ईर्ष्या से मुक्ति
2021 की शुरुआत में मैं उपदेशक था, भाई मैथ्यू के साथ कलीसियाई-कार्य देख रहा था। कर्तव्य निभाना शुरू ही किया था तो काफी कुछ नहीं समझता था, इसलिए मैं अक्सर उससे सवाल पूछता था। उस दौरान मैथ्यू अक्सर मुझे अपने कर्तव्य में दिखे भ्रष्ट स्वभावों के बारे में बताता रहता था। धीरे-धीरे मैं उसे कमतर मानने लगा। मुझे लगा कि मैं उसके जैसा भ्रष्ट नहीं हूँ, उसके साथ भागीदारी करना मेरे लिए ठीक नहीं था। मुझे लगा कि मैं उससे बेहतर हूँ। मैंने यह भी सोचा : “पहले तो वह उपदेशक कैसे बना? मैं उसका अगुआ हुआ करता था। मुझे उसे बताना चाहिए कि उपदेशक कैसे बनें, न कि वह बताएगा। चूँकि वह पहले उपदेशक बना, इसलिए हरेक उसके बारे में ऊँचा सोचता है।” मुझे बस यह मंजूर नहीं था और पता था कि मैं उससे बेहतर कर सकता हूँ। उससे आगे निकलने के लिए मैं अक्सर उससे हमारे काम की तुलना करता। मिसाल के तौर पर, जब मैथ्यू ने बताया कि उसके पास अपने सभी काम की खोज-खबर रखने के लिए जरूरी समय नहीं है, तो मुझे यह जानकर खुशी हुई कि मैं पहले ही अपनी जिम्मेदारी वाले सभी काम कर चुका था और इस तरह उच्च अगुआ मेरे बारे में अच्छा सोचेंगे। हालाँकि मुझे ताज्जुब हुआ जब मैथ्यू ने अपनी जिम्मेदारी वाला काम अच्छे से किया। एक दिन अगुआ ने हमें सिंचन कार्य का प्रशिक्षण पाने योग्य लोगों को खोजने का कहा। केवल दो दिनों में मैथ्यू को तीन उम्मीदवार मिल गए थे। मैं यह सोचकर घबरा गया : “मुझे भी करना होगा। कम से कम मेरे पास मैथ्यू के बराबर उम्मीदवार होने ही चाहिए। वरना उसे मुझसे ज्यादा तारीफ मिलेगी।” फिर सिर्फ तीन दिनों में मुझे सात लोग मिल गए। मैं काफी संतुष्ट था क्योंकि मैंने मैथ्यू से बेहतर प्रदर्शन किया था। लेकिन जब अगुआ ने उम्मीदवारों की स्थिति पूछी, तो उन्होंने तय किया कि उनमें से कोई सिंचन कार्य के लिए ठीक नहीं था। उम्मीदवार चुनते समय मैं उनकी वास्तविक स्थिति नहीं समझ पाया था। मगर मैथ्यू के सभी उम्मीदवार सही पाए गए—वे सत्य से प्रेम करने वाले काबिल लोग थे, परमेश्वर के लिए खुद को खपाने को तैयार थे। तीन दिनों की मेहनत बेकार होने से मैं बहुत निराश हो गया। मुझे मैथ्यू से जलन भी होने लगी। उसे हमेशा अच्छे परिणाम क्यों मिलते थे? और मुझे क्यों नहीं? वह उत्साह से हमारे समूहों में परमेश्वर के वचन साझा करता था, उस कार्य की भी खोज-खबर लेता जिसकी जिम्मेदारी मेरी थी—उससे खुद को अलग करने का कोई तरीका नहीं था। मैं उससे इतना तंग आ गया कि नफरत करने लगा था। मुझे उसके साथ अपना कर्तव्य क्यों निभाना पड़ा? मैं नहीं चाहता था कि लोग उस पर ध्यान दें, और उसे काम में अच्छे नतीजे मिलें। मैं शोहरत के लिए होड़ करता रहा और मेरे तरीके नहीं बदले।
तब मैं बहन अनाइस के काम की देखरेख कर रहा था, जो एक कलीसिया अगुआ थी। वह खराब स्थिति में थी क्योंकि वह ठीक से अपना कर्तव्य नहीं निभा पा रही थी, तो मेरे अगुआ ने मुझे उसे कुछ समर्थन देने को कहा। जब मैंने उससे संपर्क किया तो उसने कहा कि उसने पहले ही मैथ्यू के साथ संगति और खोज कर ली थी, मैथ्यू ने ईश-वचन साझा कर समस्या सुलझाने में मदद की थी। मुझे लगा कि मेरी तो कोई भूमिका ही नहीं है। मैं बहुत दुखी था कि मैथ्यू ने मेरे काम में दखल दिया। यह कलीसिया अगुआ मेरी देखरेख में थी, मैं नहीं चाहता था कि लोग