मेरे बेटे की मृत्यु के बाद
वांग ली, चीन जून 2014 में एक दिन, मेरी बेटी ने अचानक फोन करके कहा कि मछली पकड़ते वक्त मेरे बेटे को बिजली का झटका लगा है। उसे सटीक जानकारी तो...
हम परमेश्वर के प्रकटन के लिए बेसब्र सभी साधकों का स्वागत करते हैं!
वेक्षीयो, स्पेन
इस साल की शुरुआत में, जब मैं एक कलीसिया की अगुआ, और बहन वांग, सुसमाचार टीम की अगुआ थीं, दोनों को दूसरी कलीसिया में भेज दिया गया था। एक दिन किसी बहन ने मुझे बताया, बहन वांग भाई-बहनों से कह रही थीं कि मेरा बर्ताव किसी झूठे अगुआ जैसा है, मैं अपने सुसमाचार के काम को लेकर लापरवाह हूँ, और काम में आने वाली समस्याओं को समय रहते दूर नहीं करती, जिससे टीम की कार्यक्षमता और प्रभावकारिता पर बुरा असर पड़ रहा है। मुझे गुस्सा आ गया, मैंने सोचा, "कुछ समय से मैं काम की गहराई से जाँच-पड़ताल नहीं कर रही थी, मगर उसके पीछे भी एक कारण है। मेरे सामने आकर बात करने के बजाय, मेरी पीठ पीछे ऐसी बातें करके, क्या आप मेरी परेशानियों को और नहीं बढ़ा रहीं? भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मैं आपको इतनी आसानी से माफ नहीं करूँगी। मैं भी आपकी गलतियों को उजागर करूँगी।" फिर मैंने कहा, "बहन वांग हमेशा ही मुझे नीचा समझती और मुझमें गलतियाँ निकालती रहती हैं। वो भी कोई दूध की धुली नहीं हैं, ये सभी जानते हैं। वो दूसरों के साथ मिलकर काम करने के बजाय, सबकी आलोचना करती रहती हैं। और अब उनका निशाना मुझ पर है, मैंने तो कभी उनके साथ बुरा नहीं किया। शायद ऐसा इसलिए होगा क्योंकि मैंने दूसरी कलीसिया में उनका तबादला कर दिया, और अब वो टीम की अगुआ का पद खोने पर मुझसे बदला लेना चाहती हों।" मैं चाहती थी कि वो बहन मुझे सही और बहन वांग को गलत समझे। इसके बाद मैं इस बारे में सोचने लगी कि बहन वांग का इस तरह से सबके सामने मेरी आलोचना करना मेरे लिए कितना अपमानजनक था। अगर हर कोई उनकी बात पर विश्वास करके मुझे झूठी अगुआ समझने लगा, तो सबके सामने मेरी क्या इज्ज़त रह जाएगी? और अगर बड़े अगुआ को इस बारे में पता चल गया, तो मुझसे मेरा पद भी छीना जा सकता है। मैं हमेशा इसी सोच में डूबी रहती थी और इसी वजह से मैं बहन वांग से नफरत भी करने लगी। क्या वो मुझे सबसे अलग करने की कोशिश नहीं कर रही थीं? मैंने सोचा कि अगर वो मेरे प्रति कठोर रहेंगी, तो मैं भी उनके साथ गलत ही करूँगी, इसलिए जब तक मैं अगुआ हूँ, उनकी तरक्की नहीं हो सकती। मैं उनके हर बर्ताव को सबके सामने लाऊँगी, ताकि हर कोई उनके बारे में जान सके, और अगर वो मुझे पीठ पीछे लोगों की बुराई करती दिखीं, तो मैं उन्हें कलीसिया से निकलवा दूँगी। सच कहूँ तो मेरा इस तरह से सोचना मुझे ठीक नहीं लगा, मैं ये भी नहीं जानती थी कि ऐसा करना परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है या नहीं। जो कुछ भी हुआ उसमें परमेश्वर की इच्छा थी, फिर भी मैंने सत्य की खोज या आत्मचिंतन करने के बजाय, बहन वांग पर अपनी नज़रें टिकाये रखी, ताकि उनकी गलतियाँ ढूंढकर उनकी आलोचना कर सकूँ। मुझे पता था कि ऐसा करना सत्य को स्वीकारना नहीं कहा जाएगा।
