।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : "भावनाओं से संबंधित कौन-से मुद्दे हैं? एक तो यह है कि तुम अपने परिवार का मूल्यांकन कैसे करते हो, तुम उनके द्वारा किए जाने वाले कामों पर कैसी प्रतिक्रिया देते हो। 'उनके द्वारा किए जाने वाले कामों' में शामिल हैं उनका कलीसिया के काम को अस्त-व्यस्त और बाधित करना, लोगों की पीठ पीछे उनकी आलोचना करना, अविश्वासियों वाले काम करना, इत्यादि। क्या तुम अपने परिवार के प्रति निष्पक्ष हो सकते हो? अगर तुम्हें लिखित रूप में उनका मूल्यांकन करने के लिए कहा जाए, तो क्या तुम अपनी भावनाओं को एक तरफ रखकर निष्पक्ष और तटस्थ रूप से ऐसा करोगे? और क्या तुम उन लोगों के प्रति भावुक हो, जिनके साथ तुम उठते-बैठते हो या जिन्होंने पहले कभी तुम्हारी मदद की है? क्या तुम उनके कार्यों और व्यवहार के प्रति सटीक, निष्पक्ष और तटस्थ होगे? क्या तुम उन्हें हस्तक्षेप और घुसपैठ करते पाकर तुरंत उनकी रिपोर्ट करोगे या उन्हें उजागर करोगे?" (नकली अगुआओं की पहचान करना (2))। "उदाहरण के लिए, अगर तुम्हारे रिश्तेदार या माता-पिता परमेश्वर में विश्वास करते थे, लेकिन अब उन्हें हटा दिया गया है, तो तुम उन्हें पहचान पाओगे और तुम्हें कोई शिकायत नहीं होगी, और तुम पारिवारिक रिश्ते अलग कर सकते हो और यह आकलन करने के लिए कि वे वास्तव में कौन हैं, उस सत्य का उपयोग कर सकते हो, जिसे तुम अब समझते हो। अगर तुम कुछ सत्य समझते हो, तो तुम उनका सटीक चरित्र-चित्रण करने में सक्षम होगे। यह तुम लोगों के रक्त-संबंध तोड़ने के लिए नहीं है, बल्कि यह निर्धारित करने के लिए है कि वे किस तरह के और किस किस्म के लोग हैं। अगर तुम्हारा दृष्टिकोण सही और सत्य के अनुरूप है, तो तुम परमेश्वर के पक्ष में खड़े हो सकोगे, और चीजों पर तुम्हारे विचार परमेश्वर के अनुरूप होंगे। अगर तुम्हारे विचार दैहिक हैं, तो तुम इन चीजों को हमेशा पारिवारिक स्नेह के दृष्टिकोण से देखोगे, और ये लोग हमेशा तुम्हारे रिश्तेदार रहेंगे। अगर तुम खुद को इस रिश्ते से मुक्त नहीं कर सकते, तो अपने रिश्तेदारों के बारे में तुम्हारा दृष्टिकोण परमेश्वर के वचनों के विरोध में होगा, यह उनका खंडन करने की हद तक जा सकता है। उस हालत में तुम परमेश्वर के पक्ष में खड़े नहीं हो पाओगे, और तुम में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ होंगी। इसलिए, तुम्हारे विचार कैसे भी हों, अगर वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं, तो वे परमेश्वर के विचारों के विरोध में हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'पौलुस के प्रकृति-स्वभाव को कैसे पहचाना जाए')। परमेश्वर के वचनों से पता चला, हम सांसारिक और भावनात्मक सोच से चीज़ों या लोगों को नहीं देख सकते। हमें परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार साफ तौर पर उनकी प्रकृति और सार को पहचानना होगा। ऐसा नज़रिया रखने पर, हम स्नेह के बंधनों में नहीं बंधेंगे। मैं हमेशा चीज़ों को भावनाओं के तराजू में तोलती थी, सोचती थी आखिर वो मेरी माँ हैं, वो मुझसे प्रेम करती हैं, मेरी परवाह करती हैं, तो मैं मूल्यांकन लिखने के लिए कलम नहीं उठा पाई। परमेश्वर कहता है हमें लोगों की प्रकृति और सार के आधार पर उन्हें पहचानना है, उनकी प्रकृति और सार को साफ तौर पर जानना ही सिद्धांतों को निष्पक्षता से लागू करने और भावनाओं में न बहने का रास्ता है। असल में मेरी माँ कैसी इंसान थीं? आम तौर पर तो वो बहुत उत्साही और परवाह करने वाली इंसान थीं, इसका मतलब सिर्फ ये था कि वे स्नेही थीं। मेरा ध्यान रखने का मतलब सिर्फ माँ की जिम्मेदारी निभाना था। लेकिन उनकी प्रकृति अहंकारी थी, वे अपने रुतबे को बचाने में लगी रहती थीं, सत्य को नहीं स्वीकारती थीं। वे ऐसे हर इंसान के लिए पक्षपाती और विरोधी बन जाती थीं जो उनकी समस्याएँ बताता या आलोचना करता, उस पर नाराज हो जाती थीं। कभी-कभी तो वो उनके साथ सीधे झगड़ पड़तीं, उन्हें उजागर करने वाले का विरोध करतीं, जिससे लोग बेबस हो जाते। उनके बर्ताव के अनुसार, अगर वे भाई-बहनों के साथ सभाएं करती रहीं, तो कलीसियाई जीवन में अशांति होगी, दूसरों का जीवन प्रवेश रुक जाएगा। अगर सिद्धांतों के अनुसार उन्हें ग्रुप बी में डाल दिया गया, तो हर कोई ठीक से सभाएं कर पाएगा, ऐसी व्यवस्था उनके लिए एक चेतावनी होगी। अगर वे चिंतन करके खुद को पहचान सकीं, तो उनके जीवन के लिए अच्छा होगा। अगर उन्होंने विरोध किया, इसे नहीं स्वीकारा या आस्था भी छोड़ दी, तो उन्हें उजागर करके हटा दिया जाएगा। तब मैं उनकी प्रकृति और सार को साफ तौर पर जान पाऊँगी, कि वो गेहूँ हैं या खर-पतवार हैं, और क्या उन्हें बने रहना चाहिए। मैं परमेश्वर की इच्छा समझ गई। उसने मुझे विवेक देने के लिये ऐसे हालात पैदा किये, ताकि मैं उसके वचनों के अनुसार लोगों की प्रकृति और सार को जान सकूं, अपने कामों में भावनाओं को किनारे करके सिद्धांत के अनुसार लोगों से बर्ताव करूँ।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : "शैतान कौन है, दुष्टात्माएँ कौन हैं और परमेश्वर के शत्रु कौन हैं, क्या ये वे नहीं, जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते और परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते? क्या ये वे लोग नहीं, जो परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी हैं? क्या ये वे नहीं, जो विश्वास करने का दावा तो करते हैं, परंतु उनमें सत्य नहीं है? क्या ये वे लोग नहीं, जो सिर्फ़ आशीष पाने की फ़िराक में रहते हैं जबकि परमेश्वर के लिए गवाही देने में असमर्थ हैं? तुम अभी भी इन दुष्टात्माओं के साथ घुलते-मिलते हो और उनके प्रति साफ़ अंत:करण और प्रेम रखते हो, लेकिन क्या इस मामले में तुम शैतान के प्रति सदिच्छाओं को प्रकट नहीं कर रहे? क्या तुम दानवों के साथ मिलकर षड्यंत्र नहीं कर रहे? यदि आज कल भी लोग अच्छे और बुरे में भेद नहीं कर पाते और परमेश्वर की इच्छा जानने का कोई इरादा न रखते हुए या परमेश्वर की इच्छाओं को अपनी इच्छा की तरह मानने में असमर्थ रहते हुए, आँख मूँदकर प्रेम और दया दर्शाते रहते हैं, तो उनके अंत और भी अधिक ख़राब होंगे। यदि कोई देहधारी परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, तो वह परमेश्वर का शत्रु है। यदि तुम शत्रु के प्रति साफ़ अंत:करण और प्रेम रख सकते हो, तो क्या तुममें धार्मिकता की समझ का अभाव नहीं है? यदि तुम