क्या उद्धार के लिए रुतबा जरूरी है?

23 अप्रैल, 2022

यिक्षण, चीन

कई सालों से, मैं घर से दूर रहकर, अनेक कलीसियाओं की जिम्मेदारी उठानेवाली अगुआ के रूप में काम कर रही थी। मुझे दिल की पैदाइशी बीमारी है, फिर भी मेरी सेहत ने मुझे कोई बड़ी तकलीफ नहीं दी। लेकिन पिछले कुछ सालों से, उम्र बढ़ने के चलते, मैं शारीरिक और मानसिक रूप से पहले जैसी नहीं रही। रात में थोड़ी देर तक जागे रहने से अगले दिन बड़ी थकान हो जाती है, पूरे शरीर में कमजोरी आ जाती है, दिल की हालत सही नहीं लगती। पिछले साल अगस्त में, अगुआ ने मेरी हालत के बारे में सोचा, तो उन्हें लगा कि मेरा शरीर अब अगुआ के ज्यादा तनाव वाले काम का बोझ नहीं उठा सकता, इसलिए उन्होंने मुझे ऐसा काम देने के लिए वापस बुला लिया, ताकि मैं काम के साथ-साथ अपनी सेहत का भी ख्याल रख सकूँ। यह सुनकर मैं बहुत परेशान हो गई। लगा, किसी काम में कुछ अच्छा कर दिखाने का यह अहम समय है। तबादला होने पर, अगुआ के बजाय सिर्फ एक औसत विश्वासी बन जाने से, मुझे अभ्यास के कम मौके मिलेंगे, मैं बहुत धीरे-धीरे सत्य जानकर वास्तविकता में प्रवेश कर सकूंगी, इससे उद्धार के मेरे मौके कम हो जाएंगे। यह हमेशा भाई-बहनों की समस्याएँ सुलझाने वाली अगुआ होने जैसा नहीं होगा, उद्धार के बेहतर मौके के साथ, तेजी से सत्य में प्रवेश कर सीखना नहीं होगा। मैं सोचने लगी, कहीं परमेश्वर इस हालत का इस्तेमाल मुझे उजागर कर हटाने के लिए तो नहीं कर रहा। इस बारे में सोचकर मैं और ज्यादा परेशान हो गई, और अपने आंसू नहीं रोक सकी।

एक बहन को जब मेरी भावनाओं का पता लगा, तो उसने मेरे साथ संगति की, मुझे बताया कि इसमें परमेश्वर की कृपापूर्ण इच्छा छुपी है, जब हम परमेश्वर की इच्छा न समझ पाएं, तो पहले हमें समर्पण करना चाहिए, ज्यादा प्रार्थना और खोज करनी चाहिए, मगर कभी भी गलत समझ कर शिकायत नहीं करनी चाहिए। उसकी संगति ने मुझे याद दिलाया कि ऐसा एकाएक नहीं हुआ, इसके पीछे मेरे खोजने और प्रवेश करने के लिए कोई सत्य जरूर होगा, मुझे समर्पण करना होगा। लेकिन समर्पण की हामी भरने के बाद भी मैं सचमुच बेचैन थी। रात में नींद खुलने पर, जब यह बात मन में कौंधती, तो नींद न आने से करवट बदलती रहती, बार-बार सोचती, "मैंने इतने साल विश्वास रखा, अब जब परमेश्वर का कार्य अहम मुकाम पर है, तो मैंने अगुआ का कर्तव्य निभाने का अपना मौका गँवा दिया है। मैं बस एक आम विश्वासी हूँ। क्या अब भी उम्मीद बची है कि मैं बचाई जाऊँगी, पूर्ण की जाऊँगी?" मैं और भी ज्यादा पशोपेश में थी, सच में इसका सामना नहीं करना चाहती थी। मैं अगुआ के रूप में ही काम करते रहना चाहती थी, लेकिन मुझे डर था कि अगर मेरी सेहत बिगड़ गई, तो कहीं इससे कलीसिया का काम रुक न जाए। मुझे बहुत स्वार्थी नहीं होना चाहिए, कलीसिया के कार्य के बारे में न सोचकर सिर्फ अपने बारे में नहीं सोचना चाहिए।

अपने धार्मिक कार्यों में, मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े कि मसीह-विरोधी अपना काम बदल जाने पर उससे कैसे निपटते हैं, मैं अपनी प्रकृति और प्रयासों के बारे में भी थोड़ा समझ पाई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "सामान्य परिस्थितियों में व्यक्ति को अपने कर्तव्य में परिवर्तन स्वीकार करने चाहिए और उनके प्रति समर्पित होना चाहिए। लेकिन उन्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए, समस्या का सार पहचानना चाहिए और अपनी कमियाँ माननी चाहिए। यह बहुत फायदेमंद चीज है, और लोगों के लिए इसे हासिल करना बहुत आसान है। व्यक्ति के कर्तव्य में परिवर्तन कोई दुर्गम बाधा नहीं होते; वे इतने