खुशामदी इंसान होने के नतीजे
पहले मैं खुशामदी किस्म की महिला थी। जब भी मैं किसी भाई या बहन को भ्रष्टता का खुलासा करते या अपने कर्तव्य को लापरवाही से निभाते देखती, तो मैं उनकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहूँचाने और उनके मन में मेरे बारे में गलत धारणा छोड़ने के डर से उन्हें इसके बारे में बताने की हिम्मत नहीं करती थी। भाई-बहनों के साथ बातचीत करते समय मैं “बोलने से पहले सोचें और फिर आत्मसंयम के साथ बात करें” के शैतानी फलसफे का पालन करती थी, और जब मैं वास्तव में लोगों की मदद करने के लिए उन्हें कुछ बताती थी, तो मैं बस एक या दो शब्द बोल देती थी जो स्थिति को कम करके आंकते थे। कभी-कभी, जब मैं भाई-बहनों को मुझे मिलनसार के रूप में वर्णित करते हुए सुनती, तो मेरा दिल खुशी से उछल पड़ता। मुझे विश्वास होता कि वे मुझे पसंद करते हैं, और इसलिए, परमेश्वर भी मुझे पसंद करता होगा। यह केवल तब हुआ जब मेरी काट-छाँट की गई, और जब मैं असफल हुई और जब मैंने ठोकर खाई, कि मैं अपने बारे में कुछ समझ हासिल करने में सक्षम हुई, और लोगों को खुश रखने वाली होने की प्रकृति, नुकसान और परिणामों को स्पष्ट रूप से देख पाई।
2018 में मेरा कलीसिया की अगुआ के रूप में चयन हुआ। मैं जानती थी कि अगुआ होने की सबसे अहम जिम्मेदारियों में से एक है सत्य पर संगति करना, दूसरों के जीवन प्रवेश से जुड़ी समस्याओं को हल करना और कलीसियाई जीवन की रक्षा करना। मगर मैं लोगों को नाराज करने से डरती थी, इसलिए जब भी मुझे किसी समस्या का पता चलता, तो इसे संभालने में मैं हमेशा उदार और विनम्र सलाह देने का तरीका अपनाती। उस दौरान, मैंने देखा कि सिंचन कार्य के उपयाजक, भाई लियु लियांग लापरवाह था, अपने काम की कोई जिम्मेदारी नहीं उठाता था और जब नए विश्वासियों को किसी समस्या का सामना करना पड़ता तो उनका तुरंत समाधान खोजने के लिए वह उनके साथ संगति नहीं करता था, जिससे उनमें से कुछ लोग निराश और कमजोर पड़ जाते थे। मुझे पता था कि इस समस्या की प्रकृति कितनी गंभीर है, और मुझे उनके साथ संगति करके विश्लेषण करना चाहिए कि वह अपने कर्तव्य में लापरवाह कैसे था। अगर उसने पश्चात्ताप करके अपना रवैया नहीं बदला, तो यकीनन इससे परमेश्वर को घृणा होगी। मगर जैसे ही मैंने भाई लियु लियांग को देखा, मैं पीछे हट गई। मैंने सोचा, “वह वास्तव में अपनी प्रतिष्ठा को महत्व देता है, तो अगर मैंने इन समस्याओं की ओर उसका ध्यान दिलाया और उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाई, तो वह मेरे बारे में निश्चित रूप से अच्छा नहीं सोचेगा। अगर उसने इसे मानने से इनकार कर दिया और मेरे प्रति किसी प्रकार की शत्रुता या मनमुटाव विकसित कर लिया, तो इससे न केवल मुझे शर्मिंदगी होगी, बल्कि उसके बाद साथ काम करना भी मुश्किल हो जाएगा। अगर भाई-बहन यह मानने लगें कि अगुआ बनते ही मैं लोगों को डांटने और फटकारने लगी हूँ, तो क्या अब भी उनमें मेरे प्रति अच्छी धारणा रहेगी? भूल जाओ, मैं उसके साथ संगति नहीं करूँगी या उसकी समस्या का विश्लेषण नहीं करूँगी।” इसलिए, मैंने उसे बस धीरे से यह सलाह दी, “हमें अपने कर्तव्य में और अधिक दिल लगाना होगा, जिम्मेदारी उठानी होगी ...।” जिसके चलते, लियु लियांग ने कर्तव्य के प्रति अपने लापरवाह रवैये के सार को नहीं जाना और वह हमेशा की तरह उसी गैर-जिम्मेदाराना तरीके से काम करता रहा। यह