मैं परमेश्वर को जानने का मार्ग पाता हूँ

20 दिसम्बर, 2017

शिआओकाओ चांग्ज़ी सिटी, शांक्ज़ी प्रदेश

एक दिन, मैंने एक निबंध में परमेश्वर के वचन का निम्न अवतरण पढ़ा "पतरस ने यीशु को कैसे जाना": "यीशु का अनुसरण करने के दौरान, पतरस ने उसके जीवन के बारे में हर चीज़ का अवलोकन किया और उन्हें हृदय से लगाया : उसके क्रियाकलाप, वचन, गतिविधियाँ, और अभिव्यक्तियाँ। ... यीशु के साथ संपर्क होने के समय से पतरस ने यह भी देखा कि उसका चरित्र साधारण मनुष्य से भिन्न है। उसने हमेशा स्थिरता से कार्य किया और कभी भी जल्दबाजी नहीं की, किसी भी विषय को न तो बढ़ा-चढ़ाकर बताया, न ही उसे कम करके आँका, और अपने जीवन को इस तरह से संचालित किया, जिससे ऐसा चरित्र उजागर हुआ जो सामान्य और सराहनीय दोनों था। बातचीत में यीशु स्पष्ट रूप से और शिष्टता के साथ बोलता था, हमेशा प्रफुल्लित किंतु शांतिपूर्ण ढंग से संवाद करता था, और अपना कार्य करते हुए कभी अपनी गरिमा नहीं खोता था। पतरस ने देखा कि यीशु कभी बहुत कम बोलता था, तो कभी लगातार बोलता रहता था। कभी वह इतना प्रसन्न होता था कि नाचते-उछलते कबूतर की तरह दिखता था, तो कभी इतना दुःखी होता था कि बिलकुल भी बात नहीं करता था, मानो दुख के बोझ से लदी और बेहद थकी कोई माँ हो। कई बार वह क्रोध से भरा होता था, जैसे कि कोई बहादुर सैनिक शत्रु को मारने के लिए हमलावर हो, और कई बार वह किसी गरजते सिंह जैसा दिखाई देता था। कभी वह हँसता था; तो कभी प्रार्थना करता और रोता था। यीशु ने चाहे कैसे भी काम किया, पतरस का उसके प्रति प्रेम और आदर असीमित रूप से बढ़ता गया। यीशु की हँसी उसे खुशी से भर देती थी, उसका दुःख उसे दुःख में डुबा देता था, उसका क्रोध उसे डरा देता था, और लोगों से की गई उसकी सख्त अपेक्षाओं ने उसे यीशु से सच्चा प्यार करवाया और उसके लिए एक सच्ची श्रद्धा और लालसा विकसित की। निस्संदेह, पतरस को इस सबका एहसास धीरे-धीरे तब तक नहीं हुआ, जब तक वह कई वर्ष यीशु के साथ नहीं रह लिया" (वचन देह में प्रकट होता है)। इस अवतरण को पढ़ने के बाद मैंने सोचा: कोई आश्चर्य नहीं कि पतरस परमेश्वर के ज्ञान को हासिल कर सका! ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि जब वह दिन और रात यीशु के साथ रहा करता था, उस दौरान वह व्यक्तिगत तौर पर यीशु के प्रत्येक वचन और प्रत्येक गतिविधि का गवाह बना था, और इस तरह से उसने परमेश्वर की पूजनीयता के बारे में और भी जाना था। अब भी वह काल है जब कार्य करने हेतु मनुष्य की दुनिया में व्यक्तिगत तौर पर अवतरित होने के लिए परमेश्वर देहधारी हुआ है। अगर मैं भी पतरस की ही तरह परमेश्वर के संपर्क में आने और उसके साथ समय बिताने में सक्षम होने जितना भाग्यशाली बन सकूं, तो क्या परमेश्वर को और भी बेहतर तरीके से नहीं जान जाउंगा? ओह! कितने शर्म की बात है कि अब मैं केवल परमेश्वर के वचन को पढ़ सकता हूं लेकिन मसीह के चेहरे को नहीं देख सकता हूं। तो कैसे परमेश्वर का सच्चा ज्ञान पाने में सक्षम हो पाउंगा?

