जब ओहदे को पाने की इच्छा बढ़ने लगती है
जुलाई 2020 में, मैं भाई झाओ झिजियान और बहन ली म्यूकज़िन के साथ सिंचाई का काम संभाल रही थी। उनका प्रशिक्षण अभी-अभी शुरू हुआ था, इसलिए मैंने उन्हें सिद्धांतों को समझने और जल्द से जल्द काम से परिचित होने में मदद की, कुछ समझ न आने पर वे मुझसे पूछ लिया करते थे। कुछ समय बाद, मैंने देखा कि उन दोनों में कुछ खूबियाँ थीं। झिजियान में अच्छी काबिलियत थी, वे सिद्धांत जल्दी सीख लेते थे, म्यूशिन भी बेहद सक्षम थी—वह व्यवस्थित और कुशल तरीके से काम करती थीं। जब भी काम सौंपा जाता था, तो वे नए विश्वासियों की मुश्किलें हल करने के लिए शीघ्रता से परमेश्वर के वचनों को खोज लेते थे। मैं उनके सामने छोटा महसूस करने लगी। मैं उतनी कुशलता से काम नहीं कर पाती थी, उनके जैसी तेज़ भी नहीं थी। मुझे नए विश्वासियों के मुद्दों पर काफी सोचना पड़ता था। मुझे लगने लगा कि उनके मुक़ाबले मैं बहुत धीमी हूँ, मुझे ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती है। बाद में, जैसे-जैसे वे काम को ज़्यादा समझने लगे, वैसे-वैसे वे ज़्यादा केंद्रीय भूमिका निभाने लगे। कभी-कभी हमें एक साथ सिंचाई करने वालों के सवालों का जवाब देना होता था, क्योंकि मैंने अपने सारे काम पूरे नहीं किए होते थे, तो म्यूशिन कहती थीं कि, “चिंता मत कीजिए, उनके कुछ आसान सवाल हैं जिनका हम सीधे जवाब दे सकते हैं।” यह सुनकर मैं असहज हो जाती। क्या वे सिर्फ इसलिए मेरे साथ चर्चा करने से डरते थे क्योंकि मैं धीरे काम करती थी? मुझे ऐसा अकेलापन महसूस हुआ जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। मुझे चिढ़ भी होने लगी: मेरी काबिलियत इतनी कम क्यों थी? मेरी सोच सीमित थी और मैं जल्दी प्रतिक्रिया नहीं दे पाती थी। मैं उनके जैसी जवान या होशियार नहीं थी—वे हर चीज में प्रभावशाली थे। तो क्या अब से मैं सबसे कम काबिलियत वाली थी? वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? शायद वे कहें कि इतने समय से सिंचाई का काम करने के बाद भी, मेरा स्तर उनसे कम था, जबकि उन्होंने तो अभी-अभी प्रशिक्षण लिया था। यह कितना शर्मनाक होगा। उन्हें ऐसा न लगे कि मैं किसी काम की नहीं हूँ, इसलिए मैंने छुपकर काम करना शुरू कर दिया, रोज़ नए लोगों से मिलने में ज़्यादा समय लगाने लगी, परमेश्वर के वचन खोजने की कोशिश और नए विश्वासियों के मुद्दों पर विचार करने लगी। मुझे तो ऐसा भी लगा कि कपड़े धोना और खाना खाना समय की बर्बादी है, मैं परमेश्वर से बहुत प्रार्थना करती उनसे मदद मांगती ताकि मैं अपने कर्तव्य में और प्रभावशाली हो सकूँ। लेकिन जैसा सोचा था उसका उल्टा हुआ—चाहे मैंने कितनी भी मेहनत की, मेरी प्रभावशीलता कम ही होती गई। पता नहीं कब कर्तव्य के लिए जोश ख़त्म हो गया, मैं बहुत से मुद्दे अपने साथियों को संभालने के लिए देने लगी। मुझे लगने लगा कि मुझमें काबिलियत नहीं है, इसलिए मैं बस वही काम लेती जो कर पाऊँ। मेरी दशा बद से बदतर होती गई, मैं अपने कर्तव्य में एकदम निष्क्रिय हो गई, मैंने अपने काम में समस्याओं पर ध्यान देना बंद कर दिया। मेरी बुरी दशा देख कर, मेरे दोनों साथियों ने मेरे साथ सहभागिता की, लेकिन मुझे वह समझ नहीं आ रही थी। मैं अपनी दशा में बदलाव नहीं कर पाई और कुछ मुद्दे समय पर हल नहीं हो सके, जिसकी वजह से मेरे सिंचाई के काम का प्रदर्शन प्रभावित हो रहा था।
