अपना कर्तव्य खोने के बारे में आत्मचिंतन

24 जनवरी, 2022

वंग लीन, दक्षिण कोरिया

वेल्डिंग का हुनर होने के कारण 2017 में मुझे कलीसिया के कुछ काम सौंपे गये। यह कड़ी शारीरिक मेहनत का काम था, इसमें थोड़ा ओवरटाइम भी करना पड़ता था। कभी-कभी मैं न खा पाता था, न सही समय पर सभाओं में भाग ले पाता था। पहले-पहल मैंने परवाह नहीं की, सोचा कि अपने कर्तव्य में उस हुनर के इस्तेमाल का मौका पाना मेरे लिए सम्मान की बात है। मैं उसे पूरी लगन से करना चाहता था। बाद में, हमारी टीम बहुत व्यस्त हो गई और मेरा काम बहुत बढ़ गया। थोड़े समय बाद मैं निढाल हो गया और थोड़ा चिढ़ने लगा।

एक बार एक सभा में, एक बहन ने अचानक हमसे कहा कि हमें ट्रक से थोड़ा सामान उतारने में मदद करनी है। मैं सच में यह नहीं करना चाहता था। मैंने सोचा कि यह काम सभा के बाद क्यों नहीं किया जा सकता, और अगर इतना ही ज़रूरी है तो कोई और इसे करे! यह काम हम ही क्यों करें? क्या हम किराये के टट्टू हैं? भीतरी प्रतिरोध की इस भावना के साथ, हालांकि मैं गया ज़रूर, मगर मैं अनमने ढंग से काम कर रहा था। मैंने इसमें दिल नहीं लगाया, बस करने का दिखावा करता रहा। आखिरी समय पर कुछ काम आ जाने पर बाकी सब लोग ओवरटाइम कर रहे थे, लेकिन मैं मौक़ा देख कामचोरी करता। कम काम करके छुटकारा मिल रहा हो तो मैं कड़ी मेहनत वाले काम से बचता। जब कभी मुझे ज़्यादा समय काम करना होता, तो मैं तैयार नहीं होता, इतना चिढ़ जाता मानो मेरे साथ बहुत गलत हो रहा हो। मैं ऊपर-ऊपर से काम निपटा देता, पर अनमने ढंग से करता। टीम के अगुआ द्वारा दिया गया काम ख़त्म हो जाने के बाद मैं आराम करना चाहता, जिन लोगों का काम पूरा न हुआ हो उनकी मदद नहीं करना चाहता था। मेरा ख़याल था कि वो उनका काम है, मुझे क्या लेना-देना। मुझे धीरे-धीरे काम करते देख, टीम अगुआ मुझे डांटते, मुझसे निपटते, लेकिन मुझे लगता कि वे बस मीनमेख निकाल रहे हैं और मैं आत्मचिंतन नहीं करता। मैं इस तरह कम-से-कम काम से संतुष्ट होकर अनमने ढंग से अपना कर्तव्य निभाता, बाकी सब भाई सच में कड़ी मेहनत कर रहे थे, मैं उनसे ईर्ष्या तो करता ही नहीं था, साथ ही उन पर मन-ही-मन हंसता भी था। एक बार कुछ लकड़ियाँ ले जाते समय, मैं एक बार में सिर्फ एक ही गट्ठर ले जा रहा था, जबकि दूसरा एक भाई एक साथ दो उठा रहा था। मैंने सोचा, "अपनी जान क्यों दे रहे हो? बेवकूफ हो। तुममें ताकत हो भी तो इतना वज़न उठाने की ज़रूरत नहीं। तुम थककर चूर हो जाओगे।" दरअसल मैं उससे छोटा था, इसलिए एक साथ दो गट्ठर उठाना मेरे लिए मुश्किल नहीं होता, लेकिन उतना अधिक उठाने से मेरे तन में दर्द होता। मैं तो यह नहीं करूंगा। मुझे अपने काम में टालमटोल करते हुए देखकर बाकी भाइयों ने मुझे फटकारा और मुझे अपने काम पर ज़्यादा ध्यान देने को कहा, लेकिन मैंने परवाह नहीं की। मुझे लगा काम तो कर रहा हूँ, इसलिए कोई नुकसान नहीं हो रहा। मैंने अपने कर्तव्य के प्रति अपना रवैया सुधारने से मना कर दिया, इसलिए मुझे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से गुज़रना पड़ा।

इस साल 21 जुलाई को, जब मैं काम में व्यस्त था, टीम अगुआ ने एकाएक मुझसे कहा कि मुझमें इंसानियत की कमी है, मैं अपने काम में आलसी हूँ, इसलिए मैं पद के लायक नहीं हूँ। यह खबर सुनते ही मुझे लगा जैसे मेरा दिल डूब रहा हो। बिना किसी कर्तव्य के, क्या मेरा काम तमाम नहीं हो गया? क्या मेरे लिए उद्धार की कोई उम्मीद बची है? मैं और भी ज़्यादा परेशान हो गया, सच में निराशा में डूब गया। मैंने उसी समय परमेश्वर के सामने घुटने टेक कर प्रार्थना की : "हे परमेश्वर! मैं जानता हूँ कि तुमने मेरे साथ ऐसा होने दिया है, लेकिन मैं इसमें तुम्हारी इच्छा नहीं समझ पाया हूँ, मुझे नहीं पता कि मुझे कौन-सा सबक सीखना चाहिए। कृपया मेरे दिल पर नज़र रखो ताकि मैं तुम्हारे कार्य के प्रति समर्पित हो सकूं और गलतियाँ न ढूँढूं।" प्रार्थना करने के बाद मुझे बहुत सुकून मिला। अपना सामान बाँध जाने को तैयार होकर, जब मैंने दूर भाइयों की तरफ देखा, तो सभी इधर-उधर आ-जा रहे थे, उत्साह से काम कर रहे थे, और इधर मैं जाने वाला था। मुझे बहुत बुरा लगा। मैं दस साल से भी ज़्यादा समय से एक विश्वासी रहा हूँ, मुझे हमेशा लगता था कि मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जो सत्य खोजता है, जो त्याग कर सकता है। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि मैं काम से बर्खास्त कर दिया जाऊंगा। अगर मैं एक कर्तव्य निभाने लायक भी नहीं हूँ, तो भला मैं किस काबिल हूँ? मैं नहीं समझ पाया कि टीम अगुआ ने क्यों कहा कि मुझमें इंसानियत की कमी है। आमतौर पर मेरा किसी से भी कोई झगड़ा नहीं था, ज़्यादातर मैं सबसे मिल-जुल कर रहता था। मुझे लगा मेरी इंसानियत में कुछ भी गलत नहीं है। जहां तक मेरे कर्तव्य का सवाल है, मेरी समझ से मैं बड़े उत्साह से इसे कर रहा था। लेकिन फिर ख्याल आया कि परमेश्वर धार्मिक है, इसलिए अगर मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाता होता, तो मुझे जाने नहीं दिया जाता। अपना काम खोने के बाद, मुझे हर वक्त व्यस्त रहने या कड़ी मेहनत करने की ज़रूरत नहीं होगी, लेकिन मैंने वाकई बड़ी निराशा, बहुत उदासी महसूस की। मैं हर समय परमेश्वर के सामने प्रार्थना करता, उससे विनती करता कि वो मुझे प्रबुद्ध करे जिससे मैं खुद को जान सकूँ। एक बार परमेश्वर के वचनों में मैंने यह अंश पढ़ा : "कुछ लोग हमेशा डींग हाँकते हैं कि वे अच्छी मानवता से युक्त हैं, यह दावा करते हैं कि उन्होंने कभी कुछ बुरा नहीं किया, दूसरों का माल-असबाब नहीं चुराया, या अन्य लोगों की चीजों की लालसा नहीं की। यहाँ तक कि जब हितों को लेकर विवाद होता है, तब वे नुक़सान उठाना चुनकर, अपनी क़ीमत पर दूसरों को लाभ उठाने देते हैं, और वे कभी किसी के बारे में बुरा नहीं बोलते ताकि अन्य हर कोई यही सोचे कि वे अच्छे लोग हैं। परंतु, परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते समय, वे कुटिल और चालाक होते हैं, हमेशा स्वयं अपने हित में षड़यंत्र करते हैं। वे कभी भी परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचते, वे कभी उन चीजों को अत्यावश्यक नहीं मानते हैं जिन्हें परमेश्वर अत्यावश्यक मानता है या उस तरह नहीं सोचते हैं जिस तरह परमेश्वर सोचता है, और वे कभी अपने हितों को एक तरफ़ नहीं रख सकते ताकि अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। वे कभी अपने हितों का परित्याग नहीं करते। यहाँ तक कि जब वे कुकर्मियों को बुरा करते देखते हैं, वे उन्हें उजागर नहीं करते; उनके रत्ती भर भी कोई सिद्धांत नहीं हैं। यह अच्छी मानवता का उदाहरण नहीं है। ऐसे व्यक्ति की बातों पर बिल्कुल ध्यान न दो; तुम्हें देखना चाहिए कि वह किस प्रकार का जीवन जीता है, क्या प्रकट करता है, कर्तव्य निभाते समय उसका रवैया कैसा होता है, साथ ही उसकी अंदरूनी दशा कैसी है और उसे क्या पसंद है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। इस पर आत्मचिंतन करके, मुझे महसूस हुआ कि ऊपर-ऊपर से कुछ अच्छे काम करने के कारण मुझे लगता था कि मुझमें अच्छी इंसानियत है, लेकिन वास्तव में यह सत्य से मेल नहीं खाता था। परमेश्वर किसी व्यक्ति के कामकाज और काम के प्रति उसके रवैये के आधार पर उसकी इंसानियत को आंकता है। मुख्य यह है कि क्या वह अपने निजी हितों को अलग रखकर परमेश्वर के घर के हितों का मान रखता है। सच्ची और अच्छी इंसानियत वाला कोई व्यक्ति अपने काम में परमेश्वर के प्रति समर्पित होता है। वह मुश्किलें झेल सकता है, कीमत चुका सकता है। निर्णायक पलों में वह अपना सुख त्याग सकता है और परमेश्वर के घर के कार्य का मान रख सकता है। इसके बाद, मैं सोच-विचार करने लगा कि मुझमें इंसानियत है या नहीं, परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में अपने काम के प्रति मेरा रवैया क्या है।

