चुनाव हारने के बाद आत्मचिंतन
विश्वासी बनने के कुछ वर्ष बाद मुझे अगुआ के पद के लिए चुना गया। मैं सच में परमेश्वर का आभारी था कि उसने मुझे इतना बड़ा कार्यभार सौंपा, मैंने कलीसिया का कार्य अच्छे ढंग से करने की ठान ली। मैंने दिन-रात मशीन की तरह काम किया, परमेश्वर के मार्गदर्शन के कारण कलीसिया का कार्य फलने-फूलने लगा। त्याग करने, परमेश्वर के लिए खपने और कुछ व्यावहारिक समस्याएँ सुलझाने की मेरी काबिलियत देखकर, भाई-बहन मुझे आदर से देखते थे। एक बार एक सभा में मैंने अपने अगुआ को यह कहते सुन लिया कि कर्तव्य के प्रति मेरे दृष्टिकोण से लाभ हुआ है, मैं रोमांचित हो उठा—इस बात ने मुझे और भी प्रोत्साहित किया। सहकर्मियों के साथ बैठकों में, मैं दूसरे भाई-बहनों को अपने काम के अनुभवों के बारे में बताता, और उनके समर्थन के भाव देखकर मन-ही-मन खुश होता। मुझे लगा कि मैं कलीसिया का एक ऐसा प्रतिभाशाली व्यक्ति हूँ जिसे हटाया नहीं जा सकता।
जब सुसमाचार का कार्य बढ़ने लगा, तो भाई-बहनों ने सिफारिश की कि हाल में बनी कलीसियाओं की मदद के लिए मुझे दक्षिण जाना चाहिए। मुझे लगा कि इन कलीसियाओं के अभी बने होने के कारण वहां के काम में यकीनन बहुत-सी मुश्किलें और समस्याएँ होंगी, इसलिए मेरे लिए व्यावहारिक कार्य पर ध्यान देना बड़ा अहम होगा ताकि मुझसे आशा लगाये परमेश्वर को मैं निराश न करूं। इसके अलावा, मेरा अनुमान था कि अच्छा काम करने पर शायद मुझे अधिक महत्वपूर्ण पद के लिए विकसित किया जाए। वहां जाने के बाद, भले ही मेरे कर्तव्य में ढेरों चुनौतियां आयीं, जैसे बोलियों और जीवनशैलियों की, काफी समय यात्रा में बिताने की वगैरह, फिर भी मैं पीछे नहीं हटा। अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के प्रयास में मैं हर दिन सभाएं करने और कलीसियाओं के कार्य की व्यवस्था करने में व्यस्त रहता, यहाँ तक कि खाना खाने में समय "व्यर्थ" करना भी मुझे पसंद नहीं था—इसलिए मैं कुछ ऐसा उठा लेता जो बस में बैठे-बैठे खा सकूँ। लगभग एक साल ऐसे बिताने के बाद उन काम के क्षेत्रों में खासा सुधार दिखा जिनकी ज़िम्मेदारी मेरी थी, मेरे साथ ही दक्षिणी क्षेत्र में काम करने आयी बहन झांग ने मुझे सराहते हुए कहा, "आपके काम के वाकई बहुत अच्छे परिणाम मिल रहे हैं। मेरा काम तो आपके काम के आस-पास भी नहीं।" मैंने उन्हें दिलासा देते हुए प्रोत्साहित किया : "परमेश्वर अपने कार्य की देखभाल स्वयं करता है। अगर हम पूरी लगन से काम करें, तो हमें तमाम आयामों में तरक्की दिखाई देगी।" मेरे होंठों पर तो ये शब्द थे, मगर मैं मन-ही-मन खुश था। मेरी जिम्मेदारियां अच्छी तरह पूरी होती देख मेरी अगुआ बहन शिन ने पत्र लिखकर मेरे कार्य अनुभवों के बारे में लिखने को कहा ताकि दूसरे उससे सीख सकें। मैं और भी ज़्यादा दंभी हो गया, मुझे लगने लगा कि मैं और भी महत्वपूर्ण कार्यों के लिए प्रशिक्षण योग्य उम्मीदवार बन चुका हूँ, मैं कलीसियाओं का एक आधार-स्तंभ हूँ। इसके बाद जल्दी ही, बहन शिन ने हमें उनके साथ काम करने के लिए एक और अगुआ चुनने को कहा। यह सुनकर मैं रोमांचित हो उठा, सोचने लगा कि मैं इस क्षेत्र में साल भर से कार्यरत हूँ, पूरे समय बढ़िया काम करता रहा हूँ, इसलिए वह पद मेरा ही होगा।
फिर पंद्रह दिन बाद एक सभा में मुझे यह देख अचरज हुआ कि अगुआ के रूप में बहन वांग को चुना गया था। यह समाचार सुनकर मेरा दिल डूबने लगा। लगा कि मेरे साथ गलत हुआ है, मैं मानने को तैयार नहीं था, बहुत-सी शिकायतें मन में भर गयीं—ये सारी भावनाएं सामने आ गयीं। मैंने सोचा, "बहन वांग कैसे बन सकती हैं?" "उनके काम के परिणाम औसत रहे हैं। मेरे बदले वे कैसे चुनी जा सकती हैं? क्या मैंने पहले ही बहुत बड़ी कीमत नहीं चुकायी है? या मैंने अपने कर्तव्य में पहल नहीं की है? मैंने कई मौकों पर कलीसिया में उठने वाली मुश्किलों और समस्याओं को सुलझाने के लिए देर रात तक काम किया है, अनगिनत बार मैं बीमार होने के बावजूद काम पर गया हूँ। मैंने न सिर्फ अपनी जिम्मेदारियों का ख्याल रखा है, बल्कि अगुआ के कार्य में भी मदद की है। इस सबमें खपने के बावजूद अगर मुझे अगुआ के रूप में नहीं चुना जा सकता, तो भविष्य में मेरा क्या होगा? अगर बात ऐसी है, तो अपना कर्तव्य निभाने के लिए मैं क्यों मरता रहूँ? चाहे मैं कितनी भी तकलीफ सहूँ, कितनी भी बड़ी कीमत चुकाऊँ, किसी का ध्यान मुझ पर तो जाता नहीं ..."