उस रात मैंने इस बारे में थोड़ा सोच-विचार किया। बहन वांग का कहना था कि मैं एक झूठी अगुआ हूँ, मगर मैं इस बात को मान नहीं सकती थी। वैसे देखा जाए, तो क्या मैं असल में एक अच्छी और योग्य अगुआ हूँ? एक अगुआ को काम के हर पहलू की जानकारी होनी चाहिए और समस्याओं का पता चलते ही उन्हें हल करना चाहिए। मेरे ऊपर सुसमाचार के काम की ज़िम्मेदारी थी, इसलिए उस टीम को कोई भी समस्या आने पर मुझे फौरन उनकी व्यावहारिक मदद या मार्गदर्शन करना चाहिए। मगर मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। झूठा अगुआ तो वही होता है न, जो व्यावहारिक काम नहीं करता? बहन वांग की बात गलत नहीं थी। उनमें थोड़ी इंसानियत की कमी ज़रूर थी, लेकिन वो कोई बुरी इंसान नहीं थी। उन्हें अपने काम में सफलता मिलती थी, और वे काफी गुणी और काबिल भी थीं, इसलिए परमेश्वर के घर के काम के लिए वो अच्छी थीं। अगर मैंने निजी रंजिश के कारण उन्हें काम नहीं करने दिया या कलीसिया से निकाल दिया, तो इससे केवल बहन वांग को ही चोट नहीं पहुँचेगी, बल्कि परमेश्वर के घर के काम में भी रुकावट आएगी। ऐसा करके मैं परमेश्वर को नाराज़ नहीं करना चाहती। यह सोचकर उनके प्रति मेरी नाराजगी थोड़ी कम हो गई। मैंने इस बात पर भी विचार किया कि मैं कौन सा व्यावहारिक काम नहीं कर रही थी। मैंने उनकी बताई कमियों को दूर करना शुरू कर दिया और भाई-बहनों से उनकी परेशानियों को लेकर बात भी की। ऐसा करके मेरे मन को काफी सुकून मिला।
उस वक्त मुझे लगा कि सब कुछ पहले जैसा हो गया है, मगर कुछ दिनों बाद एक और बहन ने मुझसे कहा, "बहन वांग 40 से ज़्यादा लोगों की सभा में आपके झूठी अगुआ होने के लक्षणों के बारे में बात कर रही थीं।" ये सुनकर मेरा गुस्सा फिर से भड़क उठा, और मुझे लगा, बहन वांग ने इतने लोगों के सामने मुझे उजागर करके मेरा नाम मिट्टी में मिला दिया। अगर वो ऐसा ही करती रहीं तो मैं सबसे नज़रें कैसे मिला पाऊँगी? झूठी अगुआ होने के कारण मुझे बर्खास्त भी किया जा सकता है। मैं उन्हें दिखाना चाहती थी कि मैं कौन हूँ और वो क्या है, ताकि वो मुझे कोई सीधा-सादा और मामूली मेमना ना समझें! मैं उन्हें उनकी ही भाषा में जवाब दूँगी। अगर वो सच में सबके सामने मुझे उजागर करके मेरी छवि खराब करना चाहती हैं, तो मैं भी उनकी गलतियों के सबूत इकठ्ठा करके उन्हें अपने रास्ते से हटाने का मौका ढूंढूंगी। अगले कुछ दिनों तक मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर रहा, मैं अपने मान-सम्मान को बचाने और उनसे बदला लेने के बारे में सोचती रही। मैंने उनकी नई कलीसिया की अगुआ को बताया कि उनमें इंसानियत की कमी है और वो हमेशा अगुआओं और कर्मियों की पीठ पीछे बुराई करती रहती हैं, इसलिए उन्हें उनके बर्ताव पर नज़र रखनी चाहिए और जब भी वो दोबारा ऐसा कुछ करें तो फौरन उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए। यह सब कहने के बाद, मैं खुद को थोड़ी दोषी और अशांत महसूस करने लगी। मैंने सोचा, "मैं ये क्या कर रही हूँ? ये तो आँख के बदले आँख वाली बात हो गई, क्या ये दूसरों पर वार करके उन्हें अपने रास्ते से हटाना नहीं हुआ? परमेश्वर इससे मुझे क्या सीख देना चाहता है?" फिर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके इस बारे में जानने की कोशिश की।
इस दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया जिनमें उन मसीह विरोधियों को उजागर किया गया है जो खुद से असहमति रखने वालों को अलग कर देते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब कोई मसीह-विरोधी किसी विरोधी पर आक्रमण करके उसे निकाल देता है, तो उसका मुख्य उद्देश्य क्या होता है? वे लोग कलीसिया में एक ऐसी स्थिति पैदा करने का प्रयास करते हैं जहाँ उनकी आवाज के विरोध में कोई आवाज न उठे, जहाँ उनकी सत्ता, उनका शासन और उनके शब्द ही सर्वोपरि हों। हर कोई उन्हीं की बात माने और अगर किसी की राय अलग हो, तो उसे वे अपने पास ही रखें