सोचें कि मैं कर्तव्य नहीं निभा रहा। सोचकर गुस्सा आने लगा, मैं अब मैथ्यू के साथ काम नहीं करना चाहता था। मैं अपने दम पर काम करना चाहता था क्योंकि तब लोग मुझ पर ध्यान देते। उसके बाद मैंने कर्तव्य पालन के दौरान उससे बचने की कोशिश की। एक बार मैथ्यू ने एक समस्या पर चर्चा के लिए कहा, जिस पर हमें संगति करनी थी। उसने मुझे फोन और मैसेज किया, पर मैंने जानबूझकर अनसुना कर दिया। मैं उससे कोई चर्चा नहीं करना चाहता था। जब वो काम के बारे में पूछता तो मैं समय पर जवाब न देता, जब सभा में संगति करने के लिए कहता, तो मैं जानबूझकर चुप रहता, उसे ही खुद संगति करने को कहता। मैंने मन ही मन सोचा : “आखिर जब तुम यहाँ हो, भाई-बहन मेरी बात नहीं सुनेंगे। तो संगति का मतलब ही क्या है?” एक सभा के दौरान मैथ्यू ने संगति खत्म करने के बाद मुझसे राय माँगी। मुझे लगा उसने संगति में वो भी कह दिया था जो मुझे कहना था, तो मैं बहुत दुखी था। मैंने उनसे कहा : “तुम अभिमानी स्वभाव के साथ संगति कर रहे हो। तुमने अपनी भ्रष्ट प्रकृति को उजागर नहीं किया और अपनी समझ पर अस्पष्ट ढंग से चर्चा की। तुमने केवल रूपरेखा दी, पर पूरी जानकारी के साथ चर्चा करने में नाकाम रहे।” मुझे पता था कि मैंने जो कहा था वह सही नहीं था—मैंने जानबूझकर कहा था। मैं बस उसके उत्साह को कम करना चाहता था, ताकि वह आगे की सभाओं में उतना ज्यादा न बोले। जब वह मुझे संदेश भेजता कि मैं कैसा कर रहा हूँ या दूसरी चीजों के बारे में पूछता, तो मैं जवाब नहीं देता था। मैंने सोचा कि उसे पता चल जाएगा कि मैं उसके साथ साझेदारी नहीं करना चाहता। मैं यह भी चाहता था कि वह मुझे मैसेज भेजना बंद कर दे। मैं बस इतना चाहता था कि वह यहाँ से चला जाए ताकि मुझे अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिले। मैं भी उसकी तरह पूरे समय अपना कर्तव्य निभाना चाहता था, ताकि भाई-बहनों को जब जरूरत पड़े तो मैं उनके लिए फौरन हाजिर रहूँ। तभी वो मेरे बारे में ऊँचा सोचेंगे। मैं अपनी सांसारिक नौकरी छोड़कर खुद को पूरी तरह कर्तव्य में लगाना चाहता था, पर मुझे अभी भी जीवनयापन और परिवार की मदद के लिए काम करना था। मैं काफी उदास महसूस कर रहा था कि मैं मैथ्यू की तरह पूरा समय कर्तव्य को समर्पित नहीं कर सका। मैंने यह भी सोचा : “मैं उपदेशक का ओहदा छोड़ सकता हूँ। इस तरह मुझे मैथ्यू के साथ साझेदारी नहीं करनी पड़ेगी। अगर मैं दूसरा कर्तव्य निभाने लगूँ तो खुद को अलग दिखा सकूंगा।” मगर जब मैंने वास्तव में छोड़ने का सोचा, तो थोड़ा अपराध बोध हुआ और मुझे नहीं पता था कि क्या करूँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, स्थिति समझने में मदद मांगी।
तब ईश-वचनों का अंश याद आया : “कर्तव्य परमेश्वर से आते हैं; वे वो जिम्मेदारी और आदेश हैं, जो वह मनुष्य को सौंपता है। तो फिर, मनुष्य को उन्हें कैसे समझना चाहिए? ‘चूँकि यह मेरा कर्तव्य और मेरे लिए परमेश्वर का आदेश है, इसलिए यह मेरा दायित्व और जिम्मेदारी है। मेरा इसे अपना नैतिक दायित्व समझकर स्वीकार करना ही सही है। मैं इसे अस्वीकार या मना नहीं कर सकता; मैं मनमाने ढंग से चीजें नहीं चुन सकता। जो कुछ भी मुझ पर आकर पड़ता है, उसे मुझे निश्चित रूप से करना चाहिए। ऐसा नहीं कि मैं चुनाव करने के लिए अयोग्य हूँ—बल्कि ऐसा है कि मुझे चुनाव