उनके साथ सहज हो, जिनसे मैं घृणा करता हूँ, और जिनसे मैं असहमत हूँ और तुम तब भी उनके प्रति प्रेम और निजी भावनाएँ रखते हो, तब क्या तुम अवज्ञाकारी नहीं हो? क्या तुम जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो? क्या ऐसे व्यक्ति में सत्य होता है? यदि लोग शत्रुओं के प्रति साफ़ अंत:करण रखते हैं, दुष्टात्माओं से प्रेम करते हैं और शैतान पर दया दिखाते हैं, तो क्या वे जानबूझकर परमेश्वर के कार्य में रुकावट नहीं डाल रहे हैं?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचनों से मेरी हालत स्पष्ट हो गई। मैं जानती थी माँ ने बरसों परमेश्वर में विश्वास किया, पर वे सत्य नहीं स्वीकारतीं, दूसरों की मदद या काट-छाँट और निपटान को वो परमेश्वर की इच्छा नहीं मान पातीं। वे हमेशा चीज़ों पर विवाद खड़े करतीं, कलीसियाई जीवन में अशांति पैदा करतीं, शैतान की सेविका जैसे काम करतीं। पर, मैंने उन्हें उजागर नहीं किया, उनका बचाव करती रही। मैंने सोचा उन्हें उजागर न करना, वो मूल्यांकन न लिखना, ज़मीर का होना है। दरअसल, ये परमेश्वर के घर के कार्य या भाई-बहनों के हितों पर विचार न करके शैतान के लिए प्रेम और ज़मीर रखना था। मैं शैतान का पक्ष लेकर, उसके ओर से बोल रही थी। क्या इसे ही परमेश्वर ने "जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध" करना नहीं कहा? मेरे प्रेम में कोई सिद्धांत नहीं था, मैं सही-गलत में भेद नहीं कर पाई—ये भ्रम भरा प्रेम था। माँ को बचाते हुए उन्हें कलीसियाई जीवन खराब करने दे रही थी। मैंने उनके बुरे कर्म में साथ दिया। दूसरों को और खुद को चोट पहुँचाया। मैं अपने स्नेह में अंधी हो गई थी, मेरे पैर बंध गये थे। अगुआ ने कई बार मुझे वो मूल्यांकन लिखने को कहा, पर मैं इसे टालती रही, कलीसिया के काम में देरी करती रही। ये एहसास होने पर मैंने खुद को दोषी माना। मैंने ये भी सोचा, ऐसे हालात में, मैं हमेशा न चाहकर भी भावनाओं में क्यों बंध जाती हूँ। यहाँ असली समस्या क्या है? मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, भावनाओं के बंधनों को तोड़ने के लिए राह दिखाने को कहा।
फिर, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े। "परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? जिससे परमेश्वर प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है। हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से घृणा करते हैं और उसके विरुद्ध विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। ... अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर द्वारा शापित है, लेकिन वह तुम्हारी माता या पिता या कोई संबंधी है, जहाँ तक तुम बता सकते हो, वह कुकर्मी नहीं है, और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करता है, तो संभवत: तुम उस व्यक्ति से घृणा न कर पाओ, और उसके साथ तुम्हारे संबंध अपरिवर्तित रह सकते हैं। यह सुनना कि परमेश्वर ऐसे लोगों से घृणा करता है, तुम्हें परेशान करेगा, और तुम उससे घृणा नहीं कर पाओगे। तुम हमेशा भावनाओं से बँधे रहते हो, और तुम उन्हें छोड़ नहीं सकते। इसका क्या कारण है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तुम