और वहीं खत्म कर दें। यह एक तकनीक है जिसे अपनी हैसियत को मजबूत करने के लिए वे लोग इस्तेमाल करते हैं जो विरोधियों पर हमला करते और उन्हें बहिष्कृत कर ते हैं। वे कहते हैं, 'तुम्हारी राय मुझसे अलग हो सकती है, लेकिन तुम उसके बारे में मनचाही बातें नहीं बना सकते, मेरी सत्ता और हैसियत को जोखिम में तो बिल्कुल नहीं डाल सकते। अगर कुछ कहना है, तो मुझसे अकेले में कह सकते हो। यदि तुम सबके सामने कहकर मुझे शर्मिंदा करोगे, तो डाँट खाओगे, और मुझे तुम्हारा ध्यान रखना पड़ेगा।' यह किस प्रकार का स्वभाव है? मसीह-विरोधी दूसरों को खुलकर नहीं बोलने देते। अगर उनकी कोई राय होती है—फिर वह चाहे मसीह-विरोधी के बारे में हो या किसी और चीज के बारे में—उन्हें उसे अपने तक ही सीमित रखना चाहिए; उन्हें मसीह-विरोधी के चेहरे के भावों का ख्याल रखना चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया, तो मसीह-विरोधी उन्हें शत्रु घोषित कर देगा, और उन पर आक्रमण कर उन्हें बाहर कर देगा। यह किस तरह की प्रकृति है? यह एक मसीह विरोधी की प्रकृति है। और वे ऐसा क्यों करते हैं? क्योंकि वे लोगों के मन में अपनी सत्ता और हैसियत को लगातार मजबूत करते रहना चाहते हैं और अपनी सत्ता और हैसियत को दृढ़ और अडिग बनाए रखना चाहते हैं। वे ऐसी कोई भी चीज बर्दाश्त नहीं करते जो एक अगुआ के रूप में उनके सम्मान, प्रतिष्ठा या हैसियत और मूल्य पर असर डाले या उसके खतरा बने। क्या यह मसीह-विरोधी की दुष्ट प्रकृति की अभिव्यक्ति नहीं है? वे पहले से मौजूद अपनी ताकत से संतुष्ट नहीं होते, वे उसे भी मजबूत और सुरक्षित बनाकर पूर्ण सत्ता चाहते हैं। वे केवल लोगों के व्यवहार को ही नियंत्रित नहीं करना चाहते, बल्कि उनके दिलों को भी नियंत्रित करना चाहते हैं। क्या उनके इस तरह के कृत्य सत्ता के लिए नहीं हैं—सत्ता की लालसा से प्रेरित और मार्गदर्शित नहीं हैं? ... ऐसा विशेष रूप से तब होता है जब कोई विरोधी मौजूद हो और मसीह-विरोधी को पता चल जाए कि -किसी विरोधी ने उसकी पीठ पीछे उसके बारे में कुछ कहा है या उसकी आलोचना की है। ऐसे मामले में, वे मामले को फौरन सुलझाएँगे, जब तक वे उसे निपटा नहीं देते, तब तक न तो उन्हें नींद आती है और न ही वे खाना खा पाते हैं। वे इतनी मेहनत कैसे कर पाते हैं? ऐसा इसलिए कर पाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनकी सत्ता को खतरा है और उनके नाम, लाभ और रुतबे को नुकसान पहुँचाया गया है। यदि उस व्यक्ति ने इस समस्या की सच्चाई बता दी, तो मसीह-विरोधी की छवि धूमिल हो सकती है। यदि यह खबर ऊपर तक पहुँच गयी या और भी भाई-बहनों के कानों तक पहुँच गयी, तो ऊपरवाला उन्हें हटा सकता है या भाई-बहन उन्हें बर्खास्त कर सकते हैं। उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया जा सकता है। इसी वजह से वे खुद को इतना खपाते और इतनी कीमत चुकाते हैं कि उनका खाना-पीना हराम हो जाता है, वे रात भर इस मामले पर संगति करते रहते हैं, या तब तक बक-बक करते रहते हैं जब तक कि उनका गला सूख न जाए। उनका उद्देश्य क्या होता है? उनका उद्देश्य अपनी स्थिति को मजबूत करना होता है। ऐसे लोगों के लिए पद ही उनकी जीवनशक्ति होता है। जैसे ही थोड़ी-सी भी भनक लगती है कि उनकी हैसियत खतरे में है, तो वे एकदम बेचैन और भयभीत हो जाते हैं—उन्हें डर होता है कि कल को अगर वे अगुआ न रहे, तो वे एक सामान्य भाई-बहन रह जाएँगे और रुतबे के कारण वे जिस श्रेष्ठ होने की भावना का सुख उठा रहे हैं, वह जाती रहेगी और वे उससे मिलने