मेरे दशा के बारे में पता चलने पर अगुआ ने मेरे साथ सहभागिता की। उन्होंने कहा कि इसका मेरी क्षमता से लेना-देना नहीं है, कारण है नाम और ओहदे की अत्यधिक इच्छा, उन्होंने मुझसे अपनी दशा में जल्द बदलने को कहा ताकि उसकी वजह से हमारा काम न रुके। मुझे एहसास हुआ कि मैं अच्छी दशा में नहीं थी और कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी की कमी थी, ऐसी समस्याओं को हल करने में भी सक्षम नहीं थी जिन्हें मैं पहले हल कर पाती थी। पवित्र आत्मा का प्रबोधन महसूस नहीं हुआ; मैं सुन्न पड़ गई, कुछ समझ नहीं आ रहा था। मुझे प्रभु यीशु की कही बात याद आई : “क्योंकि जिसके पास है, उसे दिया जाएगा, और उसके पास बहुत हो जाएगा; पर जिसके पास कुछ नहीं है, उससे जो कुछ उसके पास है, वह भी ले लिया जाएगा” (मत्ती 13:12)। मैंने परमेश्वर की इच्छा के विपरीत कुछ किया होगा, इसलिए वह मुझसे अपना चेहरा छिपा रहे थे। मुझे डर लगने लगा और मैंने प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरा कर्तव्य कठिन है और मैं आपका मार्गदर्शन महसूस नहीं कर पा रही। कृपया मुझे प्रबुद्ध करें, मेरा मार्गदर्शन करें, ताकि मैं आत्मचिंतन कर अपनी समस्याओं को समझकर अपनी स्थिति बदल सकूँ।” उसके बाद मुझे अपनी स्थिति सुधारने के लिए परमेश्वर के वचन मिल गए। परमेश्वर कहते हैं, “प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, ‘क्योंकि जिसके पास है, उसे दिया जाएगा, और उसके पास बहुत हो जाएगा; पर जिसके पास कुछ नहीं है, उससे जो कुछ उसके पास है, वह भी ले लिया जाएगा’ (मत्ती 13:12)। इन वचनों का क्या अर्थ है? इनका अर्थ है कि यदि तुम अपना कर्तव्य या कार्य तक पूरा नहीं करते या उनके प्रति समर्पित नहीं होते, तो परमेश्वर वह सब तुमसे ले लेगा जो कभी तुम्हारा था। ‘ले लेने’ का क्या अर्थ है? एक इंसान के रूप में यह कैसा महसूस होता है? हो सकता है कि तुम उतना प्राप्त करने में भी नाकाम रहो जो तुम अपनी क्षमता और हुनर से कर सकते थे, और तुम कुछ महसूस नहीं करते, और बस एक अविश्वासी जैसे हो। यही है परमेश्वर द्वारा सब ले लिया जाना। यदि तुम अपने कर्तव्य में चूक जाते हो, कोई कीमत नहीं चुकाते, और ईमानदार नहीं हो, तो परमेश्वर वह सब छीन लेगा जो कभी तुम्हारा था, वह तुमसे अपना कर्तव्य करने का अधिकार वापस ले लेगा, वह तुम्हें यह अधिकार नहीं देगा। ... यदि तुम्हें अपना काम हमेशा निरर्थक लगता है, अगर ऐसा लगता है कि करने के लिए कुछ नहीं है, और तुम योगदान नहीं दे पाते, यदि तुम कभी प्रबुद्ध नहीं हुए हो, और खुद को इस्तेमाल की जा सकने वाली प्रवीणता या बुद्धिमत्ता से रहित समझते हो, तो यह समस्या है : यह दर्शाता है कि तुम्हारे पास अपना कर्तव्य निभाने के लिए सही मकसद या सही मार्ग नहीं है, और परमेश्वर इसे नहीं स्वीकारता, तुम्हारी स्थिति असामान्य है। तुम्हें चिंतन करना चाहिए : ‘मेरे पास अपना कर्तव्य निभाने के लिए कोई मार्ग क्यों नहीं है? मैंने इसका अध्ययन किया है, और यह मेरे पेशेवर दायरे में है—यहाँ तक कि मैं इसमें अच्छा भी हूँ। ऐसा क्यों है कि जब मैं अपना ज्ञान लागू करने की कोशिश करता हूँ, तो नहीं कर पाता? मैं उसका इस्तेमाल क्यों नहीं कर पाता? क्या हो रहा है?’ क्या यह एक संयोग है? यहाँ एक समस्या है। जब परमेश्वर किसी को आशीष देता है, तो वह बुद्धिमान और समझदार, सभी मामलों में कुशाग्रबुद्धि, और साथ ही तेज, सतर्क और विशेष रूप से कुशल बन जाता है; जो कुछ भी वह करता है, उसमें उसके पास कौशल होता है और वह प्रेरित होता है, और वह सोचता है कि वह जो कुछ भी करता है, वह बहुत आसान है और कोई भी कठिनाई उसे बाधित नहीं कर सकती—उसे परमेश्वर का आशीष प्राप्त है। अगर किसी को सब-कुछ बहुत कठिन लगता है, और चाहे वह कुछ भी कर रहा हो, वह अनाडी, हास्यास्पद और अनजान रहता है, और चाहे उससे कुछ भी कहा जाए, वह उसे नहीं समझता, तो इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि उसके पास परमेश्वर का मार्गदर्शन और आशीष नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, ‘मैंने खुद को झोंका है, तो फिर मुझे परमेश्वर का आशीष कैसे नहीं दिख रहा?’ अगर तुम केवल खुद को झोंकते और परिश्रम करते हो, लेकिन सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने का प्रयास नहीं करते, तो तुम अपने कर्तव्य में बेमन से काम कर रहे हो। तुम भला परमेश्वर के आशीष कैसे देख सकते हो? अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में हमेशा लापरवाह रहते हो और कभी भी कर्तव्यनिष्ठ नहीं होते, तो तुम पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध या रोशन नहीं किए जाओगे, और तुम्हारे पास परमेश्वर का मार्गदर्शन या उसका कार्य नहीं होगा, और तुम्हारे कार्य निष्फल रहेंगे। मानव-शक्ति और शिक्षा पर निर्भर रहकर कोई कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना या कोई मामला अच्छी तरह से सँभालना बहुत कठिन है। हर व्यक्ति सोचता है कि वह कुछ चीजें जानता है, कि उसके पास कुछ जानकारी है, लेकिन वह चीजें खराब तरीके से करता है, और चीजें हमेशा गड़बड़ा जाती हैं, जो व्यापक टिप्पणी और हँसी का कारण बनती हैं। यह एक समस्या है। हो सकता है, कोई स्पष्ट रूप से किसी काम का न हो, फिर भी सोचता है कि उसके पास जानकारी है, और किसी के सामने नहीं झुकता। इसका संबंध मनुष्य की प्रकृति में समस्या से है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, ईमानदार होकर ही व्यक्ति सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे घबराहट महसूस हुई। हाल में मेरे लिए सब कुछ कठिन और थकाने वाला था। मैं अपने काम की समस्याएँ नहीं देख पा रही थी, उन समस्याओं के सामने भी असहाय थी जिन्हें मैं पहले संभाल लेती थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं विद्रोह की अवस्था में थी और परमेश्वर ने मुझसे चेहरा छिपा लिया था। मैं कुछ महसूस नहीं कर पा रही थी, मैं बेवक़ूफ और मंदबुद्धि हो गई थी। मैं काफी समय से नए विश्वासियों की सिंचाई कर रही थी, मैं दर्शनों के कुछ सत्य और कुछ सिद्धांत समझती थी। समय के साथ कर्तव्य-प्रदर्शन बेहतर होना चाहिए था, लेकिन मेरी हालत बिगड़ती ही जा रही थी। पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन महसूस नहीं हो रहा था, कर्तव्य के प्रति मेरी रवैया, परमेश्वर के लिए घृणास्पद था। मैं परमेश्वर की धार्मिकता और पवित्रता को उनके वचनों से देख पाई। उनका लोगों को आशीर्वाद देना या उनसे कुछ ले लेना, सिद्धांतों पर आधारित होता है। जब लोग दिल लगा कर अपना कर्तव्य निभाते हैं, जब वे इसमें जी-जान लगा देते हैं, जब उनकी प्रेरणा परमेश्वर को संतुष्ट करने की होती है, तब पवित्र आत्मा का कार्य पाना आसान होता है। उनके पास अंतर्दृष्टि होती है और वे अपने कर्तव्य में समस्याएँ खोज पाते हैं, वे उन्हें हल करना जानते हैं। वे कर्तव्य में बेहतर होते जाते हैं। यदि लोग ईमानदारी से कर्तव्य नहीं निभाएँगे, हमेशा प्रतिष्ठा और ओहदे के बारे में सोचेंगे, तो उन्हें पवित्र आत्मा का कार्य नहीं मिलेगा। फिर वे सुन्न और मूर्ख बनकर पहले की तरह अपनी खूबियों का प्रदर्शन नहीं कर पाते। ऐसे कर्तव्य को अच्छी तरह निभाना असंभव है। उस समय की अपनी स्थिति पर सोचा। जब मैंने अपने दो साथियों के साथ काम करना शुरू किया, तो पहले मुझमें बोझ की भावना थी, मैं उन्हें काम जल्दी सीखने में मदद कर पाई थी, लेकिन जब मैंने देखा कि वे तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं और हर काम में मुझसे ज़्यादा कुशल हैं, तो मुझे खतरा महसूस हुआ, लगा मैं अपनी प्रमुख भूमिका खो दूँगी, इस तरह मैं अपने रास्ते से भटक गई। मैं नहीं चाहती थी कि वे मेरी ख़ामियाँ देखें, इसलिए मैंने रात-रात भर जाग कर कड़ी मेहनत की। सिंचाई में और ज़्यादा प्रभावी होने के लिए, मैं नए विश्वासियों के साथ अधिक समय बिताने लगी। लेकिन चाहे मैंने कितनी भी मेहनत की, मैं हमेशा उनसे कम ही काम कर पाई। मैंने अपनी सारी शक्ति