मैंने यह अंश पढ़ा : "वह सब जो परमेश्वर की माँग से उपजता है, श्रम और कार्य के विभिन्न पहलू जो परमेश्वर की अपेक्षाओं से संबंधित हैं—इस सबके लिए मनुष्य के सहयोग की आवश्यकता है, यह सब मनुष्य का कर्तव्य है। कर्तव्यों का दायरा बहुत व्यापक है। कर्तव्य तुम्हारी जिम्मेदारी हैं, वे वही हैं जो तुम्हें करना चाहिए, और यदि तुम हमेशा उनके बारे में टालमटोल करते हो, तो फिर समस्या है। नरमी से कहा जाए तो तुम बहुत आलसी हो, बहुत धोखेबाज हो, तुम निठल्ले हो, आरामपसंद हो और श्रम से घृणा करते हो; अधिक गंभीरता से कहा जाए तो तुम अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक नहीं हो, तुममें कोई प्रतिबद्धता नहीं है, कोई आज्ञाकारिता नहीं है। यदि तुम इस छोटे-से कार्य में भी प्रयास नहीं कर सकते, तो तुम क्या कर सकते हो? तुम ठीक से क्या करने में सक्षम हो? यदि कोई व्यक्ति वास्तव में समर्पित है, और अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी की भावना रखता है, तो अगर परमेश्वर द्वारा कुछ अपेक्षित है, और परमेश्वर के घर को उसकी आवश्यकता है, तो वह बिना किसी चयन के वह सब-कुछ करेगा जो उससे करने के लिए कहा जाता है; वह जो कुछ भी करने में सक्षम है और जो कुछ उसे करना चाहिए, वह उसकी जिम्मेदारी लेकर उसे पूरा करेगा। क्या यह वही है, जिसे लोगों को समझना और हासिल करना चाहिए? (हाँ।) कुछ लोग इससे असहमत होते हैं और कहते हैं, 'तुम लोगों को पूरे दिन तेज हवा या चिलचिलाती धूप झेलने की जरूरत नहीं है, कोई कठिनाई मत सहो। तुम्हारे लिए सहमति में सिर हिलाते रहना आसान है, लेकिन अगर तुम्हें कुछ घंटों के लिए चिलचिलाती धूप में बाहर जाने के लिए कहा जाए, तो क्या तुम तब भी सहमति में सिर हिलाओगे?' ये शब्द गलत नहीं हैं; हर चीज कहनी आसान है, करनी कठिन। जब लोग वास्तव में कार्य करते हैं, तो एक ओर तुम्हें उनके चरित्र को देखना चाहिए, और दूसरी ओर, तुम्हें यह देखना चाहिए कि वे सत्य से कितना प्रेम करते हैं। आओ, पहले लोगों की मानवता की बात करें। यदि व्यक्ति अच्छे चरित्र का है, तो वह हर चीज का सकारात्मक पक्ष देखता है, चीजों को अंगीकार करता है, और उन्हें सकारात्मक और सक्रिय दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करता है; अर्थात् उसका हृदय, चरित्र और मिजाज धार्मिक हैं—यह चरित्र के दृष्टिकोण से है। दूसरा पहलू यह है कि वे सत्य से कितना प्रेम करते हैं। यह किससे संबंधित है? इसका मतलब यह है कि तुम्हारे मन में किसी चीज को लेकर जो राय, विचार और दृष्टिकोण हैं, वे सत्य से चाहे जितना भी मेल खाएँ, चाहे तुम कितना भी समझ पाओ, तुम परमेश्वर से उसे स्वीकार करने में सक्षम हो; तुम्हारा आज्ञाकारी और ईमानदार होना पर्याप्त है। जब तुम आज्ञाकारी और ईमानदार होते हो, तो काम करते वक्त तुम सुस्त नहीं पड़ते, तुम सच्चा प्रयास करते हो। जब तुम अपने काम में अपना मन लगाते हो, तो तुम्हारा तन भी उसमें लग जाता है। जब तुम हिम्मत हार जाते हो, जब तुम कोशिश करना बंद कर देते हो, तो तुम धोखेबाज होने लगते हो, और तुम्हारा मन सोचने लगता है : 'रात के खाने का समय कब है? अभी तक समय कैसे नहीं हुआ? बड़ी चिढ़ हो रही है—यह अंतहीन काम मैं कब खत्म कर पाऊँगा? मैं मूर्ख नहीं हूँ; मैं कम से कम काम करूँगा, मैं