वाले लाभों से वंचित हो जाएँगे। फिर न तो कोई उनकी बात मानेगा, न उनका अनुसरण करेगा, कोई उनकी खुशामद नहीं करेगा और न ही कोई उनके अधीन होगा। यह उनके लिए बेहद असहनीय स्थिति होती है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे विरोधियों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं')। "किसी मसीह-विरोधी के लिए, विरोधी उसकी हैसियत और सत्ता के लिए खतरा होता है। कोई भी उनकी हैसियत और सत्ता के लिए खतरा बनता है, चाहे कोई भी हो, तो मसीह-विरोधी उसे ठिकाने लगाने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं; अगर उन पर नियंत्रण न किया जा सके या उन्हें अपने खेमे में शामिल न किया जा सके, तो मसीह-विरोधी उन्हें नीचा दिखाकर निकाल देंगे। अंतत:, मसीह-विरोधी पूर्ण सत्ता पाने का अपना मकसद हासिल कर ही लेंगे और खुद ही कानून बन जाएँगे। ये ऐसी कुछ तरकीबें हैं जिन्हें मसीह-विरोधी अपनी हैसियत बनाए रखने के लिए आदतन उपयोग में लाते हैं—वे विरोधियों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे विरोधियों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं')। परमेश्वर के मर्मभेदी वचनों से मैं काफी डर गई। मुझे इसका एहसास भी नहीं था कि मैंने अपने नाम और रुतबे के कारण किसी की निंदा करके उसे अलग करने की कोशिश की, मैं मसीह विरोधी जैसा दुष्ट काम कर रही थी। जब मुझे पता चला कि बहन वांग ने सबके सामने कहा था कि मैं व्यावहारिक काम नहीं करती, तो मैंने इसे परमेश्वर की इच्छा मानकर आत्मचिंतन करने की कोशिश नहीं की, ये सच है या नहीं, मैं इस बारे में सोचने के बजाय यही सोचती रही कि वे जानबूझकर मेरी पीठ पीछे बुराई कर रही हैं। इससे मेरे मान-सम्मान को ठेस पहुँची इसलिए मैं उनसे नफरत करने लगी और उन्हें अपना दुश्मन समझ बैठी, मैंने तो उनकी निंदा भी करनी चाही। फिर जब मुझे पता चला कि उन्होंने एक बड़ी सभा में मुझे उजागर किया है, तो मेरी नफरत उनके लिए और बढ़ गई। अपने मान-सम्मान और पद को बचाने के लिए, मैं उनके पुराने अपराधों के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर बातें करने लगी, ताकि दूसरों को उनमें अच्छी इंसानियत न दिखे और वे उन्हें ठुकरा दें। मैंने तो उनके कुछ अपराधों के बारे में जानकारी इकट्ठा कर उनकी अगुआ को भी सब बता दिया ताकि उन्हें निकाल दिया जाए। मैं ये अच्छे से जानती थी कि वे गुणी और काबिल हैं, अपने काम में भी वे ठीक ही थीं, उनका कलीसिया में रहकर अपना कर्तव्य निभाना अच्छा था। मैं ये भी जानती थी कि बहन वांग ने मेरी वास्तविक समस्याओं का ज़िक्र किया था, मगर इससे मेरे नाम और रुतबे पर बुरा असर पड़ रहा था, इसलिए मैं उन्हें अपने विरोधी, दुश्मन और मेरे पद पर मँडराते खतरे की तरह देखने लगी। मैं उनसे बदला लेना चाहती थी। मैंने देखा कि मेरी प्रकृति सचमुच दुष्ट है! फिर मैंने उन मसीह विरोधियों के बारे में सोचा जिन्हें परमेश्वर के घर से निकाल दिया गया था। वे सत्य की खोज नहीं करते थे, इसलिए जब भी कोई उनके रुतबे के लिए खतरा बनता, तो वे उनकी निंदा करते और सब पर राज करने के लिए कलीसिया को अपने राज्य में बदलने की कोशिश करते। अंत में इतने दुष्ट काम करने के कारण उन्हें कलीसिया से निकाल दिया गया। मेरा बर्ताव भी इन मसीह विरोधियों के बर्ताव से अलग नहीं था।
