नए विश्वासियों के सिंचन से सीखा एक सबक

07 दिसम्बर, 2022

इस साल जनवरी में, मैं कलीसिया में नए सदस्यों का सिंचन कर रही थी। दो नए सदस्यों, बहन लियू और उनके पति की जिम्मेदारी मुझ पर थी। सुपरवाइजर ने मुझे बताया कि बहन लियू के पति ने हाल ही में अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य की जांच शुरू की थी, केवल कुछ ही सभाओं में गए थे और उन्हें अधिक समर्थन और सिंचन की जरूरत थी।

दोनों बार जब मैं बहन लियू के घर गई, तो उनके और उनके पति के बीच बहस छिड़ गई। गौर किया तो मुझे पता चला कि बहन लियू ने सांसारिक चीजों में उलझने और पक्का विश्वासी न होने के कारण पति को नीचा दिखाया था। मुझे लगा कि अवास्तविक मांगें रखने और पति पर नाराजगी के कारण, जिसने अभी ही सच्चे मार्ग की जांच शुरू की है, उसकी प्रगति में बाधा आ सकती है। एक बार मैंने उनसे इस पर संगति की कि कैसे हमें लोगों से सहिष्णुता और धैर्य से बात करनी चाहिए। मुझे ताज्जुब था कि बहन नाराज हो गई और कहा कि वह पहले ही काफी धैर्यवान है। उसने यहाँ तक कहा, "अगर वह आस्था नहीं रखना चाहता तो न रखे। कम से कम मेरी दशा पर तो असर नहीं डालेगा।" मुझे बहुत चिंता थी कि कहीं उसका पति उसकी यह बात सुनकर कलीसिया न छोड़ दे। मैंने मन में कहा, "यह बहन बेहद अभिमानी है। उसे केवल अपने बड़बोलेपन की चिंता है, इसकी परवाह नहीं है कि दूसरे कैसा महसूस करेंगे। मुझे उसके साथ गंभीर संगति करनी होगी और बताना होगा कि यह स्थिति कितनी खराब है।" मगर जब मैंने अपनी बात कही तो बहन लियू ने पलटवार किया : "मैं गुस्सा नहीं होना चाहती। मगर वह सारा दिन सामाजिक समारोहों में या महजोंग खेलने में बिताता है और परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ता। चाहे मैं उसे कितनी भी बार बोलूँ, वह नहीं सुनता।" यह सुनकर मुझे थोड़ा गुस्सा आया। मैंने सोचा : "तुममें साफ तौर पर भ्रष्टता के लक्षण दिख रहे हैं, पर केवल अपने पति की आलोचना कर रही हो। तुम खुद को बिल्कुल नहीं जानती!" इसलिए मैंने लोगों के अहंकारी स्वभाव के बारे में परमेश्वर के प्रकाशित वाक्य का एक भाग पढ़ा और बताया कि उसका गुस्सा असल में हैसियत पाने की तीव्र इच्छा का नतीजा है। गुस्सा होना और पति को शांत करने के लिए आपा खोना, जबकि उसने ऐसा कुछ न किया हो, यह भ्रष्ट स्वभाव था और इसे ठीक किया जाना चाहिए। उस समय बहन ने बेमन से माना कि वह बहुत घमंडी थी, पर बाद में वह फिर वैसी हो गई और उसमें थोड़ा सा भी बदलाव नहीं आया। फिर, मैंने उसके साथ कई और बार संगति कर आग्रह किया कि वह अपने पति के साथ उचित व्यवहार करे, हमेशा उसकी खामियों को न देखे और खुद को जाने। मगर बहन फिर भी बहाने बनाती रही। मुझे नहीं पता था कि क्या करूँ। मैं पहले से चाहती थी कि उसके पति को और सभाओं में शामिल करूँ ताकि वह सच्चे मार्ग पर पैर जमा सके, पर अचानक वो सभी सभाएं बंद कर दी गईं।

मैं बस शिकायतें करती रही और बहन लियू की आलोचना करती रही : "वह बहुत अभिमानी है और अपने पति पर कड़ा अत्याचार करती रहती है। क्या उसमें बुरी मानवता है? मैंने उसके साथ कई बार संगति की, पर वह सत्य का अभ्यास नहीं करती और सभाओं को बढ़ावा नहीं देती। मैं वास्तव में अब उसका सिंचन नहीं करना चाहती।" एक बार मैंने उस बहन से इस मुद्दे पर चर्चा की, जिसके साथ मेरी भागीदारी थी और मैंने अपनी सभी शिकायतें उसके सामने रख दीं। बहन ने मुझे एक अनुभव की गवाही वाला वीडियो देखने को कहा। वीडियो में परमेश्वर के वचन का एक अंश सच में मन को छू गया। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "जो लोग सच्चे मार्ग की खोज में लगे हैं, उनके साथ व्यवहार में सावधानी और विवेक से काम लेना चाहिए और प्रेम पर निर्भर रहना चाहिए। क्योंकि सच्चे मार्ग की जांच करने वाला प्रत्येक व्यक्ति एक अविश्वासी होता है—यहाँ तक कि उनमें से धार्मिक भी कमोबेश अविश्वासी होते हैं—और वे सभी अतिसंवेदनशील होते हैं : यदि कोई बात उनकी धारणाओं के अनुरूप न हो, तो वे उसका खंडन कर सकते हैं और अगर किसी की कोई बात उनकी इच्छा के अनुरूप न हो, तो वे बहस करने सकते हैं। इसलिए उनके बीच सुसमाचार प्रचार करते समय हमें सहिष्णु होना चाहिए। हमें बहुत ही प्यार से पेश आना चाहिए और विशिष्ट तौर-तरीके अपनाने चाहिए। हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाए जाएँ, वे सारे सत्य बताए जाएँ जिन्हें परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए व्यक्त करता है ताकि वे परमेश्वर की वाणी और वचन सुनें। इस तरह वे लाभांवित होंगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। परमेश्वर चाहता है कि हम सुसमाचार पाने वाले हर संभावित व्यक्ति के साथ स्नेह से पेश आएं, और पूरे धैर्य और प्रेम के साथ उनका सहयोग और मदद करें, सत्य पर उनके साथ संगति कर उन्हें परमेश्वर के सामने लाएं। ये सुसमाचार साझा करने वाले हर व्यक्ति की जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य हैं। मैं उसके हर शब्द और वाक्यांश में मानव जीवन के लिए परमेश्वर का स्नेह महसूस कर रही थी। यही कारण है कि उसने हमसे ये अपेक्षाएं रखी हैं। परमेश्वर के प्रेम और मानवजाति की समझ के बारे में सोचकर मुझे शर्मिंदगी हुई। सोचा कि मैंने बहन लियू के साथ कैसा व्यवहार किया था। जब मैंने पति पर जोर से गुस्सा करने के लिए उसके साथ कई बार संगति की और वह नहीं सुधरी, तो मुझे गुस्सा आया, अपनी इच्छा के मुताबिक उसकी आलोचना करने वाले परमेश्वर के वचन के अंश ढूंढ निकाले, उसकी समस्याओं का विश्लेषण किया, उस पर अपनी कुंठा जाहिर की, और उसकी भावनाओं या आध्यात्मिक कद के बारे में जरा भी नहीं सोचा। मैंने तो अपनी भागीदार के सामने यह तक कह दिया कि उसमें बुरी मानवता है। मेरी प्रेमपूर्ण दयालुता कहाँ थी? बहन लियू को अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य स्वीकार किए सिर्फ छह महीने हुए थे और वह अभी भी अधिक सत्य नहीं समझती थी—तो क्या समस्याएं आने पर भ्रष्टता दिखाना उसके लिए सामान्य नहीं था? न केवल मैंने उसे सत्य का अभ्यास करने में मदद के लिए प्यार से मार्गदर्शन नहीं दिया था, बल्कि वास्तव में उसका तिरस्कार किया था। मुझमें वाकई मानवता नहीं थी। इस बारे में सोचते हुए मुझे लगा कि बहन लियू के साथ कई बार संगति करने के बाद भी मुझे कोई नतीजा नहीं मिला, क्योंकि मैंने प्रेम से संगति नहीं की थी, उसकी समस्याएं हल करने को सत्य का इस्तेमाल नहीं किया था। इसके बजाय, मैंने अहंकार से उसका तिरस्कार किया और उसे सीमित किया और उसे गुस्सा दिलाया। ऐसा व्यवहार करते हुए मैं सत्य को समझने और उसकी स्थिति में सुधार करने में मदद कैसे कर पाती? मैं प्रार्थना करने परमेश्वर के सामने आई, मैं अपने इरादे बदलने और अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार बहन लियू से व्यवहार करना बंद करने को तैयार थी।