भावनाओं को बहुत अधिक महत्व देते हो, और यह तुम्हें सत्य का अभ्यास करने या सिद्धांत कायम रखने से रोकता है। वह व्यक्ति तुम्हारे लिए अच्छा है और उसने तुम्हें कभी ठेस नहीं पहुँचाई, इसलिए तुम उससे नफरत नहीं कर पाते। तुम उससे तभी नफरत कर पाते हो, जब उसने तुम्हें चोट पहुँचाई हो। क्या यह नफरत सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप होगी? साथ ही, तुम परंपरागत धारणाओं से भी बँधे हो, तुम सोचते हो कि वे माता-पिता या रिश्तेदार हैं, इसलिए अगर तुम उनसे नफरत करोगे, तो समाज तुम्हें बुरा-भला कहेगा और धिक्कारेगा, कपूत, अंतरात्मा से विहीन, यहाँ तक कि अमानुष कहकर तुम्हारी निंदा करेगा। तुम्हें लगता है कि तुम्हें इसके लिए दैवी निंदा और दंड भुगतना होगा। भले ही तुम उनसे नफरत करना चाहो, लेकिन तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें ऐसा नहीं करने देगी। तुम्हारी अंतरात्मा इस तरह काम क्यों करती है? यह सोचने का एक तरीका है, जो तुम्हें तुम्हारे माता-पिता द्वारा सिखाया गया था, जिससे सामाजिक संस्कृति ने तुममें भर दिया और तुम्हें प्रदान किया था। यह तुम्हारे दिलों में बहुत गहराई से जड़ जमाए है, जिसके कारण तुम गलत ढंग से यह मान लेते हो कि यह एक सकारात्मक बात है, कि यह ऐसी चीज है जो तुम्हें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है और हमेशा एक अच्छी चीज है। पहले तुमने इसे सीखा और तब से यह तुम पर हावी है, तुम्हारी आस्था और सत्य की स्वीकृति में एक बड़ी बाधा और गड़बड़ी पैदा कर रही है, जिससे तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने में, और जिससे परमेश्वर प्रेम करता है उससे प्रेम करने और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करने में असमर्थ हो गए हो। तुम मन ही मन जानते हो कि तुम्हारा जीवन परमेश्वर से आया है, तुम्हारे माता-पिता से नहीं, और तुमने देखा है कि तुम्हारे माता-पिता न केवल परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, बल्कि परमेश्वर का विरोध भी करते हैं; परमेश्वर उनसे घृणा करता है और तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए, उसके पक्ष में खड़े होना चाहिए, लेकिन तुम उनसे चाहकर भी घृणा नहीं कर पाते। तुम अपने विचार नहीं बदल सकते, तुम अपना दिल कड़ा नहीं कर सकते, और तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते। इसका मूल कारण क्या है? शैतान इस तरह की परंपरागत संस्कृति और नैतिकता की धारणाओं का उपयोग तुम्हारे विचार, दिल और दिमाग बाँधने के लिए करता है, जिससे तुम परमेश्वर के वचन स्वीकार करने में असमर्थ हो जाते हो; तुम शैतान की इन चीजों से ग्रस्त हो गए हो, और परमेश्वर के वचन स्वीकार करने में असमर्थ हो गए हो। यहाँ तक कि जब तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना भी चाहते हो, तो ये चीजें तुम्हारे भीतर उथल-पुथल मचा देती हैं, और तुमसे सत्य का और परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध करवाती हैं, और तुम्हें परंपरागत संस्कृति के इस जुए से खुद को छुड़ाने में असमर्थ बना देती हैं। कुछ देर संघर्ष करने के बाद तुम समझौता करने पर मजबूर हो जाते हो : तुम यह मानना पसंद करते हो कि नैतिकता की परंपरागत धारणाएँ सही और सत्य के अनुरूप हैं, और इसलिए तुम परमेश्वर के वचनों को नकार या त्याग देते हो। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और बचाए जाने को तुच्छ समझते हो, और अपने दिल में महसूस करते हो कि तुम अभी भी इस दुनिया में रहते हो, तुम्हें अभी भी जीवित रहने के लिए इन लोगों पर निर्भर रहना होगा। समाज के आरोप सहन करने में असमर्थ होकर तुम सत्य और परमेश्वर के वचनों को छोड़ना पसंद करोगे, नैतिकता की परंपरागत धारणाओं और शैतान के प्रभाव के आगे आत्मसमर्पण कर परमेश्वर को ठेस पहुँचाना और सत्य का अभ्यास न करना पसंद करोगे। क्या मनुष्य दयनीय नहीं है? क्या उसे परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता नहीं है?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही तुम स्वयं को जान सकते हो')। परमेश्वर के वचनों से मैंने उसकी अपेक्षा जानी कि हम उससे प्रेम या नफरत करें जिससे उसे प्रेम या नफरत है। प्रभु यीशु ने भी कहा था, "कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई? ... जो कोई मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चले, वही मेरा भाई, और मेरी बहिन, और मेरी माता है" (मत्ती 12:48, 50)। परमेश्वर को उनसे प्रेम है जो सत्य का अनुसरण कर उसे स्वीकारते हैं। ऐसे ही भाई-बहनों और लोगों से मुझे प्रेम करना चाहिए, प्रेम से उनकी मदद करनी चाहिए। जिन्हें सत्य से नफरत है, जो उस पर कभी अमल नहीं करते, वे सभी भाई-बहन नहीं, गैर-विश्वासी हैं। वे परिवार हों, तब भी उन्हें सत्य के सिद्धांतों के आधार पर देखना और उजागर करना चाहिए। इसका मतलब संतान की जिम्मेदारी नहीं निभाना, उनका ध्यान नहीं रखना नहीं है, इसका मतलब है उनके साथ उनकी प्रकृति और सार के अनुसार, विवेक और निष्पक्षता से पेश आना चाहिए। लेकिन मेरे अंदर ये शैतानी जहर भरे थे, "खून के रिश्ते सबसे मजबूत होते हैं" और "मनुष्य निर्जीव नहीं है; वह भावनाओं से मुक्त कैसे हो सकता है?" मैंने सिद्धांतों के अनुसार न चलकर दैहिक स्नेह के आधार पर परिवार को बचाया, उसका पक्ष लिया। अपने भाई के बारे में लिखते हुए, मैं जानती थी कि वो गैर-विश्वासी है, उसे कलीसिया से निकाल दिया जाना चाहिए, पर मैं स्नेह के बंधन में बंधकर, सत्य नहीं लिखना चाहती थी। मैं तथ्यों को छिपाकर दूसरों को धोखा देना चाहती थी। जब अगुआ ने मुझे माँ के बारे में लिखने को कहा, मैं जानती थी वे कलीसियाई जीवन में अशांति पैदा कर रही हैं, मुझे सटीक और निष्पक्ष मूल्यांकन लिखना चाहिए, ताकि उन्हें उजागर करके रोकने में अगुआ की मदद कर सकूं। लेकिन ये सोचकर कि वे मेरी माँ हैं, मेरे लिए बहुत अच्छी हैं, मुझे ये लिखने में डर लगा कि मुझे हमेशा अपराध बोध होगा, इसके साथ जी नहीं पाऊँगी। मुझे ये भी डर था कि दूसरे मुझे निष्ठुर और बेरहम समझेंगे। आशंकाओं और भय के मारे, मैं इसे टालती रही। ये शैतानी जहर मेरे दिल में गहराई तक समाए थे, तो मैं स्नेह के बंधन में जकड़ गई थी। दूसरों से सिद्धांत से पेश नहीं आती थी, कलीसिया के कार्य को कायम नहीं रखा। शैतान का पक्ष लेते हुए परमेश्वर के खिलाफ विरोध और विद्रोह किया। मेरी