मैं निरंतर इस बात पर चिंतन करती रही कि इतने सालों तक विश्वासी होने के बाद भी, मैं खुद को मसीह विरोधी के मार्ग पर चलने और ऐसे बुरे काम करने से रोक क्यों नहीं सकी। फिर एक सभा में हमने "जो सच्चे हृदय से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे" पढ़ा। इसका एक अंश मेरे दिल को छू गया और तब जाकर मैं अपनी स्थिति को बेहतर समझ पाई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, इसलिए तुम्हें परमेश्वर के सभी वचनों और कार्यों में विश्वास रखना चाहिए। अर्थात्, चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, इसलिए तुम्हें उसका आज्ञापालन करना चाहिए। यदि तुम ऐसा नहीं कर पाते हो, तो यह मायने नहीं रखता कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो या नहीं। यदि तुमने वर्षों परमेश्वर में विश्वास रखा है, फिर भी न तो कभी उसका आज्ञापालन किया है, न ही उसके वचनों की समग्रता को स्वीकार किया है, बल्कि तुमने परमेश्वर को अपने आगे समर्पण करने और तुम्हारी धारणाओं के अनुसार कार्य करने को कहा है, तो तुम सबसे अधिक विद्रोही व्यक्ति हो, और गैर-विश्वासी हो। एक ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के कार्य और वचनों का पालन कैसे कर सकता है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं है? सबसे अधिक विद्रोही वे लोग होते हैं जो जानबूझकर परमेश्वर की अवहेलना और उसका विरोध करते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के शत्रु और मसीह विरोधी हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के नए कार्य के प्रति निरंतर शत्रुतापूर्ण रवैया रखते हैं, ऐसे व्यक्ति में कभी भी समर्पण का कोई भाव नहीं होता, न ही उसने कभी खुशी से समर्पण किया होता है या दीनता का भाव दिखाया है। ऐसे लोग दूसरों के सामने अपने आपको ऊँचा उठाते हैं और कभी किसी के आगे नहीं झुकते। परमेश्वर के सामने, ये लोग वचनों का उपदेश देने में स्वयं को सबसे ज़्यादा निपुण समझते हैं और दूसरों पर कार्य करने में अपने आपको सबसे अधिक कुशल समझते हैं। इनके कब्ज़े में जो 'खज़ाना' होता है, ये लोग उसे कभी नहीं छोड़ते, दूसरों को इसके बारे में उपदेश देने के लिए, अपने परिवार की पूजे जाने योग्य विरासत समझते हैं, और उन मूर्खों को उपदेश देने के लिए इनका उपयोग करते हैं जो उनकी पूजा करते हैं। कलीसिया में वास्तव में इस तरह के कुछ ऐसे लोग हैं। ये कहा जा सकता है कि वे 'अदम्य नायक' हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी परमेश्वर के घर में डेरा डाले हुए हैं। वे वचन (सिद्धांत) का उपदेश देना अपना सर्वोत्तम कर्तव्य समझते हैं। साल-दर-साल और पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे अपने 'पवित्र और अलंघनीय' कर्तव्य को पूरी प्रबलता से लागू करते रहते हैं। कोई उन्हें छूने का साहस नहीं करता; एक भी व्यक्ति खुलकर उनकी निंदा करने की हिम्मत नहीं दिखाता। वे परमेश्वर के घर में 'राजा' बनकर युगों-युगों तक बेकाबू होकर दूसरों पर अत्याचार करते चले आ रहे हैं। दुष्टात्माओं का यह झुंड संगठित होकर काम करने और मेरे कार्य का विध्वंस करने की कोशिश करता है; मैं इन जीती-जागती दुष्ट आत्माओं को अपनी आँखों के सामने कैसे अस्तित्व में बने रहने दे सकता हूँ? यहाँ तक कि आधा-अधूरा आज्ञापालन करने वाले लोग भी अंत तक नहीं चल सकते, फिर इन आततायियों की तो बात ही क्या है जिनके हृदय में थोड़ी-सी भी आज्ञाकारिता नहीं है! इंसान परमेश्वर के कार्य को आसानी से ग्रहण नहीं कर सकता। इंसान अपनी सारी ताक़त लगाकर भी थोड़ा-बहुत ही पा सकता है जिससे वो आखिरकार पूर्ण बनाया जा सके। फिर प्रधानदूत की संतानों का क्या, जो परमेश्वर के कार्य को नष्ट