नहीं करना चाहिए। यही वह भाव है, जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए’” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों के जरिए मैंने पाया कि हमें परमेश्वर ने कर्तव्य सौंपे हैं। मुझे अपना कर्तव्य निभाकर अपनी जिम्मेदारियां पूरी करनी चाहिए। मुझे जिम्मेदारियों से बचना चाहिए और नकचढ़ा नहीं होना चाहिए। इसीलिए मुझे वहीं रहना चाहिए था। चूँकि मैथ्यू से आगे निकलने की मेरी उत्कट इच्छा पूरी नहीं हुई थी, मैं कर्तव्य ही छोड़ देना चाहता था। यह परमेश्वर को बहुत चोट पहुँचाता! मैंने कर्तव्य को जिम्मेदारी के रूप में नहीं, बल्कि खुद को अलग दिखाने और सम्मान और तारीफ पाने का साधन माना था। मैं नौकरी छोड़कर पूरे समय कर्तव्य निभाना इसलिए नहीं चाहता था कि ऐसा करके परमेश्वर को संतुष्ट करूँगा, बल्कि मुझे अपने साथी के साथ हैसियत की होड़ करके उससे आगे निकलना था। जब मैं व्यावहारिक कारणों से पार्ट-टाइम कर्तव्य निभा रहा था, तो खुद को अलग दिखाने का मौका पाने के लिए किसी अलग कर्तव्य में जाना चाहता था। वास्तविकता ने दिखाया कि मैंने जो कुछ किया वह असल में कर्तव्य निभाने के लिए नहीं, बल्कि अपने कर्तव्य का इस्तेमाल हैसियत की होड़ का अवसर पाने के लिए किया। परमेश्वर ऐसे व्यवहार से घृणा करता है।
बाद में मैंने परमेश्वर के कुछ और वचन पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “क्रूर मानवजाति! साँठ-गाँठ और साज़िश, एक-दूसरे से छीनना और हथियाना, प्रसिद्धि और संपत्ति के लिए हाथापाई, आपसी कत्लेआम—यह सब कब समाप्त होगा? परमेश्वर द्वारा बोले गए लाखों वचनों के बावजूद किसी को भी होश नहीं आया है। लोग अपने परिवार और बेटे-बेटियों के वास्ते, आजीविका, भावी संभावनाओं, हैसियत, महत्वाकांक्षा और पैसों के लिए, भोजन, कपड़ों और देह-सुख के वास्ते कार्य करते हैं। पर क्या कोई ऐसा है, जिसके कार्य वास्तव में परमेश्वर के वास्ते हैं? यहाँ तक कि जो परमेश्वर के लिए कार्य करते हैं, उनमें से भी बहुत थोड़े ही हैं, जो परमेश्वर को जानते हैं। कितने लोग अपने स्वयं के हितों के लिए काम नहीं करते? कितने लोग अपनी हैसियत बचाए रखने के लिए दूसरों पर अत्याचार या उनका बहिष्कार नहीं करते? और इसलिए, परमेश्वर को असंख्य बार बलात् मृत्युदंड दिया गया है, और अनगिनत बर्बर न्यायाधीशों ने परमेश्वर की निंदा की है और एक बार फिर उसे सलीब पर चढ़ाया है। कितने लोगों को इसलिए धर्मी कहा जा सकता है, क्योंकि वे वास्तव में परमेश्वर के लिए कार्य करते हैं?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दुष्टों को निश्चित ही दंड दिया जाएगा)। “कुछ लोग हमेशा इस बात डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर और ऊँचे हैं, दूसरों का सम्मान होगा, जबकि उन्हें अनदेखा किया जाता है। इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह अपने से ज़्यादा सक्षम लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या ऐसा व्यवहार स्वार्थी और घिनौना नहीं है? यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुर्भावनापूर्ण है! केवल अपने हितों के बारे में सोचना, सिर्फ़ अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करना, दूसरों पर कोई ध्यान नहीं देना, या परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचना—इस