इसे पूरी मेहनत से नहीं करूँगा।' इस व्यक्ति का चरित्र कैसा है? क्या इसके इरादे नेक हैं? (नहीं।) वह उजागर हो गया है। क्या ऐसे लोग सत्य से प्रेम करते हैं? वे सत्य से कितना प्रेम करते हैं? उनमें केवल काम करने की कम इच्छा होती है; उनका विवेक इतना बुरा नहीं होता, वे अभी भी कुछ करने में सक्षम हैं, लेकिन वे वास्तव में प्रयास नहीं करते; वे हमेशा सुस्ताने की कोशिश करते हैं, वे केवल वही करना चाहते हैं जिनसे वे अच्छे दिखते हैं; जब काम करने का समय होता है, तब उनकी कपटी योजनाएँ और दुष्ट इरादे प्रकट हो जाते हैं, तभी उनके बुरे विचार जागते हैं, और वे खुद को दिखाते रहते हैं। ऐसे लोग धीरे-धीरे और अकुशलता से काम करते हैं। वे हमेशा औजार और उपकरण तोड़ते रहते हैं। अन्य लोगों को भले ही इसका पता लगने में लंबा समय लग जाए, लेकिन जैसे ही उनके मन में कोई बुरा विचार आता है, जैसे ही उनमें सत्य के प्रतिकूल कोई विचार पैदा होता है, वैसे ही परमेश्वर जान जाता है, परमेश्वर देख लेता है। लेकिन वे मन-ही-मन सोचते हैं, 'देखो, मैं कितना चतुर हूँ। हम दोनों ने एक जैसा ही खाना खाया, लेकिन मुझे कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ा। अपना काम खत्म करने के बाद तुम लोग थककर चूर हो जाते हो—लेकिन मुझे देखो, मेरा समय आराम से गुजरता है। मैं चतुर हूँ; मेहनत करने वाले सभी मूर्ख हैं।' वास्तव में, 'मूर्ख' ही चतुर हैं। उन्हें चतुर क्या बनाता है? वे कहते हैं, 'मैं ऐसा कुछ नहीं करता जो परमेश्वर मुझसे करने के लिए नहीं कहता, और मैं वह सब करता हूँ जो वह मुझसे करने के लिए कहता है। वह जो कुछ भी करने को कहता है, मैं करता हूँ, और उसे दिल लगाकर, 120% देकर करता हूँ, मैं उसमें अपना सब-कुछ लगा देता हूँ, मैं कोई चाल बिलकुल नहीं चलता। मैं उसे किसी व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर के लिए करता हूँ, और मैं उसे परमेश्वर के सामने करता हूँ ताकि परमेश्वर देख सके; मैं उसे किसी व्यक्ति को दिखाने के लिए नहीं करता।' और नतीजा क्या होता है? एक समूह लोगों को हटाता है, लेकिन 'मूर्ख' बचे रहते हैं; दूसरे समूह में कुछ लोग उजागर होते हैं, लेकिन 'मूर्ख' उजागर नहीं होते; इसके बजाय, उनकी स्थिति हमेशा बेहतर होती जाती है, और जो कुछ भी उन पर पड़ता है, उसमें परमेश्वर उनकी सुरक्षा करता है। और उन्हें यह सुरक्षा क्यों मिलती है? क्योंकि वे अपने दिल से ईमानदार होते हैं। वे कठिनाई या थकावट से नहीं डरते, और सौंपे जाने वाले किसी भी काम में मीनमेख नहीं निकालते; वे कभी 'क्यों' नहीं कहते, वे बस जैसा कहा जाता है वैसा करते हैं, बिना जाँच या विश्लेषण किए, या किसी भी अन्य बात पर विचार किए, वे आज्ञा का पालन करते हैं; उनकी कोई गुप्त योजना नहीं होती, बल्कि वे सभी चीजों में आज्ञाकारी होने में सक्षम होते हैं। उनकी आंतरिक स्थिति हमेशा बहुत सामान्य होती है; खतरे से सामना होने पर परमेश्वर उनकी रक्षा करता है; जब उन पर बीमारी या महामारी पड़ती है, तब भी परमेश्वर उनकी रक्षा करता है—वे बहुत धन्य हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार)')। इसे पढ़ने के बाद मुझे पूरा यकीन हो गया। परमेश्वर के वचनों ने कर्तव्य के प्रति मेरे नज़रिये, रवैये और मेरी हालत को पूरा खोल कर रख दिया है, मैं समझ गया कि परमेश्वर सच में हमारी आत्मा के भीतर देखता है। वह हमारे प्रत्येक कर्म, प्रत्येक प्रयास, आते-जाते प्रत्येक विचार देखता है। जब मैंने अपना काम शुरू ही किया था, तब मैं परमेश्वर के लिए खुद को खपाने और उसके प्रेम को चुकाने के प्रति दृढ़संकल्प था। मगर कुछ समय बाद, ज़्यादा प्रयास करने और मुश्किल झेलने के बाद, मेरी सच्ची प्रकृति दिखने लगी। मैं