अपने साथियों के साथ होड़ करने में लगा दी। मैंने परमेश्वर से भी मदद माँगी कि मैं अपने काम में अधिक कर पाऊँ, अपनी प्रतिष्ठा बनाए रख पाऊँ। मैं बहुत बेतुकी थी। मैं परमेश्वर का उपयोग कर रही थी, उन्हें धोखा दे रही थी, यह कर्तव्य का निर्वहन कैसे था? मैं अफसोस से भर गई और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं नाम और ओहदे के पीछे भागता रही, अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाया। मैं सिंचाई के काम में बाधक बन गई हूँ। मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ।”
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो मेरे लिए बेहद सहायक था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “तुम अपना काम अच्छे से कर सकते हो या नहीं, यह तुम्हारे कौशल, तुम्हारी क्षमता की गुणवत्ता, तुम्हारी मानवता, योग्यता या तुम्हारे हुनर का मामला नहीं है; यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुम सत्य स्वीकार सकते हो और क्या उसे व्यवहार में ला सकते हो। अगर तुम सत्य को अमल में लाने और दूसरों के साथ उचित व्यवहार करने में सक्षम हो, तो तुम दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग कर सकते हो। व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है या नहीं और दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग कर सकता है या नहीं, इसकी कुंजी इसमें निहित है कि वह सत्य स्वीकार कर उसका पालन कर सकता है या नहीं। लोगों की क्षमता, गुण, अभिवृत्ति, उम्र आदि मुख्य चीजें नहीं हैं, वे सभी गौण हैं। सबसे महत्वपूर्ण चीज यह देखना है कि व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं, और वह सत्य का अभ्यास कर सकता है या नहीं। उपदेश सुनने के बाद, जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं और सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, वे स्वीकार करेंगे कि यह सही है। वास्तविक जीवन में, जब उनका सामना लोगों, घटनाओं और वस्तुओं से होता है, तो वे ये सत्य लागू करेंगे। वे सत्य अमल में लाएँगे, वह उनकी वास्तविकता और उनके जीवन का एक हिस्सा बन जाएगा। यह वे दिशा-निर्देश और सिद्धांत बन जाएँगे, जिनके द्वारा वे आचरण और कार्य करते हैं; यह वह चीज बन जाएगी, जिसे वे जीते और प्रदर्शित करते हैं। उपदेश सुनते समय, जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे भी उसे सही मानते हैं, और सोचते हैं कि वे सब समझते हैं। उन्होंने अपने दिल में सिद्धांत दर्ज कर लिए हैं, लेकिन कोई काम करते समय उस पर विचार करने के लिए वे किन सिद्धांतों और दिशानिर्देशों का उपयोग करते हैं? वे हमेशा चीजों पर अपने हितों के अनुसार विचार करते हैं; वे सत्य का उपयोग करके चीजों पर विचार नहीं करते। वे डरते हैं कि सत्य का अभ्यास करने पर वे हार जाएँगे, और वे दूसरों के द्वारा न्याय किए जाने और नीचा दिखाए जाने से डरते हैं—इज्जत खोने से डरते हैं। वे बार-बार विचार करते हैं, फिर अंत में सोचते हैं, ‘मैं सिर्फ अपनी हैसियत, प्रतिष्ठा और हितों की रक्षा करूँगा, यही मुख्य बात है। जब ये चीजें प्राप्त हो जाएँगी, मैं संतुष्ट हो जाऊँगा। अगर ये चीजें प्राप्त नहीं होतीं, तो मुझे सत्य का अभ्यास करने में खुशी नहीं होगी, और न ही यह सुखद लगेगा।’ क्या यह वह व्यक्ति है, जो सत्य से प्रेम करता है? बिलकुल नहीं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। मैंने परमेश्वर के वचनों से सीखा कि कर्तव्य को सही ढंग से निभाना किसी की क्षमता, खूबियों या उसकी उम्र से जुड़ा हुआ नहीं होता है। बल्कि इससे जुड़ा है कि क्या वे सत्य से प्रेम और उसका अभ्यास करते हैं। यदि वे यह सब नहीं करते है बल्कि, शब्द और कर्म में बस सम्मान और ओहदे के बारे में सोचते हैं, कलीसिया के काम को बनाए नहीं रखते, तो उनकी क्षमता या खूबियाँ कितनी ही हों, वे अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से नहीं कर पाएँगे। मुझे हमेशा से यही लगता था कि अच्छी क्षमता और खुली सोच वाला व्यक्ति कर्तव्य सही ढंग से निभाता होगा, जबकि जो लोग बूढ़े थे और जिनमें क्षमता की कमी थी, वे चाहे कुछ भी कर लें, सफल नहीं हो सकते। मैं सत्य नहीं समझ पाई, लोगों और चीजों को हमेशा अपनी धारणाओं के चश्मे से देखा। मैं मूर्ख और अज्ञानी थी! परमेश्वर सभी को अलग क्षमताएँ देते हैं, अलग-अलग खूबियाँ देते हैं, हर किसी से उनकी अपेक्षा अलग है। कलीसिया में हम सब साथ में काम करते हैं ताकि हर कोई अपनी क्षमता के हिसाब से काम करे और एक-दूसरे की कमजोरियों को पूरा करे। तभी जा कर हम अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकते हैं। अच्छी क्षमता वाले दो सहयोगी हों तो काम की कुशलता बढ़ सकती है। समस्या तेजी से हल होगी, और इस तरह हमारा काम नहीं रुकेगा। अगर मैं अपने अहंकार को छोड़ कर दूसरों की खूबियों से सीख पाती, तो क्या मैं तेजी से प्रगति नहीं करती? मुझमें मेरे सहयोगियों जैसी क्षमता नहीं थी, लेकिन मैं इतनी भी बेकार नहीं कि काम भी पूरा न कर सकूँ। जब मेरा रवैया ठीक हुआ और मैं कर्तव्य के लिए मेहनत कर उसे गंभीरता से लेने को तैयार हुई, तब मुझे समस्याएँ और स्पष्ट रूप से दिखी जिससे चीजें तेज़ी से हल होती चली गईं। मुझे नाम और रुतबे की हानि और अपने लाभ के बारे में सोचना बंद करना होगा। फिर मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने में लग गई, सहयोगियों के साथ होड़ नहीं की, दिल लगा कर अपना कर्तव्य निभाती रही। धीरे-धीरे मेरी स्थिति बदल गई और मेरा काम अच्छे से होने लगा।
लेकिन कुछ ही समय बाद एक बार फिर मेरे सामने वही समस्या उठ खड़ी हुई। कुछ नए विश्वासी, जिन्होंने अभी-अभी अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को स्वीकार किया था, हमारी कलीसिया में आए। झिजियान और मुझे उनका सिंचन करना मेरा था। हालांकि सिंचाई करते उन्हें ज़्यादा समय नहीं हुआ था, फिर भी वह समस्याओं का हल निकालने के लिए परमेश्वर के सटीक वचन ढूँढ लेते थे, और उनकी सहभागिता बहुत स्पष्ट थी। कुछ समस्याएँ तो मुझसे हल हो जाती थीं लेकिन उनकी तरह स्पष्टता से संवाद नहीं कर पाती थी। नवागंतुकों को झिजियान की सहभागिता मुझसे ज़्यादा पसंद आती थी। मुझे ईर्ष्या हो रही थी। झिजियान कितने कम समय में कितने आगे निकल गए हैं, जबकि मुझे वहाँ तक पहुँचने में कितने ही साल लग गए थे। मैं हीन महसूस करने लगी। जब लोग अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए झिजियान के पास जाने लगे ताकि उन पर काम किया जा सके, तब मुझे बेहद ईर्ष्या होती थी। अच्छी क्षमता हो तो कितना फर्क पड़ता है। उन्हें न सिर्फ दूसरों की प्रशंसा मिली बल्कि कर्तव्य में कम प्रयास करके बेहतर परिणाम भी मिले। अगर मेरे पास झिजियान की तरह क्षमता होती, तो शायद हर कोई मेरी भी प्रशंसा करता। लेकिन मेरी उम्र 50 से अधिक थी और क्षमता कम थी। चाहे कितनी भी कोशिश कर लूँ, मेरा स्तर ऊपर नहीं उठेगा। देखते-देखते मेरी कर्तव्य निभाने की प्रेरणा खत्म हो गई। जब भी सभा में नए विश्वासी कोई सवाल पूछते तो मैं झिजियान को जवाब देने को कहती और खुद कुछ सरल टिप्पणियां जोड़ देती। कर्तव्य निभाने में मुझे कोई रुचि नहीं रही जिस कारण मैं परमेश्वर से भी दूर हो गई। प्रार्थना में क्या कहना है, यह भी न सूझता, कभी-कभी तो रात में प्रार्थना करते समय सो भी जाती थी। अपनी खतरनाक स्थिति का जब एहसास हुआ तो मैंने खोज की और विचार किया। अपनी क्षमता में कमी देखकर मैं कर्तव्य में नकारात्मक और निष्क्रिय हो गई थी : इसके पीछे कौन सा भ्रष्ट स्वभाव था?