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा। "तुम्हें उन अनेक स्थितियों की समझ होनी चाहिए, जिनमें लोग तब होते हैं, जब पवित्र आत्मा उन पर काम करता है। विशेषकर, जो लोग परमेश्वर की सेवा में समन्वय करते हैं, उन्हें इन स्थितियों की और भी गहरी समझ होनी चाहिए। यदि तुम बहुत सारे अनुभवों या प्रवेश पाने के कई तरीकों के बारे में केवल बात ही करते हो, तो यह दिखाता है कि तुम्हारा अनुभव बहुत ज़्यादा एकतरफा है। अपनी वास्तविक अवस्था को जाने बिना और सत्य के सिद्धांतों को समझे बिना स्वभाव में परिवर्तन हासिल करना संभव नहीं है। पवित्र आत्मा के कार्य के सिद्धांतों को जाने बिना या उसके फल को समझे बिना तुम्हारे लिए बुरी आत्माओं के कार्य को पहचानना मुश्किल होगा। तुम्हें बुरी आत्माओं के कार्य के साथ-साथ लोगों की धारणाओं को बेनकाब कर सीधे मुद्दे के केंद्र में पैठना चाहिए; तुम्हें लोगों के अभ्यास में आने वाले अनेक भटकावों या लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने में होने वाली समस्याओं को भी इंगित करना चाहिए, ताकि वे उन्हें पहचान सकें। कम से कम, तुम्हें उन्हें नकारात्मक या निष्क्रिय महसूस नहीं कराना चाहिए। हालाँकि, तुम्हें उन कठिनाइयों को समझना चाहिए, जो अधिकांश लोगों के लिए समान रूप से मौजूद हैं, तुम्हें विवेकहीन नहीं होना चाहिए या 'भैंस के आगे बीन बजाने' की कोशिश नहीं करनी चाहिए; यह मूर्खतापूर्ण व्यवहार है। लोगों द्वारा अनुभव की जाने वाली कठिनाइयाँ हल करने के लिए तुम्हें पवित्र आत्मा के काम की गतिशीलता को समझना चाहिए; तुम्हें समझना चाहिए कि पवित्र आत्मा विभिन्न लोगों पर कैसे काम करता है, तुम्हें लोगों के सामने आने वाली कठिनाइयों और उनकी कमियों को समझना चाहिए, और तुम्हें समस्या के महत्वपूर्ण मुद्दों को समझना चाहिए और बिना विचलित हुए या बिना कोई त्रुटि किए, समस्या के स्रोत पर पहुँचना चाहिए। केवल इस तरह का व्यक्ति ही परमेश्वर की सेवा में समन्वय करने योग्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक योग्य चरवाहे को किन चीज़ों से लैस होना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचकर मैंने पाया कि चाहे वह सुसमाचार साझा करना हो या नए लोगों का सिंचन, हमें हमेशा लोगों की वास्तविक समस्याएं और स्थितियां पता होनी चाहिए, सच में उनकी समस्याएं हल करने के लिए उनसे जुड़े सत्यों पर संगति करनी चाहिए। यदि आप उनकी कठिनाइयों को नहीं समझते और बस अपने विश्वासों के आधार पर संगति करते हैं, तो आप उनकी समस्याएं भी हल नहीं कर पाएंगे, और उन्हें चोट या ठेस पहुँचाने के लिए भी जिम्मेदार होंगे। कभी-कभी जब नए सदस्यों में भ्रष्टता और निराशा के लक्षण दिखते हैं, और कई बार संगति से भी उनमें सुधार नहीं आता, तो हमें पहले यह सोचना चाहिए कि क्या हमने सच्चाई से साफ तौर पर उनकी समस्याओं के बारे में संगति की है। यदि उनकी समस्याओं का समाधान अभी तक नहीं हुआ क्योंकि हमने स्पष्ट रूप से सत्य पर संगति नहीं की, तो हमने अपना कर्तव्य नहीं निभाया और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं। मेरा ध्यान रह-रहकर बहन लियू के साथ मेरे व्यवहार पर जा रहा था। उस दौरान जब मैंने बहन लियू को अपने पति पर गुस्सा होते देखा तो मैंने बस मान लिया था कि वह घमंडी है और अपने पति पर रौब जमा रही है, इसलिए मैंने लगातार उसकी आलोचना की और उसे अपना भ्रष्ट स्वभाव पहचानने को मजबूर किया, पर अंत तक उसकी समस्याएं हल नहीं हो पाईं। अपने विचारों को शांत करने और इस मुद्दे पर मनन के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि बहन लियू इसलिए आपा खो रही थी क्योंकि उसे उम्मीद थी कि उसका पति जल्दी ही सच्चे मार्ग की नींव रख पाएगा, लगातार सभाओं में भाग लेना शुरू करेगा, और कठिनाइयों से निपटते हुए परमेश्वर की सुरक्षा पाएगा। फिर जब