माँ और भाई गैर-विश्वासी थे। उनके बर्ताव को उजागर करना धार्मिक काम था। कलीसिया के कार्य की रक्षा और परमेश्वर की अपेक्षा अनुसार काम करना था। परमेश्वर जिसे प्रेम करे उससे प्रेम और जिससे नफरत करे उससे नफरत करना है, और सत्य पर अमल करने की गवाही देना था। पर मुझे सत्य पर अमल करना और शैतान को उजागर करना नकारात्मक लगा, सोचा ये निर्दयी, अंतरात्मा से रिक्त और विश्वासघाती होना है। मैं उलझन में थी। सही को गलत, और अच्छे को बुरा समझ रही थी। मैं तो भावनाओं में बंधकर निराश होने लगी थी, कर्तव्य निभाने का मन नहीं होता था। अगर परमेश्वर ने समय पर प्रबोधन और मार्गदर्शन नहीं दिया होता, तो मेरा स्नेह मेरा अंत कर देता। भावना के साथ जीकर मैंने खुद को खत्म ही कर लिया था। ये बेहद खतरनाक था!
फिर मैंने विचार किया, अपनी माँ के बारे में लिखने की अनिच्छा के पीछे एक और गलत धारणा थी। मुझे लगा उन्होंने हमेशा मेरी अच्छे से देखभाल की है, तो उन्हें उजागर करने वाली हर बात मेरे ज़मीर को परेशान करती। फिर परमेश्वर के वचनों के एक अंश से मेरी सोच बदल गई। परमेश्वर के वचन कहते है, "परमेश्वर ने इस संसार की रचना की और इसमें एक जीवित प्राणी, मनुष्य को लेकर आया, जिसे उसने जीवन प्रदान किया। इसके बाद, मनुष्य के माता-पिता और परिजन हुए, और वह अकेला नहीं रहा। जब से मनुष्य ने पहली बार इस भौतिक दुनिया पर नजरें डालीं, तब से वह परमेश्वर के विधान के भीतर विद्यमान रहने के लिए नियत था। परमेश्वर की दी हुई जीवन की साँस हर एक प्राणी को उसके वयस्कता में विकसित होने में सहयोग देती है। इस प्रक्रिया के दौरान किसी को भी महसूस नहीं होता कि मनुष्य परमेश्वर की देखरेख में बड़ा हो रहा है, बल्कि वे यह मानते हैं कि मनुष्य अपने माता-पिता की प्रेमपूर्ण देखभाल में बड़ा हो रहा है, और यह उसकी अपनी जीवन-प्रवृत्ति है, जो उसके बढ़ने की प्रक्रिया को निर्देशित करती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य नहीं जानता कि उसे जीवन किसने प्रदान किया है या यह कहाँ से आया है, और यह तो वह बिलकुल भी नहीं जानता कि जीवन की प्रवृत्ति किस तरह से चमत्कार करती है। वह केवल इतना ही जानता है कि भोजन ही वह आधार है जिस पर उसका जीवन चलता रहता है, अध्यवसाय ही उसके अस्तित्व का स्रोत है, और उसके मन के विश्वास वह पूँजी है जिस पर उसका अस्तित्व निर्भर करता है। परमेश्वर के अनुग्रह और भरण-पोषण से मनुष्य पूरी तरह से बेखबर है, और इस तरह वह परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया जीवन गँवा देता है...। जिस मानवजाति की परमेश्वर दिन-रात परवाह करता है, उसका एक भी व्यक्ति परमेश्वर की आराधना करने की पहल नहीं करता। परमेश्वर ही अपनी बनाई योजना के अनुसार, मनुष्य पर कार्य करता रहता है, जिससे वह कोई अपेक्षाएँ नहीं करता। वह इस आशा में ऐसा करता है कि एक दिन मनुष्य अपने सपने से जागेगा और अचानक जीवन के मूल्य और अर्थ को समझेगा, परमेश्वर ने उसे जो कुछ दिया है, उसके लिए परमेश्वर द्वारा चुकाई गई कीमत और परमेश्वर की उस उत्सुक व्यग्रता को समझेगा, जिसके साथ परमेश्वर मनुष्य के वापस अपनी ओर मुड़ने की प्रतीक्षा करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। लगता