देखकर मुझे अच्छा नहीं लगा। कलीसिया की अगुआ के तौर पर, मैंने एक भाई को अपने कर्तव्य में लापरवाही करते देखा, कलीसिया के काम पर इसका असर पड़ते देखा, मगर सत्य पर संगति करके इस समस्या को हल नहीं किया। यह वास्तविक काम करना कैसे हुआ? यह तो कर्तव्य में गंभीर लापरवाही हुई। मैंने इस बारे में जितना सोचा, उतना ही मुझे बुरा लगा, मगर फिर भी मैं उसे उजागर करने के लिए कुछ बोल नहीं पाई। मुझे चिंता थी कि अगर मैंने उसे उजागर कर दिया और उसकी काट-छाँट कर दी, तो उसे लगेगा कि मुझमें दया नहीं है, और अगर वह नकारात्मक हो गया, हार मान ली और अपना कर्तव्य छोड़कर चला गया, तो भाई-बहन यह सोच सकते हैं कि मैं काम करने में असमर्थ हूँ। इससे न केवल हमारे सामान्य संबंध खराब होंगे, बल्कि मेरी प्रतिष्ठा को भी नुकसान पहुँचेगा। मैंने सोचा, “इसे भूल जाओ, चूंकि मैंने पहले ही भाई लियु लियांग से कुछ बात कर ली है, इसलिए मैं उसे समय के साथ इस पर विचार करने दूँगी।” इस तरह, मैंने कभी भी उसकी समस्या को उजागर करके उसका विश्लेषण नहीं किया।
बाद में मैंने देखा कि मेरे साथ काम करने वाले दो अन्य भाई चीजों के बारे में अलग नजरिया रखने के कारण हमेशा एक दूसरे से लड़ते रहते थे। उनमें से कोई भी पीछे नहीं हटता था और कार्य पर उनकी चर्चाएँ कभी काम की नहीं होती थीं। कभी-कभी बहस करने के बाद, उनमें मनमुटाव हो जाता था, जिससे कलीसिया के काम में रुकावट आती थी। मुझे पता था यह समस्या कितनी गंभीर थी, मैंने सोचा कि मुझे उनके अहंकार, आत्मतुष्टता और जिद्दीपन की अभिव्यक्ति, प्रकृति और परिणामों को उजागर करने में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। मगर फिर, जैसे ही मैंने उन्हें देखा, मैं पीछे हट गई। मैंने सोचा, “वे दोनों वर्षों से अगुआ हैं, इसलिए उन्हें इस समस्या के बारे में मेरे द्वारा बताए बिना ही पता होना चाहिए। इसके अलावा, मेरे साथ उनका बर्ताव भी बहुत अच्छा था, अगर मैंने उनकी समस्या की प्रकृति और परिणामों पर संगति की तो वे सोच सकते हैं कि मैं बस उन दोनों में कमी ढूंढने की कोशिश कर रही हूँ। फिर उनके साथ काम करना मुश्किल हो जाएगा। इसे भूल जाओ। वे वैसे भी अक्सर परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, इसलिए वे समय के साथ इस पर कुछ विचार कर सकते हैं।” इसलिए, जब मैंने उन्हें दोबारा लड़ते देखा तो मैंने सीधे तौर पर उनकी समस्याओं को उजागर किये बिना, सलाह के दो-चार शब्द कहे और उनसे शांत रहने के लिए कहा।
एक दिन, एक बहन ने मुझे कहा, “हमारी कलीसिया का कार्य बहुत अच्छा नहीं चल रहा है। कुछ भाई-बहनों के कर्तव्यों में स्पष्ट समस्याएँ हैं और तुम लोग इन चीजों को हल करने के लिए संगति नहीं कर रहे हो। क्या वास्तविक कार्य न करने की यह कमी तुम लोगों को झूठा अगुआ नहीं बनाती?” यह सुनकर बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। मुझे स्पष्ट रूप से मालूम था कि कुछ भाई-बहनों के साथ समस्याएँ थीं, जिनके बारे में मैं चुप थी। मैं किसी भी तरह से अगुआ की भूमिका नहीं निभा रही थी। क्या मैं झूठी अगुआ नहीं हूँ? मैं जानती थी, अगर मैं सत्य का अभ्यास करने में विफल रही, तो परमेश्वर मुझे ठुकरा देगा और वह मुझे निकाल देगा। इस संभावना ने मुझे बहुत डरा दिया और मैंने यह प्रार्थना की : “परमेश्वर, मैंने कुछ भाई-बहनों को उनके भ्रष्ट स्वभाव में जीते देखा है, और इसका हमारे कलीसियाई जीवन और कलीसिया के कार्य के विभिन्न पहलुओं पर गंभीर असर पड़ा है, मगर मैं इसे हल करने के लिए सत्य का अभ्यास नहीं कर सकती। परमेश्वर, कृपया खुद को जानने में मेरा मार्गदर्शन कर।”