जब बहन शिन ने गौर किया कि सभा के बाद मेरा चेहरा बहुत उतरा हुआ है, तो उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं किस सोच में हूँ। मैंने उनके सामने अपना हाल बयान कर दिया। बहन शिन ने बड़े सब्र के साथ मुझसे कहा, "सच है, सब देख सकते हैं कि आप अपना कर्तव्य कितने लगन से निभाते हैं, मगर ज़्यादातर भाई-बहनों का सोचना है कि आप जीवन-प्रवेश पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते, जब कोई मुद्दा सामने आता है तो आप उस पर सोच-विचार नहीं करते, खुद को जानकर सबक नहीं सीख पाते। इसके बजाय, आप खुद को ऊंचा उठाकर दिखावा करते हैं—यह आपकी सबसे बड़ी समस्या है। परमेश्वर के घर में सत्य और न्याय का राज है। जब भाई-बहन हमें नहीं चुनते, तो यह परमेश्वर की धार्मिकता है, हमें आत्मचिंतन करना चाहिए। हम कोई भी कर्तव्य निभा रहे हों, हमें परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों का पालन करना चाहिए; हमें परमेश्वर द्वारा बनाये गये वातावरण में सत्य खोजने पर ध्यान देना चाहिए, अपने खुद के भ्रष्ट स्वभावों पर आत्मचिंतन करना चाहिए, स्वभाव बदलने का प्रयास करना और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहिए। सिर्फ यही बात परमेश्वर की इच्छा के अनुसार है।" बहन शिन ने सीधे तौर पर मेरी समस्या को संबोधित किया, लेकिन मेरे अंदर आत्मज्ञान था ही नहीं। हालांकि मैंने कुछ नहीं कहा, पर मैं मन-ही-मन गुस्सा हो रहा था। मैंने मान लिया कि मुझमें जीवन-प्रवेश की कमी है और मुझे ज़्यादा आत्मज्ञान नहीं है, लेकिन मेरा अनुमान था कि मैं उन लोगों से बहुत बेहतर हूँ जो अपनी समझ की बात तो करते हैं मगर लगन से अपना कर्तव्य नहीं निभाते। मुझे लगा लोग मुझे नीची नज़र से देखते हैं, इसलिए अपने कर्तव्य में कड़ी मेहनत करने का क्या फायदा? इसके बाद से मैंने ऐसी ही मानसिकता पाल ली, जब कभी बहन शिन मुझे किसी काम में मदद के लिए कहतीं, मैं ऐसे ही काम चुनता जो आसान हों, आराम से किये जा सकें, जो काम मुश्किल होते, जिनके लिए ज़्यादा कीमत चुकानी पड़ती, उनको छोड़ देता, मैं ऐसी कड़ी मेहनत अब नहीं करना चाहता था। जब बहन शिन को काम में मुश्किलें झेलते देखता, तो मैं खुश होते हुए सोचता, "अब आपको मेरा मूल्य पता चला।" जब नयी चुनी हुई अगुआ बहन वांग हमारे साथ सभा करने आतीं, तो मैं उन्हें बिलकुल नकार देता। मैं मन-ही-मन सोचता, "क्या आप मुझसे थोड़ी बड़ी नहीं हैं? फिर भी आप किसी बात में मेरी बराबरी नहीं कर सकतीं, सत्य के बारे में संगति करने से लेकर कलीसिया की मुश्किलों और समस्याओं को सुलझाने तक।" रुतबे की मेरी आकांक्षा पूरी न होने के कारण, मैं अगुआ के प्रति पूर्वाग्रह और असंतोष से भरा हुआ था; मैं नकारात्मक और प्रतिरोधी बनकर अपना कर्तव्य यूं ही निभा रहा था।
उस समय मैं वाकई सुन्न था, मेरा दिल सख्त हो गया था, हालांकि अगुआ ने मेरी काट-छाँट की, मेरे साथ निपटे, मदद की पेशकश की, फिर भी मैंने कभी आत्मचिंतन नहीं किया। मैं करीब तीन महीने तक ऐसी ही नकारात्मक अवस्था में रहा, मेरी आत्मा में अंधेरा बढ़ता रहा। हर सभा में मेरी संगति नीरस और फीकी होती। मुझमें दूसरों की समस्याओं को लेकर कोई अंतर्दृष्टि नहीं थी, मैं उन्हें सुलझाने में मदद नहीं कर पाता था। यह बहुत ही अजीब था। सभा तो जैसे ख़त्म ही नहीं होती थी। सुसमाचार का प्रचार करने वाले लोगों की समस्याएँ सुलझाने में मैं मदद भी नहीं कर पा रहा था, इस कारण से हमारा सुसमाचार का कार्य धीमा पड़ गया। जल्दी ही मुझे बीमारी के अनुशासन का सामना करना पड़ा। एक दिन मैंने अचानक पूरे शरीर में कमज़ोरी और शिथिलता महसूस की, सांस भी नहीं ले पा रहा था, मैं बेहोश हो गया। भाई-बहनों ने मुझे इलाज के लिए अस्पताल भेज दिया। लेकिन अभी भी मैंने आत्मचिंतन कर प्रायश्चित करने से इंकार कर दिया, आखिरकार मुझे मेरे कर्तव्य से हटा दिया गया क्योंकि मैं कोई भी व्यावहारिक कार्य नहीं कर रहा था। अगुआ ने धार्मिक कार्यों और आत्मचिंतन के लिए मेरे गाँव वापस जाने की व्यवस्था कर दी। खबर मिलने पर मैं बुरी तरह रो पड़ा मेरा दिल जानता था कि मैंने पवित्र आत्मा का कार्य खो दिया है, मेरा कर्तव्य गँवा देना मुझ पर परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का आना है, लेकिन यह सोचकर कि मेरे साथ दक्षिण आये सभी सहकर्मी महत्वपूर्ण पदों पर हैं, जबकि मुझे घर वापस भेजा जा रहा है, मैंने बहुत अपमानित महसूस किया।
कुछ वर्ष पहले अपने गाँव में मुझे गिरफ्तार किया गया था और वहां मेरा रेकॉर्ड दर्ज है, इसलिए गाँव जाना सुरक्षित नहीं था, इस कारण से अगुआ ने मुझे एक भाई के घर भेज दिया जो एक पहाड़ी इलाके में रहता था। वहां रात में मैं लकड़ी की एक खराब-सी चारपाई पर सोता, उन दिनों को याद करता जब मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए दक्षिण को निकला था, दृढ़ संकल्प से सराबोर, कलीसिया के कार्य को अच्छे से करने और एक महत्वपूर्ण पद तक पदोन्नति पाने की ठान कर। लेकिन इसके बजाय, कलीसिया के कार्य में बाधा पैदा करने के कारण मुझे मेरे कर्तव्य से हटा दिया गया था। मेरे गाँव के भाई-बहनों को पता चला तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे कहेंगे कि मैंने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं किया और व्यावहारिक