करने की कोशिश में लगी रहती हैं? क्या परमेश्वर द्वारा उन्हें ग्रहण करने की आशा और भी कम नहीं है?" (वचन देह में प्रकट होता है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी आँखें खोल दीं और मैं उसकी धार्मिकता और प्रतापी स्वभाव देख पाई। खास तौर पर ये अंश: "ऐसे लोग कभी किसी के आगे नहीं झुकते। ... कोई उन्हें छूने का साहस नहीं करता; एक भी व्यक्ति खुलकर उनकी निंदा करने की हिम्मत नहीं दिखाता। वे परमेश्वर के घर में 'राजा' बनकर युगों-युगों तक बेकाबू होकर दूसरों पर अत्याचार करते चले आ रहे हैं। दुष्टात्माओं का यह झुंड संगठित होकर काम करने और मेरे कार्य का विध्वंस करने की कोशिश करता है; मैं इन जीती-जागती दुष्ट आत्माओं को अपनी आँखों के सामने कैसे अस्तित्व में बने रहने दे सकता हूँ?" इस अंश ने तो मुझे और भी डरा दिया। जब बहन वांग ने मुझे झूठी अगुआ बताकर सबके सामने उजागर किया, तो मैंने इसका जवाब दुश्मनी, असंतोष, नाराजगी और प्रतिरोध के साथ दिया। मैंने गुस्से में आकर बुरी तरह से उनकी निंदा की। कलीसिया की अगुआ होने के बावजूद मैंने न तो सत्य को स्वीकारा और न ही मुझमें कोई समर्पण की भावना थी। जब किसी ने मेरी समस्याओं को उजागर किया, मेरे मान-सम्मान को ठेस पहुँचाई और मेरे पद पर आँच आई, तो मैंने उन्हें रोकने और उनसे बदला लेने के लिए हर तरीके आजमाये, यहाँ तक कि उनसे कर्तव्य निभाने का अधिकार छीनने और कलीसिया से निकलवाने की भी कोशिश की। मेरे अंदर यह दुर्भावनापूर्ण सोच थी कि जब तक मैं उन्हें पूरी तरह से बर्बाद नहीं कर देती, चैन से नहीं बैठूँगी। मैं परमेश्वर के घर की ऐसी "शासक" बन गयी थी जिससे पंगा लेने की हिम्मत किसी में नहीं थी। ये सीसीपी के राक्षसों और उन तानाशाहों से अलग कैसे है? उनका आदर्श वाक्य है, "जो मेरा अनुपालन करते हैं उन्हें फूलने-फलने दो और जो मेरा विरोध करते हैं उन्हें नष्ट होने दो।" अपनी सत्ता बनाये रखने और अपनी ताकत को बढ़ाने के लिए, सीसीपी अपने बुरे कर्मों से असहमति रखने वालों या उस पर उँगली उठाने वालों का उत्पीड़न करती है, उनका सब कुछ तहस-नहस करके उन्हें पूरी तरह मिटा देती है। जैसा कि उसने तियानमेन स्क्वेयर के प्रदर्शनकारियों और जातीय अल्पसंख्यकों के साथ किया था, विश्वासियों के साथ तो इससे भी बुरा किया जाता है : हमें गिरफ्तार करके सताया और हम पर अत्याचार किया जाता है। उन्होंने कितनी ही मासूम ज़िंदगियां तबाह कर दी हैं, परमेश्वर उन्हें धार्मिकता के अनुसार दंड ज़रूर देगा। मैंने अपने बारे में सोचा : मैंने बचपन से उन कम्युनिस्ट राक्षसों से यही शिक्षा प्राप्त की थी। "सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ," "जो मेरा अनुपालन करते हैं उन्हें फूलने-फलने दो और जो मेरा विरोध करते हैं उन्हें नष्ट होने दो," "अगर तुम निर्दयी हो, तो अन्यायी होने का दोष मुझ पर मत डालो," "आँख के बदले आँख, दांत के बदले दांत।" ऐसे शैतानी ज़हर मेरे मन में गहराई तक जड़ें जमाकर बैठ गये थे और मेरे जीवन के नियम बन गए थे, जिन्होंने मुझे बहुत अहंकारी और दुष्ट बना दिया। चूंकि मैं इन नियमों के अनुसार जी रही थी, इसलिए मेरा दूसरों के साथ बुरा बर्ताव करना, उन्हें सताना और चोट पहुँचाना ज़ाहिर था। मैंने उन सभी सत्यों के बारे में भी सोचा जो परमेश्वर ने झूठे अगुआओं को पहचानने के लिए व्यक्त किये हैं, मगर मैंने कभी इन पर ध्यान नहीं दिया या कभी इस बारे में विचार नहीं किया कि मैं एक झूठी अगुआ क्यों हूँ। अब सत्य को जानकर हर किसी की आँखें खुल रही