प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “सत्य का पालन करना खोखले शब्द बोलना या नारे लगाना नहीं होता। बल्कि इसका मतलब यह होता है कि, जीवन में व्यक्ति का सामना चाहे किसी भी व्यक्ति से हो, अगर यह इंसानी आचरण के सिद्धांत, घटनाओं पर दृष्टिकोण या कर्तव्य निर्वहन के मामले से जुड़ा हो, तो उन्हें विकल्प चुनना होता है, और उन्हें सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में आधार और सिद्धांत तलाशने चाहिए और फिर पालन का मार्ग खोजना चाहिए। इस तरह अभ्यास कर सकने वाले लोग वे हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। कितनी भी बड़ी मुसीबतें आने पर, इस तरह सत्य के मार्ग पर चल पाना, पतरस के मार्ग पर चलना, सत्य का अनुसरण करना है। उदाहरण के तौर पर : लोगों से संवाद करते समय किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? शायद तुम्हारा मूल दृष्टिकोण यह है कि ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,’ और यह कि तुम्हें हर किसी के साथ बनाए रखनी चाहिए, दूसरों को अपमानित नहीं करना चाहिए, और किसी को नाराज नहीं करना चाहिए, जिससे दूसरों के साथ अच्छे संबंध बनाए जा सकें। इस दृष्टिकोण से बंधे हुए जब तुम देखते हो कि दूसरे कोई गलत काम कर रहे हैं या सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं, तो तुम चुप रहते हो। तुम किसी को नाराज करने के बजाय कलीसिया के काम का नुकसान होने दोगे। तुम हर किसी के साथ बनाए रखना चाहते हो, चाहे वे कोई भी हो। जब तुम बात करते हो तो तुम केवल मानवीय भावनाओं और अपमान से बचने के बारे में सोचते हो और तुम दूसरों को खुश करने के लिए हमेशा मीठी-मीठी बातें करते हो। अगर तुम्हें पता भी चले कि किसी में कोई समस्याएँ हैं, तो तुम उन्हें सहन करने का चुनाव करते हो और बस उनकी पीठ पीछे उनके बारे में बातें करते हो, लेकिन उनके सामने तुम शांति बनाए रखते हो और अपने संबंध बनाए रखते हो। तुम इस तरह के आचरण के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह चापलूस व्यक्ति का आचरण नहीं है? क्या यह धूर्तता भरा आचरण नहीं है? यह मानवीय आचरण के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। क्या ऐसे आचरण करना नीचता नहीं है? जो इस तरह से कार्य करते हैं वे अच्छे लोग नहीं होते, यह नेक लोगों का आचरण नहीं है। चाहे तुमने कितना भी दुःख सहा हो, और चाहे तुमने कितनी भी कीमतें चुकाई हों, अगर तुम सिद्धांतहीन आचरण करते हो, तो तुम इस मामले में असफल हो गए हो और परमेश्वर के समक्ष तुम्हारे आचरण को मान्यता नहीं मिलेगा, उसे याद नहीं रखा जाएगा और स्वीकार नहीं किया जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। खुशामदी लोगों को उजागर करने वाले, परमेश्वर के इन वचनों ने मुझे बहुत बेचैन कर दिया। मैं कलीसिया की समस्याओं को देखकर भी उन्हें हल नहीं कर पा रही थी, इसलिए नहीं कि मैं उन्हें स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रही थी, बल्कि इसलिए कि मैं किसी को ठेस नहीं पहुँचाना चाहती थी, और मुझे डर था कि वे मुझे बुरी नजर से देखेंगे। मैं अपनी छवि और रुतबे को बचाने की कोशिश