उसने अपने पति को सामाजिक समारोहों में भाग लेने या महजोंग खेलने में व्यस्त पाया, और परमेश्वर के वचन पढ़ते नहीं देखा, तो वह अपना आपा खो बैठी। मैंने इस मुद्दे पर उसके साथ संगति नहीं की थी, इसलिए मुझे संगति से कोई परिणाम नहीं दिखे। वास्तव में मुख्य समस्या मेरे साथ थी। मैं नए सदस्य की समस्या पहचानकर उसके साथ संगति नहीं कर पाई, उसे खराब मानवता वाली और सत्य को न स्वीकारने वाली माना, यहाँ तक कि उसका सिंचन भी नहीं करना चाहती थी। मैं असल में खुद को नहीं जानती थी और मुझमें दूसरों के लिए थोड़ा भी प्यार नहीं था। यह महसूस करते हुए मुझे काफी शर्म आई और दोषी महसूस हुआ। मुझे बहन लियू के प्रति अपना रवैया सही करना था, उसकी वास्तविक स्थिति के बारे में संगति करने के लिए सत्य का उपयोग कर उसकी समस्याएं हल करनी थीं।

एक दिन बाद फिर हमारी सभा का समय था। मेरे पहुँचते ही बहन लियू ने शिकायत करनी शुरू कर दी, कहा कि उसके पति ने साफ कहा था कि वह सभा में आएगा, पर अभी तक घर नहीं लौटा था। उसने उसे सत्य न खोजने वाले के बतौर सीमित कर दिया और उस पर मेहनत करना छोड़ना चाहती थी। फिर मैंने उसकी स्थिति की रोशनी में उसके साथ संगति की। मैंने कहा : "अपने पति को परमेश्वर के वचन इकट्ठा करने और पढ़ने को कहने का इरादा नेक था, पर हम उससे बहुत ज्यादा अपेक्षाएं नहीं रख सकते। उसके बात न मानने पर यदि तुमने आपा खो दिया तो वह शायद ही उनका पालन करेगा। लोगों को शैतान ने बहुत गहराई से भ्रष्ट किया है और वे सत्य से प्रेम भी नहीं करते, इसलिए सत्य की उनकी खोज और जीवन प्रवेश बहुत धीरे-धीरे होता है। उस एक छोटी सी अंतर्दृष्टि या समझ पाने के लिए बहुत सारी संगति, अनुभव और यहां तक कि झटके भी लगते हैं। इसलिए हमें प्यार से लोगों की मदद करना और उन्हें बदलाव के लिए समय देना चाहिए। हमने देखा है कि परमेश्वर लोगों से अपने स्वभाव बदलने की अपेक्षा करता है, लेकिन वह कभी लोगों को बाध्य नहीं करता या अवास्तविक अपेक्षाएं नहीं रखता। हमें अपने भ्रष्ट स्वभाव से जीते और परमेश्वर के वचनों का पालन न करते देखकर वह हम पर क्रोधित नहीं होता या त्यागता नहीं, बल्कि अपने वचनों से हमें प्रबुद्ध करता और रास्ता दिखाता है, ताकि हम चीजों को थोड़ा-थोड़ा करके अनुभव कर सकें और धीरे-धीरे सत्य समझकर बदलाव ला सकें। हमें लगता है कि उसका दृष्टिकोण बहुत उदार है। इसलिए यदि हम चाहते हैं कि हमारा परिवार सभाओं में शामिल हो और जल्द से जल्द नींव रखने के लिए परमेश्वर के वचनों को और अधिक पढ़े, तो यह इरादा सही है, पर हमें उनकी कठिनाइयों के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए और धैर्य के साथ उनका मार्गदर्शन और समर्थन करना चाहिए। तभी उनके पालन की अधिक संभावना होगी।" मेरी बातें सुनकर बहन लियू ने लंबी आह भरी और बोली : "मैं हमेशा कोशिश करती हूँ कि मेरा पति परमेश्वर के अधिक से अधिक वचन इकट्ठा करे और पढ़े, मुझे लगता है कि यह उसके लिए सबसे अच्छा है और चाहती हूँ कि वह मेरे साथ उनका पालन करे। जब वह मेरे कहे अनुसार नहीं करता, तो मैं उस पर बिफर जाती हूँ। उसके साथ ऐसे व्यवहार से असल में उसे चोट पहुँच सकती है। मैं गलत थी। आगे से, मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करूँगी और अपने भ्रष्ट स्वभाव के मुताबिक उससे व्यवहार करना बंद कर दूँगी।" मुझे यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि बहन लियू ने कुछ समझ हासिल की है और उसके चेहरे पर मुस्कान थी। उसके बाद हमने एक साथ परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा। "तुम्हें