भला-बुरा कहने से सीखे सबक
पिछले साल, कलीसिया का वीडियो कार्य बहन लियू और मेरे जिम्मे था। इस काम में वह मुझसे ज्यादा कुशल और अनुभवी थी, इसलिए समस्या आने पर मदद के लिए मैं उससे पूछती। हम दोनों खूब मिल-जुलकर रहती थीं। एक बार वीडियो पर काम करते वक्त, मैंने मामूली-सी गलती कर दी, समय मिलते ही वह मेरी मदद करने आ गई। गलती ठीक करते हुए उसने मुझसे पूछा, "तुम काफी दिनों से यह कर रही हो, फिर ऐसी गलती कैसे हो गई?" मुझे अंदर थोड़ा प्रतिरोध महसूस हुआ, सोचा, इसने मुझसे सीधे ही कह दिया, मानो मुझे सच में कुछ आता ही नहीं। वह जरूर मुझे नीची नजर से देखती होगी। बाद में मैंने समस्या को सुलझा तो लिया, लेकिन विद्रोही रवैये से। थोड़े दिन बाद, कुछ भाई-बहनों ने भी ऐसी ही समस्याएँ झेलीं, एक सभा में, सार प्रस्तुत करते हुए बहन लियू ने मेरी गलती का उदाहरण दिया। मेरे मन और ज्यादा प्रतिरोधी हो गया। मैंने सोचा, मैं भी एक निरीक्षक हूँ, तो मेरी गलती पर सबके सामने इस तरह बात करने से सब लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे अब भी मेरा आदर करेंगे? मुझे लगा वह मुझे बुरा दिखाना चाहती है। इसके बाद से मैं उसे अनदेखा करने लगी, समस्याओं से जूझते समय भी उससे नहीं पूछती थी। काम की चर्चा पूरी होते ही मैं चली जाती, उससे और कुछ नहीं कहना चाहती थी। जब वह मुझे अपना हाल बताती, तो उसकी बात बीच में ही काटकर मैं बेमन से कुछ बातें कह देती।
बाद में, असली काम न करके रुतबे के पीछे भागने के लिए मुझे बर्खास्त कर दिया गया, मुझे टीम में एक दूसरा काम सौंप दिया गया। कुछ वक्त बाद, बहन लियू ने मेरा हाल-चाल पूछा, तो मैंने बर्खास्तगी के बाद जो आत्मचिंतन किया था, वो बताया। मुझे लगा, वह मुझे ढाढ़स और प्रोत्साहन देगी, लेकिन मुझे हैरत हुई जब उसने कहा, "तुमने अपना काम जोश के साथ किया, मगर तुम्हारी समझ सतही है। तुमने अपनी असफलताओं की जड़ पर चिंतन नहीं किया है। मैंने इस बारे में बहन वैंग से बात की, वे सहमत हैं...।" ऐसे सीधे-सीधे अपनी समस्याएँ सुनकर, बड़ी शर्मिंदगी हुई। लगा जैसे उसे मेरी भावनाओं की परवाह नहीं है, दूसरे भाई-बहनों के सामने उसका यूँ कहना जानबूझकर मेरी छवि खराब करना है। इसके बाद उसकी हर बात मैंने बिल्कुल अनसुनी कर दी। मैंने उसे छोटा-सा जवाब दे दिया, लेकिन भीतर गुस्से का गुबार दबा हुआ था। सोचा, अब मैं अपनी असली भावनाएं इसके साथ साझा नहीं करूंगी, मौका मिला, तो उसकी घुट्टी उसे ही पिलाऊंगी। इसके बाद से, काम से जुड़ी चर्चा छोड़कर उससे और कोई बात न करने की पूरी कोशिश की। मैं उसकी आवाज भी नहीं सुनना चाहती थी।
एक दोपहर, हमारी टीम की एक बहन ने मैसेज भेजा कि उसे तुरंत मुझसे बात करनी है। मैं एक वीडियो पर काम कर रही थी, इसलिए समय से मैसेज नहीं देखा जिससे काम अटक गया। इस पर बहन लियू ने कॉल करके पूछा कि मैंने फौरन जवाब क्यों नहीं दिया, फिर कहा, "तो तुम्हारी समस्या जस की तस है। तुम मैसेज तुरंत जवाब नहीं देती, कभी-कभी तो गायब हो जाती हो। तुम एक महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट संभाल रही हो—इसमें देर नहीं की जा सकती।" लेकिन मैंने सचमुच प्रतिरोध महसूस किया और उसकी बात नहीं मानी। मुझे लगा जैसे मैं गैर-जिम्मेदार हुआ करती थी, सिर्फ अपने ही काम पर ध्यान देती थी, लेकिन बर्खास्तगी के बाद, मैं खुद को बदल रही थी। क्या मुझसे ये सब कहना मेरी हाल की कड़ी मेहनत