तरह के लोग बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर के पास उनके लिये कोई प्रेम नहीं है। अगर तुम वाकई परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखने में सक्षम हो, तो तुम दूसरे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार कर पाने में सक्षम होगे। अगर तुम किसी अच्छे व्यक्ति की सिफ़ारिश करते हो और उसका प्रशिक्षण करके उसे कोई कर्तव्य निभाने देते हो, और इस तरह एक प्रतिभाशाली व्यक्ति को परमेश्वर के घर से जोड़ते हो, तब क्या तुम्हारा काम और आसान नहीं हो जाएगा? तब क्या इस कर्तव्य के निर्वहन में तुमने अपनी निष्ठा के अनुरूप काम नहीं किया होगा? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है; कम से कम एक अगुआ में इतना विवेक और सूझ-बूझ तो होनी ही चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों के जरिए मुझे अपनी वर्तमान स्थिति का पता चला। परमेश्वर कहते हैं, “कुछ लोग हमेशा इस बात डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर और ऊँचे हैं, दूसरों का सम्मान होगा, जबकि उन्हें अनदेखा किया जाता है। इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह अपने से ज़्यादा सक्षम लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या ऐसा व्यवहार स्वार्थी और घिनौना नहीं है? यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुर्भावनापूर्ण है!” ये वचन सत्य थे और उन्होंने मेरी वास्तविक स्थिति उजागर कर दी। जब मैंने देखा कि मेरे साथी ने कर्तव्य में मुझसे बेहतर परिणाम पाए हैं, भाई-बहनों की समस्याएं हल करने में वह बेहतर है, तो मुझे लगा कि वह मुझसे अच्छा है और मैं वहाँ कभी खुद को अलग नहीं दिखा पाऊँगा। उससे ईर्ष्या कर मैंने उसके साथ काम न करना चाहा। उसके मैसेज और फोन का कोई जवाब न देता। जब उसने अपने अनुभव और समझ पर संगति की, तो मैंने कलीसिया जीवन को बनाए रखने की खातिर उससे सहयोग नहीं किया, बल्कि उसकी खामियां बताने की कोशिश की। उसे अहंकारी कहा, हमला किया ताकि उसका उत्साह कम हो जाए और वह खुद को अलग दिखाना बंद करे और मुझसे आगे न निकले। मैं बहुत दुष्ट था। हर बार उसके साथ कर्तव्य निभाते हुए मुझे बहुत पीड़ा होती। मैं हमेशा उसके साथ होड़ करता और खुद को शांत नहीं बनाए रख पाता था। यह वैसा ही था जैसा परमेश्वर ने कहा है : “क्रूर मानवजाति! साँठ-गाँठ और साज़िश, एक-दूसरे से छीनना और हथियाना, प्रसिद्धि और संपत्ति के लिए हाथापाई, आपसी कत्लेआम—यह सब कब समाप्त होगा?” शोहरत और हैसियत की अधूरी इच्छा के कारण मैं अपने साथी से नफरत करने लगा। मैं बस उससे दूर जाकर छुटकारा पाना चाहता था ताकि मैं अपने दम पर काम कर सकूँ। मैंने अपना कर्तव्य छोड़ने के बारे में भी सोचा। मुझे एहसास हुआ कि मैं कितना दुर्भावनापूर्ण और अमानवीय था। मैं शिकार करने वाले जंगली जानवरों जैसा था, अपने हितों के लिए लड़ने और पंजा मारने को तैयार रहते हैं। मैंने हमेशा सिर्फ खुद के बारे में सोचा, न कि कलीसिया के काम पर। कलीसिया के काम में देरी होने पर भी मुझे चिंता या घबराहट नहीं हुई। मैं कितना स्वार्थी और नीच था! मैंने यह भी सोचा कि मैं मैथ्यू के साथ सरल और मेलजोल वाली साझेदारी क्यों नहीं कर पाया। मुझे लगा अपने शैतानी स्वभाव के कारण मैंने आस्था में गलत रास्ते पर कदम रख दिया था। सत्य की खोज करके भ्रष्ट स्वभाव दूर न किया, तो मैं पवित्र आत्मा का कार्य खो दूँगा और अंधकार में चला जाऊँगा। मैंने कई बार परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे खुद को समझने और भ्रष्ट स्वभाव सुलझाने में मदद करे।