सरल होते हैं कि कोई भी उनके बारे में स्पष्ट रूप से सोच सकता है और उनके साथ सही तरह से पेश आ सकता है। जब किसी सामान्य व्यक्ति के साथ ऐसा कुछ होता है, तो कम से कम वह समर्पण कर सकता है, साथ ही आत्मचिंतन से लाभ उठा सकता है, और इस बात का ज्यादा सटीक आकलन कर सकता है कि उसके कर्तव्यों का निष्पादन उपयुक्त है या नहीं। लेकिन मसीह-विरोधियों के साथ ऐसा नहीं है। वे सामान्य लोगों से अलग होते हैं, चाहे उन्हें कुछ भी हो जाए। यह अंतर कहाँ होता है? वे आज्ञापालन नहीं करते, सक्रिय रूप से सहयोग नहीं करते, न ही वे सत्य की जरा-सी भी खोज करते हैं। इसके बजाय, वे इसके प्रति घृणा महसूस करते हैं, और वे इसका विरोध और विश्लेषण करते हैं, इस पर चिंतन करते हैं, और दिमाग के घोड़े दौड़ाकर अटकलें लगाते हैं : 'मुझे कहीं और स्थानांतरित क्यों किया जा रहा है? मैं अपना वर्तमान कर्तव्य क्यों नहीं करता रह सकता? क्या मैं वास्तव में इसके लिए उपयुक्त नहीं हूँ? क्या वे मुझे बरखास्त कर देंगे, या मुझे बाहर कर देंगे?' वे इस घटना को अपने दिमाग में उलटते-पलटते रहते हैं, उसका अंतहीन विश्लेषण करते हैं और उस पर चिंतन करते हैं। जब कुछ नहीं होता तो वे बिल्कुल ठीक होते हैं, लेकिन जब कुछ हो जाता है तो उनके दिलों में तूफानी लहरों जैसा मंथन शुरू हो जाता है, और उनका मस्तिष्क सवालों से भर जाता है। देखने पर ऐसा लग सकता है कि मुद्दों पर विचार करने में वे दूसरों से बेहतर हैं, लेकिन वास्तव में, मसीह-विरोधी सामान्य लोगों की तुलना में अधिक बुरे होते हैं। यह बुराई कैसे प्रकट होती है? उनके विचार चरम, जटिल और गुप्त होते हैं। जो चीजें किसी सामान्य व्यक्ति, किसी अंत:करण और विवेक वाले व्यक्ति के साथ नहीं होतीं, मसीह-विरोधी के लिए वे आम बात हैं। जब लोगों के कर्तव्य में कोई साधारण समायोजन किया जाता है, तो उन्हें आज्ञाकारिता भरे रवैये के साथ उत्तर देना चाहिए, जैसा परमेश्वर का घर उनसे कहे वैसा करना चाहिए, जो वे कर सकते हैं वह करना चाहिए, और वे चाहे जो भी करें, उसे जितना उनके सामर्थ्य में है, उतना अच्छा करना चाहिए और अपने पूरे दिल से और अपनी पूरी ताकत से करना चाहिए। परमेश्वर ने जो किया है, वह गलती से नहीं किया है। इस तरह के सरल सत्य का अभ्यास थोड़े विवेक और चेतना के साथ किया जा सकता है, लेकिन यह मसीह-विरोधियों की क्षमताओं से परे है। जब कर्तव्यों के समायोजन की बात आती है, तो मसीह-विरोधी तुरंत तर्क, कुतर्क और प्रतिरोध करेंगे, और दिल की गहराई में वे इसे स्वीकारने से मना कर देते हैं। उनके दिल में भला क्या होता है? संशय और संदेह, फिर वे तमाम तरीके इस्तेमाल करके दूसरों की जाँच करते हैं। वे अपने शब्दों और कार्यों से प्रतिक्रिया जानने की कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि अनैतिक तरीके अपनाकर लोगों को सच बताने और ईमानदारी से बोलने के लिए मजबूर करते और फुसलाते तक हैं। ... कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि मसीह-विरोधी अपने कर्तव्यों में बदलाव को लेकर इतना उपद्रव करेंगे, ऐसी परेशानी पैदा करेंगे, और इतना बड़ा तूफान खड़ा करने के लिए हर उपलब्ध तरीका आजमाएँगे। वे एक साधारण-सी चीज को इतना जटिल क्यों बना देते हैं? इसका केवल एक ही कारण है : मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्था का पालन नहीं करते, और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि और हैसियत को अपनी आशीषों की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ जोड़ते हैं। वे सोचते हैं, 'अगर मेरा कर्तव्य, प्रतिष्ठा और हैसियत खो गई, तो आशीष