दूसरों के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए, यह परमेश्वर के वचनों में साफ तौर पर दिखाया या इंगित किया गया है। परमेश्वर मनुष्यों के साथ जिस रवैये से व्यवहार करता है, वही रवैया लोगों को एक-दूसरे के साथ अपने व्यवहार में अपनाना चाहिए। परमेश्वर हर एक व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है? कुछ लोग अपरिपक्व कद वाले होते हैं; या कम उम्र के होते हैं; या उन्होंने सिर्फ कुछ समय के लिए परमेश्वर में विश्वास किया होता है; या वे प्रकृति और सार से बुरे नहीं होते, दुर्भावनापूर्ण नहीं होते, बस थोड़े अज्ञानी होते हैं या उनमें क्षमता की कमी होती है। या वे बहुत अधिक बाधाओं के अधीन हैं, और उन्हें अभी सत्य को समझना बाकी है, जीवन में प्रवेश करना बाकी है, इसलिए उनके लिए मूर्खतापूर्ण चीजें करने या नादान हरकतें करने से खुद को रोक पाना मुश्किल है। लेकिन परमेश्वर लोगों के मूर्खता करने पर ध्यान नहीं देता; वह सिर्फ उनके दिलों को देखता है। अगर वे सत्य का अनुसरण करने के लिए कृतसंकल्प हैं, तो वे सही हैं, और अगर यही उनका उद्देश्य है, तो फिर परमेश्वर उन्हें देख रहा है, उनकी प्रतीक्षा कर रहा है, परमेश्वर उन्हें वह समय और अवसर दे रहा है जो उन्हें प्रवेश करने की अनुमति देता है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर उन्हें एक अपराध के लिए भी मार डालेगा। ऐसा तो अक्सर लोग करते हैं; परमेश्वर कभी भी लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता। जब परमेश्वर लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता, तो लोग दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं? क्या यह उनके भ्रष्ट स्वभाव को नहीं दर्शाता है? यह निश्चित तौर पर उनका भ्रष्ट स्वभाव है। तुम्हें यह देखना होगा कि परमेश्वर अज्ञानी और मूर्ख लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, वह अपरिपक्व अवस्था वाले लोगों के साथ कैसे पेश आता है, वह मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के सामान्य प्रकटीकरण से कैसे पेश आता है और दुर्भावनापूर्ण लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार करता है। परमेश्वर अलग-अलग तरह के लोगों के साथ अलग-अलग ढंग से पेश आता है, उसके पास विभिन्न लोगों की बहुत-सी परिस्थितियों को प्रबंधित करने के भी कई तरीके हैं। तुम्हें इन सत्यों को समझना होगा। एक बार जब तुम इन सत्यों को समझ जाओगे, तब तुम मामलों को अनुभव करने का तरीका जान जाओगे और लोगों के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने लगोगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, मामलों और चीज़ों से सीखना चाहिए)। जब हमने पढ़ना बंद किया, तो बहन लियू ने कहा कि यह अच्छा अंश है और मैं उसके साथ और संगति करूँ। मैंने उसके साथ यह कहते हुए संगति की : "जब हम किसी के साथ अपने मेलजोल में देखते हैं कि उनमें कमियाँ या समस्याएं हैं, तो हम उन्हें प्यार और आराम से समझा सकते हैं और उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं कर सकते। हमें उन्हें सत्य को स्वीकारने का समय देना चाहिए और उनमें धीरे-धीरे सुधार का इंतजार करना चाहिए। परमेश्वर जानता है कि हमें शैतान ने गहराई से भ्रष्ट किया है, और सत्य को स्वीकारने और उसका अभ्यास करने में बहुत सारी बाधाएं और कठिनाइयां हैं। कभी-कभी हम सत्य को समझ भी लेते हैं, तो भी तुरंत उसका अभ्यास नहीं कर पाते। परमेश्वर को बार-बार हमारे साथ संगति करनी पड़ती है। कभी-कभी उसे चिंता होती