कामचोरी करने लगा, कम काम करके भागने की कोशिश करने लगा। जब कभी मुझे थोड़ा ज़्यादा काम करना पड़ता या शारीरिक कष्ट झेलने पड़ते, तो मैं प्रतिरोध करता, मुझे लगता कि मेरे साथ गलत हो रहा है। हमारे काम करते समय बाकी सब लोग दिल लगा कर काम करते, थक जाने से नहीं डरते थे, लेकिन मैं अपने पाँव घसीटता, आसान काम चुनता। जब मैंने उस भाई को कड़ी मेहनत करते हुए देखा तो उसे बेवकूफ मानकर मन-ही-मन उस पर हंसा, सोचा कि मैं चालाक हूँ, बिना थके अपना काम पूरा कर सकता हूँ, फिर भी परमेश्वर के आशीष पा सकता हूँ, मेरी तो पाँचों उंगलियाँ घी में हैं। मैं अपने काम में अपने निजी फायदे और नुकसान का भी हिसाब करता। मैं कितना धूर्त था, कितना नीच! परमेश्वर के वचनों ने मुझे दिखाया कि कड़ी मेहनत करने पर जब मैं लोगों पर हंसता, तो असली बेवकूफ मैं ही था। मैं जिन भाइयों को बेवकूफ मानता था, उनमें से एक भी भाई ने अपना काम नहीं खोया, लेकिन मुझे बरखास्त कर दिया गया जबकि मैं खुद को इतना चालाक समझता था, सेवा करने का अपना मौक़ा मैंने खो दिया। मैं अपनी ही "चालाकी" का शिकार बन गया था। बेवकूफ कहलाने लायक मैं ही था, उस तरह से काम करना परमेश्वर के लिए घृणास्पद था। उसका काम ठीक ढंग से करना ही एक सृजित प्राणी का कर्तव्य, उसके जीवन का उद्देश्य होना चाहिए, यह ऐसी चीज़ है जो सृजनकर्ता इंसान को सौंपता है। लेकिन मैं यूं पेश आ रहा था मानो मैं दिहाड़ी मज़दूर से ज़्यादा कुछ नहीं हूँ, कोई भी ज़िम्मेदारी लिये बिना, यूं ही काम चला रहा हूँ। मैंने पूरी तरह से अपना वह ज़मीर और समझ खो चुका था, जो एक सृजित प्राणी के पास होनी चाहिए, घरेलू चौकीदार कुत्ते से भी बदतर। एक कुत्ता कम-से-कम अपने मालिक की सेवा करता है, उसके अहाते की निगरानी करता है, मालिक उससे कैसे भी पेश आये वह वफादार रहता है। लेकिन मैं तो परमेश्वर का दिया हुआ खा-पी रहा था, उसके अनुग्रह के आशीष का लाभ उठा रहा था, लेकिन उसके द्वारा सौंपे गये काम पूरे नहीं कर रहा था। मैं एक जानवर से भी बदतर था, इंसान कहलाने लायक ही नहीं था। मेरा काम से बर्खास्त किया जाना परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का प्रकटन था। ऐसा पूरी तरह से मेरे विद्रोही होने के कारण हुआ। मुझे ज़रा भी शक नहीं था।

बाद में परमेश्वर के वचनों में मैंने यह अंश पढ़ा : "यदि कर्तव्य को करते समय, कोई सच्चा मूल्य न हो, तुम्हारी कोई निष्ठा न हो, तो यह मानक के अनुसार नहीं है। यदि तुम परमेश्वर में अपनी आस्था को और तुम्हारे काम के निष्पादन को गंभीरता से नहीं लेते हो; यदि तुम हमेशा बिना मन लगाए काम करते हो और अपने कामों में लापरवाह रहते हो, उस अविश्वासी की तरह जो अपने मालिक के लिए काम करता है; यदि तुम केवल नाम-मात्र के लिए प्रयास करते हो, किसी तरह हर दिन गुज़ार देते हो, उन समस्याओं को देखकर उनसे आँखें फेरते हो, कुछ गड़बड़ी हो जाए तो उसकी ओर ध्यान नहीं देते हो, और विवेकशून्य तरीके से हर उस बात को ख़ारिज करते हो जो तुम्हारे व्यक्तिगत लाभ की नहीं—तो क्या यह समस्या नहीं है? ऐसा कोई व्यक्ति परमेश्वर के घर का सदस्य कैसे हो सकता है? ऐसे लोग बाहर के होते हैं; वे परमेश्वर के घर के नहीं हो सकते। अपने दिल में तुम स्पष्ट रूप से जानते हो कि अपने कर्तव्य को पूरा करते समय, क्या तुम एकनिष्ठ और गंभीर हो, और परमेश्वर भी तुम्हारा हिसाब रखता है। तो क्या तुमने कभी भी अपने कर्तव्य के निष्पादन को गंभीरता से लिया है? क्या तुमने इसे दिल लगाकर किया है? क्या तुमने इसे अपना दायित्व, अपनी बाध्यता माना है? क्या तुमने इसके स्वामित्व को अपनाया है? अपने कर्तव्य को करते समय जब तुम किसी समस्या को देखते हो, तो क्या कभी भी तुमने इस बारे में खुलकर