प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी, और यह मेरा जीवन खोने जैसा होगा, इसलिए मैं लापरवाह नहीं हो सकता! इसलिए मुझे परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से बचकर रहना चाहिए, ऐसा न हो कि वे मेरे आशीष बिगाड़ दें। मुझे अपना कर्तव्य, प्रतिष्ठा और हैसियत बनाए रखनी चाहिए, तभी मैं आशीष प्राप्त करने की आशा कर सकता हूँ। मेरे भाई-बहन, अगुआ और कार्यकर्ता भरोसेमंद नहीं हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए मैं केवल खुद पर ही भरोसा कर सकता हूँ।' मसीह-विरोधी स्वयं को स्वर्ग से भी अधिक धन्य, जीवन से भी बड़ा, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से अधिक महत्वपूर्ण, और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो शायद ही उल्लेखनीय हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का रास्ता रखते हैं। इसलिए जब उनका कार्य समायोजित किया जाता है, अगर यह पदोन्नति हो, तो मसीह-विरोधी सोचेगा कि उन्हें धन्य होने की आशा है। अगर यह पदावनति हो, टीम-अगुआ से सहायक टीम-अगुआ के रूप में, या सहायक टीम-अगुआ से नियमित समूह-सदस्य के रूप में, या अगर उनके पास बिलकुल भी कोई काम नहीं है, तो उन्हें लगता है कि यह एक बड़ी समस्या है और उन्हें आशीष पाने की अपनी आशा दुर्बल लगती है। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? क्या यह उचित दृष्टिकोण है? बिलकुल नहीं। यह दृष्टिकोण बेतुका है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'जब कोई पद या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं')। "उनकी हैसियत ऊँची है या नीची, इस बात को मसीह-विरोधी इसके बराबर समझते हैं कि उनके आशीष बड़े हैं या छोटे। परमेश्वर के परिवार में हो या किसी अन्य समूह में, उनकी निगाह में लोगों की हैसियत और श्रेणी, और इसी तरह उनका अंतिम परिणाम भी, पत्थर पर खिंची लकीर हैं; इस जीवन में परमेश्वर के घर में किसी का पद कितना ऊँचा है और उसके पास कितनी सत्ता है, यह उनके लिए अगली दुनिया में मिलने वाले आशीषों, पुरस्कारों और ताज के बराबर होता है—वे सीधे जुड़े हैं। परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा, न ही उसने कभी ऐसा कुछ वादा किया है, लेकिन मसीह-विरोधी के भीतर इस तरह की सोच उठती है। ... क्या तुम लोग यह नहीं कहोगे कि मसीह-विरोधी जैसे लोगों को मानसिक स्वास्थ्य संबंधी कुछ समस्या होती है? वे बेहद दुष्ट होते हैं! परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे, वे न तो ध्यान देते हैं, न ही उसे स्वीकार करते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'जब कोई पद या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं')

परमेश्वर के वचनों से पता चलता है कि मसीह-विरोधी आशीषों और पुरस्कारों के लिए ही आस्था रखते हैं। वे अलग-अलग कामों का दर्जा तय करते हैं, ऊंचे या निचले रुतबे को ज्यादा या कम आशीषों के साथ नजदीकी से जोड़ते हैं। सोचते हैं, रुतबे के बिना उन्हें उद्धार का मौका मिलना मुश्किल है, तो वे परमेश्वर को गलत समझते हैं, दोष देते हैं, उसके खिलाफ लड़ते भी हैं। वे सिर्फ अपने हितों और आशीषों की परवाह करते हैं, कभी भी सत्य नहीं खोजते, सबक नहीं सीखते। उनमें परमेश्वर के प्रति न तो श्रद्धा होती है, न समर्पण भाव, वे प्रकृति से ही दुष्ट और धूर्त होते हैं। अपने बर्ताव के आधार पर मैं ठीक मसीह-विरोधी जैसी ही थी। अपने रुतबे को अपने आशीषों से जोड़ती थी, इसलिए अपने काम के सामान्य बदलाव को ठीक से संभाल नहीं सकी। मेरे मन में हलचल मची थी, सोच रही थी अगर