है कि हम समझ नहीं पाएंगे, इसलिए वह धैर्यपूर्वक हमें मिसाल देता है और समझ हासिल करने में मार्गदर्शन के लिए सभी तरह के तरीके इस्तेमाल करता है। कभी वह अपने वचनों से हमारी अगुआई करता है, तो कभी हमारे भाई-बहनों के जरिए संकेतों से। कई बार हम बहुत निष्क्रिय और विद्रोही हो जाते हैं और किसी भी तरह की संगति का कोई नतीजा नहीं होता, तो परमेश्वर हमारे दिलों को झकझोरने के लिए ताड़ना, अनुशासन, काट-छाँट और निपटान से गुजरने वाली व्यावहारिक स्थितियां बनाता है। परमेश्वर बहुत ही सौम्य और प्रेमपूर्ण ढंग से काम करता है, वह जो करता है उसे थोपता नहीं है। जब कभी वह सख्ती से ताड़ना देता है, अनुशासित करता है, और हमारा न्याय करके हमें उजागर करता है, तब भी हम उसका प्रेम और दया महसूस कर पाते हैं। अपने अनुभवों से हम देखते हैं कि परमेश्वर लोगों के साथ कैसे बहुत ही सैद्धांतिक ढंग से व्यवहार करता है, और हमें कभी हड़बड़ी में इसलिए नहीं त्यागता क्योंकि हम बहुत सा सत्य सुनकर भी सुधरने में नाकाम रहते हैं। परमेश्वर के पास मानवता के लिए अपार प्रेम और धैर्य है और मानवजाति को बचाने की उसकी इच्छा गहरी है।"

बहन लियू के साथ संगति के बाद मैंने अचानक सोचा : "परमेश्वर ने जो अपेक्षा की है, उसका मैंने खुद कितना अभ्यास किया है? मैंने बहन लियू के साथ केवल यह संगति की कि कैसे वह अपने पति से ठीक से व्यवहार करे, पर मैंने बहन लियू के साथ ठीक से व्यवहार नहीं किया! जब मैंने बहन लियू को अपने पति पर गुस्सा करते और उसके साथ कई बार संगति के बावजूद न सुधरते देखा, तो मैंने निजी तौर पर उसे अभिमानी, मानवता से रहित, बड़ी-बड़ी बातें करने वाली वगैरह सोचकर राय बनाई।" मैंने जैसा बर्ताव किया उसके बारे में सोचकर मुझे काफी शर्मिंदगी महसूस हुई। बहन लियू नई सदस्य थी और उसके पास ज्यादा अनुभव नहीं था, पर मैंने उसे अपना अहंकारी स्वभाव पहचानने को मजबूर किया और उसके बदलने की अपेक्षा की। जब उसने कोई बदलाव नहीं किया, तो मैंने उसे ऐसी इंसान के रूप में सीमित कर दिया, जो सत्य की तलाश नहीं करती या उसे नहीं स्वीकारती, यहां तक कि उसे खराब मानवता वाली मान लिया। मैंने साफ तौर पर बहन लियू की स्थिति नहीं समझी थी और न इस बारे में कोई संगति की थी, फिर भी मैंने उसे सत्य स्वीकारने, समर्पण करने और बदलाव लाने को मजबूर किया। मैं सच में अभिमानी और तर्कहीन थी। तब मुझे लगा कि मैंने अपने भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट किया है—बहन लियू की स्थिति सिर्फ आईना थी, जिसमें मुझे अपनी भ्रष्टता देखने का मौका मिला। उसकी केवल छह महीने से परमेश्वर में आस्था थी, इसलिए आत्मचिंतन करने और खुद को जानने में असमर्थ होना सामान्य बात थी। मेरा वर्षों से विश्वास था और अक्सर समस्याएं हल करने के लिए दूसरों के साथ सत्य पर संगति करती थी, पर वास्तव में मैंने सत्य का कितना अभ्यास किया था? क्या अभ्यास किए बिना बड़ी-बड़ी बातें करना उन फरीसियों जैसा नहीं था जो केवल सिद्धांतों की बात करते थे? तब परमेश्वर के वचनों का एक अंश मन में आया। "कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो केवल काम और प्रचार करने, दूसरों का पोषण करने के लिए खुद को सत्य से लैस करते हैं, अपनी समस्याएँ हल करने के लिए नहीं, सत्य को अमल में लाने के लिए नहीं। उनकी संगति शुद्ध समझ की और सत्य के अनुरूप हो सकती है, लेकिन वे खुद को उससे नहीं मापते, न ही वे उसका अभ्यास या अनुभव करते हैं। यहाँ क्या समस्या है? क्या उन्होंने वाकई सत्य को अपने जीवन के रूप में स्वीकार किया