जब मैं इसे लेकर दुखी व निराश था तब परमेश्वर के वचनों ने मुझे प्रबुद्ध किया: "परमेश्वर के वचनों को पढ़ और समझकर परमेश्वर को जानना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : 'मैंने देहधारी परमेश्वर को नहीं देखा है, तो मैं परमेश्वर को कैसे जान सकता हूँ?' वास्तव में, परमेश्वर के वचन उसके स्वभाव की एक अभिव्यक्ति हैं। परमेश्वर के वचनों से तुम मनुष्यों के लिए उसके प्रेम और उद्धार के साथ-साथ उन्हें बचाने के उसके तरीके को भी देख सकते हो...। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर के वचन स्वयं परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए जाते हैं, वे मनुष्यों द्वारा लिखे नहीं जाते। उन्हें परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से व्यक्त किया गया है; स्वयं परमेश्वर ही अपने वचनों और अपनी आंतरिक आवाज़ को व्यक्त कर रहा है। उन्हें दिल से निकले वचन क्यों कहा जाता है? वह इसलिए, क्योंकि वे बहुत गहराई से निकलते हैं, और परमेश्वर के स्वभाव, उसकी इच्छा, उसके विचारों, मानवजाति के लिए उसके प्रेम, उसके द्वारा मानवजाति के उद्धार, तथा मानवजाति से उसकी अपेक्षाओं को व्यक्त करते हैं...। परमेश्वर के कथनों में कठोर वचन, कोमल और विचारशील वचन, और साथ ही प्रकाशनात्मक वचन भी शामिल हैं, जो इंसान की इच्छाओं के अनुरूप नहीं हैं। यदि तुम केवल प्रकाशनात्मक वचनों को देखो, तो तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर बहुत कठोर है। यदि तुम केवल कोमल वचनों को देखो, तो तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर ज़्यादा अधिकार-संपन्न नहीं है। इसलिए तुम्हें उन्हें संदर्भ से अलग करके नहीं देखना चाहिए; बल्कि उन्हें हर कोण से देखो। कभी-कभी परमेश्वर कोमल एवं करुणामय दृष्टिकोण से बोलता है, और तब लोग मानवजाति के लिए उसके प्रेम को देखते हैं; कभी-कभी वह कठोर दृष्टिकोण से बोलता है, और तब लोग उसके अपमान सहन न करने वाले स्वभाव को देखते हैं। मनुष्य अत्यधिक गंदा है, और वह परमेश्वर के मुख को देखने या परमेश्वर के सामने आने के योग्य नहीं है। अब लोगों को परमेश्वर के सामने आने की जो अनुमति है वो पूरी तरह से परमेश्वर के अनुग्रह की बदौलत है। परमेश्वर के कार्य करने के तरीके और उसके कार्य के अर्थ से उसकी बुद्धि को देखा जा सकता है। लोग इन चीज़ों को परमेश्वर के वचनों में भी देख सकते हैं, यहाँ तक कि परमेश्वर के सीधे संपर्क में आए बिना भी" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'देहधारी परमेश्वर को कैसे जानें')। परमेश्वर के वचनों ने अचानक ही मुझे प्रकाश दिखा दिया। हां! अंत के दिनों की देह में परमेश्वर ने मनुष्य को अपना सारा स्वभाव व्यक्त करने के लिए पहले ही अपने वचन का प्रयोग किया है, और मनुष्य को परमेश्वर के वचनों के माध्यम से उसकी महान शक्ति, उसकी महत्ता, उसकी विनम्रता व दीनता, और उसकी पूजनीयता को देखने, एवं इसके साथ ही उसका आनंद व दुख समझने, और उसके पास क्या है एवं वह क्या है यह जानने देता है। वह दिखाने के लिए यह पर्याप्त है कि परमेश्वर के वचनों को पढ़ना और परमेश्वर के वचनों को अनुभव करना परमेश्वर को जानने का एकमात्र मार्ग है। अगर मैं परमेश्वर के वचनों से विमुख हो जाऊं, तो फिर चाहे मैं देह में परमेश्वर को देख भी लूं तो क्या हो? क्या तब फरसियों ने भी यीशु को नहीं देखा था? तो फिर उन लोगों ने यीशु को सलीब पर नहीं लटाकाया था? क्या ऐसा इसलिए नहीं हुआ था क्योंकि वे लोग यीशु के वचनों को नहीं सुनते थे, वे घमंडी थे और जिद्दी स्वभाव के साथ अपनी खुद की अवधारणाओं व कल्पनाओं के साथ चिपके हुए थे, और वे ग्रंथों को थोड़ी-बहुत जो समझते थे उसी के आधार पर उन्होंने यीशु का विरोध किया व निंदा की थी? दूसरी तरफ, पतरस यीशु को जानने में सक्षम हुआ था क्योंकि उसने अपनी खुद की अवधारणाओं व कल्पनाओं को त्याग सका था, प्रभु यीशु के वचनों को निकटता से सुनता था, और यीशु द्वारा दिए गए प्रत्येक वचन व वाक्य पर ध्यानपूर्वक विचार करने में अच्छा था। प्रभु यीशु के कथनों व कार्य के माध्यम से, उसने परमेश्वर का स्वभाव और उसके पास जो भी है एवं वह जो है, उसे जाना और अंतत: परमेश्वर के सच्चे ज्ञान को हासिल किया। क्या यह बख्तरबंद तथ्य इस बात की व्याख्या करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि मनुष्य परमेश्वर के वचन के माध्यम से ही परमेश्वर को जान सकता है? इसके अलावा, यह जानते हुए कि अंत के दिनों की देह में परमेश्वर का मुख्य कार्य वचनों का कार्य है, तो क्या परमेश्वर को जानने में मुझे कोई फायदा नहीं मिलेगा?

मैं अपने तर्कसम्मत विचारों पर वापस जितना ज्यादा सोचता, उतना ही ज्यादा मुझे अपनी दयनीयता, मूर्खता और बचपने का अहसास होता था। हर रोज मैं परमेश्वर के वचनों को अपने हाथों में लेता था, परमेश्वर के वचनों को खाता व पीता, परमेश्वर के वचन को पढ़ता, और परमेश्वर के वचन को अनुभव करता था, लेकिन मैं पूरे दिल से परमेश्वर के वचनों को प्रेम नहीं करता था, यह सोचता था कि मैं केवल मसीह का चेहरा देखकर ही परमेश्वर को जान सकता हूं। मैं एक भाग्यवान जिंदगी जी रहा था, वह भी उसकी प्रशंसा किए बिना! हे परमेश्वर! जानने के मेरे गलत तरीके को उजागर करने व उसे बदलने और मुझे परमेश्वर को जानने का मार्ग दिखाने के लिए तुम्हारा धन्यवाद। अब से, मैं लगातार तुम्हारे वचन पढूंगा, तुम्हारे वचनों पर विचार करूंगा, तुम्हारे वचनों के माध्यम से तुम्हारे आनंद व दुखों को समझने की कोशिश करूंगा, और तुम्हारी पूजनीयता के बारे में और ज्यादा जानकर तुम्हें और भी गहराई से जानूंगा।

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