तब मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा : “चाहे वे किसी भी समूह में क्यों न हों, मसीह-विरोधियों का आदर्श वाक्य क्या होता है? ‘मुझे प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए! प्रतिस्पर्धा! प्रतिस्पर्धा! मुझे सर्वोच्च और सबसे शक्तिशाली बनने के लिए प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए!’ यह मसीह-विरोधियों का स्वभाव है; वे जहाँ भी जाते हैं, प्रतिस्पर्धा करते हैं और अपने लक्ष्य हासिल करने का प्रयास करते हैं। वे शैतान के अनुचर हैं, और वे कलीसिया के काम में बाधा डालते हैं। मसीह-विरोधियों का स्वभाव ऐसा होता है : वे कलीसिया के चारों ओर यह देखने से शुरुआत करते हैं कि कौन लंबे समय से परमेश्वर पर विश्वास कर रहा है और किसके पास पूँजी है, किसके पास कुछ गुण या विशेष कौशल हैं, कौन भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में लाभकारी रहा है, किसे अच्छा माना जाता है, किसमें वरिष्ठता है, किसका भाई-बहनों के बीच आदर से उल्लेख किया जाता है, किसमें अधिक सकारात्मक चीजें हैं। उन्हीं लोगों से उन्हें प्रतिस्पर्धा करनी है। संक्षेप में, हर बार जब मसीह-विरोधी लोगों के समूह में होते हैं, तो वे हमेशा यही करते हैं : वे हैसियत के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, अच्छी प्रतिष्ठा के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, मामलों पर अपना कहा मनवाने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं और समूह में निर्णय लेने की परम शक्ति के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, जिनकी प्राप्ति उन्हें खुश कर देती है। ... मसीह-विरोधियों का इतना घमंडी, घिनौना और अविवेकी स्वभाव होता है। उनके पास न तो जमीर होता है, न विवेक, न ही सत्य का कोई कण। मसीह-विरोधी के कार्यों और कर्मों में देखा जा सकता है कि वह जो कुछ करता है, उसमें सामान्य व्यक्ति का विवेक नहीं होता, और भले ही कोई उनके साथ सत्य के बारे में संगति करे, वे उसे नहीं स्वीकारते। तुम्हारी बात कितनी भी सही हो, उन्हें स्वीकार्य नहीं होती। एकमात्र चीज, जिसका वे अनुसरण करना पसंद करते हैं, वह है प्रतिष्ठा और हैसियत, जिसके प्रति वे श्रद्धा रखते हैं। जब तक वे हैसियत के लाभ उठा सकते हैं, तब तक वे संतुष्ट रहते हैं। वे मानते हैं कि यह उनके अस्तित्व का मूल्य है। चाहे वे किसी भी समूह के लोगों के बीच हों, उन्हें लोगों को वह ‘प्रकाश’ और ‘गर्मी’ दिखानी होती है जो वे प्रदान करते हैं, अपनी विशेष प्रतिभा, अपनी अद्वितीयता दिखानी होती है। चूँकि वे मानते हैं कि वे विशेष हैं, इसलिए वे स्वाभाविक रूप से सोचते हैं कि उनके साथ दूसरों से बेहतर व्यवहार किया जाना चाहिए, कि उन्हें लोगों का समर्थन और प्रशंसा मिलनी चाहिए, कि लोगों को उन्हें सम्मान देना चाहिए, उनकी पूजा करनी चाहिए—उन्हें लगता है कि यह सब उनका हक है। क्या ऐसे लोग निर्लज्ज और बेशर्म नहीं होते? क्या ऐसे लोगों का कलीसिया में मौजूद रहना समस्या नहीं है?” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों के जरिए मुझे अपने कार्यों की गंभीरता का पता चला। मैंने जाना कि अपने कर्तव्य में शोहरत, हैसियत और दूसरों की तारीफ पाने के लिए मैं मसीह-विरोधी स्वभाव दिखा रहा था। जब मैंने देखा कि मैथ्यू की सत्य की संगति प्रबोधक थी, उसे कर्तव्य में अच्छे नतीजे मिले, भाई-बहनों ने उसकी प्रशंसा की और अपने सवाल लेकर उसके पास गए, तो मुझे उससे जलन हुई। उससे आगे निकलने और दूसरों के मन में हैसियत पाने के लिए नौकरी छोड़ने का सोचा ताकि मैं कर्तव्य में पूरा समय दे सकूं, और जब किसी को अपनी समस्याओं के समाधान के लिए जरूरत हो तो मैं वहाँ पहुँच सकूँ। इस तरह दूसरे मेरे बारे में ऊँचा सोचेंगे और मेरे साथी के लिए उनके दिलों में कोई खास जगह नहीं बचेगी। हर बार मैथ्यू के साथ कर्तव्य पालन के दौरान मुझे लगा मानो मैं उसकी छाया में जी रहा था, खुद को अलग नहीं दिखा सकता था। मुझे भाई-बहनों से उसका आदर और तारीफ पाना कभी अच्छा नहीं लगा, और मैं यह भी चाहता था कि जब वह समूह चैट में संदेश भेजे तो कोई उसे जवाब न दे। उसके कारण भाई-बहन मुझ पर ध्यान नहीं देते थे, इसलिए मैंने अपना सारा समय उससे लड़ने में ही बिताया, इस आशा में कि मैं उससे आगे निकलकर सभी भाई-बहनों से प्रशंसा पाऊँगा। ऐसा व्यवहार मैं अक्सर शोहरत और हैसियत पाने के लिए दिखाता था। जब मेरी महत्वाकांक्षा और इच्छा पूरी नहीं हुई, तो लगा कि मैं खुद को अलग नहीं दिखा पाऊँगा, मैं उपदेशक नहीं रहना चाहता था, मैंने सोचा था कि मुझे अलग कर्तव्य में अपने लिए नाम बनाने का मौका मिलेगा। मुझे एहसास हुआ कि शोहरत और हैसियत के लिए मेरा जुनून काबू से बाहर था। मैं शोहरत और हैसियत के चक्कर में एक मसीह-विरोधी जैसा बन गया था—यह इच्छा मेरे भीतर गहरी जड़ें जमा चुकी थी, मेरे स्वभाव में निहित थी। मुझे एहसास हुआ कि मैं जिस रास्ते पर चल रहा था वह बेहद खतरनाक था। परमेश्वर के स्वभाव का अपमान नहीं किया जा सकता—वह धार्मिक है। यदि मैं बदलाव की कोशिश न करता, और कलीसिया के कार्य की सोचे बिना सिर्फ शोहरत और हैसियत की होड़ पर ध्यान लगाता, तो मुझे परमेश्वर अस्वीकार कर त्याग देता। मुझे अपने कार्यों के लिए गहरी घृणा महसूस हुई और मैं अपने साथी से हैसियत के लिए लड़ना नहीं चाहता था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मेरे शैतानी स्वभाव की बेड़ियों और बाधाओं से मुक्त होने में मेरी मदद करे।
तब मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “तुम्हारी खोज की दिशा या लक्ष्य चाहे जो भी हो, यदि तुम प्रतिष्ठा और रुतबे की खोज पर विचार नहीं करते और अगर तुम्हें इन चीजों को दरकिनार करना बहुत मुश्किल लगता है, तो इनका असर तुम्हारे जीवन प्रवेश पर पड़ेगा। जब तक तुम्हारे दिल में रुतबा बसा हुआ है, तब तक यह तुम्हारे जीवन की दिशा और उन लक्ष्यों को पूरी तरह से नियंत्रित और प्रभावित करेगा जिनके लिए तुम प्रयासरत हो और ऐसी स्थिति में अपने स्वभाव में बदलाव की बात तो तुम भूल ही जाओ, तुम्हारे लिए सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना भी बहुत मुश्किल होगा; तुम अंततः परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह बेशक स्पष्ट है। इसके अलावा, यदि तुमने कभी रुतबे के पीछे भागना नहीं छोड़ा, तो इससे तुम्हारे ठीक से कर्तव्य निभाने की क्षमता पर भी असर पड़ेगा। तब तुम्हारे लिए परमेश्वर का एक स्वीकार्य प्राणी बनना बहुत मुश्किल हो जाएगा। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? जब लोग रुतबे के पीछे भागते हैं, तो परमेश्वर को इससे बेहद घृणा होती है, क्योंकि रुतबे के पीछे भागना शैतानी स्वभाव है, यह एक गलत मार्ग है, यह शैतान की भ्रष्टता से पैदा होता है, परमेश्वर इसका तिरस्कार करता है और परमेश्वर इसी चीज का न्याय और शुद्धिकरण करता है। लोगों के रुतबे के पीछे भागने से परमेश्वर को सबसे ज्यादा घृणा है और फिर भी तुम अड़ियल बनकर रुतबे के लिए होड़ करते हो, उसे हमेशा संजोए और संरक्षित किए रहते हो, उसे हासिल करने की कोशिश करते रहते हो। क्या इन तमाम चीजों की प्रकृति परमेश्वर-विरोधी नहीं है? लोगों के लिए रुतबे को परमेश्वर ने नियत नहीं किया है; परमेश्वर लोगों को सत्य, मार्ग और जीवन प्रदान करता है, और अंततः उन्हें परमेश्वर का एक स्वीकार्य प्राणी, परमेश्वर का एक छोटा और नगण्य प्राणी बनाता है—वह इंसान को ऐसा व्यक्ति नहीं बनाता जिसके पास रुतबा और प्रतिष्ठा हो और जिसकी हजारों लोगों द्वारा आराधना की जाती हो। और इसलिए, इसे चाहे किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए, रुतबे के पीछे भागने का मतलब एक अंधी गली में पहुँचना है। रुतबे के पीछे भागने का तुम्हारा बहाना चाहे जितना भी उचित हो, यह मार्ग फिर भी गलत है, और परमेश्वर इसकी प्रशंसा नहीं करता। तुम चाहे कितना भी प्रयास करो या कितनी बड़ी कीमत चुकाओ, अगर तुम रुतबा चाहते हो, तो परमेश्वर तुम्हें वह नहीं देगा; अगर परमेश्वर तुम्हें रुतबा नहीं देता, तो तुम उसे पाने के संघर्ष में नाकाम रहोगे, और अगर तुम संघर्ष करते ही रहोगे, तो उसका केवल एक ही परिणाम होगा : तुम्हें उजागर करके निकाल दिया जाएगा, जिसके आगे कोई मार्ग नहीं है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों के जरिए मैंने देखा कि हैसियत के पीछे भागने से कर्तव्य निभाने की मेरी क्षमता प्रभावित हुई, साथ ही मैं एक सृजित प्राणी कहलाने के योग्य भी न रहा। क्योंकि मैं हमेशा हैसियत के पीछे भाग रहा था, मैथ्यू से आगे निकलना और सबकी प्रशंसा चाहता था, हमेशा बराबरी और प्रतिस्पर्धा में लगा रहा, मैं और ज्यादा दुर्भावनापूर्ण होता गया और मेरी सामान्य मानवता में भी कमी आ गई। मैंने देखा कि कैसे शोहरत और हैसियत की खोज सही रास्ता नहीं है, और कैसे वह बर्बादी का परमेश्वर-विरोधी मार्ग है। यह देखकर कि मैंने खुद को विश्वासी और सृजित प्राणी माना, मुझे सत्य की खोज पर ध्यान देना चाहिए, शोहरत और हैसियत की तलाश जैसी बेकार चीजों के लिए संघर्ष करना बंद करना चाहिए। तभी मैं ईश-विरोध नहीं करूंगा। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और कहा : “हे परमेश्वर! मैं अपनी शैतानी प्रकृति को पहचानने आया हूँ। प्रतिष्ठा और हैसियत के जुनून के चलते मुझे अक्सर मैथ्यू से जलन होती है और मैं उसके साथ साझेदारी नहीं करना चाहता। हे परमेश्वर! अब से मैं तुम्हारे सामने पश्चात्ताप करूँगा, शोहरत और हैसियत के पीछे नहीं भागूँगा। मैं केवल सत्य खोजूँगा और अपना कर्तव्य ठीक से निभाऊँगा। परमेश्वर, मुझे रास्ता दिखाओ, मेरी मदद करो।”