मैं अगुआ नहीं रह सकी, तो रुतबे के बगैर उद्धार के मेरे मौके बहुत कम हो जाएंगे। दरअसल, परमेश्वर का घर, हर व्यक्ति के काम की व्यवस्था, उसकी असली हालत और सिद्धांतों के अनुसार करता है। मेरी सेहत ठीक नहीं थी। अगुआओं को बहुत-कुछ संभालना होता है, उन्हें बहुत तनाव होता है, और मेरा शरीर जवाब दे रहा था। इससे मेरा काम खराब हो जाएगा। मुझे वापस लाकर मेरे संभाल सकने लायक काम देना, मेरे और कलीसिया दोनों के लिए अच्छी बात थी। लेकिन मैंने गलत समझा, शक किया। जब अगुआ ने मुझसे वापस आने की बात कही, तो मेरा पहला विचार था कि अगुआ न रहने पर मेरा रुतबा घट जाएगा, बचाए जाने या आशीष पाने की मेरी उम्मीद खत्म हो जाएगी। आशीष न पाने के विचार से यूं लगा मानो आस्था में मेरी इकलौती उम्मीद छिन गई है। अचानक मेरा पूरा जोश हवा हो गया। समझ गई कि मैं चीजों को सत्य के सिद्धांतों के आधार पर नहीं, बल्कि अपने निजी हितों पर तोल रही थी। अपनी आकांक्षाएं पूरी न होने पर, मैंने सोचा, परमेश्वर इस हालत का इस्तेमाल मुझे उजागर कर हटाने के लिए कर रहा है। समझ गई कि मैं दुष्ट और कपटी प्रकृति की हूँ। मेरी कल्पना में, परमेश्वर एक भ्रष्ट इंसान जैसा ही था, निष्पक्ष और न्यायपूर्ण नहीं था, मानो वह रुतबे और काम के आधार पर हमें माप कर हमारे परिणाम तय करता हो। मुझे लगा, अगर हमारे पास रुतबा है, तो परमेश्वर हमें बचाएगा, वरना नहीं। क्या यह परमेश्वर की धार्मिकता को नकारना और उसका तिरस्कार करना नहीं था? इतने वर्षों की आस्था के बाद, मुझे समझ आया, मैं न तो परमेश्वर को समझती हूँ, न ही उसकी आज्ञा मानती हूँ। अगर परमेश्वर ने उस हालत का इस्तेमाल मुझे उजागर करने के लिए न किया होता, तो मुझे एहसास नहीं होता कि मेरा अनुसरण कितना गलत था। अगर मैं इस राह पर चलती, तो आखिर परमेश्वर मुझे एक मसीह-विरोधी की तरह हटा देता।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े, जिनसे मुझे अपने गलत नजरिए को समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "कुछ लोग स्पष्ट रूप से नहीं जानते कि बचाए जाने का क्या अर्थ होता है। कुछ लोगों का मानना है कि जितने अधिक वर्षों से उन्होंने परमेश्वर में विश्वास किया है, उतनी ही अधिक उनके बचाए जाने की संभावना होती है। कुछ लोग सोचते हैं कि जितना अधिक वे आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हैं, उतनी ही अधिक उनके बचाए जाने की संभावना होती है, या कुछ लोग सोचते हैं कि कलीसिया के अगुआ और कार्यकर्ता निश्चित रूप से बचाए जाएँगे। ये सभी मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम लोगों को समझना चाहिए कि उद्धार का क्या अर्थ होता है। मुख्य रूप से बचाए जाने का अर्थ है शैतान के प्रभाव से मुक्त होना, पाप से मुक्त होना, सही मायने में परमेश्वर की ओर मुड़ना और परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना। पाप से और शैतान के प्रभाव से मुक्त होने के लिए तुम्हारे पास क्या होना चाहिए? सत्य होना चाहिए। अगर लोग सत्य प्राप्त करने की आशा रखते हैं, तो उन्हें परमेश्वर के कई वचनों से युक्त होना चाहिए, उन्हें उनका अनुभव और अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए, ताकि वे सत्य समझ सकें। तभी उन्हें बचाया जा सकता है। किसी को बचाया जा सकता है या नहीं, इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि उसने कितने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है, उसके पास कितना ज्ञान है, वह कितना कष्ट सहता है, या उसमें कौन-से गुण या खूबियाँ हैं। एकमात्र चीज, जिसका उद्धार से सीधा संबंध है, यह है