फिर, मैंने कुछ ईश-वचन पढ़े। “किसी भी व्यक्ति को स्वयं को पूर्ण या प्रतिष्ठित और कुलीन या दूसरों से भिन्न नहीं समझना चाहिए; यह सब मनुष्य के अभिमानी स्वभाव और अज्ञानता से उत्पन्न होता है। हमेशा अपने आप को विशिष्ट समझना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी अपनी कमियाँ स्वीकार न कर पाना, और कभी भी अपनी भूलों एवं असफलताओं का सामना न कर पाना—अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; वह कभी भी दूसरों को अपने से ऊँचा नहीं होने देता है, या अपने से बेहतर नहीं होने देता है—ऐसा उसके अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; दूसरों को कभी खुद से श्रेष्ठ या ताकतवर न होने देना—यह एक अहंकारी स्वभाव के कारण होता है; कभी दूसरों को अपने से बेहतर विचार, सुझाव और दृष्टिकोण न रखने देना, और, ऐसा होने पर नकारात्मक हो जाना, बोलने की इच्छा न रखना, व्यथित और निराश महसूस करना, तथा परेशान हो जाना—ये सभी चीजें उसके अभिमानी स्वभाव के ही कारण होती हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। इन वचनों से मेरी असल स्थिति का पता चला। अपनी क्षमता की तुलना सहयोगियों की क्षमता से करने पर मैं नकारात्मक होकर पीछे हट गई। इसका असली कारण मेरा अभिमानी स्वभाव था। अहंकार के कारण, मैं अपनी कमजोरियों और कमियों का ठीक से सामना नहीं कर पाई, यह सह नहीं पाई कि दूसरे लोग मुझसे बेहतर या अधिक सक्षम थे। हर पहलू में अपने सहयोगियों को बेहतर काम करते देख, समूह में एक केंद्रीय भूमिका निभाते और हर किसी की प्रशंसा और अनुमोदन पाते देख, मुझे असहजता और दुविधा महसूस हुई, मैं वास्तविकता स्वीकार नहीं पा रही थी। हालांकि मैंने मान लिया था कि मेरी क्षमता दूसरों से कम है, लेकिन दिल से नहीं स्वीकार पाई थी। मन-ही-मन होड़ कर रही थी। उनसे खुद की तुलना करने पर अड़ी हुई थी। उन्हें हरा नहीं पाई तो नकारात्मक हो गई, कर्तव्य निभाने के लिए ऊर्जा न रही। क्या यह मेरा अहंकारी स्वभाव नहीं था? मैं बहुत अहंकारी और अज्ञानी थी!
मसीह-विरोधियों के स्वभाव के बारे में बताते परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा। परमेश्वर कहते हैं, “मसीह-विरोधी के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होती हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : ‘मेरी हैसियत का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरी हैसियत बढ़ेगी?’ यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; वे अन्यथा इन समस्याओं पर विचार नहीं करेंगे। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिलकुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास हैसियत और प्रतिष्ठा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? हैसियत और प्रतिष्ठा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज के लिए वे दैनिक आधार पर प्रयास करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ी होती हैं। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी वातावरण में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज के लिए प्रयास करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और उच्च पद पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और उनका सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी प्राचीन जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ना नहीं छोड़ेंगे। तुम उन्हें लोगों के किसी भी समूह में रख दो, फिर भी वे सिर्फ हैसियत और प्रतिष्ठा के बारे में ही सोचेंगे। हालाँकि मसीह-विरोधी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन वे अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को परमेश्वर में आस्था के बराबर समझते हैं और उसे समान महत्व देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चलते हैं, तो वे अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा का अनुसरण भी करते हैं। कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी अपने दिलों में यह मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास और सत्य की खोज हैसियत और प्रतिष्ठा की खोज है; हैसियत और प्रतिष्ठा की खोज सत्य की खोज भी है, और हैसियत और प्रतिष्ठा प्राप्त करना सत्य और जीवन प्राप्त करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रतिष्ठा या हैसियत नहीं है, कि कोई उनकी प्रशंसा या आराधना या उनका अनुसरण नहीं करता, तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है, और वे मन ही मन कहते हैं, ‘क्या परमेश्वर में ऐसा विश्वास असफलता है? क्या यह निराशाजनक है?’ वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी बातों पर सोच-विचार करते हैं, वे सोचते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, कैसे वे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, ताकि जब वे बात करें तो लोग उन्हें सुनें, और जब वे कार्य करें तो लोग उनका समर्थन करें, और जहाँ कहीं वे जाएँ, लोग उनका अनुसरण करें; ताकि कलीसिया में उनके पास शक्ति हो, प्रतिष्ठा हो, ताकि वे लाभ और हैसियत प्राप्त कर सकें—वे वास्तव में ऐसी चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे दौड़ते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन))। मसीह-विरोधी स्वभावों को उजागर करते वचन बेहद मार्मिक थे, मेरे लिए कठिन थे। उनका नाम और ओहदे के पीछे भागना अस्थाई नहीं है, यह उनकी आत्मा में है, पूरा जीवन बीत जाता है ऐसे भागने में। उनके लिए, ओहदा सबसे ज़रूरी है, उनके जीवन जितना ज़रूरी है। मसीह-विरोधी हमेशा बड़ा बनना चाहते हैं जो दूसरों के नीचे नहीं रह सकते। उन्हें कर्तव्य निभाने के लिए हर किसी से सम्मान और प्रशंसा चाहिए होती है। उसके बिना वे नकारात्मक और सुस्त हो जाते हैं, यहां तक कि विश्वास में भी रुचि खो देते हैं। मेरा व्यवहार मसीह-विरोधी व्यवहार से कैसे अलग था? दूसरों से प्रशंसा और सम्मान पाकर तो मैं कर्तव्य निभाने के लिए प्रेरित रहती थी, लेकिन जब मेरे सहयोगी उत्कृष्ट प्रदर्शन करके मुझसे आगे निकल गए, ओहदा पाने की मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई, तब कर्तव्य निभाने का बोझ महसूस होना बंद हो गया। सिंचाई का काम इस समय बहुत महत्वपूर्ण है, बहुत सारे नवागंतुकों को सिंचाई की तत्काल आवश्यकता है। उन्हें सत्य सीखने और परमेश्वर के कार्य को समझने में मदद करनी चाहिए थी, ताकि जल्दी वे सच्चे मार्ग पर जड़ें जमा सकें, लेकिन मैं मन लगा कर काम नहीं कर रही थी। मेरे मन में तो नाम और ओहदा था, जिस कारण मैंने सारा भार झिजियान पर डाल दिया। मैं अपना काम नहीं कर रही थी। मुझे कोई मानवता नहीं थी! कर्तव्य अच्छी तरह से न होने पर भी मुझे अपराध बोध या पछतावा महसूस नहीं हुआ। प्रतिष्ठा या ओहदे को ख़तरे में देख कर ऐसा लग रहा था कि मेरा जीवन ही ख़तरे में है। नुकसान और फ़ायदे गिनते हुए मैं नकारात्मक और कमजोर हो गई थी। उम्मीद करती रही कि मेरी क्षमता भी मेरे सहयोगियों जैसी अच्छी हो जाए, सभी अपनी समस्याओं का हल मुझसे लेने आए, हर कोई चर्चा करने मेरे पास आए, ताकि मैं समूह का केंद्र बन जाऊँ। हमेशा इसी के पीछे भागती रही, हमेशा इसी को पाना चाहा। मेरा ध्यान दूसरों को मेरी ओर देखने, मेरी प्रशंसा करवाने पर लगा था। इस तरह की खोज और दृष्टिकोण तो मसीह-विरोधी रखते हैं, है ना? क्योंकि मैं गलत राह पर थी, इसलिए मैंने पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन खो दिया, वो काम नहीं किया जो करना चाहिए था। तो भले ही मुझे उच्च स्थान मिल जाए, हर किसी की प्रशंसा मिल जाए, क्या परमेश्वर मेरा बहिष्कार नहीं कर देंगे? जब मुझे इसका एहसास हुआ, तो मैं डर गई। मैंने देखा कि ओहदे का पीछा करके, मैं ऐसे रास्ते पर हूँ जो परमेश्वर के खिलाफ जाता था! मैं अपनी राह बदलकर दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करना बंद करना चाहती थी। अपना कर्तव्य निभाना चाहती थी।