है? नहीं, उन्होंने नहीं किया। व्यक्ति जिस सिद्धांत का प्रचार करता है, वह कितना भी शुद्ध क्यों न हो, इसका अर्थ यह नहीं कि उसमें सत्य की वास्तविकता है। सत्य से लैस होने के लिए, व्यक्ति को पहले खुद उसमें प्रवेश करना चाहिए, और उसे समझकर अमल में लाना चाहिए। अगर व्यक्ति अपने प्रवेश पर ध्यान केंद्रित नहीं करता, बल्कि दिखावा करने के उद्देश्य से दूसरों के सामने सत्य का प्रचार करता है, तो उसका इरादा गलत है। कई नकली अगुआ हैं जो इसी तरह काम करते हैं, जो सत्य वे समझते हैं, उस पर लगातार दूसरों के साथ संगति करते, नए विश्वासियों को पोषण प्रदान करते, लोगों को सत्य का अभ्यास करने, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने, नकारात्मक न होने की शिक्षा देते हैं। ये तमाम शब्द अच्छे और बढ़िया हैं—प्रेमपूर्ण भी हैं—लेकिन उन्हें बोलने वाले सत्य का अभ्यास क्यों नहीं करते? उनका कोई जीवन-प्रवेश क्यों नहीं है? यहाँ चल क्या रहा है? क्या ऐसा व्यक्ति वास्तव में सत्य से प्रेम करता है? कहना मुश्किल है। इस्राएल के फरीसियों ने दूसरों के सामने बाइबल की व्याख्या इसी तरह की थी, लेकिन वे खुद परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन नहीं कर पाए। जब प्रभु यीशु ने प्रकट होकर कार्य किया, तो उन्होंने परमेश्वर की वाणी सुनी लेकिन प्रभु का विरोध किया। उन्होंने प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ाया और परमेश्वर ने उन्हें शाप दिया। इसलिए, जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते या उसका अभ्यास नहीं करते, उन सबकी परमेश्वर द्वारा निंदा की जाएगी। वे कितने अभागे हैं! अगर उनके द्वारा प्रचारित शब्दों और अक्षरों का सिद्धांत दूसरों की मदद कर सकता है, तो वह उनकी मदद क्यों नहीं कर सकता? हम ऐसे व्यक्ति को पाखंडी कह सकते हैं, जिसमें कोई वास्तविकता नहीं है। वे दूसरों को सत्य के शब्द और अक्षर प्रदान करते हैं, वे दूसरों से उसका अभ्यास करवाते हैं, लेकिन खुद उसका थोड़ा-सा भी अभ्यास नहीं करते। क्या ऐसा व्यक्ति बेशर्म नहीं होता? उसमें सत्य की वास्तविकता नहीं होती, फिर भी वह दूसरों को सिद्धांत के शब्दों और अक्षरों का उपदेश देकर उसके होने का दिखावा करता है। क्या यह सोचा-समझा धोखा और नुकसान नहीं है? अगर ऐसे लोग उजागर कर बाहर निकाले जाते हैं, तो इसके लिए केवल वे ही दोषी होंगे। वे दया के पात्र नहीं होंगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन मेरी अपनी दशा का सटीक वर्णन करते थे। बहन लियू के सिंचन के समय के बारे में सोचकर लगा कि मैं भ्रष्ट स्वभाव में जी रही थी और मैंने उसके साथ उचित व्यवहार नहीं किया था। मैंने बस यह देखा था कि बहन लियू ने अपना अहंकारी स्वभाव छोड़कर भी सत्य स्वीकार नहीं किया, मैंने इस पर बिल्कुल नहीं सोचा कि मैंने खुद कैसी भ्रष्टता दिखाई थी। मैंने खुद का बदसूरत चेहरा नहीं पहचाना और परमेश्वर के वचनों से बहन लियू की बेशर्मी से आलोचना की, यह अपेक्षा करते हुए कि वह सुधार करे। यह ऐसा था मानो दूसरों को अपनी भ्रष्टता पर आत्मचिंतन की जरूरत थी, पर मैं भ्रष्ट नहीं थी और इसलिए मुझे आत्मचिंतन की आवश्यकता नहीं थी। मैं वास्तव में खुद को नहीं जानती थी और बहुत बेशर्म थी! मैंने दूसरों के साथ संगति और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग किया, पर मैंने खुद जरा सा भी आत्मचिंतन या जीवन प्रवेश नहीं किया। यह झूठे धर्मनिष्ठ फरीसियों से अलग कहाँ था? इस तरह कर्तव्य निभाते हुए मैं लोगों के लिए मददगार होने की उम्मीद कैसे कर सकती थी?