कर रही थी। परमेश्वर मेरे जैसे लोगों से नफरत करता है, जो सिद्धांत के अनुसार काम नहीं करते या सत्य का अभ्यास नहीं करते, जो स्वार्थी और घमंडी होते हैं। मैंने अपने बर्ताव के बारे में सोचा। मैंने देखा था कि भाई लियु लियांग हमेशा अपने काम में लापरवाही करता था जिससे हमारा सिंचन का काम रुक जाता था, मुझे उसके बर्ताव को उजागर करके इसका गहन-विश्लेषण करना चाहिए था। लेकिन मुझे डर था कि सब लोग मुझे बुरी नजर से देखेंगे, वे कहेंगे कि अगुआ बनने के बाद मैं लोगों को डांट रही हूँ और उनमें खोट निकाल रही हूँ, इसलिए मैंने अपनी छवि बचाने के लिए कभी भी लियु लियांग की समस्या की प्रकृति का गहन-विश्लेषण नहीं किया। मैंने समस्या के बारे में बस कुछ बातें कहीं, जिनसे समस्या हल नहीं हुई। मैंने उन दोनों भाइयों को कभी मिल-जुलकर काम करते नहीं देखा, जिससे कलीसिया के काम पर भी गंभीर असर पड़ा, फिर भी मैंने कभी भी मामले को उजागर करके या इसका गहन-विश्लेषण करके स्वयं को समझने में उनकी मदद नहीं की। जिसके चलते कलीसिया का कार्य प्रभावित हुआ। मैं इन शैतानी फलसफों के अनुसार जी रही थी, जैसे कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,” “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है,” और “एक और मित्र का अर्थ है एक और मार्ग।” अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचाने के साथ-साथ सबकी नजरों में अच्छा बने रहने की चाह में, सारी बातें साफ-साफ होने पर भी मैंने कुछ नहीं कहा। इससे न केवल भाई-बहनों को नुकसान पहुँचा बल्कि कलीसिया के कार्य में भी देरी हुई। मैंने देखा कि मुझमें विवेक और समझ की कमी है, परमेश्वर के प्रति जरा-सा भी समर्पण नहीं है। इसे अच्छा इंसान होना कैसे कहा जाएगा? यदि मैं हर किसी के साथ घुल-मिलकर रहूँ, सभी लोग कहें कि मैं एक नेक इंसान हूँ और मेरी छवि भी अच्छी बनी रहे, तो भी परमेश्वर के सामने, मैं कोई कर्तव्य पूरा नहीं कर रही थी। परमेश्वर की नजरों में, मैं विश्वास और भरोसे के लायक इंसान नहीं थी। मैं परमेश्वर की घृणा का पात्र थी। इसका एहसास होने पर, मैंने फौरन परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप किया। मैं जानती थी कि ऐसे नहीं चल सकता, मुझे अपनी इस समस्या को हल करने के लिए सत्य की खोज करनी होगी।
उसके बाद, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “उनके शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने का क्या परिणाम होता है? पहला, यह इस बात को प्रभावित करता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग सामान्य रूप से परमेश्वर के वचनों को कैसे खाते-पीते हैं और सत्य को कैसे समझते हैं, यह उनके जीवन-प्रवेश में बाधा डालता है, उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश करने से रोकता है और उन्हें गलत मार्ग पर ले जाता है—जो चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाता है, और उन्हें बरबाद कर देता है। और यह अंततः कलीसिया के साथ क्या करता है? यह गड़बड़ी, खराबी और विघटन है। यह लोगों के शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने का परिणाम है। जब वे इस तरह से अपना कर्तव्य करते हैं, तो क्या इसे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना नहीं कहा जा सकता? जब परमेश्वर कहता है कि लोग अपनी शोहरत, लाभ और रुतबे को अलग