कि व्यक्ति सत्य प्राप्त कर सकता है या नहीं। सत्य को तुमने वास्तव में कितना समझा है, और परमेश्वर के कितने वचन तुम्हारा जीवन बन गए हैं? परमेश्वर की समस्त अपेक्षाओं में से तुमने किसमें प्रवेश किया है? परमेश्वर में अपने विश्वास के वर्षों के दौरान तुमने परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में कितना प्रवेश किया है? अगर तुम नहीं जानते या तुमने परमेश्वर के वचन की किसी वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो स्पष्ट रूप से, तुम्हारे उद्धार की कोई आशा नहीं है। तुम्हें बचाया नहीं जा सकता। यह कुछ महत्व नहीं रखता कि तुम्हारे पास उच्च स्तर का ज्ञान है या नहीं, या तुमने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है या नहीं, तुम्हारा रूप-रंग अच्छा है या नहीं, तुम अच्छा बोल सकते हो या नहीं, या तुम कई वर्षों तक अगुआ या कार्यकर्ता रहे हो या नहीं। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, या परमेश्वर के वचनों का ठीक से अभ्यास और अनुभव नहीं करते, और तुममें वास्तविक अनुभव और गवाही की कमी है, तो तुम्हारे बचाए जाने की कोई आशा नहीं है" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। "मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिलकुल भी तय नहीं करता, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है। इसलिए, जो लोग दंडित किए जाते हैं, वे सब इस तरह परमेश्वर की धार्मिकता के कारण और अपने अनगिनत बुरे कार्यों के प्रतिफल के रूप में दंडित किए जाते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। इन अंशों ने सच में मेरे दिल को छू लिया। समझ गई कि बचाए जाने का, अगुआ होने या रुतबा हासिल होने से कोई वास्ता नहीं है। उद्धार शैतान के भ्रष्ट स्वभाव को छोड़ देने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने से होता है। जो सत्य पर अमल करते हैं, जिनकी भ्रष्टता शुद्ध कर दी गई है, जो परमेश्वर को समर्पण करते हैं, उसके वचनों के अनुसार जीते हैं, सिर्फ वही सही मायनों में बचाए जा सकते हैं। हम चाहे जो भी काम करें, अगर हम सत्य को स्वीकारते हैं, हमारा निपटान होने पर अपने आत्मचिंतन पर ध्यान देते हैं, परमेश्वर के वचनों के जरिए अपनी भ्रष्टता और कमियों को जान लेते हैं, प्रायश्चित कर बदल जाते हैं, तो ऐसे अनुसरण से हम सत्य पाकर बचाए जा सकते हैं। किसी का रुतबा चाहे जितना भी ऊंचा क्यों न हो, कोई कितने भी कष्ट क्यों न उठाए, अगर वह सत्य का अनुसरण नहीं करता, तो उसे हटा दिया जाएगा। ठीक पौलुस की तरह। उसका रुतबा और प्रतिष्ठा बहुत ऊंची थी, उसने बहुत-कुछ हासिल किया था, लेकिन उसने कभी भी सत्य जानने या स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश नहीं की। अंत में, वह न तो खुद को समझ पाया, न ही परमेश्वर को। उसके सारे प्रयास सिर्फ आशीष और इनाम पाने के लिए थे, वह हमेशा अपनी ही गवाही देता रहा, कि उसने प्रभु के लिए बहुत कष्ट झेले हैं। वह किसी महानतम प्रेरित से कम न होने की शेखी बघारता था, उसने बेशर्मी से अपना डंका बजाया, "मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है।" अपने एक जीवित मसीह होने जैसी विधर्मी बातें कहकर, उसने परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित किया और परमेश्वर ने उसे दंड दिया। लेकिन पतरस अलग था। पतरस ने अपनी आस्था में रुतबे की कभी परवाह नहीं की। उसने सिर्फ परमेश्वर को जानकर उसके आगे समर्पण का प्रयास किया। उसने परमेश्वर के वचनों पर अमल कर उनका अनुभव करने और अपनी भ्रष्टता को जानने का प्रयास किया, आखिरकार परमेश्वर