कार्य न कर पाया इस कारण मुझे हटा दिया गया? पद गँवाने के कारण दूसरों के हिकारत से देखने के ख़याल ने मुझे परेशान कर डाला, मैं इस बारे में जितना सोचता उतना ही बेचैन हो जाता। मेरे मन में आत्महत्या का भी ख़याल आने लगा। मैंने प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं सच में पीड़ा में हूँ। अगुआ के रूप में अपना कर्तव्य गँवा देना मुझसे मेरा जीवन छिन जाने जैसा था। मुझे रुतबे के पीछे नहीं भागना चाहिए, लेकिन मैं इसकी बेड़ियाँ तोड़ नहीं पा रहा। हे परमेश्वर! मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं खुद को जान सकूं, तुम्हारी इच्छा समझ सकूं।" अपनी प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब तुम आज के मार्ग पर चलते हो, तो किस प्रकार का अनुगमन सबसे अच्छा होता है? अपने अनुगमन में तुम्हें खुद को किस तरह के व्यक्ति के रूप में देखना चाहिए? यह तुम्हारे हित में है कि तुम यह जानो कि आज जो कुछ भी तुम पर पड़ता है, उसके प्रति तुम्हारा नजरिया क्या होना चाहिए, चाहे वह परीक्षण हों या कठिनाइयाँ, या फिर निर्मम ताड़ना और श्राप। इन सभी मामलों का सामना करते हुए, हर स्थिति में तुम्हें उन पर सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए। ... तुम नहीं जानते कि अपने वातावरण के अनुसार कैसे ढलना है, और ऐसा प्रयास करने के इच्छुक तो और भी कम हो, क्योंकि तुम इस बार-बार की—और अपनी दृष्टि में निर्मम—ताड़ना से कुछ भी हासिल करने के लिए तैयार नहीं हो। तुम न तो खोज करने का प्रयास करते हो और न ही अन्वेषण करने का, बस अपने भाग्य के आगे नतमस्तक हो जाते हो, चाहे वह तुम्हें जहाँ भी ले जाए। जो बातें शायद तुम्हें बर्बर ताड़ना के कार्य लगें, उन्होंने तुम्हारा दिल नहीं बदला, न ही उन्होंने तुम्हारे दिल पर कब्जा किया है; इसके बजाय उन्होंने तुम्हारे दिल में छुरा घोंपा है। तुम इस 'क्रूर ताड़ना' को इस जीवन में सिर्फ अपने दुश्मन की तरह देखते हो, और इसलिए तुमने कुछ भी हासिल नहीं किया है। तुम इतने दंभी हो! शायद ही कभी तुम मानते हो कि तुम इस तरह के परीक्षण अपने घिनौनेपन के कारण भुगतते हो; इसके बजाय, तुम खुद को बहुत अभागा समझते हो, और तो और कहते हो कि मैं हमेशा तुम्हारी गलतियाँ निकालता रहता हूँ। आज जब चीजें इस मुकाम पर पहुँच गई हैं, जो मैं कहता और करता हूँ, इसके बारे में वास्तव में तुम कितना जानते हो? ऐसा मत सोचो कि तुम एक स्वाभाविक रूप से जन्मी विलक्षण प्रतिभा हो, जो स्वर्ग से थोड़ी ही निम्न, किंतु पृथ्वी से कहीं अधिक ऊँची है। तुम किसी भी अन्य से ज्यादा होशियार होने से बहुत दूर हो—यहाँ तक कि यह भी कहा जा सकता है कि पृथ्वी पर जितने भी विवेकशील लोग हैं, उनसे तुम्हारा कहीं ज्यादा मूर्ख होना बड़ा प्यारा है, क्योंकि तुम खुद को बहुत ऊँचा समझते हो, और तुममें कभी भी हीनता की भावना नहीं रही, मानो तुम मेरे कार्यों की छोटी से छोटी बात पूरी तरह समझ सकते हो। वास्तव में, तुम ऐसे व्यक्ति हो, जिसके पास विवेक की मूलभूत रूप से कमी है, क्योंकि तुम्हें इस बात का कुछ पता नहीं है कि मेरा इरादा क्या करने का है, और उससे भी कम तुम्हें इस बात की जानकारी है कि मैं अभी क्या कर रहा हूँ। और इसलिए मैं कहता हूँ कि तुम जमीन पर कड़ी मेहनत करने वाले किसी बूढ़े किसान के बराबर भी नहीं हो, ऐसा किसान, जिसे मानव-जीवन की थोड़ी-भी समझ नहीं है और फिर भी जो जमीन पर खेती करते हुए अपना पूरा भरोसा स्वर्ग के आशीषों पर रखता है। तुम अपने जीवन के संबंध में एक पल भी विचार नहीं करते, तुम्हें यश के बारे में कुछ नहीं पता, और तुम्हारे पास आत्म-ज्ञान तो बिलकुल नहीं है। तुम इतने 'सर्वोत्कृष्ट' हो!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो लोग सीखते नहीं और अज्ञानी बने रहते हैं : क्या वे जानवर नहीं हैं?)। "तुम लोगों की खोज में, तुम्हारी बहुत सी व्यक्तिगत अवधारणाएँ, आशाएँ और भविष्य होते हैं। वर्तमान कार्य तुम लोगों की हैसियत पाने की अभिलाषा और तुम्हारी अनावश्यक अभिलाषाओं से निपटने के लिए है। आशाएँ, हैसियत और अवधारणाएँ सभी शैतानी स्वभाव के विशिष्ट प्रतिनिधित्व हैं। ... अपनी संभावनाओं और नियति को दर-किनार करना तुम्हारे लिए मुश्किल है। अब तुम लोग अनुयायी हो, और तुम लोगों को कार्य के इस स्तर की कुछ समझ प्राप्त हो गयी है। लेकिन, तुम लोगों ने अभी तक हैसियत के लिए अपनी अभिलाषा का त्याग नहीं किया है। जब तुम लोगों की हैसियत ऊँची होती है तो तुम लोग अच्छी तरह से खोज करते हो, किन्तु जब तुम्हारी हैसियत निम्न होती है तो तुम लोग खोज नहीं करते। तुम्हारे मन में हमेशा हैसियत के आशीष होते हैं। ऐसा क्यों होता है कि अधिकांश लोग अपने आप को निराशा से निकाल नहीं पाते? क्या उत्तर हमेशा निराशाजनक संभावनाएँ नहीं होता? ... जितना अधिक तू इस तरह से तलाश करेगी उतना ही कम तू पाएगी। हैसियत के लिए किसी व्यक्ति की अभिलाषा जितनी अधिक होगी, उतनी ही गंभीरता से उसके साथ निपटा जाएगा और उसे उतने ही बड़े शुद्धिकरण से गुजरना होगा। इस तरह के लोग निकम्मे होते हैं! उनके साथ अच्छी तरह से निपटने और उनका न्याय करने की ज़रूरत है ताकि वे इन चीज़ों को पूरी तरह से छोड़ दें। यदि तुम लोग अंत तक इसी तरह से अनुसरण करोगे, तो तुम लोग कुछ भी नहीं पाओगे। जो लोग जीवन का अनुसरण नहीं करते वे रूपान्तरित नहीं किए जा सकते; जिनमें सत्य की प्यास नहीं है वे सत्य प्राप्त नहीं कर सकते। तू व्यक्तिगत रूपान्तरण का अनुसरण करने और प्रवेश करने पर ध्यान नहीं देती; बल्कि तू हमेशा उन अनावश्यक अभिलाषाओं और उन चीज़ों पर ध्यान देती है जो परमेश्वर के लिए तेरे प्रेम को बाधित करती हैं और तुझे उसके करीब आने से रोकती हैं। क्या ये चीजें तुझे रूपान्तरित कर सकती हैं? क्या ये तुझे राज्य में ला सकती हैं?