बाद में जब बहन लियू का पति लौटा, तो उसने उससे कहा : "मेरी बहन ने अभी-अभी मुझे परमेश्वर के वचन के कुछ अंश पढ़कर सुनाए हैं और मुझे एहसास हुआ कि मैं गलत थी। मैं अपने अभिमानी स्वभाव से आपको दबाती रही हूँ। आगे से, मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करूँगी और आपके साथ भ्रष्ट स्वभाव से व्यवहार करना बंद कर दूँगी।" यह देखकर कि बहन लियू परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने में सक्षम थी, मुझे और भी शर्मिंदगी हुई। पहले मैं उसे किसी ऐसी इंसान के रूप में देखती थी जो सत्य को स्वीकार नहीं करती, पर अब हालात की असलियत एकदम मेरे सामने थी। घर आने के रास्ते में, मैंने सोचा कि कैसे मैंने बहन लियू को सीमित करके उसके बारे में राय बनाई, तो मुझे काफी दोषी महसूस हुआ। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा जो कहते हैं : "अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंतत: तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं! बुरे कर्मों के समाधान के लिए, पहले उन्हें अपनी प्रकृति को सुधारना होगा। स्वभाव में बदलाव किए बिना, इस समस्या का मौलिक समाधान हासिल करना संभव नहीं है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैंने अपने भ्रष्ट स्वभाव को और साफ तौर पर देखा। बहन लियू के सिंचन के अपने समय के बारे में सोचते हुए लगा कि जब वह कई बार संगति के बाद भी नहीं सुधरी, तो मैंने आत्मचिंतन नहीं किया, यहाँ तक सोचा कि मैंने इस मुद्दे को ठीक से पहचान लिया था और संगति कर उसकी स्थिति सुधार सकती थी। यदि बहन लियू ने बात नहीं मानी, तो इसकी वजह यही थी कि उसने सत्य स्वीकार नहीं किया था। मैं केवल कुछ मौकों पर बहन लियू से मिली थी और वास्तव में उसे बिल्कुल नहीं जानती थी, पर मैंने फिर भी लापरवाही से उस पर राय बनाकर उसे सीमित किया, मानो मुझे सत्य की बहुत अच्छी समझ थी और बस कुछ मुलाकातों में ही किसी के सार को समझ सकती थी। समय-समय पर उजागर होने के बाद मुझे लगा कि मैं लोगों की समस्याओं की जड़ और सार को नहीं समझती थी, और उनके समग्र व्यवहार, प्रकृति और सार के आधार पर व्यवहार नहीं करती थी। मैं वास्तव में सत्य को नहीं समझ पाई थी, फिर भी मुझे खुद पर गहरा विश्वास था और मैं अपनी आस्था पर कायम थी। मुझे अपने बारे में थोड़ा भी ज्ञान नहीं था। मैंने पाया कि अगर मैं अपने अभिमानी स्वभाव के अनुसार नए सदस्यों से व्यवहार करती रही, तो कम से कम मैं उनके प्रति पूर्वाग्रह बना लूँगी, उन्हें बेबस कर नुकसान पहुँचाने और उनके जीवन प्रवेश में देरी के लिए जिम्मेदार होऊँगी। और बुरा तब होगा जब मैं राय बनाकर उन्हें सीमित करूँगी और लापरवाही से उन्हें त्याग भी सकती हूँ। इससे मैं उनके प्रति कर्जदार हो जाऊँगी। यह जानकर मैं थोड़ा डर गई, पर मैंने राहत भी महसूस की। जब मैंने अहंकार के लक्षण दिखाए थे, तो मेरे साथी ने मुझे अपनी समस्या पहचानने और समय पर बदलाव का मौका देते हुए इस ओर इशारा किया था। यह परमेश्वर की सुरक्षा थी! बाद में, मुझे काम की वजह से अस्थायी रूप से कलीसिया छोड़नी पड़ी। एक महीने बाद जब मैं बहन लियू से फिर मिली तो उसने बताया कि कैसे उसने सुसमाचार का प्रचार करते हुए परमेश्वर के वचनों का अनुभव किया और गवाही दी। भावनाओं के साथ आहें भरते हुए उसने कहा : "पर हाल ही में, सुसमाचार साझा करते हुए, मैंने देखा कि कैसे हर किसी के पास परमेश्वर के बारे में कई अलग-अलग धारणाएं हैं। लोगों के लिए अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य स्वीकार करना और उनके सामने आना आसान नहीं है। इससे पहले मुझे हमेशा लगता था कि मेरे पति सत्य नहीं खोज रहे थे, और उसे कई चीजों से दूर रखना चाहा। मेरी उससे बहुत ज्यादा अपेक्षाएं थीं, जो बुरी बात थी। परमेश्वर के वचन सच में महान हैं, मुझे अभी उन्हें और अधिक अनुभव करना है।" यह सुनकर मुझे उसके लिए बहुत खुशी हुई, पर काफी शर्मिंदगी भी हुई और मैं भावुक हो गई। वास्तव में लोगों को सत्य स्वीकारने में समय और अनुभव लगता है। उसके बाद नए सदस्यों के सिंचन के दौरान जब भ्रष्टता के लक्षण दिखते तो मैं उनकी समस्या के मूल कारण की पहचान करने पर ध्यान लगाती और उससे जुड़े सिद्धांतों की तलाश करती थी ताकि उनसे निपटा जा सके। उस दौरान मैंने यह भी देखा कि कैसे परमेश्वर के सामने आना और नींव रखना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें समय लगता है। उनके सिंचन और सहयोग की प्रक्रिया में, मैं आत्मचिंतन करती और अपनी अनुचित दशाओं को सुधारती थी, प्यार से उनका समर्थन करती, उन्हें नींव रखने का मौका देती ताकि वे जल्द से जल्द परमेश्वर के सामने आ सकें। इस तरह अपना कर्तव्य निभाने से मुझे सचमुच शांति और सुकून मिला।

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आस्था : शक्ति का स्रोत

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