को नकारना नहीं है? क्या वह सोचती थी कि मैं तुच्छ हूँ, और सत्य नहीं खोजती? फिर, बहन लियू के खिलाफ मेरा पूर्वाग्रह बढ़ता ही गया, काम के बारे में उसका मैसेज देखकर भी जवाब देने का मन नहीं होता था। जल्दी ही, अगुआ ने मुझे बहन लियू का आकलन लिखने को कहा। लगा, मौका हाथ आ गया है। वह हमेशा मुझे उजागर करती थी, मगर इस बार मैं उसे उजागर करूँगी, ताकि वह भी इसका स्वाद चख सके। इसलिए मैंने उसकी समस्याओं की लंबी सूची बनाई, इस पर जोर दिया कि वो अपनी कथनी और करनी में मेरी भावनाओं की परवाह नहीं करती, साथ ही यह भी कि वह व्यावहारिक कार्य नहीं करती। बाद में मैंने सुना कि अगुआ ने उसे पढ़ा और बहन लियू को उसकी समस्याएँ बताईं, फिर उसने दिल लगाकर बदलने की कोशिश की। फिर भी मैं उसके प्रति अपना पूर्वाग्रह नहीं छोड़ पा रही थी। एक बार, उसके खिलाफ अपनी पूरी भड़ास निकालने के लिए, मैंने परमेश्वर के वचनों पर संगति के मौके का इस्तेमाल किया।
मुझे लगा, वह मेरी भावनाओं की परवाह नहीं करती, तो मुझे आलोचना कर सबको बता देना चाहिए कि उसकी भी ढेरों समस्याएँ हैं, वह मुझसे बेहतर नहीं है। मैंने यह कहकर उसे धीमे-से उजागर कर दिया, "हो सकता है कोई निरीक्षक हो, उसमें तकनीकी कुशलताएँ हों, लेकिन वह बदतमीजी से, दूसरों की समस्याओं पर बातें करती है। कभी-कभी तो तानाशाह लहजा अपना लेती है, कहती है, दूसरे इंसान के साथ ये-ये गलत है, यह उन्हें उनके काम में बेबस महसूस करा सकता है। यह लोगों को दबाना है, इससे कलीसिया के जीवन में गड़बड़ी पैदा होती है। हमें ऐसे इंसान को समझना होगा।" लगा मुझे भड़ास निकालने का मौका मिल गया, मगर कई मिनट तक चुप्पी रही—किसी ने भी आगे संगति नहीं की। उस वक्त मैंने थोड़ी बेचैनी महसूस की। पता नहीं, मेरी संगति उचित थी या नहीं, मगर फिर मैंने सोचा, मेरी हर बात सच थी, तो हो ही नहीं सकता यह अनुचित हो। मैंने इसे दिमाग से निकाल दिया। हैरत हुई जब कुछ दिन बाद अगुआ ने मुझसे कहा कि उस सभा में मैं बहन लियू की घुमा-फिरा कर आलोचना कर रही थी, यह उस पर हमला और उसकी निंदा थी। हो सकता है इससे उसका दिल दुखे, और कुछ भाई-बहन मेरा साथ देने लगें, बहन लियू के खिलाफ पूर्वाग्रह पाल लें, और काम में उसका साथ न दें। इससे हानि पहुँचेगी, गड़बड़ी पैदा होगी। अगुआ का विश्लेषण सुनकर मैं वाकई घबरा गई। परमेश्वर के वचन कहते हैं, सभा में यूँ ही किसी की निंदा करना कलीसियाई जीवन में गड़बड़ी पैदा करता है, यह दुराचार है। मैं जानती थी कि ऐसा करने की प्रकृति बहुत गंभीर होती है। हमारी बातचीत ख़त्म होने पर, मैंने इससे जुड़े परमेश्वर के वचन ढूँढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "कलीसियाओं में हर जगह, मनमाने ढंग से लोगों की निंदा करने, उन पर ठप्पा लगाने और उन्हें दंडित करने की घटना अक्सर होती है। कुछ लोग दूसरों के प्रति पूर्वाग्रह रखते हैं, इसलिए वे सत्य पर संगति के नाम पर दूसरों को उजागर और विश्लेषित करते हैं। ऐसा करने में उनके इरादे और लक्ष्य गलत होते हैं। अगर सत्य की संगति का उद्देश्य वास्तव में परमेश्वर की गवाही देना और दूसरों को लाभ पहुँचाना है, तो तुम्हें अपने अनुभवों के बारे में संगति करनी चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए और खुद को जानना चाहिए, और अपना विश्लेषण करके दूसरों को लाभ पहुँचाना चाहिए। यह अधिक प्रभावी होगा, और परमेश्वर के चुने हुए लोग इसे स्वीकार