बात की है? यदि तुमने समस्या का पता चलने के बाद भी कभी खुलकर बात नहीं की है, न ही इसके बारे में सोचा तक है, यदि तुम इन चीज़ों की चिंता करने से विमुख रहते हो, और सोचते हो कि जितना झंझट कम हो उतना ही अच्छा है—यदि तुमने उन बातों की ओर यह सिद्धांत अपनाया है, तो तुम अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर रहे हो; तुम अपने माथे के पसीने की खा रहे हो, तुम बस सेवा कर रहे हो। सेवा करने वाले परमेश्वर के घर के अपने लोग नहीं होते। वे कर्मचारी होते हैं, अपना काम पूरा करके वे अपना वेतन लेते हैं और चले जाते हैं, हर कोई अपने रास्ते जाता है और वे सब एक दूसरे के लिए अज़नबी हो जाते हैं। उनका परमेश्वर के घर से ऐसा सम्बन्ध होता है। परमेश्वर के घर के सदस्य इससे भिन्न होते हैं: वे परमेश्वर के घर में हर काम जी-जान से करते हैं, वे ज़िम्मेदारी उठाते हैं, परमेश्वर के घर में कौन-सा काम ज़रूरी है यह उनकी आँखें देख लेती हैं और वे उन कामों को अपने दिमाग में रखते हैं, वे जो भी सोचें और देखें उसे याद रखते हैं, वे भार उठाते हैं, उनमें ज़िम्मेदारी का एक एहसास होता है—ऐसे लोग परमेश्वर के घर के सदस्य होते हैं। क्या तुम लोग इस बिंदु तक पहुँचे हो? (नहीं।) तो फिर तुम लोगों को अभी भी एक लम्बा रास्ता तय करना होगा, इसलिए तुम लोगों को अनुसरण करना ज़ारी रखना होगा! यदि तुम स्वयं को परमेश्वर के घर का सदस्य नहीं मानते और स्वयं को हटा लेते हो—तो परमेश्वर तुम्हें किस तरह से देखता है? परमेश्वर तुम्हें बाहर का नहीं मानता, ये तुम ही हो जिसने अपने आप को उसके दरवाज़े के बाहर कर दिया है। तो अगर वस्तुगत भाव से देखें, तो सही मायने में तुम किस तरह के इंसान हो? तुम उसके घर में नहीं हो। परमेश्वर जो भी कहता है या जो भी निर्णय लेता है, उससे क्या इस बात का कोई सरोकार है? यह तुम ही हो जिसने अपना छोर, अपना स्थान परमेश्वर के घर के बाहर रखा है—इसके लिए और किसे दोष दिया जा सकता है?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने कर्तव्य को अच्छी तरह निभाने के लिए कम से कम, एक जमीर का होना आवश्यक है')। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर सोच-विचार किया, तो महसूस किया कि सभी चीज़ों में परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान रखना और परमेश्वर के घर को अपना घर समझना ही परमेश्वर को प्रसन्न करने और उसे सुकून देने का एकमात्र रास्ता है। उसके घर का सदस्य बनने का बस यही एक मार्ग है। परमेश्वर के घर में मैं अपना काम कर रहा था, लेकिन अपने काम के प्रति मेरे रवैये और मेरे नज़रिये के कारण, मैं सही मायनों में उस परिवार का सदस्य नहीं था। मैं परमेश्वर के घर के एक कर्मचारी की तरह था, मन से नहीं, ऊपर-ऊपर से मज़दूरी करनेवाला। मुझे सीधे फ़ायदा पहुंचाने वाले काम के अलावा किसी भी दूसरे काम से मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं जुड़ता था। मैं समझ गया कि मुझमें वास्तव में इंसानियत है ही नहीं, और ज़रा-सी भी ईमानदारी नहीं है। मैं एक सेवाकर्मी होने लायक भी नहीं था—मैं एक गैर-विश्वासी था। मैं कलीसिया में कोई भी काम करने के कतई लायक नहीं था।