के लिए उसे सूली पर चढ़ा दिया गया। उसने आख़िरी सांस तक समर्पण किया, परमेश्वर से अगाध प्रेम किया और परमेश्वर ने उसे पूर्ण किया। यह हमें दिखाता है कि अगुआ होना या रुतबे वाला होना उद्धार का कोई मानक नहीं है। रुतबे वाला ऐसा इंसान जो सत्य का अनुसरण न करके परमेश्वर का प्रतिरोध करता है, जिसके पास परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जीने की कोई सच्ची गवाही नहीं है, उसे जरूर हटा दिया जाएगा। अगर किसी के पास रुतबा नहीं है, मगर वह सही राह पर है, सत्य का अनुसरण करता है, तो भी वह सत्य हासिल कर सकता है, परमेश्वर उसे बचा सकता है। इस बात का एहसास होने पर मैंने बेहतर महसूस किया। मैं परमेश्वर के शासन और व्यवस्था के प्रति समर्पण करने, शांति से बदलाव स्वीकारने को तैयार थी।

फिर मैंने वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे मैं परमेश्वर को बेहतर समझ सकी। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "जिन्हें तरक्की दी जाती है और पोषित किया जाता है, वे दूसरों से बहुत ऊपर नहीं होते। वे सब अभी-अभी परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने लगे हैं। जिन्हें तरक्की नहीं दी गई है या पोषित नहीं किया गया है, उन्हें भी अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए सत्य का अनुसरण करना चाहिए। कोई भी दूसरों को सत्य का अनुसरण करने के अधिकार से वंचित नहीं कर सकता। कुछ लोग सत्य की अपनी खोज में अधिक उत्सुक होते हैं और उनमें थोड़ी-बहुत क्षमता होती है, इसलिए उन्हें तरक्की दी जाती है और पोषित किया जाता है। यह परमेश्वर के घर के कार्य की अपेक्षाओं के कारण होता है। विभिन्न प्रकार के लोगों की क्षमता और मानवता में अंतर होने के कारण उनके द्वारा चुने गए परमेश्वर में विश्वास के मार्ग भी भिन्न होते हैं। कुछ लोगों को बचाया जा सकता है, जबकि अन्य को नहीं। इसलिए, परमेश्वर का घर इस आधार पर, कि वे सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं, और उनके व्यक्तित्व के आधार पर लोगों का पोषण और उपयोग करता है। क्या विभिन्न प्रकार के लोगों के पदानुक्रम में कोई अंतर होता है? हैसियत, स्थान, अहमियत या पदवी के संदर्भ में कोई पदानुक्रम नहीं होता। कम से कम उस अवधि के दौरान, जब परमेश्वर लोगों को पूर्ण बनाता और उनकी अगुआई करता है, कार्य के विस्तार के दौरान लोगों के पद, स्थान, अहमियतया हैसियत के बीच कोई अंतर नहीं होता। अंतर केवल कार्य के विभाजन और कर्तव्य की भूमिकाओं में होता है। निस्संदेह, इस दौरान, कुछ लोगों को, अपवाद के तौर पर, तरक्की दी जाती है और पोषित किया जाता है, और वे कुछ विशेष कार्य करते हैं, जबकि कुछ लोगों को अपनी क्षमता या पारिवारिक परिवेश जैसी विभिन्न समस्याओं के कारण ऐसे अवसर नहीं मिलते। लेकिन क्या परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, जिन्हें ऐसे मौके नहीं मिले हैं? क्या उनकी अहमियत और स्थान दूसरों से कम है? नहीं। सत्य के सामने सभी समान हैं, सभी के पास सत्य का अनुसरण करने और उसे प्राप्त करने का अवसर होता है, परमेश्वर सबके साथ निष्पक्ष और उचित व्यवहार करता है" (नकली अगुआओं की पहचान करना (5))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि उसके घर में, काम के लिए कोई ऊंचा या निचला रुतबा नहीं होता। हर व्यक्ति कार्य की जरूरतों के अनुसार अलग-अलग काम संभालता है, मगर सत्य के सामने हर व्यक्ति एक समान होता है। जब हम कोई काम कर रहे होते हैं, तो हम रुतबे वाले हों या न हों, परमेश्वर के वचन हममें से हर किसी को पोषण देते हैं। रुतबे के आधार पर वह