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। परमेश्वर के न्याय के वचन सीधे दिल पर लगे और मेरी हालत को उजागर कर दिया। मैंने याद किया कि किस तरह अगुआ के पद के लिए चुने जाने और अपने काम में थोड़ी सफलता हासिल करने के बाद, मुझे लगा मैं कोई विशेष व्यक्ति हूँ, कलीसिया का एक आधार-स्तंभ हूँ। मैं लगातार उस दिन का इंतज़ार करता जब मुझे ऊपर चढ़ने का मौक़ा मिलेगा, मैं और अधिक कलीसियाओं की अगुआई कर सकूंगा, और भी अधिक भाई-बहनों के आदर का पात्र बन सकूंगा। जब मैंने जो शोहरत और पद चाहे वो नहीं मिले तो मैंने आत्मचिंतन नहीं किया, बल्कि असंतोष और गुस्से में डूब गया, लगा जैसे मेरे सभी प्रयास बेकार हो गये हैं। मुझे बीमारी के एक दौर ने अनुशासित किया, फिर भी मैं भावनाशून्य, और निष्ठुर बना रहा, परमेश्वर की ओर नहीं मुड़ा। अपने कर्तव्य से बर्खास्त किये जाने के बाद भी मैं सोचता रहा। मैं महत्वाकांक्षा, रुतबे की अपनी चाहत से मदहोश था—इसने मेरी अंतरात्मा को कलंकित कर दिया था, मैंने उचित विवेक और इंसानियत पूरी खो दी थी। स्वर्ग पर भरोसा करनेवाले किसानों को पता होता है कि वे भाग्य भरोसे हैं, वे स्वर्ग की इच्छा के आगे समर्पण कर देते हैं, मगर मुझमें बिल्कुल आत्मज्ञान नहीं था, मैं आज्ञाकारी होते हुए अपने स्थान से कर्तव्य नहीं निभा पा रहा था। इसके बजाय मैं हमेशा परमेश्वर द्वारा खींचे गये दायरे से बाहर आने और ज़्यादा रुतबा हासिल करने, बड़ा अगुआ बनने, और दूसरों की प्रशंसा पाने की अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के पीछे भागता रहा। क्या यह ठीक महादूत की प्रकृति नहीं थी? जब प्रभु यीशु पृथ्वी पर कार्य करने आया, तो वह विनम्र था, छिपा हुआ था, उसने कभी भी रुतबे का दावा नहीं किया जो उसे मिल सकता था। उसने पापियों के साथ भोजन किया, झुककर शिष्यों के पाँव धोये। आज परमेश्वर फिर एक बार देहधारी होकर पृथ्वी पर कार्य करने आया है, लेकिन वह स्वयं को कभी परमेश्वर नहीं कहता या लोगों से उसकी आराधना करने को नहीं कहता। इसके बजाय, वह बहुत चुपचाप बिना किसी तामझाम के सत्य व्यक्त करता है, लोगों के जीवन के लिए पोषण देता है। लेकिन मैं तो, सभी लोगों से प्रशंसा पाना चाहता था क्योंकि मैंने अपने काम में थोड़ा-बहुत हासिल कर लिया था। मैंने यह मानने का साहस भी किया कि मुझे बाकी सबसे बिल्कुल ऊपर होना चाहिए और अगुआई का पद मेरी ही थैली में है। जब मुझे नहीं चुना गया तो मैं बेहद निराश हो गया; नकारात्मक और विरोधी हो गया। घमंड से मैंने सारी समझ खो दी—मैं इतना बेशर्म था! मेरा व्यवहार मुझे किसी दूसरे इंसान के खिलाफ नहीं, बल्कि परमेश्वर के खिलाफ़ कर रहा था। मैं सीधे परमेश्वर से प्रतिरोध कर रहा था, मैंने बहुत समय तक उसके स्वभाव का अपमान किया। बर्खास्त किया जाना मेरे लिए परमेश्वर का धार्मिक न्याय था, यह मेरे रुतबे की लालसा से निपटने के लिए था, वरना मेरा निष्ठुर दिल नहीं जागता।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े। "मैं उन सब को सज़ा दूँगा जिन्होंने मेरे क्रोध को भड़काया, मैं उन सभी जानवरों पर अपने कोप की सम्पूर्णता को बरसाऊँगा जिन्होंने कभी बराबरी में मेरे बगल में खड़े होने की कामना की थी, फिर भी मेरी आराधना या मेरा आज्ञापालन नहीं किया, मेरी छड़ी जिससे मैं मनुष्य को मारता हूँ, वह उन जानवरों पर टूट पड़ेगी जिन्होंने कभी मेरी देखभाल और जो रहस्य मैंने बोले उनका आनंद लिया था, और जिन्होंने कभी मुझसे भौतिक आनंद लेने की कोशिश की थी। मैं ऐसे किसी भी व्यक्ति को क्षमा नहीं करूँगा जो मेरा स्थान लेने की कोशिश करते हैं; मैं उन में से किसी को भी नहीं छोड़ूँगा जो मुझ से खाना और कपड़े हथियाने की कोशिश करते हैं। फिलहाल तो, तुम सब नुकसान से बचे हुए हो और मुझसे माँगने में हद से आगे बढ़ जाने के कारण असफल हो जाते हो। जब कोप का दिन आ जायेगा तो तुम मुझ से और अधिक नहीं माँगोगे; उस समय, मैं तुम लोगों को जी भरकर चीजों का 'आनंद' लेने दूँगा, मैं तुम सबके चेहरों को मिट्टी में घुसा दूँगा, और तुम सब फिर दोबारा कभी भी उठ नहीं पाओगे!