करेंगे। अगर यह दूसरों को उजागर करने, उन पर हमला करने और अपने उत्कर्ष के लिए दूसरों को नीचा दिखाने के उद्देश्य से किया जाता है, तो परमेश्वर को मंजूर नहीं होगा, और तुम्हारे भाई-बहनों को किसी भी तरह से लाभ नहीं होगा। अगर किसी का इरादा दूसरों को निंदित और दंडित करना है, तो वह व्यक्ति कुकर्मी है, जो दुष्कर्म करने लगा है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को ऐसे दुष्ट व्यक्ति को पहचानने में सक्षम होना चाहिए। अगर कोई जानबूझकर दूसरों को उनके भ्रष्ट स्वभाव के कारण उजागर करता और नीचा दिखाता है, तो उनकी प्यार से मदद करनी चाहिए; अगर वे सत्य स्वीकार नहीं कर पाते और बार-बार ऐसा न करने के लिए सिखाने का प्रयास करने के बावजूद इन कार्यों में संलग्न रहते हैं, तो यह दूसरी बात है। लेकिन जो दुष्ट लोग अक्सर मनमाने ढंग से लोगों की निंदा करते हैं, उन पर ठप्पा लगाते और उन्हें दंडित करते हैं, उन्हें पूरी तरह से उजागर किया जाना चाहिए, ताकि हर कोई उन्हें पहचान सके, और फिर उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। यह आवश्यक है, क्योंकि ऐसे लोग कलीसियाई जीवन में गड़बड़ी फैलाते हैं और कलीसिया के काम में बाधा डालते हैं, और उनके द्वारा लोगों को धोखा दिए जाने और कलीसिया में अराजकता फैलाए जाने की संभावना रहती है" (नकली अगुआओं की पहचान करना (15))। "हमला और बदला एक प्रकार की कार्रवाई और प्रकाशन है, जो एक दुर्भावनापूर्ण शैतानी प्रकृति से आता है। यह एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव भी है। लोग इस प्रकार सोचते हैं : 'अगर तुम मेरे प्रति निर्दयी होगे, तो मैं तुम्हारे प्रति न्यायी नहीं हूँगा! अगर तुम मेरे साथ इज़्ज़त से पेश नहीं आओगे, तो मैं भला तुम्हारे साथ इज़्ज़त से क्यों पेश आऊँगा?' यह कैसी सोच है? क्या यह बदले की सोच नहीं है? किसी साधारण व्यक्ति के विचार में क्या ऐसा नज़रिया व्यवहार्य नहीं है? क्या यह मान्य नहीं है? (हाँ।) 'मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता; अगर मुझ पर हमला किया जाता है, तो मैं निश्चित रूप से जवाबी हमला करूँगा' और 'जैसे को तैसा'—अविश्वासी अक्सर आपस में ऐसी बातें कहते हैं, ये सभी तर्क मान्य और पूरी तरह इंसानी धारणाओं के अनुरूप हैं। फिर भी, जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्हें इन वचनों को कैसे देखना चाहिए? क्या ये विचार सही हैं? (नहीं।) ये सही क्यों नहीं हैं? इन्हें किस तरह वर्णित किया जाना चाहिए? ये चीजें कहाँ से उत्पन्न होती हैं? (शैतान से।) ये शैतान से उत्पन्न होती हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। ये शैतान के किस भाग से आती हैं? ये शैतान की दुर्भावनापूर्ण प्रकृति से आती हैं; इनमें विष होता है, और इनमें शैतान का असली चेहरा अपनी पूर्ण दुर्भावना तथा कुरूपता के साथ होता है। इनमें उस प्रकृति का वास्तविक सार होता है। इस प्रकृति के सार वाले नज़रिये, सोच, अभिव्यक्तियों, वाणी और कर्मों की प्रकृति क्या होती है? क्या ये शैतान के नहीं हैं? हैं। क्या शैतान के ये पहलू इंसानियत के अनुरूप हैं? क्या ये सत्य के अनुरूप हैं? क्या इनका परमेश्वर के वचनों में कोई आधार है? (नहीं।) क्या ये ऐसे कार्य हैं, जो परमेश्वर के अनुयायियों को करने चाहिए, और क्या उनकी ऐसी सोच और दृष्टिकोण होने चाहिए? (नहीं।) तो फिर जब तुम चीजें इस तरह करते हो या चीजों के बारे में इस तरह सोचते हो, या तुम ये चीजें व्यक्त करते हो, तो क्या यह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होता है? चूँकि ये चीजें शैतान से आती हैं, इसलिए क्या ये मानवता, अंत:करण और विवेक के अनुरूप होती हैं? (नहीं होतीं।)" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करके ही तुम निराशाजनक अवस्था से मुक्त हो सकते हो')। जब मैंने परमेश्वर के वचनों से अपने बर्ताव की तुलना की, तो मुझे सचमुच डर लगा। बहन लियू के साथ हुई बातचीत में, जब उसने दूसरों के बीच मेरे रुतबे या छवि को बिगाड़े बिना, अकेले में, मेरी समस्याएँ बताईं, तो मैं उन्हें स्वीकार सकी, लेकिन बाद में, जब उसने सबके सामने मेरी गलतियों का विश्लेषण किया, तो मैंने अपमानित महसूस किया। सोचा कि लोग मुझे तुच्छ मानेंगे, मैं उससे घृणा करने लगी, उससे बात नहीं की। काम पर चर्चा करते हुए मैंने उसकी अवहेलना की। मेरी समस्याएँ देखकर जब उसने दो टूक बातें कहीं, और एक दूसरे निरीक्षक से मेरे बारे में कहा, तो मैं आगबबूला हो गई। लगा, कड़ी मेहनत से बनाई छवि को उसने पल में बर्बाद कर दिया, फिर ऐसा प्रतिरोध उठा कि उसकी आवाज से भी नफरत हो गई। जब उसने समय पर मैसेज का जवाब न देने का जिक्र किया, और मुझे पहले की तरह काम न रोकने की चेतावनी दी, तो लगा वह मुझे दायरे में बाँध रही है, नकार रही है कि मैंने बदलाव किए, मेरे लिए मुश्किल खड़ी कर रही है। मैं काम के जरिए अपनी हताशा जाहिर कर रही थी, जानबूझकर उसे जवाब नहीं दे रही थी। बहन लियू के खिलाफ मेरा पूर्वाग्रह बढ़ता गया और मैं उसके प्रति रोष से भर उठी। अगुआ के आकलन के मौके का इस्तेमाल, शिकायत के लिए किया, उसकी कमियों का खुलासा किया, ताकि अगुआ उसका निपटान करे, उसे बर्खास्त कर दे, और मुझे थोड़ी राहत मिले। उससे बदला लेने की चाह में, संगति करते समय उसे खराब इंसानियत वाली कहकर उसकी आलोचना की, कोशिश की कि दूसरे उसे पहचान जाएं, अलग-थलग कर दें, ताकि मैं अपना गुस्सा निकाल सकूँ। ज़रा-सी भी इंसानियत या समझ नहीं थी, मैं एक क्रूर स्वभाव दिखा रही थी। बहन लियू का इन मसलों पर मेरी आलोचना करना, परमेश्वर के घर के कार्य प्रति जिम्मेदारी दिखाना और मेरी मदद करना था कि मैं खुद को जानूँ, मगर मैं यह मानना ही नहीं चाहती थी। मैं गलत कर रही थी, अपने काम के द्वारा अपनी हताशा निकाल रही थी, परमेश्वर के वचनों द्वारा उस पर हमला कर, भला-बुरा भी कहा। एक गुट बनाने की कोशिश कर रही थी, कलीसियाई जीवन में गड़बड़ी पैदा कर, परमेश्वर के घर में सेंध लगा रही थी। बहन लियू की कुछ बातों ने रुतबे की मेरी भावना को ठेस पहुँचाई, इसलिए मैंने बदला लेने की चाह से भला-बुरा कहा। यह मेरा डरावना रूप था। एक समझदार अविश्वासी भी यूं पेश नहीं आता। परमेश्वर के वचनों में कहा गया है, "यदि विश्वासी वाणी और आचरण में हमेशा ठीक उसी तरह लापरवाह और असंयमित हों जैसे अविश्वासी होते हैं, तो ऐसे लोग अविश्वासी से भी अधिक दुष्ट होते हैं; ये मूल रूप से राक्षस हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। मैं आस्थावान हूँ। मैंने परमेश्वर के अनेक वचन खाए-पिए, मगर थोड़े-से सुझाव भी स्वीकार नहीं कर सकी। क्या मैं इंसान भी हूँ? मैं इन शैतानी फलसफों के पीछे चल रही थी : "अगर आप दयावान नहीं होंगे, तो मैं न्यायसंगत नहीं रहूँगा!" "मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता; यदि मुझ पर हमला किया जाता है, तो मैं निश्चित रूप से जवाबी हमला करूँगा।" मैं परमेश्वर से डरे बिना, अपना असंतोष जाहिर कर रही थी। मैं इंसानियत का जीवन बिल्कुल नहीं जी रही थी। मुझे अपराध-बोध हो रहा था, बेचैन थी, इसलिए मैंने बहन लियू के खिलाफ अपना पूर्वाग्रह छोड़ने की इच्छा से, पश्चाताप में परमेश्वर से प्रार्थना की, अपने काम से फुरसत मिलने पर, कुछ दिन तक, मैं याद करती कि शुरुआत में हम कितना मिल-जुल कर रहते थे, तो फिर मैं उससे इतना चिढ़ने क्यों लगी? मैं जानती थी कि उसकी आलोचना जायज थी, वह थोड़ी सख्ती से मुँहफट होकर बात किया करती थी, मगर यह कोई बड़ी बात नहीं थी। मैं इसे क्यों स्वीकार नहीं सकी, मैंने उसकी पीठ पीछे क्यों उसे भला-बुरा कहा?
अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा। "जब मसीह-विरोधी काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने का सामना करते हैं, तो वे अक्सर बहुत प्रतिरोध दिखाते हैं, और फिर वे अपने बचाव में बहस करने की पूरी कोशिश करने लगते हैं, और लोगों को धोखा देने के लिए कुतर्क और वाक्पटुता का उपयोग करते हैं। यह काफी आम है। मसीह-विरोधियों की सत्य को स्वीकारने से मना करने की अभिव्यक्ति सत्य से घृणा और उसका तिरस्कार करने की उनकी शैतानी प्रकृति को पूरी तरह उजागर कर देती है। वे विशुद्ध रूप से शैतान की किस्म के होते हैं। मसीह-विरोधी चाहे कुछ भी करें, उनका स्वभाव और सार उजागर हो जाता है। विशेष रूप से परमेश्वर के घर में, वे जो कुछ भी करते हैं, उसकी निंदा की जाती है, उसे दुष्कर्म कहा जाता है, और उनके द्वारा की जाने वाली ये सभी चीजें इस बात की पूरी तरह से पुष्टि करती हैं कि मसीह-विरोधी शैतान और राक्षस हैं। इसलिए, जब काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने को स्वीकार करने की बात आती है, तो वे निश्चित रूप से खुश नहीं होते और निश्चित रूप से अनिच्छुक होते हैं, लेकिन प्रतिरोध और विरोध के अलावा, वे काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने से नफरत भी करते हैं, वे उनसे भी नफरत करते हैं जो उनकी काट-छाँट करते और उनसे निपटते हैं, और उनसे भी नफरत करते हैं जो उनके सार की प्रकृति और उनके दुष्कर्म उजागर करते हैं। मसीह-विरोधियों को लगता है कि जो कोई भी उन्हें उजागर करता है, वह उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है, इसलिए वे भी उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर देते हैं, जो उन्हें उजागर करता है। अपनी मसीह-विरोधी प्रकृति के कारण वे ऐसे किसी व्यक्ति के प्रति कभी दयालु नहीं होते, जो उनकी काट-छाँट करता या उनसे निपटता है, न ही वे ऐसा करने वाले किसी भी व्यक्ति को सहन या स्वीकार करते हैं, उसके प्रति कृतज्ञता या सराहना तो वे बिल्कुल भी अनुभव नहीं करते। इसके विपरीत, अगर कोई उनकी काट-छाँट करता है या उनसे निपटता है, और उन्हें अपनी गरिमा और इज्जत से हाथ धोने पर विवश कर देता है, तो वे उस व्यक्ति के प्रति अपने दिल में घृणा पाल लेते हैं और उससे बदला लेने के मौके की ताक में रहते हैं। उन्हें दूसरों से कितनी नफरत होती है? वे दूसरों के सामने खुलकर ऐसा सोचते और कहते हैं, 'आज तुमने मेरी काट-छाँट और निपटान किया है, ठीक है, अब हमारा झगड़ा पत्थर की लकीर हो गया है। तुम अपने रास्ते जाओ, मैं अपने रास्ते जाता हूँ, लेकिन मैं कसम खाता हूँ कि मैं अपना बदला लेकर रहूँगा! अगर