रखें, तो ऐसा नहीं है कि वह लोगों को चुनने के अधिकार से वंचित कर रहा है; बल्कि यह इस कारण से है कि शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हुए लोग कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को अस्त-व्यस्त कर देते हैं, यहाँ तक कि उनका ज्यादा लोगों के द्वारा परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने, सत्य को समझने और इस प्रकार परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने पर भी प्रभाव पड़ सकता है। यह एक निर्विवाद तथ्य है। जब लोग अपनी शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, तो यह निश्चित है कि वे सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे और ईमानदारी से अपना कर्तव्य नहीं पूरा करेंगे। वे सिर्फ शोहरत, लाभ और रुतबे की खातिर ही बोलेंगे और कार्य करेंगे, और वे जो भी काम करते हैं, वह बिना किसी अपवाद के इन्हीं चीजों के लिए होता है। इस तरह से व्यवहार और कार्य करना, बिना किसी संदेह के, मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना है; यह परमेश्वर के कार्य में विघ्न-बाधा डालना है, और इसके सभी विभिन्न परिणाम राज्य के सुसमाचार के प्रसार और कलीसिया के भीतर परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में बाधा डालना है। इसलिए, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने वालों द्वारा अपनाया जाने वाला मार्ग परमेश्वर के प्रतिरोध का मार्ग है। यह उसका जानबूझकर किया जाने वाला प्रतिरोध है, उसे नकारना है—यह परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसके विरोध में खड़े होने में शैतान के साथ सहयोग करना है। यह लोगों की शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने की प्रकृति है। अपने हितों के पीछे भागने वाले लोगों के साथ समस्या यह है कि वे जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हैं, वे शैतान के लक्ष्य हैं—वे ऐसे लक्ष्य हैं, जो दुष्टतापूर्ण और अन्यायपूर्ण हैं। जब लोग शोहरत, लाभ और रुतबे जैसे व्यक्तिगत हितों के पीछे भागते हैं, तो वे अनजाने ही शैतान का औजार बन जाते हैं, वे शैतान के लिए एक साधन बन जाते हैं, और तो और, वे शैतान का मूर्त रूप बन जाते हैं। वे कलीसिया में एक नकारात्मक भूमिका निभाते हैं; कलीसिया के कार्य के प्रति, और सामान्य कलीसियाई जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामान्य लक्ष्य पर उनका प्रभाव बाधा डालने और काम बिगाड़ने वाला होता है; उनका प्रतिकूल और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग एक))। मैंने परमेश्वर के वचन में देखा कि ऐसे खुशामदी लोग जो सत्य का अभ्यास नहीं करते, जो सिर्फ अपने हितों की रक्षा करते हैं, उनकी प्रकृति और परिणाम परमेश्वर के कार्य में रुकावट डालकर उसे नुकसान पहुंचाना है, शैतान के चाकर बन जाना है। अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया और पहले की तरह काम करता रही, तो मुझे परमेश्वर द्वारा ठुकरा दिया जाएगा और हटा दिया जाएगा। कलीसिया की अगुआ के रूप में, मेरी जिम्मेदारी भाई-बहनों की समस्याओं और उनके जीवन प्रवेश में आने वाली कठिनाइयों को हल करने के लिए सत्य पर संगति करना और कलीसियाई जीवन की देखभाल करना है। मगर इसके बजाय लोगों की समस्याओं को देखकर, मैंने उन्हें बदलने, उनके बर्ताव को उजागर करने और उनका