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। "कुछ कलीसियाओं की अगुआई करके, कुछ लोग अहंकारी हो जाते हैं, उन्हें लगता है कि उनके बिना परमेश्वर का घर काम नहीं कर सकता, परमेश्वर को उनसे विशेष व्यवहार करना चाहिए। वास्तव में, उनका दर्जा जितना ऊँचा होता है, परमेश्वर से उनकी माँगें उतनी ही ऊँची होती हैं; जितना अधिक वे सिद्धांतों को समझते हैं, उनकी माँगें उतनी ही अधिक रहस्यमय और ओछी होती हैं। वे अपने मुँह से तो कुछ नहीं कहते, लेकिन उनके दिल में यही छिपा होता है, जिसका पता लगाना आसान नहीं होता। इस बात की पूरी संभावना रहती है कि कभी न कभी उनकी शिकायतें और प्रतिरोध फूटकर सामने आएँगे, और यह और भी अधिक परेशान करने वाली बात है। ऐसा क्यों होता है कि लोग जितने अधिक धार्मिक अगुआ और बड़ी हस्ती बनते हैं, वे उतने ही अधिक खतरनाक मसीह-विरोधी होते हैं? क्योंकि जितनी अधिक उनकी हैसियत होती है, उतनी ही अधिक उनकी महत्वाकांक्षा होती है; जितना अधिक वे सिद्धांतों को समझते हैं, उनका स्वभाव उतना ही अधिक अहंकारी हो जाता है। यदि, परमेश्वर में अपनी आस्था में, तुम सत्य का अनुसरण न करके, हैसियत का अनुसरण करते हो, तो तुम खतरे में हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं')। परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ने से मुझे रुतबे के पीछे भागने के सार और परिणामों का पता चला जिससे मैं डरकर काँपने लगा। जब मैंने अपने कर्तव्य में कुछ हासिल कर लिया और कुछ कलीसियाओं के कार्य का प्रभारी बना, तो मैं भूल गया कि मेरा स्थान क्या है, ढीठ होकर और ऊंची प्रतिष्ठा का लालच करने लगा, ये आशा करते हुए कि ज़्यादा लोगों के प्रबंधन से, लोग मुझे अधिक सराहेंगे और मेरा अनुसरण करेंगे। सार रूप से मैं परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उससे छीनने की कोशिश कर रहा था जो कि उसके स्वभाव का अपमान करता है। इसने मुझे व्यवस्था के युग की याद दिलायी, जब कोरह और दातान के दल ने मूसा की अगुआई की खिलाफत कर उसका स्थान हथियाने की कोशिश की थी; परमेश्वर ने पृथ्वी को चीर दिया और वे दोनों निगल लिये गये। फिर अनुग्रह के युग में, यहूदी फरीसियों, महायाजकों और शास्त्रियों ने एक व्यक्ति का धर्मांतरण करने के लिए पूरे थल और समुद्रों की यात्रा की, लेकिन जब प्रभु यीशु छुटकारे का कार्य करने आया, तो उन लोगों ने अपनी पूरी ताकत से अपने पदों को बचाया, प्रभु यीशु का प्रतिरोध किया, उसकी निंदा की। आखिरकार, उन लोगों ने उसे सूली पर चढ़वा दिया और परमेश्वर का शाप पाया। इन बातों के बारे में विचार कर, मुझे समझ आया कि रुतबे के पीछे भागना वह रास्ता पकड़ना है जो परमेश्वर के विरुद्ध है—यह रास्ता नरक और तबाही की तरफ जाता है। उस पल मैंने ज़मीन पर घुटने टेककर प्रार्थना करते हुए फफक कर रो पड़ा। "हे परमेश्वर! मैं अब खुद को तुम्हारा दुश्मन नहीं बनाना चाहता, बल्कि मैं सिर्फ आत्मचिंतन करना और प्रायश्चित करने लायक बनाना चाहता हूँ। आप मेरे लिए चाहे जैसे परिवेश की व्यवस्था करें, मैं बस एक सृजित प्राणी के स्थान से आपके सामने समर्पण करना चाहता हूँ।"
उसके बाद मैंने दिल लगाकर अपना कर्तव्य निभाया। मेरी मेज़बानी कर रहे बुज़ुर्ग भाई अपने कुछ रिश्तेदारों के साथ सुसमाचार साझा करने के लिए मुझे ले गये, उस पूरे समय के दौरान उन लोगों ने मुझसे ढेरों सवाल पूछे, मगर मुझे उनसे जुड़े सत्यों की अच्छी समझ नहीं थी। यह देखकर कि मैं कितना अज्ञानी हूँ, मैंने बड़ी शर्मिंदगी महसूस की। मैं पहले कुछ काम कर पाया, थोड़ी सफलता पा सका, इसलिए मैं सबको नीची नज़र से देखने लगा था, यह सोचकर कि मुझे और महत्वपूर्ण पदों के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा। फिर मैंने समझ लिया कि मैं खुद को स्पष्टता से नहीं देख पा रहा हूँ। किसी अगुआ का सबसे महत्वपूर्ण गुण होता है सत्य की समझ रखना; समस्याएँ सुलझाने के लिए अगुआओं को सत्य का प्रयोग करना होता है, मगर मैं तो सुसमाचार साझा करने के लिए सत्य के सबसे बुनियादी पहलुओं के बारे में भी स्पष्ट रूप से संगति नहीं कर पाता था। फिर भी मैं अगुआई के पद के लिए लगातार लड़ रहा था—कैसी बेतुकी बात थी! भाई-बहनों का मुश्किलों और समस्याओं से सामना होने पर, मैं बस ऊँचे सिद्धांतों के बारे में बात करता और उन्हें थोड़ा प्रोत्साहित कर देता, मगर मैंने कभी भी जीवन-प्रवेश में उनकी व्यावहारिक चुनौतियों को सुलझाने में मदद नहीं की। मैंने जान लिया कि अगर किसी व्यक्ति को सत्य हासिल नहीं है, तो वह व्यावहारिक कार्य नहीं कर पायेगा, भले ही वह कितने भी ऊंचे पद पर पहुँच जाए। ऐसे लोग अंत में कलीसिया के कार्य में बाधा पैदा करेंगे और भाई-बहनों के जीवन को नुकसान पहुंचाएंगे। मुझे यह भी लगा कि परमेश्वर ने मुझे वहां सुसमाचार फैलाने और नवांगंतुकों का मार्गदर्शन करने के लिए नियुक्त किया है, ताकि मैं सत्य से बेहतर ढंग से युक्त हो सकूं। मेरी कमियों को दूर करने का यह एक तरीका था। मैंने जब परमेश्वर की इच्छा को समझ लिया, तो मैंने खुशी-खुशी समर्पण कर उस परिवेश में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने और सत्य में प्रवेश करने का अभ्यास करने को तैयार हो गया। कुछ समय कड़ी मेहनत करने के बाद, मैं दर्शन के आयाम में हर प्रकार के सत्य से लैस हो गया, और स्थानीय सुसमाचार कार्य धीरे-धीरे और अधिक जीवंत हो गया। मैं हर दिन परमेश्वर के वचन खा-पी रहा था, नये विश्वासियों के साथ भजन गाकर परमेश्वर का गुणगान कर रहा था। मैंने सच में तृप्ति का अनुभव किया, परमेश्वर को उसके अनुग्रह और कृपा के लिए दिल से धन्यवाद दिया।