तुम मेरे सामने अपनी गलती स्वीकार करो, मेरे सामने अपना सिर झुकाओ, या घुटने टेको और मुझसे भीख माँगो, तब तो मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा, वरना मैं इसे कभी नहीं छोडूँगा!' मसीह-विरोधी चाहे कुछ भी कहें या करें, वे कभी किसी के द्वारा अपने साथ की जाने वाली दयालुतापूर्ण काट-छाँट या निपटान को या किसी की ईमानदार मदद को परमेश्वर के प्रेम और उद्धार के आगमन के रूप में नहीं देखते। इसके बजाय, वे इसे अपने अपमान के संकेत और अपनी सबसे बड़ी शर्मिंदगी के क्षण के रूप में देखते हैं। यह दर्शाता है कि मसीह-विरोधी सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, और यही मसीह-विरोधियों का स्वभाव है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग आठ)')। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ सकी कि आलोचना के प्रति मसीह-विरोधियों का रवैया, उसे ठुकराने, बहाने बनाने, और आक्रामक होने का होता है, आलोचक को दुश्मन समझ कर उस पर हमला बोलने और बदला लेने का भी होता है। प्रकृति से ही वे सत्य से घृणा करते हैं, उसे कभी नहीं स्वीकारते। पता था कि मेरी समस्याओं के बारे में बहन लियू ने सच ही कहा था, तो उसका लहजा जैसा भी हो, यह खुद को जानने में मेरी मदद के लिए था, जानबूझकर मुझे निशाना बनाने के लिए नहीं था। साफ़ तौर पर, मैं अपने काम लगन से नहीं कर रही थी, जिम्मेदारी नहीं उठा रही थी, जिससे हमारे वीडियो में कुछ समस्याएँ खड़ी हो गईं। बहन लियू इन समस्याओं का विश्लेषण कर रही थी, ताकि हम वे गलतियाँ न दोहराएं, और हमारा काम न रुके। उसने देखा कि बर्खास्तगी के बाद मैं खुद को बहुत सतही रूप से जान पाई हूँ, तो उसने विनम्रता से इस ओर इशारा किया। यह खुद को बेहतर जानने और सच्चा प्रायश्चित करने में मेरी मदद के लिए था। उसके बार-बार मेरी मदद करने पर भी, न सिर्फ मैंने उसका आभार नहीं माना, बल्कि सोचा कि वह मुझे शर्मिंदा कर मेरी प्रतिष्ठा गिराने की कोशिश कर रही थी। मुझे सचमुच उससे चिढ़ने लगी, उससे दुश्मन की तरह पेश आई, उससे बदला लेने का मौका ढूँढ़ने लगी। मैंने चाहा कि दूसरे भी उसे अलग-थलग कर ठुकरा दें। मैं एक मसीह-विरोधी की तरह कुटिल और जहरीली थी। मसीह-विरोधी को हर तरह की चापलूसी पसंद है, गुणगान करनेवालों से खूब प्यार करते हैं। लेकिन व्यक्ति जितना ईमानदार होगा, उस पर वे उतना ही वार करेंगे। जो भी उनका अपमान करता या उनके हितों को नुकसान पहुँचाता है, उसे उनका क्रोध झेलना पड़ता है, वे उस व्यक्ति के खत्म होने तक चैन से नहीं बैठते। इससे कलीसिया के कार्य और दूसरों के जीवन-प्रवेश को जबरदस्त हानि और क्षति पहुँचती है। परमेश्वर, इस दुराचार और उसके स्वभाव को अपमानित करने के कारण उन्हें हमेशा के लिए हटा देता है, बहन लियू की कुछ बातों ने मेरी शोहरत और रुतबे का नुकसान किया, इसलिए मैंने बदला लेना चाहा। उसके गलती मान लेने और मुझे "उकसाना" बंद करने पर ही मुझे शांति मिलती। मैं सच में दुष्ट थी, द्वेष से भरी थी। दुराचारियों और मसीह-विरोधियों की तरह मैं सत्य से घृणा करती थी, मैं मसीह-विरोधी की राह पर थी। अगर एक पद पाने पर, मैंने अपना मसीह-विरोधी स्वभाव नहीं बदला, तो मुझे पता था कि मैं और गुस्सा दिखाऊँगी, बुरे काम करूँगी, और आखिरकार परमेश्वर मुझे धिक्कार कर दंड देगा। मैं समझ गई कि इसके परिणाम भयावह होंगे। अभ्यास करने और प्रवेश का मार्ग खोजने के लिए, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की।
फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "अगर तुम्हारा अगुआ, प्रभारी व्यक्ति, या तुम्हारे आस-पास के भाई-बहन अक्सर तुम्हारी निगरानी करते हैं, तुम्हारा निरीक्षण करते हैं, तुम्हें बेहतर तरीके से जानना चाहते हैं, और साथ ही तुम्हारी सहायता और समर्थन भी करना चाहते हैं, तो इस मामले में तुम्हारा क्या रवैया होना चाहिए? क्या तुम्हें इसका विरोध करना चाहिए, इससे सावधान रहना चाहिए और इसका प्रतिरोध करना चाहिए, या तुम्हें इसे नम्रता से स्वीकार करना चाहिए? (हमें इसे नम्रता से स्वीकार करना चाहिए।) इसे नम्रता से स्वीकार करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम्हें यह सब परमेश्वर से प्राप्त करना चाहिए, और इसे कभी उग्रता से नहीं लेना चाहिए। अगर किसी को वास्तव में तुम्हारी समस्या का पता चलता है और वह तुम्हें बता सकता है, उसे समझने और हल करने में तुम्हारी मदद कर सकता है, तो वह तुम्हारी और तुम्हारे काम की जिम्मेदारी ले रहा होता है। यह शैतान की ओर से नहीं होता, द्वेष से नहीं होता, बल्कि परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति जिम्मेदारी भरे रवैये से होता है। यह प्रेम से उत्पन्न होता है और परमेश्वर से आता है। तुम्हें इसे परमेश्वर से प्राप्त करना चाहिए और कभी उग्रता से नहीं लेना चाहिए, न ही आवेग से कार्य करना चाहिए, और इसके अलावा, तुम्हारे दिल में इसके प्रति कोई प्रतिरोध, सावधानी या अनुमान नहीं होने चाहिए। ये सभी गलत हैं और सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं। यह सत्य को स्वीकार करने का दृष्टिकोण नहीं है। सबसे सही रवैया यह है कि तुम्हें परमेश्वर से हर अभ्यास, कथन, निरीक्षण, पर्यवेक्षण, सुधार, यहाँ तक कि काट-छाँट और व्यवहार भी स्वीकार करना चाहिए, जो तुम्हारे लिए सहायक हैं, और उग्रता पर भरोसा नहीं करना चाहिए। उग्रता ऐसी चीज है जो उस दुष्ट से, शैतान से आती है, परमेश्वर से नहीं, और यह वह रवैया नहीं है जो व्यक्ति का सत्य के प्रति होना चाहिए" (नकली अगुआओं की पहचान करना (7))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि भाई-बहन द्वेष के कारण मेरी समस्याओं की ओर इशारा नहीं करते। वे मेरा मजाक नहीं उड़ाते हैं, बल्कि परमेश्वर के घर के कार्य और मेरे जीवन-प्रवेश की जिम्मेदारी उठाते हैं। उनकी बताई समस्याओं को मैं चाहे जितना भी समझ सकूँ, मुझे इसे परमेश्वर से स्वीकारने की कोशिश कर समर्पण करना चाहिए, सही-गलत छोड़, तुनकमिजाज और प्रतिशोधी होने से बचना चाहिए। पूरी तरह समझ न आने पर भी प्रार्थना कर आत्मचिंतन करना चाहिए, या खोज और संगति के लिए अनुभवी भाई-बहनों को ढूँढ़ना चाहिए। सत्य को स्वीकारने का यही रवैया है। मैंने एक सभा में बातों-बातों में बहन लियू की आलोचना की, और वास्तविकता न जानने वाले कुछ भाई-बहनों ने इसे सच मान लिया होगा, जिससे काम में उनके सहयोग पर बुरा असर पड़ सकता है। तो मुझे परमेश्वर के वचनों पर संगति करते समय खुलकर बात करनी चाहिए, ताकि दूसरे जान सकें कि मैंने क्या काम किये थे। बहन लियू बाद में काम के बारे में मुझसे बात करने आई, तो मैंने उसे ईमानदारी से बता दिया कि जब उसने मुझे सुझाव दिए, तो मैंने सत्य से घृणा वाला स्वभाव और बुरे मंसूबे प्रकट किए। यह सुनकर उसने मुझे दोष नहीं दिया, न घृणा की। मैंने बड़ी शर्मिंदगी