अपनी भक्ति के दौरान मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “तुम लोगों के आचरण के कौन-से सिद्धांत हैं? तुम्हारा आचरण तुम्हारे पद के अनुसार होना चाहिए, अपने लिए सही पद खोजो और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए उसे निभाओ; केवल ऐसा व्यक्ति ही समझदार होता है। उदाहरण के तौर पर, कुछ लोग कुछ पेशेवर कौशलों में निपुण होते हैं और सिद्धांतों की समझ रखते हैं, और उन्हें वह जिम्मेदारी लेनी चाहिए और उस क्षेत्र में अंतिम जाँचें करनी चाहिए; कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने विचार और अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकते हैं, और दूसरों को प्रेरित कर उन्हें अपने कर्तव्य बेहतर तरीके से निभाने में मदद कर सकते हैं—तो फिर उन्हें अपने विचार साझा करने चाहिए। यदि तुम अपने लिए सही पद खोज सकते हो और अपने भाई-बहनों के साथ सद्भाव से कार्य कर सकते हो, तो तुम अपना कर्तव्य पूरा करोगे, और तुम अपने पद के अनुसार आचरण करोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। मैंने सोचा : “मैं एक सामान्य व्यक्ति हूँ—मुझे एक सच्चा सृजित प्राणी बनने, अपनी जगह पर मजबूती से खड़े होने, दूसरों के साथ मिल-जुलकर काम करने और क्षमता के अनुसार कर्तव्य निभाने की कोशिश करनी चाहिए। केवल यही सही रास्ता है।” मैंने सोचा कि कैसे जब परमेश्वर ने आदम से जानवरों के नाम मांगे, तो उसने उन नामों पर सहमति दी जो आदम लाया था—उसने आदम को ठुकराया नहीं और अपने नाम बताकर यह नहीं दिखाया कि वह कितना बड़ा था, बल्कि आदम के चुनावों को माना। इससे मुझे पता चला कि परमेश्वर की दीनता और गोपनीयता वास्तव में प्यारी है। परमेश्वर सर्वोच्च है, समस्त सृष्टि का स्वामी है, फिर भी वह दीनतापूर्वक स्वयं को छिपा लेता है। जहाँ तक मेरी बात है, मैं सिर्फ एक सामान्य सृजित प्राणी था, पर मैं हमेशा दिखावा करना चाहता था और दूसरों से सम्मान चाहता था, यहाँ तक कि अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा के लिए उन्हें भी दबाने की कोशिश करता था, जिन्होंने अपने कर्तव्य में अच्छे नतीजे पाए थे। मैं बहुत अभिमानी और विवेकहीन था! मुझे अपनी करनी के लिए बहुत पछतावा हुआ, तो मैंने पश्चात्ताप के लिए परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, कि वह मुझे अपने साथी के सामने खुद को उजागर करने की ताकत दे।
बाद में मैंने साहस जुटाया और मैथ्यू से माफी माँगी, शोहरत और हैसियत के लिए होड़ करने के अपने मसीह-विरोधी स्वभाव को उजागर किया। ऐसे अभ्यास करके मुझे ज्यादा शांति महसूस हुई। बाद में मैथ्यू को परमेश्वर के कुछ वचन मिले जो मेरी स्थिति के लिए प्रासंगिक थे और वास्तव में मेरे लिए मददगार थे। मैं परमेश्वर का बहुत आभारी था! मैंने कसम खाई कि मैं उसके कहने के मुताबिक आचरण करूँगा। उसके बाद मैंने अपने साथी के संदेश अनदेखे करने बंद कर दिए अपनी जिम्मेदारी वाले सभी प्रोजेक्ट के बारे में उसे अपडेट करना शुरू किया, जिससे वह मेरे काम पर नजर रखने के साथ निगरानी और मदद कर पाया। हमने काम पर चर्चा की, सभाओं और संगति में भागीदारी की। हम एक दूसरे के पूरक बने और मिलकर कलीसिया के काम में सहयोग करने लगे। परमेश्वर का धन्यवाद!
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