उस पहाड़ी इलाके में तीन साल पलक झपकते ही बीत गये। फिर एक दिन, मूसलाधार बरसात शुरू हो गयी मैं एक सभा से घर लौट रहा था—झमाझम बारिश हो रही थी, तेज़ हवाएं चल रही थीं, मैं बड़ी मुश्किल से अपनी साइकिल को धक्का दे पा रहा था। उस ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी रास्ते पर चलते हुए, तेज़ बारिश के कारण मैं अपनी आँखें तक नहीं खोल पा रहा था, तब मुझे महसूस हुआ कि पहाड़ों पर सुसमाचार साझा करना बहुत कठिन है। मैं वहां करीब तीन साल से अपना कर्तव्य निभा रहा था और मैंने कुछ सबक सीखे थे, तो यहाँ से मेरा तबादला क्यों नहीं किया गया? जब दूसरे भाई-बहन उनके कर्तव्य से बर्खास्त किये गये थे, तो उनके आत्मचिंतन करने, अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने, प्रायश्चित करने और कुछ बदलाव करने के बाद, उन्हें फिर से अगुआई के पद दिये गये थे। इस पूरे दौरान मैंने आत्मचिंतन किया, लेकिन मुझे एक छोटे-से समूह की अगुआई करने की भी अनुमति नहीं दी गयी। मैंने खुद के बारे में थोड़ी समझ भी हासिल कर ली थी, अपने कर्तव्य के प्रति मेरे रवैये और जो सत्य मैंने हासिल किए थे, उनके चलते मैं कम-से-कम एक कलीसिया की अगुआई तो कर ही सकता हूँ। तो फिर मेरा तबादला क्यों नहीं हुआ? क्या मुझे सदा पहाड़ों पर ही सुसमाचार का प्रचार करते रहना होगा? इस विचार ने मुझे थोड़ा निराश कर दिया। घर पहुँचने पर, मैंने महसूस किया कि पूरे रास्ते मैं अपनी निजी शिकायतें और गलतफहमियाँ ही दिखाता रहा, मेरा दिल फिर एक बार प्रतिष्ठा का लालच कर रहा था। मैंने परमेश्वर को पुकारा, उससे मेरे हृदय की रक्षा करने की विनती की, ताकि मैं उसके आगे शांत हो सकूं।
थोड़ी ही देर बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों के ये दो अंश पढ़े : "मनुष्य के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि वह अपने भाग्य और भविष्य की संभावनाओं के सिवाय और कुछ नहीं सोचता, और उनसे बहुत प्रेम करता है। मनुष्य अपने भाग्य और भविष्य की संभावनाओं के वास्ते परमेश्वर का अनुसरण करता है; वह परमेश्वर के प्रति अपने प्रेम की वजह से उसकी आराधना नहीं करता। और इसलिए, मनुष्य पर विजय में, मनुष्य के स्वार्थ, लोभ और ऐसी सभी चीज़ों से निपटकर उन्हें मिटा दिया जाना चाहिए, जो उसके द्वारा परमेश्वर की आराधना में सबसे अधिक व्यवधान डालती हैं। ऐसा करने से मनुष्य पर विजय के परिणाम प्राप्त कर लिए जाएँगे। परिणामस्वरूप, मनुष्य पर विजय के पहले चरणों में यह ज़रूरी है कि मनुष्य की अनियंत्रित महत्वाकांक्षाओं और सबसे घातक कमज़ोरियों को शुद्ध किया जाए, और इसके माध्यम से परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रेम को प्रकट किया जाए, और मानव-जीवन के बारे में उसके ज्ञान को, परमेश्वर के बारे में उसके दृष्टिकोण को, और उसके अस्तित्व के अर्थ को बदल दिया जाए। इस तरह से, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रेम की शुद्धि होती है, जिसका तात्पर्य है कि मनुष्य के हृदय को जीत लिया जाता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना)। "परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाता है, परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपने खुद के भ्रष्टाचार को जान जाओ। अंततः तुम उस बिंदु पर पहुंच जाते हो जहां तुम मर जाना और अपनी योजनाओं और इच्छाओं को छोड़ देना और परमेश्वर की सार्वभौमिकता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करना अधिक पसंद करते हो। इसलिए अगर लोगों को कई वर्षों का शुद्धिकरण नहीं मिलता है, अगर वे एक हद तक पीड़ा नहीं सहते हैं, तो वे, अपनी सोच और हृदय में देह के भ्रष्टाचार के बंधन से बचने में सक्षम नहीं होंगे। जिन भी पहलुओं में तुम अभी भी शैतान के बंधन के अधीन हो, जिन भी पहलुओं में तुम अभी भी अपनी इच्छाएं रखते हो, जिनमें तुम्हारी अपनी मांगें हैं, यही वे पहलू हैं जिनमें तुम्हें कष्ट उठाना होगा। केवल दुख से ही सबक सीखा जा सकता है, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे को समझने में समर्थ होना" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परीक्षणों के बीच परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करें')। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैंने समझा कि शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिए जाने के बाद सभी उसके ज़हर में ही जीते हैं, जैसे कि "सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ," "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है," "जैसे एक पेड़ को छाल चाहिए, उसी तरह इंसान को इज्ज़त चाहिए," "इंसान को हिम्मत और संकल्प के साथ दृढ़ता से जीना चाहिए," आदि। मैं शोहरत और रुतबे का पीछा करते हुए इन शैतानी ज़हर के साथ जी रहा था। जब मैंने भाई-बहनों की प्रशंसा पाई, तो मुझे अपना काम करने की प्रेरणा मिली। लेकिन जब मैंने किसी को मुझसे आगे बढ़ते देखा, जब बात मेरे रुतबे पर आ गई, तो मैं ईर्ष्या करने लगा, उद्दंड हो गया। जब मैंने पद गँवा दिया, तो मैंने नकारात्मक और प्रतिरोधी होकर अपना कर्तव्य निभाना भी बंद कर दिया। मैंने परमेश्वर के घर के बारे में एक बार सोचा तक नहीं। क्या मेरा कोई ज़मीर या समझ थी? यह मेरे अंदर गहरे पैठा हुआ शैतान का ज़हर था। परमेश्वर लोगों को न्याय, ताड़ना, काट-छाँट, निपटान, परीक्षण और शुद्धिकरण द्वारा बचाता है; इस तरह से, लोगों के गलत विचारों, नज़रियों और प्रयास के लक्ष्यों को बदला जा सकता है, उनके शैतानी स्वभाव को परिवर्तित किया जा सकता है। फिर वे शैतान के ज़हर में नहीं जीते, परमेश्वर से प्रेम करने और आज्ञाकारी होने