था मेरी माँ ने मुझे जन्म दिया, पाला-पोसा, जीवन में हमेशा मेरी परवाह की। पर मानव जीवन का स्रोत तो परमेश्वर है, मुझे जो कुछ भी मिला वो परमेश्वर ने दिया है। मैं उसकी दी गई साँसों के सहारे जीवित हूँ। उसने मुझे जीवन दिया, मुझे दुनिया में लाया, उसने मेरे लिए परिवार और घर की व्यवस्था की। ये परमेश्वर की व्यवस्थाएं थी, जिनसे मैंने उसकी वाणी सुनी, उसके करीब आई। मैं तर्कसंगत होती, तो इसके लिए परमेश्वर को धन्यवाद देती, उसे संतुष्ट करने के लिए मुझे सत्य पर अमल करना था, ताकि उसके प्रेम का मूल्य चुका सकूं। सांसारिक परिवार का पक्ष लेकर शैतान के लिए काम नहीं करना चाहिए, कलीसिया के काम में रुकावट नहीं डालनी चाहिए। ये एहसास मेरे लिए नींद से जागने जैसा था। मुझे परमेश्वर से पश्चाताप कर अपनी भावनाओं के अनुसार नहीं चलना था। कलीसिया ने मुझे माँ के बारे में लिखने को कहा, तो मुझे तथ्यों के अनुसार, उनके बर्ताव के बारे में सच-सच लिखना चाहिए, फिर कलीसिया जो भी फैसला ले, उसे स्वीकारना चाहिए। मैंने माँ के उन बर्तावों को उजागर किया, जो कलीसियाई जीवन में बाधित करते थे।
एक महीने बाद, मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। मुझे पता चला, कलीसिया के कुछ सदस्य अब भी माँ को ठीक से समझते नहीं थे। मैं सोचने लगी, मुझे उनसे बात करनी चाहिए कि कैसे मेरी माँ कलीसियाई जीवन बाधित कर रही थी, ताकि वे उन्हें पहचान जाएँ, उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार पेश आएँ। मैं ऐसा करने ही वाली थी कि उलझन में पड़ गई। अगर मैंने उन्हें उजागर करके विश्लेषण किया और लोग उन्हें पहचान गए, तो क्या वे उन्हें अलग नज़र से देखेंगे? क्या वो परेशान हो जाएंगीं? मैं कुछ नहीं कहना चाहती थी। मुझे एहसास हुआ मैं फिर से भावनाओं में बह रही हूँ, मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया, मुझे परमेश्वर के हिसाब से ही प्रेम और नफरत करना चाहिए। मेरी माँ ने कलीसियाई जीवन में समस्याएं पैदा कीं, इससे परमेश्वर को नफरत है। मैं स्नेह से उनका बचाव नहीं कर सकती थी। उन्हें सत्य के सिद्धांतों के आधार पर उजागर करके विश्लेषण करना मेरी जिम्मेदारी थी, ताकि दूसरों को उनकी पहचान हो। मैंने विस्तार से बताया कि कैसे वो कलीसियाई जीवन बाधित करती थीं, जिससे दूसरे उन्हें पहचान गए, उन्होंने कुछ सबक भी सीखे। आखिर में ज़्यादातर लोगों ने उन्हें ग्रुप बी में डालने का समर्थन किया। इस पर अमल करके मुझे काफी सुकून और शांति महसूस हुई।
परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और प्रबोधन के लिए मैंने धन्यवाद किया, जिससे मैं सत्य को समझ पाई, सिद्धांतों को जान पाई, परिवार के सदस्यों के साथ पेश आने का तरीका पता चला। इसके बिना, मैं अभी भी भावनाओं में बंधी रहती, परमेश्वर के खिलाफ काम करती। इस अनुभव से पता चला कि उसके घर के लोगों और बातों के मामले में, हर काम सत्य के सिद्धांतों के आधार पर किया जाना चाहिए। यही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। यही आंतरिक शांति पाने का तरीका भी है। परमेश्वर का धन्यवाद!
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