किसी से कोई पक्षपात नहीं करता। परमेश्वर उसके कार्य का अनुभव करने और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए, हर किसी की जरूरत के आधार पर, हर तरह के हालात, घटनाओं और लोगों की व्यवस्था करता है। वह एक भी इंसान से सत्य का अभ्यास कर उसमें प्रवेश करने का मौका नहीं छीनता। परमेश्वर सभी के साथ निष्पक्ष और धार्मिक होता है। सत्य हासिल करना या परमेश्वर द्वारा बचाया जाना आपके काम से नहीं, बल्कि पूरी तरह आपके अनुसरण से तय होता है। अगुआ होने का यह मतलब नहीं कि परमेश्वर आप पर विशेष कृपा कर आपको प्रबुद्ध करेगा, और आम विश्वासियों को अनदेखा करेगा। परमेश्वर लोगों को, सत्य के अनुसरण और रवैये के आधार पर, पोषण देता और प्रबुद्ध करता है। इसमें हम उसकी धार्मिकता देख सकते हैं। सबके पास अलग-अलग काम होते हैं, सबका अलग-अलग चीजों से सामना होता है। लेकिन वे एक जैसे ही अहंकारी, कपटी और भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं। अगर वे सत्य का अनुसरण कर उस पर अमल करें और भ्रष्टता छोड़ देने को तैयार हों, तो वे सत्य हासिल कर परमेश्वर द्वारा बचाए जा सकते हैं। दूसरी ओर, अगर कोई सत्य का अनुसरण नहीं करता, मुश्किलें आने पर सत्य को नहीं खोजता या उस पर अमल नहीं करता, तो चाहे वे जो भी काम करते हों, कैसा भी प्रशिक्षण लेते हों, कभी भी सत्य हासिल कर परमेश्वर द्वारा बचाए नहीं जा सकेंगे। मेरी ही तरह, इतने वर्ष अगुआ रहने के बाद, सारे मौके पाने के बाद, असल में मैंने कितना सत्य हासिल किया? काम बदल जाने से, मैं उदास हो गई, गलतफहमी में पड़कर शिकायत करने लगी। मैं परमेश्वर के प्रति जरा भी आज्ञाकारी नहीं थी, मुझमें सत्य की थोड़ी-सी भी वास्तविकता नहीं थी। मैं एक सही मिसाल थी। फिर भी, बेवकूफी से सोचती रही कि उद्धार के लिए रुतबा जरूरी है। रुतबा मेरे सिर चढ़ कर बोल रहा था। कुछ भाई-बहन कभी अगुआ नहीं होते, मगर सत्य का अनुसरण करते रहते हैं, अपने काम की जिम्मेदारी उठाते हैं, मुश्किल आने पर सत्य खोजते हैं और जाने हुए सत्य पर अमल करते हैं। उनकी भ्रष्टता धीरे-धीरे कम हो जाती है, वे परमेश्वर के प्रति और ज्यादा समर्पण करते हैं। उनके पास परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जीने की सच्ची गवाही होती है। इससे परमेश्वर की स्वीकृति और आनंद मिलता है। इससे मुझे परमेश्वर की एक बात याद आई : "यदि तू सच्चे मन से अनुसरण करे, तो मैं तुझे समग्र जीवन का मार्ग देने, तुझे पानी में वापस आयी किसी मछली की तरह स्वीकार करने को तैयार हूँ। यदि तू सच्चे मन से अनुसरण नहीं करेगी, तो मैं यह सब वापस ले लूँगा। मैं अपने मुँह के वचनों को उन्हें देने को तैयार नहीं हूँ जो आराम के लालची हैं, जो बिल्कुल सूअरों और कुत्तों जैसे हैं!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। प्रभु यीशु ने भी एक बार कहा, "क्योंकि जिस किसी के पास है, उसे और दिया जाएगा; और उसके पास बहुत हो जाएगा : परन्तु जिसके पास नहीं है, उससे वह भी जो उसके पास है, ले लिया जाएगा" (मत्ती 25:29)। परमेश्वर हमारे साथ निष्पक्ष और धार्मिक है, सत्य में कोई पक्षपात नहीं होता। आम विश्वासियों और अगुआओं के पास सत्य हासिल करने का बिल्कुल एक जैसा मौका होता है। अहम बात यह है कि क्या उन्होंने सत्य का अनुसरण करने की ठानी है, क्या वे उस पर अमल कर सकते हैं। इस बात को समझना मेरे लिए सचमुच प्रबोधक था। पहले मुझे हमेशा फिक्र होती थी कि अगुआ न रहने पर मुझे सत्य पर अमल करने के ज्यादा मौके नहीं मिल पाएंगे, फिर मेरी उद्धार पाने की उम्मीद कम रह जाएगी। मैं यह भी सोचती थी कि परमेश्वर मुझे