योग्य बनते हैं, ताकि वे परमेश्वर को प्राप्त हो सकें। मनुष्य में परमेश्वर के कार्य का यही लक्ष्य है। परमेश्वर ने मुझे उस मुश्किल पहाड़ी क्षेत्र में, जहां मेरे पास शोहरत हासिल करने का कोई मौक़ा नहीं था, इसलिए नियुक्त किया था ताकि मेरी भीतरी महत्वाकांक्षाओं को उजागर कर मुझसे निपटा जा सके। यह मेरे शैतानी स्वभाव को शुद्ध करने और मुझे इंसान की तरह जीने योग्य बनाने के लिए था, ताकि मैं दृढ़ता से एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा सकूं, और परमेश्वर की आराधना कर उसके सामने समर्पण कर सकूं। इस एहसास से मैं परमेश्वर के प्रति आभार से भर गया, मैंने उसके सामने सत्य को अच्छी तरह से खोजने, कभी भी शोहरत, लाभ, और व्यर्थ की चीज़ों के पीछे न भागने का संकल्प लिया।
उसके बाद कोई बात होती, तो कभी-कभार मैं इनके बारे में सोचने लगता, मगर मैं सत्य को खोज कर अपनी स्थिति को पलट लेता। मुझे याद है एक बार कलीसिया ने मुझे एक सुसमाचार वीडियो के फिल्मांकन में भाग लेने का काम सौंपा। मैं सच में रोमांचित था औरफिल्मांकन में भाग लेते हुएर परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य का गवाह बनकर मैंने बहुत गौरव महसूस किया। लेकिन उसी समय मेरी भीड़ में अलग चमकने की चाह कुलबुलाने लगी। मैं सोचने लगा कि अगर दूसरे भाई-बहनों ने उस सुसमाचार वीडियो में मुझे अभिनय करते हुए देखा तो ज़रूर मुझे आदर से देखेंगे। लेकिन जब मैं फिल्मांकन स्थल पर गया, तो वहां अगुआ की यह बात सुनकर मैं चौंक गया, "फिलहाल बहुत ज़्यादा हड़बड़ी है। मेजबानी का कार्य संभालने वाले उस भाई के साथ खाना बनाने और सफाई वगैरह के काम में लग जाइए।" मेरे मन ने बहुत प्रतिरोध जगा। मैंने सोचा मेजबानी के ये काम तो कलीसिया का कोई दूसरा भाई या बहन भी कर सकता है—मैं ही क्यों? इसके अलावा, उत्तर और दक्षिण दोनों जगहों में मैंने अगुआ के रूप में सेवा की है। मुझे अगुआई का कोई पद नहीं मिल सका, लेकिन क्या कोई ऐसा काम नहीं दिया जाना चाहिए जो मेरे लायक हो? आश्चर्य है कि मुझे लगा दूसरे लोग मुझे ऐसे काम करते हुए देखकर मुझे नाकारा ही समझेंगे। क्या यह मेरी काबिलियत को जाया करना नहीं है? मेरे लिए यह बहुत निराशाजनक था, मगर अपने पुराने अनुभव के आधार पर, मैं जानता था कि मुझे समर्पण करना चाहिए। मैंने जबरन इस काम को स्वीकार कर लिया। दूसरे भाई-बहन एक-के-बाद-एक फिल्मांकन के लिए वहां आये, मैंने देखा कि मेरे गाँव के बहुत-से लोग उस फिल्म में अभिनय कर रहे हैं, जबकि मैं एक एप्रन पहनकर उनके लिए खाना बना रहा था और फर्श साफ़ कर रहा था। मैंने अपमानित महसूस किया। एक भावुक पल में, एक छोटे भाई ने मुझे देखकर गर्मजोशी से कहा, "जब आप एक अगुआ थे तो आप हमारी कलीसिया के कार्य के प्रभारी थे। उस समय मैं कुछ भी नहीं समझता था, मगर मुझे सभाओं में जाना अच्छा लगता था। आपने हमारे लिए जो सभाएं कीं, वे मेरे लिए बहुत फायदेमंद थीं।" उसकी बस यूं ही कई गई ये बात मेरे कानों को कड़वी लगी। मुझे लगा वह मेरा मजाक उड़ा रहा है। मेरा चेहरा जलने लगा, लगा कि धरती फटे और मैं उसमें समा जाऊँ। दूसरी बार भाई-बहनों ने शाम को देर रात तक फिल्मांकन किया, अगुआ ने कहा कि फिल्मांकन अगली सुबह जल्दी शुरू हो जाएगा। उन्होंने मुझे कमरों की सफाई के लिए ओवरटाइम करने को कहा। यह सुनकर मैं बहुत परेशान हो गया, मैंने सोचा, "आप सब लोग थक गये, आप आराम करेंगे, मगर मैं यहाँ आधी रात को सफाई करता रहूँगा, जैसे कि मैं कोई नौकर हूँ।" दिन भर कड़ी मेहनत करने के बाद बाकी सबको आराम मिला, वे सो गये, और इधर मैं सफाई कर रहा हूँ, मुझे लगा मेरे साथ बहुत गलत हो रहा है, मैं सच में दुखी था, मानो मैं कोई अनाड़ी मज़दूर हूँ। लगा जैसे मेरी कोई इज़्ज़त नहीं है, इससे तो बेहतर मैं पहाड़ों में सुसमाचार साझा करते हुए था, जहां कम-से-कम नये विश्वासी मेरी संगति का आनंद लेते थे और मेरे घमंड की भावना तृप्त थी। यहाँ तो ऐसा कुछ नहीं मिल रहा है। इसके बाद, मैं सही हाल में नहीं था, मैं अनमने ढंग से खाना बना रहा था, हर भोजन या तो तीखा और ज़्यादा नमक वाला या फीका और स्वादहीन बनाने लगा। किसी ने कुछ नहीं कहा—जैसा बना सबने बस खा लिया। मैंने वाकई दोषी अनुभव किया—मैं ऐसा भोजन कैसे बना सकता हूँ? वे सब उसे कैसे खा सकते हैं? उसी पल मन में एक विचार कौंधा : जब रुतबे की मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई तो क्या मैं बिना मन लगाए बस लापरवाही से काम नहीं कर रहा? मैंने इस पर सोच-विचार किया और आत्मचिंतन किया। समझ गया कि बात यही थी—मैंने प्रतिरोधी और असंतुष्ट महसूस किया, क्योंकि मुझे लगा मेरा मूल्य नहीं समझा जा रहाऔर मेरी कोई प्रतिष्ठा नहीं है। मैं अभी भी रुतबे की आराधना कर रहा था।