हैं, इसलिए कुछ लोग झूठे अगुआओं को उजागर कर उनकी शिकायत कर रहे हैं। यह सत्य का अभ्यास करके कलीसिया के कार्य की रक्षा करना है—ये एक अच्छा काम है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुझे उजागर करने वाला इंसान कैसा है, कहीं वो जानबूझकर मुझे निशाना तो नहीं बना रहा, भले ही वो मेरे सामने मेरी आलोचना करे या मेरी पीठ पीछे, अगर उसकी बात सत्य है, तो मुझे परमेश्वर की इच्छा मानकर स्वीकार करना चाहिए, और उसे स्वीकार करके, उसके प्रति समर्पित होकर उससे सीख लेनी चाहिए। यह सत्य को स्वीकार करके परमेश्वर के प्रति समर्पित होना कहलाता है। लेकिन जहाँ तक मेरी बात है, मैंने न सिर्फ समर्पण करने से इनकार किया, बल्कि मुझे उजागर करने वाले की निंदा भी करने लगी। इसके पीछे कोई निजी रंजिश नहीं थी, बल्कि मैं सिर्फ सत्य को ठुकराकर परमेश्वर का विरोध कर रही थी। इसका एहसास होने पर, मुझे खुद से नफ़रत होने लगी और काफी डर गई। मैंने फौरन परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना और पश्चाताप किया : "परमेश्वर, मैं गलत थी। मुझे उजागर किये जाने पर, मैं आत्मचिंतन करके कोई सीख लेने के बजाय, उनसे बदला लेने लगी। मैं जान गई हूँ कि मेरी प्रकृति वाकई दुष्ट है। परमेश्वर, मैं तुम्हारे सामने पश्चाताप करना चाहती हूँ। मुझे राह दिखाओ।"
मैंने बहन वांग की बातों को ध्यान में रखकर आत्मचिंतन किया और अपने काम की अच्छे से जांच-पड़ताल करने लगी। मुझे पता चला कि काम में वाकई काफी समस्याएँ थीं। जैसे कि जो लोग सुसमाचार की टीम में नये थे वे अवलोकन के सत्य के बारे में नहीं जानते थे, इसलिए वे प्रवचन देते वक्त उन लोगों की धारणाओं और परेशानियों को हल नहीं कर पा रहे थे। कुछ लोगों को सुसमाचार के काम के सिद्धांतों की कोई समझ नहीं थी, इसलिए गलत लोगों का मत-परिवर्तन किया जा रहा था। कुछ सदस्य काफी समय तक सिंचन के बावजूद सत्य को बिल्कुल नहीं समझ पा रहे थे, कुछ को तो सत्य जानने में दिलचस्पी ही नहीं थी और वो छोड़कर चले गए। इससे हमारे संसाधनों की बर्बादी हुई। मैंने एक सभा में इन समस्याओं को उठाया और सब कुछ ठीक करने के लिए सिद्धांतों पर सहभागिता की। सभी भाई-बहन अवलोकन के सत्य को जानने के लिए अलग-अलग तरह से योजनाएं बनाने लगे, जब उन्हें कुछ समझ नहीं आता या किसी चीज़ पर वे स्पष्ट रूप से सहभागिता नहीं कर पाते तो हम साथ मिलकर सहभागिता करते। जल्द ही, अवलोकन के सत्य को लेकर उनकी समझ स्पष्ट हो गई और हमारी टीम ज़्यादा सफल होने लगी। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ने बहन वांग के ज़रिये मुझे झूठी अगुआ के रूप में उजागर करके मेरे व्यावहारिक काम ना करने पर उँगली इसलिए उठाई ताकि मैं खुद पर विचार करूँ और अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकूँ। परमेश्वर मेरी रक्षा कर रहा था।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के एक और अंश के बारे में सोचा। "परमेश्वर हर एक व्यक्ति में कार्य करता है, और इससे फर्क नहीं पड़ता है कि उसकी विधि क्या है, सेवा करने के लिए वो किस प्रकार के लोगों, चीज़ों या मामलों का प्रयोग करता है, या उसकी बातों का लहजा कैसा है, परमेश्वर का केवल एक ही अंतिम लक्ष्य होता है : तुम्हें बचाना। तुम्हें बचाने से पहले, उसे तुम्हें रूपांतरित करना है, तो तुम थोड़ी-सी पीड़ा कैसे नहीं सह सकते? तुम्हें पीड़ा तो सहनी होगी। इस पीड़ा में कई चीजें शामिल हो सकती हैं। कभी-कभी परमेश्वर तुम्हारे आसपास के लोगों, मामलों, और चीज़ों