हटाना चाहता है, वह मुझे अब नहीं बचाएगा। परमेश्वर को लेकर मेरी धारणाएं और कल्पनाएँ ऐसी थीं, यह ईशनिंदा थी। मुझे परमेश्वर के सच्चे इरादों की जरा भी समझ नहीं थी। सच में जब इस बारे में सोचती हूँ, तो आस्था के इतने वर्षों में मैं झूठे अनुसरण के पीछे भाग रही थी, सिर्फ आशीष पाने के लिए अपना काम कर रही थी, सोचती थी, मेरा अनुसरण महान है। अपनी झूठी छवि के मोह में थी, मैंने कभी आत्मचिंतन नहीं किया, खुद को बिल्कुल नहीं जाना। काम में इस बदलाव ने आस्था में मेरी झूठी सोच का खुलासा कर दिया, आखिर मैं आत्मचिंतन करके खुद को जानने के लिए परमेश्वर के सामने आ पहुँची। मैंने अपनी भ्रष्टता और अपनी सोच की समस्याओं की थोड़ी समझ हासिल की, फिर मैं परमेश्वर की धार्मिकता को समझ पाई। मैंने यह भी जान लिया कि परमेश्वर किसे बचाता है और किसे हटाता है। मैं परमेश्वर के प्रति थोड़ा समर्पण कर पायी। इन हालात से गुजरना ही मेरे लिए परमेश्वर की रक्षा और उद्धार था।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिसने प्रवेश का मार्ग देखने में मेरी मदद की। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में, मनुष्य को परमेश्वर के सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और दूसरे विकल्पों को छोड़ कर परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। वे जो परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करते हैं, उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं ढूँढने चाहिए या वह नहीं ढूँढना चाहिए जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से लालायित हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है। यदि तुम जिसकी खोज करते हो वह सत्य है, तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह सत्य है, और यदि तुम जो प्राप्त करते हो वह तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन है, तो तुम जिस पथ पर क़दम रखते हो वह सही पथ है। ... तुम्हें पूर्ण बनाया जाएगा या हटा दिया जाएगा यह तुम्हारे अपने अनुसरण पर निर्भर करता है, जिसका तात्पर्य यह भी है कि सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचनों में मुझे अभ्यास का एक मार्ग मिला। मैं एक सृजित प्राणी हूँ, इसलिए परमेश्वर जो भी व्यवस्था करे, मुझे उसके शासन और व्यवस्था के आगे समर्पण करना होगा। मैं सिर्फ आशीषों और पुरस्कारों के लिए आस्था रखकर काम नहीं कर सकती। चाहे मैं बचाई जाऊं या नहीं, मुझे आशीष मिलें या नहीं, जब तक जीवित हूँ, मुझे सत्य का अनुसरण करना होगा, परमेश्वर को जानना होगा। भले ही अंत में परमेश्वर मुझे ठुकरा दे, हटा दे, यह उसकी धार्मिकता होगी। परमेश्वर की इच्छा को समझने के बाद, मुझ पर इस बात का ज़्यादा असर नहीं पड़ा कि मैं कौन-सा काम करती हूँ। मैं कलीसिया की व्यवस्थाओं को शांति से स्वीकार सकी।

इन हालात ने मुझे जो दिखाया उससे, मैंने अपनी आस्था में अनुसरण को लेकर अपनी गलत सोच के बारे में जाना। मैंने यह भी जाना कि किसी का बचाया जा सकना इस बात पर निर्भर नहीं करता कि उसका रुतबा क्या है, या उसने कितना काम किया है। अहम यह है कि क्या उसने सत्य हासिल किया है, क्या उसने परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण किया है। सबसे अहम यह है कि क्या कोई अपनी आस्था में सत्य हासिल करके अपने जीवन स्वभाव में बदलाव ला सकता है या नहीं। तब से, मैं समझदार और व्यावहारिक इंसान बनकर, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ। परमेश्वर का धन्यवाद!

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