महसूस की। इसके बाद बहन लियू और मैं फिर से अच्छी-तरह मिल-जुल कर रहने लगे। जब कभी वह मेरी समस्याएँ उठाती, तो मैं उसके लहजे की ज्यादा परवाह नहीं करती, मुझे पता था कि जो मेरे काम के लिए अच्छा है, उसे स्वीकारना चाहिए। कभी-कभार उस पल मैं अवगत नहीं होती, मगर मैं परमेश्वर से प्रार्थना कर अपना अहम छोड़ देती, अपनी शोहरत या अपनी बात पर जोर देने की परवाह नहीं करती, फिर मैं उस बारे में बाद में विचार करती। उसके साथ इस तरह काम करके, धीरे-धीरे मैं काफी तनाव-मुक्त हो गई।
बाद में, मैंने सिद्धांत खोजे बिना, जल्दबाजी में एक वीडियो पर काम किया, जिसके कारण ऐसी समस्याएँ हुई जिन्हें ठीक करना था। बहन चेन नामक एक दूसरी निरीक्षक ने मुझे मैसेज भेजकर इसे ठीक करने को कहा, फिर मुझे लगा कि सब ठीक है। लेकिन एक कार्य बैठक में, जब मेरी गलतियों का दोबारा विश्लेषण किया गया, तो मुझे हैरानी हुई। मुझे लगा, उन्होंने सबके सामने मेरे बारे में ऐसी बातें कहीं—कितनी शर्मिंदगी की बात थी! मैं बहन चेन के खिलाफ पूर्वाग्रह पालने लगी, लगा वे राई का पहाड़ बना रही हैं, उन्हें मेरी प्रतिष्ठा की फिक्र नहीं। मैंने अपने बचाव का बहाना ढूँढ़ना चाहा, ताकि सबके सामने इज्जत बची रहे। फिर मुझे एहसास हुआ कि समय की कमी से जल्दबाजी करने के कारण काम दोबारा करना पड़ा था। बहन चेन मुझे चेताने के लिए इस बारे में संगति कर रही थीं, ताकि मैं काम के प्रति अपने रवैये पर आत्मचिंतन कर सकूँ, और भाई-बहन भी इसे चेतावनी के रूप में लेकर वह गलती न करें। वे कलीसिया के कार्य की रक्षा कर रही थीं। अगर मैं अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए बहाने बनाऊँ, बहन चेन के खिलाफ पूर्वाग्रह पाल लूँ, तो क्या यह घृणा करना और सत्य को स्वीकारने से मना करना नहीं है? मैं जानती थी कि मुझे अब भ्रष्टता से काम नहीं करना चाहिए, इसलिए मैंने सबके सामने अपनी गलतियों का विस्तार से खुलासा कर दिया। मेरी बात पूरी होने पर उन लोगों ने ऐसी समस्याएँ सुलझाने के कुछ तरीके बताए, बाद के वीडियो निर्माण में, मैंने इन सुझावों पर अमल किया, और वही गलतियाँ करने से बच गयी। मैंने सच में अनुभव किया कि भाई-बहनों के सुझाव मानने से मुश्किलें आसान हो सकती हैं, कार्यक्षमता बढ़ सकती है। यही नहीं, इससे खुद को समझने में मदद मिलती है, यह मेरे जीवन-प्रवेश के लिए अच्छा है।
इससे मैंने सचमुच अनुभव किया कि आलोचना स्वीकार करने का रवैया बहुत अहम होता है। अगर दूसरों की बातें सही और सत्य के अनुरूप हैं, तो मुझे अपना घमंड छोड़कर इसे बिना शर्त स्वीकारना चाहिए। लेकिन अगर मैं मनमानी से ठुकरा कर काट-छाँट और निपटान का विरोध करूँ, और पूर्वाग्रह पाल लूँ या दूसरों को भला-बुरा कहने लगूँ, तो यह मसीह-विरोधी होने की अभिव्यक्ति है, प्रायश्चित न करने पर परमेश्वर मेरी निंदा कर मुझे हटा देगा। पहले किसी ने भी मेरा ऐसा सीधा निपटान नहीं किया था, और मैं खुद को नहीं जान पाई थी। मुझे लगता था मैं अच्छी इंसानियत वाली हूँ, सत्य को स्वीकार सकती हूँ। अब मैं समझ गई, मुझे सत्य से घृणा है, मुझमें अच्छी इंसानियत नहीं है। आज मैंने जो हासिल किया और जाना है, यह सब परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना के कारण है। मैं ऐसा और भी ज्यादा अनुभव कर अपना भ्रष्ट स्वभाव बदलने को तैयार हूँ, परमेश्वर का धन्यवाद!
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