उस समय, मैंने परमेश्वर के वचनों का दो अंश पढ़ा। "अतीत में, पतरस को परमेश्वर के लिए क्रूस पर उलटा लटका दिया गया था; परंतु तुम्हें अंत में परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए, और उसके लिए अपनी सारी ऊर्जा खर्च कर देनी चाहिए। एक सृजित प्राणी परमेश्वर के लिए क्या कर सकता है? इसलिए तुम्हें जल्दी से अपने आपको परमेश्वर को सौंप देना चाहिए, ताकि वह अपनी इच्छा के अनुसार तुम्हारा निपटारा कर सके। अगर इससे परमेश्वर खुश और प्रसन्न होता हो, तो उसे अपने साथ जो चाहे करने दो। मनुष्यों को शिकायत के शब्द बोलने का क्या अधिकार है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 41)। "इसलिए, जैसा कि मैं आज जिस तरह तुम्हारा न्याय कर रहा हूँ, अंत में तुम लोगों के अंदर किस स्तर की समझ होगी? तुम लोग कहोगे कि यद्यपि तुम लोगों की हैसियत ऊँची नहीं है, फिर भी तुम लोगों ने परमेश्वर के उत्कर्ष का आनंद तो लिया ही है। क्योंकि तुम लोग अधम पैदा हुए थे इसलिए तुम लोगों की कोई हैसियत नहीं है, लेकिन तुम हैसियत प्राप्त कर लेते हो क्योंकि परमेश्वर तुम्हारा उत्कर्ष करता है—यह तुम लोगों को परमेश्वर ने प्रदान किया है। ... तुम लोगों को ऐसे प्रार्थना करनी चाहिए : 'हे परमेश्वर, चाहे मेरी हैसियत हो या न हो, अब मैं स्वयं को समझती हूँ। यदि मेरी हैसियत ऊँची है तो यह तेरे उत्कर्ष के कारण है, और यदि यह निम्न है तो यह तेरे आदेश के कारण है। सब-कुछ तेरे हाथों में है। मेरे पास न तो कोई विकल्प हैं न ही कोई शिकायत है। तूने निश्चित किया कि मुझे इस देश में और इन लोगों के बीच पैदा होना है, और मुझे पूरी तरह से तेरे प्रभुत्व के अधीन आज्ञाकारी होना चाहिए क्योंकि सब-कुछ उसी के भीतर है जो तूने निश्चित किया है। मैं हैसियत पर ध्यान नहीं देती हूँ; आखिरकार, मैं मात्र एक प्राणी ही तो हूँ। यदि तू मुझे अथाह गड्ढे में, आग और गंधक की झील में डालता है, तो मैं एक प्राणी से अधिक कुछ नहीं हूँ। यदि तू मेरा उपयोग करता है, तो मैं एक प्राणी हूँ। यदि तू मुझे पूर्ण बनाता है, मैं तब भी एक प्राणी हूँ। यदि तू मुझे पूर्ण नहीं बनाता, तब भी मैं तुझ से प्यार करती हूँ क्योंकि मैं सृष्टि के एक प्राणी से अधिक कुछ नहीं हूँ। मैं सृष्टि के परमेश्वर द्वारा रचित एक सूक्ष्म प्राणी से अधिक कुछ नहीं हूँ, सृजित मनुष्यों में से सिर्फ एक हूँ। तूने ही मुझे बनाया है, और अब तूने एक बार फिर मुझे अपने हाथों में अपनी दया पर रखा है। मैं तेरा उपकरण और तेरी विषमता होने के लिए तैयार हूँ क्योंकि सब-कुछ वही है जो तूने निश्चित किया है। कोई इसे बदल नहीं सकता। सभी चीजें और सभी घटनाएँ तेरे हाथों में हैं।' जब वह समय आएगा, तब तू हैसियत पर ध्यान नहीं देगी, तब तू इससे छुटकारा पा लेगी। तभी तू आत्मविश्वास से, निर्भीकता से खोज करने में सक्षम होगी, और तभी तेरा हृदय किसी भी बंधन से मुक्त हो सकता है। एक बार लोग जब इन चीज़ों से छूट जाते हैं, तो उनके पास और कोई चिंताएँ नहीं होतीं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने से मेरा दिल उजाले से भर गया। पतरस का प्रयास एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने का था; वह परमेश्वर से प्रेम कर उसे संतुष्ट करना चाहता था। परमेश्वर के प्रति उसकी आज्ञाकारिता संपूर्ण थी, और उसने परमेश्वर के आयोजनों का अनुसरण किया। आखिरकार, परमेश्वर के शानदार गवाह के रूप में सेवा करते हुए उसे सूली पर भी चढ़ा दिया गया। अपनी बात कहूं तो परमेश्वर मेरे भीतर बहुत काम कर रहा था, उसकी इच्छा थी कि मैं अपने स्थान पर रहूँ, सत्य को खोजने और अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के लिए एक आज्ञाकारी सृजित प्राणी बनूँ, अपना भ्रष्ट शैतानी स्वभाव त्याग दूँ, और सच्चे दिल से परमेश्वर को समर्पित हो जाऊं। एक सृजित प्राणी को यही प्रयास करना चाहिए।
अगुआ ने मेरे लिए इन कामों की व्यवस्था की थी क्योंकि इन्हें करना ज़रूरी था, इसलिए मुझे यही करना चाहिए था। यह वैसा ही है जैसे परिवार में बच्चे खाना बनायें और सफाई करें—ये सब घरेलू काम हैं और कोई भी काम ऊंचे या नीचे रुतबे का नहीं होता। लेकिन मैंने उस काम को नीची नज़र से देखा, ऐसा महसूस किया जैसे मुझे नीचे कर दिया गया हो, मेरे आदर और प्रतिष्ठा को कम कर दिया गया हो। मेरे मन में रोष और शिकायतें भरी हुई थीं, मुझमें ज़रा-भी आज्ञाकारिता नहीं थी। मुझमें ज़मीर और समझ बिल्कुल भी नहीं थी! इन विचारों ने मुझे पछतावे और खुद के प्रति नाराज़गी से भर दिया मैंने समर्पण करने ओर अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने को तैयार होकर परमेश्वर से प्रार्थना की और पाप-स्वीकार किया। इसके बाद खाना बनाते समय, मैंने रसोईघर में जाकर सब्जियां काटने और बर्तन धोने की पहल की, काम करते समय परमेश्वर के वचनों पर सोच-विचार किया। मुझे अपने मन में सुकून और खुशी का एहसास हुआ। सफाई करते समय, मुझे कोई शिकायत नहीं थी, बल्कि मैंने खुद को परमेश्वर के करीब महसूस किया। मैं भाई-बहनों के साथ सच्चे दिल से खुल कर अपने कर्तव्य से सीखी हुई बातें साझा कर सका। मुझे दिल से लगा कि एक इंसान की तरह थोड़ा-बहुत भी जीने का बस यही एक तरीका है।
इन बातों का अनुभव करके मैं गहराई से सीख सका कि परमेश्वर द्वारा मेरा न्याय और ताड़ना मेरे लिए उसका उद्धार है : यह पूरी तरह से प्यार है। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना ने मेरे गलत प्रयासों और नज़रियों को बदल दिया था, कुछ हद तक मुझे शैतानी स्वभाव से शुद्ध होने दिया था। आज मैं परमेश्वर के घर में दृढ़ता से अपना कर्तव्य निभा पा रहा हूँ, यह पूरी तरह से परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का नतीजा है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!
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