मैंने अभ्यास का एक रास्ता खोजा। मुझे ये ईश-वचन याद आए। “अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए किसी को क्या करना चाहिए? इसे पूरे मन और पूरी ऊर्जा से निभाना चाहिए। अपने पूरे मन और ऊर्जा का उपयोग करने का अर्थ है कि अपने सभी विचारों को अपना कर्तव्य निभाने पर केंद्रित करना और अन्य चीजों को हावी न होने देना, और फिर जो ऊर्जा है उसे लगाना, अपनी संपूर्ण शक्ति का प्रयोग करना, और कार्य संपादित करने के लिए अपनी क्षमता, गुण, खूबियों और उन चीजों का प्रयोग करना जो समझ आ गई हैं। यदि तुम बातों को समझते हो, स्वीकारते हो और तुम्हारे पास कोई अच्छा विचार है, तो तुम्हें इस बारे में दूसरों से संवाद करना चाहिए। सद्भाव में सहयोग करने का यही अर्थ होता है। इस तरह तुम अपने कर्तव्य का पालन अच्छी तरह से करोगे, इसी तरह अपने कर्तव्य को संतोषजनक ढंग से कर पाओगे। यदि तुम हमेशा सब-कुछ अपने ऊपर लेना चाहते हो, यदि तुम हमेशा बड़े कार्य अकेले करना चाहते हो, यदि तुम हमेशा यह चाहते हो कि ध्यान तुम पर केंद्रित हो, दूसरों पर नहीं, तो क्या तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो? तुम जो कर रहे हो उसे तानाशाही कहते हैं; यह दिखावा करना है। यह शैतानी व्यवहार है, कर्तव्य का निर्वहन नहीं। किसी की क्षमता, गुण, या विशेष प्रतिभा कुछ भी हो, वह सभी कार्य स्वयं नहीं कर सकता; यदि उसे कलीसिया का काम अच्छी तरह से करना है तो उसे सद्भाव में सहयोग करना सीखना होगा। इसलिए सौहार्दपूर्ण सहयोग, कर्तव्य के निर्वहन के अभ्यास का एक सिद्धांत है। अगर तुम अपना पूरा मन, सारी ऊर्जा और पूरी निष्ठा लगाते हो, और जो हो सके, वह अर्पित करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा रहे हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। इन वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। मेरी क्षमता से कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक मैं ईमानदारी से दूसरों के साथ अच्छा काम करती रहूँगी, अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करती रहूँगी और बिना कोई खेल खेले वह सब करती रहूँगी जिसमें मैं अच्छी हूँ, तो वह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होगा। वास्तव में, परमेश्वर ने हम तीनों को अलग क्षमताएँ और खूबियाँ दी हैं ताकि हम एक-दूसरे के पूरक बन सकें। मेरे दो सहयोगियों में अच्छी क्षमता थी और वे काम करने में कुशल थे, वे समस्याओं के प्रमुख हिस्सों को देख लेते थे। जो मुझमें कमी थी, उसे वे पूरा करते थे। मेरी क्षमता थोड़ी कम थी लेकिन मैं उम्र में उनसे बड़ी थी, इसलिए अधिक सावधानी और पूर्ण तरीके से सोच सकती थी। हम सभी के पास खूबियाँ थीं, हम एक साथ काम कर सकते थे, जिससे हमारे काम को फायदा होता। लेकिन सत्य खोजने के बजाय, मैं अपने सहयोगी की खूबियों की तुलना खुद से कर रही थी, जिस वजह से मैं नकारात्मक और निष्क्रिय हो गई और अपना कर्तव्य नहीं निभा पाई। सोचती हूँ तो लगता है कितनी मूर्ख थी मैं। इस समझ के साथ आगे काम करते समय, मैं अधिक सक्रिय हो पाई। मुझे जो भी कठिनाई या समस्या होती, उन पर मैं अपने सहयोगियों से चर्चा करती। जब मैं क्षमता और उम्र के आगे बेबस न रही, तब मैं अपना कर्तव्य बेहद आराम से निभा पाई। जब हम प्रत्येक व्यक्ति की खूबियों को सामने लाने के लिए सहयोग करते हैं, तब हम सद्भाव के साथ एक साथ काम कर सकते हैं। सभी मिलकर अच्छे से काम कर पाते हैं और हमारा सिंचाई का काम अधिक सफल होता है।
इससे मुझे परमेश्वर की एक बात याद आ गई : “तुम लोगों में से कई लोग एक-साथ अपना कर्तव्य निभा रहे हों या कुछ लोग, चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों, और चाहे जो भी समय हो, यह एक बात मत भूलना—सर्वसम्मति रखना। इस अवस्था में रहने से तुम्हें पवित्र आत्मा का कार्य मिल सकता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। जब हम नाम और ओहदे को छोड़कर दूसरों के साथ मिल कर काम करेंगे, तभी हम पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन और कर्तव्यों में अच्छे परिणाम प्राप्त करेंगे।
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