उसके बाद मैं लगातार परमेश्वर से याचना और प्रार्थना करता रहा, सोचता रहा कि मेरे भीतर ऐसा क्या घर कर गया था कि काम के प्रति मेरा रवैया ऐसा बन गया। मैंने परमेश्वर के वचनों में यह अंश पढ़ा : "जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को प्राप्त नहीं कर लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। वह प्रकृति विशिष्ट रूप से किस चीज़ को अपरिहार्य बनाती है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीज़ें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीज़ें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि वे शैतान के जहर से युक्त हैं। जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि शैतान का जहर क्या है, इसे वचनों के माध्यम से पूरी तरह से व्यक्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, 'लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?' तो लोग जवाब देंगे, 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।' यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का तर्क लोगों का जीवन बन गया है। कुछ भी हो, लोग बस अपने लिए ही काम करते हैं। इसलिए वे केवल अपने लिए ही जीते हैं। 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये'—यही मनुष्य का जीवन और फ़लसफ़ा है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह कथन वास्तव में शैतान का जहर है और जब इसे मनुष्य के द्वारा आत्मसात कर लिया जाता है तो यह उनकी प्रकृति बन जाता है। इन वचनों के माध्यम से शैतान की प्रकृति उजागर होती है; ये पूरी तरह से इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। और यही ज़हर मनुष्य के अस्तित्व की नींव बन जाता है और उसका जीवन भी, यह भ्रष्ट मानवजाति पर लगातार हजारों सालों से इस ज़हर के द्वारा हावी रहा है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')। इससे मुझे यह समझने में मदद मिली कि मैं शैतान के जीवन नियमों पर जी रहा था, जैसे कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे, बाकियों को शैतान ले जाये," "चीजों को प्रवाहित होने दें यदि वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित न करती हों।" एक और नियम है "हमेशा फ़ायदा देखें, कभी नुकसान में न रहें।" ये बातें मेरे भीतर गहराई तक जमी हुई थीं, मेरी प्रकृति ही बन गयी थीं। मैं इन्हीं का पालन कर रहा था और ज़्यादा-से-ज़्यादा स्वार्थी और नीच हो गया था। अपने काम में मैं सिर्फ अपने हितों पर ध्यान दे रहा था, अपना फायदा देख रहा था, वही काम करता जो मेरे लिए आसान होता। मैं इस बात पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था कि अपने काम में परमेश्वर की इच्छा का कैसे ख़याल रखूँ। मैंने परमेश्वर के देहधारी बनने और पृथ्वी पर आने के बारे में सोचा, कैसे उसने मनुष्य को शुद्ध कर बचाने के लिए सत्य व्यक्त करने की खातिर कैसे ज़बरदस्त अपमान और तकलीफें सहीं, लेकिन परमेश्वर ने कभी भी मनुष्य से यह चुकाने को नहीं कहा। वह हमसे इतना अधिक प्रेम करता है। मैं परमेश्वर द्वारा दिये गये वचनों के भरपूर भौतिक प्रावधानों और सिंचन का आनंद उठाता रहा हूँ, आभार की भावना के बिना, मैं अपने काम में हल्की-सी भी मुश्किल से खीझ जाता। मेरे भीतर ज़रा भी ज़मीर और समझ नहीं थी। काबिलियत की कमी के कारण मैं कोई भी महत्वपूर्ण काम नहीं कर पाता था, लेकिन परमेश्वर ने मुझे ठुकराया नहीं। उसने मेरे लायक काम की व्यवस्था की, मुझे सत्य हासिल करने और बचाये जाने का मौक़ा दिया। यह परमेश्वर का प्यार था। ऐसा सोचकर मैं पछतावा करने लगा, अपने काम में इतना आलसी और लापरवाह होने के लिए खुद से नफ़रत करने लगा। अपनी शैतानी भ्रष्टता की गहराई और इंसानियत की कमी के लिए मैं खुद से खासतौर पर घृणा करने लगा, मैं अब इस तरह से नहीं जीना चाहता था। मैंने ठान ली कि इसके बाद मुझे जो भी काम दिया जाए, उसमें पूरा दिल लगाऊंगा, पूरा प्रयास करूंगा परमेश्वर को मूल्यवान न समझना बंद कर दूंगा। मैंने परमेश्वर के सामने प्रार्थना की : "हे परमेश्वर! तुम्हारे न्याय और ताड़ना के लिए धन्यवाद, जिसने मुझे समझने दिया कि मैं अपने काम को हल्के में ले रहा था, स्वार्थी और नीच था, मुझमें इंसानियत नहीं थी। मैं अपना दोष स्वीकार कर प्रायश्चित करता हूँ। मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए कड़ी मेहनत करूंगा, तुम्हारा क़र्ज़ चुकाऊँगा, तुम्हारे दिल को सुकून दूंगा।" इसके बाद मैंने अपना सारा समय और प्रयास सुसमाचार को साझा करने में लगा दिया, मैं अपनी पुरानी गलतियों की भरपाई करने के लिए यह काम ठीक ढंग से करना चाहता था।