को उठाता है, ताकि तुम खुद को जान सको या फिर सीधे तुम्हारे साथ निपटा जा सके, तुम्हारी काट-छाँट करके तुम्हें उजागर किया जा सके। ऑपरेशन की मेज़ पर पड़े किसी व्यक्ति की तरह—पीड़ा सहकर ही अच्छे हासिल किए जा सकते हैं। यदि जब भी तुम्हारी काट-छाँट होती है और तुमसे निपटा जाता है और जब भी वह लोगों, मामलों, और चीज़ों को उठाता है, इससे तुम्हारी भावनाएँ जागती हैं और तुम्हारे अंदर जोश पैदा होता है, तो इस प्रक्रिया से तुम्हारा आध्यात्मिक कद होगा और तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करोगे। ... यदि परमेश्वर तुम्हारे लिए विशेष परिवेशों, लोगों, चीज़ों और वस्तुओं की व्यवस्था करता है, यदि वह तुम्हारी काट-छाँट और तुम्हारे साथ व्यवहार करता है और यदि तुम इससे सबक सीखते हो, यदि तुमने परमेश्वर के सामने आना सीख लिया है, तुमने सत्य की तलाश करना सीख लिया है, अनजाने में, प्रबुद्ध और रोशन हुए हो और तुमने सत्य को प्राप्त कर लिया है, यदि तुमने इन परिवेशों में बदलाव का अनुभव किया है, पुरस्कार प्राप्त किए हैं और प्रगति की है, यदि तुम परमेश्वर की इच्छा की थोड़ी-सी समझ प्राप्त करना शुरू कर देते हो और शिकायत करना बंद कर देते हो, तो इन सबका मतलब यह होगा कि तुम इन परिवेशों के परीक्षण के बीच में अडिग रहे हो, और तुमने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। इस तरह से तुमने इस कठिन परीक्षा को पार कर लिया होगा। इम्तिहान में खरे उतरने वालों को परमेश्वर किस नज़र से देखेगा? परमेश्वर कहेगा कि उनका हृदय सच्चा है, कि वे इस तरह के कष्ट सहन कर सकते हैं और गहराई में, वे सत्य से प्रेम करते हैं और सत्य को चाहते हैं। अगर परमेश्वर का तुम्हारे बारे में ऐसा आकलन है, तो क्या तुम कद-काठी वाले नहीं हो? फिर क्या तुम में जीवन नहीं है? और यह जीवन कैसे प्राप्त हुआ है? क्या यह परमेश्वर द्वारा प्रदत्त है? परमेश्वर तुम्हें कई तरह से आपूर्ति करता है और तुम्हें प्रशिक्षित करने के लिए विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का इस्तेमाल करता है। यह बिल्कुल ऐसा जैसे परमेश्वर खुद तुम्हें भोजन और जल प्रदान कर रहा हो और तुम्हें खिलाने के लिए पात्र मुँह तक ला रहा हो; और तुम्हें आनंदित कर रहा हो, तभी तुम मजबूती से खड़े हो सकते हो। इसी तरह से तुम्हें चीजों को देखना और समझना चाहिए; इसी तरह से तुम्हें परमेश्वर के पास से आने वाली हर चीज के प्रति समर्पित होना चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें अपने आसपास के लोगों, विषयों और चीज़ों से सीखना ही चाहिए')। इन सबसे मैंने गहराई से यह अनुभव किया कि परमेश्वर बहन वांग के ज़रिये मेरे कर्तव्य में आनेवाली समस्याओं को उजागर कर रहा था। इसे स्वीकारना मेरे लिए आसान नहीं था, मगर ये मेरे जीवन प्रवेश के लिए बहुत फायदेमंद रहा। इस तरह निपटारा किये जाने पर, मैं अपने अंदर छिपे उन सभी लक्षणों को समझ पाई जो एक झूठे अगुआ में होते हैं, इससे मुझे सत्य की खोज करने और खुद को बदलने की प्रेरणा मिली। इतना ही नहीं, मैं अपनी उस अहंकारी, दुष्ट प्रकृति को भी देख पाई जिसने मुझे अपने नाम और रुतबे को बचाने के लिए किसी को सबसे अलग करने पर मजबूर कर दिया था। यह देखकर मैं सत्य की खोज करने और अपनी भ्रष्टता को त्याग कर शुद्ध होने में सफल हुई। यह मुझ पर परमेश्वर का विशेष अनुग्रह, प्रेम और उद्धार था। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ!
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