गहन-विश्लेषण करने में उनकी मदद नहीं कर रही थी, बल्कि, मैं एक खुशामदी इंसान बनकर, अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को बचाने में लगी हुई थी, शैतान की चाकर के रूप में कार्य कर रही थी, जिससे कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन को नुकसान पहुँच रहा था। मैं पूरी तरह से अपने भ्रष्ट स्वभाव के काबू में थी, मुझमें सत्य का अभ्यास करने और न्याय को कायम रखने की हिम्मत नहीं थी। मैं शैतान की चाकर, एक कमजोर और अक्षम इंसान बन गई थी और बेहद घृणित और दयनीय हालत में जी रही थी। अगर मैंने सत्य का अभ्यास करना शुरू नहीं किया और खुद के खिलाफ विद्रोह नहीं किया, तो मैं वास्तव में परमेश्वर के सामने रहने के योग्य नहीं थी! उसके वचनों के न्याय और प्रकाशन के बिना, मैं अपनी भ्रष्टता कभी नहीं जान पाती, न ही खुशामदी इंसान होने और सत्य का अभ्यास न करने के खतरों और परिणामों को जान पाती। अब मैं अपने आप के खिलाफ विद्रोह करने और लोगों को खुश करने का प्रयास बंद करने के लिए तैयार थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचन के कुछ अंश पढ़े, जिनसे मुझे अभ्यास के कुछ मार्ग मिले। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मूल बात यह है कि परमेश्वर निष्ठावान है, अतः उसके वचनों पर हमेशा भरोसा किया जा सकता है; इसके अतिरिक्त, उसका कार्य दोषरहित और निर्विवाद है, यही कारण है कि परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है जो उसके साथ पूरी तरह से ईमानदार होते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। “अगर तुम्हारे पास एक ‘खुशामदी व्यक्ति’ होने की प्रेरणाएं और दृष्टिकोण हैं, तब तुम सभी मामलों में सत्य का अभ्यास और सिद्धांतों का पालन नहीं कर पाओगे, तुम हमेशा असफल होकर नीचे गिरोगे। यदि तुम जागरूक नहीं होते और कभी सत्य नहीं खोजते, तो तुम छद्म-विश्वासी हो और कभी सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाओगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? इस तरह की चीजों से सामना होने पर, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे पुकारना चाहिए, उद्धार के लिए विनती करनी चाहिए और माँगना चाहिए कि वह तुम्हें अधिक आस्था और शक्ति दे, और तुम्हें सिद्धांतों का पालन करने में समर्थ बनाए, वो करो जो तुम्हें करना चाहिए, चीजों को सिद्धांतों के अनुसार संभालो, उस स्थिति में मजबूती से खड़े रहो जहाँ तुम्हें होना चाहिए, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करो और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने स्वार्थों को, अपने अभिमान और एक ‘खुशामदी व्यक्ति’ होने के दृष्टिकोण के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो, और अगर तुम एक ईमानदार, अविभाजित हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिए, तो तुम शैतान को हरा चुके होगे, और सत्य के इस पहलू को प्राप्त कर चुके होगे। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीने, दूसरों के साथ अपने संबंध सुरक्षित रखने, कभी भी सत्य का अभ्यास न करने, और सिद्धांतों का पालन न करने की हिम्मत करने पर अड़े रहते हो, तो क्या तुम अन्य मामलों में सत्य का अभ्यास कर पाओगे? तुम्हारे पास अभी भी आस्था या शक्ति नहीं होगी। यदि तुम सत्य नहीं खोजते या स्वीकार नहीं करते, तो क्या परमेश्वर में ऐसी आस्था से तुम सत्य प्राप्त कर पाओगे? (नहीं।) और यदि तुम सत्य प्राप्त नहीं कर सकते, तो क्या तुम बचाए जा सकते हो? नहीं बचाए जा सकते। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हो, सत्य वास्तविकता से पूरी तरह वंचित रहते हो, तो तुम कभी भी नहीं बचाए जा सकते। यह बात तुम्हें स्पष्ट होनी चाहिए कि उद्धार के लिए सत्य प्राप्त करना एक आवश्यक शर्त है। तो फिर, तुम सत्य कैसे प्राप्त कर सकते हो? यदि तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो, सत्य के अनुसार जी सकते हो और सत्य तुम्हारे जीवन का आधार बन जाता है, तो तुम सत्य प्राप्त कर जीवन पा लोगे, तब तुम बचाए जाने वाले लोगों में से एक होगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। इसे पढ़कर, मैंने जाना कि परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है। ईमानदार लोग अपने रिश्ते बचाने और छवि निखारने की परवाह नहीं करते, उनके दिलों में परमेश्वर के लिए जगह होती है। वे सभी चीजों में सिद्धांत कायम रखते हैं, उनमें न्याय की समझ होती है और वे परमेश्वर के प्रति वफ़ादार होते हैं। मगर अपने बारे में दोबारा सोचने पर मुझे पता चला कि मैं आपसी संबंधों, प्रतिष्ठा और स्थिति के बारे में बहुत अधिक चिंतित थी। जब ऐसी चीजें घटित हुईं जहाँ कलीसिया के हितों की रक्षा करने और सत्य का अभ्यास करने की जरूरत थी, तो मैं लगातार शैतान का पक्ष लेती थी, सत्य के सिद्धांतों को कायम रखने का साहस नहीं करती थी; मैंने हमेशा परमेश्वर से विद्रोह और उसका प्रतिरोध किया, जिससे उसके दिल को ठेस पहुँची। दरअसल, सत्य बोलना और किसी की समस्या की ओर उसका ध्यान दिलाना उन्हें शर्मिंदा करने के लिए नहीं है। ऐसा करना वास्तव में फायदेमंद होता है, चाहे वह भाई-बहनों के बारे में हो या कलीसिया के कार्य के बारे मे हो। अगर मैं किसी को भ्रष्टता प्रकट करते देखकर भी उसकी प्रकृति और इस तरह के कार्यों के परिणामों की ओर उसका ध्यान नहीं दिलाती हूँ, तो उसे कभी एहसास नहीं होगा कि उसकी समस्या असल में कितनी गंभीर है, और वे बदलने में सक्षम नहीं होंगे। इससे उनके जीवन प्रवेश में रुकावट के साथ-साथ कलीसिया के काम पर भी बुरा असर पड़ेगा, और यह परमेश्वर के लिए घृणित है क्योंकि मैं एक भ्रष्ट स्वभाव में रह रही हूँ और कलीसिया के कार्य की रक्षा नहीं कर रही हूँ। मैंने हमेशा अपनी इज्जत और रुतबे पर ध्यान दिया, परमेश्वर को सबसे आगे न रखकर यही सोचता रहती थी कि दूसरे क्या सोचेंगे। मैं यह नहीं सोचती थी कि सत्य के अनुरूप कैसे कार्य करना है। मैं हमेशा अपने भ्रष्ट स्वभाव से विवश रहती थी—मैं कितनी बड़ी बेवकूफ थी। मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को हावी नहीं होने दे सकती थी, मैंने शैतान का कमजोर मसखरा बनने से इनकार कर दिया। मुझे न्याय की समझ रखने वाला ऐसा ईमानदार इंसान बनना था जो परमेश्वर को प्रसन्न करता है। इसे समझने के बाद, मैंने सत्य का अभ्यास करने और देह के खिलाफ विद्रोह करने का संकल्प लिया। चाहे दूसरे मुझे कैसे भी देखें, मैं सिद्धांतों को कायम रखूँगी और कलीसिया के कार्य की रक्षा करने में परमेश्वर की ओर खड़ी रहूँगी। अगले दिन उन दोनों भाइयों के पास गई और जैसे ही मैं उनकी समस्या बताने के लिए तैयार हो रही थी, मुझे थोड़ी चिंता होने लगी, मैंने सोचा, “अगर उन्होंने उजागर किए जाने और