एक महीना बीत जाने के बाद, अगुआ ने देखा कि मैं बेहतर हाल में हूँ, अपने काम के प्रति मेरा रवैया भी सुधर गया है, उसने मुझे फोन करके कहा कि अपना काम दोबारा शुरू करने के लिए मैं वापस जा सकता हूँ। मैं बहुत उत्साहित था, मैंने शांति से कहा, "अपना काम करने का एक और मौक़ा देने के लिए मैं परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ।" फोन रखते समय मेरी आँखें नम हो गयीं। मेरा दिल परमेश्वर के प्रति आभार और उसका ऋणी होने की भावना से अभिभूत हो गया। पहले के मेरे रवैये और अपने काम के प्रति विद्रोह के बारे में सोचकर, मैं पछतावे और शर्मिंदगी में डूब गया। मैंने घुटने टेक कर परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे क्या कहना है यह न जानकर रोता रहा। मैं जो भी कहता बहुत कम होता, इसलिए मैं यह बार-बार दोहराता रहा : "हे परमेश्वर! मैं तुम्हारा धन्यवाद करता हूँ!" मैं बस सोच रहा था कि परमेश्वर ने मुझमें कितना कार्य किया है, न्याय, ताड़ना, शुद्धिकरण, और मुझे बचाने का कार्य। मैं बस आभार ही व्यक्त कर सकता था। मैं परमेश्वर के लिए खुद को सौंप देने से ज़्यादा कुछ नहीं कर सकता था, परमेश्वर के प्रेम को चुकाने के लिए मैं कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता था। अपना काम खो देने के बाद उसे फिर से पाकर मैंने उसे संजोना सीख लिया, आखिर में मैं समझ सका कि यह कहने का परमेश्वर का आशय क्या है : "वह सब जो परमेश्वर की माँग से उपजता है, श्रम और कार्य के विभिन्न पहलू जो परमेश्वर की अपेक्षाओं से संबंधित हैं—इस सबके लिए मनुष्य के सहयोग की आवश्यकता है, यह सब मनुष्य का कर्तव्य है।" अब मैं ऐसा नहीं सोचता कि लगन से अपना काम करना कोई कष्ट है, यह अपमान नहीं सम्मान की बात है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह परमेश्वर द्वारा सौंपा गया आदेश है। उसकी अपेक्षा है, इतना ही नहीं यह मेरा कर्तव्य है। मैं इस गलतफहमी में रहता था कि परमेश्वर के घर में काम करना और बाहर की दुनिया में करने में कोई फर्क नहीं है, यह कड़ी मेहनत के अलावा कुछ नहीं है। लेकिन इस अनुभव ने मुझे सिखाया कि दुनिया में काम करना सिर्फ गुज़र-बसर करने के लिए होता है, इसमें होने वाली तकलीफ निजी फायदे के लिए होती है। यह अर्थहीन है। हालांकि परमेश्वर के घर में भी मेहनत करनी होती है, मगर यह कर्तव्य का निर्वहन होता है। कर्तव्य निभाने में हुई तकलीफ का मूल्य होता है और इसे परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है।

अपने कर्तव्य के इस समंजन से मुझे सच में परमेश्वर के प्रेम का अनुभव हो पाया। अब मैं परमेश्वर के घर में महज एक कर्मचारी नहीं, बल्कि उसके परिवार का एक हिस्सा बनना चाहता था। तब से अपने कर्तव्य में मैं उत्साह से खिला रहता हूँ। कभी-कभार कुछ काम मुश्किल या थकाऊ होते हैं, मगर मैं अब शिकायत नहीं करता। मैं बढ़िया काम करने के लिए तन-मन से जुट जाता हूँ। अपने कर्तव्य के प्रति मेरे रवैये को बदलने और उसके बारे में मेरे बेतुके नज़रिये को ठीक करने के लिए मैं परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का बहुत आभारी हूँ। इसने कुछ हद तक मेरे भ्रष्ट स्वभाव को भी बदल दिया है।

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