काट-छाँट किए जाने को स्वीकार नहीं किया और मुझ पर भड़क गए तो क्या होगा? फिर मैं क्या मुँह दिखाऊँगी?” मुझे एहसास हुआ कि मेरा भ्रष्ट स्वभाव मुझे बेबस कर रहा है, इसलिए मैंने परमेश्वर से सत्य का अभ्यास करने में मेरी मदद करने की विनती की। फिर मैंने परमेश्वर के इन वचनों को याद किया : “मेरी गवाहियों और हितों की रक्षा नहीं कर पाना विश्वासघात है। दिल में मुझसे दूर होते हुए भी झूठमूठ मुस्कुराना विश्वासघात है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (1))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि अगर मैं सत्य का अभ्यास या कलीसिया के काम की रक्षा न करके एक खुशामदी इंसान बनी रही, तो मैं परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर रही हूँ। मैं जानती थी कि मुझे अपने रिश्तों की परवाह छोड़नी होगी, जब मैंने उनकी समस्या के बारे में बोलने का फैसला कर लिया तो अब चाहे वे जो भी सोचें, मुझे परमेश्वर का सामना करना होगा और सत्य का अभ्यास करना होगा। और फिर, मैंने उनके अहंकार और असहयोगी बर्ताव के साथ-साथ इन सभी चीजों के सार और परिणामों को उजागर किया। मैंने परमेश्वर के वचन भी खोजे और उन्हें पढ़कर सुनाया। इसे सुनने के बाद परमेश्वर के वचनों की रोशनी में वे आत्मचिंतन करने और स्वयं को जानने में सक्षम हुए, और वे अब पश्चात्ताप करना और खुद को बदलना चाहते थे। मैं यह देखकर बहुत खुश थी कि वे खुद को जानने में सक्षम हो गए, मगर मुझे अपराध-बोध भी हुआ। अगर मैं पहले ही सत्य का अभ्यास कर पाती और उन्हें यह बता पाता कि उनकी समस्या कितनी गंभीर है, तो वे जल्दी ही स्थिति को सकारात्मक दिशा में बदल सकते थे। वे भ्रष्टता में जीते नहीं रहते, शैतान के हाथों का खिलौना बनकर नुकसान नहीं उठाते और खास तौर पर, परमेश्वर के कार्य में रुकावट नहीं बनते। मैं हमेसा दूसरों की समस्याओं पर उनका ध्यान दिलाने से डरती थी, कि कहीं वे नाराज होकर मुझे नापसंद न करने लगें। मगर असल में, यह सब मेरे मन का वहम था। जब तक कोई सत्य स्वीकार कर सकता है, तब तक मन में कोई पूर्वाग्रह पैदा नहीं होगा, बल्कि वह सबक सीख पाएगा। अभ्यास का यह तरीका दूसरों के साथ ही मेरे लिये भी लाभदायक है।
उसके बाद मुझमें सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार इंसान बनने का आत्मविश्वास और बढ़ गया। अब मैं रुतबे और प्रतिष्ठा के विचारों से उतना विवश नहीं थी। अब मैं भाई-बहनों की समस्याओं को देखते ही फौरन संगति करके उनकी मदद करने, उनकी समस्या को उजागर करने और उसका गहन-विश्लेषण करने के लिए तैयार रहती हूँ। इन अनुभवों से, मैंने परमेश्वर के प्रेम और उद्धार को महसूस किया है। यह परमेश्वर के वचन का न्याय और प्रकाशन ही था जिसने लोगों को खुश करने की मेरी मानसिकता को बदल दिया। मैंने महसूस किया कि सत्य का अभ्यास करने से सुकून और मन को शांति मिलती है, यह हमेशा लोगों को ठेस पहुंचाने के डर से उनकी खुशामद करते रहने से कहीं बेहतर है। मैं भी कुछ हद तक मानव के समान जीने में सक्षम हो गई। मैंने देखा कि केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। हम जो भी हैं और जो भी करते हैं, उसके लिए ये वचन हमें राह दिखा सकते हैं। परमेश्वर के वचनों के आधार पर एक ईमानदार इंसान की जिंदगी जीना ही नेक इंसान बनने का एकमात्र रास्ता है।
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